गुरुवार, 26 मई 2016

अच्छा हुआ जो राजनीति में नहीं रहा

मैंने पटना के विधायक आवास के कमरे में प्रवेश किया ही था कि एक समाजवादी ‘नेता जी’ ने सामने से मेरी गर्दन को मजबूती से पकड़ा और धकेलते हुए झटके में बाहर कर दिया।

 वह ‘गर्दनिया पासपोर्ट’ ही मुख्य कारण बना सक्रिय राजनीति से मेरे ‘निष्कासन’ का। इस घटना को अपने लिए मैं वरदान मानता हूं। पर,यह घटना राजनीतिक कार्यकर्ताओं की पीड़ा भी बयान करती है। इस पर अलग से देश के राजनीतिक नेताओं को विचार करना चाहिए।

 राजनीति से निकल जाने का फैसला तो खैर मेरा अपना था। पर उस नेता जी का ऐसा कोई उद्देश्य शायद नहीं रहा होगा। अधिकतर नेताओं की तरह वे भी बस यही चाहते थे कि मेरे जैसे छोटे राजनीतिक कार्यकर्ता इसी तरह का सलूक झेलते रहें। फिर भी कार्यकर्ता की तरह खटते रहें।

 संभवतः यह 1970 की बात रही होगी।

 उससे पहले मैं डा. राम मनोहर लोहिया के विचारों से प्रभावित होकर 1966 में राजनीति में आया था। बिहार में कांग्रेस सरकार के खिलाफ एक बड़े छात्र आंदोलन में शामिल रहने के कारण मेरी बी.एससी. की परीक्षा भी छूट गयी।

बाद में यानी 1971 में मैंने बी.ए. पास किया।

लोहिया के मुख्य विचार थे कि सवर्ण लोग खासकर समाजवादी पार्टी के सवर्ण लोग पिछड़ों को हर क्षेत्र में आगे बढ़ाने के क्रम में खुद को खाद बनाएं। लोहिया  पिछड़ों के लिए साठ प्रतिशत की हिस्सेदारी देने के पक्षधर थे। सवर्ण पृष्ठभूमि से आने के कारण लोहियावादी राजनीति में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति की वैसे भी मेरे लिए बहुत कम ही गंुजाइश थी। इसके बावजूद लोहियावादी राजनीति से जुड़ा क्योंकि मेरी कोई व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वाकांक्षा थी ही नहीं।

 सन 1963 में मैंने साइंस से मैट्रिक प्रथम श्रेणी में पास किया था। तब सिर्फ माक्र्स के आधार पर ही तीसरी श्रेणी की सरकारी नौकरी मिल जाती थी। मेरे जैसे एक किसान के बेटे के लिए यह स्वाभाविक ही था कि उसके पिता यह चाहें कि वह जल्द से जल्द कोई पक्की यानी सरकारी नौकरी पकड़ ले।

पर मैंने तय किया था कि न तो मैं शादी करूंगा और न ही नौकरी। मुझसे उम्मीद पाले बाबू जी को भी मैंने कह दिया था कि मुझे पुश्तैनी संपत्ति में कोई हिस्सेदारी नहीं चाहिए।

राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में अब काम करूंगा। मैं परिवार को कोई आर्थिक मदद नहीं कर पाऊंगा। तब एक भोली आशा थी कि डा. लोहिया के नेतृत्व में देश में एक न एक दिन समाजवाद आएगा। एक बेहतर समाज बनेगा। उस काम में मेरा भी थोड़ा योगदान होना चाहिए।

 विधायक बनने, पैसे कमाने या फिर अखबारों में नाम छपवाने की कोई चाहत तो कत्तई नंहीं थी। अपनी पढ़ाई के बारे में भी एक कारणवश बताया। मैं उन लोगों में भी नहीं था जिन्हें कहीं कोई नौकरी नहीं मिलती थी तो राजनीतिक कार्यकत्र्ता बन जाते थे।

 तब मैं छात्र होने के कारण बिहार के विश्वविद्यालय परिसरों में जाकर  लोहियावादी समाजवादी विचारधारा का प्रचार करता था और समाजवादी संगठन में छात्रों को शामिल करता था। शामिल होने वालों में से एक तो बाद में राजनीति में काफी ऊपर उठे।

