रविवार, 29 दिसंबर 2013

‘आप’ के सामने सरकार से अधिक साख बचाने की चुनौती


अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली में गठित आम आदमी पार्टी की सरकार ने अच्छी शुरुआत कर दी है।
उसने जल्द ही कई ठोस जनहितकारी कदम उठाने का आश्वासन भी आम लोगों को दिया है। पर इस सरकार की सफलता को लेकर कुछ हलकों में अपशकुन भी किये जा रहे हैं। दरअसल कई लोगों को यह लग रहा है कि ‘आप’ प्रयोग अंततः विफल हो जाएगा। क्योंकि ‘आप’ के नेतागण राजनीति व प्रशासन से भ्रष्टाचार का खात्मा कर देना चाहते हैं। अपशकुन करने वाले वही लोग हैं जो यह मान बैठे हैं कि इस देश में भ्रष्टाचार तो राजनीति व प्रशासन की गाड़ी को चलाने के लिए मोबिल का काम करते हैं और मोबिल के बिना गाड़ी चल ही नहीं सकती। फिर ‘आप’ की गाड़ी भला कैसे चल पाएगी !

  इसके साथ ही यह भी आशंका जाहिर की जा रही है कि कुछ विध्वंसक तत्व को ‘आप’ की सरकार को बदनाम व विफल करने के प्रयास में लग गये होंगे। इस पृष्ठभूमि में आम आदमी पार्टी के सामने अब अपनी सरकार से अधिक अपनी साख बचाये रखने की सबसे बड़ी चुनौती होगी।

राजनीतिक प्रेक्षक बताते हैं कि यदि ‘आप’ की साख बची नहीं रही तो देश का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन एक बार फिर दशकों पीछे चला जाएगा। इसके विपरीत यदि दिल्ली की आप सरकार ने अपने बेहतर कामों के जरिए अपनी साख बढ़ाई तो उसे पूरे देश में फैल जाने से कोई रोक नहीं सकता। क्योंकि पूरा देश आज राजनीति व प्रशासन में फैले भीषण भ्रष्टाचार से ऊब गया है।

  आप के एक विधायक विनोद कुमार बिन्नी के सामने नहीं झुक कर ‘आप’ ने अच्छे संकेत दिये हैं। पर उसे आगे भी और अधिक सावधान रहने की जरुरत पड़ेगी। याद रहे कि बिन्नी मंत्री पद नहीं मिलने के कारण सख्त खफा थे और वे विद्रोह की मुद्रा में थे।

इस पर आप ने साफ साफ कह दिया कि उसके दल में सत्तालोलुपों के लिए कोई जगह नहीं है। नतीजतन बिन्नी शांत हो गये। पर ‘आप’ के सामने यह तो एक छोटी समस्या थी। समस्याएं और भी हैं। कठिन चुनौतियां सामने हैं। क्योंकि ‘आप’ के सत्तारोहन की आहट पर ही इस देश के भ्रष्ट सरकारी व गैर सरकारी लोग डरे हुए हैं। वे आप की साख खराब करने के लिए कोई भी षड्यंत्र कर सकते हैं। दूसरी ओर स्टिंग आॅपरेशन का खतरा भी सामने है। कुछ ‘आप’ नेताओं की यह आशंका सही है कि कांग्रेस का समर्थन केवल केजरीवाल को कुर्सी पर बिठाने तक है। उसके बाद वह चाहेगी कि केजरीवाल विफल हों ताकि भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलन देश में जड़ नहीं पकड़ सके। कुछ अन्य दल भी ‘आप’ को सफल देखना नहीं चाहेंगे।

इससे पहले कांग्रेस पार्टी ने समय समय पर चैधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा और गुजराल के साथ यही किया। पर इस जाल से निकलने की जिम्मेदारी खुद आप नेताओं की ही है। उन्हें अपने चाल, चरित्र और चेहरे को बचाये रखना होगा। अन्यथा इस देश का भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलन एक बार फिर काफी पीछे चला जाएगा।
 इसके पहले के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों के साथ इस देश में यही हुआ। 1966-67 का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन विफल होने पर दोबारा उसे शुरू करने में सात साल लग गये थे। इस बीच सरकारी -गैर सरकारी भ्रष्टाचार बढ़ता गया। तानाशाही भी बढ़ी। यानी 1973 में ही गुजरात और 1974 में बिहार में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू हो सका।

  1966-67 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रमुख नेता डा.राम मनोहर लोहिया थे। उन्होंने जनसंघ और भाकपा सहित कई प्रतिपक्षी दलों को एक मंच पर लाया था। सन 1974 के आंदोलन के नेता जय प्रकाश नारायण थे। याद रहे कि गुजरात और बिहार आंदोलन छात्रों -युवकों ने शुरू किया था न कि राजनीतिक दलों ने। क्योंकि लोगों को उन गैर कांग्रेसी नेताओं पर भरोसा नहीं रह गया था जिन्होंने 1967 और 1972 के बीच देश के कई राज्यों में सत्तारुढ़ होकर अपनी सत्तालोलुपता दिखा दी थी।

  1974 के आंदोलन व उसके कारण बनी सरकारों ने जब पदलोलुपता दिखाई तो कोई नया आंदोलन शुरू होने में 13 साल लग गये। यानी वी.पी.सिंह का बोफर्स घोटाला विरोधी अभियान 1987 में ही शुरू हो सका। पर उस आंदोलन से उपजी सरकारें भी जनता की उम्मीदों पर खड़ी नहीं उतर सकी तो 2011 में अन्ना हजारे के नेतृत्व में जनलोकपाल विधेयक के लिए आंदोलन शुरू हो सका।

  यानी पहला आंदोलन विफल होने पर दूसरा शुरू करने मेंे सात साल लगे। दूसरा विफल होने पर तीसरा शुरू होने में 12 साल लग गये। तीसरा विफल होने पर चैथा शुरू करने में 20 साल लगे। अब यदि यह भी विफल हो जाएगा तो कल्पना कीजिए कि अगला आंदोलन शुरू होने में कितने साल लग जाएंगे ?
इस बीच इस गरीब देश की हालत और कितनी बुरी हो चुकी होगी। साथ ही परंपरागत राजनीति तब तक और कितनी गर्हित हो चुकी होगी !

   यदि डा.राम मनोहर लोहिया को थोड़ा लंबा जीवन मिला होता तो शायद 1967 के आंदोलन और उससे निकली सरकार को वे भरसक विफल नहीं होने देते। जय प्रकाश नारायण का स्वास्थ्य ठीक रहता तो वे जनता प्रयोग को सफल करने का प्रयास करते। अन्यथा वे फिर जनता के बीच जाते।

यदि भाजपा ने मंडल आरक्षण के खिलाफ मंदिर का बहाना बनाकर वी.पी.सिंह को सरकार को गिराया नहीं होता तो इस देश के भ्रष्टाचारियों का एक हद तक इलाज वी.पी. सिंह की सरकार कर चुकी होती। और उससे यह होता कि राजनीति के प्रति लोगों इतना मोहभंग नहीं हेाता जितना आज हो चुका है।

  आप विधायक विनोद कुमार बिन्नी के आगे नहीं झुक आम आदमी पार्टी ने अच्छा संकेत दिया है। पर आप को 1967 के डा.राम मनोहर लोहिया के कुछ कदमों को भी याद रखना होगा।

  1967 के चुनाव के बाद सात राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बन गई थीं। अन्य दो राज्यों में कांग्रेसी नेताओं के दलबदल के कारण गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं। इन सरकारों को डा.लोहिया ने सलाह दी थी कि वे छह महीने के भीतर जनहित में कुछ ऐसे बड़े फैसले कर दें ताकि लोग यह समझ जायें कि ये सरकारें कांग्रेसी सरकारों से काफी अलग ढंग की सरकारें हैंे। ऐसा नहीं होने पर कांग्रेस फिर सत्ता में आ जाएगी।

   डा.लोहिया के अनुसार कुछ फैसले तो उन राज्य सरकारों को सत्ता में आने के कुछ ही हफ्तों के भीतर ही करने थे। बिहार पर डा.लोहिया की सबसे अधिक नजर थी क्योंकि आनुपातिक दृष्टि में लोहियावादियों की बिहार में अन्य राज्यों की अपेक्षा सबसे बड़ी चुनावी जीत हुई थी।

 बिहार में गैरकांग्रेसी सरकार ने जब डा.लोहिया के निदेश को नजरअंदाज किया तो लोहिया ने अपने दल के एक बड़े बिहारी नेता से मिलने से भी इनकार कर दिया था।  इस पर उस नेता जी को होश आये। उन्होंने कुछ सरकारी काम तो किये। पर पूरे काम नहीं हो सके।

 1967 में बिहार में ही बी.पी. मंडल को, जो बाद में मंडल आयोग के अध्यक्ष बने थे, मंत्री बना दिया गया था जबकि वे 1967 के लोकसभा चुनाव में संसोपा के टिकट पर मधेपुरा से सांसद चुने गये थे। उन्हें मंत्री बनाने से पहले डा.लोहिया की राय नहीं ली गई थी। डा.लोहिया मानते थे कि जो जहां के लिए चुना जाए , वह उसी सदन का काम करे। डा.लोहिया को जब पता चला तो उन्होंने निदेश दिया कि बी.पी.मंडल मंत्री पद से इस्तीफा देकर लोकसभा के सदस्य के रूप में काम करें। पर मंडल ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया। मंडल कांग्रेस से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए थे।

  बिहार के कुछ संसोपा नेताओं ने डा.लोहिया को समझाने की कोशिश की कि मंडल को मंत्री पद छोड़ने के लिए मजबूर कीजिएगा तो वे सरकार गिरा देंगे। लोहिया ने कहा कि भले वे सरकार गिरा दें पर उनके लिए पार्टी की नीति नहीं बदली जाएगी। मंडल ने आखिरकार सरकार गिरा ही दी।

  सन 1968 में वे खुद मुख्यमंत्री बन गये। इससे संसोपा की साख घटी। हालांकि उससे पहले डा.लोहिया का अक्तूबर, 1967 में असामयिक निधन हो चुका था। यदि दिल्ली की आम आदमी पार्टी अपनी सरकार की चिंता किये बिना ऐसे ही  नीतिपरक रुख कायम रखे तो वह भविष्य में भी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की अगुआ बनी रह सकती है।

अन्यथा इस देश के घाघ भ्रष्टाचारी गण एक बार फिर सांड़ की तरह जनता के खेत चरने लगेंगे।


बुधवार, 18 दिसंबर 2013

‘बकरे की बलि’ चढ़ाने से बच जाएगी कांग्रेस की इज्जत ?

कांग्रेस में एक बार फिर बलि के बकरे की तलाश हो रही है। केंद्र में और राज्यों में भी। मणि शंकर अयर का ताजा बयान उसी तलाश का हिस्सा है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ से भी ऐसी ही तलाश की सूचना आ रही है।

    पर, क्या बकरे की बलि देने से कांग्रेस को कभी कोई लाभ मिला है जो इस बार मिलेगा ?

दरअसल इतिहास बताता है कि नीयत और नीतियां बदलने की मंशा नहीं हो तो सिर्फ नेता बदलने से कांग्रेस को कभी लाभ मिला ही नहीं है। हां, पर बलि का कोई बकरा खोजना ही है तो वे खोज रहे हैं। ऐसे अवसरों पर हर बार खोजा जाता रहा है तो इस बार भी खोजा जा रहा है। चीन के हाथों भारत की पराजय के लिए तत्कालीन रक्षा मंत्री वी.के. कृष्ण मेनन को बलि का बकरा बनाया गया था।

  यह सब ऐसे देश में हो रहा है जहां 2004 से ही पद किसी और के पास है तो पावर किसी अन्य नेता के पास।
  पूरा पावर अपने पास रखने वाले संविधानेत्तर केंद्र की कमियों की चर्चा तो मणि जी करेंगे नहीं, इसलिए वे पद रखने वाले पर लाल-पीले हो रहे हैं। सवाल यह है कि मनमोहन सिंह ने अब तक कौन सा बड़ा फैसला सोनिया गांधी और राहुल गांधी की इच्छा के खिलाफ जाकर किया है? बल्कि चर्चा तो यही है कि उन्होंने यथा प्रस्तावित ही काम किया है। प्रस्ताव किसका होता है, यह सब जानते हैं।

  यहां तक कि हाल में राहुल गांधी ने जब एक अध्यादेश को सार्वजनिक रूप से बकवास बताया तो मनमोहन सिंह ने सर्वदलीय बैठक और पूरे केंद्रीय कैबिनेट के फैसले तक को ताक पर रखकर उसे वापस कर लिया। यह और बात है कि सुप्रीम कोर्ट व राष्ट्रपति के रुख को भांप कर ही राहुल गांधी ने वह कदम उठाया था।
उससे लगा था कि उससे उन्हें चुनावी लाभ मिलेगा, पर मिला नहीं। क्योंकि हकीकत लोग जानते हैं।

   लगता है कि कांग्रेस के प्रथम परिवार के करीबी मणिशंकर अयर एक नया कामराज योजना लागू करना चाहते हैं। उन्होंने कहा है कि 2009 में मनमोहन सिंह को दोबारा प्रधानमंत्री बनाने का निर्णय गलत था। यानी वे यह कहना चाहते हैं कि मनमोहन के कारण ही कांग्रेस की शर्मनाक हार हुई है। ऐसा कहकर वे मनमोहन को हटवाना चाहते हैंं। यानी वे एक बार फिर मिनी कामराज योजना लागू करना चाहते हैं।

   मणि शंकर अयर संभवतः छात्र रहे होंगे जब उन्हीं के प्रदेश के एक प्रमुख कांग्रेसी नेता के. कामराज ने कांग्रेस हाईकमान को एक सुझाव दिया था। वह कामराज योजना के नाम से जाना गया। तब कामराज योजना लागू की गई थी।
 
हार के बाद लागू हुई थी कामराज योजना

 जवाहर लाल नेहरु के प्रधानमंत्रित्व काल में चीन के हाथों भारत की शर्मनाक पराजय और दूसरी सरकारी विफलताओं की पृष्ठभूमि में कामराज योजना लागू की गई थी। उन दिनों लगातार कई लोकसभा उपचुनाव कांग्रेस हार रही थी।

  कहा गया कि कांग्रेस संगठन की कमजोरी के कारण हार हो रही है। तय हुआ था कि कांग्रेस के कुछ बड़े नेता केंद्रीय मंत्री पद और मुख्यमंत्री पद छोड़कर संगठन के काम में लगें। नतीजतन करीब आधा दर्जन केंद्रीय मंत्री और आधा दर्जन मुख्यमंत्री 1963 में अपने पदों से हटा दिये गये।

  पर 1967 के आम चुनाव में इसका क्या नतीजा हुआ? कामराज योजना के नाम पर  जिन राज्यों के मुख्यमंत्री हटाये गये थे, उन राज्यों में भी कांगे्रस चुनाव हार गई और सत्ता से हटा दी गई। वहां गैर कांग्रेसी सरकार बन गई। लोकसभा में भी कांग्रेस का बहुमत पहले की अपेक्षा काफी कम हो गया। क्योंकि सिर्फ नेता हटे थे, जनपक्षी नीतियां नहीं बनी थीं। नीयत भी पहले ही जैसी ही थी। इसलिए कामराज योजना का कोई लाभ नहीं हुआ? आज भी क्या कांग्रेस और केंद्र सरकार अपनी नीतियां और नीयत बदलने को तैयार है ?

