रविवार, 30 अक्तूबर 2016

एम.पी.एस.-2 हंटर सिन्ड्रोम : सिर्फ सरकार के ही पास है ऐसी बीमारी का इलाज

 इन दिनों इस देश के कोई डेढ़ सौ बच्चे एक विरल और जटिल आनुवांशिक रोग से पीडि़त हैं। उस रोग का नाम है एम.पी.एस.-2 हंटर सिन्ड्रोम।

 बिहार और झारखंड में भी ऐसे मरीजों की पहचान हुई है। रांची का शौर्य सिंह उन मरीज बच्चों में से एक है। पर, पैसे के अभाव में देश के अन्य अनेक मरीजों के अभिभावकों के साथ-साथ शौर्य के अभिभावक सौरभ सिंह के लिए भी इलाज कराना संभव नहीं हो पा रहा है।

 इस जानलेवा रोग के इलाज का खर्च मरीज के वजन पर निर्भर करता है। यदि बच्चा दस किलोग्राम का है तो उस पर 50 लाख रुपए। बीस किलो का होने पर एक करोड़ रुपए। इस मर्ज की दवा ब्रिटेन की शायर फार्मास्यूटिकल कंपनी   बनाती है। वह काफी महंगी है।

 नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तभी वह ऐसे मरीज से मिले भी थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने इस संबंध में विशेषज्ञ चिकित्सकों की एक उच्चाधिकारप्राप्त समिति का गठन भी कराया है। सर गंगाराम अस्पताल के जेनटिक्स विभाग के अध्यक्ष  डा. आई.सी. वर्मा उस कमेटी के प्रधान हैं। पर कमेटी के काम में तेजी नहीं आ पा रही है।

  ऐसे मर्ज से पीडि़त बच्चों के अभिभावकगण बुरी तरह परेशान रहते हैं। एक तो अपने अबोध बच्चे की बीमारी का कष्ट और ऊपर से अपनी आर्थिक लाचारी की पीड़ा ! इतने रुपए इकट्ठा करना उनके वश में जो नहीं है! कुछ सरकारें बी.पी.एल. परिवार को ही इलाज का खर्च देती हैं। पर सवाल है कि इस देश के कितने मध्य वर्गीय परिवार एक करोड़ रुपए खर्च कर सकने की स्थिति हैं? इसलिए ऐसे मरीजों के अभिभावकगण  सरकारों की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं।  विभिन्न सरकारों  मदद से अब तक करीब एक दर्जन मरीजों का ही इलाज संभव हो पाया है। ई.एस.आई.सी.  8 मरीजों और पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग एक मरीज के इलाज पर खर्च उठा रहा है। दिल्ली और कर्नाटका उच्च न्यायालयों के आदेश पर वहां की राज्य सरकारों ने कुछ मरीजों का खर्च उठाया है।

 पर अधिकतर मरीजों का समुचित इलाज नहीं हो पा रहा है। मरीजों के अभिभावक  सरकार की ओर टकटकी लगाकर देख रहे हैं।

    दो से चार साल के शिशु के शरीर को यह जानलेवा रोग अपनी गिरफ्त में ले लेता है।  इस रोग के कारण बच्चे के सिर का आकार असामान्य रूप से बढ़ जाता है। धीरे -धीरे हड्डियों के जोड़ों में अकड़न आ जाती है। श्रवण शक्ति कम होने लगती है। आंखों की रोशनी धीमी पड़ने लगती है। लीवर का आकार बढ़ जाता है। शरीर में कुछ अन्य विकार भी पैदा होने लगते हैं। यदि समय पर इलाज नहीं हुआ तो ऐसे रोगग्रस्त बच्चे की आयु सिर्फ दस से पंद्रह साल की ही होती है।

  पैसे के अभाव में अपने अबोध बच्चे को तिल -तिल कर मरते देखना किसी मां-बाप के लिए कितना दुःखदायी होता है, इसका अनुमान कठिन नहीं है।

