गुरुवार, 30 नवंबर 2023

 


सन 1951 में एक फिल्म आई थी जिसका नाम था -बहार।

उसका एक गाना है--

‘‘दुनिया से डरोगे तो दुनिया दबाएगी।

आखें दिखाएगी,रोब दिखाएगी।

दुनिया को लात मारो,दुनिया सलाम करे।

तान से सीना चलो, दुनिया तुम्हारी है

..............।’’

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 पूर्व मुख्य मंत्री महबूबा मुफ्ती ने 3 अप्रैल, 2019 को कहा था कि ‘‘अनुच्छेद-370 हटा तो हिन्दुस्तान से हमारा रिश्ता समाप्त हो जाएगा।’’

अमित शाह को चुनौती के साथ महबूबा ने कहा था--‘‘आप  अनुच्छेद-370 को समाप्त करने की तारीख बताइए।उसी दिन से हमारा हिन्दुस्तान से रिश्ता खत्म हो जाएगा।’’

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मोदी सरकार ने सीना तान कर यह काम कर दिया।

क्या हुआ महबूबा की धमकी का ?

रिश्ता मजबूत हुआ या समाप्त ?

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16 दिसंबर, 2019 को मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने कहा था कि 

सी.ए.ए. मेरी लाश पर ही लागू होगा।

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गृह मंत्री अमित शाह ने हाल में भी कहा कि हम सी.ए.ए.जरूर लागू करेंगे।

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देखना है--आगे -आगे क्या होता है !!!

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महबूबा और ममता बनर्जी जैसी धमकियां देने वाले इस देश में कुछ अन्य नेता भी अन्य राज्यों में मौजूद हैं।

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देखना है- निकट भविष्य में उनका क्या होने वाला है !!

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अभी मोदी सरकार की जिम्मेदारी यह है कि वह यू.सी.सी.लागू करे।

सी.ए.ए. लागू करे।

एन.आर.सी.को भी लागू करना ही होगा।

अन्यथा, यह देश देर-सबेर जेहादियों के हाथों में चला जाएगा।

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पर,इसके लिए आर्थिक और सैनिक रूप से चीन की तरह ही हमें भी ताकतवर बनना पड़ेगा।

चीन अपने यहां के जेहादियों के साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार कर रहा है जैसा अब तक नहीं हुआ।फिर भी दुनिया के जेहादी चीन से डर कर चुप है।

(बहार का गाना याद कर लीजिए।)

यह देश आर्थिक रूप से ताकतवर तभी बनेगा जब हर क्षेत्र में सक्रिय चोरों, बेईमानों,लुटेरों को जेल भेजा जाएगा।

भ्रष्टाचार के लिए फांसी का प्रावधान करना पड़ेगा।

चीन में यह कानून मौजूद है।

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1985 में जब प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कहा कि हम दिल्ली से

100 पैसे भेजते हैं,किंतु सिर्फ 15 पैसे ही लोगों तक पहुंचते हैं।

इस रहस्योद्घाटन के बाद ही भ्रष्टाचार के लिए फांसी का प्रावधान कर देना चाहिए था।

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चीन अपनी सीमा पर ही घुसपैठियों को देखते ही गोली मार देता है।

दूसरी ओर हमारे यहां सीमा पर बांग्ला देशी-रोहिग्या घुसपैठियों से 10-12 हजार रुपए घूस लेकर उन्हें भारत का नागरिक बना दिया जाता है।एक खबर के अनुसार,रोज करीब पांच घुसपैठिए भारत में घुस रहे हैंे।

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कई साल पहले का आंकड़ा है कि भारत में पांच करोड़ घुसपैठिए हैं।

एन.आर.सी.लागू होने से उन्हें निकाल बाहर करना या उन्हें मतदाता सूची से हटाना संभव होगा।

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मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट में यह कह चुकी है कि  

एन.आर.सी.यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर जरूरी है।

   वैसे सरकार ने जरूर कहा था  कि एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर अभी नहीं बनेगा।

   सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने शपथ पत्र में गृह मंत्रालय ने कह दिया कि किसी भी सार्वभौम देश के लिए यह एक जरूरी काम है कि वह गैर नागरिकों की पहचान के लिए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार करे।

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  एक अनुमान के अनुसार सी.ए.ए. के लागू हो जाने के बाद इस देश में करीब दो या तीन करोड़ गैर -मुस्लिम मतदाताओं की संख्या बढ़ जाएगी।ये वे गैर मुस्लिम हैं जो पड़ोसी देशों में प्रताड़ित होकर भारत में आ गये हैं।पर,अभी तक यहां के नागरिक या मतदाता नहीं बने।इनका सरकारी

आंकड़ा तो कम है,पर वास्तव में ये काफी हैं।

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इस देश के मुस्लिम वोट लोलुप राजनीतिक दल और जेहादी तत्व नहीं चाहते कि सी.ए.ए. और एन.आर.सी.लागू हो।

पश्चिम बंगाल में उन घुसपैठी मतदाताओं का लाभ पहले का सत्ताधारी वाम मोरचा उठाता था।

तब उन फर्जी बंगला देशी मतदाताओं का विरोध करते हुए   

  4 अगस्त, 2005 को ममता बनर्जी ने लोक सभा के स्पीकर

के टेबल पर कागज का पुलिंदा फेंका था।

उसमें अवैध बंगलादेशी घुसपैठियों को मतदाता बनाए जाने के सबूत थे।

  ममता ने कहा कि घुसपैठ की समस्या राज्य में महा विपत्ति बन चुकी है।

ममता बनर्जी ने उस पर सदन में चर्चा की मांग की।

चर्चा की अनुमति न मिलने पर ममता ने सदन की सदस्यता

 से इस्तीफा भी दे दिया था।

 चूंकि एक प्रारूप में विधिवत तरीके से इस्तीफा तैयार नहीं  था,इसलिए उसे मंजूर नहीं किया गया।

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अब ममता का उस ‘महा विपत्ति’ पर क्या राय है ?

यदि ममता की सरकार उन्हीं अवैध घुसपैठियों के वोट पर

टिकी हैं तो क्या राय होगी !

अब ममता कहती हैं कि सी.ए.ए.-एन.आर.सी.लागू होगा तो बंगाल में खून की नदी बहेगी।

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 ऐसे नेताओं की मौजूदगी इस अभागे देश में है।

ऐसे में तो मेरा मानना है कि यदि इस देश को बचाना है तो न सिर्फ सी.ए.ए. बल्कि एन.आर.सी. और समान नागरिक कानून भी लागू करना ही पड़ेगा।

इससे कोई वोटलोलुप नेता या दल खुश रहे या नाराज।

  अमेरिका,चीन ,जर्मनी और जापान कौन कहे,यहां तक 

कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगला देश में भी

नागरिकता रजिस्टर और नागरिकता कार्ड का 

प्रावधान है।

कार्ड वहां के लोगों को दिए गए हैं।

   कुछ नेताओं के लिए भारत कोई देश नहीं, बल्कि मात्र एक धर्मशाला है।

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किसी भी समुदाय के किसी वाजिब मतदाता की मौजूदा स्थिति में इन कानूनों के लागू होने पर भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा।फिर भी इस मुद्दे पर यदाकदा चिल्ल-पों और छिटपुट हिंसा होती रहती है।

 क्योंकि  

सीएए लागू होने व एनआरसी तैयार हो जाने पर इस हिन्दू बहुल देश को धीरे -धीरे मुस्लिम बहुल बनाने का जो जेहादी प्रयास चल रहा है,उस प्रयास को भारी धक्का लगेगा।

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सी.ए.ए.,यू.सी.सी.और एन.आर.सी.लागू होने के बाद जो बवंडर खड़ा होगा,उसे शांत करने के लिए बड़ी सैन्य व पुलिस ताकत की जरूरत पड़ेगी।

भारत सन 2014 के बाद अधिक ताकतवर बना है।ताकत तो पैसे से बढ़ती है।वह बढ़ रही है।

केंद्र सरकार का कर राजस्व 2013-14 में करीब साढ़े 10 लाख करोड़ रुपए था।मौजूदा वित्तीय वर्ष में यानी 2023-24 में 27 लाख करोड़ रुपए का अनुमान है।

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कुछ राज्यों को छोड़कर सेना,अर्ध सैनिक बल,अग्निवीर आदि मजबूत हो रहे है।

आधुनिकत्तम हथियार हमारे देश के पास आ रहे हैं।राज्यों की सुरक्षा -व्यवस्था भी बेहतर है।

पर अभी आंतरिक व बाह्य सुरक्षा के और भी ठोस काम करने होंगे।

जब इस देश के घनघोर भ्रष्टाचारीगण जेल में रहेंगे तो राजस्व बढ़ेगा।

पांच राज्यों के चुनाव नतीजे और 2024 के लोक सभा चुनाव रिजल्ट भी बताएंगे कि देश का भविष्य कैसा रहेगा।देश बचेगा या ........????

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बुधवार, 29 नवंबर 2023

 प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने फिर कहा कि भ्रष्ट लोगों को 

जेल भेजने का हमने संकल्प किया है

यह भी कहा कि ‘‘बड़े -बड़े भ्रष्टाचारी मुझे जिन्दा नहीं छोड़ेंगे ,मुझे 

बर्बाद कर देंगे।पर, मैं उसके लिए भी तैयार हूं।’’

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सुरेंद्र किशोर

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प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने परसों हैदराबाद में भी अपना पुराना संकल्प दुहराया कि भाजपा ने भ्रष्ट नेताओं को जेल भेजने का संकल्प किया है।

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मोदी ने सन 2014 में प्रधान मंत्री पद संभालने के तत्काल बाद से ही 

यह काम शुरू कर दिया था।

वह अब भी जारी है।

नतीजतन इस देश में जमानत और जेल झेल रहे 

नेताओं की संख्या ने पिछले सारे रिकाॅर्ड तोड़ दिए हैं।

सन 2024 के लोस चुनाव से पहले तक यह संख्या बहुत अधिक बढ़ जाएगी,ऐसे संकेत मिल रहे हैं।

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 मोदी ने 15 अगस्त, 2014 को लाल किले से ही यह कह दिया था कि 

‘‘मैं न खाऊंगा और न खाने दूंगा।’’

बाद में मोदी ने कहा कि 

‘‘एक भी भ्रष्टाचारी नहीं बचना चाहिए चाहे वह कितना ही शक्तिशाली हो।बिना हिचक के सी.बी.आई.कार्रवाई करे।’’

उन्होंने यह भी कहा कि 

‘‘भ्रष्टाचार लोकतंत्र और न्याय की राह में सबसे बड़ी बाधा है।’’

मोदी ने अन्य अवसर पर यह भी कहा था कि 

‘‘बड़े -बड़े भ्रष्टाचारी मुझे जिन्दा नहीं छोड़ेंगे ,मुझे बर्बाद कर देंगे।

पर, मैं उसके लिए भी तैयार हूं।’’

