गुरुवार, 30 जनवरी 2020

 राहत-कल्याण के लिए ‘आप’ और
देश की रक्षा के लिए भाजपा !!
...............................................
मेरा कोई व्यक्तिगत अनुभव तो नहीं है।
पर,विभिन्न स्त्रोतों से मिल रही सूचनाओं के अनुसार 
अरविंद केजरीवाल की सरकार ने अपने कार्यकाल में विकास व कल्याण के  काम किए हैं।
वे काम पहले की किसी अन्य सरकार से बेहतर हैं।
  इसके कारण ‘आप’ को इस बार भी वोट मिलेंगे।
   पर, उसके कुछ वोट पिछली बार की अपेक्षा घट भी सकते हैं।
क्योंकि केजरीवाल सरकार को अपने मुस्लिम वोट बैंक के लोभ में देश की सुरक्षा की कोई चिंता नहीं की है।
  आप की सरकार ने जेएनयू के टुकड़े -टुकड़े गिरोह के खिलाफ अभियोजन चलाने की अनुमति अब तक नहीं दी।
साथ ही,शाहीन बाग जैसे मामलों में भी ‘आप’ का रवैया अच्छा नहीं रहा है।
   अब देखना है कि कुल मिलाकर ‘आप’ के वोट कितना बढ़ते या घटते हंै।
वैसे दिल्ली की सत्ता तो उसे ही मिलेगी,ऐसा लगता है।
मानना पड़ेगा दिल्ली की जनता को।
  उसने दिल्ली में राहत-कल्याण-विकास  कार्यों के लिए तो विधान सभा चुनाव में ‘आप’ को वोट दिए,पर देश की सुरक्षा के लिए लोक सभा चुनाव में भाजपा को ।
   काश ! इस देश में कोई ऐसी पार्टी होती जो देश की सुरक्षा भी करती और साथ ही भरसक भ्रष्टाचारमुक्त शासन 
भी चलाती !!!
---सुरेंद्र किशोर --27 जनवरी 2020  

    सार्वजनिक स्थानों के शौचालयों की स्थिति दयनीय
     .....................................................
पटना के आशियाना-दीघा रोड पर स्थित रामनगरी मोड़ पर
व्यस्त बाजार है।
वहां के एक मशहूर मार्केट में पहले एक शौचालय हुआ करता था।
कई महीनों बाद परसों वहां गया तो देखा कि शौचालय में 
बाहर से ताला बंद था।
   वैसे भी वह बहुत गंदा रहता था।
मार्केट की दुकानों के मालिक चाहते तो उसकी साफ-सफाई का प्रबंध चंदा करके करवा सकते थे।
   पर,लगता है कि इस काम में पैसे लगाना उन्हें फिजूलखर्ची लगती है।
इसलिए दुकानदानों ने तो अपने लिए शौचालय का वहां प्रबंध कर लिया है,पर वे ग्राहकों का कोई ध्यान नहीं रखते ।
जबकि, उनकी कमाई गाहकों से ही है।नतीजतन खरीददार महिलाओं को तकलीफ होती है।
   इस मामले में पटना या यूं कहें कि अपवादों को छोड़कर इस देश के सार्वजनिक स्थानों के शौचालयों की हालत चिंताजनक है। इसकी उपेक्षा  आपराधिक है।
एक तो शौचालय है नहीं।
हैं भी तो जर्जर और भीषण बदबूदार।
अधिकतर लोगों ने शौचालयों का इस्तेमाल भी नहीं सीखा। 
 हालांकि उम्मीद की गई थी कि लोगबाग पढ़-लिख जाएंगे तो शौचालयों का इस्तेमाल करना सीख जाएंगे।
    पटना के मौर्या लोक के शौचालयों में तो आम तौर पर पढ़े-लिखे लोग ही जाते हैं।
उन्हें भी नरक बना रखा है लोगों ने।
उसके रख -रखाव की स्थिति दयनीय है।
  स्कूलों में शौचालयों का इस्तेमाल बच्चों को सिखाना चाहिए।
कहा गया है कि 
किसी व्यक्ति की सुरुचिसम्पन्नता का पता इस बात से नहीं चलता कि वह अपना ड्राइंग रूम कितना ढंग से रखता है,बल्कि इस बात से चलता है कि उसका शौचालय कैसा है !
   इस बात पर अभी शोध नहीं हुआ है कि इस देश के सार्वजनिक स्थानों में शौचालयों की कमी और भीषण गंदगी के कारण कितने लोग हर साल बीमार पड़ते हैं।
  याद रहे कि नब्बे के दशक में बम्बई में अपने  अनशन के दौरान पेशाब घर के अभाव के कारण पूर्व प्रधान मंत्री वी.पी.सिंह उसका इस्तेमाल नहीं कर सके,नतीजतन  उनकी किडनी खराब हो गई।  
--सुरेंद्र किशोर --30 जनवरी 2020

       
इस देश के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों के साथ एक खास दिक्कत है।
उन्हें लगता है कि कुत्तों को हिलाने का काम पूंछ ही कर
सकती है।
जबकि, वास्तविकता यह है कि कुत्ता ही अपनी पूंछ हिला सकता है।
 यह भी सच है कि बिना पूंछ का कुत्ता नहीं शोभता !
हालांकि कुछ कुत्तों का काम बिना पूंछ का भी चल ही सकता है।
पर, कट कर अलग हुई पूंछ अकेली भला क्या करेगी !?
चारा-पानी के बिना मर जाएगी !
अवास्तविक दुनिया में जी रहे ऐसे ही कुछ बुद्धिजीवी कभी -कभी डगरा के बैगन बन जाते हैं--जैसे नेताओं के बीच के आदतन दलबदलू !!!
....................................
...सुरेंद्र किशोर --30 जनवरी 2020

मैं अपना जन्म दिन कभी नहीं मनाता।
क्योंकि, इसी दिन गांधी की हत्या कर दी गई थी।
यह खुशी का दिन नहीं हो सकता।
......सुरेंद्र किशोर 
30 जनवरी 20
  

जीवन का 75 वां साल ःः देखे -किए को 
समेटने का अब समय
.......................................................
   --सुरेंद्र किशोर--     
कुलदीप नैयर की पुस्तक का नाम है--
‘‘एक जिन्दगी काफी नहीं।’’
उसी तर्ज पर के.नटवर सिंह ने अपनी किताब का नाम रखा-
‘‘एक ही जिन्दगी काफी नहीं।’’
पर वी.पी.सिंह पर लिखी पुस्तक का नाम है-
‘‘मंजिल से ज्यादा सफर।’’
   आज जब मैंने अपने जीवन के 75 साल पूरे कर लिए तो पीछे मुड़कर देखना है कि इस बीच क्या किया ?
कितना किया ?
क्या नहीं किया ?
क्या खोया, क्या पाया ?
एक दर्शक और लघु पात्र के रूप में देखे गए नजारे और भोगे हुए यथार्थ को समेटने का अब समय आ गया है।
  अनुभव कई क्षेत्रों का रहा है- 
अध्यात्म, छात्र राजनीति, 
समाजवादी राजनीति, 
जेल जीवन,
अभियानी पत्रकारिता,
फरारी जीवन,
पेशेवर पत्रकारिता। 
छोटे -बड़े नेताओं के कई -कई रूपों 
के करीब से दर्शन !
राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं की दशा-दुर्दशा।
सार्वजनिक जीवन के बदलते चाल,चरित्र और चिंतन !
ढहती मूत्र्तियां और तिरोहित होते मूल्य !
फिर भी जहां -तहां बची-खुची टिमटिमाती उम्मीद 
की कुछ किरणें !!
गांधी युग के आदर्शवादी नेताओं से लेकर आधुनिक युग के अपराधी व व्यवसायी नेताओं से तक से पाला।
 अब पलट कर 
देखने और उन्हें समेटने का समय।
संकल्प तो है,पर देखना है कितना कुछ कर पाऊंगा !
   वैसे भी 75 साल के बाद व्यक्ति स्वास्थ्य के डेंजर जोन में
प्रवेश कर जाता है। 
.........................................
सुरेंद्र किशोर-30 जनवरी 2020


बुधवार, 29 जनवरी 2020

फेसबुक मित्र सेराज अनवर की
एक टिप्पणी के जवाब में ..
.........................................
सेराज जी,
फेसबुक पर लिखने के अलावा भी मेरे पास कुछ काम रहता है।
उसे आपने मेरी चुप्पी समझी।
आपने यह भी लिख दिया कि मैं अन्य लोगों से आपकी टिप्पणियों के खिलाफ लिखवा रहा हूं।
यही तो आपकी सोच है।
जो लोग लिख रहे हैं,उनमें से शायद ही किन्हीं से मेरा व्यक्तिगत संपर्क है।
वैसे आपकी सोच को देखते हुए लगता है कि किसी तरह की बहस की कोई सार्थकता नहीं है।
आप अपनी दुनिया में खुश रहिए।
 मैं कोई सर्टिफिकेट नहीं दूंगा जैसा आपने मेरा गार्जियन
यानी  ‘कुलपति’ बन कर मुझे दिया है।
संतुलित सोच वाले मेरे कई मुस्लिम मित्र-परिचित हैं जो कई बार मुझसे सहमत होते हैं।
   मेरी सोच के कुछ नमूने यहां पेश हंै।
मैं वरूण गांधी के हाथ काटने वाले बयान को उतना ही बुरा मानता हूं जितना इमरान मसूद के मोदी को बोटी -बोटी काट देने वाले बयान को।
मैं 15 मिनट पुलिस हटा लेने वाले अकबरूद्दीन के बयान का उतना ही विरोधी हूं जितना अनुराग ठाकुर के गोली मारने वाले बयान का।
  मैं 2002 में गोधरा रेलवे स्टेशन पर 59 कारसेवकों को जला कर मार देने के उतना ही खिलाफ हूं जितना बाद के दंगों के।
 मैं इस देश को वास्तविक सेक्युलर देश के रूप में विकसित होते देखना चाहता हूं जहां न तो बहुसंख्यकों का किसी अन्य पर कोई ‘वर्चस्व’ रहे और न ही कोई अन्य इस देश में खलीफा राज कायम करने की कोशिश करे।
   मैं गोड्से के उतना ही खिलाफ हूं जितना जिन्ना के जिसने डायरेक्ट एक्शन करके लाखों लोगों को मरवा देने का।
 आदि आदि...........।
   इसके बाद जो मुझे जैसा सर्टिफिकेट देना चाहते हैं ,दे सकते हैं।
पर उस सर्टिफिकेट के लिए मैं लालू प्रसाद नहीं बन सकता जिन्होंने फर्जी जांच बैठाकर यह रपट दिलवा दी कि गोधरा में रेलवे कम्पार्टमेंट में कार सेवकों ने खुद ही आग लगा ली थी।
  मैं यह भी नहीं मानता कि गुजरात के दंगे जैसा भीषण दंगा उससे पहले इस देश में कभी नहीं हुआ और मोदी जैसा राक्षस और कोई नहीं।
गुजरात दंगे में क्या खास हुआ जो किसी अन्य दंगे में नहीं हुआ था ?
  गुजरात के अलावा किस दंगे में 200 पुलिसकर्मियों ने दंगाइयों से निर्दोष लोगों को बचाने के लिए 
अपनी जान दे दी थी ? 
................................
.....सुरेंद्र किशोर--29 जनवरी 2020


