शनिवार, 28 अगस्त 2021

     दोस्त-दुश्मन की पहचान

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अफगानिस्तान खासकर काबुल के ताजा नर- 

संहार की घटना ने भारत के लिए एक काम 

आसान कर दिया।

इस देश को उसने अपने भीतर-बाहर, खासकर भीतर के

दोस्तांे व दुश्मनों को पहचानने का अच्छा अवसर दे दिया।

बस, यही देख-जान लेना है कि वहां की ताजा नृशंस घटना पर किसकी क्या राय है।

यह भी कि कौन मौन है और कौन मुखर !

    इस पहचान के बाद इस देश को अपनी आगे की रणनीति-युद्धनीति बनाने में सुविधा हो जाएगी।

   --सुरेंद्र किशोर

28 अगस्त 21

  


गुरुवार, 26 अगस्त 2021

 अपने यहां अफगान शरणार्थियों को शरण देने के अमेरिकी आग्रह को अभी तक बांग्ला देश, कजाखस्तान,

कतर,

ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान जैसे देश नकार चुके हैं।

 ये सभी मुस्लिम देश हैं।

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---आनंद रंगनाथन

24 अगस्त 21

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यानी, मुस्लिम देश अपने ही समुदाय के पीड़ितों को स्वीकार नहीं कर रहे हैं।

दूसरी ओर, हमारे देश के अनेक सेक्युलर,कम्युनिस्ट तथा जेहादी लोग पर -पीड़कों यानी तालिबानियों की लगातार सराहना कर रहे हैं।

 जो लोग सराहना कर रहे हैं, क्या वे लोग भारत को भी इराक,सिरिया और अफगानिस्तान बनाना चाहते हैं ?

इस देश के ऐसे तत्वों से इस देश को कौन बचाएगा ?

हाथ उठाइए !

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   --सुरेंद्र किशोर

    26 अगस्त 21

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पुनश्चः

पाकिस्तान ने घोषणा की है कि वह तालिबानियों की मदद से कश्मीर को भारत से छीन लेगा।

  कश्मीर के अलगाववादी नेता इस विशेष परिस्थिति का लाभ उठाकर भारत को धमका रहे हैं।

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किन -किन राजनीतिक दलों,बुद्धिजीवियों और सेक्युलर संगठनों ने पाक व कश्मीरी नेताओं की इस बात के लिए आलेचना की है ?

कल्पना कीजिए,हमारा देश किस तरह बाहरी व भीतरी दुश्मनों से एक साथ जूझ रहा है। 


 हाल में आई एक पुस्तक का नाम है-

‘‘वी.पी.सिंह,चंद्रशेखर, सोनिया गांधी और मैं’’

     लेखक हैं -- संतोष भारतीय

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उसमें राजीव गांधी की हत्या से संबंधित एक प्रसंग भी आया है।

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 पूर्व सांसद व चर्चित पत्रकार की इस पुस्तक में है

--(तत्कालीन केयर टेकर प्रधान मंत्री) ‘‘चंद्रशेखर जी को खुफिया सूत्रों से जानकारी मिली कि राजीव गांधी

की हत्या का षड्यंत्र रचा गया है जिसे तमिलनाडु में पूरा किया जाना है।

उन्होंने (चंद्रशेखरजी ने) तमिलनाडु के राज्यपाल भीष्मनारायण सिंह से भी पूछा।

उन्होंने भी पुष्टि की।

 चंद्रशेखर ने राजीव गांधी को संदेश भेजा कि वे तमिलनाडु न जाएं।

राजीव न माने।’’

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तमिलनाडु में क्या हुआ,वह दुनिया जानती है।

वी.पी.सिंह,चंद्रशेखर और सोनिया गांधी से संबंधित अनेक प्रसंगों से भरी किताब है यह।

इसलिए जरूर पठनीय होगी।

पुस्तक अभी मेरे हाथों में नहीं है।

पर,उस पर ‘प्रभात खबर’ में 

समीक्षा छपी है।

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--सुरेंद्र किशोर

24 अगस्त 21

  


बुधवार, 25 अगस्त 2021

    शरणार्थी के वेश में आतंकवादी-पुतिन

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अफगानी शरणार्थियों के बारे में रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने ठीक ही कहा है कि 

‘‘हम शरणार्थी के वेश में आतंकवादी नहीं चाहते।’’

यूरोप के अन्य देश भी इस बार सावधान हैं।

वे भी अफगानी शरणार्थी नहीं चाहते।

वे देख चुके हैं कि सिरिया के शरणार्थियों ने बाद में वहां क्या -क्या कारनामे किए।

56 मुस्लिम देशों में से कोई अफगान के शरणार्थियों को शरण देने को तैयार नहीं है।

 हां, सिर्फ हमारे देश के कुछ उल्टी खोपड़ी वाले बुद्धिजीवी (वे अपने ‘फादरलैंड’ चीन व रूस से भी नहीं सीखते),वोटलोलुप राजनीतिक दल व जेहादी तत्व अधिक से अधिक अफगानी मुस्लिम शरणार्थियों को भारत बुलाने व उन्हें नागरिकता देने के लिए टी.वी.चैनलों पर चिल्ला रहे हैं।

  जयचंद तो इनके समक्ष आज निर्दोष लगता है जिसका आए दिन नाम लिया जाता है।

उसने चैहान का सिर्फ साथ ही तो नहीं दिया था।

वह गोरी की तरफ से लड़ने नहीं गया था।

हां, मान सिंह अकबर की तरफ से जरूर लड़ा था।

 उससे पहले जब -जब जयचंद ने पृथ्वीराज का साथ दिया,चैहान जीता।

पर, अंत में जयचंद का भी क्या हुआ ?

वह भी गोरी के हाथों मारा गया।

जो इतिहास नहीं पढ़ते ,वे उसे दोहराने को अभिशप्त होते हैं।

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25 अगस्त 21

  

 


      अफगान के मुस्लिम शरणार्थियों को रोकने 

    के लिए तुर्की ने खड़ी की सीमा पर दीवाल

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     --सुरेंद्र किशोर-

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खबर है कि 56 इस्लामिक देशों में से सिर्फ पाकिस्तान तालिबान के साथ है।

  कोई मुस्लिम देश अफगानिस्तान के मुस्लिम शरणार्थियों को 

भी अपने देश में शरण देना नहीं चाह रहा है।

तुर्की ने तो अफगानिस्तान से लगती अपनी सीमा पर करीब 300 किलोमीटर की लंबी दीवार खड़ी कर दी है ताकि कोई अफगान शरणार्थी देश में दाखिल न हो सके।

  रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने कह दिया है कि हम शरणार्थी के रूप में आतंकवादी नहीं चाहते।

  किंतु भारत के अधिकतर मुस्लिम तालिबान की क्रूरता के समर्थक हैं।

  यानी, उसकी निंदा तक नहीं कर रहे हैं।

यहां के वोटलोलुप दलों का भी यही हाल है।

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24 अगस्त 21

 

 


रविवार, 22 अगस्त 2021

  इस देश में उन्हीं राजनीतिक दलों का भविष्य है जो  वंशवादियों-परिवारवादियों ,जेहादियों, हिंसक माओवादियों और सरकारी तिजोरियों के डाकुओं से किसी तरह का प्रत्यक्ष-परोक्ष संबंध नहीं रखंेगे।

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18 अगस्त 21

 


शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

    

मुकदमों की सुनवाई बंगाल से बाहर होने 

 पर ही न्याय की उम्मीद

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 सी.बी.आई.जांच के अदालती निर्णय के 

   साथ ही ममता बनर्जी की राष्ट्रीय 

   राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर लग

   गया ग्रहण  !!!!!

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--सुरेंद्र किशोर-

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 यह एक अच्छी बात हुई है ।

 कोलकाता हाईकोर्ट ने पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद हुई हत्या और बलात्कार की घटनाओं के मामलों की जांच का काम सी.बी.आई.को सौंप दिया है।

मानवाधिकार आयोग की रपट आने के बाद ऐसा निर्णय आया है।

    किंतु उन मुकदमों की सुनवाई जब तक दूसरे राज्य में नहीं होगी, तब तक पीड़ितों व पीड़ित परिवारों को न्याय मिलने की उम्मीद कम है।

  संभवतः आगे चलकर यह आदेश भी कोलकाता हाई कोर्ट को देना ही पड़ेगा।

  इस बात की कोई उम्मीद नहीं कि सुप्रीम कोर्ट कोलकाता हाई कोर्ट के आज के इस ताजा निर्णय में कोई हस्तक्षेप करेगा।

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 माना जा रहा है कि इस अदालती निर्णय के साथ ही ममता बनर्जी की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा पर भी पानी फिर जाएगा।

याद रहे कि सी.बी.आई. के अनुसंधान के साथ ही एक से एक सनसनीखेज कारनामों के विवरण देश के सामने आने लगेंगे।

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पिछले कुछ महीनों की राजनीतिक चर्चाओं व अंतःपुर की बैठकों से एक बात छन कर आती रही थी।

वह यह कि उनके जिद्दी स्वभाव के कारण ममता बनर्जी के नाम पर कोई आम सहमति नहीं बन पा रही थी।

माना जा रहा है कि ममता बनर्जी में सबको साथ लेकर चलने की प्रौढ़ता नहीं है।

  याद रहे कि बंगाल चुनाव के बाद कुछ लोग 2024 के लोस चुनाव के लिए प्रतिपक्ष के साझा उम्मीदवार के रूप में ममता का नाम चला रहे थे।

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19 अगस्त 21  


  


सोमवार, 16 अगस्त 2021

 सरकारी पत्रिका योजना

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सन 1984 के भारत और आज के भारत 

में कितना अंतर ?

