रविवार, 29 मार्च 2009

बेहतर उम्मीदवारों को जिताने की जिम्मेदारी अब मतदाताओं पर

अब गेंद एक बार फिर मतदाताओं के ही पाले में है। इस देश के नेताओं और दलों ने एक बार फिर अपना ही सर्वदलीय वादा भुला दिया है। आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर सन् 1997 में संसद के भीतर देश से यह सर्वदलीय वादा किया गया था कि ‘राजनीति का अपराधीकरण और भ्रष्टाचार का खात्मा किया जाएगा।’ पर अब जब विभिन्न दलों ने अपने भंाति- भांति के उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारने शुरू कर दिए हंै तो उन उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि से यह साफ हो गया है कि राजनीतिक दलों ने अपना वादा एक बार फिर तोड़ दिया है। पर अभी जनता का फैसला बाकी है। सन् 1997 की अपेक्षा आज देश के सामने राजनीति के अपराधीकरण और भष्टीकरण की समस्या और भी गंभीर हुई है। सन् 1997 में लोक सभा में बाहुबलियों की संख्या मात्र 40 थी। निवर्तमान लोक सभा में उनकी संख्या बढ़कर सौ से अधिक हो चुकी थी। शासन में भ्रष्टाचार बढ़ा है।इस बार जिस तरह विभिन्न राजनीतिक दल उदारतापूर्वक बाहुबलियों और माफिया तत्वों को उम्मीदवार बनाते जा रहे हैं, उससे साफ है कि अगली लोक सभा पिछली लोक सभा की अपेक्षा बेहतर नहीं होगी। लोक सभा में किस तरह के सदस्य पहुंचते हैं, इसका असर सिर्फ सदन की बहस के स्तर पर ही नहीं पड़ता बल्कि देश के शासन व सभ्य नागरिक समाज पर भी पड़ता है। उसका प्रभाव सरकार की नीतियों पर पड़ता है । लोक सभा देश की करोड़ों जनता की तकदीर भी तय करती है। आज जब कि देश ‘सामान्य जनता बनाम करोड़पति माफियाओं’ के बीच के संघर्ष में जूझ रहा है,यह जरूरी हो गया है कि आम जनता इस बार तो एक ऐसी लोक सभा चुने जो सदन में आए दिन हो रहे हंगामे और मारपीट की जगह 84 करोड़ वैसे गरीबों की आवाज बने जिनकी रोज की औसत आय सिर्फ 20 रुपए है। कोई माफिया या फिर घनघोर बाहुबली संसद में जाकर आम जनता का कौन सा भला करेगा,यह जनता वर्षों से देख रही है। बिहार के एक वरिष्ठ आई.पी.एस. अफसर ने अपने ब्लाॅग के जरिए मतदाताओं से अपील की है कि वे अपराधियों को वोट नहीं दें। उस सेवारत कत्र्तव्यनिष्ठ अफसर ने बड़ी पीड़ा के साथ यह लिखा है कि हत्या, बलात्कार और अन्य जघन्य अपराधों के आरोपितों को विभिन्न दल उम्मीदवार बनाने की तैयारी कर रहे हैं।मतदाता इन अवांछित तत्वों को लोक सभा में जाने से रोक सकते हैं। उस अफसर ने अपने कत्र्तव्य पालन के सिलसिले में ऐसे अवांछित तत्वों की जन विरोधी हरकतों को करीब से देखा है। वे चाहते हैं कि अब भी तो ऐसे लोगों को हमारे भाग्य विधाता की कुर्सियों पर बैठने से रोका जा सके।उस अफसर की बात से भी यह निराशा झलकती है कि राजनीतिक दल बाहुबलियों और माफिया तत्वों से अपना संबंध तोड़ने को कत्तई तैयार नहीं हैं। पर आखिर ये राजनीतिक दल और नेतागण मतदाताओं के पास ही तो जाएंगे ! हाल के महीनों में बिहार में कई ऐसे बाहुबलियों को निचली अदालतों ने उनके कृत्यों के लिए सजाएं सुनाई हैं। इनमें से कई सांसद और पूर्व सांसद हैं। ये लोग ऊंची अदालतों से यह गुजारिश कर रहे हैं कि उनकी सजाएं स्थगित की जाएं ताकि वे एक बार फिर चुनाव लड़ सकें। यदि अदालत ने उन्हें राहत नहीं दी तो उनके परिजनों को राजनीतिक दल टिकट देने का मन बना रहे हैं। कोई बाहुबली लड़े या उसका परिजन, सभ्य समाज को समान रूप से नुकसान होता है। पर इसकी चिंता राजनीतिक दलों को कतई नहीं है। उन्हें तो किसी न किसी तरह सीटें चाहिए। पर यदि मतदाता नहीं चाहें तो उन्हें भला विजयी कौन बनाएगा ? कभी बिहार के अनेक मतदाताओं के सामने भी यह मजबूरी थी जिसका लाभ उठा कर ये बाहुबली चुनाव जीत जाते थे। एक तो कानून के शासन का अभाव था और मतदान में धांधली का बोलबाला था। पर पिछले कुछ चुनावों से बिहार में स्वच्छ और निष्पक्ष मतदान होने लगे हैं। क्योंकि कानून और व्यवस्था इधर सुधरी है।