गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

काटजू उवाच - नब्बे प्रतिशत भारतीय बेवकूफ

  भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष की टिप्पणियों पर अक्सर विवाद हो जाया करता है। पर, उनकी हाल की एक अत्यंत विवादास्पद टिप्पणी पर कोई विवाद खड़ा नहीं हुआ जबकि उनका यह ताजा बयान आए कई दिन बीत चुके। क्या न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू की विवादास्पद टिप्पणियों को लोगों ने नजरअंदाज करना शुरू कर दिया है ? इस बात के बावजूद कि श्री काटजू का ताजा बयान अब तक का सर्वाधिक विवादास्पद है ? न्यायमूर्ति काटजू ने 24 मार्च को दिल्ली में कहा था कि नब्बे प्रतिशत भारतीय बेवकूफ हैं क्योंकि उनके दिमाग में अंध-विश्वास, सांप्रदायिकता और जातीयता भरी हुई हैं। वे इसी आधार पर वोट देते हैं। ऐसे ही लोगों ने फूलन देवी तक को भी लोकसभा में इसलिए पहुंचा दिया था क्योंकि वह पिछड़ी जाति की थीं।

    इस देश में ऐसे विचार रखने वाले काटजू साहब अकेले नहीं हैं। इसलिए भी इस पर चर्चा जरूरी है। इस मामले में आजादी के तत्काल बाद भी कई प्रमुख लोगों ने यह सलाह दी थी कि मतदान का अधिकार सबको नहीं बल्कि चुने हुए पढ़े लिखे लोगों को ही मिलना चाहिए। पर संविधान निर्माताओं ने उन लोगों की सलाह नहीं मानी।

  आजादी के तत्काल बाद के पहले आम चुनाव में भी कुछ ऐसे लोग व दल उम्मीदवार थे जिन पर यह आरोप था कि वे अंधविश्वास, सांप्रदायिकता और जातिवाद फैलाने की कोशिश करते थे। पर उन उम्मीदवारों को आम तौर से नजरअंदाज करके इस देश की अधिसंख्य जनता ने कांग्रेस को बड़े बहुमत से सत्ता में बैठा दिया था। ऐसा इसलिए हुआ कि आजादी की लड़ाई में तपे -तपाये कांग्रेसी नेताओं पर अधिकतर जनता ने अधिक भरोसा किया। ऐसा नहीं है आज भी अंधविश्वासी, सांप्रदायिक और जातिवादी तत्वों की इस देश में उपस्थिति नहीं है। पर क्या उनकी संख्या नब्बे प्रतिशत है और वे चुनाव में भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं ? हां, कभी- कभी और जहां- तहां वे तत्व जरूर चुनाव में निर्णायक हो जाते हैं जहां के नेताओं की साख गिर चुकी होती है। और जनता को दो बुरे लोगों में से ही किसी कम बुरे को चुनना  पड़ता  है। क्या इसके लिए आप जनता को दोषी ठहराएंगे या नेता या फिर राजनीतिक दलों को या शासन को ?

 कोई भी कहेगा कि आम अंधविश्वास के मामले में 1952 में आज की अपेक्षा बदतर स्थिति थी। इसके बावजूद अधिसंख्य जनता ने तब आजादी की लड़ाई की मुख्य पार्टी कांग्रेस को हाथों -हाथ लिया। उस समय वही विवेकशीलता थी। अंधविश्वासी तत्वों के लिए प्रथम आम चुनाव अनुकूल नहीं रहा।

   विद्वान न्यायाधीश काटजू साहब को किसी अगले अवसर पर यह बताना चाहिए कि यदि अंधविश्वासी थी तो क्यों अधिसंख्य जनता यानी मतदाताओं ने सन 1952, 1957 ओर 1962 के आम चुनाव में कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाया ?

   क्या अधिकतर भारतीयों ने आजादी दिलाने वाली प्रमुख पार्टी कांग्रेस को वोट देकर अंधविश्वास, जातीयता और सांप्रदायिकता का ही परिचय दिया था?