आज आप जो गंदगियां देख रहे हैं,

उसकी नींव आजादी के तत्काल बाद ही 

पड़ चुकी थी

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दशकों से जमी काई जल्दी साफ नहीं होती 

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   . --सुरेंद्र किशोर--

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सन 1984 तक इस देश का क्या हाल हो चुका था ?

‘योजना’ पत्रिका के 15 अगस्त, 1984 के अंक में जो कुछ छपा था,उससे देश का हाल का पता नई पीढ़ी के लोगों को भी चल जाएगा। 

   उस सरकारी पत्रिका के कवर पेज पर 

लिखा हुआ था-

‘‘ये गंदे लोग, यह गंदा खेल।’’

‘योजना’ के तब के प्रधान संपादक रघुनन्दन ठुकराल की हिम्मत व देश सेवा की भावना तो देखिए !

पता नहीं, वह अंक आने के बाद उनकी नौकरी रही या गई ?

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सन 1946 से 1984 तक इस देश मंे जितने भी प्रधान मंत्री हुए,सबको भारत रत्न सम्मान मिल चुका है।

ऐसे ‘‘भारत रत्नों’’ की यही उपलब्धि थी ? !!!

एक अन्य उपलब्धि के बारे मंे तो अगले प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने 1985 में देश को बताया था,

‘‘केंद्र सरकार सौ पैसे दिल्ली से भेजती है,किंतु उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं।’’

याद रहे कि भारत रत्न का सम्मान राजीव गांधी को भी मिल चुका है।

हाॅकी में बारी -बारी से तीन स्वर्ण पदक दिलाने वाले ध्यानचंद को भले न मिले ! 

नेताओं को उसे पाने से भला कौन रोक सकता है ?

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  जब अपवादों को छोड़ कर सरकारी व निजी क्षेत्र में गंदे लोग ही फैले हुए हों तो वही होना था जैसा राजीव गांधी ने 1985 में कहा था।

 यानी 100 पैसों को तभी घिसकर 15 पैसे बना दिया गया था।

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उन गंदे लोगों की सूची ख्वाजा अहमद अब्बास ने ‘योजना’ के उसी अंक में पेश की थी।

अब्बास के अनुसार,

1.-अफसरशाह

2.-सत्तारूढ़ दल के राजनीतिज्ञ

3.-विपक्षी दलों के राजनीतिज्ञ

4.-योजनाकार (अधिकारी वर्ग)

5.-योजनाकार (स्वप्नद्रष्टा)

6.-बड़े पत्रकार

7-छोटे पत्रकार

8.-उपदेशक (धर्म संबंधी)

9.-उपदेशक (मंद बुद्धि वाले दर्शन शास्त्री और शिक्षा शास्त्ऱी)

10.-साधु संत (ढोंगी)

11.-व्यापारी तथा 

12-शिक्षा विद्

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यह सूची पेश करते हुए अब्बास ने लिखा कि 

‘‘किसी का नाम लेने की कोई जरूरत नहीं, पर वे सभी समूह

जो हमारे सामजिक जीवन को अपने कारनामों से दूषित करते हैं,उनका भंडाफोड़ करने से समाज के लोग इन गंदे लोगों और उनके खेल के बारे में जान जाएंगे।

आशा है कि इससे वे आत्म शुद्धि का मार्ग अपनाएंगे।

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 ‘‘योजना’’ के छपने के दशकों बाद के भारत पर नजर दौड़ाइएगा ।

 क्या अब्बास साहब की भोली आशा पूरी हो सकी ?

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हां, एक बात जरूर कही जा सकती है कि गंदगी साफ करने की कोशिश आज कुछ अधिक ही हो रही है।

 किंतु इस नेक कोशिश के अनुपात में समस्याएं बहुत विराट हो चुकी हैं।  

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अब अगस्त 1984 की योजना पत्रिका में प्रकाशित कुछ लेखों के शीर्षक देख लीजिए।

केंद्रीय मंत्री रहे बसंत साठे के लेख का शीर्षक है-

‘‘हम तो केवल सत्ता भोगते हैं,शासन तो अफसर चलाते हैं।’’

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खुशवंत सिंह ने लिखा कि अनेक पत्रकार बंधु गैर कानूनी ढंग से पैसे कमाते हैं।

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मधु दंडवते लिखते हैं कि मूल्यों के अनवरत ह्रास ,बढ़ते हुए जातिवाद व भ्रष्टाचार के कारण राजनीति पतन के गर्त तक जा पहुंची है।

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अफसरशाही के बारे में बिहार सरकार मुख्य सचिव रहे पी.एस.अप्पू ने लिखा है कि ‘‘जब राजनीतिक व्यवस्था पतनोन्मुख हो

और समाज में विघटन हो जैसा कि भारत में आजकल हो रहा है,तो यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि अफसरशाही को सुधारना संभव नहीं।’’

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 7 अगस्त 21



    2001 में सर्वसम्मति से तैयार की गई 

   आचार संहिता को लागू करने

    से ही लौटेगी सदन की गरिमा 

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    --सुरेंद्र किशोर--

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  विधायिकाओं में अनुशासन और मर्यादा बनाए रखने के उपायों पर विचार करने के लिए सन 2001 में एक राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया गया था।

 लोक सभा के स्पीकर जी.एम.सी.बालयोगी ने सम्मेलन बुलाया था।

 सम्मेलन में देश के विभिन्न सदनों के पीठासीन पदाधिकारी गण,प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी,लोक सभा में प्रतिपक्ष की नेता सोनिया गांधी,मुख्य मंत्रीगण तथा अन्य संबंधित गणमान्य व्यक्ति शामिल हुए।

सबने संसद व विधान मंडलों की कार्यवाही में बढ़ती अनुशासन -हीनता व घटती मर्यादा को फिर से कायम करने की जरूरत बताई।

  इसके लिए सर्वसम्मति से 29 सूत्री आचार संहिता तैयार की गई।

  उसमें अन्य बातों के अलावा यह भी तय किया गया कि यदि कोई सदस्य सदन की कार्यवाही में बाधा पहुंचाएगा या अपनी सीट छोड़कर वेल में जाएगा तो उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी।

उसे एक दिन या पूरे सत्र के लिए निलंबित कर दिया जाएगा।

आश्चर्य है कि सदनों में बढ़ते हंगामों व अशोभनीय दृश्यों

के बावजूद उस आचार संहिता पर अमल नहीं किया जा रहा है।

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कानोंकान

प्रभात खबर

पटना

13 अगस्त 21


 



विधायिकाओं में लगातार अशोभनीय दृश्यों 

से क्या सीख रहीं नई पीढियां !

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--सुरेंद्र किशोर--

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 विधायिकाओं में हंगामों व कामकाज ठप होने की समस्या इस देश में गंभीर होती जा रही है।

हाल में राज्य सभा के सभापति एम.वेंकैया नायडू को यह कहना पड़ा कि ‘‘हम दिन प्रति दिन असहाय होते जा रहे हैं।’’

उत्तर प्रदेश विधान सभा में कभी खून बहे थे तो केरल विधान सभा हुई तोड़फोड़ का मुकदमा अब भी अदालत में चल रहा है।

उस मुकदमे को हाल में सुप्रीम कोर्ट ने भी उचित ठहराया।

उससे पहले केरल सरकार विशेषाधिकार की आड़ में उस आपराधिक मुकदमे से आरोपी विधायकों को बचाना चाहती  थी।

आज भी संसद में क्या हो रहा है ?

बिहार विधान सभा में गत मार्च में क्या नहीं हुआ !

कुछ ही माह पहले कर्नाटका विधान परिषद के सभापति को जबरन उनके आसन से उठाकर कुछ सदस्यों ने अलग कर दिया।

ऐसी समस्या से देश के पीठासीन पदाधिकारीगण  

कैसे निपटें ?

समय-समय पर हुए पीठासीन पदाधिकारियों के सम्मेलनों के प्रस्तावों व सिफारिशों पर ध्यान दीजिए।

वे हंगामों से आजिज आ चुके मौजूदा पीठासीन पदाधिकारियों व सत्ताधारी दलों को राह दिखाते हैं।

  वे उनका अध्ययन करें।

उन्हें कड़ाई से लागू करें।

अन्यथा, इतिहास किसी को माफ नहीं करेगा।

आखिर मार्शल की बहाली होती ही क्यों है ?

कई दशक पहले राज्य सभा से समाजवादी नेता राजनारायण को बारी-बारी से कई बार मार्शल आउट किया गया था। 

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     एक वह भी समय था

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 कर्पूरी ठाकुर लंबे समय तक बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता रहे थे।

 वे कभी मार्शल से हाथापाई करते नहीं देखे गए ।

जब-जब पीठासीन पदाधिकारी सदस्यों को सदन से बाहर करने का मार्शल को निदेश देते थे, दिवंगत ठाकुर तथा अन्य अधिकतर प्रतिपक्षी विधायकगण खुद को मार्शल के हवाले कर देते थे।

   मार्शल उन्हें टांग कर सदन से बाहर कर देते थे।सदस्य भी हंसते हुए बाहर हो जाते थे।

किंतु आज ?

कई बार तो अत्यंत शर्मनाक स्थिति पैदा हो जाने पर भी आम तौर पर पीठासीन पदाधिकारी मार्शल का उपयोग नहीं करते।

यदि करते भी हैं तो कई माननीय सदस्य मार्शल के साथ दुश्मन जैसा व्यवहार करने लगते हैं।

यह सब देख -सुनकर इस देश की नई पीढ़ी के दिल ओ दिमाग पर हमारे लोकतंत्र की कैसी छाप पड़ती है ?

