सोमवार, 31 जनवरी 2022

      कन्नड़ लेखक अनंतमूतर््िा तो पलट

      गए थे,क्या मुनव्वर 

     राणा भी पलटी मारेंगे  ?

  ’  ...........................................

       सुरेंद्र किशोर

     .....................................

कन्नड़ लेखक डा.यू.आर.अनंतमूर्ति ने 19 सितंबर, 2013 को कहा था कि ‘यदि नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री बन जाएंगे तो मैं देश छोड़ दूंगा।’

  पर, अप्रैल 2014 आते -आते अनंतमूर्ति को जब यह लग गया कि मोदी सत्ता में आ ही जाएंगे तो उन्होंने अपने बयान में संशोधन कर लिया।

 उन्होंने कहा कि मैंने भावना में आकर वह बयान दे दिया था।

मैं देश नहीं छोड़ंूगा।

  हालांकि उन्होंने 2014 के मध्य में दुनिया ही छोड़ दिया।

...........................................

अनंत मूर्ति तो राजनीतिक विचारधारा की भावना के तहत मोदी के खिलाफ थे।

किंतु तालिबान के समर्थक मुनव्वर राणा तो धार्मिक भावना से ओतप्रोत लगते हैं।

वे योगी आदित्यनाथ के सख्त खिलाफ हैं।

मुनव्वर राणा ने कल दूसरी बार कहा कि यदि योगी फिर सत्ता में आ गए तो मैं यू.पी छोड़ दूंगा।

  अफगानिस्तान के तालिबानियों के सत्ता में आने पर खुशी मनाने वाले मुनव्वर राणा लगता है कि धार्मिक भावना से प्रेरित हैं।

  शायद वे अनंतमूर्ति की तरह अपना प्रण भंग नहीं करेंगे।

चुनाव रिजल्ट के बाद मुनव्वर साहब की खोज -खबर जरूर लीजिएगा।

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  30 जनवरी 22


 भारतीय संविधान का ‘‘पहला संशोधन’’ अघोषित था,

उसे आप संशोधन नंबर -जीरो कह सकते हैं।

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    सुरेंद्र किशोर

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भारतीय संविधान का पहला संशोधन अघोषित था।

वह संशोधन शब्दों का नहीं, बल्कि चित्राकंनों का था।  

   मशहूर चित्रकार नंदलाल बसु बिहार के ही थे।

उन्होंने ही संविधान की प्रथम काॅपी पर चित्रांकन किए थे।

अंग्रेजी -हिन्दी संस्करणों की प्रथम काॅपी मेरे सामने है।

  हाल का संस्करण भी मेरे पास है।

संविधान के मूल संस्करण में राम, कृष्ण, बुद्ध, गांधी,सुभाष चंद्र बोस आदि के चित्रांकन दर्ज हैं।

  ये चित्र हजार-हजार शब्दों के प्रतिनिधि चित्र थे।

वे चित्र एक तरह से भारत की आत्मा का भी प्रतिनिधित्व करते थे।

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वे चित्र संविधान निर्माताओं को प्रिय थे।

पर, बाद के शासकों को वह सब मंजूर नहीं था।

अतः बाद के संस्करणों से उन चित्रों को विलोपित कर दिया गया।

उसे विलोपित करने का निर्णय किसका था ?

जाहिर है कि प्रथम प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू का था।

दरअसल वे चित्र नेहरू के ‘‘आइडिया आॅफ इंडिया’’ से मेल नहीं खाते थे।

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26 जनवरी 22


रविवार, 30 जनवरी 2022

      कन्नड़ लेखक अनंतमूतर््िा तो पलट

      गए थे,क्या मुनव्वर 

     राणा भी पलटी मारेंगे  ?

  ’  ...........................................

       सुरेंद्र किशोर

     .....................................

कन्नड़ लेखक डा.यू.आर.अनंतमूर्ति ने 19 सितंबर, 2013 को कहा था कि ‘यदि नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री बन जाएंगे तो मैं देश छोड़ दूंगा।’

  पर, अप्रैल 2014 आते -आते अनंतमूर्ति को जब यह लग गया कि मोदी सत्ता में आ ही जाएंगे तो उन्होंने अपने बयान में संशोधन कर लिया।

 उन्होंने कहा कि मैंने भावना में आकर वह बयान दे दिया था।

मैं देश नहीं छोड़ंूगा।

  हालांकि उन्होंने 2014 के मध्य में दुनिया ही छोड़ दिया।

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अनंत मूर्ति तो राजनीतिक विचारधारा की भावना के तहत मोदी के खिलाफ थे।

किंतु तालिबान के समर्थक मुनव्वर राणा तो धार्मिक भावना से ओतप्रोत लगते हैं।

वे योगी आदित्यनाथ के सख्त खिलाफ हैं।

मुनव्वर राणा ने कल दूसरी बार कहा कि यदि योगी फिर सत्ता में आ गए तो मैं यू.पी छोड़ दूंगा।

  अफगानिस्तान के तालिबानियों के सत्ता में आने पर खुशी मनाने वाले मुनव्वर राणा लगता है कि धार्मिक भावना से प्रेरित हैं।

  शायद वे अनंतमूर्ति की तरह अपना प्रण भंग नहीं करेंगे।

चुनाव रिजल्ट के बाद मुनव्वर साहब की खोज -खबर जरूर लीजिएगा।

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  30 जनवरी 22


शनिवार, 29 जनवरी 2022

 आज कौन याद करता है 

डा.गोरखनाथ सिंह को !

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सुरेंद्र किशोर

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गोरख कहां है ?

यही सवाल प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू से किया था ब्रिटिश अर्थशास्त्री हिक्स ने।

  प्रधान मंत्री को गोरख यानी डा.गोरखनाथ सिंह के बारे में कुछ पता नहीं था।

 नेहरू जी को यह भी कैसे  पता होता  कि कैब्रिज के सेकेंड टाॅपर का यह सवाल अपने बैच के टाॅपर के बारे में था।

खैर, डा.गोरखनाथ सिंह के बारे में छात्र जीवन में ही अपने गांव और छपरा में मैंने सुन रखा था।

 वे बिहार के सारण जिले के मढ़ौरा के पास के एक गांव के मूल निवासी थे।

  जब मैं छात्र था तो एक दूसरे संदर्भ में गोरख बाबू का नाम सुनता रहता था।

जब किसी छात्र को यह कहा जाता था कि खैनी यानी तम्बाकू मत खाओ।

इससे दांत जल्दी टूट जाएंगे तो जानते हैं वह क्या जवाब देता था ?

वह कहता था कि यह बुद्धिवर्धिनी चूर्ण है।

इसे गोरख बाबू भी खाते थे।

  यह बात सही है कि गोरख बाबू तम्बाकू चूर्ण यानी खैनी खाते थे।

किंतु वे साथ- साथ एक विलक्षण प्रतिभा वाले अर्थशास्त्री भी थे।

  उन्हें जानने वाले बताते हैं कि उनकी छपने वाली एक किताब की पांडुलिपि को ही उनकी अशिक्षित पत्नी ने चूल्हे में झोंक दिया था।

उसमें नई थ्योरी लिखी गई थी।

  खैर,गोरख बाबू पटना काॅलेज के प्रिंसिपल थे।

मौजूदा ए.एन.सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान के निदेशक थे और बिहार सरकार के डी.पी.आई.भी रहे थे।

 उनका साठ के दशक में निधन हो गया।

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पुनश्चः,गोरख बाबू के बारे में मुझे तो इतना ही मालूम है।

किन्हीं व्यक्ति कुछ और पता हो तो जरूर लिखें।

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फेसबुक वाॅल से

29 जनवरी 22

   


 कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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गवर्नरों को यूनिवर्सिटीज के चांसलर बनाने की परंपरा पर पुनर्विचार जरूरी

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राज्यों के विश्व विद्यालयों का चांसलर कभी बहुत सोच-समझ कर संबंधित राज्यों के राज्यपालों को बनाया गया।

विश्व विद्यालय शिक्षा की स्वायतत्ता व गुणवत्ता बनाए रखने के लिए ऐसा किया गया था।

कुछ दशकों तक तो सब कुछ ठीक ठाक चला।किंतु समय के साथ कई कारणों से स्थिति बिगड़ने लगी।

अब तो स्थिति बहुत खराब होती जा रही है।

केरल और पश्चिम बंगाल में स्थिति तो बहुत खराब हो चुकी है।

केरल के राज्यपाल ने वहां के मुख्य मंत्री से गत माह कहा कि काननू बदल कर आप खुद विश्व विद्यालयों के चांसलर भी बन जाइए।

  दूसरी ओर पश्चिम बंगाल से इससे भी खराब खबर आई है।

वहां के शिक्षा मंत्री ने हाल में कहा कि राज्य सरकार इस प्रस्ताव पर विचार कर रही है कि कानून बदल कर मुख्य मंत्री को ही विश्व विद्यालयों का चांसलर भी बना दिया जाए।

  बिहार की ताजा खबर भी कोई खुश करने वाली नहीं है।

  पटना राज भवन ने मुख्य सचिव को लिखा है कि चांसलर की अनुमति के बिना विश्व विद्यालय में विशेष निगरानी इकाई को सक्रिय क्यों किया गया ?

