रविवार, 10 दिसंबर 2023

 समाज के पिछड़े और कमजोर वर्ग के बाल-बच्चे तभी ठीक से पढ़-लिख पाएंगे जब बिहार के सरकारी शिक्षण संस्थानों में गुणवत्ता लायी जाए

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सुरेंद्र किशोर

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बिहार के शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव के.के.पाठक बिहार की शिक्षा-परीक्षा को सुधारने के लिए रात-दिन एक किए हुए हैं।

उनका शायद यही ‘कसूर’ है,इसीलिए कुछ लोग उनके खिलाफ अभियान चलाए हुए हैं।

  संभव है कि अभियानी लोग सफल भी हो जाएं।क्योंकि चुनाव सामने है।

इस राज्य में अच्छे अफसरों के खिलाफ अभियान चलाने वाले लोग अक्सर सफल होते भी रहे हंै।

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इस पोस्ट के साथ शिक्षा की दुर्दशा से संबंधित हाल की खबरों की कटिंग दी गयी है।

खबरें छपती हैं।बीमारी का पता सबको है।

फिर भी प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त अराजकता को लेकर कोई अभियान नहीं चलता।

उसका कारण जग जाहिर है।

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सन 1963 से मैं इस बात का प्रत्यक्षदर्शी हूं कि किस तरह इस राज्य की शिक्षा को धीरे- धीरे बर्बाद किया गया।कई संबंधित पक्षों

ने मिलकर बर्बाद किया।

अब शिक्षा -परीक्षा के नाम पर यहां क्या बचा है,वह सब बच्चा -बच्चा जानता है।

आरक्षण का दायरा जितना बढ़ाना हो,बढ़ा लीजिए।

उसकी जरूरत भी है।

क्योंकि इस राज्य में जब -जब कांग्रेस को विधान सभा में खुद का पूर्ण बहुमत मिला,कभी किसी पिछड़े को मुख्य मंत्री नहीं बनाया।

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केंद्र सरकार ने आजादी के बाद से सन 1990 तक पिछड़ों के साथ कैसा सलूक किया,वह नीचे के आंकड़ों से जाहिर हैं।ं

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1990 में केंद्र सरकार के विभागों में पिछड़े कर्मियों की संख्या

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विभाग    ---  कुल क्लास वन अफसर ---- पिछड़ी 

                                          जाति 

-----------------------------------राष्ट्रपति सचिवालय --- 48  -------  एक भी नहीं

प्रधान मंत्री कार्यालय--  35 ------      1

परमाणु ऊर्जा मंत्रालय--  34   ------    एक भी नहीं 

नागरिक आपूत्र्ति-----  61  -------  एक भी नहीं 

संचार    ------    52  ------    एक भी नहीं

स्वास्थ्य -------- 240   -------  एक भी नहीं 

श्रम मंत्रालय------   74  --------एक भी नहीं

संसदीय कार्य----    18   ---         एक भी नहीं

पेट्रोलियम -रसायन--  121    ----   एक भी नहीं 

मंत्रिमंडल सचिवालय--   20  ------      1

कृषि-सिंचाई-----   261   -------   13

रक्षा मंत्रालय ----- 1379   ------      9

शिक्षा-समाज कल्याण--  259 -----      4

ऊर्जा ----------  641 -------- 20

विदेश मंत्रालय  ----- 649 -------- 1

वित्त मंत्रालय----    1008 ---------1

गृह मंत्रालय----      409  --------13

उद्योग मंत्रालय--     169----------3

सूचना व प्रसारण--    2506  ------124

विधि कार्य--         143   --         5

विधायी कार्य ---    112    ------ 2

कंपनी कार्य --       247      ------6

योजना---           1262 -----    72

विज्ञान प्रौद्योगिकी ----101  ---     1

जहाज रानी-           103 --        1

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----1990 के दैनिक ‘आर्यावत्र्त’ से साभार 

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पर,आश्चर्य है कि के.क.े पाठक के खिलाफ अभियान चलाने में पिछड़े नेता भी सक्रिय हैं।