क्या ऐसी स्थिति में आज के स्कूली बच्चे खुद में जन प्रतिनिधियों व जनतंत्र के प्रति सम्मान का भाव पैदा करते हुए बड़े होते हैं ?

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सम्मान की रक्षा के लिए 

कठोर कार्रवाई जरूरी   

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 यदि लोकतंत्र व जन प्रतिनिधियों के प्रति आम लोगों में सम्मान कायम रखना हो या बढा़ना हो तो इस देश की विधायिकाओं में जारी अराजकता को समाप्त करना ही होगा।

  यदि सही ढंग से देश-प्रदेश चलाने की जिम्मेदारी सरकारों की है तो सदन की गरिमा बनाए रखने की जिम्मेदारी उसकी भी है।वैसे किसी भी सदन के ‘‘किंग आॅफ द किंग्स’’ पीठासीन पदाधिकारी ही होते हैं।

किंतु शासक दल के सक्रिय सहयोग के बिना वे सदन में अनुशासन कायम नहीं कर सकते।

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    डा.लोहिया और गैर कांग्रेसी सरकार

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सन 1967 में डा.राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसी सरकारों को एक महत्वपूर्ण सलाह दी थी।

उन्होंने कहा था कि छह महीने के भीतर कुछ ऐसे -ऐसे काम करके दिखा दो कि लोगों को कांग्रेस की पिछली सरकार और तुम्हारी इस सरकार में फर्क साफ-साफ दिखाई पड़ने लगे।

  बिहार की नीतीश सरकार विपरीत परिस्थितियों में भी जनहित के ऐसे -ऐसे काम करती जा रही है जिनसे पिछली सरकार से उसका फर्क नजर आता रहता है।

  बिहार की सत्ता से राजद के हटने के बाद लालू प्रसाद ने कहा था कि इस कठिन प्रदेश बिहार में लगातार 15 साल तक राज चला लेना कोई आसान काम नहीं है।

  परोक्ष रूप से लालू जी, नीतीश कुमार को चुनौती दे रहे थे कि दम हो तो 15 साल तक राज चलाकर दिखाओ।

  नीतीश कुमार ने दिखा भी दिया।

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काम की गति बढ़ाइए

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करीब डेढ़ साल पहले नागरिक (संशोधन)विधेयक पास हुआ।

उस पर राष्ट्रपति की मुहर भी लग गई।

फिर भी उसे अभी लागू नहीं किया जा रहा है।

आखिर क्यों ?

इसलिए कि उसकी नियमावली अब तक नहीं बनी।

हाल में सरकार ने संसद को बताया कि अगले साल  जनवरी तक वह प्रक्रिया पूरी हो जाएगी।

  उधर रोहिणी आयोग का भी लगभग यही हाल है।

सन 2017 में रोहिणी न्यायिक आयोग बना था।

  आयोग को यह जिम्मेदारी दी गई थी कि वह छह माह में अपनी रपट दे ।आयोग को यह पता लगाना था कि आरक्षण का लाभ सभी जातीय समूहों को समरूप ढंग से मिल रहा है या नहीं।

आयोग के कार्यकाल का इस बीच कई बार विस्तार किया गया।

जानकार सूत्रों के अनुसार आयोग महत्वपूर्ण व मूल काम कर भी चुका है।

किंतु उसे फाइनल रपट तैयार करने में समय लग रहा है।     ..................

और अंत में

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पचास के दशक में इस देश के राष्ट्रपति का वेतन दस हजार रुपए मासिक था।

मुद्रा स्फीति को ध्यान में रखा जाए तो आज उनका वेतन उस हिसाब से करीब साढ़े आठ लाख रुपए होना चाहिए था।

किंतु राष्ट्रपति 

को आज हर माह वेतन मद में सिर्फ 5 लाख रुपए ही मिलते हैं।

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साप्ताहिक काॅलम ‘कानोंकान’

आज के ‘प्रभात खबर’ के बिहार संस्करणों में प्रकाशित 

  


    अभी से तय होने लगे हैं 2024 के 

  लोक सभा चुनाव के मुद्दे और नारे

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जिन्ना के ‘डायरेक्ट ऐक्शन डे’ के दिन ममता का ‘खेला होबे दिवस’ बनाम नरेंद्र मोदी का ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’

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--सुरेंद्र किशोर--

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    लगता है कि पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी का सन 2024 के लोस चुनाव के लिए भी चुनावी युद्ध घोष होगा-- 

‘खेला होबे।’

पर इसमें कुछ अलग ढंग का भावनात्मक तत्व भी होगा।

यह संयोग नहीं है कि तृणमूल कांग्रेस ‘खेला होबे’ दिवस

16 अगस्त को मनाने जा रही है।

‘खेला होबे’ दिवस बंगाल तथा कुछ अन्य राज्यों में भी मनाया जाएगा।

देश के विभाजन को सुनिश्चित करने के लिए मुहम्मद अली जिन्ना ने 16 अगस्त 1946 को ‘सीधी कार्रवाई दिवस’ मनाया था।

उसके कारण बंगाल में चार दिवसीय हिंसा में 10 हजार लोग मारे गए थे। 

15 हजार लोग घायल हुए थे।

उस नर संहार ने देश के बंटवारे के लिए नेताओं को बाध्य कर दिया था।

दूसरी ओर, नरेंद्र मोदी ने हर साल 14 अगस्त को ‘‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’’ मनाने का निर्णय किया है।

    याद रहे कि 14 अगस्त, 1947 को भारत से काटकर अलग पाकिस्तान की स्थापना हुई थी।

  बंटवारा जनित हिंसा में 10 लाख लोग मरे और डेढ़ करोड़ लोग विस्थापित हुए थे।

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विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाने वाले 

यह जान चुके हैं कि कुछ लोग एक और विभाजन की पृष्ठभूमि इस देश में तैयार कर रहे हैं।

वे अंततः सफल होंगे या नहीं,यह और बात है।

वैसे विभाजनकारी लोगों को कई वोटलोलुप नेता व दल भी साथ दे रहे हंै।

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खैर जो हो !

जो होगा,देखा जाएगा।

किंतु अगले लोक सभा चुनाव का चुनावी युद्ध घोष अभी से तय होता जा रहा है।

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तृणमूल कांग्रेस का तर्क है कि 16 अगस्त 1980 को कलकत्ता में ईस्ट बंगाल फुटबाॅल क्लब और मोहन बगान एथलेटिक क्लब के समर्थकों के बीच बड़ी हिंसा हुई थी।

एक दर्जन से अधिक दर्शक मारे गए थे।

उस अवसर को याद करने के लिए 16 अगस्त को ‘खेला होब’े 

दिवस मनाया जा रहा है।

पर,तृणमूल के इस तर्क पर कौन विश्वास करेगा।

फुटबाॅल के इतिहास में किसी बड़ी उपलब्धि वाले दिवस को खेला होबे दिवस के रूप में मनाया जा सकता था।

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संकेत हैं कि ऊपर लिखे दोनों मुद्दों पर देश के लोग दो धु्रव पर रहेंगे।

 प्रेक्षकों के अनुसार सन 2022 के उत्तर प्रदेश चुनाव और अगले लोक सभा चुनाव में भी ऐसा ही होगा।

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15 अगस्त 21

   

 



  क्या कानून तोड़ना भारत में  

 सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया है ?

राहुल गांधी की ताजा टिप्पणी 

का आशय तो यही है !

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--सुरेंद्र किशोर--

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कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा है कि ट्विटर भारत की राजनीतिक प्रक्रिया में दखल दे रहा है।

    कांग्रेस व राहुल गांधी के अनुसार भारत की राजनीतिक प्रक्रिया क्या है ?

क्या यही है कि कानून तोड़कों के खिलाफ कोई कार्रवाई न हो ?

 राहुल गांधी ट्विटर व मोदी सरकार 

पर नाराज क्यों हैं ?

  एक शिकायत के बाद राहुल गांधी व उनके कुछ पार्टी जन के ट्विटर अकाउंट बंद कर दिए हैं।

  शिकायत क्या है  ?

शिकायत यह है  कि राहुल ने दिल्ली में कथित दुष्कर्म की पीड़िता नौ साल की बच्ची के माता-पिता की तस्वीर पोस्ट की।

 उनके अनेक पार्टीजन ने भी उसे शेयर किया।

जबकि वैसा पोस्ट करना पाॅक्सो और आई.पी.सी.की विभिन्न धाराओं के तहत अपराध है।

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    जब राहुल गांधी ने यह आरोप लगाया है कि ट्विटर  मोदी सरकार के इशारे पर उनका अकाउंट बंद कर भारत की राजनीतिक प्रक्रिया में दखल दे रहा है तो उसका क्या अर्थ लगाया जाए ?

यानी राहुल के अनुसार उनकी ‘राजनीतिक प्रक्रिया’ में कानून तोड़ना और उसके लिए किसी तरह सजा अस्वीकारना शामिल है।

हां,राहुल का यह आरोप विचारणीय है कि ट्विटर ऐसे अपराध के लिए भाजपा नेताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं करता।

यदि यह आरोप सही है तो कांग्रेस व राहुल गांधी को उन भाजपा नेताओं के खिलाफ अदालत की शरण लेनी चाहिए।

कांग्रेस के पास एक से एक दिग्गज वकील मौजूद हैं।

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14 अगस्त 21


 जेपी नड्डा अपने छात्र जीवन में पटना में थे।

वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में थे।

वे परिषद की गतिविधियों से संबंधित प्रेस विज्ञप्तियां 

भी पटना के अखबारों के दफ्तरों में पहुंचाते थे।

मैं तब दैनिक ‘आज’ में मुख्य संवाददाता का काम देखता है।

इसलिए मैं प्रत्यक्षदर्शी हूं।

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उधर नरेंद्र मोदी कभी नई दिल्ली में अपनी पार्टी के प्रेस कंाफ्रेंस में आने वाले संवाददाताओं के लिए कुर्सियां भी सजा देते थे।

दोनों आज शीर्ष पदों पर हैं।

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इस देश में अब ऐसे कितने राजनीतिक दल हैं जिनके सरजमीनी कार्यकत्र्ता आज शीर्ष पदों पर पहुंचने की उम्मीद रखते हैं ?