   हां, जब बाद के वर्षों में कांग्रेसी सरकारों के खिलाफ शिकायतें अधिक बढ़ने लगीं तो इस देश की अधिसंख्य जनता ने सत्ता पर से उनके एकाधिकार को भी तोड़ दिया।

 सन 1967 के चुनाव में मतदाताओं ने देश के नौ राज्यों में कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। क्या ऐसा करके जनता ने बेवकूफी का परिचय दिया था? क्या 1971 में अधिकतर जनता ने इंदिरा गांधी की गरीबपक्षी घोषणाओं के पक्ष में खड़ा होकर गलत काम किया था ? क्या सन 1977 के चुनाव में कांग्रेस को केंद्र की सत्ता से हटाकर और पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस का लगभग सफाया करके अधिकतर जनता ने बेवकूफी का परिचय दिया ? दरअसल तब अधिकतर लोगों के दिलो दिमाग में आपातकाल की ज्यादतियां हावी थीं न कि कोई अंधविश्वास या दूसरा कुछ। क्या सन 1980 के चुनाव में आपसी कलह के लिए जनता पार्टी को सजा देने वाली जनता बेवकूफ थी?

क्या बोफोर्स तथा अन्य कई घोटालों की पृष्ठभूमि में 1989 में हुए आम चुनाव में राजीव सरकार को गद्दी से उतारकर मतदाताओं ने बेवकूफी की थी ?

क्या जंगल राज के खिलाफ 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में वोट देकर नीतीश कुमार को गद्दी पर बैठाने वाली बिहार की जनता अंधविश्वासी, सांप्रदायिक और जातिवादी थी ?

काटजू साहब को इस बात का भी जवाब ढूंढ़ना चाहिए कि पांच साल के अंतराल के बाद मुलायम सिंह यादव की पार्टी तो यू.पी. में फिर से सत्ता में आ गई, पर लालू प्रसाद की पार्टी बिहार में 2010 के चुनाव के बाद भी ंफिर से सत्ता में क्यों नहीं आ सकी ? दोनों प्रदेश तो भारत में ही है। दोनों प्रदेशों के लोगों का मनमिजाज करीब- करीब मिलता -जुलता भी है।

   कभी फुर्सत के क्षणों में इन प्रश्नों के जवाब ढूंढ़ने के लिए इसके मूल में काटजू साहब को जरूर जाना चहिए। काटजू साहब तो मीडियाकर्मियों को अनपढ़ या अधपढ़ बता चुके हैं। इसलिए विद्वान न्यायाधीश अपने गहन अध्ययन के जरिए शायद किसी सही नतीजे पर पहुंच जाएं। यदि ऐसा हुआ तो देश को कोई सही दिशा -निदेश भी मिल जाएगा।

 हाल के वर्षों के चुनावों में कतिपय विवादास्पद तत्वों की चुनावी सफलताओं को लेकर काटजू साहब की उपर्युक्त टिप्पणी की प्रासंगिकता एक हद तक समझी जा सकती है। पर उसके लिए 90 प्रतिशत जनता को दोषी ठहरा देने के अपने निर्णय पर उन्हें एक बार फिर विचार करना चाहिए। क्योंकि उसके लिए जनता नहीं बल्कि राजनीतिक दल व सरकारें जिम्मेदार रही हैं। इसको समझने के लिए बिहार के कुछ उदाहरण पेश कियो जा सकते हैं।

  अधिक साल नहीं हुए जब बिहार में राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव, आनंद मोहन और मोहम्मद शहाबुद्दीन जैसे बाहुबली लोकसभा के चुनाव भी भारी बहुमत से जीत जाते थे। कई बार वे अपने समर्थकों को भी चुनाव जितवा देते थे। पर आज बिहार में इनका राजनीतिक सिक्का क्यों नहीं चल पा रहा है ?
  इस सवाल के जवाब में सिवान लोकसभा चुनाव क्षेत्र का उदाहरण दिया जा सकता है।

 वहां गरीबों-मजदूरों के शोषण के खिलाफ सी.पी.एम. (माले) सक्रिय हुआ। क्योंकि शासन-प्रशासन गरीबों के हितों की रक्षा करने में आम तौर पर विफल रहता था। वहां मजदूर बनाम भूमिपति तनाव बढ़ा और मोहम्मद शहाबुद्दीन भूमिपतियों के पक्ष में उठ खड़े हुए। नतीजतन वे भूमिपतियों के एक बड़े हिस्से के हीरो बन गये।

  ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि शासन ने न तो माले कार्यकर्ताओं, समर्थकों व गरीबों के साथ न्याय किया और न ही भूमिपतियों के साथ। शासन ने न गरीबों के खिलाफ भूमिपतियों की हिंसक कार्रवाइयांें को रोका और न ही भूमिपतियों पर माले समर्थकों की हिंसक कार्रवाइयों पर लगाम लगाई।

शासनहीनता की स्थिति लंबे समय तक बनी रही। परिणामस्वरूप समाज के एक हिस्से के लिए माले के नेतागण पुलिस थाने की तरह काम करने लगे  और दूसरे हिस्से के लिए मोहम्मद शहाबुद्दीन।
पर, जब 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद सिवान सहित पूरे बिहार में राज्य शासन तंत्र सक्रिय हुआ और कानून -व्यवस्था बेहतर हुई तो चुनाव की दृष्टि से एक तरफ माले कमजोर हुआ तो दूसरी तरफ अनेक लोगों के लिए शहाबुद्दीन की अनिवार्यता भी कम हो गई। यह अकारण नहीं है कि आज न तो शहाबुद्दीन या उनके कोई परिजन किसी सदन के सदस्य हैं और न ही माले का ही कोई प्रतिनिधित्व है।

    यानी जब शासन कमजोर होता है या फिर तरह -तरह के हिंसक तत्वों से उसकी सांठगांठ हो जाती है तो हिंसक तत्व राजनीति में भी हावी हो जाते हैं। पर जहां साख वाला नेता या शासन उपलब्ध होता है तो वहां ऐसी नौबत नहीं आती। ऐसी स्थिति के लिए 90 प्रतिशत जनता दोषी है या वे लोग जो सरकार या पार्टी चलाते हैं ? इस सवाल का जवाब काटजू साहब को अगली बार देना चाहिए।
       
(जनसत्ता में 10 अप्रैल 2012 को प्रकाशित)

शनिवार, 7 अप्रैल 2012

तुम करोे तो पुण्य और मैं करूं तो पाप ?