विशेष निगरानी इकाई भ्रष्टाचार निरोधक दस्ता है।

 कुछ अन्य राज्यों से भी यदाकदा ऐसी चिंताजनक खबरें आती 

रहती हैं।

इसके क्या कारण हैं ?

एक कारण तो यह है कि राज्य और केंद्र में अलग अलग दलों की सरकारें हैं।ऐसे में खूब ‘राजनीति’ होती है।

कुछ अन्य कारण भी हैं।

इसकी निष्पक्ष ढंग से जांच करा कर उसके निराकरण के उपाय किए जाने चाहिए।

  अन्यथा विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक माहौल पर प्रतिकूल असर पड़ता रहेगा। 

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अखिल भारतीय पर्यावरण सेवा 

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सुप्रीम कोर्ट ने एक साल पहले कहा था कि साफ पर्यावरण और शुद्ध जल लोगों के मौलिक अधिकार हैं।

अदालत ने नदियों के प्रदूषण और उससे लोगों पर पड़ने वाले वाले दुष्प्रभावों पर चिंता जताई थी।

एक साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस महीने पर्यावरण को लेकर एक बड़ी पहल की है।

 न्यायमूर्ति एस.के. कौल और एम एम सुदें्रश के पीठ ने केंद्र सरकार से पूछा है कि क्या सरकार ‘‘अखिल भारतीय पर्यावरण प्रबंधन सेवा’’ गठित करने पर विचार करेगी ?

याद रहे टी आर एस सुब्रह्मण्यन समिति ने इस संबंध में केंद्र सरकार को अपनी सिफारिश दे दी है।

उसी के आधार पर पेश जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने गत उपर्युक्त सवाल किया।यदि पर्यावरण सेवा गठित हुई तो वह आई.ए.एस.और आई.पी.एस. की तरह ही होगी।

  इससे पहले नब्बे के दशक में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को यह निदेश दिया था कि वह प्राथमिक से लेकर विश्व विद्यालय स्तर तक पर्यावरण विज्ञान को पृथक व अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाने का प्रबंध करें।

यानी,बिगड़ते पर्यावरण संतुलन की समस्या को लेकर सुप्रीम कोर्ट हमेशा ही गंभीर रहा है।

  यदि अदालत की पहल से आॅल इंडिया पर्यावरण प्रबंधन सेवा का गठन हो जाए तो इस समस्या से पीड़ित जनता को राहत देने में सरकारों को भी सुविधा होगी। 

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बुद्धदेव बाबू लकीर के फकीर नहीं  

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भले पूर्व मुख्य मंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने पद्म पुरस्कार स्वीकार नहीं किया,किंतु भाजपा सरकार ने उन्हें इस सम्मान के लिए अकारण नहीं चुना था।

दरअसल मुख्य मंत्री के रूप में कई बार बुद्धदेव भट्टाचार्य साम्यवादी लीक से हटकर काम कर रहे थे।

  सार्वजनिक क्षेत्र के जिस ग्रेट ईस्टर्न होटल (कोलकाता)को

उनसे पहले के मुख्य मंत्री ज्योति बसु चाहते हुए भी नहीं बेच सके थे,उसे भट्टचार्य साहब के शासनकाल में बेच दिया गया।

वह होटल भारी घाटे में चल रहा था।

इसके बावजूद सी.पी.एम.का मजदूर संगठन ‘सीटू’ उसे बेचने का विरोध कर रहा था।

  भले बाद में भट्टाचार्य ने अपने बयान का खंडन कर दिया,पर एक बार बंगलादेशी घुसपैठियों को लेकर उनकी जुबान से सच्चाई निकल गई थी ।

उनका बयान आया कि घुसपैठियों के कारण प्रदेश के सात जिलों में सामान्य प्रशासन के लिए काम करना कठिन हो गया है।बाद में पार्टी के दबाव में आकर उन्होंने अपने उस बयान का खंडन कर दिया था।

 पर,उस बयान पर अनेक मुस्लिम संगठन सी.पी.एम. से नाराज हो गए थे।

 ममता बनर्जी न उस नाराजगी का भरपूर राजनीतिक व चुनावी लाभ उठा लिया।  

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  और अंत में 

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इस देश के हजारों एन जी ओ विदेशों से पैसे लेकर भारत में अपनी गतिविधियां चलाते रहे हैं।

इन में से कुछ संस्थाएं जनहित में अच्छा काम करती हैं।

किंतु अधिकतर गैर सरकारी संगठन .जिस उद्देश्य के लिए पैसे लाते हैं,उससे अलग कुछ दूसरे काम करते हैं।उनमें से कुछ काम तो देश विरोधी भी होते हैं।

   इधर भारत सरकार ने यह कोशिश की कि एन जी ओ यानी गैर सरकारी संगठन इस देश के कानून के तहत ही काम करें।जिस उद्देश्य से पैसे कहीं से वे लाते हैं,उसी काम में खर्च हों।

साथ ही, जो विदेशी संगठन आपको पैसे देते हैं,वे यह लिखकर दे दें कि वे आपको किस काम के लिए आर्थिक मदद कर रहे हैं।

  केंद्र सरकार की इन शत्र्तों को मानने से अधिकतर एन जी ओ ने इनकार कर दिया।

  क्या एन.जी.ओ. का यह रुख-रवैया सही है ?

कानून लागू करने की सरकार की कोशिश को विफल करने के लिए कुछ एन.जी.ओ.सुप्रीम कोर्ट गए थे।

पर अदालत ने उन्हें कोई राहत नहीं दी।रुख-रवैया सही होता तो अदालत से उन्हें झटका नहीं लगता।

जो एन जी ओ ठीक काम कर रहे हैं,उनकी सरकार से कोई शिकायत नहीं है।

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प्रभात खबर

पटना

28 जनवरी 22


गुरुवार, 27 जनवरी 2022

     शादी के लिए अखबारों मंे विज्ञापन 

     देने में कोई हर्ज नहीं

     .................................................

     सुरेंद्र किशोर

     .............................................

साठ-सत्तर के दशकों में मैं देखता था कि आसपास के गांवों के कुछ लोग भी यह जानकारी रखते थे कि किस गांव में किसका लड़का शादी के योग्य हो गया है।

   उसके अनुसार वे आने वाले ‘अगुआ’ यानी लड़की वालों  को गाइड कर देते थे।

  तब गांवों में सामाजिक बंधन आज की अपेक्षा अधिक मजबूत था।

  समय के साथ अनेक लोग शहरोन्मुख होते चले गए।

 पहले पढ़ने के लिए गए।

  बाद में नौकरी के लिए गए और उनमेें से अधिकतर वहीं बस गए।

 शहरों में तो सामाजिक बंधन वैसा है नहीं।

   कई मामलों में बगल वाला आदमी बगल वाले को नहीं जानता ।

या कम जानता है।

घुलने -मिलने का समय बहुत ही कम लोगों के पास है।

पैसे कमाने की ‘रैट रेस’़ में शामिल जो हैं।

 .........................

इस ‘बंधनहीन समाज’ से कई समस्याएं पैदा हो रही हैं।

‘अगुआ’ को ‘गाइड’ करने या योग्य वर बताने के लिए शहरों में अत्यंत कम ही लोगों के पास समय है।

  नतीजतन योग्य वर के यहां भी योग्य अगुआ नहीं पहंुच पा रहे हैं।

पहुंच रहे हैं तो कम संख्या में।

चयन के विकल्प कम होते जा हंै।

.................................

इसकी कमी अखबारों के वैवाहिक विज्ञापन काॅलम पूरा करते हैं।

  कई लोग उस काॅलम की सेवा लेते हैं।

 पर, अब भी बहुत सारे अभिभावकगण इसे अपनी तौहीन मानते हैं।

अरे भई अभिभावको ।

शादी योग्य अपनी संतान के लिए देश-प्रदेश के बड़े -बड़े अखबारों में विज्ञापन दीजिए।

अपनी झूठी शान के चक्कर में अपनी संतान के साथ अन्याय मत कीजिए।

   पोस्ट बाॅक्स के जरिए सूचनाएं मंगवाइए।

कोई आपका नाम जानेगा भी नहीं।

  पर, आपको दर्जनों विकल्प मिल जाएंगे।

................................

मैंने जैसे ही सन 1963 मैट्रिक पास किया,जवार के लोग मेरे यहां अगुआ भेजने लगे।

मैंने दस साल अपनी शादी रोकी।

इस बीच निराश लौटने वाले कई जावारी लोग बाबू जी से नाराज हो गए।

खैर, बाद के दशकों में गांवों में भी पहले जैसी स्थिति नहीं रही।

  पर नगरों-महानगरों की स्थिति तो इस मामले में और भी खराब है।

किंतु कोई हर्ज नहीं।

अखबार तो हंै ही।

वे ‘‘संदेशवाहक’’ का काम सफलतापूर्वक कर रहे हैं। 

.............................

सुरेंद्र किशोर

27 जनवरी 22


  


      सब दिन होत न एक सामाना !!!

    ...............................................

     सुरेंद्र किशोर

  ....................................