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दूसरी ओर, 15 अगस्त, 2011 को तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने लाल किले से कहा था कि 

‘‘देश की तरक्की में भ्रष्टाचार सबसे बड़ी बाधा है और यह सभी के लिए गहरी चिंता का विषय है।

लेकिन भ्रष्टाचार से निपटने के लिए सरकार के पास कोई जादुई छड़ी नहीं है।’’

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जादुई छड़ी मोदी के पास है,ऐसा लगता है।

नरेंद्र मोदी की यह पहल सराहनीय है।

यह आज की जरुरत है।

मोदी विरोधी दलों के नेताओं ने 2014 से 2019 तक मोदी सरकार पर यह आरोप लगाया कि मोदी सरकार सिर्फ भाजपा विरोधी दलों के खिलाफ कार्रवाई कर रही है,भाजपा के भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ नहीं।

इस आरोप को आम जनता ने सही नहीं माना,इसलिए मोदी को अधिक बहुमत से 2019 में फिर से सत्ता में पहुंचा दिया।

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भ्रष्टों के खिलाफ कार्रवाई से आम जनता खुश है।

क्योंकि अपवादों को छोड़कर अधिकतर लोगों को यह लगता है कि नेताओं-अफसरों-व्यापारियों के एक बड़े हिस्से के भीषण भ्रष्टाचार के कारण ही अपना देश अब भी गरीब है।

नतीजतन 80 करोड़ लोगों को अब भी मुफ्त अनाज देना पड़ रहा है।

आजादी के तत्काल बाद से ही लूट शुरू हो गयी थी।

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भ्रष्टाचारी लगभग सभी दलों में हैं।

कुछ में अधिक तो कुछ में कम।

यह अच्छी बात है कि अपवादों को छोड़ कर अदालतें भी बहुत अच्छे ढंग से अपना काम रही हैं।

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  आज भ्रष्टाचार और आतंकवाद देश के सामने सबसे बड़े मुद्दे हैं।

भ्रष्टाचार, आतंकवाद व जेहाद को ताकत पहुंचाता है।

आज इस देश में 10 से 12 हजार रुपए खर्च करके किसी घुसपैठिए को भारत का मतदाता बनाया जा रहा है।मुसलमानों की संख्या बढ़ा कर इस देश को मुस्लिम बहुल देश बनाने की निरंतर व सघन कोशिश जारी है।

वोट के लिए कई दल इस कोशिश में परोक्ष-प्रत्यक्ष उनकी मदद कर रहे हैं।

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मोदी विरोधी नेताओं को यदि यह लगता है कि मोदी सरकार भाजपा के भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर रही है तो वे खुद कोर्ट में क्यों नहीं जाते भ्रष्टाचार के सबूतों के साथ ?

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नेशनल हेराल्ड घोटाला केस,

टू जी घोटाला 

और जय ललिता के खिलाफ जो कदम डा.सुब्रह्मण्यम स्वामी ने उठाया,वही कदम मोदी विरोधी नेता भाजपा के कथित भष्टों के खिलाफ क्यों नहीं उठाते ?

याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने बहुत पहले यह निर्णय दे रखा है कि सामान्य नागरिक भी किसी लोक सेवक के खिलाफ

केस कर सकता है। 

डा.स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट के उसी आदेश का लाभ उठाकर उपर्युक्त तीनों केस किए।

डा.स्वामी तीनों में सफल रहे।

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29 नवंबर 23

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पुनश्चः

2019 के लोस चुनाव से ठीक पहले राफेल में कथित भ्रष्टाचार का मामला सुप्रीम कोर्ट में ले जाया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने उस आरोप में कोई तथ्य नहीं पाया।

2024 के लोक सभा चुनाव से ठीक पहले अडाणी का मामला सुप्रीम कोर्ट में गया।

सुप्रीम कोर्ट ने इसमें भी कोई तथ्य नहीं पाया।

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सोमवार, 27 नवंबर 2023

 


जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं,उन राज्यों की 

साठ-सत्तर के दशकों की राजनीति कैसी थी ?

इस पर मुझे लिखना था तो तब की साप्ताहिक पत्रिका (दिनमान) मेरे काम आई।

1982 के बाद की घटनाओं के लिए ‘इंडिया टूडे’ मेरे काम आता है।

सन 1982 से पहले के अंक मेरे पास नहीं हैं।

इंडिया टूडे का प्रकाशन 1976 और दिनमान का प्रकाशन 

1965 में शुरू हुआ था।

वैसे हिन्दी इंडिया टूडे, दिनमान का विकल्प नहीं बन सका।

शायद उसे बनना भी नहीं है।

कुल मिलाकर त्रुटिहीनता और संतुलन के मामले में ‘इंडिया टूडे’ लाजवाब है।

ये दो पत्रिकाएं मुझे तथ्यों की याद दिला देती है।

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ऐसा नहीं कि विदेश में छपने वाली पत्र-पत्रिकाएं त्रुटिहीन होती हैं।

हालांकि यहां के कई लोेगों के लिए वे वेद वाक्य हैं।

1964 में डा.लोहिया के बारे में टाइम मैगजिन ने जो गलती की थी कि वैसी गलती

भारत की कोई सामान्य पत्रिका भी संभवतः नहीं कर सकती।

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मैं ‘माया’ से लेकर ‘धर्मयुग’ तक के लिए लिखता था।

इन दो पत्रिकाओं के संपादकीय विभाग से मेरे लेखों पर अक्सर सवाल पूछे जाते थे। चिट्ठियां आती थीं।

आपने यह लिख दिया,उससे आपका आशय स्पष्ट नहीं हो रहा है।

आपने यह लिख दिया,इसका आपके पास सबूत है क्या ?

मैं संतोषजनक जवाब देता था तभी छपता था।

ध्यान रहे कि तब डाक से चिट्ठियां आती-जाती  थीं,क्योंकि तब तक टेलेक्स,टेलीप्रिंटर,फैक्स या ईमेल आदि का यहां प्रचलन नहीं था।

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अब आप ‘टाइम’ मैगजिन पर आइए।

उसका बड़ा नाम है।वह जोरदार रिपोर्टिंग करता रहा है।

पर,ऐसा नहीं है कि वह गलतियां नहीं करता।

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 सन 1964 में अमरीकी साप्ताहिक पत्रिका ‘टाइम’ ने डा.राममनोहर लोहिया 

के खिलाफ गलत व बिल्कुल निराधार खबर छाप दी थी।

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उस गलत खबर से खिन्न डा.लोहिया 

ने ‘टाइम’ पर मानहानि का मुकदमा 

दायर किया था।

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  याद रहे कि फूल पुर लोक सभा उप चुनाव के संबंध में ‘टाइम’ ने निराधार खबर छापी थी।

‘टाइम’ ने अन्य बातों के अलावा यह भी लिख दिया था 

कि ‘‘ डा.लोहिया नेहरू परिवार के आजीवन शत्रु हैं।’’

  भारत की राजनीति के बारे में ‘टाइम’ की छिछली जानकारी का ही यह नतीजा था।

दरअसल समाजवादी नेता डा.लोहिया, जवाहरलाल नेहरू की नीतियों का विरोध करते थे न कि वे उनके आजीवन शत्रु थे।

एक बार डा.लोहिया ने अपने मित्रों से कहा था कि

 ‘‘यदि मैं बीमार पड़ूंगा तो मेरी सबसे अच्छी सेवा- शुश्रूषा जवाहरलाल नेहरू के घर में ही होगी।’’

आजादी के बाद एक बार डा.लोहिया जब दिल्ली जेल में थे,प्रधान मंत्री  नेहरू ने अपने निजी सचिव एम.ओ. मथाई के जरिए उनके लिए आम भिजवाया था।

 सन 1964 में नेहरू के निधन के बाद डा.लोहिया ने कहा था, ‘‘1947 से पहले के नेहरू को मेरा सलाम !’’

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नेहरू के निधन के बाद फूल पुर लोक सभा क्षेत्र के उप चुनाव में 

  डा.लोहिया कांग्रेस की उम्मीदवार विजयलक्ष्मी पंडित के खिलाफ चुनाव -प्रचार में गए थे।

 ‘टाइम’ के 4 दिसंबर, 1964  के अंक में लिखा गया कि 

‘‘डा.लोहिया नेहरू परिवार के आजीवन शत्रु हैं।

 इस कारण वे उप चुनाव में विजयलक्ष्मी पंडित के विरूद्व प्रचार करने गए थे।’’

 पत्रिका ने यह भी लिख दिया कि

 ‘‘लोहिया ने मतदाताओं से कहा कि वे विजयलक्ष्मी पंडित की सुन्दरता के जाल में न फंसें।उनके अंदर केवल विष है।’’

‘टाइम’ के अनुसार डा.लोहिया ने मतदाताओं से कहा कि श्रीमती पंडित की युवावस्था जैसी सुन्दरता इसलिए कायम है क्योंकि उन्होंने यूरोप में प्लास्टिक शल्य चिकित्सा करायी है।

 डा.लोहिया ने दिल्ली के सीनियर सब जज की अदालत में टाइम  के संपादक,मुद्रक,प्रकाशक और नई दिल्ली स्थित संवाददाताओं के विरूद्व मानहानि का मुकदमा किया।  

  अदालत में प्रस्तुत अपने आवेदन पत्र में डा.लोहिया ने कहा कि टाइम में प्रकाशित उक्त सारी बातेें बिलकुल मनगढंत हैं और मुझे बदनाम करने के इरादे से इस तरह की कुरूचिपूर्ण बातें मुझ पर आरोपित की गई हंै।

डा.लोहिया ने कहा कि टाइम ऐसे दकियानूसी कट्टरपंथी तत्वों का मुखपत्र है, जिन्हें हमारी समतावादी और लोकतांत्रिक नीतियां पसंद नहीं हैं।

  नई दिल्ली स्थित संवाददाताओं ने, जो उक्त समाचार भेजने के लिए जिम्मेदार हैं, मुझसे कभी भंेट तक नहीं की।

 ये संवाददाता स्थानीय भाषा भी नहीं जानते।

इसलिए मेरे भाषण की उन्हें सीधी जानकारी भी नहीं हो सकती थी।

शत्रुता का आरोप का खंडन करते हुए डा.लोहिया ने कहा कि

कांग्रेसी शासन अथवा दिवंगत प्रधान मंत्री की जब भी मैंने आलोचना की है तो नीति और सिद्धांत के प्रश्नों पर ही।

किसी निजी द्वेष पर नहीं।

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उस मुकदमे का अंततः क्या हश्र हुआ ,मैं जान नहीं सका।

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याद रहे कि हाल के कोविड काल में ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने भारत में मृतकों की संख्या के बारे में निराधार खबर छापी थी जिसका भारत सरकार ने खंडन किया था।

भारत में कुल तीन लाख लोग मरे थे जबकि ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने लिखा कि 42 लाख लोग मरे।

