शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

 शुद्ध लेखन के प्रति संपादक 

राजेंद्र माथुर की सावधानी

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--सुरेंद्र किशोर--

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  अखबार में एक भी गलती न जाए,इसको लेकर

नईदुनिया (इन्दौर) के संपादकगण बहुत ही सावधान 

रहते थे।

  उसके संपादक राजेंद्र माथुर ने एक बार मुझे बताया 

था कि हमारे पाठक भी हमारी खूब निगरानी करते रहते हैं।

एक गलती पर औसतन 13 चिट्ठियां हमें आती हैं पाठकों की।

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मैं दैनिक ‘आज’(पटना) में काम करने के साथ-साथ जिन अन्य अनेक अखबारों व पत्रिकाओें के लिए मैं लिखता था,उनमें नईदुनिया दैनिक अखबार भी था।

राष्ट्रीय स्तर के एक बड़े साहित्यकार ने एक बार इन्दौर से लौटकर दिल्ली में कहा था कि हिन्दी का सबसे अच्छा अखबार इन्दौर से निकलता है।उनका आशय नईदुनिया से था।

(ऐसा राजेंद्र यादव या नामवर सिंह ने कहा था।मैं भूल रहा हूं,इसलिए नाम नहीं लिखा।) 

   नईदुनिया के संपादक राजेंद्र माथुर ने मुझे 1981 में लिखा कि 

‘‘बिहार के हर जिला और तहसील शहर का सही नाम लिखकर आप क्यों न हमें भिजवा दें। 

ज्यादा से ज्यादा  400 नाम होंगे,लेकिन हमेशा के लिए मानकीकरण हो जाएगा।’’

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इस पत्र पर यहां किसी टिप्पणी की कोई जरूरत नहीं है।

कम लिखना,अधिक समझना !

जो नहीं जानते ,उन्हें बता दूं कि राजेंद्र माथुर बाद में नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बने।

हिन्दी पत्रकारिता का वह एक बहुत बड़ा नाम है।

1991 में माथुर साहब कम ही उम्र में हमें छोड़कर चले गए।

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25 अक्ूबर 21 

  


       सिर्फ अच्छी भाषण-शैली 

      जीत की गारंटी नहीं

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       --सुरेंद्र किशोर--

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 यदि सिर्फ अच्छी भाषण-शैली ही चुनाव में जीेत की गारंटी 

होती तो न तो अटल बिहारी वाजपेयी कभी चुनाव हारते और न ही तारकेश्वरी सिन्हा।

इन नेताओं के दल भी चुनाव नहीं हारते।

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चुनाव में जीत के लिए अन्य अनेक 

तत्व महत्वपूर्ण होते हैं -

जैसे -

1.-नेताओं व दलों के सत्कर्म।

2.-सामाजिक,जातीय और सांप्रदायिक आधार 

पर वोट के अनुकूल समीकरण।

3.-प्रतिद्वंद्वी दलों की कमजोरी।

4.-साधन

5.-देश-काल-पात्र की

जरूरतों के अनुुकूल नेता व दल की 

नीतियां-कार्य नीतियां।

आदि आदि........

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सिर्फ नेता की भाषण-शैली बेजोड़ हो तो

भीड़ जरूर जुटेगी।

पर वोट ???

पता नहीं।

यदा- कदा स्थानीय कारणों से वोट मिल भी जाते हैं,

कभी नहीं भी मिल पाते।

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23 अक्तूबर 21  


शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2021

      राज्य सभा और लोक सभा टी.वी.

     के विलयन से भारी आर्थिक बचत

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          --सुरेंद्र किशोर--

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   निजीकरण से पहले ‘एयर इंडिया’ को प्रतिदिन 20 करोड़ रुपए का घाटा उठाकर चलाया जा रहा था।

एयर इंडिया पर 61 हजार 562 करोड़ रुपए का कर्ज था।

इसमें से आधा कर्ज 110 बड़े जहाज खरीदने के कारण हुआ।

वह खरीद एयर इंडिया के लिए गैर जरूरी थी।

 आरोप लगा था कि मन मोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में ‘कमीशनखोरों’ के लिए ऐसी खरीद जरूरी मानी गई थी।

   उसी तरह लोक सभा टी.वी.और राज्य सभा टी.वी के विलयन से भारी बचत हो रही है।

विलयन से पहले दोनों चैनलों पर सरकार को अलग- अलग जितना खर्च करना पड़ता था,उससे 25 प्रतिशत कम खर्च अब करना पड़ता है। 

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21 अक्तूबर 21   


गुरुवार, 21 अक्तूबर 2021

 




 जन्म दिन पर ‘बिहार केसरी’ 

 डा. श्रीकृष्ण सिंह की याद में

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   --सुरेंद्र किशोर-

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श्रीबाबू के बारे में कुछ बातें 

जो आज की राजनीति में विरल हैं।

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वंशवाद-परिवारवाद 

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चम्पारण के कुछ कांग्रेसी सन 1957 में श्रीबाबू से मिले।

कहा कि शिवशंकर सिंह को विधान सभा चुनाव लड़ने की अनुमति दीजिए।

श्रीबाबू ने कहा कि मेरी अनुमति है।

किंतु तब मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा।

क्योंकि एक परिवार से एक ही व्यक्ति को चुनाव लड़ना चाहिए।

शिवशंकर सिंह श्रीबाबू के पुत्र थे।

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धन संग्रह

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सन 1961 में बिहार के मुख्य मंत्री डा.श्रीकृष्ण सिंह के निधन के 12 वें दिन राज्यपाल की उपस्थिति में उनकी निजी तिजोरी खोली गयी थी।

तिजोरी में कुल 24 हजार 500 रुपए मिले।

वे रुपए चार लिफाफों में रखे गए थे।

एक लिफाफे में रखे 20 हजार रुपए प्रदेश कांग्रेस कमेटी के लिए थे।

दूसरे लिफाफे में तीन हजार रुपए थे मुनीमी साहब की बेटी की शादी के लिए थे।

तीसरे लिफाफे में एक हजार रुपए थे जो महेश बाबू की छोटी कन्या के लिए थे।

चैथे लिफाफे  में 500 रुपए उनके  विश्वस्त नौकर के लिए थे।

श्रीबाबू ने कोई अपनी निजी संपत्ति नहीं खड़ी की।

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जातिवाद 

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श्रीबाबू के मुख्य मंत्रित्व काल में एल.पी.सिंह राज्य सरकार के मुख्य सचिव थे।

एल.पी.सिंह राजपूत थे।

श्रीबाबू के बाॅडी गार्ड भी राजपूत ही थे।

उनके निजी सचिव रामचंद्र सिंहा कायस्थ थे।

मुख्य मंत्री सचिवालय में कोई भूमिहार अफसर या सहायक नहीं था।

हां,श्रीबाबू के कुछ स्वजातीय नेताओं पर जातिवाद का  आरोप जरूर लगता था।

पर, खुद मुख्य मंत्री वैसे नहीं थे,ऐसा उनके समकालीन लोगों ने लिखा हैं।

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प्रशासन से संबंध

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   सन 1948 से 1956 तक बिहार के मुख्य सचिव रहे एल.पी.सिंह ने श्रीबाबू की प्रशासनिक दक्षता व कार्यनीति को याद करते हुए एक बार लिखा कि 

‘‘श्रीबाबू अफसरों की अनुशासनहीनता के सख्त खिलाफ थे।

एक बार एक एस.डी.ओ.ने अपने तबादले को कुछ महीने के लिए स्थगित कर देने का सरकार से आग्रह किया।