   

संविधान निर्माताओं की इच्छा के 
खिलाफ मनमाना वितरण के लिए 
ही 1954 में शुरू हुए थे पद्म सम्मान
  ......................................................
    --सुरेंद्र किशोर--
पाकिस्तानी मूल के गायक अदनान सामी को पद्म सम्मान दिए जाने पर कांग्रेस प्रवक्ता जयवीर शेरगिल .ने 
आरोप लगाया है कि मोदी सरकार की चाटुकारिता करने के लिए यह सम्मान उन्हें मिला है।
याद रहे कि सामी 2016 से भारतीय नागरिक हैं।
 युवा जयवीर से एक सवाल है।
 संविधान सभा ने ऐसे सम्मानों-पुरस्कारों के खिलाफ अपनी स्पष्ट राय जाहिर की थी।
  इसके बावजूद पचास के दशक में  पद्म पुरस्कार क्यों शुरू कर दिया गया ?
  राजीव गांधी के अनुसार सन 1985 तक देश में भ्रष्टाचार की स्थिति ऐसी हो चुकी थी कि 100 सरकारी पैसों में से 85 पैसे बिचैलिये लूट लेते थे।
इसके बावजूद 1946 और 1985 के बीच के प्रधान मंत्रियों को ‘भारत रत्न’ क्यों दिया गया ?
कोई किसान यदि अपनी सौ एकड़ पुश्तैनी जमीन में से 85 एकड़ बेच कर पैसे लुटा दे तो उसका वंशज उस किसान का अपने घर की दीवाल पर फोटो तक नहीं लगाएगा।
पर इस देश में तो ऐसा भी हुआ कि कंेद्रीय मंत्रिमंडलों ने अपने ही प्रधान मंत्रियों को बारी -बारी से ‘भारत रत्न’ दे दिया।
    संविधान सभा में ऐसे पुरस्कारों को शुरु करने का विरोध करने वालों में हृदयनाथ कुंजरू प्रमुख थे।
 तब यह कहा गया कि पुरस्कारों द्वारा समाज को छोटे-बड़े में बांटने की प्रक्रिया शुरु होगी।
बाद में इन पुरस्कारों का राजनीतिकरण होगा।
इसीलिए संविधान सभा ने ऐसे पुरस्कार शुरु करने से साफ मना कर दिया था।
   पर 1954 मेंे  ‘भारत रत्न’ की शुरुआत हुई।
 जो सम्मान तमिलनाडु के मुख्य मंत्री रहे एम. जी. रामचंद्रन को  पहले मिल जाए और सरदार पटेल को बाद में मिले तो उसमें राजनीति नहीं तो और क्या है ?
  भारत रत्न डा.जाकिर हुसेन को पहले मिला और डा.आम्बेडकर को बाद में।
पुरस्कार अरुणा आसफ अली को तो मिल जाए,पर भगत सिंह  और डा.राम मनोहर लोहिया आदि को न मिले तो उसमें राजनीति नहीं है तो क्या है ?
   इन्हीं कारणों से 1977 की मोरारजी सरकार ने इसे बंद कर दिया था।
पर 1980 में सत्ता में आने के बाद इंदिरा गांधी ने फिर शुरू कर दिया।
  2008 में अपने काॅलम में सरदार खुशवंत सिंह ने लिखा कि ‘‘पद्म पुरस्कार के लिए नामों के चयन में किस बात पर ध्यान दिया जाता है,यह आज तक मेरी समझ में नहीं आया।’’
 किंतु  मेरी समझ में तभी आ गया था जब कुछ दशक पहले मुझे यह पता चला कि एक ‘सज्जन’ ने अपने पद्मश्री सम्मान  को 16 लाख रुपए खर्च करके उसी साल पद्भूषण में बदलवा लिया था।
   याद रहे कि पद्म पुरस्कारों के संबंध में सरकारी आदेश यह है कि
‘‘ये सम्मान उपाधि नहीं है,इसलिए इनका उपयोग अपने नाम से पूर्व या बाद में नहीं किया जा सकता।’’  
  कई साल पहले दुरुपयोग करने के कारण दक्षिण भारत के दो फिल्मी हस्तियों के पद्म सम्मान वापस ले लिए गए थे।
  पर उत्तर भारत खास कर हिन्दी राज्यों में ऐसे सम्मान प्राप्त लोग न सिर्फ अपने लेटर हेड में बल्कि घर के दरवाजे पर लगे नेमप्लेट में भी पद्मश्री आदि लिखवा लेते हैं। 
...........................................
28 जनवरी , 2020
   

    फिर कैसा देश बनेगा यह ???
   ............................................
  वे लोग आखिर इस देश को कैसा मुल्क बनाना चाहते हैं ?
इसे टुकड़े -टुकड़े क्यों करना चाहते हैं ?
यह सवाल उनसे है ,
आज जो सी.ए.ए.के खिलाफ आंदोलनरत हैं ।
उनसे भी जो इन आंदोलनकारियों का समर्थन कर रहे हैं।
उन्हें आर्थिक मदद कर रहे हैं।
कानूनी सहायता पहुंचा रहे हैं।
   उन आंदोलनकारियों व उनके समर्थकों का अन्यायपूर्ण ‘न्याय’ तो देखिए।
वे रोहिंग्याओं और बंगलादेशी घुसपेठियों का तो भारत में स्वागत कर रहैं।
पर पाक-बं.देश और अफगानिस्तान में धार्मिक प्रताड़ना
के कारण यहां शरण लिए लोगों को बसाना नहीं चाहते।
     मान लीजिए कि पांच करोड़ --एक अनुमान-घुसपैठिए भारत में बस जाएं।बस ही चुके हैं।
ऐसे अन्य घुसपैठियों के लिए भी बोर्डर खोल दिए जाएं।
इधर 2 करोड़ -फिर अनुमानित आंकड़ा-शरणार्णियों को भारत में शरण न लेने दिया जाए। 
फिर कल्पना कर लीजिए कि यह देश अंततः कैसा बनेगा ?
क्या तब इराक और सिरिया से यह बेहतर रह जाएगा ?
   आंदोलनकारियों को संसद,सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा नहीं है।
  क्या यह मध्य युग है कि लोग सिर्फ तलवार पर 
भरोसा करें ?
ऐसा हुआ तो कैसा रह जाएगा यह देश ?
कैसा बन जाएगा भारत जिसे अभी हिन्दुस्तान भी कहा जाता है ?
  असहिष्णुता की बहुत बात होती रही है।
कई दिनों  तक कुछ लोग मुंह पर रूमाल बांध कर पुलिस पर रोड़े बरसाते रहे।
सार्वजनिक संपत्ति को अपार क्षति पहुंचाते रहे।
अब कई रास्तों को जाम करके लाखों लोगों को रोज -रोज कष्ट पहुंचा रहे हैं।
  फिर भी आम जनता की ओर से प्रतिकार नहीं हो रहा है।
पुलिस पर सब कुछ सह रही है।
और कितनी सहिष्णुता चाहिए ???
क्या सहिष्णुता की कोई सीमा भी होती है या नहीं होती ?!
  --सुरेंद्र किशोर-28 जनवरी 2020

   ‘‘इहां कुम्भड़ बतिया कोई नाहीं’’
  ..........................................................
आज न तो इमर्जेंसी है और न ही 1947 की तरह देश 
की शासन -व्यवस्था-सेना आदि अ-सुगठित व कमजोर है।
   आज देश की अधिकतर जनता भी देश की एकता के 
प्रति अपेक्षाकृत अधिक भावुक व प्रतिबद्ध है।
  इसलिए कोई गलतफहमी में न रहे।
--सुरेंद्र किशोर--28 जनवरी 2020

मंगलवार, 28 जनवरी 2020

संविधान निर्माताओं की इच्छा के 
खिलाफ मनमाना वितरण के लिए 
ही 1954 में शुरू हुए थे पद्म सम्मान
  ......................................................
    --सुरेंद्र किशोर--
पाकिस्तानी मूल के गायक अदनान सामी को पद्म सम्मान दिए जाने पर कांग्रेस प्रवक्ता जयवीर शेरगिल .ने 
आरोप लगाया है कि मोदी सरकार की चाटुकारिता करने के लिए यह सम्मान उन्हें मिला है।
याद रहे कि सामी 2016 से भारतीय नागरिक हैं।
 युवा जयवीर से एक सवाल है।
 संविधान सभा ने ऐसे सम्मानों-पुरस्कारों के खिलाफ अपनी स्पष्ट राय जाहिर की थी।
  इसके बावजूद पचास के दशक में  पद्म पुरस्कार क्यों शुरू कर दिया गया ?
  राजीव गांधी के अनुसार सन 1985 तक देश में भ्रष्टाचार की स्थिति ऐसी हो चुकी थी कि 100 सरकारी पैसों में से 85 पैसे बिचैलिये लूट लेते थे।
इसके बावजूद 1946 और 1985 के बीच के प्रधान मंत्रियों को ‘भारत रत्न’ क्यों दिया गया ?
कोई किसान यदि अपनी सौ एकड़ पुश्तैनी जमीन में से 85 एकड़ बेच कर पैसे लुटा दे तो उसका वंशज उस किसान का अपने घर की दीवाल पर फोटो तक नहीं लगाएगा।
पर इस देश में तो ऐसा भी हुआ कि कंेद्रीय मंत्रिमंडलों ने अपने ही प्रधान मंत्रियों को बारी -बारी से ‘भारत रत्न’ दे दिया।
    संविधान सभा में ऐसे पुरस्कारों को शुरु करने का विरोध करने वालों में हृदयनाथ कुंजरू प्रमुख थे।
 तब यह कहा गया कि पुरस्कारों द्वारा समाज को छोटे-बड़े में बांटने की प्रक्रिया शुरु होगी।
बाद में इन पुरस्कारों का राजनीतिकरण होगा।
इसीलिए संविधान सभा ने ऐसे पुरस्कार शुरु करने से साफ मना कर दिया था।
   पर 1954 मेंे  ‘भारत रत्न’ की शुरुआत हुई।
 जो सम्मान तमिलनाडु के मुख्य मंत्री रहे एम. जी. रामचंद्रन को  पहले मिल जाए और सरदार पटेल को बाद में मिले तो उसमें राजनीति नहीं तो और क्या है ?
  भारत रत्न डा.जाकिर हुसेन को पहले मिला और डा.आम्बेडकर को बाद में।
पुरस्कार अरुणा आसफ अली को तो मिल जाए,पर भगत सिंह  और डा.राम मनोहर लोहिया आदि को न मिले तो उसमें राजनीति नहीं है तो क्या है ?
   इन्हीं कारणों से 1977 की मोरारजी सरकार ने इसे बंद कर दिया था।
पर 1980 में सत्ता में आने के बाद इंदिरा गांधी ने फिर शुरू कर दिया।
  2008 में अपने काॅलम में सरदार खुशवंत सिंह ने लिखा कि ‘‘पद्म पुरस्कार के लिए नामों के चयन में किस बात पर ध्यान दिया जाता है,यह आज तक मेरी समझ में नहीं आया।’’
 किंतु  मेरी समझ में तभी आ गया था जब कुछ दशक पहले मुझे यह पता चला कि एक ‘सज्जन’ ने अपने पद्मश्री सम्मान  को 16 लाख रुपए खर्च करके उसी साल पद्भूषण में बदलवा लिया था।
   याद रहे कि पद्म पुरस्कारों के संबंध में सरकारी आदेश यह है कि
‘‘ये सम्मान उपाधि नहीं है,इसलिए इनका उपयोग अपने नाम से पूर्व या बाद में नहीं किया जा सकता।’’  
  कई साल पहले दुरुपयोग करने के कारण दक्षिण भारत के दो फिल्मी हस्तियों के पद्म सम्मान वापस ले लिए गए थे।
  पर उत्तर भारत खास कर हिन्दी राज्यों में ऐसे सम्मान प्राप्त लोग न सिर्फ अपने लेटर हेड में बल्कि घर के दरवाजे पर लगे नेमप्लेट में भी पद्मश्री आदि लिखवा लेते हैं। 
...........................................
28 जनवरी , 2020
   