  उन दिनों ‘दिनमान’ एक अत्यंत प्रतिष्ठित पत्रिका थी। समाजवादियों की चहेती पत्रिका। उसमें संपादक के नाम पत्र छप जाने पर भी कोई राजनीतिक कार्यकत्र्ता देश भर के समाजवादियों के बीच जाना जाने लगता था। तब मैं सुरेंद्र अकेला के नाम से पत्र लिखता था। दिनमान में 1968 में मेरा इसी नाम से पहला पत्र छपा था। मैं डा. लोहिया और दिनमान के संपादक अज्ञेय को व्यक्तिगत चिट्ठियां भी लिखता था। उन लोगों ने जवाब भी दिए थे। छात्र जीवन में ही समाजवादी पत्रिकाओं में भी मैं पत्र और लेख लिखा करता था।

 यह सब मैं इसलिए बता रहा हूं क्योंकि एक समझदार कार्यकत्र्ता बनने की पृष्ठभूमि मुझमें मौजूद थे।

  उस नेता जी के साथ भी यदाकदा बैठकर मैं राजनीतिक चर्चा किया करता था। इसके बावजूद उन्होंने मेरे साथ यह सलूक किया। पटना के विधायक आवास में वे मुझे पीछे से नहीं बल्कि सामने से गर्दन पकड़ कर ढकेल रहे थे। मेरे गिर जाने का भी पूरा खतरा था। गिरने पर सिर के पिछले हिस्से में गंभीर चोट लगने का खतरा था। पिछले हिस्से की चोट कभी-कभी मारक भी होती है।

 पर उनके गुस्से का एक ठोस कारण था। उनके कमरे में मेरे प्रवेश से उस समाजवादी विधायक की नींद में खलल पड़ सकती थी जिसके साथ नेताजी रहते थे। नेता जी उस विधायक के स्थायी अतिथि थे। नेता जी राज्य स्तर के बड़े समाजवादी नेता थे। 

नेता जी ने एक बार भोजन के लिए मुझे दो रुपए दिए थे। तब पटना की विधायक काॅलानी में दस आने में भर पेट भोजन मिल जाता था। शायद नेता जी को यह लगा होगा कि मैं एक बार फिर रुपए के लिए तो नहीं आ गया! हालांकि मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था।

वैसे मुझे याद नहीं है कि पिछली बार उन्होंने जो दो रुपए दिए थे, वे मेरे मांगने के बाद या खुद उन्होंने अपनी पहल पर दी थी। राजनीतिक चंदा देने वाले धनपतियों से वे संबंध रखते थे। यह और बात है कि उन दिनों समाजवादी नेताओं को बहुत कम पैसे चंदा के रूप में मिलते थे।  

 कुल मिलाकर इस प्रकरण से मुझे यह लग गया कि एक ऐसे कार्यकर्ता की समाजवादी दल मेंें क्या स्थिति है जिसके पास खुद के पैसे नहीं हैं। दूसरी बात यह कि जो नेता दो रुपए देगा, वह किस तरह एक कार्यकर्ता के साथ बर्ताव करेगा।

 मेरे मीठे स्वाभाव के कारण उस नेता जी को यह मालूम होना चाहिए था कि   यदि उस दिन उन्होंने अपने हाथ से धीरे से इशारा भी कर दिया होता तो मैं उस कमरे में दरवाजे से ही लौट जाता। पर वे समझते थे कि उन्हें किसी कार्यकर्ता की  गर्दन में हाथ लगा देने का भी पूरा अधिकार है।

 उसी दिन मैंने फैसला किया कि अब मैं आर्थिक रूप में स्वावलंबी बनने की कोशिश करूंगा और शादी करके घर भी बसाऊंगा। वैसे भी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता डा. लोहिया का इस बीच निधन हो चुका था। लोहिया  कार्यकर्ताओं की उम्मीद की किरण थे।

  अंततः मैंने पत्रकारिता को जीविका का साधन बनाने का फैसला किया। हालांकि इस बीच कुछ अन्य घटनाएं भी हुई जिसकी चर्चा फिर कभी। पहले छोटे अखबार और बाद में बड़े अखबारों में रहा।