उसने लिखा कि उसने अपनी बेटी की शादी तय कर दी है।

शादी का सारा प्रबंध वहीं किया गया हैं।

यह आग्रह उस अफसर ने उचित आधिकारिक माध्यम से किया।

पर साथ -साथ उस अफसर ने एक प्रभावशाली विधायक के जरिए भी मुख्य मंत्री के यहां तबादला स्थगित करने के लिए पैरवी करवाई।

 उस समय इस आचार संहिता का पालन होता था कि कोई सरकारी सेवक विधायक -सांसद से पैरवी नहीं करवाएगा।’’

   एल.पी.सिंह के अनुसार ‘श्रीबाबू ने बेटी की शादी के कारण तबादला तो स्थगित कर देने का आदेश दे दिया,पर विधायक की पैरवी को अनुचित माना।

मुख्य मंत्री ने आदेश दिया कि आचार संहिताके उलंघन के लिए उस अफसर के निंदन की टिप्पणी दर्ज कर दी जानी चाहिए।’

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मीडिया के साथ संबंध 

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  मीडिया के प्रति श्रीबाबू के रुख के बारे में 

‘उत्तर बिहार’ नामक पत्रिका के प्रबंध संपादक व स्वतंत्रता सेनानी नंद किशेार सिंह ने लिखा कि 

‘श्रीबाबू पत्रकारिता की स्वतंत्रता के गंभीर पक्षधर थे।

उन दिनों अंग्रेजी दैनिक ‘सर्चलाईट ’के संपादक थे एम.एस.एम.शर्मा।

  शर्मा जी सर्चलाईट के प्रथम पष्ठ के प्रथम कालम में ‘एलोज एंड एपोल्स’ नामक एक स्तम्भ नियमित रूप से लिखते थे।

इस स्तम्भ के माध्यम से शर्मा जी श्रीबाबू के व्यक्तिगत जीवन पर भी बहुत ही आपत्तिजनक निम्नस्तरीय व्यंग्य लिखा करते थे।’

  ‘ एक दिन महेश बाबू के निवास पर श्रीबाबू से मेरी भेंट हुई।

मैंने उनसे कहा कि आप ‘सर्चलाइट’ के खिलाफ कोई कठोर कदम क्यों नहीं उठाते ?

थोड़ी देर तक मेरी बात सुनने के बाद श्रीबाबू ने कहा कि ‘‘मैंने सर्चलाइट के विरूद्ध एक अत्यंत कठोर

कदम उठाया है।’’

  मुझे श्रीबाबू के इस कथन पर घोर आश्चर्य हुआ।

 क्योंकि तब मैं सूचना व जन संपर्क विभाग में सहायक निदेशक के पद पर था।

 सरकार द्वारा किसी भी कार्रवाई की मुझे जानकारी होती।

  मैंने जब यह बात कही तो श्रीबाबू ने कहा कि ‘वह कठोर कदम यह है कि मैंने सर्चलाइट पढ़ना ही छोड़ दिया है।

 मैं अपनी क्षुद्रता पर लज्जित हो गया।’

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परिवार के प्रति रुख 

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  एक व्यक्ति ने बहुत पहले इन पंक्तियों के लेखक को बताया था कि श्रीबाबू के परिवार के एक अत्यंत करीबी सदस्य ने जब पटना में अपना मकान बनवाया तो मुख्य मंत्री  ‘घर भोज’ में भी नहीं गये।

श्रीबाबू  का कहना था कि मुझे इस बात पर शक है कि उसने अपनी वास्तविक निजी कमाई से ही वह घर बनवाया है।

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एक कहावत है कि ‘‘गलती करना मानव का स्वभाव है।’’

संभव है कि श्रीबाबू ने भी अपने जीवनकाल में गलतियां की होंगी।

  पर, जितनी खूबियां ऊपर मैंने गिर्नाइं,उनमें से कोई दो गुण भी आज के जिस नेता में है,उसकी हमें सराहना करनी चाहिए।(ऐसे इक्के -दुक्के नेता हैं भी आज।)

  क्योंकि अभी तो लग रहा है कि कुछ अपवादों को छोड़ कर देश-प्रदेश की पूरी राजनीति रसातल की ओर जा रही  है।

लगता है कि पूरे कुएं में भांग पड़ चुकी है !

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21 अक्तूबर 21


 


  देश की सुरक्षा के प्रति ऐसी लापरवाही ?!!

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मनमोहन सिंह के शासनकाल में वित्त 

मंत्रालय ने रक्षा मंत्रालय से पूछा था कि क्या 

चीन से खतरा दो साल बाद भी बना रहेगा ?

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उन दिनों प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्री थे

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         सुरेंद्र किशोर    

   रक्षा मंत्रालय ने चीन से भारतीय सीमा पर खतरे को देखते हुए सेना विस्तार के लिए 65 हजार करोड़ रुपये की योजना बनाकर वित्त मंत्रालय को भेजा था।

   इस पर वित्त मंत्रालय ने रक्षा मंत्रालय से एक अनोखा सवाल पूछा।

 उसने लिख कर यह पूछा कि ‘‘क्या चीन से खतरा दो साल बाद भी बना रहेगा ?’’

यह पूछ कर वित्त मंत्रालय ने रक्षा मंत्रालय को लाल झंडी दिखा दी।

  दरअसल वित्त मंत्रालय रक्षा मंत्रालय को यह संदेश देना चाह रहा था कि यदि दो साल बाद भी खतरा बना नहीं रहेगा तो इतना अधिक पैसा रक्षा तैयारियों पर खर्च करने की जरूरत ही कहां है ?

जबकि जानकार लोग हमेशा यह कहते रहे हैं कि हमारे देश को चीन से निरंतर खतरा है।

   अब भला रक्षा मंत्रालय या कोई अन्य व्यक्ति भी इस सवाल का कोई ऐसा जवाब कैसे दे सकता था जिससे वित्त मंत्रालय संतुष्ट हो जाता ।

   वैसे भी उसे संतुष्ट होना होता तो ऐसा सवाल ही क्यों करता ?

   क्या कोई बता सकता है कि चीन का अगला कदम क्या होगा ?

यदि तब 65 हजार करोड़ रुपए के सहारे हमने अपनी रक्षा तैयारियां बेहतर कर ली होतीं तो बाद के वर्षों में हमें चीन समय- समय पर आंखें नहीं दिखाता।

आज भी चीन से खतरे के बीच हमारी सेना सीमा पर उलझी हुई है।

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इस आशय की खबर इंडियन एक्सप्रेस के 11 जनवरी, 2012 के अंक में प्रमुखता से छपी थी।

  पर, इस खबर पर तब हमारे देश की ससंद में कोई हंगामा नहीं हुआ।

  देश की सुरक्षा को लेकर ऐसी खबर यदि किसी भी दूसरे देश के बारे में वहां छपी होती तो वहां के नेतागण उद्वेलित हो जाते।

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मन मोहन सिंह के शासन काल में अरबों रुपए के कितने अधिक घोटाले-महा घोटाले हुए ,यह सबको मालूम है।

पर रक्षा प्रबंधों के लिए पैसों की कमी थी !

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अब जरा हम पीछे मुड़कर देखें ! 