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इस पृष्ठभूमि में मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि आज मैंने जिस लेख के लिए 1967 के दिनमान से तथ्य लिए हैं, वे गलत नहीं हो सकते।

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जिन पत्रकारों को सेवा निवृति के बाद भी प्रासंगिक व जनापयोगी बने 

रहना हैं,उन्हें अपना निजी संदर्भालय अपने सेवाकाल में ही तैयार करते रहना चाहिए।संदर्भालय में भरसक त्रुटिहीन संदर्भ सामग्री रहे।

आज सटीक ओर त्रुटिहीन लेखन करने वाले फ्रीलांसर की कमी होती जा रही है।

पत्रकारिता के क्षेत्र में दिक्कत यह है कि जब कोई पत्रकार लंबी तपस्या के बाद प्रौढ़ और ज्ञानी होता है तभी उसे रिटायर कर दिया जाता है।

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सुरेंद्र किशोर

27 नवंबर 23

   

  


 संविधान दिवस पर

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सरल हृदय वाले नेता राजनीति में सन 1950 में भी पीछे 

ढकेल दिए जाते थे और आज तो और भी सौ कदम 

पीछे कर दिए जाते हैं

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सरदार पटेल न होते तो सरल हृदय वाले योग्यत्तम राजेन 

बाबू राष्ट्रपति न बन पाते

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सुरेंद्र किशोर

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सन 1950 में संविधान लागू हो जाने के बाद सवाल राष्ट्रपति के पद पर नियुक्ति का था।

प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि इस पद पर सी.राज गोपालाचारी बैठें।

हालांकि राजगोपालचारी विचारों से घोर दक्षिणपंथी व पंूजीवादी व्यवस्था के पोषक थे।

उधर नेहरू खुद को समाजवादी बताते थे।

राजा जी को राष्ट्रपति बनाने के सवाल पर कांग्रेस पार्टी में भारी आंतरिक मतभेद उठ खड़ा हो गया।

खैरियत थी कि तब कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र था।

पार्टी में विरोध इसलिए भी था क्योंकि राजा जी ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध कर दिया था।

सरदार पटेल के समर्थकों ने डा.राजेंद्र प्रसाद के नाम को आगे बढ़ा दिया।

  इस बीच जवाहरलाल नेहरू एक दिन राजेंन्द्र प्रसाद के पास चले गये।

 उनसे यह लिखवा लिया कि 

‘‘मैं राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार ही नहीं हूं।’’

  जब इस बात का पता सरदार पटेल को चला तो वे नाराज हो गये।

पटेल गुट के बड़े नेता महावीर त्यागी ने राजेन बाबू को ‘बिहारी बुद्धू’ तक कह दिया।

  समकालीन नेताओं के संस्मरण, लेखों व डायरी के पन्नों में दर्ज इतिहास के अनुसार उस समय की यह कहानी कुछ यूं बनती है।

  राजेंद बाबू से सरदार साहब ने पूछा कि आपने ऐसा लिख कर क्यों दे दिया ?

  इस पर सरल हृदय के गांधीवादी राजेन बाबू ने  कहा कि ‘‘मैं गांधी जी का शिष्य हूं।

यदि कोई मुझसे पूछता है कि क्या आप राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हैं तो यह बात मैं अपने मुंह से कैसे कह सकता हूं कि मैं उम्मीदवार हंू ? 

पंडित जी ने मुझसे जब ऐसा ही सवाल पूछा तो मैंने वैसा कह दिया।

 उनके मांगने पर मैंने यही बात लिखकर भी उन्हें दे दी।’’

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    इस बिगड़ी बात को सरदार साहब ने अपने विशेष प्रयास व कौशल से बाद में संभाला।

संभवतः पटेल व उनके समर्थक यह नहीं चाहते थे कि तीनों महत्वपूर्ण पदों पर एक ही जाति के नेता बैठें।

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उप राष्ट्रपति पद के लिए डा.एस.राधाकृष्णन का नाम तय था।

 पहले तो राजेंद्र बाबू को इस बात के लिए तैयार कराया गया कि वे उम्मीदवार बनें।

दरअसल राजेंद्र बाबू मन ही मन  चाहते तो थे ही  कि उन्हें राष्ट्रपति पद मिले।

पर, इसके लिए वे आज के अधिकतर नेताओं की तरह आग्रही या फिर दुराग्रही कत्तई नहीं थे।

(आज के तो कई नेता, पद के लिए सुप्रीमो का भयादोहन भी करते हैं या सुप्रीमो की राजनीतिक लाइन तक बदलवा देते हैं।)

पर,उधर राजेन बाबू किसी भी  पद के लिए नीचे नहीं गिरना चाहते थे।

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खैर,पटेल साहब ने स्थिति संभाली और राजेन बाबू राष्ट्रपति बने।

कैसे स्थिति संभाली,वह भी एक रोचक कहानी है।

हालांकि वह कहानी भी तब की राजनीति का गौरव बढ़ाने वाली नहीं है।

याद रहे कि नेहरू ने पार्टी की बैठक में यह धमकी दे दी थी कि यदि राजाजी को राष्ट्रपति नहीं बनाया जाएगा तो मैं प्रधान मंत्री पद से इस्तीफा दे दूंगा।

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26 नवंबर 23


 शिकोरा,पराली और पनौती

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एक अखबार के बिहार संस्करण में यह अपील छपती थी-

गर्मी के दिनों मंे पक्षियों के लिए शिकोरा में पानी रखिए।

यह अपील तो अच्छी है।

पर,बिहार के लोग जानते भी हैं कि श्किोरा क्या होता है ?

मैंने तो उससे पहले यह शब्द नहीं सुना था।

मैंने अखबार के मालिक से कहा कि शिकोरा के बदले दूसरे शब्द का इस्तेमाल करिए।

फिर वे शिकोरा के साथ ब्रैकेट में बिहार के लिए समतुल्य शब्द लिखना शुरू कर दिया था।

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अब पराली और पनौती पर आइए।

पराली शब्द को लेकर मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने भी कहा था कि पराली के बदले पुआल शब्द का इस्तेमाल करिए।

पर,अब भी पराली लिखा जाता है।

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अब मेरे लिए एक और नया शब्द आया है--पनौती।

अरे भई, इसके बदले अपशकुन शब्द उपलब्ध है।

पनौती,पराली और शिकोरा से हमें एतराज नहीं।

इस देश के जिन क्षेत्रों के लोग इन्हें जानते हैं,उन्हें इस्तेमाल करने दीजिए।

पर, बिहार में ???

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सुरेंद्र किशोर


 नशा मुक्ति दिवस पर

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नशाबंदी, नीतीश सरकार के कुछ अच्छे कामों में से एक है।

मैं नशाबंदी का समर्थक रहा हूं।

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नशाबंदी को कड़ाई से लागू नहीं करने को लेकर बिहार सरकार की आलोचना जायज है।

दरअसल जहां रग-रग में भ्रष्टाचार व्याप्त हो,वहां ऐसी समस्या आएगी ही।

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पर,इसका उपाय नशाबंदी की समाप्ति नहीं है।

नशाबंदी से फायदे भी हुए हैं।

यदि भ्रष्टाचार कम होगा तो और भी फायदे होंगे।

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हत्याएं नहीं रुक रही हैं तो इसका मतलब यह तो नहीं कि हत्यारों के लिए सजा का प्रावधान ही समाप्त कर दिया जाए !!

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सुरेंद्र किशोर

26 नवंबर, 23

 


 इजरायल पर डा.लोहिया

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‘‘मैं इजरायल की नीति को पसन्द नहीं करता !

पर,उसकी संकल्प शक्ति की तारीफ करता हूं।

चार दिन में इतनी जमीन छीन ली !

नासिर देखते रह गये।

रूस की सच्ची सन्धि केवल पूर्वी जर्मनी से है।

बाकी औरों से संन्धि दिल बहलाने को है।

  देश की सीमा आदमी की त्वचा की तरह होती है।

जिस तरह त्वचा को खुरच देने से सारा शरीर तिलमिला जाता है,

उसी तरह देश की सीमा को कोई खुरच दे तो हमें तिलमिला जाना चाहिए।

पागल कुत्ते का दांत सख्त मांस खाकर टूट जाता है।

तब वह मुलायम मांस पर टूटता है।

चीन का दांत टूट गया है।

हिमालय मुलायम मांस है।

किसी भी देश की विदेश नीति उस गृहिणी की तरह होती है जिसका पति किसान या मजदूर और बेटा सैनिक होता है।

भारत की विदेश नीति निपूति बुढ़िया की तरह है।’’

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---डा.राममनोहर लोहिया

साप्ताहिक ‘दिनमान’

टाइम्स आॅफ इंडिया प्रकाशन

23 जुलाई, 1967

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(डा.लोहिया दो बार यानी सन 1963 और सन 1967 में लोक सभा के सदस्य चुने गये थे।

कुछ लोग यह कह सकते हैं कि क्या लोहिया के नाम के साथ पूर्व सांसद 

लगाने की कोई जरूरत भी है ?

हां,आज जरूरत आ पड़ी है।

क्योंकि हाल ही में एक बड़े पत्रकार ने मुझसे कहा कि लोहिया कभी चुनाव नहीं जीत सके।)

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सुरेंद्र किशोर

27-11-2023 






शनिवार, 25 नवंबर 2023

 कुछ निजी टी.वी.चैनलों के 

डिबेट्स हो रहे निरर्थक !

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दर्शकों की ओर से क्यों न घोषित हो ‘डिबेट डुबाऊ पुरस्कार ?’

और टोका-टोकी महारथि सम्मान ?

होली के अवसर पर मूर्ख सम्मान और महा मूर्ख सम्मान दिया ही जाता है !

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सुरेंद्र किशोर

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कुछ निजी चैनलोें पर जारी डिबेट्स में शामिल अतिथियों में किन-किन को ‘‘डिबेट डुबाऊ पुरस्कार’’ मिलना चाहिए ?

यानी, ऐसे अतिथि जो जिस किसी डिबेट में शामिल होते हैं,उसे जब चाहते हैं ,डिरेल कर देते हैं।

  मुद्दा कुछ भी वे हर दम अपना ही गीत गाने लगते है।

ऊबकर दर्शक चैनल बदल लेते हैं।

ऐसे उपद्रवी तत्वों की बेसुरी आवाज को कुछ देर के लिए बंद कर देने के उपकरण की मौजूदगी के बावजूद एंकर कुछ नहीं करते।

क्या एंकर दर्शकों को मूर्ख समझते हैं कि वे झेलते रहेंगे ? 

