शनिवार, 30 जून 2018

विजय माल्या ने कहा है कि मैं धोखाधड़ी का पोस्टर 
ब्याय बन गया हूं।
 ऐसा कह कर वे अब कुछ लोगों की सहानुभूति हासिल करना चाहते हैं।पर शायद ही वह उन्हें मिले ।यदि वे भागे नहीं होते तो ऐसा कह सकते और संबंधित प्राधिकार के समक्ष खुद को 
निर्दोष साबित करने की कोशिश कर सकते थे।
पर वह मौका उन्होंने खुद अपने हाथ से निकल जाने दिया।शायद जानबूझकर।
उन्हें बाहरी देशों से कुछ अधिक उम्मीद थी।
एक गरीब देश का हजारों करोड़ रुपया कोई लेकर भाग जाए तो जनता या मीडिया उसके बारे में क्या सोचेेंगे ?
माल्या का एक प्रकरण कुछ साल पहले कुलदीप नैयर ने लिखा था।उस प्रकरण से भी माल्या की कोई अच्छी छवि नहीं बनती।तब वे राज्य सभा के सदस्य थे।कलुदीप नैयर भी उन दिनों राज्य सभा में थे।
परंपरा यह रही है कि जो सांसद जिस  बिजनेस से जुड़ा रहा हो,वह उससे संबधित मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति का  सदस्य नहीं बन सकता।
इसके बावजूद माल्या नागरिक विमानन मंत्रालय की संसदीय सलाहकार संमिति के सदस्य बन गए।उस समिति में राहुल गांधी और कुलदीप नैयर भी थे।
माल्या का प्रस्ताव था कि विमानों की स्वदेशी उड़ानों में भी शराब परोसने की छूट मिलनी चाहिए।
प्रस्ताव पास भी हो गया।
हालांकि उसे सरकार द्वारा माना नहीं गया।किंतु कुलदीप नैयर ने  माल्या की ऐसी पहल को बहुत खराब माना था।क्योंकि इससे संसदीय सलाहकार समिति की गरिमा कम होती थी।   
याद रहे कि माल्या शराब के व्यापार से भी जुड़े रहे।

सत्तासीन लोगों के ईमान की जड़ें

कोईलवर रेल सह सड़क पुल की जड़ें अब जाकर खोखली हुई हैं। इसके जर्जर होने में 156 साल लगे।
पर, आजादी के बाद हमारे सत्तासीन लोगों के ईमान की जड़ें इतनी जल्द खोखली हो गयीं कि पटना के गांधी सेतु और भागलपुर के पुल के जर्जर होने में 50 साल भी नहीं लगे। 

नरेंद्र मोदी सरकार से मेरी एक खास उम्मीद थी

नरेंद्र मोदी सरकार से मेरी एक खास उम्मीद थी। पर,वह पूरी नहीं हुई। वह उम्मीद फिल्मों को लेकर थी। मैं उम्मीद करता था कि अब सिर्फ ‘बागवान’ और ‘नदिया के पार’ जैसी ही साफ-सुथरी फिल्में ही बनेंगी।

पर अब भी अतिशय सेक्स और अनावश्यक हिंसा से युक्त फिल्में धुआंधार बन रही हैं। सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाने में इन फिल्मों का भी बड़ा हाथ है। सेंसर बोर्ड के जो  नियम हैं, वे साफ- सुथरी फिल्मों की ही इजाजत देते हैं। किन्तु मोदी सरकार सेंसर बोर्ड के नियमों को भी लागू नहीं करा पायी।संस्कार भारती जैसा संगठन चलाने वाला संघ क्या कर रहा है ? 

--सरकार हित में भी है सूचना अधिकार कार्यत्र्ताओं की सुरक्षा--



 गत दो महीने के भीतर बिहार के दो सूचना अधिकार कार्यकत्र्ताओं की हत्या कर दी गयी।
अन्य कइयों की जान खतरे में है।पूरे देश में भी ऐसी हत्याएं होती  रहती हैं।
2005 में जब सूचना अधिकार कानून बना था तो लोगों की उम्मीदें जगी थीं।लगा था कि अब जनता भी सांसदों-विधायकों की तरह सरकार से सूचनाएं मांग सकती है।
बहुत सी महत्वपूर्ण सूनाएं मिली भी।कुछ अब भी  मिल रही हैं।पर धीरे -धीरे उसके प्रति लोगों का उत्साह कम होता जा रहा है।क्योंकि निहितस्वार्थी तत्वों द्वारा कठिनाइयां खड़ी की जा रही हैं।
दरअसल कानून बनाते समय ही शासन को इस बात का पूर्वानुमान  होना चाहिए था कि इस क्षेत्र में काम करने वालों की जान खतरे में पड़ेगी क्योंकि यह कानून मूलतःनिहितस्वार्थी तत्वों पर गहरी चोट करता है।
  यदि सरकार अच्छी हो तो सूचना अधिकार कार्यकत्र्ता परोक्ष रूप से सरकार का ही काम कर रहा होता है।हालांकि भ्रष्ट व निकम्मी सरकारों को  यह कानून पसंद नहीं है।
 किसी अच्छी सरकार के लिए सूचना अधिकार कार्यकत्र्ता आंख व कान का काम करते हैं जिस तरह कोई गवाह अदालत के लिए आंख-कान का काम करता है।
सूचना अधिकार कार्यकत्र्ता गण सरकारी लूट,भ्रष्टाचार और अनियमितताओं को उजागर कर अंततः ईमानदार शासक का काम ही आसान करते हैं।
एक तरह से वे सरकार के गवाह होते हैं।
 यदि देश में कभी गवाह सुरक्षा कानून बने तो उसके तहत सूचना अधिकार कार्यकत्र्ताओं को  भी लाया जाना चाहिए।
गवाह सुरक्षा कानून जरूरी--
 अन्य कानूनों की तरह सूचना अधिकार कानून के दुरुपयोग की भी खबरें आती रहती है।पर भयादोहन के काम में लगे उन सूचना अधिकार कार्यकत्र्ताओं की बात यहां नहीं की जा रही है।उनकी की जा रही है जो ईमानदारी से अपना काम कर रहे हैं।
  गवाह सुरक्षा कानून के अभाव के कारण भी  इस देश का
क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम ध्वस्त होता जा रहा है।इसी तरह सूचना अधिकार कानून भी।
सुप्रीम कोर्ट ने एक से अधिक बार सरकार से कहा कि वह गवाह सुरक्षा कानून बनाए।
हिमांशु सिंह सब्बरवाल बनाम मध्य प्रदेश केस में 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गवाह न्यायिक सिस्टम के आंख-कान हैं।यदि सरकार गवाहों की रक्षा नहीं करती तो वह राष्ट्र के आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते को समर्थन-प्रोत्साहन नहीं करती।
पर  गवाह सुरक्षा कानून में सरकार की कोई रूचि नहीं लगती।
दुनिया के जिन देशों में गवाह सुरक्षा कानून मौजूद हैं,उनमें अमेरिका,कनाडा,इजरायल,ब्रिटेन,आयरलैंड,इटली और थाइलैंड शामिल हैं।
अमेरिका में अदालतें 93 प्रतिशत मुकदमों में सजा सुना देती है।जापान में 99 प्रतिशत और ब्रिटेन में 80 प्रतिशत मामलों में 
सजा हो जाती है।पर भारत का प्रतिशत 45 है।
नतीजतन हर तरह के अपराधी जितने निडर  इस देश में हैं,उतने शायद कहीं ंनहीं।जिन मुकदमों में राजनीतिक नेता आरोपित होते हैं,उनमें से अनेक मामलों में सरकार बदलते ही गवाह भी बदल जाते हैं। 
लाइव प्रसारण से सभाध्यक्ष  का अधिकार प्रभावित-- 
राज्य सभा के निवत्र्तमान सभापति पी.जे.कुरियन ने एक अच्छी सलाह दी है।
अपने अनुभव के आधार पर उन्होंने सलाह दी है कि सदन की कवर्यवाही का लाइव प्रसारण बंद होना चाहिए।
क्योंकि लाइव प्रसारण के कारण सदन में असंसदीय आचरण को बढ़ावा मिला है।अनुशासनहीनता बढ़ी है।साथ ही विरोध प्रदर्शन भी बढ़े हैं।
कुरियन ने जो बात नहीं कही,वह यह कि कुछ सदस्य खुलआम चेयर  की अवमानना करने लगे हैं।
   दरअसल जिस समय लाइव प्रसारण का निर्णय हुआ उसी क्षण पीठासीन अधिकारियों से एक अधिकार अघोषित रूप से छीन लिया गया।वह अधिकार है किसी बात को सदन की कार्यवाही से निकाल देन का अधिकार।क्योंकि अब पीठासीन अधिकारी जब तक कार्यवाही से निकाल देने का आदेश देते हैं,उससे पहले लाइव प्रसारण के जरिए आपत्तिजनक बातें 
जनता तक पहुंच चुकी होती है।
 यदि  प्रसारण जारी रखना हो तो उसे लाइव जारी नहीं किया जाना चाहिए।हालांकि कार्यवाही की रिकाॅडिंग जरूर हो। उस दिन की सदन की कार्यवाही समाप्त हो जाने के बाद रिकाॅर्ड किये गये टेप का संपादन हो।
आपत्तिजनक बात-व्यवहार को निकाल दिया जाए।फिर बाद में उसका प्रसारण हो।
    जहां पांचवीं तक पढ़ा--
जिस स्कूल से मैंने पांचवीं कक्षा पास की थी,उस स्कूल में 
हाल में गया था।
  सारण जिले के दरिया पुर अंचल के खान पुर गांव  स्थित साठ के दशक का वह अपर प्राइमरी स्कूल अब राम जयपाल सिंह उच्च विद्यालय बन चुका है।सैद्धांतिक तौर पर मान्यता तो इंटर की भी है,पर वह व्यवहार में  नहीं है।
मैं जब वहां गया था तो संयोगवश  कुछ स्थानीय गणमान्य लोग स्कूल में जुटे थे।
वे स्कूल की समस्याओं की चर्चा कर रहे हैं।
मुझे भी यह जान कर आश्चर्य हुआ कि जर्जर भवन के लिए 
आवंटित पैसे बहुत पहले वापस हो चुके हैं।
यह भी पता चला कि जर्जर भवन के कभी भी गिर जाने की आशंका से बच्चे स्कूल जाने  से घबराते हैं।
जब मैं वहां पढ़ता था तो उन दिनों उस खपरैल स्कूल की मरम्मत का जिम्मा समाज ने उठा रखा था।
  अब तो खुद ही राज्य  सरकार ऐसे भवनों पर उदारतापूर्वक खर्च कर रही है ।फिर भी किस कारणवश पैसे लौट जाते हैं और विद्यार्थी स्कूल नहीं जा पा रहे हैं,इसकी निरंतर देखरेख करने की जिम्मेदारी आखिर किसकी है ?
   सबक सिखाने लायक सजा---
 पटना के जोनल आई.जी.नैयर हसनैन ने दो थानेदार और
 10 पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया है।
पूरा थाना लाइन हाजिर।
मुफ्त में सब्जी नहीं देने पर बाइक चोरी के गलत आरोप में जेल भेजने के कारण यह कार्रवाई की गयी।
कार्रवाई सराहनीय है।
पर क्या यह काफी है ?
इससे पहले शराब के अवैध कारोबारियों के साथ साठगांठ करने के आरोप में पटना के एक थाने के सारे पुलिसकर्मियों को वहां से हटा दिया गया था।
 इसके बावजूद स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है। 
जहां तक मुफ्त सब्जी तथा अन्य सामान वसूलने का सवाल है,वह तो लगभग सर्वव्यापी है।
  ऐसी शिकायतें प्राप्त करने के लिए सिनियर एस.पी.के आॅफिस में एक कोषांग खोला जाना चाहिए ।
एक भूली बिसरी याद--
समाजवादियों की पाक्षिक पत्रिका ‘सामयिक वात्र्ता’ @16 सितंबर, 1977@ने जेपी से सवाल किया था,आपने लिखा है कि आपने आर.एस.एस.को आंदोलन की सर्व धर्म समभाव वाली धारा में लाकर साम्प्रदायिकता से मुक्त करने की कोशिश की है।
आपने यह  दावा भी किया कि आर.एस.एस. के लोग कुछ हद तक बदले भी हैं।क्या आप यह मानते हैं कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने हिन्दू राष्ट्र के विचार को त्याग दिया है ?
इस सवाल के जवाब में जय प्रकाश नारायण ने कहा था कि ‘
आर.एस.एस.के नेताओं और कार्यकत्र्ताओं से अपने सम्पर्क के दौरान मुझे निश्चय ही उनके दृष्टिकोण में परिवत्र्तन नजर आया।
उनमंे अब अन्य समुदायों के प्रति शत्रुता की भावना नहीं है।लेकिन अपने मन वे अब भी हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा में विश्वास करते हैं।
वे यह कल्पना करते हैं कि मुसलमान और ईसाई @जैसे अन्य समुदाय @तो पहले से संगठित हैं जबकि हिन्दू बिखरे हुए 
और असंगठित हैं। इसलिए वे हिन्दुओं को संगठित करना अपना मुख्य काम मानते हैं।
संघ के नेताओं के इस दृष्टिकोण में पवित्र्तन होना चाहिए।
मैं यही आशा करता हूं कि वे हिन्दू राष्ट्र के विचार को त्याग देंगे और उसकी जगह भारतीय राष्ट्र के विचार को अपनाएंगे।
भारतीय राष्ट्र का विचार सर्व धर्म समभाव वाली अवधारणा है और यह भारत में रहने वाले सभी समुदायों को अंगीकार करता है।’
     और अंत में--
बिहार सरकार ने दाना पुर से खगौल तक की मौजूदा दो लेन वाली सडक़ को आठ लेन में बदल देने  का निर्णय किया है।
इससे बेहतर खबर और कोई नहीं हो सकती।पर राज्य सरकार को इस सड़क के बायें -दायें बस रहे बेतरतीब मुहल्लों के बारे में भी जल्द ही विचार कर लेना होगा।
अन्यथा कुछ साल बाद ये मुहल्ले हर बरसात में ‘तैरता  शहर’ कहलाएंगे।क्योंकि बड़े -बड़े मकान तो बन रहे हैं,पर जल निकासी की पोख्ता व्यवस्था नहीं हो रही।
खैर ,आठ लेन की सड़क से ‘तैरता शहर’ देखना कैसा लगेगा ? 
@प्रभात खबर-बिहार-में 29 जून 2018 को प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@