इसे ही कहते हैं अपने ही पैरों पर कल्हाड़ी मारना।

पैसे वाले व ‘समर्थ’ लोग तो अपने बाल-बच्चों को बिहार से बाहर भेज कर पढ़ा लेंगे।पढ़ा भी रहे हैं।

पर,अधिकतर पिछड़े परिवारों के बाल -बच्चों को अच्छी शिक्षा तभी मुअस्सर हो पाएगी जब बिहार के ही सरकारी शिक्षण संस्थानों में गुणवत्ता आए।

गणवत्ता तभी आएगी जब पाठक जैसे अफसर भ्रष्टों,काहिलों और अयोग्यों की दवाई कर पाएंगे।ऐसा नहीं है कि शिक्षा के क्षेत्र में यहां योग्य,कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार लोग नहीं हैं।

पर,वे अल्पमत में हैं ।इसलिए वे निर्णायक नहीं हैं।


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10 दिसंबर 23

  

 


गुरुवार, 7 दिसंबर 2023

 सामाजिक तथा अन्य तरह के समारोहों में शामिल न हो पाने 

के लिए मेरे मित्र-शुभेच्छु-परिचित मुझे माफ कर देंगे,

ऐसी मैं आशा करता हूं।

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मेरे योग्य पुत्र और कर्मठ पत्नी पारिवारिक जिम्मेदारियां

सफलतापूर्वक निभा रहे हैं।

उस जिम्मेदारी से उन लोगों ने मुझे लगभग मुक्त कर

दिया है।

उनका मुझ पर दबाव है कि मैं सिर्फ पढ़ने-लिखने का ही काम करूं।

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मैं उसी काम में लगा हुआ भी हूं।

काम अधिक है,मेरे पास समय कम है।

अपने लेखों, अनुभवों, संस्मरणों को समेटना है।

धीरे-धीरे समेट भी रहा हूं ।

वह भी समाज का ही काम है।

मेरा पहला लेख सन 1967 में डा.लोहिया के निधन के बाद साप्ताहिक ‘सारण संदेश’(मीरगंज) में छपा था।

तब से मैं बिना थके, बिना रुके लिख ही रहा हूं।

अर्थोपार्जन के लिए भी लिखना जरूरी जो है।

1967 से ही बिहार और देश की राजनीति को भी दूर और पास से देख रहा हूं।

उसके बारे में भी मेरी अपनी राय है-स्वतंत्र और निष्पृह राय।

मेरा दिल ओ दिमाग किसी खूंटे से बंधा हुआ नहीं है।

देश,काल,पात्र की जरूरतों -समस्याओं को ध्यान में रखकर ही मैं किसी विषय पर अपनी राय बनाता हूं। 

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समारोहों में शामिल न होने का अर्थ यह नहीं है कि किन्हीं के प्रति मेरे मन में अवज्ञा का भाव है।

 मित्रों,परिचितों तथा अन्य लोगों से मेरे काम के प्रति मुझे जो सराहना मिली है,मिलती है,वह आशातीत है।

फिर अवज्ञा का भाव मेरे मन में भला कैसे आएगा ?

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सुरेंद्र किशोर

7 दिसंबर 23 


 अपनी इच्छा को ही चुनावी भविष्यवाणी के रूप में 

अक्सर पेश कर देते हैं अनेक बुद्धिजीवी-मसीजीवी गण

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सुरेंद्र किशोर

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हाल के पांच राज्यों के चुनाव के दौरान भी यही हुआ

जो लोग किसी के पक्ष या विपक्ष में हवा बनाने के लिए गलत भविष्यवाणियां करते रहते हैं, वे यह नहीं समझ पाते कि इससे उनकी साख हर बार कुछ और नीचे चली जाती है

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किसी भी चुनाव से पहले देश -प्रदेश के अनेक नामी-गिरामी पत्रकार ,बुद्धिजीवी तथा अन्य लोग प्रिंट,इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया पर भविष्यवाणियां करते रहते हैं।