ऐसे उपद्रवी तत्वों के दो-तीन नाम मैं ले सकता हूं।

कुछ आप भी बताइए।

एक व्यक्ति ने मुझसे कहा कि वैसे लोग जहां भी होते हैं,उस चैनल पर मैं ठहरता ही नहीं।

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एंकरों में से एक एंकर,अपने  अतिथि से भी अधिक बोलता रहता है।

जरूरत नहीं रहने पर भी हरदम टोका-टोकी करता रहता है।

उस नाम के बारे में तो आपको भी कोई दुविधा नहीं होगी।

उसे टोकाटोकी महारथि सम्मान दिया जाता है।

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25 नवंबर 23


   हम बिहारियों को भले पिछड़ा कहो,पर हम 

  कम मांसाहारी हैं और हम अपने खेतों में अपेक्षाकृत 

  कम रासायनिक खाद का इस्तेमाल करते हैं।

  यह हमारे लिए अभिशाप नहीं,वरदान है।

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     सुरेंद्र किशोर

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‘‘बिहार में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 0.77 ग्राम मुर्गा उपलब्ध।

वहीं 3.2 ग्राम राष्ट्रीय औसत

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मांसाहार की खपत में बिहार काफी पीछ।’’े

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ऊपर लिखी खबर आज के ‘प्रभात खबर’ से ली गयी है।

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यह बहुत ही अच्छी खबर है।

औरों को कुछ भी लगे,मैं बिहार के लिए इसे शुभ मानता हूं।

कम से कम मांसाहार,यानी कैंसर की कम से कम आशंका।

रासायनिक खाद-कीटनाशक से उपजाए गये अनाज आदि में आर्सेंनिक पाया जाता है जो कैंसरकारी है। 

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अभी तो मेरे पास सटीक आंकड़ा नही हैं,किंतु रासायनिक खाद का इस्तेमाल भी बिहार में अपेक्षाकृत कम होता है।

कुछ विशेषज्ञ इसे बिहार का पिछड़ापन मानते रहे हैं।

पर,मैं इसे पिछड़ापन नहीं बल्कि दूरदर्शिता है।

अब जैविक खेती की तरफ बिहार आगे बढ़ रहा है।

रासायनिक खाद के सर्वाधिक इस्तेमाल का परिणाम पंजाब झेल रहा है।

भटिंडा से बिकानेर के लिए ‘‘कैंसर मेल’’ खुलता है।बिकानेर में कैंसर का मुफ्त इलाज होता है।

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चिकेन से अधिक प्रोटीन तो मूंगफली में पाया जाता है।

पटना में हिन्दुस्तान अखबार आॅफिस के बगल में कभी बकरी बाजार हुआ करता था।

दिवंगत पत्रकार मोइन अंसारी ने मुझे बताया था कि वहां अंग्रेज के जमाने में पशु चिकित्सक बैठता था।

जिस पशु को काट कर उसका मांस खाने के लिए बेचा जाना होता था,चिकित्सक उसकी जांच करता था।यह देखने के लिए कि उस पशु को कोई बीमारी तो नहीं है।

तभी वह कटने के लिए जाता था।

तब कानून का शासन था।

वह नियम आज भी है।पर,क्या उसका पालन होता है ?

आज नजराना-शुकराना के समक्ष लोगों के स्वास्थ्य की किसको चिंता है ?

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पोल्ट्री फार्मों में अधिकाधिक पावर का एंटी बाॅयोटिक मुर्गे-मुर्गी को दिया जाता है ताकि वे मरे नहीं।नहीं देने पर 10 प्रतिशत मर जाते हैं।

द हिन्दू ने रिसर्च के आधार पर इस पर बहुत अच्छी खबर छापी थी।

उतना एंटी बाॅयोटिक उसके शरीर में प्रवेश कर जाता है ।

फिर उसका मांस खाने वालों पर कैसा असर पड़ता है ?

असर यह होता है कि उस व्यक्ति का शरीर हाई एंटी बाॅयोटिक रजिस्टेंट हो जाता है।

यानी, जब वह व्यक्ति बीमार होता है तो उस पर हाई एंटी बायटिक भी असर नहीं करता।

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 हम बिहारी अपेक्षाकृत कम रासायनिक खाद-कीटनाशक दवाएं अपने खेतों में इस्तेमाल करते हैं।

उसका का भी हमें फायदा है।

पंजाब की अपेक्षा हमारे यहां कैंसर के मरीज कम हंै।

यदि हम धीरे -धीरे जैविक खादों से ही अधिकाधिक खेती करने लगें तो हमें कैंसर की बीमारी कम होगी। 

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कैंसर की बीमारी का सर्वाधिक दर्दनाक पक्ष यह है कि कैंसर मरीजों को आखिरी स्टेज में जो अपार दर्द होता है,उस दर्द को कम करने या खत्म करने की दवा का अभी आविष्कार नहीं हुआ।

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22 नवंबर 23


गुरुवार, 23 नवंबर 2023

 


नवंबर, 1917 की 23 तारीख को लोकबंधु 

राजनारायण का जन्म हुआ था जो 

चलते-फिरते आंदोलन थे 

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--सुरेंद्र किशोर--

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यह बात सत्तर के दशक की है।

लोहियावादी समाजवादी नेताओं में फूट पड़ 

गयी थी।

सन 1967 में डा.राममनोहर लोहिया के असामयिक निधन के 

बाद लोहियावादी समाजवादी मुख्यतः राजनारायण और मधु लिमये के खेमों में बंट गये थे।

 जार्ज फर्नांडिस, मधु लिमये के साथ थे।

पूर्व मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर समाजवादियों की एकता के पक्षधर थे।

उन्होंने एकतावादी-समतावादी नाम से एक पार्टी भी बना ली थी।

 जब एकता का कर्पूरी जी का प्रयास सफल नहीं हुआ तो वह जयप्रकाश नारायण से मिले।

कर्पूरी जी ने जयप्रकाश जी से कहा कि आप पार्टी में एकता के लिए राजनारायण जी को व्यक्तिगत पत्र लिख दें।

जेपी राजी हो गये।

उन्होंने लिख दिया।

पत्र अंग्रेजी में था।

दूसरे दिन मैं वह पत्र लेने पटना के कदमकुआं स्थित जेपी के आवास पर गया था।

जेपी के निजी सचिव सच्चिदानंद ने चिट्ठी तैयार रखी थी।

चिट्ठी लिफाफे रखी थी।

पर, लिफाफा बंद नहीं था।

स्वाभाविक उत्सुकता के तहत मैंने उसे खोल कर पढ़ा।

उस पत्र की कुछ ही बातें मुझे याद हैं।

उस पत्र से राजनारायण यानी नेताजी के प्रति जेपी के स्नेह का पता चला।

फिर समाजवादी आंदोलन में राजनारायण के महत्व का भी पता चला।

साथ ही, जेपी ने उस पत्र में राजनारायण से यह उम्मीद की थी कि वे समाजवादियों की एकता बनाये रखने में अपनी भूमिका निभाएं।

 जेपी की चिट्ठी उनके आवास से लाने का यह मौका मुझे इसलिए मिला था क्योकि मैं समाजवादी कार्यकत्र्ता के नाते  उन दिनों कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव था।

कर्पूरी ठाकुर उन दिनों बिहार विधान सभा मंे प्रतिपक्ष के नेता थे।

उससे पहले कर्पूरी जी सन 1970 में बिहार के मुख्य मंत्री और 1967 में उप मुख्य मंत्री रह चुके थे।

 वह 1952 से ही लगातार विधायक थे और समाजवादी आंदोलन में उनका बड़ा मान था।

पर, मुझे बाद में लगा कि जेपी की चिट्ठी भी समाजवादियों की खेमेबाजी पर कोई सकारात्मक असर नहीं डाल सकी।

उन्हीं दिनों ही बांका में हुए लोक सभा उप चुनाव में राज नारायण जी का मुकाबला मधु लिमये से हो गया।

दरअसल कर्पूरी ठाकुर ने ही लोक सभा के उस उप चुनाव में राजनारायण जी को उम्मीदवार बनवा दिया था।

संभवतः राजनारायण जी वहां की चुनावी संभावना के बारे मंे पहले से ही सशंकित थे।

 यह बात मैं व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कह रहा हूं।

मैं राजनारायण जी से पहले से परिचित था।

पर शायद उन्हें इस बात की खबर नहीं थी कि मैं इस बीच कर्पूरी जी का निजी सचिव बन चुका था।

राजनारायण जी बांका जाने के लिए पटना रेलवे स्टेशन से गुजरने वाले थे।

वह वहां नामांकन दाखिल करने जा रहे थे।

कर्पूरी जी के साथ मैं भी नेता जी यानी राज नारायण जी से मिलने पटना जंक्शन गया था।

 मुझे देखा तो नेता जी मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे सबसे अलग ले गये।

  अपने कमजोर कंधे पर उनके भारी हाथ का दबाव मुझे आज भी याद है।

  उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मेरा बांका में उप चुनाव लड़ना सही रहेगा ?

मैं क्या कहता !

 कर्पूरी जी का मैं निजी सचिव था।

हालांकि एक राजनीतिक कार्यकत्र्ता के रूप मैं यह महसूस कर रहा था कि सही नहीं रहेगा।

फिर भी मुझे कहना पड़ा कि आपका लड़ना ठीक रहेगा।

नेता जी लड़े और हारे।

मधु लिमये जीत गये।

समाजवादी आंदोलन के लोगों के बीच पहले ‘नेता जी’ राजनारायण ही थे।

मुलायम सिंह यादव तो बाद में नेता जी कहलाए।

   राजनारायण से मेरी थोड़ी लंबी मुलाकात एक बार छपरा में हुई थी जहां वह एक राजनीतिक कार्यक्रम के सिलसिले में आए थे।

उससे पहले सन 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के गया राष्ट्रीय सम्मेलन में मैं उनसे आॅटोग्राफ के लिए मिला था।

उन्होंने मेरे आॅटोग्राफ बुक पर एक अच्छी कबीरवाणी लिख दी।

मैंने तब कई अन्य राष्ट्रीय समाजवादी नेताओं के भी आॅटोग्राफ लिये थे।

राजनारायण जी से छपरा वाली मेरी मुलाकात संभवतः सन 1969 में हुई।

 तब मैं वहां छात्र था और लोहियावादियों की पार्टी के छात्र संगठन ‘क्रांतिकारी विद्यार्थी संघ’ का जिला सचिव था।

उसके प्रदेश स्तर के नेता युवा नेता दिवंगत नरेंद्र सिंह थे जो बाद में बिहार सरकार में मंत्री बने थे।

 बिहार में युवजन सभा से हटकर छात्रों का भी एक संगठन था जिसका नाम था क्राांतिकारी विद्यार्थी संघ।

 छपरा में नेता जी के सबसे करीबी थे वकील रवींद्र वर्मा।

  ठीक उसी तरह, जिस तरह पटना में भोला प्रसाद सिंह।

 वर्मा जी वकील थे और इलाहाबाद विश्व विद्यालय के छात्र रह चुके थे।

वहीं वे समाजवादियों के प्रभाव में आए थे।

  वर्मा जी अब नहीं रहे।

पर इस अवसर पर इतना जरूर कहूंगा कि समाजवादी आंदोलन को आगे बढ़ाने में अपने छोटे दायरे में ही सही, पर,उनका जितना योगदान था,उस अनुपात में न तो उनकी पार्टी ने और न ही समाजवादी सरकारों ने उन्हें कुछ  दिया।

खैर, उसकी चिंता उन्हें नहीं थी।

तब देश के अन्य अधिकतर समाजवादी भी उसकी चिंता नहीं करते थे।

  खैर, वर्मा जी राजनारायण जी को लेकर टैक्सी से सारण जिले के एक सुदूर गांव की ओर जा रहे थे 

जहां कार्यक्रम था ।

मैं भी साथ था।

 वर्मा जी ने राजनारायण जी से मेरा परिचय कराया, 

‘ये हैं सुरेंद्र अकेला।

अच्छे कार्यकत्र्ता हैं।’

 नेता जी ने अपने लहजे में सवाल किया, 

‘का हो अकेला ! 

