शनिवार, 27 अप्रैल 2024

 इंदिरा गांधी की निजी संपत्ति

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सच क्या और झूठ क्या ?

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सुरेंद्र किशोर

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26 अप्रैल, 24 के दैनिक भास्कर के अनुसार

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि इंदिरा गांधी की प्राॅपर्टी बचाने के लिए राजीव गांधी की सरकार ने विरासत टैक्स कानून खत्म किया।

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टाइम्स आॅफ इंडिया के अनुसार छत्तीस गढ़ के पूर्व मुख्य मंत्री 

भूपेश बघेल ने कहा कि प्रधान मंत्री झूठे हैं।उनको इतिहास का पता नहीं।

सच तो यह है कि इंदिरा गांधी ने 1970 में ही अपनी सारी संपत्ति सरकार को दान कर दी थी।

(ध्यान दीजिए सरकार को।)

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अब आप 19 मई, 1985 के इलेस्टे्रटेड

वीकली आॅफ इंडिया (टाइम्स आॅफ इंडिया प्रकाशन समूह की साप्ताहिक पत्रिका--जिसका प्रकाशन अब बंद हो चुका है।)

में प्रकाशित इंदिरा गांधी के वसीयतनामे का संक्षिप्त विवरण पढ़िए।

‘‘..........आनन्द भवन (इलाहाबाद)मैंने जवाहरलाल नेहरू स्मारक फंड को दे दिया।

पिता जी के निजी पेपर्स नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी को दे दिए।

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अपने गहने मैंने अपने पुत्र,पतोहू,पोती -पोतों को दिए।

मेहरौली (दिल्ली के पास) फार्म हाउस राजीव-सोनिया के बच्चों को मिलेगा।

मेरे शेयर्स, सिक्युरिटीज, यूनिट्स तीन पोते -पोती में बराबर बंटेंगे।

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मेरे पास जो गहने बचे हैं,वे प्रियंका के होंगे।

पुरातात्विक महत्व की वस्तुएं, जो निबंधित हैं, प्रियंका को मिलेंगे।

देनदारी देने के बाद जो पैसे मेरे बैंक खातों में बचेंगे वे फिरोज वरुण के होंगे।

संजय की संपत्ति में मेरा जो शेयर है,वह फिरोज वरुण को जाएगा।’’

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इस वसीयतनामे पर प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने 4 मई 1981 को दस्तखत किया था।

गवाह बने थे

1.-एम.वी.राजन

2.-माखनलाल फोतेदार।

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इस वसीयतनाम का पूरा विवरण पढ़ने के लिए 19 मई 1985 का विकली पत्रिका पढ़िए जो पुस्तकालय में मिल सकती है।

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27- 4 -2024

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पुनश्चः

वसीयतनामे में इंदिरा गांधी ने वरुण के बारे में एक महत्वपूर्ण बात लिखी है--

  ‘‘मैं यह देखकर खुश हूं कि राजीव और सोनिया ,वरुण को उतना ही प्यार करते हैं जितना अपने बच्चों को।

  मुझे पक्का भरोसा है कि जहां तक संभव होगा,वो हर तरह से वरुण के हितों की रक्षा करेंगे।’’

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ं 


गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

 जब तक अपवादों को छोड़कर देश के सरकारी स्कूल-कालेजों में ढंग से पढ़ाई और कदाचारमुक्त परीक्षाएं नहीं होंगी,तब तक नौकरियों के लिए आयोजित भर्ती परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक होते ही रहेंगे

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सुरेंद्र किशोर

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बिहार सहित इस देश में सरकारी नौकरियों के लिए जब -जब प्रतियोगिता परीक्षाएं होती हैं,अपवादों को छोड़ कर प्रश्न पत्र लीक हो ही जाते हैं।

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जब तक इस देश के सरकारी स्कूलों-कालेजों में ढंग से पढ़ाई नहीं होगी।

जब तक अपवादों को छोड़कर देश के सरकारी स्कूल-कालेज-विश्व विद्यालय की परीक्षाएं कदाचारमुक्त नहीं होंगी,तब तक भर्ती परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक होते ही रहेेंगे।

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1963 में मैंने मैट्रिक की बोर्ड परीक्षा दी थी।

उससे पहले योग्य शिक्षकों से स्कूली पढ़ाई मैंने की थी।

मैं जिन स्कूलों में पढ़ा,वे स्कूल सरकारी नहीं थे।

प्रबंध समितियों द्वारा संचालित थे।

अपवादों को छोड़कर काहिली और कदाचार की समस्याएं बिहार के स्कूल-कालेजों के सरकारीकरण के बाद अचानक बढ़ी।

साठ के दशक तक बिहार में बोर्ड -विश्व विदयालय परीक्षाएं आम तौर पर कदाचारमुक्त होती थीं।

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तब मैट्रिक परीक्षा में इक्के दुक्के परीक्षार्थी ही फस्र्ट डिविजन से पास करते थे।

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अधिकतर परीक्षार्थी थर्ड डिविजन से पास करते थे।

सेकेंड डिविजन वाले भी कम ही होते थे।फस्र्ट डिविजनर लड़के को आसपास के गांव के लोग देखने आते थे।

उसके पिता का भी नाम होता था।

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अब कैसा रिजल्ट आ रहा है ?

सर्वाधिक परीक्षार्थी फस्र्ट डिविजन से पास कर रहे हैं।

उनसे कम सेकेंड डिविजन।

सबसे कम थर्ड डिविजन।

क्या ऐसा रिजल्ट आज की पढ़ाई के वास्तविक स्तर को प्रतिबिंबित करता है ?अपवादों को छोड़कर नहीं करता।

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बिहार में सन 1996 में पटना हाईकोर्ट-जिला जजों की देख -रेख में मैटिक-इंटर की कदाचारमुक्त परीक्षाएं हुई थीं।

मैट्रिक में करीब 13 प्रतिशत और इंटर में करीब 17 प्रतिशत परीक्षार्थी ही पास कर पाये थे।वह रिजल्ट तब की शिक्षा के स्तर का सही प्रतिबिंब था।

पर,उसके कारण जब ‘‘शिक्षा का व्यापार’’ बंद होने लगा ,शिक्षा माफियाओं को दर्द सताने लगा तो राज्य सरकार ने उनके दबाव में आकर अगले ही साल से कदाचार की पहले जैसी छूट दे दी।

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एक दशक पहले इस देश के एक बड़े उद्योगपति ने कहा था कि इस देश में हर साल जितने इंजीनियर डिग्री हासिल कर रहे हैं,उनमें से औसतन मात्र 27 प्रतिशत ही ऐसे हैं जिन्हें हम नौकरी पर रख सकते हैं।

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परीक्षाओं में कदाचार के जरिए लाखों डिग्रियां थमाने वाली सरकारें श्क्षिित बेरोजगारों 

की फौज खड़ी करके अपने लिए ही सिरदर्द मोल ले रही हैं।

हमारे जमाने में जो फेल कर जाता था,वह सरकारी नौकरियों का मोह छोड़कर किसी अन्य काम- धंधे में लग जाता था।

आज तो योग्यता विहीन शिक्षित बेरोजगार दूसरे ही काम में लग जाते हैं।

हां,आज भी योग्यता संपन्न बेरोजगारों को सरकारी नहीं तो निजी क्षेत्रों में काम मिल ही जा रहे हैं।

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साठ के दशक में इंटर पास विद्यार्थी अपना माक्र्स सीट दिखा कर सरकारी मेडिकल-इंजीनियरिंग कालेजों में दाखिला करा लेता था।

मेरे जमाने में जिसने भी फस्र्ट डिविजन से मैट्रिक पास किया,यदि चाहा तो डाकतार विभाग में माक्र्स सीट पर ही नौकरी पा गया।

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जब स्कूल-कालेजों का स्तर गिरा तो मेडिकल-इंजीनियरिंग काॅलजों में दाखिले के लिए भी प्रतियोगी परीक्षाएं होने लगी।

पर,अब तो उन प्रतियोगी परीक्षाओं का भी क्या हाल है,यह कहने की जरूरत नहीं है।

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इस समस्या का निराकरण कौन करेगा ?

यह समस्या देशव्यापी है।

किसी दल ने इस चुनाव में गंभीर रूप से यह मामला उठाया ???

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25 अपैल 24  


बुधवार, 24 अप्रैल 2024

 राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की पुण्यतिथि पर

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( 23 सितंबर, 1908-24 अप्रैल, 1974)

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रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का 24 अप्रैल (1974) की रात को मद्रास के एक अस्पताल में निधन हो गया।

  थोड़ी देर पहले तक वह समुद्र तट पर मित्रों के सामने कविता पाठ कर रहे थे--स्वस्थ और प्रसन्न थे।

   उसके भी पहले वेल्लूर जाने को मद्रास में ठहरे जयप्रकाश नारायण से वह मिल रहे थे और उन्हें एक लंबी कविता सुना रहे थे जो उन्हीं पर लिखी थी।

  एक दिन पूर्व तिरुपति मंदिर में देवमूर्ति को भी उन्होंने तीन बार कविताएं सुनायी थीं-तीनों बार नई रचना करके दर्शन किया था।

  समुद्र तट से लौटे तो सीने में दर्द उठा।

  घरेलू उपचार कारगर न होने पर मित्र रामनाथ गोयनका और गंगा शरण सिंह उन्हें तुरंत अस्पताल ले गये।

  पर तब तक आधे घंटे का ही जीवन शेष रह गया था।

  25 अप्रैल की सुबह 7 बजे लोगों ने आकाशवाणी का समाचार सुना।

  उन्हें अखबार से भी खबर मिल चुकी थी।

परंतु पटना में बहुत कम लोगों को मालूम हो सका कि उनका शव हवाई जहाज में मद्रास से दिल्ली और दिल्ली से पटना पहुंचेगा।

  दिल्ली में हवाई अड्डे पर मद्रास से आये जहाज से निकाल कर ताबूत पटना के जहाज में चढ़ा दिया गया जो छूटने को तैयार था।

  इसी बीच राजनीतिकों ,साहित्यकारों ,मित्रों और परिवार के लोगों ने उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित की।

 दोपहर में एक बजे पटना हवाई अड्डे पर साहित्यकारों सहित अन्य नागरिकों के अतिरिक्त मुख्य मंत्री अब्दुल गफूर और विधान सभाध्यक्ष हरिनाथ मिश्र उपस्थित थे।

ताबूत को स्वजनों ने विमान से उतार कर पुलिस वाहन में रखा,राजेंद्र नगर के मकान में उसे लाये।

  दोनों भाई ,पत्नी और सारा परिवार गांव से आ गया था।

 95 साल की मां ने अपने ‘नूनू’ को देखा।

अंतिम दर्शन के लिए लोग आने लगे।

शाम पौने छह बजे अर्थी उठी।

  आगे -आगे जन संपर्क विभाग के वाहन से रामधुन यायी जा रही थी।

रास्ते में हिन्दी साहित्य सम्मेलन भवन में फूल चढ़ाये गये।

  बांस घाट (गंगा किनारे) पर श्मशान का अंधेरा छाया हुआ था।कहीं से गैस बत्ती का इंतजाम किया गया।

  शव चिता पर रखा गया।

बिहार सशस्त्र पुलिस के जवानों ने लास्ट पोस्ट --अंतिम समय का बिगुल -बजाया।

पुत्र केदारनाथ सिंह ने मुखाग्नि दी थी।

कवि के लिए नगर नगर शोक सभाएं जुड़ीं।

प्रधान मंत्री (इंदिरा गांधी)ने कहा, देश का एक अन्यत्तम सृजनशील कलाकार चला गया।

  दिनकर जी निधन से कुछ दिन पहले अपने समकालीन साहित्यकारों ,राजनीतिकों और मनीषियों के जीवन पर एक पुस्तक तैयार कर रहे थे।

आशा है शीघ्र वह प्रकाश में आएगी।

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 साप्ताहिक पत्रिका ‘दिनमान’ ( 5 मई 1974 )के सौजन्य से। 

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24 अप्रैल 2024




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मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

 


 23 अप्रैल-वीर कंुवर सिंह 

विजयोत्सव दिवस 

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सुरेंद्र किशोर

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स्वतंत्रता सेनानी पंडित सुन्दर लाल की चर्चित पुस्तक ‘‘भारत में अंग्रेजी राज’’( द्वितीय खंड) में यह लिखा गया है कि अंग्रेज बहादुर वीर कुंवर सिंह से लगातार कितनी बार हारे !