     इतना ही नहीं, 1980 से 1990 के बीच कांग्रेस हाईकमान ने बिहार में पांच  मुख्यमंत्री बदले। इसके बावजूद छठे मुख्यमंत्री भी 1990 के बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सत्ता में नहीं ला सके।

ऐसे कई अन्य उदाहरण भी हैं। इसके बावजूद मणि शंकर अयर जैसे नेता समझते  हैं कि कांग्रेस की चुनावी विफलता के लिए सिर्फ मनमोहन सिंह जिम्मेदार हैं।

लगातार बलि का बकरा खोजते रहने वाले दल में मणि शंकर अयर ऐसे अकेले नेता नहीं होंगे। अंतर यही है कि मणि शंकर स्पष्टवादी व बड़बोले नेता हैं और दूसरे ऐसा नहीं हैं।

‘परिवार’ को सिर्फ सफलता का श्रेय

  जिस दल में प्रथम परिवार में किसी तरह गलती ढूंढ़ना ईशनिंदा मानी जाती हो, वहां यही होना है। वहां तो उस परिवार को सिर्फ किसी सफलता के लिए श्रेय देने की परंपरा है।

   वैसे कांग्रेस से नाराज मतदाता यह अच्छी तरह जानते हैं कि भ्रष्टाचार और महंगाई के लिए कोई जिम्मेदार है तो वही है जिसके हाथों में केंद्र सरकार का पावर है। जिसके पास राजनीतिक कार्यपालिका का सर्वोच्च पद है, वह आदेश का पालन करने वाला भर है।

 महंगाई का भी मूल कारण सरकारी भ्रष्टाचार ही है। अन्यथा क्या कारण है कि जब  केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकार बनती है कि महंगाई अरिथमेटिकल प्रोग्रेशन यानी अंकगणतीय गति से बढ़ती है और जब कांग्रेस की सरकार होती है तो ज्योमेट्रिकल प्रोग्रेशन यानी ज्यामितीय गति से ? भ्रष्टाचार गैर कांग्रेसी सरकारों में भी होता रहा है, पर कांग्रेसी सरकार की अपेक्षा कम।

मुख्यतः महंगाई व भ्रष्टाचार के मुद्दों पर कांग्रेस सरकार की विफलता के कारण मतदाता कांग्रेस से विमुख हो रहे हैं।

पर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह का अब तक क्या रुख रहा है?

  यही रुख रहा कि भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वालों पर कार्रवाई करो और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए कुछ नहीं करो। अशोक खेमका प्रकरण इसका एक उदाहरण है। हाल के वर्षों में बड़े भ्रष्टाचारों के मामलों में भी तभी कोई कार्रवाई हुई जब सी.ए.जी. ने रपट दी और अदालत ने जांच का आदेश दिया। कोयला घोटाला हो या टू जी स्पैक्ट्रम घोटाला। इसके अलावा भी इस बीच कई बातें हुईंं हैं। सब कुछ सोनिया गांधी और राहुल गांधी की जानकारी में हुआ। ताजा चुनाव रिजल्ट आने से पहले तक कांग्रेस के प्रवक्तागण भी यह कहते रहे हैं कि किसी मुद्दे पर सोनिया जी-राहुल जी और मनमोहन सिंह में कोई मतभेद नहीं है। फिर अचानक बलि के बकरे की तलाश व पहचान क्यों ?

मनमोहन सिंह एक बेचारे प्रधानमंत्री

 देश के अधिकतर लोग यह जानते हैं कि मनमोहन सिंह एक बेचारे प्रधानमंत्री की तरह आदेशानुसार ही काम करते रहे हैं।

मतदाताओं ने इसे समझा और उसके अनुसार हाल के चुनाव में मतदान किया। लोकसभा चुनाव में भी यही होगा, इसके संकेत साफ है। इसलिए यह कहा जा रहा है कि नेता बदलने के बदले नीयत और नीति बदलने से ही कांग्रेस आशंकित पराजय से बच सकती है। या फिर पराजय का प्रभाव कम हो सकता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आम आदमी पार्टी का जो रुख सामने आया है, वह इस देश की राजनीति के लिए कसौटी बन गई है। अन्य पार्टियों को जनता उसी कसौटी पर कसेगी, इसके भी संकेत साफ हैं।
( 13 दिसंबर, 2013 के जनसत्ता में प्रकाशित)


बुधवार, 11 दिसंबर 2013

आम आदमी पार्टी पर करोड़ों नजरें


इस मिनी आम चुनाव (दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव 2013) की सबसे बड़ी उपलब्धि आम आदमी पार्टी का उभार है। उभार भी ऐसा वैसा नहीं बल्कि बेमिसाल है। ‘आप’ को भारी जीत दिलाकर दिल्ली के बहुमत मतदाताओं ने देश को एक नयी राजनीतिक दिशा भी दिखाई है। इस तरह मतदाताओं ने देश की राजधानी का नागरिक होने का फर्ज भी निभाया है।

    दिल्ली की जनसंख्या की विविधता का आज जो स्वरूप है, उसे लगभग पूरे देश की प्रतिनिधि आबादी भी कहा जा सकता है। इसलिए यह भी कहा जा रहा है कि यदि पहले से आम आदमी पार्टी के काम व प्रचार अन्य राज्यों में हुए होते और ‘आप’ ने वहां भी चुनाव लड़ा होता तो वह उन राज्यों में भी चुनाव को प्रभावित कर सकती थी जहां हाल में (2013) चुनाव हुए।


मोदीत्व बनाम ‘आप’वाद में राजनीतिक मुकाबले

    संकेत बताते हैं कि आने वाले समय में धीरे -धीरे कांग्रेस राजनीति के हाशिये पर जाएगी। ‘आप’ धीरे -धीरे उसकी जगह लेगी। देश भर के अच्छे तत्व आम आदमी पार्टी से जुड़ेंगे। मोदीत्व बनाम ‘आप’वाद के बीच आने वाले दिनों में राजनीतिक मुकाबले होंगे। क्योंकि मोदीत्व को हराने में अभी उनके विरोधियों को भी समय लगेगा। क्योंकि भाजपा के हिन्दुत्व की चाशनी और कांग्रेस की नकली धर्मनिरपेक्षता से मोदीत्व को ताकत मिली है। इसके हालांकि कुछ अन्य कारण भी हैं। वैसे तसलीमा नसरीन के खिलाफ फतवा देने वाले व्यक्ति की तरह के लोगों के साथ ‘आप’ ने यदि अधिक मेलजोल बढ़ाया तो उससे मोदीत्व को ही बढ़ावा मिलेगा।
 यह भी उम्मीद की जाती है कि इतनी बड़ी चुनावी सफलता के बाद ‘आप’ वास्तविक धर्मनिरपेक्ष बने न कि अन्य कुछ दलों की तरह एकतरफा या ढोंगी धर्म निरपेक्ष।


कांग्रेस के भ्रष्टाचार से परेशान जनता

   उधर कांग्रेस के भ्रष्टाचार, अहंकार, वंशवाद, काला धन और चमचागिरी से परेशान इस देश की आम व खास जनता को आम आदमी पार्टी के रूप में देर- सवेर एक खेवनहार मिल सकता है। एक हद तक मिल भी गया है।
बशर्ते कि ‘आप‘ ने अपने चाल, चरित्र व चेहरे को आगे भी ठीकठाक रखा। इसके लिए यह जरूरी है कि गंदे और अवसरवादी तत्व आप में घुसपैठ नहीं कर पायें। कांग्रेस की लगातार नाकामयाबियों से उभरे मोदीत्व ने दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी के विजय रथ को रोक लिया है, पर आने वाले समय में पूरे देश में ‘आप’वाद बनाम मोदीत्व के बीच मुकाबले की ही संभावना नजर आ रही है।

 सरकारी भ्रष्टाचार से पीडि़त इस गरीब देश में अगले चुनावों में अंततः आम आदमी की ही जीत की संभावना जाहिर की जा सकती है। हालांकि इसमें समय लग सकता है। आप के नेताओं की मौजूदा साख को देखते हुए देश के अन्य हिस्सों की जनता भी आप को स्वीकार कर सकती है।


घाघ नेताओं ने विफल किए जनता के बदलाव

   पर, इससे पहले के दशकों में जनता ने ऐसे ही तीन प्रयास किये थे जिन्हें घुटे हुए घाघ नेताओं ने अंततः विफल कर दिये। उम्मीद की जानी चाहिए कि आम आदमी पार्टी में वैसे घुटे हुए घाघ नेताओं का कभी वर्चस्व नहीं हो पाएगा। क्योंकि आप में अभी तो  नये ढंग के लोग हैं जो ‘राजनीति का विकल्प’ नहीं बल्कि वैकल्पिक राजनीति के पक्षधर हैं।

  याद रहे कि दिल्ली में शानदार प्रदर्शन के बाद यह उम्मीद की जाती है कि आम आदमी पार्टी देश के अन्य हिस्सों में भी अगला चुनाव लड़ेगी। देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसी मांग भी ‘आप’ के पास अब आएगी। बल्कि आनी शुरु हो चुकी होगी। सीमित शक्ति व साधनों के कारण भले उसे आगे भी सीमित चुनावी सफलता ही मिले, पर यह बात पक्की मानी जा रही है कि वह विकल्प की राजनीति नहीं, बल्कि वैकल्पिक राजनीति ही करेगी और आने वाले दिनों में देश का नेतृत्व भी करेगी।

  दिल्ली में प्रबुद्ध से लेकर आम मतदाताओं ने यही देख-समझकर आम आदमी पार्टी को अपनाया है क्योंकि ‘आप’ देश के सामने वैकल्पिक राजनीति पेश कर रही है।


’आप’ को जातपात से ऊपर उठकर मिले वोट

  याद रखने की बात है कि ‘आप’ को लोगों ने जातपात से ऊपर उठकर वोट दिये हैं। जब भी बेहतर विकल्प लोगों को दिखा है, इस देश के लोगांे ंने जातपात तथा अन्य लाभ-लोभ-दबाव से ऊपर उठकर ही वोट दिया है। हां, जब विकल्पों के बीच अंतर कम हो तो लोगों का एक हिस्सा संकीर्ण स्वार्थों में लिप्त हो जाता है। वही हिस्सा कभी -कभी चुनावों में निर्णायक भी हो जाता है।


1967, 1977 और 1989 में नेताओं ने दिया धोखा

  इससे पहले 1967, 1977 और 1989 मेंे भी देश के अधिकतर लोगों ने वैकल्पिक राजनीति की उम्मीद में संकीर्णता से ऊपर उठकर मतदान किये थे। 1967 के नेता डा. राम मनोहर लोहिया, 1977 के नेता जय प्रकाश नारायण और 1989 के नेता वीपी. सिंह थे। पर इस देश के जनतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति रही कि तीनों बार लोगों ने नेताओं से अंततः धोखा ही खाया। उम्मीद की जानी चाहिए कि आम आदमी पार्टी से उन्हें धोखा नहीं मिलेगा।

1967, 1977 और 1989 में आम लोगों ने मूलतः सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ मतदान किये थे। दरअसल किसी गरीब देश में सरकारी भ्रष्टाचार ही अन्य कई गंभीर समस्याएं भी पैदा कर देता है। 1967 के चुनाव में तो नौ राज्यों से कांग्रे्रेस का एकाधिकार खत्म हुआ था, पर 1977 में तो केंद्र से ही उसका एकाधिकार समाप्त हो गया था। 1984 में चार सौ से अधिक लोकसभा सीटें जीत चुकी कांग्रेस 1989 में बुरी तरह हार गई थी। बोफोर्स भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों का गुस्सा इतना अधिक था।


आज कदम-कदम पर भ्रष्टाचार

 अब तो कदम -कदम पर बोफोर्स हैंं। आज इस देश की अधिकतर जनता यह चाहती है कि काला धन, भ्रष्टाचार, सत्ताधारियों के अहंकार, वंशवाद और चमचागिरी से देश को जल्द मुक्ति मिले। गरीब से लेकर अमीर जनता तक से  टैक्स में मिले पैसे जनता के लिए ही खर्च हों। वे घोटालों की भेंट नहीं चढे़। इस पृष्ठभूमि में आज मोदीत्व बनाम कांग्रेस के बीच ‘आप’ उम्मीद की नयी किरण बन कर उभरी है।

( 9 दिसंबर 2013 के जनसत्ता से साभार)

देश ही नहीं, खुद के साथ भी मनमोहनी धोखा

 प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इतिहास किस रूप में याद करेगा? उनकी उपलब्धियों और विफलताओं को कसने के लिए कई अन्य कसौटियां भी होंगी। पर, उन्हें इस रूप में अधिक याद किया जाएगा कि उन्होंने इस गरीब देश के साथ -साथ खुद अपने साथ भी न्याय नहीं किया।
   
 सर्वाधिक घोटाले वाली सरकार चला रहे मनमोहन सिंह के खिलाफ अब तक नाजायज तरीके से पैसे कमाने का आरोप या सबूत सामने नहीं आया है। तो फिर सबसे भ्रष्ट सरकार के ‘सबसे ईमानदार प्रधानमंत्री’ आखिर
अपने पद पर क्यों बने हुए हैं ?

     आखिर क्यों वह ‘ईमानदारी के साथ’ अपनी सरकार से बेईमानी करवा रहे हैं ? क्या वे ऐसा किसी अन्य शक्ति के आदेश पर बेमन से कर रहे हैं ? अपनी ही पुरानी मान्यताओं व बयानों के खिलाफ वह रोज -रोज कदम उठा रहे हैं ?

     यह बात मानी हुई है कि उनके पास कुर्सी जरूर है, पर सत्ता कहीं और है। तो फिर वह उस कुर्सी पर क्यों बैठे हुए हैं जिसकी ताकत का वे देश के भले के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते ? क्या सिर्फ कुर्सी पर बैठे रहने का मोह उनके लिए इतना बड़ा मोह होता है कि वर्षों से जतन से बनाई हुई अपनी ही छवि को खुद ही ध्वस्त कर दिया जाए ?

    अब तक यह धारणा रही है कि कोई भी सत्ताधारी नेता लूट में हिस्सा मिले बिना बेईमान लोगों का साथ नहीं देता। पर मनमोहन सिंह ने इस धारणा को भी गलत साबित कर दिया। इस रूप में वह याद किये जाएंगे। वह एक और कारण से भी इतिहास में याद किये जाएंगे। उन्होंने इस धारणा को भी झूठा साबित कर दिया कि किसी सरकार के शीर्ष पद पर बैठे किसी ईमानदार व्यक्ति की ईमानदारी का सुप्रभाव उसके अधीनस्थ लोगों पर भी थोड़ा जरूर पड़ता है।
     मनमोहन सिंह के मामले में गंगा उल्टी दिशा में बह रही है। मनमोहन यह कहकर साफ बच निकलना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार गठबंधन युग की मजबूरी है। क्या मनमोहन सिंह कहीं और से आदेश पाकर अपनी सरकार से ईमानदारी पूर्वक बेईमानी करवा रहे हैं ?
 