अभी अकेले हउ अ ?

 शादी नइख कइले ?’ 

मैंने कहा कि जी नहीं।

इस पर नेता जी ने वर्मा जी से कहा कि 

‘रवींदर, फलां .......की छोटी बहन से इसकी शादी करा दूं ?

 वह मेडिकल में पढ़ती है।’ 

उन्होंने लखनऊ के अल्पसंख्यक समुदाय की एक समाजवादी महिला का नेता का नाम लिया था।

जानबूझ कर मैं उनका नाम यहां नहीं लिख रहा हूं।

मैंने कहा कि 

‘नेता जी , बहुत गैप है।

कहां वह मेडिकल छात्रा और कहां मैं जो बी.एससी. की परीक्षा छोड़कर कार्यकत्र्ता बना हुआ हूं।’

 नेता जी ने कहा कि 

‘मैं सारा गैप पाट दूंगा।’

 पता नहीं, वह मजाक कर रहे थे या वह सिरियस थे।

पर, मुझे उनके चेहरे के भाव से लगा कि वे सिरियस थे।

पता नहीं वे चाहते हुए भी ऐसी शादी करा पाते या नहीं,पर उनका आत्म -विश्वास देखने लायक था।

साथ ही धर्म निरपेक्षता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता भी। 

  तब सांप्रदायिक माहौल आज जैसा बिगड़ा हुआ भी नहीं था।

तब समाजवादी आंदोलन के नेता यह चाहते थे कि राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं की पत्नियां नौकरी वाली हों ताकि परिवार चलाने के लिए पैसे की तंगी नहीं हो।

 देश के कई समाजवादी नेताओं की पत्नियां ऐसी थीं भी।

 आज तो राजनीति में इतना पैसा है कि किसी को इसकी न तो चिंता है नहीं जरूरत।

कुल मिलाकर मैं राजनारायण जी को एक निःस्वार्थ, निर्भीक  और जुझारू नेता के रूप मंे याद करता हूं।

 वह अपने साथियों और कार्यकत्र्ताआंे का बड़ा ध्यान रखते थे।

सन 1969 में समाजवादी आंदोलन के सिलसिले में दिल्ली के संसद भवन के पास  हुए प्रदर्शन में मैं भी था।

गिरफ्तारियां हो गयीं।

अनेक नेताओं और कार्यकत्र्ताओं के साथ मैं भी तिहाड़ जेल पहुंच गया।

उस समय जेल जाने वालों में मधु लिमये,राजनारायण ,जनेश्वर मिश्र, किशन पटनायक ,शिवानंद तिवारी ,राजनीति प्रसाद, राम नरेश शर्मा, देवेंद्र कुमार सिंह सहित अनेक छोटे- बड़े नेता-कार्यकत्र्ता  थे।

कुछ समय तक जेल में रहना पड़ा।

कड़ाके की जाड़ा थी।

वह भी दिल्ली की जाड़ा।

फिर भी कंबल ओढ़े नेताजी सुबह-सवेरे सभी बंदियों के पास जाते थे।

सबका हाल चाल पूछते थे।

किसे चाय मिली या नहीं, इसका बड़ा ध्यान रखते थे।

मैंने महसूस किया कि व्यक्तिगत रूप से कार्यकत्र्ताओं का ध्यान रखने में राजनारायण जी अन्य बड़े नेताओं से थोड़ा अलग थे।

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रविवार, 19 नवंबर 2023

 साठ-सत्तर के दशकों में अध्ययनशील,जुझारू और खबरखोजी संसद सदस्य सदन में अपने भाषणों के जरिए तथा अन्य तरह से आम तौर पर ‘स्टोरी ब्रेक’ करते थे।

 अखबार उसे बाद में लोगों तक पहुंचाते थे।अपवाद तब भी था।

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बाद के वर्षों में मीडिया खास कर अखबार स्टोरी ब्रेक करने लगे और सांसद उसे सदन में उठाने लगे।

अपवाद तब भी था।

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हाल के वर्षों में सदनों और मीडिया जगत में क्या हो रहा र्है और कितना हो रहा है ?

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सुरेंद्र किशोर

19 नवंबर 23


शनिवार, 18 नवंबर 2023

 हर फिक्र को धुएं में मत उड़ाइए,नेता जी !!

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सुरेंद्र किशोर

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‘‘मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया,

हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया।

बर्बादियों का शोक मनाना फिजूल था,

बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया।

जो मिल गया,उसे ही मुकद्दर समझ लिया

जो खो गया, उसको भुलाता चला गया।

आदि आदि 

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फिल्म ‘‘हम दोनों’’ -1961

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डा.राम मनोहर लोहिया,जवाहरलाल नेहरू और जिन्ना 

सहित न जाने कितने नेता सिगरेट के गुलाम थे।

डा.लोहिया ने महात्मा गांधी के कहने पर सिगरेट एक बार छोड़ दी थी।

पता नहीं, गांधी जी ने नेहरू से सिगरेट क्यों नहीं छुड़वाई ?

पर,जब गांधी की हत्या हुई तो उसके बाद लोहिया ने फिर सिगरेट शुरू कर दिया था।

नतीजा यह हुआ कि लोहिया को सिगरेट पीते देख देश भर के युवा लोहियावादी सिगरेट पी-पी कर अपना स्वास्थ्य गंवाने लगे।

सामाजवादियों के अभिभावक नुमा नेता मामा बालेश्वर दयाल ने डा.लोहिया को लिखा कि आप सिगरेट पीना छोड़ दो।

  क्योंकि आपकी देखा-देखी समाजवादी नौजवान सिगरेट पीने लगे हैं।उससे उनके स्वास्थ्य को हानि पहुंच रही है।

इस पत्र पर डा.लोहिया ने सिगरेट छोड़ दी।

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नेहरू के निजी सचिव एम.ओ.मथाई ने, जो सन 1946 से 1959 तक उनके साथ रहे थे,अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक  में  लिखा है कि रात के भोजन के बाद अपने बेडरूम में जाकर नेहरू सिगरेट पीते थे।

 उनके विश्वस्त सहायक उपाध्याय नेहरू की सेवा में रहता था।

यानी, 1959 तक तो नेहरू सिगरेट पीते ही थे।

बाद में भी पीते होंगे !

पता नहीं।

क्योंकि जब गांधी उन्हें नहीं रोक सके तो बाद में भला कौन रोकता।

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मेरी चिंता सिर्फ एक बात को लेकर रही है।

इस तरह के बड़े -बड़े नेताओं को गलत-खान पान करके अपने शरीर को बर्बाद नहीं करना चाहिए।

क्योंकि उनके लाखों-करोड़ों  प्रशंसक होते हैं

जो उनकी ओर उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं।

नेता के न रहने पर उन्हें भारी निराशा होती है। 

दरअसल ऐसे नेताओं के जीवन के साथ -साथ उनके शरीर पर भी जनता का अघोषित अधिकार होता है।

बिहार के भी कुछ प्र्रमुख नेताओं ने अपने प्रशंसकांें-समर्थकों  को इस मामले में निराश किया है।

गलत खानपान आदि के कारण इनका भी शरीर 

धीरे- धीरे इनका साथ छोड़ रहा है।

गलत खानपान में अति भोजन,

कुभोजन,

मांस,

मदिरा,

गांजा,

भांग,

सिगरेट आदि शामिल हैं। 

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17 नवंबर 23


मंगलवार, 14 नवंबर 2023

 नेहरू के जन्म दिन पर

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नेहरू के निधन के बाद डा.राममनोहर लोहिया ने 

कहा था कि ‘1947 के पहले के नेहरू को मेरा सलाम !’  

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डा.लोहिया ने ठीक ही कहा था।मैं भी आज यही कहूंगा।

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1947 के बाद के नेहरू पर हम लोग अन्य अवसरों पर ‘‘बातचीत’’ व लेखन करते रहते हैं।

बाद की उनकी भूमिका विवादास्पद रही।

पर, 1919 के नेहरू को याद करना आज के माहौल में 

बहुत ही प्रासंगिक है।

क्योंकि आज कोई युवा अपना सुखमय जीवन छोड़कर देश के लिए राजनीति में नहीं कूद रहा है।

कोई कूद भी रहा है तो अपना और अपने परिजन का जीवन

और भी सुखमय बनाने के लिए।

उधर सन 1919 में नेहरू ने खुद को अनिश्चितता के भंवर में डाल दिया था।

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‘जालियांवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 को हुए भीषण नर संहार से क्षुब्ध होकर जवाहरलाल नेहरू आजादी की लड़ाई में शामिल हो गये।

जवाहर लाल जी की बहन कृष्णा हठी सिंह ने लिखा है कि 

‘‘उस घटना ने नेहरू परिवार के जीवन प्रवाह को ही बदल दिया था।

इसी दर्दनाक घटना के बाद आजादी की लड़ाई में शामिल होने को लेकर परिवार की दुविधा समाप्त हो गई थी।’

  हठी सिंह के अनुसार ‘‘उससे पहले जवाहर तो आजादी की लड़ाई में शामिल होने को बेताब थे।

पर मोतीलाल नेहरू का मानना था कि मुट्ठी भर लोगों के जेल चले जाने से देश गुलामी से मुक्त नहीं हो सकता।’

एक नरंसहार के कारण  जवाहर लाल नेहरू जैसा शानदार और जानदार नेता आजादी की लड़ाई के लिए मिल गया।

नेहरू ने अपना सुखमय जीवन छोड़कर अनिश्चितता के भंवर में खुद को डाल दिया था।

वे युवकांे के हृदय सम्राट थे।मैंने 1962 में उन्हें छपरा की विशाल जन सभा में सुना और करीब से देखा भी था।

उनसे प्रेरणा लेकर न जाने कितने नौजवान आजादी की लड़ाई में शामिल हुए होंगे।उनके निधन के समय मैं एक बारात में था।

रेडियो पर शोक गीत सुन -सुन कर मैं भी खूब रोया था।

काश ! नेहरू की जैसी शानदार-जानदार भूमिका स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में थी,वैसी ही शानदार भूमिका आजादी के बाद देश को बनाने में रही होती ।

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अब 1919 से आज की तुलना करते हैं।

आज कितने नौजवान अपना सुखमय जीवन त्याग कर देश के लिए राजनीति में आ रहे हैं ?