   

शिक्षिका उत्तरा पंत बहुगुणा ने उत्तरा खंड के मुख्य मंत्री को अनेक लोगों के सामने चोर -उच्चका कहा और मुख्य मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने शिक्षिका को मुअत्तल व गिरफ्तार करने का आदेश दिया।
सरकारी शिक्षिका अपने अनुकूल तबादले की गुहार करने दूसरी बार मुख्य मंत्री के यहां गयी थीं।उनकी बात नहीं सुनी जा रही थी।
याद रहे कि शिक्षिका अनुशासनहीनता के आरोप में पहले भी दो बार निलंबित हो चुकी थीं।अनुमति के बिना स्कूल से अनुपस्थित होने के आरोप में।
 गुस्से से भरे ताजा  प्रकरण के बाद में ठंडे दिल -दिमाग से मुख्य मंत्री ने उत्तरा के तबादले को लेकर नियमानुसार कार्रवाई करने का आदेश विभाग को दे दिया है। 
  एक सरकारी सेवक सार्वजनिक रूप से एक ईमानदार मुख्य मंत्री को चोर-उच्चका कहे, यह नौबत आखिर आती ही क्यों है ?
 दरअसल यह नीति निर्धारकों की गलती है।इसमें अफसर व सत्ताधारी नेता दोनों दोषी रहते हैं ।इस देश में कई बार ऐसे- ऐसे नियम जान बूझ कर बनाए और बनाए रखे जाते हैं ताकि दोहन का मौका मिलता रहे।
  आई.ए.एस.और आई.पी.एस.अफसरों को ,यदि उनके जीवन साथी भी उसी सेवा मंे हैं तो एक ही राज्य में तैनात रहने की सुविधा हासिल है।कई बार एक ही जिले में ।पर यह सुविधा उत्तरा जैसी शिक्षिका को नहीं मिलती है जिनके पति का निधन हो चुका है और वे अपने बच्चों से वर्षों से दूर पदस्थापित हैं।
 ऐसा पूरे देश में हो रहा है।
बिहार में भी 1977 से पहले प्राथमिक शिक्षकों के जिला स्थानानांतरण की सुविधा नहीं थी।नतीजतन पति कहीं और और पत्नी किसी अन्य जिले में नौकरी करने को अभिशप्त थे।
जिला स्थानांतरण की सुविधा कर्पूरी ठाकुर की सरकार ने दी।वह भी इसलिए कि एक दबंग सत्ताधारी विधायक की पत्नी पटना से  अलग एक जिले में पदस्थापित थीं।
विधायक जी को अपनी पत्नी को साथ रखना था।स्वाभाविक ही था।
आई.ए.एस.और आई.पी.एस.अफसरों के यहां सेवा व सुरक्षा के  लिए बहुत सारे कर्मचारी तैनात रहते हैं,फिर भी उन्हें यथासंभव निकट तैनाती की सुविधा है।पर किसी विधवा शिक्षिका को भी यह सुविधा नहीं।
मैंने उत्तराखंड के मुख्य मंत्री को ईमानदार इसलिए कहा क्योंकि उन्होंने केंद्रीय मंत्री गडकरी की इच्छा के खिलाफ अरबों रुपए के नेशनल हाईवे मुआवजा घोटाले की सी.बी.आई.जांच की सिफारिश कर दी और जांच हो भी रही है।उससे पहले गडकरी ने मुख्य मंत्री से कहा था कि ऐसी जांच से अफसरों में पस्तहिम्मती आएगी।  

गुरुवार, 28 जून 2018

  एक बात की कल्पना कीजिए ।यदि केंद्र सरकार  अपने प्रत्येक कर्मचारी  के वेतन में से हर साल चार हजार रुपए की भी कटौती करने लगे तो कर्मचारी व उनके यूनियन चुप बैठेंगे ?
 कत्तई नहीं।वे देश में बड़ा आंदोलन कर देंगे। 
  पर यहां तो  हर साल प्रत्येक कर्मचारी  पर परोक्ष रूप से चार हजार कौन कहे,चालीस हजार रुपए का  बोझ पड़ रहा है।
वैसे तो 40 हजार सालाना का यह बोझ देश के हर नागरिक पर पड़ रहा है,पर अभी सिर्फ कर्मचारियों को ही ध्यान में रखें।
क्योंकि कर्मचारियों में अपनी मांगों की पूत्र्ति के लिए आंदोलन करने व कभी भी काम ठप कर देने की पूरी ताकत है।पर वे भी प्रत्यक्ष आर्थिक मार या लाभ  को लेकर ही  आंदोलन करते हैं।पर,परोक्ष को लेकर नहीं।
 40 हजार रुपए का यह बोझ हिंसा से तबाह होने के कारण देश की अर्थ व्यवस्था पड़ रहा है।
आज के दैनिक ‘आज’ में प्रकाशित अरविंद कुमार सिंह के लेख के अनुसार हिंसा के कारण गत साल इस देश को 80 लाख करोड़ रुपए का आर्थिक बोझ  पड़ा।यानी हर नागरिक पर 40 हजार रुपए का बोझ।
  सर्वोच्च न्यायालय ने आंदोलन के नाम पर सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान और हिंसा करने वालों के खिलाफ  कड़ा कदम उठाने का निदेश दिया है और कहा है कि आंदोलन से जुड़े राजनीतिक दलों और संघटनों को इस नुकसान की भरपाई करनी होगी।पर इस दिशा में कुछ होता नजर नहीं आ रहा है।
 यदि केंद्र सरकार के पास एक साल में अतिरिक्त 80 लाख करोड़ रुपए कहीं से मिल जाएं तो उन पैसों से वह न जाने कितने अस्पताल खोल देगी।न जाने कितने स्कूल भवन बन जाएंगे और न जाने कितने सरकारी अस्पतालों को इलाज करने लायक सुसंपन्न बनाया जा सकेगा।
हमारी सेना को उन पैसों से और भी ताकतवर बनाया जा सकेगा।
  पर यह काम नहीं हो रहा है।यानी आंदोलन के दौरान तोड़ -फोड़ करने वालों के खिलाफ सबक सिखाने लायक सजा का प्रबंध नहीं किया जा रहा है।

 मुम्बई महा नगर पालिका ने सड़कों की मरम्मत पर इस साल 100 करोड़ रुपए खर्च किये।
इसके बावजूद इस बरसात में ‘मरम्मत की गयी सड़कों’ में बड़े -बड़े गड्ढे पड़ गए।
ऐसा हर साल होता है।
अपना देश ऐसा ही है।
ऐसा आज से नहीं है।दाना पुर के चर्चित उर्दू पत्रकार मोईन अंसारी ने नब्बे के दशक में मुझे एक भ्रष्टाचार -कथा सुनाई थी।
 कई दशक पहले दाना पुर विधान सभा क्षेत्र के मतदाताओं ने  एक ईमानदार नेता को विधायक चुन लिया था।
उस विधायक ने शहर की मुख्य सड़क को सीमेंटेड बनवा दिया।
पर, अगली बार एक अन्य नेता विधायक बने।नये विधायक ने आते- आते सीमेंटेड सड़क को तोड़वा कर उसे अलकतरा वाला बनवा दिया ताकि वह हर साल टूटे और हर साल मरम्मत की जरूरत पड़े ।
 एक बार दिवंगत मोईन चचा ने उस विधायक से पूछा,‘आपने ऐसा क्यों किया ?’
उस बेशर्म विधायक ने अपनी  निकली तोंद पर हाथ मारते हुए बेशर्मी से कहा कि ‘हमारा भी तो पेट है ! हमारा ठेकेदार भूखे मरेगा ?’
ऐसे ही यह देश चल रहा है ! पता नहीं, इस गरीब देश को  इस स्थिति से कौन और कब उबारेगा ? लोगों  से लिए गए परोक्ष-प्रत्यक्ष टैक्स के पैसों की ऐसी लूट किस अन्य देश में होती है ?

मंगलवार, 26 जून 2018

इमरजेंसी 1975 : दिल्ली के बड़े अफसरों की रिपोर्ट— हालात खराब थे ऐसी कभी बात तक नहीं हुई ...

मोरारजी देसाई सरकार ने आपातकाल में हुई ज्यादतियों की जांच के लिए शाह आयोग का गठन किया था। 25 और 26 जून 1975 के बीच की रात में घोषित आपातकाल को लेकर शाह आयोग की रपट में दर्ज कुछ पंक्तियां यहां उधृत की जा रही हैं।

  ‘प्रधानमंत्री के सचिव श्री पी.एन.धर ने अपने बयान में बताया कि उन्हें 25 जून 1975 को 11.30 बजे रात प्रधानमंत्री निवास बुलाए जाने पर ही इस बारे में पता चला, जब उन्हें आकाशवाणी पर प्रधानमंत्री द्वारा दिए जाने वाले भाषण का मसौदा पढ़ने को दिया गया।’


  कैबिनेट सेक्रेटरी श्री बी.डी. पांडेय को 26 जून को सुबह 4.30 बजे प्रधानमंत्री निवास से फोन मिला और कहा गया कि उस दिन सुबह 6 बजे मंत्रिमंडल की बैठक होनी है। आपात स्थिति की घोषणा के बारे में सबसे पहले उन्हें सूचना उसी सुबह मिली। वे आश्चर्यचकित थे कि किसने और कैसे 25 और 26 जून के बीच की रात को इतनी संख्या में गिरफ्तारियां कराईं।


सामान्यतः इतनी जल्दी कार्रवाई के लिए निदेश गृह मंत्रालय के जरिए भेजे जाते हैं जिनके पास संचार की अपनी व्यवस्था होती है।’


‘बी.डी. पांडेय के अनुसार 26 जून के पहले किसी भी मंत्रिमंडल की बैठक में आपात स्थिति की घोषणा की आवश्यकता या देश में ऐसी किसी परिस्थिति के बारे में, जिसमें ऐसी घोषणा आवश्यक हो, कोई बात नहीं हुई थी।’


आसूचना ब्यूरो के निदेशक श्री आत्मा जयराम ने कहा कि 26 जून को कार्यालय जाने के बाद उन्हें आपातस्थिति की घोषणा के बारे में पता चला।’


श्री एस.एल. खुराना, जो भारत सरकार के गृह सचिव थे, 26 जून की सुबह मंत्रिमंडल की बैठक के बाद ही इसके बारे में जान पाए, जिसके लिए उन्हें सूचना 6 बजे ही मिली थी। तदनुसार, वे मंत्रिमंडल की बैठक में सुबह 6.30 बजे ही आ पाए जबकि बैठक खत्म हो चुकी थी।