गत तीन वर्षों में करीब तीस हजार अपराधियों को निचली अदालतें सजा सुना चुकी हैं। इससे अपराधी सहम गए हैं।यानी मतदाताओं को अब इन बाहुबलियों से डरने की जरूरत नहीं रह गई है।मतदाता जब भयमुक्त माहौल में मतदान कर सकते हैं तो फिर बाहुबलियों के पक्ष में उनसे डर कर मतदान करने की जरूरत ही कहां रह गई है ? बिहार में बाहुबलियों के उभरने और उनके द्वारा कुछ खास जातियों और समुदायों का समर्थन हासिल कर लेने का एक कारण यह भी था कि पहले पुलिस थाने और राजस्व कार्यालय किसी को न्याय नहीं देते थे। कम से कम बाहुबली अपने -अपने समुदाय के लिए तो मसीहा बन जाते थेे।अब जब कानून अपना काम करने की दिशा में अग्रसर है तो किसी समुदाय या फिर जातीय समूह को किसी बाहुबली को वोट देकर उसे अपनी रक्षा के लिए ताकतवर बनाने की भला क्या जरूरत है ? हाल के वर्षों में जिन तीस हजार लोगों को त्वरित अदालतों ने जुर्म के अनुपात में कड़ी सजाएं सुनाई हैं ,वे करीब -करीब सभी समुदायों व जातियों से आते हैं। बिहार में कुछ साल पहले जंगल राज था।वह जंगल राज भी अकारण नहीं था। वह पिछड़े समुदाय के नेतृत्व में चलने वाला ‘खुला जंगल राज’ था। वह उससे पहले अगड़े समुदाय के नेतृत्व में चलने वाले ‘छिपे जंगल राज’ का जवाब था। कई सवर्ण बाहुबली दबंग पिछड़ों के अत्याचार की प्रतिक्रिया में उभरे तो कुछ पिछड़े बाहुबली, अगड़ांे के दमन की प्रतिक्रियास्वरूप ताकतवर बने। वे राजनीतिक प्रयोग ही थे जो विफल रहे। आजादी के बाद के वर्षों में सवर्ण सामंती धाक की आड़ में भ्रष्टाचार चलता था।उसकी प्रतिक्रिया में मंडलेत्तर काल में पिछड़ा उभार के डंके तले खुला भ्रष्टाचार और अपराध चलने लगा।मतदाताओं ने बारी -बारी से उपर्युक्त दोनों राजनीतिक भटकावों को अपने वोटों की चोट से पराजित कर दियां।अब बिहार में एक ऐसा शासन कार्यरत है जो स्वच्छ और निष्पक्ष मतदान का आधार तैयार करने के प्रति ईमानदारी से लगा हुआ है। राज्य शासन भरसक सभी समुदायों व जातियों के भले के लिए काम करने की कोशिश कर रहा है। हालांकि अब भी कोई आदर्श स्थिति नहीं है, पर मतदाता चाहें तो इस बदली हुई स्थिति का लाभ उठा सकते हैं।मतदाता अगले चुनाव मे ं किसी भी दल के बाहुबली और माफिया तत्वों को मतदान के जरिए उनकी औकात बता सकते हैं।संभवतः इस नई स्थिति से ही उत्साहित होकर उस वरिष्ठ आई.पी.एस.अफसर ने मतदाताओं से इस बार यह उम्मीद की है कि वे अपराधियों को वोट न देंगे। कुछ साल पहले तो बिहार में ऐसी स्थिति थी कि अधिकतर मतदाता अपने ही मतों का मालिक नहीं रह गए थे। अनेक लोगों को मतदान केंदों तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता था। कई दूसरे लोग हिंसा की आशंका के कारण मतदान के दिन भी अपने घरों में ही रह जाते थे। पर पिछले विधान सभा चुनाव में चुनाव आयोग के कत्र्तव्यनिष्ठ व साहसी पर्यवेक्षक के.जे. राव की सक्रियता के कारण मतदान की लगभग सबको छूट मिली तो कई बाहुबली और उनके लगुए भगुए चुनाव में खेत रहे। ऐसे -ऐसे वीर- बांकुड़े भी हार गए जिनकी हार की कोई उम्मीद ही नहीं कर रहा था। पिछले चुनाव के तौर तरीके अगले लोक सभा चुनाव के लिए यह संदेश दे रहे हैं कि मतदाता चाहें तो दोनों राजनीतिक गठबंधनों के बचे -खुचे बाहुबली भी इस बार लोक सभा का मुंह नहीं देख पाएंगे। मतदाताओं के समक्ष ही अब यह भी जिम्मेदारी बन गई है कि उम्मीदवारों में से ऐसे लोगों को चुनें जो संसद में बहस के स्तर को उपर उठा सकें। लोक सभा के पिछले सत्र में परमाणु करार और सत्यम घोटाले पर साधिकारपूर्वक बोलने वाले संसदों की काफी कमी महसूस की गई।पर सदन में गलाफाड़ कर चिल्लाने और जबरन बैठकें नहीं होने देने वाले सांसदों की कोई कमी नहीं रही। इस बार मतदाता अपने लिए कैसी लोक सभा बनाना चाहते हैं ? यदि मतदाता चाहें तो राजनीतिक दलों और नेताओं की गलती को अपने वोट के जरिए सुधार सकते हैं।

