शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

‘जेपी आंदोलन के रूप में स्वच्छ हवा के लिए एक खिड़की नहीं खुली होती तो मैं खुदकशी कर लेता’

फणीश्वर नाथ रेणु से सुरेंद्र किशोर की एक पुरानी बातचीत

  जय प्रकाश नारायण के सिर पर  4 नवंबर 1974 को पटना में एक बेरहम अर्धसैनिक बल ने दमदार लाठी चला दी थी। यदि साथ चल रहे नानाजी देशमुख ने उस लाठी को अपनी बांह पर रोक नहीं लिया होता तो अनर्थ हो सकता था।

 जेपी के नेतृत्व में जारी ऐतिहासिक बिहार आंदोलन के दौरान हुई इस  घटना के विरोध में भारी जनाक्रोश था। इसके विरोध में साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु ने पदमश्री लौटा दी थी।

    आज के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों में साहित्यकारों की लगभग अनुपस्थिति की पृष्ठभूमि में नागार्जुन -रेणु की जेपी आंदोलन में तब की मजबूत उपस्थिति याद आती है।

   रेणु को 1970 में पदमश्री मिली थी। नागार्जुन और रेणु को 1972 में बिहार के तत्कालीन राज्यपाल देवकांत बरूआ ने तीन सौ रुपये की आजीवन मासिक वृति देने की शुरुआत की थी। इस लाठीचार्ज के खिलाफ रेणु और नागार्जुन ने उसे भी भविष्य में नहीं लेने का फैसला तब किया था। जेपी की उपस्थिति में सभा मंच पर जब  इसकी घोषणा हुई तो जेपी की आंखें भर आई थीं। याद रहे कि रेणु और नागार्जुन जेपी आंदोलन में शामिल उन साहित्यकारों में  थे जो जेल भी गये थे। जेल यात्रा से लौटने के बाद फणीश्वर नाथ रेणु से साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ के संवाददाता के रूप में इन पंक्तियों के लेखक ने बातचीत की थी। उसे एक बार फिर यहां प्रकाशित किया जा रहा है।

 रेणु पटना के राजेंद्र नगर में रहते थे। उनसे बातचीत करना एक अलग ढंग का अनुभव होता था। वैसे तो वे अक्सर पटना के काॅफी हाउस में बैठते थे।

काॅफी हाउस में उनका रेणु काॅर्नर था। उसी कोने में वे अपने साहित्यकार व पत्रकार मित्रों के साथ बैठा करते थे।  राजेंद्र नगर के एक फ्लैट में वे अपनी पत्नी लतिका रेणु के साथ रहते थे।

इस संवाददाता ने तब उसी फ्लैट में सहज व आडंबरहीन माहौल मेंं उनसे लंबी बातचीत की थी।

वे एक बड़े साहित्यकार थे। साप्ताहिक प्रतिपक्ष के लिए उन्होंने समय निकाला। उन्होंने यह जरूर कहा कि बातचीत छपने के लिए भेजने से पहले मैं उन्हें दिखा लूं। मैंने यह सावधानी बरती। उन्होंने पांडुलिपि में अपनी कलम से कुछ परिवर्तन किये। याद है कि वे किस तरह फर्श पर डाली गई चटाई पर बैठे चाय पीते-पिलाते पांडुलिपि को सुधार रहे थे।

  भेंट वार्ता छपने के बाद वे संतुष्ट थे। कवि कमलेश के संपादकत्व में प्रकाशित प्रतिपक्ष एक चर्चित साप्ताहिक पत्रिका थी। वैसे जार्ज फर्नांडिस उस पत्रिका के प्रधान संपादक और संचालक थे, पर उसमें गिरधर राठी, मंगलेश डबराल, रमेश थानवी और एन.के. सिंह जैसे पत्रकार भी काम करते थे। उन्हें लिखने की छूट थी।

राजनीतिक हलचल से भरे एक विशेष राजनीतिक परिस्थिति में करीब 39 साल पहले रेणु से यह बातचीत की गई थी। बातचीत प्रतिपक्ष के 10 नवंबर 1974 के अंक में छपी। उसे आज भी पढ़ना दिलचस्प और मौजू लगेगा।


प्रश्न - सरकारी दमन और हिंसा के अलावा वह कौन सी बात थी जिसने आपको इस आंदोलन में सक्रिय होने की प्रेरणा दी ?

फणीश्वर नाथ रेणु- हिंसा और दमन तो 18 मार्च 1974 के बाद प्रारंभ हुआ है। पर मैं तो बहुत दिनों से घुटन महसूस कर रहा था। भ्रष्टाचार जिस तरह व्यक्ति और समाज के एक -एक अंग में घुन की तरह लग गया है, उससे सब कुछ बेमानी हो चुका है। मैं किसके लिए लिखता ! जिसका दम घुट रहा हो, वह लिख भी कैसे सकता है ! हम सब एक दमघांेट कमरे में बंद थे। यदि इस आंदोलन के रूप में स्वच्छ हवा के लिए एक खिड़की नहीं खुली होती तो मैं स्वयं खुदकशी कर लेता। यह आंदोलन तो जीने की चेष्टा है।


प्रश्न - देश के साहित्यकारों से ,बिहार के आंदोलन के संदर्भ में आपकी क्या अपेक्षाएं हैं ?

रेणु - कोई भी अपेक्षा,नहीं है। अपेक्षा के भरोसे तो देश चैपट हो रहा है। मुझसे यानी एक इकाई से जो अपेक्षा थी,वह मैं कर रहा हूं।


प्रश्न - अखिल भारतीय लोकतांत्रिक रचनाकार मंच की स्थापना की आवश्यकता क्यों हुई ?

रेणु - मंच, संघ और गोष्ठी आदि शब्दों से मुझे नफरत हो गयी है। मुझे मसालेदार पुलाव की गंध अच्छी लगती है। पर अपच की स्थिति में सुगंध वमन करवा देती है। वैसे अखिल भारतीय रचनाकार मंच के सूत्रधार नागार्जुन जी का सक्रिय होना अत्यंत प्रेरणादायक है। अतः मैं इस संदर्भ में उनसे बातचीत कर रहा हूंं।


प्रश्न-क्या आपके अंदर का साहित्यिक रचनाकार और परिवर्तन का आग्रही राजनेता कोई द्वंद्व महसूस करता है ?