सुन्दर लाल समकालीन लेखक थे।

इतिहास के किस अन्य पुस्तक में ऐसा विस्तृत विवरण मिलता है ?

नहीं मिलता।

क्योंकि आजादी के बाद के हमारे शासकों के निदेश पर इतिहासकारों ने महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी जैसे योद्धाओं को भी कम करके दिखाया।

जानकार लोग बताते हैं कि तब के शासकों को यह भय था कि वे योद्धा जैसे वे थे,वैसा दिखाने पर देश में हिन्दुत्व की भावना बढ़ेगी।

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पंडित सुन्दर लाल की किताब में पहले पढ़िए 23 अप्रैल 1858 के युद्ध में पराजित अंग्रेज सेना

के अफसर की रोमांचक व्यथा-कथा

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 उस अंग्रेज सैनिक अफसर के शब्दों में,

‘‘वास्तव में, इसके बाद जो कुछ हुआ,उसे लिखते हुए मुझे अत्यंत लज्जा आती है।

  लड़ाई का मैदान छोड़कर हमने जंगल में भागना शुरू किया।

शत्रु हमें बराबर पीछे से पीटता रहा।

हमारे सिपाही प्यास से मर रहे थे।

एक निकृष्ट गंदे छोेटे से पोखर को देखकर वे उसकी तरफ लपके।

 इतने में कुंवर सिंह के सवारों ने हमें पीछे से आ दबाया।

 इसके बाद हमारी जिल्लत की कोई हद न थी।

हमारी विपत्ति चरम सीमा को पहुंच गई।

हम से किसी में शर्म तक न रही।

जहां जिसको कुशल दिखाई दी,वह उसी ओर भागा।

अफसरों की आज्ञाओं की किसी ने परवाह नहीं की।

व्यवस्था और कवायद का अंत हो गया।

चारों ओर आहों, श्रापों और रोने के सिवा कुछ सुनाई न देता था।

 मार्ग में अंग्रेजों के गिरोह के गिरोह मरे।

किसी को दवा मिल सकना असंभव था।

 क्योंकि हमारे अस्पतालों पर कुंवर सिंह ने पहले ही कब्जा कर लिया था।

 कुछ वहीं गिर कर मर गए ।

बाकी को शत्रु ने काट डाला।

हमारे कहार डोलियां रख -रख कर भाग गए।

सब घबराए हुए थे,सब डरे हुए थे।

सोलह हाथियों पर हमारे घायल साथी लदे हुए थे।

 स्वयं जनरल लीगै्रण्ड की छाती में एक गोली लगी और वह मर गया।

  हमारे सिपाही अपनी जान लेकर पांच मील से ऊपर दौड़ चुके थे।

उनमें अब बंदूक उठाने तक की शक्ति न रह गई थी।

 सिखों को वहां की धूप की आदत थी।

उन्होंने हमसे हथियार छीन लिए और हमसे आगे भाग गए।

गोरों का किसी ने साथ न दिया।

  199 गोरों में से 80 इस भयंकर संहार से जिन्दा बच सके।

हमारा इस जंगल में जाना ऐसा ही हुआ,जैसा पशुओं का कसाईखाने में जाना।

हम वहां केवल वध के लिए गए थे।’’

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इतिहास लेखक व्हाइट ने भी लिखा है कि 

‘‘इस अवसर पर अंग्रेजों ने पूरी और बुरी से बुरी हार खाई।’’

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  इससे पहले के युद्धों में अंग्रेजों 

  की लगातार पराजय के विवरण

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ईस्ट इंडिया कंपनी की फौजें कई युद्धों में जिस भारतीय राजा से हार गयी थी ,उस राजा का नाम था बाबू वीर कुंवर सिंह।

वीर कुंवर सिंह की याद में बिहार में बड़े पैमाने पर 23 अप्रैल को विजयोत्सव मनाया जाता है।

बिहार के जगदीशपुर के कंुवर सिंह जब अंग्रेजों से लड़ रहे थे, तब उनकी उम्र 80 साल थी।

यह बात 1857 की है।

  याद रहे कि  भोजपुर जिले के जगदीशपुर नामक पुरानी राजपूत रियासत के प्रधान  को सम्राट् शाहजहां ने  राजा की उपाधि दी थी।

  मशहूर पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ के यशस्वी लेखक पंडित सुन्दर लाल ने उन युद्धों का विस्तार से विवरण लिखा है।

  (अंग्रेजों के शासनकाल में ही यह पुस्तक लिखी गई थी।अंग्रेज सरकार ने इस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया था।)

लेखक के अनुसार 

‘जगदीश पुर के राजा कुंवर सिंह आसपास के इलाके में अत्यंत सर्वप्रिय थे।

 कुवंर सिंह बिहार के क्रांतिकारियों का प्रमुख नेता और सन 57 के सबसे ज्वलंत व्यक्तियों में थे।

  जिस समय दानापुर की क्रांतिकारी सेना जगदीशपुर पहंची, बूढ़े कुंवर सिंह ने तुरंत अपने महल से निकल कर शस्त्र उठाकर इस सेना का नेतृत्व संभाला।

 कुंवर सिंह इस सेना सहित आरा पहुंचे।

 बिहार में 1857 का संगठन अवध और दिल्ली जैसा तो न था,फिर भी उस प्रांत में क्रांति के कई बड़े -बड़े केंद्र थे।

 पटना में जबर्दस्त केंद्र था जिसकी शाखाएं चारों ओर फैली  थीं।

पटना के क्रांतिकारियों के मुख्य नेता पीर अली को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया।

 पीर अली की मृत्यु के बाद दानापुर की देशी पलटनों ने स्वाधीनता का एलान कर दिया।

ये पलटनें जगदीश पुर की ओर बढ़ीं।

बूढ़े कुंवर सिंह आरा पहुंचे।

उन्होंने आरा में अंग्रेजी खजाने पर कब्जा कर लिया।

जेलखाने के कैदी रिहा कर दिए गए।

अंग्रेजी दफ्तरों को गिराकर बराबर कर दिया गया।

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     आरा के बाग का संग्राम

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    29 जुलाई को दानापुर के कप्तान डनवर के अधीन करीब 300 गोरे सिपाही और 100 सिख सैनिक आरा की ओर मदद के लिए चले।

आरा के निकट एक आम का बाग था।कुंवर सिंह ने अपने कुछ आदमी आम के वृक्षों की टहनियों में छिपा रखे थे।

रात का समय था।

जिस समय सेना ठीक वृक्षों के नीचे पहुंची,अंधेरे में ऊपर से गोलियां बरसनी शुरू हो गयीं।

सुबह तक 415 सैनिकों में से सिर्फ 50 जिंदा बचकर दाना पुर लौटे।

डनवर भी मारा गया था।

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बीबी गंज का संग्राम

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इसके बाद मेजर आयर एक बड़ी सेना और तोपों सहित आरा किले में घिरे अंग्रेजों की सहायता के लिए बढ़ा।

2 अगस्त को आरा के बीबी गंज में आयर और कुंवर सिंह की सेनाओं के बीच संग्राम हुआ।

इस बार आयर विजयी हुआ।

उसने 14 अगस्त को जगदीश पुर के महल पर भी कब्जा कर लिया।

कुंवर सिंह 12 सौ सैनिकों व अपने महल की स्त्रियों को साथ लेकर जगदीश पुर से निकल गए।

उन्होंने दूसरे स्थान पर जाकर अंग्रेजों के साथ अपना बल आजमाने का निश्चय किया।

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   मिलमैन की पराजय

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  18 मार्च, 1858 को दूसरे क्रांतिकारियों के साथ कुंवर सिंह आजमगढ़ से 25 मील दूर अतरौलिया में डेरा डाला। 

मिलमैन के नेतृत्व में अंग्रेज सेना ने 22 मार्च 1858 को कुंवर सिंह से मुकाबला किया।मिलमैन हार कर भाग गया।

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    डेम्स की पराजय

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28 मार्च को कर्नल डेम्स के नेतृत्व में एक बड़ी सेना ने कुंवर सिंह पर हमला किया।

इस युद्ध में भी कुंवर सिंह विजयी रहे।

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   लार्ड केनिंग की घबदाहट

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कुंवर सिंह ने आजमगढ़ पर कब्जा किया।

किले को दूसरों के लिए छोड़कर कुंवर सिंह बनारस की तरफ बढ़े।

लार्ड केनिंग उस समय इलाहाबाद में था।

इतिहासकार मालेसन लिखता है कि बनारस पर कुंवर सिंह की चढ़ाई की खबर सुन कर कैनिंग घबरा गया।

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लार्ड मार्क की पराजय

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  उन दिनों कंुवर सिंह जगदीश पुर से 100 मील दूर  बनारस के उत्तर थे।

लखनऊ से भागे कई क्रांतिकारी कुंवर सिंह की सेना में आ मिले।

लार्ड कैनिंग ने लार्ड मारकर को सेना और तोपों के साथ कुंवर ंिसंह से लड़ने के लिए भेजा।

6 अप्रैल को लार्ड मारकर की सेना और कुंवर सिंह की सेना में संग्राम हुआ।

किसी ने उस युद्ध का विवरण इन शब्दों में लिखा है,‘

उस दिन 81 साल का बूढ़ा कुंवर सिंह अपने सफेद घोड़े पर सवार ठीक घमासान लड़ाई के अंदर बिजली की तरह इधर से उधर लपकता हुआ दिखाई दे रहा था।’