वैसे कई दलों में तो एमपी-विधायक फंड के ठेकेदार ही कार्यकत्र्ता की भूमिका में हैं।

वैसे जन प्रतिनिधियों  के लिए यह अनुकूल स्थिति है जो अपने परिजन को ही अपनी जगह टिकट दिलवाना चाहते हैं और दिलवाते भी हैं।

यदि उनके क्षेत्र में कोई अच्छी मंशा वाला कार्यकत्र्ता उभरेगा तो वह टिकट का दावेदार भी बन सकता है।

 ऐसी स्थिति क्यों आने दिया जाए !!!

 इसलिए अंगुली पर गिने जाने लायक जन प्रतिनिधि ही सांसद -विधायक फंड की समाप्ति के पक्ष में हैं।

जबकि, नरेंद्र मोदी सांसद फंड बंद करने के पक्ष में हैं।

पर नहीं कर पा रहे हैं।

नीतीश कुमार ने तो कुछ साल पहले विधायक फंड बंद भी कर दिया था।

पर फिर उन्हें शुरू करना पड़ा।

इन फंडों की अपार महिमा तो देखिए !

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--सुरेंद्र किशोर

9 अगस्त 21


 स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर

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आज भी याद आते हैं ‘फिरंगिया’ 

के लेखक प्रिंसिपल मनोरंजन बाबू

मैंने जब छपरा के राजेंद्र काॅलेज में सन 1964 में 

बी.एससी.-पार्ट-वन में अपना नाम 

लिखवाया,उससे करीब तीन या चार साल पहले ही मनोरंजन बाबू उस काॅलेज के प्राचार्य पद से रिटायर हो चुके थे।

  पर, बाद में भी  कालेज में अक्सर उनका नाम बहुत आदर से लिया जाता था।

 कोई उनके एक गुण की चर्चा करता तो कोई उनकी  दूसरी  उपलब्धियों की।

उनकी मशहूर रचना ‘फिरंगिया’ तो अनेक लोगों की जुबान पर थीं।

  वे मूलतः अंग्रेजी के शिक्षक थे,पर वे भोजपुरी बहुत सहजता से बोलते-लिखते  थे ।

‘फिरंगिया’ भोज पुरी में ही है।

 एक बार कालेज परिसर में  कुछ छात्र किसी बात पर शोर कर रहे थे।

मनोरंजन बाबू उनके पास गए।

 उन्होंने छात्रों से भी कविता में बात कर  ली।

‘ हड़बड़ कइले, गड़गड़ होई,

बढ़-चढ़ बात करे ना कोई !’

इस पर वे हंसते हुए अपने -अपने क्लास में चले गए।

दरअसल उनकी नैतिक धाक का कमाल था।

 मनोरंजन बाबू ने इलाहाबाद विश्व विद्यालय में  एम.ए.अंग्रेजी में टाॅप किया था। 

मदन मोहन मालवीय उन्हें बी.एच.यू. में ले गए।

 वहां कुछ दिनों तक उन्होंने अंग्रेजी पढ़ाई।

 बाद में राजेंद्र कालेज में प्राचार्य होकर आ गए।

असहयोग आंदोलन के समय मनोरंजन बाबू ने ‘फिरंगिया’ नाम से  देशभक्ति का गीत लिखा।

बाद में वह गीत स्वतंत्रता सेनानियों की जुबान पर था।

 एक शिक्षक,एक प्रशासक व एक साहित्यकार के रूप में उन्होंने अपना एक विशेष स्थान बनाया था।

हालांकि उनके प्रशंसकों को यह अफसोस रहा कि उन्होंने अपनी प्रशासनिक जिम्मेदारियों में व्यस्त रहने के कारण अधिक लेखन नहीं किया।

जबकि उनमें लेखन प्रतिभा अद्भुत थी।

हालांकि उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखी थीं।

1942 में वे बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के मोतिहारी अधिवेशन के अध्यक्ष हुए थे। 

 वैसे राजेंद्र काॅलेज को एक बेहतर काॅलेज बनाने में उनका योगदान अतुलनीय रहा।

उन दिनों भी बिहार में ऐसे कम ही काॅलेज थे जहां आर्ट,साइंस और काॅमर्स तीनों की पढ़ाई होती थी।

राजेंद्र कालेज में भी ऐसा था।

राजेंद्र काॅलेज के विस्तृत परिसर और बड़े -बड़े क्लास रूम और समृद्ध प्रयोगशालाओं को तो मैंने एक छात्र के रूप में खुद भी देखा और उपयोग किया था। 

 मुझे भी इस बात का अफसोस रहा कि मैं उन्हें वहां काम करते नहीं देख सका था।

पर उनके नाम की सुगंध तब भी मौजूद थी।

फिलहाल देश प्रेम जगाने वाली उनकी ऐतिहासिक रचना ‘फिरंगिया’ यहां प्रस्तुत है।

संभव है कि मुझसे उसकी एक- दो पंक्तियां छूट गयी हों।--

--सुरेंद्र किशोर 

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      --फिरंगिया--

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 संुदर सुघर भूमि भारत के रहे रामा,

आज उहे भइल मलीन रे फिरंगिया।

अन्न-धन-जन -बल बुद्धि सब नास भइल,

कवनो  के ना रहल निसान रे फिरंगिया।

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जहवां थोड़े ही दिन पहिले होत रहे,

लाखों मन गल्ला और धान रे फिरंगिया।

उंहवे पर आज रामा मथवा पर हाथ धके,

बिलखी के रोवे ला, किसान रे फिरंगिया।

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घिउवा आ दूधवा के नदिया बहत जहां,

उहवां बहेला रक्तधार रे फिरंगिया।

जहवां के लोग सब खात ना अघात रहे,

रुपया से रहे मालामाल रे फिरंगिया।


उहें आज जेने जेने अखियां घुमा के देखीं,

तेने तेने देखबे कंगाल रे फिरंगिया।

हमनी के पसु से रे हालत खराब कइले,

पेटवा के बल रेंगवउले रे फिरंगिया।

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एको जो रोऊवा निरदोसिया के कलपी ते,

तोर नास होई जाई सुन रे फिरंगिया।

दुखिया के आह तोर देहिया के भसम कै देई,

जरि भुनि होई जइबे रे फिरंगिया।

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स्वाधीनता हमनी के नामो के रहल नाहीं,

अइसन कानून के बा जाल रे फिरंगिया।

प्रेस एैक्ट ,आम्र्स ऐक्ट,इंडिया डिफंेस एैक्ट,

सब मिली कइलस ई हाल रे फिरंगिया।

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भारत के छाती पर भारत के बचपन के,

बहल रक्तवा के धार रे फिरंगिया।

घरे लोग भूख मरे गेहुंआ विदेस जाए,

कइसन बा विधि के विधान रे फिरंगिया।

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मरदानापन अब तनिको रहल नाहीं,

ठकुरसुहाती बोले रे फिरंगिया।

रात दिन करेले खुसामद सहेबवा के,

सहेले विदेसिया के लात रे फिरंगिया।

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चेति जाउ,चेति जाउ भैया रे फिरंगिया तें,

छोड़ दे अधरम के पंथ रे फिरंगिया।

छोड़ के कुनीतियां सुनीतिया के बांह गहु,

भला तोर करी भगवान रे फिरंगिया।

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14 अगस्त 21

 


 अफगानी सेना में फैले भ्रष्टाचार ने 

तालिबानियों की जीत आसान कर दी

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काश ! अफगानी सेना व वहां के पिछले शासक 

ने सन 1962 के भारत से सबक सीखा होता !

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--सुरेंद्र किशोर--

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  सन 1962 का चीनी हमला और हमारी सैनिक तैयारी 

का हाल तब के एक युद्ध संवाददाता के शब्दों में पढ़िए-

 देश के प्रमुख पत्रकार मनमोहन शर्मा के अनुसार,

‘‘एक युद्ध संवाददाता के रूप में मैंने चीन के हमले को कवर किया था।

  मुझे याद है कि हम युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे।

 हमारी सेना के पास अस्त्र,शस्त्र की बात छोड़िये,कपड़े तक नहीं थे।

 नेहरू जी ने कभी सोचा ही नहीं था कि 

चीन  हम पर हमला करेगा।

एक दुखद घटना का उल्लेख करूंगा।

अंबाला से 200 सैनिकों को एयर लिफ्ट किया गया था।

उन्होंने सूती कमीजें और निकरें पहन रखी थीं।

उन्हें बोमडीला में एयर ड्राप कर दिया गया

जहां का तापमान माइनस 40 डिग्री था।

वहां पर उन्हें गिराए जाते ही ठंड से सभी बेमौत मर गए।’’

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1962 युद्ध से पहले सेना ने जरूरी सामान खरीद के लिए भारत सरकार से एक करोड़ रुपए मांगे थे।

नेहरू सरकार ने नहीं दिए।

दूसरी ओर,जीप घोटाला,धर्मतेजा शिपिंग घोटाला व न जाने और कैसे -कैसे घपले-घोटाले हो रहे थे !