रेणु - राजनीतिक नेता तो मैं हूं नहीं। पर जिस दिन यह साहित्यकार अपने अंदर द्वंद्व महसूस नहीं करेगा, वह रचनाकार नहीं रह जाएगा।


प्रश्न - क्या राजनीति में साहित्यकारों की वैसी ही भूमिका होगी, जैसी सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ताओं की होती है ?

रेणु - साहित्यकार भी जन होता है और वह भी राजनीति से उत्पन्न समस्याओं से अपने तई जूझता है। आपको याद होगा बिहार में 1967 में जब भयंकर अकाल पड़ा था तो पहले -पहल मैंने और अज्ञेय जी ने अकालग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया था। उसकी रपट दिनमान में छपी थी।

उस दौरे के दौरान हमने अकाल की विभीषिका दिखाने वाले अनेक चित्र लिये थे जिन पर सरकार को एतराज भी हो सकता था और वह हमें गिरफ्तार भी कर सकती थी। पर वह काम उसने तब नहीं किया।गत 9 अगस्त , 1974 को फारबिसगंज (पूर्णिया) में किया जहां हमने बाढ़पीडि़तों की राहत के लिए प्रदर्शन किया था।

  साहित्यकारों की भूमिका के संबंध में एक बात और कह दूं। 1967 में सूखाग्रस्त क्षेत्रों के चित्रों की कनाट प्लेस में प्रदर्शनी लगाई गयी थी और उससे प्राप्त पैसे सूखा पीडि़तों की सहायता में भेज दिये गये थे।


प्रश्न - आपने 1972 में कांग्रेस के खिलाफ विधानसभा का चुनाव लड़ा था और आज इस आंदोलन में भी शिरकत कर रहे हैं। क्या इन दोनों मेंे कोई संबंध है ?

रेणु- 1970 के दिसंबर के अंतिम सप्ताह में अखिल भारतीय लेखक सम्मेलन हुआ था। सम्मेलन के एक महीना पूर्व ही मुझे मुसहरी (मुजफ्फरपुर) से जय प्रकाश नारायण का पत्र मिला था। उन्होंने मेरे जरिए देश के तमाम लेखकों से भूखी और बीमार जनता से जुड़़ने का आग्रह करते हुए लिखा था कि मैला आंचल आज भी मैला है बल्कि और भी मैला हो गया है।

 मैंने उस दुःखभरी चिट्ठी को उस सम्मेलन में पढ़कर सुना दिया था। पर नंद चतुर्वेदी ने ठीक ही लिखा (दिनमान ःमत सम्मत ः 22 सितंबर 1974) है कि ‘ .......सारी बहसबाजी होती रही, ‘सामान्य जन’, ‘मामूली आदमी’, ‘क्रांति’, ‘प्रतिबद्धता’ और लेखकों की भूमिका जैसे प्रतापी विषयों पर, न रेणु का जिक्र हुआ न जय प्रकाश का और न गांव की थकी मांदी जनता का।’

    उसके बाद ही चुनाव आया। मैला आंचल और परती परिकथा के बाद एक ऐसी रचना की आवश्यकता थी जो आज की परिस्थितियों -दुःस्थितियों को अपने में समेट सके, और तभी उस श्रृंखला में मेरी तीसरी रचना पूरी होती। लेकिन मुझे लग रहा था कि कहीं मैं अटक गया हूं। इसके साथ ही चुनाव दंगल में उतरने के पूर्व मेरे सामने कई अन्य सवालों के साथ -साथ बुलेट या बैलेट (?) का भी सवाल था। क्योंकि पिछले बीस वर्षों में चुनाव के तरीके तो बदले हैं, पर उनमें बुराइयां बढ़ती ही गई हैं। यानी पैसा, लाठी और जाति तंत्रों का बोल बाला।  

अतः मैंने तय किया था कि मैं खुद पहन कर देखूं कि जूता कहां काटता है। कुछ पैसे अवश्य खर्च हुए, पर बहुत सारे कटु-मधुर और सही अनुभव हुए। वैसे भविष्य में मैं कोई चुनाव लड़ने नहीं जा रहा हूं। लोगों ने भी मुझे किसी सांसद या विधायक से कम स्नेह और सम्मान नहीं दिया है। आज भी पंजाब और आंध्र के सुदूर गांवों से जब मुझे चिट्ठियां मिलती हैं तो बेहद संतोष होता है।एक बात और बता दूं, 1972 का चुनाव मैंने सिर्फ कांग्रेस के खिलाफ ही नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ लड़ा था। (याद रहे कि  फारबिसगंज विधानसभा चुनाव क्षेत्र में निर्दलीय उम्मीदवार रेणु को 6,498 मत मिले। कांग्रेस के विजयी उम्मीदवार सरयुग मिश्र को 29,750 और समाजवादी पार्टी के लखनलाल कपूर को 16, 666 वोट मिले थे।)  


प्रश्न - (जेपी) आंदोलन के भविष्य के संबंध में आप क्या सोचते हैं ?

रेणु - चार नवंबर और उसके बाद क्या होता है, हम जीवित बचेंगे या नहीं, इसमें भी मुझे संदेह हो रहा है। सन 1942 से चैगुना अधिक नरसंहार तो हो चुका। अब तो सत्ताधारी जमात के रवैये को देख कर यही लगता है कि बंगलादेश में पाकिस्तानी नरसंहार की तरह एक दिन नागार्जुन, रेणु, लाल धुआं, बाबूलाल मधुकर और अनेक बुद्धिजीवियोंे की लाशें एक जगह पाई जाएंगी !