संसद ने सांसदों के खिलाफ टीम अन्ना की एक ताजा टिप्पणी की एकमत से मंगलवार को निंदा की। वह खास टिप्पणी निंदा के काबिल थी भी। पर, सांसदों के उस सर्वसम्मत वायदे की लगातार वादाखिलाफी की निंदा कब यह संसद करेगी जो वायदा सन् 1997 में देश के साथ किया गया था ?
आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर संसद ने एक सर्वसम्मत प्रस्ताव में कहा था कि हम भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण को समाप्त करेंगे और चुनाव सुधार भी करेंगे। यदि संसद, सांसद व अब तक की सरकारों ने इस दिशा में ठोस कदम आगे बढ़ाया होता तो आज अन्ना टीम उभर कर सामने आती ही नहीं। उसकी जरूरत ही नहीं पड़ती। पर इसके विपरीत हकीकत तो यह है कि आज देश में सन् 1997 की अपेक्षा अधिक भ्रष्टाचार है। राजनीति का अधिक अपराधीकरण हुआ है और चुनाव सुधार के अभाव में विधायिकाओं का स्वरूप व चरित्र भी बदलता जा रहा है। इन दिनों अनेक छोटे -बड़े नेतागण व जन प्रतिनिधि सदन के भीतर व बाहर एक दूसरे को चोर, उच्चके, बदमाश, हत्यारे, बलात्कारी और न जाने क्या -क्या नहीं कहते रहते हैं। इस संबंध में इस देश में जहां -तहां मानहानि के मुकदमे भी दायर होते रहते हैं।
सन 1997 में हुए संसद के उस छह दिवसीय विशेष अधिवेशन में उस समय की दुरअवस्था को लेकर जिस तरह की कड़ी टिप्पणियां खुद सांसदों ने की थीं, सामान्यतः वैसी ही टिप्पणियां तो आज टीम अन्ना कर रही है। पर इस पर इस देश के अधिकतर नेतागण टीम अन्ना पर तमतमाये हुए हैं। यानी हम करें तो पुण्य और तुम करो तो पाप? इस देश की राजनीति आखिर आज कहां जा रही है ?
नई दिल्ली के जंतर मंतर पर टीम अन्ना के धरने के दौरान सोमवार को की गई एक आपत्तिजनक टिप्पणी पर संसद या यूं कहें कि अधिकतर सांसद तमतमा गये। वह टिप्पणी ही ऐसी थी कि संसद का तमतमाना वाजिब भी था। पर सवाल यह उठता है कि इसी संसद व उसके सदस्यों ने
पिछले 15 साल में अपने ही उस सर्वसम्मत प्रस्ताव को कूड़ेदान में आखिर क्यों फेंक दिया जो प्रस्ताव 1997 में पास हुआ था ? क्या इससे संसद या सांसदों की गरिमा बढ़ी ? क्या इस सर्वदलीय वादाखिलाफी के लिए जनता का तमतमाना उचित नहीं होगा ? क्या जनता से भी बड़ी संसद है ?
आज देश की अधिकतर जनता इसलिए भी तमतमाई हुई है क्योंकि इस बीच देश में 15 से भी अधिक महा घोटाले हो चुके हैं। नये -नये घोटाले होते ही जा रहे हैं। टीम अन्ना जनता के उसी तमतमाए तेवर को तो स्वर दे रही है। हां, स्वर कभी -कभी कर्कश हो जा रहे हैं। टीम अन्ना को उससे जरूर बचना चाहिए। पर अफसोसनाक स्थिति यह है कि घोटालों के आरोप बारी -बारी से इस बीच बारी बारी से सत्ता में आए करीब -करीब सभी प्रमुख दलों के अनेक नेताओं पर लगे। इसमें कुछ अपवाद जरूर हैं। पर अपवादों से तो देश नहीं चलता। इससे राजनीति की साख घटी या बढ़ी है? इससे संसद और उसके सदस्यों की गरिमा व साख बढ़ी या घटी ? जैसा आप बोओगे, वैसा ही तो काटोगे। यदि साख घटी है तो टीम अन्ना का भी तमतमाना कहां से गैर वाजिब है ?
अब जरा उस सर्वदलीय वायदे को एक बार फिर याद कर लिया जाए जो इस देश के करीब-करीब सभी दलों के नेताओं ने संसद के ऊंचे मंच से पूरे देश के सामने किया था। आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर छह दिनों तक संसद का विशेष सत्र चला था। उसमें पारित सर्वसम्मत प्रस्ताव से संबंधित खबर 2 सितंबर 1997 के अखबारों में छपी थी। खबर का इंट्रो इस प्रकार था, ‘संसद ने आज एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए भारत के भावी कार्यक्रम के रूप में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास किया। प्रस्ताव में भ्रष्टाचार को समाप्त करने, राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने के साथ- साथ चुनाव सुधार करने, जनसंख्या वृद्धि, निरक्षरता और बेरोजगारी को दूर करने के लिए जोरदार राष्ट्रीय अभियान चलाने का संकल्प किया गया।’