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दूसरी ओर, तब भी सरकारी पैसे किस तरह भ्रष्टाचार के जरिए लूटे जा रहे थे,उसका हाल 1963 में खुद कांग्रेस अध्यक्ष डी.संजीवैया ने इंदौर के एक भाषण ने इन शब्दों में बताया था,

‘‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे।’’

गुस्से में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने  यह भी कहा था कि ‘‘झोपड़ियों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’’

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चीन-भारत युद्ध का नतीजा क्या हुुआ था,यह दुनिया जानती है।

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मोदी राज में स्थिति थोड़ी बदली है।

आज हमारी सरकार में भ्रष्टाचार अपेक्षाकृत कम है।

हालांकि देश को बचाने के लिए उसे और कम होना चाहिए।

सैनिक तैयारी की दृष्टि से भी इस देश की स्थिति आज बेहतर है।

फिर भी इन दोनों मामलों में हमारी सरकार को अभी बहुत कुछ करना चाहिए ।

तभी हम बाहरी व भीतरी दुश्मनों का मुकाबला सफलतापूर्वक कर पाएंगे।

  बाहरी से अधिक भीतरी दुश्मन अधिक खतरनाक इरादे वाला है।

उसके इरादों को जानने-समझने-मानने के लिए इस देश के अधिकतर ‘बुद्धिजीवी’ तथा नेतागण तैयार ही नहीं हैं।

ऐसा कुछ गैर जानकारी तो कुछ स्वार्थवश है।

यह स्थिति और भी खतरनाक है।

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16 अगस्त 21  



 


   टुकड़ों में संभव नहीं राजनीति के अपराधीकरण का इलाज

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       --सुरेंद्र किशोर--

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  सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही कहा है कि ‘‘इस देश की राजनीतिक प्रणाली में दिन प्रति दिन अपराधीकरण बढ़ रहा है।

राजनीति को स्वच्छ करने के लिए विधायिका को चिंतित होना चाहिए।’’

  पर, सवाल है कि क्या सिर्फ विधायिका के बूते की यह बात है ?

दरअसल इस समस्या के हल के काम में विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका को साथ- साथ लगना होगा।

अब तक अपराधीकरण के खिलाफ कुछ ठोस कदम न्यायपालिका व चुनाव आयोग ने ही उठाए हैं।

आगे भी निर्णायक भूमिका उन्हीं की होगी।

विधायिका से अधिक उम्मीद मत कीजिए।

 सन 2002 में यदि सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रुख नहीं अपनाया होता तो उम्मीदवारों के आपराधिक रिकाॅर्ड और संपत्ति का विवरण भी लोग आज नहीं जान पाते।

  लेकिन यह तो इस समस्या को टुकड़ों में देखना हुआ।

राजनीति में अपराधीकरण की समस्या क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की विफलता से जुड़ी हुई है।

इसकी और अधिक पड़ताल के लिए सुप्रीम कोर्ट को कोई कदम उठाना चाहिए।

 जब पुलिस व प्रशासन किसी पीड़ित की मदद नहीं करते तो वह किसी स्थानीय बाहुबली के पास जाता है।

उसे यदि वहां से मदद मिल जाती है तो वह बाहुबली धीरे -धीरे अपने इलाके में लोकप्रिय होने लगता है।

उनमें से कुछ बाहुबली चुनाव भी लड़ते हैं और जीत भी जाते हैं।हर बाहुबली सिर्फ जोर-जबर्दस्ती से ही नहीं जीतता।

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   आपराधिक न्याय व्यवस्था को बेहतर 

   बनाने की जरूरत 

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   अदालती सजाओं का प्रतिशत बढ़ने से बाहुबलियों का समाज और राजनीति पर से असर कम होगा।

अभी आई.पी.सी.के तहत दर्ज मुकदमों में सजाओं की दर इस देश में करीब 50 प्रतिशत है।

यानी जितने भ्रष्ट व अपराधी आरोपित होते हैं,उनमें से आधे लोग अदालतों से सबूत के अभाव में छूट जाते हैं।या फिर गवाह बदल जाते हैं।

  पुलिस इनमें से कई मामलों में आरोपियों का पुलिस थानों में टार्चर करके ही अन्य आरोपी व सबूत तक पहुंच पाती है।

किंतु सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में ऐसे टार्चर के खिलाफ अपनी सख्त राय प्रकट की है।

  अदालत ने ठीक कहा है।टार्चर अमानवीय भी है।

  किंतु किसी केस के अनुसंधान में एक अन्य तरीके से भी मदद मिल सकती है।

  वह है नार्को टेस्ट,डी एन ए टेस्ट,पालीग्राफिक टेस्ट और   ब्रेन मैपिंग ।   

सी.बी.आई.ने करीब 13 हजार करोड़ रुपए के घोटाले के आरोपी बैंक अफसर के नार्को टेस्ट के लिए  

कोर्ट से अनुमति मांगी।

कोर्ट ने नहीं दी।

 सन 1999 में पटना में गौतम और शिल्पी जैन की हत्या कर दी गई।

हत्या से पहले शिल्पी के साथ बलात्कार हुआ था।

आरोपी ने डी.एन.ए.टेस्ट के लिए अपने खून का नमूना देने से साफ मना कर दिया।

इस केस में किसी को सजा नहीं हुई।

सुप्रीम कोर्ट ने ही यह आदेश दे रखा है कि किसी की इच्छा के खिलाफ उसका डी.एन.ए.आदि जांच नहीं हो सकती।

फिर तीसरा उपाय क्या है जिसके जरिए जांच एजेंसियां सबूतों व अन्य आरोपियों तक पहंुच सके ?

सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वह जांच एजेंसियों का इस दिशा

में मार्ग दर्शन करे।साथ ही क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की बेहतरी की राह के रोड़ों को  भी अदालत हटाए। 

अन्यथा,पीड़ित लोग बाहुबलियों के पास जाते रहेंगे और अपराधीकरण बढ़ता रहेगा।


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  आचार संहिता को लागू करने

    से लौटेगी सदन की गरिमा 

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विधायिकाओं में अनुशासन और मर्यादा बनाए रखने के उपायों पर विचार करने के लिए सन 2001 में एक राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया गया था।

 लोक सभा के स्पीकर जी.एम.सी.बालयोगी ने सम्मेलन बलाया था।

 सम्मेलन में पीठासीन पदाधिकारी ,प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी,लोक सभा में प्रतिपक्ष की नेता सोनिया गांधी,मुख्य मंत्री तथा अन्य संबंधित गणमान्य व्यक्ति शामिल हुए।

सबने संसद व विधान मंडलों की कार्यवाही में बढ़ती अनुशासन हीनता व घटती मर्यादा को फिर से कायम करने की जरूरत बताई।

  इसके लिए सर्वसम्मति से 29 सूत्री आचार संहिता तैयार की गई।

  उसमें अन्य बातों के अलावा यह भी तय किया गया कि यदि कोई सदस्य सदन की कार्यवाही में बाधा पहुंचाएगा या अपनी सीट छोड़कर वेल में जाएगा तो उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी।

उसे एक दिन या पूरे सत्र के लिए निलंबित कर दिया जाएगा।

आश्चर्य है कि सदनों में बढ़ते हंगामों व अशोभनीय दृश्यों

के बावजूद उस आचार संहिता पर अमल नहीं किया जा रहा है।

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 आरक्षण पर कांग्रेस का

 बदला-बदला  रुख

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राज्य सभा में प्रतिपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग की है।

 उन्होंने आरक्षण की अधिकत्तम सीमा यानी 50 प्रतिशत को बढ़ा देने की भी जरूरत बताई है।

जरा देखिए !

कांग्रेस कहां से चलकर कहां पहुंच गई !

 मंडल आरक्षण की रपट 1980 में ही आ गई थी।

किंतु  कांग्रेस सरकार ने उसे लागू नहीं किया।

1990 में वी.पी.सिंह सरकार ने लागू किया।

उस पर तब के प्रतिपक्ष के नेता राजीव गांधी ने संसद में ऐसा गोलमटोल भाषण किया जिससे पिछड़ों को लगा कि कांग्रेस आरक्षण के पक्ष में नहीं है।

  इसका चुनावी नुकसान कांग्रेस को हुआ।

काश ! 1980 और उसके बाद के वर्षों में कांग्रेस के नेतृत्व ने इस मामले में दूरदर्शिता दिखाई होती।

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 और अंत में

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उसी दल की सरकार देश या प्रदेश को बेहतर बना सकती है जिसे अगले चुनाव में हारना मंजूर हो।

विभिन्न हलकों में निहितस्वाथियों की ताकत देखते हुए

ही यहां यह कहा जा रहा है।

लेकिन एक बार हार जाने के बाद अगले चुनाव में लोगबाग उसी दल को फिर से सत्ता में लाएंगे जिसने पिछली बार अच्छी मंशा के साथ देश-प्रदेश को बेहतर बनाने की कोशिश की थी।

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13 अगस्त 2021 के दैनिक ‘‘प्रभात खबर,’’पटना में प्रकाशित मेरे साप्ताहिक काॅलम कानोंकान से

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प्रधान मंत्री जी, कल लाल किले से घोषित कीजिए

-- ‘‘भ्रष्टों के लिए फांसी का कानून बनेगा।’’

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भ्रष्टाचारियों की ओर इंगित करते हुए 15 अगस्त 2014 को  नरेंद्र मोदी  ने कहा था,

‘‘मेरा क्या ?’’ और ‘‘मुझे क्या !’’