 सी.पी.आइ. का एक लौंडा आएगा और जयप्रकाश की कार को बम से उड़ा देगा ! और भी बहुत कुछ हो सकता है। पर सत्ताधारी वर्ग यह अच्छी तरह जान ले कि जय प्रकाश नारायण की गिरफ्तारी -जिसकी जोरों से चर्चा है-के बाद वह हालत होगी जो गांधी जी की गिरफ्तारी पर 1942 में भी नहीं हुई थी।

(रेणु की आशंका एक हद तक सही साबित हुई। 4 नवंबर, 1974 को पटना में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में निकले जुलूस पर अर्ध सैनिक बल ने  लाठियां चलाईं। याद रहे कि लाठी खुद जेपी को इंगित करके भी चलाई गई।)

(‘दृश्यांतर’ के नवंबर, 2013 के अंक में इस भेंट वार्ता का संपादित अंश प्रकाशित)

गुरुवार, 30 जनवरी 2014

इतिहास गवाह बेहद जरूरी है सुरक्षा चक्र


दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को निजी सुरक्षा के संबंध में इतिहास तथा ‘जनता दरबार’ के संबंध में वर्तमान से सीखना चाहिए। भगदड़ मच जाने का खतरा सामने होने पर मुख्यमंत्री को शनिवार को अपने ‘जनता दरबार’ को बीच में ही स्थगित कर देना पड़ा। अब वे बेहतर तरीके से जनता दरबार आयोजित करने का प्रयास करेंगे।

   बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वर्षों से ‘जनता के दरबार में मुख्यमंत्री’ कार्यक्रम आयोजित करते रहे हैं। वहां कोई भगदड़ नहीं मचती क्योंकि भीड़ को नियंत्रित रखने के उपाय किये जाते हैं। केजरीवाल को उस अनुभव से लाभ उठाना चाहिए था।

   दूसरी ओर, अपनी निजी सुरक्षा को लेकर उन्हें इतिहास से सीखना चाहिए। जो इतिहास से नहीं सीखता, वह उसे दुहराने के लिए अभिशप्त होता है।


नेता नहीं, विशेषज्ञ करें सुरक्षा का फैसला

   केजरीवाल ने शुक्रवार को भी कहा है कि वे जेड श्रेणी की सुरक्षा स्वीकार नहीं करेंगे। दरअसल किस नेता को किस श्रेणी की सुरक्षा चाहिए, उसका फैसला खुद नेता को नहीं बल्कि विशेषज्ञों को करने देना चाहिए।  

  इस बीच यह खबर आई है कि केजरीवाल के इस निर्णय से मुख्यमंत्री की सुरक्षा का खर्च बढ़ गया है। क्योंकि उनकी परोक्ष सुरक्षा पर शासन को अधिक खर्च करना पड़ रहा है।

   मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल जनहित में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। उनके प्रारंभिक सरकारी फैसलों से भी निहितस्वार्थी तत्व सख्त नाराज हो सकते हैं। उन्हें नुकसान पहुंचाने की कोशिश भी कर सकते हैं। 

केजरीवाल कहते हैं कि उनका जीवन भगवान के हाथों में है। पर कहावत  है कि ‘भगवान भी उसी की मदद करता है जो अपनी मदद खुद करता है।’


देश भुगत चुका है नुकसान

सुरक्षा के मामलों में लापरवाही बरतने या फिर इसे भगवान के भरोसे छोड़ दे़ने का भारी नुकसान यह देश कई बार भुगत चुका है। मध्य युग में जब विदेशी हमलावर हमारे मंदिरों पर आक्रमण करते थे तो पुजारीगण हमलावरों का मुकाबला करने -करवाने के बदले उसी समय भगवान की प्रार्थना करने लगते थे। वे मंदिर की रक्षा के लिए भगवान को बुलाने लगते थे। भगवान को तो न आना होता था और न ही वे आते थे। नतीजों की कहानियां हमारे इतिहास के पन्नों पर मौजूद हैं।ं 


महात्मा गांधी ने भी किया था इंकार

  केजरीवाल को महात्मा गांधी हत्याकांड से भी सबक लेना चाहिए। महात्मा गांधी तब दिल्ली के बिड़ला हाउस में प्रार्थना सभाएं आयोजित करते थे। उनमेंं शामिल होने के लिए आने वालों की तलाशी लेने तक की अनुमति उन्होंने शासन को कभी नहीं दी थी।

  यदि सघन तलाशी ली गई होती तो नाथूराम गोडसे अपनी पिस्तौल लेकर गांधी जी के नजदीक नहीं पहुंच पाता। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने भी अपनी सुरक्षा के मामले में अव्यावहारिक रुख अपनाया था।


दुश्मनों की कमी नहीं

केजरीवाल की भी सुरक्षा की समस्या सिर्फ उनकी खुद की समस्या नहीं है। दरअसल केजरीवाल अब उन लोगों की भी संपत्ति हैं जिन लोगों ने उनसे एक बेहतर सरकार व नई राजनीतिक शैली की उम्मीद लगा रखी है। वे कितने दिनों तक दिल्ली की गद्दी पर रहते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे सत्ता से बाहर भी रहेंगे तो उनके दुश्मनों की अब कोई कमी नहीं रहेगी। क्योंकि केजरीवाल शैली की राजनीति को यह सिस्टम स्वीकार करने के लिए अभी तैयार ही नहीं दिखता है। निहितस्वार्थियों की जमात ऐसे भी हर समय सक्रिय रहती है। 

  बेहतर सरकारी फैसलों के साथ- साथ सादा जीवन बिताना केजरीवाल का स्वभाव सा बन गया है। इससे केजरीवाल के पक्ष में देश में अच्छा संदेश गया है। इसे ही पर्याप्त माना जाना चाहिए था।


जनता को हक का हौसला

    इस देश में आतंकवाद, नक्सलवाद और आर्थिक तथा आपराधिक माफियागिरी का दौर -दौरा चल रहा है। उसमें किसी ईमानदार व देशभक्त नेता की सुरक्षा कभी भी खतरे में पड़ सकती है। आम आदमी की सरकार दिल्ली के जिन बड़े- बड़े व ताकतवर आर्थिक अपराधियों के स्वार्थों को क्षति पहुंचाकर आम जनता को उनका हक दिलाने का हौसला बांध रही है, वैसी स्थिति में केजरीवाल की निजी व बेहतर सुरक्षा बहुत जरूरी है।


