शुक्रवार, 30 जनवरी 2009

बिहार में हुई थी गांधी के नैतिक मूल्यों की हत्या

सुरेंद्र किशोर
अक्सर मेरे मित्र, शुभचिंतक व रिश्तेदार मुझसे यह कहते रहे हैं कि मैं अब किताबें लिखूं। मैं करीब चालीस साल से पत्रकारिता में हूं, इसलिए वे ठीक ही कहते हैं। यह माना जाना चाहिए कि मेरे पास कुछ अनुभव इकट्ठे हो चुके हैं जिन्हें पाठकों के बीच भी बांटा जाना चाहिए। मैं भी चाहता हूं कि मैं कुछ किताबों पर पहले से जारी अपना स्थगित काम अब पूरा कर लूं। पर कुछ आलस्य और कुछ कार्य व्यस्तता के कारण फिलहाल यह संभव नहीं हो पा रहा है। शायद जल्दी ही इस दिशा में कुछ काम शुरू हो जाए ! कुछ वरिष्ठ पत्रकार मुझसे यह भी कहते हैं कि मैं कम से कम पत्रकारिता को लेकर अपने कुछ अनुभव बांटू। डर लगता है। आज कितने पत्रकार हैं जो किसी वरिष्ठ पत्रकार के साथ अनुभव बांटने को तैयार हैं ? शायद अत्यंत थोड़े ही हैं। उन थोड़े लोगों को इस डायरी की पहली किस्त के जरिए मैं बिहार के पत्रकारों से एक बात कहना चाहता हूं। यदि वे बिहार में या बिहार पर राजनीतिक पत्रकारिता करते हैं तो उन्हें कम से कम तीन चीजें पढ़ लेनी चाहिए। उनमें से पहली है अय्यर कमीशन की रपट। दूसरी है मधोलकर कमीशन की रपट। तीसरा है चारा घोटाले से संबंधित अदालत में दाखिल आरोप पत्र। अय्यर कमीशन और मधोलकर कमीशन की रपटों की कापियां पटना के ही गुलजार बाग में स्थित सरकारी प्रेस में मिल जाएंगीं। चारा घोटाले के आरोप पत्र की कापी कहां मिलेगी, यह तो मैं फिलहाल नहीं कह सकता, पर कहीं न मिले तो उन दिनों के दैनिक अखबारों की फाइलें तो पढ़ी ही जा सकती हैं। बिहार की राजनीति और राजनीतिक हस्तियों की दशा-दिशा समझने के लिए ये तीन चीजें जाननी चाहिए। इन्हें पढ़ने से इस राज्य की शासन व्यवस्था और यहां के नए-पुराने नेताओं व उनकी राजनीति की प्राथमिकताओं को समझने में सुविधा होगी। साथ ही किसी मुद्दे या व्यक्ति या दल पर अपनी राय तय करने में भी सहूलियत होगी। इनमें कई ऐसी बातें दर्ज हैं जिनकी चर्चा करने पर आज की पीढ़ी के कई लोग यह कह देते हंै कि शायद ऐसा नहीं हुआ होगा। आज महात्मा गांधी की पुण्य तिथि है। उनकी हत्या तो 30 जनवरी 1948 को दिल्ली में हुई थी,पर उनके नैतिक सिद्धांतों की हत्या तो उनके ही कुछ प्रमुख बिहारी अनुयायियों ने उससे कुछ महीने पहले बिहार में ही कर दी थी। महात्मा गांधी ने बिहार में 1946 में गठित अंतरिम सरकार के एक मंत्री को हटा देने के लिए सरकार के मुखिया से कहा था। उस मंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप थे। पर तब सरकार के मुखिया ने ऐसा करने से साफ इनकार करते हुए कह दिया था कि मैं खुद इस्तीफा दे दूंगा, पर उस मंत्री को नहीं हटाउंगा। महात्मा उस मंत्री के बारे में कितना सही थे, यह बात अय्यर आयोग की रपट को पढ़ने से पता चलेगा। यह तो उदाहरण है। पर यह अकेला उदाहरण है, ऐसा कहना उस मंत्री के प्रति अन्याय होगा जिसे हटाने की सलाह बापू ने दी थी। बिहार एक दिन में बीमारू राज्य नहीं बना। इसे बीमारू और हास्यास्पद राज्य भगवान ने भी नहीं बनाया। बल्कि उन स्वार्थी नेताओं, अफसरों और समाज के दूसरे हिस्से के प्रभावशाली लोगों ने ही बनाया। इस दुर्गति का सबसे बड़ा कारण भ्रष्टाचार ही रहा। अब जब इसे बीमारू राज्य से निकालने की कोशिश चल रही है तो इस काम में अनेक तत्व बाधक बन रहे हैं। ऐसी नौबत एक दिन में नहीं आई है। यह अकारण नहीं है कि मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने अपनी हाल की विकास यात्रा के दौरान यह घोषणा की कि वे अपनी ही सरकार में व्याप्त भष्टाचार के खिलाफ युद्ध छेड़ेंगे। यह भी अकारण नहीं है कि कल समाप्त हुए राजगीर जदयू चिंतन शिविर के मंच से मुख्य मंत्री को अपने ही दल के कार्यकत्र्ताओं से यह कहना पड़ा कि ‘लूट की छूट चाहिए तो दूसरा नेता चुन चुनिए।’
(30 जनवरी, 2009)

सोमवार, 26 जनवरी 2009

ऐसी ही सजा जरूरी

इससे बेहतर खबर कोई और नहीं हो सकती। खास कर जल प्रदूषण की समस्या से जूझनेवाले देश भर के लोग इससे गद्गद् होंगे। दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली जल बोर्ड के तीन बड़े अधिकारियों को इसी मंगलवार को तीन हफ्ते की सजा सुनाई है। उन पर यमुना नदी के पानी में गंदे नाले के दूषित जल के प्रवाहित होते रहने से रोकने की जिम्मेदारी दी गई थी। दिल्ली हाई कोर्ट के जज एस.एन. धींगरा ने सजा सुनाते समय कहा कि अब कोई बहाना नहीं चलेगा। इससे पहले बोर्ड के वकील, कोर्ट से यह कह रहे थे कि नालियों को ठीक करने के लिए नया टेंडर जारी किया गया है। कोर्ट ने कहा कि जो अफसर काम नहीें करना चाहते, उनके लिए तो बहाने मिल ही जाते हैं। जिन अफसरों को कोर्ट ने सजा दी है उनमें दिल्ली जल बोर्ड के पूर्व मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी अरुण माथुर, मुख्य अभियंता (ड्रेनेज) आर.के. जैन और कार्यपालक अभियंता पी. पंत शामिल हैं। इससे दो साल पहले बोर्ड के अफसरों ने कोर्ट को आश्वासन दिया था कि टूटे हुए नाले की मरम्मत करा दी जाएगी। पर कोर्ट को दिए गए इस स्पष्ट आश्वासन का भी जब पालन नहीं हुआ, तो नागरिकों ने कोर्ट से फिर गुहार लगाई। कोर्ट ने संबंधित अफसरों पर 20- 20 हजार रुपए जुर्माना करते हुए कहा कि यह इसी देश में होता है कि ऐसे मामले में भी नागरिकों को कोर्ट की शरण लेनी पड़ती है। उन्होंने कहा कि ये अफसर जुर्माने की राशि अपने वेतन से देंगे। अदालत ने कहा कि इन अफसरों का जेल जाना फिलहाल अगले तीन महीने तक स्थगित रहेगा, ताकि वे इस बीच नागरिकों की संबंधित शिकायत दूर कर दें। यह सजा गंगा नदी तथा देश की दूसरी नदियों को प्रदूषित करने में ‘मदद’ करने के काम में लगे देश के विभिन्न जल बोर्डों के अफसरों के लिए भी नसीहत साबित हो सकती है, यदि वे कोई नसीहत लेना चाहें। पटना में भी छोटे-बड़े अफसरों व सरकार की लापरवाही से कई गंदे नाले गंगा नदी को रोज -रोज और भी प्रदूषित करते जा रहे हैं। अब तो विशेषज्ञ बताते हैं कि पटना के निकट गंगा का पानी पीने और नहाने को कौन कहे, छूने लायक भी नहीं है। इस बीच केंद्र सरकार ने गंगा बेसिन आॅथारिटी बनाने का सराहनीय निर्णय किया है। गंगा जल को फिर से अमृत बनाने की दिशा में केंद्र सरकार चाहे, तो जल्दी ही जरूरी कदम उठा सकती है। वैसे भी चुनाव करीब है। उसके लिए पैसे आवंटित होंगे। अफसर तैनात होंगे, पर योजना को कार्यान्वित करने के लिए जिस कर्तव्यपरायणता की जरूरत है, उसे अफसरों और कर्मचारियों में पैदा करने के लिए शायद जस्टिस एस.एन. धींगरा जैसे जजों के निर्णय की चाबुक भी चाहिए। याद रहे कि कानपुर में गंगा जल को प्रदूषण से रोकने के लिए हाई कोर्ट का सख्त आदेश है, किंतु उस आदेश को लागू नहीं कराया जा रहा है। यदि वहां भी अदालत की अवमानना को लेकर याचिकाकर्ता सक्रिय हो जाएं, तो मां गंगा को बचाया जा सकता है। अन्यथा वहां तो चमड़े के कारखानों से निर्बाध निकल रहे अत्यंत ही गंदे व जहरीले पानी से गंगा नदी त्राहि -त्राहि कर ही रही है। मायावती जैसी दबंग मुख्यमंत्री का उस ओर ध्यान नहीं है, जो चाहें तो आसानी से दोषी लोगों के होश ठिकाने ला सकती हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी एक बार वायदा किया था कि वे पटना के पास गंगा नदी को प्रदूषित होते रहने से रोकने की कोशिश करेंगे। अब तो गंगा बेसिन आॅथारिटी बन रही है, जिसके सदस्य संबंधित राज्यों के मुख्यमंत्री भी होंगे। उम्मीद है कि बिहार के मुख्यमंत्री पहल करके राज्यों के चुनाव के शीघ्र बाद ऐसी आॅथारिटी के गठन की प्रक्रिया भी पूरी कराने के लिए केंद्र से कहेंगे। केंद्र सरकार की नजर में भी नीतीश कुमार एक गंभीर व काम करनेवाले मुख्यमंत्री हैं। उनकी बातों का असर होगा, ऐसी उम्मीद की जाती है। अन्यथा ऐसा न हो कि गंगा आॅथारिटी के निर्माण का काम घोषणा तक ही सिमट कर रह जाए। राष्ट्रीय सहारा, पटना (27-11-2008)

घुसपैठ रोकने के लिए भी कड़ाई जरूरी

आतंकी हमलों से मुकाबले के लिए राष्ट्रीय जांच एजेंसी के गठन और नए कानून बनाने का फैसला सराहनीय है। देर आए,दुरूस्त आए। पर, इसके साथ ही इस देश में विदेशियों की बेरोकटोक घुसपैठ पर रोक भी उतनी ही जरूरी है।इस ओर अभी इस देश की विभिन्न सरकारों का पूरा ध्यान जाना बाकी है।कम से कम तीन स्थलोंं से आए दिन बेरोकटोक घुसपैठ की खबरें अक्सर आती रहती हैं।वे स्थल हैं नेपाल-भारत सीमा, बंगला देश बोर्डर और समुद्री रास्ते । इन तीनों स्थानों में तैनात विभिन्न सरकारों के संबंधित अधिकतर कर्मचारियों और अफसरों के बीच व्याप्त भारी भ्रष्टाचार, आतंकियों के लिए इंधन का काम करता है।इस राष्ट्रद्रोही भ्रष्टाचार पर कड़ाई से अंकुश लगाए बिना आतंकी घटनाओं पर काबू पाना कठिन होगा। सन् 1993 के बंबई विस्फोट कांड में कुछ सरकारी अफसरों और कर्मचारियों को भी अदालत ने सजा सुनाई ।उन पर आरोप था कि उन लोगों ने आर.डी.एक्स.की खेपों को समुद्री मार्ग से बंबई पहुंचाने में दाउद इब्राहिम के लोगों की मदद की।इसके बदले उन्हें रिश्वत के रूप में भारी धन राशि मिली थी।आज भी महाराष्ट्र में एक नेता दूसरे पर यह आरोप लगाता रहता है कि वह दाउद इब्राहिम की मदद करता है।यानी इस देश में कस्टम पुलिस और कोस्टल गार्ड को ऐसा बनाना पड़ेगा ताकि उसके अफसर व कर्मचारी रिश्वत लेकर हथियार,गोले बारूद या किसी घुसपैठी को भारतीय सीमा में घुसने का मौका नहीं दे ।क्या ऐसा कभी हो पाएगा ? दरअसल अभी इस देश में जो कड़ा कानून बन रहा है और जो केंद्रीय एजेंसी कायम हो रही है,वे भारत के भीतर पहुंच चुके आतंकियों से निपटने के लिए हैं।पर विदेशी आतंकवादी तो ‘शहीद’ होने के लिए ही बारी- बारी से इस देश में पहुंचते हैं। उन्हें अपने कारनामे करके मर जाना पसंद है। उनके लिए इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि भारत का कानून कितना कड़ा है या नरम।कोई भी कानून उन्हें फांसी से अधिक भला और क्या दे सकता है ! अधिक गंभीर सवाल तो यह है कि उन फिदाइनों को भारत की सीमा में प्रवेश करने से ही कैसे रोक दिया जाए। पर, यह तब तक नहीं रुकेगा जब तक हमारी सीमाएं भ्रष्ट कर्मियों के हाथों असुरक्षित रहंेगीं।सीमाएं सुरक्षित तब तक नहीं रहेंगी जब तक सीमाओं पर ऐसे अफसर व कर्मचारी तैनात किए जाते रहेंगे जिन्होंने मानव तस्करी तथा दूसरे प्रकार के सामान की तस्करी के धंधे को अपनी नियमित आय का जरिया बना लिया है।ऐसे भ्रष्ट लोक सेवकों को अक्सर उच्च अधिकारियों व सत्ताधारी नेताओं का भी संरक्षण प्राप्त रहता है।यह धंधा पहले तस्करी को संरक्षण देने के लिए चलता था।अब उन्हीं तस्करों ने आतंकियों और उनके लिए हथियारों की तस्करी के काम को भी अपना लिया है। बंगला देश की सीमा पर तैनात हमारे सुरक्षाकर्मियों के एक बड़े हिस्से पर यह आरोप लगता रहता है कि वे रिश्वत की मामूली रकम भी ले लेकर बंगला देशियों को भारत की सीमा में अवैध तरीके से प्रवेश कराते रहते हैं।याद रहे कि बंगला देश वैसे आतंकियों का गढ़ बना हुआ है जो भारत में आकर बड़ी -बड़ी आतंकी घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। अंत में नेपाल -भारत सीमा के बारे में भी कुछ ।यह सीमा तो बिलकुल खुली हुई है।इस सीमा से लगे अनेक पुलिस थानों में तैनाती के लिए रिश्वत की बोली लगती है।सीमा से सटे बिहार के जिलों के अधिकतर एस.पी.पर आए दिन यह आरोप लगता रहता है कि वे थाना प्रभारियों की तैनाती के लिए थानों की ‘बोली’ लगवाते हैं।पुलिस की उपरी आय इस मद में है कि तस्करी के माल और संदेहास्पद व्यक्तियों को कोई थाना प्रभारी कितना अधिक इधर से उधर टपवा देता है।यह विदेशी आतंकवादियों के लिए आदर्श स्थिति है।इस पर रोक लगाए बिना आतंकी घटनाओं पर रोक कैसे लगेगी ? राष्ट्रीय सहारा, पटना (18-12-2008)

भ्रष्टों के लिए भी त्वरित अदालत जरूरी

मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने यह एक बड़ी अच्छी बात कही है कि जदयू के कार्यकत्र्ता आगे बढ़कर भ्रष्ट पदाधिकारियों को निगरानी दस्ते की गिरफ्त में दे दें।किसी मुख्य मंत्री से ऐसी बात सुनने के लिए बिहार की जनता तरस रही थी। मुख्य मंत्री की इस टिप्पणी से दो बातें सामने आती हैं। एक तो यह कि मुख्य मंत्री,राज्य प्रशासन से भ्रष्टाचार वास्तव में कम करना चाहते हैं।दूसरी बात यह है कि भ्रष्टाचार से लड़ने वाली परंपरागत प्रशासनिक व्यवस्था फेल हो रही है।इसीलिए तो किसी दल के कार्यकत्र्ताओं से ऐसी अपील की जा रही है। पर इस अपील में एक कमी है।इस अपील के साथ मुख्य मंत्री को यह भी कहना चाहिए था कि जो जदयू कार्यकत्र्ता भ्रष्ट अफसरों को गिरफ्तार करांएगे उन्हें आर्थिक पुरस्कार दिया जाएगा और राजनीतिक पद या चुनावी टिकट देते समय उनके नाम पर विशेष तौर पर विचार किया जाएगा।यदि राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं को ऐसे काम के लिए आर्थिक पुरस्कार मिलने लगे तो अन्य दलों के कुछ ईमानदार राजनीतिक कार्यकत्र्ता भी इस काम में हाथ बंटा सकते हैं।अभी तो किसी भी दल के ईमानदार कार्यकत्र्ताओं की आर्थिक हालत दयनीय ही है। एक आर्थिक अपराधी के बारे में केंद्र सरकार को गुप्त सूचना देने पर युवा तुर्क चंद्र शेखर को भी करीब चालीस साल पहले केंद्र सरकार ने भारी आर्थिक पुरस्कार दिया था।चंद्र शेखर बाद में प्रधान मंत्री भी बने थे।बिहार में ंऐसे छोटे छोटे आर्थिक पुरस्कार भी मिलने लगंे तो ईमानदार कार्यकत्र्ताओं का स्वाभिमान बचा रह जाएगा। इन दिनों राजनीति में ईमानदार कार्यकत्र्ता और नेता ढंूढ़ना कठिन है,पर कुछ तो जरूर हैं जो इस काम में सरकार की मदद कर सकते हैं। दरअसल बिहार का प्रशासनिक तंत्र भ्रष्टाचार में इस कदर डूबा हुआ है कि ब्रिटेन या किसी भी देश के विशेषज्ञ से प्रशासनिक सुधार में मदद ले लीजिए,पर जब तक भीषण भ्रष्टाचार कम नहीं होगा,सुधार का कोई मतलब नहीं रहेगा।योजना आयोग की अर्जुन सेनगुप्त रपट में कहा गया है कि भारत के 84 करोड़ लोग औसतन बीस रुपए प्रतिदिन पर ही गुजर करने को अभिशप्त हैं। आयोग की ही एक अन्य रपट में कहा गया है कि नक्सलवाद का मुख्य कारण गरीबी और विस्थापन है। इस बारे में भले लोगों के बीच अब यह आम सहमति बनती जा रही है कि इस देश में गरीबी का मुख्य कारण सरकारी भ्रष्टाचार ही है। आजादी के बाद के शासक तो कहते रहे कि मंत्रियों और अफसरों के भ्रष्टाचार पर कार्रवाई करोगे तो उनमें पस्तहिम्मती आएगी । उसके बाद के एक नेता की टिप्पणी थी कि क्या कीजिएगा,भ्रष्टाचार तो पूरी दुनिया में है।आज के कई नेता कह रहे हैं कि जनता ही चाहती है कि भ्रष्ट लोग चुनाव जीतें और शासन चलाएं। पर तीनों बातें गलत हैं।इस बीच चीन ने भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी की सजा की व्यवस्था करके अपने देश को एक विकसित देश बना लिया। हमारे प्रदेश बिहार में पिछले तीन साल के भीतर करीब 25 हजार छोटे- बड़े अपराधियों को जब त्वरित अदालतों के जरिए सजाएं दिलवा दी गईं तो भीषण अपराध के कारण जारी भारी भय और आतंक का माहौल समाप्त हो गया ।यदि यही फार्मूला उन भ्रष्ट अफसरों और कर्मचारियों के खिलाफ भी लागू किया जाए जो घूस लेते रंगे हाथोंें पकड़े जा रहे हैं तो बिहार सरकार के दफ्तरों में भ्रष्टाचार भी कम होगा।आज स्थिति यह है कि राज्य सरकार के दफ्तरों में भ्रष्टाचार इतना बढ़ गया है जितना पहले कभी नहीं था।इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि भ्रष्ट लोगांे को सजा नहीं मिल पा रही है।जबकि डी.जी.स्तर तक के पुलिस अफसर .और वरिष्ठ आई.ए.एस. अफसर भी भ्रष्टाचार के आरोप में बिहार में गिरफ्तार हो रहे हैं।दूसरी ओर, राज्य के प्रशासनिक अफसर संघ खुलेआम यह कह रहा हैं कि उसके सदस्यों के खिलाफ स्टिंग आपरेशन नहीं चलना चाहिए और एक अन्य सेवा संघ अपने उन सदस्यों के पक्ष में भी आंदोलन की धमकी सरकार को दे रहा है जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं।इनकी हिम्मत और बेशर्मी तो देखिए ! राज्य के भले के लिए ऐसे लोगों को रास्ते पर लाना बहुत जरूरी है। राष्ट्रीय सहारा, पटना (20-11-२०08)

