बुधवार, 10 सितंबर 2014

जल्दबाजी होगी कांगेेस के विलुप्त होने की भविष्यवाणी


 इस देश के कुछ भाजपाई चिंतक इन दिनों उत्सहित हैं। वे कांग्रेस की दुर्दशा देखकर खुश हैं। वे उसके विलुप्त होने की भी भविष्यवाणी करने लगे हैं। कांग्रेस के लोकसभा में मात्र 44 सीटों पर सिमट जाने के बाद उनकी ऐसी भविष्यवाणी स्वाभाविक ही है।

  पर समकालीन इतिहास बताता है कि वे खुशफहमी में लगते हैं। अब तक कांग्रेस की विफलताओं का लाभ प्रतिपक्ष और प्रतिपक्ष की विफलताओं का चुनावी लाभ कांग्रेस उठाती रही है। अगली बार भी ऐसा नहीं होगा, यह नहीं कहा जा सकता।

   निष्पक्ष राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार कांग्रेस का विलुप्त होना इस बात पर निर्भर करेगा कि नरेंद्र मोदी सरकार अगले छह महीने में कुल मिलाकर कैसा काम करती है। सिर्फ सौ दिनों में किसी सरकार के बारे में किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता है।

  छह महीने में मोदी की विफलता कांग्रेस की सफलता की राह तैयार करेगी। पर मोदी की सफलता कांग्रेस के लिए घातक साबित हो सकती है।

  1967 में देश के नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी दलों की सरकारें बन गई थीं। सात राज्यों में चुनाव के जरिए और अन्य दो राज्यों में दल-बदल के जरिए। तब की गैर कांग्रेसी सरकारों के शिल्पी थे समाजवादी नेता व चिंतक डाॅ. राम मनोहर लोहिया। उन्होंने कम्युनिस्ट और जनसंघ को न्यूनत्तम कार्यक्रम के आधार पर  एक साथ ला दिया था। यदि तब प्रतिपक्षी दलों में पूर्ण चुनावी एकता हो गई होती तो उसी समय केंद्र की सत्ता से कांग्रेस का एकाधिकार खत्म हो चुका होता।

  चुनाव के तत्काल बाद अपनी राज्य सरकारों से डाॅ. लोहिया ने कहा था कि छह महीने के भीतर जनहित में कुछ ऐसे चैंकाने वाले काम करो जिनसे जनता को तुम लोगों और कांग्रेस के बीच साफ -साफ अंतर दिख जाए। और वह कांग्रेेस को भूल जाए। यदि तुम ऐसा नहीं कर पाओगे तो कांग्रेस दुबारा सत्ता में आ जाएगी क्योंकि वह एक माहिर पार्टी है।

   डाॅ. लोहिया की भविष्यवाणी सही साबित हुई। कांग्रेस वापस आ गई। क्योंकि मिलीजुली सरकारें अपेक्षाकृत ईमानदार होते हुए भी बेमतलब आपसी कलह में उलझकर बारी- बारी से जल्दी ही समाप्त हो गई।क्यों कि उनमें से अनेक  गैर कांग्रेसी नेताओं में  आलस्य,व्यक्तिगत कुंठा और सत्तालोलुपता  हावी हो गई थी।

    कांग्रेस को विलुप्त करना है तो नरेंद्र मोदी सरकार और भाजपा को डाॅ. लोहिया की वह भविष्यवाणी याद रखनी पड़ेगी। मोदी सरकार को छह महीने के भीतर ठोस नतीजे देने होंगे। लोगबाग कांग्रेस को तभी भूलेंगे जब मोदी सरकार जनहित के चैंकाने वाले कामों से लोगों को प्रभावित कर दे।

 मोदी सरकार के प्रारंभिक काम तो अधिकतर लोगों को अभी अच्छे लग रहे हैं। अच्छे कामों से अधिक उसकी अच्छी मंशा की सराहना हो रही है। खास कर भ्रष्टाचार व राजनीति के अपराधीकरण के मामले में मोदी सरकार के फैसले व घोषणाएं ठीक मानी जा रही हैं। सांप्रदायिक मामलों में अभी मोदी सरकार की निर्णायक परीक्षा होनी बाकी है।

 पर इसके अलावा भाजपा व सहयोगी दलों का जिस तरह का तानाबाना, कार्यशैली, जीवन शैली तथा राजनीतिक शैली रही है, उनसे कई तरह के अपशकुन भी हो रहे हैं।

 सवाल यह उठ रहा है कि क्या मोदी सरकार का यह प्रारंभिक टेम्पो बना रह सकेगा ?

