मंगलवार, 15 जुलाई 2014

नीतीश को मिली अच्छे कामों की सजा ?

(इस लेख का संपादित अंश 19 मई 2014 के जनसत्ता में प्रकाशित)



बुरे कामों की सजा तो मतदाता देर-सवेर जरूर देते हैं, पर इस बार बिहार में नीतीश कुमार को उनके कुछ अच्छे कामों की भी सजा मिल गयी।

  बिहार के अधिकतर सवर्ण मतदाताओं ने नीतीश को ऐसी गलती के लिए सजा दी जो उन्होंने की ही नहीं थी। अधिकतर सवर्ण मतदातागण नीतीश कुमार से इन दिनों नाराज चल रहे हैं। पर यहां यह कहना जरूरी है कि नरेंद्र मोदी फैक्टर का भी चुनाव में जबर्दस्त असर था।

हालांकि मोदी की लहर नहीं होती तोभी बिहार के अधिकतर सवर्ण मतदाता  नीतीश कुमार के गठबंधन को वोट नहीं देते।

उन लोगों ने इस लोकसभा चुनाव 2014 मंे जदयू को वोट नहीं दिया जबकि नीतीश कुमार की सरकार ने सन 2005 में सत्ता में आने के बाद सर्वाधिक राहत सवर्णों को ही पहुंचाई। नीतीश कुमार को सत्ता में लाने में खुद सवर्णों ने भी कभी बड़ी भूमिका निभाई थी। वे लालू के जंगल राज से ऊब चुके थे। पर बाद में स्थिति बदल गई।

  लालू -राबड़ी के कथित ‘जंगल राज’ से व्यवसायियों के बाद सवर्ण ही सर्वाधिक परेशान थे। वे लालू-राबड़ी राज से मुक्ति चाहते थे। नीतीश ने मुक्ति दिलाई।

जो सवर्ण किसान गांवों में नक्सलियों, अपराधियों व सरकारी संरक्षणप्राप्त दबंगों के डर से खेती तक नहीं कर पा रहे थे, उन्हें नीतीश की सरकार ने भारी राहत दिलाई। कानून -व्यवस्था ठीक करके नीतीश सरकार ने ऐसा किया।

   नीतीश राज आने पर वर्षों बाद राज्य के अनेक गांवों में फिर से खेती-बाड़ी शुरू हो गई। खेती-बाड़ी बंद होने से अनेक गांवों मंे शादी-विवाह भी बंद थे। सब चालू हो गए। इसके अलावा भी कई तरह की राहतें नीतीश सरकार ने पहुंचाई।

पर आखिर नीतीश कुमार व उनकी सरकार ने उनका बाद में क्या बिगाड़ा कि वे उनके खिलाफ हो गये ?

उनका तो कुछ नहीं बिगाड़ा। बल्कि कई तरह के उपायों से अन्य लोगों के साथ -साथ उनका भी भरसक बनाया ही। नीतीश सुशासन व न्याय के साथ विकास की नीति पर चल रहे थे। न्याय के साथ विकास का मतलब है गरीबों का भी विकास। राज्य के विभिन्न हिस्सों से मिल रही सूचनाओं के अनुसार दरअसल कमजोर वर्ग के लोगों का सरकार द्वारा भला किए जाने के कारण अधिकतर सवर्ण नीतीश से खफा हो गये।

ठीक ही कहा गया है कि कुछ लोग अपने दुःख से नहींे बल्कि पड़ोसियोंे के सुख से अधिक दुःखी हो जाते हैं। 

आम सवर्णों के प्रति भी नीतीश कुमार का सदा मधुर व्यवहार रहा है। लंबे समय से मुख्य सचिव व डी.जी.पी. सवर्ण ही हैं। एक कांग्रेसी स्वतंत्रता सेनानी के पुत्र होने के कारण नीतीश कुमार को ऐसा संस्कार मिला जिसके तहत सामाजिक मामलों में उनका संतुलित दृष्टिकोण रहता है। 

 कुछ ही साल पहले नीतीश कुमार जब ‘थ्री इडिएट’ फिल्म देखने पटना के एक सिनेमा हाॅल गये थे तो उनके साथ उनके चार गहरे दोस्त थे। चारों सवर्ण ही थे। यह कोई संयोग नहीं था। जानकार लोग बताते हैं कि दरअसल नीतीश कुमार ने जातीय भावना से कभी कोई काम नहीं किया। इसी तरह की अन्य कई बातें हैं। 