दैनिक हिन्दुस्तान से साभार

संसद में किया गया सर्वदलीय वादा निभाने का अवसर

लोक सभा का चुनाव सामने है। उम्मीदवारों के चयन का काम जारी है। भारतीय संसद ने 1997 में ‘ राजनीति के अपराधीकरण और भ्रष्टाचार की समाप्ति ’ के लिए जो सर्वसम्मत संकल्प किया था, उसे पूरा करने का यही अवसर है। अब जबकि इन दो बुराइयों से अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद को भी ताकत मिलने की खबरें आने लगी हैं,तो अब भी हमारे देश के विभिन्न दल और नेता नहीं चेतेंगे ? क्या विभिन्न राजनीतिक दल अपने ही उस संकल्प को पूरा करने का कम से कम इस बार प्रयास करेंगे ? इससे पहले तो नहीं किया गया। यदि इस बार भी वे नहीं करेंगे तौभी चुनाव के इस अवसर पर उन्हें इस बात की याद दिला देना जरूरी है कि उन्होंने समय रहते अपना ही वादा पूरा नहीं किया, जिस कारण देश को अपूरणीय क्षति हुई और हो रही है। लोक सभा चुनाव के ठीक पहले सभी दलों के नेता आपसी सहमति से यह तय कर सकते हैं कि वे ऐसे किसी व्यक्ति को उम्मीदवार नहीं बनाएंगे, जो आदतन अपराधी प्रवृति का है या फिर जिसने भ्रष्टाचार के जरिए अपार निजी संपति बनाई है। यदि नेताओं की मंशा सही हो, तो इस बात का पता लगाना अत्यंत आसान है कि कौन व्यक्ति अपराधी प्रवृति का है और किस व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य जन सेवा नहीं बल्कि ऐन केन प्रकारेण धनोपार्जन है। यदि मंशा ठीक नहीं है तो किसी को दोषी मानने से पहले उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट की काॅपी की मांग की जा सकती है।अब तक तो की ही जाती रही है। पिछले एक चुनाव में बिहार के एक प्रमुख नेता ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि हम बाघ के खिलाफ किसी बकरी को तो चुनाव में उम्मीदवार नहीं बना सकते न ! उनसे पूछा गया था कि आप आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगेां को अपने दल से उम्मीदवार क्यों बना रहे है ?वे यह कहना चाहते थे कि जब तक अन्य दल बाहुबलियों को टिकट देते रहेंगे,तब तक वे भी वैसे लोगों उम्मीदवार बनाते रहेंगे।पर अभी समय है जबकि वे नेता अपने प्रतिद्वंद्वी नेताओं से अपील कर सकते हैं कि आप भी बाहुबलियों को टिकट इस बार मत दीजिए,हम भी नहीं देंगे। इसके लिए वे सर्वदलीय बैठक भी बुला सकते हैं।इस तरह वे सन् 1997 के अपने ही वायदे को पूरा कर देंगे।पर ऐसी कोई सर्वदलीय कोशिश अब तक नजर नहीं आ रही है। पर जब सारे उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतर चुके होंगे तो वही नेता एक बार फिर कहेंगे कि हम क्या करें ? हमारे विरोधी दलों ने तो बाहुबलियों को खड़ा कर दिया है। अब जरा उस सर्वदलीय वायदे को एक बार फिर याद कर लिया जाए जो इस देश के करीब-करीब सभी नेताओं ने संसद के मंच से पूरे देश के सामने किया था। आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर छह दिनों तक चले संसद के दोनों सदनों के विशेष सत्र में पारित प्रस्ताव में कहा गया कि ‘संसद ने आज एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए भारत के भावी कार्यक्रम के रूप में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास किया। प्रस्ताव में भ्रष्टाचार को समाप्त करने, राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने के साथ साथ चुनाव सुधार करने, जनसंख्या वृद्धि, निरक्षरता और बेरोजगारी को दूर करने के लिए जोरदार राष्ट्रीय अभियान चलाने का संकल्प किया गया।’ छह दिनों की चर्चा के बाद जो प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया गया उस प्रस्ताव को सर्वश्री अटल बिहारी वाजपेयी, इंद्रजीत गुप्त, सुरजीत सिंह बरनाला, कांसी राम, जार्ज फर्नांडीस, शरद यादव, सोम नाथ चटर्जी, एन.वी.एस. चितन, मुरासोली मारन, मुलायम सिंह यादव, डा. एम. जगन्नाथ, अजित कुमार मेहता, मधुकर सरपोतदार, सनत कुमार मंडल, वीरंेद्र कुमार बैश्य, ओम प्रकाश जिंदल और राम बहादुर सिंह ने सामूहिक रूप से पेश किया था। यह प्रस्ताव आने की भी एक खास पृष्ठभूमि थी। सन् 1996 के लोक सभा चुनाव में विभिन्न दलों की ओर से 40 ऐसे व्यक्ति लोक सभा के सदस्य चुन लिए गए थे जिन पर गंभीर आपाराधिक मामले अदालतों में चल रहे थे। उन मेंसे दो बाहुबली सदस्यों ने लोक सभा के अंदर एक दिन आपस में मारपीट कर ली। इस शर्मनाक घटना को लेकर अनेक नेता शर्मसार हो उठे और उनलोगों ने तय किया कि ऐसी समस्याओं पर सदन में विशेष चर्चा की जाए और इन्हें रोकने के लिए कदम उठाए जाएं। इस विशेष चर्चा के दौरान सदन में कोई दूसरा कामकाज नहीं हुआ।वक्ताओं ने सदन में देशहित में भावपूर्ण भाषण किए। पर उस के बाद जब सन् 1998, 1999 और 2004 में जब लोक सभा के चुनाव हुए तो हमारे उन्हीं नेताओं ने अपने ही वायदे भुला दिए। इसका नतीजा यह हुआ कि बाहुबली सांसदों की संख्या इस बीच 40 से बढ़कर करीब सौ हो गई। हाल में जब देश पर आतंकवादी हमले तेज हुए तो सुरक्षा मामलों के जानकारों ने बताया कि माफिया और आपराधिक प्रवृति के प्रभावशाली लोग विदेशी आतंकियों के लिए शरणस्थली मुहैया करते हैं।इस पृष्ठभूमि में देश की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए एक बार फिर इस समस्या पर नए ढंग से विचार करने का समय आ गया है। अब यह और आवश्यक हो गया कि बड़ेे अपराधी और माफिया तत्वों के बीच से कुछ लोग चुनाव लड़ कर संसद सदस्य न बन जाएं। इसलिए जरूरी है कि जिन दलों और नेताओं ने आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर संसद में बैठकर देश के सामने जो सर्वसम्मत वादा किया था, उसे वे अब देश की सुरक्षा को ध्यान में रख कर अब तो पूरा करें। अब भी समय है कि विभिन्न दलों के नेतागण मिल बैठकर यह फैसला करंे कि वे अब किसी विवादास्पद व्यक्ति को इस बार लोक सभा चुनाव का उम्मीदवार नहीं बनाएंगे। जिन मुद्दों और समस्याओं को लेकर हमारे नेताओं ने तब संसद में भारी चिंता प्रकट की थी, उन मामलों में इस देश की हालत तब की अपेक्षा अब अधिक बिगड़ी है। राजनीति में अपराधी और भ्रष्ट तत्वों का पहले की अपेक्षा अब अधिक बोलबाला है। पर जब बोलबाला कम था, तब हमारे नेताओं ने 1997 में सदन में क्या- क्या कहा था,उसकी कुछ बानगियां यहां पेश हैं।इससे भी यह पता चलेगा कि इन समस्याओं को हल करना अब और भी कितना जरूरी हो गया है, यदि इस देश में लोकतंत्र को बनाए रखना है और एकता-अखंडता कायम रखनी है। लोक सभामें प्रतिपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने बहस का समापन करते हुए तब कहा था कि ‘एक बात सबसे प्रमुखता से उभरी है कि भ्रष्टाचार को समाप्त किया जाना चाहिए। इस बारे में कथनी ही पर्याप्त नहीं, करनी भी जरूरी है।उन्होंने यह भी कहा था कि राजनीति के अपराधीकरण के कारण भ्रष्टाचार बढ़ा है।’ पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा ने कहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सभी दलों को मिलकर लड़ाई लड़नी चाहिए। तत्कालीन रेल मंत्री राम विलास पासवान ने कहा कि देश के सामने उपस्थित समस्याओं के हल के लिए सभी दलों को मिल बैठकर ठोस कदम उठाने चाहिए। तत्कालीन स्पीकर पी.ए. संगमा ने तो आजादी की दूसरी लड़ाई छेड़ने का आह्वान कर दिया। पर, इस बीच इस देश के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह रही कि दो प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस के टिकट पर ही गत लोक सभा चुनाव में क्रमशः26 और 16 ऐसे उम्मीदवार जीत कर आ गए, जिन पर अनेक आपराधिक मुकदमें विभिन्न अदालतों में चल रहे हैं। जबकि 1997 में संसद में जो प्रस्ताव सर्वसम्मत से पास हुआ था, उसे भाजपा नेता श्री वाजपेयी ने ही पेश किया था।यह भी दुर्भाग्यपूर्ण ही रहा कि इस बीच राजनीति के अपराधीकरण व भ्रष्टीकरण के खिलाफ जो भी कदम उठाए गए, वे मुख्यतः चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट की पहल पर ही उठाए गए।इस मामले में एन.डी.ए. सरकार का छह साल का कार्यकाल भी खुद अटल बिहारी वाजपेयी की उस भावना के अनुकूल नहीं रहा जो भवना अटल जी ने 1997 में लोक सभा में व्यक्त की थी। अब जब विदेशी आतंकवादियों द्वारा हमारे लोकतंत्र की उपर्युक्त बुराइयों का लाभ उठाने की आशंका बढ़ गई है तो क्या अब भी पक्ष-विपक्ष की राजनीति उन वायदों को पूरा करने की दिशा में कोई कदम उठाएगी ?

