गुरुवार, 30 जनवरी 2014

भ्रष्ट व्यवस्था से उकताए लोगों की आस है ‘आप’

 आम तौर पर भीषण भ्रष्टाचार से भरी सरकार व राजनीति के तपते रेगिस्तान में आम आदमी पार्टी पानी की ठंडी फुहार बन कर उभरती हुई नजर आ रही है। दिल्ली में कुछ ही दिनों के अपने व्यवहार और कामों से इस नवोदित दल ने अन्य अधिकतर दलों से खुद को साफ- साफ अलग साबित कर दिया है। ताजा जनमत सर्वेक्षण का नतीजा भी इसी बात की पुष्टि कर रहा है।


तीसरी बड़ी पार्टी होगी आप!

 आठ महानगरों में हाल में कराए गए सर्वे के अनुसार भाजपा और कांग्रेस के बाद ‘आप’ ही तीसरी बड़ी राजनीतिक शक्ति बन कर उभरी है। याद रहे कि जिन महानगरों में सर्वे कराए गए हैं, उनमें से कुछ महानगर क्षेत्रीय दलों के गढ़ भी रहे हैं। इसके बावजूद उन महानगरों के औसतन 44 प्रतिशत लोग अगले चुनाव में ‘आप’ के उम्मीदवार को वोट देना चाहते हैं। हालांकि कुछ लोग ‘आप’ की तरफ से बेहतर उम्मीदवार भी चाहते हैं।


भ्रष्टाचार से निजात पाने की छटपटाहट

  भीषण सरकारी और गैर -सरकारी भ्रष्टाचार से सड़ रही राजनीतिक व प्रशासनिक व्यवस्था से निजात पाने की छटपटाहट इस सर्वे नतीजे में भी दिखाई पड़ रही है।

   यदि केजरीवाल सरकार के काम लगातार बेहतर रहे तो देश भर में उसकी साख  समय के साथ और भी बढ़ने की संभावना भी लग रही है।

  ताजा सर्वेक्षण नतीजों को भी नकारने में परंपरागत राजनीतिक दल लग गये हैं। लगता है कि उन्हें उसी तरह अब भी सरजमीन की हकीकत का पता नहीं है जिस तरह वे दिल्ली विधानसभा चुनाव नतीजों का पूर्वानुमान नहीं कर सके थे जहां आम आदमी पार्टी गत साल चुनाव लड़ रही थी।

 याद रहे कि  2 दिसंबर 2013 को नई दिल्ली में आयोजित अपने साझा प्रेस कांफें्रस में सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने कहा था कि ‘आम आदमी पार्टी का दिवा स्वप्न 8 दिसंबर को टूट जाएगा।’ याद रहे कि दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए 4 दिसंबर को मतदान हुआ और 8 दिसंबर को मतगणना हुई। कांग्रेस को आठ, आप को 28 और भाजपा को 32 सीटें मिलीं।

  चुनाव नतीजे आने के बाद भाजपा और कांग्रेस ने अलग -अलग यह स्वीकार किया था कि उन्हें ‘आप’ की वास्तविक ताकत का सही पूर्वानुमान नहीं लगा।


खुद को बदल नहीं रहे दल

    दरअसल यह ताकत ‘आप’ को कहां से मिल रही है, इस बात का भी इन दलों को अब भी अनुमान नहीं है। यदि है भी तो भी वे स्वीकारना नहीं चाहते। क्योंकि ‘आप’ की तर्ज पर वे खुद को बदल नहीं सकते। दरअसल वह ताकत ‘आप’ को इसलिए मिल रही है क्योंकि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ समझौताविहीन संघर्ष के हौसले से भरी हुई इकलौती पार्टी है।

भ्रष्टाचार से ही महंगाई
आज भ्रष्टाचार से देश की अधिकतर जनता अत्यधिक पीडि़त है। कुछ लोग सीधे तो अन्य लोग परोक्ष रूप से। भ्रष्टाचार से ही महंगाई भी बढ़ रही है। देश के सामने अन्य कठिन समस्याएं भी पैदा हो रही हैं। उस स्थिति में जो दल या नेता जनता को यह विश्वास दिला देगा कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ बेलाग संघर्ष करेगा, तो उसे जनता खुले बांहों से स्वीकार करने को तैयार है।
 पर कांग्रेस से तो उसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती। भाजपा भी भ्रष्टाचार के खिलाफ आधे मन से लड़ाई करना चाहती है। अन्यथा, वह येदियुरप्पा को दुबारा गले नहीं लगाती। जबकि एक समय उत्तर प्रदेश में बाबू सिंह कुशवाहा को गले लगा कर भाजपा अपने हाथ जला चुकी थी।
पर उसे अब तक लगता यही लग रहा है कि कांग्रेस के खिलाफ सत्ताविरोधी लहर और मोदीत्व के बल पर अंततः वह चुनावी बाजी मार लेगी।


अहमदाबाद में भी केजरीवाल 

   पर, इस बीच भाजपा को एक नये तरह के संगठन से पाला पड रह़ा है जिसको फूंक मार कर उड़ा देना किसी के लिए संभव नहीं लगता है। सर्वे के अनुसार अहमदाबाद के 31 प्रतिशत लोगों की राय है कि केजरीवाल बेहतर नेता हैं।

 पहले तो लगता था कि ‘आप’ को पूरे देश में फैलने से पहले दिल्ली में खुद के कामों को और मजबूत व सुगठित करना पड़ेगा। संभव है कि इस बीच लोकसभा चुनाव गुजर जाए। यह भी संभव है कि इस बीच भाजपा बाजी मार ले।

पर आठ राज्यों में हुए ताजा जनमत सर्वेक्षण के नतीजे कुछ दूसरी ही कहानी कह रहे हैं। संभव है कि निकट भविष्य में पूरे देश में भी कोई जनमत सर्वेक्षण आयोजित हो। संभव है कि उसके नतीजे भी ऐसे ही हो जिस तरह के नतीजे महानगरों से आये हैं। फिर क्या होगा?