अंततः लार्ड मारकर हार गया।

उसे अपनी तोपों सहित पीछे हटना पड़ा।

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लगर्ड की पराजय

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कुंवर सिंह की अगली लड़ाई सेनापति लगर्ड के नेतृत्व वाली सेना से हुई।

कई अंग्रेज अफसर व सैनिक मारे गए।

कंपनी की सेना पीछे हट गयी।

कुंवर सिंह गंगा नदी की तरफ बढ़े।वे जगदीश पुर लौटना चाहते थे।

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डगलस की पराजय

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एक अन्य सेनापति डगलस के अधीन सेना कुंवर सिंह से लड़ने के लिए आगे बढ़ी।

नघई नामक गांव के निकट डगलस और कुंवर सिंह की सेनाओं में संग्राम हुआ।

अंततः डगलस हार गया।

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कुंवर सिंह गंगा की तरफ बढ़े

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कुंवर सिंह अपनी सेना के साथ गंगा की ओर बढ़े।

कुंवर सिंह गंगा पार करने लगे।बीच गंगा में थे।

अंग्रेजी सेना ने उनका पीछा किया।

एक अंग्रेज सैनिक ने गोली चलाई।गोली  कुंवर सिंह को लगी।

गोली दाहिनी कलाई में लगी।

विष फैल जाने के डर से कुंवर सिंह ने बाएं हाथ से तलवार खींच कर अपने दाहिने हाथ को कुहनी पर से काट कर गंगा में फेंक दिया।

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जगदीश पुर में प्रवेश

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22 अप्रैल को कंुवर सिंह ने वापस जगदीश पुर में प्रवेश किया।

आरा की  अंग्रेजी सेना 23 अप्रैल को लीग्रंैड के अधीन जगदीश पुर पर हमला किया।

इस युद्ध में भी कुंवर सिंह विजयी रहे।

पर घायल कुंवर सिंह की 26 अप्रैल, 1858 को मृत्यु हो गयी।

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कुंवर सिंह का चरित्र

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इतिहास लेखक के अनुसार ,

कुंवर सिंह का व्यक्तिगत चरित्र अत्यंत पवित्र था।

उनका जीवन परहेजकारी का था।

उनके राज में कोई मनुष्य इस डर से कि कुंवर सिंह देख न लंे, खुले तौर पर तंबाकू तक नहीं पीता था।

उनकी सारी प्रजा उनका बड़ा आदर करती थी और उनसे प्रेम करती थी।

युद्ध कौशल में वे अपने समय में अद्वितीय थे।

इतिहास लेखक होम्स ने लिखा है कि ‘‘उस बूढ़े राजपूत की,जो ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध इतनी बहादुरी और आन से लड़ा, 26 अप्रैल, 1858 को मृत्यु हुई।’’

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23 अप्रैल 24


सोमवार, 22 अप्रैल 2024

 कई दशक पहले की बात है।

घुसपैठियों की यहां बढ़ती संख्या से उपजी समस्याओं पर तब एक निजी टी.वी.चैनल पर गरमा गरम बहस चल रही थी।

देश के पूर्व विदेश सचिव मुचकुंद दुबे ओर शिवसेना के राज्य सभा सदस्य संजय निरुपम चर्चा में आमने -सामने थे।

मैं भी वह डिबेट सुन रहा था।

इस समस्या पर ‘‘नेहरू युग की नीति की लाइन’’ पर बोलते हुए दुबे जी

ने कहा कि यदि हम अपनी सीमाओं पर बाड़ लगाएंगे यानी पक्की घेराबंदी करेंगे तो दुनिया में भारत की छवि खराब होगी।

उस पर संजय निरुपम ने दुबे जी से सवाल किया--आप भारत के विदेश सचिव थे या बांग्ला देश के ?

शालीन दुबे जी चुप रह गये।

इसमें दुबे जी की भला क्या गलती थी ?

पचास के दशक में दुबे जी विदेश सेवा के लिए चुने गये थे।

तब भारत सरकार की वही नीति थी।

वे ढाका में भारत के उच्चायुक्त रह चुके थे।

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इस गैर जिम्मेदाराना नीति का हाल तक मजबूती से पालन होता गया।

नतीजतन सन 2017 तक हमारे देश में करीब 5 करोड़ बांग्लादेशी-रोहिंग्या घुसपैठिए भारत के ही वोट लोलुप नेताओं व भ्रष्ट सरकारी अफसरों-कर्मचारियों  की मदद से जहां तहां बस चुके हैं।बस रहे हैं।

उनके कारण इस देश के कई जिलों व इलाकों में आबादी का अनुपात बदल चुका है।

अब तो घुसपैठियों की यह संख्या और भी बढ़ गयी है।

आज घुसपैठियों के सबसे बड़े मददगार पश्चिम बंगाल के शासक हैं।आश्चर्य है कि सीमा पर

तैनात अर्धसैनिक बलों को भी लगभग निष्क्रिय कर दिया गया है।करीब 10-12 हजार रुपए में ही घुसपैठियों के सारे जरूरी सरकारी कागजात बन जाते हैं।

शायद इस चुनाव के नतीजे आ जाने के बाद कोई बड़ी कार्रवाई हो।

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22 अप्रैल 24


शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

     मोदी व भाजपा को उनके विरोधियों ने अपनी 

     अदूरदर्शिता के कारण अधिक ताकत पहुंचाई 

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               सुरेंद्र किशोर

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मशहूर चुनाव विश्लेषक संजय कुमार ने लिखा है कि

 ‘‘चुनाव में राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व अब केंद्रीय मुद्दा बन गए हैं।’’

(दैनिक भास्कर--19 अप्रैल,2024)

हालांकि उन्होंने महंगी और बेरोजगारी को भी अहम मुद्दा माना है, लेकिन केंद्रीय मुद्दा नहीं।

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लेखक के अनुसार, ‘‘सी.एस.डी.एस.-लोकनीति के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण से निष्कर्ष निकलता है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए बड़े पैमाने पर वोट खींचने वाला फैक्टर आज पार्टी की छवि नहीं,बल्कि उसका शीर्ष नेतृत्व यानी मोदी फैक्टर बन चुका है।’’

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इस अवसर पर मैं एक पुराना वाकया दुहरा दूं।

 1990-91 के मंडल आरक्षण विवाद के दौरान लालू प्रसाद सामाजिक न्याय के हीरो बनकर उभरे थे।

उनके हीरों बनने में खुद उनका जितना योगदान था,उससे काफी अधिक योगदान तब के आरक्षण विरोधियों का था।

बाद के वर्षों में यदि लालू प्रसाद ने पैसा-परिवार को लेकर संयम बरता होता तो वे पिछड़ों के नेता के साथ-साथ उनके मसीहा भी बन गये होते।

आज तो वे पिछड़ों में भी तब की अपेक्षा एक छोटे समूह के नेता रह गये हैं।

याद रहे कि मंडल आरक्षण, केंद्र की वी.पी.सिंह सरकार का न सिर्फ संविधान सम्मत कदम था,बल्कि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भीं उस पर मुहर लगा दी।

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आजादी के तत्काल बाद के वर्षों में कांग्रेस को बिहार में भी जब -जब पूर्ण बहुमत मिला,तब -तब उसने सिर्फ सवर्णों को ही मुख्य मंत्री बनाया।

  उस पर किसी सवर्ण नेता या बुद्धिजीवी ने कभी आवाज उठाई ?

हां,आज जब 1990 से लगातार पिछड़ी जातियों के नेता ही बिहार के मुख्य मंत्री बन रहे हैं तो उन्हंे उस पर एतराज हो रहा है।

अरे भाई,जो आपने बोया है,वही तो काट रहे हैं। 

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अब आप देश की मौजूदा स्थिति की समीक्षा करिए।

हिन्दुत्व और सनातन विरोधी राजनीतिक दलों और शक्तियों ने भाजपा व उसके नेता नरेंद्र मोदी को अनजाने में हीरो बना दिया है।(मोदी की ईमानदार छवि भी लोगों को आकर्षित करती है।)

  जिस राम मंदिर के पक्ष में अंततः सुप्रीम कोर्ट का भी निर्णय आया,उस मंदिर के खिलाफ 

अनेक भाजपा-राजग  विरोधी दलों ने दशकों तक न जाने कैसे -कैसे अभियान चलाये !

वह सब मुस्लिम वोट को खुश करने के लिए हुआ।

इस विरोध के खिलाफ बड़े हिन्दू समूह की गोलबंदी होनी ही थी।सो हुई।

जिस तरह 90 के दशक में पिछड़ों की 52 प्रतिशत आबादी के साथ हो रहे न्याय को कुछ लोगों ने बर्दाश्त नहीं किया ,उसी तरह देश की कुल आबादी के करीब अस्सी प्रतिशत हिन्दुओं की भावना का 

राजग विरोधी दलों ने ध्यान नहीं रखा।

ऐसा उन लोगों ने अल्पसंख्यक वोट के लोभ में किया।उसका परिणाम तो भुगतना ही पड़ेगा।

  आज राहुल गांधी नायनाड में किसके भरोस चुनाव लड़ रहे हैं ?

एस.डी.पी.आई.के भरोसे।

एस.डी.पी.आई.क्या है ?

यह पी.एफ.आई.का राजनीतिक विंग है।

पी.एफ.आई.क्या है ?

यह प्रतिबंधित संगठन है।

प्रतिबंधित क्यों है ?

क्योंकि उसके पास जो भूमिगत साहित्य मिला है,उसके अनुसार वह संगठन हथियारों के बल पर 2047 तक भारत को इस्लामिक देश बना देने के लिए दिन रात प्रयत्नशील है। 

यह सब अब छिपी हुई बात नहीं है।

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देश की सीमाओं को सुरक्षित रखना,घुसपैठियों को बाहर ढकेलना,जेहादियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करना हर राष्ट्रवादी देशवासी का कर्तव्य है।

 दुनिया के अन्य सारे देशों के लोग अपने जरूरत पड़ने पर ऐसा ही करते रहे हैं।इन दिनों चीन भी कर रहा है।

पर वोट बैंक और दूसरे लोभ में भाजपा को छोड़कर इस देश के लगभग सभी अन्य दलों ने राष्ट्र की सुरक्षा का यह काम सिर्फ भाजपा के जिम्मे छोड़ दिया।

ऐेसे में इस देश के राष्ट्रवादी लोगों का समर्थन भाजपा व उसके सहयोगी दलों को चुनाव में नहीं मिलेगा तो क्या वोट बैंक के सौदागरों को मिलेगा ?

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आज सी ए ए -एन आर सी-यू सी सी का समर्थन राष्ट्रवाद है।

आज घुसपैठियों का विरोध राष्ट्रवाद है।

इस बार का लोक सभा चुनाव रिजल्ट बता देगा कि अधिकतर मतदाताओं ने किसे राष्ट्रवादी माना और किसे नहीं माना।

यदि चीन सरकार अपने देश के जेहादी उइगर मुसलमानों के खिलाफ अभूतपूर्व सख्ती बरत रही है तो वह अपनी राष्ट्रवादी 

भूमिका ही तो निभा रही है।

पर,अपने देश के वैसे लोग अपने यहां ऐसे मामले में क्या कर रहे हैं जो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का अक्सर गुणगान करते रहते हैं ?