 अगले छह महीने में कुछ अन्य बातें देखी जाएंगी। उस आधार पर मोदी सरकार को कसौटी पर कसा जाएगा। उसके बाद ही यह कहा जा सकेगा कि कांग्रेस विलुप्त होने की दिशा में आगे बढ़ेगी या दुबारा कमबैक करेगी।

    आपातकाल की पृष्ठभूमि में हुए 1977 के चुनाव में जब कांग्रेस उत्तर भारत से लगभग साफ हो गई थी तब भी कुछ लोग कांग्रेस के बारे में ऐसी ही भविष्यवाणी करने लगे थे। पर वह गलत साबित हुई। क्योंकि कांग्रेस विरोधी दलों की विफलता ने कांग्रेस को अगले चुनाव में चुनावी सफलता दिला दी।

   1977 के चुनाव के बाद बनी मोरारजी देसाई सरकार अच्छा काम कर रही थी। महंगाई और भ्रष्टाचार पर बहुत हद तक काबू था। अधिकतर जनता भी सरकार से खुश थी। पर जनता पार्टी के आंतरिक झगड़े और कुछ बड़े जनता नेताओं की पदाकांक्षा ने कांग्रेस की सत्ता में वापसी का रास्ता बना दिया।

 इसके लिए कांग्रेस की अच्छाई नहीं बल्कि जनता पार्टी सरकार की बुराई जिम्मेदार रही। तीन ही साल में इंदिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बन गई। ऐसा नहीं था कि सत्ता में आने से पहले इंदिरा गांधी ने अपनी कार्यशैली बदल ली थी।

  यदि मोदी सरकार ने मोरारजी सरकार वाली गलती की तो इस बार भी  कांग्रेस ‘विलुप्त’ होने से साफ बच जाएगी! इसके लिए सोनिया गांधी और राहुल गांधी को अपनी कार्यशैली भी बदलने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वे बदल भी नहीं सकते। बदलने की उनकी क्षमता सीमित है।

     देश का लोकतांत्रिक इतिहास बताता है कि केंद्र और राज्य स्तर पर  कांग्रेस में घट -घटकर बढ़ जाने की अजीब सी ताकत मौजूद है। यह ताकत वह आम तौर कांग्रेसविरोधी दलों से ही हासिल करती रही है।

     वैसे भी कांग्रेस एक अखिल भारतीय पार्टी है। अखिल भारतीय होने से उसे विशेष ताकत मिलती है। भाजपा अभी उस प्रक्रिया में है। उसके पास नेहरु-इंदिरा परिवार के रूप में अवलंब लेने के लिए एक खंभा उपलब्ध है। वह खम्भा अपने केंद्र की ओर कांग्रेसी नेताओं व कार्यकर्ताओं को खींचता है।

     वैसे भाजपा के पास भी ऐसा खम्भा नागपुर में है। अन्य अधिकतर मध्यमार्गी दल तो परिवारवादी हैं। विचारधारा के आधार पर इस देश में जब राजनीति होती थी उस समय डाॅ. राम मनोहर लोहिया कभी समाजवादियों के लिए ऐसे ही खम्भा थे। अब तो समाजवादियोंे को पहचानना भी मुश्किल है।

     कुल मिलाकर आज स्थिति यह है कि भाजपा व मोदी सरकार कांग्रेस की चिंता करने के बदले अपने खुद के कामों की चिंता करें। यह भाजपा सरकारों पर निर्भर है कि वह एक पर एक जनहित में अपने चैंकाने वाले  कामों से लोगों को मजबूर करती है कि वे कांग्रेस को भूल जाएं या फिर अपने गलत कदमों के जरिए लोगों को बाध्य कर देती है कि वे कांग्रेस को वापस सत्ता में बुला लें।

      इस देश में अब तक तो यही हुआ कि अधिकतर लोगों ने कांग्रेस की गलतियों को नजरअंदाज भी किया है, पर गैर कांग्रेसी सरकारों के छोटे भटकावों को भी माफ नहीं किया है। क्योंकि लोग गैर कांग्रेसी दलों से कुछ अधिक ही उम्मीद रखते हैं।

(8 सितंबर 2014 के दैनिक जनसत्ता,नई दिल्ली में प्रकाशित)