1961 में रक्षा मंत्रालय ने अत्यंत जरूरी सामग्री के  

लिए मात्र एक करोड़ रुपए मांगे थे।

सरकार ने नहीं दिए।

नतीजा देखिए--

देश के प्रमुख पत्रकार मनमोहन शर्मा के अनुसार,

‘‘एक युद्ध संवाददाता के रूप में मैंने चीन के हमले को कवर किया था।

  मुझे याद है कि हम युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे।

 हमारी सेना के पास अस्त्र, शस्त्र की बात छोड़िये,कपड़े तक नहीं थे।

 एक दुखद घटना का उल्लेख करूंगा।

1962 के युद्ध के समय अंबाला से 200 सैनिकों को एयर लिफ्ट किया गया था।

उन्होंने सूती कमीजें और निकरें पहन रखी थीं।

उन्हें बोमडीला में एयर ड्राप कर दिया गया

जहां का तापमान माइनस 40 डिग्री था।

वहां पर उन्हें गिराए जाते ही ठंड से सभी बेमौत मर गए।

  युद्ध चल रहा था,मगर हमारा जनरल कौल मैदान छोड़कर दिल्ली आ गया था।

ये नेहरू जी के रिश्तेदार थे।

इसलिए उन्हें बख्श दिया गया।

हेन्डरसन जांच रपट आज तक संसद में पेश करने की किसी सरकार में हिम्मत नहीं हुई।’’

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20 अक्तूबर 21



बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

 पटना की बाॅबी की मौत (1983)पर फिल्म

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--सुरेंद्र किशोर--

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दैनिक ‘आज’ के डा.लक्ष्मीकांत सजल ने जानकारी दी है कि बिहार की ‘बाॅबी’ पर फिल्म बन रही है।

यह मेरे और पत्रकार परशुराम शर्मा के लिए संतोष की बात है।

  जिस बाॅबी की मौत की स्टोरी को हम दोनों ब्रेक की  थी और उस पर फिल्म बन जाए तो संतोष की बात तो होनी ही चाहिए।

उस स्टोरी के लिए ‘आज’ प्रबंधन ने मुझे पुरस्कार भी दिया था।

सन 1983 में दैनिक ‘आज’ में मैं मुख्य संवाददाता की भूमिका में था।

मैंने दैनिक ‘प्रदीप’ के संवाददाता परशुराम शर्मा के साथ मिलकर स्टोरी की।

इस खबर को छापने में खतरा था।

 क्योंकि बाॅबी की मौत के संबंध में कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई थी।

  पटना के कई अन्य संवाददाताओं को भी उस मौत की सूचना थी।

पर, वे लोग ‘‘जिम्मेदार’’ संवाददाता थे।

प्राथमिकी के बिना खबर देना उनलोगों ने ठीक नहीं समझा।

पर, हमने रिस्क लिया।

  फिर तो पुलिस सक्रिय हो गई।

आखिर क्यों न हो !

तब पटना के एस.एस.पी. किशोर कुणाल जैसे कत्र्तव्यनिष्ठ अफसर थे।

तब डी.एम.थे राजकुमार सिंह।

वह अभी केंद्रीय मंत्री हैं।

आर.के.सिंह भी कत्र्तव्यनिष्ठ अफसर थे।

किसी के गलत प्रभाव

में नहीं आते थे।

  पटना पुलिस ने दैनिक ‘आज’ और ‘प्रदीप’ की तत्संबंधी खबरों की चर्चा करते

हुए प्राथमिकी दर्ज की थी।

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फिल्म तो बन रही है।

ठीक ही है।

पर,उम्मीद की जानी चाहिए कि स्टोरी के साथ न्याय होगा।

यदि फिल्मकार का रिसर्च अच्छा होगा तो फिल्म भी अच्छी ही बनेगी ही।

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19 अक्तूबर 21


 


लगभग पांच दशक पहले पटना के दैनिक ‘प्रदीप’ के 

संपादकीय पेज पर मेरा यह लेख छपा था।

मैंने यह लेख लिखा और संपादक रामसिंह भारतीय से मिलकर उन्हें दे आया।

  तब संपादकों से मिलने के लिए पुर्जा नहीं भिजवाना  पड़ता था।

गांधी टोपी पहने भरे-पूरे शरीर के स्वामी भारतीय जी धीर-गंभीर व्यक्ति लगे।

उनसे मेरी कोई जान-पहचान न थी।

न ही मैंने किसी से उनके यहां यह लेख छापने के लिए सिफारिश करवाई थी।

जब मैं उनके पास गया तो वे अपना सिर झुकाकर कुछ लिख रहे थे।

मेरे लेख पर उन्होंने एक नजर डाली और कहा--

‘ठीक है।’

  देने को तो दे आया था,किंतु मुझे छपने की कोई उम्मीद नहीं थी।

दूसरे दिन यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि लेख संपादकीय पृष्ठ पर छप गया।

  तब मैं राजनीतिक कार्यकत्र्ता की हैसियत से कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव था।

कर्पूरी जी को मैं कोई राजनीतिक सलाह तो नहीं देता था,(अब जाकर मेरी वह बौद्धिक हैसियत बनी है कि किसी नेता को राजनीतिक सलाह दे सकूं।)तब मेरी उम्र ही कितनी थी !

हां, कर्पूरी जी के साथ रहने के कारण मैं उनके जैसा आचरण करने की कोशिश जरूर करता था।

हाल में नीतीश कुमार ने भी अपने एक साथी से सकारात्मक ढंग से कहा भी कि 

‘‘सुरेंद्र जी कर्पूरी जी के साथ रह चुके हैं।’’

   यानी,कर्पूरी जी के साथ रहना भी एक क्वालिफिकेशन है।

मैंने कर्पूरी जी से कई बातें सीखी।

खैर,यह लेख छपने के बाद कर्पूरी जी के अत्यंत करीबी नेता प्रणव चटर्जी ने मुझसे शिकायत के लहजे में कहा था कि ‘‘किसी निजी सचिव को लेख नहीं लिखना चाहिए।’’

खैर, मैं खुद को राजनीतिक कार्यकत्र्ता अधिक व निजी सचिव कम समझता था।

संभवतः कर्पूरी जी ने ही प्रणव जी को मुझसे यह बात कहने के लिए कहा हो !!

कर्पूरी जी बुरा लगने वाली कोई बात सीधे किसी को नहीं कहते थे।

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अब लेख के विषय वस्तु पर आते हैं।

पढ़कर देखिए कि समाजवादी नेताओं को आपसी मतभेद व मन -भेद सलटाने में कितना समय देना पड़ता था !!!

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18 दिसंबर, 1972 के 

दैनिक प्रदीप (पटना) में प्रकाशित

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समाजवादियों की फूट और एकता के प्रयास

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    सुरेंद्र अकेला उर्फ सुरेंद्र किशोर

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   संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के अलग -अलग पारित विलयन प्रस्तावों के बाद विलयन को औपचारिक तौर पर कारगर बनाने के लिए सोशलिस्ट पार्टी की जो तदर्थ समिति 7 अगस्त, 1971 को बनी ,वह नेताओं की ईष्र्या और द्वेषजनित कलह के कारण कुछ ही महीने के भीतर ही बुरी तरह बिखर गई।

    पटने में समाजवादी कार्यकत्र्ताओं का अखिल भारतीय सम्मेलन टूटे खंडों को जोड़ने में कुछ हद तक अवश्य सफल हुआ है।

  पर, सम्मेलन के आयोजक श्री कर्पूरी ठाकुर के दावे यदि सही मान लिए जाएं तो पटना सम्मेलन अब तक के सोशलिस्टों के आम सम्मेलनों से सर्वथा भिन्न और दूरगामी परिणामों वाला सिद्ध होगा।

  ज्ञातव्य है कि श्री कर्पूरी ठाकुर ने दावा किया है कि देश के अधिकतर सोशलिस्ट कार्यकत्र्ता उनके एकता प्रयासों के साथ हैं जिसमें मध्य प्रदेश,राजस्थान,पश्चिम बंगाल और अन्य कई प्रांतों की  पूरी की पूरी अविभाजित इकाइयां शामिल हैं।

