शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

नरेंद्र मोदी के किए से अधिक का भरोसा दे पाएगा प्रतिपक्ष !

लोकतंत्र के लिए यह अच्छी बात है कि भाजपा विरोधी दल गोलबंद होने की कोशिश कर रहे हैं। पर क्या सिर्फ गोलबंदी ही काफी होगी? या फिर गोलबंदी मुद्दा आधारित भी होगी ? सिर्फ गोलबंदी का नतीजा यह देश देख चुका है।

सिर्फ गोलबंदी से मधु कोड़ा (झारखंड) और मनमोहन सिंह (केंद्र) जैसी सरकारें बनती हैं।

भाजपा वैसी राजनीति को पराजित कर चुकी है। गोलबंदी की कोशिश में लगे राजनीतिक दलों के नेताओं को अपनी पिछली हार के असली कारणों को पहले समझना होगा। उनसे शिक्षा लेनी होगी। इसके साथ ही जो काम नरेंद्र मोदी की सरकार भी नहीं कर पा रही है, उसे करने का पक्का भरोसा जनता को देना होगा ?

हालांकि अधिकतर भाजपा विरोधी नेताओं की साख इतनी खराब हो चुकी है कि सवाल उठेगा कि कितने लोग उन पर भरोसा करेंगे ? खैर जो हो, कोशिश करने में क्या दिक्कत है ?

नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री सचिवालय और अपने मंत्रिमंडल तक भ्रष्टाचार को अब तक फटकने नहीं दिया है।
पर सरकारी आॅफिसों में फिर भी भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जनता उससे तंग -ओ- तबाह है। क्या उस स्तर से भी प्रतिपक्ष भ्रष्टाचार को दूर करने का वायदा करेगा? केंद्र और कुछ भाजपा शासित राज्य सरकारें गोरक्षक गिरोहों की गुंडागर्दी खत्म नहीं कर पा रही हंै।

प्रतिपक्ष से यह उम्मीद की ही जा सकती है कि वह उसे खत्म कर देगा। पर सवाल है कि गो हत्या के समर्थकों पर भी समान रूप से कार्रवाई करने का प्रतिपक्ष वादा करेगा? क्या प्रतिपक्ष अपनी पिछली गलतियों के लिए माफी मांगते हुए जनता से यह वादा करेगा कि वह अगली बार भ्रष्टाचार मुक्त सरकार देगा? क्या प्रतिपक्ष ढांेगी, असंतुलित और एकतरफा ‘धर्म निरपेक्षता’ की नीति पर अब नहीं चलने का भरोसा देगा ?

यदि प्रतिपक्ष सिर्फ सामाजिक समीकरण, दलीय गठबंधन और सांप्रदायिक वोट बैंक के बल पर
सरकार बनाएगा तो वह मनमोहन सरकार की सिर्फ कार्बन काॅपी होगी। वैसा शायद अब नहीं चलेगा। क्योंकि अनेक लोगों को एक अलग ढंग की मोदी सरकार देखने की आदत हो बन  है।



कुंवर सिंह को जरूरत नहीं ‘भारत रत्न’ की

 
 ‘भारत में अंग्रेजी राज’ नामक अपनी चर्चित पुस्तक में पंडित सुंदर लाल ने लिखा है कि ‘कंुवर सिह का व्यक्तिगत चरित्र अत्यंत पवित्र था। उसका जीवन परहेजकारी का था।उसके राज में कोई मनुष्य इस डर से कि कहीं कुंवर सिंह देख न ले ,खुले तौर पर तम्बाकू तक न पीता था।उसकी सारी प्रजा उसका बड़ा आदर करती थी और उससे प्रेम करती थी। युद्ध कौशल में वह अपने समय में अद्वितीय था।’

सुंदर लाल ने यह भी विस्तार से लिखा है कि ‘कंुवर सिंह ने किस तरह बारी -बारी से छह युद्धों में अंग्रेजों को हराया था। अंग्रेजों को छह-छह युद्धों में हराने वाले किसी अन्य योद्धा के बारे में मैंने कहीं नहीं पढ़ा है। वीर कुंवर सिंह से हारने के बाद एक अंग्रेज अफसर ने युद्ध में अपनी दुर्दशा का मार्मिक विवरण लिखा था। उसने लिखा  कि ‘जो कुछ हुआ, उसे लिखते हुए मुझे अत्यंत लज्जा आती है। लड़ाई का मैदान छोड़कर हमने जंगल में भागना शुरू कर दिया। शत्रु हमें बराबर पीछे से पीटता रहा। हमारे सिपाही प्यास से मर रहे थे। एक निकृष्ट गंदे छोटे से पोखर को देखकर वे उसकी तरफ लपके। इतने में कुंवर सिंह के सवारों ने हमें पीछे से आ दबोचा। इसके बाद हमारी जिल्लत की कोई हद न रही।