हिन्दी राज्यों के कई बाहुबलियों -माफियाओं -भ्रष्टों के दुर्दिन चल रहे हैं।

कोई मुंठभेड़ में जान गंवा रहा है तो कोई जेल में ।

कोई जेल से निकलने के लिए छटपटा रहा है तो कोई जेल में सड़ रहा है।

कोई चुनाव लड़ने लायक नहीं रहा तो किन्हीं के महलों पर बुलडोजर चल रहे हैं।

  दरअसल जब ये लोग सत्ता में थे या सत्ता के करीब थे तो समझते थे कि कानून का कोई भी दफा कभी उन्हें छू नहीं पाएगा।

   पर, जब राजनीतिक स्थिति बदली तो उसी के साथ उनकी तकदीर भी बदल गयी।

................................................

  आज जो सत्ता में हैं,उनमें से कई लोगों के लिए ये घटनाएं चेतावनी हैं।

  भले आप अपेक्षाकृत कम शातिर हों,

किंतु आपका भी लालची व बाहुबली चरित्र समय -समय सामने आता रहता है।

सांसद और विधायक फंड ने तो इस देश के 90 प्रतिशत जनप्रतिनिधियों के लोभी चरित्र को आम लोगों के समक्ष नंगा कर दिया है।

   संभल जाइए, आप जिस दल में हैं या जिसके सहचर हैं,वे भी हमेशा सत्ता में नहीं रहेंगे।

बुलडोजर और हथकड़ियां सिर्फ एक तरह की जमात के लिए नहीं बनी होती हैं।

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27 जनवरी 22

 


     शादी के लिए अखबारों मंे विज्ञापन 

     देने में कोई हर्ज नहीं

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     सुरेंद्र किशोर

     .............................................

साठ-सत्तर के दशकों में मैं देखता था कि आसपास के गांवों के कुछ लोग भी यह जानकारी रखते थे कि किस गांव में किसका लड़का शादी के योग्य हो गया है।

   उसके अनुसार वे आने वाले ‘अगुआ’ यानी लड़की वालों  को गाइड कर देते थे।

  तब गांवों में सामाजिक बंधन आज की अपेक्षा अधिक मजबूत था।

  समय के साथ अनेक लोग शहरोन्मुख होते चले गए।

 पहले पढ़ने के लिए गए।

  बाद में नौकरी के लिए गए और उनमेें से अधिकतर वहीं बस गए।

 शहरों में तो सामाजिक बंधन वैसा है नहीं।

   कई मामलों में बगल वाला आदमी बगल वाले को नहीं जानता ।

या कम जानता है।

घुलने -मिलने का समय बहुत ही कम लोगों के पास है।

पैसे कमाने की ‘रैट रेस’़ में शामिल जो हैं।

 .........................

इस ‘बंधनहीन समाज’ से कई समस्याएं पैदा हो रही हैं।

‘अगुआ’ को ‘गाइड’ करने या योग्य वर बताने के लिए शहरों में अत्यंत कम ही लोगों के पास समय है।

  नतीजतन योग्य वर के यहां भी योग्य अगुआ नहीं पहंुच पा रहे हैं।

पहुंच रहे हैं तो कम संख्या में।

चयन के विकल्प कम होते जा हंै।

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इसकी कमी अखबारों के वैवाहिक विज्ञापन काॅलम पूरा करते हैं।

  कई लोग उस काॅलम की सेवा लेते हैं।

 पर, अब भी बहुत सारे अभिभावकगण इसे अपनी तौहीन मानते हैं।

अरे भई अभिभावको ।

शादी योग्य अपनी संतान के लिए देश-प्रदेश के बड़े -बड़े अखबारों में विज्ञापन दीजिए।

अपनी झूठी शान के चक्कर में अपनी संतान के साथ अन्याय मत कीजिए।

   पोस्ट बाॅक्स के जरिए सूचनाएं मंगवाइए।

कोई आपका नाम जानेगा भी नहीं।

  पर, आपको दर्जनों विकल्प मिल जाएंगे।

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मैंने जैसे ही सन 1963 मैट्रिक पास किया,जवार के लोग मेरे यहां अगुआ भेजने लगे।

मैंने दस साल अपनी शादी रोकी।

इस बीच निराश लौटने वाले कई जावारी लोग बाबू जी से नाराज हो गए।

खैर, बाद के दशकों में गांवों में भी पहले जैसी स्थिति नहीं रही।

  पर नगरों-महानगरों की स्थिति तो इस मामले में और भी खराब है।

किंतु कोई हर्ज नहीं।

अखबार तो हंै ही।

वे ‘‘संदेशवाहक’’ का काम सफलतापूर्वक कर रहे हैं। 

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सुरेंद्र किशोर

27 जनवरी 22


  


 आम आदमी पार्टी ने भगवंत मान को पंजाब में मुख्य मंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है।

यदि वह मुख्य मंत्री बन गए तो संभवतः देश के पहले ऐसे मुख्य मंत्री होंगे जो सफल हास्य कलाकार रहे हैं।

 उससे शायद इस शुष्क व तनावपूर्ण राजनीति में कुछ

हंसी-खुशी आएगी !!

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ताजा खबर है कि भगवंत मान ने अब पीना छोड़ दिया है।

अन्यथा, कभी लोक सभा में उनके पास बैठने वाले सांसद सभाध्यक्ष से गुजारिश करते थे कि उनकी सीट बदल दी जाए।

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वैसे भी यदि जब मुख्य मंत्री बन जाएंगे तो सत्ता की नशा से ही संतुष्ट रहेंगे,ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।


       सारण समता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष

       राघव बाबू सख्त बीमार

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         --सुरेंद्र किशोर--

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 समता पार्टी की सारण जिला शाखा के अध्यक्ष रह चुके राघव प्रसाद सिंह इन दिनों सख्त बीमार हैं।

  किंतु उनके इलाज की समुचित व्यवस्था नहीं हो पा रही है।

जाहिर है कि नीतीश कुमार सहित कई बड़े नेता राघव बाबू को जानते हैं।जानते हैं तभी तो वे एक जिला के अध्यक्ष बने थे।

  पर, लगता है कि उनकी पीड़ा उन नेताओं तक नहीं पहुंच पा रही है।

  साठ-सत्तर के दशकों में जब मैं लोहियावादी कार्यकत्र्ता के रूप में सारण जिले सक्रिय था,तभी से राघव बाबू को जानता रहा हूं।उन्हें कर्पूरी ठाकुर भी जानते थे।वे हमेशा प्रतिबद्ध व ईमानदार रहे।

  यूं ही नहीं,नीतीश कुमार की समता पार्टी के वे अध्यक्ष बनाए गए थे।

  लगता है कि ईमानदार व निष्ठावान राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं -नेताओं का अंततः यही हाल होता है।

   राघव बाबू का हाल जानकर मुझे अपने उस निर्णय पर संतोष हुआ जब मैंने खुद को सक्रिय राजनीति से अलग कर लिया था।

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25 जनवरी 22 

  

  

   


      सब दिन होत न एक सामाना !!!

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     सुरेंद्र किशोर

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हिन्दी राज्यों के कई बाहुबलियों -माफियाओं -भ्रष्टों के दुर्दिन चल रहे हैं।

कोई मुंठभेड़ में जान गंवा रहा है तो कोई जेल में ।

कोई जेल से निकलने के लिए छटपटा रहा है तो कोई जेल में सड़ रहा है।

कोई चुनाव लड़ने लायक नहीं रहा तो किन्हीं के महलों पर बुलडोजर चल रहे हैं।

  दरअसल जब ये लोग सत्ता में थे या सत्ता के करीब थे तो समझते थे कि कानून का कोई भी दफा कभी उन्हें छू नहीं पाएगा।

   पर, जब राजनीतिक स्थिति बदली तो उसी के साथ उनकी तकदीर भी बदल गयी।

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  आज जो सत्ता में हैं,उनमें से कई लोगों के लिए ये घटनाएं चेतावनी हैं।

  भले आप अपेक्षाकृत कम शातिर हों,

किंतु आपका भी लालची व बाहुबली चरित्र समय -समय सामने आता रहता है।

सांसद और विधायक फंड ने तो इस देश के 90 प्रतिशत जनप्रतिनिधियों के लोभी चरित्र को आम लोगों के समक्ष नंगा कर दिया है।

   संभल जाइए, आप जिस दल में हैं या जिसके सहचर हैं,वे भी हमेशा सत्ता में नहीं रहेंगे।

बुलडोजर और हथकड़ियां सिर्फ एक तरह की जमात के लिए नहीं बनी होती हैं।

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27 जनवरी 22

 


   कल एक जानकार व्यक्ति एक टी.वी.चैनल पर बोल रहा था-

‘‘‘क्रिश्चियन कर्नाटका में तो धर्मांतरण विरोधी अधिनियम का विरोध कर रहे हैं ।

किंतु उसी समुदाय के लोग केरल में ऐसे कानून की सख्त जरूरत बता रहे हैं।’’

क्या यह खबर सही है ?

यदि सही है तो 

आखिर ऐसा दोहरा मापदंड क्यों भाई ?

