शनिवार, 22 जुलाई 2017

भ्रष्टाचार को क्यों बनने दिया गया लोकतंत्र की अपरिहार्य उपज

महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘भ्रष्टाचार और पाखण्ड को लोकतंत्र की अपरिहार्य उपज नहीं बनने दिया जाना चाहिए जैसा कि आज हो गया है।’ आजादी के तत्काल बाद सरकारों में जो कुछ हो रहा था, उससे महात्मा गांधी चिंतित थे। उन्होंने भ्रष्टाचार की शिकायतें मिलने पर बिहार के एक कैबिनेट मंत्री को पदच्युत कर देने की सलाह दी थी। पर उनकी बात नहीं मानी गयी।

1967 के आम चुनाव में बिहार में कांग्रेस की पहली बार पराजय हुई थी। उस पराजय के लिए जिम्मेवार नेताओं में उस खास नेता के भ्रष्टाचरण का सबसे बड़ा ‘योगदान’ बताया गया।

आजादी के तत्काल बाद प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि ‘भ्रष्टाचारियों को नजदीक के लैम्प पोस्ट से लटका दिया जाना चाहिए।’ नेहरू ने इसकी जरूरत समझी होगी तभी तो कहा होगा। पर यह काम भी वह नहीं कर सके। भ्रष्ट लोग फलते-फूलते गये।

पहले भ्रष्ट लोग ‘अंडे’ से अपना काम चला लेते थे। बाद में ‘मुर्गी’ को ही मार कर खाने लगे। समय बीतने के साथ सरकारी पैसों की इतनी लूट होने लगी कि टिकाऊ संरचना बनना भी कठिन होने लगा। अब तो देश में ‘प्राक्कलन घोटाले’ का दौर है।

प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव गांधी ने कहा था कि ‘सत्ता के दलालों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।’ राजीव ने सत्ता के दलालों का वर्चस्व देखा होगा तभी तो कहा होगा। पर दलालों के खिलाफ भी कार्रवाई नहीं हो सकी। उल्टे विडंबना यह रही कि बोफर्स दलाली के शोर के बीच ही 1989 के चुनाव में केंद्र में कांग्रेस की सरकार की पराजय हो गयी। 1991-1996 की नरसिंह राव की सरकार अल्पमत की  सरकार थी। बाद के वर्षों में कभी कांग्रेस को लोकसभा में अपना बहुमत नहीं हुआ। समय बीतने के साथ स्थिति बिगड़ती चली गयी। इसी पृष्ठभूमि में सन 2003 में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे.एम. लिंगदोह ने कह दिया था कि ‘राजनेता कैंसर हैं जिनका इलाज अब संभव नहीं।’ तब अनेक लोग लिंगदोह से असहमत थे। पर यह जरूर मानने लगे थे कि चीजें तेजी से बिगड़ रही हैं।

राज्यसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता मनमोहन सिंह ने 1998 में कहा था कि ‘इस देश की पूरी व्यवस्था सड़ चुकी है।’ उन्होंने सड़न देखी होगी तभी तो कहा होगा। पर जब श्री सिंह खुद प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने उस सड़न को रोकने के लिए क्या किया ?

उल्टे उन्होंने जो कुछ किया, वह सब देश ने देखा और भोगा। 2014 के चुनाव में कांग्रेस लोकसभा में 44 सीटों पर सिमट गयी। इस देश के अधिकतर नेताओं ने प्रतिपक्ष में रहने पर तो अपने राजनीतिक विरोधियों के भ्रष्टाचार पर खूब हायतोबा मचायी। पर जब वे सत्ता में आए तो खुद बहती गंगा में हाथ धोया। अपवादों की बात और है।
अपवाद स्वरूप जो भी अच्छे नेता इस देश में बचे हुए हैं, वे या तो सत्ता के मोह में डूबे हुए हैं या फिर भ्रष्टाचारियों के खिलाफ बौने साबित हो रहे हैं। सत्ता संभालते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को आश्वासन दिया था कि ‘मैं न तो खाऊंगा और न ही किसी को खाने दूंगा।’ मोदी मंत्रिमंडल के किसी सदस्य पर तो घोटाले का अब तक कोई आरोप नहीं लगा है, पर सरकार के दूसरे अंग लगभग पहले ही जैसे ‘काम’ कर रहे हैं। लगता है कि वे मोदी से भी अधिक ताकतवर हैं।

संभवतः इसीलिए तीन साल के शासनकाल के बाद भी प्रधानमंत्री को 6 अप्रैल 2017 को साहिबगंज में यह कहना पड़ा कि ‘भ्रष्टाचार और ब्लैक मनी ने दीमक की तरह चाटकर इस लोकतंत्र को बर्बाद कर दिया है। इसके खिलाफ संघर्ष जारी रहेगा।’ पर सवाल है कि लोगबाग कब तक प्रतीक्षा करेंगे ?

मोदी सरकार की उपलब्धि और विफलताओं का सही आकलन तो 2019 में हो जाएगा। पर इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी याद आती है। उसने 5 अगस्त 2008 को ही कह दिया था कि ‘भगवान भी इस देश को नहीं बचा सकता है।’ इस विकट स्थिति में इस देश के नेताओं तथा अन्य क्षेत्रों के जागरूक और देशभक्त लोगों का क्या कर्तव्य बनता है ?

क्या भ्रष्ट नेताओं और अफसरों तथा इसी तरह के अन्य लोगों के खिलाफ देशहित में कठोर कार्रवाई होनी चाहिए या फिर यह तर्क दिया जाना चाहिए कि चूंकि पहले के लोगों ने इस देश को लूटा है, इसलिए हमें भी लूट लेने का जन्मसिद्ध अधिकार हासिल है?