हमारी विपत्ति चरम सीमा को पहुंच गयी। हम में से किसी को शर्म तक न रही। जहां जिसकी कुशल दिखाई दी, वह उसी ओर भागा। चारों ओर आहांे, श्रापों और रोने के सिवा कुछ सुनाई न देता था। मार्ग में अंग्रेजों के गिरोह के गिरोह मारे गए। हमारे अस्पताल पर कुंवर सिंह ने पहले ही कब्जा कर लिया था।इसलिए किसी को दवा मिल सकना भी असंभव था। कुछ वहीं गिर कर मर गये, बाकी को शत्रु ने काट डाला। हमारे कहार डोलियां रख-रख कर भाग गए। सोलह हाथियों पर केवल हमारे घायल साथी लदे हुए थे।

स्वयं जनरल लीग्रैंड की छाती में एक गोली लगी और वह मर गया। हमारे सिपाही अपनी जान लेकर पांच मील से ऊपर दौड़ चुके थे। उनमें बंदूक उठाने तक की शक्ति नहीं बची थी। सिखों ने हमसे हाथी छीन लिये और वे हमसे आगे भाग गये। (अंग्रेजी फौज में सिख सैनिक भी थे।)

गोरों का किसी ने साथ नहीं दिया। 199 गोरों में से 80 ही इस संहार में जिंदा बच सके। हमारा इस जंगल में जाना ऐसा ही हुआ जैसा पशुओं का कसाईखाने में जाना। हम वहां केवल बध के लिए गए थे।’

भले वीर कुंवर सिंह की बहादुरी के ऐसे किस्से आजादी के बाद जन -जन तक नहीं पहुंचाए गए, पर एक बड़े इलाकों में ऐसी गाथाएं पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हैं।

वीर कुंवर सिंह को याद करने वालों की इस मांग का मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने समर्थन किया कि उन्हें ‘भारत रत्न’ मिलना चाहिए। पर क्या ऐसा वीर ‘भारत रत्न’ का मोहताज है ? इस देश में भारत रत्न तथा पद्म पुरस्कारों का अवमूल्यन तथा राजनीतिकरण हो चुका है।

1942 का भारत छोड़ो आंदोलन देश की आजादी का सबसे बड़ा आंदोलन था। उस आंदोलन का विरोध करने वाले को भी ‘भारत रत्न’ मिल चुका है !

 
एक संपादक की पठनीय पुस्तक 

नामी संपादक एस.के. राव की संस्मरणात्मक पुस्तक ‘अ जर्नलिस्ट रिफ्लेक्ट्स’ पढ़ने का अवसर मिला। पत्रकारिता और राजनीति के इतिहास के विद्यार्थियों के लिए यह उपयोगी किताब लगी। राव ने अपने समकालीन नेताओं और संपादकों के बारे में लिखा है। पटना में दैनिक सर्चलाइट के संपादक रह चुके राव साहब ने लखनऊ, कराची और मद्रास में भी पत्रकार के रूप में काम किया था।

राव साहब पत्रकारों के संगठन एन.यू.जे. के संस्थापक महासचिव भी थे। अब वह इस दुनिया में नहीं हैं। पटना के राजनीतिक और पत्रकारिता जगत के पुराने लोग राव साहब को याद करते हैं।

मुख्यमंत्री डाॅ. श्रीकृष्ण सिन्हा के कार्यकाल में सर्चलाइट के एक चर्चित संपादक हुआ करते थे -‘एम. एस. एम. सरमा’। राव साहब ने उनके बारे में लिखा है कि ‘शालीन पत्रकारिता के जमाने में भी सरमा जी स्टंट में विश्वास करते थे।’ वैसे मैंने अलग से सरमा जी के बारे में बुजुर्गों से सुन रखा था। सरमा जी तत्कालीन मुख्यमंत्री के बारे में अक्सर आपत्तिजनक बातें लिखा करते थे।