 इतिहास इस सवाल का भी जवाब ढूंढ़ेगा।

     कोई नेता अपनी ही बातों को बाद में किस तरह चबा जाता है, उसका उदाहरण संासद क्षेत्र विकास फंड है। एक विवादास्पद परिस्थिति में 23 दिसंबर 1993 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने सांसद फंड की शुरुआत की थी। उससे ठीक पहले राम जेठमलानी ने आरोप लगाया था कि नरसिंह राव को शेयर दलाल हर्षद मेहता ने एक करोड़ रुपये की रिश्वत दी थी। वह रकम नंदियाल लोकसभा उपचुनाव में खर्च करने के लिए नरसिंह राव को दी गई थी।

     राव नंदियाल से उपचुनाव जीत कर लोकसभा में पहुंचे थेे। 1991 का आम चुनाव उन्होंने नहीं लड़ा था, पर गैर सांसद नरसिंह राव को विशेष राजनीतिक परिस्थितियों में प्रधानमंत्री बना दिया गया था। जब हर्षद मेहता का आरोप नरसिंह राव पर लगा तो शायद राव साहब ने यह सोचा होगा कि संासद फंड शुरू करा कर ऐसा ही आरोप अन्य सांसदों पर भी लगते रहने का रास्ता बना दिया जाए ताकि हम पर लग रहे आरोप की तीव्रता कम हो जाए। एक बात और थी। नरसिंह राव की सरकार को लोकसभा में बहुमत का समर्थन हासिल नहीं था। सांसद फंड के जरिए सांसदों को खुश करना जरूरी था।

याद रहे कि यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि संासद फंड घोटाले में सारे सांसद फंसे रहते हैं। अनेक सांसदों पर आरोप तो लगत ही रहते हैं।

  मनमोहन सिंह राव सरकार में वित्त मंत्री थे। वे ऐसे फंड के सख्त खिलाफ थे। इसलिए मनमोहन सिंह जब विदेश दौरे पर थे, जानबूझकर उस समय नरसिंह राव ने इस फंड की शुरुआत की थी। बाद की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने इस फंड को एक करोड़ रुपये से बढ़ाकर दो करोड़ रुपये सालाना कर दिया।


शुरू में सांसद फंड का विरोध, बाद में खुद ही बढ़ा दिया फंड

     सन् 1998 मेंं राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता मनमोहन सिंह ने इस फंड की बढ़ी राशि का विरोध करते हुए तत्कालीन अटल सरकार से कहा था कि ‘आप चीजों को इसी रास्ते पर जाने देंगे तो जनता नेताओं और लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास खो देगी। संसद में इस मुद्दे पर कपिल सिब्बल ने भी तब कहा था कि ‘पब्लिक फंड का इस्तेमाल प्राइवेट उद्देश्यों के लिए हो रहा है और हम भ्रष्टाचार के नये मील के पत्थर को पार कर रहे हैं।’ तब की अटल बिहारी सरकार ने एक करोड़ रुपये से बढ़कर दो करोड़ सालाना किया था।

   पर वही मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने 2011 में सांसद फंड की राशि दो करोड़ रुपये से बढ़ा कर पांच करोड़ रुपये कर दी। या यूं कहें कि उन्हें करनी पड़ी। जबकि योजना आयोग ने इस बढ़ोतरी का विरोध किया था।

  यह बात गौर करने लायक है कि एक संसदीय समिति ने इसे बढ़ाकर 10 करोड़ रुपये सालाना कर देने की सिफारिश की थी। इस बात के लिए आप मनमोहन को जरूर धन्यवाद दे सकते हैं कि उन्होंने दस करोड़ के बदले पांच करोड़ ही किया।

   सन् 1993 में जब पी.वी. नरसिंह राव की सरकार ने सांसद क्षेत्र विकास निधि की शुरुआत की थी, तभी कुछ लोगों ने यह आशंका जाहिर की थी कि यह निधि इस देश की राजनीति की शुचिता के लिए घातक साबित होगी।

   मनमोहन सिंह की तब यह राय थी कि सांसद फंड में जो पैसे खर्च किये जाने हैं, उसको लेकर एक चुनाव फंड बनाया जाए जिसे दलों या उम्मीदवारों को खर्च करने के लिए सरकार दे दिया करे। इससे राजनीति में शुचिता आएगी। पर प्रधानमंत्री बनने के बाद वह काम मनमोहन नहीं कर सके। यानी उन्हें गद्दी पर बैठाने व बनाये रखने में मदद करने वाले दूसरे लोगों के इशारे पर मनमोहन सिंह फैसले करते रहे।

   इस रूप में इतिहास उन्हें याद रखेगा। किसी ने ठीक ही कहा है कि जीवन लंबा नहीं बल्कि ऊंचा होना चाहिए। मनमोहन ने अपनी कुर्सी की अवधि को लंबा करने के लिए अपनी खुद की ऊंचाई को भी घटा लिया। इस रूप में भी वे याद किये जाएंगे। जवाहर लाल और इंदिरा के बाद मनमोहन सिंह सर्वाधिक लंबे समय तक प्रधानमंत्री बनने के लिए याद किये जाएंगे। पर ऐसी लंबाई का क्या मतलब कि जिससे आम लोगों को कोई फायदा नहीं हो।


सांसद फंड गले में हड्डी

  याद रहे कि संासद फंड राजनीति के गले में हड्््डी की तरह अटक गया है। अब इसे न तो उगलते बनता है और न ही निगलते। जबकि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस देश में जन अभियान चल रहा है। इस बीच इस फंड में कमीशन की बंदरबांट के लिए जहां -तहां तपे- तपाये राजनीतिक कार्यकर्ता अभिकर्ता बन रहे हैं। फंड की ठेकेदारी हासिल करने के लिए जहां-तहां गोलियां चल रही हैं और हत्याएं हो रही हैं। कुछ साल पहले स्टिंग आॅपरेशन में समाजवादी सांसद साक्षी महाराज सांसद फंड के घोटाले के सिलसिले में रंगे हाथ पकड़े गये। इस कारण उनकी सदस्यता भी चली गई। इससे जुड़े हुए निहितस्वार्थ का हाल यह है कि देश के अधिकतर नेता और दल ऊपरी तौर पर तो इस फंड को समाप्त करने की मांग करते हैं, पर समाप्त करने के बारे में फैसला करने का जब वक्त आता है तो वे बहाना बनाकर साफ मुकर जाते हैं। यह सब जानते हुए भी मनमोहन ने फंड की राशि बढ़ा दी।

  अधिक उम्मीद तो इसी बात की है कि 2014 के चुनाव के बाद मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे। यदि ऐसा होने वाला है तो मनमोहन की गद्दी कुछ महीनों तक ही रहेगी। ऐसे में उनके पूरे कार्यकाल का आकलन करना मौजू होगा।


प्रधानमंत्री के रूप में फ्लाप

  मनमोहन सिंह का जन्म पश्चिमी पंजाब में 1932 में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है। विभाजन के समय मनमोहन का परिवार अमृतसर आ गया था। पढ़ाकू विद्यार्थी मनमोहन ने आॅक्सफोर्ड से अर्थशास्त्र में डाक्टरेट किया। उन्होंने 1966 से 1969 तक यूनाइटेड नेशन्स में काम किया। बाद में तत्कालीन विदेश व्यापार मंत्री ललित नारायण सिंह ने उन्हें अपने मंत्रालय में सलाहकार बना कर स्वदेश बुलाया।

     1991 में वित्त मंत्री बनने के पहले वे भारत सरकार में कई पदों पर रहे।  वित्त मंत्री के रूप में उनके कामों की कई हलकों में सराहना ही हुई।
पर प्रधानमंत्री के रूप में वे फलाॅप रहे। ऐसा नहीं कि मनमोहन सरकार ने कोई अच्छा काम नहीं किया। ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, आधार कार्ड, मनरेगा और सूचना अधिकार कानून सरकार के अच्छे काम माने गये। पर अधिकतर अच्छे कामों का श्रेय सोनिया गांधी के नतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने ले ली और बुरे कामों या फिर विफलताओं के जवाब देने का भार मनमोहन सिंह पर सौंप दिया गया।

     ऐसे में यदि मनमोहन ने अधिकतर समय मौन धारण किया तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है ? यह कोई अजूबी बात नहीं है कि मनमोहन सिंह का एक नाम मौन मोहन सिंह के रूप में भी प्रचलित हुआ।


प्रधानमंत्री पद और कैबिनेट की संस्था की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़

  राहुल गांधी ने तो अपनी छवि चमकाने के लिए हाल में मनमोहन सिंह व प्रधानमंत्री पद और कैबिनेट की संस्था की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ भी कर दिया। राहुल ने उस अध्यादेश को सार्वजनिक रूप से बकवास बता था जो सांसदी बचाने के लिए तैयार किया गया था। उस अध्यादेश को वापस ले लेना पड़ा।

     इसपर राजनीतिक व गैर राजनीतिक हलकोंं में यह चर्चा थी कि यदि मनमोहन की जगह थोड़ा भी स्वाभिमान रखने वाले कोई अन्य नेता होता तो प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देता। पर जिस तरह किसी गैर सरकारी संस्थान में अपने बाॅस की सारी फटकार सुनकर कोई निम्न श्रेणी का कर्मचारी नौकरी में बने रहता है, उसी तरह मनमोहन ने अपनी गद्दी बचाई भले प्रतिष्ठा तार-तार हो गई हो। इसके साथ लोकतंत्र, कैबिनेट प्रणाली  और प्रधानमंत्री पद की संस्था की इज्जत भी मिट्टी में मिला दी गई।

 अब ऐसे प्रधानमंत्री को इतिहास किस रूप में याद करेगा, इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने के लिए दिमाग पर बहुत जोर डालने की कोई जरूरत नहीं है। मनमोहन सिंह सरकार का कार्यकाल इस देश के इतिहास का सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार का कार्यकाल माना जाएगा।




सरकार ने भ्रष्टाचार के आरोप झुठलाए, कोर्ट में सही साबित हुए

    लगभग सारे भ्रष्टाचारों के आरोपों को मनमोहन सरकार सार्वजनिक रूप से झुठलाती रही। पर जब उन्हीं मामलों में अदालतों ने आदेश दिये तो उनकी जांच हुई। आरोपित जेल गये या फिर पद से हटाए गए।

  इस मामले में इतिहास मनमोहन सरकार को सर्वाधिक बेशर्म सरकार के रूप में भी याद करेगा।कुल मिलाकर महंगाई,गिरती अर्थ व्यवस्था,भ्रष्टाचार और कुशासन के लिए मन मोहन सरकार तब तक याद की जाएगी जब तक कि इससे भी बदतर कोई सरकार न आ जाए।      

सोमवार, 11 नवंबर 2013

हरि अनंत लालू कथा अनंता


लालू कथा कहां से शुरू की जाये ? उस समय से जब वे पटना भेटनरी काॅलेज में 15 रुपये रोज पर दैनिक मजदूरी करते थे ? या, उस समय से जब वे मुख्यमंत्री बने थे ?

  वहां से जब 1969 में लालू प्रसाद बिहार प्रदेश युवजन सभा के संयुक्त सचिव चुने गये थे या वहां से जब वे पटना विश्व विद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने गये थे ?

   जहां से भी शुरू की जाए, पर एक बात तय है कि लालू प्रसाद की कहानी दिलचस्प और नाटकीय रही है। अब भी है। कहानी में सस्पेंस है, हाॅरर है। उतार और चढ़ाव है। हास्य रस है तो रौद्र रस भी है। सहानुभूति है तो जुगुप्सा भी। बहादुरी है तो कायरता भी। उनमें रोबदाब की तो कभी कोई कमी नहीं रही। हास्य रस तो इतना है कि इस देश की राजनीति में शायद उसका कोई जोड़ा हो। एक राजद सांसद के अनुसार ‘अभी हमारा शेर खंदक में गिर गया है। पर शेर तो शेर ही होता है।’

   पूरे राजनीतिक जीवन में उन पर आरोप तो थोक भाव से लगे, पर लालू पर  संयम, शालीनता, शुचिता और अनुशासन के आरोप कभी नहीं लगे। आर्थिक संयम से दूर और किसी राजनीतिक सिद्धांत के सम्यक ज्ञान से वंचित लालू प्रसाद को मदांध सत्ताधारी होने का जो नुकसान हो सकता था, वही सब हुआ है। नुकसान उन कमजोर वर्ग के लोगों को भी हुआ जिन्हें लालू ने कभी सम्मान के साथ जीना व सीना तान कर चलना सिखाया था। यह और बात है कि तने सीने के नीचे जो एक पेट होता है, उसमें डालने के लिए लालू ने अन्न के दाने का प्रबंध नहीं किया। जिनके लिए उन्होंने सत्ता -सुख व आलीशान जीवन का प्रबंध किया भी तो, उनकी जमात सीमित रही। आम तौर से वह जमात आज भी उनके साथ है।

   आजादी के बाद राजनीति और सत्ता से नाजायज पैसे निकालकर इस देश के अधिकतर नेताओं ने अपनी संपत्ति बनाई और अपने लगुए-भगुए को अमीर बनवाया। पर, इस तरह संपत्ति बनाने वालों में से अधिकतर लोगों ने सावधानी बरती। पर इस काम में लालू प्रसाद व उनके अनेक करीबियों ने किसी तरह की सावधानी नहीं बरती। इसीलिए लालू को यह दिन देखना पड़ रहा है।  

  अपने भाषणों में लोहा सिंह के चर्चित भोजपुरी नाटक के मशहूर व दिलचस्प संवादों के सफल दोहराव के कारण लालू प्रसाद पटना विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच लोकप्रिय हुए थे। छात्राओं के बीच उनकी लोकप्रियता का एक बड़ा कारण यह था कि कालेज बस में छात्राओं को छेड़ने वाले छात्रों की लालू अच्छी तरह खबर  लेते थे। पटना विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने जाने के बाद वे मशहूर बने। बाद में तो एक से एक ऊंचाइयां चढ़ते चले गये।

   कुल मिलाकर वे अच्छे कामों की अपेक्षा विवादास्पद कामों के लिए ही अधिक चर्चा में रहे। अंततः लालू प्रसाद सजा से इसलिए नहीं बच सके क्योंकि उन्होंने कभी ईमानदारी को अपनी राजनीति का आधार बनाया ही नहीं। वे मानते थे कि आजादी के बाद के अधिकतर सवर्ण नेताओं ने भी यही काम किया। यानी इधर का माल उधर और उधर का माल इधर किया, और वे बचते चले गये। इसलिए हमारे लोग भी यह सब कर रहे हैं तो इसमें किसी को एतराज क्यों होना चाहिए ?

क्या इसलिए एतराज होना चाहिए क्योंकि हम पिछड़े समुदाय से आते हैं ?

  चुनावी धांधली के बारे में भी लालू प्रसाद की यही राय रही है। इसीलिए उन्होंने अपने आसपास बाहुबलियों का जमावड़ा भी जुटाए रखा। जहां बाहुबली व माफिया होंगे, वे कोई सत्संग तो करेंगे नहीं। उनके शासन काल में लालू -संरक्षित कई बाहुबलियों ने राज्य में अपना इलाका बांट लिया था। वहां के एस.पी. और डी.एम. उन माफियाओं की जेब में होते थे। इस तरह शासन ध्वस्त होता गया। पटना हाईकोर्ट ने एक बार यहां तक कह दिया था कि जंगलराज का भी कुछ कायदा होता है, पर यहां तो वह भी नहीं।

   दरअसल लालू प्रसाद को लगता था कि परंपरागत सत्ता संरक्षित सवर्ण बाहुबलियों व माफियाओं के कारगर मुकाबले के लिए यह जरूरी है अन्यथा वे गरीबों-पिछड़ों का वास्तविक राज होने ही नहीं देंगे। उनको इस बात की शिकायत थी कि राज्य के कई चुनाव क्षेत्रों में कांग्रेसी उम्मीदवार पुलिस की मदद से बाहुबलियों से बूथ कंट्रोल कराकर ही चुनाव जीतते हैं जबकि सामाजिक न्याय वाले मतदाताओं की संख्या अधिक है। एक बार इन पंक्तियों के लेखक ने उनके अपने कुछ खास बाहुबलियों के बारे में उनसे चर्चा की थी। उस पर सत्ता मद में चूर तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने भोजपुरी में कहा  था -‘के बाहुबली बा हो ? तोहरा लोग के माथा खराब हो गएल बा ! अरे भई, वे लोग स्वाभिमानी युवक हैं। केकरा पर केस ना होखेला ?’