मधु लिमये से एन.सी. सक्सेना तक के एक ही स्वर 

वैसे मधु लिमये तो 1988 में ही इस नतीजे पर पहुंच गए थे कि ‘मुल्क के शक्तिशाली लोग इस देश को बेच कर खा रहे हैं।’ सन 1998 में तत्कालीन केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव एनसी. सक्सेना ने कहा कि ‘इस देश में भ्रष्टाचार में जोखिम कम और लाभ ज्यादा है।’

याद रहे कि सक्सेना की इस टिप्पणी के बावजूद ‘जोखिम अधिक और लाभ कम’ करने वाले किन्हीं कानूनी प्रावधानों की जरूरत इस देश की सरकारें नहीं समझ पा रही हैं। इस दिशा में आधे -अधूरे मन से कहीं कुछ काम भी हुए हैं तो उसका कोई खास लाभ देश को नहीं मिल रहा है। याद रहे कि मधु लिमये ऐसे नेता थे जो न तो स्वतंत्रता सेनानी पेंशन लेते थे और न ही पूर्व सांसद पेंशन। अखबारों में लिखे अपने लेखों के पारिश्रमिक से ही वह जीवन यापन करते थे।


अब जरा आज के नेता को देखिए !

केंद्र सरकार प्रत्येक सांसद पर हर माह 2 लाख 70 हजार रुपए खर्च करती है। यह आंकड़ा 2015 का है। इसके बावजूद इस बुधवार को राज्यसभा में सपा के नरेंश अग्रवाल ने कहा कि मौजूदा तनख्वाह से सांसदों का काम नहीं चल रहा है। सांसदों का दबाव जारी रहा तो सरकार 2.70 लाख की राशि देर-सवेर बढ़ा ही देगी।

यह सब ऐसे देश में हो रहा है जहां के सरकारी अस्पतालों के पास सभी गंभीर मरीजों के लिए भी इलाज की व्यवस्था तक नहीं है। क्योंकि सरकारें धनाभाव से जूझ रही हंै। आए दिन यह खबर आती रहती है कि अस्पताल में मृतक मरीज के लिए शव वाहन का प्रबंध नहीं हो सका। कहीं शव दोपहिया पर ढोया जाता है तो कहीं ठेले पर।

पटना के एक बड़े सरकारी अस्पताल की ताजा खबर यह है कि अस्पताल के भीतर गंभीर मरीज को परिजन चादर पर रखकर उठा रहे हैं और एक जगह से दूसरी जगह पहुंचा रहे हैं।


पटना एम्स की मारक उपेक्षा

पटना में स्थापित एम्स में भी साधन के अभाव में मरीजों का उचित इलाज नहीं हो पा रहा है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री अस्सी के दशक में पटना में विद्यार्थी परिषद के नेता थे। परिषद की खबरों के हैंड आउट लेकर अखबारों के दफ्तरों का चक्कर लगाते मैंने उन्हें देखा था। यानी उनका बिहार से जो लगाव होना चाहिए था, वह नहीं है।
जबकि दिल्ली एम्स के कुल मरीजों में बिहार के मरीजों का प्रतिशत 40 है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए पटना के निर्माणाधीन एम्स का निर्माण जल्द पूरा कर लिया जाना चाहिए था।

2004 में इस पटना एम्स का शिलान्यास हुआ था। अब तक 50 प्रतिशत काम भी पूरा नहीं हुआ है। दरअसल केंद्र सरकार पूरा फंड ही नहीं देती। हां,सांसदों के वेतन भत्ते के लिए उसके पास पैसों की कभी कोई कमी नहीं रहती।


लोकसभा टी.वी. और राज्यसभा टी.वी.

अब तक राज्यसभा टी.वी. और लोकसभा टी.वी. के अलग- अलग राजनीतिक स्वर रहे हैं। अब वह बात नहीं रहेगी। वैसे पहले दो स्वर होने के कारण भी रहे हैं। लोकसभा की स्पीकर पहले भाजपा की नेता थीं। राजग का बहुमत राज्यसभा में नहीं है। राज्यसभा के निवर्तमान सभापति यानी उपराष्ट्रपति कांग्रेसी पृष्ठभूमि के रहे हंै। अब उस पद को अगले उपराष्ट्रपति संभालेंगे। वह भाजपा के अध्यक्ष भी रह चुके हैं।

अब या तो राज्यसभा टी.वी. और लोकसभा टी.वी. का विलयन हो जाएगा या फिर पिछले विरोधाभास की समाप्ति हो जाएगी।


और अंत में

  संविधान के अनुच्छेद- 212 के अनुसार ‘न्यायालयों द्वारा विधायिकाओं की कार्यवाहियों की जांच नहीं की जा सकेगी।’ जब संविधान बना था, उन दिनों सदन की कार्यवाही के सीधे प्रसारण की सुविधा नहीं थी। देवताओं के बारे में राज्यसभा में एक सपा नेता के कुवचन को देखते हुए अब नयी व्यवस्था की जरूरत आ पड़ी है। या तो सदनों में उच्चारित ऐसे कुवचनों के खिलाफ अदालत में मुकदमा चलाने की संवैधानिक छूट मिले या फिर सदन की कार्यवाहियों का सीधा प्रसारण यथाशीघ्र बंद हो।

 (इसका संक्षिप्त अंश 21 जुलाई 2017 के प्रभात खबर (बिहार) में प्रकाशित)

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