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष चुने जाने पर कांग्रेस में बवाल


सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी की इच्छा के विरुद्ध जब कांग्रेस अध्यक्ष चुन लिए गए, तो कांग्रेस में बवाल हो गया था। रामगढ़ कांग्रेस में सुभाष चंद्र बोस ने अध्यक्ष पद के चुनाव में पट्टाभि सीता रमैया को हराया था। इस पर महात्मा गांधी ने कहा था कि पट्टाभि की हार मेरी हार है। फिर क्या था, पूरी कांग्रेस कार्यसमिति ने इस्तीफा दे दिया। हार कर सुभाषचंद्र बोस ने भी अध्यक्ष पद छोड़ दिया।इसमें सुभाष की नैतिक जीत और गांधी की नैतिक हार हुई। कहा गया कि लोकतांत्रिक ढंग से विजयी एक कांग्रेस अध्यक्ष को गांधी जी ने काम नहीं करने दिया। 

बाद में सुभाष चंद्र बोस ने फाॅरवर्ड ब्लाक बना लिया, पर सुभाष चंद्र बोस के विमान दुर्घटना में निधन की जब खबर आई, तो महात्मा गांधी ने कहा कि हिंदुस्तान का सबसे बहादुर व्यक्ति आज नहीं रहा। पर इस विवाद पर सरदार बल्लभ भाई पटेल तथा कुछ अन्य लोगों के साथ सुभाष चंद्र बोस के पत्र व्यवहार पढ़ने लायक हैं। इसे दिल्ली के प्रभात प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इसका संपादन किया है डाॅ.पी.एन. चोपड़ा और डाॅ. प्रभा चोपड़ा ने। 

सरदार बल्लभ भाई पटेल ने 7 फरवरी, 1939 को सुभाष चंद्र बोस को लिखा कि ‘आपके निर्वाचन के तुरंत बाद प्रेस ने यह छापा कि हम सबने कार्यसमिति से त्यागपत्र दे दिया है। ए.पी. के प्रतिनिधि ने बारदोली में मुझसे जानना चाहा। मैंने उनसे उस समय इस रिपोर्ट का प्रतिवाद करने को कहा।’ ‘उसके बाद मुझे मौलाना (अबुल कलाम आजाद) का तार मिला, जिसमें उन्होंने हम सबको त्यागपत्र देने का सुझाव दिया है। मैंने सोचा कि आपके निर्वाचन के तुरंत बाद हमारे त्यागपत्र देने से गलतफहमी पैदा होगी तथा आपको उलझन हो सकती है। अब राजन बाबू (डाॅ राजेंद्र प्रसाद) ने मुझे लिखा है कि यदि इस समय हम इस्तीफा दें, तो इससे मदद मिलेगी और इस सुझाव के समर्थन में जो तर्क उन्होंने दिए हैं, वे मुझे उचित लगते हैं।’ 

‘हमारे संविधान के अनुसार निवर्तमान कार्यसमिति विषय समिति का कार्यक्रम तय करती है। अंतिम क्षण तक कार्यसमिति में बने रहना अनुचित होगा और इस प्रक्रिया से अगले वर्ष के लिए आपको कार्यक्रम तय करने में परेशानी होगी। यह आपका अधिकार है कि आपको अपना कार्यक्रम तय करने की स्वतंत्रता मिले।’ 

‘हम सब त्यागपत्र देने को तैयार हैं, जैसे ही आप हमें सूचित करते हैं कि आपको इससे कोई परेशानी नहीं होगी। यदि आप चाहते हैं कि हम थोड़ा इंतजार करें, तो हम आपकी बात मानेंगे, लेकिन उतना ही जितना आपको सुविधाजनक हो। कृपया इस विषय पर अपनी इच्छा तार द्वारा सूचित करें।’ अंततः सरदार पटेल ने त्यागपत्र दे ही दिया। उसे दुःख के साथ स्वीकार करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ने 26 फरवरी, 1939 को लिखा,‘ प्रिय सरदार जी, आपका संयुक्त त्यागपत्र 22 फरवरी को वर्धा में ठीक समय पर प्राप्त हो गया। मेरी अस्वस्थता के कारण उसका उत्तर पहले देना संभव न हो सका। सामान्यतया मुझसे आपसे आपके निर्णय पर पुनर्विचार के लिए कहना चाहिए था और त्रिपुरी में मिलने तक इस त्यागपत्र को रोकना चाहिए था, लेकिन मैं जानता हूं कि आपने खूब सोच विचार कर निर्णय लिया है और निर्णय लेने से पहले आपने सभी परिस्थितियों पर विचार किया होगा। यदि इस समय मुझे जरा भी संभावना होती कि आप अपने त्यागपत्र पर पुनर्विचार करेंगे, तो मैं आपसे इस्तीफा वापस लेने का अनुनय विनय करता, लेकिन वर्तमान परिस्थिति में औपचारिक प्रार्थना से काम नहीं बनेगा, अतः मैं आपका त्यागपत्र बहुत दुःख के साथ स्वीकार करता हूं।’ 

‘फिर भी मैं मानता हूं कि आपके त्यागपत्र का मतलब मेरे कर्तव्य पालन में आपका सहयोग व सहायता वापस लेना नहीं है। यह बताना मेरे लिए जरूरी है कि आपका सहयोग व सहायता मेरे लिए अमूल्य होंगे। मुझे आशा है और विश्वास भी कि त्रिपुरी कांग्रेस में हमारी सहमति के बिंदु असहमति के बिंदुओं से अधिक होंगे और परिणामतः भविष्य में हम दल को मजबूत बनाए रख सकेंगे। मुझे रोजाना बुखार आ रहा है और स्वास्थ्य लाभ की गति बहुत धीमी है। भवदीय, सुभाष बोस।’ 

इससे पहले 8 फरवरी, 1939 को सरदार पटेल ने जवाहर लाल नेहरू को लिखा कि ‘ मुझे आपका पिछला पत्र बारदोली में मिला, जो आपने संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर करने या स्वतंत्र बयान जारी करने के मेरे निवेदन के उत्तर में लिखा था। मैंने बापू के अनुरोध पर आपसे यह निवेदन किया था। मैंने उन्हें आपका जवाब दिखाया था और उन्होंने मुझसे जो कुछ मैं महसूस करता हूं, पत्र में लिखने को कहा। वह स्वयं उस पत्र से अप्रसन्न थे, लेकिन मैंने आपको परेशान करना ठीक नहीं समझा। संयुक्त बयान भी उनके अनुरोध पर जारी किया गया। वास्तव में मैंने उनसे कहा था कि इससे मेरे विरुद्ध गाली-गलौज करने का और भी बहाना मिलेगा, परंतु उन्होंने जोर दिया तथा मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया। मौलाना अंतिम क्षण में पीछे हट गए।’ 

‘मुझे खुशी है कि हम हार गए। समरूप कार्यसमिति के अभाव में कोई प्रभावी कार्य संभव नहीं है और मैं हमेशा से इस अवसर की प्रार्थना करता रहा हूं। मुझे घृणा इस बात से है कि अपने को वामपंथी होने का दावा करनेवाले लोगों द्वारा जो तरीके अपनाए गए और उससे भी अधिक अध्यक्ष (सुभाष चंद्र बोस) द्वारा अपनाया गया, जिन्होंने हमारे ऊपर ब्रिटिश सरकार के साथ षड्यंत्र रचने का आरोप लगाया और यह कि हमने एक संघीय मंत्रिमंडल अस्थायी तौर पर बनाया हुआ है। हमारे शत्रुओं ने भी हमारी ईमानदारी का श्रेय हमें दिया, परंतु हमारे अध्यक्ष (सुभाष चंद्र बोस) ने नहीं, जो भी हो, हमें कोई संदेह नहीं है कि हमें क्या करना है और हमने सुभाष को लिख दिया है कि हम उनकी सुविधा के अनुसार सदस्यता छोड़ने को तैयार हैं। जीवट इस पत्र की एक प्रति आपको दिखा देंे, जो मैंने कल उन्हें भेजी है।’

 ‘मुझे आपके विचार ज्ञात नहीं हैं, लेकिन मुझे आशा है कि जो कुछ हम करने जा रहे हैं, उसके लिए आप हमें दोष नहीं देंगे। मैं सोचता हूं कि मेरे भाग्य में गाली खाना लिखा है। बंगाल प्रेस बहुत गुस्से में है और नारीमन और खरे घटना के लिए मुझे दोष दे रहे हैं। हालांकि मेरे सभी सहयोगी इसके लिए संयुक्त रूप से जिममेदार हैं। वास्तव में डाखरे के मामले में सुभाष मिटिंग में प्रारंभ से अंत तक उपस्थित थे और उन्हींं के द्वारा सबकुछ संचालित किया गया।’ 

‘बड़ौदा में भी मैंने तूफान ला दिया है तथा महाराष्ट्र प्रेस मेरे खिलाफ विष वमन कर रहा है और वे मेरे खून के प्यासे हो गए हैं। पूरा काठियावाड़ राजकोट की वजह से धधक रहा है। बड़ी जागृति पैदा हो गई है और राजकुमारों द्वारा आसानी से समर्पण कर दिया गया होता, यदि रेजीडेंट द्वारा उन्हें नहीं कसा गया होता।’ सुभाष चंद्र बोस जब कांग्रेस अध्यक्ष पद से अलग हुए, तो उन्होंने देशव्यापी आंदोलन व विद्रोह आयोजित करने का निर्णय कर लिया। तब डाॅ राजेंद्र प्रसाद कांग्रेस के अध्यक्ष थे। 

सरदार बल्लभ भाई पटेल ने इस बारे में 12 जुलाई, 1939 को डाॅ राजेंद्र प्रसाद को लिखा कि ‘मेरा सुझाव है कि सुभाष बाबू के अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के निर्णयों के विरुद्ध देशव्यापी आंदोलन और विद्रोह आयोजित करने के उनके निर्णय के स्पष्टीकरण के लिए एक नोटिस दिया जाए, क्योंकि बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कार्यपालिका के अध्यक्ष होने के नाते उन निर्णयों का आदर करने और कार्यान्वयन करने को वे बाध्य हैं। जहां तक बंगाल प्रांतीय कार्यपालिका का संबंध है, बेहतर होगा कि उसे भी ऐसा नोटिस दिया जाए। उन्होंने आपकी सलाह की उपेक्षा की है, अनुशासन भंग किया है। उन्हें अपना स्पष्टीकरण भेजने दीजिए और अगली बैठक में हम उन पर कार्रवाई करने के प्रश्न पर विचार करेंगे। इस समय हमारी ओर से कमजोरी दिखने से अनुशासनहीनता फैलेगी और हमारा संगठन कमजोर होगा। आपने बंबई सरकार की मद्यनिषेध नीति पर सुभाष बाबू का बयान देखा होगा। उन्होंने हमारे शत्रुओं से भी बुरा व्यवहार किया है।’ 

इससे पहले 18 अप्रैल, 1939 को सरदार पटेल को लिखा कि ‘आज उड़ीसा के प्रधानमंत्री का संदेश मुझे फोन पर मिला है, जिसमें महामहिम राज्यपाल ने जानना चाहा है कि जंग (द्वितीय विश्व युद्ध) छिड़ने पर कांग्रेस सरकार का क्या रवैया रहेगा। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी और कार्यसमिति के आदेशों के विचाराधीन रहते हुए मैं सुझाव देता हूं कि जब कभी आपके प्रांत के राज्यपाल द्वारा आपसे यह प्रश्न पूछा जाए, तो आप फैज पुर और हरी पुरा के युद्ध विरोधी प्रस्ताव के अनुरूप निम्न रूप से उत्तर दें-‘कांग्रेस के दो वार्षिक सत्रों में जंग छिड़ने की सूरत में अखिल भारतीय कांग्रेस का रवैया स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया है। यह रवैया असहयोग का होगा। भारत उपनिवेश युद्ध में भाग नहीं लेगा और ब्रिटिश साम्राज्य के हित में अपने लोगों व स्त्रोतांे की बलि नहीं देगा। यदि ऐसा संकट पैदा होता है और भारत का शोषण करने का प्रयत्न किया जाता है, तो अहिंसात्मक रूप से इसका विरोध किया जाएगा। कांग्रेस द्वारा असहयोग की नीति अपनाए जाने की दिशा में क्या विस्तृत कदम उठाए जाएंगे, वह तत्कालीन परिस्थितियों और ब्रिटिश सरकार के रवैए पर निर्भर करेगा।’ पर कांग्रेस संगठन की मुख्य धारा सुभाष चंद्र बोस के इस विचार से सहमत नहीं थी। संभवतः इसीलिए इसके विरोध में सरदार पटेल के विचार आए।

 मई, 1939 में सरदार ने कहा कि ‘वर्तमान समय में चेतावनी देने का माहौल नहीं है। एक विशाल जन समूह के सामने सरदार पटेल ने कहा कि कांग्रेस के पास सेना नहीं है। इसकी शक्ति केवल सत्य और अहिंसा है। कांग्रेस संगठन में अनबन, अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार व्याप्त है। देश में, ब्रिटिश भारत में और प्रांतों -दोनों में हिंसा बढ़ी है और हिंदू-मुस्लिम दंगे सब जगह हो रहे हैं। ऐसी स्थिति और वातावरण में चेतावनी की बात करना अविवेक की पराकाष्ठा होगी। यह समय सत्याग्रह की लड़ाई शुरू करने का नहीं है। यदि सत्याग्रह प्रारंभ किया जाता है, तो देश में अराजकता फैलेगी। हम कमजोर हैं और यदि हम चेतावनी देते हैं और असफल रहते हैं, तो हमारी बदनामी होगी’ सरदार ने कहा। उन्होंने कांग्रेस संगठन के शुद्धिकरण पर और कांग्रेस संविधान में ऐसे परिवर्तन करने पर जोर दिया, जिससे उच्च निष्ठावाले लोगों को कांग्रेस में स्थान मिले और कांग्रेस मजबूत हो। 

सरदार पटेल ने श्री बोस के अध्यक्ष के रूप में निर्वाचन और कार्यसमिति के संगठन की स्थिति के संबंध में विचार व्यक्त किए। उन्होंने महसूस किया कि वर्तमान वातावरण में भाषणों से काम नहीं बनेगा, बल्कि उनके कार्यों से ही उनके बारे में गलतफहमियां दूर हो पाएंगी। उन्होंने कम-से-कम बीस वर्षों से देश की सेवा की है। उनका कोई स्वार्थ परक प्रयोजन नहीं है। वह कोई कपट नहीं रखते। उन्होंने इंगित किया कि कार्यसमिति के तेरह सदस्यों का विचार है कि श्री बोस को कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए खुद को प्रस्तुत नहीं करना चाहिए। एक तरफ श्री बोस और दूसरी तरफ 13 सदस्यों के बीच मतभेद विचारणीय है।’ नेता जी सुभाष चंद्र के जीवनकाल में उनके साथ राजनीतिक मतभेदों के बावजूद सरदार पटेल उनके नहीं रहने पर आजाद हिंद फौज जांच एवं राहत समिति के अध्यक्ष पद का कार्यभार संभाला। 

सरदार ने अमृत बाजार पत्रिका के संपादक को इस हैसियत से 26 दिसंबर, 1945 को लिखा कि ‘संपूर्ण भारत में विभिन्न स्थानों में एकत्र किए गए कोष का प्रभार केंद्रीय समिति के पास रहेगा। नीति की एक रूपता की दृष्टि से एवं निधि के उचित नियमन एवं वितरण हेतु यह आवश्यक समझा गया कि विभिन्न स्थानों में एकत्र किए गए फंड के नियंत्रण और प्रबंधन का केंद्रीयकरण किया जाए।’ ‘मैं समझता हूं कि आपने भी अपने प्रतिष्ठित समाचार पत्र के माध्यम से इसी उद्देश्य के लिए एक फंड खोला है। अध्यक्ष और कोषाध्यक्ष होने के नाते मेरा आपसे निवेदन है कि फंड यथाशीघ्र भेज दिया जाए और भविष्य में जब भी फंड एकत्र हो, उसे भेजते रहें।’ 

सरदार पटेल और कांग्रेस मेडिकल मिशन के संगठनकर्ता डाॅ बी.सी. राय ने आजाद हिंद फौज निधि में उदारतापूर्वक दान देने की लोगो ंसे अपील करते हुए कहा कि वे नकदी और सामान देकर इस काम में मदद करें। हमें बताया गया है कि मलाया में जीवन की दैनिक आवश्यकता की वस्तुएं दुर्लभ हैं और बहुत महंगी हैं।’ 

उन्होंने कहा कि गत दिसंबर में भारतीय स्वाधीनता लीग तथा मलाया और बर्मा में आजाद हिंद फौज के सदस्यों द्वारा चिकित्सा मदद मांगने की अपील पर कांग्रेस कार्यसमिति ने जरूरतमंद लोगों को राहत देने के लिए मलाया, बर्मा इत्यादि में कांग्रेस की ओर से एक चिकित्सा मिशन भेजने का निश्चय किया है और डाॅ विधान चंद्र राय को मेरे परामर्श से एक मिशन गठित करने तथा उसे शीघ ही भेजने का प्रबंध करने के लिए अधिकृत किया गया। 

पब्लिक एजेंडा (28-08-2008)