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27 जनवरी 22


सोमवार, 24 जनवरी 2022

 कर्पूरी ठाकुर के जन्म दिन 

(24 जनवरी ) पर 

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कर्पूरी ठाकुर न तो अंग्रेजी ‘उन्मूलन’ 

के पक्षधर थे और न ही सवर्ण विरोधी

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  --सुरेंद्र किशोर--

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मैं लोहियावादी समाजवादी कार्यकर्ता की हैसियत से 1972-73 में करीब डेढ़ साल तक कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव रहा था।

मैं पटना के वीरचंद पटेल पथ स्थित उनके सरकारी आवास में ही रहता था।

  किसी व्यक्ति को यदि आप लगातार डेढ़ साल तक रात.-दिन देखें तो आप जान जाएंगे कि उसमें कितने गुण और कितने अवगुण हैं।

  एक पंक्ति में यह कह सकता हूं कि उनके जैसा ईमानदार,विनम्र और संयमी नेता मैंने नहीं देखा।

  साथ ही, वे योग्य व सुपठित व्यक्ति थे।

एक बात और ।

वे न तो अंग्रेजी के उन्मूलन के पक्ष में थे और न ही सवर्ण विरोधी थे।

हां,वे अंग्रेजी की अनिवार्यता के जरूर खिलाफ थे।

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 यह 1971 की बात है।

तब मैं संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की  सारण जिला शाखा का कार्यालय सचिव था।

एक दिन कर्पूरी ठाकुर छपरा पहुंच गए। 

नगर पालिका चैक स्थित आॅफिस में नीचे दरी पर वे सो गए थे।

जगे तो उन्होंने मुझसे कहा कि ‘‘चूंकि आप तेज और ईमानदार दोनों हैं,इसलिए मैं आपको अपना निजी सचिव बनाना चाहता हूं।क्या आपको मंजूर है ?’’

 कर्पूरी जी संसोपा के बिहार मंे शीर्ष नेता थे।

मैं उनका प्रशंसक भी था।

पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलनों में भी उनसे मुलाकात होती रहती थी।

उनका यह आॅफर सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई।

क्योंकि मैंने तब यह तय किया था कि राजनीति में ही सक्रिय रहूंगा,शादी नहीं करूंगा।

खैर, मैंने उनसे कहा कि यह तो मेरा सौभाग्य है कि आप मेरे बारे में ऐसी राय रखते हैं ।

किंतु अभी मेरी परीक्षा है।

परीक्षा के बाद मैं पटना आकर आपसे मिलूंगा।

     दरअसल बिहार की कांग्रेसी सरकार के खिलाफ छात्रों के आंदोलन में शामिल होने के कारण मैं 1967 में अपनी बी.एससी.फाइनल परीक्षा नहीं दे सका था।

इसलिए फिर से हिस्ट्री आॅनर्स(राजेंद्र कालेज,छपरा)में नाम लिखवा लिया था।

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1972 के प्रारंभ में बिहार विधान सभा चुनाव के बाद मैं पटना आया।

  कर्पूरी जी के यहां गया।उनके आसपास अक्सर  भीड़ रहती  थी।

 मुझे देखते ही उन्होंने पूछा,‘‘आपने क्या तय किया ?’’

मैंने कहा कि ‘‘मैं आपके साथ रहने के लिए आ गया हूं।’’

तब से 1973 के मध्य तक मैं उनके साथ रहा।

 पर मैं उन्हें बताए बिना एक दिन उनके यहां से निकल गया।

कर्पूरी जी ने उसके बाद राजनीति प्रसाद से पूछा,

‘‘ क्या मुझसे कोई गलती हो गई जो आपके मित्र मुझे छोड़कर चले गये ?’’

राजनीति ने मुझे फटकारते हुए वह बात बताई।

  मैंने राजनीति प्रसाद से कहा कि कर्पूरी जी से कोई गलती नहीं हुई।मैं ही अपना काम बदलना चाहता हूं।

मैं अब पेशेवर पत्रकारिता करना चाहता हूं।

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अब कोई बताए कि कर्पूरी जी सवर्ण विरोधी थे ?

यदि विरोधी रहते तो मेरे अलावा भी, मुझसे  पहले व बाद में भी सवर्णांे को अपना निजी सचिव क्यों रखते ?

हां,लक्ष्मी साहु सबसे अधिक दिनों तक उनके निजी सचिव रहे।

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1967-68 की महामाया प्रसाद सिन्हा सरकार ने, जिसमें कर्पूरी जी शिक्षा मंत्री भी थे, अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त की । उसको लेकर कर्पूरी जी का बहुत उपहास किया गया।

जबकि अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म करने पर पूरा महामाया मंत्रिमंडल एकमत था।

अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म करने को लेकर संसोपा के शीर्ष नेता डा.राममनोहर लोहिया का विशेष आग्रह था।

   उन दिनों यह प्रचार हुआ कि चूंकि कर्पूरी ठाकुर खुद अंग्रेजी नहीं जानते ,इसलिए उन्होंने अंग्रेजी हटा दी।

पर यह प्रचार गलत था।

कर्पूरी ठाकुर अंग्रेजी अखबारों के लिए अपना बयान खुद अंग्रेजी में ही लिखा करते थे।

मैं गवाह हूं, किसी हेरफेर के बिना ही उनका बयान ज्यों का त्यों छपता था।

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 अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करने के पीछे ठोस तर्क थे।

 तब छात्र अंग्रेजी विषय में मैट्रिक फेल कर जाने के कारण  सिपाही में भी बहाल नहीं हो पाते थे।

इस कारण से वंचित होने वालों में सभी जातियों व समुदायों के उम्मीदवार होते थे।

नौकरी से वंचित होने वालों में अधिकतर गरीब घर के होते थे।

जबकि आजाद भारत में किसी सिपाही के लिए व्यावहारिक जीवन में, वह भी बिहार में, अंग्रेजी जानना बिलकुल जरूरी नहीं था।

  दूसरी बात यह है कि उन दिनों आम तौर से वर पक्ष न्यूनत्तम  मैट्रिक पास दुल्हन चाहता था।

अंग्रेजी में फेल हो जाने के कारण अच्छे परिवारों की  लड़कियों की शादी समतुल्य हैसियत वालों के घरों में नहीं हो पाती थी।

किसी घरेलू महिला के जीवन में अंग्रेजी की भला क्या उपयोगिता थी ?

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  याद रहे कि तब अंग्रेजी की सिर्फ अनिवार्यता समाप्त की गयी थी,उसकी पढ़ाई बंद नहीं की गयी थी।

पर प्रचार यह हुआ कि अंग्रेजी को ‘विलोपित’ करने के कारण ही शिक्षा का स्तर गिरा।हालंाकि विलोपित नहीं हुआ था,सिर्फ अनिवार्यता खत्म हुई थी।

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 केंद्रीय सेवाओं के काॅडर लिस्ट मैंने देखे हैं।

1967 से पहले जितने बिहारी आई.ए.एस. और आई.पी.एस.बनते थे,1967 के बाद भी उनकी संख्या में कोई कमी नहीं आई।

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बिहार में शिक्षा को बर्बाद करने के अन्य अनेक कारक रहे हैं।

प्रो.नागेश्वर प्रसाद शर्मा ने इस पर कई किताबें लिखी हैं।

1972 में तो तत्कालीन मुख्य मंत्री केदार पांडेय ने परीक्षा में कदाचार पूरी तरह बंद करवा दिया था।

फिर किसने शुरू कराया ?

पटना हाईकोर्ट के आदेश से सन 1996 में बिहार में मैट्रिक-इंटर की परीक्षाएं  कदाचार-शून्य  र्हुइं।

दोबारा कदाचार किसने शुरू कराया ?

1980 में निजी स्कूलों के राजकीयकरण से पहले लगभग  सभी शिक्षक मनोयोगपूर्वक पढ़ाते थे।

क्या बाद में भी वैसी ही स्थिति रही ?

 ऐसा क्यों हुआ ??