दैनिक हिन्दुस्तान से साभार

काश, ऐसा पहले हुआ होता

बसपा ने उत्तर प्रदेश में इस बार 80 में से बीस लोस चुनाव क्षेत्रों में ब्राह्मण उम्मीदवार खड़ा कराए हैं। इससे पहले बड़े अफसरों की पोस्टिंग में भी बसपा सरकार ने जितनी संख्या में ब्राह्मणों को जगह दी, उतनी वहां शायद कभी ब्राह्मण मुख्य मंत्रियों के शासन काल में भी नही दी गई थी। याद रहे कि सन् 1931 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की जनसंख्या कुल आबादी का 4.32 प्रतिशत थी। सन् 1931 में अंतिम बार इस देश में जाति के आधार पर जन गणना हुई थी। आजादी के बाद ऐसी गणना पर रोक लगा दी गई। यानी आजादी के बाद कांग्रेस ने ब्राह्मण-दलित गठबंधन जरूर बनाया, पर दलितों को ‘सत्ता’ में वाजिब हिस्सेदारी नहीं दी। इसी कारण उत्तर प्रदेश में कांसीराम - मायावती उभरे। आज जब मायावती ने दलित-ब्राह्मण गठजोड़़ बनाया, तो ब्राह्मणों की बन आई। उन्हें मायावती ने जगह दी। यह काम अच्छा हुआ या बुरा, इस पर विवाद हो सकता है। पर राजनीतिक चतुराई की दृष्टि से देखिए, तो मायावती, आजादी के तत्काल बाद के सत्ताधारी कांग्रेसी नेताओं की अपेक्षा अधिक चतुर-चालाक और दूरदृष्टि वाली निकलीं। अब वह देश के सबसे बड़े प्रदेश में सत्ता की सबसे बड़ी कुर्सी पर हैं।

अब गाड़ी पर नाव
ब्राह्मण कभी कमांडिंग पोजिशन में हुआ करते थे, पर आज वे उत्तर प्रदेश में एक दलित नेत्री की कमांड में हैं। अन्य कुछ प्रदेशों में भी ब्राह्मणों का झुकाव बसपा की ओर है। हालांकि भाजपा द्वारा एक गैर ब्राह्मण को ‘प्रतीक्षारत प्रधान मंत्री’ घोषित कर दिए जाने के बाद अब अन्य राज्यों में ब्राह्मणों का आकर्षण कांग्रेस के प्रति भी बढ़ सकता है, जैसा कि दिल्ली विधान सभा के गत चुनाव में हुआ। काश, कांग्रेस के ब्राह्मण नेतृत्व ने आजादी के तत्काल बाद से ही दलित सहित समाज के अन्य जातीय समूहों को उनके वाजिब राजनीतिक तथा दूसरे हक दिए होते ! यदि कांग्रेस ने तब जातीय उदारता दिखाई होती तो आज मायावती जैसी नेत्री नहीं उभरतीं जिनकी राजनीतिक शैली में शालीनता, नैतिकता, शुचिता और विनम्रता के लिए कोई जगह ही नहीं है। ऐसी नेत्री समय के साथ अधिक ताकतवर बनती जाएं, यह इस देश के लिए कोई शुभ बात नहीं है।दलितों में से ही ऐसे नेता उभरते तो देश और दलितों के लिए भी अच्छा होता जिनमें शालीनता और नैतिकता के तत्व अधिक हांे। कुल मिलाकर आज यही लगता है कि अब भी कांग्रेस में अन्य अधिकतर राजनीतिक दलों की अपेक्षा लोक लाज कुछ अधिक ही बची हुई है। अपने निधन के कुछ समय पहले मधु लिमये जैसे कट्टर लोहियावादी व कांग्रेसविरोधी समाजवादी नेता भी इस नतीजे पर पहुंचे थे कि इस देश को ‘सुधरी हुई कांग्रेस’ ही ठीक से चला सकती है। जो बात यहां उत्तर प्रदेश के लिए कही गई है,उसी तरह की बात बिहार के लिए भी कही जा सकती है।

गरीबी नहीं है चुनावी मुद्दा
भारत के करीब 84 करोड़ लोग औसतन 20 रुपए रोजाना की आय पर किसी तरह अपना गुजारा कर रहे हैं। जिस देश की ऐसी स्थिति हो, वह देश ज्वालामुखी के मुहाने पर ही खड़ा देश माना जाता है। इस देश के करीब 72 प्रतिशत अभागे लोग तो अफ्रीका के निर्धनत्तम देशों जैसी गरीबी झेलने को अभिशप्त हैं। इसके बावजूद क्या ‘गरीबी उन्मूलन’ इस लोक सभा चुनाव का मुद्दा है ? गरीबी मुख्य मुद्दा बनेगी भी तो कैसे ? आज संसदीय राजनीति करने वाले कितने लोग सचमुच गरीब हैं या फिर गरीबों के सच्चे प्रतिनिधि हैं ? लगभग सभी दल हाल के वर्षों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से केंद्र या राज्यों में सत्ता संभाल चुके हैं। संभाल भी रहे हैं। अपने कार्यकाल में कितने दलों और नेताओं ने गरीबी उन्मूलन के लिए वास्तव में कोई काम किया ? यानी कुल मिलाकर स्थिति यह है कि जो लोग आज चुनाव लड़ रहे हैं,उनमें से अधिकतर नेतागण उन 84 करोड़ लोगों के सच्चे प्रतिनिधि तो कत्तई नहीं हैं।

और अंत में
लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया और मनोज कुमार ने उस नारे पर फिल्म बनाई। अब गुलजार -रहमान ने ‘जय हो’ गाया और कांग्रेस ने उसे अपना चुनावी नारा बनाया।

प्रभात खबर (23/03/2009)