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कुल मिलाकर स्थिति यह है कि मोदी को महाबली बनाने में खुद मोदी व भाजपा का जितना बड़ा हाथ है,उससे कई गुणा बड़ा योगदान वोट बैंक के सौदागरों की गतिविधियों व रणनीतियों का है।

जिस तरह मंडल आरक्षण के विरोधियों में से अनेक लोग बाद में अपने विरोध के निर्णय पर पछताए,उसी तरह कुछ खास वोट के लिए राष्ट्र के हितों का बलिदान करने वाले दल इस लोक सभा चुनाव का रिजल्ट आ जाने के बाद संभवतः पछताएंगे।

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19 अप्रैल 24


गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

    एक अखबार समूह का 

  आर्थिक प्रबंधन ऐसा भी था

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कई दशक पहले की बात है।

एक अखबार समूह के मालिक को लगा कि 

यदि प्रेस की स्वतंत्रता बनाए रखनी है तो

अखबार के घाटे को पाटने के लिए आय का 

वैकल्पिक स्रोत भी बनाना पड़ेगा।

क्योंकि सिर्फ सरकारी विज्ञापनों के भरोसे अखबार नहीं 

निकाला जा सकता है।

कई बार कुछ स्वतंत्र अखबारों को कुछ सरकारें ‘‘अभियानी मीडिया’’कहने लगती हैं।

हालांकि अभियानियों की एक अलग प्रजाति आज भी है।

फिर उसे सरकारी विज्ञापन नाम मात्र का ही मिलता है।

या, नहीं मिलता रहा है।

वैसे अभियानी अखबारों को सरकार से उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए।

हां, वह आय का वैकल्पिक स्रोत तो खड़ा कर सकता है। 

 खैर, उसकी बातें जिनकी चर्चा मैंने शुरू की थी।

 इसीलिए उस मालिक ने देश के कुछ बड़े नगरों में अपनी बहुमंजिली इमारतें बनवाईं।

इमारत के कुछ स्थानों में अखबार के प्रेस व आॅफिस वगैरह रहे।

 बाकी को किराए पर उठा दिया ।

किराए के पैसों से अखबार का घाटा पूरा होने लगा।

हालांकि अखबार में आज जैसी शाहखर्ची नहीं थी।

मालिक गोयनका अपनी फियट के खुद ही ड्रायवर थे।

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18 अप्रैल 24

    


बुधवार, 17 अप्रैल 2024

 इमर्जेंसी (1975-77) में इंदिरा सरकार ने 

इस तरह उड़ाई थी संविधान की धज्जियां

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सुरेंद्र किशोर

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आपातकाल की घोषणा (25 जून 1975)के साथ ही संजय गांधी यह चाहते थे कि तमाम हाईकोर्ट अगले दिन बंद कर दिए जाएं ।

 अखबारों की बिजली काट दी जाए।

   पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री  सिद्धार्थ शंकर राय इस राय के नहीं थे।

 याद रहे कि हालांकि देश में आपातकाल लगाने की सलाह सिद्धार्थ शंकर राय ने ही तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को दी थी।श्रीमती गांधी की लोक सभा सदस्यता बचाने का यही एक उपाय उन्हें नजर आया थ।

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   आपात काल की घोषणा के संबंध में रेडियो पर पढ़ने के लिए प्रधान मंत्री का जो भाषण तैयार हुआ था,उसे डी.के.बरूआ और सिद्धार्थ शंकर राय के साथ मिल कर इंदिरा गांधी ने तैयार किया था।बरूआ ने नारा दिया था--

‘‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा।’’

   आपातकाल की भीषण ज्यादतियों की,जिसका शिकार इन पंक्तियों का लेखक भी हुआ था,जांच के लिए मोरारजी देसाई के नेतृत्ववाली जनता पार्टी सरकार ने 1977 में शाह आयोग का गठन किया था।

  आयोग ने 1978 में जो अपनी रपट तैयार की थी,उसमें उस समय की राजनीतिक व प्रशासनिक हलचलों का विवरण इन शब्दों में दिया गया,

‘‘ भाषण तैयार करने के बाद जब श्री राय कमरे से बाहर आ रहे थे  तो वे श्री ओम मेहता (केंद्रीय गृह राज्य मंत्री)से यह सुनकर आश्चर्यचकित हो गये कि अगले दिन उच्च न्यायालयों को बंद करने तथा सभी समाचार पत्रों को बिजली की सप्लाई बंद करने के आदेश दे दिए गए हैं।

ऐसा आदेश संजय की सलाह पर दिया गया था।’’

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   आज जब यह कहा जा रहा है कि देश की स्थिति आपातकाल के ठीक पहले जैसी ही हो रही है और जारी चुनाव के बाद संविधान बदल दिया जाएगा, तो एक बार फिर उस काले  आपातकाल की  कहानी दुहरा लेना मौजूं होगा।

याद रहे कि सन 1975 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक निर्णय से सख्त नाराज थीं जिसके तहत रायबरेली से उनके लोस चुनाव को रदद कर दिया गया था।इंदिरा गांधी पर चुनाव में सत्ता के दुरूपयोग का आरोप साबित हो गया था।

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    शाह आयोग की रपट की चर्चा कर ली जाए।

गृह राज्य मंत्री ओम मेहता की बात पर सिद्धार्थ शंकर राय को इसलिए आश्चर्य हुआ क्योंकि उन्होंने इंदिरा गांधी से कहा था कि आपात स्थिति में भी जब तक नियम नहीं बनाये जाते हैं,तब तक कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है।

 श्री राय ने शाह आयोग को बताया कि वहां उपस्थित व्यक्तियों से उन्होंने कहा कि उच्च न्यायालयों को बंद करना तथा समाचार पत्रों की बिजली काटना,बिलकुल संभव नहीं है।

  वे वहां रुके रहे क्योंकि वे श्रीमती गांधी को अपनी प्रतिक्रिया बताना चाहते थे।उन्होंने कहा कि मैं यहां से हटने के लिए तैयार नहीं हूं जब तक कि श्रीमती गांधी मुझसे मिल नहीं लेतीं।

  क्योंकि जो कुछ भी हो रहा था,वह बहुत महत्वपूर्ण था।श्रीमती गांधी को लौटने में देर हुई और जब वे वहां इंतजार कर रहे थे तो श्री संजय गांधी बहुत ही उत्तेजित और क्रोधित अवस्था में उनसे मिले और अत्यंत ही बदतमीजी और गुस्ताखी से कहा कि वे (श्री राय)यह नहीं जानते कि देश पर शासन कैसे किया जाता है।

 सिद्धार्थ शंकर राय ने गुस्सा न करके संजय गांधी को समझाया कि उनको अपने काम से काम रखना चाहिए और जो उनका क्षेत्र नहीं है,उसमें टांग नहीं अड़ानी चाहिए।(हालांकि वे नहीं माने।पूरे आपालकाल में संजय गांधी संविधानेत्तर सत्ता के केंद्र बन कर ज्यादतियां करते रहे।)

बाद में श्रीमती गांधी आईं और श्री राय ने उनसे कहा कि ऐसा नहीं होना चाहिए। 

श्रीमती गांधी ने भी कहा कि हाईकोर्ट बंद नहीं होना चाहिए और अखबारों की बिजली नहीं कटनी चाहिए।

    यह और बात है कि संजय गांधी के प्रभाव में काम कर रहे हरियाणा के मुख्य मंत्री बंसी लाल ने अपने राज्य के अखबार की बिजली कटवा दी।

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इमर्जेंसी के अत्याचारों की कहानियां अनंत हैं।पर एक महत्वपूर्ण बात कहनी जरूरी है।वह यह कि इंदिरा सरकार ने तब बोलने -लिखने का अधिकार कौन कहे,लोगों के जीने तक का अधिकार भी छीन लिया था।यह बात केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को साफ-साफ बता दी थी।भयभीत सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार के इस कदम को स्वीकार कर लिया था।

पूरे देश को जेलखाने में परिणत कर दिया गया था।

 ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ था क्योंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी की संसद की संदस्यता भ्रष्टाचरण के आरोप में रद कर दिया था।

 जिस दल ने खुद 1975-77 में संविधान की धज्जियां उड़ाईं,उसे यह आंशका हो रही है कि कहीं मोदी सरकार भी वैसा ही कुछ कर न दे।

भय स्वाभाविक है।

क्योंकि भीषण भ्रष्टाचार और देश तोड़क जेहादी गतिविधियों की समस्याओं से भारत की रक्षा के लिए इस चुनाव के बाद मोदी सरकार को कुछ बड़े और अभूतपूर्व कदम तो उठाने ही पड़ंेगे।चाहे उन कदमों के बुलडोजर के नीचे जो भी आ जाए !

कोई भी ईमानदार व देशभक्त सरकार इस देश को धर्मशाला बनते नहीं देख सकती।

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17 अप्रैल 24


 16 अप्रैल 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही कहा --

‘‘बैलेट से चुनाव में क्या होता था,आप भूल गए होंगे पर हमें याद है।’’

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सुरेंद्र किशोर

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सुप्रीम कोर्ट की बात की पुष्टि करेगी सन 1999 की यह खबर।

(हिन्दुस्तान में छपी उस खबर की स्कैन काॅपी यहां दी जा रही है।)

वैसे यह तो एक नमूना मात्र है।

उन दिनों जब भी मतदान होता था,दूसरे दिन अखबारों में ऐसी ही भयावह खबरें छपती थीं।

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26 सितंबर, 1999 के दैनिक हिन्दुस्तान,पटना के पहले पेज पर छपी खबर का शीर्षक है--

‘‘जमकर बूथ कब्जा और मत पत्रों की लूट के बीच नौ मरे’’

बिहार के 19 संसदीय क्षेत्रों में हुए दूसरे चरण के मतदान में हिंसा की घटना पहले चरण के मुकाबले कम रही।

लेकिन बूथ कब्जा ,मत पत्रों की छपाई(यानी बैलेट पेपर्स छीन कर उन पर अपनी पसंद की पार्टी के पक्ष में ठप्पे लगाने की घटनाएं )की खबरें प्राय सभी स्थानों से प्राप्त हुई है।’’

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जाहिर है कि मतपत्रों के जरिए मतदान की उस व्यवस्था के कारण ही इतने बड़े पैमाने पर धांधली हुआ करती थी।

ऐसी ही धांधलियों को रोकने के लिए ही इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों के जरिए मतदान का प्रावधान शुरू किया गया।

उसके बाद कितना फर्क आया है,यह बताने की जरूरत नहीं।

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पर,अब कई दल यह मांग कर रहे हैं कि फिर से मतपत्रों के जरिए ही मतदान हो।

जाहिर है कि इस मांग के पीछे की मंशा क्या है।

वे फिर से उन्हीं धांधलियों को दुहरा कर चुनाव जीतना चाहते हैं।

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हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस मांग को ठुकरा कर शांतिप्रिय मतदाताओं के पक्ष में निर्णय किया है।

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17 अप्रैल 24


 संवैधानिक प्रावधानों की रक्षा के लिए 

संविधान में संशोधन !