सोमवार, 25 जून 2018

वी.पी.सिंह के जन्म दिन पर उनकी याद में 
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वी.पी.सिंह के जीवन पर  अच्छी पुस्तक वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने लिखी है।
पुस्तक का नाम है ‘विश्वनाथ प्रताप सिंह ः मंजिल से ज्यादा सफर।’
यह नाम ही बहुत कुछ कह देता है।यह पुस्तक उनसे बातचीत पर आधारित है।इस बातचीत की खूबी यह है कि वी.पी.सिंह यह मान कर चल रहे हैं कि उन्हें अब आगे कोई पद  नहीं लेना है।ऐसे में वे बेबाक बातें करते हैं।उस पुस्तक से वी.पी.सिंह के ही शब्दों में कुछ प्रकरण यहां प्रस्तुत है।
‘सवाल ः कांग्रेस में क्या जाति आधारित गुटबाजी का चलन था ?
जवाब ः पूरी तरह जातिवादी गुट नहीं बने हुए थे। एक हद तक ही उन्हें जातिवादी गुट कहा जा सकता है।कुछ नेता हर जाति में अपना प्रभाव रखते थे।हेमवतीनंदन बहुगुणा उन्हीें नेताओं में थे।कमलापति त्रिपाठी के इर्दगिर्द ब्राह्मण अधिक होते थे।लेकिन पं.कमलापति त्रिपाठी को जातिवादी नहीं कहा जा सकता।जाति की तरफ उनका झुकाव था लेकिन हेमवती नंदन बहुगुणा में वह भी नहीं था।
सवाल ः जाति से परे जाकर देखें तो कांग्रेस में जो टकराव उस समय थे,उनकी जड़ें कहां -कहां थीं ?
जवाबः एक टकराव आर्थिक माना जा सकता है। उत्तर प्रदेश में आजादी की लड़ाई में ब्राह्मणों ने बढ़ -चढ़ कर हिस्सा लिया। उनके पास जमीन जायदाद कम थी। वह राजपूतों के पास थी।ज्यादातर जमींदार वही थे।रियासतें भी उन्हीें के पास थी।उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण रियासतें सिर्फ दो ही रही हैं।जमींदारों की दिलचस्पी आजादी की लड़ाई में कम थी।उनको अपनी जमींदारी चले जाने का खतरा दिखता था।कांग्रेस में यह तबका बाद में आया।लेकिन साधारण राजपूत तो शुरू से ही कांग्रेस में थे।ऐसे ही आजादी की लड़ाई में दलितों की प्रमुख भूमिका थी।कांग्रेस में जो सामाजिक ध्रुवीकरण बना था उसमें ब्राह्मण और दलित एक साथ थे।दलित और किसान की हिमायत में ब्राह्मण खड़े होते थे।इस कारण कांग्रेस के नेतृत्व समूह में ब्राह्मणांे की प्रमुखता थी।उस समय जाति का बोलबाला वैसा नहीं था,वह बाद में आया।
 सवाल ः उत्तर प्रदेश कांग्रेस के जनाधार खिसकने के खास कारण आप क्या देखते हैं ?
जवाब ः कांग्रेस का स्वाभाविक नेतृत्व ब्राह्मणों के हाथ में था।दूसरे वर्ग दलित और मुस्लिम भी थे।जब स्वाभाविक नेतृत्व स्थापित हो जाता है तो वह चलता रहता है।उनका नए समूहों से कई बार टकराव भी होता है।नेतृत्व यह समझ नहीं पाता कि नए समूहों को किस तरह जगह दें और उनको शामिल करें।यही कठिनाई कांग्रेस की भी थी।जो जनाधार कांग्रेस का था, उसे वापस लाने में कामयाब नहीं हो सके।
सवाल ः पहले फेयर फैक्स, फिर पनडुब्बी और उसके बाद बोफर्स तोप सौदे में दलाली का सवाल उठा।उसकी जांच की मांग कैसे उठी ?
जवाब ः अखबारों में दस्तावेज आदि छपने लगे।उस समय जांच की मांग उठी।उसी समय छपा कि अजिताभ बच्चन का स्विट्जर लैंड में बंगला है।वे एक टूरिस्ट के रूप में गए थे।फिर बंगला कैसे खरीद लिया ?उस समय फेरा सख्ती से लागू होता था।
सवाल ः क्या इसे आपने कहीं उठाया ?
जवाब ः मैं उस समय कांग्रेस में था।संसदीय पार्टी की बैठकों में जाता था।वहां इसे उठाया।मैंने कहा कि प्रधान मंत्री जी आपने कहा है कि सच्चाई सामने लाने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे।कृपया इस सच्चाई का पता करिए।इसकी जांच होनी चाहिए।अगर यह सही नहीं है तो उस अखबार के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।उन्होंने कहा कि जांच करवाएंगे।
सवालः राजीव गांधी से सीधी भेंट उस समय आपकी कहां हुई ?
जवाब ः उन्होंने दो बार बुलाया।उन्होंने मुझसे पूछा कि यह क्या हो रहा है ?
उनके सवाल में यह छिपा हुआ था कि मैं विपक्ष से हाथ मिला रहा हूं।मैंने कहा कि यह बातचीत राजीव गांधी और विश्व नाथ प्रताप में हो रही है।इस भ्रम में मत रहिए कि हमारी बातचीत प्रधान मंत्री और मंत्री के बीच हो रही है।सीधी बात है कि अगर आप यह महसूस करते हैं कि मैं आपके साथ राजनीतिक खेल, खेल रहा हूं तो इस बातचीत का कोई फायदा नहीं है।ऐसे ही अगर मेरे मन में यह है कि आप मेरे साथ राजनीति कर रहे हैं तो इस बातचीत से हम कहीं नहीं पहुंचेंगे।हममंे यह विश्वास और भरोसा होना चाहिए कि राजनीति आड़े नहीं आएगी।अगली बात यह है कि के.के.तिवारी और कल्प नाथ राय मुझे सी.आई.ए. एजेंट कहते हैं। मैं जानता हूं कि ये लोग लाउड स्पीकर हैं। माइक इस कमरे में लगा है जहां हम हैं। यहां से जो बोला जाता है वही लाउड स्पीकर पर बाहर सुनाई पड़ता है।उनकी हिम्मत कहां है कि वे मुझे सी.आई.ए.एजेंट कहें।
सवाल ः राजीव गांधी ने क्या सफाई दी ?
जवाब ः उन्होंने कहा कि पार्टी आपसे बहुत नाराज है।वे लोग भी नाराज हैं।इसलिए बोल रहे हैं।मैं इनसे कहूंगाा कि कम बोलें।मैंने उनसे कहा कि वे दस गाली दे रहे थे,अब दो गाली देंगे।कोई भ्रम न रहे इसलिए साफ -साफ कहा कि जो लोग गाली दे रहे हैं वे मेरी देश भक्ति पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं।जब देशप्रेम का सवाल आता है और जब भी आता है तो लोग जान की बाजी लगा देते हैं। अपना सिर कटा देते हैं और मैं भी अपनी देश भक्ति के लिए अंतिम दम तक  ऐंड़ी जमा कर लड़ूंगा। 
सवाल ः इस पर उन्होंने क्या कहा ?
जवाब ः राजीव गांधी ने कहा कि मैं इन लोगों को समझाऊंगा। मैंने उनसे कहा कि देखिए आपकी मां के साथ काम करते हुए कांग्रेस नामक मशीन को हमने चलाया है। इसका एक- एक नट- बोल्ट हम जानते हैं। मेरे जैसे सेकेंड रैंकर लोगों ने हेमवती नंदन बहुगुणा को भगा दिया क्योंकि वे यह चाहती थीं। वे नहीं बोलीं। हमलोगों ने ही यह काम किया।  

शुक्रवार, 22 जून 2018

--देर हो जाने से पहले भ्रष्टाचार पर नये ढंग से सोचे यह देश-



बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के पूर्व अध्यक्ष तथा कुछ अन्य घोटालेबाज अभी जेल में ही हैं।इसके बावजूद इस साल गोपाल गंज से यह खबर आई कि  वहां से करीब  42 हजार उत्तर पुस्तिकाएं गायब हैं।
अन्य मामलों में राज्य के कई नेता और अफसर जेल में हैं, इसके बावजूद यह खबर आई कि सिर्फ 14 प्रतिशत सीमेंट मिलाकर बांध बना दिया गया।ऐसे बांध को टूटना ही है और लोगों को मरना ही है।यह भी तो हत्या ही है।
  जस्टिस  उदय सिंहा जांच आयोग की रपट के अनुसार 2002 से 2006 के बीच बिहार में सिर्फ एक मद में 216 करोड़ रुपए का घोटाला हुआ था।
‘काम में बदले अनाज योजना’ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी।
यह इस बात के बावजूद हुआ कि तब तक बिहार के कुछ घोटालों के सिलसिले में बड़े अफसर भी जेल जा चुके थे।
 ये 216 करोड़ रुपए यदि गरीब मजदूरों तक पहुंचते तो उनमें से अनेक मजदूरों को कुपाषण व भुखमरी से बचाया जा सकता था।कोई भी सरकार भुखमरी की घटना को तो स्वीकार नहीं करती।न करे !
पर कुपोषण जनित बीमारी तो होती ही है।ऐसे गरीब बीमार के लिए कई सरकारी अस्पतालों में दवाएं तक नहीं होतीं।
उनमें से कई बीमारों की जान भी चली जाती है।
यह परोक्ष हत्या नहीं है तो क्या है ?  
 यानी क्या ऐसा घोटाला किसी हत्या से कम  है ?
फिर सजा साधारण अपराध मान कर क्यों ?
  ऐसे ‘गरीब मारक घोटाले’ इस गरीब देश  में जब -तब जहां -तहां होते ही रहते हैं।गिरफ्तारियों व अदालती सजाओं के बावजूद उनकी पुनरावृति भी होती रहती है।इस देश में अधिकतर छोटे-बड़े घोटालेबाज जितने निडर,बेशर्म और मुंहजोड़ होते हैं,उतने शायद ही किसी अन्य देश में होंगे।
यहां जेल यात्राओं और सजाओं का कोई भय घोटालेबाजों को नहीं डरा पा रहा है।क्या सजाएं कम हैं इसलिए डर भी नहीं है ? सबक सिखाने लायक सजा कब मिलेगी ?क्या विधि आयोग और हमारे हुक्मरान इस बिंदु पर कभी विचार करेंगे ?
वैसे भी यदि भ्रष्टाचार के कारण किसी की जान जाती है तो भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी का ही प्रावधान तो होना ही चाहिए।न्याय की मंशा तो यही कहती है।जिस देश में अपराधियांें को तौल कर सजा नहीं मिलती,वहां की अगली पीढि़यों का भविष्य भी असुरक्षित हो जाता है।
  क्या हमारे रहनुमा कभी इस स्थिति पर गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे ?क्या अगली पीढि़यां उनके ध्यान में हैं ?
ठीक ही कहा गया है कि ‘नेता अगला चुनाव देखता है और ‘स्टेट्समैन’ अगली पीढ़ी।’ 
--पनामा पेपर्स की नयी किस्त--
दो साल पहले पनामा पेपर्स का मामला चर्चित हुआ था।
पनामा पेपर्स की नयी किस्त के बारे में आज भी एक खबर आई है।
याद रहे कि पनामा के एक फर्म से संबंधित यह मामला है।
वह फर्म भारत सहित अनेक देशों के अमीरों को अपने देश में टैक्स चुराने में मदद करता है।
दो साल पहले भी कुछ टैक्स चोर भारतीयों के नाम आए थे।इस बार के पनामा पेपर्स में भी कुछ भारतीयों के नाम हैं।
यदि टैक्स चोर भारत सरकार को कर अदा कर देते तो उन पैसों से कुछ और अस्पताल व स्कूल यहां खोले जा सकते थे।
--नेहरू के अधूरे सपने को पूरा करें मोदी--
 मौजूदा प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को चाहिए कि वह देश के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू के अधूरे सपने को अब तो पूरा कर दें !
  आजादी के तत्काल बाद नेहरू जी ने कहा था कि ‘काला बाजारियों को नजदीक के लैम्प पोस्ट से लटका देना चाहिए।’जहां तक मेरी जानकारी है कि नेहरू की इस राय का किसी ने विरोध नहीं किया था। फांसी के खिलाफ अभियान चलाने वालों ने भी नहीं।
वैसे काला बाजार की अपेक्षा काफी अधिक जघन्य काम आज हो रहे हैं।
नीरव मोदी पर तो 12 हजार करोड़ रुपए के घोटाले का आरोप है।
नरेंद्र मोदी को चाहिए कि वे अगले 15 अगस्त को  लाल किले से यह घोषणा कर दें  कि हम भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान करने जा रहे हैं ।यदि वे करेंगे तो  किसी  सरकार विरोधी संगठन , नेता या व्यक्ति को उसका विरोध करने का नैतिक हक नहीं होगा।क्योंकि वे अब भी नेहरू की उस राय के खिलाफ न बोलते हैं और न ही लिखते हैं।
  कुछ साल पहले यू.पी.के पूर्व डी.जी.पी. प्रकाश सिंह ने एक रिसर्च के हवाले से कहा था कि ‘जब एक हत्यारे को फांसी होती है तो हत्या करने के लिए उठे अन्य  सात हाथ अपने -आप रुक जाते हैं।’  
  -- कश्मीर पर सुप्रीम कोर्ट की राय--
17 दिसंबर, 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि
जम्मू कश्मीर की भारतीय संविधान के बाहर  और अपने संविधान के अंतर्गत रत्ती भर भी संप्रभुता नहीं है। उसके नागरिक सबसे पहले भारत के नागरिक हैं।
 सर्वोच्च अदालत ने जम्मू कश्मीर  हाई कोर्ट के एक तत्संबंधी निष्कर्ष को पूरी तरह गलत करार देते हुए यह टिप्पणी की।
हाई कोर्ट ने कहा था कि राज्य को अपने स्थायी नागरिकों की अचल संपत्तियों के संबंध में उनके अधिकार से जुड़े कानूनों को बनाने में पूर्ण संप्रभुता है।
 न्यायमूत्र्ति कूरियन जोसेफ और  न्यायमूत्र्ति आर.एफ.नरीमन के पीठ ने कहा कि जम्मू कश्मीर को भारतीय संविधान के बाहर और अपने संविधान के तहत रत्ती भर भी संप्रभुता नहीं है।राज्य का संविधान भारत के संविधान के अधीनस्थ है।
पीठ ने कहा कि उसके निवासियों का खुद को एक अलग और विशिष्ट के रूप में बताना पूरी तरह गलत है। 
   --जेटली की सदाशयता--
किडनी प्रत्यारोपण के बाद नई  दिल्ली के एम्स से लौटे अरूण जेटली ने वहां के रेजिडेंट डाक्टरों को व्यक्तिगत पत्र लिख कर उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की।
किसी मंत्री ने अपने इलाज के बाद किसी सरकारी अस्पताल के डाक्टरों के प्रति ऐसी कृतज्ञता जाहिर की है,यह मैंने पहली बार सुना।शायद मंत्री समझते हैं कि डाक्टरों की तो यह ड्यूटी ही है।
पर, जेटली से  व्यक्तिगत  पत्र पाकर रेजिडेंट ने कैसा महसूस किया होगा,उसकी कल्पना कीजिए।
मेरी तो राय है कि कोई सामान्य मरीज भी किसी सरकारी या गैर सरकारी अस्पताल से चंगा होकर निकले तो उसे घर जाकर अस्पताल को एक पत्र लिख देना चाहिए।
इससे चिकित्सकों का मनोबल और आत्म विश्वास बढ़ेगा और वे और भी अधिक तत्पर रहने की कोशिश करेंगे।
ऐसा नहीं है कि चिकित्सक इलाज में लापरवाही या गड़बडि़यों नहीं करते। पर अनेक चिकित्सक अपने काम बहुत अच्छे ढंग से करते हैं।
--‘टिस’ की सराहनीय भूमिका--
‘टिस’ यानी टाटा इंस्टिच्यूट आॅफ सोशल साइसेंस।
मुम्बई के इस प्रतिष्ठित संस्थान की आडिट रिपोर्ट में 
यह बताया गया था कि मुजफ्फर पुर स्थित बालिका गृह में यौन हिंसा और  शोषण जारी है।
 शासन ने उस रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई की।
बालिका गृह के संरक्षणकत्र्ता सहित कई जेल भेजे गए।
मुकदमे कायम किए गए।
लगता है कि उससे पहले सब कुछ ऊपरी मेलजोल या अनदेखी से हो रहा था।
 इस देश में ‘टिस’ जैसे कुछ संगठन अब भी बचे हैं जहांं के लोगों पर आप जिम्मेदारी देंगे तो वे विपरीत परिस्थितियों में भी अपने काम ईमानदारी व निर्भीकतापूर्वक करेंगे।
      -- और अंत में--
उत्तर प्रदेश में सिपाही भत्र्ती परीक्षा, 2018  में पास कराने के लिए बिहार से ‘साॅल्वर’ बुलाये गये थे।
वे  पकड़े गए।
पता नहीं, उन्हें यू.पी.में सजा हो पाएगी या नहीं।पर बिहार सरकार चाहे तो उन्हें राज्य में प्रवेश करने से रोक ही सकती है।यदि इस संबंध में कोई नियम नहीं है तो बनाना चाहिए।
यदि अपराधियों को ‘जिला बदर’ किया जा सकता है तो 
परीक्षा नकल के माफियाओं को राज्य से बाहर क्यों नहीं किया जाना चाहिए ?यह कचरा बाहर ही रहे तो बिहार को ठीक -ठाक करने में सुविधा होगी।
@ 22 जून, 2018 को प्रभात खबर -बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@