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24 जनवरी 22

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पुनश्चः

1977 में कर्पूरी जी जब दोबारा मुख्य मंत्री बने ,उससे पहले ही मैंने दैनिक ‘आज’ ज्वाइन कर लिया था।

मैं खबरों के लिए मुख्य मंत्री कर्पूरी जी को जब भी फोन करता था,वे तुरंत फोन पर आ जाते थे।

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मेरे फेसबुक वाॅल से

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शनिवार, 22 जनवरी 2022

    

   

   जेपी आंदोलन और इमरजेंसी 

    में हम पति-पत्नी की भूमिकाएं

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    राकेश कुमार लिखित पुस्तक ‘लोकराज के 

    लोकनायक से साभार

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 हम पति-पत्नी (यानी, सुरेंद्र किशोर और रीता सिंह)क्रमशः सन 1974-75 के जेपी आंदोलन और 1975-1977 के आपातकाल  के दौरान अपने -अपने ढंग से अलग -अलग सक्रिय रहे थे।

   हम दोनों अपनी जान हथेली पर लेकर वह काम कर रहे थे।

पर, सन 1977 में केंद्र और बिहार में जनता सरकारें बन जाने के बाद हमने सरकार,नेता या किसी दल की ओर पलट कर भी नहीं देखा।

  हम अपने -अपने काम में हम लग गए।

पत्नी शिक्षिका बन गईं और मैं पेशेवर पत्रकारिता से मजबूती से जुड़ गया।

हमने आंदोलन-आपातकाल ( भूमिगत अभियान) में अपनी सहभागिता की न कभी सराहना चाही और न ही किसी प्रकार के ‘मुआवजे’ की चाह रखी।

पर, अब जब वे बातें पुस्तक में समाहित हो चुकी हैं तो सोचा कि फेसबुक वाॅल पर आपसे भी साझा करूं।  

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   इस पुस्तक के लेखक राकेश कुमार जब हमसे मिले थे तो प्रारंभिक हिचक के बाद हमने वह सब उन्हें बताया जो भूमिकाएं हमने निभाई थीं और हमारे साथ उन दिनों जो कुछ घटित हुआ था।

तब की कुछ घटनाओं से आपको कुछ अचरज  हो सकता है।

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राकेश कुमार की पुस्तक ‘‘लोकराज के लोकनायक ’’

का प्रकाशन प्रतिष्ठित संस्था ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ ने किया है।

याद रहे कि जयप्रकाश नारायण पर लीक से हट कर लिखी इस किताब को तैयार करने में प्राथमिक स्त्रोत को आधार बनाया गया है।

ऐसे पात्रों को लिया गया है जो पहले अधिक चर्चित नहीं हुए थे।इस पठनीय पुस्तक में तो और बहुत सारी बातंे हैं।

पर, उसमें हमारे बारे में थोड़े में जो कुछ लिखा गया है,उसे यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। 

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  हमारे बारे में इस विवरण का संदेश यह है कि देश को जब आपकी जरूरत हो तो जान हथेली पर लेकर आंदोलन या अभियान में कूद पड़िए।

  किंतु जो कुछ आपने किया,उसके लिए बाद में उसका कोई पुरस्कार किसी से मत मांगिए।

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पुस्तक का अध्याय-16

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 जब जेपी पर दागे गए आंसू गैस के गोले

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राकेश कुमार 

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चार नवंबर,1974 को पटना में घेराव और प्रदर्शनों के पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों के कारण पूरे शहर को छावनी में तब्दील कर दिया गया था।

चारों तरफ केंद्रीय रिजर्व पुलिस के जवान तैनात कर दिए गए थे।

 सुरक्षा का ऐसा चाक -चैबंद ,व्यवस्था की गई थी कि आंदोलनकारी सड़क पर निकल ही नहीं पाएं,किंतु अकसर होता यह था कि आंदोलनकारियों के जोश-जुनून के आगे सरकार की पूरी तैयारियां धरी की धरी रह जाती थीं।

    चार नवंबर को जेपी के नेतृत्व में मंत्रियों और विधायकों के आवासों को घेरने के लिए महिला आंदोलनकारियों ने भी मन बना लिया था।

   किंतु पुलिसिया सख्ती सुरसा की तरह मुंह खोले निगलने को खड़ी थी।

  लेकिन इन महिला आंदोलनकारियों का जुनून हनुमान -सुरसा संघर्ष की तरह था।

जिसमंे बजरंगबली सुरसा के मुंह में घुस कान से निकल कर सीता मैया की खोज में लंका की तरफ आगे बढ़ जाते हैं।

छात्र युवा संघर्ष वाहिनी की सक्रिय सदस्य रीता बताती हैं कि चरखा समिति से जुड़ी हम लड़कियों ने पुलिस को चतुराई से छका कर जेपी के नेतृत्व में चार नवंबर के प्रदर्शन में शामिल होने की रणनीति बना ली थी।

 हुआ यूं कि 3 नवंबर की रात्रि में हमलोग खाने का व अन्य सामान लेकर कदम कुआं स्थित चरखा समिति पहुंच गए थे।

 4 नवंबर को गंगा स्नान के बहाने महिलाओें का जत्था पैदल ही छोटी -छोटी टुकड़ियों में गांधी संग्रहालय पहुंच गए।

4 नंवबर को जेपी तकरीबन 10 बजे गांधी मैदान पहुंचे और वहां से आगे बढ़े।

 उनके साथ आंदोलनकरियों का हुजूम भी विधायक मंत्री आवास की ओर बढ़ा।

इस दौरान हम महिलाओं का जत्था भी लाला लाजपत राय मार्ग से छज्जु बाग की तरफ से होते हुए जेपी के नेतृत्व वाले जुलूस से जा मिले।

  आज पटना में जहां इंदिरा गांधी तारामंडल बना हुआ है,वहीं पुलिस नाकेबंदी का अंतिम द्वार बना हुआ था।

उस समय पटना के जिलाधिकारी विजय शंकर दुबे थे और पुलिस उपाधीक्षक आर.डी.सुवर्णो हुआ करते थे।

मैं, रीता सिंह जेपी की जीप पर चढ़ने लगी तभी लाठी चार्ज हो गया और अश्रु गैस के गोले दागे गये।

 मेरे सिर पर अश्रु गैस का गोला गिरा।

 मैं घायल हो गई।

केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के जवानों ने अर्ध बेहोशी की हालत में मुझे लातों से धक्के मारकर नाले में डालने का प्रयास किया।

इस बीच एक महिला मेरे लिए फरिश्ता बनकर प्रकट हुई और मुझे बेटी बताकर सी.आर.पी.एफ.से छोड़ने की मिन्नत करने लगी।

  इसके बाद क्या हुआ,मुझे याद नहीं ,क्योंकि मैं तब तक बेहोश हो चुकी थी।

   उस घटना को याद करते हुए प्रख्यात पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने बताया कि उन दिनों मैं नई दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ में बतौर संवाददाता काम किया करता था।

  उस दिन मैं काम निपटाकर घर लौटा तो मेरी धर्म पत्नी (रीता सिंह)घर में नहीं मिली।

 पहले तो मेरे मन में यही विचार आया कि गिरफ्तार कर उन्हें जेल में डाल दिया गया होगा,क्योंकि इससे पहले भी तीन,चार, पांच अक्तूबर, 1974 को बिहार बंद के दौरान प्रदर्शन में सख्त भागीदारी के दौरान इन्हेें गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल भेज दिया गया था,जहां से 13 दिनों बाद रिहा हुई थीं।

  अगले दिन जब मैं घर से निकला तो विजय कृष्ण (बाद में बिहार सरकार में मंत्री भी रहे) मिल गए।

विजय कृष्ण ने कहा कि आप इधर क्या कर रहे हैं ?

आपकी पत्नी अश्रु गैस के गोले से बुरी तरह घायल हो गई हैं।

और उन्हें पटना मेडिकल काॅलेज अस्पताल के सर्जिकल वार्ड में बेहोशी की हालत में भरती कराया गया है।

 मैं इस खबर को सुनते ही पी एम सी एच की ओर भागा।

पी एम सी एच के सर्जिकल वार्ड में रीता सिंह से मुलाकात हुई।

 मैंने देखा कि नानाजी देशमुख भी वहीं एम एल ए वार्ड में भरती हैं।

    रीता सिंह ने उन स्याह अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि अगले दिन जेपी मुझे देखने मेरे वार्ड में आए थे,जो मेरे लिए सौभाग्य की बात थी।

 मुझे याद है कि उन्होंने एक सहयोगी को निदेश दिया था कि 

इस लड़की के इलाज व देखरेख में कोई कमी नहीं होनी चाहिए।

    सुरेंद्र किशोर ने उन दिनों की यादों को साझा करते हुए बताया कि मेरा अब रोजाना पी. एम. सी. एच. में आना जाना हो गया था।

एक दिन की बात है।

पी. एम. सी. एच. में अटल बिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख को देखने आए थे।

  उन्होंने अपने हाथों से आॅमलेट बनाकर न केवल नानाजी देशमुख को खिलाया,बल्कि वहां जितने लोग बैठे थे,उनको भी।

उन सौभाग्यशाली लोगों में मैं और मेरी धर्म पत्नी रीता सिंह भी शामिल थीं।

 सुरेंद्र किशोर बताते हैं कि आपातकाल की समाप्ति के बाद बिहार विधान सभा के चुनावों के दौरान जनता पार्टी से विधायिकी की टिकट के लिए आवेदन आमंत्रित किए गए थे।

जब उन आवेदनों की छंटनी हो रही थी ,तो जेपी ने लोगों से पूछा कि उस लड़की का अवोदन पत्र कहां है,जिसके सिर पर अश्रु गैस का गोला गिरा था ?

लोगों ने जेपी को बताया कि उन्होंने आवदेन नहीं किया है।

   बतौर सुरेंद्र किशोर, हुआ यूं था कि आपातकाल के दौरान बड़ौदा डायनामाइट मुकदमे में मुझे भी सी.बी.आई.खोज रही थी।

मैं उस दौरान मेघालय में भूमिगत था और मेरी पत्नी रीता सिंह जेपी आंदोलन में अति सक्रिय थी तो हम दोनों ने सम्मति से निर्णय लिया था कि परिवार चलाने के लिए किसी एक को कोई स्थायी रोजगार कर लेना चाहिए।

  इस निर्णय के तहत रीता सिंह ने आपातकाल के दौरान स्कूल में सरकारी शिक्षिका की नौकरी कर ली।

  साथ ही,रीता सिंह की उम्र उस समय 25 वर्ष से कम थी,जो विधायिकी की न्यूनत्तम योग्यता के लिए आवश्यक होता है।

 लेकिन रीता सिंह स्थायी नौकरी छोड़कर किसी भी स्थिति में विधायिकी नहीं लड़ना चाहती थी।(यानी, उसके लिए बाद में भी कोई कोशिश नहीं करना चाहती थी।-सु.कि.)