लालू-राबड़ी राज में बुरी तरह बिगड़ी कानून -व्यवस्था को ठीक करने में नीतीश सरकार ने महत्वपूर्ण काम किया। विकास के काम भी काफी तेज  हुए। उससे भी समाज के अन्य लागों के साथ -साथ सवर्णों को भी काफी लाभ हुआ। सरकारी पदों पर लाखों बहालियों से सवर्णों को भी लाभ मिला।

 लालू -राबड़ी राज में सरकारी पद खाली रहने के बावजूद बहालियां लगभग बंद थीं। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार इस चुनाव में सवर्णों के वोट से वंचित नीतीश कुमार को यदि राजनीतिक मजबूरी में कभी राजद के साथ जाना पड़ेगा तो इसके लिए आखिर कौन जिम्मेदार माना जाएगा ? जाहिर है कि वे सवर्ण ही अधिक जिम्मेदार होंगे जिन्होंने नीतीश कुमार को बीच मझधार में छोड़ दिया। हालांकि राजद के साथ जदयू की कभी सरकार बनेगी तो उससे सवर्णों का कितना भला होगा ?

     यह बिहारी समाज के लिए विडंबना ही है कि नीतीश कुमार से  सवर्णों की नाराजगी का एक बड़ा कारण यह रहा कि नीतीश सरकार ने कमजोर वर्ग के लिए बड़े पैमाने पर कल्याण व विकास के काम किये। उन लाभान्वित लोगों में अधिकतर खेतिहर मजदूर हैं। जब नीतीश के कारण उनका आर्थिक सशक्तीकरण हुआ तो वे भूमिपतियों से मजदूरी को लेकर सौदेबाजी की स्थिति में आ गये। वे कभी -कभी आराम भी करने लगे। यदा कदा अब वे काम पर जाने से मना कर देते हैं। भूमिपतियों में सवर्ण ही अधिक हैं। यह सौदेबाजी व मजदूरों की ‘आराम तलबी’ उन्हें मंजूर नहीं है। उन्हें खेती के लिए अपनी पुरानी यानी सस्ती शर्तों पर मजदूर मिलने में दिक्कत होने लगी है। कमजोर वर्ग के लोग अब आम तौर पर उनसे दबते नहीं हैं। 

   गांवों के कई सवर्ण भूमिपतियों ने चुनाव से पहले इन पंक्तियों के लेखक को बताया था कि लालू प्रसाद तो पिछड़ों के लिए सिर्फ बड़ी -बड़ी बातें ही अधिक करते थे, पर नीतीश कुमार ने तो आर्थिक सशक्तीकरण करके उनका मनोबल वास्तव में बहुत बढ़ा दिया है। अब हमलोगों के लिए खेती करना कठिन हो गया है। इस बार हम नीतीश को हरा देंगे।
  यही हुआ भी।

 सन 2009 के लोकसभा चुनाव में जदयू को बिहार में 24.04 प्रतिशत वोट मिले थे, पर इस बार जदयू 15.80 प्रतिशत सिमट गया।

   उधर एक बात और है। भाजपा के पक्ष में लगभग देशव्यापी लहर से बिहार भला अछूता कैसे रह पाता ? इसलिए बिहार में भाजपा की भारी सफलता राज्य की राजनीति के लिए उतनी महत्वपूर्ण बात नहीं है जितनी सत्ताधारी नीतीश कुमार के दल की भारी विफलता और इस विफलता से उपजी राजनीतिक अनिश्चितता। जदयू इस चुनाव में तीसरे स्थान पर रहा। कहते हैं कि होम करते नीतीश के हाथ जले। दूसरा स्थान राजद गठबंधन को मिला। यानी सवर्णों के अलावा भी कुछ दूसरे लोगों ने भी नीतीश को वोट नहीं दिये। तीसरे स्थान पर जाने का भी दुःख जदयू को है।

  जबकि नीतीश सरकार ने बिहार को लगभग हर मोर्चे पर विकसित किया। अब भी विकास के काम धुआंधार जारी हैं। उन्होंने पिछड़ों, दलितों व अल्पसंख्यकों के बीच के उस हिस्से के लिए विशेष काम किये जिन्हें उसकी सर्वाधिक जरूरत थी।

  विकास के करीब -करीब हर संकेतक में बिहार का प्रदर्शन शानदार रहा। कानून व्यवस्था बेहतर होने के कारण लोगबाग अपने- अपने छोटे -बड़े रोजगार में निर्भीकतापूर्वक लगे हुए हैं। पहले आतंक के माहौल में व्यापार कठिन था। तब व्यापारी राज्य के बाहर भाग रहे थे।