पिछले कुछ चुनावों के बारे में की गई कई मतदानपूर्व  भविष्यवाणियां मेरे नोट बुक में दर्ज हैं। 

 कागज छांटते समय उनमें से एक नोटबुक पर आज मेरी नजर पड़ी।

  उन्हें पढ़ने पर मेरा अच्छा-खासा मनोरंजन हुआ।

अधिकतर भविष्यवाणियां रिजल्ट से काफी उलट थीं।

कुछ ही सही साबित हुईं।

 गलत भविष्यवाणी करने वालों में मेरे कुछ मित्र और परिचित भी हैं।

इसलिए उनके नाम जाहिर नहीं करूंगा।

 कुछ ने तो अपने फेसबुक वाॅल पर और  कुछ अन्य ने अखबारों में लिखकर ‘‘हवा का रुख’’ बताया था जो गलत साबित हुआ।

जो जिस विचारधारा का है,(उनकी विचारधारा को मैं जानता हूं) उसने अपनी पसंद की पार्टी की ही अपने अनुमान में बढ़त दिखा दी।

  वैसे कुछ ‘‘भविष्यवक्ता’’ लगभग हर चुनाव से पहले वैसी ही गलती करते हैं।

  हालांकि वे नामी-गिरामी लोग हैं।वे पाठकों,दर्शकों और श्रोताओं की कमजोर स्मरण शक्ति का फायदा उठाते रहते हैं।

 उन्हें अपनी साख की कोई चिंता नहीं।

क्या वे कभी अपनी ही पिछली भविष्यवाणियों को रिजल्ट से मिलाते हैं ?

अपनी गलतियों से कोई सबक लेते हैं ?

  मित्र, जब आपको ही अपनी साख की चिंता नहीं है तो मैं चिंता क्यों करूं ?

मुझे किसी दल को न जितवाना है और न हरवाना है।

यह काम मतदाताओं का है।

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अंत में यही कहूंगा कि आप अपना काम करते रहिए।

उससे रिजल्ट के बाद मेरा मनोरंजन होता रहेगा।

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7 दिसंबर, 23

  


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 यह आत्मश्लाघा है 

या प्रेरक प्रसंग ?!

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सुरेंद्र किशोर

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कई दशक पहले की बात है।

उत्तर बिहार के एक छात्र ने तय किया कि वह ट्रेन में बिना टिकट यात्रा नहीं करेगा।

हालांकि तब छात्रों से आम तौर पर टिकट चेकर, टिकट या पास नहीं मांगते थे।

हां,मजिस्ट्रेट चेकिंग की बात और थी।

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 वह छात्र मंथली पास लेकर चलता था।

किसी कारणवश अगली अवधि के लिए पास नहीं बनवा पाने की स्थिति में वह टिकट खरीद कर ही यात्रा करता था।

अन्य ‘बहादुर छात्र’ लोग उसे ‘बेवकूफ’ कहते थे।

एकाधिक बार ऐसा हुआ कि उसे टिकट कटाने का समय नहीं मिला।

वह बिना टिकट गंतव्य स्टेशन तक पहुंच जाता था।

न जाने पर क्लास छूटने का डर रहता था।

वहां के स्टेशन की टिकट खिड़की पर जाकर उसने हर बार पिछले स्टेशन तक का टिकट खरीदा।

 उसे फाड़कर फंेक दिया।

उद्देश्य था कि रेलवे को पैसे मिल जाएं।

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इस प्रसंग के बारे में आप क्या कहंेगे ?

प्रेरक प्रसंग या उस छात्र की आत्म प्रशंसा यानी आत्मश्लाघा ?