गुरुवार, 21 जून 2018



स्वामी रामदेव यानी पतंजलि के बिस्किट
की अपेक्षा मुझे श्रीश्री रविशंकर के बिस्किट 
बेहतर लगे।हालांकि पतंजलि के बिस्किट खराब नहीं हैं।
  कुछ अन्य लोगों को भी बेहतर लगे होंगे।
यह खबर जब पतंजलि प्रबंधन तक पहुंचेगी तो वह  अपने बिस्किट को बेहतर बनाने की शायद कोशिश करेगा ,ऐसी उम्मीद है।पर लगता है कि  पतंजलि की शिकायत शाखा अभी बहुत कमजोर है।बिस्किट तो एक उदाहरण है।अन्य सामग्री पर भी देर -सवेर यह बात लागू हो सकती है।
  जहां एक तरफ इस देश में सरकारी अफसरों-कर्मचारियों  की मदद से देश भर में खाद्य,भोज्य पदार्थ,दवा तथा अन्य उपभोक्ता सामग्री को अधिक से अधिक मिलावटी व जहरीला बनाने की होड़ लगी हुई  है,वहीं रामदेव और रवि शंकर मानवता की सेवा कर रहे हैं।
मैंने कभी नहीं कहा कि रामदेव योग गुरू से व्यापारी-उद्योगपति बन गए हैं।यही बात मैं श्री श्री के बारे में भी नहीं कह सकता।
 आप मिलावटी , जहरीली सामग्री खा-पीकर जितना भी योग प्रणायाम करेंगे,आपको कोई लाभ नहीं मिलेगा।
मुझे लगता है कि राम देव और रवि शंकर इसी बात को ध्यान में रखकर उत्पादन के इस क्षेत्र में आए हैं।
यदि उत्तर प्रदेश सरकार ने नियम को शिथिल करके नोयडा में स्वामी राम देव की कंपनी को मेगा फूड पार्क के लिए जमीन दे दी है तो उसकी सराहना होनी चाहिए न कि आलोचना। मेगा फूड पार्क से आसपास के किसानों को भी लाभ होगा।
एक बात तो तय है कि स्वामी राम देव पटना जंक्शन के  दूध मार्केट की तरह कभी जहरीली पनीर तो नहीं ही बेचेंगे।
पर हां,पतंजलि प्रबंधन जो सामग्री आउटसोर्स करके तैयार करवाता है,उसकी गुणवत्ता पर उसे तत्काल ध्यान देना चाहिए।क्योंकि पतंजलि का एलोवेरा,जो मैं रोज लेता हूं, मुझे  पहले जैसा अब अच्छा नहीं लगता।
पतंजलि का आटा लेना तो मैंने पहले ही छोड़ दिया है।
पर जो अन्य सामग्री मैं लेता हूं,उसके बारे में कोई शिकायत नहीं है।
   

----पीने वालों से अधिक बेचने-बेचवाने वालों पर कड़ी नजर रखे शासन --सुरेंद्र किशोर---


मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने कठोर शराब बंदी कानून में कुछ संशोधन का कल संकेत दिया है।याद रहे कि 2 नवंबर, 2016 को भी मुख्य मंत्री ने कहा था कि ‘इस कानून को कुछ लोग  तालीबानी कानून तो जरूर कहते हैं ,पर मांगने पर भी वे इसमें ऐसे किसी संशोधन के लिए कोई सुझाव नहीं देते ताकि इसे कारगर भी बनाये रखा जाए और इससे किसी को नाहक परेशान भी नहीं होना पड़े।’
 दरअसल अब ऐसे किसी संशोधन से पहले राज्य सरकार को इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट  के निर्णय का इंतजार है।उससे पहले 
 इस कानून के क्रियान्वयन में आ  रही  समस्याओं को लेकर 
राज्य सरकार खुद भी विचार -मंथन करती रही है।
किसी भी अच्छी मंशा वाली सरकार को ऐसा करना ही चाहिए।
 शराबबंदी अच्छी मंशा से उठाया गया एक सही कदम हैं।इसके लाभ अधिक हैं।इस कानून का कुछ लोगों द्वारा  दुरूपयोग भी हो रहा है।पर,इससे पीछे नहीं जाया जा सकता है।
  स्वाभाविक ही है कि कुछ भ्रष्ट अधिकारी व कर्मचारी ऐसे कठोर कानून का स्वार्थवश दुरूपयोग करें।
  अनुभवों से सीख कर राज्य सरकार उस कानून में संशोधन करना चाहती है तो उसका स्वागत होना चाहिए।
कुछ संशोधनों  से इस कानून का सार्थकता बढ़ सकती है।
 पहला काम तो यह होना चाहिए कि यह कानून शराब बिक्रेताओं की ओर अपेक्षाकृत अधिक मुखातिब हो।
फिर शासन के उन लोगों की ओर जो लोग बिक्रेताओं की मदद कर रहे हैं।
 शराबियों पर भी कार्रवाई हो ,पर अधिक ध्यान उन दो लोगों पर रहे।वैसे भी यदि शराब को दुर्लभ वस्तु बना दिया जाए तो वह शराबियों तक कितनी पहुंच पाएगी ?
 यह आम चर्चा  है कि शराबबंदी के बाद अनेक पुलिसकर्मियों की आय बढ़ गयी है। 
 एक खबर के अनुसार गुजरात में दवा के नाम पर 61 हजार लोगों को शराब पीने का परमिट मिला हुआ है।
बाहर से गुजरात जाने वालों को भी अस्थायी परमिट मिलता है।पर ऐसे परमिट की कुछ शत्र्तें हैं।डाक्टर का प्रमाण पत्र चाहिए  जिसमें यह लिखा होता है कि ‘इनकी शारीरिक- दिमागी हालत ऐसी है कि इनके लिए शराब पीना जरूरी है।’
 सन 1977 में देश में शराबंदी लागू हुई थी।उस समय बिहार में भी हमने देखा था कि डाक्टरों की सिफारिश पर शासन  परमिट जारी करता था।
 बिहार में 2016 में जब शराबबंदी लागू की गयी तो इन बातों का ध्यान नहीं रखा गया।यहां तक कि दवा के नाम पर भी कोई छूट नहीं रही जैसी मोरारजी देसाई -कर्पूरी ठाकुर के शासन काल में भी थी।
  शराबबंदी के निर्णय को उलटना तो और भी नुकसानदेह होगा।हालांकि बहुत से लोग यही चाहते हैं।पर विभिन्न पक्षों के लोगों को कुछ राहत देकर इसे आसानी से लागू करने का रास्ता बनाया जा सकता है।अभी तो जो खबरें आ रही हैं,उनके अनुसार बिहार में शराबबंदी है भी और नहीं भी है।हां,पियक्कडों ने सड़कों पर हंगामा काफी कम कर दिया है।
 पहले तो बारात जुलूस,सरस्वती मूत्र्ति विसर्जन ,दुर्गा पूजा आदि के अवसरों पर सड़कों पर निकलना कठिन था। 
  हां, इस कानून से ऐसे लोगों को राहत देने की सख्त जरूरत है जिनके पास जमानत देकर छूटने का साधन तक नहीं।
 हां,आदतन शराबियोंं को,जो यदाकदा शराब पीकर सार्वजनिक स्थानों पर हंगामा करते हैं,परिजन को प्रताडि़त करते हैं,सजा स्वरूप कुछ सरकारी सुविधाओं से वंचित करने के बारे में विचार किया जा सकता है।
@---प्रभात खबर - बिहार - 7 जून, 2018@ 

बुधवार, 20 जून 2018



स्वामी रामदेव यानी पतंजलि के बिस्किट
की अपेक्षा मुझे श्रीश्री रविशंकर के बिस्किट 
बेहतर लगे।हालांकि पतंजलि के बिस्किट खराब नहीं हैं।
  कुछ अन्य लोगों को भी बेहतर लगे होंगे।
यह खबर जब पतंजलि प्रबंधन तक पहुंचेगी तो वह  अपने बिस्किट को बेहतर बनाने की शायद कोशिश करेगा ,ऐसी उम्मीद है।पर लगता है कि  पतंजलि की शिकायत शाखा अभी बहुत कमजोर है।बिस्किट तो एक उदाहरण है।अन्य सामग्री पर भी देर -सवेर यह बात लागू हो सकती है।
  जहां एक तरफ इस देश में सरकारी अफसरों-कर्मचारियों  की मदद से देश भर में खाद्य,भोज्य पदार्थ,दवा तथा अन्य उपभोक्ता सामग्री को अधिक से अधिक मिलावटी व जहरीला बनाने की होड़ लगी हुई  है,वहीं रामदेव और रवि शंकर मानवता की सेवा कर रहे हैं।
मैंने कभी नहीं कहा कि रामदेव योग गुरू से व्यापारी-उद्योगपति बन गए हैं।यही बात मैं श्री श्री के बारे में भी नहीं कह सकता।
 आप मिलावटी , जहरीली सामग्री खा-पीकर जितना भी योग प्रणायाम करेंगे,आपको कोई लाभ नहीं मिलेगा।
मुझे लगता है कि राम देव और रवि शंकर इसी बात को ध्यान में रखकर उत्पादन के इस क्षेत्र में आए हैं।
यदि उत्तर प्रदेश सरकार ने नियम को शिथिल करके नोयडा में स्वामी राम देव की कंपनी को मेगा फूड पार्क के लिए जमीन दे दी है तो उसकी सराहना होनी चाहिए न कि आलोचना। मेगा फूड पार्क से आसपास के किसानों को भी लाभ होगा।
एक बात तो तय है कि स्वामी राम देव पटना जंक्शन के  दूध मार्केट की तरह कभी जहरीली पनीर तो नहीं ही बेचेंगे।
पर हां,पतंजलि प्रबंधन जो सामग्री आउटसोर्स करके तैयार करवाता है,उसकी गुणवत्ता पर उसे तत्काल ध्यान देना चाहिए।क्योंकि पतंजलि का एलोवेरा,जो मैं रोज लेता हूं, मुझे  पहले जैसा अब अच्छा नहीं लगता।
पतंजलि का आटा लेना तो मैंने पहले ही छोड़ दिया है।
पर जो अन्य सामग्री मैं लेता हूं,उसके बारे में कोई शिकायत नहीं है।
   

कश्मीर में पाकिस्तान अघोषित युद्ध लड़ रहा है।
कोई एक देश किसी दूसरे देश के खिलाफ घोषित या अघोषित युद्ध करता है 
तो दूसरे देश की सरकार और जनता क्या करती है ?
जम कर जवाब देती है।
पर अपने देश में क्या हो रहा है ?कौन क्या कर रहा है ?
यह गौर से  देखना है और उसके अनुसार अपनी रणनीतियां बनानी है।
दरअसल बंगला देश के निर्माण के बाद पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फीकार अली भुट्टो ने कहा था कि भारत ने हमें एक घाव दिया है,हम उसे हजार घाव देंगे।
पाकिस्तान उसी लक्ष्य पर  काम करता रहा है।
 यदि वह कश्मीर में सफल हो गया तो उसका रुख केरल और पश्चिम बंगाल की ओर हो सकता है।
उन राज्यों में कुछ राजनीतिक दल पाकिस्तान के लिए अनुकूल पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं।
  भारत के देशप्रेमियों के साथ दिक्कत यह है कि उन्हें  एक साथ कई  मोर्चों पर लड़ना पड़ रहा है।
 भीतर के जयचंदों के खिलाफ भी और बाहर के हमलावरों के खिलाफ भी।
  ऐसे में इस देश को ‘टुकड़े-टुकड़े गिरोह’ से कैसे बचाना है,यह सोचना हर देशभक्त नागरिक का कत्र्तव्य है।यह एक कठिन समय है।ऐसे समय में ही अनेक लोगों की पहचान हो जाती है।
1962 में जब चीन ने हम पर हमला किया था,तब भी अनेक लोगों की पहचान हो गयी थी।


मंगलवार, 19 जून 2018

मेरे बाबू जी !