   इसके साथ ही कई अन्य सकारात्मक बातें भी हो रही हैं। इसके बावजूद यदि नीतीश कुमार को मतदाता अस्वीकार कर दे तो उस नेता के लिए हतोत्साहित होना स्वाभाविक ही है। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार मतदाताओं के एक हिस्से ने नीतीश कुमार को ठुकराकर नीतीश से अधिक खुद का यानी बिहार का अधिक नुकसान किया है। क्योंकि शासन की दृष्टि से बिहार जैसे एक बीहड़ प्रदेश को पटरी पर लाने का काम करने की कूबत नीतीश कुमार के अलावा अन्य किस नेता में है, इस सवाल का जवाब अभी कई लोगों को नहीं मिल रहा है।

  जदयू और खासकर नीतीश कुमार का इसलिए भी दुखी व उदास होना स्वाभाविक है कि ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और जयललिता ने जनता की मदद से तो मोदी की लहर को रोक ही लिया है। यह काम बिहार में क्या नहीं हो सकता था ? जबकि बिहार में मुख्यमंत्री के रुप में नीतीश कुमार ने बहुत मेहनत की थी और जनता से वे अपनी मेहनत की मजदूरी मांग रहे थे। वह मजदूरी उन्हें नहीं मिली।

  राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार नीतीश जैसे ईमानदार, मेहनती, कल्पनाशील व संवेदनशील नेता के इस्तीफे के पीछे यह पीड़ा साफ झलकती है। 

(इस लेख का संपादित अंश 19 मई 2014 के जनसत्ता में प्रकाशित)

रविवार, 13 जुलाई 2014

मीडिया ने पिछड़ा उभार को सकारात्मक नजरिये से नहीं देखा

(प्रभात खबर, पटना में 7 अप्रैल 2001 को प्रकाशित)


 पत्रकार सुरेंद्र किशोर से प्रभात खबर के लिए 
अनीश अंकुर और अविनाश की बातचीत 

प्रश्न-पिछले दस वर्षों के दौरान पिछड़ा उभार या सशक्तीकरण का बिहार के समाज पर जो असर पड़ा, मीडिया ने उसको किस रूप में रेखांकित किया ?

उत्तर- कुछ अपवादों को छोड़कर मीडिया ने पिछड़ा उभार या सशक्तीकरण को सकारात्मक नजरिए से नहीं देखा। इसके कई कारण हैं। इस सवाल का जवाब मीडिया के लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि में भी ढूंढ़ा जा सकता है। पिछड़ा उभार और सशक्तीकरण के आंदोलन के नेतागण भी इसके लिए जिम्मेदार रहे हैं। सवर्ण बहुल मीडिया से यह उम्मीद करना ज्यादती होगी कि वह सशक्तीकरण के नाम पर पिछड़ों के बीच की कुछ खास जातियों को उन्मादी और नव सवर्ण रूप में स्वीकार कर ले। सशक्तीकरण को व्यापक और समरूप बनाने की जरूरत है। दूसरी ओर मीडिया की सामाजिक बुनावट में यदि परिवर्तन नहीं हुआ, तो खुद मीडिया के सामने विश्वास का संकट और भी गहराएगा। 

प्रश्न - लोग कहते हैं कि पिछड़े वर्गों के सशक्तीकरण ने बिहार के आर्थिक विकास की अवस्था को पीछे धकेलने का काम किया। इसकी क्या वजह हो सकती है?

उत्तर - इसके लिए सशक्तीकरण के नेता जिम्मेवार हैं। सशक्तीकरण से पहले भी बिहार विकास के मामले में पीछे ही जा रहा था। पर पिछले दस वर्षों से सत्ता जिसके हाथों में रही, उन्हें जातिवाद, भ्रष्टाचार व अराजकता के बदले विकास को अपना मूलमं़ बनाना चाहिए था। ऐसा नहीं हुआ। इस कारण एक तरह राजनीतिक संरक्षण प्राप्त गुंडा गिरोह बड़े पैमाने परपनपे और दूसरी ओर नक्सली।

प्रश्न - हिंदी प्रदेशों में वामपंथ का सबसे मजबूत गढ़ बिहार माना जाता रहा है। पर आज उसमें एक ठहराव-सा दिखता है। बिहार में ही वामपंथ के ज्यादा आगे बढ़ने के क्या कारण रहे तथा आज जो ठहराव व गतिरोध की स्थिति है उसे कैसे तोड़ा जा सकता है?