कोसी तटबंध, कपूर कमीशन और आरोपित पुरस्कृत

सत्तर के दशक में कोसी सिंचाई योजना स्थल पर अररिया में तैनात एक सहायक अभियंता की शिक्षिका पत्नी के साथ एक ठेकेदार ने इसलिए बलात्कार किया क्योंकि उसके पति ने उसके बोगस बिल पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया था। इस बलात्कार की घृणित घटना को अंजाम देने के लिए ठेकेदार ने इंजीनियर के हाथ -पैर बांध दिए थे। अपनी आंखों के सामने हुई इस घटना के सदमे से वह इंजीनियर विक्षिप्त हो गया।उसका प्रमोशन रुक गया।बाद के वर्षों के एक सिंचाई मंत्री को असलियत का जब पता चला तो उन्होंने ‘अनुकम्पा’ के तहत देर से ही सही, पर उसे प्रोन्नति दे दी । जाहिर है कि उस बलात्कारी ठेकेदार को मजबूत राजनीतिक संरक्षण हासिल था। यह घटना इस बात का सबूत है कि किस तरह कोसी सिंचाई योजना के भ्रष्ट ठेकेदारों का मनोबल बढ़ा हुआ था। मनोबल इसलिए भी बढ़ा क्योंकि कोसी तटबंध व बराज के निर्माण के शुरूआती दौर में ही राजनीतिक मदद से भ्रष्टों का मनोबल बढ़ा दिया गया था। इस काम में अपनी ‘हिस्सेदारी’ के लिए भ्रष्ट राजनीति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस संबंध में हुई न्यायिक जांच आयोग की रपट भी यही कहती है। समय बीतने के साथ कोसी सिंचाई योजना में भ्रष्टाचार की समस्या इतनी विकराल होती गई कि संबंधित लोगों के भ्रष्टाचार और काहिली के कारण तटबंध का उचित रख- रखाव नहीं होता रहा और अंततः गत अगस्त में कुशहा में वह टूट गया । लाखों लोग तबाह हो गए। यह ह्रदय विदारक , दर्दनाक व शर्मनाक घटना वर्षों की लगातार उपेक्षा और भ्रष्टाचार के मिले -जुले असर के कारण हुई। हालांकि यह भी कहा जाना चाहिए कि इस बीच कोसी योजना से जुड़े सारे के सारे मंत्री, अफसर और ठेकेदार लोग भ्रष्ट ही नहीं थे।पर अच्छे और कर्मठ लोगों की संख्या इतनी कम रही कि वे भी लगातार होती बर्बादी को रोक नहीं पाए। इन दिनों बर्बाद कोसी क्षेत्र पर पूरी बिहार सरकार का ध्यान लगा हुआ है। उस क्षेत्र का पुनर्निर्माण जरूरी भी है।उस ओर ध्यान देने का नतीजा है कि बाकी बिहार के विकास की तेज गति अब प्रभावित हो रही है। इतनी बड़ी विपदा के लिए आखिर कौन- कौन लोग जिम्मेदार रहे हैं, उनकी खोज खबर जरा जरूरी है। हालांकि यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि गत अगस्त में कुशहा में तटबंध की टूट के लिए जिम्मेदार मौजूदा सरकारी व गैर सरकारी लोगों का कसूर कुछ कम है। बात शुरू से ही प्रारंभ की जाए।कोसी तटबंध और बराज का निर्माण पचास के दशक में शुरू हुआ था।इसके निर्माण कार्य में सरकार को सहयोग करने के लिए भारत सेवक समाज ने भी गैर सरकारी संगठन के रूप में योगदान किया था।उसका काम कोसी तटबंध के निर्माण में श्रमदान व जन सहयोग की व्यवस्था करना था।इसके लिए भी उसे सरकार से पैसे मिले थे। पर आरोप लगा कि समाज ने उन पैसों का गोलमाल किया है। भारत सेवक समाज को उच्चस्तरीय राजनीतिक संरक्षण हासिल था। तकनीकी रूप से भले भारत सेवक समाज जिम्मेदार माना गया, पर नैतिक जिम्मेदारी तो तब के कुछ बड़े सत्ताधारी नेताओं की ही थी जिन्होंने इसमें तरह तरह के भ्रष्टाचार को संरक्षण दिया था। कोसी तटबंध निर्माण योजना में भ्रष्टाचार की शिकायतों की चर्चा जब तेज हुई तो केंद्र सरकार ने आरोपों की जांच सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस जे.एल.कपूर से कराई थी।कपूर आयोग ने सन् 1973 में ही अपनी रपट केंद्र सरकार को दे दी ।आयोग ने भारत सेवक समाज के खिलाफ आरोप को सही पाया। आयोग की रपट से यह साफ हो गया कि किस तरह योजना की शैशवास्था में ही उसमें किस तरह भ्रष्टाचार का बीज बो दिया गया। 27 जुलाई 1987 को बिहार विधान सभा में कपूर कमीशन की रपट पर जो चर्चा हुई थी, उसका विवरण यहां प्रस्तुत करना मौजू होगा। उमाधर प्रसाद सिंह -क्या मंत्री, मंत्रिमंडल (निगरानी) विभाग यह बताने की कृपा करेंगे कि (1) क्या यह बात सही है कि कोसी योजना के तहत भारत सेवक समाज, बिहार द्वारा की गई अनियमितता की जांच कपूर कमीशन द्वारा 1965 में की गई थी,(2) क्या यह बात सही है कि उक्त कमीशन ने 1967 में ही सरकार को प्रतिवेदन दिया था जिसमें स्वामी हरिनारायणनंद, अध्यक्ष, भारत सेवक समाज, बिहार को उक्त अनियमितताओं के लिए प्रमुख दोषी करार दिया था,(3) क्या यह बात सही है कि स्वामी हरिनारायणानंद को बिहार सरकार द्वारा 1985 से अब तक भ्रष्टाचार निरोध समिति के अध्यक्ष पद पर रखने का क्या औचित्य है ?रामाश्रय प्रसाद सिंह (मंत्री) -अध्यक्ष महोदय, माननीय सदस्य उमाधर सिंह का जो सवाल है, यह सवाल संबंधित है कपूर कमीशन से। कपूर कमीशन को भारत सरकार ने बनाया था। सारे कागजातों को देखने की कोशिश हमने की है। भारत सरकार से बिहार सरकार में कमीशन के संबंध में एक्शन के लिए कोई रिपोर्ट नहीं हुई है। इसलिए बिहार सरकार द्वारा इसमें उत्तर देना कठिन है।रघुनाथ झा-स्वामी हरिनारायणानंद का नाम है या नहीं ? उनके उपर दोष प्रमाणित हुए हैं या नहीं, कपूर कमीशन में ?रामाश्रय प्रसाद सिंह - हमारे पास कोई आधार नहीं है जिससे कि हम कह सकें कि स्वामी हरिनारायणानंद का नाम था और वे अभिुक्त थे।उमाधर सिंह - माननीय मंत्री जी ने बताया कि भारत सरकार का यह कपूर कमीशन था।पर, जांच हुई थी कोसी योजना में।उस समय भारत सेवक समाज के द्वारा जो काम किए गये थे, उसके बारे में और बिहार में भी जांच हुई थी कोसी योजना में जो घोटाले हुए थे, उस पर जांच हुई थी।और कपूर कमीशन ने सारी अनियमितताओं के लिए स्वामी हरिनारायणानंद को दोषी ठहराया था।आप कहते हैं कि सिंचाई विभाग में कोई रिपोर्ट नहीं है, यह आश्चर्य की बात है।रामाश्रय सिंह - सिंचाई विभाग की बात नहीं है। हमने यह कहा कि भारत सरकार के यहां से रपट हमलोगों के यहां नहीं आई है। राजो सिंह - अध्यक्ष महोदय, अभी माननीय मंत्री महोदय ने कहा कि यह कमीशन भारत सरकार ने बनाया है और कोई रेफेरेंस बिहार सरकार के साथ नहीं हुआ है।मैं आपके माध्यम से जानना चाहता हूं कि जो विषय था भारत सेवक समाज का,वह बिहार राज्य के क्षेत्र का था या बाहर का था ?रामाश्रय प्रसाद सिंह - इसमें बिहार राज्य के कोसी क्षेत्र में जो सोशल वर्क हो रहे थे, उससे संबंधित था और दूसरे राज्य से भी संबंधित जो भारत सेवक समाज के थे,से था। अध्यक्ष (शिव चंद्र झा) - मैं सोचता हूं कि आपके पास कागजात उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन सरकार उस रिपोर्ट के संबंध में, केंद्र सरकार जहां जांच हुई है, से जानकारी ले ले और यदि ऐसी कोई बात हो, तो यह जनहित का प्रश्न है, आपको उस पर उचित कार्रवाई करनी चाहिए।रामाश्रय प्रसाद सिंह - अध्यक्ष महोदय, हमने रेजिडेंट कमीश्नर को टेलिपिं्रंटर संदेश दिया है कि भारत सरकार से पूरी रिपोर्ट लेकर दिया जाए।रघुनाथ झा - माननीय मंत्री ने दो खंडों में उत्तर दिया।अध्यक्ष महोदय,माननीय मंत्री ने हवाला दिया है कपूर कमीशन का और इसकी रिपोर्ट के बारे में जानकारी बिहार को नहीं है।तीसरा खंड देखा जाए।‘क्या यह बात सही है कि स्वामी हरिनारायणानंद को बिहार सरकार द्वारा 1985 से अब तक भ्रष्टाचार निरोध समिति के अध्यक्ष पद पर रखा गया है।इसके बारे में मंत्री जी ने कोई उत्तर नहीं दिया है।रामश्रय प्रसाद सिंह - इसलिए कि उस रिपोर्ट की कोई चीज हमारे पास नहीं है।कैसे जवाब देंगे ? जब रिपोर्ट है ही नहीं तो उस पर क्या जवाब देंगे ? (सदन में शोरगुल) (कई माननीय सदस्य खड़े हो गए।)अध्यक्ष - आप बैठ जाएं।उत्तर दिलवा देता हूं। (सदन में शोरगुल) अध्यक्ष - शंति शांति ।राजो सिंह - अध्यक्ष महोदय, एक बात सुन लीजिए। माननीय सदस्य रघुनाथ झा ने आपका ध्यान आकृष्ट किया, सरकार का ध्यान आकृष्ट किया। मूल प्रश्न जो माननीय सदस्य उमाधर सिंह ने किया है, उसका अंतिम निचोड़ है कि इन पर कपूर आयोग में आरोप भी है तो क्या सरकार उनको (स्वामी हरिनारायणानंद को) हटाएंगी या नहीं ?अध्यक्ष- माननीय सदस्य श्री रघुनाथ झा ने प्रश्न के खंड - 3 की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट किया है। इस ख्ंाड के अंदर है , क्या यह बात सही है कि स्वामी हरिनारायणानंद को बिहार सरकार द्वारा 1985 से अब तक बिहार भ्रष्टाचार निरोध समिति के अध्यक्ष पद पर रखा गया है, तो मैं सोचता हूं कि सरकार को उत्तर स्वीकारात्मक है, कहने में कहां आपत्ति है ?रामाश्रय प्रसाद सिंह-उत्तर स्वीकारात्मक है। (सदन में शोर गुल)अध्यक्ष -अब बात समाप्त है। (इस अवसर पर विरोधी पक्ष के कई सदस्य खड़े हो गए।)अध्यक्ष - शांति, शांति। आप कृपया बैठ जाएं। फिर पूछेंगे। नक्सली विधायक उमाधर प्रसाद सिंह ने यह मामला बिहार विधान सभा में फिर 12 जनवरी 1988 को उठाया। उन्होंने कहा कि मैंने कपूर कमीशन की रपट की कापी के साथ एक पत्र भेज दिया है। पर सरकार ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की। हालांकि कपूर कमीशन की रपट की काॅपी उपलब्ध नहीं रहने का बिहार सरकार का बहाना भी समाप्त हो गया था। पर राज्य सरकार को न तो कोई कार्रवाई करनी थी और न ही उसने किया। यानी, ऐसे व्यक्ति को भी भ्रष्टाचार निरोधक संगठन का प्रधान बना दिया गया , खुद जिस पर गड़बडि़यों का आरोप कपूर आयोग ने लगाया। पर ऐसा यह इकलौता मामला नहीं है।जिस प्रतिपक्ष ने कपूर कमीशन की रपट के आधार पर कार्रवाई करने की मांग विधान सभा और लोक सभा में की,उसी प्रतिपक्ष ने अय्यर कमीशन द्वारा दोषी ठहराए गए एक संगठन कांग्रेसी नेता को उन्हीें दिनों बिहार वित्तीय निगम का अध्यक्ष बना दिया था।यह बात तब की है जब कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्य मंत्री (1970-71 ) थेे। याद रहे कि संगठन कांग्रेस और जनसंघ की मदद से संसोपा नेता कपूरी ठाकुर ने तब सरकार बनाई थी। उमाधर सिंह ने तो स्वामी हरिनारायणानंद को ध्यान में रख कर विधान सभा में यह मामला उठाया था। पर यह तो पूरे मामले का एक छोटा पहलू था।स्वामी हरिनारायणानंद के एक मददगार व तब के केंद्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्र को भी कोसी घोटाले को लेकर संसद में .सफाई देनी पड़ी थी। 2 जून 1971 को संसद में एल.एन.मिश्र ने कहा कि मैंने मई 1957 में ही भारत सेवक समाज की कोसी शाखा के संयोजक पद से इस्तीफा दे दिया था।उन्होंने यह भी कहा कि कोसी तटबंध के निर्माण के दौरान पैसे उन्हें ही दिए गए थे जिसे कमेटी ने देने के लिए कहा था।पैसे भी उसी काम में खर्च हुए थे जिस काम के लिए वे थे। पर, कपूर कमीशन ने अपनी विस्तृत रपट में यह बात लिखी है कि मिश्र द्वारा उठाए गए पैसों में से सबका हिसाब नहीं दिया गया। (कपूर आयोग रपट-पेज -104) एल.एन.मिश्र के अलावा भी कई सार्वजनिक नेताओं की चर्चा रपट में है। याद रहे कि सन् 1954 की प्रलंयकारी बाढ़ के बाद कोसी की धारा को नियंत्रित करने के लिए तटबंध और बराज बनाने का निर्णय हुआ।पर उच्च स्तर पर यह भी तय हुआ कि सरकार के पास चूंकि पैसों की कमी है, इसलिए स्वयंसेवी संगठन और राजनीतिक दल के लोग जनता के सहयोग से श्रमदान के जरिए भी तटबंध निर्माण के काम में हाथ बंटाएं। कपूर आयोग की रपट कहती है कि एल.एन.मिश्र ने 16 नवंबर 1955 को यह सलाह दी कि भारत सेवक समाज से भी काम कराया जाए।पर भारत सेवक समाज से काम कराना कितना महंगा पड़ा ,उसका जिक्र रपट में किया गया है।रपट के अनुसार सरकार द्वारा तय ठेकेदारों से मिट्टी का जो काम कराया गया, उस पर सरकार को प्रति सी.एफ.टी. 34 रुपए खर्च हुए।पर जो काम श्रमदान से हुआ,उस पर सरकार का खर्च आया 59 रुपए प्रति सी.एफ.टी.। (कपूर आयोग रपट-पेज संख्या-82) इतना ही नहीं, तथाकथित स्वयंसेवकों को इस काम के लिए जितने पैसे दिए गए, उनमें से भारी धनराशि का कोई हिसाब ही उनलोगों ने नहीं दिया। बिहार प्रदेश भारत सेवक समाज के संयोजक स्वामी हरिनारायणानंद को 3 नवंबर 1961 को तत्कालीन मुख्य मंत्री विनोदानंद झा ने पत्र लिखा। पत्र में कहा गया कि ‘कोसी योजना के कार्यान्वयन में कम्युनिटी सेविंग फंड के उपयोग को लेकर विवाद है। इसको लेकर विधायिका में राज्य सरकार को अनेक सवालों का सामना करना पड़ रहा है।प्रेस में यह विवाद छप रहा है।अच्छा होगा कि इस फंड का आॅडिट सरकारी ंएजेंसी से करा लिया जाए।’ इसके जवाब में 6 नवंबर 1961 को स्वामी हरिनारायणानंद ने मुख्य मंत्री को लिखा कि किसी सरकारी एजेंसी से आॅडिट कराने की जरूरत नहीं है। इतना ही नहीं, तत्कालीन केंद्रीय उप मं.त्री एल.एन.मिश्र ने भी इस संबंध में 9 नवंबर, 1961 को विनोदानंद झा को लिखा कि सरकारी एजेंसी से आॅडिट कराने की जरूरत नहीं है। याद रहे कि मुख्य मंत्री से प्राप्त पत्र की कापी स्वामी हरिनारायणानंद ने एल.एन.मिश्र को भेज दी थी।सवाल है कि स्वामी और मिश्र सरकारी एजेंसी से आॅडिट कराने से क्यों भाग रहे थे ?यदि हिसाब किताब ठीकठाक हो तो कोई किसी भी तरह की जांच से क्यों भागेगा ?पर यह तो कोसी योजना का दुर्भाग्य ही रहा कि ‘प्रथम ग्रासे मक्षिकापातः’ हो गया।यानी भ्रष्टाचार का घुन इस योजना के शैशवावस्था में ही लग गया।बाद में भी जब- जब कोसी तटबंधों के मरम्मत कार्य या वहां किसी और तरह के विकास व निर्माण कार्य हुए तो आम तौर पर एक खास तरह के ठेकेदार, इंजीनियर व नेतागण गिद्ध की तरह उसमें लग गए। ईमानदार लोग वहां कम ही तैनात किए गए।आए दिन भ्रष्टाचार के आरोप विधायिका व मीडिया में उछलते रहे।तटबंधों की शायद ही कभी ठीकठाक मरम्मत व रख रखाव के काम हुए। बिहार का बच्चा- बच्चा जानता है कि कोसी योजना के लुटेरे कौन-कौन लोग रहे हंै। उन लुटेरों को राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण देने वाले कौन- कौन लोग रहे हैं। किस तरह विभिन्न आयोग व समितियों की रपटों व वहां के ईमानदार अफसरों व अन्य लोगांे की सूचनाओंं केा दबाया जाता रहा। बिहार विधान सभा की प्राक्कलन समिति के तिरपनवें प्रतिवेदन में भी कोसी योजना में लूट का विवरण है। यह प्रतिवेदन सत्तर के दशक में बिहार विधान सभा में पेश हुआ था। एक मजबूत धारा कोसी की है और दूसरी मजबूत धारा कोसी तटबंधों व नहरों के निर्माण व उसके रख रखाव के लिए सरकारी पैसों की लूट की भी रही है।ये धाराएं समानांतर चल रही हैं।नब्बे के दशक के कुछ वर्षों को छोड़कर कोसी योजना में लूट न सिर्फ जारी रही, बल्कि बढ़ती ही रही। नतीजतन तटबंध के रख रखाव का काम उपेक्षित हुआ और आखिरकार इस साल अगस्त में कुशहा में तटबंध टूट गया।यह एक दिन के पाप का नतीजा नहीं है, बल्कि यह पाप कोसी तटबंध के निर्माण के शुरूआती दौर से ही शुरू हो गया। इन दिनों कोसी प्रलय को लेकर असली गुनाहगारों की तलाश चल रही है। पर कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि असली गुनहगार तो वही लोग हैं जिन्होंने कोसी निर्माण योजना की नींव में भ्रष्टाचार का बीज डाल दिया। संबंधित भ्रष्ट लोगों के मुंह में हिंसक पशु की तरह रिश्वत के पैसों के खून का चश्का बहुत पहले लग गया था।शायद ही कभी दोषी व्यक्तियों और उनके अफसर, नेता और मददगार मंत्रियों के खिलाफ कोई कारगर कार्रवाई हुई।इस संबंध में उत्तर बिहार के झंझारपुर से सन् 1980-84 में लोक सभा के कांग्रेसी सदस्य रहे डा.गौरी शंकर राजहंस ने हाल में लिखा कि ‘बिहार की प्रलयंकारी बाढ़ का एक दूसरा वीभत्स रूप भी है। पिछले 30 वर्षों से यह देखा गया है कि जैसे ही बाढ़ आती है और उसकी खबर रेडियो,टीवी तथा समाचार पत्रों के द्वारा देश के विभिन्न भागों में पहुंचने लगती है स्वार्थी राजनेता, इंजीनियर और सरकारी अफसर एकजुट होकर जनता को लूटना शुरू कर देते हैं।ंं कई बार तो ऐसा देखा गया है कि बाढ़ से लोगों को बचाने के लिए जो बडे-़ बड़े तटबंध बनाए गए हैं,उन्हें राजनेताओं और इंजीनियरों के चमचे रातों रात काट देते हैं, ताकि बाढ़ का पानी रुकने के बजाए गांवों में चला जाए और लोग तबाह हो जाएं। हर वर्ष राहत कार्य में भयानक धांधली और भ्रष्टाचार होता है। सरकारी सहायता का सौंवा हिस्सा भी बाढ़पीडि़तों तक नहीं पहुच पाता।’ जो बीज पचास के दशक में डाला गया,वह समय बीतने के साथ वृक्ष बन गया और उससे तटबंधों में दरार आनी ही थी जो इस साल कुशहा में आई और लाखों लोग तबाह हो गए। कोसी तटबंध की देखभाल के लिए जब तक ईमानदार व चुस्त अफसरों की तैनाती नहीं होगी तब तक विपदाएं आती ही रहेगी। क्योंकि अब तक तो वह तटबंध तरह तरह के भ्रष्ट तत्वों के लिए दुधारू गाय ही है। पब्लिक एजेंडा मेंं प्रकाशित