पटेल को मना किया था महात्मा गांधी ने

   20 जनवरी, 1948 को दिल्ली के बिड़ला हाउस के पास बम विस्फोट हुआ था। उस घटना के बाद तत्कालीन गृह मंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने एक एस.पी. को बापू के स्टाफ के पास भेजा। एस.पी. ने उन लोगों से कहा कि हम चाहते हैं कि प्रार्थना सभा में शामिल होने वालों की तलाशी ली जाए।

 पर गांधी जी इसके लिए तैयार नहीं हुए। उसके बाद डी.आइ.जी. स्तर के एक अधिकारी गांधी जी से मिले। उनसे गांधी जी ने कहा कि मेरी जान ईश्वर के हाथ है। अंत में सरदार पटेल ने खुद गांधी से मिलकर उनसे प्रार्थना की। पर गांधी जी ने साफ -साफ कह दिया कि यदि किसी की भी तलाशी शुरू कराओगे तो मैं आमरण अनशन शुरू कर दूंगा। शासन लाचार हो गया और नाथू राम गोडसे सफल हो गया। हालांकि तब घटना के समय वहां सादे कपड़े में 30 पुलिस अधिकारी तैनात थे।


इंदिरा ने की चेतावनी की अनदेखी

  अब जरा इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या की चर्चा की जाए। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में जून ,1984 में हुए ब्लू स्टार आपरेशन की पृष्ठभूमि में उनके निजी सुरक्षाकर्मियों ने ही उनके आवास में इंदिरा जी की हत्या कर दी।

  आपरेशन ब्लू स्टार के बाद ही इंदिरा गांधी की जान पर खतरा काफी बढ़ गया था। खुफिया सूत्रों ने इंदिरा गांधी के निजी सचिव आर.के. धवन से कहा था कि एक खास समुदाय के सुरक्षाकर्मियों को प्रधानमंत्री की सुरक्षा से हटा दिया जाना चाहिए। उन्हें नहीं हटाया गया। धवन ने बाद में एक आयोग के समक्ष कहा कि ‘उन सुरक्षाकर्मियों को न हटाने का निर्णय खुद प्रधानमंत्री का था न कि मेरा।’

  हालांकि एक अन्य खबर के अनुसार इंदिरा गांधी ने 1971 के बंगलादेश युद्ध के समय संदिग्ध लोगों को महत्वपूर्ण स्थानों से हटवा दिया था।

  यह और बात है कि तब प्रतिपक्षी नेता जार्ज फर्नांडिस ने यह सवाल उठाया था। जार्ज 1972 की अपनी जनसभाओं में इस बात को लेकर  इंदिरा जी की आलोचना किया करते थे।


राजीव गांधी ने भी तोड़ा था नियम

   इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश व खुद कांग्रेस की राजनीति बदल गई। राजीव गांधी की 1991 में मद्रास के पास बेरहम हत्या कर दी गई। जिस सभा में मानव बम के जरिए तमिल उग्रवादियों ने उनकी हत्या की, उस सभा में सुरक्षा नियमों को खुद राजीव गांधी और तमिलनाडु कांग्रेस के नेताओं ने तोड़ा था। राजीव गांधी ने मानव बम बनी युवती को अपने पास आने दिया जबकि सुरक्षा की दृष्टि से ऐसा करने की मनाही थी। राजीव गांधी के नहीं रहने पर कांग्रेस को और अधिक नुकसान हुआ।

  राजीव गांधी आज होते तो कांग्रेस की जैसी स्थिति आज बनी हुई है, शायद वैसी नहीं होती। आज सोनिया -राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस बिना पतवार की दिशा विहीन नाव बन चुकी है। एक बड़ी पार्टी की दुर्दशा का दंश पूरा देश भी झेल रहा है।


देश के लिए महत्वपूर्ण थे नेता 

इसलिए कई बार किसी देश की राजनीति को प्रभावित करने के लिए एक नेता का बड़ा रोल होता है। कल्पना कीजिए कि यदि महात्मा गांधी आजादी के पांच-दस साल बाद तक भी हमारे बीच रहते तो क्या सत्ताधारी कांग्रेसियों की वैसी ही दशा-दिशा होती जैसी प्रारंभिक वर्षों में ही सत्ताधारियों ने बना दी ?

याद रहे कि जब गांधी की हत्या हुई तब उनकी उम्र 80 साल भी पूरी नहीं हुई थी। गांधी की तरह ही निजी जीवन में संयमी मोरारजी देसाई करीब सौ साल तक हमारे बीच थे। करीब 95 साल तक तो मोरार जी भाई  दिमागी तौर पर सजग व सक्रिय थे। 

  इस पृष्ठभूमि में अपनी निजी सुरक्षा को लेकर आज अरविंद केजरीवाल जैसे नेता लापरवाही व अपरिपक्वता अपनाते हैं तो वे राजनीति के इस मोड़ पर खुद से अधिक उस जनता को भी अनिश्चितता में डालते हैं जो लोग उनकी ओर उम्मीद भरी नजरों से आज देख रहे हैं।

(इस विश्लेषण का संपादित अंश 12 जनवरी, 2014 के जनसत्ता में प्रकाशित)

भ्रष्ट व्यवस्था से उकताए लोगों की आस है ‘आप’

 आम तौर पर भीषण भ्रष्टाचार से भरी सरकार व राजनीति के तपते रेगिस्तान में आम आदमी पार्टी पानी की ठंडी फुहार बन कर उभरती हुई नजर आ रही है। दिल्ली में कुछ ही दिनों के अपने व्यवहार और कामों से इस नवोदित दल ने अन्य अधिकतर दलों से खुद को साफ- साफ अलग साबित कर दिया है। ताजा जनमत सर्वेक्षण का नतीजा भी इसी बात की पुष्टि कर रहा है।


तीसरी बड़ी पार्टी होगी आप!