दूसरी ओर उन बाहुबलियों ने पटना सहित बिहार के अधिकांश हिस्से में छोटे-बड़े व्यापारियों, पैसे वालों और कई बार राह चलते लोगों का भी जीना मुहाल कर दिया था। व्यापारी बिहार छोड़ कर भाग रहे थे।

  जब पूर्णिया इलाके में पप्पू यादव का आतंक था, उस समय के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने 1994 में एक बड़े पत्रकार से कहा था कि ‘एक बार पप्पू यादव से जरूर मिलिए। वह बहुत शालीन लड़का है।’ बाद में जब पप्पू से उनका मतभेद हुआ तो खुद लालू ने कहा कि पप्पू यादव क्रिमिनल है। दूसरी ओर राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने 24 जून 1997 को यह आरोप लगाया था कि लालू के साथ अब ठेकदार व गुंडे की टीम ही बची है।’

   उन्हीं दिनों एक अन्य पत्रकार अनिल शुक्ल के साथ भेंट वार्ता में लालू ने कहा था कि ‘जनता ने जिसको वोट दिया, वह कहां का अपराधी ?’

   रांची की निचली अदालत और बाद में हाईकोर्ट के फैसलों के बाद अब भी राजद यह कह रहा है कि लालू जी को साजिश के जरिए फंसा दिया गया। हम जनता की अदालत में जाएंगे। अदालती फैसले के बाद भी ऐसी टिप्पणी ? क्या यह उन अदालतों की अवमानना नहीं है जिसने लालू को सजा दी है ? पर इसकी परवाह किसे है ?

 यानी राजद को न्यायिक फैसले की अपेक्षा चुनावी फैसले पर अब भी अधिक यकीन है। यानी उस दल की की चिंतन धारा में निरंतरता जारी है।

  पशुपालन घोटाले में जब लालू प्रसाद का नाम पहली बार आया तो एक पत्रकार ने उनसे पूछा था कि क्या आप मोरल ग्राउंड पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देंगे ?

इसका जो कुछ जवाब उन्होंने दिया, उससे एक बार फिर यह साबित हो गया कि नैतिकता जैसे  मामले में उनकी राय क्या है। उन्होंने तब प्रति प्रश्न किया था, ‘यह मोरल ग्राउंड क्या होता है ? ई कौन ग्राउंड है ? इहां तो दो ही ग्राउंड हैं। एक मिलर स्कूल ग्राउंड और दूसरा गांधी मैदान ग्राउंड। मोरल ग्राउंड कुछ नहीं होता। प्रमुख होती है राजनीति।’ उनकी यह उक्ति उसी तरह की थी जब उन्होंने कहा था कि  ‘विकास से वोट नहींं मिलता। सामाजिक समीकरण से वोट मिलता है।’

   इस तरह जब अपराध और भ्रष्टाचार के बारे में लालू प्रसाद की यही राय थी तो उन्हें एक न दिन उसका खामियाजा भुगतना ही था।अब देखना है कि अपील के बाद सुप्रीम कोर्ट इस केस में क्या रुख अपनाता है। इस बात पर भी उनका राजनीतिक कैरियर निर्भर करेगा।

  कुछ लोग महान यानी चांदी के चम्मच के साथ ही पैदा होते हैंं। कुछ अन्य लोग अपने त्याग, तपस्या और कर्मों के जरिए महान बनते हैं। और कुछ दूसरे लोग ऐसे होते हैं जिन पर महानता थोप दी जाती है। 1990 के बाद के लालू के क्रियाकलापों को देख कर यही लगता है कि लालू प्रसाद पर महानता थोप दी गयी। इस काम में पहले देवी लाल -शरद यादव की भूमिका रही जिन्होंने लालू प्रसाद को कर्पूरी ठाकुर का उत्तराधिकारी बनवा दिया। बाद में आरक्षण विरोधी आतुर सवर्णों की।

हालांकि शरद यादव ने बाद में कहा कि लालू को मुख्यमंत्री बनवाना मेरी भूल थी।

 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह और चंद्रशेखर के बीच के राजनीतिक झगड़े का लाभ भी लालू को मिला था। अंत में मंडल आरक्षण के समय आतुर सवर्णों ने लालू को अनजाने में राजनीतिक तौर पर महाबली बना दिया यानी पिछड़ों को लालू के करीब ला दिया।

  1990 में बिहार जनता दल विधायक दलके नेता पद का चुनाव हो रहा था। देवीलाल-शरद यादव के उम्मीदवार लालू प्रसाद थे। वी.पी. सिंह के उम्मीदवार रामसुंदर दास थे। चंद्र शेखर खेमे को लगा कि शायद वी.पी. का उम्मीदवार जीत जाएगा, इसलिए उन्होंने दास का वोट काटने के लिए रघुनाथ झा को खड़ा करा दिया। नतीजतन लालू प्रसाद जीत गये। हालांकि किसे कितने मत मिले, इसकी विधिवत घोषणा तो नहीं की गई। पर पत्रकार श्रीकांत के अनुसार लालू प्रसाद को 58, राम सुंदर दास को 54 और रघुनाथ झा को 14 मत मिले।

  मुख्यमंत्री बनने के थोड़े दिनों बाद तक तो लालू प्रसाद सहमे -सहमे रहे। इसलिए भी क्योंकि उनकी अल्पमत सरकार उसी तरह भाजपा व कम्युनिस्टों के सहारे चल रही थी जिस तरह उन दिनों केंद्र में वी.पी. सिंह की सरकार भाजपा व कम्युनिस्टों की बैसाखी पर जिंदा थी।

  पर इस बीच मंडल और मंदिर विवाद शुरू हो गया। मंडल आरक्षण विरोधियों ने वी.पी.-लालू के खिलाफ बिहार की सड़कों पर आरक्षण के विरोध का नंगा नाच किया। उन लोगों ने शालीनता की सारी हदें तोड़ दीं। आरक्षण विरोधी गाली गलौज व हिंसा पर उतर आये थे।

   इसी तरह का विरोध 1978 में तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर का भी हुआ था जब बिहार सरकार की नौकरियों में पिछड़ों के लिए कर्पूरी सरकार ने आरक्षण कर दिया था। कर्पूरी ठाकुर तो शालीन व्यक्ति थे।उन्होंने सब कुछ बर्दास्त किया।

 पर इसके विपरीत लालू प्रसाद और उनके समर्थकों ने आरक्षण विरोधियों का सड़कों पर उतर कर जोरदार जवाब दिया। खुद लालू प्रसाद ने भी भाषा की सारी मर्यादाएं तोड़ दीं। इससे भीषण जातीय तनाव पैदा हुआ। पिछड़ों को लगा कि जो चीज उन्हें सदियों से नहीं मिली, वे मिल रही हंै तो मुट्ठी भर सुविधासंपन्न सवर्ण लोग हमारा हक मारना चाहते हैं और हमारे बचाव में लालू प्रसाद मजबूती से खड़े हैंं। फिर क्या था, लालू प्रसाद पिछड़ों के एकछत्र नेता बन गये। बिहार में पिछड़ांे की आबादी, कुल आबादी का करीब 52 प्रतिशत है।

 यहां एक बात याद रखने की है। इस पिछड़ा बहुल प्रदेश में आजादी के बाद कांग्रेस ने किसी पिछड़ा नेता को कभी मुख्यमंत्री नहीं बनाया। सन् 1970 में दारोगा प्रसाद राय को बनाया भी तो तब जब खुद कांग्रेस को विधानसभा में अपना पूर्ण बहुमत हासिल नहीं था।

 यहां एक और बात कहने लायक है। कांग्रेस न सिर्फ राजनीति में बल्कि सरकारी नौकरियों व ठेकदारी वगैरह के कामों में भी आजादी के बाद पिछड़ों की उपेक्षा करती रही जबकि पिछड़े भी कांग्रेस को वोट देते रहे। तब सारण जिले में तो राजपूत-यादव राजनीतिक गठबंधन था। इस पृष्ठभूमि में पिछड़ों को लालू के महत्व का पता चला।

    इसी बीच रथ यात्री एल.के. आडवाणी को लालू सरकार ने समस्तीपुर में गिरफ्तार कर लिया।इससे अल्पसंख्यकों का लगभग पूरा समर्थन लालू प्रसाद को मिल गया। तब लालू की लोकप्रियता चरम पर थी।
इसी बीच 1991 में लोकसभा चुनाव हुआ। लालू प्रसाद की लोकप्रियता के बल अविभाजित बिहार में जनता दल को 54 में 31 सीटें मिलीं। सन 1990 के विधानसभा चुनाव में जनता दल को जहां 24.65 प्रतिशत मत मिले थे, वही 1991 के लोकसभा चुनाव में उसे 34.19 प्रतिशत मत मिले।

  पर, अब स्थिति यह है कि 2009 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद के दल को बिहार में सिर्फ 19.30 प्रतिशत मत मिले। लालू अपनी राजनीतिक पूंजी संभाल नहीं सके। ऐसा उनकी गलत रणनीतियों व लालच के कारण हुआ। लोकसभा की सिर्फ चार सीटों पर ही 2004 में राजद को जीत हासिल हो सकी। बिहार विधानसभा में राजद के अब 22 विधायक हैं। सन 2004 के लोकसभा चुनाव में लालू की भारी जीत के पीछे रामविलास पासवान का मुख्य योगदान था।

   लालू का राजनीतिक ग्राफ क्यों गिरा ? इसमें चारा घोटाला का हाथ तो था ही, यह बात भी थी कि लालू प्रसाद को जिन गरीब- गुरबा ने राजनीतिक तौर पर महाबली बनाया था, उनकी आर्थिक लाचारी को कम करने की लालू ने कोशिश नहीं की। की भी तो अपने परिजन व परिवार के बाहर की एक छोटी जमात की।

   दरअसल महाबली बनने के बाद उन्होंने शुरुआत ही गलत कर दी थी। 1991 की जीत के बाद वे पहले  सिर्फ यादव-मुसलमान-दलित वोट बैंक पर खुद का ध्यान सीमित कर लिया। उसके बाद वे सिर्फ एम-वाई यानी यादव-मुस्लिम तक सिमट गये।

  उनके एक सहकर्मी के अनुसार 1991 के चुनाव रिजल्ट के बाद लालू प्रसाद ने एक रणनीति बनाई। उन्होंने तय किया कि सरकार के जरिए राज्य का आम विकास नहीं करना है। अन्यथा इसका अधिकांश लाभ सवर्णों को ही मिल जाएगा जो उनके राजनीतिक तौर पर विरोधी हैं। पिछड़ों नहीं मिलेगा।

  अब यादवों को आर्थिक, राजनीतिक और बाहुबल से संपन्न बना देना है। मुसलमानों के लिए, उनकी प्राण रक्षा के सिवा, विकास का कोई काम करने की जरुरत नहीं। दलितों के लिए इंदिरा आवास योजना के तहत केंद्र के मिले पैसों से पक्का मकान बनवा देना है। किसी भी ग्रामीण के जीवन में पक्का मकान का बड़ा महत्व है। इन तीनों समुदायों यानी यादव-मुस्लिम- दलित की मिली जुली आबादी 42 प्रतिशत है। इतने वोट हमें मिल जाएंगे। बाकी वोट कई भागों में बंट जाएंगे। इस तरह हम बीस साल तक राजा की तरह राज करेंगे। पर इंदिरा आवास योजना भ्रष्टाचार में फंस गया।

   यानी 2000 के विधानसभा चुनाव के साथ ही लालू के राजनीतिक अश्वमेध यज्ञ में व्यवधान पड़ना शुरु हो गया। उससे पहले चारा घोटाले में 1997 में पहली बार विचाराधीन कैदी के रुप में लालू जेल जा चुके थे। बदनामी की चर्चा तेज हो गई थी।

  सन 2000 में बिहार विधानसभा चुनाव में राजद को बहुमत नहीं मिला। उसे कांग्रेस की मदद से सरकार बनानी पड़ी। कांग्रेस की शर्त बिहार के बंटवारे की थी। लालू प्रसाद इसके लिए भी तैयार हो गये जबकि कुछ ही समय पहले लालू ने सार्वजनिक रुप से यह घोषणा की थी कि झारखंड मेरी लाश पर बनेगा। पर सत्ता की चाह जो न कराए !

   उधर लालू -राबड़ी राज मेंं अपहरण, गुंडागर्दी, नरसंहार, यानी कुल मिलाकर जंगलराज चल रहा था। उन दिनों बिहार पूरी दुनिया में उपहास का विषय बना हुआ था।

  उस शासन के कम से कम दो किस्से आज मौजूं होंगे।

लालू मंत्रिमंडल में 72 मंत्री थे। इन पंक्तियों के लेखक ने लालू सरकार के एक मंत्री से पूछा कि एक गरीब राज्य में इतने अधिक मंत्रियों के खर्चे का सरकारी खजाने पर इतना बोझ क्यों ?

मंत्री का जवाब था, ‘अभी तो यहां कुछ और मंत्रियों की जरुरत है।क्योंकि हमारे यहां ब्लाॅक आफिस काम नहीं करता। अनुमंडल दफ्तर काम नहीं करता। जिला और कमीश्नरी आॅफिस काम नहीं करते। इसलिए जनता के काम तो मंत्रियों को ही  करना है।

    उसी मंत्री से एक और सवाल पूछा गया। बिक्री कर के मद में आपकी सरकार मात्र 1800 करोड़ रुपये सालाना वसूल पाती है जबकि आंध्र प्रदेश में इस मद में करीब छह हजार करोड़ रुपये से भी अधिक मिलते हैं। आंतरिक संसाधनों की कमी को आधार बनाकर योजना आयोग बिहार की विकास योजना का आकार छोटा कर देता है। नतीजतन विकास के काम रुके हुए हैं। इससे नक्सली समस्या बढ़ रही है। यहां तक कि सरकारी  कर्मचारियों के वेतन के लाले पड़े रहते हैं। आप लोग ईमानदारी से टैक्स क्यों नहीं वसूलते ?

   इस पर मंत्री का  अजीब जवाब था-टैक्स के जो पैसे  लोगों के पास सरकार छोड़ देती है, वही पैसे इस राज्य की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ हैं।

  ऐसे तर्कों -कुतर्काे के आधार पर लालू-राबड़ी की सरकार चल रही थी।

विकास की भले कमी हो, पर सरकारी घोटालों की कोई कमी नहीं थी। चारा घोटाला के अतिरिक्त उस शासन काल के कुछ अन्य बड़े घोटालों के नाम एक बार फिर याद कर लेना भी मौजंू होगा--अलकतरा घोटाला, दवा घोटाला, भूमि घोटाला, वन घोटाला, आॅडिट घोटाला, अतिरिक्त निकासी घोटाला, असमायोजित राशि घोटाला, मंत्रिपरिषद खर्च घोटाला, व्याख्याता नियुक्ति घोटाला और न जाने कितने अन्य छोटे -बड़े घोटाले !