अय्यर कमीशन के बावजूद राजनीति में भ्रष्टाचार बढ़ा

यदि अय्यर कमीशन द्वारा 1970 में दोषी करार दिए गए बिहार के कांग्रेसी नेताओं को सजा मिल गई होती तो शायद नेताओं की अगली पीढि़यों को सबक मिलता और बिहार को बर्बाद होने से बचा लिया गया होता।पर उन्हें सजा देने -दिलाने में गैर कांग्रेसी दलों और आम मतदाताओं ने भी बाद में कोई खास रूचि नहीं दिखाई।क्योंकि बाद के वर्षों में तो अनेक गैरकांग्रेसी नेतागण भी समय समय पर दागी होने से नहीं बचे। लंबे समय तक सरकार में रह कर भ्रष्टाचार,अनियमितता और भाई भतीजावाद करने के आरोपों की जांच के लिए 1967 में अय्यर आयोग बना था।जिन नेताओं के खिलाफ आरोपों की जांच के लिए यह आयोग बना था,उनके नाम हैं कृष्ण बल्लभ सहाय,महेश प्रसाद सिंहा,सत्येंद्र नारायण सिंहा,राम लखन सिंह यादव,राघवेंद्र नारायण सिंह और अम्बिका शरण सिंह।ये नेतागण 1946 और 1966 के बीच बिहार मंत्रि परिषद के सदस्य रह चुके थे।के।बी।सहाय तो मुख्य मंत्री भी रह चुके थे। के।बी।सहाय 16 अप्रैल 1946 से 5 मई 1957 तक राजस्व मंत्री थे। फिर वे 29 जून 1962 से 2 अक्तूबर 1963 तक मंत्री रहे।वे 2 अक्तूबर 1963 से 5 मार्च 1967 तक मुख्य मंत्री रहे। महेश प्रसाद सिंहा 29 अप्रैल 1952 से 5 मई 1957 तक मंत्री रहे। वे 15 मार्च 1962 से 5 मार्च 1967 तक सिंचाई मंत्री रहे।सत्येंद्र नारायण सिंहा 18 फरवरी 1961 से 5 मार्च 1967 तक शिक्षा मंत्री रहे।राम लखन सिंह यादव 2 अक्तूबर 1963 से 5 मार्च 1967 तक लोक निर्माण मंत्री रहे।राघवेंद्र नारायण सिंह 2 अक्तूबर 1963 से 5 मार्च 1967 तक परिवहन राज्य मंत्री रहे। अम्बिका शरण सिंह 6 मई 1957 से 2 अक्तूबर 1963 तक उप मंत्री रहे। 2 अक्तूबर 1963 से 5 मार्च 1967 तक राज्य मंत्री रहे। आयोग ने इन सारे नेताओं को किसी न किसी मामले में दोषी करार दिया था।राज्य का भला होता और भविष्य में सत्ताधारियों और प्रतिपक्षी नेताओं को भी सीख मिलती,यदि इन नेताओं को सार्वजनिक जीवन से दूर ही कर दिया गया होता।पर ऐसा नहीं हो सका तो इसके लिए न सिर्फ प्रतिपक्ष,बल्कि मतदाताओं का एक वर्ग भी जिम्मेदार रहा जिसने इनमें से अधिकतर नेताओं को अय्यर कमीशन की रपट आ जाने के बाद भी कहीं न कहंीं से चुनाव जितवा दिया। 1967 में बिहार में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो उसके मुख्य मंत्री बने महा माया प्रसाद सिंहा।उप मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर थे और उस मंत्रिमंडल में एक साथ सी.पी.आई.और जनसंघ के मंत्री शामिल थे।इन नेताओं के दिलों में तब तक सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ काफी रोष था और वे चाहते थे कि उन नेताओं को सबक सिखाया जाए जिन्होंने आजादी के बाद बिहार में सत्ता में आने के बाद न सिर्फ खुद कई तरह के भ्रष्टाचार किए बल्कि उन्हें बढ़ावा भी दिया।बिहार सरकार के तत्कालीन मुख्य सचिव एस.वी.सोहोनी ने 1 अक्तूबर,1967 को एक अधिसूचना जारी की।अधियूचना में कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज टी.एल.वेंकटराम अय्यर की अध्यक्षता में जांच आयोग का गठन किया जा रहा है जो कृष्ण बल्लभ सहाय,महेश प्रसाद सिंहा,सत्येंद्र नारायण सिंहा,राम लखन सिंह यादव,राघवेंद्र नारायण सिंह और अम्बिका शरण सिंह के खिलाफ आरोपों की जांच करेगा।आरोपों की फेहरिस्त लंबी थी। इस आयोग के गठन से संबंधित अधिसूचना को अभियुक्तों ने अदालत में चुनौती दी।पर अदालत ने आयोग के काम नहीं रोके।आयोग ने आरोपों की जांच की।करीब करीब सभी अभियुक्तों के खिलाफ आयोग ने कोई न कोई आरोप सही पाए। हालांकि कई आरोप गलत भी पाए गए।के.बी.सहाय के खिलाफ अपने ही पुत्र को अपनी ही कलम से खान का पट्टा गलत तरीके से देने का आरोप था।इस आरोप को आयोग ने भी सही माना।कई अन्य मामलों में आयोग ने सहाय को दोषी माना।उनके बैंक में 1946 में मात्र 600 रुपए थे जो 1966 में बढ़कर 6 लाख 32 हजार हो गए थे।इसके अलावा करीब 12 भूखंडों के कागजात भी मिले जो उन्होंने मंत्री बनने के बाद खरीदे थे। महेश प्रसाद सिंहा पर गंडक योजना के ठेकेदार रमैया के मैनेजर से 75 हजार रुपए घूस लेने का आरोप सही पाया गया।सत्येंद्र नारायण सिंहा पर जातिवाद का आरोप आयोग ने सही पाया।राम लखन सिंह यादव पर तो कई आरोप सही पाए गए। पर उन पर एक आरोप दिलचस्प किंतु शर्मनाक था।उनका पटना के किदवई पुरी मुहल्ले के उनके एक पड़ोसी व्यापारी से जमीन को लेकर विवाद था।व्यापारी का आरोप था कि श्री यादव उनकी जमीन पर कब्जा करना चाहते हैं।उनसे उसकी जान पर खतरा है।दीघा थाने के दारोगा ने उस व्यापारी की सुरक्षा के लिए उसके घर के आगे एक लाठीधारी सिपाही तैनात कर दी।उस समय लाठीधारी सिपाही की भी बड़ी धाक थी।इस पर श्री यादव आग बबूला हो गए।उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके न सिर्फ उस दारोगा का तबादला करवा दिया बल्कि उसका डिमोशन भी करवा दिया।यह मामला भी अय्यर आयोग के पास गया था। आयोग ने इसके लिए भी राम लखन सिेह यादव को दोषी पाया।राघवेंद्र नारायण सिंह और अम्बिका शरण सिंह भी आयोग से दागी होने से नहीं बच सके। आयोग की रपट 5 फरवरी,1970 को बिहार सरकार को सौंप दी गई।पर तब तक बिहार में राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हो चुका था जो 1972 तक चला।अस्थिरता का कारण था कांग्रेस और गैरकांग्रेसी दलों में सत्तालोलुपता और अवसरवादिता में अचानक भारी बढ़ोत्तरी। गैरकांग्रेसी दलों में भी भ्रष्टाचार के बीज पड़ चुके थे।इस तरह नेताओं के स्वार्थ के लिए दल बदल हुए और 1967 और 1972 के बीच कई मंत्रिमंडल बने और बिगड़े।ऐसे में न तो गैर कांग्रेसी दलों में वह नैतिक बल रहा कि वह अय्यर आयोग द्वारा दोषी पाए गए नेताओं को सजा दिलवाते ,उनके खिलाफ जन मानस को शिक्षित करते और न ही इन दागी कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ जनता में भी पहले जैसा गुस्सा रह गया था।क्योंकि जनता ने इन कांग्रेसियों को सत्ता से हटाकर जिन प्रतिपक्षी नेताओं को सत्ता में लाया था,वे भी कोई आदर्श स्थापित नहीं कर सके। हद तो तब हो गई जब 1970 में कर्पूरी ठाकुर के मुख्य मंत्रित्व में जो संविद सरकार बिहार में बनी उसने अम्बिका शरण सिंह को बिहार राज्य वित्तीय निगम का अध्यक्ष बना दिया।संविद की सरकार संसोपा,जनसंघ,संगठन कांग्रेस और स्वतंत्र पार्टी ने मिलकर बनाई थी।के.बी.सहाय,महेश प्रसाद सिंहा,सत्येंद्र नारायण सिंह और अम्बिका शरण सिंह तब तक संगठन कांगेस के नेता बन चुके थे।याद रहे कि अय्यर कमीशन बनाने में कर्पूरी ठाकुर और भोला प्रसाद सिंह जैसे समाजवादी नेताओं का बड़ा योगदान था।पर सत्ता का मोह जो न कराए।प्रतिपक्षी दलों के पतन की यह संभवतः शुरूआत थी।इसी के साथ बिहार के प्रमुख गैर कांग्रेसी दलों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने का नैतिक अधिकार भी खो दिया। बिहार में राजनीतिक कार्यपालिका के पतन की वह शुरूआत थी जिसका असर कार्यपालिका तथा दूसरे क्षेत्रों परं भी पड़ा। पर एक बात माननी पड़ेगी कि आज के नेताओं पर भ्रष्टाचार के जितने गंभीर आरोप लग रहे हैं,उसके अनुपात में अय्यर आयोग के सामने लगे आरोप कुछ भी नहीं थे।आखिर अय्यर आयोग के आरोपी स्तंत्रता सेनानी रह चुके थे और उनमें लोक लाज बची हुई थी। पर यह बात भी सच है कि उन पूर्वजों से थोड़ी और संयम की उम्मीद थी।याद रहे कि अय्यर आयोग के सभी आरोपियों का अब निधन हो चुका है।पर यह कहावत भी निर्विवाद रुप से सच है कि महाजनो जो न गता सो पंथा। अय्यर आयोग के कम से कम एक आरोपी के सचमुच जेल जाने की नौबत आ गई थी।पर जब उनका निधन हुआ तो यह अफवाह फैली कि जेल जाने से बचने के लिए ही उन्होंने जहर खा लिया था।स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान तो वे कई बार गर्व के साथ जेल गए थे।पर उन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाना गंंंंवारा न था। तब के और आज के नेताओं में यह भी एक फर्क आया है।अब तो आज के नेता जब भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भी जाते हें तो उन्हें कोई शर्म नहीं आती।अब तो जेल कुछ नेताओं के लिए गुरूद्वारा बन चुकी है। अय्यर कमीशन के गठन के कारण भी महामाया प्रसाद सिंहा की सरकार एक साल के भीतर ही गिर गई।वह सरकार कुल मिलाकर पहले की सरकार की अपेक्षा अच्छा काम कर रही थी।उस सरकार के अधिकतर मंत्री जन सेवा की भावना से ओतप्रोत लगे।पर मिली जुली सरकार को समर्थन देने वाले दलों के कई विधायक मंत्री बनने के लिए उतावले थे।फिर बी.पी.मंडल बिहार मंत्रिमंडल में बने रहना चाहते थे।वे संसोपा के टिकट पर लोक सभा के लिए 1967 में चुने गए थे।पर उन्हें बिहार में कैबिनेट मंत्री बना दिया गया था।बाद में जब डा.राम मनोहर लोहिया ने उन पर ं मंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए दबाव डाला तो उन्होंने शोषित दल बना कर महामाया सरकार ही गिरवा दी।उन्हें मदद मिली अय्यर आयोग के आरेपियों से जो उन दिनों कांग्रेस में ही थे।1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद ये आरोपी संगठन कांग्रेस के नेता बने। यानी कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि अय्यर आयोग के गठन के जरिए बिहार की राजनीति की सफाई की पहली ठोस कोशिश की गई थी जो पक्ष विपक्ष के कई नेताओं ,लोगों और तत्वों की गलतियों ओर बेईमानियों के कारण विफल हो गई।इसका खामियाजा बिहार को आज तक भुगतना पड़ रहा है।अब बिहार में राजनीति और प्रशासन की सफाई करना काफी कठिन काम हो गया है।
प्रकाशित

बुधवार, 21 जनवरी 2009

गणतंत्र दिवस पर लोकतंत्र बचाने की चिंता


भारतीय गणतंत्र के 59 साल में हमने क्या खोया और क्या पाया ? इस सवाल से जूझते हुए किसी निष्पक्ष व्यक्ति के दिमाग में पहली नजर में मुख्यतः कम से कम दो बातें कौंधती हैंं। हमारे देश के 80 करोड़ लोगों की रोज की आय सिर्फ बीस रुपए है।दूसरी ओर, इस देश के 36 उद्योगपतियों की कुल संपत्ति 191 अरब अमेरिकी डालर है।यह राशि भारत की 20 प्रतिशत आबादी की कुल आमदनी के बराबर है।इन 36 में से तीन लोग तो दुनिया के सर्वाधिक बीस अमीरों में शामिल हंै।बीस में सिर्फ पांच ही अमेरिका के हैं।यानी भारत में आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ रही है।असमानता से असंतोष पैदा हो रहा है।असंतोष जहां तहां विद्रोह को जन्म दे रहा है।विद्रोह कहीं हिंसक है तो कहीं अहिंसक। संविधान लागू होने के 58 साल बाद यह स्थिति है।जिस तरह औने पौने दाम पर जमीन व प्राकृतिक साधनों पर निजी कंपनियां कब्जा करती जा रही हैं,उससे यह संकेत है कि यह विषमता अभी और भी बढ़ेगी।विषमता बढ़ने के साथ साथ माओवादियों का प्रभाव क्षेत्र भी बढ़ता जा रहा है।लगता तो यह है कि इस देश के अधिकतर हुक्मरान स्वार्थ में अंधे होकर देश को दोनोें हाथों से लूट रहे हैं और अंततः देर सवेर माओवादियों के हाथों इस देश को सौंप कर विदेश पलायन कर जाना चाहते हैं।यह संयोग नहीं है कि इस देश के तीन प्रतिशत अमीर लोगों ने नाजायज तरीके से अब तक विदेशों में 30 से 40 बिलियन डालर जमा कर रखा है।इस देश के अनेक अमीर व प्रभावशाली लोगों को हर साल नौ लाख करोड़ रुपए की कर-चोरी की छूट मिली हुई है। यह सब भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्व को नजरअंदाज करके हो रहा है।या यूं कहिए कि होने दिया जा रहा है। जतन से बनाए गए अपने संविधान के भाग - चार में राज्य के लिए कुछ नीति निदेशक तत्व दिए हुए हैं।एक तत्व भारत में संपत्ति के कुछ ही हाथों में संके्रद्रण को रोकने का उपाय बताता है।संविधान के अनुच्छेद - 39 @ग@ में लिखा हुआ है कि ‘आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले कि जिससे धन और उत्पादन के साधनों का अहितकारी संकेंंद्रण नहीं हो।’यानी,धन इस तरह कुछ लोगों की मुट्ठी में न चला जाए जिससे सर्व साधारण का अहित हो।पर संविधान के इस प्रावधान का इस देश में खुलेआम उलंघन हो रहा है।ऐसा उलंघन शायद ही किसी अन्य देश में हो रहा हो।सर्वाधिक शर्मनाक बात यह है कि गरीबों के हित साधन को मुद्दा बनाकर सत्ता में आई सी.पी.एम. सरकार बंगाल में पूंजीपतियों को जमीन दिलाने के लिए गरीब किसानों का दमन कर रही है।वह भी छोटी कार बनाने के लिए।यदि आरामदायक बसें या बेहतर तकनीकी की साइकिलें या बेहतर लालटेन बनाने वाले उद्योगपतियों को सी.पी.एम.सरकार बढ़ावा देती तो बात समझ में आ सकती थी।पर, इन दिनों तो लगता है कि अधिकतर लोगों की मति ही मारी गई है। इस युग के अधिकतर नेताओं की मेहरबानी से यही सब 58 साल की उपलब्धियां हैं। जिस देश के 80 करोड़ लोगों की रोज की आय सिर्फ 20 रुपए मात्र हो,उस देश के सांसद पर हर माह करीब ढाई लाख रुपए खर्च हो,उसका कुछ ‘नतीजा’ ता देर सवेर निकलेगा ही। 58 साल की ‘उपलब्धि’ यह है कि आज देश की लोकतांत्रिक सिस्टम में एक भी राज नेता ऐसा नहीं है जो युवाओं के लिए आदर्श हो। संभवतः इसीलिए आज के युवा फिल्म व क्रिकेट में अपना आदर्श ढ़ंूढ़ने को मजबूर हैं। आज अधिकतर नेता देश के बारे में नहीं,बल्कि अपने पद,परिवार और पार्टी के बारे में ही चिंता करने में मगन हैं। देश कहां जा रहा है,इसकी चिंता मुख्य धारा की राजनीति करने वाले कितने लोगों में है ? थोड़े से लोगों की बढ़ती अमीरी को बेशर्मीपूर्वक पूरे देश की अमीरी का प्रतीक बताया जा रहा है।जबकि देश के सामान्य लोगों में व्यापक कुपोषण है।प्राथमिक शिक्षा उपेक्षित है।25 प्रतिशत लोग इस देश में अब भी निरक्षर हैं। इतने ही लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं।50 प्रतिशत महिलाएं निरक्षर हैं।कृषि पर काफी कम कम ध्यान दिया जा रहा है।बड़े शहरों को चमकाया जा रहा है। बच्चों और महिलाओं के कुपोषण को समाप्त करने के लिए भारत सरकार हर साल 4400 करोड़ रुपए आंगनबाडि़यों पर खर्च करती हैं।पर उनमें से अधिकांश राशि बीच में ही लूट ली जाती है।ऐसी लूट अन्य विकास व कल्याण योजनाओं में जारी है।गत दिसंबर तक के आकड़े के अनुसार भारत के हर व्यक्ति पर 6085 रुपए का विदेशी कर्ज है।यह संयोग नहीं है कि बिहार में लघु सिंचाई विभाग के मुख्य अभियंता के आवासों पर जब छापामारी होती है तो नकद 49 लाख रुपए पाए जाते हैं।इस तरह के कितने लोगों के यहां छापे पड़ेंगे तो इससे कम पेसे मिलेंगे ? हाल में किसी ने एक बैठकखाने की गपशप में कहा कि इस देश में किसी पार्टी या किसी नेता का शासन नहीं है बल्कि यहां तो ‘भ्रष्टाचार का शासन है।’ संभवतः उसने ठीक ही कहा। 58 साल के गणतंत्र और साढ़े साठ साल की आजादी के बाद हमें अक्सर यह सुनने को मिल जाता है कि रिश्वत के बल पर यहां कुछ भी कराया जा सकता है।जिसके पास पैसे हैं,वे हर तरह से निश्चिंत है।हो सकता है कि यह बात अक्षरशः सही नहीं हो,पर काफी हद तक सही है। गत आधी सदी में इस देश में एक और महत्वपूर्ण फर्क आया है।पहले भी थोड़ा-बहुत भ्रष्टाचार था।पर,भ्रष्ट लोग पहले शर्माते थे।वे ईमानदार लोगों से दबते थे।कुछ भ्रष्ट तत्व ईमानदार लोगों की इज्जत भी करते थे।पर अब आम तौर पर हर क्षेत्र में ईमानदार लोग ही दबते नजर आते हैं और हर क्षेत्र का भ्रष्ट तत्व सांड़ की तरह समाज में ऐंठ कर चलता है।सबसे बुरी बात है कि यह राजनीति में सबसे अधिक है।अब तो अनेक नेता खुलेआम यह कहते हैं कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा ही नहीं है।यह साढ़े साठ साल की आजादी व 58 साल के गणतंत्र का ‘विकास’ है।हालांकि सभी नेता भ्रष्ट ही नहीं हैं।पर ईमानदार नेता कमजोर पड़ते नजर आ रहे हैं।इतना कमजोर वे पहले कभी नहीं थे। मेरे सपनों का भारत नामक किताब में महात्मा गांधी ने लिखा था कि ‘मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा जिसमें गरीब से गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि वह उनका देश है-जिसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्व है।मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा जिसमें उंचे और नीचे वर्गों का भेद नहीं होगा और जिसमें विभिन्न संप्रदायों में पूरा मेलजोल होगा।ऐसे भारत में अस्पृश्यता या शराब और दूसरी नशीली चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।’ पर आज तो केंद्र सरकार के नागरिक उड्डयन मंत्रालय से जुड़ी संसदीय समिति एक स्वर से यह सिफारिश करती है कि घरेलू उड़ानों में भी शराब परोसी जाए।सिगरेट व बीड़ी के पाकेटों पर उनसे होने वाले नुकसानों को दर्शाते हुए जब चित्र छापने के लिए उत्पादकों को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय निदेश देता है तो देश के अनेक मुख्य मंत्री व सांसद उसका विरोध करते हैं।यहां तक आ पहुंचे हैं हम।भ्रष्टाचार के आरोप में फंसी किसी बड़ी राजनीतिक,प्रशासनिक या अन्य क्षेत्रों की हस्तियों को ऐन केन प्रकारेण सजा से बचा लिया जाता है।यह है हमारे गणतंत्र का हाल।आज तो गणतंत्र दिवस पर इस बात पर चिंतन करने की जरूरत है कि बड़ी कुर्बानी से मिले इस देश के लोकतंत्र व आजादी को कैसे बचाया जाए ! यह बात समझ में आनी चाहिए कि सरकारी व गैर सरकारी भ्रष्टाचार ही इस देश की सबसे बड़ी व्याधि है।इसी व्याधि से अन्य अधिकतर समस्याएं पैदा हो रही हैं। चाहे वह गरीबी की समस्या हो या आतंकवाद की या फिर उग्रवाद की। अधिकतर नेताओं और अंततः लोकतंत्र के प्रति आम लोगों में विश्वास डिगना शुरू होने का सबसे बड़ा कारण भी भ्रष्टाचार ही है।
राष्ट्रीय सहारा, पटना (26-1-2008)