श्रीबाबू के समर्थकों ने एक बार उनसे कहा कि इस संपादक के खिलाफ आपको सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। इसपर मुख्यमंत्री ने कहा कि मैंने तो सर्वाधिक सख्त कार्रवाई कर दी है। मैंने तो उनका अखबार पढ़ना ही छोड़ दिया है।



हार के अपने-अपने बहाने 
आधुनिक राजनीति की एक पुरानी कहावत है। चुनाव जीतने वाला सीटें गिनता है और हारने वाला अपना वोट परसेंटेज। हारने वाले नेताओं की एक और प्रजाति भी है। सन 1971 की हार के बाद जनसंघ नेता बलराज मधोक ने कहा था कि इंदिरा गांधी ने सोवियत संघ से एक खास तरह की अदृश्य स्याही मंगाकर उसे मत पत्रों पर अपने पक्ष में पहले ही लगवा दिया था। कुछ घंटों बाद अदृश्य स्याही उग जाती थी।
मुहरों पर जो दृश्य स्याही गैर कांग्रेसी दलों के उम्मीदवारों के नाम के आगे लगायी जाती थी, वह कुछ घंटांे के बाद स्वतः गायब हो जाती थी। अरविंद केजरीवाल अपनी हार का बहाना  इ.वी.एम. मशीनों में ढूंढ़ लिया है।


और अंत में


राजनीति पहले सेवा थी। आजादी की लड़ाई के दौरान और आजादी के कुछ साल बाद तक भी अधिकतर नेता सेवाभाव से ओतप्रोत थे। पर सन 1976 में जब सासंदों के लिए पेंशन की व्यवस्था हुई तो राजनीति नौकरी हो गयी।

सन 1993 में जब सांसद क्षेत्र विकास फंड का प्रावधान किया गया तो राजनीति व्यापार बन  गयी। जब इस देश में महाघोटालों का दौर चला तो वह उद्योग हो गयी।

अब जब पैसे लेकर चुनावी टिकट बांटे जाने लगे तो राजनीति ने खुदरा व्यापार के क्षेत्र में भी अपने पांव जमा दिये। हालांकि सेवा वाले जमाने में भी कुछ नेता अपवाद थे और आज ‘मेवा’ वाले दौर में भी अपवाद हैं।
पर अपवादों से तो किसी देश का काम नहीं चलता !

( 28 अप्रैल 2017 के प्रभात खबर के बिहार संस्करण में इस कालम का संशोधित अंश प्रकाशित)

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

सक्रिय सरकारी सहयोग के बिना पटना का नियोजित विकास असंभव

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शहरों के अनियोजित विकास पर नाराजगी जाहिर की है। पटना सहित राज्य के अनेक शहरों का अनियोजित विकास दरअसल नाराजगी के साथ -साथ चिंता का कारण भी बनता जा रहा है। आने वाले दिनों में इसके कई नुकसान सामने आएंगे।

शहरों को विकसित करने का काम सिर्फ निजी हाथों में छोडा़ नहीं जा सकता है। बड़े बिल्डर्स व डेवलपर्स तो अभी यहां आने से रहे। मझोले और छोटे बिल्डर्स की अपनी सीमाएं हैं। उनमें से कुछ में कमजोरियां भी हैं। शिकायतें भी आती रहती हैं।

ऐसे व्यापारियों से आम लोगों को राहत दिलाने की जिम्मेदारी सरकार पर है। पर बिहार सरकार ने दशकों से अपनी यह जिम्मेदारी छोड़ रखी है। राजेंद्र नगर और लोहिया नगर जैसे कई नियोजित मुहल्ले राज्य सरकार की एजेंसी ने ही बसाए थे। कुछ मकान बनाये गये तो कुछ भूखंड विकसित कर लोगों के बीच बांटे गए।

पर राज्य सरकार अपनी ही गलती से दीघा में जाकर फंस गयी। आवास बोर्ड ने व्यवस्थित ढंग से लोगों को बसाने के लिए सत्तर के दशक में पटना के दीघा में 1024 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था। पर उच्च स्तरीय दबाव में आकर शासन ने उस में से एक पूर्व मुख्य सचिव की 4 एकड़ जमीन को अधिग्रहण से मुक्त कर दिया। इस पर दीघा के जमीन  मालिकों और अन्य लोगों ने मिलकर उस सरकारी योजना को लगभग विफल कर दिया। यानी करीब आधी जमीन पर अवैध कब्जा हो गया।