  हम दोनों के बीच सहमति के अनुसार मैंने राजनीति की राह पकड़ ली थी।(राजनीति में मैं क्यों नहीं जम पाया,उस पर मैं बाद में कभी विस्तार से लिखूंगा--सु.कि.)

    बतौर पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने जेपी के साथ संस्मरण साझा करते हुए बताया कि उन दिनों मैं ‘आज’ दैनिक में संवाददाता था।

मेरे ब्यूरो चीफ हुआ करते थे-पारसनाथ सिंह।

  1977 में लोक सभा चुनाव की घोषणा हो चुकी थी।

 इसी सिलसिले में पारस बाबू ने मुझे बताया कि जेपी का साक्षात्कार ‘आज’ दैनिक में प्रकाशित किए जाने का निर्णय संपादक जी ने लिया है।

  मुझे जयप्रकाश जी से समय लेने को कहा गया।

 उन दिनों ‘आज’ अखबार की ख्याति बहुत थी।

 मैंने जेपी के कदम कुआं स्थित चरखा समिति वाले आवास पर फोन कर जेपी से मिलने का समय मांगा।

समय मिल गया।

तय समय के अनुसार पारस बाबू और मैं उनके आवास पर पहुंच गए।

   साक्षात्कार का पूरा जिम्मा ब्यूरो चीफ साहब ने मुझे दे रखा था।

उन्हें इस बात की जानकारी थी कि मैंने जेपी आंदोलन को बारीकी से साप्ताहिक प्रतिपक्ष के लिए कवर किया था।

मैं सवाल पर सवाल करता रहा और जेपी शालीनता से सवालों के जवाब देते रहे।

  साक्षात्कार में बहुत सारी बातें हुईं,किंतु एक सबसे महत्वपूर्ण बात जेपी ने यह कही कि अगर लोक सभा चुनाव हम जीत जाते हैं तो देश भर की विधान सभाओं को भंग करवा देंगे और विधान सभाओं का भी चुनाव होगा।

  इस खबर को ‘आज’ दैनिक ने प्रमुखता से छापा।

  बीबीसी ने आज दैनिक के साभार से उस खबर को लिफ्ट कर देश-दुनिया में अपने सभी संस्करणों में प्रमुखता से प्रसारित किया।

  अमूमन मैं जेपी के पत्रकार सम्मेलन में जरूर जाया करता था।

  1977 के विधान सभा चुनाव के बाद हरियाणा में सुषमा स्वराज मंत्री बन गई थीं।

  उन्हें आठ विभागों का जिम्मा सौंपा गया था,किंतु सुषमा स्वराज चाहती थीं कि वे जेपी का आशीर्वाद लेकर ही मंत्रालय का कार्यभार सभालें।

  सुषमा स्वराज के पति स्वराज कौशल ने मुझे फोन कर कहा कि आप सुषमा को जेपी से मिलवाने का प्रबंध कर दीजिए

 क्योंकि वे उनका आशीर्वाद लेना चाहती हैं।

चूंकि बड़ौदा डायनामाइट मुकदमे में मेरा नाम भी आया था,स्वराज दंम्पति ही बतौर वकील उस मुकदमे की पैरवी जार्ज फर्नांडीज की तरफ से कर रहे थे ,इस नाते वे मुझे जानते थे।

  मैंने उनका जेपी से मुलाकात का समय तय करवा दिया।

 तय तिथि और समय के अनुसार स्वराज दंपति पटना पहुंचे।

  इसके बाद मैं और स्वराज दंपति ,संवाददाता लव कुमार मिश्र और एक फोटोग्राफर किशन के साथ जेपी से मिलने उनके कदम कुआं स्थित चरखा समिति वाले आवास पर पहुंच गए।

  जेपी उन दिनों गुर्दे की समस्या से जूझ रहे थे और डायलिसिस के दौर से गुजर रहे थे।

   जेपी के निजी सचिव सच्चिदा बाबू ने कहा कि केवल सुषमा स्वराज और फोटोग्राफर ही जेपी से मिलने (फस्र्ट फ्लाॅर)जाएंगे।बाकी लोग नीचे ही इंतजार कीजिए।

  मैंने सच्चिदा बाबू से अनुरोध किया कि सुषमा स्वराज के साथ उनके पति को तो मिलने दीजिए।

बाकी हमलोग नहीं जाएंगे,कोई बात ंनहीं है।

 सच्चिदा बाबू ने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर लिया और सुषमा स्वराज के साथ स्वराज कौशल भी जेपी से मिलने उनके कमरे में गए।

जेपी से आशीर्वाद प्राप्त कर ही सुषमा स्वराज ने 

हरियाणा में मंत्रालयों को कार्यभार संभाला।

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22 जनवरी 22


शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

 कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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दो बार से अधिक दल-बदल या पक्ष-परिवर्तन पर लगे कानूनी रोक 

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  किसी जन प्रतिनिधि को उसके पूरे जीवन काल  में दो बार से अधिक दल बदलने की छूट न मिले।

ऐसी कानूनी व्यवस्था होनी चाहिए।

साथ ही, पक्ष बदल कर समय- समय पर नए -नए 

गठबंधन बनाने पर भी रोक लगे।

हां,यदि नए दल का निर्माण हो तो बात और है।

यह प्रावधान हो सकता है कि जैसे ही संसद या विधान सभा का उम्मीदवार तीसरी बार किसी तीसरे दल की ओर से नामांकन पत्र दाखिल करे, कम्प्यूटर उस व्यक्ति का नामांकन पत्र तुरंत नामंजूर कर दे।

   इसके लिए दल बदल विरोधी कानून में संशोधन कर दिया जाना चाहिए।

निजी स्वार्थ के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजाक बना देेने वालों का इलाज जरूरी हो गया है।

  लोकतंत्र की प्रतिष्ठा बचा लेने के लिए ऐसा ‘‘कानूनी वैक्सिन’’ जरूरी है।

बार- बार दल- बदल और पक्ष- परिवर्तन के कारण राजनीति व प्रशासन में गिरावट आती है।

विकास रुकता है क्योंकि लूट बढ़ती है।

  दल बदल विरोधी कानून में पहले भी परिवर्तन हुए हैं।

पर वे कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं।

अभी तो कानून डाल-डाल तो दलबदलू पात-पात की स्थिति है।

अब नए व ठोस उपाय करने होंगे।  

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दल बदल के पीछे जनहित नहीं

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अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर दल -बदल और पक्ष -परिवर्तन के पीछे आम तौर नंगा स्वार्थ होता है।

जातीय स्वार्थ, पारिवारिक स्वार्थ और सार्वजनिक धन की लूटपाट का स्वार्थ।

ऐसे स्वार्थ देश के लोकतंत्र को कलंकित कर रहे हंै।

 कई मामलों में यह देखा गया है कि  यदि एक खास गठबंधन में रहने पर मलाईदार विभाग नहीं मिलता तो ,जन प्रतिनिधि राजनीतिक दलों का नया गठबंधन बना लेते हंै।

या गठबंधन के भीतर रह कर ही नेतृत्व का भयादोहन करते रहते हंै।

एक दल का मुख्य मंत्री किसी जन प्रतिनिधि को मंत्री नहीं बनाता तो वह दूसरे दल में चला जाता है।

अब तो नेता इस स्वार्थ में भी दल बदल रहे हैं कि कौन दल उनके परिवार के कितने अधिक सदस्यों को चुनावी टिकट देता है।

क्या यह सब चलने दिया जाना चाहिए ?

यदि चलता रहता है कि हमारी अगली पीढ़ियां हमारे बारे में कैसी राय बनाएंगी ?

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बिहार में विशेष निगरानी 

इकाई की सराहनीय पहल 

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विशेष निगरानी इकाई को चाहिए कि वह अंचल कार्यालयों और पुलिस थानों पर अधिक ध्यान दे।

याद रहे कि एसवीयू ने अब रिश्वतखोरी के खिलाफ भी कार्रवाई शुरू कर दी।

रिश्वतखोरी के खिलाफ विशेष निगरानी इकाई की यह पहल सराहनीय है।पहले एसयूवी भ्रष्टाचार के मामलों के उद्भेदन तक सीमित थी।

  उसकी नई पहल अंचल कार्यालयों के काम काज में फर्क ला सकती है।

दरअसल पटना में बैठी कोई सरकार भले अच्छा काम करे किंतु अधिकतर जनता का तो अंचल कार्यालयों व पुलिस थानों से ही पाला पड़ता हैै।

अंचल कार्यालय और थाने भीषण घूसखोरी के कारण अच्छी -अच्छी सरकारों की छवि जनता में खराब कर देते हैं।

पहले के दशकों में स्थानीय विधायक अंचल -थानों की घूसखारी के खिलाफ आवाज भी उठाते रहते थे।

अब तो अधिकतर विधायक अज्ञात कारणों से चुप ही रहते हैं।

वे अज्ञात कारण क्या हैं ?