  इस रोग से संबंधित सर्वाधिक दुःखदायी बात यही है कि इलाज अत्यंत महंगा है। हाल ही में कर्नाटका सरकार ने नेशनल हेल्थ मिशन के फंड से एक मरीज के लिए एक करोड़ रुपए मंजूर किए हैं। वहां के हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद राज्य सरकार ने ऐसा किया। याद रहे कि इस संबंध में कर्नाटका हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गयी थी।

 दिल्ली हाईकोर्ट ने भी याचिकाकर्ता की मदद की है। क्या इस देश की अन्य सरकारें कर्नाटका सरकार की तरह ही नेशनल हेल्थ मिशन के फंड से इस मर्ज के इलाज के लिए राशि खर्च करेगी? क्योंकि हाईकोर्ट में मुकदमे का खर्च उठाने की आर्थिक स्थिति भी अधिकतर अभिभावकों की नहीं है। याद रहे कि नेशनल हेल्थ मिशन में राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम भी शामिल है।

 झारखंड के मरीज शौर्य के लिए भाजपा सांसद राम टहल चैधरी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा है। श्री चैधरी ने शौर्य के इलाज का खर्च उठाने का आग्रह करते हुए लिखा है कि सरकार ऐसे अन्य मरीजों की आर्थिक मदद के लिए विशेष कोष बनाये।

  इस बीच एक राज्य सरकार ने यह कह दिया कि हंटर सिंड्रोम असाध्य रोग नहीं है। साथ ही, मरीज के अभिभावक गरीबी रेखा के नीचे नहीं आते। यानी इस मानवीय समस्या को लेकर सभी राज्यों का रवैया एक तरह का नहीं है। ऐसे में केंद्रीय सरकार का हस्तक्षेप जरूरी हो गया है।

इसी साल के प्रारंभ में दिल्ली के मौलाना आजाद मेडिकल काॅलेज में विशेषज्ञ चिकित्सकों की तत्संबंधी उच्चाधिकारप्राप्त समिति की बैठक हुई। डा. वर्मा उस समिति के प्रधान हैं। बैठक में इस गंभीर बीमारी के इलाज के खर्च को लेकर  अदालत के 2015 के एक निर्णय की विस्तार से चर्चा हुई।

उपर्युक्त समिति में कुछ अन्य विशेषज्ञों को शामिल करने का फैसला हुआ। मरीजों के अभिभावक उस समिति की सिफारिशों की बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे हैं। याद रहे कि सांसद राम टहल चैधरी ने प्रधानमंत्री से यह भी आग्रह किया है कि वह उपर्युक्त उच्चाधिकारप्राप्त कमेटी के काम में तेजी लाने का निदेश दें। उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र सरकार बीमार अबोध बच्चों की जल्द ही सुध लेगी।

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

राम एकबाल बरसी जैसे नेता अब पैदा नहीं होते

डाॅ. राम मनोहर लोहिया ने कभी राम एकबाल सिंह को ‘पीरो का गांधी’ कहा था। डाॅ. लोहिया ऐसे नेता थे जो न तो अपनी चापलूसी सुनना चाहते थे और न ही किसी को महज खुश करने के लिए ऐसा कोई नाम देते थे।

 जो लोग लोहिया को जानते रहे हैं, उन लोगों ने यह मान लिया था कि यदि लोहिया ने राम एकबाल जी को ‘पीरो का गांधी’ कहा था तो जरूर राम एकबाल जी में ऐसी कोई विशेष बात होगी। बात थी भी। राम एकबाल जी एक अनोखे नेता थे। समाजवादी आंदोलन के लोग राम एक बाल जी को आदर की दृष्टि से देखते थे। वैसे इसके कुछ लोग अपवाद भी थे।

 यह अकारण नहीं था कि हाल में जब पटना के अस्पताल में इलाज के लिए राम एकबाल जी को लाया गया तो लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दोनों उन्हें देखने के लिए वहां गये। ऐसा कम होता है।

  यह भी संयोग ही रहा कि राम एकबाल जी का निधन उसी महीने में हुआ जिस अक्तूबर में राम मनोहर लोहिया का 1967 में निधन हुआ था।