स्थानीय पुलिस की मदद से आज भी यह गलत काम हो रहा है।

अब जबकि पटना वास्तव में महानगर बनने की प्रक्रिया में है तो राज्य सरकार को चाहिए कि वह खुद भी जहां-तहां जमीन का अधिग्रहण  करे। उसे विकसित करे फिर भू खंडों को जरूररतमंद लोगों में वितरित करे।
कुछ अन्य राज्यों में ऐसा अब भी होता है।

निजी बिल्डर्स और डेवलपर्स तो आम तौर से अधिक से अधिक पांच-दस-बीस एकड़ जमीन का इंतजाम कर सकते हैं। पर सरकार चाहे तो मुख्य पटना के आसपास के इलाकों में सौ-पचास एकड़ जमीन के टुकड़ों का अधिग्रहण कर सकती है। इसके बिना पटना का सुव्यवस्थित विकास नहीं हो पाएगा। पर साथ ही ऐसे मामलों में सरकार को दीघा जैसी लापरवाही नहीं बरतनी होगी।

किसी भी जमीन के अधिग्रहण के व्यय के साथ-साथ उस जमीन पर चहारदीवारी बनाने का खर्च का भी पहले से ही इंतजाम कर लेना होगा।

 इस बीच यदि राज्य सरकार अपने प्रस्तावित रिंग रोड पर काम भी शुरू कर दे तो शहर को व्यवस्थित ढंग से बसाने में सुविधा होगी।

याद रहे कि नये मास्टर प्लान के तहत दीघा-शाहपुर -सरारी-भुसौला-नेवा-सरैया-फतेह पुर-सोनवां रिंग रोड का प्रस्ताव है।

इस प्रस्तावित रोड के आसपास भी बड़े पैमाने पर जमीन अधिग्रहण की गुंजाइश बनेगी। अन्य स्थानों में भी सरकार जमीन की तलाश कर सकती है।


अदालती फैसले को विफल करने की कोशिश

सुप्रीम कोर्ट ने इसी 31 मार्च को यह आदेश दिया कि नेशनल और स्टेट हाईवे पर 500 मीटर के दायरे में शराब की दुकानें नहीं होंगी। याद रहे कि खुद केंद्र सरकार दशकों से इस बात पर चिंता जाहिर करती रही है कि हाईवे पर शराब पीकर गाड़ियां चलाने से दुर्घटनाएं बढ़ रही हैं। और मौतों की संख्या भी।

पर जब सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया तो देश की 11 राज्य सरकारें इस आदेश को विफल करने पर अड़ गयीं। राज्य सरकारों ने नेशनल हाईवे को स्टेट हाईवे और स्टेट हाईवे को जिला सड़क बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है ताकि वे सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश से बच सकें।

संभव है कि केंद्र सरकार भी राज्यों के दबाव में आ जाए। पर सवाल है कि क्या सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले से पीछे हटेगा? या फिर कायम रहेगा? इस तरह के कई दूसरे मामलों में सुप्रीम कोर्ट अपने फैसलों पर कायम रहा है।

राज्य सरकारें शराब की बिक्री बंद होने से राजस्व घटने को लेकर चिंतित हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिंदगी शराब से अधिक कीमती है। सवाल है कि सरकारों की आबकारी कर पर इतनी अधिक निर्भरता क्यों है?  इस देश में आयकर, बिक्री कर, सेवाकर तथा इस तरह के दूसरे टैक्सों की वसूली की हालत लचर है।

बिहार में भी जितने व्यापारी बिक्री कर देते हैं, उनकी अपेक्षा कई गुणा अधिक व्यापारी टैक्स की खुलेआम चोरी करते हैं। यही हाल आयकर, सर्विस टैक्स तथा दूसरे करों की है।

केंद्र और राज्य सरकारों को चाहिए कि वे टैक्स के दायरे से बाहर वाले कर चोरों पर कार्रवाई करें और आमदनी बढ़ाएं न कि सुप्रीम कोर्ट के एक अच्छे फैसले को विफल करने की कोशिश करें।  

कसूर किसका और सजा किसे ? 