अल्पसंख्यकवाद बनाम अनिवार्य मतदान

यदि अगले लोक सभा चुनाव के बाद राजग को केंद्र में सत्ता मिल गई तो वह मतदान की अनिवार्यता के लिए कानून बना सकता है।भाजपा के नेताओं ने ऐसा संकेत दिया है। दुनिया के कई देशों में मतदान करना अनिवार्य है।जो नागरिक मतदान नहीं करते उनके लिए वहां सजा का प्रावधान है। कैसा रहेगा यदि एक दिन भारत में यह कानून बने कि जो मतदाता मतदान नहीं करेगा , उसे कुछ खास सरकारी सुविधाओं से वंचित कर दिया जाएगा ?और, यदि इस कानून को कड़ाई से लागू किया जाए तो कितने प्रतिशत मतदाता मतदान केंद्रों पर जाने को मजबूर हो जाएंगे ? फिर भी सब तो नहीं किंतु करीब अस्सी -नब्बे प्रतिशत मतदाता मतदान जरूर करने लगेंगे। आज तो औसतन 50 से 60 प्रतिशत मतदाता ही इस देश में मतदान करते हैं और मतों के भारी बंटवारे के कारण 20 -25 प्रतिशत या उससे से भी कम मत पाने वाले लोग भी कई बार चुनाव जीत जाते हैं।कई बार तो ऐसा भी होता है कि जिस उम्मीदवार की जमानत जब्त हो जाती है,वह भी चुन लिया जाता है। यदि अस्सी -नब्बे प्रतिशत मतदाता मतदान करने लगे तो जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंकों के सौदागर अत्यंत कम वोट पाकर भी चुनाव नहीं जीत पाएंगे।भारत में आम तौर पर किसी चुनाव क्षेत्र में किसी धार्मिक या जातीय समूह की आबादी 20-25 प्रतिशत से अधिक नहीं है।अपवादस्वरूप कुछ ही क्षेत्र ऐसे हैं जहां बात इसके विपरीत है। यदि कोई जातीय या धार्मिक समूह अधिकतर चुनाव क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं होंगे तो नेतागण भी सिर्फ सांप्रदायिक या जातीय आधारपर ही अपनी पूरी राजनीति और रणनीति तय नहीं करेंगे।इससे देश का भी भला होगा।आज तो जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंक की खातिर अनेक नेता इस देश को तोड़ने पर भी अमादा हैं।

सड़क किनारे नाला भी
कई दशक पहले की बात है।बिहार के एक शहरी इलाके वाले विधान सभा क्षेत्र से एक ईमानदार नेता किसी तरह चुनाव जीत गया। उसने अपने क्षेत्र में सरकार से कह कर सीमेंटी सड़कें बनवा दीं। अगली बार वह बेचारा चुनाव हार गया। जीत हुई एक भ्रष्ट नेता की जिनका ‘पेट’ कुछ ज्यादा ही बड़ा था।उन्होंने उस सीमेंटी सड़क को तोड़वा कर फिर से अलकतरायुक्त सड़क बनवा दी। पूछने पर उन्होंने कहा कि पिछले विधायक मूर्ख थे।उन्होंने ठेकेदारों के पेट पर लात मार दी थी।इसीलिए वे हार भी गए।हर साल सड़क नहीं टूटेगी तो हमारा ठेकेदार तो बेरोजगार हो ही जाएगा, हमें चंदे के भी लाले पड़ जाएंगे ? अब इस बात को आज के संदर्भ में फिट कीजिए। नीतीश कुमार की सरकार पटना में सड़कों ंका बड़े पैमाने पर पुनरूद्धार करा रही है।साथ ही, सड़कों के किनारे नालियां भी बनवाई जा रही हैं। अब बरसात में सड़कों पर जल -जमाव के कारण अलकतरायुक्त सड़कें नहीं टूटंेगीं।कोसी के बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में भी सड़कों का जो पुनरूद्धार होगा, उन सड़कों के किनारे भी नालियां बनाने का निर्णय बिहार सरकार ने किया है।देखना है कि टिकाउ सड़कों के कारण सत्ताधारी दलों को अगले चुनाव में कोई नुकसान होता है या नहीं ! वैसे भी बिहार में अब ‘बात’ थोड़ी बदली लगती है।

कम होती दुल्हनें
अभी पंजाब जैसी स्थिति तो नहीं है, पर शिशु कन्या भ्रूण हत्या का कुपरिणाम बिहार में भी अब धीरे -धीरे परिलक्षित होने लगा है। इन दिनों मध्यम वर्ग के कई अभिभावक यह रोना रोते हैं कि उनके कुंवारे पुत्र की शादी के लिए बहुत ही कम आॅफर आ रहे हंै।‘हमारे जमाने’ में तो काफी आते थे। पर सवाल है कि ऐसी स्थिति क्यों आ गई है कि योग्य वरों के लिए भी कन्याओं के अभिभावकों की पहले जैसी भीड़ अब नहीं लग रही है ? पहले तो ऐसा नहीं था।दरअसल इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि हाल ही में गांवों से निकल कर शहरों में बसे अनेकानेक परिवारों के संपर्क सूत्र अब कम हो गए है।शहरों का जीवन वैसी सामाजिकता वाली नहीं रह गई है कि एक व्यक्ति दूसरे के यहां कन्या के पिता को भेजे।भेजने वालों की कमी है।उधर गांवों से पुश्तैनी संबंध लगभग टूट ही चुका है।कई नव शहरी परिवारों की स्थिति त्रिशंकु जैसी हो चुकी है। पर, दूसरा कारण भी कम दमदार नहीं है। मध्यम वर्ग के परिवारों में शिशु कन्या भ्रूण हत्याओं का चलन बढ़ा है।वर पक्षों के हाथों बधू पक्षों के अमानवीय व्यवहारों के कारण भी शिशु कन्या हत्याओं की घटनाएं बढ़ी हैं।सास-बहू संबंधों को बेहतर बनाए बिना इस समस्या का हल फिलहाल दिखाई नहीं पड़ रहा है। यदि ससुरालों में बधुओं की स्थिति नहीं सुधरी तो कुछ वर्षों के बाद तो वर पक्षों को शादी के प्रस्ताव का और भी अधिक इंतजार करना पड़ेगा।

आरोप-प्रत्यारोपों के बीच सच्चाई का कत्ल
जो समस्या आतंकवाद से निपटने को लेकर इस देश में आ रही है, कुछ वैसी ही समस्या ठाकरे बनाम उत्तर भारतीयों के बीच तनाव को समाप्त करने को लेकर आ रही है। जब कोई व्यक्ति ‘मुस्लिम आतंकवाद’ का सवाल उठाता है तो दूसरा ‘हिंदू आतंकवाद’ का मुद्दा खड़ा कर बराबरी कर देता है और आतंकवाद की समस्या ज्यों की त्यों बनी रह जाती है। आज जब देश के पिछड़े राज्यों के पिछड़ेपन से पीडि़त लोग रोजी रोटी के लिए महाराष्ट्र जाते हैं तो राज ठाकरे जैसे नेता मराठियों के लिए रेलवे में नौकरियों का सवाल खड़ा कर देते हैं। समस्य ज्यों की त्यों बनी रह जाती है। आजादी के बाद बने रेल भाड़ा समानीकरण नियम का लाभ महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने उठाया।उन राज्यों ने तरक्की कर ली । और अब, जब इस कारण बिहार जैसे राज्य पिछड़ गए और बिहारी मानुष नौकरी और रोजगार के लिए महाराष्ट जा रहे हैं तो उनके साथ हिंसा हो रही है।कल्पना कीजिए कि रेल भाड़ा समानीकरण नियम नहीं होता तो अविभाजित बिहार का कितना अधिक औद्योगिक विकास हो चुका होता !आजादी के बाद जब केंद्र सरकार के नए शासकों ने यह देखा कि अविभाजित बिहार में देश के कुल खनिज पदार्थों का करीब आधा पाया जाता है तो उसने रेल भाड़ा समानीकरण नियम बना दिया । केंद्र सरकार ने अन्य राज्यों में उद्योग लगाने के लिए सुविधा प्रदान कर दी।समानीकरण का मतलब यह था कि झरिया से जितने रेल भाड़ा में पटना कोयला जा सकता था,उतने ही भाड़ा में बंबई पहुंच सकता था। नतीजतन आजादी के बाद बिहार का विकास नहीं हुआ तो यहां के बेरोजगार लोग अन्य राज्यों में जाएंगे ही। हालांकि अब समानीकरण नियम नहीं है। एक और बात हुई। कुछ बड़ी कंपनियां ने अपने कारखाने तो झारखंड में लगाए, पर अपना मुख्यालय बंबई में रखा।फिर तो उस कंपनी से मिले सरकार को टैक्स का लाभ महाराष्ट्र को मिला।उस लाभ का कुछ हिस्सा झारखंड के बेरोजगार मांग रहे हैं तो यह ठाकरे को नागवार क्यों लग रहा है ?
तापमान (नवंबर, 2008)

कोसी की धार में भारत-नेपाल की बंधी तकदीर


चाहे दोनों देशों की ‘राजनीति’ की अलग-अलग जो भी तात्कालिक मांग हो, पर कोसी की धार के धागे ने भारत और नेपाल की तकदीरों को आपस में मजबूती से बांध दिया है। संभवतः इसी को ध्यान में रखते हुए अन्य संधियों के साथ-साथ पचास के दशक में इस नदी के बारे में भी भारत और नेपाल के बीच संधि हुई थी और कोसी योजना की नींव रखी गई थी। तब 1950 में नेपाल में 104 साल पुरानी राणाशाही की समाप्ति हुई थी और महाराजा ने गद्दी संभाली थी। भारत से महाराजा का संबंध अच्छा था और दोनों देशों के बीच आपसी हित में कई तरह की संधियां हुईं।इसकी पृष्ठभूमि बताते हुए पूर्व सांसद डाॅ गौरीशंकर राजहंस लिखते हैं कि वर्षों से कोसी नदी नेपाल और उत्तर बिहार में प्रलय मचा रही थी। आजादी के ठीक बाद कोसी क्षेत्र के नेता ललित नारायण मिश्र ने गुलजारी लाल नंदा केे साथ तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू से मुलाकात की। ललित नारायण मिश्र ने पंडित नेहरू से कहा था कि कोसी को बांधने का यदि उपाय नहीं होगा, तो नेपाल और बिहार धीरे -धीरे पूरी तरह बर्बाद हो जाएंगे। वहां की उपजाऊ जमीन में केवल बालू ही रह जाएगा। उन दिनों नेपाल के महाराजा महेंद्र भारत के प्रति अत्यंत मित्रता का रूख रखते थे। पंडित नेहरू और महाराजा महेंद्र ने सम्मिलित रूप से कोसी योजना की नींव रखी। ’इस समझौते के तहत कोसी नदी पर भारत व नेपाल के हिस्सों में तटबंध बने और वीरपुर में बराज बना। याद रहे कि सन् 1954 में कोसी नदी में भीषण बाढ़ आई थी, जिससे नेपाल व भारत में भारी तबाही हुई थी। इस बार भी जब कोसी का तटबंध कुशहा के पास टूटा, तो नेपाल के भी एक बड़े क्षेत्र में तबाही और बर्बादी हुई है। यह बात और है कि नेपाल के कुछ लोग इस बर्बादी के लिए भारत सरकार से मुआवजा की मांग कर रहे हैं, जबकि बिहार सरकार कह रही है कि कुशहा के पास कोसी तटबंध की मरम्मत के काम में नेपाल सरकार ने सहयोग दिया होता, तो तटबंध नहीं टूटता। नेपाली मीडिया के एक हिस्से ने भी यह बात लिखी है कि नेपाल सरकार से सहयोग नहीं मिलने के कारण ही तटबंध टूटा। हालांकि बिहार सरकार कह रही है कि तब नेपाल में राजनीतिक माहौल ऐसा था कि सहयोग नहीं मिल सका। पर बाद में यह भी खबर आई कि जैसे ही नए प्रधान मंत्री प्रचंड को खबर मिली कि कोसी तटबंध पर खतरा है, तो उन्होंने तुरंत उसकी मरममत में सहयोग के लिए प्रशासन को लगा दिया। हालांकि तब तक देर हो चुकी थी और तटबंध को टूटने से नहीं बचाया जा सका। नेपाल में यह बात कहने वाले लोग भी हैं कि भारत-नेपाल कोसी समझौता एक भूल थी, पर सरजमीन की स्थिति यह बताती है कि कोसी नदी से होने वाले नुकसानों से यदि दोनों देशों को बचना है, तो दोनों को मिलजुल कर इसका उपाय खोजना और उसे कार्यरूप देना होगा। यदि पुराने समझौते में कोई कमी रह गई है, तो उसमें संशोधन तो किया ही जा सकता है। पर कोसी को एक बड़ी आबादी के लिए अभिशाप तो नहीं रहने दिया जा सकता है। यह बात भी पक्की है कि बांध विरोधियों के तर्कों को मान कर कोसी पर निर्मित बांधों को अब तोड़ा भी नहीं जा सकता। हां, इस अभिशाप को वरदान में बदलने का उपाय जरूर किया जा सकता है। कोसी नदी पर नेपाल क्षेत्र में ऊंचे डैम और बड़े जलाशय के निर्माण की जरूरत महसूस की जाती रही है। अधिकतर नेताओं व विशेषज्ञों ने इसके पक्ष में ही राय दी है। हां, कुछ विशेषज्ञ कुछ कारणवश ऊंचे डैम के विरोधी रहे हैं। हालांकि डैम और जलाशय के समर्थक इसे बिजली उत्पादन व सिंचाई जल की उपलब्धता के लिए जरूरी बताते हैं। नेपाल को भी जल मार्ग मिल जाएगा। वर्षों बाद नेपाल में एक मजबूत और निर्णयकारी सरकार के सत्ता में आने के बाद यह उम्मीद की जानी चाहिए कि पुराने नेपाल-भारत समझौते में यदि जरूरत हो, तो समुचित संशोधन करके कोसी की बाढ़ से साल-दर-साल हो रही बर्बादी-तबाही से मुक्ति दिलाने का काम अब हो जाएगा। भारत -नेपाल के बीच कुछ अन्य तरह के पुराने समझौतों पर भी नेपाल की नई सरकार एक नई नजर डालना चाहती है, पर बिहार और नेपाल के बाढ़पीडि़त लोग दोनों देशों की सरकारों से यह उम्मीद करेंगे कि सबसे पहले वे बाढ़ की समस्या का ही कोई हल निकालें। यह अच्छी खबर है कि प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह ने कहा है कि नेपाल के प्रधान मंत्री प्रचंड जब दिल्ली आएंगे, तो उनसे कोसी की समस्या पर बातचीत करेंगे। वे जल्दी ही आने वाले हैं। इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर के अनुसार रेल मंत्री लालू प्रसाद प्रचंड से मिलने के लिए नेपाल जाना चाहते थे, पर भारत सरकार को यह आशंका थी कि शायद नेपाल की धरती पर भी लालू प्रसाद कोसी की बाढ़ के लिए बिहार सरकार को दोषी ठहरा दें, फिर तो नेपाल सरकार को भी यह अवसर मिल जाएगा कि वह द्विपक्षीय बातचीत में यह मसला उठाए कि भारतीय पक्ष की कुव्यवस्था के कारण ही कुशहा में तटबंध टूटा। इसलिए भारत सरकार ने लालू प्रसाद की प्रस्तावित यात्रा को टाल दिया है। हालांकि लालू प्रसाद तथा भारत के कुछ दूसरे नेता लगातार मीडिया के माध्यम से यह आरोप लगाते रहे हैं कि कुशहा में तटबंध बिहार सरकार की कुव्यवस्था के कारण ही टूटा। इन बयानों को आधार बना कर नेपाल में भारत से 250 करोड़ रुपए की क्षतिपूर्ति की मांग भी शुरू हो चुकी है। जो भी हो, यह उम्मीद की जा रही है कि नेपाल के प्रधान मंत्री पुष्प कमल दहाल ‘प्रचंड’ की अगली भारत यात्रा में कोसी को लेकर जल्दी ही कोई रास्ता निकल आएगा और इस विपदा पर समय -समय पर होने वाली ‘राजनीति’ का अंत हो जाएगा।

पब्लिक एजेंडा (09-09-2008)