 लगता है कि एकता प्रयास असफल होने के बाद शाखाएं नेताओं को एक करने को बाध्य करेंगी।

  सम्मेलन के ठीक पांच दिन पूर्व सोशलिस्ट पार्टी (लोहियावादी )

द्वारा एकताकांक्षियों के साथ मिल जाने का निर्णय श्री कर्पूरी ठाकुर की एक बड़ी उपलब्धि यांे कही जाएगी,पर प्रस्तावित सम्मेलन की अन्य उपलब्धियांें का अंदाजा लगाया जा सकता है जो पार्टी की टूट की संदर्भ कथा से अवगत हों।

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    दिलचस्प और ़त्रासक

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अपने देश की समाजवादी पार्टी की कहानी दिलचस्प भी है और त्रासक भी।

 कांग्रेसी हिमालय से निकली सोशलिस्ट पार्टी की गंगा कई धाराओं में बंटकर आपस में टूटती और जुड़ती तो चली, पर कभी सूखी नहीं।

   सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ,संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी सोशलिस्ट पार्टी (लोहियावादी)आदि अनेक शब्द समूह उन्हीं धाराओं के नाम हैं।

   पर,1972 की टूट की कहानी पूरी तरह पद लिप्सा और निजी महत्वाकांक्षाओं के टकराव की कहानी है।

 श्री राज नारायण को राज्य सभा की टिकट से वंचित रखने की साजिश

में सोशलिस्ट पार्टी की तदर्थ समिति ने पार्टी द्वारा उम्मीदवारों की 

नाम-जदगी के संबंध में जो नीति निदेशक सूत्र निर्धारित किया,उस पर श्री जार्ज फर्नांडिस तो बहुत पहले ही पछतावा व्यक्त कर चुके हैं,

पर श्री राजनारायण को इलाहाबाद शिविर सम्मेलन (मई 1972) एक  नयी पार्टी बनाकर समाजवादी आंदोलन को कमजोर करने का कोई अफसोस नहीं।

  इस बीच दोनों खंडों के उलाहना के पात्र बने कर्पूरी ठाकुर पिछले नौ महीनों से उनकी उपेक्षा और व्यंग्य की त्रासदी झेलते रहे हैं और इसी से बचने के लिए उन्होंने अब कार्यकत्र्ताओं का आह्वान किया क्योंकि शिखर के एकता प्रयत्न जब विफल हो गये थे  तो शाखाओं से एकता प्रयास प्रारंभ करने आवश्यक थे।

   शिखर से एकता प्रयत्न की विफलता की शुरूआत उसी दिन हो गई थी ,जबकि इलाहाबाद सम्मेलन में लोहियावादी सोशलिस्ट ने श्री कर्पूरी ठाकुर को अपने प्रतिनिधियों के बीच भाषण नहीं करने दिया। 

   इलाहाबाद से लौटने के बाद श्री ठाकुर ने सोशलिस्ट पार्टी ( मूल या शेष ? ) की ओर रुख किया।

 सोशलिस्ट पार्टी (शेष) की राष्ट्रीय राष्ट्रीय तदर्थ समिति की बैठक पटने में 12 जून से होने वाली थी।

 श्री कर्पूरी ठाकुर ने 12 जून को ही अपने निवास स्थान पर उनके समर्थकों की अनौपचारिक बैठक बुलाई और एक छह सूत्री फार्मला भी प्रस्तुत किया, जिसमें श्री राज नारायण पर से अनुशासनात्मक कार्यवाही समाप्त करने , अक्तूबर में राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने तथा पार्टी को 

19 मार्च, 1972 की पूर्व स्थिति में लाने की बातें शामिल थीं।

  श्री कर्पूरी ठाकुर ने कहा था कि उनके इस छह सूत्री प्रस्ताव की एकतरफा स्वीकृति के बाद सम्पूर्ण एकता नहीं तो अधिकत्तम एकता तो अवश्य ही हो जाएगी।

उन्होंने एक भी कहा था कि श्री राजनारायण के राजी नहीं होने की स्थिति में वे दूसरे पक्ष में शामिल हो जाएंगे।

    पर, श्री मधु लिमये के अथक प्रयासों के बावजूद राष्ट्रीय तदर्थ समिति ने श्री कर्पूरी ठाकुर के उक्त एकता फार्मूले को अस्वीकार कर दिया।

 कहा जाता है कि इससे मधु लिमये इतने दुखी हुए कि समिति की अगली बैठकों में शामिल तक नहीं हुए।

  फिर भी श्री कर्पूरी ठाकुर के एकता प्रयास चलते रहे।

 पिछले अगस्त में श्री ठाकुर ने पार्टी के तीनों खंडों के एकताकांक्षियों को प्रयाग के संगम पर एकत्र किया,यह सोचकर शायद तीन नदियों का संगम स्थल तीनों गुटों को उसी तरह एक धारा में बदल सके।

 पर काश ! राजनय नदियों की तरह पवित्र

हुआ करता।

  फिर भी एकता के लिए एक समिति और तीन सूत्री फार्मला बन गए।

वे फार्मूले थे उचित प्रतिनिधित्व के आधार पर नीति आयोग गठित किया जाए।

आयोग देश के हर हिस्से में घूमकर साथियों और पदाधिकारियों से विचार विमर्श करे।

नीति कार्यक्रम विधान का मसविदा बनाये। 

  सदस्यता भर्ती और मध्य प्रदेश में सम्मेलन का स्थान चयन एवं तिथि निर्धारण आदि की व्यवस्था के लिए उचित प्रतिनिधित्व के अनुसार एक संचालन समिति गठित की जाए।

  समीचीन होगा कि मध्यावधि काल में यानी सम्मेलन होने के पूर्व तक वत्र्तमान तदर्थ समिति निद्रारत रहे।

   इस फार्मूले की पृष्ठभूमि में 12 सितंबर की बैठक में (जिसमें सोशलिस्ट पार्टी शेष और एकताकांक्षियों के प्रतिनिधि शामिल थे )जो एक तीन सूत्री फार्मूला स्वीकार किया गया,वह उपर्युक्त इलाहाबाद के फार्मूले का संशोधित रूप ही था।

   श्री कर्पूरी ठाकुर को अधकार दिया गया कि वे इस फार्मूले के आधार पर श्री राजनारायण को एकता के लिए राजी करें।

पर, लोहियावादी सोशलिस्ट पार्टी ने संगठन कांग्रेस, भारतीय क्रांति दल और रिपब्लिकन पार्टी आदि से वृहद एकता के प्रस्ताव के बहाने उक्त प्रस्ताव को तब टाल दिया।

   श्री कर्पूरी ठाकुर के समक्ष अब एक ही रास्ता बचा कि वे सोशलिस्ट पार्टी (शेष) में शामिल हो ही जाएं,पर उन्होंने 15 अक्तूबर को श्री मधु लिमये ,मधु दंडवते और श्री जार्ज फर्नांडिस को पटना बुलाया ताकि राजनारायण की अस्वीकृति ओर 12 सितंबर के फार्मूले के संदर्भ में बातें की जा सकंे। 

पर वे नहीं आ सके।

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  कार्यकत्र्ता सम्मेलन

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12 सितंबर को श्री कर्पूरी ठाकुर को अपने कुछ उत्साही सहयोगियों की सलाह मानकर पटने में कार्यकत्र्ताओं का एक अलग सम्मेलन बुलाने का निर्णय करना पड़ा।

  पर, अब भी श्री कर्पूरी ठाकुर को उम्मीद है कि शत प्रतिशत नहीं तो 75 प्रतिशत एकता अवश्य हो जाएगी।