इस वैज्ञानिक युग में कन्या का जन्म देने के कारण कोई पत्नी को तलाक दे देता है तो कोई उसकी हत्या तक कर देता है। यह काम एक वैज्ञानिक सत्य को दरकिनार करके हो रहा है। डॉक्टर बताते हैं कि शिशु कन्या के लिए पत्नी नहीं बल्कि पति जिम्मेदार होता है। इस बात का वैज्ञानिक आधार है।

इस तथ्य का प्रचार सरकारी और गैर सरकार संचार माध्यमों के जरिए सरकारों को करना चाहिए। कम से कम इस तथ्य से अनजान लोग तो अपनी पत्नियों को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराएंगे !

लालू सही हकदार

राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद 11 जून को दीघा-पहलेजा सड़क पुल का समारंभ करेंगे। इस काम के लिए लालू प्रसाद सही हकदार भी हैं। इस पुल को मौजूदा स्थल पर ही बनवाने में लालू प्रसाद की महत्वपूर्ण भूमिका थी। हालांकि प्रो. रामानुज प्रसाद के नेतृत्व में हुए आंदोलन का भी योगदान है।

उस समय आंदोलनकारियों पर पुलिस फायरिंग में अभिषेक नामक छात्र मारा गया था। यह घटना जुलाई 1996 की है। तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा ने सोनपुर में 22 दिसंबर 1996 को इस पुल के निर्माण के लिए सर्वेक्षण कार्य का शिलान्यास किया।

हालांकि इस पुल के निर्माण का वास्तविक कार्यारम्भ तीन फरवरी 2002 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया।

पर प्रारंभिक दिनों में तत्कालीन रेलमंत्री रामविलास पासवान गांधी सेतु से पूरब इस रेल पुल को बनवाना चाहते थे ताकि वैशाली जिला को इसका अधिक लाभ मिले।

पर तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की जिद से मौजूदा स्थल पर उसका निर्माण हुआ। इसलिए यदि वह सड़क पुल का समारंभ करेंगे तो यह उनका स्वाभाविक हक बनता है।

अन्य दल लें नसीहत 

भाजपा ने महिला विधायक से अभद्र व्यवहार करने के आरोप में अपने विधान पार्षद लालबाबू प्रसाद को पार्टी के निलंबित कर दिया। हाल ही में  जब जदयू के पूर्व विधायक सूर्यदेव सिंह पर हत्या का आरोप लगा तो पार्टी ने उन्हें दल से बर्खास्त कर दिया है।

इससे पहले भी इस तरह के मामलों में राजनीतिक दलों में मतभेद रहा है। कुछ दल कहते हैं कि हम तभी कार्रवाई करेंगे जब हमारे किसी सदस्य को सुप्रीम कोर्ट से सजा हो जाए।

 काश ! अन्य दल भी भाजपा-जदयू की तरह अपने-अपने दलों के ऐसे ही नेताओं के खिलाफ ऐसी ही कार्रवाई करते।

और अंत में

दशकों के लगन, तपस्या और त्याग का जीवन अपनाने के बाद ही किसी नेता की छवि बनती है। पर उसे बिगड़ने में अधिक समय नहीं लगता।

दूसरी ओर बिगड़ी हुई छवि वाले नेता चाहते हुए भी अपनी छवि नहीं सुधार पाते। आधुनिक राजनीति में लुटेरा रत्नाकर से ऋषि वाल्मीकि बनते शायद ही किसी ने कहीं देखा हो।

अच्छी छवि वाले कुछ नेताओं को भी अधेड़पन में बिगड़ते हुए जरूर देखा जाता है। इसलिए लोगबाग यही उम्मीद रखते हैं कि जिन नेताओं के लिए उनके दिल में सम्मान है, वैसे नेता किसी भी कीमत पर अपनी अच्छी छवि को बनाये रखें।

( 7 अप्रैल 2017 के प्रभात खबर, बिहार में प्रकाशित)

गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

महागठबंधन की राह के कांटें

बिहार जैसा महागठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर बनाने की मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सलाह मौजूं है। उत्तर प्रदेश की चुनावी हार के बाद प्रतिपक्ष इन दिनों पस्तहिम्मत है। इस पृष्ठभूमि में यदि महागठबंधन बनाने का गंभीर प्रयास भी शुरू हो जाए तो उससे गैर राजग दलों में एक नयी ऊर्जा का संचार हो सकता है।