की प्रवृति से बाहर निकलना होगा।

पर, वे बाहर नहीं निकले।

अब उनके लिए कड़वी दवा की जरूरत है।

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--सुरेंद्र किशोर--

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 इसे कहेंगे -छोटा मुंह, बड़ी बात !!

फिर भी मेरी यह सलाह है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी कल लाल किले से एक खास घोषणा करें।

  वह भ्रष्टाचारपीड़ित देश को आश्वासन दें कि भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी का प्रावधान करने के लिए कानून बनाया जाएगा।

  मुझे लगता है कि उसके बिना इस देश को आने वाले दिनों में भारी संकट झेलना पड़ेगा।

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15 अगस्त, 2014 को लाल किले से मोदी जी ने सरकारी दफ्तरों का हाल बताते हुए कहा था कि किसी काम के लिए किसी के यहां जाइए तो वह पूछता है कि ‘‘इसमें मेरा क्या ?’’

(यानी, मुझे कितना मिलेगा।)

जब उसे बताया जाता है कि उसे कुछ नहीं मिलेगा तो वह कहता है कि ‘‘तो फिर मुझे क्या ?’’

यानी, मैं यह काम नहीं करूंगा।’’

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 प्रधान मंत्री की जिम्मेदारी निभाते को साढ़े सात साल हो गए।

खुद उनके और उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों के बारे में अब तक किसी बड़े घोटाले की खबर नहीं आई है।

खुद मोेदी जी के बारे में तो आ भी नहीं सकती।

क्योंकि वे दूसरी ही मिट्टी के बने हैं।

किंतु क्या यही बात उनकी सरकार के अन्य अंगों के बारे में कही जा सकती है ?

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मैं खुद एक भोली आशा में जी रहा था।

मुझे लगता था कि यदि कोई ऐसा प्रधान मंत्री इस देश की गद्दी पर बैठे जो न तो खुद खाए और न किसी के खाने की राह प्रशस्त करे तो देश में भारी फर्क पड़ेगा।

मोदी जी ने शुरू में ही कहा था कि ‘‘मैं न तो खाऊंगा और न खाने दूंगा।’’

खुद को लेकर उन्होंने इस वादा को पूरी तरह निभाया।

साथ ही, वैसा काम भी नहीं किया जिससे किसी कुर्सीधारी को यह प्र्रेरणा मिले कि वह खा सकता है।

  फिर भी सरकार के विभिन्न स्तरों पर खाने वाले खा ही रहे हैं।लोगाबाग पीड़ित हो रहे हैं।

  वैसे लोगों के दिल ओ दिमाग में फांसी का भय पैदा करना अब जरूरी हो गया है।

  सेंटर फाॅर पाॅलिसी रिसर्च के सिनियर फेलो राजीव कुमार ने मार्च, 2014 में लिखा था कि 

‘‘देश का सबसे बड़ा दुश्मन भ्रष्टाचार है।

यह देश के लिए दीमक की तरह है।’’

ऐसी बात अन्य अनेक नामी गिरामी लोग कहते रहे हैं।

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  आने वाले दिन इस देश के लिए कठिन होने वाले हैं।

बाह्य व आंतरिक सुरक्षा पर भारी धन खर्च करना होगा।

जितना खतरा बाहरी दुश्मन देशों से है,उससे कम खतरा भीतरघातियों से नहीं है।

यदि सरकारी धन इसी तरह भ्रष्टाचार में लूटे जाते रहेंगे तो 

देश की सुरक्षा और विकास के लिए धन की कमी हो जाएगी।

हालांकि मोदी सरकार ने बड़ी मात्रा में लूट को रोका भी है।

पर वह काफी नहीं।

चीन आज दुनिया के दारोगा की भूमिका अमेरिका से छीन लेने के लिए प्रयत्नशील है ।

 उसके पीछे चीन की  आर्थिक ताकत है।

आर्थिक ताकत से सामरिक ताकत बढ़ती है।

 ऐसा इसलिए भी संभव हुआ क्योंकि चीन में ए ग्रेड के भ्रष्टों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान है।

2013 में चीन के  पूर्व रेल मंत्री को फांसी की सजा दी गई थी।

बाद में उसे आजीवन कारावास में बदल दिया गया। 

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इसलिए इस देश में भी ऐसी व्यवस्था हो कि ए ग्रेड के भ्रष्टों यानी बड़े भ्रष्टों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान हो।

  बी-ग्रेड के भ्रष्टों के लिए आजीवन कारावास और उसकी अपेक्षा कम पैसांे का घोटाला करने वालों के लिए कम से कम 10 साल की सजा का प्रावधान हो।ऐसा होने पर जरूर फर्क पड़ेगा।

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इस देश के जो लोग भ्रष्टाचार के लाभुक नहीं हैं,वे मेरी सलाह को पसंद करेंगे।

जो लोग विभिन्न क्षेत्रों में फैले भ्रष्ट तत्वों से पीड़ित हुए हैं या हो रहे हैं,वे तो कुछ ज्यादा ही पसंद करेंगे।

करेंगे तो नहीं किंतु यदि मोदी जी इस दिशा मंे कदम उठा लें तो उनका जन समर्थन भी काफी बढ़ जाएगा।

वैसे भी नो रिस्क, नो गेन !!

हालांकि इस कदम में कोई रिस्क नहीं है, गेन ही गेन है।

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--14 अगस्त 21


   


सोमवार, 9 अगस्त 2021

 विपक्षी दलों की बेचैनी के निहितार्थ 

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   --सुरेंद्र किशोर--

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   अपनी गोलबंदी के जरिए विपक्ष सत्ता में बदलाव का डर दिखाकर जांच एजेंसियों पर दबाव डालने में लगा है कि उसके नेताओं के खिलाफ मामलों में तेजी न दिखाई जाए

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  लोक सभा के अगले चुनाव में अभी ढाई साल से अधिक का समय है।

 फिर भी विपक्षी दल अभी से ही नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ गोलबंद होने की कोशिश करने लगे हैं।

  वे आखिर इतनी जल्दीबाजी में क्यों हैं ?

सत्ता के प्रति उनमें कटुता की इतनी अधिक भावना क्यों है ?

      इसके दो कारण नजर आ रहे हैं।

 एक तो अगले साल उत्तर प्रदेश और कुछ अन्य राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। 

  उसके लिए प्रतिपक्ष को अपने पक्ष में माहौल बनाना है।

 प्रतिपक्ष के कई दलों के सामने एक और बड़ी समस्या है।

 वह यह कि उनके कई नेताओं और रिश्तेदारों के खिलाफ जारी भ्रष्टाचार के मुकदमों में उन्हें कोई राहत मिलती नजर नहीं आ रही है।

  दरअसल भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी सरकार की शून्य सहनशीलता नीति ने यह स्थिति पैदा कर दी है।

  हालांकि अतीत में भी भ्रष्टाचार के मुकदमे देश में दर्ज होते थे।

  किंतु तब जल्दी -जल्दी सरकारें बदल जाने के कारण मुकदमों को आम तौर पर दबा या दबवा दिया जाता था।

 एक गैर कांग्रेसी सरकार के प्रधान मंत्री कहा करते थे कि एक खास राजनीतिक परिवार को नहीं ‘छूना’ है।

  मोदी सरकार में उस परिवार के साथ -साथ देश के अनेक नेताओं और घरानों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप में मुकदमे चल रहे हैं।

वे सुनवाई के विभिन्न स्तरों पर हैं।

अगले 34 महीनों में पता नहीं, कितने मुकदमों में क्या-क्या निर्णय हो जाए !

इनके आरोपितों को लगता है कि यदि वे भाजपा विरोधी प्रतिपक्ष को जल्द से जल्द एक करने में सफल हो गए तो 

अभी से केंद्रीय जांच एजेंसियों पर मनोवैज्ञानिक दबाव डाल सकेंगे कि हम सत्ता में आने ही वाले हैं।

  इसलिए मामले में आप ज्यादा तेजी मत दिखाइए।

लेकिन लोक सभा से पहले उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव होंगे।

  प्रतिपक्ष की कोशिश है कि उसके लिए भी मोदी विरोधी माहौल बनाना जरूरी है।

  उनके अनुसार लोगों को यह बताया जाना चाहिए कि मोदी सरकार संसद चलाने में भी विफल है।

 हालांकि लोग देख रहे हैं कि संसद में व्यवधान कौन पैदा कर रहा है।

वैसे तो अगले ढाई साल में कौन सी राजनीतिक,गैर राजनीतिक घटना होगी,उसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।

  यह भी नहीं कहा जा सकता कि उसका राजनीति व चुनाव पर कैसा असर पड़ेगा।

किंतु आज की राजनीतिक स्थिति यह है कि नरेंद्र मोदी का पलड़ा भारी लगता है।

 मोदी के 40 प्रतिशत वोटों के खिलाफ प्रतिपक्ष के 60 प्रतिशत 

मतों की गोलबंदी विपक्षी कोशिशों के केंद्र में है।

 हालांकि यह दिवास्वप्न की तरह ही लगता है।

पिछले चुनावों में कई राज्यों में राजग को 50 प्रतिशत वोट मिल चुके हैं।

  कुछ अन्य राज्यों में राजग के खिलाफ प्रतिपक्ष की पूर्ण एकता असंभव जैसा लक्ष्य है।

  उत्तर प्रदेश इसका एक उदाहण है।

बंगाल के हालिया विधान सभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को 47 दशमलव 97 प्रतिशत और भाजपा को 38 दशमलव 09 प्रतिशत वोट मिले।

 2019 के लोक सभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को 43 प्रतिशत और भाजपा को 40 प्रतिशत वोट मिले थे।

बंगाल के गत विधान सभा चुनाव में कांग्रेस को 2 दशमलव 94 प्रतिशत और माकपा को 4 दशमलव 72 प्रतिशत मत मिले।

एक कांग्रेसी नेता के अनुसार कांग्रेस समर्थक मुसलमानों ने 

आखिरी वक्त में तृणमूल के उम्मीदवारों को वोट दे दिए।

 माकपा के अधिकतर समर्थकों ने भी यही काम किया।

 अब सवाल है कि जितने मत माकपा और कांग्रेस को मिले,उनमें से कितने वोट अगले चुनाव में भी इन विलुप्त होते दलों को मिल पाएंगे ?