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संविधान के अनुच्छेद-356 की प्रासंगिकता बनाये रखने के लिए यह जरूरी है कि राष्ट्रपति शासन की संपुष्टि राज्य सभा से भी कराने की बाध्यता न रहे

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सुरेंद्र किशोर

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इस देश के किसी प्रदेश में यदि संवैधानिक तंत्र विफल हो जाए ,तो क्या होगा ?

 यदि केंद्रीय मंत्रिमंडल को संसद के दोनों सदनों में बहुमत हासिल नहीं हैं तो केंद्र सरकार  

संबंधित राज्य में चाहते हुए भी राष्ट्रपति शासन लागू नहीं कर सकती।

यानी, संविधान के अनुच्छेद-356 की मौजूदगी के बावजूद एक बड़े भूभाग में संविधान निरर्थक साबित होगा।

यानी वहां अराजकता छा जाएगी।

अपने देश के कुछ राज्यों में ऐसी नौबत आने वाली है।

एक हद तक आ भी चुकी है।मौजूदा मोदी सरकार को राज्य सभा में बहुमत हासिल नहीं है।

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संभवतः संविधान निर्माताओं ने इस बात की कल्पना ही नहीं की थी कि इस देश में ऐसा समय भी आएगा जब किसी दल को लोक सभा में तो बहुमत रहेगा ,उसकी सरकार रहेगी,पर राज्य सभा में वह अल्पमत में रहेगा।

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सन 1999 में केंद्र सरकार ने बिहार में राष्ट्रपति लागू कर दिया।पर, राज्य सभा से उसका अनुमोदन नहीं हुआ तो राज्य मंत्रिमंडल पुनर्जीवित हो उठा।

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निदान क्या है ?

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राष्ट्रहित के महत्वपूर्ण मामले को लेकर कोई निर्णय हो तो उसका अनुमोदन राज्य सभा से प्राप्त करने की बाध्यता समाप्त कर दी जानी चाहिए।

इस देश के जिन राज्यों में विधान परिषदें नहीं हैं ,वहां भी काम तो चल ही रहा है।

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इसके लिए संविधान में संशोधन एक न एक दिन करना ही पड़ेगा ताकि संविधान के अनुच्छेद-356 को निरर्थक न होने दिया जाये।

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16 अप्रैल 24


सोमवार, 15 अप्रैल 2024

 


मेरे लिए राष्ट्रीय स्तर के एक सम्मान की घोषणा से तहे दिल से खुश होने वालों में नेत्र रोग विशेषज्ञ व मेरे करीबी रिश्तेदार डा.सुनील कुमार सिंह प्रमुख हैं।

  सौभाग्यवश आज डाक्टर साहब से मुलाकात हुई।

वे अत्यंत व्यस्त व सफल चिकित्सक हैं।

उनसे अनेक बातें हुईं।

किदवईपुरी,पटना के संजीवनी नेत्र चिकित्सालय एवं शोध संस्थान के संचालक डा.सिंह समाजसेवा में भी रूचि लेते हैं।

 डा.साहब से मैंने अपने पुश्तैनी गांव के बाजार (भरहा पुर-खानपुर बाजार,दरियापुर,सारण)के विकास की संभावना के बारे में बातचीत की।

मैंने उन्हें बताया कि उस प्रस्तावित न्यू पटना इलाके में अच्छे स्कूल और विश्वसनीय अस्पताल की काफी गुंजाइश है। 

उन्होंने कुछ बहुमूल्य सुझाव दिये।

इस पर आगे भी उनसे बातचीत होगी।

--सुरेंद्र किशोर

14 अप्रेल 24

 

  

 


शनिवार, 13 अप्रैल 2024

   एक परिवार से एक ही टिकट

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सुरेंद्र किशोर

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करीब दो साल पहले उत्तर प्रदेश विधान 

सभा का चुनाव हुआ।

उस चुनाव में भाजपा नेतृत्व ने किसी ऐसे भाजपा नेता के परिजन को टिकट नहीं दिया जो नेता खुद पहले से किसी न किसी सदन के सदस्य थे।

  इस तरह कई के टिकट कट गये।

पार्टी में असंतोष फैला तो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि जिन्हें टिकट नहीं मिला है,उस फैसले के लिए मैं जिम्मेदार हूं।

यानी, किसी और पर गुस्सा मत कीजिए।

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किसी ने सवाल किया--राजनाथ सिंह के पुत्र को तो टिकट मिल गया।

जवाब आया कि इस नियम के लागू होने से पहले से जो विधायक थे,उन्हें अपवाद माना गया।

वैसे यदि अपवाद न माना जाता तो बेहतर होता।

पर, इतना तो मानिएगा कि परिवारवाद-वंशवाद के राजनीतिक समुद्र में इस देश में टापू की तरह एक पार्टी ऐसी भी मौजूद है जो अब एक परिवार से एक ही व्यक्ति को सदन मंे पहुंचा रही है।चाहे कोई खुश रहे या नाराज ! 

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यदि भाजपा कभी अपने ही इस नियम को तोड़े तो जरूर लोगों को बताइएगा।

क्योंकि नियम बनाना तो आसान है,पर उस पर कायम रहना बड़ा मुश्किल है।

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इस नियम को आज कितने अन्य दल अपनाने को तैयार हैं ?

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इसके विपरीत इस देश में ऐसे-ऐसे  परिवारवादी -वंशवादी राजनीतिक दल हैं जिनके सुप्रीमो के परिवार का जो भी सदस्य सदन में जाना चाहता है,उसके लिए राह बना दी जाती है।

इस परिवारवाद के कारण ही कांग्रेस की हालत आज सबसे खराब है।

ऐसे अन्य दलों का भी देर -सबेर वही हश्र होने वाला है।

समय रहते अपने राजनीतिक विरोधी से कम से कम एक सबक तो सीख लो। 

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13 अप्रैल 24

   


 13 अप्रैल 1919

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जालियांवाला बाग नर संहार से क्षुब्ध जवाहरलाल 

नेहरू अपना आरामदायक जीवन त्याग कर 

आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे 

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सुरेंद्र किशोर

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    जालियांवाला बाग नर संहार ने नेहरू परिवार की जीवन-शैली बदल दी थी।

 वह परिवार अंग्रेजों के खिलाफ अभियान में शामिल हो गया।

13 अप्रैल, 1919 को अंग्रेजों ने 319 लोगों को मार डाला था।

यह संख्या सरकारी है।गैर सरकारी सूत्रों के अनुसार मृतकों की संख्या इससे अधिक थी।

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  रौलट एक्ट के विरोध में गांधी के उठ खड़ा होने की खबर समाचार पत्रों में पढ़कर युवा जवाहर लाल नेहरू जरूर राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होना चाहते थे।पर, उनके पिता मोतीलाल नेहरू का तब इस बात पर विश्वास नहीं था कि मुट्ठी भर लोगों के जेल चले जाने से देश का कोई भला हो सकता है।

    उधर जवाहर लाल, महात्मा गांधी के साथ जुड़ने को उतावले थे।

इस सवाल पर मोतीलाल नेहरू और जवाहर लाल नेहरू के बीच अक्सर बहस होती थी।

 जवाहर लाल की बहन कृष्णा हठी सिंग ने लिखा है कि ‘‘इससे हमारे घर की शांति ही भंग हो गई थी।’’

 अपनी पुस्तक ‘इंदु से प्रधान मंत्री’ में कृष्णा ने लिखा है कि ‘‘हर स्थिति में से रास्ता निकालने में कुशल मेरे पिता जी ने आखिर इसका हल भी खोज ही लिया।उन्होंने गांधी जी को ही इलाहाबाद बुलाया।इस तरह गांधी जी हमारे यहां पहली बार आए,और तब उनका और नेहरू परिवार का पारस्परिक स्नेह क्रमशः गाढ़ा होता गया।’’

    ‘लंबी चर्चाओं के दौरान पिता जी और गांधी जी ने भारत की समस्याओं के अपने -अपने हल प्रस्तुत किए।लेकिन उनकी चर्चा जवाहर पर केंद्रित हो गई।क्योंकि पिता जी किसी ऐसे अकाट्य तर्क की खोज में थे जिससे जवाहर को सत्याग्रह सभा में शामिल होने से रोका जा सके। 

गांधी जी बिलकुल ही नहीं चाहते थे कि इस सवाल को लेकर पिता-पुत्र में मन मुटाव हो, इसलिए वह पिता जी की इस राय से सहमत हो गए कि जवाहर लाल को जल्दीबाजी में कोई फैसला नहीं करना चाहिए। 

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लेकिन गांधी जी की यह सलाह बेकार ही साबित हुई। क्योंकि घटनाक्रम ने ऐसा मोड़ लिया जिससे सब कुछ गड़बड़ा गया। वह लोमहर्षक घटना थी पंजाब के एक शहर अमृतसर में निहत्थे लोगों पर गोरी हुकूमत का खूनी हमला।’

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उसके बाद जवाहरलाल नेहरू आजादी की लड़ाई में कूद पड़े।

सत्ता पाने के बाद नेहरू ने देश का कितना भला किया या नहीं किया,यह इस लेख का विषय नहीं है।

पर 1919 में तो उन्होंने अपने भविष्य की परवाह नहीं ही की थी।

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    इस पृष्ठभूमि में आज की राजनीति पर गौर कीजिए।

कैसे -कैसे लोग राजनीतिक दलों में शामिल किये जा रहे हैं ?

कैसे- कैसे नेता चुनावी टिकट पा रहे हैं ?

टिकट कटने के बाद किस तरह अधिकतर नेता बिन जल मछली की तरह छटपटाने लग रहे हैं !

अपवादों को छोड़कर आज, सेवा के लिए नहीं बल्कि मेवा के लिए लोग राजनीति में जा रहे हैं।ऐसे लोगों से देश का कैसे भला होगा ?