लोगों को शंका होती है कि आ भी रहे हैं तो अरविंद केजरीवाल जमात जैसी ‘‘भूमिका’’ निभाने के लिए ???

अपवादों की बात और है।

पर,अपवादों से देश नहीं चलता।

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1919 में देश को विदेशियों से आजाद कराने की चुनौती थी।

आज देश को ‘‘देशियों -विदेशियों’’ से बचाने की जरूरत है जो देश को नये ढंग से गुलाम बनाने की गंभीर कोशिश में लगे हुए हैं।

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14 नवंबर 23

    


 


 


सोमवार, 13 नवंबर 2023

 नास्त्रेदमस की भविष्यवाणियां

सही या गलत ?

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सुरेंद्र किशोर

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तीसरे विश्व युद्ध के बाद क्या भारत एक महा शक्ति के रूप में उभरेगा ?

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तीसरा विश्व युद्ध कितना दूर, कितना पास ?

क्या उससे संसार के बड़े-बड़े देश तबाह हो जाएंगे ?

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इन दिनों भारत के मीडिया में नास्त्रेदमस (सन 1503-सन 1566)की भविष्यवाणियों की खूब चर्चा हो रही है।

फ्रांस के प्रख्यात भविष्यवक्ता नास्त्रेदमस पर प्रकाशित पुस्तक में दर्ज सिर्फ भारत से संबंधित भविष्यवाणी को यहां उधृत कर रहा हूं।

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नमूना-1

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‘‘तीनों सागरों की श्रृंखला में स्थित ,विश्व के पूरब में एक ऐसा प्राणी जन्म लेगा जो बृहस्पति को अपना गुरु मानकर उसकी उपासना करेगा।

वह प्राणी इतना महान और शक्तिशाली होगा कि वह तूफान की भांति पूरे विश्व पर छा जाएगा।’’

(पेज-58)

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    नमूना-2

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 ‘‘भारत में नई शक्ति का उदय होगा।’’

(पेज-36)

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नरेंद्र शर्मा द्वारा हिन्दी में प्रस्तुत नास्त्रेदमस की पुस्तक से।

नास्त्रेदमस की मूल पुस्तक फ्रंेच में लिखी गयी।

पर,उसका अनुवाद दुनिया के लगभग हर भाषा में हो चुका है।

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13 नवंबर 23

 


 दीपावली के अवसर पर पैसे वाले अपने पैसों का 

हिसाब-किताब करते हैं।

मैं अपने जीवन में मिली संतुष्टि का हिसाब बताता हूं।

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पहले कबीर को याद कर लूं--

‘‘....,जब आवे संतोष धन,सब धन धूली समान !

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आज मैं एक अत्यंत संतुष्ट व्यक्ति हूं।

मुझे ऐसी संतुष्टि उपलब्ध कराने में मेरे परिवार,रिश्तेदार,

मित्र,सहकर्मी तथा समाज के अन्य अनेक लोगों का 

योगदान रहा है।सबके प्रति आभारी हूं।

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अब एक ही इच्छा है--अंत समय तक कुछ 

लिखता और कुछ अधिक पढ़ता रहूं।

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सुरेंद्र किशोर

12 नवंबर, 23




रविवार, 12 नवंबर 2023

 आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं


शनिवार, 11 नवंबर 2023

 भारत के समक्ष इजरायल की

 अपेक्षा अधिक गंभीर खतरा ?

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    सुरेंद्र किशोर

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इस पोस्ट को पढ़कर कुछ लोग नाराज हो सकते हैं।

उसी तरह, जिस तरह सरदार पटेल का, चीन से खतरे से संबंधित, पत्र पढ़कर नेहरू नाराज हुए थे।

पर, 1962 के बाद तो लोकतांत्रिक मिजाज वाले प्रधान मंत्री नेहरू ने अपनी गलती स्वीकारी थी।

खबर आई थी,कहीं फोटो भी देखा था कि इसीलिए उन्होंने 1963 के गणतंत्र दिवस पर सुरक्षा बल के साथ साथ आर.एस.एस.की भी परेड करवाई थी। 

किंतु आज के जेहादियों के समर्थक गैर मुस्लिम नेता-बुद्धिजीवी काफी जिद्दी लगते है।ये नेहरू जो नहीं हैं।

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कल ही गीतकार जावेद अख्तर ने हिन्दू संस्कृति में मौजूद सहिष्णुता की सार्वजनिक रूप से सराहना की।

उन्होंने यह भी कहा कि हिन्दुओं की वजह से ही इस देश में लोकतंत्र कायम है।

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संकेत हैं कि इजरायल-हमास युद्ध की पुनरावृति भारत में भी देर-सबेर हो सकती है।

इस गलतफहमी में मत रहिए कि वहां युद्ध फलस्तीन की जमीन के लिए है।

बल्कि वह तो बहाना है।

जिस तरह जेहादी पाकिस्तान के लिए कश्मीर बहाना है।

बल्कि हमास तथा उस तरह के जेहादी संगठनों का उद्देश्य दूसरा ही है।

गत 27 अक्तूबर 23 को खूंखार जेहादी संगठन हमास के पूर्व प्रमुख ने केरल के अतिवादी मुसलमानों की एक सभा को  आॅडियो-विजुअल माध्यम से संबोधित करते हुए कहा कि ‘‘हिन्दुओं का उखाड़ फेंको।’’उन्होंने यदि यह कहा होता कि इजरायल को उखाड़ फेंकने में मदद करो तो बात समझ में आती।

याद रहे कि आज की भारत

सरकार भी फलस्तीन का समर्थन करती है।

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भारत में सक्रिय प्रतिबंधित पी.एफ.आई.ने पहले ही से यह घोषणा कर रखी है कि सन 2047 तक हथियारों के बल पर हम भारत को इस्लामिक देश बना देंगेे।

पाक से भी एक जेहादी

ने हाल में हुंकार भरी है कि इजरायल के बाद हमास का अगला निशाना भारत होगा।

ये सब बातें चुनाव लड़ने वाले वोट लोलुप नेतागण आपको नहीं बताएंगे।

उल्टे वे यह बताएंगे कि अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता से अधिक खतरनाक बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता होती है।इसलिए भाजपा-संघ को उखाड़ फेंकिए।

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अब आप कल्पना कीजिए कि युद्ध

पर इजरायल को रोज-रोज कितना खर्च करना पड़ रहा है।

 रकम सुनकर होश उड़ जाएंगे।गुगुल पर देख लीजिए।

भारत पर यदि बाहर-भीतर के जेहादियों का हमला हुआ तो हमारी सरकार को भी भारी खर्च उठाना पड़ेगा।उसके मुकाबले के लिए हमें और अधिक आर्थिक व हथियारी साधन जुटाने पड़ंेगे। 

हां,यदि सन 2024 में ऐसी सरकार सत्ता में आई जो जेहादियों से लड़ने वाली होगी तो ही भारी खर्च होगा।

यदि जेहादियों के समक्ष सरेंडर करने वाली सरकार चुनी गयी तो वही होगा जैसा 2001 में संसद पर हमले और 2008 में मुम्बई पर हुए जेहादी हमले के बाद हुआ।यानी, हमारी सरकारों ने पलट वार नहीं किया।हां, 2001 की घटना के बाद अटल सरकार ने सेना को सीमा पर भेज दिया था।पाक ने भी अपनी सीमा पर अपने सैनिक भेज दिए थे।पर पता नहीं वाजपेयी सरकार को किसने रोक दिया।

सेना वापस आ गयी।

उस पर भारत के एक बड़े सेक्युलर नेता ने यह बयान दिया था कि भारत सरकार पाकिस्तान को हर्जाना दे।

क्योंकि पाकिस्तान को अपनी सेना को सीमा पर भेजने और बुलाने में भारी खर्च आया है।

ऐसे -ऐसे नेताओं से यह देश जूझ रहा है।किसी अगले हमले के समय भी जूझेगा।  

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किंतु इजरायल की सरकार वैसी कायर नहीं है।

जब जेहादियों ने गत 7 अक्तूबर को इजरायल में घुस कर हमला करके ‘‘भारत के मध्य युग’’ को दुहराया तो इजरायल ने ‘अब नहीं तो कभी नहीं’ रणनीति के तहत जबर्दस्त जवाबी हमला शुरू कर दिया।विदेशों में बसे इजरायली लड़ने के लिए स्वदेश आ गये हैं।

दूसरी ओर 1971 के युद्ध के समय भारत के एक प्रभावशाली परिवार के पायलट ने तो छुट्टी ले ली थी।

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हमले की स्थिति में भारत को

जो खर्च आएगा,उसके लिए यहां के टैक्स चोरों के खिलाफ और भी सघन व कठोर कार्रवाई की जरूरत है।

देशभक्त लोगों को चाहिए कि वे अपने आसपास के टैक्स चोरों के खिलाफ शासन को गुप्त सूचना देकर 

साधन बढ़ाने में मदद करें ताकि हमें एक बार फिर मध्य युग न देखना पड़े।

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आयकर,ई. डी. और सी.बी.आई..की सक्रियता के कारण हाल के वर्षों में भारत सरकार की आय बढ़ी है।गत साल ई डी ने भ्रष्टों के यहां से एक लाख करोड़ रुपए जब्त किये।   

भारत सरकार का वर्ष 2013-14 में कर राजस्व करीब 11 लाख करोड़ रुपए था।

वह बढ़कर 2023-24 वर्ष में 27 लाख करोड़ रुपए हो जाने का अनुमान है।

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पर,अभी इसमें बहुत अधिक बढोत्तरी की गुंजाइश भी है।

क्योंकि प्रभावशाली भ्रष्ट लोग अब भी अपने धंधे में काफी सक्रिय हैं।वे तो कार्रवाई से बचने के लिए अब गिरोह बना रहे हैं।

अगले लोकसभा चुनाव में वे सोरोज से अधिक सक्रिय होंगे। 

लूट का एक नमूना देखिए।

एक पूर्व केंद्रीय मंत्री के बारे में पिछले दिनों यह खबर छपी कि उसने छह देशों में करीब डेढ़ लाख करोड़ रुपए की निजी संपत्ति बनाई है।वैसे आरोपी को भी अदालत बार बार लगातार  अंतरिम जमानत देती जा रही है।

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केंद्र सरकार के सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने पिछले दिनों इस स्थिति पर अपनी यह पीड़ा जताई थी कि इस देश की अदालत  सामान्य अपराध और आतंकी अपराध के बीच अंतर नहीं कर पा रही है।