  हारते हुए उम्मीदवारों को कितने लोग वोट देते हैं ?

यानी कांग्रेस और माकपा के बचे- खुचे वोट दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी दलों तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच बंट सकते हैं।

कुछ अन्य राज्यों में भी यही हाल रहने वाला हैं

 हालांकि 2024 के लोक सभा चुनाव परिणाम के बारे में अभी कुछ कहना जल्दीबाजी होगी, किंतु इतना कहा जा सकता है कि राजग विरोधी दलों की आशावादिता का अभी ठोस आधार नजर नहीं आ रहा है।

   अब जरा दो विपरीत स्थितियों की कल्पना कीजिए।

राजग यदि तीसरी बार जीत गया तो क्या होगा ?

 दूसरी ओर, राजग विरोधी गठबंधन जीत गया तो क्या-क्या होगा ?

  राजग की जीत के बाद बड़े -बड़े नेताओं,उनके परिजनों   और व्यापारियों के खिलाफ जारी अधिकतर मुकदमों के फैसले नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल में संभवतः आ जाएंगे।

 उनसे कई -बड़े नेताओं और घरानों की राजनीति का अवसान संभव है।

   जाहिर है कि आरोपित नेता और व्यापारी गण आज अपने होशोहवास में नहीं होंगे।

  अब आप इसके विपरीत स्थिति की कल्पना कीजिए।

 यदि 2024 में मिलीजुली सरकार बन जाएगी तो क्या होगा ?

उस सरकार का पहला काम तो यही होगा कि नेताओं,उनके परिजनों और समर्थक व्यापारियों के खिलाफ जारी मुकदमों को या तो बंद किया जाए या फिर उन्हें कमजोर किया जाए।

जिनके खिलाफ मुकदमे चल रहे हैं ,उनमें कश्मीर से कन्याकुमारी तक और हरियाणा से बंगाल तक के नेतागण शामिल हैं।

 आप सहज अनुमान लगा सकते हैं कि उनके खिलाफ जारी मुकदमे जब कमजोर हो जाएंगे तो देश के शासन और राजनीति पर उसका कैसा असर पड़ेगा ?

भ्रष्टाचार, अपराध और आतंकवाद में तेजी आएगी या कमी ?

  सरकार बदलने पर मुकदमे कैसे कमजोर किए जाते हैं,

इसके कुछ उदाहरण यहां पेश हैं।

  कांग्रेस की मदद से केंद्र में सन 1979 में चैधरी चरण सिंह की सरकार बनी थी।

  जब उन्होंने संजय गांधी पर जारी मुकदमों पर पर्दा डालने से मना कर दिया तो कांग्रेस ने उनकी सरकार गिरा दी।

 सन 1080 में लोक सभा के चुनाव हुए।

 कांग्रेस सत्ता में आई।

फिर सारे मुकदमे रफा -दफा कर दिए गए।

  नवंबर, 1990 में केंद्र में कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर

की सरकार बनी थी।

 जब प्रधान मंत्री चंद्रशेखर ने बोफोर्स केस को बंद करने से मना कर दिया तो उनकी भी सरकार गिरा दी गई।

 फिर 1991 में कांग्रेस की सरकार बनी।

किंतु कांग्रेस के पास खुद का बहुमत नहीं था।

 इसलिए तत्कालीन प्रधान मंत्री पी.वी.नरसिंह राव पर आरोप लगा कि उन्होंने अपनी सरकार बचाने के लिए कुछ सांसदों से सौदा किया।

  यानी, इस देश की राजनीति का कुछ और पतन हुआ।

 साफ है कि यदि मोदी सरकार भ्रष्टाचार और आतंकवाद के खिलाफ शून्य सहनशीलता की नीति पर लगातार चल पा रही है तो इसका सबसे बड़ा कारण सन 2014 और सन 2019 के लोक सभा चुनावों में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलना था।

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8 अगस्त, 2021 के दैनिक जागरण और 

नईदुनिया(मध्य प्रदेश) में एक साथ प्रकाशित


  

   

 

 


 

शुक्रवार, 6 अगस्त 2021

 


रिश्वतखोरों के खिलाफ मुकदमों की 

राज्य स्तरीय निगरानी जरूरी

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-- सुरेंद्र किशोर --

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आए दिन रिश्वत लेते सरकारी कर्मी गिरफ्तार होते रहते हैं।

उनके खिलाफ केस भी चलते हैं।

पर, अंततः क्या होता है ?

 इस बात का पता कम ही चल पाता है कि उनमें से कितनों को अदालती सजा हो पाती है।

 जहां तक मेरी जानकारी है, ऐसे मामलों की अलग से राज्यस्तरीय और कड़ी मोनीटरिंग नहीं होती।

सजा होते तो कम ही देखा-सुना जाता है।

 नतीजतन भ्रष्ट सरकारी कर्मी जेल से छूटते ही एक बार फिर अपने पुराने धंधे में लग जाते हैं।

   ऐसे में यदि कोई फरियादी कहता है कि उसे सरकारी आॅफिस में कहा जाता है कि सी.एम.क्या पी.एम.के यहां जाओ,पैसे के बिना यहां कोई काम नहीं होगा,तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होता।

क्या राज्य सरकार भ्रष्टाचार के प्रति शून्य सहनशीलता वाले किसी सेवारत या रिटायर अफसर के नेतृत्व में एक कोषांग गठित कर ऐेसे मुकदमों की निरंतर निगरानी करवाएगी ?

शायद उसके जरिए सबक सिखाने लायक अदालती सजा दिलवा जा सके !  

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   कब बंद होगा सदनों में हंगामा 

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देश भर के पीठासीन पदाधिकारी जब कभी इकट्ठा होते हैं तो वे इस बात की चर्चा करते हैं कि ‘‘विधायिका में बढ़ते शोर -शराबा,हिंसा व उदंडता को देखते हुए बैठक को सुचारू रूप से चलाना दिन प्रति दिन कठिन होता जा रहा है।’’

यानी,इस देश में अयोध्या विवाद खत्म हो सकता है।

तीन तलाक के खिलाफ कानून बन सकता है।

योगी आदित्यनाथ तो उत्तर प्रदेश में कई असंभव सा दिखने वाले काम कर सकते हैं ।

किंतु हमारे हुक्मरान लोकतंत्र के मंदिर में शालीनता और गरिमा कायम नहीं कर सकते हैं !!

  यह सब जान-सुनकर अनेक लोगों को दुख होता है। 

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 मंडल दिवस पर आत्म निरीक्षण

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मंडल आरक्षण का श्रेय लेने वाले आज के नेताओं को ‘मंडल दिवस’ (7 अगस्त ) पर जरा आत्म निरीक्षण भी कर लेना चाहिए।

केंद्रीय सेवाओं में पिछड़ों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान वी.पी.सिंह सरकार ने सन 1990 में किया था।

1993 में सुप्रीम कोर्ट ने भी उस आरक्षण पर अपनी मुहर लगा दी।

यानी, तब से यह लागू भी हो गया।

किंतु इतने साल बीत जाने  पर भी औसतन 15 प्रतिशत सीटें ही भर पाती हंै।

  अनेक मंडलवादी नेता इस बीच केंद्र सरकार के बड़े -बड़े पदों पर रहे।

  उन्होंने 15 प्रतिशत को बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने की दिशा में कौन का कदम उठाया ?

हां, इस बीच उनमें से कुछ नेताओं ने  27 प्रतिशत को बढ़ा देने की मांग जरूर की ।

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भूली बिसरी याद

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26 मई, 1950 को बिहार विधान सभा में कांग्रेस के एक प्रमुख सदस्य ने याद रखने वाला भाषण दिया था।

वे साठी लैंड रेस्टोरेशन विधेयक पर वे बोल रहे थे।

 उस विधेयक के जरिए भूमि के गलत आवंटन को रद करना था।

चम्पारण जिले के साठी की भूमि का आबंटन कांग्रेस के तब के बड़े -बड़े नेताओं व उनके करीबियों के नाम कर दिए गए थे।

वह विधेयक उप प्रधान मंत्री व गृह मंत्री सरदार पटेल के दबाव से लाया गया था। 

 नेता जी के भाषण से तब ही यह लग गया था कि आजादी के बाद के हमारे नये हुक्मरान इस प्रदेश को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं।

  उनके भाषण के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हंै।

‘‘.......मैं कहता हूं कि इस जमीन को बंदोबस्त करने में कोई गुनाह नहीं हुआ है।

क्या हमें भी यह अधिकार नहीं है कि देश की सेवा करते हुए

अपने बाल -बच्चों की परवरिश के लिए चंद तरह के व्यवसाय की व्यवस्था करें ?

या किसी राज या जमींदार से जमीन लेकर जोतें ?

मैं इतना तक कहूंगा कि कांग्रेस ने गलती की कि कांग्रेस वालों को ज्यादा जमीन नहीं दी।

 आज ही नहीं, दो -तीन वर्ष पहले बेतिया राज में विदेशी सरकार ने विदेशियों के साथ बहुत सी जमीन बंदोबस्त की थी।

क्या उस समय आपको (यानी प्रतिपक्षी दलों को ) इसका विरोध करने की जुबान नहीं थी ?