शीर्ष नेतृत्व को उसका पता लगाना चाहिए।

  इस स्थिति में एसयूवी की जिम्मेदारी बढ़ जाती है।

उसके पास यदि मानव संसाधन की कमी हो तो राज्य सरकार उसे बढ़ाए।

  उसे घूसखोरीे के खिलाफ कार्रवाई पूरी तैयारी के साथ ही शुरू करनी चाहिए।क्योंकि उच्चस्तरीय संरक्षण पाए घूसखोर अफसर व कर्मचारी दस्ते पर जगह -जगह हमला भी करवा सकते हैं।

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  भूली-बिसरी याद

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बिहार और उत्तर प्रदेश दो ऐसे राज्य हैं जहां अपने अच्छे दिनों में भी कांग्रेस आंतरिक गुटबंदी से बुरी तरह पीड़ित रही।

चुनाव के समय उम्मीदवारों के नाम तय करने में हाईकमान के सामने भी दिक्कतें आती रहती थीं।

सन 1957 में कांग्रेस विधायक दल के नेता पद के चुनाव के बाद मतपत्रों के बक्से पटना से दिल्ली भेजे गए थे।

पटना में उसकी गिनती में धांधली की आशंका थी।

याद रहे कि तब डा.श्रीकृष्ण सिह का मुकाबला डा.अनुग्रह नारायण सिंह से था।

अंततः डा.श्रीकृष्ण सिंह विजयी हुए।

सन 1967 के आम चुनाव में उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी उम्मीदवारों के नामों की घोषणा एक साथ नहीं हो सकी थी।

तब आज जैसे अनेक चरणों में चुनाव नहीं होते थे।

  तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के हस्तक्षेप के बावजूद उत्तर प्रदेश में लोक सभा की कुल 85 सीटों में से पहली किस्त में 77 सीटों के उम्मीदवारों के नामों की ही घोषणा हो सकी थी।

यही हाल विधान सभा के उम्मीदवारों के साथ भी हुआ था।

तब उत्तर प्रदेश कांग्रेस के एक गुट के नेता चंद्रभानु गुप्त थे तो दूसरे गुट के नेता कमलापति त्रिपाठी थे।

  यू.पी.की राजनीति की गुटबंदी कम करने के लिए वहां की तत्कालीन मुख्य मंत्री सुचेता कृपलानी को केंद्र की राजनीति में ले जाया गया था।

 सन 1967 के आम चुनाव के बाद यू.पी.में कांग्रेस की सरकार बन गई थी।

पर कांग्रेस की गुटबंदी के ही कारण एक ही महीने के भीतर गुप्त सरकार गिर गई।

कांग्रेस से निकल कर चरण सिंह ने प्रतिपक्ष की मदद से अपनी सरकार बना ली।  

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और अंत में

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आम आदमी पार्टी ने भगवंत मान को पंजाब में मुख्य मंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है।

यदि वह मुख्य मंत्री बन गए तो वे संभवतः देश के पहले ऐसे मुख्य मंत्री होंगे जो सफल हास्य कलाकार रहे हैं।उससे शायद इस शुष्क व तनावपूर्ण राजनीति में कुछ

हंसी-खुशी आएगी !!

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कानोंकान

प्रभात खबर

पटना 21 जनवरी 22


गुरुवार, 20 जनवरी 2022

      हिंसा के आह्वान की छूट नहीं

   यति नरसिंहानंद की गिरफ्तारी सराहनीय

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     --सुरेंद्र किशोर--

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यति नरसिंहानंद गिरफ्तार कर लिए गए।

याद रहे कि हरिद्वार के गत धर्म संसद में उन्होंने भड़काऊ भाषण किया था।

 लोगों से अपील की थी कि वे जेहादियों के खिलाफ हथियार उठाएं।

 पुलिस ने देर से ही सही, किंतु सराहनीय काम किया।

खुलेआम हिंसा की वकालत करने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती।यह देश संविधान-कानून से चलेगा।

  पर,यति नरसिंहानंद के इस कृत्य के खिलाफ उन्हें बोलने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है जो सिमी,आई.एम.और पी.एफ.आई. आदि के खिलाफ मुंह नहीं खोलते बल्कि उनकी जेहादी हिंसा के अभियान व कर्म का प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से समर्थन करते हैं।

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 जेहादियों से लड़ने के लिए इस देश की पुलिस,अर्धसैनिक बल व सेना पर्याप्त हैं।

यदि उनमें कोई कमी लगे तो इन बलों में महिलाओं की संख्या अधिक से अधिक बढ़ाई जानी चाहिए।

जेहादी लोग किसी महिला की गोली से नहीं मरना चाहते।

क्योंकि तब उन्हें जन्नत नहीं मिल पाती।

इराक में बगदादी की जेहादी जमात से लड़ने के लिए वहां की सरकारी सेना में बड़ी संख्या में महिलाओें को शामिल किया गया था।

महिला सैनिक को देखते ही बगदादी के जेहादी भाग खड़े होते थे।

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16 जनवरी 22

   


सोमवार, 3 जनवरी 2022

   जो व्यक्ति न जाने किस ताकत के नशे में, किस उपलब्धि के घमंड में अपनी पूरी जवानी किसी को भी, कहीं भी, कैसे भी अपमानित करता रहता है,उसका आखिरी समय समय से पहले  ही आ जाता है।

वह भी कभी सरकारी अस्पताल में,कभी अनाथालय में या फिर कभी अनाथालय के बाहर ही सड़क के किनारे !!

  क्योंकि, अनाथालय की नौबत आने पर भी तो उसकी आदत नहीं छूटती !!!

   --सुरेंद्र किशोर

3 जनवरी 22


 


शनिवार, 1 जनवरी 2022

 


जुगनू शारदेय की याद

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 एक बड़े प्रकाशन समूह के हिन्दी प्रकाशन के अंशकालीन  

संवाददाता की आर्थिक दुर्दशा व व्यथा-कथा

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यह अकारण नहीं था कि देश के मशहूर व प्रतिभाशाली हिन्दी पत्रकार जुगनू शारदेय को अपने जीवन के आखिरी दिन अनाथालय में गुजारना पड़ा।

हाल ही में उनका निधन हुआ।

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सत्तर के दशक में जुगनू ने अंशकालीन संवाददाता के रूप में शुरूआत ‘दिनमान’ से की थी।

उससे ठीक पहले फणीश्वरनाथ रेणु बिहार से दिनमान के संवाददाता थे।

यानी, जुगनू पत्रकारिता में रेणु के अघोषित उत्तराधिकारी माने गए थे। 

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काश ! साप्ताहिक ‘दिनमान’ के प्रबंधन यानी टाइम्स आॅफ इंडिया प्रकाशन ने तब जुगनू के लिए सम्मानजनक पारिश्रमिक व यात्रा खर्च आदि का प्रबंध किया होता।

यदि ऐसा हुआ होता तो जुगनू शारदेय के निजी जीवन में शायद स्थिरता व थोड़ी संपन्नता भी आ सकती थी।

संभवतः उस स्थिति में उनकी बोलचाल में भी शालीनता आती।

पर, हुआ इसके ठीक विपरीत।

यानी, प्रथम ग्रासे मक्षिका पातः 

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एक संवाददाता की व्यथा-कथा उसी के शब्दों में पढ़िए- 

--‘‘क्या मैं सचमुच रिपोर्टर हूं या फटीचर हूं।

मेरी समझ से ‘दिनमान’ का रिपोर्टर तो वही हो सकता है 

जो काव्यमय शैली में संवेदनशील मानवीय संदर्भों से जुड़ा समाजवादी लेखन लिख सकता हो जिससे सबका उदय अर्थात सर्वोदय हो।

दिन भर लू में भूखे पेट घूमने के बाद मैं ऐसा नहीं लिख सकता।’’

---- जुगनू शारदेय, 16 अप्रैल 1973 

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मशहूर साप्ताहिक  

पत्रिका ‘दिनमान’ के 

संपादक के नाम सन 1973 में लिखा 

जुगनू शारदेय 

का निजी पत्र यहां प्रस्तुत है।

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इस पत्र को जुगनू की इजाजत के बिना भी प्रकाशित करवाना एक पत्रकार के रूप में तब मैंने जरूरी समझा था।

क्योंकि मैं जुगनू के बहाने हिन्दी पत्रकारों की व्यथा-कथा लोगों तक पहुंचाना चाहता था।

पता नहीं, मैंने गलत किया या सही !!

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वह पत्र तब की साप्ताहिक पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ (नई दिल्ली) में छपा था।

  मैं उन दिनों उस पत्रिका का बिहार संवाददाता था।

मैंने ही वह पत्र छपने के लिए भेजा था।

छपने के बाद जुगनू ने मुझसे बहुत झगड़ा किया।

स्वाभाविक ही था।

खैर, इस मामले में उनकी कोई गलती नहीं थी।

वैसे मेरी भी कोई गलत मंशा नहीं थी।

सार्वजनिक हित के तहत मैंने यह काम किया था।

क्योंकि मैं तो व्यक्तिगत अपमान सह कर भी एक हिन्दी पत्रकार के शोषण की कथा हिन्दी भारत को पढ़वाना चाहता था।

इस उम्मीद में कि अन्य अंशकालीन संवाददाताओं को उससे शायद कुछ लाभ मिल सके।

काश !