पूरा नहीं हुआ अम्बेडकर - लोहिया - एका का सपना

डा।राम मनोहर लोहिया ने लिखा था कि ‘ मेरी बराबर आकांक्षा थी कि वे (डा.बी.आर.अम्बेडकर) हमारे साथ आएं, केवल संगठन में ही नहीं, बल्कि पूरी तौर से सिद्धांत में भी, और वह मौका करीब मालूम होता था।’ डा.अम्बेडकर के निधन के बाद डा.लोहिया ने मधु लिमये को 1 जुलाई 1957 को हैदराबाद से लिखा कि ‘ तुम समझ सकते हो कि डा.अम्बेडकर की अचानक मौत का दुःख मेरे लिए थोड़ा व्यक्तिगत रहा है, और अब भी है। मेरे लिए अम्बेडकर हिंदुस्तान की राजनीति के महान आदमी थे और गांधी को छोड़कर , बड़े से बड़े सवर्ण हिंदुओं के बराबर। इससे मुझे बराबर संतोष और विश्वास मिला है कि हिंदू धर्म की जाति प्रथा एक न एक दिन खतम की जा सकती है। ’ लोहिया ने अम्बेेडकर के बारे में और क्या कहा, उसे जानने से पहले यह जान लेना ठीक रहेगा कि खुद अम्बेडकर ने लोहिया के बारे में क्या कहा था।यह बात लिखी है, बुद्धप्रिय मौर्य ने । मौर्य न सिर्फ केंद्रीय मंत्री थे बल्कि एक चर्चित दलित नेता भी थे।मौर्य ने लिखा कि ‘ सन् 1951 में अम्बेडकर ने पूछा कि तुम डा.राम मनोहर लोहिया को जानते हो ? मैंने डा.लोहिया का नाम तो सुना था लेकिन जानने का मतलब है नजदीक से जानना, इसलिए मैं चुप रहा। बाबा साहेब ने कहा कि तुम क्या खाक पालिटिक्स करोगे, जब तुम डा.लोहिया को नहीं जानते। हिंदुओं के एक ही तो नेता हैं जो ईमानदारी से जात-पांत तोड़कर जातिविहीन समाज की स्थापना करना चाहते हैं। बाबा साहेब कभी किसी की प्रशंसा नहीं करते थे। इस मामले में वे बड़े कंजूस थे।जब उन्होंने डा.लोहिया की प्रशंसा की तो मैंने सोचा कि उनसे मिलना चाहिए।’ अब अम्बेडकर के बारे में डा.लोहिया की कुछ बातें। डा.लोहिया ने लिखा है कि ‘ मैं बराबर कोशिश करता रहा हूं कि हिंदुस्तान के हरिजनों के सामने एक विचार रखूं। मेरे लिए यह बुनियादी बात है। हिंदुस्तान के आधुनिक हरिजनों के दो प्रकार हैं,एक डा.अम्बेडकर और दूसरे जग जीवन राम।डा.अम्बेडकर विद्वान थे,उनमें स्थिरता,साहस और स्वतंत्रता थी।वे बाहरी दुनिया को हिंदुस्तान की मजबूती के प्रतीक के रूप में दिखाए जा सकते थे।लेकिन उनमें कटुता थी और वे अलग रहना चाहते थे।गैर हरिजनों के नेता बनने से उन्होंने इनकार किया।पिछले पांच हजार बरस की तकलीफ और हरिजनों पर उसका असर मैं भली प्रकार समझ सकता हूं।लेकिन वास्तव में तो यही बात थी।मुझे आशा थी कि डा.अम्बेडकर जैसे महान भारतीय किसी दिन इससे उपर उठ सकेंगे।लेकिन इस बीच मौत आ गई।श्री जग जीवन राम उपरी तौर पर हर हिंदुस्तानी और हिंदू के लिए सद्भावना रखते हैं। हालांकि सवर्ण हिंदुओं से बातचीत में उनकी तारीफ और चापलूसी करते हैं।पर यह कहा जाता है कि केवल हरिजनों की सभाओं में घृणा की कटु ध्वनि फैलाते रहते हैं।इस बुनियाद पर न तो हरिजन और न हिंदुस्तान उठ सकता है।लेकिन डा.अम्बेडकर जैसे लोगों में भी सुधार की जरूरत है।’ ‘परिगणित जाति संघ को चलाने वालों को मैं अब नहीं जानता।लेकिन मैं चाहता हूं कि हिंदुस्तान की परिगणित जाति के लोग देश की पिछले चालीस साल की राजनीति के बारे में विवेक से सोचें।मैं चाहूंगा कि श्रद्वा और सीख के लिए वे डा.अम्बेडकर को प्रतीक मानें,डा.अम्बेडकर की कटुता को छोड़कर उनकी स्वतंत्रता को लें।एक ऐसे अम्बेडकर को देखें जो केवल हरिजनों के नहीं ,बल्कि पूरे हिंदुस्तान के नेता बनें।’ इससे पहले 24 सितंबर 1956 को डा.बी.आर.अम्बेडकर ने डा.लोहिया को लिखा कि ‘ आपके दो मित्र मुझसे मिलने आए थे।मैंने उनसे काफी देर तक बातचीत की।हालांकि हमलोगों में आपके चुनाव कार्यक्रम के बारे में कोई बात नहीं हुई। अखिल भारतीय परिगणित जाति संघ की कार्य समिति की बैठक 30 सितंबर 1956 को होगी और मैं समिति के सामने आपके मित्रों का प्रस्ताव रख दूंगा।कार्य समिति की बैठक के बाद मैं चाहूंगा कि आपकी पार्टी के प्रमुख लोगों से बातचीत हो ताकि हमलोग अंतिम रूप से तय कर सकें कि साथ होने के लिए हमलोग क्या कर सकते हैं। मुझे बहुत खुशी होगी अगर आप दिल्ली में मंगलवार 2 अक्तूबर 1956 को मेरे यहां आ सकें।अगर आप आ रहे हों तो कृपया तार से सूचित करें ताकि मैं कार्य समिति के कुछ लोगों को भी आपसे मिलने के लिए रोक लूंं। ’ इस पत्र के जवाब में 1 अक्तूबर 1956 को लोहिया ने अम्बेडकर को लिखा कि ‘आपके 24 सितंबर के कृपापत्र के लिए बहुत धन्यवाद। हैदराबाद लौटने पर मैंने आज आपका पत्र पढ़ा और इसलिए आपके सुझाए समय पर दिल्ली पहुंच सकने में बिलकुल असमर्थ हूं। फिर भी जल्दी से जल्दी आपसे मिलना चाहूंगा। मैं उत्तर प्रदेश में अक्तूबर के बीच में रहूंगा और आपसे दिल्ली में 19 या 20 अक्तूबर को मिल सकूंगा ।अगर आप 29 अक्तूबर को बम्बई में हों तो वहां आपसे मिल सकता हंू।कृपया मुझे तार से सूचित करंे कि इन दो तारीखों में कौन सी आपको ठीक रहेगी।’ ‘ अन्य मित्रों से आपकी सेहत के बारे में जानकर चिंता हुई। आशा है कि आप आवश्यक सावधानी बरत रहे होंगे। मैं अलग से मैनकाइंड के तीन अंक आपको भिजवा रहा हूं। विषय का सुझाव देने का मेरा विचार हो रहा था लेकिन मैं ऐसा नहीं करूंगा। ‘मैनकाइंड’ (पत्रिका) के तीन अंक आपको विषय चुनने में मदद करेंगे। मैं केवल इतना ही कहूंगा कि हमारे देश में बौद्धिकता निढाल हो चुकी है।मैं आशा करता हूं कि यह वक्ती है।इसलिए आप जैसे लोगों का बिना रोक के बोलना बहुत जरूरी है।’ इससे पहले डा.लोहिया ने 10 दिसंबर 1955 को डा.अम्बेडकर को लिखा था कि ‘मैनकाइंड’ पूरे मन से जाति-समस्या को अपनी संपूर्णता में खोल कर रखने का प्रयास करेगा।इसलिए यदि आप कोई अपना लेख भेज सकें तो प्रसन्नता होगी। लेख 2500 और 4000 शब्दों के बीच हो तो अच्छा।आप जिस विषय पर चाहिए, लिखिए।हमारे देश में प्रचलित जाति प्रथा के किसी पहलू पर अगर आप लिखना पसंंद करें तो मैं चाहूंगा कि आप कुछ ऐसा लिखें कि हिंदुस्तान की जनता न सिर्फ क्रोधित हो,बल्कि आश्चर्य भी करे।मैं नहीं जानता कि मध्य प्रदेश के लोक सभा के चुनाव भाषणों में आपके बारे में मैंने जो कहा, उसे आपके अनुयायी ने जो मेरे साथ रहा, आपको बतलाया या नहीं।अब भी मैं बहुत चाहता हूं कि क्रोध के साथ दया भी जोड़नी चाहिए और आप न सिर्फ अनुसूचित जातियों के नेता बनें,बल्कि पूरी हिंदुस्तानी जनता के भी नेता बनें।’ लोहिया ने लिखा कि ‘ हमारे क्षेत्रीय शिक्षण शिविर में यदि आप आ सके तो हमें बड़ी खुशी होगी।आप अपने भाषण का सार पहले भेज दें तो बाद में उसे प्रकाशित करना अच्छा होगा।हम चाहते हैं कि एक घंटे के भाषण के बाद उस पर एक घंटे तक चर्चा भी हो। मैं नहीं जानता कि समाजवादी दल के स्थापना सम्मेलन में आपको कोई दिलचस्पी होगी या नहीं।आप सम्मेलन में विशेष आमंत्रित होकर आ सकते हैं।अन्य विषयों के अलावा सम्मेलन में खेत मजदूरों, कारीगरों, औरतों और संसदीय काम से संबंधित समस्याओं पर भी विचार होगा और इनमें से किसी एक पर आपको कुछ महत्वपूर्ण बात कहनी ही है।किसी बात को बतलाने के लिए यदि आप सम्मेलन की कार्यवाही में हिस्सा लेना चाहें तो मैं समझता हूं कि सम्मेलन और विशेष रूप से अनुमति देगा।’ इस संबंध में कान पुर के विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी ने 27 सितंबर 1956 को डा.लोहिया को लिखा कि ‘ एक दोस्त के जरिए हमलोगों को दिल्ली जाकर डा.अम्बेडकर से मिलने का न्योता मिला।हमलोग दिल्ली जाकर उनसे मिले और 75 मिनट तक बातचीत हुई।यह साफ कर दिया गया था कि हमलोग बिलकुल व्यक्तिगत रूप में आए हैं।’ मेहरोत्रा और गोस्वामी डा.लोहिया के मित्र थे। इन लोगों ने लोहिया को लिखा कि ‘जब आप दिल्ली में हों तो डा.अम्बेडकर आपसे जरूर मिलना चाहेंगे।वे बूढ़े हैं और उनकी तबीयत ठीक नहीं है। वे सहारा लेकर चलते फिरते हैं।वे पार्टी का पूरा साहित्य चाहते हैं और मैनकाइंड के सभी अंक।वे इसका पैसा देंगे।वे हमारी राय से सहमत थे कि श्री नेहरू हर एक दल को तोड़ना चाहते हैं और कि विरोधी पक्ष को मजबूत होना चाहिए।वे मजबूत जड़ों वाले एक नए राजनीतिक दल के पक्ष में हैं।वे नहीं समझते कि माक्र्सवादी ढंग का साम्यवाद या समाजवाद हिंदुस्तान के लिए लाभदायक होगा।लेकिन जब हमलोगों ने अपना दृष्टिकोण रखा तो उनकी दिलचस्पी बढ़ी।’ ‘ हमलोगों ने उन्हें कान पुर के आम क्षेत्र से लोक सभा का चुनाव लड़ने का न्योता दिया।इस ख्याल को उन्होंने नापंसद नहीं किया,लेकिन कहा कि वे आपसे पूरे हिंदुस्तान के पैमाने पर बात करना चाहते हैं।हमलोगों ने यह साफ कर दिया कि हमलोग अपनी नीति के कारण कोई समझौता नहीं कर सकते।ऐसा लगा कि वे अनुसूचित जाति संघ से बहुत मोह नहीं रखते।कार्य कारिणी की बैठक दिल्ली में 30 को हो रही है।श्री नेहरू के बारे में जानकारी करने पर उन्हें बहुत दिलचस्पी थी। (सिनेमा आउटफिट आदि की मैनकाइंड वाली चर्चा) उन्होंने कहा कि इन बातों का यथेष्ट प्रचार होना चाहिए।वे दिल्ली से एक अंग्रेजी दैनिक भी निकालना चाहते हैं।’ ‘ वे हम लोगों के दृष्टिकोण को बहुत सहानुभूति,तबियत और उत्सुकता के साथ पूरे विस्तार में समझना चाहते थे। उन्होंने थोड़े विस्तार में इंगलैंड की प्रजातांत्रिक प्रणाली की चर्चा की जिससे उम्मीदवार चुने जाते हैं और लगता है कि जनतंत्र में उनका दृढ़ विश्वास है। यह सार है। हमलोग खुद नहीं आ सके क्योंकि यह पता नहीं था कि आप कहां हैं और हमारे पास पैसा नहीं था। 23 सितंबर 1956 को हैदरा बाद दफ्तर में टेलीफोन से बात करने की कोशिश की, कोई जवाब नहीं मिला,क्योंकि वहां पर किसी ने टेलीफोन नहीं उठाया। डा.अम्बेडकर का पता ः 26 अली पुर रोड, नई दिल्ली।’ इस पत्र के जवाब में लोहिया ने 1 अक्तूबर 1956 को विमल और धर्मवीर को हैदरा बाद से लिखा कि ‘ तुम्हारी चिट्ठी मिली। मैं चाहूंगा कि तुम लोग डा.अम्बेडकर से बातचीत जारी रखो लेकिन याद रखना कि जिस दिशा का तुम लोगों ने खुद अपनी चिट्ठी में उल्लेख किया है,उससे इधर- उधर नहीं होना।डा.अम्बेडकर की सबसे बड़ी दिक्कत रही है कि वे सिद्धांत में अटलांटिक गुट से नजदीक महसूस करते हैं। मैं नहीं समझता कि इस निकटता के पीछे सिद्धांत के अलावा और भी कोई बात है।लेकिन इसमें हम लोगों को बहुत सतर्क रहना चाहिए।मैं चाहता हूं कि डा.अम्बेडकर समान दूरी के खेमे की स्थिति में आ जाएं।तुम लोग अपने मित्र के जरिए सिद्धांत की थोड़ी बहुत बहस भी चलाओ।’ ‘ डा.अम्बेडकर की लिखी चिट्ठी की एक नकल भिजवा रहा हूं। अगर वे चाहते हैं कि मैं उनसे दिल्ली में मिलूं,तो तुम लोग भी वहां रह सकते हो।‘ विमल मेहरोत्ऱा ने 15 अक्तूबर 1956 को डा.अम्बेडकर को लिखा कि ‘ पिछले महीने मैं और मेरे मित्र श्री धर्मवीर गोस्वामी आपसे दिल्ली में मिले थे।उसके बाद अपनी बातचीत की खबर हमने डा.लोहिया को दी।मैंने बहुत ध्यान से परिगणित जाति संघ की कार्य समिति के फैसलों का अध्ययन किया है।उसमें से देश की जनता के लिए विशेष दिलचस्पी की तीन चीजें निकलती हैं।़........मुझ जैसे आदमी का आपको कोई सलाह देना धृष्टता होगी,लेकिन देश के लिए अच्छा होता कि देश के मौजूदा राजनीतिक दलों के नीति और कार्यक्रम को आप देख लेते और इनकी कथनी और करनी के बारे में अपनी राय देते।’ ‘ चुनाव समझौते के बारे में।हमलोग अपने को लगभग तीन हजार क्षेत्रों से अलग रखेंगे।पांच सौ या छह सौ क्षेत्रों से चुनाव लड़ेंगे।इसलिए चुनाव समझौते का रास्ता निकल आता है।सोशलिस्ट पार्टी ने अपनी नीति में तय किया है कि वहीं से चुनाव लड़ेंगे जहां कुल मतदाताओं के एक प्रतिशत पार्टी सदस्य हैं और एक तिहाई मतदान केंद्रों में फैले हों।’ ‘स्वेज के बारे में आपकी समिति का प्रस्ताव राष्ट्रीय स्वार्थ की दृष्टि से भले सोचा गया हो,लेकिन मुझे बहुत शक है कि दूर की दृष्टि से यह हिंदुस्तान के लोगों के सचमुच स्वार्थ में होगा।इसका मतलब यह होगा कि हिंदुस्तान में लगी विदेशी पूंजी का राष्ट्रीयकरण बिना उन देशोें की सहमति के नहीं किया जाएगा जिनके पूंजीपतियों का पैसा लगा हो।मैं अनुरोध करूंगा कि परिगणित जाति संघ के दफ्तर को कृपया इन प्रस्तावों को हमें भेजने के लिए कहें।मुझे पता चला है कि डा.लोहिया आपसे मिलने वाले हैं।लेकिन मैं समझता हूं कि निकट भविष्य में उनके लिए यह संभव नहीं होगा।अगर आप अपना कुछ कीमती समय दे सकें तो मैं आकर आपसे सारी बातें कर सकूं।’ पब्लिक एजेंडा (31-10-2008)

मात्र 12 हजार होते तो नहीं जाती लोहिया की जान


क्या 12 हजार रुपए का इंतजाम नहीं होने के कारण डा.राम मनोहर लोहिया को बचाया नहीं जा सका ? मशहूर स्वतंत्रता सेनानी व समाजवादी विचारक डा.राम मनोहर लोहिया का पौरूष ग्रंथि के आपरेशन के बाद अस्पताल की बदइंतजामी के कारण 12 अक्तूबर 1967 को दिल्ली के विलिंग्टन अस्पताल में उनका निधन हो गया। उस अस्पताल का नाम अब डा.राम मनोहर लोहिया अस्पताल है। डा.लोहिया के एक करीबी सहकर्मी व नेता ने कुछ साल पहले इन पंक्तियों के लेखक को बताया था कि डा.लोहिया आपरेशन के लिए विदेश जाना चाहते थे।पर उसके लिए उन्हें बारह हजार रुपए की जरूरत थी।उन्होंने बंबई के एक मजदूर नेता से जो लोहिया के दल के ही थे, डाक्टर साहब ने कहा था कि वह रुपए का इंतजाम कर दे।पर वह मजदूर नेता समय पर पैसे का बंदोबस्त नहीं कर सका।इस कारण जल्दीबाजी में दिल्ली के ही विलिग्टन अस्पताल में उन्हें भर्ती कराना पड़ा।डा.एल.आर.पाठक ने 30 सितंबर को उनका आपरेशन किया,पर डाक्टर व अस्पताल की लापारवाही के कारण डा.लोहिया की मौत हो गई। आपरेशन और बाद की देखभाल में लापारवाही को लेकर लंबे समय तक विवाद चलता रहा।पर इसमें यह बात तय थी कि विदेश के किसी अच्छे अस्पताल में यदि आपरेशन हुआ होता तो शायद ऐसी नौबत नहीं आई।आज जब मामूली -मामूली नेता व अफसर भी सरकारी खर्चे पर विदेश में अच्छी से अच्छी चिकित्सा करवा रहे हैं,वहीं लोक सभा के सदस्य डा.लोहिया बेहतर इलाज के बिना कम ही उम्र में चल बसे।जब उनका निधन हुआ,तब तक वे अपने साठ साल भी पूरा नहीं कर पाए थे।पर उतनी ही उम्र में उन्होंने भारतीय राजनीति व समाज में युगांतरकरी परिवत्र्तन के नेता बन चुके थे। जब उनका निधन हुआ तो वे ऐसी पार्टी यानी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के एकछत्र नेता थे जिसके दो दर्जन सदस्य लोक सभा में थे।उस समय एक दर्जन प्रदेशों में ऐसी गैर सरकारी सरकारें बन चुकी थीं जिनमें लोहिया के दल के मंत्री थे।बिहार में तो उस दल के कर्पूरी ठाकुर तो उप मुख्य मंत्री भी थे।डा.लोहिया के गैर कांग्रेस वाद के नारे के कारण ही कई राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनी थीं।पर डा.लोहिया आज के अधिकतर नेताओं की तरह नहीं थे जो सरकार के धन को अपना ही माल समझते हैं।डा.लोहिया ने अपने दल द्वारा शासित प्रदेशों के अपने दल के नेताओं से कह रखा था कि वे मेरे इलाज के लिए कोई चंदा वसूली का काम नहीं करें।इसमें सरकारी पद के दुरूपयोग का खतरा है। मेरे इलाज के लिए बंबई के मजदूर चंदा देंगे जो आम भारतीय मजदूरों व किसानों की अपेक्षा थोड़े बेहतर आर्थिक स्थिति में हैं।पर इस काम में उस मजदूर नेता ने लोहिया की मदद नहीं की।लोहिया चाहते थे तो इस देश का कोई भी पूंजीपति उन्हें अपने खर्चे से विदेश भेज कर उनका समुचित इलाज करवा सकता था।उन दिनों संसद में लोहिया की तूती बोलती थी।जब वे बोलने को खड़े होते थे तो सरकार सहम जाती थी।पर लोहिया अपने उसूलों के पक्के थे।वे कहते थे कि काले धन का उपयोग करने वाला नेता गरीबों का भला नहीं कर सकता।वे यह भी कहा करते थे कि यह मत देखो ंकि कोई नेता संसद में क्या बोलता है।बल्कि इसे देखो कि वह संसद में बोलने के बाद खुद शाम में कहां उठता बैठता है। यह इस देश की विडंबना ही रही कि उसी लोहिया का नाम लेकर बाद में इस देश व प्रदेश में राजनीति करने वाले अधिकतर नेता सत्ता में आने के बाद इतने भ्रष्ट हो गए कि उनको देखकर लगने लगा कि भ्रष्टाचार के मामले में तो कांग्रेसी बच्चे है। लोहिया के इलाज की चर्चा के क्रम में यह याद दिलाना जरूरी है कि नब्बे के दशक में बिहार का एक भ्रष्ट पशुपालन अफसर जब अपने इलाज के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा था तो वह अपनी तिमारदारी में अपने खर्चे से 75 लोगों को अपने साथ ले गया। पब्लिक एजेंडा (22-09-2008)