  इन घोटालों में से कुछ की भी जांच तभी हो सकी जब अदालत ने ऐसा आदेश दिया। अन्यथा उसकी लीपापोती की ही कोशिश होती रही। चारा घोटाले में भी यही हुआ था। घोटाले का आरोप सामने आ जाने के बाद लालू सरकार ने चारा घोटाले की जांच के लिए राज्य सरकार के बड़े अफसरों की जो समिति बनाई थी, उस समिति के तीनों अफसर खुद चारा घोटालेबाज थे। वे जांच के बदले लीपापोती कर रहे थे। सी.बी.आइ. ने उन्हें भी बाद में जेल भेजा। उन्हें अदालतें अब सजा भी दे रही हैं। यह तो होना ही था।

 नब्बे के दशक में एक दिन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने मीडिया से कहा कि ‘राबड़ी जी रुसल बाड़ी। बैगन के भर्ता मांगला पर टमाटर के चटनी दे देत बाड़ी। ऊ अपना भाई के एम.एल.सी. बनावे के कहत बाड़ी।’

आखिर एक दिन साधु यादव एम.एल.सी. बना दिये गये। उनके दूसरे साले सुभाष यादव को भी बनाया गया। दोनों संसद के भी सदस्य बने। जब सब कुछ ठीक ठाक था तो राबड़ी या लालू अपने सालों की कोई शिकायत सुनने का तैयार नहीं थे।

पर टिकट के सवाल पर जब सालोें ने जीजा से विद्रोह कर दिया तब खुद राबड़ी देवी ने मार्च, 2009 में सार्वजनिक रुप से यह स्वीकार किया कि ‘हमारी पार्टी को मेरे भाइयों से सिर्फ बदनामी ही मिली। हमारे भाई नमकहराम निकले।’

  इसी तरह लालू प्रसाद व उनके दल को  जब- जब चुनावी झटके लगते थे, वे सार्वजनिक रुप से लालू अपनी गलतियों को दोहराते थे। कहते थे कि अब आगे से ऐसी गलती नहीं होगी। पर कोई चुनावी विजय मिलने पर दोबारा वही गलती दोहराने लगते थे।

  चारा घोटाले के केस में अंततः लालू प्रसाद को सुप्रीम कोर्ट से राहत मिलती है या नहीं, इस सवाल का जवाब तो भविष्य के गर्भ में है। उन्हें सजा होने पर उन्हें सहानुभूति मत मिलेंगे और एक बार फिर राजद बिहार की सत्ता में आएगा,इस  बात जवाब भी भविष्य ही देगा। पर, कुल मिलाकर आज यह बात जरुर कही जा सकती है कि जिन पिछड़ों और दबे कुचले लोगों ने लालू प्रसाद पर उम्मीद लगाई थी, उस उम्मीद को पूरा करने में वे विफल रहे।

दरअसल वे महान होने के लायक ही नहीं थे जैसी महानता उन पर थोप दी गई थी। इतिहास इसी रुप में उनको याद करेगा।  

 (इस लेख का संपादित अंश हिंदी साप्ताहिक पत्रिका द पब्लिक एजेंडा के 31 अक्तूबर 13 के अंक में प्रकाशित।)
         

सोमवार, 4 नवंबर 2013

मोदी के भाषण-लेखक की योग्यता पर सवाल !



बिहार में भी नरेंद्र मोदी ने अपने दल के लिए हवा जरुर बना दी है, पर, राहुल गांधी को लगातार राजनीतिक मात देते लग रहे मोदी अपने पटना भाषण के तथ्योें को लेकर नीतीश कुमार से मात खा गये।

  जाहिर है कि बिहार में उनका मुकाबला किसी पप्पू से नहीं है। 27 अक्तूबर की पटना की हंुकार रैली में नरेंद्र मोदी का भाषण जोरदार रहा। उन्होंने अपने मुग्ध श्रोताओं को उन्होंने खूब रिझाया। पर, जब 29 अक्तूबर को नीतीश कुमार ने जदयू के राजगीर शिविर में नरेंद्र मोदी के आरोपों का सिलसिलेवार जवाब दिया तो अनेक लोगों को यह लगा कि नरेंद्र मोदी को अपना भाषण लेखक बदल लेना चाहिए।

नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के भाषणों के राजनीतिक पक्षों को नजरअंदाज भी कर दें तो तथ्यों की दृष्टि से नरेंद्र मोदी एक साथ पप्पू और फेंकू दोनों लगे।

एक ऐसा नेता जिसे आज बड़ी संख्या में श्रोता मिल रहे हैं, और जो प्रधानमंत्री पद का गंभीर उम्मीदवार है, उसे अपने भाषणों के तथ्यों की पहले सावधानीपूर्वक जांच कर लेनी चाहिए। क्योंकि नरेंद्र मोदी को नीतीश कुमार ही नहीं बल्कि पूरा देश आज सुन रहा है।

  अब मोदी और नीतीश के ताजा भाषणों पर एक नजर डाल ली जाए। नीतीश कुमार ने राजगीर में कहा कि ‘मैं टी.वी. देख रहा था। चंद्रगुप्त को गुप्त वंश का कहा गया जबकि चंद्रगुप्त मौर्य वंश के संस्थापक थे। तक्षशिला को भी बिहार में ही बता दिया गया जबकि वह पाकिस्तान में है।

सिकंदर को गंगा किनारे पहुंचा दिया गया जबकि सिकंदर तो सतलज के पास से ही भाग गया था।’
   अब पढि़ए कि नरेंद्र मोदी ने अपने पटना भाषण में क्या कहा था। मोदी ने बिहार की गौरव गाथा सुनाते हुए कहा कि ‘अगर रामायण काल को याद करें तो माता सीता की याद आती है। महाभारत काल की याद करें तो कर्ण की याद आती है। गुप्तकाल में चंद्रगुप्त की राजनीति प्रेरणा देती है। नालंदा की बात करें तो विक्रमशिला और तक्षशिला की याद आती है।’

   तथ्यों की भूल के अलावा नरेंद्र मोदी ने पटना के अपने जोशीले भाषण में एक सांस्कृतिक गलती भी कर दी। उन्होंने न सिर्फ भगवान कृष्ण को एक जाति विशेष के साथ जोड़ दिया बल्कि उन्होंने चुनावी राजनीति में जातीय पुट भी दे दिया।

   इस संबंध में उन्होंने दिलचस्प मोदी -लालू संवाद का विवरण भी जनसभा में पेश किया। नरेंद्र मोदी ने कहा कि लालू प्रसाद मुझे गाली देने का कोई मौका नहीं छोड़ते। कहते थे कि मोदी को पी.एम. बनने नहीं दूंगा। लालू जी का एक्सीडेंट हो गया। मैंने लालू जी को फोन किया। उनका हालचाल पूछा। मैंने मीडिया को नहीं बताया। मैंने सोचा पर्सनल बात है, इसको मीडिया को क्यों बताया जाये। पर लालू जी ने मीडिया को बुलाया। मीडिया से उन्होंने कहा कि मैं जिसे गाली देता हूं, देखो वो मुझे फोन करता है। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मोदी ने कहा कि ‘लालू जी,यदुवंश के राजा द्वारिका में ही बसे थे। आपको कुछ हो जाए तो हमारी चिंता स्वाभाविक है। मैं द्वारिका से आशीर्वाद लेकर आया हूं। अब आपके यदुवंशी समाज की चिंता का जिम्मा मैं लेता हूं। कृष्ण के काम को अब हम सब मिलकर करेंगे।’

  मोदी की इस जातिवादी टिप्पणी पर नीतीश कुमार ने मंंगलवार को कहा कि ‘रैली में खुलेआम जाति का नाम लिया गया। कृष्ण तो सबके भगवान हैं। लेकिन उन्हें भी जाति में बांध दिया गया।’

  मोदी और नीतीश की बातों से एक और बात निकलती है। दरअसल कृष्ण को यादवों के साथ जोड़ देने के बाद क्षत्रिय भगवान श्रीराम और ब्राह्मण भगवान परशुराम पर दावा कर सकते हैं। कुछ अन्य जातियां किन्हीं अन्य भगवान पर अपना दावा ठोक सकती हैं। यदि इस बात को कोई और आगे बढ़ाया जाएगा तो एक दिन कोई सनकी यह भी कह सकता है कि चूंकि हम ऊंची जाति के हैं, इसलिए मेरा भगवान तेरे भगवान से ऊंचा है। इस मुददे पर आपसी संघर्ष भी हो सकता है।फिर भाजपा की हिन्दू एकता का क्या होगा ? हाल ही में  भाजपा नेता  डा.सुब्रहमण्यम स्वामी ने कहा है कि हम चाहते हैं कि हिन्दुओं मेंें एकता कायम हो और मुस्लिम समुदाय में अनेकता हो। ऐसे में डा. स्वामी नरेंद्र मोदी को अब कैसी सलाह देंगे ?

   यदि नरेंद्र मोदी द्वारा विवादास्पद बातंें नहीं बोली जातीं तोभी पटना में भाजपा की हुंकार रैली सकारात्मक संदेश दे जाती।

  नरेंद्र मोदी ने सांप्रदायिक सद्भाव और एकता की ठोस बात पटना रैली में कही।उन्होंने गरीब हिन्दुओं से सवाल किया कि क्या आप गरीबी से लड़ना चाहते हो या  मुसलमानों से ? उसी तरह उन्होंने गरीब मुसलमानों ये यह सवाल किया कि आप गरीबी से लड़ना चाहते हो या हिन्दुओं से ?

  इतना ही नहीं, सभा स्थल पर यहां तक कि मंच के आसपास हो रहे बम विस्फोटों के बीच भी हुंकार रैली में मंच से कोई उत्तेजक बातें नहीं कही गई। बल्कि बम विस्फोटों से भीड़ का ध्यान हटाने की ही सफल चेष्टा की गई। नरेंद्र मोदी सहित सभी भाजपा मंचासीन नेताओं ने अत्यंत उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति में भी अभूतपूर्व संयम बरता। इसका भी भाजपा के पक्ष में सकरात्मक संदेश गया।मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने भी भाजपा नेताओं के इस संयम की सार्वजनिक रुप से सराहना की। पर यही संयम नरेंद्र मोदी के भाषण में भी देखी जाती तो वह प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार के व्यक्तित्व के अनुकूल होती।



राजा जी के अनुसार पटेल पी.एम.होते तो अच्छा होता


सरदार पटेल के जन्म दिन पर विशेष ( 31 अक्तूबर ) 


  राज गोपालाचारी ने सरदार पटेल के निधन के दो दशक बाद यह लिखा था कि यदि आजादी के बाद सरदार पटेल इस देश के प्रधानमंत्री और जवाहर लाल नेहरु विदेश मंत्री बने होते तो देश के लिए बेहतर होता।

 आजाद भारत के पहले गवर्नर जनरल राज गोपालाचारी उर्फ राजाजी ने इस बात के बावजूद यह बात लिखी कि जवाहर लाल नेहरु उन्हें यानी राजाजी को देश के प्रथम राष्ट्रपति बनवाना चाहते थे। पर सरदार पटेल राजेंद्र बाबू के पक्ष में थे ,इसलिए राजाजी नहीं बन सके।

  खुद की बनिस्पत देश के हित के बारे में अधिक सोचने वाले राजा जी का यह विचार आज के नेताओं के लिए सीख है। राजाजी चाहते थे कि उनके राजनीतिक विरोधी भी यदि योग्य हैं तो प्रधानमंत्री वही बनते तो देश के लिए अच्छा होता।

 उधर किस तरह राजा जी के मामले में जवाहर लाल नेहरु और सरदार पटेल के बीच कड़ी रस्साकसी चली थी, वह विवरण जानना दिलचस्प होगा।

       ‘यूं तो मैं जानता हूं कि राज गोपालाचारी का नाम उनके सन् 1942 के आंदोलन का विरोध करने के कारण, कांग्रेस वालों को बहुत अच्छा नहीं लगेगा, पर यदि विदेशी खिड़की से झांका जाए तो राजाजी का व्यक्तित्व बहुत ऊंचा है। उन्होंने गवर्नर जनरल के रूप में बहुत कुछ नाम कमाया है।’ 

कांग्रेस विधान पार्टी की बैठक में 1949 में जवाहर लाल नेहरू ने राजगोपालाचारी को देश का प्रथम राष्ट्रपति बनाने के लिए उपर्युक्त शब्दों में अपनी बात रखी थी। बैठक आरंभ होते ही जवाहर लाल जी ने कहा कि ‘राजेंद्र बाबू ने अपना नाम वापस ले लिया है और यह बड़े गौरव की बात इतिहास में जाएगी कि हमने प्रथम राष्ट्रपति को निर्विरोध चुन लिया।’ यह विवरण महावीर त्यागी की चर्चित पुस्तक ‘आजादी का आंदोलनःहंसते हुए आंसू’ में दर्ज है। त्यागी केंद्र में मंत्री भी रहे थे।

  महावीर त्यागी ने बैठक के बारे मंे लिखा कि जब जवाहर लाल जी ने राजा जी के नाम का प्रस्ताव किया तो हमारी टोली के सदस्यों ने खड़े होकर जवाहर लाल जी के इस प्रस्ताव का विरोध कर दिया। पहले जस्पत राय कपूर बोले। फिर राम नाथ गोयनका ने बड़े गुस्से से चिल्ला कर कहा कि हमें यह बताइए कि हम राष्ट्रपति कांग्रेस वालों के लिए चुन रहे हैं या उनके विरोधियों के लिए? जब आप अपने मुंह से मान रहे हो कि राजाजी का नाम कांग्रेस वालों को पसंद नहीं आयेगा तो हम क्या कांग्रेसी नहीं हैं ? मैंने भी विरोध करते हुए कहा कि जवाहर लाल जी आपको यह क्या आदत पड़ गई है कि आप हमेशा विदेशी खिड़कियों में से झांकते हैं। फतेहपुर सिकरी के बुलंद दरवाजे में से देखो तो आप जानोगे कि राजेंद्र बाबू का व्यक्तित्व आसमान के बराबर ऊंचा है। इसी तरह सबने विरोध किया। 

बालकृष्ण शर्मा नवीन ने कहा कि मैं प्रस्ताव करता हूं कि यह प्रश्न जवाहर भाई के ऊपर छोड़ दिया जाए। इस पर एक सदस्य ने यह संशोधन पेश किया कि जवाहर लाल जी और सरदार पटेल दोनों मिलकर निर्णय लें। बस सबने ताली बजा दी।

  महावीर त्यागी के अनुसार ,अगले दिन सरदार पटेल ने बताया कि हम लोगों के जाते ही जवाहर लाल और वे एक कमरे में सलाह करने के लिए जा बैठे। जवाहर लाल जी ने कहा कि मेरी राय में तो यह अच्छा ही हुआ कि पार्टी ने यह सवाल हमारे ऊपर छोड़ दिया। राजेंद्र बाबू तो उम्मीदवार हैं नहीं। इसलिए हमें अपना निर्णय राज गोपालाचारी के पक्ष में दे देना चाहिए।

इसपर सरदार ने कहा कि प्रस्ताव के शब्दों के अनुसार हमें पार्टी की आवाज के अनुसार फैसला देना है। अपनी आवाज के अनुसार नहीं। पार्टी के अधिकतर लोग राजेंद्र बाबू को चाहते हैं। हमें अपनी राय नहीं बतानी, वह तो सबको पता है। हमको पंच फैसला देना है। क्या आपकी राय में बहुमत राजाजी को स्वीकार करेगा? इसको सुनकर जवाहर लालजी ने धीरे से कहा तो आप फैसला सुना दो कि हम दोनों की राय में राजेंद्र बाबू को ही राष्ट्रपति चुना जाना चाहिए। इस तरह राजेंद्र बाबू चुन लिये गये।

पर इससे पहले एक दिलचस्प किंतु प्रेरणादायक प्रकरण भी हुआ। इससे जवाहर लाल जी के तब के लोकतांत्रिक मिजाज और राजेंद्र बाबू सत्ता के प्रति निर्मोही रुख का पता चलता है।

  याद रहे कि कांग्रेस विधान पार्टी की बैठक में जवाहर लाल जी ने यहां तक कह दिया था कि यदि आप लोग राजा जी को राष्ट्रपति नहीं बनाएंगे तो आपको अपनी पार्टी का नया नेता भी चुनना होगा। जवाहर लाल जी पार्र्टी के नेता थे और प्रधानमंत्री भी।

पर अधिकतर सदस्य जब इस धमकी में भी नहीं आए तो जवाहर लाल जी राजेंद्र बाबू के यहां चले गये। उन्होंने राजेंद्र बाबू से पूछा कि क्या आप राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हैं ? उन्होंने कहा कि मैं किसी पद का उम्मीदवार नहीं हूं। इस पर जवाहर लाल जी ने कहा कि राजेंद्र बाबू आपसे मेरी अपील है कि आप राजा जी को निर्विरोध चुना जाने दो। राजेंद्र बाबू के अनुसार ‘इस पर मैं लाजवाब हो गया और उनके कहे अनुसार यह लिख कर दे दिया कि राज गोपालाचारी के राष्ट्रपति चुने जाने पर मुझे कोई एतराज नहीं है और मैं इसका उम्मीदवार नहीं हूं।’

इसपर बाद में जब सरदार पटेल और राजेंद्र बाबू के समर्थकों ने राजेंद्र बाबू के सामने गुस्सा जाहिर किया तो राजेंद्र बाबू दोनों हाथों से सिर थाम कर बैठ गये और कहा कि गांधीवादी होते हुए मेरे लिए यह कैसे संभव था कि मैं बच्चों की तरह  पद के लिए जिद करता ?