जबकि आज देश के समक्ष कम चुनौतियां नहीं हैं।

देसी-विदेशी शक्तियां इस देश को तोड़ने के लिए दिन -रात काम कर रही हैं।वे हथियारबंद दस्ते तैयार कर रहे हैं।कई राजनीतिक नेता गण उन राष्ट्रविरोधियों का बेशर्मी से साथ दे रहे हैं।

ऐसे में यह अधिक जरूरी है कि राजनीति में अधिक से अधिक वैसे लोगों को लाया जाए, तरजीह दी जाएं जो बिकाउ न हों।

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13 अप्रैल 24


गुरुवार, 11 अप्रैल 2024

 समानता के अधिकार के खिलाफ

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जेल मंे रह कर भी कोई व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है,मंत्री 

बने रह सकता है किंतु मतदान नहीं कर सकता

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सुरेंद्र किशोर

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जेल में रह कर भी कोई व्यक्ति 

चुनाव के लिए नामांकन पत्र दाखिल कर सकता है।

मंत्री रहते जेल गया तो भी वह उस पद पर बने रह सकता है।ताजा उदाहरण मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल का है।

किंतु कोई विचाराधीन कैदी मतदान तक नहीं कर सकता।

यदि कोई सरकारी सेवक 48 घंटे से अधिक जेल में रह जाए तो उसे निलंबित होना पड़ेगा।

पर,यह बात किसी प्रधान मंत्री,मुख्य मंत्री या मंत्री पर लागू नहीं है।

 यह तो सरासर नाइंसाफी है।

यह हमारे लोकतंत्र की यह विडंबना है।

दरअसल संविधान निर्माताओं ने इस बात की पूर्व कल्पना ही नहीं की थी कि एक दिन हमारे देश में कई जन प्रतिनिधि या मंत्री या मुख्य मंत्री इतने बेशर्म हो जाएंगे।इसीलिए इस संबंध में कोई प्रावधान नहीं किया।

  इस देश में कई बार कुछ सांसद और विधायक यह मांग उठा चुके हैं कि उनके वेतन क्रमशः कैबिनेट सेक्रेट्री और मुख्य सचिव से अधिक होना चाहिए।

क्योंकि ‘‘वारंट आॅफ प्रेसिडेंस’’ में उनका स्थान ऊपर है।

किंतु दूसरी ओर वे चाहते हैं कि वैसे नियम उन पर लागू नहीं होना चाहिए जो उनके हितों के प्रतिकूल हांे।

यदि किसी उम्मीदवार के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज हो तो उसे सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती है।

किंतु अनेक आपराधिक मुकदमों के रहते हुए भी कोई आदतन अपराधी व्यक्ति संसद या विधायिका की सदस्यता के लिए आसानी से उम्मीदवार बन सकता है।

सवाल है कि ब्यूरोक्रेसी की कुर्सी अधिक पवित्र होनी चाहिए या जन प्रतिनिधियों की ?

  सन 2013 में मनमोहन सरकार ने एक अध्यादेश तैयार करके राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के यहां भेज दिया था।

उस अध्यादेश के लागू हो जाने के बाद वैसे जन प्रतिनिधियों की सदस्यता भी नहीं जाती जिन्हें दो साल या उससे अधिक की अदालती सजा हुई हो।

  उस अध्यादेश का विरोध करते हुए 

राहुल गांधी ने एक प्रेस कांफं्रेस में उस अध्यादेश की प्रति को सार्वजनिक रूप से फाड़ दिया।

उसके बाद मनमोहन सरकार की ध्वनि बदल गई।

अध्यादेश को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

कई लोग कहते हैं कि यदि कांग्रेस में परिवारवाद है तो भाजपा तथा कुछ अन्य दलों में भी तो है !

क्या आज किसी शीर्ष भाजपा नेता के परिवार का कोई युवक मोदी सरकार के किसी अध्यादेश को सार्वजनिक रूप से फाड़ देगा और मोदी सरकार उस अध्यादेश को वापस ले लेगी ?

‘‘परिवार में पार्टी’’ और ‘‘पार्टी में परिवार’’ का अंतर समझिए।

जिन सजायाफ्ता सांसदों की सदस्यता बचाने के लिए 2013 में वह अध्यादेश तैयार कर राष्ट्रपति को भेजा गया था,उनकी सदस्यता चली गई।

  सवाल है कि यदि किसी सरकारी कर्मचारी को दो साल की सजा हो जाए तो उसकी भी नौकरी बचाने का विचार मनमोहन सरकार कर रही थी ?

कत्तई नहीं।

वह प्रस्तावित मेहरबानी सिर्फ सजायाफ्ता नेताओं के लिए थी।

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11 अप्रैल 24

  





 नरेंद्र मोदी सरकार के किसी मंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के सबूत खोजकर कोर्ट में केस क्यों नहीं कर पा रहे हैं डा.सुब्रह्मण्यम स्वामी या कपिल सिब्बल ?

जबकि, अदमनीय स्वामी जी

इन दिनों मोदी सरकार के सख्त विरोधी हैं।

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डा.सुब्रह्मण्यम स्वामी ने तो जयललिता,ए.राजा-कोनीमोझी

 --नेशनल हेराल्ड मामलों में किसी सरकार की मदद के बिना ही कोर्ट में केस करके सफलता पा ली।वैसा करके स्वामी ने देश का भला किया था।

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सुरेंद्र किशोर

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अस्सी के दशक में तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि केंद्र सरकार दिल्ली से 100 पैसे भेजती है किंतु जनता तक उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही पहुंच पाते हैं। यानी 85 पैसे

बिचैलिये खा जाते हैं।

राजीव गांधी ने तब सत्ता के दलालों के खिलाफ अभियान चलाने की जरूरत बताई थी।पर,बाद में वे खुद ही बोफोर्स घोटाले में फंस गये।  

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अब आप ही अनुमान लगाइए कि सौ पैसे को घिस कर 15 पैसे बना देने के लिए प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू,लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी में से कौन कितना जिम्मेदार थे ?नेहरू सरकार ने आजादी के तत्काल बाद ही जीप घोटाले से शुरूआत करके घोटालों की नींव डाल दी थी।जीप घोटाले को कार्य रूप देने वाले कृष्ण मेनन को नेहरू ने मंत्री बना कर प्रमोशन दे दिया था।

याद रहे कि नेहरू के शासनकाल में ही यानी  

सन 1963 में ही तत्कालीन कांग्रेस  अध्यक्ष डी.संजीवैया ने इन्दौर के अपने भाषण में यह कहा था कि ‘‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे।’’

गुस्से में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने यह भी कहा था कि ‘‘झोपड़ियों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’’  

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यह अकारण नहीं है कि आजादी के 22 साल बाद भी सन 1969 में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देना पड़ा था।

  यदि सौ सरकारी पैसों में से कम से कम 80 पैसे भी सरजमीन पर खर्च हुए होेते तो 22 साल की आजादी के बाद भी गरीबी बनी नहीं रहती जिसे हटाने के नाम पर इंदिरा गांधी पर जनता से सन 1971 के लोक सभा चुनाव में 

वोट ले लिये ?

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एक खबर के अनुसार मनमोहन सिंह के प्रधान मंत्रित्व काल में कुल मिलाकर करीब 16 लाख करोड़ रुपए के घोटाले हुए।

उस मंत्रिमंडल के सिर्फ एक सदस्य पर आरोप है कि उसने भ्रष्टाचार से कमाये पैसों से छह देशों में अपने व परिवार के लिए डेढ़ लाख करोड़ रुपए की निजी संपत्ति खरीदी।वह पूर्व मंत्री अभी जमानत पर है।

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इधर 30 दिसंबर 23 को एक अखबार ने यह खबर दी कि मोदी सरकार के 10 वर्षों में प्रत्यक्ष कर संग्रह बढ़कर तीन गुना होने की उम्मीद है।याद रहे कि मोदी राज में भी सरकारी भ्रष्टाचार खत्म नहीं हुआ है,पर कम जरूर हुआ है।उसी कारण राजस्व बढ़ रहा है। 

इस बीच मोदी सरकार के किसी मंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप के सबूत अब तक न तोे कपिल सिब्बल को मिले और न ही डा.स्वामी को।

इसीलिए वे प्रधान मंत्री या किसी मौजूदा केंद्रीय मंत्री के खिलाफ कोर्ट नहीं जा सके हैं।

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राहुल गांधी यानी कांग्रेस को ‘न्याय योजना’ का गुरु मंत्र देने वाले नोबल विजेता भ्रष्टाचार का किस तरह पक्ष लेते हैं उसका प्रमाण नीचे दिया जा रहा है।-- 

‘‘चाहे यह भ्रष्टाचार का विरोध हो या भ्रष्ट के रूप में देखे जाने का भय,शायद भ्रष्टाचार अर्थ -व्यवस्था के पहियों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण था, इसे काट दिया गया है।

मेरे कई व्यापारिक मित्र मुझे बताते हैं निर्णय लेेने की गति धीमी हो गई है।.............’’

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--नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी,

हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान टाइम्स

23 अक्तूबर 2019

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शासन में भ्रष्टाचार घटने से

कर संग्रह बढ़ जाता है।

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नब्बे के दशक में बिहार सरकार का राजस्व लगभग मात्र दो हजार करोड़ रुपए था जबकि उन्हीें दिनों आंध्र सरकार को कर राजस्व से करीब 6 हजार करोड़ रुपए मिलते थे।

विकास व कल्याण योजनाएं इन्हीं पैसों से ही तो चलते हैं।राज्यों को आम तौर पर अपने राजस्व के अनुपात में ही केंद्रीय सहायता मिलती है। 

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11 अप्रैल 24 


मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

   मुख्तार अंसारी जैसे नामी-गिरामी व्यक्ति की जब मौत होती है तो देश के पक्ष-विपक्ष के बड़े -बड़े नेतागण अपने असली स्वरूप में प्रकट हो जाते हैं।

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 फोन-शिष्टाचार !

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सुरेंद्र किशोर 

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कुछ लोगों की यह शिकायत रहती है कि कुछ लोग हमारा  फोन नहीं उठाते।

इसके कई कारण हो सकते हैं।

एक ने कारण बताया--

‘‘मेरे एक करीबी मित्र हैं।

जब भी वे मुझे फोन करते हैं तो आधा घंटा से लेकर डेढ़ घंटे तक फोन नहीं छोड़ते।

इतना समय तो मेरे पास होता नहीं।

उनके जैसा खाए-पिए-अघाए-रिटायर तो हूं नहीं।

इसीलिए नहीं उठाता।

हां,कभी खाली रहता हूं तो जरूर उठाता हूं।

दरअसल फोन पर लंबी बतकही ,मुलाकात का विकल्प तो है नहीं।’’

   इस संबंध में मेरी एक बिना मांगी सलाह है।

जिसे आप फोन करते हैं,करना चाहते हैं,उसके बारे में जान लीजिए कि वह कौन सा काम करता है। 

और अपने काम में कितने घंटे रोज व्यस्त रहता है।

या कोई काम नहीं करता।

फिर फैसला कीजिए कि उससे कितनी देर फोन पर बात करनी चाहिए।

  या फिर एक अन्य उपाय भी है।

व्हाटसैप्प तो अब आम है।

उस पर मैसेज दे दीजिए कि आपसे जरूरी बात करना चाहता हूं।

ऐसा करने पर कोई व्यस्त व्यक्ति भी समय निकाल कर आपसे जरूर बात कर लेगा।

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2 अप्रैल 24    


    इसलिए हो रहा है अग्निवीर योजना का विरोध !