  केंद्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्र 
की हत्या पर कोई फिल्म क्यों नहीं ?
  - -सुरेंद्र किशोर --
लल्लन टाॅप के सौरभ द्विवेदी की फिल्म निदेशक विवेक अग्निहोत्री के साथ बातचीत सुनकर अभी -अभी खत्म किया है।
विषय -लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमय मृत्यु पर बनी 
फिल्म ‘द ताशकंद फाइल्स।’
   इसे देख कर एक विचार आया।
ललित नारायण मिश्र की हत्या पर कोई फिल्म क्यों नहीं ?
ललित बाबू हत्या के समय प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के बाद देश के सर्वाधिक  ताकतवर सत्ताधारी थे।  
 शास्त्री जी की मौत को तो कोई हत्या कह सकता है तो कोई मौत।
क्योंकि कोई सबूत ही नहीं छोड़ा गया।
पर एल.एन.मिश्र की हत्या को तो सिर्फ हत्या ही कहा जा सकता है।
और कुछ भी नहीं।
कोई देखना चाहे तो मिश्र हत्याकांड  में उच्चत्तम स्तर की साजिश साफ-साफ नजर आ सकती है।
   यदि आर.टी.आई.लगाई जाए तो शासन बताएगा कि मिश्र की हत्या में आनंदमार्गियों का हाथ था।
किंतु उस पर ललित बाबू के किसी परिजन से आप टिप्पणी मांगेंगे तो वे या तो चुप हो जाएंगे या कहेंगे कि आनंद मार्गियों से ललित बाबू की कोई दुश्मनी नहीं थी।
जिन आनंद मार्गियों को दिल्ली का लोअर कोर्ट उस केस में सजा भी दे चुका है,उनसे कोई दुश्मनी नहीं थी !!!?
ऐसी टिप्पणी आपको  चैंकाएगी नहीं  ?
 1975 के मिश्र हत्याकांड के दो हत्यारों के स्वीकारात्मक बयान न्यायिक पदाधिकारियों के समक्ष दफा-164 में पहले दर्ज करा लिए गए थे।
पर तथाकथित  उच्चस्तरीय निदेश पर सरकारी तोता सी.बी.आई.ने समस्तीपुर में अपनी इंट्री मारी, सक्रिय होकर बिहार पुलिस से वह केस छीना और असली गुनाहगारों को साफ बचा लिया।
   सी.बी.आई.को केस सौंपने की कागजी औपचारिकता तब की अब्दुल गफूर सरकार ने बाद में पूरी की।
--सुरेंद्र किशोर
27 जनवरी 2020


      अभूतपूर्व आंदोलन
     ........................................
सी ए ए-एन.पी.आर.-एन.आर.सी. के खिलाफ जारी आंदोलन अभूतपूर्व है।
इस देश के किसी भी वैध नागरिक को चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का हो,सी.ए.ए.,एन.पी.आर. या एन.आर.सी. के लागू होने से तनिक भी नुकसान नहीं होने वाला है।
फिर भी एक खास समुदाय के लोग इसके खिलाफ जान देने और लेने पर आखिर क्यों उतारू हैं ? !!
--सुरेंद्र किशोर
  26 जनवरी 20

  

रविवार, 26 जनवरी 2020

संदर्भ-
शाहीन बाग में दीपक चैरसिया पर 
आंदोलनकारियों की ओर से हमला
.......................................
शाहीन बाग में पत्रकारों के साथ जो हुआ, वह बेहद शर्मनाक है।
आपको किसी से बात करनी है, कीजिए,
न करनी हो,न कीजिए,
पर आपके बीच पहंुचे एक पत्रकार को अपना काम करने से भला कैसे रोक सकते हैं ?
       --समीर अब्बास,दैनिक जागरण-26 जन. 20

पत्रकारिता के मेरे प्रथम 
गुरु देवीदत्त पोद्दार
............................................
‘‘वे जा रहे है।’’
एक लेख में यही लिख दिया था मैंने।
पोद्दार साहब ने मेरी काॅपी देखी।
मुझसे कहा कि 
‘देखिए सुरेंद्र जी,काम्पोजिटर तो आपसे भी कम ही पढ़ा-लिखा व्यक्ति है।
आप है लिखेंगे तो वह है ही काम्पोज कर देगा।
अपनी तरफ से तो है पर बिन्दु लगाएगा नहीं।
इसलिए लिखते समय सावधानी बरतें।
आप सावधान रहेंगे तो गलत नहीं लिखेंगे।
मैं जानता हूं।’’
 इस तरह अंगुली पकड़कर जिसने लिखना सिखाया,
वह देवीदत्त पोद्दार यदाकदा याद  आते हैं।
अब नहीं रहे।
  लोहियावादी समाजवादी पोद्दार साहब दरभंगा के मारवाड़ी काॅलेज के प्राचार्य रह चुके थे।
योग्यता , ईमानदारी और शालीनता के प्रतीक थे।
  1969 में कर्पूरी ठाकुर ने उन्हें पटना बुलाया।
कहा कि पार्टी के लिए एक साप्ताहिक पत्रिका निकालिए।
वे आ गए।
पटना हाईकोर्ट के पास स्थित एक सरकारी आवास से लोकमुख निकलने लगा।वह मकान विधायक रमाकांत झा के नाम आवंटित था।
पोद्दार साहब परिवार के साथ रहते थे।
लोकमुख में उन्होंने पहले दो सहायक संपादक रखे थे।
उन्हें 60-60 रुपए हर माह देते थे।
जब मैं उनसे मिला तो उन्होंने पूछा,यहां काम कीजिएगा ?
मैंने हां कर दी तो उन्होंने उन दोनों की जगह मुझे रख लिया।
मेरी तनख्वाह रखी गई 120 रुपए प्रति माह।
उन दिनों मैट्रिक टंे्रड टीचर की तनख्वाह 229 रुपए थी। 
  ‘लोकमुख’ समाजवादी आंदोलन की पत्रिका थी।
जाहिर है कि उसकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी।
कम ही समय तक उसका प्रकाशन संभव हो सका।
कर्पूरी जी भी तो कोई साधन -संपन्न नेता थे नहीं।
कभी -कभी सत्ता में रहे भी तो उन्होंने  सरकारी फाइलें बेच कर पैसे नहीं कमाए।
फिर उन्हें कोई धनवान व्यक्ति अखबार निकालने के लिए पैसे भला क्यों देता !
  पोद्दार जी अपने पी.एफ.के पैसे एडवांस ले -लेकर कुछ दिनों तक तो पटना का अपना खर्च चलाते रहे।
बाद में दरभंगा लौट गए।
  पोद्दार जी मुझे अपने घर का बना ‘‘मारवाड़ी खाना’’ भी प्यार से खिलाते  थे।
सम्मान के साथ बात भी करते थे।
बाद के वर्षों में उनसे मेरी मुलाकात नहीं हो सकी।
बाद में मैं खुद समाजवादी अभियान वाली पत्रकारिता से हटकर पेशेवर पत्रकारिता यानी दैनिक ‘आज’ से जुड़ चुका था।
सुना था कि पोद्दार जी को राज्य काॅलेज सेवा आयोग का अध्यक्ष बनाया गया था।उनके योगदान व योग्यता के अनुपात में वह कम ही था।
उनके कार्यकाल के बारे में मैंने कभी कोई शिकायत नहीं सुनी।
  समाजवादी आंदोलन के ऐसे दिव्य पुरुष यदाकदा याद आते हैं।
इसलिए भी कि ऐसे लोगों की किसी भी राजनीतिक दल में आज भारी कमी है। 
   


शनिवार, 25 जनवरी 2020

देखता हूं कि जिनके पास जानकारियां कम हैं या फिर जिनके तर्कों में दम नहीं होता,अक्सर वे शाब्दिक हिंसा पर उतर आते हैं।
  टी.वी.डिबेट और सोशल मीडिया पर यह अक्सर देखा जा
सकता है।
दरअसल कई बार तर्कों में दम इसलिए भी नहीं होता क्योंकि
बहस करने वाले पढ़ाई-लिखाई में कम समय देते हैं।
   आप चाहे जिस किसी पक्ष में भी हों,यदि आप जानकारियां अधिक इकट्ठी करके चर्चा करेंगे तो आपको लोग गंभीरता से लेंगे।
भले वे कई बार आपसे फिर भी सहमत न हांे।
लेकिन शाब्दिक हिंसा ,मंशा पर शक और नीचा दिखाने की प्रवृत्ति आपको अंततः अनेक लोगों 
से काट देगी। 
--सुरेंद्र किशोर--22 जन. 20