 आठ महानगरों में हाल में कराए गए सर्वे के अनुसार भाजपा और कांग्रेस के बाद ‘आप’ ही तीसरी बड़ी राजनीतिक शक्ति बन कर उभरी है। याद रहे कि जिन महानगरों में सर्वे कराए गए हैं, उनमें से कुछ महानगर क्षेत्रीय दलों के गढ़ भी रहे हैं। इसके बावजूद उन महानगरों के औसतन 44 प्रतिशत लोग अगले चुनाव में ‘आप’ के उम्मीदवार को वोट देना चाहते हैं। हालांकि कुछ लोग ‘आप’ की तरफ से बेहतर उम्मीदवार भी चाहते हैं।


भ्रष्टाचार से निजात पाने की छटपटाहट

  भीषण सरकारी और गैर -सरकारी भ्रष्टाचार से सड़ रही राजनीतिक व प्रशासनिक व्यवस्था से निजात पाने की छटपटाहट इस सर्वे नतीजे में भी दिखाई पड़ रही है।

   यदि केजरीवाल सरकार के काम लगातार बेहतर रहे तो देश भर में उसकी साख  समय के साथ और भी बढ़ने की संभावना भी लग रही है।

  ताजा सर्वेक्षण नतीजों को भी नकारने में परंपरागत राजनीतिक दल लग गये हैं। लगता है कि उन्हें उसी तरह अब भी सरजमीन की हकीकत का पता नहीं है जिस तरह वे दिल्ली विधानसभा चुनाव नतीजों का पूर्वानुमान नहीं कर सके थे जहां आम आदमी पार्टी गत साल चुनाव लड़ रही थी।

 याद रहे कि  2 दिसंबर 2013 को नई दिल्ली में आयोजित अपने साझा प्रेस कांफें्रस में सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने कहा था कि ‘आम आदमी पार्टी का दिवा स्वप्न 8 दिसंबर को टूट जाएगा।’ याद रहे कि दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए 4 दिसंबर को मतदान हुआ और 8 दिसंबर को मतगणना हुई। कांग्रेस को आठ, आप को 28 और भाजपा को 32 सीटें मिलीं।

  चुनाव नतीजे आने के बाद भाजपा और कांग्रेस ने अलग -अलग यह स्वीकार किया था कि उन्हें ‘आप’ की वास्तविक ताकत का सही पूर्वानुमान नहीं लगा।


खुद को बदल नहीं रहे दल

    दरअसल यह ताकत ‘आप’ को कहां से मिल रही है, इस बात का भी इन दलों को अब भी अनुमान नहीं है। यदि है भी तो भी वे स्वीकारना नहीं चाहते। क्योंकि ‘आप’ की तर्ज पर वे खुद को बदल नहीं सकते। दरअसल वह ताकत ‘आप’ को इसलिए मिल रही है क्योंकि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ समझौताविहीन संघर्ष के हौसले से भरी हुई इकलौती पार्टी है।

भ्रष्टाचार से ही महंगाई
आज भ्रष्टाचार से देश की अधिकतर जनता अत्यधिक पीडि़त है। कुछ लोग सीधे तो अन्य लोग परोक्ष रूप से। भ्रष्टाचार से ही महंगाई भी बढ़ रही है। देश के सामने अन्य कठिन समस्याएं भी पैदा हो रही हैं। उस स्थिति में जो दल या नेता जनता को यह विश्वास दिला देगा कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ बेलाग संघर्ष करेगा, तो उसे जनता खुले बांहों से स्वीकार करने को तैयार है।
 पर कांग्रेस से तो उसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती। भाजपा भी भ्रष्टाचार के खिलाफ आधे मन से लड़ाई करना चाहती है। अन्यथा, वह येदियुरप्पा को दुबारा गले नहीं लगाती। जबकि एक समय उत्तर प्रदेश में बाबू सिंह कुशवाहा को गले लगा कर भाजपा अपने हाथ जला चुकी थी।
पर उसे अब तक लगता यही लग रहा है कि कांग्रेस के खिलाफ सत्ताविरोधी लहर और मोदीत्व के बल पर अंततः वह चुनावी बाजी मार लेगी।


अहमदाबाद में भी केजरीवाल 

   पर, इस बीच भाजपा को एक नये तरह के संगठन से पाला पड रह़ा है जिसको फूंक मार कर उड़ा देना किसी के लिए संभव नहीं लगता है। सर्वे के अनुसार अहमदाबाद के 31 प्रतिशत लोगों की राय है कि केजरीवाल बेहतर नेता हैं।

 पहले तो लगता था कि ‘आप’ को पूरे देश में फैलने से पहले दिल्ली में खुद के कामों को और मजबूत व सुगठित करना पड़ेगा। संभव है कि इस बीच लोकसभा चुनाव गुजर जाए। यह भी संभव है कि इस बीच भाजपा बाजी मार ले।

पर आठ राज्यों में हुए ताजा जनमत सर्वेक्षण के नतीजे कुछ दूसरी ही कहानी कह रहे हैं। संभव है कि निकट भविष्य में पूरे देश में भी कोई जनमत सर्वेक्षण आयोजित हो। संभव है कि उसके नतीजे भी ऐसे ही हो जिस तरह के नतीजे महानगरों से आये हैं। फिर क्या होगा?