      

  हम तीनों भाई उन्हें ‘बाबू जी’ ही कहते थे और वे हमें ‘बबुआ।’बड़का बबुआ।मझिला बबुआ और छोटका बबुआ।
मेरी मां के साथ भी उनका व्यवहार आदरपूर्ण था।
  अधिक पढ़े -लिखे तो नहीं थे,पर परंपरागत विवेक से परिपूर्ण थे।
साढ़े छह फीट के लंबा- चैड़ा कसरती शरीर और दबंग व्यक्तित्व।
मेरे जन्म के समय हमारे परिवार के पास 22 बीघा जमीन थी।
दो बैल, एक गाय और एक भैंस।
 दो नौकर ।खेत जोतने -जोतवाने में आस -पड़ोस के किसान एक दूसरे की मदद करते थे।हमारे हल-बैल कभी उनके खेत में तो कभी उनके बैल -हल  हमारे खेत में।
बाबू जी लघुत्तम जमींदार थे और एक बड़े जमींदार के तहसीलदार।जीवन में पहली बार कोई छपा हुआ कागज जो मैंने देखा था,वह अपनी जमींदारी की रसीद बही थी--उस पर  छपा था-‘मालिक बाबू शिवनंदन ंिसंह, साकिन -सखनौली टोले -भरहा पुर,जिला-सारण।’
रसीद के प्रत्येक पन्ने पर सारण के कलक्टर की मुहर लगी होती थी।
 बिक- बाक के अब तो हमारे संयुक्त परिवार के पास दस बीघा जमीन बच गयी है।
मेरे गांव के पृथ्वीनाथ त्रिपाठी मेरे बाबू जी के दोस्त थे।मुजफ्फर बी.बी.काॅलेजियट स्कूल में प्राचार्य थे।
मेरे राजेंद्र भैया मुजफ्फर पुर में उन्हीं के यहां रह कर पढ़ते थे।पर वे अधिक पढ़-लिख नहीं सके।दमा के मरीज थे।अब नहीं रहे।
मुझे और मेरे छोटे भाई नागेंद्र को बाबू जी खूब पढ़ाना चाहते थे।पढ़ाया भी।उसके लिए उन्हें जमीन भी बेचनी पड़ी।
गांव के बगल के एक मुखिया जी ने एक बार बाबू जी से कहा कि ‘सोना अइसन जमीन के बेच के लडि़कन के पढ़ावत बानी।इ सब पढ़ लिख के शहर में बस जइहन स।रउआ का मिली ?
बाबू जी बोले ,तोहरा ना बुझाई।सोना बेच के हीरा खरीदत बानी।
पढ़ जइहन स त संतोष होई।अच्छा लागी।आउर का चाहीं ?
हमरा खाए -पिए के काफी बा।
आज भी हमलोगों का परिवार एक ही साथ है।सब अपनी जिंदगी -नौकरी से संतुष्ट हंै।यह सब कुछ उनके ही कारण है जिन्होंने एक  किसान परिवार के स्वरूप की कायापलट  की आधारशिला रख दी थी।
  उन दिनों आसपास के किसी ऐसे किसान को मैं नहीं जानता था  जिसने अपनी जमीन बेच कर अपने बाल -बच्चों को पढ़ाया-लिखाया हो।
इस मामले में मेरे बाबू जी आदर्श थे।
रामायण पढ़ते थे।
मालगुजारी की रसीद कैथी भाषा में काटते थे।गांव -जवार की पंचायती में जाते थे।
हमें सिखाते थे कि केहू से उलझला के जरूरत नइखे।
छोट लकीर के सामने अपन बड़ लकीर खींच द।उ अपने छोट हो जाई।
बाबू जी अपना  फोटो खंींचवाने के खिलाफ थे।
पर आखिरी दिनों में  एक फोटो खींचवा लिया गया था।वह कहीं रखा हुआ  है।मिलेगा तो उसका भी कभी इस्तेमाल होगा।
  


 यहां थोड़े से अपवादों की बात नहीं कर रहा हूं।
जिस देश की मुख्य धारा की राजनीति व उसके अधिकतर राज नेताओं के समक्ष भ्रष्टाचार, जातिवाद,एकांगी  धर्मनिरपेक्षता   और वंशवाद के खिलाफ बोलना-लिखना  ईश-निंदा के समान हो  ।दूसरी ओर जहां सदाचार, ईमानदारी,जन सेवा  तथा  शुचिता के पक्ष में बोलने-लिखने  को बेवकूफी या कभी -कभी ‘अपराध’ की श्रेणी में रखा जाए,तो वहां की  लोकतांत्रिक व्यवस्था के  भविष्य को कितना सुरक्षित माना जाना चाहिए ? 
 संभव है कि यह सब अभी पूरी तरह खुलेआम नहीं हो रहा हो।पर, इसी तरह के कर्मों,बोलियों और मानसिकता  के संकेत मिलने शुरू हो चुके हैं। 
हां, इस बिगड़ती स्थिति के बावजूद अत्यंत थोड़े से अपवाद अब भी राजनीति में भी है और कुछ नेताओं में भी।क्या 1947 में किसी ने कल्पना की थी कि सौ साल पूरे होने से पहले ही इस देश की मुख्य धारा की राजनीति इतनी पतित हो जाएगी ?

रविवार, 17 जून 2018

पद के लिए विश्वास, सिद्धांत व पार्टी को तिलांजलि दे रहे नेता

विश्वास यानी सिद्धांतों के लिए पद को तिलांजलि देने वालों के इस देश में आज अनेक नेता पद के लिए विश्वास, सिद्धांत व पार्टी को तिलांजलि दे रहे हैं।

वे कल तक जिस दल व नेता पर अपार विश्वास करते थे, आज तनिक नहीं करते। इस देश की राजनीति में गिरावट का यह सबसे बड़ा लक्षण है। लक्षण तो और भी हैं।

जिस देश की राजनीति गिर जाती है, उसका कुपरिणाम समाज के अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ता है। पड़ भी रहा है। संभव है कि कुछ लोगों को अपने पुराने दलों से ‘ईमानदार वैचारिक मतभेद’ हों। यहां वैसे लोगों की बात नहीं की जा रही है।

पर, संकेत साफ हैं कि अधिकतर नेताओं के मामले में ऐसी बात नहीं है। वे या तो पद प्राप्ति न होने के कारण अपने मूल दल से खफा हो जाते हैं या फिर अगली बार टिकट न मिलने की आशंका में पार्टी छोड़ देते हैं।

यह कोई नया विकास नहीं है। पर इन दिनों ऐसे मामले बढ़े हैं। जबकि दल-दल विरोधी कानून चलन में है। इसलिए आम तौर पर दल-बदल चुनाव से कुछ महीने पहले होते हैं।

याद रहे कि दल-बदल विरोधी कानून की चपेट में आने के बाद सदन की सदस्यता चली जाती है। पर यह सजा सबक देने वाली साबित नहीं हो रही है। यदि कानून में ऐसा संशोधन हो जिसके तहत दल बदलुओं को चुनाव लड़ने से हमेशा के लिए रोक दिया जाए तो शायद फर्क आएगा।

खबर है कि बिहार के कम से कम चार मौजूदा सांसद 2019 में किन्हीं अन्य दल से चुनाव लड़ेंगे। यह संख्या बढ़ सकती है। पूरे देश को ध्यान में रखें तो अगले लोकसभा चुनाव तक दल बदलने वाले नेताओं की संख्या काफी होगी।

अब जरा कुछ पुराने नेताओं की चर्चा कर ली जाए जिन्होंने आजादी के बाद ऐसे मामले में भी स्वस्थ परंपरा कायम की थी। दरअसल वे आज के अधिकतर नेताओं की तरह निजी संपत्ति, वंश और अपनी जाति को आगे बढ़ाने के लिए चुनाव नहीं लड़ रहे होते थे। वे देश बनाने व राजनीति में स्वस्थ परंपरा कायम करने लिए राजनीति कर रहे थे।

कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के 13 सदस्य सन 1946 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गये थे। उनमें मशहूर समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव भी थे। आजादी मिलने के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने 1948 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं से कह दिया कि आप या तो कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता छोड़ दें या कांग्रेस पार्टी से अलग हो जाएं।

आचार्य नरेंद्र देव और उनके साथियों ने कांग्रेस छोड़ दी। जबकि, कांग्रेस आचार्य जी को अंतरिम सरकार में मंत्री बनाना चाहती थी। आचार्य जी
और उनके 12 साथी विधायकों ने नैतिकता के आधार पर उत्तर प्रदेश विधानसभा की सदस्यता भी छोड़ दी। हालांकि उन दिनों दल-बदल विरोधी कानून का अस्तित्व में नहीं था।

यानी दल छोड़ने के साथ सदन की सदस्यता जाने का कोई खतरा नहीं था। वे चाहते तो विधानसभा के सदस्य बने रह सकते थे। आचार्य जी और उनके 12 साथी विधायकों ने उस ‘सुविधा’ का लाभ नहीं उठाया।

उन्होंने कहा कि चूंकि जनता ने हमें कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में विधानसभा के लिए चुना था, इसलिए अब हमें सदन का सदस्य बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।

याद रहे कि 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का पटना में गठन हुआ था। उस पार्टी के प्रमुख नेताओं में आचार्य नरेंद्र देव, जय प्रकाश नारायण और डा. राम मनोहर लोहिया थे। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के लोग आजादी की लड़ाई कांग्रेस के झंडे तले लड़ रहे थे।

आचार्य जी और उनके साथी जब सदन की सदस्यता से इस्तीफा दे रहे थे तो उनके कई कांग्रेसी मित्रों ने भी ऐसा न करने की सलाह दी थी। कहा था कि आपके इस्तीफे के बाद जो उप चुनाव होंगे, उनमें आप लोग जीत नहीं पाएंगे। क्योंकि अभी काग्रेस के पक्ष में हवा है।

पर आचार्य जी नहीं माने। उन्होंने इस्तीफा दिया। उन 13 सीटों पर उपचुनाव हुए। एक सीट को छोड़ कर बाकी 12 सीटों पर वे हार गए। आचार्य जी भी उप चुनाव नहीं जीत सके। इतना ही नहीं ,उप चुनाव में आचार्य जी के खिलाफ कांग्रेस ने एक कट्टर हिंदूवादी बाबा राघव दास  को खड़ा कर दिया था। उनके चुनावी प्रतिद्वंद्वी ने यह प्रचार किया कि आचार्य जी नास्तिक हैं। इन्हें वोट मत दीजिए। आचार्य जी ने इस प्रचार का खंडन तक नहीं किया। क्योंकि वे नास्तिक थे। नतीजतन आचार्य जी  चुनाव हार गये। पर इस हार का आचार्य जी को कोई अफसोस नहीं था।

दरअसल वे यह स्वस्थ परंपरा कायम करना चाहते थे कि यदि कोई नेता पार्टी छोड़े तो सदन की सदस्यता से इस्तीफा दे दे। पर स्वार्थी राजनीति ने इस परंपरा को बाद में चलने नहीं दिया।

समय के साथ दल-बदल का घिनौना रूप सामने आने लगा। हरियाणा के एक विधायक गया राम का नाम ‘आया राम गया राम’ पड़ गया। क्योंकि उन्होंने कई बार दल बदले।

साठ के दशक में बिहार का एक मंत्री तो सदन में सरकारी फाइल के साथ ही प्रतिपक्ष में जा बैठा था। एक नेता ने तो अपने पूरे विधायक दल के साथ दल बदल कर लिया। मुख्य मंत्री बन बैठे।

ऐसे अनेक उदाहरण हैं। अंततः  दल बदल विरोधी कानून बना। पर वह कानून भी पूर्ण कारगर साबित नहीं हो पा रहा है। अब तो एक दल के सांसद अपने दल के नेतृत्व के खिलाफ आए दिन बयान देते रहते हैं।

अगले चुनाव के लिए वे दूसरे दल से टिकट का जुगाड़ कर रहे हैं। दूसरा सांसद मूल दल छोड़ देने के बाद भी किसी न किसी बहाने सदन की सदस्यता नहीं छोड़ना चाहता।

एकाधिक जनप्रतिनिधि अपनी लोभजनित पहल को जारी रखने के लिए अदालत तक का समय बर्बाद करते हैं।

हर आम चुनाव से पहले अनेक सांसदों व पूर्व सांसद या विधायकों-पूर्व विधायकों के बारे में अटकलों का बाजार गर्म रहता है कि पता नहीं उन्हें इस बार किस दल से टिकट मिलेगा। ऐसे में राजनीति की विश्वसनीय कम होती है। ऐसे दलबदलू नेता सत्ता में आते हैं तो आम तौर पर सरकार की विश्वसनीयता भी नहीं रह पाती। देश ऐसे ही चल रहा है। इस मामले में अधिकतर दलों की हालत एक जैसी है।

इसलिए लगता है कि दल-बदलुओं को सबक सिखाने लायक सजा का जब तक प्रावधान नहीं होगा, तब तक दल बदल होते रहेंगे।

सबक सिखने वाली सजा यही है कि जैसे ही तकनीकी तौर दल-बदल करने का आरोप साबित हो जाए, वैसे ही दल-बदलू की सदन की सदस्यता भी चली जाए। फिर उसे आगे भी कभी कोई चुनाव लड़ने लायक न रहने दिया जाए।

क्या ऐसा हो पाएगा ?