 समाजवादी नेता राम एकबाल सिंह 1969 में पीरो से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर विधायक चुने गये थे।  1972 में भी वह पीरो से ही चुनाव लड़े, पर उनका तीसरा स्थान रहा। उसके बाद उन्होंने कोई चुनाव नहीं लड़ा।

 1977 में उन्हें जनता पार्टी का टिकट आॅफर किया गया था। पर उन्होंने चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था। उनकी जगह रघुपति गोप को टिकट मिला और वह जीते भी। जनता पार्टी का टिकट उन दिनों जीत की गारंटी माना जाता था। इसके बावजूद राम एकबाल ने तब कह दिया था कि एक ही व्यक्ति बार -बार चुनाव क्यों लड़ेगा ? कोई और लड़े।

 1977 में ही बिहार विधानसभा से पहले लोकसभा का चुनाव हो चुका था। बिहार की सभी 54 लोस सीटें जनता पार्टी को मिल चुकी थीं। इसके बावजूद जनता पार्टी का टिकट अस्वीकार करने का काम कोई आदर्शवादी व्यक्ति ही कर सकता था। राम एकबाल जी आदर्शवादी थे भी।

बाद के दिनों में राम एकबाल जी ने अपने नाम के आगे से सिंह शब्द हटाकर उसकी जगह बरसी जोड़ लिया था। बरसी उनके गांव का नाम है। यह नाम उनके साथ अंत तक रहा।

 आदर्शवादी तो ऐसे थे कि एक समाजवादी मित्र की लड़की की शादी में हसुआ और खुरपी लेकर चले गये थे। नब्बे के दशक की बात है। उनके मित्र पटना के लोहिया नगर में रहते हैं। राम एकबाल जी के पास वर-बधू को देने के लिए यही उपहार था। मित्र से कहा कि नवजीवन शुरू करने वाले दंपत्ति थोड़ा खेती भी करें।

 वह कभी -कभी थोड़ा कटु भी बोलते थे। पर उनकी बोली का उनके परिचित मित्र बुरा नहीं मानते थे। साठ के दशक में मैं उनसे मिला था। संसोपा के सम्मेलनों में उन्हें देखता था। विधायक के रूप में भी उनकी भूमिका करीब से देखी।

सब जगह निर्भीक, स्पष्टवादी और अपने विचारों पर अडिग।

कमजोर वर्ग उनकी राजनीति के कंेद्र में होता था। मेरे जानते उनमें निजी स्वार्थ की भावना कतई नहीं थी। संभवतः इसलिए भी किसी भी बड़ी हस्ती से बहस करने और लड़ लेने की ताकत थी उनमें। अपने दल के अंदर और पार्टी के बाहर भी।

डाॅ. लोहिया कहा करते थे कि सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं की वाणी स्वतंत्र रहनी चाहिए, पर उनमें कर्म की प्रतिबद्धता भी होनी चाहिए। लोहिया के नहीं रहने बाद भी लोहियावादी राम एकबाल जी इसका पालन करते थे। उन्होंने एक बार मुझसे कहा था कि मैं दो सौ साल जीना चाहता हूं। बहुत काम करने हैं। इसके लिए वह प्रयत्नशील भी रहते थे।

दो सौ साल जीना तो असंभव है। पर उन्होंने ऊंचा लक्ष्य रखा तो 94 साल जीए।

राजनीतिक कार्यकर्ता के जीवन में दौड़-धूप काफी रहती है। संयम और उचित खानपान के लिए जो साधन, समय और स्थान चाहिए, उसका अभाव ही रहा होगा। फिर भी इतना जीना बड़ी बात है।

  एक बार उन्होंने निश्चय किया था कि एक खास कालावधि में वह पक्की सड़क पर पांव तक नहीं रखेंगे।
इसका उन्होंने लंबे समय तक भी पालन किया। पिता की सेवा के लिए वह लंबे समय तक गांव में ही रहे। इस तरह के कई असामान्य काम थे जो उन्होंने किए।

राम एकबाल बरसी जैसे राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता-नेता शायद उसी युग में पैदा होते थे जब राम एकबाल पैदा हुए थे। अब इस मामले में यह भूमि बंजर सी हो चुकी है। इसलिए भी वे अनेक लोगों को याद आते रहेंगे।