    वही होगा जो कुछ पहले होता रहा है। यानी अधिकतर वैसे दल सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते रहेंगे जिनकी बढ़त नहीं दिखाई गई हो। पर फिर भी इसकी पड़ताल वे नहीं करेंगे कि आखिर आम आदमी पार्टी का जनसमर्थन क्यों बढ़ रहा है।

   दिल्ली विधानसभा के चुनाव नतीजे आने के बाद राहुल गांधी ने कहा था कि वे ‘आप से सीखेंगे।’ पर उन्होंने आखिरकार क्या सीखा ? घटनाएं बताती हैं कि कुछ नहीं सीखा।


कांग्रेस-भाजपा को नहीं दिखता खुद का भ्रष्टाचार

भाजपा के पास तो मोदीत्व की चुनावी चाशनी है। उसी में वह मगन है। जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है तो भाजपा को सिर्फ कांग्रेस का भ्रष्टाचार दिखता है और कांग्रेस को भाजपा का। किसी को अपना नहीं दिखता। जबकि भ्रष्टाचार के मामले में दोनों में मात्रा का फर्क है, गुण का नहीं।

दूसरी ओर ‘आप’ के साथ देश भर से अच्छी छवि वाले प्रमुख लोग एक -एक करके जुड़ते जा रहे हैं। शायद इसलिए भी कि केजरीवाल  सार्वजनिक रूप से यह घोषणा करते हैं कि ‘भाजपा व कांग्रेस के साथ -साथ यदि हमारी पार्टी के कोई व्यक्ति भी भ्रष्टाचार में लिप्त पाया गया तो उसे भी हम नहीं छोड़ेंंगे।’ उनकी इस खास अपील का भी दिल्ली सहित देश में सकारात्मक असर होता दिख रहा है कि आम लोग भ्रष्ट अफसरों  के खिलाफ स्टिंग आपरेशन चलाएं और उसकी सूचना दिल्ली सरकार की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा को दें। हम भ्रष्टों को गिरफ्तार करवाएंगे।  

   हाल की कुछ अन्य राजनीतिक घटनाओं से भी ‘आप’ को अपनी जड़ें जमाने का अवसर मिला है। करीब दो साल पहले टीम अन्ना द्वारा तैयार जन लोकपाल विधेयक का लगभग सभी दलों के अधिकतर नेताओं ने संसद की चर्चा में मजाक उड़ाया। वे खास कर अन्ना जमात के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के ही खिलाफ थे।

   सजा मिल जाने के बावजूद जन प्रतिनिधियों की सदस्यता बचाने के लिए जिस तरह सर्वदलीय कोशिश हुई, उससे भी परंपरागत दलों के प्रति जनता के एक हिस्से में गुस्सा बढ़ा।

इतना ही नहीं, अधिकतर राजनीतिक दलों ने पार्टी फंड को न सिर्फ आर.टी.आई. के दायरे में लाने का विरोध किया बल्कि वे चुनाव आयोग को भी चंदे में मिली अपनी पूरी राशि का पूरा विवरण देने को तैयार नहीं हुए। जबकि ‘आप’ ने पार्टी फंड तैयार करने और उसका विवरण सार्वजनिक करने के मामले में पूरी पारदर्शिता बरती।इतना ही नहीं,अधिकतर राजनीतिक दल न तो दागियों से भरे  दलों या नेताओं से चुनावी तालमेल करने से कोई परहेज  कर रहे हैं, न ही  उन  उम्मीदवारों को टिकट देने से खुद को रोक रहे हैं जिन्हें पूरा समाज भ्रष्ट व अपराधी मानता हैं। ऐसे लोगों के टिकट काटने भी पड़े तो उनके परिजनों को टिकट दिये जा रहे हैं।इन मामलों में ‘आप’ अन्य दलों से अलग दिखाई पड़ती है।इस तरह आप के प्रति जन समर्थन बढ़ने के अनेक कारण मौजूद हैं।

 भाजपा सांसद  शत्रुघ्न सिंहा ने  6 जनवरी को अकारण यह नहीं कहा है कि ‘आप कई दलों का बाप है।’ एक दिन पहले कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा कि ‘आप का उद्भव स्थापित राजनीतिक दलों के लिए चेतावनी है।यदि वे अब भी जनता की आवाज नहीं सुनेंगे तो खुद इतिहास बन जाएंगे।’

     (इस लेख का संपादित अंश जनसत्ता के 10 जनवरी, 2014 के अंक में प्रकाशित)
   

मंगलवार, 28 जनवरी 2014

ऊपरी सदन में बिहार की छवि बदलेंगे ये नुमाइंदे

  जनता दल (यू) और भाजपा बिहार से शालीन व बौद्धिक छवि के लोगों को राज्यसभा में भेज रहे हैं। राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव के लिए इस बार जिन उम्मीदवारों का चयन किया गया है, उन लोगों से बारी से पहले बोलने की कोशिश करने की कतई उम्मीद नहीं है।

 सदन की कार्यवाही में इनके द्वारा बाधा पहुंचाये जाने का प्रयास करने की भी कोई उम्मीद नहीं है। याद रहे कि गत दो दशकों से लोकसभा व राज्यसभा के सत्र शोरगुल, हंगामा, नारेबाजी, अभद्रता तथा इस तरह के अन्य गैर संसदीय आचरण के लिए चर्चित रहे हैं।

सदन की बैठकों को किसी न किसी उचित-अनुचित बहानों से बाधित करने में वैसे तो लगभग अधिकतर राज्यों के कुछ सदस्यों का योगदान रहा है, पर ऐसे कामों में बिहार के कतिपय सदस्यों की अपेक्षाकृत कुछ अधिक ही विवादास्पद भूमिका रही है। इससे बिहार की छवि खराब भी होती रही है। दूसरी ओर बेहतर लोगों के सदन में जाने से बिहार की छवि सुधरेगी।

  पिछली लोकसभा में बिहार से ही एक महिला सांसद ने सदन में ही यह कह दिया था कि मैं तो शांतिपूर्वक सदन की कार्यवाही में भाग लेना चाहती हूं, पर हमारे दल के नेता हमें हंगामा करने के लिए कहते हैं। ऐसे में मैं क्या करुं, कुछ समझ में नहीं आता।

  इस पृष्ठभूमि में यह महत्वपूर्ण है कि कोई दल ऐसे लोगों को देश के सर्वोच्च सदन मेें भेजे जो अपनी शालीनता व बौद्धिक क्षमता से सदन की उस गरिमा को कायम रखे जिसकी उम्मीद संविधान निर्माताओं ने की थी।