काम तो कठिन है। क्योंकि लगभग सारे दल समय -समय पर दल बदलुओं का स्वागत करते रहे हैं। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ तो राजनीति की साख गिरती ही चली जाएगी।

(मेरा यह लेख ‘राष्ट्रीय सहारा’ के 17 जून 2018 के अंक में प्रकाशित)

 


शनिवार, 16 जून 2018

  गया गैंग रेप की घटना जितनी शर्मनाक है,उतनी ही दुःखदायी भी।
जब राज्य में पोस्को में सजा का प्रतिशत सिर्फ तीन हो ,वहां बलात्कारियों का मनोबल तो बढ़ेगा ही।
लगता है कि बिहार में आपराधिक न्याय व्यवस्था की कमर टूट रही है।
यदि यह सब जारी रहा तो न तो राज्य में पूंजी निवेश होगा और न ही तेज विकास ।
 उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य सरकार तथा अन्य संबंधित लोग कुछ ऐसा उपाय करेंगे ताकि गया की घटना अंतिम साबित हो।
  पिता को बांध कर बेटी-पत्नी के साथ बलात्कार !
 किसके बूते कुछ राक्षस ऐसी हैवानियत करते हैं ?

शुक्रवार, 15 जून 2018

सिर्फ अपनी अंगुलियों से बड़े -बड़े ताले खोल देने वाले एक डाकू की कहानी

बिहार के अविभाजित सारण जिले का एक डाकू कोई भी ताला किसी भी औजार की मदद के बिना ही खोल देता था। ताला कितना भी मजबूत हो, उसके लिए सिर्फ उस डाकू की अंगुलियां ही पर्याप्त थीं। अदालत इस आरोप पर भरोसा नहीं कर के हर बार उस डाकू को सजामुक्त कर देती थी।

चम्पारण जिले के एक दूसरे व्यक्ति ने एक ऐसा ताला बनाया था जिसे उसके परिवार का सदस्य ही खोल सकता है। वह ताला अब भी मौजूद है और खोलने वाला भी। दोनों कहानियां पिछली सदी की हैं।

जगन्नाथ मंदिर के खजाने की चाभी खो जाने की ताजा खबर के साथ ही उन तालों की कहानियां याद आ गईं।

सारण की कहानी तो वहां के एक मशहूर वकील हेमचंद्र मित्रा ने लिखी है। ‘मेरे संस्मरण’ नाम से उनकी किताब अंग्रेजी में छप चुकी है। मित्रा छपरा बार एसोसिएशन के अध्यक्ष भी थे। मित्रा ने सन 1898 में छपरा जिला अदालत में वकालत शुरू की थी। वे एक नामी व तेजस्वी वकील थे। उन दिनों अविभाजित सारण जिले के सिवान अनुमंडल के एक डाकू पर यह आरोप था कि वह मजबूत से मजबूत ताले को भी अपनी अंगुलियों से ही खोल देता था। वह इस काम के लिए किसी चाभी या किसी अन्य औजार का इस्तेमाल नहीं करता था।


सिवान के एस.डी.ओ. ने उस पर सी.आर.पी.सी की धारा -110 के तहत कानूनी कार्रवाई कर रखी थी। उसने उस कार्रवाई के खिलाफ छपरा कोर्ट में अपील की। उसने ए.एच. मित्रा को अपना वकील रखा। कोर्ट में कई गवाहों ने बताया कि वह सिर्फ अपनी अंगुलियों से ताला खोल देता हैं। मित्र ने यह दलील पेश की कि कोई भी व्यक्ति सिर्फ अंगुलियों से कोई ताला खोल ही नहीं सकता है। अनेक गवाहों को गलत बताते हुए कोर्ट ने मित्र के तर्क को माना और डाकू को रिहा कर दिया।

मेरे संस्मरण में यह कहानी लिखते समय मित्र ने लिखा कि ‘ट्रूथ इज स्ट्रेंजर दैन फिक्सन।’ मित्र ने अपनी किताब में उस डकैत का नाम नहीं लिखा है। उन दिनों फोटो का आज जैसा चलन तो था नहीं। कई महीनों के बाद वह डाकू किसी अन्य केस के सिलसिले में वकील मित्र के यहां गया। मित्र ने उससे पूछा कि क्या इस आरोप में सच्चाई भी है कि तुम सिर्फ हाथ की अंगुलियों की मदद से ही ताले खोल देते हो ?

वकील ने यह सवाल इसलिए भी पूछा क्योंकि उन्हें लगा था कि सारे के सारे गवाह झूठ तो नहीं हो सकते। इस सवाल पर उस डाकू ने मुस्कराते हुए कहा कि यह आरोप सही है। उसने मित्र से कहा कि कोई ताला लाइए। मित्र ने लिखा है कि उन्होंने एक मजबूत ताले को बंद करके उस डाकू को दे दिया। उसे उसने अपने हाथ में लिया। मित्र लिखते हैं कि मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि जब उसने अपने हाथों से ही उस ताले को तुरंत खोल दिया। उसने मेरी आंखों के सामने ही यह काम इतनी जल्द कर दिया कि मैं कुछ समझ नहीं पाया।

पांच किलोग्राम का ताला, जिसे कोई खोल नहीं सकता था

कुछ इसी तरह की कहानी संदीप भास्कर ने हाल में टेलिग्राफ में लिखी है। सन 1940 में बेतिया के नारायण प्रसाद ने 5 किलोग्राम का एक ताला बनाया था। उस ताले की खूबी यह है कि उसे नारायण प्रसाद के सिवा कोई और नहीं खोल सकता था। बाद में नारायण प्रसाद ने यह हुनर अपने पुत्र लाल बाबू को सिखा दिया। अब वह अजूबा ताला सिर्फ लाल बाबू या उनके कोई परिवारीजन ही खोल सकते हैं। दरअसल उसे खोलने के लिए एक खास तरह की ‘हाथ की सफाई’ चाहिए। वह कौशल सिर्फ उस परिवार को ही हासिल है।

1940 में बेतिया के महाराजा ने एक प्रदर्शनी आयोजित की थी। नारायण प्रसाद ने उस ताले को  उस प्रदर्शनी में शामिल किया। महाराजा ने घोषणा की कि जो भी उस ताले को खोल देगा, उसे चांदी के 11 सिक्के दिए जाएंगे। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला। लाल बाबू के अनुसार महाराजा ने उस ताले को खरीदने की इच्छा जाहिर की। नारायण प्रसाद ने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया।

इतना ही नहीं 1972 में गादरेज इंडिया लिमिटेड ने उस ताले के पेटेंट का अधिकार मांगा। उसके बदले 1 लाख रुपए देने का आॅफर दिया। पर नारायण प्रसाद को यह स्वीकार नहीं था। दरअसल नारायण का परिवार उस हुनर को अपनी संतानों तक ही सीमित रखना चाहता है।

1972 में तत्कालीन मुख्यमंत्री केदार पांडेय ने जो चम्पारण जिले के ही मूल निवासी थे, ताला व राइफल कारखाना खोलने में मदद करने का इस परिवार को आश्वासन दिया था। पर वह पूरा नहीं हो सका। लालबाबू के अनुसार कुछ पैसे तो एकत्र किए गए, पर कारखाने के लिए वे काफी नहीं थे। आश्चर्य है कि बाद के मुख्यमंत्रियों का ध्यान भी उस परिवार के इस हुनर की ओर  नहीं गया!   

राजेंद्र काॅलेज (छपरा) : जरा याद कर लें प्राचार्य भोला प्रसाद सिंह को


18 दिसंबर, 1967 की बात है। बिहार के अनेक राजनीतिक तथा गैर राजनीतिक संगठनों ने राजभाषा संशोधन विधेयक के खिलाफ ‘बिहार बंद’ का आह्वान किया था। मैं उन दिनों संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े क्रांतिकारी विद्यार्थी संघ की सारण जिला शाखा का सचिव था। हम छात्रों ने इस अवसर पर छपरा में जुलूस निकालने का निर्णय किया था। उस दिन मैं सुबह सात बजे ही एक रिक्शे पर माइक लेकर राजेंद्र कालेज के गेट पर पहुंच गया।



मैं छात्रों से क्लास का बहिष्कार करके जुलूस में शामिल होने की अपील कर रहा था। जिस दिन काॅलेज में असामान्य स्थिति रहती थी, उस दिन राजेंद्र कालेज के प्राचार्य भोला प्रसाद सिंह समय से पहले ही काॅलेज पहुंच जाते थे। उस दिन भी पहंुच गए थे।

वे गेट पर मेरे पास आए और मुझसे कहा कि ‘तुम यहां से माइक लेकर चले जाओ।’ जब मैंने हटने से इनकार कर दिया तो उन्होंने कहा कि ‘तुमसे मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी।’ मैंने कहा कि मैं आज आपका हुक्म नहीं मानूंगा। दरअसल मेरे साथ छात्र थे और उस काॅलेज के प्रो. राम श्रेष्ठ मिश्र का भी मुझे समर्थन हासिल था।

उसके बाद काॅलेज के अहाते में छात्रों -प्राध्यापकों की एक सभा बुलाई गयी। कई छात्रों और प्राध्यापकों ने जुलूस के खिलाफ अपनी राय जाहिर की। अंत में प्रो. रामश्रेष्ठ मिश्र बोलने को खड़े हुए। वे बोल ही रहे थे कि बगल के एक वृक्ष से एक काग कांव- कांव करता हुआ उड़ा। इस पर भोला बाबू ने कहा कि ‘ देखो काग बोल रहा है। आज जरूर कुछ बुरा होगा।’

विरोध के बावजूद हमने जुलूस निकाला। सैकड़ों छात्र जुलूस में शामिल हो गए। हमारा संगठन मजबूत था। पर इतने बड़े जुलूस की मुझे भी उम्मीद नहीं थी। मुझे कुछ शंका होने लगी। संभवतः भोला बाबू को यह लगता था छात्रों की जमात को मैं संभाल नहीं पाऊंगा।

जब जुलूस के रास्ते में नये -नये युवक जुड़ने लगे तो  मेरी शंका बढ़ गयी। क्योंकि वे अनजान चेहरे थे। लगा कि जुलूस के जरिए तोड़-फोड़ करवाने की कोई बाहरी राजनीतिक साजिश थी। याद रहे कि उन दिनों बिहार में महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी सरकार चल रही थी। खैर, भोला बाबू की आशंका सच होने वाली थी और हो ही गयी। जुलूस छपरा कोर्ट परिसर स्थित स्टेट बैंक के पास पहुंचा। वहां जुलूस में शामिल कुछ युवक अनियंत्रित हो गए। बैंक के गार्ड ने गोली चला दी। एक राहगीर मारा गया। जुलूस तितर -बितर हो गया।

हालांकि इसको लेकर किसी छात्र की गिरफ्तारी नहीं हुई। दरअसल उस जुलूस का आयोजन मैंने ही किया था। संभवतः भोला बाबू को यह लग गया था कि मेरे जैसे अपरिपक्व व्यक्ति के लिए जुलूस में शामिल छात्रों -युवकों को नियंत्रित कर पाना संभव नहीं होगा। उन्हें ठीक ही लगा था।

खैर, दूसरी घटना कुछ समय बाद की है।

16 जनवरी, 1968 को बिहार विधानसभा भवन के समक्ष संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का प्रदर्शन होने वाला था। उससे दो दिन पहले हमने सारण जिले में कुछ नेताओं के साथ सघन भ्रमण कर लोगों को पटना पहुंचने का संदेश दिया था। थककर चूर हो गया था। जुकाम हो गया।

इसलिए मैं खुद पटना नहीं जा सका। 16 जनवरी की शाम में जब भोला बाबू ने मुझे काॅलेज परिसर में देखा तो पूछा कि ‘तुम लोगों का प्रदर्शन है न। तुम यहां हो ?’ उन्होंने साथ ही यह भी कहा कि ‘तुम जीवन में कुछ नहीं कर सकते। कभी नेता नहीं बनोगे।’

यह एक अभिभावक की फटकार थी। वे मुझे राजनीति में आगे बढ़ते देखना चाहते थे। मेरी बी.एससी. परीक्षा का रिजल्ट हो चुका था। मैं अंक पत्र लेने काॅलेज गया था। भोला बाबू अपने कक्ष के सामने खड़ा होकर उन कुछ छात्रों को समझा रहे थे जो छात्रसंघ का चुनाव कराने की जिद पर अड़े थे। मैं भोला बाबू के पीछे से गुजरा। थोड़ा आगे बढ़ने पर उन्होंने मुझे वापस बुलाया। पूछा, ‘पास कर गए?’