वैसे उस छात्र के ,जो अब अधेड़ हो चुका है, जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग आए जो प्रेरक प्रसंग की श्रेणी में आएंगे।

हालांकि ईष्र्यालु लोग उसे तुरंत झूठ या आत्मश्लाघा का दर्जा दे देंगे।

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जार्ज बर्नार्ड शाॅ ने कहा था कि सारी आत्म कथाएं झूठी होती हैं।

शाॅ की इस टिप्पणी के बावजूद अपनी पसंद की हस्तियों की जीवनियां लोगबाग पढ़ते ही हैं।

उनमें प्रेरक बातें होती हैं तो उनसे प्रेरणा भी लेते हैं।

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7 दिसंबर 23


बुधवार, 6 दिसंबर 2023

 1962 के रक्षा मंत्री दोषी,

पर, 1971 के रक्षा मंत्री को श्रेय नहीं

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सुरेंद्र किशोर

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8 दिसंबर, 22 को कांग्रेस अध्यक्ष मलिकार्जुन खड़गे ने कहा था कि हिमाचल प्रदेश विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की जीत का श्रेय प्रियंका गांधी को जाता है ।साथ ही, राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को भी।

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पर,हाल में तीन राज्यों में जब कांग्रेस हार गयी तो कांग्रेस का शीर्ष  नेतृत्व,इसके पीछे कांग्रेस कार्यकर्ताओं की कमजोरी बता रहा है।

साथ ही, टिकट बंटवारे में राज्य स्तर के कांग्रेसी नेताओं की गलतियों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।

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कांग्रेस में पुरानी परंपरा है।

जीत के लिए ‘परिवार’ को शाबासी दो।

हार के कारणों को नीचे कहीं कारण ढंढ़ लो।

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1962 में जब चीन के हाथों भारत की पराजय हुई और हमारी जमीन चीन ने छीन ली तो उसके लिए दोषी रक्षा मंत्री वी.के.कृष्ण मेनन थे।

प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू नहीं।

मेनन को पद से हटा भी दिया गया।

1967 में मेनन को कांग्रेस का टिकट भी नहीं मिला जबकि वे सिटिंग मेम्बर थे।

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1971 में जब बांग्ला देश विजय हुई तो उसका पूरा श्रेय प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को मिला।

आंध्र के एक कांग्रेसी सासंद ने लोक सभा में इंदिरा को दुर्गा तक कह दिया।

पर,दुर्गा शब्द, तब के गोदी मीडिया ने अटल बिहारी वाजपेयी के मुंह में डाल दिया।

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वाजपेयी तब के स्पीकर से यह आग्रह करते रह गये कि आपका सचिवालय इसका खंडन करे।

पर स्पीकर ने खंडन नहीं करवाया।

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ऐसे ही रवैये के कारण कांग्रेस दुबली होती गयी।

मुख्य प्रतिपक्षी दल का कमजोर और गैर-जिम्मेदार होना स्वस्थ लोकतंत्र के लिए कोई अच्छी बात नहीं है।

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6 दिसंबर 23 


मंगलवार, 5 दिसंबर 2023

 1977 का लोक सभा चुनाव रिजल्ट

 आज की पीढ़ी को चैंकाएगा !

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सुरेंद्र किशोर

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सन 1977 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेेस को 154 सीटें मिली थीं।

भारतीय लोक दल यानी जनता पार्टी को 295 सीटें मिलीं।

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उस चुनाव में एक अपवाद को छोड़कर (संभवतः छिन्दवाड़ा)

कांग्रेस अमृतसर से कलकत्ता तक साफ थी।

कांग्रेस को मिली 154 में से 89 सीटें दक्षिण के सिर्फ चार राज्यों से मिलीं।

वे राज्य थे--

आंध्र प्रदेश,

कर्नाटका,

केरल 

और तमिलनाडु।

जनता पार्टी को दक्षिण के उन चार राज्यों से सिर्फ 3 सीटें मिलीं।

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मुझे याद नहीं कि तब किसी ने कहा था कि देश उत्तर-दक्षिण में डिवाइड हो गया।

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जयप्रकाश नारायण के दबाव से चार प्रतिपक्षी दलों ने मिलकर जल्दी-जल्दी जनता पार्टी तो बना ली।