उत्तर- बिहार एक अद्र्धसामंती समाज है। वामपंथियों के गढ़ बंगाल से यह सटा हुआ प्रदेश है। बिहार में पहले से ही राजनीतिक जागरूकता अधिक रही है। इस तरह के कारणों से वामपंथी दल यहां मजबूत हुए। पर, यहां भी वामपंथी नेताओं ने कार्यकर्ताओं व समर्थकों को छला। पहले के नेता अपने निजी जीवन की सादगी व निष्ठा के जरिए युवकों व छात्रों को प्रेरित व प्रभावित करते थे। अब वैसी बात नहीं है। कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट पार्टियों के उत्तराधिकारी संगठनों के कार्यकर्ता आज आम तौर पर अभिकर्ता (ठेकेदार) बन चुके हैं। अपवादों की बात अलग है। इस गतिरोध को कैसे तोड़ा जाए, इस सवाल का जवाब आसान नहीं है।

प्रश्न- बिहार में लोहिया के तमाम लोहार आज त्रिशूल बना रहे हैं। किसी भद्र पुरुष के इस कथन को आप किस तरह देखेंगे?

उत्तर - लगता है कि लोहियावाद अब किताबों में सिमट कर रह गया है। किशन पटनायक जैसे थोड़े से लोग उसे जहां-तहां चला रहे हैं। बिहार के संदर्भ में देखें तो आज के अधिकतर नेता अपने-अपने कबीले के सरदार जैसे लगते है। कोई यादवों का नेता है, तो कोई कुर्मियों का। कोई कोइरी का नेता है, तो कोई राजपूतों का। कोई पासवान नेता है, तो कोई चमार नेता है। ऐसा कहे जाने पर  भी उन्हें कोई असुविधा नहीं होती। पूरे समाज का कोई नेता नहीं नजर आता। इन ‘कबीलाई सरदारों’ के रहन-सहन, हाव भाव और क्रियाकलाप मध्ययुगीन राजाओं से मिलते-जुलते हैं। पिछड़े नेताओं ने सामाजिक न्याय का उसी तरह कचूमर निकाला, जिस तरह कांग्रेसियों ने गांधीवाद का।

प्रश्न - बिहार हिंदुस्तान भर में जातीय हिंसा से सर्वाधिक त्रस्त राज्यों में रहा है। बिहार के साथ जातिवाद जैसे समानार्थक हो गया है। आप क्या कहते हैं?

उत्तर- सवाल है कि जातिवाद को मापने का क्या पैमाना बने। बिहार बदनाम अधिक है। दूसरी जगहों में जातिवाद ज्यादा या इतना ही रहा है। दरअसल जातिवाद की जकड़न को तोड़ने के लिए बिहार में अधिक कोशिशें हुई हैं। उसका शोर अधिक हुआ। इसलिए कि जकड़न टूटी। जिन लोगों को जकड़न टूटने से नुकसान हुआ, उन्होंने जातिवाद का शोर अधिक मचाया। आज सन 1950-60 की तरह सत्ता सिर्फ दो सवर्ण जातियों के हाथों में नहीं है। पर बंगाल में सत्ता अब भी दो सवर्ण जातियों के हाथों में है। यदि वहां भी इस लाइन पर आंदोलन हुआ होता, तो वहां भी जातिवाद को शोर मचा होता। 

     यह भी आरोप लगाया जाता है कि केंद्र की 1952-57 की सरकार जितनी जातिवादी थी, उतनी जातिवादी लालू-मुलायम की सरकारें भी नहीं रही हैं। आंकड़े तो यही बताते हैं। मेरिट केक नाम पर एक खास जाति के लोगों को बड़ी संख्या में पद दिये गये। इन कथित मेरिट वालों ने आजादी के बाद देश को ऐसे चलाया कि हम भारी विदेशी कर्जे में डूब गये। आज हमें उन कर्जों के सिर्फ सूद के रूप में हर साल करीब एक लाख करोड़ रुपये देने पड़ते हैं।

प्रश्न-बिल्कुल इधर ‘गांव बचाओ देश बचाओ’ रैली में लालू यादव ने कहा कि अब बैकवर्ड-फारवर्ड की लड़ाई मैं बंद करता हूं। पहले देश बचाना जरूरी है। जब देश बचेगा, तो लड़ाई फिर कभी हो जाएगी। लालू यादव में इस परिवर्तन के राजनीतिक अर्थ क्या हो सकते हैं?