छह दिनों की चर्चा के बाद जो प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया गया उस प्रस्ताव को सर्वश्री अटल बिहारी वाजपेयी,इंद्रजीत गुप्त,सुरजीत सिंह बरनाला,कांसी राम,जार्ज फर्नांडीस, शरद यादव,सोम नाथ चटर्जी,एन.वी.एस.चितन,मुरासोली मारन,मुलायम सिंह यादव,डा.एम.जगन्नाथ,अजित कुमार मेहता,मधुकर सरपोतदार,सनत कुमार मंडल,वीरंेद्र कुमार बैश्य ,ओम प्रकाश जिंदल और राम बहादुर सिंह ने संयुक्त रूप से पेश किया था।
यह प्रस्ताव आने की भी एक खास पृष्ठभूमि थी।सन् 1996 में विभिन्न दलों की ओर से 40 ऐसे व्यक्ति लोक सभा के सदस्य चुन लिए गए थे जिन पर गंभीर आपाराधिक मामले अदालतों में चल रहे थे।उन मेंसे बिहार से चुने गये दो बाहुबली सदस्यों ने लोक सभा के अंदर ही एक दिन आपस में ही मारपीट कर ली।इस शर्मनाक व अभूतपूर्व घटना को लेकर अनेक बड़े नेता शर्मसार हो उठे और उन लोगों ने तय किया कि ऐसी समस्याओं पर सदन में विशेष चर्चा की जाए और इन्हें रोकने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं। इस विशेष चर्चा के दौरान सदन में कोई दूसरा कामकाज नहीं हुआ।वक्ताओं ने सदन में देशहित में भावपूर्ण भाषण किए।पैंसठ घंटे तक चर्चा हुई।कुल 218 सदस्यों ने भाषण दिये।इनके अलावा कई सांसदों ने अपने लिखित भाषण भी पेश किये।एक पर एक सदस्यों ने देश की गंभीर स्थिति पर भारी चिंता व्यक्त की।पर,उसका नतीजा शून्य रहा।यानी वे भाषण अंततः घड़िय़ाली आंसू ही साबित हुए। उस के बाद सन् 1998,1999, 2004 और 2009 में लोक सभा के चुनाव हो चुके हैं।इस बीच भाजपानीत और कांग्रेसनीत गठबंधन सरकारें केंद्र में बनीं।करीब -करीब सभी प्रमुख दलों के अनेक नेतागण बारी -बारी से केंद्र में मंत्री रहे।या फिर बाहर से समर्थन देते रहे।जो नेता 1997 में सांसद थे,उनमें कई नेता आज भी सांसद हैं। पर हमारे उन्हीं नेताओं ने अपने ही वायदे भुला दिए।इसका नतीजा यह हुआ कि ऐसे लोक सभा सदस्यों की संख्या बढ़कर आज 162 हो गई है जिन पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं।अगले चुनावों में उनकी संख्या बढ़ते जाने के ही संकेत हैं,घटने के नहीं।
इस बीच जब देश पर आतंकवादी हमले तेज हुए तो सुरक्षा मामलों के जानकारों ने केंद्र सरकार को बताया कि माफिया और आपराधिक प्रवृति के प्रभावशाली लोग विदेशी आतंकियों के लिए शरणस्थली मुहैया करते हैं।इस पृष्ठभूमि में देश की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए एक बार फिर इस समस्या पर नए ढंग से विचार करने का समय आ गया है।एन.एन.वोहरा समिति ने भी 1993 में ऐसी ही सिफारिश की थी।वोहरा समिति ने अपनी रपट में नेता-माफिया-अफसर गंठजोड़ की सक्रियता व उनकी बढ़ती ताकत की चर्चा की थी। इसलिए आज यह और भी अधिक आवश्यक हो गया है कि बड़ेे अपराधी और माफिया तत्वों के बीच से कुछ लोग चुनाव लड़ कर संसद सदस्य न बन जाएं।इसलिए भी यह जरूरी है कि जिन दलों और नेताओं ने आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर संसद में बैठकर देश के सामने जो सर्वसम्मत वायदे किये थे,उन्हें वे देश की सुरक्षा को ध्यान में रख कर अब तो पूरा करें।अब भी समय है कि विभिन्न दलों के नेतागण मिल बैठकर कम से कम यह फैसला करंे कि वे अब किसी विवादास्पद व्यक्ति को अगली बार लोक सभा चुनाव का उम्मीदवार नहीं बनाएंगे।इसके विपरीत लग तो यह रहा है कि हमारे अनेक सांसद ऐसे लोगों से ही लड़ते नजर आ रहे हैं जिन लोगों ने भ्रष्टाचार व अपराधीकरण के खिलाफ अभियान चला रखा है।इससे अंततः संसद,सांसद व पूरी राजनीति के प्रति आम जनता मेें कैसी धारणा बनेगी ?