वैसे भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह ठीक नहीं है कि छितराये प्रतिपक्षी दल अधिक दिनों तक पस्तहिम्मत बने रहें। प्रतिपक्ष की पस्तहिम्मती के माहौल में सत्ताधारी जमात द्वारा मनमानी किए जाने का खतरा बढ़ जाता है।

  नीतीश कुमार की यह सलाह भी सही है कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट महागठबंधन बनाने की दिशा में पहल करें। इससे पहले मणि श्ांकर अय्यर तथा कुछ अन्य नेताओं ने भी ऐसी ही सलाह दी है।

पर नीतीश कुमार की सलाह का महत्व अधिक इसलिए भी है क्योंकि उनके नेतृत्व वाली महागठबंधन सरकार कुछ कठिनाइयों और शिकायतों के बावजूद आराम से चल रही है। इस चर्चा के बीच कि नीतीश राजग में ंजा सकते हैं, बिहार के मुख्यमंत्री की ताजा सलाह प्रतिपक्ष का हौसला बढ़ाने वाली है।

पर अब सवाल यह है कि क्या राष्ट्रीय स्तर पर बिहार जैसा कोई महागठबंधन बनाना आज की स्थिति में संभव भी है ? अभी तो असंभव जरूर लगता है। पर यदि इसके लिए गंभीर और ईमानदार प्रयास अभी से शुरू हो जाएं तो आने वाले दिनों में शायद एक हद तक यह कल्पना साकार रूप ग्रहण कर ले।

यह नरेंद्र मोदी की सरकार अपने लोकलुभावन कामों के जरिए अपनी लोकप्रियता बढ़ाती जा रही है। उसे देशव्यापी दलीय गठजोड़ के जरिए पराजित करने के विचार को एक ठोस राजनीतिक पहल की संज्ञा दी जा सकती है। पर सवाल यह भी है कि क्या मोदी सरकार अगले दो साल में नोटबंदी और बेनामी संपत्ति पर हमला जैसे अपने अन्य चौंकाने वाले कामों से आगे निकल जाती है या प्रतिपक्ष महागठबंधन बना कर 2019 के लोकसभा चुनाव में राजग को मात दे देता है।  

पर, किसी भी महागठबंधन के निर्माण में मुख्यतः तीन कठिनाइयां सामने आ सकती हैं। महागठबंधन का नेता कौन होगा? कुछ दल चाहेंगे कि यह बात पहले ही तय हो जाए।

महागठबंधन को नीति -रीति कैसी होगी? राज्यों के परस्पर विरोधी क्षत्रपों को एक मंच पर कैसे लाया जा सकेगा? प्रतिपक्ष के लिए एक और कठिनाई नरेंद्र मोदी सरकार इस बीच पैदा कर सकती है।

संभव है कि अगले लोकसभा चुनाव के पहले तक मोदी सरकार कुछ ऐसे चौंकाने वाले काम कर दे ताकि महागठबंधन के निर्माण के बावजूद राजग  अपराजेय रहे।

याद रहे कि हाल के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राजग को 325 सीटें मिलीं। जबकि उसे 2014 के लोकसभा चुनाव में विधानसभा की 328 सीटों पर बढ़त मिली थी। यानी उसकी 3 सीटें ही घटीं। आम तौर पर लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनावों में विजयी दलों की सीटें काफी घट जाती हैं।

1977 में उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी को 425 में से 352 सीटें मिल सकी थीं जबकि उससे तीन ही महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी को लोकसभा की सभी 85 सीटें मिल गयी थीं।

यानी अनेक मतदाताओं के अनुसार नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पौने तीन साल के कार्यकाल में अच्छे काम किये। उतने काम 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के समय तक लोगों को नजर नहीं आए थे। दूसरी बात वहां महागठबंधन का भी कमाल था।

वैसे आरक्षण की समीक्षा की मांग करते हुए चुनाव की पूर्व संध्या पर संघ प्रमुख मोहन भागवत के आए तीन बयानों ने भी बिहार में महागठबंधन के काम और भी आसान कर दिया था। आरक्षण पर खतरे का शोर तो उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार के दौरान भी राजग विरोधी दलों ने किया था। पर उसका असर नहीं हुआ। क्योंकि मतदाताओं के दिलो दिमाग पर वहां अन्य तत्व अधिक हावी थे।