करीब तीन दशक पहले की बात है।
बिहार विधान सभा के पूर्व स्पीकर त्रिपुरारि प्रसाद सिंह 
दिल्ली के बिहार भवन के बंद कमरे में जाड़े की रात में हीटर जला कर सो गए थे। 
दम घुटने से उनका निधन हो गया।
इस दुखद घटना से हमें शिक्षा लेनी चाहिए थी।
पर नहीं।
पर,लगता है कि वह  हमारी आदत में शुमार नहीं है।
   कल खबर आई कि इसी तरह की दुर्भाग्यपूण परिस्थिति में बरेली में एक मेडिकल छात्रा की मौत हो गई।
यानी हमने एक और बहुमूल्य जीवन खो दिया।
  सरकारों को चाहिए कि वह कम से कम जाड़े के दिनों में  अखबारों में विज्ञापन के जरिए लोगों को बताए कि हीटर जलाने के दौरान कैसी सावधानी बरतनी चाहिए।   

  किसी व्यक्ति के बारे में कोई भी अन्य व्यक्ति, जैसी चाहे वैसी राय रखने के लिए स्वतंत्र है।
पर मैं यदि  किसी मुद्दे पर वही राय नहीं रखता जो राय आपकी है,तो क्या मैं आपके यहां जाकर  बिना मांगे आपको उपदेश या सलाह देने लगूंगा ?
  आपसे झगड़े पर उतारू हो जाऊंगा ?
आपकी मंशा पर शक करूंगा ?
उम्र में छोटे- बड़े का भी लिहाज छोड़ दूंगा ?
मेरा तो यह स्वभाव भी नहीं ।
 उसके लिए मेरे पास समय भी नहीं।
पर सोशल मीडिया के इस दौर में ऐसी धृष्ठता यदा -कदा कुछ लोग करते रहते  हैं।
शायद वे किन्हीं तक संदेश पहुंचाना चाहते हैं।
या अपनी श्रेष्ठता स्थापित करना चाहते हैं।
अरे भई ,आप तो श्रेष्ठ हैं हीं,
यदि आपने वैसा मान ही लिया है तो उसे चेलेंज भला कौन कर सकता है ?
आप उपदेश देने लायक भी हैं।
पर एक ही बात का ध्यान रखिए।
जो मांगे, उसे ही उपदेश दीजिए।
  मैं तो ऐसे उपदेशक लोगों से बहस में पड़ने की जगह उन्हें अनफं्रेड कर देता हूं।
यह तो अधिकार मेरा है न ! ?
या यह भी नहीं है ?
--सुरेंद्र किशोर
24 जनवरी 2020

जब तक इस देश का प्रतिपक्ष ‘‘टुकड़े-टुकड़े गिरोह’’ के साथ खड़ा दिखता रहेगा और घोटाले-महा घोटाले के केस का सामना कर रहे नेताओं का बचाव करता रहेगा,तब तक 
नरेंद्र मोदी को कमजोर करना मुश्किल होगा।
   यदि प्रतिपक्ष हर समुदाय की सांप्रदायिकता का बिना भेदभाव के विरोध करने लगे और घोटालेबाज-महा घोटालेबाज  नेताओं से खुद को अलग करने लगे तो इस देश के आम लोग  मोदी सरकार की विफलताओं और कमियों पर नजर डालने लगेंगे।


शुक्रवार, 24 जनवरी 2020


 पीढि़यां गढ़ेंगे प्रस्तावित कदाचारमुक्त विशाल परीक्षा केंद्र-सुरेंद्र किशोर 
 पटना में  25 हजार क्षमता वाले परीक्षा परिसर के निर्माण की घोषणा ऐतिहासिक है।
मुख्य मंत्री नीतीश कुमार के अनुसार परीक्षा केंद्र जिलों में भी बनेंगे । केंद्र सुविधाओं से लैस होंगे।
  यह जरूरी काम है जो  सरकार करने जा रही है।
 परीक्षाओं में कदाचार की समस्या ने महामारी का रूप ले लिया है।
  स्थिति ऐसी  है कि योग्य शिक्षक तैयार करने में भी अब कठिनाई हो रही है।
  सारे अयोग्य नहीं हैं।पर कुछ शिक्षक ऐसे भी हैं जो न तो शुद्ध प्रश्न पत्र तैयार कर सकते हैं और न ही उत्तर पुस्तिकाओं की सही -सही जांच कर सकते हैं।शिक्षण  स्तर  गिरता जा रहा है।
मेडिकल-इंजीनियरिंग शिक्षण की हालत भी असंतोषप्रद  है।
पटना के प्रस्तावित परीक्षा केंद्र का इस्तेमाल खास तौर से बेहतर शिक्षक तैयार करने में हो।
कदाचारमुक्त बी.एड.प्रवेश परीक्षा उसी 25 हजार की क्षमता वाले परीक्षा केंद्र में हो।
   कदाचारमुक्त परीक्षा आयोजित करने के काम में अक्सर बाधा आती रही है।
राज्य सरकार ने अच्छा सोचा है कि वहां 52 सिपाहियों के रहने की व्यवस्था भी होगी।
  पर उसके साथ कुछ अन्य उपाय भी करने होंगे।
  बिहार पुलिस के सिपाही के बदले वहां सेना के पूर्व जवानों को तैनात किया जा सकता है।
यदि संभव हो तो तमिलनाडु जैसे राज्य से अर्ध सैनिक बल की टुकडि़यां बुलाई जाएं।ताकि, भाषा की बाधा कदाचार में भी बाधक बन सके।
  परीक्षाएं कई सप्ताह चलें।
परीक्षा केंद्रों पर निगरानी के लिए आई.ए.एस.और आई.पी.एस.सेवा के कुछ कार्यरत व कुछ रिटायर अफसर तैनात किए जाएं।
 अधिकारी वैसे हों जिनकी ईमानदारी और कत्र्तव्यनिष्ठा को लेकर किसी को कोई शक न हो।
 ऐसे अफसर मिल जाएंगे।
  ऐसी कदाचारमुक्त परीक्षाओं से गुजरे शिक्षकों को अधिक वेतन पर सरकारी स्कूलों में बहाल किया जाना चाहिए।
    --कैसा हो शिक्षकों का वेतनमान--
काफी पहले की बात है।
प्रकरण यूरोप के किसी देश का है।
वहां के डाक्टर-इंजीनियर तथा दूसरे पेशेवर सरकारीकर्मी एक बार अपने शासक के यहां पहंुचे।
उन लोगों ने मांग की कि हमारा वेतन शिक्षकों से कम है।
उसे बढ़ाकर उनके बराबर किया जाए।
 शासक ने कहा कि आपका वेतन शिक्षक के बराबर कैसे हो सकता है ?
वे नई पीढि़यां गढ़ते हैं।
उनसे आपकी कोई तुलना नहीं हो सकती।
   आज भारत में पीढि़यां गढ़ने को लेकर भारी समस्या उत्पन्न हो गई है।
बिहार सरकार ने कई नए काम किए हैं।
बिहार में क्यों नहीं अब ऐसे शिक्षक तैयार हों जिनकी मांग देश के साथ -साथ विदेश में भी हो ?
पर उसके लिए शिक्षक निर्माण की प्रक्रिया में हो रहे तरह- तरह के कदाचारों को बंद करना होगा।   
    --बिहार हरियाली की ओर--
पर्यावरण असंतुलन , भ्रष्टाचार और आतंकवाद !
देश-दुनिया के सामने ये तीन सर्वाधिक गंभीर समस्याएं हैं।
 जल जीवन हरियाली का संदेश देने के लिए बिहार ने 19 जनवरी को मानव श्रृंखला बनाई।
रिकाॅर्ड तोड़ मानव श्रृंखला !
लोगों खास कर नई पीढ़ी को  इस समस्या  को लेकर जागरूक करने के लिए मानव श्रृंखला की जरूरत भी थी।
   क्या ही अच्छा हो,यदि कभी भ्रष्टाचार और आतंकवाद के खिलाफ भी मानव श्रृंखला बने।
  वैसे बिहार सरकार ने हाल के वर्षों में राज्य में हरित क्षेत्र में बढ़ोत्तरी की है।
 आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार सन 2012 तक बिहार में करीब 9 दशमलव 79 प्रतिशत हरित क्षेत्र था।
2018 में बढ़कर 15 प्रतिशत हो गया।
2022 तक इसे बढ़ाकर 17 प्रतिशत करने का राज्य सरकार का लक्ष्य है।
भारत का औसत हरियाली क्षेत्र कुल रकबा का करीब 21
दशमलव 67 प्रतिशत है।
वैसे पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार 33 प्रतिशत वन क्षेत्र को आदर्श माना जाता है।
        --कर्पूरी कथा ः एक बार फिर--  
सन 1977 में जय प्रकाश नारायण के पटना स्थित आवास पर जेपी का जन्म दिन मनाया जा रहा था।
 बड़े -बड़े नेतागण जुटे थे। तत्कालीन मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर भी वहां पहुंचे।
उनका कुत्र्ता थोड़ा फटा हुआ था।
चप्पल की स्थिति भी ठीक नहीं थी।
दाढ़ी बढ़ी हुई थी।
 और बाल बिखरे हुए थे ।
  वह धोती थोड़ा ऊपर करके पहनते थे।
 नानाजी देशमुख ने कहा कि 
‘‘भई किसी मुख्य मंत्री के गुजारे के लिए उसे न्यूनत्तम कितनी तनख्वाह मिलनी चाहिए ?
वह तनख्वाह कर्पूरी जी को मिल रही है या नहीं ?’’
 इस टिप्पणी के बाद जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष चंद्र शेखर उठ खडे़ हुए।
वे नाटकीय ढंग से अपने कुत्र्ते के अगले हिस्से के दो छोरों को दोनों हाथो ंसे पकड़कर खड़े हो गये।
वे वहां उपस्थित नेताओं के सामने बारी -बारी से जाकर वे कहने लगे,
‘‘आपलोग कर्पूरी जी के कुत्र्ता फंड में चंदा दीजिए।’’
चंदा मिलने लगा।कुछ सौ रुपये तुरंत एकत्र हो गये।
उन रुपयों को चंद्र शेखर ने कर्पूरी जी के पास जाकर उन्हें समर्पित कर दिया । कहा  कि ‘‘आप इन पैसों से कुत्र्ता ही बनवाइएगा।कोई और काम मत कीजिएगा।’’
कर्पूरी जी ने मुस्कराते हुए उसे स्वीकार कर लिया और कहा कि ‘‘इसे मैं मुख्य मंत्री रिलीफ फंड में जाम करा दूंगा।’’
    --और अंत में-- 
  चुनाव आयोग ने 9 जनवरी, 2011 को कहा था कि 
‘‘यह विडंबना है कि जेल में बंद व्यक्ति को उसका मुकदमा लंबित रहने के दौरान चुनाव लड़ने की तो आजादी है,लेकिन वह मतदान करने के योग्य नहीं है।’’
   आयोग ने तब यह सलाह भी दी थी कि ‘‘हत्या, बलात्कार तथा अवैध वसूली के गंभीर आरोपों का सामना कर रहे उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए तुरंत कदम उठाए जाएं।’’
  राजनीति के  बढ़ते अपराधीकरण की पृष्ठभूमि में आयोग के इस पुराने सुझाव पर सरकार को विचार करना चाहिए,ऐसा अनेक लोग मानते हैं।
............................................
--कानोंकान-प्रभात खबर-24 जनवरी 2020 
  