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हमारे देश के पडोसी विभिन्न तरह के हैं।

चीन को हमारी जमीन चाहिए।

पाक और बाहर-भीतर के जेहादियों 

को यहां पूरे देश में इस्लामिक शासन चाहिए।

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पर,भारत और अन्य देशों में अंतर है।

अभी 56 या 57 देशों में मुसलमानों का बहुमत है।

ऐसा आम तौर पर तलवार के बल पर हुआ है।

भारत में भी कभी मुसलमानों का शासन था।

अन्य देशों में 20 या 25 साल में ही मुसलमानों का बहुमत हो गया।

पर,भारत में मान सिंहों और जयचंदों की मौजूदगी के बावजूद 

यहां एक तिहाई आबादी को ही मुसलमान बनाया जा सका।

मान सिंह और जयचंद तो राजा थे,इसलिए उनकी अधिक चर्चा होती रही है।

मध्य युग में हिन्दू आबादी का एक हिस्सा ने भी मुसलमान शासकों का साथ दिया था।

आज जेहादियों का साथ देने वालों की संख्या तब से अधिक है।

क्योंकि अब तो चुनाव के लिए वोट भी चाहिए।

आज खतरा बड़ा है।मैंने अपना कर्तव्य समझा कि कुछ बातें आपसे शेयर करूं।ऐसी बातें करने में खतरा भी है।पर,मैंने तो आपातकाल में इससे भी अधिक ‘‘खतरनाक खतरा’’ उठाया था।

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11 नवंबर 23


    दो ही विकल्प

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आतंक को हराओ या आतंक के हाथों हार जाओ

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सुरेंद्र किशोर

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‘‘आतंक को यथाशीघ्र समाप्त करो या आतंक के हाथों खुद के ही समाप्त हो जाने की प्रतीक्षा करो।’’

लगता है कि अमेरिका आज इसी नतीजे पर पहुंच चुका है।

यदि आतंक ने अंततः इजरायल पर फतह हासिल कर ली तो आतंक यूरोप की ओर बढ़ेगा।

वहां उसके लिए कभी के ‘‘शरणार्थियों’’ ने भूमिका तैयार कर रखी है।

वहां से आतंक अमेरिका पहुंचेगा।

अमेरिका ‘नाइन-एलेवन’ नहीं भूल सकता !!!

उसके बाद कहां -कहां पहुंचेगा,इसका अनुमान लोगबाग लगा लें।

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नब्बे के दशक में ही अमरीकी राजनीतिक वैज्ञानिक सेम्युएल 

पी. हंटिग्टन ने लिख दिया था कि ‘‘शीत युद्ध की समाप्ति के बाद अब देशों के बीच नहीं, बल्कि सभ्यताओं के बीच संघर्ष होगा।

  उस संघर्ष में चीन इस्लामिक देशों के साथ रहेगा।’’

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सुरेंद्र किशोर

नवंबर 23

  


 उनके जन्म दिन पूर्व उप प्रधान मंत्री एल.के.आडवाणी से मिलने और उन्हें बधाई देने कल प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी,गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह उनके आवास पहुंचे थे।

आडवाणी जी 96 साल के हो गये।

बिहार के स्वतंत्रता सेनानी व समाजवादी नेता रामजीवन सिंह भी 2 नवंबर को 92 साल के हो गये।

पर,समाजवादी धारा के किसी नेता ने उनकी खोज-खबर नहीं ली।

राजनीति से रिटायर होकर रामजीवन बाबू अपने गांव(मंझौल,बेगूसराय)रहते हैं।

मैंने यूं ही लिख दिया।राम जीवन बाबू को इसकी चिंता भी नहीं रहती कि कौन मिलता है और कौन नहीं।

आडवाणी जी के चेहरे पर तो थोड़ी उदासी का एक स्थायी भाव नजर आता है।

पर,महेश जी के वाॅल पर रामजीवन सिंह की तस्वीर जब मैं देखता हूं तो मुझे यह नहीं लगता कि वे इस किसी फिक्र में हैं।

रामजीवन सिंह 1967 में पहली बार विधायक बने थे। तब से वे एकाधिक बार मंत्री और सांसद भी रहे।

जहां तक मुझे याद है,समाजवादी धारा की पार्टी के कभी वे बिहार अध्यक्ष भी थे।

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संघ परिवार और समाजवादी परिवार के नेताओं में यही अंतर हेै।

संध परिवार वाले आम तौर पर अपने लोगों से पारिवारिक जैसा संबंध रखते हैं।अपने लोगों के घर जाते रहते हैं।

पर,मैंने कुछ दशकों से देखा है,अपवादों को छोड़ कर सत्ता में आने के बाद अधिकतर समाजवादी ‘साहब’ बन जाते हैं।हालांकि सब एक जैसे नहीं होते।पर अपवादों से तो देश नही चलता न ही कोई संगठन।

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सुरेंद्र किशोर

नवंबर 23


सोमवार, 6 नवंबर 2023

 जब आजादी के बाद से ही सरकारी धन की लूट शुरू हो गयी तो 

80 करोड़ लोगों को आज भी मुफ्त अनाज देने की मजबूरी रहेगी ही।

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1985 में प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि हम 100 पैसे दिल्ली से भेजते हैं और उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं।

बीच के प्रधान मंत्रियों के नामों को याद कर लीजिए।

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सुरेंद्र किशोर

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प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने मुफ्त राशन योजना की अवधि का विस्तार किया तो कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा कि यह विस्तार आर्थिक संकट का संकेत है।

जयराम ने सही कहा।

पर,यह संकट शुरू किसने किया ?

किसने इसे बढ़ाया ?

जाहिर है कि आजादी के तत्काल बाद की सरकारों ने ही।

कारण--भीषण सरकारी भ्रष्टाचार।

जब सरकारी संसाधनों की भारी लूट हो जाएगी तो सामान्य विकास के लिए पैसे कहां से आएंगे ?

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नमूना-एक

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   संविधान के नीति निदेशक तत्व वाले चैप्टर में लिखा हुआ है कि ‘राज्य अपनी नीति इस प्रकार संचालित करेगा कि सुनिश्चित रूप से आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन 

और उत्पादन के साधनों का सर्व साधारण के लिए अहितकारी केंद्रीकरण न हो।’

पर, ऐसा हुआ क्या ?

नहीं हुआ।

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नमूना -दो 

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  संविधान के पालन के बदले जो कुछ हुआ, वह जल्द ही एक बड़े नेता की जुबान से सामने आ गया।

सन 1963 में ही तत्कालीन कांग्रेस  अध्यक्ष डी.संजीवैया को  इन्दौर के अपने भाषण में यह कहना पड़ा  कि 

‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे।

गुस्से में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने  यह भी कहा था कि ‘झोपड़ियों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’

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नमूना-तीन

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1971 के बाद तो सरकारी पैसों की लूट की गति तेज हो गयी।

अपवादों को छोड़कर सरकारों में भ्रष्टाचार ने संस्थागत रूप ले लिया।

प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने तब दो

बातें कहीं थीं।

उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार तो वल्र्ड फेनोमेना है।सिर्फ भारत में ही थोड़े ही है।

उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘मेरे पिता संत थे ,पर मैं पालिटिशियन हूं।’’

याद रहे कि जवाहरलाल नेहरू ने निजी संपत्ति नहीं बनाई।उनकी कुछ दूसरी कमियां थीं जिनसे देश आगे नहीं बढ़ सका।बढ़ा भी तो बहुत ही कम।

नतीजतन हम 1962 में चीन के हाथों बुरी तरह हार गये।

भोजन के लिए पी.एल.-480 के तहत अमरीकी गेहूं पर निर्भर थे।

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नमूना-4

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 सरकारें बदलती गयीं ।सार्वजनिक धन की लूट पर किसी एक दल का एकाधिकार नहीं रहा।ईमानदार नेता और अफसर अपवाद स्वरूप ही इक्के दुक्के नजर आने लगे।

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नमूना-5

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 23 जनवरी, 2018 के एक अखबार का शीर्षक था - 

‘देश में 2017 में जितनी संपत्ति बढ़ी उसका 73 प्रतिशत हिस्सा, यानी 5 लाख करोड़ रुपए सिर्फ 1 प्रतिशत अमीरों के पास पहुंचा।’

अपवादों को छोड़कर जिस देश के राजनीतिक नेता करोड़ों-अरबों कमाएंगे तो उनकी प्रत्यक्ष-परोक्ष मदद से उस देश के व्यापारी अरबों--खरब कमाएंगे ही !

भाड़ में जाए करोड़ों - करोड़ वह जनता जिसे आज भी  पेट को अपनी पीठ से अलग रखने के लिए एक जून का भोजन किसी तरह मिल पाता है !

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नमूना-6

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‘‘चाहे यह भ्रष्टाचार का विरोध हो या भ्रष्ट के रूप में देखे जाने का भय,शायद भ्रष्टाचार अर्थ -व्यवस्था के पहियों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण था, इसे काट दिया गया है।

मेरे कई व्यापारिक मित्र मुझे बताते हैं निर्णय लेेने की गति धीमी हो गई है।.............’’

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--नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी,

हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान टाइम्स

23 अक्तूबर 2019

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इस नोबल विजेता ने ही राहुल गांधी को ‘‘न्याय योजना’’ शुरू करने की सलाह दी थी।

  भ्रष्टाचार के समर्थकों के बीच का यह गहरा संबंध देख लीजिए !

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नमूना-7

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आज जब देश के दर्जनों प्रमुख नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के भीषण आरोपों की जांच हो रही है तो कांग्रेस तथा उसके सहयोगी दल कह रहे हैं कि बदले की भावना यह सब हो रहा है।

यदि सिर्फ ऐसा ही होता तो मांग के बावजूद कांग्रेस की राजस्थान सरकार ने पूर्व मुख्य मंत्री वसुधंरा राजे के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच क्यों नहीं कराई ?

दरअसल कांग्रेस चाहती है कि भ्रष्टाचार के मामले में तुम हमें संरक्षण दो,हम तुम्हें संरक्षण देंगे।

2004 में मनमोहन सरकार के गठन के तत्काल बाद राहुल गांधी का बयान आया था-अटल बिहारी सरकार के भ्रष्टाचारों की हम जांच कराएंगे।

क्या किया राहुल ने ?

दरसल उन्हें बता दिया गया होगा कि हमारे बीच समझौता है--बोफोर्स घोटाले में अटल सरकार ने हमें बचा जो लिया था !