जब मैंने ना कह दी तो उन्होंने हड़ताली लड़कों का ध्यान मेरी ओर खींचते हुए अभिनय की मुद्रा में कहा कि ‘देखो, यही था जो फाटक पर माइक लेकर कहता था, साथियों साथ दो। और आज जब फेल हो गया तो मुझसे मिले बिना ही जा रहा है। तुम लोगों की भी यही हालत होगी।’ फिर मेरी ओर मुखातिब होकर उन्होंने कहा कि ‘कोई बात नहीं। फिर परीक्षा दो। मैं तुम्हारी मदद करूंगा।’ दरअसल मैं फेल कैसे नहीं करता! पढ़ाई-परीक्षा मेरी प्राथमिकता से काफी दूर चली गयी थी।

शिक्षक के रूप में उनके अतुलनीय योगदान की चर्चा किए बिना बात पूरी नहीं हो सकती। भोला बाबू केमिस्ट्री पढ़ाते थे। मैं विज्ञान का छात्र होने के कारण उनका क्लास करता था। राजेंद्र कालेज में विज्ञान संकाय में छात्र बहुत थे। इसलिए भोला बाबू सबको एक साथ शामियाना में बैठाकर पढ़ाते थे। रसायन शास्त्र जैसे निरस और जटिल विषय को इस तरह से मनोरंजक ढंग से पढ़ा देते थे कि उसे फिर घर  जाकर पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। लगातार घंटों तक पढ़ाते जाना उनके ही वश की बात थी। हमें हमेशा उनके क्लास की प्रतीक्षा रहती थी।

बी.एससी. फेल कर जाने के बाद मैं पटना रहने लगा था। समाजवादी साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकमुख’ में काम करने लगा। उसके संपादक प्रो. देवी दत्त पोद्दार थे। इस बीच मेरे एक शुभचिंतक ने मुझे सलाह दी कि पहले तुम गे्रजुएट तो हो जाओ। बाद में जीवन में जो करना हो, करो। मुझे बात अच्छी लगी।

मैं गांव लौट गया। सारण जिला संसोपा के आॅफिस सेके्रट्री के रूप में काम करने लगा। मुझे हर माह सौ रुपए मिलते थे। साथ ही राजेंद्र काॅलेज में ही हिस्ट्री आॅनर्स में दाखिला करा लिया। आॅनर्स के साथ पास भी कर गया।
इस बीच भोला बाबू से मेरा पहले जैसा संपर्क नहीं रहा। गांव से रोज ट्रेन से छपरा जाता था। क्लास करना और पार्टी आॅफिस में काम करना। इसी में समय बीत जाता था।

इस बीच 26 अप्रैल, 1971 को यह दुःखद खबर मिली कि भोला बाबू की काॅलेज परिसर में ही किसी ने हत्या कर दी। मेरे लिए तो सदमे वाली खबर थी। मैंने ‘सारण संदेश’ में उन पर संस्मरणात्मक लेख लिखा था।

किन्हीं और के लिए भोला बाबू जो कुछ भी हों, पर मेरे लिए तो भोला बाबू अभिभावक तुल्य थे। मैं उनके शिक्षक रूप से सर्वाधिक प्रभावित था। कमेस्ट्री का वैसा बढि़या टीचर मैंने नहीं देखा।

(नोट-आपने ध्यान दिया होगा। मैं उन शिक्षकों के बारे में फेसबुक पर बारी-बारी से लगातार लिख रहा हूं जिन्होंने मुझे किसी न किसी रूप से प्रभावित किया। या जिनके बारे में पढ़कर -जानकर प्रभावित हुआ हूं। अगली बार किन्हीं अन्य गुरू देव के बारे में लिखूंगा।)

यहां थोड़े से अपवादों की बात नहीं कर रहा हूं

जिस देश की मुख्य धारा की राजनीति व उसके अधिकतर राज नेताओं के समक्ष भ्रष्टाचार, जातिवाद,एकांगी  धर्मनिरपेक्षता   और वंशवाद के खिलाफ बोलना-लिखना  ईश-निंदा के समान हो । दूसरी ओर जहां सदाचार, ईमानदारी,जन सेवा  तथा  शुचिता के पक्ष में बोलने-लिखने  को बेवकूफी या कभी -कभी ‘अपराध’ की श्रेणी में रखा जाए,तो वहां की  लोकतांत्रिक व्यवस्था के  भविष्य को कितना सुरक्षित माना जाना चाहिए ? 

 संभव है कि यह सब अभी पूरी तरह खुलेआम नहीं हो रहा हो। पर, इसी तरह के कर्मों, बोलियों और मानसिकता  के संकेत मिलने शुरू हो चुके हैं। 
हां, इस बिगड़ती स्थिति के बावजूद अत्यंत थोड़े से अपवाद अब भी राजनीति में भी है और कुछ नेताओं में भी। क्या 1947 में किसी ने कल्पना की थी कि सौ साल पूरे होने से पहले ही इस देश की मुख्य धारा की राजनीति इतनी पतित हो जाएगी ?

मंगलवार, 12 जून 2018

दोहरे मापदंड की एक और मिसाल

संघ परिवार को लेकर कांग्रेसियों-कम्युनिस्टों का एक बार फिर दोहरा रवैया सामने आया है। तथाकथित ‘सेक्युलर’ जमात का कोई बड़ा नेता जब आर.एस.एस. से संपर्क साधता है तो उसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठती। पर कोई दूसरा नेता जब संघ मुख्यालय जाता है तो हाय -तौबा मचा दिया जाता है। कहा जाता है कि संघ परिवार को प्रतिष्ठा दी जा रही है। उसे ताकतवर बनाया जा रहा है। इससे भाजपा ताकतवर होती है।

जबकि संघ परिवार के ताकतवर बनने के कारण कुछ और होते हैं। दरअसल तथाकथित सेक्युलर जमात की कमजोरियों -विफलताओं का लाभ संघ परिवार को मिलता रहा है। पर सेक्युलर जमात उन कमजोरियों पर काबू पाने की जगह आरोप-प्रत्यारोप से ही अपना काम निकाल लेना चाहती है। इन दिनों उनका प्रयास देश में महागठबंधन बनाकर संघ परिवार यानी भाजपा यानी राजग को पराजित करने का है। संभव है कि वे उसमें सफल भी हो जाएं। पर क्या वह जीत स्थायी होेगी?

हाल के कुछ उपचुनाव नतीजों ने सेक्युलर जमात का मनोबल बढ़ाया है। पर, जब तक सेक्युलर जमात अपनी कमजोरियों पर काबू पाने की कोशिश नहीं करेगी तब तक उसे कोई स्थायी राजनीतिक लाभ नहीं मिलेगा। इस बीच वह जमात आरोप -प्रत्यारोप से ही अपना काम चला लेना चाहती है। पर उन आरोपों में भी दोहरा मापदंड नजर आता है।  

एक राजनीतिक दल जब भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाता है तो उसे बुरा नहीं माना जाता।पर दूसरे दल को ऐसी छूट देने को सेक्युलर जमात तैयार ही नहीं है।

नेहरू, इंदिरा और लाल बहादुर शास्त्री 

यदि 1963 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को बुलाया था तो कम्युनिस्टों व कांग्रेसियों के लिए वह कोई हर्ज की बात नहीं थी। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि बुलाने की खबर ही सही नहीं है। यदि नहीं बुलाया गया था तो बुलाने की उस खबर का कांग्रेस खंडन क्यों नहीं करती ? जबकि खुद जवाहर लाल नेहरू ने तब कहा था कि ‘मेरी पार्टी का संघ के साथ वैचारिक मतभेद हो सकता है, पर जब देश संकट में हो तो हम सबको एकजुट होकर काम करना चाहिए।’ बाद के वर्षों में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने दिल्ली की ट्राफिक व्यवस्था के संचालन का भार संघ को दिया था तो भी कोई एतराज नहीं हुआ।

पर, जब पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी इस महीने नागपुर गए तो माकपा महासचिव सीताराम येचुरी को इस बात से सख्त एतराज था कि प्रणव जी ने वहां गांधी हत्याकांड की चर्चा क्यों नहीं की! कांग्रेस के कुछ नेताओं ने पहले तो उन्हें जाने से ही रोकने की कोशिश की। नहीं माने तो उन लोगों ने कुछ आशंकाएं भी जाहिर कीं। पर, प्रणव मुखर्जी वहां से जब एक संतुलित भाषण देकर आए तो कांग्रेसी ठंडे पड़ गए। पर उनमें से कुछ कांग्रेसियों के मन में यह मलाल फिर भी रहा कि वे गए ही क्यों ?  

ऐसा ही मलाल उन्हें इंदिरा गांधी को लेकर नहीं हुआ था जब 1977 में संघ परिवार के निमंत्रण पर तत्कालीन प्रधानमंत्री ने विवेकानंद राॅक मेमोरियल का उद्घाटन किया था। तब किसी कम्युनिस्ट या कांग्रेसी नेता ने संघ की पृष्ठभूमि को लेकर कोई विवाद खड़ा करने की कोशिश नहीं की।
यह नहीं कहा गया कि इंदिरा जी ने वहां गांधी हत्याकांड का मामला क्यों नहीं उठाया।

जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी को लेकर कोई कांग्रेसी या कम्युनिस्ट आज भी सवाल नहीं उठा रहा हैं। इस पर भी कोई चर्चा नहीं है कि देश के सामने जो संकट उस समय था, उतना ही बड़ा संकट आज है या नहीं।

पर प्रणव मुखर्जी की नागपुर यात्रा पर तरह -तरह की बातें की गयी। कुछ कम्युनिस्ट नेता अब भी मीन -मेख निकालने में लगे हैं। एक बड़े कम्युनिस्ट नेता यह उम्मीद कर रहे थे कि जिसके आमंत्रण पर जाओ, उसके यहां जाकर उसे ही खरी -खोटी सुना कर वापस आ जाओ। कम से कम प्रणव मुखर्जी की यह संस्कृति नहीं रही है।

इससे पहले भी संघ को लेकर कई कम्युनिस्ट नेता समाजवादियों पर भी आरोप लगाते रहे हैं।
आरोप बे सिर पैर का है। क्योंकि कम्युनिस्टों की कसौटी मानी जाए तो ऐसा ही आरोप खुद उन पर भी है। उनका आरोप यह रहा है कि सोशलिस्टों ने ही संघ परिवार के लिए इस देश में राजनीतिक जमीन तैयार की। यानी संघ -जनसंघ-भाजपा को मजबूत किया। 

इस संबंध में भी उनका तर्क यह है कि जनसंघ और बाद में भाजपा के साथ मिली -जुली सरकार बनाकर सोशलिस्टों ने संघ परिवार को समाज मेंं प्रतिष्ठा भी दिला दी। उससे पहले उसे राजनीतिक तौर पर अछूत माना जाता था।

दरअसल 1966-67 में प्रतिष्ठा तो सी.पी.एम. के नेताओं को भी मिली जो 1962 में अपनी चीनपक्षी रवैये के कारण अलग -थलग पड़ गए लगते थे। दरअसल 1967 के आम चुनाव के बाद में देश के सात राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बन गयीं। बाद में अन्य दो राज्यों में कुछ कांग्रेसी विधायकों के दलबदल के कारण कांग्रेसी सरकारें गिर गयीं। वहां भी गैर कांग्रेसी सरकारें बन गयीं।

बिहार और उत्तर प्रदेश के मंत्रिमंडलों में एक साथ सी.पी.आई. और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य शामिल किए गए थे। उन सरकारों में जनसंघ के प्रतिनिधि भी थे। देश में सोशलिस्टों व जनसंघियों ने पहली बार सत्ता में हिस्सेदारी की थी। पर उन मंत्रिमंडलों में सी.पी.आई. के प्रतिनिधि भी तो थे। यदि सोशलिस्टों ने इस तरह जनसंघ को बढ़ाया और सम्मानित किया तो उसका श्रेय सी.पी.आई. को भी तो जाता है। आखिर वे उन मंत्रिमंडलों में क्यों शामिल हो गए थे जिनमें जनसंघ भी था ?

पर सी.पी.आई. के नेता खुद को उसके लिए जिम्मेदार नहीं मानते। दोहरे मापदंड का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है ? याद रहे कि 1966 में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कुछ गैर कांग्रेसी दलों को एक साथ आने पर राजी किया था। उनका तर्क था कि गैर कांग्रेसी दलों के आपस में मिलने के सिवा और कोई उपाय नहीं है। क्योंकि कांग्रेस प्रतिपक्ष के वोट के बंटवारे का लाभ उठाकर चुनाव—दर चुनाव सत्ता हासिल करती जा रही है। 

परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से भाजपा के साथ थे कम्युनिस्ट

यही नहीं, सन 1989 में जब केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी तो भाजपा और कम्युनिस्ट उस सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे थे। क्या उससे भाजपा की ताकत नहीं बढ़ी ? यानी परोक्ष या प्रत्यक्ष ढंग से भाजपा के साथ काम करने के बावजूद  कम्युनिस्ट खुद को जिम्मेदार नहीं मानते, पर दूसरे दल को जिम्मेदार जरूर ठहरा देते हैं।

सन 2014 के लोकसभा चुनाव में राजग की भारी जीत के बाद कांग्रेस ने पूर्व रक्षामंत्री ए.के. एंटोनी के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई। हार के कारणों की जांच का भार उसे दिया गया। जून, 2014 में एंटोनी ने अन्य बातों के साथ-साथ यह भी कहा कि ‘मुस्लिम तुष्टिकरण कांग्रेस की हार का मुख्य कारण है। जनता में संतुलित धर्म निरपेक्षता वाली हमारी साख अब नहीं रही।’

जो बात एंटोनी ने नहीं कही, वह यह है कि राजग खासकर भाजपा के उभार का दूसरा बड़ा कारण मनमोहन सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे। याद रहे कि अपने शासनकाल में जांच के बदले मनमोहन सरकार उन आरोप को गलत बताती रही। इससे जनरोष बढ़ा जिसका लाभ सबसे बड़े विपक्षी गठबंधन यानी राजग को मिला। यानी राजग की जीत में राजग से अधिक यू.पी.ए. सरकार का ‘योगदान’ था।

हाल के दिनों में भी कुछ नेता यह कहते रहे कि यह सब सोशलिस्टों की ही कारस्तानी है।
अधिकतर राजग विरोधी दल आज भी उन दो प्रमुख कारणों को समाप्त करने के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं जो 2014 में हार के कारण बने थे। इसके बदले वे दलीय गठजोड़ पर जोर दे रहे हैं।यानी गुण के बदले मात्रा पर जोर है। पता नहीं, यह कितना कारगर व स्थायी साबित होगा? 