    
   

   द्विवार्षिक चुनाव--एक अनार सौ बीमार
       .........................................
राज्य सभा और विधान परिषद के द्विवार्षिक चुनाव के समय
अजीब -अजीब अनुभव होते हैं।
नेताओं को भी और आम लोगों को भी।
कई नेताओं के चरित्र खुलकर सामने आ जाते हैं।
कुछ दलीय सुप्रीम को तो एक अजीब दुःस्वप्न से गुजरना पड़ता है।
   निर्णय करने के क्रम में उत्पन्न भारी तनाव के कारण तो एक बार इस राज्य ने एक अनमोल नेता को खो दिया।
हार्ट अटैक हुआ और वह नहीं रहे।
नाम मत पूछिएगा।
 अब सादिक अली,मधु लिमये और आचार्य राममूत्र्ति का जमाना तो है नहीं।
इन नेताओं ने बारी -बारी से राज्य सभा का आॅफर ठुकरा दिया था। 
ताजा अनुभव शर्मनाक  है ।
 दरअसल उच्च सदन की सीट ड्रग के नशे की तरह हो गई है।
अपवादों को छोड़ कर जिसे मिल गई,वह अजीब नशे में डूब गया।
जिसे एक बार मिल कर दुबारा नहीं मिली तो उसे बाई --बोखार ले लेता है।
बड़बड़ाने लगता है।
  अखबारों के जरिए उसके तापमान का पता चल जाता है।
कभी अपने नेता का माथा नोचता है तो कभी अपना ही।
   पर बेचारा सुप्रीमो भी क्या करे !!!
उसके सामने बहुत सी समस्याएं होती हैं।
यदि आप समझते हैं कि वह आपको ही सर्वाध्धिक महत्व देता है तो अधिकतर बार आप गलतफहमी में ही होते हैं।
  प्राथमिकता की उसकी अपनी सूची होती है।
संभव है कि आप उस सूची के आखिरी पायदान पर हों। 
कई बार सुप्रीमो की मजबूरी भी होती है।
 दल को देखे या व्यक्ति को ?
हां, जो नेता सीटें बेचते हैं,उनके लिए कोई टेंशन नहीं है।
अब तो कीमत भी बहुत हो गई है।
पहली बार सुना था-आठ करोड़।
कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के एक नेता का बयान था-सौ करोड़ रुपए।  

गुरुवार, 23 जनवरी 2020

कर्पूरी ठाकुर के जन्म दिन 
की पूर्व संध्या पर 
..........................................   
लगा था ‘कर्पूरी डिविजन’ का लांछन !
   .......................................
‘कर्पूरी डिविजन’ को लेकर कई तरह की बातें की जाती रही हैं। 
पर, मेरा मानना है कि कर्पूरी ठाकुर के प्रति अन्य कारणों से नाराज लोग ‘कर्पूरी डिविजन’ कहा करते थे। 
कुछ लोग अब भी कहते हैं।
हालांकि ‘कर्पूरी डिविजन’ वाली वह सुविधा भी कुछ ही साल रही।
पर प्रचार ऐसा हुआ मानो उसी ने पूरी शिक्षा को बर्बाद कर दिया।
पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार ने भी अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त की थी।
कुछ अन्य राज्यों में भी ऐसा हुआ।
पर, कहीं किसी मुख्य मंत्री या शिक्षा मंत्री के नाम से ऐसा ‘लांछन’ पूर्ण  प्रचार नहीं हुआ।
  वैसे भी जब मैट्रिक स्तर पर अंग्रेजी की अनिवार्यता बिहार में खत्म की गयी थी, उस समय  महामाया प्रसाद सिंहा मुख्य मंत्री थे।
कर्पूरी ठाकुर उस सरकार के उप मुख्य मंत्री, वित्त मंत्री और शिक्षा मंत्री थे।
पूरा मंत्रिमंडल  उस निर्णय से सहमत था।
दरअसल अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करने का उन पर उनके सर्वोच्च नेता डा.राम मनोहर लोहिया का भी दबाव था।
उन दिनों यह प्रचार हुआ कि चूंकि कर्पूरी ठाकुर खुद अंग्रेजी नहीं जानते ,इसलिए उन्होंने अंग्रेजी हटा दी।
पर यह प्रचार गलत था।
कर्पूरी ठाकुर अंग्रेजी अखबारों के लिए अपना बयान खुद अंग्रेजी में ही लिखा करते थे।
मैं गवाह हूं, किसी हेरफेर के बिना उनका बयान ज्यों का त्यों छपता था। 
 अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करने के पीछे ठोस तर्क थे।
 तब  छात्र अंग्रेजी विषय में मैट्रिक फेल कर जाने के कारण  सिपाही में भी बहाल नहीं हो पाते थे।
इस कारण से वंचित होने वालों में सभी जातियों व समुदायों के उम्मीदवार होते थे।
नौकरी से वंचित होने वालों में अधिकतर गरीब घर के होते थे।
जबकि आजाद भारत में किसी सिपाही के लिए व्यावहारिक जीवन में, वह भी बिहार में, अंग्रेजी जानना बिलकुल जरूरी नहीं था।
  दूसरी बात यह है कि उन दिनों आम तौर से वर पक्ष न्यूनत्तम  मैट्रिक पास दुल्हन चाहता था।
अंग्रेजी में फेल हो जाने के कारण अच्छे परिवारों की  लड़कियों की शादी समतुल्य हैसियत वालों के घरों में नहीं हो पाती थी।
किसी घरेलू महिला के जीवन में अंग्रेजी की भला क्या उपयोगिता थी ? 
याद रहे कि तब परीक्षा में चोरी की ‘‘आम सुविधा’’ नहीं थी।
अन्यथा ..........।
इस तरह की कुछ अन्य बातें भी थीं।
  याद रहे कि अंग्रेजी की अनिवार्यता तब समाप्त की गयी थी,उसकी पढ़ाई बंद नहीं की गयी थी।
पर प्रचार ऐसा हुआ कि अंग्रेजी को विलोपित कर दिया गया।
 कम्प्यूटर की पढ़ाई अनिवार्य नहीं रहने के बावजूद लोग कम्प्यूटर सीख कर आगे बढ़ ही रहे हैं।  
अंग्रेजी तो अब अनिवार्य है।
फिर भी शिक्षा का स्तर क्यों नहीं उठ रहा ?
शिक्षा को बर्बाद करने के अन्य अनेक कारक रहे।
प्रो.नागेश्वर प्रसाद शर्मा ने इस पर कई किताबें लिखी हैं।
एक अंतिम बात।
1972 में तो तत्कालीन मुख्य मंत्री केदार पांडेय ने परीक्षा में कदाचार पूरी तरह बंद करवा दिया था।
फिर किसने शुरू कराया ?
पटना हाईकोर्ट के आदेश से सन 1996 में बिहार में मैटिक्र-इंटर की परीक्षाएं  कदाचार-शून्य  हुर्इं।दोबारा कदाचार किसने शुरू कराया ?
1980 में निजी स्कूलों के राजकीयकरण से पहले लगभग  सभी शिक्षक मनोयोगपूर्वक पढ़ाते थे।
क्या बाद में भी वैसी ही स्थिति रही ?
 ऐसा क्यों हुआ ??? 

बुधवार, 22 जनवरी 2020

देखता हूं कि जिनके पास जानकारियां कम हैं या फिर जिनके तर्कों में दम नहीं होता,अक्सर वे शाब्दिक हिंसा पर उतर आते हैं।
  टी.वी.डिबेट और सोशल मीडिया पर यह अक्सर देखा जा
सकता है।
दरअसल कई बार तर्कों में दम इसलिए भी नहीं होता क्योंकि
बहस करने वाले पढ़ाई-लिखाई में कम समय देते हैं।
   आप चाहे जिस किसी पक्ष में भी हों,यदि आप जानकारियां अधिक इकट्ठी करके चर्चा करेंगे तो आपको लोग गंभीरता से लेंगे।
भले वे कई बार आपसे फिर भी सहमत न हांे।
लेकिन शाब्दिक हिंसा ,मंशा पर शक और नीचा दिखाने की प्रवृत्ति आपको अंततः अनेक लोगों 
से काट देगी। 
--सुरेंद्र किशोर--22 जन. 20

