बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

राम एकबाल बरसी जैसे नेता अब पैदा नहीं होते

डाॅ. राम मनोहर लोहिया ने कभी राम एकबाल सिंह को ‘पीरो का गांधी’ कहा था। डाॅ. लोहिया ऐसे नेता थे जो न तो अपनी चापलूसी सुनना चाहते थे और न ही किसी को महज खुश करने के लिए ऐसा कोई नाम देते थे।

 जो लोग लोहिया को जानते रहे हैं, उन लोगों ने यह मान लिया था कि यदि लोहिया ने राम एकबाल जी को ‘पीरो का गांधी’ कहा था तो जरूर राम एकबाल जी में ऐसी कोई विशेष बात होगी। बात थी भी। राम एकबाल जी एक अनोखे नेता थे। समाजवादी आंदोलन के लोग राम एक बाल जी को आदर की दृष्टि से देखते थे। वैसे इसके कुछ लोग अपवाद भी थे।

 यह अकारण नहीं था कि हाल में जब पटना के अस्पताल में इलाज के लिए राम एकबाल जी को लाया गया तो लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दोनों उन्हें देखने के लिए वहां गये। ऐसा कम होता है।

  यह भी संयोग ही रहा कि राम एकबाल जी का निधन उसी महीने में हुआ जिस अक्तूबर में राम मनोहर लोहिया का 1967 में निधन हुआ था।

 समाजवादी नेता राम एकबाल सिंह 1969 में पीरो से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर विधायक चुने गये थे।  1972 में भी वह पीरो से ही चुनाव लड़े, पर उनका तीसरा स्थान रहा। उसके बाद उन्होंने कोई चुनाव नहीं लड़ा।

 1977 में उन्हें जनता पार्टी का टिकट आॅफर किया गया था। पर उन्होंने चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था। उनकी जगह रघुपति गोप को टिकट मिला और वह जीते भी। जनता पार्टी का टिकट उन दिनों जीत की गारंटी माना जाता था। इसके बावजूद राम एकबाल ने तब कह दिया था कि एक ही व्यक्ति बार -बार चुनाव क्यों लड़ेगा ? कोई और लड़े।

 1977 में ही बिहार विधानसभा से पहले लोकसभा का चुनाव हो चुका था। बिहार की सभी 54 लोस सीटें जनता पार्टी को मिल चुकी थीं। इसके बावजूद जनता पार्टी का टिकट अस्वीकार करने का काम कोई आदर्शवादी व्यक्ति ही कर सकता था। राम एकबाल जी आदर्शवादी थे भी।

बाद के दिनों में राम एकबाल जी ने अपने नाम के आगे से सिंह शब्द हटाकर उसकी जगह बरसी जोड़ लिया था। बरसी उनके गांव का नाम है। यह नाम उनके साथ अंत तक रहा।

 आदर्शवादी तो ऐसे थे कि एक समाजवादी मित्र की लड़की की शादी में हसुआ और खुरपी लेकर चले गये थे। नब्बे के दशक की बात है। उनके मित्र पटना के लोहिया नगर में रहते हैं। राम एकबाल जी के पास वर-बधू को देने के लिए यही उपहार था। मित्र से कहा कि नवजीवन शुरू करने वाले दंपत्ति थोड़ा खेती भी करें।

 वह कभी -कभी थोड़ा कटु भी बोलते थे। पर उनकी बोली का उनके परिचित मित्र बुरा नहीं मानते थे। साठ के दशक में मैं उनसे मिला था। संसोपा के सम्मेलनों में उन्हें देखता था। विधायक के रूप में भी उनकी भूमिका करीब से देखी।

सब जगह निर्भीक, स्पष्टवादी और अपने विचारों पर अडिग।

कमजोर वर्ग उनकी राजनीति के कंेद्र में होता था। मेरे जानते उनमें निजी स्वार्थ की भावना कतई नहीं थी। संभवतः इसलिए भी किसी भी बड़ी हस्ती से बहस करने और लड़ लेने की ताकत थी उनमें। अपने दल के अंदर और पार्टी के बाहर भी।

डाॅ. लोहिया कहा करते थे कि सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं की वाणी स्वतंत्र रहनी चाहिए, पर उनमें कर्म की प्रतिबद्धता भी होनी चाहिए। लोहिया के नहीं रहने बाद भी लोहियावादी राम एकबाल जी इसका पालन करते थे। उन्होंने एक बार मुझसे कहा था कि मैं दो सौ साल जीना चाहता हूं। बहुत काम करने हैं। इसके लिए वह प्रयत्नशील भी रहते थे।

दो सौ साल जीना तो असंभव है। पर उन्होंने ऊंचा लक्ष्य रखा तो 94 साल जीए।

राजनीतिक कार्यकर्ता के जीवन में दौड़-धूप काफी रहती है। संयम और उचित खानपान के लिए जो साधन, समय और स्थान चाहिए, उसका अभाव ही रहा होगा। फिर भी इतना जीना बड़ी बात है।

  एक बार उन्होंने निश्चय किया था कि एक खास कालावधि में वह पक्की सड़क पर पांव तक नहीं रखेंगे।
इसका उन्होंने लंबे समय तक भी पालन किया। पिता की सेवा के लिए वह लंबे समय तक गांव में ही रहे। इस तरह के कई असामान्य काम थे जो उन्होंने किए।

राम एकबाल बरसी जैसे राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता-नेता शायद उसी युग में पैदा होते थे जब राम एकबाल पैदा हुए थे। अब इस मामले में यह भूमि बंजर सी हो चुकी है। इसलिए भी वे अनेक लोगों को याद आते रहेंगे।

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