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सन 2022 में भारत सरकार ने अग्निवीर योजना शुरू की।

इसके तहत चार साल की टंें्रनिंग व सेवा के बाद इनमें से कुछ अग्निवीरों को तो तुरंत सरकारी नौकरी दे देनी है।

बाकी फिलहाल अपने घर लौट जाएंगे और नौकरी की प्रतीक्षा करेंगे।उन्हें सरकार कुछ मिलेगा भी।

सरकारी अनुमान के अनुसार उन्हें भी देर-सबेर सरकारी या गैर सरकारी नौकरी मिल जाएगी।क्योंकि ये प्रशिक्षित हैं।

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पर,इस बीच जब वे अपने घरों में रहेंगे तो उनके परिजन चोर-डकैत ही नहीं बल्कि अन्य तरह के हिंसक तत्वों खास कर जेहादियों से भी खुद को एक हद तक सुरक्षित महसूस करेंगे।

आज इस देश के अधिकतर घरों के लोग हथियार विहीन हैं।सरकारें आग्नेयास्त्र के लाइसेंस देने में उदारता नहीं बरतती जबकि आज कानून-व्यवस्था की स्थिति चिंताजनक है।स्थिति और भी गंभीर होने वाली है।

उधर जेहादी व प्रतिबंधित संगठन पी.एफ.आई. कुछ मुस्लिम युवाओं को बरगला कर सेना यानी कातिलों का दस्ता तैयार कर रहा है।

पी.एफ.आई.का लक्ष्य है कि यदि 10 प्रतिशत मुस्लिम युवक तैयार हो जाएं तों उनकी सेना बनाकर सन 2047 तक भारत को इस्लामिक देश बना देना है।

पर,पी.एफ.आई.को भारत के मुस्लिम समुदाय से अब तक इस मामले में निराशा ही मिल रही है।क्योंकि अधिकतर मुस्लिम शांति चाहते हैं।

पर, छिटपुट हिंसा-हंगामे लायक पी.एफ.आई. के पास ताकत तो हो ही गयी है।

शाहीन बाग की घटना इसका उदाहरण है।

प्रतिबंधित पी.एफ.आई.का राजनीतिक संगठन एस.डी.पी.आई.है जिसने कांग्रेस को मदद करने का निर्णय किया है।कर भी रही है।वह कांग्रेस को अपने से सबसे करीबी मानता है।

उसने कर्नाटका-तेलांगना के विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की मदद करके उसें सत्ता में पहंुचाया।

इस उपकार का बदला ???

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इस पृष्ठभूमि में जो लोग अग्निवीर

योजना का विरोध कर रहे हैं ,वे आखिर क्या चाहते हैं ?

वे चाहते हैं कि अधिकतर भारतीय परिवार निहत्था बना रहें।  उनके घर में कोई एक भी ऐसा सदस्य उपलब्ध न हो जो हथियारबंद आपराधियों का मुकाबला कर सके ।

याद रहे कि अपनी जान बचाने के लिए हमलावर पर हमला करने का कानूनी अधिकार हर भारतीय नागरिक को हासिल है।

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9 अप्रैल 24

   


 एक वृक्ष सौ पुत्रों के समान

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सुरेंद्र किशोर

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8 अप्रैल, 2024 के दैनिक जागरण,पटना के अनुसार मिशन हरियाली ,नूर सराय ने रविवार को संजय गांधी जैविक उद्यान (पटना)के गेट संख्या दो के पास मार्निंग वाकरों के बीच अमरूद के पौधों का वितरण किया।

इस मौके पर पौध रोपण के प्रति जागरूकता अभियान भी चलाया गया।

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ऐसी खबर उत्साह वर्धक होती हैं।

इस पर मुझे अपना आवासीय परिसर के वृक्ष याद आ गये।

पटना एम्स के पास के कोरजी गांव में मैं सन 2015 से रहा हूं।

अपने आवासीय परिसर में मैंने पौधरोपण किये।

11 पौधे अब तक वृक्ष बन चुके हैं।

उनमें आम,

अमरूद,

तेजपत्ता,

दालचीनी,

नीम,

मोहगनी शामिल हैं।

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वृक्ष को हमारे शास्त्रों में पुत्र की संज्ञा दी गयी है।

कहा गया है कि एक वृक्ष सौ पुत्रों के समान होता है।

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(जाहिर है कि कई बार कोई पुत्र, कुपुत्र हो सकता है।

किंतु फलदार वृक्ष

आपका साथ देते हैं।) 

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9 अप्रैल 24

 


रविवार, 7 अप्रैल 2024

 देश की हिन्दी पत्रकारिता की मुख्य धारा से जिन्होंने मुझे पहली बार जोड़ा,वह एन.के.सिंह आज मेरे घर आए थेे

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सुरेंद्र किशोर

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करीब 47 साल पहले की बात है।

तब मैं सक्रिय राजनीति -सह -समाजवादी पत्रकारिता के जीवन से निकलकर मुख्य धारा की पेशेवर पत्रकारिता में प्रवेश करना चाहता था।

इन्दौर के प्रतिष्ठित अखबार ‘नईदुनिया’ से मुझे जुड़ने में मदद करके एन.के. सिंह ने मुझे इस क्षेत्र में उड़ान भरने का बहुत बड़ा आधार दे दिया।

मैं उनका इसके लिए आभारी रहा हूं।

तब राजेंद्र माथुर नईदुनिया के संपादक थे।

उन्हीं दिनों इन्दौर से दिल्ली लौटकर साहित्यकार राजेंद्र यादव ने कहा था कि देश का सर्वोत्तम हिन्दी अखबार इन्दौर से निकलता है।

सन 1977 में मैं बिहार से नईदुनिया के लिए लिखने लगा था।यह क्रम 1983 तक चला। 

सन 1983 में मैंने जनसत्ता ज्वाइन किया।

याद रहे कि तब सुसंपादित अखबार नईदुनिया दिल्ली के अनेक बड़े संपादक, ,पत्रकार व बुिद्धजीवी पढ़ते थे।

मेरी रपटों पर उनमें से अनेक का ध्यान गया जिसका मेरे कैरियर में लाभ मिला। 

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एन.के.सिंह ने मुझे यह भी बताया था कि आप जो दैनिक अखबार खरीदते हैं,उनमें से अच्छी रपटों व लेखों को काट कर विषयवार लिफाफों में रखते जाइए।

वे बाद में काम आएंगे।मैंने वह काम किया और मुझे रपट और लेख लिखने के क्रम में वे बड़े काम के होते हैं।उससे तथ्यात्मक गलतियां होने की आशंका कम हो जाती है।वैसे सैकड़ों लिफाफे आज मेरे पास हैं तो उसके पीछे एन.के.सिंह का ही मार्गदर्शन रहा।

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एन.के सिंह इन दिनों चुनाव की रिपोर्टिंग के लिए बिहार के दौरे पर हैं।वे संभवतः हर चुनाव क्षेत्र में जाएंगे।

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आज उनके साथ बड़े पत्रकार व मेरे मित्र कन्हैया भेलाड़ी और स्वयं प्रकाश भी मेरे घर आयेे।

बहुत सारी बातें हुईं।

वैसे तो एन.के.सिंह यानी नरेंद्र कुमार सिंह बिहार के खगड़िया जिले के मूल निवासी हैं,पर अब भोपाल में बस गये हैं।

वे इंडियन एक्सपे्रस, इंडिया टूूडे और दैनिक भास्कर में बड़े पदों पर रहे।

श्री सिंह अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं में लिखते थे।

देश-समाज-राजनीति की पूरी समझ है। अखबार पढ़ने वाला पूरा देश उन्हें जानता है। 

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जाहिर है कि मुझे उनसे यह सुनकर अच्छा लगा कि --‘‘मैं चाहता था कि आपसे मिलकर ही आपको बधाई दूं।’’

इतना ही लिख देने से आप जान गये होंगे कि वे मुझे किस बात पर बधाई दे रहे थे।

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एन.के.सिहं की बिहार से लोस चुनाव पर रिर्पोंटिंग पठनीय होगी।

सटीक और वस्तुपरक रिपोर्टिंग करते हैं।

मुझे भी उनकी रपटों का इंतजार रहेगा।

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7 अप्रैल 24 


   

  


   मेरे गांव का एक दीवानी मुकदमा सन 1932 मेें शुरू हुआ।

मात्र आठ कड़ी जमीन के अतिक्रमण का केस था।

सन 1947 तक उसमें कोेई अंतिम निर्णय नहीं हुआ।

यानी, अंग्रेजों के राज में भी दीवानी मुकदमे कछुए की गति से चलते थे।

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आजादी के बाद भी सन 1969 तक वह केस चलता रहा।

अंत होने का नाम नहीं ले रहा था।

दोनों पक्षों का मुझ पर विश्वास था।

मैंने हस्तक्षेप किया।

सुलह हो गयी।

पर,आप कल्पना कीजिए कि 37 साल में लोअर कोर्ट से केस हाईकोर्ट और हाईकोर्ट से केस फिर लोअर कोर्ट जाता रहा।

कल्पना कीजिए कि दोनांे पक्षों को कितना खर्च करना पड़ा होगा !

शारीरिक तौर से भी कितनी दौड़ धूप करनी पड़ी होगी।

उन परिवारों का विकास कितना बाधित हुआ होगा !!

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इस घटना से कैसी शिक्षा मिलती है ?

यही कि गैर जरूरी खर्चे रोककर उस पैसे से परिवार को विकसित करके बाल -बच्चों को शिक्षित व आर्थिक रूप से ताकतवर बनाना हो तो कोर्ट-कचहरी जाने की जगह आपसी समझौते से ही मामले का निपटारा कर लेना चाहिए।

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सुरेंद्र किशोर

6 अप्रैल 24

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बुधवार, 3 अप्रैल 2024

 जिन्हें मूत्र चिकित्सा का नाम सुनकर ही 

घिन आती है,वे इस पोस्ट को कृपया न पढ़ें

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हा,ं जिन्होंने अपने कैंसरग्रस्त परिजन को 

अंतिम समय में असहनीय दर्द से कराहते हुए देखा है,

वे तो जरूर पढ़ें।

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सुरेंद्र किशोर

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सन 2022 में भारत में करीब 9 लाख लोगों की कैंसर से मृत्यु हुई।

उस साल करीब 14 लाख नये कैंसर मरीजों का पता चला था।

एक अध्ययन के अनुसार इस देश में करीब 10 प्रतिशत लोग कैंसर से ग्रस्त हैं।सबसे खराब स्थिति पंजाब की है

जहां देश में सर्वाधिक मात्रा में खेतों में रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाएं डाली जाती है।

निगरानी के लिए तैनात भ्रष्ट सरकारी कर्मियों की जानबूझकर अनदेखी के कारण बिहार सहित  

देश में बड़े पैमाने पर ऐसे खाद्य और भोज्य पदार्थ बेचे जा रहे हैं जो कैंसर कारक हैं। 

कैंसर के शर्तिया इलाज के लिए दवा का आविष्कार अभी नहीं हुआ हैं।हालांकि हाल में यह पता चला है कि वैज्ञानिकों को  जल्द ही सफलता मिलने की उम्मीद भी बंधी है।

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पर,जब तक वह उपलब्धि हासिल नहीं होती है, तब तक हमें इसकी एक उपलब्ध ‘‘शत्र्तिया’’ दवा के बारे में जान लेना चाहिए।