 आजादी के तत्काल बाद के वर्षों में राज्यसभा में आम तौर पर गरिमामय व्यक्तित्व वाले बौद्धिक लोगों को ही भेजा जाता था। पर बाद के वर्षों में कई कारणों से इस परंपरा को कायम नहीं रखा जा सका। हाल के वर्षों में बिहार सहित कुछ अन्य राज्यों से कुछ ऐसे-ऐसे लोग राज्यसभा में गये जो अपने गैर संसदीय कार्यों के लिए ही अधिक चर्चित रहे हैं।

  दूसरी ओर, बिहार से ताजा उम्मीदवारी में उस परंपरा की हल्की झलक मिलती है जो आजादी के तत्काल बाद शुरू की गई थी। भाजपा ने डा. सी.पी. ठाकुर और आर.के. सिन्हा तथा जदयू ने हरिवंश, रामनाथ ठाकुर और कहकशां परबीन को बिहार से राज्यसभा का इस बार उम्मीदवार बनाया है।

  जरूरत पड़ने पर मतदान सात फरवरी को होगा। जदयू और भाजपा के विधानसभा सदस्यों की संख्या को देखते हुए इन उम्मीदवारों की जीत पक्की मानी जा रही है। डा. ठाकुर एक प्रतिष्ठित डाक्टर हैं और केंद्र में मंत्री भी रह चुके हैं। वे शालीन व्यवहार के लिए जाने जाते हैं। उन्हें कभी सदन में शोरगुल करते नहीं देखा गया।

 आर.के. सिन्हा यानी रवींद्र किशोर अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों में चर्चित पत्रकार रहे हैं। प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश सौम्य स्वभाव के चिंतक पत्रकार हैं। वे अच्छे वक्ता भी हैं।

वे बिहार और झारखंड के पिछड़ापन को सवाल मजबूती से उठाते रहे हैं। बिहार के पूर्व मंत्री रामनाथ ठाकुर चर्चित, ईमानदार व शालीन नेता दिवंगत कर्पूरी ठाकुर के पुत्र हैं। पूरी नहीं, पर कर्पूरी ठाकुर की कुछ-कुछ छाप उन पर जरूर है।

  कर्पूरी ठाकुर ने अपने जीवनकाल में तो अपने किसी परिजन को राजनीति में आगे नहीं बढ़ाया, पर उनके निधन के बाद पहले लालू प्रसाद और बाद में नीतीश कुमार ने रामनाथ ठाकुर को समय-समय उचित सम्मान दिया। जदयू अध्यक्ष शरद यादव के मन में भी कर्पूरी ठाकुर के लिए विशेष श्रद्धा के भाव रहे हैं।

पटना में 24 जनवरी को कर्पूरी जयंती के अवसर पर जब शरद यादव ने राज्यसभा उम्मीदवारों के नामों की सार्वजनिक रूप से घोषणा की तो समारोह में उपस्थित रामनाथ ठाकुर की आंखों में खुशी के आंसू आ गये। भर्राए गले से उन्होंने मीडिया से कहा कि मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था।

याद रहे कि रामनाथ ठाकुर ने इस उम्मीदवारी के लिए न तो कोशिश की थी और न ही इतनी बड़ी जगह मिलने की उन्हें उम्मीद ही थी। पर नीतीश कुमार ऐसे मामलों में कई बार लोगों को अंतिम समय में चकित करते रहे हैं।

  कहकशां परबीन बिहार महिला आयोग की अध्यक्ष हैं और भागलपुर नगर निगम की मेयर रह चुकी हैं। बिहार से राज्यसभा के लिए पांच सीटों पर चुनाव होना है। 243 सदस्यीय विधानसभा के पिछले चुनाव में जदयू और भाजपा के कुल 206 सदस्य विजयी हुए थे। सबसे बड़े प्रतिपक्षी दल राजद के सदस्यों की संख्या मात्र 22 है। यानी जदयू और भाजपा को छोड़कर किसी अन्य दल को अपना एक उम्मीदवार जिताने की भी क्षमता नहीं है।ं

  हरिवंश तो पूर्णकालिक पत्रकार रहे हैं, पर बिहार से ही पूर्व पत्रकार अली अनवर पहले से ही राज्यसभा में हैं। अली अनवर दैनिक जनशक्ति, जनसत्ता तथा कई अन्य प्रकाशनों के लिए काम कर चुके हैं।

 इस बार राज्यसभा के लिए भाजपा उम्मीदवार आर.के. सिन्हा भी सत्तर के दशक में बिहार के चर्चित पत्रकार थे। उन्होंने पटना के दैनिक प्रदीप और इलाहाबाद की पत्रिका माया के लिए काम किया था। उन्होंने तब कई स्टोरी ब्रेक की थी। बाद में दूसरे काम में लग गये। वे भी शालीन स्वभाव के नेता हैं।

बुधवार, 8 जनवरी 2014

बुत बनने की राह पर अन्ना


  अन्ना हजारे ने भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह को चिट्ठी लिखकर उनसे मदद मांगी है। यह मदद किसी जन कल्याणकारी काम के लिए नहीं मांगी गई है। मदद अन्ना की खुद की मूर्ति की स्थापना के लिए मांगी गई है।

   विख्यात समाजसेवी अन्ना हजारे ने भाजपा नेता से आग्रह किया है कि वे गुड़गांव में उनकी मूर्ति लगाने में आ रही अड़चन को दूर करें। अन्ना समर्थकों द्वारा अन्ना हजारे की मूर्ति लगाने की कोशिश का स्थानीय भाजपा नेता विरोध कर रहे हैंं।

  भाजपा अध्यक्ष ने अन्ना की चिट्ठी पर क्या कदम उठाया है, यह तो पता नहीं चला है, पर अन्ना की यह चिट्ठी चैंकाती है। (ताजा जानकारी के अनुसार राजनाथ सिंह के हस्तक्षेप के बाद गुड़गांव के भाजपा नेता ने  अन्ना की मूर्ति के लिए स्थल चयन में मदद करने का आश्वासन दिया है।)