क्योंकि एक तो मोदी सरकार के काम और मंशा लोगों को पसंद आए, दूसरी बात यह भी हुई कि सांप्रदायिक तत्व भी चुनाव प्रचार के साथ जुड़ गये। अब गैर राजग दलों को इस बात भी विचार करना होगा कि वे नरेंद्र मोदी के लोकलुभावन कामों का मुकाबला कैसे करेंगे ?

क्या जहां-जहां गैर राजग दलों की सरकारें बची हुई हैं, वहां वे सुशासन व विकास की रफ्तार को तेज करेंगे ? क्या बिहार में भी सुशासन की ढीली होती लगाम को ठीक ढंग से कसा जा सकेगा ?

क्योंकि सिर्फ दलीय या फिर जातीय समीकरण ही हर जगह राजग का मुकाबला नहीं कर पाएगा।

महागठबंधन के निर्माण में सबसे बड़ी समस्या यह होगी कि उत्तर प्रदेश में मायावती और मुलायम को एक मंच पर कैसे लाया जाए ? क्या मायावती 1995 में हुए लखनऊ गेस्ट हाउस का कांड भूल जाएंगी ? तब सपा के बाहुबलियों ने उनके कमरे में जबरन घुस कर उस मायावती के साथ काफी बदतमीजी की थी।

मायावती भूल सकती हैं यदि उन्हें अपनी ताजा चुनावी हार उस कांड की अपेक्षा अधिक पीड़ादायक लग रही हो।
याद रहे कि उत्तर प्रदेश के ताजा चुनाव में राजग की अपेक्षा कांग्रेस-सपा- बसपा को कुल मिलाकर दस प्रतिशत अधिक वोट मिले।

लगभग यही समस्या पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और कम्युनिस्टों के बीच आएगी। इन दोनों के कार्यकर्ताओं के बीच यदाकदा खूनी झड़पें होती  रही हैं। क्या ममता वह कांड भूल जाएगी जिसमें उनपर वाम मोर्चे की सरकार की पुलिस ने निर्मम प्रहार किया था और ममता को लंबे समय तक अस्पताल में रहना पड़ा था ?

तमिलनाडु में क्या होगा ? क्या अन्नाद्रमुक और द्रमुक को कभी एक मंच पर लाना संभव होगा? 1989 में जयललिता तमिलनाडु विधानसभा में प्रतिपक्ष की नेता थीं। के. करूणानिधि मुख्य मंत्री थे। एक सवाल पूछने पर कुछ द्रमुक सदस्यों ने जयललिता को सदन के अंदर ही इस कदर अपमानित किया जैसा अपमान शायद ही किसी महिला नेत्री का कभी किसी सदन में हुआ हो।

जयललिता अंत-अंत तक वह अपमान भूल नहीं पायी थीं। क्या उनके उत्तराधिकारी उस घटना को भुला कर द्रमुक से समझौता कर लेंगे?

ऐसी  समस्याएं कुछ अन्य राज्यों में भी है।

इस तरह सारे गैर राजग दलों को एक मंच पर लाना असंभव नहीं तो  अत्यंत कठिन जरूर है। इस महती काम को संभव बनाने के लिए कुशल मध्यस्थों की जरूरत पड़ेगी। फिर भी इस काम में काफी समय लग सकता है।
लोकसभा के अगले चुनाव के सिर्फ दो साल बाकी हैं। यह समय देखते -देखते बीत जाएंगे। इसलिए गैर राजग दल इस काम में यदि अभी से लग जाएं तो पूर्ण नहीं तो कम से कम शायद आंशिक सफलता मिल जाए!
एक मजबूत विकल्प तैयार करने में यदि प्रतिपक्ष विफल रहता है तो वह उसकी विफलता है। जनता की नहीं। गत 2014 के लोकसभा चुनाव में जनता के तो करीब 61 प्रतिशत वोट राजग के खिलाफ पड़े थे।

(इस लेख का संपादित अंश ‘प्रभात खबर’ के 6 अप्रैल 2017 के अंक में प्रकाशित)