हरवंश सहाय की सैकड़ों एकड़ जमीन अंग्रेजों ने इसलिए जब्त कर ली थी क्योंकि उन्होंने महात्मा गांधी का साथ दिया था।

बड़े अफसोस की बात है कि उन पर भी इस हाउस में आक्षेप किया जाता है।

  हमलोगों में से अधिकतर लोगों का खयाल है कि शाही बंधुओं के साथ जो बंदोबस्ती हुई है, वह सही है।’’

  यानी, उन दिनों के अनेक सत्ताधारी नेताओं का यह मानना था कि आजादी की लड़ाई के दौरान हमें जो नुकसान हुआ,उसकी अब भरपाई होनी ही चाहिए।

  सत्ताधारी दल के अनेक नेताओं की उसी प्रवृति के कारण सन 1985 आते -आते सौ सरकारी पैसे घिसकर 15 पैसे हो गए।

 बाद के वर्षों में क्या -क्या होने लगा है,वह सब आज की पीढ़ी के सामने है।

याद दिला दूं कि तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि 

दिल्ली से तो हम एक रुपया भेजते हैं किंतु उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही गांवों तक पहुंच पाते हैं।

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और अंत में

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हर साल ब्रिटिश संसद के 20 कार्य दिवसों के एजेंडा  का निर्धारण प्रतिपक्ष करता है।

क्या भारत में ऐसी व्यवस्था लागू हो जाएगी तो प्रतिपक्ष संसद में हंगामा करना बंद कर देगा ? 

इस सवाल का जवाब पाने से पहले यह जानना जरूरी है कि हंगामे का मकसद क्या है ?

मूल समस्या क्या है ?

समस्या यह नहीं है कि प्रतिपक्ष को समय नहीं मिलता।

दरअसल समस्या कुछ और ही है जिसका हल केंद्र सरकार के पास नहीं है।

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कानोंकान

साप्ताहिक काॅलम

6 अगस्त, 2021 के प्रभात खबर,

बिहार संस्करण 

में प्रकाशित




मंगलवार, 3 अगस्त 2021

 हिन्दी अखबार में अंग्रेजी और 

अंग्रेजी अखबार में हिन्दी !!

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सुरेंद्र किशोर

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28 जुलाई, 21 के एक हिन्दी अखबार की खबर का शीर्षक था,

‘‘विलफुल डिफाल्टर की संख्या बढ़कर 2494 हुई’’

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आज के एक अंग्रेजी अखबार ने दो-दो  खबरों के शीर्षकों में मिनिस्टर की जगह ‘मंत्री’ यानी ड।छज्त्प् शब्द का इस्तेमाल किया है।

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यह अच्छी बात है कि हिन्दी अखबार अंग्रेजी शब्द लिखें और

अंग्रेजी अखबार हिन्दी शब्द।

  किंतु इस मामले में हिन्दी अखबार जरा सावधानी बरतें।

यानी वे अंग्रेजी के आसान शब्दों का ही इस्तेमाल करें।

हिन्दी अखबारों के पाठकों में साक्षर से लेकर पीएच.डी.तक होते हैं।

कितने साक्षर यानी मिडिल पास व्यक्ति विलफुल डिफाॅल्टर का अर्थ समझेंगे ?

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अंग्रेजी अखबारों के सामने तो मजबूरी भी है।

उसको तो सिस्टर इन लाॅ और ब्रदर इन लाॅ जैसे शब्दों का इस्तेमाल उनके हिन्दी अर्थों को लेकर ही करना चाहिए।

जैसे ब्रदर इन लाॅ और सिस्टर इन लाॅ के हिन्दी भाषान्तर का प्रयोग करना ही चाहिए।

ब्रदर इन लाॅ का हिन्दी तर्जुमा होगा-

बहनोई, 

साला,

देवर

या जेठ।

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सिस्टर इन लाॅ के भी हिन्दी अर्थ कई होंगे-

जैसे-साली

भाभी

जेठानी

और देवरानी।

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यदि अंग्रेजी अखबार कभी लिखता है कि फलां के ब्रदर इन लॅा की मृत्यु हो गई तो पाठक क्या समझेेंगे ?

इस तरह के अन्य उदाहरण भी दिए जा सकते हैं।

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31 जुलाई 21

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 वही नेता इस देश को संकटों से बचाकर 

आगे ले जा सकते हैं जिनमें कम से कम 

चार गुण हों।

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1.-अपने लिए अपनी जायज आय से अधिक 

  धन एकत्र करने में जिसकी कोई रूचि न हो।

2.-जो न वंशवादी हो और न परिवारवादी।

   जो सभी जातियों-धर्मों के लोगों के साथ समान व्यवहार 

   करता हो।

   जिसकी जितनी जरूरत हो, उसे उतनी सहायता 

   पहुंचाने की कोशिश करता हो।

3.- जो वोट के लिए देश की आंतरिक व बाह्य सुरक्षा

    के साथ कोई समझौता न करे। 

4.-जो भ्रष्टाचार में लिप्त सरकारी तंत्र को ‘‘डंडों के बल’’ पर 

   ठोक ठाक कर ठीक करने की हिम्मत रखता हो। 

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-- सुरेंद्र किशोर 

   2 अगस्त 21  


     प्रतिपक्ष द्वारा संसद को पंगु बना देने के 

  मामले मंे राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट से राय मांगें 

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पूछें कि क्या नई कानूनी व संवैधानिक व्यवस्था

ही सदनों में गरिमा बहाल कर पाएगी ?

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  --सुरेंद्र किशोर--  

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भारत के राष्ट्रपति को चाहिए कि वह इस देश की विधायिकाओं को कुछ सदस्यों द्वारा लगातार पंगु बना दिए जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट से राय मांगंे।

   पूछें कि क्या संविधान की मंशा के अनुसार सदन को गरिमापूर्ण ढंग से चलाने के लिए किन्हीं विशेष कानून, नियम या संवैधानिक प्रावधान की जरूरत है ?

पीठासीन पदाधिकारियों के सम्मेलनों की सिफारिशें व सदन की कार्य संचालन नियमावली आदि निरर्थक बना दिए गए है।

साफ लगता है कि मौजूदा संसद के दोनों सदनों के मौजूदा पीठासीन पदाधिकारी भी खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं।

 देश किंकत्र्तव्यविमूढ़ होकर रोज-रोज लोकतंत्र की धज्जियां उड़ते अपने टी.वी.सेटों पर देख रहा है।नई पीढ़ी के सामने लोकतंत्र की बहुत ही खराब छवि पेश हो रही है। 

  याद रहे कि इन दिनों प्रतिपक्षी सदस्य संसद के दोनों सदनों को लगातार नहीं चलने दे रहे हैं।

 आज का सत्ता दल जब कल प्रतिपक्ष में था तो वह भी सदन में कुछ-कुछ ऐसा ही हंगामा करता था।

उसे वह जायज भी ठहराता था।

 आए दिन देश की अनेक विधान सभाओं का भी यही हाल होता रहता है।

  वहां भी अशोभनीय दृश्य उपस्थित होते हैं।

  हिंसा,मारपीट,गाली-गलौज ,सदन स्थगन आम बात हो गई है।

पिछले दिनों कर्नाटका विधान परिषद के कुछ सदस्यों ने अपने सभापति को सदन में ही इतना अपमानित किया कि उन्होंने रेलगाड़ी से कटकर आत्महत्या कर ली।

    संविधान के अनुच्छेद-143 में राष्ट्रपति को यह अधिकार 

दिया गया है कि वे महत्वपूर्ण मामलों में सुप्रीम कोर्ट से राय मांग सकते हैं।

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3 अगस्त 2021 


सोमवार, 2 अगस्त 2021

        

    भारत से हजारों अमीरों का वहां 

    बस जाने के लिए विदेश पलायन

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 अफसरों में भ्रष्टाचार, पुलिस की अकर्मण्यता 

 और धार्मिक उन्माद मुख्य कारण

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    --सुरेंद्र किशोर-- 

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एफ्रो एशियन बैंक द्वारा सन 2018 में प्रकाशित ग्लोबल वेल्थ

माइग्रेशन रिव्यू में बताया गया कि 

उस वर्ष चीन से 15 हजार अमीरों ने पलायन किया।

  रूस से 7 हजार, तुर्की 4 हजार और भारत से 5 हजार अमीरों ने पलायन किया।

 पहले तीन देशों से पलायन का कारण वहां की तानाशाही और घुटन हो सकती है।

 लेकिन लोकतांत्रिक भारत का इस सूची में सम्मिलित होना खतरे की घंटी है।.........

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........ हेनेली एंड पार्टनर्स कम्पनी द्वारा अमीरों को एक देश से 

दूसरे देश में पलायन करने में मदद की जाती है।

उस कम्पनी के अनुसार सन 2020 में भारत से पलायन करनेवालों में 63 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। ......

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..... बताया जाता है कि भारत से पलायन का पहला कारण सुरक्षा की कमी है।

देश की पुलिस अकर्मण्य और अफसर भ्रष्ट हैं।

अमीर लोग नहीं चाहते कि किसी चैराहे पर उनके परिवार को अगवा कर लिया जाए।

  दूसरा कारण धार्मिक उन्माद है।

धार्मिक उन्माद तो पहले से है,वत्र्तमान में वह बढ़ ही रहा है ...........।

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--डा.भरत झुनझुनवाला

दैनिक आज

1 अगस्त 21

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