    वही होगा जो कुछ पहले होता रहा है। यानी अधिकतर वैसे दल सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते रहेंगे जिनकी बढ़त नहीं दिखाई गई हो। पर फिर भी इसकी पड़ताल वे नहीं करेंगे कि आखिर आम आदमी पार्टी का जनसमर्थन क्यों बढ़ रहा है।

   दिल्ली विधानसभा के चुनाव नतीजे आने के बाद राहुल गांधी ने कहा था कि वे ‘आप से सीखेंगे।’ पर उन्होंने आखिरकार क्या सीखा ? घटनाएं बताती हैं कि कुछ नहीं सीखा।


कांग्रेस-भाजपा को नहीं दिखता खुद का भ्रष्टाचार

भाजपा के पास तो मोदीत्व की चुनावी चाशनी है। उसी में वह मगन है। जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है तो भाजपा को सिर्फ कांग्रेस का भ्रष्टाचार दिखता है और कांग्रेस को भाजपा का। किसी को अपना नहीं दिखता। जबकि भ्रष्टाचार के मामले में दोनों में मात्रा का फर्क है, गुण का नहीं।

दूसरी ओर ‘आप’ के साथ देश भर से अच्छी छवि वाले प्रमुख लोग एक -एक करके जुड़ते जा रहे हैं। शायद इसलिए भी कि केजरीवाल  सार्वजनिक रूप से यह घोषणा करते हैं कि ‘भाजपा व कांग्रेस के साथ -साथ यदि हमारी पार्टी के कोई व्यक्ति भी भ्रष्टाचार में लिप्त पाया गया तो उसे भी हम नहीं छोड़ेंंगे।’ उनकी इस खास अपील का भी दिल्ली सहित देश में सकारात्मक असर होता दिख रहा है कि आम लोग भ्रष्ट अफसरों  के खिलाफ स्टिंग आपरेशन चलाएं और उसकी सूचना दिल्ली सरकार की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा को दें। हम भ्रष्टों को गिरफ्तार करवाएंगे।  

   हाल की कुछ अन्य राजनीतिक घटनाओं से भी ‘आप’ को अपनी जड़ें जमाने का अवसर मिला है। करीब दो साल पहले टीम अन्ना द्वारा तैयार जन लोकपाल विधेयक का लगभग सभी दलों के अधिकतर नेताओं ने संसद की चर्चा में मजाक उड़ाया। वे खास कर अन्ना जमात के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के ही खिलाफ थे।

   सजा मिल जाने के बावजूद जन प्रतिनिधियों की सदस्यता बचाने के लिए जिस तरह सर्वदलीय कोशिश हुई, उससे भी परंपरागत दलों के प्रति जनता के एक हिस्से में गुस्सा बढ़ा।

इतना ही नहीं, अधिकतर राजनीतिक दलों ने पार्टी फंड को न सिर्फ आर.टी.आई. के दायरे में लाने का विरोध किया बल्कि वे चुनाव आयोग को भी चंदे में मिली अपनी पूरी राशि का पूरा विवरण देने को तैयार नहीं हुए। जबकि ‘आप’ ने पार्टी फंड तैयार करने और उसका विवरण सार्वजनिक करने के मामले में पूरी पारदर्शिता बरती।इतना ही नहीं,अधिकतर राजनीतिक दल न तो दागियों से भरे  दलों या नेताओं से चुनावी तालमेल करने से कोई परहेज  कर रहे हैं, न ही  उन  उम्मीदवारों को टिकट देने से खुद को रोक रहे हैं जिन्हें पूरा समाज भ्रष्ट व अपराधी मानता हैं। ऐसे लोगों के टिकट काटने भी पड़े तो उनके परिजनों को टिकट दिये जा रहे हैं।इन मामलों में ‘आप’ अन्य दलों से अलग दिखाई पड़ती है।इस तरह आप के प्रति जन समर्थन बढ़ने के अनेक कारण मौजूद हैं।

 भाजपा सांसद  शत्रुघ्न सिंहा ने  6 जनवरी को अकारण यह नहीं कहा है कि ‘आप कई दलों का बाप है।’ एक दिन पहले कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा कि ‘आप का उद्भव स्थापित राजनीतिक दलों के लिए चेतावनी है।यदि वे अब भी जनता की आवाज नहीं सुनेंगे तो खुद इतिहास बन जाएंगे।’

     (इस लेख का संपादित अंश जनसत्ता के 10 जनवरी, 2014 के अंक में प्रकाशित)
   

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