   तब राजेंद्र बाबू के समर्थकों ने कहा कि एक बात हो सकती है। आप जवाहर लाल जी को एक पत्र लिख दें। आप लिखें कि मैं अपनी बात पर कायम हूं। पर पार्टी के साथियों से बिना परामर्श किये मैंने अपना नाम वापस लिया है। इसलिए मेरी प्रार्थना है कि आप पार्टी के प्रमुख सदस्यों को बुलाकर समझा दें कि वे मेरे वापस हो जाने पर चुनाव निर्विरोध हो जाने दें। उन्होंने तुरंत चिट्ठी लिख दी।

(जनसत्ता ः 31 अक्तूबर 2013)   
   

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

बड़े जतन किए,पर नहीं बच पाए बड़बोले लालू

   सी.बी.आइ. की कठोर जांच -प्रक्रिया और बाद में अदालती कार्रवाइयों से बचने के लिए लालू प्रसाद ने पिछले 17 वर्षों में बहुत हाथ -पांव मारे। कभी किसी को धमकाया तो कभी प्रलोभन दिया। कभी किसी से पैरवी की और करवाई तो कभी  दबाव डलवाया।

  केस से बचने के लिए कभी अपने आवास पर महीनों तक विघ्ननाशक यज्ञ करवाया तो साथ ही देश के मशहूर तीर्थ स्थलों व सिद्ध शक्तिपीठों की अनेक यात्राएं कीं। लालू प्रसाद इस केस के सिलसिले में जब भी अदालत में जाते थे, उससे पहले पूजा पाठ करते थे, मछली के दर्शन करते थे। दही खाकर निकलते थे। इस बार भी रांची अदालत जाने से पहले उन्होंने वह सब किया और साथ ही अपनी प्रिय गाय के भी दर्शन किये।
    पर उनका कोई उपाय काम नहीं आया। अंततः अदालत ने उन्हें दोषी ठहरा ही दिया।

  आज की अपनी स्थिति के लिए खुद लालू प्रसाद ही जिम्मेवार हैं। सन 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू प्रसाद सार्वजनिक रूप से कहा करते थे कि ‘मैं खुद ही कानून बनाता हूं और तोड़ता हूं।’

 उनकी यही प्रवृति हाल तक भी सामने आती रहती थी। मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने जब कोई आपराधिक मामला आता है तो वह अक्सर यह कह दिया करते हैं कि ‘कानून अपना काम करेगा।’

 इसके जवाब में नीतीश का मजाक उड़ाते हुए लालू प्रसाद ने कई बार सार्वजनिक रुप से कहा कि ‘जब कानून ही अपना काम करेगा तो आप किस काम के मुख्यमंत्री बने हुए है ?’

यानी लालू प्रसाद जब मुख्यमंत्री थे तो वे खुद को सदा कानून से ऊपर समझते थे। उनके कई काम भी वैसे ही होते थे। उन्हीं कामों में यह चारा घोटाला भी शामिल है। पर अंत में कानून के गिरफ्त में वे आ ही गये।

  मंडल आंदोलन की पृष्ठभूमि में हुए 1991 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद को बिहार की गरीब व पिछड़ी जनता ने अभूतपूर्व जन समर्थन दिया था। पर उन्होंने लगातार उस समर्थन का दुरुपयोग ही किया।

  एक बात का उल्लेख यहां विशेष तौर पर जरुरी है। यदि चारा घोटाले की जांच प्रक्रिया पर पटना हाईकोर्ट की निगरानी नहीं होती तो इस केस को तार्किक परिणति तक पहुंचाना संभव नहीं होता। क्योंकि चारा घोटाला न सिर्फ सर्वदलीय बल्कि सर्वपक्षीय भ्रष्टाचार का नमूना है। डा.यू.एन.विश्वास जैसे ईमानदार और निडर सी.बी.आइ. अफसर इस घोटाले की जांच टीम के अगुआ नहीं होते तो भी यह नतीजा शायद सामने नहीं आता क्योंकि राजनीति से जुड़े चारा घोटालेबाज लोग  कभी केंद्र और राज्य सरकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से चलाते थे।

चारा घोटालेबाजों ने रिश्वत के बल पर मीडिया के एक हिस्से सहित इस लोकतांत्रिक देश के सिस्टम के लगभग सारे अंगों के संबंधित लोगों को खरीद रखा था। सी.बी.आइ. जांच का आदेश देते हुए पटना हाईकोर्ट ने 1996 में ही कह दिया था कि उच्चस्तरीय साजिश के बिना इतना बड़ा घोटाला संभव ही नहीं था।

      1996 में जब सी.बी.आइ. ने लालू प्रसाद पर शिकंजा कसना शुरु किया तो लालू प्रसाद ने उससे बचने के लिए बहुत हाथ पैर मारे। तब लालू प्रसाद बिहार की राजनीति के महाबली नेता और मुख्यमंत्री थे। खुद को कानून की गिरफ्त से बचाने के लिए किसी की चिरौरी की और किसी की भावना उभारने की कोशिश की तो किसी को बुरी तरह धमकाया। उनके कई उदंड समर्थकों ने तो इस दिशा में  हद ही कर दी।

    कमल पासवान उन दिनों लालू प्रसाद के दल के प्रादेशिक अध्यक्ष थे। उन्होंने 29 सितंबर 1996 को सार्वजनिक रुप से यह धमकी दी कि ‘यदि लालू प्रसाद के चरित्र हनन की कार्रवाई की गई तो देश में खूनी क्रांति होगी और धरती लाल कर दी जाएगी।’

पासवान ने यह भी कहा कि जो लोग यह समझते हैं कि मैं सी.बी.आइ. को धमकाने के लिए ऐसा बयान दे रहा हूं तो वे भ्रम में हैं। हमें सी.बी.आइ. पर पूरा विश्वास है। पर जांच कार्य आगे बढ़ा तो लालू समर्थकों का सी.बी.आइ. पर से विश्वास उठ गया। 1997 में एक दिन पटना के व्यस्त डाक बंगला चौराहे पर आम लोग यह देख कर हैरान रह गये कि लालू समर्थक प्रमुख नेतागण एक नंग धड़ंग बच्चे से जमीन पर पड़े दो पुतलों पर सरेआम पेशाब करवा रहे हैं और बगल खड़े वे लोग हंस रहे हैं। वे पुतले सी.बी.आइ. के जांच अधिकारी डा. यू.एन. विश्वास और भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी केे थे।

   बाद में पुतलों को जला दिया गया। एक अन्य अवसर पर लालू प्रसाद के दल के नेताओं ने पटना राज भवन के सामने यू.एन. विश्वास के पुतले को जलाने से पहले तलवार से काटा। ऐसा करके उन लोगों ने सी.बी.आइ. के कर्त्तव्यनिष्ठ अफसर डा. विश्वास को आतंकित करने की कोशिश की।

  इतना नहीं। लालू प्रसाद ने पता लगा लिया कि डा. विश्वास, जो जांच कार्य में घोटालेबाजों के साथ कोई रहम करने को तैयार नहीं थे, दरअसल बौद्ध हैं। उन्होंने यह भी पता लगा लिया कि उन्होंने किस बौद्ध गुरु से दीक्षा ली है। वह बौद्ध गुरु थे राष्ट्रपाल महाथेरो। लालू प्रसाद ने यू.एन. विश्वास पर प्रभाव डालने के उद्देश्य से बोधगया स्थित उस बौद्ध गुरु राष्ट्रपाल महाथेरो को 1996 के अक्तूबर में फोन किया।

मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने उनसे कहा कि ‘भंते जी, आपके चेला ने हमें झूठमूठ बोल कर फंसा दिया है। प्लीज आप जल्दी कुछ कीजिए। मैं अभी बहुत दिक्कत में हूं।’

   पर राष्ट्रपाल महाथेरो ने मुख्यमंत्री से साफ -साफ कह दिया कि डा. विश्वास की जो गतिविधियां धर्म से संबंधित नहीं हैं, उनसे मेरा कोई सरोकार नहीं है। इस जवाब से लालू प्रसाद को झटका लगा था।

   उसके बाद लालू ने दूसरा रास्ता अपनाया। तब जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद ही थे। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौडा को 10 जनवरी 1997 को पत्र लिखा। याद रहे कि देवगौडा़ भी जनता दल में ही थे। लालू ने लिखा कि वे डा. यू.एन. विश्वास को चारा घोटाले के जांच कार्य से हटा दें। याद रहे कि डा.विश्वास सी.बी.आइ. के पूर्वी क्षेत्र के संयुक्त निदेशक की हैसियत से चारा घोटाले की जांच कार्य को निदेशित कर रहे थे। विश्वास को पटना हाईकोर्ट ने कह रखा था कि आपको जांच कार्य में कोई कठिनाई हो तो हमें सूचित करें।

   31 जनवरी 1997 को पटना के कदमकुआं से गांधी मैदान तक लालू समर्थकों ने सोंटा मार्च /यानी लाठी मार्च/ निकाला। मार्च में शामिल जद कार्यकर्ता उत्तेजक नारे लगा रहे थे। प्रतिपक्षी दलों ने आरोप लगाया था कि सोंटा मार्च सी.बी.आइ. तथा उन लोगों को आतंकित करने के लिए निकाला गया था जिनकी जनहित याचिकाओं पर हाईकोर्ट ने जांच का भार सी.बी.आइ. को सौंपा था।

   2 मई 1997 को अपने आवास पर प्रेस कांफ्रेंस में लालू प्रसाद ने यहां तक कह दिया कि सी.बी.आइ. अमेरीकी खुफिया एजेंसी सी.आइ.ए. की तरह है। सी.बी.आइ.यहां के राजनेताओं की हत्या भी करवा सकती है। अपने समर्थकों की भावना उभारने की लालू प्रसाद की यह एक और कोशिश थी।

    18 मई 1997 को पटना के मिलर स्कूल के मैदान में आयोजित एक समारोह में मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने कहा कि राज रहता है तो चेहरे पर मुस्कराहट रहती है। जिस दिन हमारा राज चला जाएगा, उस दिन गरीबों को पता चल जाएगा। उस दिन गरीबों पर सामंती शक्तियां कहर ढाहेंगीं। इसलिए राज को बचाने के लिए दलितों, पिछड़ों और गरीबों को खुद ही आगे आना होगा।

   मीडिया पर जम कर बरसते हुए लालू प्रसाद ने कहा कि सारा अखबार पूंजीपतियों का है। वे लोग पिछले डेढ़ साल से मेरे खिलाफ अभियान चला रहे हैं।

इस लेख का संपादित अंश जनसत्ता के 1 अक्तूबर 2013 के अंक में प्रकाशित/

चारा घोटाला जांच के हीरो डा. यू.एन.विश्वास


     लातिनी अमरीकी विद्रोही चे. ग्वेवारा को अपना आदर्श मानने वाले सी.बी.आइ. अफसर डा. यू.एन. विश्वास चारा घोटाला -जांच -कार्य के हीरो रहे। इस सजा की खबर से उन्हें भारी संतोष मिला होगा। हालांकि उन्होंने भले ही कोई प्रतिक्रिया देने से इनकार कर दिया है।

     डा.विश्वास की देखरेख में सी.बी.आइ. ने इस मामले में ऐसा मजबूत केस बनाया था कि घोटालेबाज सजा से बच नहीं पा रहे हैं। देश के बड़े से बड़े वकील आरोपितों के काम नहीं आये। जांच कार्य के दौरान भी वे पटना में पत्रकारों से यह कहा करते थे कि यह एक मजबूत केस साबित होगा।
ऐसा ही हुआ भी।

   चर्चित चारा घोटाले की जांच का भार यदि डा. यू.एन. विश्वास जैसे ईमानदार और निडर अफसर को नहीं मिला होता तो इस महाघोटाले की जांच के काम को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाया नहीं जा सकता था।

   सी.बी.आइ. का कोई भी अन्य अधिकारी बाहरी और भीतरी तमाम दबावों के बीच वह काम कर पाता जिसे उपेन विश्वास ने बखूबी अंजाम दिया? शायद नहीं।

   हालांकि यह बात भी विश्वास के पक्ष में रही कि पटना हाईकोर्ट ने विश्वास की भरपूर मदद की। इन पंक्तियों के लेखक ने एक संवाददाता के रूप में चारा घोटाले के जांच- कार्य का नेतृत्व करते डा. विश्वास को करीब से देखा था।

  एक बार सी.बी.आइ. के संयुक्त निदेशक /पूर्वी क्षेत्र/ डा. विश्वास ने पटना में पत्रकारों के एक छोटे समूह को बताया था कि मैं कलकत्ता छोड़ते समय हर बार अपनी पत्नी को यह कह कर आता हूं कि ‘शायद मैं इस बार नहीं लौट पाऊंगा।’

  उनकी यह बात कोई बनावटी नहीं थी। जांच के दौरान उन्हें पटना में तरह -तरह के प्रलोभन और धमकियां मिल रहे थे। तीस जून 1997 को विश्वास ने पटना हाईकोर्ट से कहा था कि ‘हमारे अफसरों को जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं, इसलिए राजनीति से जुड़े आरोपितों को गिरफ्तार करना संभव नहीं हो पा रहा है।’  याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर पटना हाईकोर्ट चारा घोटाले की जांच की निगरानी कर रहा था।

पटना हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति एस.एन. झा और न्यायमूर्ति एस.जे. मुखोपाध्याय के खंडपीठ ने डा. विश्वास को कदम -कदम पर संरक्षण दिया।

     डा. विश्वास को लगातार धमकियां मिल रही थीं। उन्हें कहा जा रहा था कि वे कुछ खास नेताओं को जांच के दायरे से बाहर रखें। सी.बी.आइ. का मुख्यालय भी यह नहीं चाहता था कि इस घोटाले में लालू प्रसाद को  आरोपित किया जाये। डा. विश्वास के नीचे के कुछ अफसर भी उनको सहयोग नहीं दे रहे थे।
इसको लेकर सी.बी.आइ. मुख्यालय और डा. विश्वास के बीच करीब दो महीने तक तनाव रहा। सी.बी.आइ. मुख्यालय पर तत्कालीन प्रधानमंत्री गुजराल का दबाव था। गुजराल की मिलीजुली सरकार लालू प्रसाद के दल के समर्थन से चल रही थी। इधर डा. विश्वास के नेतृत्व में जारी जांच से सी.बी.आइ. के सामने यह बात सामने आ रही थी कि मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की घोटालेबाजों से सांठगांठ है। तत्कालीन सी.बी.आइ. निदेशक जोंिगंदर सिंह ने अपनी पुस्तक में यह बात स्वीकारी है कि लालू प्रसाद को बचाने के लिए उनपर प्रधानमंत्री का दबाव था।
 
   जब घोटालेबाजों ने देखा कि डा. विश्वास को प्रभावित नहीं किया जा सकता है तो इस अफसर को तरह- तरह से परेशान किया जाने लगा। डा.विश्वास के खिलाफ पटना हाईकोर्ट में अवमानना याचिका दायर की गई। चारा घोटाले की जांच के बारे में यू.एन. विश्वास द्वारा तैयार प्रगति   प्रतिवेदन को हाईकोर्ट में दाखिल करने से  पहले ही उनके अधीनस्थ अफसर ने उसके निष्कर्षों को बदल दिया था। ऐसा उसने सी.बी.आइ. मुख्यालय के निदेश पर किया था।