उसके बाद भी इस देश के अंशकालीन हिन्दी संवाददाताओं की सेवा शत्तों में थोड़ा सुधार हुआ हो पाता !

हुआ या नहीं,मुझे जानकारी नहीं है।  

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आश्चर्य हुआ था कि ‘दिनमान’ के अमीर प्रकाशन समूह ने अपनी अमीरी के बावजूद अपने अंशकालीन संवाददाताओं की सेवा शत्र्तों को बेहतर नहीं किया था।

साठ के दशक में तब की एक खबर के अनुसार टाइम्स आॅफ इंडिया की मूल कंपनी बैनेट एंड कोलमैन का वार्षिक मुनाफा करीब छह करोड़ रुपए था।

  फिर भी उस समूह के एक संवाददाता को अपने संपादक के नाम ऐसी चिट्ठी लिखनी पड़ी।

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दरअसल इस देश में जिस प्रकाशन से मुख्यतः अंग्रेजी अखबार निकलते हैं, उस प्रकाशन के भाषाई प्रकाशनों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है।

अपवादस्वरूप प्रभाष जोशी के महान व्यक्तित्व के कारण एक्सप्रेस ग्रूप के ‘जनसत्ता’ के साथ ऐसा दोयम दर्जे का व्यवहार नहीं हुआ। 

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  मेरी धारणा रही है कि हिन्दी में ‘दिनमान’ से बेहतर कोई पत्रिका आज तक नहीं निकली।

तब दिनमान पढ़ने से पिछले सप्ताह भारत सहित दुनिया में क्या -क्या प्रमुख घटित हुए,वह सब पाठकों को पता चल जाता था।

 मेरे निजी संदर्भालय में कुछ अपवादों को छोड़कर 1965 से सारे अंक उपलब्ध हैं। 

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यह बात सही है कि घाटा उठाकर भी उसके प्रकाशक दिनमान निकालते थे।

प्रथम संपादक सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ थे।वे सन 1965 से 1969 तक रहे।

उनके बाद में संपादक बने रघुवीर सहाय।

दिनमान ने एक पूरी पीढ़ी को राजनीतिक रूप से 

जागरूक बनाया।

दिनमान पढ़कर ही मैं पत्रकार बना।

  अफसोस हुआ कि दिनमान पर अन्य मद में खर्च करने के लिए तो प्रबंधन के पास पर्याप्त पैसे थे,पर जुगनू जैसे खबरों की समझ रखने वाले संवादाताओं के लिए नहीं।

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अनेक लोगों के साथ-साथ  दिनमान को पठनीय बनाने में जुगनू जैसे संवाददाताओं का भी थोड़ा योगदान रहा था।

क्या यह हिन्दी प्रकाशनों की दरिद्रता है या फिर संवाददाताओं की निरंतर उपेक्षा की एक और कहानी ?

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जुगनू का वह ऐतिहासिक पत्र

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माननीय,

   थोड़ी देर पहले फोन पर बातचीत करते हुए शायद आपको मेरे सुवचनों से दुख पहुंचा है।

  मेरे लिए यह अत्यंत हर्ष की बात है क्योंकि सन 1973 मेरा ‘दुख पहुंचाओ वर्ष’ है।

   थोड़ा दुख आपको और दे दूं।

   कुछ लोग ,जिनमें आप भी हैं, चाहते हैं कि मैं हनुमानी करतब दिखाऊं।

 जैसे कि थोड़ी देर पहले आपने फोन पर मुझसे कह दिया कि 

मधु लिमये का चित्र जीत की घोषणा के तुरंत बाद का चाहिए,हजारीबाग दंगा की रपट चाहिए और मैं रिपोर्टर हूं इसलिए खुद भी समझूं कि चुनाव के बाद क्या लिखना है।’ 

 क्या मैं सचमुच रिपोर्टर हूं या फचीचर हूं।

मेरी समझ से दिनमान का रिपोर्टर तो वही हो सकता है 

जो काव्यमय शैली में संवेदनशील मानवीय संदर्भों से जुड़ा समाजवादी लेखन लिख सकता हो जिससे सबका उदय अर्थात सर्वोदय हो।

दिन भर लू में भूखे पट घूमने के बाद मैं ऐसा नहीं लिख सकता।

  मेरी यह व्यक्तिगत धारणा है कि तीन वर्षों के सम्पर्क के बावजूद भी दिनमान क्या है--यह नहीं समझ पाया हूं।

शायद आपको स्मरण हो कि तीन अप्रैल के पूर्व मैंने आपको बांका के बारे में बताया था कि तो आपने कहा था कि ‘‘छोड़िए।’’

फिर अचानक 13 अप्रैल को तार मिला कि ‘‘सचित्र वृतांत सोमवार तक प्राप्त।’’

   जाहिर है कि आपने मुझे हनुुमान जी समझा होगा जो उड़कर बांका जाएगा या फिर जुगनू जी के पास एक बोतल वाला जिन होगा जो उनके एक इशारे पर तस्वीरें आदि लेता हुआ सोमवार को हाजिर कर देता।

   मैं मामूली बंदर बगीचा का निवासी ठहरा।

आपको 24 अप्रैल को याद भी याद भी दिलाया कि अब जाना बेकार है।

मगर हुक्म हुआ ‘चले जाइए।’

 चला गया।

लौट के आया तो हुक्म हुआ कि सभी उम्मीदवारों के फोटो लाइए।

  सहाय शाब, ये बिहार है अर्थात बेवकूफों का राज्य।

फोटो(उम्मीदवारांे के )न उनके दफ्तर में होते हैं और न ही उनकी जेब में।

  अब शाब मैं किदर से लाऊं ?

आपके पास तो बंद बोतल का भूत जुगनू जी महाराज हैं मेरे पास तो कोई जुगनू जी नहीं हैं।

  वैसे कोशिश करूंगा मगर तश्वीरें शाब मिलनी मुश्किल हैं।

मैं समझता हूं कि एक श्रेष्ठ संवाददाता होने के कारण आप मानते होंगे कि एक संवाददाता को जितनी सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिए ,उसका एक प्रतिशत भी मुझको उपलब्ध नहीं है।

अपने बाहुबल से कब तक मैं चला सकता हूं।

 (और क्यों चलाऊं ?)

फोन,गाड़ी आदि की मुफ्त सुविधा की कीमत मुझको खुद को बेच कर चुकानी पड़ती है।

मेरे सूत्रों का तो नाम भी आपके अखबार में नहीं छपता।

 संसार तो स्वार्थी है।

आपके अखबार की कृपा से मेरे निस्वार्थी सूत्र भी कम से कम आपके अखबार के लिए मेरी सहायता करने को तैयार नहीं हैं।

  क्योंकि आप यह मानेंगे कि पत्रकारिता में विश्वास बड़ी चीज है  और दिनमान की कृपा से लोग मुझे फ्राॅड भी समझने लगे हैं।

 उदाहरण बताए देता हूं।

विद्याकर कवि से एक भेंटवार्ता 1971 में मैंने लिया था और 1973 में श्री त्रिलोक दीप ने लिया था।

(दोनों आपसे पूछकर)मगर कवि से भेंट वार्ता दिनमान में नहीं छपा।

अगर छपा होता तो मैं उनको सीधा रास्ता हजारीबाग जाने का समझाता और उनकी गाड़ी या विमान में चिपक जाता।

अब कौन सा मुंह लेकर मैं उनके पास गाड़ी भी मांगने जाऊं।

अगर आप हजारीबाग जाने के लिए मुझे कहें भी तो मैं पैसे कहां से लाऊं ?

आपकी कृपा से कोई पांच सौ रुपए का कर्ज तो मेरे ऊपर है ही।

  अब तो वह दिन भी आने वाला है जब होटलवाला खाना,सिगरेट वाला सिगरेट और मित्रगण पैसे उधार देना बंद कर देंगे।

  मुझमें इतना नैतिक साहस नहीं है कि मैं औरंगाबाद जाकर मां से पैसे मांगू।

  अपनी परेशानी दिनमान के जरिए दूर कर सकता हूं मगर वह तो आप करेंगे नहीं।

  आपका कार्यालय तो मेहनत का भी पैसा समय पर आजकल नहीं देता है।

  जनवरी का चेक आज तक नहीं मिला है।

मार्च का वही हाल है।

और अग्रिम देना तो आपकी कंपनी के नियमों के ही विरुद्ध है।

  सो विनम्र निवेदन है आप सामग्री एकदम कड़ाई से भरपूर कांट छांट कर छापिए,जिस सामग्री के लिए किसी महान लेखक को डेढ़ दो सौ देते हो उसके लिए 15 रुपए काॅलम ही दीजिए,पर हनुमानी करतब दिखलाने के लिए मत कहिए। क्योंकि बहुत सारे व्यक्तिगत कारणों से एकदम निराश,थका और कमजोर हो चुका हूं।प्रणाम 

   आपका --जुगनू  

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  1-1-2022