वह है स्वमूत्र चिकित्सा।

यदि कैंसर, लीवर में न हो और प्रारंभिक स्टेज में हो तो इसे आजमाना चाहिए।

वैसे आखिरी स्टेज वाले भी इससे ठीक हुए हैं।ं

मैं इस संबंध में कुछ लोगों के निजी अनुभव बताता हूं।

मोरारजी देसाई ने जिज्ञासा करने पर मुझे पत्र लिखकर उस पुस्तक का नाम सुझाया था जिसकी भूमिका उन्होंने लिखी है।मैंने उसे मंगाया है।

पूर्व प्रधान मंत्री खुद नियमित रूप से स्वमूत्र पान करते थे।अनेक चिट्ठयों के जरिए उन्होंने मुझे उसके फायदे बताए थे।मुझसे गलती यह हुई कि उस पर एक लेख बना कर मैंने गोरखपुर के प्राकृतिक चिकित्सालय ‘‘आरोग्य मंदिर’’ को भेज दिया--साथ में चिट्ठियों को भी भेज दिया था।

यदि लेख नहीं छपा तो उसका कारण है।

वहां के मशहूर प्राकृतिक चिकित्सक डा.बिठ्ठलदास मोदी स्वमूत्र चिकित्सा के खिलाफ थे।पर,मैंने यह उम्मीद की थी कि न छापने पर मोरारजी वाली चिट्ठियां मुझे लौट आएंगी।पर नहीं आईं।उन दिनों फोटोकाॅपी की सुविधा उपलब्ध नहीं थी।

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इस मूत्र चिकित्सा के जरिए मौत के मुंह से निकल आए डा.केशव प्रसाद सिंह से मैं 1997 में आरा के जयप्रकाश नगर जाकर मिला था।उससे पहले डा.सिंह पर टाइम्स आॅफ इंडिया में छपी रपट मैंने पढ़ी थी।

उन पर मैंने जनसत्ता में रिपोर्ट भी लिखा था जिसकी स्कैन काॅपी इस पोस्ट के साथ दी जा रही है।

एच.डी.जैन काॅलेज के राजनीति शास्त्र विभाग के अध्यक्ष रहे डा.सिंह ने मुझे बताया था कि ‘‘बंबई के टाटा स्मारक अस्पताल के डा.जस्सावाला ने मुझे लाइलाज घोषित कर दिया था।मुझे गले का कैंसर था।पर मैंने जब स्वमूत्र पान शुरू किया और तेजी से सुधार होने लगा तो डा.जस्सावाला ने देखकर कहा कि ‘‘इसे सिर्फ चमत्कार ही कहा जा सकता है।’’

केशव बाबू स्वस्थ होकर बाद में खुद लोगों की स्वमूत्र चिकित्सा करने लगे थे।मंैं एक मरीज लेकर उनके यहां गया था।मेरे साथ पत्रकार श्रीकांत भी थे।

मेरे मरीज को भी लाभ हुआ था।

पर चूंकि मेरे छोटे भाई के मर्ज की पहचान आखिरी समय में

हुई थी,इसलिए उसे बचाया न जा सका।

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वैसे तो कैंसर के कई कारण हैं,पर मेरी समझ से मुख्य कारण 

खाद्य और भोज्य पदार्थों में बड़ी मात्रा में रासायनिक खाद और रासायनिक कीटनाशक दवाओं का अंधाधुंध इस्तेमाल है।

मिलावटखोरी पर कोई नियंत्रण नहीं।दूध का इस देश में जितना उत्पादन होता है,उससे करीब दुगनी आपूर्ति हो रही है।पर शासन सोया हुआ है।

कैंसर हमारी हरित क्रांति की भी देन है जिसे हमारे अदूरदर्शी शासकों ने तब शुरू किया था जब अमेरिका जैविक खेती की ओर लौट रहा था।

जब मैं छोटा था और गांव में रहता था तो हमारे चुनाव

क्षेत्रं गड़खा के प्रतिनिधि गांधीवादी जगलाल चैधरी हमारे दरवाजे पर भी आते थे।वे हमारे अभिभावक को आगाह करते थे कि आपलोग गोबर का ही खाद खेतों में डालिए।रासायनिक   खाद से बहुत नुकसान होने वाला है।

पर भला कौन मानने वाला था !पैदावार जो बढ़ गयी थी।

उससे पहले गोबर खाद से उपजाये गये छोटे दाने वाले गेहूं की रोटी मैंने खाई है।

वह ‘‘सवाद’’और पौष्टिकता अब कहां ?

हां,पूर्व राज्य सभा सदस्य आर.के.सिंहा का मैं शुक्रगुजार हूं जो  कोइलवर के पास जैविक खेती कराते हैं और उपभोक्ताओं तक पहुंचावाते हैं।इस तरह कुछ लोगों तक कैंसर पहुंचने से रोकते

हैं। 

 जैविक उत्पाद महंगा तो जरूर पड़ता है।किंतु कैंसर के इलाज में जो भारी खर्च आता है,उसके मुकाबले कुछ भी नहीं है।साथ ही, गत साल मेरे छोटे भाई जैसे बहुमूल्य ‘सवांग’ को कैंसर ने लील लिया।उसकी क्षतिपूतर््िा असंभव है।ऐसे अनेक उदाहरण है।पंजाब के 

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रोज रात नौ बजे पंजाब के भटिंडा स्टेशन से ‘‘कैंसर ट्रेन’’(लोगों द्वारा यही नाम दिया गया है उस टे्रन का) खुलती है और सुबह छह बजे राजस्थान के बिकानेर पहुंचती है।इस ट्रेन में रोज करीब सौ कैंसर मरीज होते हैं।

बिकानेर के आचार्य तुलसी रिजनल कैंसर अस्पताल और रिसर्च सेंट्रल है।पंजाब सरकार कभी इस बात की जांच नहीं कराती कि जरूरत से अधिक खेतों में रासायनिक खाद क्यों दी जाती है।इसलिए नहीं कराती क्योंकि वह अढ़तियों और मंडी के दलालों के प्रभाव में रहती है।उनका इसमें निहित स्वार्थ है।

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3 अपैल 24


   


रविवार, 31 मार्च 2024

 इस देश का चुनावी इतिहास 

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जिस दल या गठबंधन को जनता ने अपेक्षाकृत अधिक 

भ्रष्ट व नुकसानदेह माना,उसे केंद्र की सत्ता नहीं सौंपी

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सुरेंद्र किशोर

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 इस देश में 1967 और उसके बाद के जितने भी चुनाव हुए,सबका मुझे थोड़ा-बहुत अनुभव और मोटा-मोटी जानकारियां हैं।

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अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर हर बार मतदाताओं ने 

‘बदतर’ को ‘छोड़कर’ बेहतर को ही चुना है।

कौन बेहतर और कौन बदतर है,इसे अधिकतर जनता जानती है,चाहे कोई कितना भी गाल बजाये।

लोक सभा के मौजूदा चुनाव का रिजल्ट भी वैसा ही होगा,ऐसा मेरा अनुमान है।

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ऐसा क्यों होता है ?

इसलिए कि अधिकतर लोग जानते हैं कि कोई व्यक्ति,पार्टी या विचारधारा पूर्ण नहीं है।

न तो मैं पूर्ण हूं ,न ही आप और न कोई नेता या कोई पार्टी।

पूर्ण तो सिर्फ ईश्वर है।(जो खुद को पूर्ण समझते हैं,वे मुझे ऐसी टिप्पणी के लिए कृपया माफ कर देंगे।)

इसीलिए इस देश के मतदातागण अपेक्षाकृत ‘‘कम पूर्ण’’ से ही काम चला लेते हैं।

और ‘‘अधिक अपूर्ण’’ को टरका देते हैं।

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मैंने देखा है कि पिछले किसी चुनाव में यह तर्क नहीं चला कि मैं भ्रष्ट तो मेरा प्रतिद्वंद्वी भी तो भ्रष्ट।

इसीलिए मतदातागण मुझे ही अपना लेंगे।

आम लोगों में से अधिकतर लोग यह देखते हैं कि कौन सा दल और नेता, देश व समाज के लिए कम नुकसान देह और अपेक्षाकृत अधिक फायदेमंद है।

  जो अपेक्षाकृत अधिक नुकसानदेह और कम फायदेमंद होता है,वह मौजूदा के बदले अगले चुनाव में अपनी तकदीर आजमाने को अभिशप्त होता है।

किसी का प्रचार जो कहे,मीडिया जो कहे,पर आम लोग नेताओं व दलों के चाल,चरित्र और चिंतन के बारे में अधिक जानते हैं।

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1977 में जब लोक सभा चुनाव हुआ तब भी इमरजेंसी हटी नहीं थी।

क्रूर तानाशाह ने ढिलाई जरूर दे दी थी।

घनघोर आपातकाल के बीच मैं भूमिगत जार्ज फर्नांडिस से मिला था।

  जार्ज ने एक अंग्रेजी अखबार के एक वरिष्ठ संवाददाता की रपट की चर्चा की।

कहा कि वह पत्रकार साख वाला है।ईमानदार है।इंदिरा के प्रभाव में आने वाला नहीं है।

वह झूठ नहीं लिखता।

उसने लिखा है कि प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की जनसभा में जो लोग जुटे थे,उनके चेहरों पर इंदिरा के लिए वास्तविक समर्थन और प्रेम के भाव थे।

   जार्ज ने मुझसे कहा कि लगता है कि इंदिरा ने लोगों को मोह लिया है।

इसीलिए जब फरवरी 1977 में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने लोस चुनाव कराने की घोषणा की तो जार्ज ने यह राय प्रकट की थी कि हमलोगों को चुनाव का बहिष्कार करना चाहिए।

पर,केंद्रीय नेतत्व संभवतः जेपी के कहने पर जार्ज चुनाव लड़नेे के लिए राजी हो गये।करीब साढे तीन लाख मतों से जीते।़

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उधर यह भी खबर आई थी कि आई.बी.ने इंदिरा गांधी को यह जानकारी दी कि चुनाव हो जाए तो आप एक बार फिर सत्ता में आ जाएंगी।

चुनाव के पीछे ऐसी ही रपटें थीं जो अंततः झूठी साबित हुईं।

यानी आम जनता (1977 में) किसे वोट देगी,इसका पता न तो आई.बी.को चल सका था और न ही जार्ज के मित्र व अनुभवी संवाददाता ,जो जार्ज की दृष्टि में निष्पक्ष थे।

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1977 के लोक चुनाव में 

अंततः जनता ने सही फैसला किया और इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर कर दिया।

इंदिरा गांधी के इरादे का पता इसी से चलता था कि चुनाव कराते समय भी उन्होंने इमरजेंसी जारी रखी थी।

सत्ता में लौटतीं तो क्या करतीं ,उसका अनुमान कर लीजिए।

इमरर्जेंसी में उन्होंने क्या-क्या किया था,उसे जानने के लिए शाह आयोग की रपट पढ़ लीजिए।

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31 मार्च 24