अब जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो मैं उस नेता जी को धन्यवाद ही देता हूं जिन्होंने समय रहते मेरी आंखें खोल दीं थी। एक बेहतर समाज बनाने की कोशिश की दिशा में एक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में जितना प्रयास मैं कर सकता था, उससे बेहतर प्रयास एक पत्रकार के रूप में करने की मैंने कोशिश की। इसका मुझे संतोष है।

 कई बार विफल प्रेमी, कवि बन जाता है। विफल साहित्यकार आलोचक। और, विफल राजनीतिक कार्यकर्ता पत्रकार बन जाता है।

 मैं तीसरी श्रेणी में खुद को पा कर खुश हूं।

 पत्रकारिता जीविका के साथ-साथ एक सामाजिक काम भी है। सत्तर के दशक में मैं साप्ताहिक लोकमुख, और ‘जनता’ (पटना) तथा प्रतिपक्ष (नई दिल्ली) के लिए काम करता रहा। साथ ही बड़े अखबारों में नौकरी खोजता रहा। पर, कई कारणों से यह खोज लंबी चली।

 यह खोज 1977 में ही पूरी हो सकी जब दैनिक ‘आज’ में मेरी पक्की नौकरी हुई।  हालांकि सक्रिय राजनीति से मन उचट जाने का वही एक कारण नहीं था जिसकी चर्चा मैंने ऊपर की है। उससे पहले की दो अन्य घटनाएं भी मन पर छाई हुई थीं।

इस बार एक अन्य समाजवादी नेता के बारे मंे। उनके पटना स्थित आवास में मैं अक्सर जाया करता था। लंबी चर्चाएं होती थीं।

  एक दिन गपशप में देर शाम हो गयी। नेता जी ने अपने पुत्र से कहा कि ‘सुरेन्दर भी खाना खाएगा। मछली बनी है। इस गरीब को मछली और कहां मिलेगी?’

 एक राजनीतिक कार्यकर्ता सह बुद्धिजीवी के साथ ऐसा सलूक मुझे बहुत बुरा लगा। दरअसल नेता जी यह बात नहीं जानते थे कि मेरे जन्म के समय मेरे पिता जी 22 बीघा जमीन के मालिक थे। दो बैल, दो गाय और एक भैंस। लघुत्तम जमींदार थे और एक बड़े जमींदार के तहसीलदार थे। यदि नहीं जानते थे तौभी किसी गरीब कार्यकर्ता की गरीबी का ऐसा उपहास!

मेरे घर में दो नौकर थे। जमींदारी पृष्ठभूमि के कारण पास की नदी में मछली मारने वाले मुफ्त में मछली पहुंचाते थे। मेरे परिवार में मांस-मछली से लगभग परहेज था। इसलिए हमलोग अन्य लोगों में मछली बांट देते थे या नौकर -मजदूर खाते थे।

 दूसरी ओर इस नेता जी का जब जन्म हुआ था, तब उनका परिवार लगभग भूमिहीन था। समय बीतने के साथ नेता जी अमीर होते चले गये और मेरे परिवार की जमीन में से इस बीच 12 बीघा बिक गयी।

यहां दरअसल मैं राजनीतिक दलों खास कर मध्यमार्गी दलों के कार्यकर्ताओं की बेबसी का विवरण पेश करने के लिए अपनी यह कहानी लिख रहा हूं। ऐसा सिर्फ मेरे ही साथ थोड़े ही हुआ होगा! 

वाम दलों में पूर्णकालिक कार्यकर्ता के जीवन यापन का दल की ओर से प्रबंध रहता था। आजादी की लड़ाई के दिनों और उसके कुछ साल बाद तक जयप्रकाश नारायण अपने दल के कुछ चुने हुए अच्छे कार्यकर्ताओं के लिए तीस रुपए माहवार का इंतजाम करते थे।

ऐसे कार्यकर्ताओं में से कुछ लोग बाद में केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री और राज्य में मंत्री भी बने।

  अपवादों को छोड़ दें तो अब अधिकतर राजनीतिक कार्यकर्तागण सांसद -विधायक फंड के ठेकेदार हैं। या घर के जायज -नाजायज पैसे खर्च कर विधायक सांसद मंत्री बनने के लिए कार्यकर्ता बन रहे हैं।