  इसलिए हो रहा सीएए-एनआरसी का विरोध !
    .............................................................
पाकिस्तान, बांग्ला देश और अफगानिस्तान आदि देशों में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तो बन ही सकते हैंं।
बने भी हैं।
पर, भारत में इसे बनने नहीं दिया जा रहा है।
   क्योंकि उन देशों में न तो पी.एफ.आई.जैसा संगठन सक्रिय है और न ही वहां हमारे देश जैसे वोटलोलुप नेतागण मौजूद हैं ।
 वोटलोलुप नेताओं के लिए देश की एकता-अखंडता का कोई मतलब नहीं।
उन्हें सिर्फ वोट चाहिए।
सत्ता चाहिए।
सत्ता भी किसलिए चाहिए,यह सबको मालूम है।
  प्रतिबंधित सिमी के लोगों ने 2006 में पी.एफ.आई.का गठन किया।
सिमी के नेताओं के बयान भारत के अखबारों में दर्ज हंै जिनमें उन्होंने डंके की चोट पर कह रखा है कि हम हथियारों के बल पर भारत में इस्लामिक शासन कायम करना चाहते हैं।
उन अखबारों की कतरनें मौजूद हैं।
 याद रहे कि मौजूदा सी.ए.ए.-एन.आर.सी.विरोधी हिंसक आंदोलन की शुरूआत पी.एफ.आई.ने ही की है और करवाई है।
उन्हीं के लोग मुंह पर रूमाल बांध कर पुलिस पर रोड़े बरसा रहे थे । सार्वजनिक संपत्ति में आग लग रहे थे।
उनका संंबंध अंतरराष्ट्रीय है।
यदि आपका आंदोलन शांतिपूर्ण है और संविधान को बचाने के लिए है तो मुंह पर रूमाल क्यों ?
 वैसे सीएए और एनआरसी से किसी असली भारतीय नागरिक की नागरिकता पर कोई खतरा नहीं चाहे वह नागरिक जिस किसी धर्म का हो।
जब खुद पर खतरा नहीं,फिर भी विरोध क्यों ?
वह भी हिंसक।
इससे भी साबित होता है कि विरोध का उद्देश्य कुछ और है।
कोई बड़ा उद्देश्य है जो जान से भी प्यारा है।
   ‘निजाम ए मुस्तफा’ के समर्थक यह जान गए हैं कि सी.ए.ए.-एन.-आर.सी.लागू हो जाने के बाद राजग को करीब सात करोड़ मतदाताओं की बढ़त मिल सकती है।
एक अनुमान के अनुसार 2 करोड़ शरणार्थी हैं तो पांच करोड़ 
बंगलादेशी मुस्लिम घुसपैठिए।
हालांकि इन आंकड़ों की पुष्टि होनी बाकी है। 
  वैसे मेरा मानना है कि मुसलमानों में ऐसे लोग भी हैं जो 
निजाम ए मुस्तफा के झंझट में नहीं पड़ना चाहते,उसे असंभव मानते हैं  और मिलजुलकर इस देश में शांतिपूर्वक रहना चाहते हैं।
पर दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि अतिवादी हिन्दुओं के खिलाफ जितने सेक्युलर हिन्दू समय -समय पर उठ खड़े होते हैं,उसी अनुपात में अतिवादी मुसलमानों के खिलाफ उनके बीच से विरोध नहीं हो पाता है।
..................................
--सुरेंद्र किशोर--22 जनवरी 20



डा.राम मनोहर लोहिया कहते थे कि 
केंद्र सरकार की ताकत के सामने राज्य सरकारें तो नगरपालिकाएं मात्र हैं।
  पर, ममता बनर्जी को देखकर तो लगता है कि उन्होंने केंद्र को ही ‘नगरपालिका’ समझ रखा है।
--सुरेंद्र किशोर
  22 जनवरी 2020
  

मंगलवार, 21 जनवरी 2020

  वर्मा जी की दुविधा
  .................................
राज्य सभा के पूर्व सदस्य व जदयू नेता पवन वर्मा
जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार से स्पष्टीकरण मांग रहे हैं।
वह भी सार्वजनिक रूप से।
जदयू छोड़ने की धमकी भी दे रहे हैं।
  पर, जदयू का कोई नेता उन्हें मनाने जा रहा है,ऐसी कोई खबर अभी नहीं है।
  उधर नीतीश कुमार के अनुसार प्रधान मंत्री एन.आर.सी.नहीं चाहते।
नीतीश कुमार भी नहीं चाहते।
  पर खबर है कि नीतीश कुमार सी ए ए और एन.आर.पी.के पक्ष में हैं।
पर, वर्मा एक साथ तीनों के खिलाफ हैं।
शायद वर्मा अब वैसे किसी दल से जुड़ेंगे जो तीनों के खिलाफ है।होना भी यही चाहिए।
पर जब मझोले दर्जे का कोई नेता सार्वजनिक रूप से अपने सर्वोच्च नेता से सरकारी लहजे में ‘स्पष्टीकरण’ मांगने लगे तो ऐसे नेता को लेकर कौन दूसरा दल जोखिम उठाएगा ? !!
  आगे -आगे देखिए होता है क्या !!
--सुरेंद्र किशोर--21 जनवरी 20

     मथाई की किताबों से हटेगा प्रतिबंध ???
         ..............................................
आज के दैनिक भास्कर में मैं अपने पसंदीदा स्तम्भकार 
डा.भारत अग्रवाल का काॅलम पढ़ रहा था।
उन्होंने अटकलों के आधार पर यह सनसनीखेज जानकारी दी है कि एम.ओ.मथाई की जवाहरलाल नेहरू पर लिखी पुस्तक पर से प्रतिबंध जल्द ही हटा लिया जाएगा।
   मेरी समझ से यदि मोदी सरकार ने ऐसा करने की हिम्मत की तो वह व्यापक देशहित में ही होगा।
भले वह परिवार, दल और कतिपय ‘भक्त’ बुद्धिजीवियों के खिलाफ जाए।
  मैंने मथाई की दोनों किताबें छिटपुट पढ़ी हैं।
मैं यह कहता रहा हूं कि यदि किसी को जानना हो कि आजादी के बाद देश को कैसे गलत रास्ते पर ले जाया गया तो वह मथाई की दोनों किताबें पढ़े।
यदि बिहार की  राजपाट शैली की  असली
कहानी जाननी हो तो अय्यर कमीशन की रपट-1970- पढ़े।
   संभवतः यह रपट पटना के गुलजारबाग स्थित सरकारी प्रेस में बिक्री के लिए अब भी उपलब्ध हो !!
  मथाई ने नेहरू ,उनकी सरकार व उनके समकालीनों की   कमियां लिखी हैं तो अच्छाइयां भी।यानी, यह धारणा गलत है कि सिर्फ बुराइयां ही लिखी हैं। 
मथाई ने एक जगह तो यह भी लिखा है कि नेहरू की आलोचना करने की हैसियत जार्ज फर्नांडिस में कत्तई नहीं।जार्ज तो नेहरू के जूते का फीता बांधने लायक योग्यता भी नहीं रखता।
  खैर, हमारे देश में तो यह सिखाया गया है कि महाराणा प्रताप की अच्छाइयां -वीरता मत पढ़ो।
हां, अकबर की महानता जरूर पढ़ो।
इसीलिए आज यदि आप महाराणा के शौर्य -स्वाभिमान  की चर्चा  करते हुए कोई पोस्ट लिखेंगे तो दस-बीस लाइक मुश्किल से ही मिल पाएंगे।
हां, अकबर पर अधिक मिल सकते हैं।
  एक नहीं, दो अप्रकाशित अध्याय 
......................................
अब तक आपने सुना होगा कि मथाई की किताब में ‘सी’ यानी वह चैप्टर शामिल नहीं किया गया।
पर यह आधा सच है। 
मथाई ने एक और चैप्टर शामिल नहीं किया।
मथाई ने लिखा कि पात्र के जीवनकाल में ये नहीं छपेंगे।
  दूसरे चैप्टर का शीर्षक था-
‘एक फिल्म की कहानी।’
मथाई के अनुसार
 ‘‘इसमें बहुत सनसनीखेज मसाला था।
राष्ट्रपति भवन के द्वारिका कक्ष में 1966 में एक दिन तीसरे पहर के समय क्या हुआ,यह उस फिल्म में दिखाया गया है।
.........फिल्म में जिस व्यक्ति की करतूत दिखाई गई है,उसे अपने भाग्य को सराहना चाहिए कि फिल्म मेरे हाथ लग गई है और सुरक्षित है।’’
    मेरा मानना है कि इन अध्यायों को छोड़कर भी यदि मथाई की किताबों को फिर से प्रकाशित करने  की अनुमति मिल जाए तो भी
कुछ लोग उसे एक बार फिर प्रतिबंधित कर देने की कोर्ट से मांग कर सकते हैं।
क्योंकि उनमें भी सनसनीखेज सामग्री भरी पड़ी है। 
देखना है कि डा.अग्रवाल की अटकल अंततः सही साबित होती है या नहीं ।
  किसी ने ठीक ही कहा है कि 
‘‘जो लोग अपने भूतकाल को याद नहीं रखते,वे उसे दुहराने को अभिशप्त होते हैं।’’
पर हमारे देश की समस्या यह है कि इतिहास लिखते समय उसमें अपनी राजनीतिक सुविधा के अनुसार भारी छेड़छाड़ कर दी जाती है।
  मथाई के आंखों देखे -भोगे ‘इतिहास’ को तो प्रतिबंधित ही कर दिया गया।
याद रहे कि मथाई 1946 से 1959 तक प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू के विशेष सहायक रहे। 
--सुरेंद्र किशोर--21 जनवरी 2020
   

     

सोमवार, 20 जनवरी 2020

बचपन में रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने वाले आज देश के प्रधान मंत्री हैं।
मौजूदा राष्ट्रपति, 1977 में तत्कालीन प्रधान मंत्री के निजी सचिव थे।
   भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष अस्सी के दशक में पटना में अ.भा.विद्यार्थी परिषद के हैंडआउट अखबारों के दफ्तरांे में पहुंचाते थे।
  इनमें से कोई भी नेता चांदी के चम्मच के साथ किसी राजनीतिक परिवार में पैदा नहीं हुआ।फिर भी शीर्ष पर पहुंचे। 
   


अपनी हाल की गलतियों से भी नहीं 
सीखते कुछ राजनीतिक दल
.............................
समकालीन इतिहास से भी नहीं सीखते आज के कुछ नेतागण।
मध्ययुगीन इतिहास तो सही -सही पढ़ाया ही नहीं गया,उससे भला वे क्या सीख पाएंगे !!
  सन 2004 के लोक सभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा ने 
‘शाइनिंग इंडिया’ के नशे  में चूर होकर 1999 के अपने कई
प्रमुख सहयोगी दलों को राजग से ‘भगा’ दिया।
नतीजतन 2004 में अटल सरकार की हार तो पहले से ही तय थी।
   हाल के झारखंड विधान सभा चुनाव में भी भाजपा ने उसी तरह की गलती की।
भाजपा ने आजसू से तालमेल नहीं किया।
ताजा चुनाव परिणाम के आंकड़े बताते हैं कि 13 क्षेत्रों में भाजपा और आजसू को  मिले मतों का जोड़ महा गठबंधन के वोट से अधिक था।
कांग्रेस नेता व पूर्व मुख्य मंत्री अशोक चव्हाण ने कहा है कि भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए हमने शिवसेना से समझौता करके सरकार बनाई।
 ऐसे मामले में कांग्रेस बिहार के अपने कटु अनुभव को भी भूल गई।
लालू प्रसाद-राबड़ी देवी के ‘जंगल राज’ को आप क्यों समर्थन देते हैं,
इस सवाल के जवाब में कांग्रेस और सी.पी.आई.नेतागण तब  लगातार यह कहते रहे कि हम 
‘‘सांप्रदायिक तत्वों को बिहार में सत्ता में आने से रोकने के लिए ऐसा कर रहे हैंं।’’
  नतीजता यह हुआ कि न तो वे ‘सांप्रदायिक तत्वों’ यानी भाजपा को बिहार में सत्ता में आने से रोक नहीं सके बल्कि कांग्रेस-सीपीआई अपनी पहले की राजनीतिक ताकत भी कायम नहीं रख सकी।