इस दिशा में लोहियावादी सोशलिस्ट द्वारा श्री कर्पूरी ठाकुर द्वारा बुलाये गये सम्मेलन में मिलकर प्रतिष्ठापूर्ण ढंग से एकाकार हो जाने की कोशिश हुई।

 पर उनकी शत्र्त है कि श्री ठाकुर सोशलिस्ट पार्टी (शेष)के साथ किसी तरह की एकता वात्र्ता सदा के लिए रद कर दें।

  हाल में ही एकताकांक्षियों और लोहियावादी सोशलिस्टों ने साथ मिलकर एक पार्टी का रूप देने का अंतिम रूप से सिर्फ फैसला ही नहीं कर लिया है, वरन एकताकांक्षियों के पटना सम्मेलन के लिए प्रसिद्ध पत्रकार श्री ओमप्रकाश दीपक द्वारा तैयार नीति वक्तव्य के मसविदे पर बहस भी कर अपने मनचाहे परिवत्र्तन भी किए हैं।

   ऐसे तो एकताकांक्षियों और लोहियावादी सोशलिस्ट के बीच एकता की भविष्यवाणी सोशलिस्ट पार्टी शेष के श्री रामानंद तिवारी बहुत पहले से ही करते रहे हैं और उन्हें इसकी कोई परवाह भी नहीं रही है,पर उनके साथी मधु लिमये और जार्ज फर्नांडिस की स्थिति थोड़ी भिन्न है।

  श्री कर्पूरी ठाकुर के साथ पटने में हो रही श्री मधु लिमये की बातचीत बहुत कुछ लोहियावादियों के रुख पर निर्भर करता है।

  ज्ञातव्य है कि लोहियावादियों ने सर्वश्री मधु लिमये ,जार्ज फर्नांडिस और मधु दंडवते आदि को छह वर्षों के लिए पार्टी से निकाल देने का भी फैसला किया है।

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रविवार, 17 अक्तूबर 2021

         काजल की कोठरी के बावजूद ?!!!

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            --सुरेंद्र किशोर--

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नरेंद्र मोदी करीब दो दशकों से लगातार सत्ता के शीर्ष पर हैं।

इतने लंबे समय तक सत्ता में रहने के बावजूद उन पर न तो 

आर्थिक भ्रष्टाचार का कोई आरोप लगा और न ही परिवारवाद का।

अन्य तरह के आरोप जरूर लगे।

हालांकि कुछ भी साबित नहीं हुआ है।

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   ऐसे ही दूसरे और तीसरे नेता बिहार से हैं।

 डा. श्रीकृष्ण सिंह भी करीब 17 साल तक सत्ता के शीर्ष पर रहे।

  किंतु उपर्युक्त दोनों में से किसी तरह का आरोप उन पर नहीं लगा।

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बिहार के मौजूदा मुख्य मंत्री नीतीश कुमार पर भी न तो आर्थिक भ्रष्टाचार का आरोप लगा और न ही वंशवाद-परिवारवाद का।

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आजादी के बाद के देश भर के ऐसे अन्य नेताओं का भी पता लगाया जाना चाहिए जो लंबे समय तक सत्ता के शीर्ष पर रहने के बावजूद इन दो बुराइयों से दूर रहे।

उन पर एक पुस्तक लिखी जाए। 

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  हां, इस पोस्ट को लेकर कोई गलतफहमी न हो।

इसलिए बता दूं कि कम समय तक सत्ता में रहने वाले कुछ  नेता भी धनलोलुपता व वंशवाद से काफी दूर रहे -जैसे कर्पूरी ठाकुर।

  किंतु पुस्तक के लिए उनकी एक अलग श्रेणी बन सकती है।

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 लंबे समय तक सत्ता में रहने वाले इन नेताओं की सरकारों ने समय -समय पर कैसी भूमिकाएं निर्भाइं,वह एक अलग सवाल है।

  इस ढीले-ढाले भारतीय लोकतंत्र में सरकारें तो लस्टम-पस्टम ढंग से ही चलती रही हंै।

सन 1967 से तो मैं खुद भी प्रत्यक्षदर्शी हूं।

पहले राजनीतिक कार्यकत्र्ता (1966-76) के रूप में और बाद में सक्रिय पत्रकार के रूप में।

  उनमें भी कुछ थोड़ी अच्छी सरकारें रहीं तो कुछ अन्य थोड़ी खराब।कुछ बहुत खराब।

 लगता है कि किसी ‘जन हितैषी तानाशाह’ के आने तक इस देश में ऐसा ही चलता रहेगा।

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  मेरी समझ से सिंगापुर के शासक ली कुआन यू (1923-2015) ऐसे ही जन हितैषी तानाशाह थे।

उन्होंने सिंगापुर को बदल दिया।

यहां के कुछ लोग उसी तरह का शासक अपने यहां भी चाहते हैं।

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  आखिर राजनीति जैसी काली कोठरी में डेढ़-दो दशकों तक रहने के बावजूद व्यक्तिगत तौर पर कुछ नेता संयम कैसे बरत पाते हैं ?

वह शक्ति उन्हें कहां से मिलती है ?

यह सब पढ़कर शायद नई पीढ़ियों को कुछ प्रेरणा मिले,यदि वे प्रेरणा ग्रहण करना चाहें तो।

  वैसे तो लगता है कि लगभग पूरे कुएं में ही भांग पड़ी हुई है।

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16 अक्तूबर 21

   

   


शनिवार, 16 अक्तूबर 2021

 शाहरूख बनाम जावेद अख्तर

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नई और पुरानी पीढ़ी का फर्क

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--सुरेंद्र किशोर--

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पिछले साल दैनिक ‘आज’ में छपी खबर का शीर्षक है--

‘‘मेरी बेटी ड्रग्स लेती है तो मैं 

उसे मना करूंगा--जावेद अख्तर

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पर,ऐसे ही मुद्दे पर शाहरूख खान की क्या राय रही है,वह सब लोगबाग जान चुके हैं।

वह सब यदि मैं यहां लिखूं तो इस पोस्ट की शालीनता से समझौता करूंगा।

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लेकिन लगता है कि जिसके पास अपार दौलत है और उससे भी अधिक लोकप्रियता है ,वह सोचता है कि वह कुछ भी बोल और कर सकता है।

  क्योंकि वह मनुष्य नहीं बल्कि अवतार है,उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता।

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13 अक्तूबर 21


रविवार, 10 अक्तूबर 2021

 शाहरूख खान के पुत्र 

व अन्य की गिरफ्तारी !

यह हिमशैल का शीर्ष मात्र !

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--सुरेंद्र किशोर--

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 मुम्बई में आज जो कुछ हो रहा है, उसके बारे में एन.एन.वोहरा समिति ने सन 1993 में ही अपनी सनसनीखेज रपट भारत सरकार को सौंप दी थी।

वोहरा तब केंद्रीय गृह सचिव थे।

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वोहरा समिति ने कुछ उपाय करने के लिए भी केंद्र सरकार से कहा था।

पर, केंद्र सरकार ने समिति की रपट को सार्वजनिक तक नहीं होने दिया,उपाय करने की बात कौन कहे !

निहितस्वार्थी तत्वों की अपार ताकत तो देखिए !!

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एन.सी.बी.के खिलाफ एन.सी.पी.नेता के ताजा बयान से राजनीतिक साठगांठ की एक हल्की झलक मिलती है।

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वोहरा समिति की सिफारिश को अब भी 

लागू करके नरेंद्र मोदी सरकार देश को बचाए !