  इसकी सूचना विश्वास ने हाईकोर्ट को दी। इस पर हाईकोर्ट ने विश्वास को संरक्षण प्रदान किया। हाईकोर्ट ने कहा कि डा.विश्वास अपनी रपट किसी अन्य अफसर को दिखाये बिना इस अदालत में दाखिल करेंगे।

   इस बीच डा.विश्वास को विधायिका  के विशेषाधिकार हनन का आरोप झेलना पड़ा। बिहार विधान मंडल के दोनों सदनों में कुछ सत्ताधारी विधायकों व मंत्रियों ने  डा.विश्वास की तीखी आलोचना कीं और उनकी मंशा पर शक किया।

  यानी चारों ओर से दबाव व जान पर खतरे के बीच डा. विश्वास ने चारा घोटाले की सही जांच करके ऐसे आरोप पत्र तैयार करवाये कि अधिकतर घोटालेबाजों को अदालत ने सजा दी। अभी तो सजा देने की प्रक्रिया जारी है।
खुद लालू प्रसाद व जगन्नाथ मिश्र के खिलाफ कई अन्य केस सुनवाई की प्रक्रिया में हैं।

   चर्चित चारा घोटाला केस के जरिए डा. यू.एन. विश्वास ने बिहार में नब्बे के दशक में हलचल मचा दी थी। इस केस में डा. विश्वास के साहसपूर्ण कार्यों ने बिहार से अंततः जंगल राज की समाप्ति में परोक्ष रूप से ही सही, पर शुरुआती भूमिका निभाई। अब सी.बी.आई. के वही रिटायर अफसर  बंगाल विधानसभा का चुनाव लड़कर वहां मंत्री बने हैं। पश्चिम बंगाल में उनकी जीत के पीछे ममता बनर्जी की लोकप्रियता के साथ -साथ बिहार में किये गये उनके कामों का भी असर रहा।

   डा. यू.एन. विश्वास एक ऐसा नाम है जिससे अखबार पढ़ने वाला बिहार का करीब- करीब हर व्यक्ति अवगत है। जांच के दिनों विश्वास की चर्चा बिहार के घर -घर में होती थी।

   जांच के दौरान पटना में डा. विश्वास को बुलेटप्रूफ गाड़ी में चलना पड़ता था।  पर डा. विश्वास ने चारा घोटाले की ऐसी पक्की जांच की और कराई कि जनता एक बड़े हिस्से को भी यह भरोसा हो गया कि कुछ नेताओं की शह पर ही सरकारी खजाने को बेरहमी से लूटा गया था। अंततः रांची की अदालत ने भी उन आरोपों को सही पाया। चारा घोटाले की जांच शुरु होते ही  लालू प्रसाद तथा कुछ खास अन्य नेताओं का राजनीतिक अवसान भी शुरू हो गया था।

   पटना हाई कोर्ट ने सन 1996 में यह आदेश दिया था कि चारा घोटाले की जांच सी.बी.आई. करे क्योंकि यह उच्चस्तरीय साजिश के तहत हुआ है। उन दिनों 1968 बैच के आई.पी.एस. अफसर डा. विश्वास सी.बी.आई. के पूर्वी क्षेत्र के संयुक्त निदेशक थे। चारा घोटाले के कागज पत्र देखने के बाद ही उन्हें लग गया था कि यह एक जघन्य पाप व अपराध है जो मूक पशुओं के खिलाफ किया गया है। पशुओं के हक को छीन कर दरअसल पिछड़ों और आदिवासियों को गरीबी से उबारने के सरकारी कार्यक्रम को धक्का पहंुचाया गया जबकि लालू की सरकार पिछड़ों के वोट से  ही बनी थी।

   इस घोटाले में करीब -करीब सभी दलों के अनेक छोटे-बड़े नेता शामिल थे। दरअसल घोटालेबाज अनेक नेताओं सहित समाज के प्रभु वर्ग के एक बड़े हिस्से पर पैसे बरसा रहे थे।

    जाहिर है कि जांच शुरु होने पर विश्वास पर कितना बड़ा खतरा था। डा.विश्वास ने 12 जनवरी 1997 को ही यह कह दिया था कि ‘मैं  अपनी निजी सुरक्षा की परवाह किये बिना चारा घोटाले की जांच को अंजाम तक पहुंचाउंगा।’

यही काम उन्होंने किया भी। चारा घोटाले का केस इतना पोख्ता बनाया गया है कि कुछ आई.ए.एस. अफसर भी सजा से बच नहीं सके हैं। कुछ साल पहले एक सजायाफ्ता आई.ए.एस. अफसर ने मीडिया से कहा था कि मैं तो इस केस में बर्बाद ही हो गया।

डा.विश्वास ने उन दिनों पटना में मीडिया से खुद ही कहा था कि वह लैटिन अमरीकी क्रांतिकारी चे ग्वेवारा को अपना आदर्श मानते हैं। विश्वास ने ममता बनर्जी के दल में शामिल होना इसलिए भी स्वीकार किया क्योंकि डा. विश्वास को यह विश्वास था कि ममता बनर्जी ईमानदार नेत्री हैं।

पर माकपा नेताओं के बारे में विश्वास की राय दूसरी ही है। डा.विश्वास बताते हैं कि वाम शासन के शुरुआती दौर में उन्होंने कुछ ईमानदार आई.पी.एस. अफसरों के नाम ज्योति बसु को दिये थे ताकि वे उन्हें महत्वपूर्ण जगहों पर तैनात कर सकें। पहले तो ज्योति बसु ऐसा करने के लिए राजी थे। पर बाद में उन्होंने माकपा नेताओं की सलाह पर ऐसे अफसरों को ही महत्वपूर्ण पदों पर तैनात कर दिया जिनमें से अधिकतर बेईमान थे।
 
एक अन्य घटना की चर्चा विश्वास पटना में करते थे। यह बात उस समय की है कि जब सिद्धार्थ शंकर राय पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री थे। आसनसोन में सांप्रदायिक दंगा हो गया जहां विश्वास एस.पी थे। मुख्यमंत्री ने विश्वास से पूछा कि आप दंगा रोकने में विफल क्योें हो गये ?

इस युवा एस.पी. ने कहा कि कांग्रेस के श्रमिक नेतागण ही इसके लिए जिम्मेदार हैं और सत्ताधारी दल उनके खिलाफ कड़ाई करने से पुलिस को रोक रहा है। मुख्यमंत्री ने कहा कि इस तरह के कठिन पदों पर तो आपको नहीं रहना चाहिए। इस पर विश्वास ने कहा कि ‘सर, मैं 24 घंटे में यहां से हटने को तैयार हूं।’

  विपरीत परिस्थितियों में भी सत्य के लिए बड़े से बड़ा शक्तिशाली व्यक्ति का सामना करने को तैयार रहने वाले डा. विश्वास के ही वश में था कि वह चारा घोटाले की जांच सही ढंग से कर सके और बड़े नेताओं को भी अदालत से सजा दिलवाने लायक केस तैयार करा सके।

बिहार में नमो बनेंगे अति पिछड़ा ?


  क्या अगले लोकसभा चुनाव के समय बिहार में नरेंद्र मोदी के नाम पर अति पिछड़ा कार्ड खेला जाएगा ? क्या उसके बिना नमो का काम बिहार में नहीं चलेगा ? बिहार की राजनीति में जातीय कार्ड खेले जाने की पुरानी परंपरा रही है। ऐसे तो यह बीमारी पूरे देश में है, पर बिहार में कुछ अधिक ही है।

        बिहार के कुछ भाजपा नेताओं के हाल के बयानों को ध्यान में रखें तो शायद नरेंद्र मोदी को इस रूप में भी बिहार में पेश किया जाने वाला है। नरेंद्र मोदी के कुछ खास गुणों और विशेषताओं के कारण संघ व भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया है। पर बिहार भाजपा के कुछ नेताओं को यह लगता है कि  मात्र उन गुणों और विशेषताओं से बिहार मंे उनका चुनावी काम नहीं चलेगा।

नरेंद्र मोदी के अति पिछड़ा होने का प्रचार भी बिहार में करना पड़ेगा। इस मुद्दे पर खुद नरेंद्र मोदी की राय अभी सामने नहीं आई है। विराट हिंदू एकता की बात करने वाले भाजपा के सहमना संगठनों की राय भी आनी बाकी है। पर, लगता है कि बिहार भाजपा के कुछ नेता नमो को लोकसभा चुनाव के समय बिहार में इस नये रूप में पेश करके ही मानेंगे। वे ऐसा पहले से भी  कर  रहे हैं। यदि खुद नमो की सहमति से अंततः ऐसा हुआ तो यह सवाल उठेगा कि क्या इससे नरेंद्र मोदी के हिंदू हृदय सम्राट की छवि को धक्का नहीं लगेगा ?

    जो हो , नीतीश विरोध के अतिरेक के चक्कर में राज्य के कुछ भाजपा नेता नमो  को उप जातीय चौखटे में कैद कर देना चाहते हैं ताकि नीतीश कुमार को राजनीतिक दृष्टि से नुकसान पहुंचाया जा सके।

  याद रहे कि अति पिछड़ा वोट बैंक जदयू का सबसे बड़ा वोट बैंक है। कुछ बिहारी भाजपा नेतागण पिछले कुछ महीनों से बिहार में यह प्रचार कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी गुजरात की अति पिछड़ी घांची जाति से आते हैं। इस जाति के लोग कपास से तेल निकालने का काम करते हैं। वे अपने भाषणों व प्रेस बयानों के जरिए बिहार की अति पिछड़ी जातियों के मतदाताओं को पहले से ही यह संदेश दे रहे हैं कि आपकी जाति का एक नेता पहली बार इस देश का प्रधानमंत्री बनने जा रहा है। इसलिए आप लोग उनका समर्थन करें।

   अब जबकि शुक्रवार को अंततः नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बजाप्ता घोषित कर दिया गया तो यह प्रचार और भी तेज हो सकता है। बिहार में अति पिछड़ी जातियों की  आबादी कुल आबादी में करीब 32 प्रतिशत है। यह आंकड़ा 1931 की जनगणना पर आधारित है। तब ओडिसा भी बिहार का हिस्सा था। इस देश में जातीय आधार पर जनगणना अंतिम बार 1931 में हुई थी।

   जिस तरह यादव मतों पर लालू प्रसाद का लगभग एकाधिकार सा बन चुका  है, उसी तरह जदयू को अति पिछड़ी जातियों के अधिकतर मतदाता वोट देते रहे हैं। याद रहे कि लालू प्रसाद के राजद को अल्पसंख्यकों का अधिकांश मत मिलता रहा है। बिहार में यादव और मुसलमानों की मिलीजुली आबादी करीब 28 प्रतिशत है। हाल के वर्षों में जदयू ने अल्पसंख्यक मतों में जरूर सेंध लगाई है। नीतीश कुमार के वोट बैंक में महादलित, पिछड़े मुसलमान और महिला मतदाता भी शामिल हैं।

  नीतीश कुमार खुद कुर्मी जाति से आते हैं। इसलिए स्वाभाविक ही है कि अधिकतर कुर्मी वोट जदयू को मिले। बिहार में जिस जाति के मुख्यमंत्री होते हैं, उस जाति के अधिकतर वोट आम तौर पर मुख्यमंत्री के दल को मिलते हैं।:

   हाल के महीनों में राजद ने बिहार में कुछ राजनीतिक बढ़त हासिल की है। हाल में हुए महाराजगंज लोकसभा उपचुनाव में राजद ने जदयू को बड़े अंतर से हराया था। कई कारणों से महाराजगंज जदयू के लिए एक प्रतिकूल चुनाव क्षेत्र रहा  है। सन 2009 के आम चुनाव में भी वहां से राजद के ही उम्मीदवार विजयी हुए थे। इस विपरीत राजनीतिक परिस्थिति के बावजूद जदयू के उम्मीदवार को महाराजगंज उप चुनाव में दो लाख 44 हजार मत मिले थे। यानी प्रति विधानसभा क्षेत्र में करीब 41 हजार मत। इतने मतों में अति पिछड़े, पसमांदा मुस्लिम, महादलित और महिलाओं के मत शामिल थे।

भाजपा के साथ इन दिनों बिहार में सवर्णों की सहानुभति देखी जा रही है। परंपरागत ढंग से व्यावसायिक समुदाय भाजपा के साथ रहा है। जातीय वोट बैंक वाले बिहार में नमो की हिंदुत्व छवि का भी थोड़ा लाभ मिल रहा है। पर मनमोहन सरकार के लुंजपंुज शासन के मुकाबले नमो को कुछ बढ़त मिल सकती है। इसका अधिक लाभ नहीं मिलेगा क्योंकि बिहार में नीतीश का शासन भी एक बेहतर शासन ही माना जाता रहा है।

नमो के पक्ष में कुछ हवा बिहार में भी है, पर वह हवा चुनाव नतीजों को कितना प्रभावित कर पाएगी, यह अनिश्चित है। खुद बिहार भाजपा के कुछ नेताओं को भी यह नहीं लगता कि वह नमो की मात्र परंपरागत छवि से ही बिहार में निर्णायक जीत हासिल कर सकती है। इसलिए अति पिछड़ा कार्ड खेला जा रहा है। भाजपा जदयू के अति पिछड़ा वोट बैंक में सेंध लगाना चाहती है। इसलिए नमो को जातीय नेता के रूप में भी पेश किया जा रहा है।

   नीतीश सरकार ने अति पिछड़ों के लिए पंचायतों में 20 प्रतिशत सीटें रिजर्व की हैं। उसने महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत सीटें रिजर्व की। उनके लिए राज्य सरकार ने कुछ अन्य काम भी किये हैं। पंचायतों में अति पिछड़ों के लिए हुए आरक्षण का नुकसान खुद कुर्मी जाति को भी हुआ था जिस जाति पिछड़ी जाति से खुद नीतीश कुमार भी आते हैं। इससे यह संदेश गया कि नीतीश ने अपनी जाति को राजनीतिक नुकसान पहंुचा कर भी कमजोर वर्ग को लाभ पहुंचाया। इससे उनका अति पिछड़ा वोट बैंक ठोस हुआ।

  क्या अति पिछड़ों या किसी समुदाय के लिए ठोस काम करने के कारण वोट बैंक बनता है या उस जाति में सिर्फ पैदा होने के कारण ? अगले लोकसभा चुनाव में इस सवाल का जवाब एक बार फिर मिलेगा।

शनिवार, 28 सितंबर 2013

बरकरार रखी गई दागी नेताओं को बचाने की परंपरा

  शायद नयी पीढ़ी को मालूम नहीं हो कि देश मेंं 1975 में इमरजेंसी क्यों लगायी गयी थी। इसलिए उसकी एक बार फिर चर्चा जरुरी है। दरअसल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की लोकसभा की सदस्यता बचाने के लिए तब लोकतंत्र का गला घोंटा गया था।

  जिस दल की सरकार अपनी प्रधानमंत्री की सदस्यता बचाने के लिए देश पर इमरजेंसी  थोप सकती है, उसने यदि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को धत्ता बताने के लिए 24 सितंबर को अध्यादेश को मंजूरी दे दी तो इसमें कोई आश्चर्य की बात ंनहीं है। आज तो अनेक लोगों की सदस्यता बचाने की उसे जरुरत है। यानी उस दल ने परंपरा कायम  रखी है। यदि 1975 में ही प्रतिपक्ष का आज की तरह पतन हो चुका होता तो इंदिरा गांधी को इमरजेंसी लगाने की भी तब कोई जरुरत नहीं पड़ती।