   दोहरा मापदंड
.......................................
कश्मीरी पंडितों पर जुल्मोसितम को लेकर भारतीय और विदेशी मीडिया ने चुप्पी ही साधे रखी।
  यदि अल्पसंख्यक वर्ग के चार लाख लोगों को अपने घरों से बेदखल होना पड़ता तो वही मीडिया इस लेकर आसमान सिर पर खड़ा कर देता।
                    --मिन्हाज मर्चेंट,पत्रकार और लेखक
                   --दैनिक जागरण-20 जनवरी, 2020  

रविवार, 19 जनवरी 2020

भारत एकमात्र बड़ा सभ्यतागत देश है जहां आपको व्यवस्थित
रूप से अपनी विरासत से घृणा और इस सभ्यता को खत्म करने की चाह रखने वाले हमलावरों की बड़ाई करना सिखाया जाता है।
और, इस विद्रूप को ‘सेक्युलरवाद’ कहा जाता है। 
             --- तारिक फतह

जीवन में पहली बार देखूंगा कश्मीरी पंडितों के दर्द को बयां करने वाली फिल्म शिकारा।
महसूस करूंगा उन आवाजों को जो रात के अंधेरों में दबा दी 
गईं।
जानूंगा अपने ही देश में कश्मीरी पंडित शरणार्थी कैसे ?
क्या तब मानव अधिकार ,बुद्धिजीवी, कैंडल मार्च वाले लोग भारत में नहीं थे ?
                    --- स्वामी दीपांकर  
            दैनिक जागरण-19 जनवरी 2020

शनिवार, 18 जनवरी 2020

ज्योति बसु की कहानी पढ़कर मुझे कर्पूरी ठाकुर की याद आई।
संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के एक कार्यकत्र्ता की हैसियत से
1972-73 में मैं कर्पूरी ठाकुंर का निजी सचिव था।
उन दिनों विधायक को वेतन के रूप में 300 रुपए मिलते थे।
दैनिक भत्ता 15 रुपए प्रतिदिन।
  पहले था कि जिस दिन कमेटी की बैठक होगी,उसी दिन का भत्ता मिलेगा।
बाद में हुआ कि सात दिनों के भीतर दो बैठकें होंगी तो पूरे सप्ताह का भत्ता मिलेगा।
बाद में वह बाधा भी दूर हो गई।
खैर,
 उतने पैसे में उन दिनों पटना में परिवार रखना ईमानदार विधायकों के लिए कठिन  था।
   कर्पूरी ठाकुर अक्सर अपने परिवार को कहा करते थे कि आप लोग जाकर गांव में रहिए।
  उसके विपरीत आज के विधायकों -मंत्रियों को मिल रही सुविधाएं देख लीजिए।
यदि भ्रष्टाचार कम करके सरकारी अस्पतालों मेंें गरीबों के इलाज व सरकारी स्कूलों में गरीब बच्चों की पढ़ाई की समुचित व्यवस्था हो गई होती तो आज के अधिकतर जन प्रतिनिधियों के शालीन जीवन स्तर आम लोगों को नहीं अखरते।
   लगे हाथ एक बात और बता दूं।
उन्हीं दिनों की बात है।
कर्पूरी जी को तुरंत समस्तीपुर जाना अत्यंत जरूरी था।
उनके पास कार नहीं थी।
टैक्सी भाड़े के लिए पैसे भी नहीं।
उन्होंने महामाया बाबू को फोन किया।
पूर्व मुख्य मंत्री खुद कर्पूरी जी को 400 रुपए पटेल पथ पहुंचा गए।
  वे भी क्या दिन थे !
देखते -देखते क्या से क्या हो गया !!!
--सुरेंद्र किशोर-18 जनवरी 2020

  

शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

दिवंगत साहित्यकार डा.खगेंद्र ठाकुर के 
बारे में तीन सटीक टिप्पणियां
.........................................................
वे अद्भुत चुम्बक थे--अरुण कमल
आम लोगों के लिए बहुत सरल थे-विश्वजीत
वैचारिक विचलन कभी नहीं हुआ-राजन
.............................
--दैनिक भास्कर-15 जनवरी 2020

सरकार को ही रखना होगा लोगों की शिक्षा,स्वास्थ्य और सुरक्षा का ध्यान --सुरेंद्र किशोर


बिहार सरकार  गवाहों की  सुरक्षा के लिए ‘गवाह सुरक्षा योजना’ लाने जा रही है।
इससे बेहतर खबर कोई और नहीं हो सकती।
इससे कमजोर व पीडि़त लोगों में सुरक्षा का भाव पैदा होगा।साथ ही, अदालती सजाओं का प्रतिशत बढ़ेगा जो बिहार में बहुत कम है।
  केंद्र सरकार  72 सौ करोड़ रुपए की सालाना छात्रवृति योजना को लागू करेगी।
  उधर प्रधान मंत्री ने मेडिकल पेशे की कमियों की चर्चा भी की है।ये शुभ लक्षण हैं। 
 यानी सुरक्षा,शिक्षा और स्वास्थ्य की ओर सरकारों का ध्यान जा रहा है।
  पर उतना नहीं,जितने की जरूरत है।
 दरअसल इन तीन क्षेत्रों में सरकारी मदद के बिना कमजोर वर्ग के लोगों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
  निजी क्षेत्रों के प्रभावशाली लोगों की रूचि गरीबों की सेवा के मामले में अत्यंत सीमित ही रही है।
  इसलिए भी सरकारों को जिम्मेदारी बढ़ जाती है।
  --शिक्षा-स्वास्थ्य-सुरक्षा में गुणवत्ता--
7200 करोड़ रुपए वाली प्रधान मंत्री छात्रवृत्ति योजना का लाभ कमजोर वर्ग के मेधावी छात्र-छात्राओं को मिलने वाला है।
इसका लाभ नौंवी कक्षा से लेकर पी.जी.तक के विद्यार्थियों को मिलेगा।
  इससे शिक्षा में उन क्षेत्रों में भी गुणवत्ता बढ़ने की उम्मीद जगेगी जहां इसकी कमी महसूस की जाती है।
 दूसरी ओर,प्राथमिक स्तर के सरकारी स्कूलों में शिक्षण का स्तर उठाने की सख्त जरूरत है।
  इसके लिए सरकार को कुछ स्तरों पर कड़ाई भी करनी पड़े तो वह देशहित में ही होगा।
उस कड़ाई का लाभ अंततः कमजोर वर्ग के विद्यार्थियों को ही मिलना है।
  गरीबों के लिए तो सरकारी स्वास्थ्य केंद्र व अस्पताल ही सहारा है।
उसकी हालत लगभग देश भर में असंतोषजनक  है।
कहीं साधनों का अभाव है तो कहीं गुणवत्ता में कमी है।
कहीं लापारवाही है तो कहीं  भ्रष्टचार।
इन सब बाधाओं को भरसक दूर करके गरीबों तक सरकारी स्वास्थ्य सेवा का लाभ पहंुंचाने का काम सरकार नहीं करेगी तो भला और कौन करेगा ?    
  --काम नहीं आये 
 पेशेवर वीडियोग्राफर्स-
   पिछले दिनों दिल्ली पुलिस ने 
अनेक वीडियोग्राफर्स सड़कों पर तैनात किए थे।
उन्हें सी. ए. ए. विरोधी प्रतिरोध मार्च को
रिकाॅर्ड करना था।
   प्रतिरोध मार्च के दौरान भारी हिंसा हुई।
  पर, उन भाड़े के वीडियोग्राफर्स के कैमरों में ऐसी तस्वीरें दर्ज ही नहीं हो पाई जो पुलिस के काम आ सकें।
क्या वीडियोग्राफर्स की अकुशलता रही या कुछ और ?
हां, कुछ टी.वी.चैनलों के फुटेज और दर्शकों के स्मार्ट फोन में दर्ज हिंसक दृश्य जरूर पुलिस के काम आ रहे हैं।
    --भूली-बिसरी याद--
1972-73 की बात है।
कर्पूरी ठाकुर बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता थे।
यानी,तब सत्ता में नहीं थे।
फिर भी उनके यहां बेरोजगार लोग नौकरी 
के लिए आते रहते थे।
वे चाहते थे कि ठाकुर जी उनके लिए किसी मंत्री या अफसर को फोन करके सिफारिश कर दें।
  वैसे बेरोजगारों से कर्पूरी जी कहा करते थे,
‘‘आप शार्ट हैंड टाइप राइटिंग सीख लें तो मैं आपको नौकरी दिलाने की गारंटी दे सकता हूं।’’
सीखने का वादा करके नौजवान लौट जाते थे।
पर, वे सीखकर कभी नहीं लौटते थे।
 क्योंकि शाॅर्ट हैंड राइटिंग सीखने में मेहनत लगती है।
मेहनत कितने लोग करना चाहते हैं ?
  बाद के वर्षों में भी बिहार विधान सभा सचिवालय को जब शाॅर्ट हैंड राइटर्स की जरूरत होती थी तो सचिवालय को अखिल भारतीय स्तर पर विज्ञापन निकलवाना पड़ता था।
  एक बार सुना कि वैसा करने पर भी उम्मीदवार नहीं मिले।
  खुद को किसी काम में कुशल बना लेने के प्रति अब भी अधिकतर बेरोजगार नौजवानों में अनिच्छा देखी जाती है।
जबकि आज भी कुशल मजदूर और मेकानिक आदि की बड़ी मांग है। 
  --कौशल का कमाल--
करीब 10 साल पहले की बात है।
टी.वी.मरम्मत के काम में एक कुशल व्यक्ति को मैंने अपने घर बुलाया था।
करीब पांच मिनट में उसने मरम्मत का काम पूरा कर दिया।
उसकी मांग पर मैंने उसे 500 रुपए खुशी-खुशी दे दिए।
  इन दिनों एक बिजली मिस्त्री बुलाने पर आता है।
सिर्फ आने के दो सौ रुपए वह लेता है।
यदि उसने कोई काम किया तो उसका अलग से चार्ज है।
आपके कम्प्यूटर को ठीक करने के लिए कोई आया तो सिर्फ घर आने का न्यूनत्तम शुल्क पांच सौ रुपए है।
स्मार्ट फोन मरम्मत वाला तो आपके घर आएगा ही नहीं।
उसके यहां आपको खुद जाना पड़ेगा।
मरम्मत का जो भी मेहनताना बताएगा,आपको देना पड़ेगा।
  यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि इन लोगों का मेहनताना 
जरूरत से अधिक है।
संभव है कि अधिक ले रहे हों।
पर, साथ ही वास्तविकता यह है कि ऐसे कुशल लोगों की कमी है।
दूसरी ओर यह काम बढ़ता जा रहा है।
  यानी ऐसे कामों में कुशलता हासिल करने की कोशिश नौजवान करें तो काम की कमी नहीं रहेगी।  
     --राजनीति की ‘आप’ शैली-- 
कुछ साल पहले तत्कालीन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा था कि हम अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक शैली से सीखेंगे।
  राहुल तो नहीं सीख सके।
पर यदि इस बार भी अरविंद केजरीवाल चुनाव जीत गए तो इस देश के कुछ ऐसे नेताओं को केजरीवाल से सीखना चाहिए कि जनता को किस तरह लंबे समय तक खुद से जोड़े रखा जा सकता है।
  याद रहे कि प्रारंम्भिक सूचनाओं के अनुसार दिल्ली में इस बार भी ‘आप’ की बढ़त के संकेत मिल रहे हैं। 
  --और अंत में -
एक सवाल का जवाब अब भी नहीं मिल रहा है।
यदि आंदोलनकारियों की मांगें जायज हैं और आंदोलन अहिंसात्मक है तो फिर वे प्रदर्शन के समय अपने चेहरे पर रूमाल क्यों बांध लेते हैं ?
.......................................................
कानोंकान-प्रभात खबर-बिहार-17 जनवरी 2020