विश्वनाथ प्रताप सिंह यानी एक सार्थक राजनीतिक जीवन


बोफर्स घोटाले के खिलाफ अभियान चला कर जिस राजा मांडा ने प्रधान मंत्री की कुर्सी पाई,उसी वी.पी. सिंह ने न जाने क्यों अपने जीवन के आखिरी दिनों में यह कह दिया कि उन्होंने तो बोफर्स घोटाले को लेकर राजीव गांधी पर कोई आरोप ही नहीं लगाया था। इससे उनकी छवि को नुकसान पहुंचा। साथ ही, इस देश की राजनीति की साख को भी थोड़ा और बट्टा लगा। पर, यदि इस एक प्रकरण को नजरअंदाज कर दिया जाए तो वी.पी. सिंह के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे इस गरीब देश के लिए सही नेता थे।राजा नहीं, फकीर थे वे।वे पिछड़ों के हमदर्द थे। उनमें व्यक्तिगत ईमानदारी व त्याग इतना अधिक था कि उनके नाम पर कसमें खाई जा सकती हैं। यह इस देश का दुर्भाग्य रहा कि वे कम ही दिनों तक प्रधान मंत्री रहेे। इस देश की मुख्य समस्या हर स्तर पर सरकारी भ्रष्टाचार ही है। बाकी अधिकतर समस्याएं तो भ्रष्टाचार के कारण ही पैदा होती रहती हैं। वी.पी.सिंह भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर थे। भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर व्यक्ति यदि आज भी प्रधान मंत्री की कुर्सी पर बैठ जाए तो देश का आधा सरकारी भ्रष्टाचार वैसे ही खत्म हो जाएगा।मन मोहन सिंह खुद तो ईमानदार हैं,पर भ्रष्टाचार के खिलाफ तनिक भी कठोर नहीं हैं। पहले बोफर्स घोटाले पर उनकी भूमिका की चर्चा कर ली जाए। अस्सी के दशक में राजीव गांधी मंत्रिमंडल से हटने के बाद वी.पी.सिंह जन मोर्चा बना कर देश भर में राजीव सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चला रहे थे। उसी सिलसिले में वे पटना आए थे।वे बेली रोड के हड़ताली मोड के पास एक सभा को सम्बोधित कर रहे थे।जनसत्ता के संवाददाता के रूप में इन पंक्तियों का लेखक भी उस सभा में मौजूद था।वी.पी.सिंह ने पहली बार उसी सभा में विदेशी बैंक के उस खाते का नंबर बताया जिसमें बोफर्स दलाली के पैसे जमा किए गए थे।खाता लोटस के नाम से था और उसका नंबर कई अंकों का था।वी.पी.सिंह ने खाते का नंबर सभा में बताते हुए श्रोताओं से पूछा भी, ‘आप जानते हैं न कि लोटस का अर्थ क्या होता है ?’ भीड़ से एक आवाज आई ‘राजीव।’ वी.पी.सिंह ने इस अनुवाद का खंडन नहीं किया।उनके चेहरे पर यह भाव था कि श्रोता ने सही अनुवाद बता दिया।यह बात सही है कि वी.पी.सिंह ने खुद अपने मुंह से राजीव गांधी का नाम नहीं लिया।पर पटना की उस सभा में वे जनता को जो सूचना देना चाहते थे,वह क्या था ? इससे पहले जब राजीव गांधी सरकार से विद्रोह करके पहली बार पटना आए थे तो वे एक प्रेस कांफ्रेंस में शामिल हुए।उसमें इन पंक्तियों के लेखक ने ही यह सवाल किया था कि क्या आप प्रधान मंत्री से इस्तीफे की मांग करते हैं ? उन्होंने जवाब दिया, ‘कोई सिरियस सवाल कीजिए।’ यानी वी.पी.सिंह अपने पूरे अभियान में राजीव गांधी का नाम लेने से बचते रहे।पर वे अपनी बातों से भीड़ को यह विश्वास दिलाते रहे कि बोफर्स घोटाले मंे राजीव गांधी भी शामिल हैं।इसी विश्वास के कारण जनता ने सन् 1989 के लोक सभा चुनाव मेंं राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को सत्ता से हटा दिया।यदि आरोप राजीव गांधी के अलावा किसी और पर होता तो शायद कांग्रेस की चुनाव में उतनी बुरी हालत नहीं होती। पर, बोफर्स घोटाले के खिलाफ अभियान चला कर सत्ता हासिल करने वाले वी.पी.सिंह को बाद में यह कहने की जरूरत क्यों पड़ी कि उन्होंने राजीव गांधी पर इस संबंध में आरोप नहीं लगाया था ? जबकि, बोफर्स मुकदमे के चार्ज शीट के कालम -दो में राजीव गांधी का नाम आ ही गया ।याद रहे कि अभियुक्त की मृत्यु हो जाने पर उसका नाम कालम - 2 में लिख दिया जाता है। पर किसी एक फिसलन को आधार बना कर किसी नेता के पूरे व्यक्तित्व का आकलन नहीं किया जा सकता। वी.पी.सिंह के राजनीतिक जीवन में जो दो महत्वपूर्ण मुकाम आए,वे देश के लिए भी काफी निर्णायक रहे।उन्होंने सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता को गोलबंद किया और जनता को यह विश्वास दिलाया कि सत्ता में आने के बाद वे भ्रष्टाचार पर काबू पाने की कोशिश करेंगे। वे इस पर खरा उतरे।प्रधान मंत्री के रूप में भी उन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा। सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ चुनाव लड़ने और जीतने का इस देश में वह आखिरी मौका था।उसके बाद तो चुनाव धर्म और जाति के नाम पर लड़े गए।या फिर विकास या अविकास पर।सामाजिक न्याय को राष्ट्रीय राजनीति का एक मुख्य मुद्दा बनाने का श्रेय भी वी.पी.सिंह को ही जाता है।उन्होंने सन् 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करके देश की राजनीति का एजेंडा ही बदल दिया।यदि मंडल नहीं होता तो मंदिर आंदोलन भी नहीं होता।यह बात भी सही है।हालांकि मंडल आरक्षण लागू नहीं होता तो इस देश में नक्सलियों का विकास और भी तेजी से होता। इस आरोप में दम नहीं है कि जनता दल के भीतर अपने सहयोगी चैधरी देवी लाल के विद्रोह को दबाने के लिए ही वी.पी.सिंह ने मंडल कार्ड खेला।यह एक ऐसा कार्ड था जिसके खेलने में गद्दी पर खतरे ही खतरे थे। देवी लाल का खतरा तो टल भी सकता था,पर मंडल आरक्षण से उत्पन्न खतरे में तो गद्दी जानी तय थी।इतनी राजनीतिक समझ तो चतुर सुजान वी.पी.सिंह में रही ही होगी। उन्होंने बाद में कहा भी कि मैंने गोल कर दिया भले इस कारण मेरी टांग टूट गई।पर एक गद्दी से उतर कर वी.पी.सिंह कमजोर वर्ग के दिलों की गद्दी पर जरूर स्थायी रूप से बैठ गए। किसी राजनीतिक जीवन की इससे बड़ी सार्थकता और क्या हो सकती है ? बी.पी.मंडल के नेतृत्व में 1977 में गठित मंडल आयोग की रपट केंद्र सरकार को 1980 में ही मिल चुकी थी।पर उस रपट पर तीन -तीन बार संसद में चर्चा हुई थी। तत्कालीन कांग्रेसी गृह मंत्री आर.बेंकट रमण ने संसद में बहस का जवाब देते हुए साफ -साफ कह दिया था कि सरकार इसे लागू नहीं करेगी।यानी तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी इसे लागू नहीं कर सके।पर जनता दल ने तो अपने चुनाव घोषणा पत्र में भी इसे शामिल कर लिया है। वी.पी.सिंह के निधन के बाद प्रभाष जोशी ने ‘जनसत्ता’ में ठीक ही लिखा है कि ‘विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने होने की शत्र्त पूरी की।मंडल लागू करवाने के कारण जो समझते हैं कि उनने अपने होने से धोखा किया, वे क्षात्र धर्म को नहीं जानते।’ दरअसल वी.पी.सिंह को भारतीय समाज की संरचना और राजनीति में उसके महत्व की अच्छी जानकारी थी। वे जानते थे कि पिछड़ों को सत्ता और नौकरियों में जगह देना कितना जरूरी है। न तो वी.पी. पर जातिवाद का आरोप था और न ही गद्दी के लिए अनैतिक समझौते का दाग था। वे अस्सी के दशक में भी उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री पद से इस्तीफा दे चुके थे जबकि ऐसा करने की उनकी कोई मजबूरी नहीं थी।इस पृष्ठभूमि वाले नेता को जनहित में कोई निर्णय लेने से पहले उसके परिणामों की परवाह नहीं हुआ करती। वी.पी.सिंह के जीवन पर एक अच्छी पुस्तक वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने लिखी है।पुस्तक का नाम है ‘विश्वनाथ प्रताप सिंह ः मंजिल से ज्यादा सफर।’यह नाम ही बहुत कुछ कह देता है।यह पुस्तक उनसे बातचीत पर आधारित है।इस बातचीत की खूबी यह है कि वी.पी.सिंह यह मान कर चल रहे हैं कि उन्हें अब आगे कोई पद नहीं लेना है।ऐसे में वे बेबाक बातें करते हैं।उस पुस्तक से वी.पी.सिंह के ही शब्दों में कुछ प्रकरण यहां प्रस्तुत है।‘सवाल ः कांग्रेस में क्या जाति आधारित गुटबाजी का चलन था ?जवाब ः पूरी तरह जातिवादी गुट नहीं बने हुए थे। एक हद तक ही उन्हें जातिवादी गुट कहा जा सकता है।कुछ नेता हर जाति में अपना प्रभाव रखते थे।हेमवतीनंदन बहुगुणा उन्हीें नेताओं में थे।कमलापति त्रिपाठी के इर्दगिर्द ब्राह्मण अधिक होते थे।लेकिन पं.कमलापति त्रिपाठी को जातिवादी नहीं कहा जा सकता।जाति की तरफ उनका झुकाव था लेकिन हेमवती नंदन बहुगुणा में वह भी नहीं था।सवाल ः जाति से परे जाकर देखें तो कांग्रेस में जो टकराव उस समय थे,उनकी जड़ें कहां कहां थीं ?जवाबःएक टकराव आर्थिक माना जा सकता है। उत्तर प्रदेश में आजादी की लड़ाई में ब्राह्मणों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। उनके पास जमीन जायदाद कम थी। वह राजपूतों के पास थी।ज्यादातर जमींदार वही थे।रियासतें भी उन्हीें के पास थी।उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण रियासतें सिर्फ दो ही रही हैं।जमींदारों की दिलचस्पी आजादी की लड़ाई में कम थी।उनको अपनी जमींदारी चले जाने का खतरा दिखता था।कांग्रेस में यह तबका बाद में आया।लेकिन साधारण राजपूत तो शुरू से ही कांग्रेस में थे।ऐसे ही आजादी की लड़ाई में दलितों की प्रमुख भूमिका थी।कांग्रेस में जो सामाजिक ध्रुवीकरण बना था उसमें ब्राह्मण और दलित एक साथ थे।दलित और किसान की हिमायत में ब्राह्मण खड़े होते थे।इस कारण कांग्रेस के नेतृत्व समूह में ब्राह्मणांे की प्रमुखता थी।उस समय जाति का बोलबाला वैसा नहीं था,वह बाद में आया। सवाल ः उत्तर प्रदेश कांग्रेस के जनाधार खिसकने के खास कारण आप क्या देखते हैं ?जवाब ः कांग्रेस का स्वाभाविक नेतृत्व ब्राह्मणों के हाथ में था।दूसरे वर्ग दलित और मुस्लिम भी थे।जब स्वाभाविक नेतृत्व स्थापित हो जाता है तो वह चलता रहता है।उनका नए समूहों से कई बार टकराव भी होता है।नेतृत्व यह समझ नहीं पाता कि नए समूहों को किस तरह जगह दें और उनको शामिल करें।यही कठिनाई कांग्रेस की भी थी।जो जनाधार कांग्रेस का था उसे वापस लाने में कामयाब नहीं हो सके।सवाल ः पहले फेयर फैक्स,फिर पनडुब्बी और उसके बाद बोफर्स तोप सौदे में दलाली का सवाल उठा।उसकी जांच की मांग कैसे उठी ?जवाब ः अखबारों में दस्तावेज आदि छपने लगे।उस समय जांच की मांग उठी।उसी समय छपा कि अजिताभ बच्चन का स्विट्जर लैंड में बंगला है।वे एक टूरिस्ट के रूप में गए थे।फिर बंगला कैसे खरीद लिया ?उस समय फेरा सख्ती से लागू होता था।सवाल ः क्या इसे आपने कहीं उठाया ?जवाब ः मैं उस समय कांग्रेस में था।संसदीय पार्टी की बैठकों में जाता था।वहां इसे उठाया।मैंने कहा कि प्रधान मंत्री जी आपने कहा है कि सच्चाई सामने लाने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे।कृपया इस सच्चाई का पता करिए।इसकी जांच होनी चाहिए।अगर यह सही नहीं है तो उस अखबार के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।उन्होंने कहा कि जांच करवाएंगे।सवालःराजीव गांधी से सीधी भेंट उस समय आपकी कहां हुई ?जवाब ः उन्होंने दो बार बुलाया।उन्होंने मुझसे पूछा कि यह क्या हो रहा है ?उनके सवाल में यह छिपा हुआ था कि मैं विपक्ष से हाथ मिला रहा हूं।मैंने कहा कि यह बातचीत राजीव गांधी और विश्व नाथ प्रताप में हो रही है।इस भ्रम में मत रहिए कि हमारी बातचीत प्रधान मंत्री और मंत्री के बीच हो रही है।सीधी बात है कि अगर आप यह महसूस करते हैं कि मैं आपके साथ राजनीतिक खेल, खेल रहा हूं तो इस बातचीत का कोई फायदा नहीं है।ऐसे ही अगर मेरे मन में यह है कि आप मेरे साथ राजनीति कर रहे हैं तो इस बातचीत से हम कहीं नहीं पहुंचेंगे।हममंे यह विश्वास और भरोसा होना चाहिए कि राजनीति आड़े नहीं आएगी।अगली बात यह है कि के.के.तिवारी और कल्प नाथ राय मुझे सी.आई.ए. एजेंट कहते हैं। मैं जानता हूं कि ये लोग लाउड स्पीकर हैं। माइक इस कमरे में लगा है जहां हम हैं। यहां से जो बोला जाता है वही लाउड स्पीकर पर बाहर सुनाई पड़ता है।उनकी हिम्मत कहां है कि वे मुझे सी.आई.ए.एजेंट कहें।सवाल ः राजीव गांधी ने क्या सफाई दी ?जवाब ः उन्होंने कहा कि पार्टी आपसे बहुत नाराज है।वे लोग भी नाराज हैं।इसलिए बोल रहे हैं।मैं इनसे कहूंगाा कि कम बोलें।मैंने उनसे कहा कि वे दस गाली दे रहे थे,अब दो गाली देंगे।कोई भ्रम न रहे इसलिए साफ -साफ कहा कि जो लोग गाली दे रहे हैं वे मेरी देश भक्ति पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं।जब देशप्रेम का सवाल आता है और जब भी आता है तो लोग जान की बाजी लगा देते हैं। अपना सिर कटा देते हैं और मैं भी अपनी देश भक्ति के लिए अंतिम दम तक ऐंड़ी जमा कर लड़ूंगा। सवाल ः इस पर उन्होंने क्या कहा ?जवाब ः राजीव गांधी ने कहा कि मैं इन लोगों को समझाउंगा। मैंने उनसे कहा कि देखिए आपकी मां के साथ काम करते हुए कांग्रेस नामक मशीन को हमने चलाया है। इसका एक- एक नट- बोल्ट हम जानते हैं। मेरे जैसे सेकेंड रैंकर लोगों ने हेमवती नंदन बहुगुणा को भगा दिया क्योंकि वे यह चाहती थीं। वे नहीं बोलीं। हमलोगों ने ही यह काम किया।
पब्लिक एजेंडा (