  केंद्र सरकार के मौजूदा कदम को सर्वदलीय सहमति तो गत एक अगस्त को ही  मिल चुकी थी। बस प्रतिपक्ष का एक हिस्सा आज विरोध इस बात पर कर रहा है कि  अध्यादेश लाने की जल्दीबाजी क्यों दिखाई जा रही है। इसे संसद के रास्ते ही आना चाहिए था। रशीद मसूद और लालू प्रसाद प्रतिपक्ष के होते तो उतना विरोध भी नहीं होता।

याद रहे कि गत 10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि दो साल से अधिक की  (लोअर कोर्ट से भी) सजा हो जाने पर सांसदों और विधायकों की सदस्यता  तत्काल प्रभाव से समाप्त हो जाएगी।

  अपराधियों व भ्रष्टाचारियों से भरी आज की राजनीति की मुख्य धारा इस निर्णय पर तत्काल हरकत में आ गयी। इस पर एक अगस्त को सर्वदलीय बैठक बुला ली गयी।

 बैठक में तुरंत सर्वदलीय सहमति भी बन गई कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलटने के उपाय किये जाएं। पहले तो सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर कर दी गई। साथ ही फैसले को पलटने के लिए संबंधित कानून में परिवर्तन के लिए संसद में विधेयक पेश कर दिया गया। पर संसद उसे पास किये बिना ही अन्य कारणों से स्थगित हो गई। इधर 4 सितंबर को सर्वोच्च अदालत ने सरकार की पुनर्विचार याचिका को  नामंजूर कर दिया। इसके बाद अध्यादेश का रास्ता अपनाया गया। इस बात का तनिक ध्यान तक नहीं रखा गया कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की सख्त राय है।

     याद रहे कि 1975 और आज में फर्क यही आया है कि अधिकतर प्रतिपक्षी दल व उनके नेतागण भी ऐसे जन विरोधी उपायों के समर्थक बन चुके हंै। राजनीति के अपराधीकरण व भ्रष्टीकरण का खामियाजा अंततः देश की करोड़ों जनता को ही तो भुगतना पड़ता है। जब राजनीति, सरकार व प्रशासन की गंगोत्री ही अपवित्र हो जाती है तो उसका मारक  असर पुलिस थानों व ब्लाॅक दफतरों तक पर पड़ता है।

  याद रहे कि 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जग मोहन लाल सिंहा ने राय बरेली से इंदिरा गांधी का लोकसभा का चुनाव रद कर दिया था। उन पर चुनाव में भ्रष्ट तरीके अपनाने का आरोप साबित हो चुका था। इंदिरा गांधी पर संबंधित कानून की जिन धाराओं को तोड़ने का आरोप था, उन धाराओं में आपातकाल में अनुकूल संशोधन कर दिया गया। संशोधित कानून के तहत जब सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई तो इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय को पलटने के सिवा सुप्रीम कोर्ट के सामने कोई चारा नहीं था।

    इंदिरा गांधी पर आरोप के बारे में देश के तब के एक शीर्ष  वकील ने  कहा था कि उन पर आरोप ट्राफिक नियम भंग करने जैसे ही मामूली थे। इसके बावजूद तब के प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों  और जय प्रकाश नारायण ने प्रधान मंत्री से इस्तीफा मांगा था।

  पर आज की मुख्य धारा की लगभग समग्र राजनीति ऐसे सजायाफ्ता अपराधियों को भी संसद और विधायिकाओं में शोभा बढ़ाने की सुविधा देने पर अमादा है जिन पर जघन्य हत्या, बलात्कार, भीषण भ्रष्टाचार  तथा इस तरह के अन्य जघन्य अपराधों के तहत मुकदमे रहे हैं। कल्पना कीजिए कि इंदिरा गांधी की सदस्यता बचाने के लिए तब कोई सर्वदलीय बैठक और उसमें सहमति संभव थी ?

     कत्तई नहीं। क्योंकि तब राजनीति आज की तरह नहीं थी। हालांकि उसमें गंदगी आनी शुरु जरुर हो गई थी। पर आज तो पूरे कुएं में ही भांग पड़ चुकी है। लगभग सभी दलोंे में लालू प्रसाद और रशीद मसूद मौजूद हैं जिन्हें बचाना है।

  आज इस बात के बावजूद यह हो रहा है कि देश की संसद और विधायिकाओं में ऐसे सदस्यों  की संख्या चुनाव दर चुनाव  बढ़ती जा रही है जिन पर भ्रष्टाचार व अपराध के गंभीर आरोप हैं। लोकसभा के सन  2004 के चुनाव की अपेक्षा 2009 के चुनाव में संसद में ऐसे सदस्यों की संख्या में 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई तो विधायिकाओं में इस अवधि में करीब 31 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।

यदि यह रफतार जारी रही, और संकेत हैं कि जारी रहेगी ही,तो वह दिन दूर नहीं जब देश की सरकारों के कैबिनेट में  खूंखार अपराधियों व वारेन हेस्टिंग की तरह के आर्थिक लुटेरों का बहुमत हो जाएगा।

   कतिपय एन.जी.ओ.,कुछ संविधान व कानून प्रेमी हस्तियां ,सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग इस स्थिति से चिंतित जरुर है। संभव है कि सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर अपने किसी अगले निर्णय के जरिए मौजूदा अध्यादेश के पक्षधर सरकार की इस मंशा पर पानी फेर दे। अब तो संविधानप्रिय जनता की नजरें सुप्रीम कोर्ट की ओर ही है।

  2002 में केंद्र की तत्कालीन राजग सरकार ने भी सर्वदलीय सहमति से इसी तरह सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटने के लिए संसद से  कानून बनवाया था।पर,सुप्रीम कोर्ट ने उसे रद कर दिया।सुप्रीम कोर्ट के उस कदम के कारण ही हम आज उम्मीदवारों के आपराधिक रिकार्ड,उनकी संपत्ति का व्योरा और शैक्षणिक योग्यता जान पाते हैं।

  जो राजनीति 2002 में अपने नेताओं व सदस्यों के खिलाफ जारी गंभीर मुकदमों के विवरण तक को भी जनता से छिपाये रखना चाहती थी,वह सजा हो जाने के बावजूद सदस्यता गंवाने देना आज कैसे मंजूर करती  ?

   आज इस देश की मुख्य धारा की राजनीति को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि  अपराध, भ्रष्टाचार,परिवारवाद,जातिवाद और वोट बैंक की राजनीति से हमारा लोकतंत्र कितना लहूलुहान होता जा रहा  है।उसे तो पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा चाहिए।

   इसी बिगड़ती स्थिति को देखते हुए वोहरा समिति, एम.एन.वेंकटचलैया आयोग, द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग, विधि आयोग और चुनाव आयोग ने राजनीति से अपराधियों व भ्रष्टाचारियों को निकाल बाहर करने के लिए समय -समय पर अनेक सिफारिशें कीं। वोहरा कमेटी की रपट 1993 में आई थी। तभी उस पर काम करना चाहिए था। पर 1993 के बाद की विभिन्न सरकारों ने उन सिफारिशों को आलमारियों में बंद कर उनमें मजबूत ताले लगा दिये। पता नहीं हमारे राजनीतिक कर्णधार इस देश को कहां ले जा रहे हैं या ले जाना चाहते हैं ?

   आज की राजनीतिक पार्टी अपने फंड के अज्ञात स्त्रोत के बारे में जनता को कोई सूचना देने को भी तैयार नहीं है जबकि कांग्रेस ने यह घोषणा की है कि  2004 और 2012 के बीच ज्ञात स्त्रोत से उसे मात्र 226 करोड़ और अज्ञात स्त्रोत से 1951 करोड़ रुपये मिले। यही हाल भाजपा का भी है।

   झामुमो सांसद रिश्वत प्रकरण में अदालत ने घूसखोरों को सजा देने में अपनी लाचारी दिखाते हुए कहा था कि संसद ही यह कानून बना सकती है ताकि रिश्वत लेकर सदन के  भीतर वोट करने वाले को सजा दी जा सके। पर संसद ने ऐसा कोई कानून  नहीं बनाया। यदि बना दिया  होता तो न्यूक्लियर डील के समय केंद्र सरकार गिरने से  कैसे बच पाती ? ऐसी परिस्थितियों में आगे भी इसी तरह सरकारों को बचाने की आज की राजनीति की मंशा है।

   न तो सरकार सी.बी.आइ. नामक तोते को पिजड़े से बाहर करने को तैयार है और न ही कारगर लोकायुक्त कानून बनाने के लिए। यदि सी.बी.आइ. को निष्पक्ष बना दिया जाएगा तो मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं को क्लीन चीट कौन देगा ?

  प्रकाश सिंह मामले में पुलिस सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट के निदेश का पालन करने को कोई सरकार तैयार नहीं है।यदि सुधार हो जाएगा तो मुजफ्फरनगर में दंगे के दंगाइयों  को थाने से ही कैसे छोड़ा जा सकेगा ? दंगाइयों के घरों में  एक तरफा छापामारी कैसे संभव होगी ?

 यानी देश कहीं जाए, इससे हमारे अधिकतर हुक्मरानों को आज कोई मतलब नहीं है।दुनिया का कोई अन्य देश लोकतांत्रिक ढंग से चुने गये अपने ही नेताओं से इतना अधिक पीडि़त है,ऐसा कोई उदाहरण अब तक नहीं मिला है।किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि इस दुःश्चक्र से इस गरीब देश को निकालने के उपाय क्या हैं ?

(इस लेख का संपादित अंश 26 सितंबर 2013 के जनसत्ता में प्रकाशित)   

बुधवार, 28 अगस्त 2013

क्यों कराना पड़ा 1971 में लोकसभा का मध्यावधि चुनाव

इस देश में लोकसभा का पहला मध्यावधि चुनाव क्यों कराना पड़ा था? मध्यावधि चुनाव 1971 में हुआ। सन् 1969 में कांग्रेस के महाविभाजन को इसका सबसे बड़ा कारण बताया गया। इस विभाजन के साथ ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सत्तारूढ़ दल का संसद में बहुमत समाप्त हो चुका था। पर, वह तो सी.पी.आई. तथा कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों की मदद से चल ही रही थी।

तब इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा देते हुए आरोप लगाया था कि इस काम में संगठन कांग्रेस के नेतागण बाधक हैं। कांग्रेस के विभाजन को यह कहकर औचित्य प्रदान करने की कोशिश की गई। क्या उन्होंने गरीबी हटाओ के अपने नारे को कार्यरूप देने के लिए मध्यावधि चुनाव देश पर थोपा ?

 यदि सन् 1971 के चुनाव में पूर्ण बहुमत पा लेने के बाद उन्होंने सचमुच गरीबी हटाने की दिशा में कोई ठोस काम किया होता तो यह तर्क माना जा सकता था। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ कि इस देश से गरीबी वास्तव में हटती। फिर क्यों मध्यावधि चुनाव थोपा गया ? दरअसल केंद्र सरकार के कभी भी गिर जाने के भय से वह चुनाव कराया गया था।

  सन् 1971 के मध्यावधि चुनाव के ठीक पहले देश में हो रही राजनीतिक घटनाओं पर गौर करें तो पता चलेगा कि तब कई राज्यों के मंत्रिमंडल आए दिन गिर रहे थे। इंदिरा गांधी को लगा कि कहीं उनकी सरकार भी किसी समय गिर न जाए! वे वामपंथियों से मुक्ति भी चाहती थीं। एक बार कंेंद्र सरकार गिर जाती तो राजनीतिक व प्रशासनिक पहल इंदिरा गांधी के हाथों से निकल जातीं। यह उनके लिए काफी असुविधाजनक होता।

    लोकसभा के मध्यावधि चुनाव के साथ एक और गड़बड़ी हो गई। सन् 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक ही साथ होते थे। इससे सरकारों, दलों और उम्मीदवारों को कम खर्चे लगते थे। सन् 1971 के बाद ये चुनाव अलग-अलग समय पर होने लगे। इससे खर्चे काफी बढ़ गए। इस कारण राजनीति में काला धन की आमद भी बढ़ गई। दरअसल सन् 1967 और 1970 के बीच उत्तर प्रदेश में पांच और बिहार में विभिन्न दलों के आठ मंत्रिमंडल बने। अन्य कुछ राज्यों में भी ऐसी ही अस्थिरता रही।


इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली नई कांग्रेस को यह जरूरी लगा कि जल्दी यानी नियत समय से एक साल पहले ही लोस का मध्यावधि चुनाव कराकर पूर्ण बहुमत पा लिया जाए।

 उस चुनाव को लेकर पूरी दुनिया में भारी उत्सुकता थी। विदेशी मीडिया में इस बात को लेकर अनुमान लगाए जा रहे थे कि पता नहीं भारत इस चुनाव के बाद किधर जाएगा। उन दिनों दुनिया अमेरिका और सोवियत संघ के दो ध्रुवों के बीच बंटी हुई थी।

ब्रितानी अखबार न्यू स्टेट्समैन ने तब लिखा कि ‘हिम्मत से किंतु शांतिपूर्वक श्रीमती गांधी ने लोकसभा भंग कर दी। भारत में यह पहली बार हुआ है। सत्ताच्युत होने का खतरा न होते हुए भी उनकी सरकार को बहुमत प्राप्त नहीं था और इस स्थिति में वह असंतुष्ट थीं। लगातार चैथी बार अच्छी वर्षा होने के बावजूद कुछ आर्थिक विवशताएं भी थीं।......अब तक के तमाम चुनावों के मुद्दे बहुत ही अस्पष्ट रहे और चुनाव घोषणा पत्रों का उद्देश्य सबको खुश करना रहा है। इस बार स्थिति भिन्न होगी। समान मुद्दों की तह में कुछ ठोस मुद्दे होंगे जो कुछ दलों को वामपंथी और कुछ को दक्षिणपंथी सिद्ध करेंगे।’

  अमेरिकी अखबार क्रिश्चेन सायंस माॅनिटर ने लिखा कि ‘श्रीमती गांधी एक साल से अधिक अर्सा पूर्व कांग्रेस विभाजन के बाद से अल्पमत की सरकार का नेतृत्व कर रही हैं। संसद में कोई भी महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास कराने से पहले उन्हें परंपरावादी मास्को समर्थक कम्युनिस्ट पार्टी और क्षेत्रीय राजनीतिक गुटों का समर्थन प्राप्त करना पड़ता था। इसी असंतोषकारी स्थिति से तंग आकर प्रधानमंत्री कई हफ्तों तक सोचती रहीं कि चुनाव कराया जाए या नहीं। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से कि पूर्व राजाओं के विशेषाधिकारों को खत्म करने का उनका निर्णय गैर संवैधानिक है, श्रीमती गांधी की सोच खत्म हो गई।’

  न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा कि ‘वर्तमान भारतीय राजनीति की एक विडंबना यह है कि नई दिल्ली द्वारा बहुप्रचाारित हरित क्रांति वास्तव में उन ग्रामीण क्षेत्रों में असंतोष फैला रही है, जहां इसने सामाजिक और आर्थिक विषमता को बढ़ावा दिया है। श्रीमती गांधी की सधी हुई राजनीतिक चालें अब तक तो प्रतिपक्ष को डगमगाती रही है। लेकिन उनके विरोध में संगठित होने का प्रतिपक्ष का हौसला भी बढ़ता रहा है। यदि श्रीमती गांधी का पासा सही गिरा तो भारत अधिक परिपुष्ट राजनीतिक स्थायित्व और संयत वामपंथी सत्ता के अधीन अधिक गतिशील विकास के नये युग में प्रवेश करेगा। अगर नई कांग्रेस आगामी चुनाव में यथेष्ट बहुमत प्राप्त न कर सकी तो भारतीय राजनीति की वर्तमान विभाजक प्रवृतियां इस उपमहाद्वीप के लिए भारी खतरा उत्पन्न करेगी।’  
(प्रभात खबर में प्रकाशित)