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सन 1993 में तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव एन.एन.वोहरा ने भारत सरकार को समर्पित अपनी रपट में कहा था कि 

  ‘‘ इस देश में अपराधी गिरोहों ,हथियारबंद सेनाओं, नशीली दवाओं का व्यापार करने वाले माफिया गिरोहों,तस्कर गिरोहों, आर्थिक क्षेत्रों में सक्रिय लाॅबियों का तेजी से प्रसार हुआ है।

   इन लोगों ने विगत कुछ वर्षों के दौरान स्थानीय स्तर पर नौकरशाहों, सरकारी पदों पर आसीन व्यक्तियों, राजनेताओं,मीडिया से जुड़े व्यक्तियों तथा गैर सरकारी क्षेत्रों के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन व्यक्तियों के साथ व्यापक संपर्क विकसित किये हैं।

    इनमें से कुछ सिंडिकेटों की विदेशी खुफिया एजेंसियों के साथ-साथ अन्य अंतरराष्ट्रीय सबंध भी हैं।’’

गोपनीयता बरतने के लिए इस ‘वोहरा रपट’ की सिर्फ तीन ही काॅपियां तैयार करवाई गयी थी।

इस रपट की सनसनीखेज बातों को देखते हुए, मेरी जानकारी के अनुसार, केंद्र सरकार ने उसे सार्वजनिक तक नहीं किया।

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वोहरा समिति ने केंद्र सरकार से सिफारिश की थी कि  

गृह मंत्रालय के तहत 

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एक  नोडल एजेंसी  तैयार हो जो देश में जो भी गलत

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 काम हो रहे हैं, जिनकी चर्चा ऊपर की जा चुकी  है,

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 उसकी सूचना वह एजेंसी एकत्र करे।

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   ऐसी व्यवस्था की जाए ताकि सूचनाएं लीक नहीं हों।

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     क्योंकि सूचनाएं लीक होने से राजनीतिक दबाव पड़ने

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 लगता है और ताकतवर लोगों के खिलाफ कार्रवाई खतरे में

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 पड़ जाती है।

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    यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि नोडल एजेंसी 

पर किसी तरह का दबाव नहीं पड़ सके और वह सूचनाओं को लेकर मामले को तार्किक परिणति तक पहुंचा सके।

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   वोहरा समिति ने अपनी रपट में बार -बार इस बात का उल्लेख किया है कि राजनीतिक संरक्षण से ही इस देश में तरह -तरह के गोरख धंधे हो रहे हैं।

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बार-बार यह बात आती है कि इस देश में खासकर मुम्बई में ड्रग्स के धंधे में दाउद इब्राहिम का हाथ रहा है।

यह भी कि वह मुम्बई के फिल्मी जगत को भी कंटा्रेल करता है।

 उसके खास आदमी मुम्बई में स्थानीय नेता के रिश्तेदार व करीबी से मिलकर निर्माण क्षेत्र में सक्रिय है।

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जब शरद पवार मुख्य मंत्री थे तो राम जेठमलानी ने पवार से कहा था कि दाउद इब्राहिम भारत में सरेंडर करना चाहता है।

पर सरेंडर का काम नहीं हो सका।

  2015 में शरद पवार ने यह स्वीकारा कि सरेंडर का आॅफर था,किंतु उसकी शत्र्त हमें मंजूर नहीं थी।

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क्या बात इतनी ही थी ?

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क्या दाउद के देश से बाहर रहने में ही मुम्बई के कुछ नेताओं व अन्य लोगों का अधिक फायदा रहा है ?

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उम्मीद की जानी चाहिए कि मौजूदा केंद्र सरकार माफिया-नेता-अफसर त्रिगुट को तोड़ने का ठोस उपाय करेगी।

अन्यथा, भ्रष्टाचार, आतंक और अपराध के त्रिगुट को तोड़े बिना देश की सुरक्षा खतरे में ही रहेगी।ड्रग्स का प्रसार यानी नई पीढ़ियों को बर्बाद करना।

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नारकाॅटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की ताजा कार्रवाई की तारीफ होनी चाहिए।

इस दौरान कई नेताओं व अन्य हस्तियांें के असली चेहरे सामने आए,और अन्य चेहरे भी बेनकाब होंगे।

पर, क्या इतना ही काफी है ?

कत्तई नहीं।क्योंकि यह तो ‘टिप आॅफ द आइसबर्ग है।’

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6 अक्तूबर 21


शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

 निजी से सरकारी, फिर सरकारी से निजी !!

कहानी ग्रेट ईस्टर्न होटल से लेकर टाटा

एयरलाइन्स तक !

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--सुरेंद्र किशोर--

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कोलकाता के ग्रेट ईस्टर्न होटल का सत्तर के दशक में सरकारीकरण हुआ था।

   पर वाम मोर्चा सरकार ने सन 2005 में मात्र 52 करोड़ रुपए में उस होटल को निजी हाथों में बेच दिया।

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  भारत सरकार ने सन 1948 में टाटा एयरलाइन्स का अधिग्रहण कर लिया।

2021 में भारत सरकार ने उसे दोबारा टाटा को बेच दिया।

याद रहे कि इस बीच एयर इंडिया पर 60 हजार करोड़ रुपए का कर्ज हो गया था।

साथ ही, इसमें रोजाना भारी नुकसान हो रहा था।

अधिकतर सरकारी उपक्रमों में नुकसान क्यों होता है ?

इसके कारण को लेकर अब यह कोई रहस्य नहीं है। 

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सत्तर के दशक में मैं लोहिया नगर से बिहार स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट निगम की बस से पटना रेलवे जंक्शन आया करता था।

भाड़ा था 50 पैसे।

कंडक्टर 25 पैसे लेकर यात्री ढोता था।

उन्हें टिकट नहीं देता था।

मैं 50 पैसे देकर टिकट मांगता था।

मुझ पर कंडक्टर अक्सर गुर्राता था।

हालांकि टिकट काटकर दे देता था।

मुझे लगता था कि निगम को उस रूट में सिर्फ मासिक

पास वालों से ही आय थी।

या फिर मेरे जैसे कुछ ‘सिरफिरे’ यात्रियों से।

बाकी निगम की आर्थिकी कैसे चलती थी,उसका अनुमान आप लगा लीजिए।

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बाद के वर्षों में परिवहन निगम का एक अधिकारी मेरे यहां आया।

निगम में कोई ईमानदार अधिकारी टाटा कंपनी से बस का चेसिस खरीदना चाहता था।

पर मुझसे जो अफसर मिला,वह एक अन्य निजी कंपनी से।

टाटा कंपनी चेसिस बेचने के लिए किसी को कमीशन नहीं देती थी।

पर वह निजी कंपनी देती थी।

उस अफसर ने उस निजी कंपनी के पक्ष में बहुत सारे तर्क दिए और कहा कि छाप दीजिएगा।

मैंने नहीं छापा।

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अब बोफोर्स युग में आइए।

फ्रेंच कंपनी सोफ्मा तोप बेचने के लिए कमीशन नहीं देती थी।बोफोर्स कंपनी देती थी।

इसलिए भारत सरकार ने बोफोर्स तोप खरीदी।

हालांकि बोफोर्स तोप भी अच्छी है,पर सोफ्मा तोप उससे  बेहतर है।

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ऐसे ही चल रहा है अपना देश।

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  9 अक्तूबर 21


शनिवार, 2 अक्तूबर 2021

 गांधी जयंती पर

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महात्मा गांधी के संदर्भ में कुछ बातें 

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--सुरेंद्र किशोर--

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1.-यह बात तब की है जब गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में थे।

वहां वे एक स्कूल चलाते थे।

प्रथम आने वाले विद्यार्थी को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजा जाता था--समुदाय के खर्चे पर।

  एक बार गांधी जी का पुत्र प्रथम आ गया।

पर, गांधी ने नहीं भेजा।

कहा कि लोग समझेंगे कि बेईमानी करके गांधी ने अपने पुत्र को भेज दिया। 

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2.-सन 1934 में बिहार के विनाशकारी भूकम्प के राहत कार्यों के लिए मिले चंदे के पैसों मंे गड़बड़ी हुई तो गांधी ने उस पर भारी क्षोभ प्रकट किया था।

धिक्कारते हुए उनसे यह कहा होगा कि अभी तो यह हाल है,तो आजाद भारत को कैसे चलाओगे ?