  
   

  जब पूरे सदन ने खड़े होकर 
डा. लोहिया का स्वागत किया था
   ...................................
 डा.राम मनेाहर लोहिया ने 13 अगस्त, 1963 को 
पहली बार लोक सभा में सदस्य के रूप में जब प्रवेश किया तो प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू सहित पूरा सदन उनके स्वागत में उठ खड़ा हुआ था।
   वह अभूतपूर्व दृश्य था।
    न भूतो न भविष्यति !
डा.लोहिया एक उप चुनाव में उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद से जीत कर लोक सभा गए थे।
स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी विचारक डा.लोहिया को एक तेजस्वी, निर्भीक और निस्वार्थी नेता के रूप में लोग जानते थे।
 यह और बात है कि अनेक लोग कई मामलों में उनसे सहमत नहीं होते थे।
वैसे लोहिया का मानना था कि राजनीति में रहने वाले लोगों को अपना परिवार खड़ा नहीं करना चाहिए।
डा.लोहिया ने खुद घर नहीं बसाया था।
 परिवारवाद-वंशवाद के कारण आज की राजनीति किस तरह रसातल में जा रही है,संभवतः उसका पूर्वानुमान लोहिया को था।
जवाहरलाल नेहरू डा.लोहिया को प्यार करते थे।
लोहिया भी आजादी के संघर्ष के दिनों के नेहरू को पसंद करते थे।
उन दिनों उनके सहकर्मी रहे।
पर,बाद में प्रधान मंत्री के रूप में नेहरू की नीतियों के कटु आलोचक रहे।
फिर भी उस दिन सदन में खड़े होने वालों मेंं नेहरू भी थे।
  इस देश की राजनीति में उन दिनों डा.लोहिया जैसे कुछ अन्य नेता भी आदर के पात्र थे।
  आज वैसे नेता दुर्लभ हैं।
लगता है कि अब वैसी फसल ‘उगनी’ फिलहाल बंद हो गई है।
संभवतः विषम परिस्थितियों में वैसे नेता पैदा होते हैं।
   आज कौन नेता है जो जीतकर सदन में जाए और उसके सम्मान में पूरा सदन उठकर खड़ा हो जाए !
--सुरेंद्र किशोर-17 जनवरी 2020
  


संदर्भ-
अंडरवल्र्ड डाॅन करीम लाला-इंदिरा गांधी मुलाकात
.............................................................
जार्ज फर्नांडिस को बंबई के एक क्षेत्र में 1971 का लोक सभा चुनाव हराने में कांग्रेस उम्मीदवार को तस्कर यूसुफ पटेल की मदद मिली थी।
संंयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार जार्ज ने 1967 में वहां कांग्रेस के एस.के.पाटील को हराया था।
....................................................
 ‘‘ब्लिट्ज -30 नवंबर, 1974 के अनुसार,
 कांग्रेस पार्टी मेरे खिलाफ इसलिए चुनाव जीत सकी क्योंकि यूसुफ पटेल और उसके दूसरे तस्कर साथियों ने कांग्रेस की दिल खोल कर मदद की थी।’’
    ---जार्ज फर्नांडिस
 ...................................................................
--सुरेंद्र किशोर-17 जनवरी 2020

शिव खेड़ा की कुछ उक्तियां --2005
..........................................
1.-जिन्हें हम अपने बच्चों का गार्डियन बनाने को 
   तैयार नहीं  हैं,
  उन्हें हम अपने देश का र्गािर्डयन क्यों बना देते हैं ?
2.-हर देश में सिर्फ दो किस्म के नागरिक होते हैं-
   --देशभक्त और गद्दार।
   एक देशभक्त अपने देश के लिए कुछ भी कर सकता है।
    एक गद्दार अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकता है।
3.-अगर हम समाधान का हिस्सा नहीं हैं तो 
   हम ही समस्या हैं।
4.-देश कभी चोर उचक्कों की करतूतों से बर्बाद नहीं होता ,बल्कि शरीफ लोगों की कायरता और निकम्मेपन से होता है।
5.-क्या हम अपने देशभक्तों की कुर्बानी यूं ही व्यर्थ जाने देंगेे? 
6.-हम देशभक्तों को सलाम करते हैं और जिम्मेदार नागरिकों से अपील करते हैं जिनकी आत्मा सो चुकी है लेकिन मरी नहीं है।
...............................
सुरेंद्र किशोर-17 जनवरी 20

गुरुवार, 16 जनवरी 2020

  पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच सार्थक 
संवाद की आज कितनी गुंजाइश ?
  ......................................... 
 अच्छी मंशा वाले एक बुद्धिजीवी सह पूर्व अधिकारी ने इस बात पर चिंता जाहिर की है कि आज देश में सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच कोई सार्थक संवाद नहीं है।
  उनकी चिंता की पृष्ठभूमि समझ में आ रही है।
  पर, क्या आज की स्थिति में कोई सार्थक 
संवाद संभव भी है ?
गैर राजग दलों के अनेक शीर्ष व मझोले नेताओं के खिलाफ विभिन्न अदालतों में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के तहत मुकदमे चल रहे हैं।
कई बड़े नेता जेल आ -जा रहे हैं ।
या फिर जमानत पर हैं।
अपार संपत्ति जप्त हो रही है या फिर मामला उसके कगार पर है।
कुछ मामले 2014 से पहले के हैं तो कई बाद के।
कई नेताओं की कटु जुबान के पीछे का यह एक बड़ा कारण बताया जाता है।
इन दिनों कई नेताओं के ऐसे-ऐसे बोल निकलते हंै मानो यह राजनीतिक लड़ाई नहीं है, बल्कि निजी संपत्ति का झगड़ा हो।
   इस पृष्ठभूमि में सवाल यह है कि क्या उन मुकदमों की वापसी या उनमें सरकार की ओर से ढिलाई के बिना दोनों पक्षों के बीच कोई सार्थक संवाद संभव भी है ?
दूसरी ओर अपवादों को छोड़कर क्या भ्रष्टाचार के मामलों की वापसी या ढिलाई के बाद राजग खासकर भाजपा की अपने मतदाताओं के बीच भी साख रह पाएगी ? 
................................
सुरेंद्र किशोर
15 जनवरी 2020
   

मंगलवार, 14 जनवरी 2020

संकेत हैं कि बिहार में नागरिकता संशोधन कानून
लागू करने और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर तैयार करने में अंततः कोई दिक्कत नहीं आएगी।
  पर, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एन.सी.आर. के लिए सुप्रीम कोर्ट की मदद लेनी पड़ेगी।
सुप्रीम कोर्ट जाने की जिम्मेदारी मुख्यतः उनकी है जो कुछ दशक पहले बंगलादेशी घुसपैठियों के खिलाफ पूर्वोत्तर बिहार
में आंदोलन चला रहे थे।
---सुरेंद्र किशोर--14 जनवरी 2020

विरोध के पीछे गुप्त एजेंडा ?!!
...........................................
1.-नागरिकता संशोधन कानून,
2.-राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर और
3.-राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर।
 इन तीनों के लागू हो जाने के बावजूद किसी धर्म-समुदाय के मौजूदा भारतीय नागरिकों की स्थिति में कोई परिवत्र्तन नहीं होने वाला है।
इसके बावजूद इन तीनों का इन दिनों एक खास पक्ष की ओर से जोरदार विरोध हो रहा है।
क्यों विरोध हो रहा है ?
इसका कोई तार्किक कारण कोई नहीं बता पा रहा है।
इसलिए नहीं बता रहा है क्योंकि इसके विरोध का असली कारण कुछ और है जिसकी चर्चा सार्वजनिक रूप से वे करना नहीं चाहते।
यानी, विरोध के पीछे एक गुप्त एजेंडा है।
एजेंडा बहुत बड़ा है।
  --सुरेंद्र किशोर--14 जनवरी 2020

14 जनवरी, 2020 के इकोनाॅमिक टाइम्स की खबर के 
अनुसार राॅबर्ट वाड्रा ने तथाकथित रूप से प्रवत्र्तन 
निदेशालय को बताया है कि बिकानेर के दो गांवों में 
जो जमीन मैंने खरीदी,उसके लिए मुझे पैसे कहां से मिले थे,वह मुझे याद नहीं।
    याद रहे कि वाड्रा पर आरोप है कि उन्होंने वहां 2010 में जो जमीन 72 लाख रुपए में खरीदी,उसे 2012 में 5 करोड़ 15 लाख रुपए में बेच दिया।
  इस मामले में गड़बडि़यां करने का राबर्ट वाड्रा पर आरोप है।
हालांकि वाड्रा ने खुद पर लगे आरोप को गलत बताया है।
--सुरेंद्र किशोर-14 जनवरी 2020

सोमवार, 13 जनवरी 2020

शास्त्री जी की मृत्यु के 
कारण पर रहस्य बरकरार
.............................................
जांच समिति के रिकाॅर्ड गायब
.............................................................
लाल बहादुर शास्त्री के निधन के कारणों की जांच के लिए मोरारजी देसाई सरकार ने 1977 में एक समिति बनाई थी।
समिति के प्रधान राज नारायण थे।
  नवदीप गुप्त ने सूचना के अधिकार के तहत गत साल 
केंद्र सरकार से उस समिति के बारे में जानकारी
मांगी थी।
पता चला कि उस समिति के कागजात गायब पाए गए।
सूचना आयोग ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि ऐसा आखिर कैसे हुआ ?
....................................
सुरेंद्र किशोर
11 जनवरी 2020