कैसे हो आतंकियों के खिलाफ त्वरित कमांडो कार्रवाई

क्या किसी आतंकी हमले की स्थिति में तत्काल कमांडो दस्ते को घटनास्थल पर भेजने में हमारी सरकार अगली बार सफल हो पायेगी ? कई कारणों से अब तक तो विफल ही रही है। 1999 के कंधार विमान अपहरण कांड और 2008 के मुंबई हमले के कटु अनुभव देश के सामने हैं। सरकार ने कंधार कांड में विफलता से नहीं सीखा और गत साल वही गलती दुहराई गई। कंधार कांड में केंद्र सरकार कंधार में नहीं, बल्कि अमृतसर में विफल हुई थी। विमान को कंधार जाने से पहले तब अमृतसर में ही रोका जा सकता था। केंद्र सरकार नेशनल सिक्युरिटी गार्ड को देश के तीन और स्थानों में स्टेशन करने की व्यवस्था करने जा रही है। इस कदम से तो त्वरित कार्रवाई के लिए सरकारी मंशा जाहिर होती है। साथ ही यह पिछली घटनाओं में त्वरित कमांडो कार्रवाई में विफलता की भी परोक्ष स्वीकृति भी है, पर क्या इतना ही काफी है ? याद रहे कि अभी एनएसजी के दस्ते दिल्ली के पास मनेसर (गुड़गांव) में तैनात हैं। कंधार विमान अपहरण कांड और मुंबई ताज हमले के समय हुई कुछ अन्य गलतियों से भी सबक लेने की जरूरत जान पड़ती है। किसी आतंकी हमले की स्थिति में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा उच्चतम स्तर पर तत्क्षण जवाबी हमले का फैसला लेने की जरूरत पड़ती है। कंधार और मुंबई हादसे के समय सरकारों ने इस दिशा में काफी सुस्ती दिखाई। कांग्रेस के नेतागण यदा-कदा यह कह कर भाजपा को चिढ़ाते रहते हैं कि जसवंत सिंह आतंकी मसूद अजहर को अपने साथ ले जाकर कंधार छोड़ आये थे। आतंकवाद पर वे क्या बात करेंगे ? 24 दिसंबर, 1999 को अपहरणकर्ता इंडियन एयरलाइंस के काठमांडु-दिल्ली विमान -814 को लखनऊ और अमृसर होते हुए कंधार ले गये थे। उस विमान पर करीब पौने दो सौ यात्री सवार थे। कंधार में विमान पहुंचने के बाद तब की भारत सरकार और उसके विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने जो कुछ किया, उस कृत्य को तब के लगभग पूरे प्रतिपक्ष का समर्थन हासिल था। केंद्र सरकार को उस विमान के अपहरण की सूचना उस दिन शाम में 4 बजकर 56 मिनट पर मिल चुकी थी, तब वह लखनऊ के ऊपर उड़ रहा था। तब से करीब तीन घंटों तक भारतीय सीमा में विमान चक्कर लगाता रहा। जब वह विमान अमृतसर से उड़ा, तो सात बजकर 49 मिनट हो चुके थे। इस बीच अमृतसर हवाई अड्डे पर वह विमान 40 मिनट तक रुका भी रहा, पर तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी दिल्ली से बाहर थे और वे अपने विशेष विमान से दिल्ली लौट रहे थे। जिस विमान से प्रधानमंत्री यात्रा कर रहे थे, उसमें सेटेलाइट फोन की व्यवस्था नहीं थी। इसलिए ऐसी आपात स्थिति में भी उन्हें सूचित करके उनसे उचित निदेश प्राप्त नहीं किया जा सका। प्रधानमंत्री के उनके दिल्ली आवास पहुंचने पर ही इस संबंध में उच्चस्तरीय बैठकों का दौर शुरू हुआ। सवाल है कि प्रधानमंत्री जिस विमान में यात्रा कर रहे हों, उसमें सेटलाइट फोन नहीं हो, सरकार के ऐसे आपराधिक निकम्मेपन के लिए एनडीए सरकार को जम कर कोसा जाना चाहिए था। यदि किसी कारण प्रधानमंत्री से संपर्क नहीं हो सका, तो दूसरे मंत्री और अफसर ऐसी आपात स्थिति में हाथ-पर-हाथ रख कर बैठे रहेंगे ? समय पर एनएसजी कमांडो को अमृतसर क्यों नहीं भेजा जा सका ? इंधन भरने के लिए अपहरणकर्ता विमान को अमृतसर उतरवाने को बाध्य हो गये थे और इस बात की पूर्व सूचना कें्रद सरकार को थी। एनएसजी से संबद्ध एक अधिकारी ने 25 दिसंबर, 1999 को मीडिया से कहा था कि ‘विमान से अमृतसर से उड़ान भरने के बाद भारतीय सीमा क्षेत्र से बाहर जाने से पहले तक एनएसजी कमांडो दस्ते के पास विमान को अपहर्ताओं से मुक्त करा लेने के पर्याप्त अवसर थे, लेकिन ऊपर के स्तर पर भ्रम होने के कारण कमांडो का उपयोग नहीं किया जा सका। ऐसी ही स्थितियों से निबटने के लिए बनाये गये विशेष प्रबंधन ग्रूप के अधिकारियों को पता ही नहीं था कि उन्हें क्या करना है, जबकि इसके लिए दिशा-निर्देश स्पष्ट हैं।’ यदि विमान अमृतसर में ही रोक लिया गया होता, तो अपहर्ताओं से वार्ता चलाने पर भारत सरकार का पलड़ा भारी होता, पर विमान के कंधार चले जाने के बाद तो भारत सरकार असहाय हो गयी, क्योंकि वहां तब तालिबान की सरकार थी और उससे भारत का कोई राजनयिक रिश्ता था ही नहीं। तालिबानी अपहरणकर्ताओं से मिले हुए थे। अमृतसर में भारत सरकार की विफलता के लिए किसी-न-किसी को सजा मिल गयी होती, तो इस बार गत माह कमांडो को मनेसर से मुंबई भेजने में साढ़े नौ घंटे नहीं लग जाते। यदि गत नवंबर में समय पर कमांडो मुंबई पहुंच गये होते, तो वहां मृतकों और घायलों की संख्या काफी कम हो सकती थी। इस बार तो कमांडो को दिल्ली से मुंबई पहुंचाने के लिए विमान ही समय पर उपलब्ध नहीं हो सका। तब एनएसजी के लिए आरक्षित वह विमान पता नहीं क्यों चंडीगढ़ में था ! जबकि, उसे इंधन भरी टंकी के साथ दिल्ली हवाई अड्डे पर हरदम तैनात रहना चाहिए था। अब देखना यह होगा कि कमांडो के लिए आरक्षित विमान का किसी वीवीआइपी के लिए घटना के समय ही इस्तेमाल तो नहीं हो रहा है ! कंधार में खड़े किये गये विमान के यात्रियों को किसी-न-किसी कीमत पर छुडा लाने के लिए 27 दिसंबर, 1999 को दिल्ली में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को सर्वदलीय बैठक बुलानी पड़ी थी। बैठक के बारे में दूसरे दिन के अखबार में यह खबर छपी, ‘देश के प्रमुख राजनीतिक दलों ने इंडियन एयरलाइंस के अपहृत विमान के यात्रियों और चालक दल की सकुशल रिहाई के लिए आवश्यक कदम उठाने का सरकार को सुझाव दिया है। इन दलों के नेताओं ने कहा कि संकट की इस घड़ी में वे सब एक हैं। मगर पल- पल बदलते घटनाक्रम के मद्देनजर जरूरी कदम उठाने का फैसला तो सरकार ही ले सकती है। बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, माकपा के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजित, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के जे चितरंजन सहित कई प्रमुख नेताओं ने भाग लिया।’ यानी जब अमृतसर में उस विमान को नहीं रोका जा कसा, तो पूरा देश लाचार हो गया। यह और बात है कि राजनीतिक कारणों से अब मसूद अजहर को छोड़ देने के लिए एक दल दूसरे दल को दोषी ठहरा रहा है। हालांकि तब प्रतिपक्ष ने केंद्र सरकार से साफ- साफ कहा था कि यात्रियों और चालक दल की वह सकुशल रिहाई कराये। किसी ने बैठक में यह नहीं कहा कि भले यात्रियों की जान ही क्यों न चली जाये, पर मसूद अजहर या किसी आतंकी को नहीं छोड़ना है। अब जरा ताजा मुंबई के समय सरकारी सुस्ती का एक नमूना देखिए। 26 नवंबर, 2008 की रात नौ बज कर 30 मिनट पर आतंकियों ने मुंबई में गोलियां चलानी शुरू कर दीं। मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को सूचना दी गयी। उन्होंने 11 बजे रात में केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटील को फोन पर कहा कि उन्हें एनएसजी कमांडो चाहिए। पाटील ने एनएसजी प्रमुख जेके दत्ता को निदेश दिया कि 200 कमांडो मुंबई भेजें। जिस विमान से उन्हें मुंबई भेजना था, वह उस समय चंडीगढ़ में था। उसे दिल्ली हवाई अड्डा लाकर उसमें इंधन भरते काफी देर हो गयी। धीमी गति वाला विमान मुंबई पहुंचा और कमांडो 27 नवंबर की सुबह सात बजे ही अपनी कार्रवाई शुरू कर सके। अब सवाल है कि क्या ऐसे मौकों के लिए तेज गति वाला विमान नहीं रहना चाहिए ? क्यों कमांडो को घटना स्थल पर भेजने में साढ़े नौ घंटे लगे ? क्यों कंधार कंाड के समय प्रधानमंत्री के विमान में सेटेलाइट फोन की सुविधा नहीं थी ? यदि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री मुख्यालय में नहीं हैं, तो आपात स्थिति में तत्क्षण निर्णय लेने के लिए अन्य मंत्री या अफसर अधिकृत क्यों नहीं हैं ? इन और इस तरह के सवालों का माकूल जवाब ही अगले किसी खतरे से हमें बचा पायेगा।
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समाजवादी एकता और टूट की एक अलग कहानी

सन् 1952 के आम चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी और किसान मजदूर प्रजा पार्टी को मिला कर प्रजा समाजवादी पार्टी का गठन कर दिया गया था।पर तीन साल के भीतर ही समाजवादियों का यह दल टूट गया। हालांकि इस विलयन और टूट के पीछे कुर्सी की होड़ तब नहीं थी जिस तरह की होड़ बाद के वर्षों में समाजवादियों में देखी गई।तब दो दलों का विलयन इस कारण हुआ था ताकि देश में कांग्रेस का एक मजबूत विकल्प प्रस्तुत किया जा सके। टूट भी इसलिए हुई क्योंकि नई संयुक्त पार्टी यानी प्रसपा अपनी ही पुरानी बात से मुकर रही थी। सन् 1950 में जब मध्य भारत में पुलिस ने भीड़ पर गोलियां चला कर कुछ लोगों की जान ले ली थी तो समाजवादी पार्टी ने उस सरकार से इस्तीफे की मांग की थी।पर जब त्रावन कोर कोचिन की प्रसपा सरकार की पुलिस ने सन् 1954 में भीड़ पर गोलियां चलार्इं तो राज्य मंत्रिमंडल ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। प्रसपा के महा सचिव डा.राम मनोहर लोहिया ने वहां के मुख्य मंत्री पट्टम थानु पिल्लई को तार भेज कर उन्हेंे इस्तीफा देने को कह दिया।पर प्रसपा के अध्यक्ष जे.बी.कृपलानी चाहते थे कि पहले गोली कांड के लिए दोषी कौन है ,इस बात का पता लगाया जाए।फिर जरूरत पड़ने पर कानून व्यवस्था का महकमा जिसके पास है,उससे इस्तीफा मांग लिया जाए।मुख्य मंत्री से नहीं। डा.लोहिया का तर्क यह था कि सिर्फ देश के खिलाफ बगावत की स्थिति में ही गालियां चलनी चाहिए।इस मसले पर प्रसपा के भीतर आंतरिक कलह इतना बढ़ा कि डा.लोहिया को 1955 में अलग सोशलिस्ट पार्टी बनानी पड़ी।डा.लोहिया कथनी और करनी में एकरूपता के पक्षधर थे। उधर जब सन् 1952 में सोशलिस्ट पार्टी और किसान मजदूर प्रजा पार्टी का विलयन हुआ तो यह कहा गया कि इससे देश में कांग्रेस का एक मजबूत विकल्प बनेगा और कांग्रेस सत्ता के मद में मनमानी नहीं कर पाएगी।तब सोशलिस्ट पार्टी के नेता आचार्य नरेंद्र देव और के.एम.पी.पी.के नेता आचार्य जे.बी.कृपलानी थे। सन् 1952 के आम चुनाव में देश में कांग्रेस को कुल चार करोड़ 40 लाख वोट मिले थे।तब वोट हासिल करने के लिहाज से सोशलिस्ट पार्टी और के.एम.पी.पी.भारत की दूसरी और तीसरी बड़ी पार्टियां थीं।इन दोनों दलों को मिला दें तो पहले आम चुनाव में देश भर में इन्हें एक करोड़ 74 लाख मत मिले थे।इन दलों के विलयन से जय प्रकाश और अशोक मेहता जैसे नेता बडे़ उत्साहित थे।पर बाद में कई कारणों से जेपी सर्वाेदय में चले गए और अशोक मेहता कांग्रेस में। दो दलों के विलयन के फैसले पर अशोक मेहता ने कहा था कि ‘सोशलिस्ट पार्टी तथा के.एम.पी.पी.के प्रस्तावित विलय से मैं अत्यधिक खुश हूं, भावविह्वल हूं।मैं मानता हूं कि यह न केवल आम चुनाव के बाद बल्कि आजादी प्राप्त होने के बाद की एक बड़ी राजनीतिक घटना है।’ ‘ हम यह याद करें कि महात्त्मा जी की हत्या के बाद हम समाजवादी कांग्रेस से इसलिए अलग हुए थे कि हमारा निश्चित मत था कि तीव्र सामाजिक परिवत्र्तन के बिना आजादी बरकरार नहीं रखी जा सकती है।पर उस परिवत्र्तन के लिए कांग्रेस में न तो इच्छा शक्ति है और न ही क्षमता।जिन 4.40 करोड़ मतदाताओं ने कांग्रेस को वोट दिया है ,उनका धीरे धीरे मोहभंग होगा और वे वहां से हटकर नए राजनीतिक केंद्र की ओर आना चाहेंगे।हमारी पार्टी मानती है कि समान दृष्टि वाली सभी छोटी-बड़ी पार्टियों के साथ आने से राजनीतिक विकास की यह प्रक्रिया आगे बढेगी। जय प्रकाश नारायण ने इस विलय पर कहा था कि ‘ आम चुनाव के विदारक अनुभव के बाद हम सब हतप्रभ थे।हमें यह समझ में आया कि जब तक राजनीतिक समेकन नहीं होता और समान विचार वाली पार्टियां एक साथ नहीं मिलतीं , एक ओर प्रक्रियावादी शक्तियों के लिए और दूसरी ओर अराजक तत्वों के लिए द्वार खुलेगा,जो देश को विनाश की ओर ले जाएगा। जेपी ने यह भी कहा कि ‘सवाल उठाया गया है कि क्या के.एम.पी.पी.माक्र्सवाद में विश्वास करता है ? मैं साथियों से प्रार्थना करूंगा कि वे माक्र्सवाद को दूसरा धर्म न बनने दें और सार को छोड़ कर रूपों में न उलझ जाएं।इस मुद्दे पर पंचमढी सम्मेलन में काफी अच्छी बहस हुई और लोहिया के स्मरणीय उत्तर के बाद इसे पुनः उठाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए थी।हम यह न भूलें कि न केवल विभिन्न समयों एवं स्थानों पर बल्कि समान स्थिति में भी माक्र्सवाद की विभिन्न परस्पर विरोधी व्याख्याएं हैं।फिर इतिहास, भारत के इतिहास सहित ,इस बात का गवाह है कि जो लोग अपने को माक्र्सवादी कहने पर जोर डालते रहे, वे गलत साबित हुए और उन्होंने ऐतिहासिक गलतियां की।’ प्रभात खबर (09-०१-2009)

सती होते देख मूर्छित हो गए थे इब्नबतूता

14वीं सदी में भारत की यात्रा पर आए इब्न बतूता एक स्त्री को सती होते देख मूर्छित हो गए थे। वे लिखते हैं, ‘मैं यह हृदय विदारक दृश्य देख कर मूर्छित हो घोड़े से गिरने को ही था कि मेरे मित्रों ने संभाल लिया और मेरा मुख पानी से धुलवाया।’ 

इब्न बतूता अरब देश से 22 साल की छोटी उम्र में विश्व भ्रमण का निकल पड़े थे। वे 30 साल तक घूमते रहे। इब्न बतूता ने अपनी यात्रा के वृतांत में भारत के उस सदी के शासकों, सामाजिक धार्मिक मान्यताओं, रीति रिवाजों आदि का रोमांचक आंखों देखा हाल वर्णित किया है। इब्न बतूता ने यह भी लिखा कि स्त्री को इस तरह जलाने की अनुमति सम्राट देते थे। क्रूर सती प्रथा का वर्णन इब्न बतूता ने विस्तार से किया है। याद रहे कि इस प्रथा के खिलाफ राजा राम मोहन राय ने बाद में अभियान चलाया और सन् 1829 में अंग्रेज शासक ने इस पर कानूनी रोक लगाई।

इससे पहले मुस्लिम शासक भी स्वेच्छा से सती होने के कृत्य पर रोक नहीं लगाते थे। वे इसे हिंदुओं का एक धार्मिक कृत्य मान कर हस्तक्षेप नहीं करते थे। पर अंग्रेज और मुस्लिम शासक इस बात का ध्यान जरूर रखते थे कि किसी महिला को कोई जबरन सती न बना दे। इस बात का जिक्र अबुल फजल ने भी ‘अकबरनामा’ में किया है। आज के युग में दहेज प्रथा, प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सती प्रथा की तरह ही मारक साबित हो रही है। आज का दहेज विरोधी कानून, दहेज पिपासुओं के खिलाफ बेअसर ही साबित हो रहा है।

सती प्रथा का 14वीं सदी में कैसा स्वरूप था, वह इब्न बतूता के शब्दों में पढि़ए, ‘एक बार मैंने भी एक हिंदू स्त्री को बनाव सिंगार किए घोड़े पर चढ़कर जाते हुए देखा था। हिंदू और मुसलमान इस स्त्री के पीछे चल रहे थे। आगे- आगे नौबत बजती जाती थी और ब्राह्मण साथ -साथ थे। घटना का स्थान सम्राट की राज्य सीमा के अंतर्गत होने के कारण बिना उनकी आज्ञा प्राप्त किए जलाना संभव नहीं था। आज्ञा मिलने पर यह स्त्री जलाई गई। हिंदुओं में प्रत्येक विधवा के लिए सती होना आवश्यक नहीं है। परंतु पति के साथ स्त्री के जल जाने पर वंश प्रतिष्ठित गिना जाता है और उसकी भी पतिव्रताओं में गणना होने लगती है। सती न होने पर विधवा को मोटे- मोटे वस्त्र पहन कर महाकष्टमय जीवन तो व्यतीत करना ही पड़ता है, साथ ही वह पति परायण भी नहीं समझी जाती।’

एक युद्ध में खेत रहे तीन जवानों की विधवाओं के सती होने का विवरण देते हुए इब्न बतूता ने लिखा कि ‘इन तीन स्त्रियों ने तीन दिनों तक खूब गाया बजाया और नाना प्रकार के भोजन किए। इनके पास चारों ओर की स्त्रियों का जमघट लगा रहता था। चौथे दिन इनके पास घोड़े लाए गए और ये तीनों बनाव सिंगार कर सुगंधि लगाकर उन पर सवार हो गईं। इनके दाहिने हाथ में एक नारियल था, जिसको ये बराबर उछाल रही थीं और बाएं हाथ में एक दर्पण था जिसमें ये अपना मुख देखती थीं। चारों ओर ब्राह्मणों और संबंधियों की भीड़ लगी थी। प्रत्येक हिंदू आकर अपने मृत माता, पिता, बहिन, भाई तथा अन्य संबंधी या मित्रों के लिए इनसे प्रणाम कहने को कह देता था और ये हां हां कहती और हंसती चली जाती थीं।

मैं भी मित्रों के साथ यह देखने को चल दिया कि ये किस प्रकार से जलती हैं। तीन कोस जाने के बाद हम एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जहां जल की बहुतायत थी और वृक्षों की सघनता के कारण अंधकार छाया हुआ था। यहां चार मंदिर बने हुए थे।’ ‘मंदिरों के निकट पहुंचने के बाद इन स्त्रियों ने उतर कर स्नान किया और कुंड में एक डुबकी लगाई। वस्त्र आभूषण उतार कर रख दिए और मोटी साडि़यां पहन लीं। कुंड के पास अग्नि दहकाई गई। सरसों का तेल डालने पर उसमें प्रचंड शिखाएं निकलने लगीं। पंद्रह पुरुषों के हाथों में लकड़ियों के बंधे हुए गट्ठे थे और दस पुरुष अपने हाथों में लकड़ी के बड़े-बड़े कुंदे लिए खड़े थे। नगाड़े, नौबत और शहनाई बजाने वाले स्त्रियों की प्रतीक्षा में खड़े थे। स्त्रियों की दृष्टि से बचाने के लिए लोगों ने अग्नि को एक रजाई की ओट में कर लिया था। परंतु इन में से एक स्त्री ने रजाई को बलपूर्वक खींच कर कहा कि क्या मैं जानती नहीं कि यह अग्नि है, मुझे क्यों डराते हो? इतना कह कर वह अग्नि को प्रणाम कर तुरंत उसमें कूद पड़ी।

नगाड़े, ढोल, शहनाई और नौबत बजने लगी। पुरुषों ने अपने हाथों की पतली लकड़ियां डालनी प्रारंभ कर दीं। और फिर बड़े- बड़े कुंदे भी डाल दिए गए जिससे स्त्री की गति बंद हो गई। उपस्थित जनता भी चिल्लाने लगी। मैं यह हृदय द्रावक दृश्य देख कर मूर्छित हो घोड़े से गिरने को ही था कि मेरे मित्रों ने संभाल लिया और मेरा मुख पानी से धुलवाया। संज्ञा लाभ कर मैं वहां से लौट आया।’


 प्रभात खबर (07-11-2008)