रविवार, 1 मार्च 2009

लोकतंत्र -सह -राजतंत्र

मिश्रित अर्थव्यवस्था के साथ- साथ इन दिनों भारत में ‘मिश्रित शासन- व्यवस्था’ भी चल रही है। यानी लोकतंत्र -सह -राज तंंत्र के यहां एक साथ दर्शन हो रहे हैं। अगले लोकसभा चुनाव में एक बार फिर इस ‘डाइनेस्टिक डेमोक्रेसी’ का और भी नंगा स्वरूप सामने आनेवाला है। यानी लोकतंत्र पर खानदान-तंत्र हावी होता जा रहा है। इसके अनेक नुकसान भी सामने आ रहे हैं। भले हर पांच साल पर जनता वोट डालती हैं, पर इस देश के कई राजनीतिक दलों में पहले से ही यह तय हो चुका होता है कि सत्ता मिलने पर उन दलों से प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के पद पर उन खास खानदानों के ही व्यक्ति बैठेंगे, चाहे उनमें शासन चलाने की कोई भी योग्यता हो या नहीं। किसी नेता के परिवार के कोई सदस्य राजनीति में आएं, इसमें किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए। पर, क्या उस नेता के परिवार का सदस्य उसी ऊंची कुर्सी पर बैठे, जिस कुर्सी पर उनके पूर्वज बैठ चुके हैं ? अनुभव हासिल करने के लिए उससे नीचे की कुर्सी पर क्यों नहीं ? पर इतना भी खानदानवादियों को मंजूर नहीं है। आजादी के बाद यहां मिश्रित अर्थव्यवस्था शुरू की गई थी। इस मिश्रित अर्थव्यवस्था ने भी इस गरीब देश का भला नहीं किया। क्या मिश्रित शासन व्यवस्था इस देश का भला कर पाएगी ? लगता तो नहीं है। इस मिश्रित शासन व्यवस्था की अपनी खामियां हैं। हाल के वर्षों में वे खामियां खुल कर सामने आ चुकी हैं। इसलिए यह मिश्रित राजनीतिक व्यवस्था भी इस देश में फेल करने ही वाली हैे। वैसे फेल कर भी रही है।इससे देश को भारी नुकसान हो रहा है तथा भविष्य में और अधिक नुकसान होनेवाला है। क्योंकि वंशज को किसी महत्वपूर्ण पद पर बैठाने के लिए उसकी योग्यता, क्षमता, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठता या राष्ट्रनिष्ठा पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इस देश की राजनीति में कुछ दलों के नेताओं के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे न तो गांधीवाद में विश्वास रखते हैं और न समाजवाद में। उनका विश्वास न लोहियावाद में है और न ही आंबेडकरवाद में, बल्कि उनका विश्वास सिर्फ खानदानवाद में है।

तब और अब में
फर्क राजतंत्र की कई कमजोरियां थीं। पर, एक बात अच्छी थी। राजा अपने पुत्र को राज चलाने की उचित ट्रेनिंग दिलवाता था। साथ ही वह अपने ही राज की संपत्ति को निजी फायदे के लिए ऐसे नहीं लूटता था, जिस तरह इन दिनों इस देश के कई नेता लूट रहे हैं। वह आम तौर पर अच्छा- भला राज, अपने वंशज को सौंपकर मरता था। वह राज की जन- धन की, अपनी निजी संपत्ति की तरह ही, रक्षा करता था। यहां तक कि वह पशु, पक्षी, वृक्ष व वनस्पतियों की भी रक्षा की शपथ लेता था। वह अपनी जान देकर भी अपनी सीमाओं की रक्षा करता था। क्योंकि उसे भरोसा था कि उसी के खानदान को तो बाद में इसे चलाना है। पर, लोकतंत्र में तो सरकार का अधिकतर मुखिया न सिर्फ बाहरी हमलों के प्रति लापारवाह हैं, बल्कि जनता के पैसे को लूट कर अपने घर भर ले रहे हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि अगले चुनाव में तो जनता पता नहीं उन्हें हराएगी कि जिताएगी।हालांकि वह यह भी जानता है कि अगली जो सरकार बनेगी, वह भी पांच साल में अलोकप्रिय हो जाएगी। फिर तो सत्ता हमारे पास ही लौटकर आएगी। जनता के पास कोई तीसरा विकल्प है भी नहीं। तब तक यानी पांच साल में मतदाता हमारे पुराने कुकर्मों को भूल जाएंगे। या मौजूदा शासक का कुकर्म जनता के दिलो दिमाग पर हमारे कुकर्मों की अपेक्षा भारी पड़ जाएगा। यही बारी -बारी से अनंतकाल तक चलता रहेगा। और जनता की संपत्ति नेताओं के घरों में जमा होती रहती है। राज तंत्र में ऐसा नहीं था। अपवाद की बात और है। राजतंत्र की कई बुराइयां थीं। इसीलिए उसका अंत भी हुआ। अंत जरूरी भी था। पर उन बुराइयों की अपेक्षा मौजूदा लोकतंत्र-सह-राजतंत्र की बुराइयां भारी पड़ने लगेंगीं, तब यह व्यवस्था भी पूरी तरह फेल कर जाएगी। तब क्या होगा, उसके बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। हां, उस स्थिति की कल्पना खानदानवादियों को आज नहीं है।

और अंत में
सेंट्रल काॅपरेटिव बैंक और स्टेट काॅपरेटिव बैंक जैसे सभी शीर्ष सहकारी संस्थानों के कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की उम्र अनठावन से बढ़ा कर सरकारी नियमानुसार साठ कर दी गई। पर, बिहार भूमि विकास बैंक के कर्मचारी अब भी 58 साल की उम्र में ही रिटायर कर दिए जा रहे हैं।
प्रभात खबर (09 फरवरी, 2009)