पर आम धारणा यही है कि अपनी हर विफलता के लिए किसी और दोषी ठहराकर कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता।

(मेरे इस लेख का संपादित अंश 10 जून 2018 के दैनिक जागरण में प्रकाशित)

उपचुनाव नतीजों से आगे के संकेत

बिहार में आप यदि किसी स्कूली छात्र से भी पूछेंगे कि जिस चुनाव क्षेत्र में 70 प्रतिशत अल्पसंख्यक आबादी हो तो वहां से कौन पार्टी जीतेगी तो वह बिना देर किए बता देगा-राजद।

जोकी हाट में यही हुआ है। वहां 70 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। इसलिए जोकी हाट विधानसभा क्षेत्र में राजद उम्मीदवार की जीत को किसी लालू वाद से कोई संबंध नहीं है। वैसे कोई कुछ भी कहे, पर पूरे बिहार में मुस्लिम और यादव मतदाताओं के अधिकतर वोट उसे ही मिलेंगे जिस उम्मीदवार पर लालू प्रसाद की मुहर होगी। चाहे राजद गठबंधन जितनी सीटें जीते।

राज्य के जिन चुनाव क्षेत्रों में यादव-मुस्लिम वोटर मिलकर निर्णायक होंगे, वहां अगले किसी भी चुनाव में राजद या उसके सहयोगी दल ही जीतेंगे। यह बात पिछले कई चुनावों मेंं भी साबित हुई है। इक्के—दुक्के अपवादों की बात और है। इस बार भी जोकीहाट में यह साबित हुई।

जोकीहाट में जीत के बाद राजद का यह कहना कि यह लालूवाद की जीत है, एक राजनीतिक बयानबाजी से कुछ अधिक नहीं। इसे एक नया जुमला भी कह सकते हैं। इसी तरह की बयानबाजी बिहार में हुए गत मार्च के उपचुनाव के बाद भी हुई थी।

मार्च में अररिया लोकसभा चुनाव क्षेत्र और भभुआ तथा जहानाबाद विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव हुए थे। खाली होने से पहले जो सीट जिसके पास थी, वह उस दल को मिली। यानी न तो किसी की हार हुई न किसी की जीत। फिर भी उस रिजल्ट को भी कुछ इसी तरह परिभाषित किया गया। हालांकि मार्च उपचुनाव के रिजल्ट का सघन विश्लेषण किया जाए तो उससे राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन को खुश होने का कोई कारण नहीं था। 

यदि कोई दलीय गठबंधन आठ में से पांच विधानसभा सीटें जीत जाए तो उसे खुशी मनानी चाहिए या उस अन्य गठबंधन को खुश होना चाहिए जिसे उनमें से सिर्फ तीन ही सीटें ही मिलीं ?

अररिया लोकसभा उपचुनाव नतीजे को विस्तार से समझिए। राज्य में अररिया लोकसभा और भभुआ तथा जहानाबाद विधानसभा क्षेत्रों के लिए 11 मार्च को उपचुनाव हुए थे।

 राजद ने अररिया और जहानाबाद सीटें जीतीं।पहले भी ये सीटें उसी के पास थीं। भाजपा ने भी अपनी भभुआ सीट बचा ली।

 2014 के लोक सभा चुनाव में अररिया से राजद के तसलीमुद्दीन विजयी हुए थे। 2015 के विधान सभा चुनाव में भभुआ

से भाजपा और जहानाबाद से राजद की जीत हुई थी । राजद,जदयू और कांग्रेस ने महा गठबंधन बना कर 2015 को बिहार विधान सभा का चुनाव लड़ा था। 

मार्च के  उप चुनावों के नतीजे के गहन अध्ययन से राजग को फायदा मिलता नजर आया। अररिया लोक सभा चुनाव क्षेत्र के भीतर छह विधान सभा क्षेत्र हैं। उप चुनाव में छह में से चार सीटों पर राजग की बढ़त रही और सिर्फ दो सीटों पर राजद को बढ़त मिली। इसमें भभुआ को मिला दें तो राजग  कुल पांच विधान सभा सीटों पर राजद से आगे रहा।

    हां, मार्च के उप चुनाव नतीजों से यह बात साफ हुई थी कि  राजद के पक्ष में मुस्लिम -यादव समीकरण के मतों की एकजुटता पहले की अपेक्षा बढ गय़ी। मतदान में आक्रामकता भी बढ़ी। हालांकि अररिया लोक सभा उप चुनाव में अल्पसंख्यक मतदाताओं के ध्यान में नरेंद्र मोदी अधिक थे।अगले लोक सभा चुनाव में भी वैसा ही रहने की उम्मीद है।

   नरेंद्र मोदी की लहर के बावजूद सन 2014 के लोक सभा चुनाव में मुस्लिम-यादव  बहुल क्षेत्र अररिया से राजद के तसलीमुद्दीन विजयी हुए थे। तसलीमुद्दीन के निधन से सीट खाली हुई थी। तसलीमुद्दीन के पुत्र सरफराज आलम मार्च में  राजद के उम्मीदवार थे।उप चुनाव में सरफराज विजयी रहे।

सरफराज हाल तक जदयू विधायक थे।उन्होंने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया। उसके बाद राजद की ओर अपने पिता की सीट पर उम्मीदवार बने। अररिया लोक सभा क्षेत्र के भीतर पड़ने वाले जोकीहाट और अररिया विधान सभा चुनाव क्षेत्रों में राजद को भारी बढ़त मिली।

दशकों से वह तसलीमुददीन के प्रभाव वाला इलाका रहा। तसलीमुददीन भी कई बार सांसद व विधायक रहे। केंद्र में राज्य मंत्री भी थे। फिर भी गत लोक सभा उप चुनाव में अररिया के  चार विधान सभा खंडों में भाजपा के उम्मीदवार प्रदीप कमार सिंह को बढ़त मिल गयी।

    इसके अलावा भभुआ विधान सभा चुनाव क्षेत्र में भाजपा की जीत से राजग बिहार में चुनावी भविष्य के प्रति आशान्वित हुआ।क्योंकि वहां जातियों की दृष्टि से लगभग मिलीजुली  आबादी है।

 यानी भभुआ विधान सभा क्षेत्र तथा अररिया लोक सभा चुनाव क्षेत्र के नीचे पड़ने वाले चार विधान सभा खंडों के चुनाव नतीजे को देखकर यह तब भी कहा गया   कि बिहार की राजग सरकार से आम लोगों का अभी मोहभंग नहीं हुआ है।इसलिए कि ऐसी ही मिलीजुली आबादी वाले बिहार में अधिकतर विधान सभा क्षेत्र हैं।मिलीजुली आबादी यानी  जातीय दृष्टि से भी मिली जुली आबादी वाला चुनाव क्षेत्र । 

  हां, राजद के वोट बैंक यानी एम.वार्इ. वर्चस्व वाले चुनाव  क्षेत्र  अररिया और जहानाबाद में राजद उम्मीदवारों के पहले की अपेक्षा बेहतर प्रदर्शन को लेकर तरह -तरह के अनुमान लगाए गए।क्या लालू प्रसाद के जेल जाने से  मतदाताओं के एक वर्ग में बढ़ी सहानुभूति के कारण उनके वोट बैंक में एकजुटता और आक्रामकता बढ़ी  ?

क्या दिवंगत जन प्रतिनिधियों के परिजन के लिए मतदाताओं में भारी सहानुभूति के कारण वोट बढ़े  ? या कोई और बात रही ? पर सवाल यह भी है कि क्या अगले किसी चुनाव में बिहार के वैसे चुनाव क्षेत्रों में भी राजद को बढ़त मिलेगी जहां यादव-मुस्लिम वोट निर्णायक नहीं हैं ?

यदि ऐसा हुआ तो माना जाएगा कि वह लालू वाद की जीत है।

लाूल प्रसाद की राजनीतिक ताकत का अनुमान लगाने के लिए दो पिछले चुनावों की चर्चा प्रासंगिक होगी। राजद और लोजपा ने 2010 में   बिहार विधान सभा चुनाव मिल कर लड़ा था। 243 सदस्यीय विधान सभा में इन्हें 25 सीटें आईं।

चारा घोटाला केस में सन 2013 में लालू प्रसाद को पहली बार सजा हुई थी।
सजा की घोषणा के तत्काल बाद राजद नेताओं ने कहा था कि हम अब लोक सभा की सभी 40 सीटें जीत लेंगे।क्योंकि जनता लालू प्रसाद को परेशान करने का बदला लेगी।

पर 2014 के लोक सभा चुनाव में राजद को बिहार में सिर्फ 4 सीटें ही मिलीं। हाल के उप चुनाव नतीजे भी पूरे बिहार में राजद के लिए कोई खास उम्मीद नहीं जगा रहे हैं। वैसे दल का हौसला बनाये रखने के लिए बड़े -बड़े दावे तो हर दल करता ही  रहता  है।यदि राजद भी कर रहा है तो उसमें किसी कोई एतराज नहीं होना चाहिए।

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जोकीहाट विधान सभा उप चुनाव रिजल्ट--2018

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शाहनवाज आलम -राजद- 81240

मुर्शीद आलम---जदयू--40016

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अररिया लोक सभा क्षेत्र--उप चुनाव-मार्च,2018

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 विधान सभा क्षेत्र--  राजग --- महागठबंधन

नरपत गंज--        88349 ---- 69697

रानी गंज ----     82004 ---- 66708

फरबिस गंज         93739 -----74498

सिकटी-------   87070 ----- 70400

जोकी हाट-----   39517------120765

अररिया------    56834 ----- 107260

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(3 जून 2018 को हस्तक्षेप -राष्ट्रीय सहारा -में प्रकाशित)


    

  



कलियुग : जब राजा ही अपनी प्रजा को लूटेगा


महाभारत काल में अर्जुन के पोते परीक्षित को वेद व्यास के पुत्र शुकदेव ने जो कथा सुनाई थी, वह शुक सागर नामक प्राचीन ग्रंथ में संग्रहीत है। शुक देव मुनि राजा परीक्षित को बताते हैं कि कलियुग में क्या- क्या होने वाला है। तब कैसा समाज होगा और राजा कैसे -कैसे होंगे। 

लगे हाथ उन्होंने यह भविष्यवाणी भी कर दी थी, एक समय ऐसा भी आयेगा, जब राजा ही अपनी प्रजा को लूटेगा। मध्य युगीन राजाओं के बारे में तो ऐसा नहीं सुना गया कि वे अपनी ही प्रजा को लूटते थे। यह जरूर सुना गया कि उनमें से कुछ शासक पराजित राज्य की प्रजा को जरूर लूटते थे। पर, आधुनिक लोकतांत्रिक भारत के कुछ शासकों के बारे में जरूर यह खबर आती रहती है कि किस तरह वे अपनी ही जनता के विकास और कल्याण के लिए आवंटित पैसों को लूट कर अपने घर भर रहे हैं।

पर्यावरण दिवस के अवसर पर निराला बिदेसिया ने गत 5 जून को प्रभात खबर में लिखा है कि ‘आज जिन विषयों को लेकर दुनिया चिंतित है, उन सबकी चर्चा वेद व्यास ने महाभारत में हजारों साल पूर्व ही की थी। युधिष्ठिर मार्कण्डेय ऋषि से कलियुग में प्रलय काल और उसके अंत के बारे में जानना चाहते हैं।

इसका उत्तर मार्कण्डेय ऋषि देते हैं - ‘कलियुग के अंतिम भाग में प्रायः सभी मनुष्य मिथ्यावादी होंगे, उनके विचार और व्यवहार में अंतर आएगा। धरती पर मनुष्य अपनी करनी से प्रलय की संभावना बनाएगा।................।’

निराला ने थोड़ा लंबा लिखा है। अच्छा लिखा है। जिन्हें इच्छा हो, महाभारत और शुक सागर फिर से खुद ही पढ़ लें।

इन दिनों सोशल मीडिया पर आ रही सूचनाओं से कई अच्छी चीजों का पता चल रहा है तो कुछ लोगों की इस मनोभावना का भी पता चलता है कि उन लोगों को बेहतर समाज बनाने में योगदान करने में कोई रूचि नहीं है। उनकी प्राथमिकताएं अलग हैं।

शायद हमारे प्राचीन ऋषियों ने पहले ही यह सब सूंघ लिया था।