उत्तर - लालू यादव पहले भी यह बात कह चुके हैं। जब-जब वे राजनीतिक जरूरत महसूस करते हैं, ऐसी बातें कहते हैं। यदि लालू यादव इस समस्या के प्रति गंभीर होते तो वे पहले पता लगाते कि ऐसी नौबत क्यों आई कि देश एक बार फिर आर्थिक गुलामी की ओर बढ़ रहा है। इस समस्या को विकट बनाने में खुद उनकी बिहार सरकार का पिछले दस साल में कितना बड़ा योगदान रहा है? फिर उस कमी को दूर करने की वे कोशिश करते तो गांव बचाने में मदद मिलती।

रैली में करोड़ों रुपये फूंक देने से तो देश और जल्दी गुलाम होगा! सब जानते हैं कि ऐसी रैलियों के लिए पैसे कहां से आते हैं।

मान लीजिए कि बिहार सरकार ने विश्व बैंक से भारी कर्ज लेकर राज्य में बड़ी निर्माण योजानाएं शुरू कीं। ंयोजना के पैसों की बंदरबांट कर ली गई। योजना से कोई रिटर्न नहंीं आया। कर्ज और सूद बढ़ता गया। सरकार महाजन के पैसे वापस करने की स्थिति में नहीं है। अब सरकार को महाजन के निर्देश पर काम करना पड़ेगा। उसी तरह के महाजनों के दबाव पर इस देश की केंद्रीय सरकार उदारीकरण के खिलाफ देश बचाओ गांव बचाओ रैली की जा रही है। क्या लालू यादव ने यह पता लगाया कि विदेशी कर्जे से शुरू हुई कितनी विकास योजनाएं बिहार के प्रशासनिक भ्रष्टाचार की बलिवेदी पर चढ़ गयी?

भ्रष्टाचारियों पर कौन सी कार्रवाई हुई? किसी ने ठीक ही कहा है कि भ्रष्ट सरकार अपने देश की स्वतंत्रता कायम नहीं रख सकती।

प्रश्न- पचास साल बाद बिहार की तस्वीर आपको कैसी नजर आती है ?

उत्तर-विभिन्न क्षेत्रों में पूरे देश में गिरावट की जो रफ्तार है, उसके अनुसार तो अगले दस साल में ही पूरे देश की हालत गड़बड़ होने वाली है। भूमंडलीकरण व उदारीकरण के दुष्परिणाम सामने आने लगेंगे तो आशावादी लोगों के होश उड़ जाएंगे। मैं तो निराशावादी बन गया हूंं। पानी की कमी व पर्यावरण असंतुलन की जो भीषण समस्या अगले दस पंद्रह साल में ही जो सामने आने वाली है, उसकी कल्पना करके डर लगता है। इस बीच केंद्र सरकार देश में एक सवा लाख करोड़ रुपये खर्च करके सुपर हाईवे बनवा रही है जबकि तत्काल लाखों तालाब बनवाने की जरूरत है। ताकि भूमिगत जल का स्तर और नीचे नहीं जाए।

वर्षा का पानी तालाबों में इकट्ठा होता है। अटल बिहारी वाजपेयी शाहजहां की तरह ताजमहल बनवा रहे हैं जबकि उन्हें शेरशाह की तरह सड़क बनवा कर वृक्ष लगवाने चाहिए थे। आज तालाबों की उतनी ही जरुरत है जितनी शेरशाह के जमाने में सड़क की थी।

प्रश्न-बिहार में इन दिनों हो रही पत्रकारिता का विश्लेषण आप कैसे करेंगे? पिछले दशक में बिहार की पत्रकारिता में किन लोगों के योगदान को आप महत्वपूर्ण मानते हैं?

उत्तर-अखबार जनता के कुछ अधिक करीब गये हैं। पिछले दशक में कई पत्रकारों ने अच्छा काम किया है। खासकर बिहार के अनेकानेक घोटालों की खबरें पूरी की पूरी जनता तक गई हैं।

पत्रकारिता में सुधार की गुंजाइश तो हमेशा ही रहती है। पर्यावरण, जल प्रबंधन और उदारीकरण के खतरों की ओर बहुत कम अखबार ध्यान दे रहे हैं। इन दिनों अखबारों में व्याकरण गलतियों में भारी वृद्धि हुई है। अधिक पन्ने, चिकने कागज और रंगीन छपाई पर तो ध्यान दिया जा रहा है, पर इस बात पर गौर नहीं किया जा रहा है कि छात्रों की भाषा बिगड़ती जा रही है। पहले अंग्रेजी और हिंदी अखबारों से भी छात्र भाषा सीखते थे।

          --अनीश अंकुर एवं विनाश। 
(प्रभात खबर, पटना में 7 अप्रैल 2001 को प्रकाशित)