निर्णायक चुनाव

वैसे तो लोकसभा का हर चुनाव महत्वपूर्ण हुआ करता है। कई बार देश के लिए निर्णायक भी। पर, अगले लोकसभा चुनाव का मतदान -नतीजा इस देश और प्रदेश के लिए सर्वाधिक निर्णायक साबित होनेवाला है। अगला चुनाव -नतीजा न सिर्फ कुछ नेताओं और दलों के लिए निर्णायक साबित होगा, बल्कि देश की एकता, अखंडता और लोकशाही के लिए भी काफी महत्वपूर्ण साबित होनेवाला है।सवाल है कि अगले चुनाव के बाद सत्ता की कुंजी किस दल या गठबंधन के हाथ लगेगी। फिर अधिक बड़ा प्रश्न एक और है। वह यह कि चुनाव के बाद सत्ता संभालनेवाले दल, नेता या फिर दलीय समूह का देश की मौजूदा समस्याओं के प्रति कैसा रवैया रहा है। या फिर कैसा रवैया आगे रहने की उम्मीद है। आज देश के सामने जितनी बड़ी -बड़ी समस्याएं आ खड़ी हुई हैं, उतनी कठिन समस्याएं एक साथ इससे पहले कभी इस देश के सामने उपस्थित नहीं थीं। अब यह मतदाताओं के विवेक पर निर्भर करता है कि वे अगली बार कैसे लोगों को सत्ता सौंपते हैं। यानी अपनी तकदीर किसकी मुट्ठी में देते हैं। अगले चुनाव में जो लोग वोट मांगने जाएंगे, उनके बारे में कोई फैसला करने से पहले मतदाताओं को यह देखना है कि उस नेता या दल का रूख और रिकाॅर्ड भ्रष्टाचार के प्रति कैसा रहा है। ‘सच्ची धर्म निरपेक्षता’ और ‘वास्तविक सांप्रदायिकता’ के बारे में उनका कैसा रवैया है। आतंकवाद, पर्यावरण संतुलन, उग्रवाद, जातिवाद, विधटनवाद और राजनीति के अपराधीकरण के बारे में उस दल या नेता का कैसा रूख भूत,भविष्य और वर्तमान में रहा है या रहने की उम्मीद है। यदि इन कसौटियों पर कोई नेता या दल खऱा नहीं उतरता है, तो उन्हें वोट देना देश के लिए अब काफी खतरनाक साबित होनेवाला है। कोई लापारवाही अब इस देश की अगली पीढि़यों के लिए भयानक रूप से घातक साबित होनेवाली है।
एक झूठ का सच
कुछ नेता यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि वे फिलहाल मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री नहीं बननेवाले हैं। फिर भी यदि उनके समर्थक या प्रशंसक उनके नाम भावी मुख्यमंत्री या भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित करते हैं, तो संबंधित नेता ऐसा करने से अपने समर्थकों को नहीं रोकते। इसका असली कारण एक बड़े नेता ने इन पंक्तियों के लेखक को हाल में बताया। उन्होंने कहा कि ऐसे अनेक मतदाता हैं, जो हमारे दल को तभी वोट देंगे जब उन्हें लगेगा कि मैं उच्चतम पद पर जानेवाला हूं। मैं ऐसे मतदाताओं के मत सेे खुद को क्यों वंचित रखूं ? इसलिए जानबूझ कर एक झूठ चलने दिया जाता है।

कब बने स्मारक
यह प्रकरण बिहार चेंबर्स आॅफ कामर्स के पूर्व अध्यक्ष युगेश्वर पांडेय ने कभी सुनाया था। स्वतंत्रता सेनानी राम विनोद सिंह के जयंती समारोह में शामिल होने के लिए आमंत्रित करने के लिए सरदार हरिहर सिंह तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅ राजेंद्र प्रसाद के यहां गए थे। राजेन बाबू ने यह कहते हुए आने से मना कर दिया कि मेरे और जवाहरलाल जी के बीच यह सहमति बनी है कि किसी भी जीवित व्यक्ति के जयंती ंसमारोह में हम शामिल नहीं होंगे। पर समय बीतने के साथ इस देश की राजनीति ने ऐसी करवट ली कि अब जीवित नेताओं की मूर्तियां भी जहां तहां लगने लगीं हैं। नेताओं की बात कौन कहे, सरकारी खर्चे पर बिहार में बने दो स्टेडियम के नाम उन जिलों में कभी तैनात कलक्टरों के नाम पर हैं। गया में सुब्रह्मण्यम स्टेडियम और समस्तीपुर में विजय राघवन पटेल स्टेडियम। हाल मेंे अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रसिद्ध फुटबाॅल खिलाड़ी मेवा लाल का निधन हुआ है। वे मूलतः बिहार के ही थे। उनके नाम पर कौन सा स्मारक कब बनेगा ?

और अंत में
अमत्र्य सेन ने ठीक ही कहा है कि हमें सुनहले अतीत से प्रेरणा लेकर अपने भविष्य को बेहतर बनाना चाहिए। ठीक ही कहा है, पर हमें एक काम और करना चाहिए। हमें अपने अतीत की भूलों से भी सबक लेकर उन्हें नहीं दुहराने का भी प्रण करना चाहिए।
प्रभात खबर (23 फरवरी, 2009)

एक सुदूर गांव में बिजली


मेरे गांव में इस महीने बिजली पहुंच गई। लोगबाग खुश हो रहे हैं। इलाके के एक प्रमुख व्यक्ति ने तो इसे जादू कहा। खुश होना स्वाभाविक ही है। गत दो साल के भीतर ही दिघवारा (सारण, बिहार) से उत्तर स्थित मेरे गांव तक जानेवाली ग्रामीण सड़क भी प्रधानमंत्री सड़क योजना के तहत बननी शुरू हो गई। मेरे गांव के पास बह रही मही नदी के किनारे के जमींदारी बांध के पुनर्निर्माण का काम भी साल के भीतर ही हो गया। उस बांध पर भी पक्की सड़क बनेगी।

इतने कम समय में एक साथ इतने अधिक काम ! गांव का दृश्य अब बदला- बदला नजर आ रहा है। इसके अलावा गांव के बाजार में अब पहले की अपेक्षा अधिक अमन-चैन है। उस बाजार और आसपास से निकलने वाली कई ग्रामीण सड़कें भी प्रधानमंत्री सड़क योजना के तहत निर्माणाधीन हैं, पर इन कई खुशियों में से सर्वाधिक खुशी बिजली पहुंचने की है। क्योंकि बिजली की नियमित आपूर्ति यदि आगे भी बनी रही, तो इससे और भी कई खुशियां निकलंेगीं। ये खुशियां इसलिए भी अधिक उजागर हुई हैं, क्योंकि आजादी की आधी सदी तक दिघवारा (सारण, बिहार) से तीन किलोमीटर दूर स्थित इस भरहापुर गांव में सरकार ने एक ईंट भी नहीं लगाई थी। जबकि हमारे सहपाठी विजय भाई को इस बात पर गर्व है कि उनके गांव आमी में सन् 1962 में ही बिजली भी पहुंचा दी गई थी। आमी मेरे गांव से करीब 6 किलोमीटर पर है। यानी बिजली ने 6 किलोमीटर की यात्रा 47 साल में पूरी की।

जब मैं गांव में रहता था, तो वहां टार्च की कई बैटरियों को एक साथ सटा कर और फिर उसे तार के जरिए टार्च के ही बल्ब से जोड़ कर गांव के अपने दालान के घोर अंधेरे में बिजली की रोशनी का आभास पैदा करता था। इससे बिजली बुलाने की उत्कंठा का पता चलता है, पर आज वहां बिजली एक हकीकत है। मनिआॅर्डरी अर्थव्यवस्था वाले सारण जिले के मेरे और आसपास के गावों के बेरोजगार नौजवानों के समक्ष इससे स्वरोजगार का एक नया रास्ता खुला है।