पर, उसे इतनी जल्दी चुनाव आयोग से चुनाव चिन्ह आबंटित नहीं हो सका।

 इसलिए जनता पार्टी के उम्मीदवारों ने चरण सिंह के नेतृत्व वाले भारतीय लोक दल के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा।

चुनाव चिन्ह था--हलधर किसान।

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पुनश्चः-

हमलोगों ने अपने गांव में एक कहावत सुनी थी-

‘‘सावन में सियार जनमलन,

भादो में बाढ़ आइल,

त कहलन कि अइसन बाढ़

 त हम पहिले कबो ना देखलीं।’’

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4 दिसंबर 23

 



 तेलांगना में अल्पसंख्यक मतों का कमाल

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अब के.सी.आर.क्या करेंगे ?!!

क्या वही करंेगे जो देवगौडा कर रहे ?

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सुरेंद्र किशोर

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अल्पसंख्यक मतदाताओं ने जो काम हाल के कर्नाटका विधान सभा चुनाव में किया,वही काम तेलांगना विधान सभा चुनाव में भी कर दिया।

इसीलिए कांग्रेस तेलांगना में सत्ता में आ रही है।

अल्पसंख्यकों ने कर्नाटका में जे डी एस को छोड़ा और तेलांगना में सत्ताधारी बी.आर.एस. को।

गत जुलाई में उर्दू दैनिक इंकलाब ने  राहुल गांधी के एक भाषण को उधृत करते हुए लिखा कि --‘‘कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी है।’’

बाद में कांग्रेस की प्रियंका चतुर्वेदी ने कहा कि समाचार गलत है।उम्मीद है कि इंकलाब इसका खंडन करेगा।

पता नहीं खंडन आया या नहीं।

वैसे प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह भी कह चुके थे  कि सरकार के बजट पर पहला हक मुसलमानों का है।

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2014 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की हार के कारणों की जांच के बाद ए.क. एंटोनी ने कहा था कि ‘‘जनता को लगा कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों की ओर झुकी हुई है।हमारी हार का यह एक कारण था।’’ 

हाल में एक खबर आई कि देश के  अल्पसंख्यकों ने यह तय किया है कि अब हम मतदान करने में मामले में कांग्रेस को तरजीह देंगे।

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इससे पहले अल्पसंख्यक उस दल को वोट देते रहे जो जहां भाजपा के खिलाफ सबसे मजबूत पड़ता है।

पर,अब खबर है कि अल्पसंख्यकों की यह रणनीति बनी है कि अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस को मजबूत करने की जरूरत है।

याद रहे कि पिछले विधान सभा चुनाव में केरल में अल्पसंख्यकों ने सी.पी.एम.को तरजीह दिया।

सन 2022 के यू.पी.विधान सभा चुनाव में सपा को अल्पसंख्यकों ने एकमुश्त वोट दिया।

पश्चिम बंगाल में 2021 के विधान सभा चुनाव में अल्पसंख्यकों ने कांग्रेस और सी.पी.एम.को छोड़ कर ममता बनर्जी को वोट दिया था।

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अलपसंख्यकों के ताजा रुख से यह साफ है कि जिन चुनाव क्षेत्रों में अल्पसंख्यक वोट निर्णायक होंगे,यानी कम से कम 10 -25 प्रतिशत तक होंगे,वहां कांग्रेस का चुनावी भविष्य उज्जवल रह सकता है।

 लोक सभा के बाकी चुनाव क्षेत्रों में ???

थोड़ा कहना, अधिक समझना !!

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शेष भारत के ‘‘देवगौड़ाओं’’ और ‘‘के.सी.आरों’’ के लिए अभी से सबक सीख लेने का समय है। 

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मुस्लिम वोट का प्रतिशत

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तेलांगना-13 प्रतिशत

कर्नाटका--13 प्रतिशत

केरल-27 प्रतिशत

पश्चिम बंगाल-27 प्रतिशत

यू.पी.- 19 प्रतिशत

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 अखिल भारतीय--14 प्रतिशत

बिहार--17 प्रतिशत

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3 दिसंबर 23