 देश सेवा और समाज सेवा का कहीं कोई जुनून है भी तो वह अपवाद है। अपवाद से देश नहीं चलता। इसलिए देश जैसे चल रहा है,उसका तो भगवान ही मालिक है।

 गायत्री परिवार के मुखिया डा. प्रणव पण्डया ने राज्यसभा की सदस्यता ठुकराते समय जो कुछ कहा, क्या उससे भी इस देश की राजनीति कुछ सीखेगी ? एक गरिमापूर्ण सदन को नेताओं ने ऐसा बना रखा है कि प्रणव पण्डया को यह कहना पड़ता है कि मैं तो वहां अपनी बात रख ही नहीं पाऊंगा। 

 अपनी तीसरी कहानी सुनाकर राजनीतिक कार्यकर्ताओं की पीड़ा की बात खत्म करूंगा।

 बिहार के सारण जिले के एक सुदूर देहात के डाकबंगला में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की बैठक हो रही थी। पार्टी का सम्मेलन चाहे अंचल मुख्यालय में हो या देश के किसी अन्य हिस्से में, मैं वहां जरूर जाता था। समाजवादी पत्रिकाओं के जरिए देश भर के हिंदीभाषी समाजवादी मुझे जानते ही थे। उनसे मिलकर अच्छा लगता  था।
अब बात सारण के उस डाकबंगले की।

एक समाजवादी नेता पहली बार विधायक बने थे। उनके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। उनके बोल चाल और हाव भाव से यह साफ लग रहा था कि वे रातोंरात समाजवादी से सामंतवादी बन चुके हैं।

 जब विधायक जी उस डाकबंगले के शौचालय से निकल रहे थे तो मैं संयोग से उनके सामने पड़ गया। उनसे मेरी कोई खास निकटता भी नहीं थी। क्योंकि सोचने समझने और पढ़ने लिखने से उनका नाता कम ही था। उन्होंने बिना किसी संकोच के कहा, ‘अकेला, जरा पखाना में एक बाल्टी पानी डाल देना।’

 मैंने पानी जरूर डाल दिया, पर सोचा कि विधायक जी कोई कट्टर गांधीवादी तो हैं नहीं जो शौचालय खुद ही साफ करते हैं। दरअसल ये सामंती हो चुके हैं। और उनकी नजर में एक पढ़ने लिखने वाले कार्यकर्ता का यही सही उपयोग है।

याद रहे कि जो व्यक्ति खुद शौचालय साफ नहीं करता, उसे दूसरे से कहने का अधिकार नहीं होना चाहिए। इन उदाहरणों से यह तो पता चल ही गया होगा कि  वास्तविक और समझदार राजनीतिक कार्यकर्ताओं को किस तरह दरकिनार और निरुत्साहित किया गया।

 नतीजतन अपवादों को छोड़ दें तो मध्यमार्गी राजनीतिक दलों में आज कैसे-कैसे कार्यकर्ता और नेता हैं! यदि उपर्युक्त व्यवहार झेलने के बावजूद यदि मैं राजनीतिक कार्यकर्ता बना रह गया होता तो आज मेरा हाल क्या होता ? !

 कल्पना करके ही डर जाता हूं। अच्छा हुआ कि गर्दनिया पासपोर्ट देकर अनजाने में ही एक नेताजी ने एक बेहतर काम मंे मुझे ढकेल दिया।

 मेरी रुझान और प्रवृत्ति देख कर किसी संपादक ने मुझ पर कभी किसी ऐसे काम के लिए दबाव नहीं बनाया जिसे मैं करना नहीं चाहता। यानी राजनीति की अपेक्षा पत्रकारिता ने मुझे अधिक संतुष्टि दी।

कुल मिलाकर यह बात कहनी चाहिए कि इस देश की राजनीति मौजूदा संसद को ऐसी गरिमायुक्त और शालीन बनाए जिसमें डा. पण्डया जैसे लोग अपनी बात रख सकें। साथ ही राजनीति को हर स्तर पर ऐसा बनाया जाए जिसमें एक व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाविहीन कोई कार्यकर्ता रहकर सेवा का काम कर सके। क्या ऐसा कभी हो पाएगा ? 
(14 मई 2016  के हिंदी दैनिक ‘नया इंडिया’ में प्रकाशित)  

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