कहने की जरूरत नहीं कि किस संगठन के लोगों ने गड़बड़ी की थी।

  1977 में मुझे अलग से यह पता चला था कि आजादी से पहले ही उस दल के राष्ट्रीय अधिवेशन के लिए चंदा 

वसूला गया।

चंदा वसूलने वालों में से एक ने उसमें से कुछ पैसे बचा लिए।

उन पैसों से उन्होंने मध्य पटना में एक भूखंड खरीद लिया।

यह बात मुझे संविधान सभा के सदस्य रहे एक नेता बताई  थी।

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3.- अब आजादी के तत्काल बाद की कहानी सुनिए ।

 बिहार सरकार के एक प्रभावशाली कैबिनेट मंत्री के भ्रष्टाचार की खबर पर गांधी ने उन्हें मंत्री पद से हटा देने की सलाह दी थी।

संभवतः राजेंद्र बाबू ने वह ‘खबर’ गांधी जी तक पहुंचाई थी।

पर, वह सलाह नहीं मानी गई।

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4.-याद रहे कि आजादी मिल जाने के बाद भी गांधी ने अपने किसी परिजन को राजनीति में आगे किया ?

 नहीं।अपने वंश या परिवार के किसी सदस्य को राजनीति में आने ही नहीं दिया।

ऐसा नहीं कि उनकी संतान योग्य नहीं थी।गांधी के एक पुत्र तो हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक बने थे।गांधी आज जैसे नेता होते तो उन्हें चाहते तो प्रधान मंत्री भी बनवा सकते थे।

आज के कई नेताओं में गांधी जैसी ताकत होती तो वे अपने बकलोल पुत्र को भी न जाने क्या -क्या बनवा देते।

अब तो सुप्रीमो का वंशज बकलोल,भ्रष्ट,गंजेड़ी-भंगेड़ी जैसा भी होे,वही उनका उत्तराधिकारी बनेगा।बन भी रहा है।

भले वह खुद भी डूबेगा,दल को भी डुबाएगा।

साथ ही, देश को भी पीछे ले जाएगा।

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गांधी जयंती मनाने वाले नेताओं से पूछा जाए तो उनकी ऊपर लिखी बातों पर क्या राय हो सकती है !

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आम तौर पर यही राय होगी कि किस जमाने की बात कर रहे हैं आप ?

यह सब अब चलने वाला है ?

जमाना बदल गया।

अब तो जनता ही चोर हो गई !!

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ईमानदारी का राज कैसे चलेगा ?

आप चलने देंगे, तब न चलेगा !!

आज तो अधिकतर नेताओं की एकमात्र इच्छा यही रहती है कि   देश को लूट-लूट कर अपना व अपने लगुओं-भगुओं के घरों को अपार धनराशि से भर देना है।

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जब तक हमारा वोट बैंक आबाद है, तब तक हमारे ही खानदान के लोग राज करते रहेंगे।

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ऐसे खानदानों की संख्या अब इस देश में बहुत हो चली है।

एम.पी.-विधायक फंड की कमीशनखोरी ने वास्तविक राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं को हाशिए पर डाल दिया है।

यानी,अपवादों को छोड़कर सांसद का बेटा सांसद,विधायक का बेटा विधायक और राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं का काम करेंगे फंड के ठेकेदार गण !

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   गांधी के देश में आजादी के 75 वें वर्ष में देश की राजनीति -सत्ता-नीति का आज कमोबेश यही हाल है।

अपवादों की बात और है !

तो फिर उन 565 राजे-महाराजे ही कौन बुरे थे ?

कम से कम वे ऐसे -ऐसे मजबूत महल तो बनवा देते थे जो कई सौ साल तक खडे़ रहते थे।

अब भी हैं वैसे महल।

आज तो सरकारी मकान व सड़क बना नहीं कि टूटने लगता है।

 यह दौर ही शुकराना,नजराना,हड़काना और कमीशनखोरी का जो है ! 

यह सिर्फ बिहार की बात नहीं है,पूरे देश की कमोबेश यही कहानी है।

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वैसे इस ‘भ्रष्ट युग’ में भी नेताओं,अफसरों तथा अन्य क्षेत्रों के लोगों में से कुछ लोग ईमानदारी से अपने काम में लगे हुए हैं।

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2 अक्तूबर 21 




  

                             


शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

 पितृ पक्ष-(20 सितंबर-6 अक्तूबर 21)

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वह जमाना कब का गुजर गया जब इस देश के 

लोग अपने पिता के पैरों में 

स्वर्ग देखते थे !!

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--सुरेंद्र किशोर--

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अपवादों को छोड़ दें तो इन दिनों अधिकतर मामलों 

में पुत्र का अपने पिता से 

यह कहते हुए समय बीतता है कि 

‘‘आपने मेरे लिए क्या किया ?’’

ऐसा कह कर एक तरफ पुत्र अपनी नाकामियों को छिपाता है तो दूसरी ओर कूढ़न में पिता की आयु कम होती जाती है।

पिता के गुजर जाने तक यह सब चलता रहता है।

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पुत्र यह कहना चाहता है कि जो भी उपलब्धि मैंने पाई,वह खुद के बल पर।

और, मेरे जीवन में जो भी कमी रह गई,

वह पिता के असहयोग कारण।

वैसे सच तो यह है कि सिर्फ एक पिता को ही अपने पुत्र की तरक्की से कभी ईष्र्या नहीं होती।

यानी, पिता दिल से चाहता है कि उसका पुत्र उससे भी अधिक तरक्की करे।

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समय बीतते देर नहीं लगती।

तब तक पुत्र भी पिता बन चुका होता है ।

और, उसे भी अपने पुत्र से यही सब सुनना पड़ता है।

इस तरह इतिहास चक्र का पहिया न जाने कब से 

घर्र -घर्र करते आगे बढ़ता जा रहा है।

एक बार फिर कह दूं।

इस नियम के कुछ अपवाद भी होते हैं।

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जीवन काल में पिता की उपेक्षा करने वाले उनके निधन के बाद कुछ अधिक ही पितृपक्ष मनाने लगते हैं।

दाढ़ी के बाल बढ़ा लेंगे,

थोड़ा उदास दिखने की कोशिश करेंगे और उनमें से कुछ गया में पिंडदान करने भी चले जाएंगे।

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मेरे फेसबुक वाॅल से 

29 सितंबर 21


 


 राजनीति के अपराधीकरण पर काबू 

के लिए अदालत से ही उम्मीद

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--सुरेंद्र किशोर--

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 इसी साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अपराधियों को कानून बनाने की भूमिका नहीं सौंपी जानी चाहिए।

यानी, उन्हें विधायिका का सदस्य नहीं बनने देना चाहिए।

बहुत ठीक कहा।

देश की सबसे बड़ी अदालत ने यह भी कहा कि देश में  दिन -प्रति- दिन राजनीति का अपराधीकरण बढ़ता जा रहा है ।