कौन ईमानदार व्यक्ति आज यह कहेगा कि जिन मुद्दों और समस्याओं को लेकर हमारे नेताओं ने 1997 में संसद में भारी चिंता प्रकट की थी,उन मामलों में इस देश की हालत तब की अपेक्षा आज बेहतर हुई है ?
तो इस स्थिति को बदलने के लिए क्या-क्या उपाय हो रहे हैं ?राजनीति तथा दूसरे प्रभावशाली हलकों में आज भ्रष्टाचार का पहले की अपेक्षा काफी अधिक बोलबाला हो चुका है।पर जब बोलबाला कम था,तब हमारे नेताओं ने 1997 में सदन में क्या- क्या कहा था,उसकी कुछ बानगियां यहां पेश हैं।इससे भी यह पता चलेगा कि इन समस्याओं को हल करना अब और भी कितनी जरूरी हो गया है।क्या आज के सांसदगण 1997 में छह दिनों तक चली संसद की कार्यवाही का पूरा विवरण एक बार पढ़ने की जहमत उठाएंगे ?
लोक सभामें तब के प्रतिपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने बहस का समापन करते हुए एक सितंबर 1997 को कहा था कि ‘इस चर्चा से एक बात सबसे प्रमुखता से उभरी है कि भ्रष्टाचार को समाप्त किया जाना चाहिए।इस बारे में कथनी ही पर्याप्त नहीं,करनी भी जरूरी है।उन्होंने यह भी कहा था कि राजनीति के अपराधीकरण के कारण भ्रष्टाचार बढ़ा है।’
पूर्व प्रधान मंत्री एच.डी.देवगौड़ा ने कहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सभी दलों को मिलकर लड़ाई लड़नी चाहिए।तत्कालीन रेल मंत्री राम विलास पासवान ने कहा कि देश के सामने उपस्थित समस्याओं के हल के लिए सभी दलों को मिल बैठकर ठोस कदम उठाने चाहिए।लोक सभा के तत्कालीन स्पीकर पी.ए.संगमा ने तो भावावेश में आकर आजादी की दूसरी लड़ाई छेड़ देने का ही आह्वान कर दिया।आम तौर पर स्पीकर बहस में हिस्सा नहीं लेते।पर तब सदन का माहौल इतना भावपूर्ण था कि स्पीकर संगमा भी चर्चा में हिस्सा लेने से खुद को नहीं रोक सके थे।पर उस भावना की भी हमारे नेताओं ने बाद में कोई परवाह नहीं की।
1997 में संसद में जो प्रस्ताव सर्वसम्मत से पास हुआ था,उसे भाजपा नेता श्री वाजपेयी ने ही पेश किया था।यह भी दुर्भाग्यपूर्ण ही रहा कि इस बीच राजनीति के अपराधीकरण व भ्रष्टीकरण के खिलाफ जो भी प्रमुख व कारगर कदम उठाए गए,वे मुख्यतः चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट या कुछ मामलों में हाई कोर्ट की पहल पर ही उठाए गए न कि दलों,नेताओं या सरकारों द्वारा।इस बीच राजनीति में भी इक्के -दुक्के अपवाद जरूर उभर कर सामने आये हैं।पर वे समस्या के अनुपात में उंट के मुंह में जीरे के समान ही हैं।इस मामले में एन.डी.ए.सरकार का छह साल का कार्यकाल भी खुद अटल बिहारी वाजपेयी की उस भावना के अनुकूल नहीं रहा जो भावना अटल जी ने 1997 में लोक सभा में व्यक्त की थी।इस मामले में कांग्रेस सरकार का रिकार्ड तो आज लोगबाग देख ही रहे हैं जो अधिक खराब है।
आज भी टीम अन्ना पर तमतमाने के बजाये क्या पूरी संसद व केंद्र सरकार 1997 में संसद द्वारा देश को किये गये सर्वसम्मत वायदों को पूरा करने की कोशिश करेगी ?
यदि इस दिशा में ठोस काम शुरू भी कर दिया गया तो टीम अन्ना की प्रासंगिकता घट जाएगी।पर इसके बदले टीम अन्ना को ही लोकतंत्र व संसद का दुश्मन मानकर व बताकर कोई कार्रवाई की गई या अन्ना विरोधी बयानबाजी जारी रही तो उसके नतीजे प्रति -उत्पादक हो सकते हैं।यह नहीं भूलना चाहिए कि सन 1974 में जय प्रकाश नारायण को भी तब की सत्ता द्वारा लोकतंत्र का दुश्मन और विदेशी ताकतों का खिलौना कहा गया था। पर सन 1977 के चुनाव में उसका क्या नतीजा हुआ ?


(प्रभात खबर: 29 मार्च 2012 से साभार)