बिहार वाणिज्य मंडल के पूर्व अध्यक्ष युगेश्वर पांडेय का गांव सुलतानपुर मेरे गांव से तीन किलोमीटर दूर स्थित है। हाल में जब सुलतानपुर में बिजली पहुंची, तो पांडेय जी की प्रतिक्रिया थी कि ‘यह जादू हो गया।’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘सरकार यदि तत्पर हो, तो कोई काम असंभव नहीं।’ मेरे गांव में बिजली पहुंचने से पहले मैं अपने बेरोजगार भतीजे को वर्षों से यह दिलासा देता रहा कि राज्य का जब सामान्य विकास होगा, तो तुम्हें भी कोई न कोई छोटा -मोटा स्वरोजगार करने की सुविधा हासिल हो जाएगी। अब यदि वह चाहे, तो दिघवारा - भेल्दी रोड पर स्थित खानपुर -भरहापुर विकासशील बाजार में स्थित अपनी खाली पड़ी कीमती जमीन में कोई स्वरोजगार का रास्ता निकाल सकता है। यह बात गांव तथा आसपास के अन्य बेरोजगार और अर्ध बेरोजगार युवकों पर भी लागू होती है, जिनके लिए बिजली और सड़क ने आधार तैयार कर दिया है।

वैसे मेरे गांव के कुछ बुजुर्ग लोग मेरे नकारापन की अक्सर चर्चा करते रहे हैं कि किस तरह मैं अपने भतीजे को कोई क्लास फोर की नौकरी भी नहीं दिलवा सका, जबकि इस राज्य के अनेक नेताओं से मेरा परिचय है। मैंने अपने गांव के अपने अनेक प्रिय जनों से कहा था कि व्यक्तिगत काम के मामले में तो मैं पूरी तरह निकम्मा हूं, यदि कोई सार्वजनिक काम हो, तो उसके लिए कोशिश करूंगा।

कुछ साल पहले वह अवसर आ ही गया था। दिघवारा-भेल्दी रोड पर भरहापुर स्थित पुल ध्वस्त हो गया था। उसकी मरम्मत की सख्त जरूरत थी। सड़क ग्रामीण विकास विभाग की है। मैंने राज्य सरकार के तत्कालीन मंत्री उपेंद्र प्रसाद वर्मा से आग्रह किया। उन्होंने कुछ भी करने से साफ मना कर दिया, जबकि वे 1972 से ही मेरे परिचित थे, जब वे सोशलिस्ट पार्टी के नया टोला दफ्तर आते थे। भला हो बिहार विधान परिषद के तत्कालीन सभापति प्रो जाबिर हुसेन और भाकपा के विधान पार्षद केदारनाथ पांडेय का जिन्होंने विधान परिषद में दबाव डाल कर उन्हीं मंत्री जी से उस पुल की मरम्मत करवा दी। परिणामस्वरूप गांव से सब्जी लदा ट्रक एक बार फिर बाहर जाने लगा। गरीब किसानों को फिर कुछ आय होने लगी।

यह इलाका जातीय दृष्टि से मिलीजुली आबादी वाला क्षेत्र है। याद रहे कि वह पुल अंग्रेजों का ही बनाया हुआ था। हाल के महीनों में मेरे गांव और आसपास विकास की जो किरणें पहुंची हैं, उसमें मेरा कोई योगदान नहीं है। धुआंधार विकास के काम में लगी राज्य सरकार के छोटे या बड़े मंत्री या अधिकारी लोगों में से कोई यह भी नहीं जानता कि मेरा गांव कौन सा है। यह इसलिए यहां कहा जा रहा है कि मेरे गांव का विकास, बिहार में जारी सामान्य विकास कार्यों का ही एक छोटा हिस्सा है, जो मेरे गांव तक पहुंचा है। सामान्य विकास के कारण वैसे लोगांे पर छोटी-मोटी नौकरियां दिलवाने के लिए दबाव पड़ना कम हो जाता है, जो लोग नौकरियां देनेवालों को जानते हैं।

वैसे भी मेरे गांव के लोग मेहनती और उद्यमी हैं। खानपुर के शिवशंकर सिंह का नाम उदाहरणार्थ लिया जा सकता है, जिन्होंने किसी सरकारी मदद के बिना ही मेहनत और उद्यम के बल पर पिछले कुछ दशकों में अपनी आर्थिक परेशानियां दूर कर लीं। वैसे कुछ और लोग भी हैं। अब जब सरकार सुदूर इलाकों में भी साधन पहुंचा रही है, तो आर्थिक परेशानियों से अब भी जूझ रहे बचे-खुचे लोग भी देर सवेर उसकी बदौलत अपनी आर्थिक परेशानियां कम कर सकते हैं। इससे पहले भी सरकार ने सिंचाई के लिए जब मेरे इलाके में एक सरकारी नलकूप भी नहीं लगाया, तो लोगों ने अपने प्रयासों से सत्तर-अस्सी के दशक में अपने खेतों में बेचने के लिए तरह-तरह की हरी सब्जियां उगानी शुरू कीं। वहां से सब्जियां ट्रकांे में लद कर दूर -दूर तक जाने लगीं हैं। उससे पहले जो कई सीमांत किसान महाजनों और जमीन खरीदनेवालों पर निर्भर रहते थे, वे अब अपने लिए ईंट के मकान भी बनाने लगे।

पर इस खुशी के साथ दिघवारा के चिकित्सक डाॅ मदन राय को एक खुशी का लम्बे समय से इंतजार है। लोकप्रिय चिकित्सक डाॅ राय दिघवारा के साथ- साथ खानपुर - भरहापुर बाजार में भी प्रैक्टिस करते हैं और जदयू के नेता भी हैं। पर, दिघवारा में बिजली उपकेंद्र की स्थापना के उनके व दिघवारा की जनता के प्रयास को अब तक सफलता नहीं मिल पाई है, जबकि डाॅ राय कहते हैं कि वहां उपकेंद्र बनाने के लिए सरकारी जमीन उपलब्ध है और योजना को बिहार कैबिनेट की भी मंजूरी मिल चुकी है। दिघवारा की जनता इस संबंध में बिजली बोर्ड, बिजली मंत्री और मुख्यमंत्री को आवेदन पत्र दे चुकी है।

(27 फरवरी, 2009)

डायरी भी लिखते थे रोहतास के डकैत

रोहतास और चंपारण को कभी ‘बिहार का चंबल’ कहा जाता था। डाकुओं की वहां समानांतर सरकारें हुआ करती थीं। उनमें से अनेक डाकुओं को राजनीतिक संरक्षण हासिल था। कई नेताओं के बारे में यह जग जाहिर था कि वे डाकुओं की मदद से ही चुनाव लड़ते और जीतते थे। कई डाकुओं को जातियों के आधार पर भरपूर संरक्षण भी हासिल था। पर, समय बीतने के साथ उनका दबदबा कम होने लगा। अब तो उन डाकुओं का उत्पात समाप्तप्राय है। अनेक नामी गिरामी डाकू या तो मारे गए या फिर उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया।