किंतु उस पर काबू करने का उपाय नहीं हो रहा है।

 सुप्रीम कोर्ट की चिंता जायज है।

  मौजूदा राजनीति को देखने-समझने से यह साफ लगता है कि अधिकतर राजनीतिक दल, विधायिका को ऐसा कोई कानूनी उपाय नहीं करने देंगे जिससे राजनीति में जमे अपराधियों को कोई नुकसान हो।

इसलिए अंततः सुप्रीम कोर्ट ही कुछ करना पड़ेगा।

अयोध्या निर्णय से यह बात साफ हो गई कि संविधान से प्राप्त  विशेष अधिकार का इस्तेमाल करके सुप्रीम कोर्ट जनहित में कोई भी फैसला कर सकता है।

सुप्रीम कोर्ट अपने ही एक पिछले निर्णय पर पुनर्विचार करके राजनीति के अपराधीकरण पर काफी हद तक अंकुश लगा सकता है।

जो व्यक्ति जेल में हैं,कम से कम वे तो चुनाव नहीं लड़ पाएंगे।

  सन 2004 में पटना हाईकोर्ट ने कहा था कि ‘‘जेल में रह कर न तो वोट देने का और न ही चुनाव लड़ने का अधिकार है।चुनाव आयोग को चाहिए कि वह रिजल्ट आने से पहले ही ऐसे उम्मीदवारों का चुनाव रद कर दे जो जेल से चुनाव लड़ रहे हैं।’’

  याद रहे कि सन 2004 के लोक सभा चुनाव के दौरान ही यह निर्णय आया था।

उससे पहले एक लोकहित याचिका के जरिए पटना हाईकोर्ट से यह आग्रह किया गया था कि जब जेल में रहने पर किसी व्यक्ति को वोट देने का अधिकार नहीं है तो जेल में रह कर चुनाव लड़ने का अधिकार कैसे दे दिया गया है ?

  पर पटना हाईकोर्ट के इस ऐतिहासिक जजमेंट को बाद में सुप्रीम कोर्ट का समर्थन नहीं मिला।

इसलिए वह लागू नहीं हो सका।

अपने पिछले तत्संबंधी जजमेंट पर सुप्रीम कोर्ट पुनर्विचार करके देश की विधायिका को खूंखार अपराधियों से काफी हद तक बचा सकता है ।

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कांग्रेस को कितना जन समर्थन

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इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के शासनकाल में कांग्रेस को अच्छा-खासा जन समर्थन हासिल था।

इसलिए वे दोनों नेता बारी- बारी से बेहिचक-बेधड़क राज्यों के  मुख्य मंत्री बदलते रहे।

  कहीं से कोई आंतरिक बगावत नहीं हुई।

बिहार में तो 1985 और 1990 के बीच पांच मुख्य मंत्री बदले गए।

आज कांग्रेस सिर्फ राज्य पंजाब का मुख्य मंत्री ‘‘शांतिपूर्वक’’नहीं बदल सकी।

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     अगले लोस चुनाव में कांग्रेस

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पंजाब के अलावा छत्तीसगढ़ और राजस्थान दो ऐसे राज्य हैं जहां कांग्रेस के पास अपनी पूर्ण बहुमत वाली सरकारें हैं।

  इस राजनीतिक पूंजी के साथ वह 2024 का लोक सभा चुनाव में कैसी सफलता हासिल करेगी ?

कांग्रेस को यदि कम से कम 150 सीटें नहीं मिलेगी, तब तक वह 2024 में मिलीजुली सरकार बनाने के बारे में भी कैसे सोच सकती है !

 कांग्रेस की जो मौजूदा हालत है,उसे देखते हुए क्या यह  लगता है कि सन 2024 के लोस चुनाव में उसे 150 सीटें

मिल पाएंगी ?

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हालत पहले से खस्ता है जहां अगले साल विधान सभा चुनाव होने वाला है।

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अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस

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आज यानी 1 अक्तूबर को अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस है।क्या इस अवसर पर केंद्र सरकार कर्मचारी प्रोविडेंट फंड से जुड़ी पेंशन योजना पर एक नजर डालेगी ?

यह ऐसी पेंशन योजना है जिसमें किसी तरह की वृद्धि का कोई प्रावधान ही नहीं है।

  मासिक राशि भी बहुत कम है।

 उदाहरणार्थ पेंशनर के लिए जो पेंशन राशि 2005 में तय की गई,वही राशि यानी लगभग 12 सौ रुपए आज भी मिल रही है। 

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भूली बिसरी याद

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यह 1972-73 की बात है। 

तब कर्पूरी ठाकुर सत्ता में नहीं थे।

फिर भी राज्य के अनेक नौजवान उनके पास नौकरी के लिए आते रहते थे।

वे उम्मीद करते थे कि कर्पूरी जी किसी को फोन करके या पत्र लिखकर उन्हें नौकरी दिलवा देंगे।

उन प्रत्याशियों से अक्सर कर्पूरी जी एक बात कहते थे।

कहते थे,‘‘मैं आपको नौकरी दिलवाने की गारंटी देता हूं।

पर, मेरी एक शत्र्त हैं।

आप शाॅर्टहैंड और टाइपिंग सीख जाइए।’’

वे कह कर तो जाते थे कि जरूर सीख लूंगा।

पर कोई लौटकर नहीं आता था।

दरअसल उसे सीखने में मेहनत लगती है।

 अनेक मामलों में आज भी यही स्थिति है।

किसी तरह के कौशल के विकास में लोगों की रूचि बहुत कम है।

पर, नौकरी जरूर चाहिए।

आज शुद्ध-शुद्ध हिन्दी और अंग्रेजी लिखने वालों की भी कमी होती जा रही है।

  अधिकतर पढ़ाने वाले लोगों को भी खुद पढ़ने की जरूरत है।

फिलहाल एक काम करने की जरूरत है।

बिहार मंें कम से कम शुद्ध लिखने वालों का एक ‘‘प्रतिभा समूह’’ तैयार किया जाना चाहिए।कहीं से तो शुरूआत हो। 

इसके लिए जांच परीक्षा आयोजित करने का काम नालंदा ओपेन यूनिवर्सिटी को सौंप दिया जाना चाहिए जहां की परीक्षाओं में कदाचार की गुंजाइश नहीं रहती।

जांच परीक्षा दो स्तरों पर हो--एक प्रारंभिक और दूसरा फाइनल।

  उस प्रतिभा समूह में से स्कूलों में भाषा के शिक्षक तैनात किए जाएं।स्कूल स्तर पर यदि भाषा ठीक हो जाएगी तो तथ्य का ज्ञान तो देर-सवेर हासिल होता रहेगा। 

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   और अंत में

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13 मई, 2018 को तत्कालीन जिलाधिकारी ने यह घोषणा की थी कि ‘‘पटना में बिना पार्किंग वाले प्रतिष्ठान बंद करा दिए जाएंगे।

बंद कराने से पहले दो बार नोटिस और दो बार जुर्माना 

लगेगा।

इसके बाद भी स्थिति नहीं सुधरी तो कार्रवाई होगी।’’

पटना के लोग या यूं कहें कि अन्य नगरों-शहरों के आम लोग भी ऐसी किसी कार्रवाई के लिए आज भी तरस रहे हैं।

कार्रवाई के अभाव में लोगबाग लगातार पीड़ा झेलने को अभिशप्त हैं।  

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1 अक्तूबर, 21 के प्रभात खबर, पटना में 

प्रकाशित मेरे साप्ताहिक काॅलम ‘कानोंकान’ से