 यह बात खुद अन्ना हजारे के स्वभाव व व्यक्तित्व के खिलाफ लगती है। अन्ना हजारे की छवि एक निःस्वार्थ सेवाभावी की बनी है। उस छवि में इस बात का कोई स्थान नहीं है कि वे अपने जीवनकाल में ही अपनी मूर्ति लगवाने के काम में मदद करें। आज की तारीख में तो अन्ना हजारे करोड़ों लोगों के दिलों में घर बना चुके हैं। उन्हें मूर्तियों में समेटना बनावटी लगता है।

  राजनाथ सिंह को लिखी चिट्ठी से अन्ना हजारे की खुद की छवि को धक्का लगता है। अन्ना के अनेक प्रशंसकों ने इसे अच्छा नहीं माना है। उन्हें डर है कि इससे अन्ना के विरोधियों को बल मिलेगा। अन्ना के भ्रष्टाचारविरोधी अभियान के कारण अनेक निहितस्वार्थी तत्व अन्ना के विरोधी हो गये हैं।

इससे पहले मायावती अपनी मूर्ति को लेकर काफी चर्चा में आई थीं। अपने शासनकाल में उन्होंने उत्तर प्रदेश में अपनी भी मूर्तियां लगवाईं।

मायावती जैसी नेताओं को यह आशंका हो सकती है कि उनके नहीं रहने के बाद पता नहीं कोई उनकी मूर्तियां लगवाएगा या नहीं। पर अन्ना हजारे को तो इसकी कोई आशंका नहीं होनी चाहिए थी।

  उनके नहीं रहने पर उनकी मूर्तियां लगेंगी ही ऐसी उम्मीद तो की ही जा सकती है। भ्रष्टाचार विरोधी अभियान व जन सेवा के क्षेत्रों में उनके काम उल्लेखनीय रहे हैं। अभी तो उन्हें और भी काम करने हैं।

डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि किसी व्यक्ति की मूर्ति उसके निधन के सौ साल बाद ही लगनी चाहिए। क्योंकि इतिहास तब तक उस व्यक्ति के बारे में निष्पक्ष आकलन कर चुका होता है।

  नब्बे के दशक मेंे मास्को में उस देश के वासियों द्वारा ही जब लेनिन की मूर्ति सरेआम तोड़ दी गई तो कुछ लोगों ने डा. लोहिया की उक्ति याद की थी। तब तक बोल्शेविक क्रांति के सौ साल पूरे नहीं हुए थे।

  पर इसी देश में संभवतः पहली बार इलाहाबाद में खुद डा. लोहिया की मूर्ति लगनी शुरू हुई तो विरोध होने पर उनके कुछ अनुयायियों ने डा.लोहिया की उक्ति को ही झुठला दिया। एक लोहियावादी ने कहा कि डा.लोहिया ने सौ साल बाद नहीं बल्कि दस साल बाद की ही सीमा बांधी थी।

दरअसल जिन्हें डा. लोहिया के कहे अनुसार नहीं चलना था, उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु को मूर्तियों तक ही सीमित कर देना ठीक समझा।

  इस संबंध में अविभाजित कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा की टिप्पणी याद आती है। 1994 में कर्नाटका के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरप्पा मोइली ने घोषणा की कि वे एस. निजलिंगप्पा की मूर्ति उनके जीवनकाल में ही लगवाना चाहते हैं। इसके लिए विधायकों की एक समिति गठित की जाएगी।

 पर, उस समय जब इस बारे में निजलिंगप्पा से एक पत्रकार ने पूछा तो उन्होंने एक अंग्रेज कवि की कविता सुना दी,--‘अनसंग, अनवेप्ट, अनहर्ड, लेट मी डाइ। लेट नाॅट अ स्टोन टेल व्हेयर आई लाइ।’ निजलिंगप्पा ने यह भी कहा कि ‘मैं नहीं चाहता कि कौवे मेरी मूर्ति पर बैठ कर उसे गंदा करें।’

   कर्नाटका के मुख्यमंत्री रहे निजलिंगप्पा के लिए लोगों के मन में  सम्मान था क्योंकि आजादी की लड़ाई के एक यांेद्धा थे। पर, उससे कम  इज्जत अन्ना हजारे के लिए आज नहीं है जिन्होंने भ्रष्टाचार से आजादी के लिए अपनी जान जोखिम में डाला। लंुजपुंज ही सही, पर उनके प्रयास से एक लोकपाल कानून देश के सामने आया।

   इसलिए अन्ना से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वे खुद अपनी मूर्ति के लिए प्रयास करें। नेताओं की मूर्तियों की स्थापना को लेकर इस देश में अक्सर विवाद होते रहे हैं।

जीवनकाल में ही मूर्तियां लगवाने की परंपरा संभवतः तमिलनाडु में शुरू हुई थी। सन 1961 में तत्कालीन मुख्यमंत्री के. कामराज की मूर्ति मद्रास में  लगवाई गई थी जिसका अनावरण तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने किया था। तब भी एक तबके ने उसका विरोध किया था।

 कामराज का निधन 1975 में हुआ। सन् 1967 में तत्कालीन मुख्यमंत्री सी.एन. अन्नादोरै की मूर्ति मद्रास में ही लगाई गई तब भी उसकी आलोचना हुई थी।

  यह ऐसी ही बात है जैसे कोई व्यक्ति अपने जीवनकाल में ही अपना श्राद्ध कर्म करा ले। इस देश में कुछ ऐसे गिने -चुने लोग कराते भी रहे हैं जिन्हें यह आशंका होती है कि उनके नालायक वंशज यह काम ठीक से नहीं करेंगे। या, वे अपने नालायक वंशज से इतने नाराज होते हैं कि उनके हाथों यह काम नहीं होने देना चाहते।

   पर, यह देश इतना कृतघ्न नहीं है कि उनके नहीं रहने पर अन्ना हजारे की सेवाओं को भूल जाए और उनकी मूर्ति न लगाए।
(06 जनवरी, 2014 के जनसत्ता से साभार)