ये डाकू कभी शासन और आम जनता के लिए कभी सिरदर्द बने हुए थे। वे किस तरह लोगों से डरा धमका कर पैसे वसूलते थे या फिर उनकी मानसिक स्थिति कैसी थी ? वे क्या कुछ करते थे, इन सब बातों की कुछ झलकें ं उनकी डायरी पढ़ने से मिलती हंै। ऐसे लोगों का दबदबा फिर कभी कायम न हो, इसका ध्यान प्रशासन और जनता को रखना होगा। शासन व समाज को यह भी देखना होगा कि ऐसी सामाजिक और आर्थिक स्थिति नहीं बने, जिसमें डाकुओं को पैदा होने का मौका मिलता है।

उनकी डायरी के कुछ पन्नों से यहां कुछ प्रकरण दिए जा रहे हैं।

रोहतास के कुख्यात डाकू मोहन बिंद उर्फ मोहन राजा की डायरी चंद दीप सिंह लिखता था। रोहतास जिले के मटिआवा गांव का निवासी 18 वर्षीय चंद्रदीप आठवीं कक्षा तक पढ़ा था। वह मोहन ंिबंद का काफी नजदीकी व्यक्ति था। मोहन की हत्या के बाद एक अन्य कुख्यात डाकू रामाशीष कोइरी उर्फ दादा को लगा कि शायद चंद्र दीप उसकी हत्या कर स्वयं गिरोह का नेता बन जाएगा। इसलिए दादा ने चंद्रदीप तथा दो अन्य व्यक्तियों की हत्या कर दी। दादा की डायरी उसका साला प्रेम आजाद लिखता था। इनकी डायरियों के अध्ययन के बाद यह लगता है कि सिर्फ दादा गिरोह की मासिक आमदनी एक लाख रुपए थी। यह अस्सी के दशक की बात है।

डाकू इलाके के संपन्न किसानों के नाम बैंकों में रुपए जमा करते थे और जरूरत पड़ने पर निकलवाते थे। लगभग 1500 वर्ग किलोमीटर में कैमूर की पहाडि़यों तथा कुछ आसपास के इलाकों पर इन डाकुओं का दबदबा था। जो इनका कहा नहीं मानता, उसकी मौत सामने होती।

डाकू और अपराधी कई जातियों से आते थे। अनेक स्थानीय नेतागण उन्हीं डकैतों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई की मांग करते थे जो उनके वोट बैंक वाली जाति से नहीं आता था। अब उन इलाकों में करीब करीब इसी तरह का दबदबा नक्सलियों का है। रामाशीष कोइरी उर्फ दादा की डायरी के कुछ अंश यहां दिए जा रहे हैं।


12 जून 1985
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चैन पुर थाने के कल्याणी पुर गांव में गोली चली। हमारी तरफ से पचास राउंड गोली चली। पुलिस डांटने पर भी नहीं मानी।

5 जुलाई 1985
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बांडा गांव में गोली चली है। जै मां दुर्गा , कैमूर घाटी।

25 सितंबर 1985
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घी-वसूली उसरी यादव-तीन किलोग्राम। बांके यादव- 7.50 किलो। बाकी 5 किलो। नथुनी यादव-8 किलोग्राम। नागेश्वर यादव -तीन किलो। सोमी पाल - 5 किलो। रामजी गौंड़- 2 किलो। वगैरह वगैरह। (यह गिरोह ग्रामीणों से घी वसूल कर बेचता था। डायरी में घी वसूली का विवरण भरा पड़ा है।)

5 अप्रैल 1985
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चुवडि़या के ठेकेदार महेंद्र राम ठेका चलाते हैं। आपको एक कूप पर 5 हजार रुपया देना है। (डाकू रुपए वसूलने के लिए जो नोटिस देते थे, वह डायरी में लिख लेते थे।)

20 अप्रैल 1985
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हथियार लाने वालों के नाम- रंगी यादव- 2 बंदूक। राम स्वरूप एक राइफल लाया। राम स्वरूप मुखिया, कृष्ण कुमार यादव-एक बदूक, एक राइफल। राज रूप यादव, शिवपूजन यादव, मूरत यादव-दो बंदूक। (इस तरह डायरी में कई नाम दर्ज हैं जिन्होंने इन्हें हथियार दिए।)

16 जुलाई 1985
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सकलदीप सिंह के हाथ से मिला 50 छर्रा। राइफल की गोली दस।

10 अगस्त 1985
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करम चंद बांध के ठेकेदार राज कुमार पांडेय, आप करम चंद बांध में ठेका चलाते हैं। इसलिए आपको एक साल में बीस हजार रुपया देना है, दो किस्तों में। पहली किस्त 10 हजार रुपया 8 जनवरी 1986 को। दूसरी किस्त 8 दिसंबर 1986 को दस हजार।

3 सितंबर 1985
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प्रिय भाई सरपंच जी, शुभ आशीर्वाद। हमलोग कुशलपूर्वक हैं। आपकी कुशलता के लिए जय मां दुर्गा से।आगे आपको मालूम कि पुलिस ने पेपर दिया है। उस पर जांच किया जाए कि यह कैसा कागज भेज रहा है। सभी आदमी को रोकना है।

26 सितंबर 1985
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करम चट के ठेकेदार विजय नारायण सिंह आपको साल में देना है 50 हजार रुपया और पांच घड़ी।कमला सिंह की पहली किस्त 20 हजार रुपया जिसमें बाकी है 10 हजार रुपया। दूसरी किस्त 8 दिसंबर 1986 को देना है।

16 अक्तूबर 1985
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बड़वान बस्ती में कांड हुआ है। तीन आदमी को गोली मार दी है।



चंद्रदीप सिंह की डायरी
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1 जनवरी 1985
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सभी साथियों से मुलाकात। सारे वैर भुला कर प्रेम की नदी बहाउंगा। दिल नहीं चाहे देगी तो बैरागी बन जाउंगा।

9 जनवरी 1985
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ले चल बोतल छिपाकर कफन में , कब्र में ढार ढार पीया करेंगे, खुदा भी मांगेगा तो प्याले में ढार ढार कर दिया करेंगे।

17 जनवरी 1985
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रात्रि विश्राम चुटिया में ।

18 जनवरी 1985
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रात्रि विश्राम धरवार।

7 मई 1985
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सुगवा घाट के ठेकेदार से पांच छाता, बीस लुंगी मिले।

26 मई 1985
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बीस हजार रुपया रखा नीचे में । (यानी पहाड़ से उतर कर समतल के किसी गांव में किसी के यहां।)

 11 जून 1985
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पांच हजार रुपया नगद मिला चाकडीह यूनिट से। दो सेट पैंट सर्ट कपड़ा कोरहास यूनिट से।

(24 फरवरी, 2009 को सन्मार्ग, पटना में प्रकाशित)