नरेंद्र मोदी राज में वह समझौता टूट गया है।

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अंततः मतदाताओं के लिए संदेश -

अगले किसी भी चुनाव में ऐसी ही सरकारें चुनो जो भरपूर टैक्स वसूले।

ईमानदारी से उन पैसों को विकास ,कल्याण और सुरक्षा कार्यों में लगाए।

देख लो आज इजरायल सरकार को अपने देश को जेहादियों से बचाने के लिए युद्ध पर कितना अधिक धन खर्च करना पड़ रहा है।

  भारत को भी एक दिन खर्च करना पड़ सकता है।

  क्योेंकि पी.एफ.आई.ने घोषणा कर रखी है कि सन 2047 तक हमें हथियारों के बल पर भारत को इस्लामिक देश बना देना है।इस जेहादी संगठन पी.एफ.आईग्. को वोट के लिए हमारे कुछ नेतागण या तो मान सिंह की तरह सक्रिय सहयोग कर रहे हैं तो जयचंद की तरह चुप रह कर सहयोग कर रहे हैं।

पी.एफ.आई.ने मुस्लिम देश से पैसे लेकर शाहीनबाग जाम कराया था।

 उधर से चीन हमारे बड़े भूभाग पर कब्जा करना चाहता है। हमको देर- सबेर दोनों देशों यानी चीन-पाक से एक साथ युद्ध करना पड़ सकता है।

साथ ही के भीतर चीनपंथी नेताओं,जेहादपक्षी भारतीयों तथा 

वोट बैंक लोलुप दलों से भी।

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6 नवंबर 23




                   

  

 


   



रविवार, 5 नवंबर 2023

 


सरकार में अधिक वेतन का लोभ छोड़कर कभी अनेक लोगों ने स्वेच्छा से अपेक्षाकृत कम वेतन पर अखबार की नौकरी करना स्वीकार किया था

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सुरेंद्र किशोर

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बिहार के वरिष्ठ पत्रकार व बिहार विधान परिषद के मनोनीत सदस्य शम्भूनाथ झा ने 27 मई 1989 को दैनिक ‘आर्यावर्त’ में 

लिखा था कि 

‘‘मुझे पत्रकारिता से इतना प्रेम था कि मैट्रिक से एम.ए.तक की परीक्षाओं में बहुत ऊंचा स्थान पाने पर भी मैंने किसी भी सरकारी नौकरी की तलाश नहीं की।

और जब कभी मैंने एक -दो बार इसके बारे में सोचा भी तो तुरंत अपना विचार बदल लिया।

युद्ध (तीसरे विश्व युद्ध)के समय अंग्रेज शासक कुछ अच्छे पत्रकारों को सरकारी नौकरी में लगाना चाहते थे।

मेरे एक साथी श्री विश्वनाथ वर्मा को, जो इंडियन नेशन के सहायक संपादक थे,सरकार ने अपनी सेवा में बुला लिया और उन्हें जन संपर्क विभाग का निदेशक बना दिया।’’

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इस मामले में दिवंगत झा अकेले नहीं थे।

आर्यावर्त-इंडियन नेशन में कई उच्च शिक्षाप्राप्त लोगों ने कम पैसे पर नौकरी स्वीकार की जिन्हें सरकार अधिक पैसे दे सकती थी।क्योंकि उन दिनों उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों की काफी कमी थी।

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2 नवंबर 23



गुरुवार, 2 नवंबर 2023

        क्या हुआ जो हमने मध्य युग नहीं देखा !!!

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हमें अब इस बात का कोई अफसोस नहीं होना चाहिए कि हम मध्य युग में पैदा नहीं हुए थे और तब के नजारे नहीं देखे थे।

कि,किस तरह विदेशी आक्रांता हमंे बांट कर विजयी हुए,बांट कर ही  उन लोगों ने सैकड़ों साल तक राज भी किया। 

आज यहां मध्य युग दुहराया जा रहा है।पात्र उसी तरह के हैं सिर्फ उनके नाम बदल गये हैं।

  मध्य युग के पात्रों को याद कर लीजिए और आज के पात्रों से उनकी तुलना कर लीजिए।

आज वाले भारी पड़ेंगे।

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सुरेंद्र किशोर

अक्तूबर 23


 जेठमलानी के कैरियर में उछाल आ गया था नानावती-प्रेम आहूजा केस के साथ 

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इस कांड को लेकर कई किताबें लिखी गयीं और ‘ये रास्ते हैं प्यार के’ सहित कई फिल्में भी बनीं

          सुरेंद्र किशोर 

दिवंगत राम भूलचंद जेठमलानी ने कहा था कि 

‘‘नानावती -प्रेम आहूजा केस मेरे कैरियर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ।’’

यह बात तब की है जब दिवंगत जेठमलानी बंबई में प्रैक्टिस कर रहे थे।

 नौ सेना के कमांडर के.एम.नानावती ने 27 अप्रैल, 1957 को प्रेम आहूजा की गोली मार कर हत्या कर दी थी।

हत्या के बाद नानावती ने खुद को पुलिस के हवाले कर दिया था।

दरअसल प्रेम आहूजा का नानावती की पत्नी सिल्विया से अवैध संबंध था।

जब नानावती ने प्रेम आहूजा के घर जाकर उससे  कहा कि तुम मेरी पत्नी से शादी कर लो तो आहूजा ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया। 

वह एक प्लेबाॅय का जीवन जी रहा था।

आहूजा का इनकार सुनकर नानावती ने उसे तीन गोलियां मारीं । उसकी मौत हो गयी।

  नानावती ऊंची पहुंच वाला व्यक्ति  था।वह ब्रिटेन में भारतीय हाई कमिश्नर वी.के.कृष्ण मेनन का रक्षा सहचारी रह चुका था।बाद में उसे उसका लाभ भी मिला।

इस बहु चर्चित घटना को लेकर बाद में कई फिल्में बनीं।

किताबें लिखी गयीं।

रात जेठमलानी अविभाजित भारत के सिंध प्रांत के शिकार पुर में  14 सितंबर 1923 को  जन्मे थे । गत 8 सितंबर 2019 को उनका निधन हो गया।

एक साथ दो -दो क्लास पास कर लेने के कारण बेजोड़ प्रतिभाशाली जेठमलानी 13 साल की उम्र में ही मैट्रिक पास कर गए थे।

17 साल की उम्र में लाॅ ग्रेजुएट हो गए।

पर, तब  प्रैक्टिस करने  की  न्यूनत्तम उम्र नियमतः 21 साल तय थी। जेठमलानी के लिए उस नियम को बदल कर 18 किया गया।

देश के बंटवारे के बाद जेठ मलानी बंबई आकर प्रैक्टिस करने लगे।

  नानावती-प्रेम आहूजा केस में राम जेठमलानी लोअर कोर्ट के सरकारी वकील यानी पी.पी., सी.एम.त्रिवेदी के सहायक थे।

सरकारी वकील आधे मन से केस लड़ रहे थे।

उसके कई कारण थे।

एक कारण यह भी हो सकता है कि उन दिनों हत्यारे नानावती के साथ जन भावना थी।

हजारों की भीड़ केस की प्रगति जानने के लिए उत्सुक रहती थी।

कुछ अन्य कारणों की चर्चाएं भी बंबई की हवाओं में थीं।

पर जेठमलानी अपना काम पेशेवर ढंग से करना चाहते थे।

कर भी रहे थे।इस बात पर पहले तो दोनों के बीच मतभेद हुआ।

 पी.पी.ने जेठमलानी की सलाहों की उपेक्षा की।

पर बाद में सलाह के लिए वे जेठमलानी पर ही निर्भर हो गये थे।

   इस हत्याकांड से संबंधित मुकदमा लोअर कोर्ट से  होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा।तब इस केस की चर्चा पूरे देश में थी।

जेठमलानी इस केस में बाद में हाई कोर्ट में सरकारी वकील यशवंत विष्णु चंद्रचूड़ के भी सहायक  थे।

चंद्रचूड़ सन 1978 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी बने थे।

 प्रेम आहूजा की हत्या को लेकर आम जन भावना नानावती के साथ थी।इस भावना को उभारने में मीडिया खास कर साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ और उसके अदमनीय संपादक आर.के.करंजिया का बड़ा योगदान था। ब्लिट्ज ने नानावती के पक्ष में अभियान चला रखा था।

25 पैसे कीमत वाला साप्ताहिक ब्लिट्ज इस केस की खबरों के कारण दो रुपए में बिकने लगा था।उसका प्रसार भी बहुत बढ़ गया था।जन भावना का असर ग्रेटर बंबई सेशन कोर्ट के ‘जूरी’ सदस्यों पर भी पड़ा।

मुकदमे की सुनवाई के बाद जूरी के 9 में से 8 सदस्यों ने नानावती को दोषमुक्त कर देने की सलाह जज को दे डाली।

  जज ने उसका पालन किया।

नानावती को लोअर कोर्ट से रिहाई मिल गयी।मामला हाईकोर्ट में अपील में गया।

फिर से केस का ट्रायल हुआ।

इस ट्रायल में सरकार के वकील चंद्रचूड़ के साथ -साथ जेठमलानी  की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही।

वहां नानावती को आजीवन कारावास की सजा हो गयी। 

11 दिसंबर 1961 को सुप्रीम कोर्ट ने भी इस सजा पर अपनी मुहर लगा दी।

साथ ही, इसी केस के साथ जूरी सिस्टम समाप्त कर दिया गया।इस देश का वह आखिरी केस

था जिसमें जूरी की सहायता ली गयी थी।इस केस में जूरी का निर्णय तथ्यों के बदले भावना पर आधारित था।

यानी इस ऐतिहासिक फैसले में राम जेठमलानी का भी महत्वपूर्ण  योगदान माना गया।

इसीलिए जेठमलानी ने कहा कि वह केस उनके लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ।

 नानावती तीन साल तक जेल में रहे।

बाद में  महाराष्ट्र की राज्यपाल विजय लक्ष्मी पंडित ने नानावती को माफी दे दी।राज्यपाल के पास यह अधिकार है।

उसके बाद नानावती अपनी पत्नी सिल्विया और बच्चे के साथ कनाडा जा बसे थे।अब तो उनका निधन हो चुका है।

 जेठमलानी ने तो बाद में कई अन्य महत्वपूर्ण केस लड़े।

 वह केंद्रीय मंत्री भी रहे ।दो बार लोक सभा के सदस्य और कई बार राज्य सभा के सदस्य बने।

जेठमलानी की तर्क शक्ति और शैली बेजोड़ थी।

एक बार वे हथियारों मशहूर सौदागर खशोगी के जहाज पर देखे गये थे।उन दिनों जेठमलानी बोफोर्स तोप खरीद घोटाले के खिलाफ अभियान चला रहे थे।

एक पत्रकार ने पूछा कि एक तरफ तो आप हथियार सौदे के घोटाले के खिलाफ अभियान चला रहे हैं,दूसरी ओर हथियारों के कुख्यात सौदागर के जहाज पर देखे जाते हैं ?

इस पर जेठमलानी ने कहा कि मैं बोफोर्स तोप सौदे में घोटाले का सबूत लेने वहां गया था।क्योंकि एक चोर के खिलाफ सबूत दूसरे चारे के पाॅकेट में पाया जाता है।

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15 अक्तूबर 23