शनिवार, 25 मार्च 2023

 कभी गाड़ी पर नाव,

तो कभी नाव पर गाड़ी ?!

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जो लोग कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलनरत थे,

वे ही अब भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिए प्रयासरत हैं।

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सुरेंद्र किशोर

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एक समय था जब कुछ नेता इस मांग के समर्थन में 

कोर्ट जाते थे कि भ्रष्टों के खिलाफ जांच एजेंसियों का ‘उपयोग’ हो।

उसके विपरीत कल 14 राजनीतिक दलों ने अपनी याचिका में सुप्रीम कोर्ट से यह मांग की है कि जांच एजेंसियों का ‘दुरुपयोग’ बंद हो।

सब जानते हैं कि इस ‘दुरुपयोग’ शब्द के इस्तेमाल के पीछे उनकी मंशा क्या है।

जांच एजेंसी ने गत कुछ ही वर्षों में इस देश के भ्रष्टों और अपराधियों के यहां से एक लाख करोड़ रुपए से भी अधिक की नकद व नाजायज संपत्ति जब्त की है।

साथ ही, भ्रष्टाचार के खिलाफ पिछले कुछ वर्षों में जितने लोगों के खिलाफ मुकदमे कायम हुए हैं,उनमें से संभवतः किसी को भी ,मेरी जानकारी के अनुसार,  अब तक अदालत से कोई बड़ी राहत नहीं मिली है।

अधिकतर लोग जमानत पर हैं।यानी अदालत ने संभवतः किसी मामले को गलत बता कर संबंधित मुकदमे को रद नहीं किया है।

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आखिर वे लोग क्या चाहते हैं जिन पर इन दिनों मुकदमे चल रहे हैं ?

दरअसल वे यह चाहते हैं कि इस देश में भ्रष्टाचार का ‘‘बनर्जी फार्मूला’’ लागू हो।  

वह बनर्जी फार्मूला क्या है ?

अब पहले नोबल विजेता अभिजीत बनर्जी की टिप्पणी पढ़िए।--

‘‘चाहे यह भ्रष्टाचार का विरोध हो या भ्रष्ट के रूप में देखे जाने का भय,

शायद भ्रष्टाचार अर्थ -व्यवस्था के पहियों को आगे बढ़ाने में इस देश में महत्वपूर्ण था, इसे काट दिया गया है।

मेरे कई व्यापारिक मित्र मुझे बताते हैं कि इस कारण निर्णय लेेने की गति धीमी हो गई है।.............’’

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--नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी,

हिन्दुस्तान टाइम्स

23 अक्तूबर 2019

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क्या इस फार्मूले को एक बार फिर लागू कर दिया जाए जो मनमोहन सिंह के कार्यकाल में लागू था ?

क्या भ्रष्टाचार की खुली छूट दे दी जाए ?

क्या आम जनता भी यही चाहेगी ?

इन 14 दलों के वकील कहते हैं कि इन दलों के साथ 42 प्रतिशत जनता है।

यदि यह दावा सच है तब तो वे सन 2024 का चुनाव आसानी से  जीत ही जाएंगे।

जीतने के बाद अपनी राह पर यानी बनर्जी फार्मूला पर और मजबूती से चल पड़ंेगे।फिर क्या होगा ?

वही होगा जो आज पाकिस्तान में हो रहा है।

वैसे जनता यानी मतदाताओं के हाथों में ही सब कुछ है।

वह जो चाहे,अपने इस देश के साथ करे !

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एक बिना मांगी सलाह

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सुप्रीम कोर्ट ने ही आम जनता को यह अधिकार दे रखा है कि वह किसी भी छोटे-बड़े भ्रष्ट व्यक्ति के खिलाफ सबूतों के साथ अदालत में प्रायवेट याचिका दायर कर सकती है।

वह जांच की मांग करे।जांच हो जाएगी।हो भी रही है।

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इसी सुविधा के तहत ही डा.सुब्रह्मण्यम स्वामी ने जय लालिता तथा अन्य कई के  भ्रष्टाचारों के खिलाफ सबूत के साथ  कोर्ट में निजी याचिकाएं दायर कीं ।मुकदमे चले। 2014 में जय ललिता को सजा भी हो गई।

चारा घोटाला के खिलाफ भी पटना हाई कोर्ट में जनहित याचिका ही दायर की गई थी।चारा घोटाला में भी सजाएं होती जा रही हंै।

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डा.स्वामी ने ही 2 -जी स्पैक्ट्रम के मामले में भी प्रायवेट याचिका दायर की थी।

उस पर सुप्रीम कोर्ट ने अनेक स्पैक्ट्रम लाइसेंस रद किए।

मंत्री सहित कई के खिलाफ मुकदमा चला।लोअर कोर्ट ने उन्हें रिहा किया।रिहाई के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में अपील विचाराधीन है।उस पर सुनवाई चल रही है।  

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गैर भाजपा दलों की यह एक बड़ी शिकायत रही है कि नरेंद्र मोदी सरकार की एजेंसियां बदले की भावना के तहत मुख्यतः गैर भाजपा दलों के नेताओं के खिलाफ जंाच करवा रही है।

मेरी राय है कि इस पृष्ठभूमि में 14 गैर भाजपा दलों के वकील गण सुप्रीम कोर्ट से एक और अपील करें।

वे कहें कि सुप्रीम कोर्ट आम लोगों को यह आश्वासन दे दे कि वे जितना भी संभव हो सके, सबूतों के साथ प्रायवेट याचिकाएं भ्रष्ट लोगों के खिलाफ दायर करें।अदालतें उन पर त्वरित कार्रवाई करेंगी।

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ये 14 दलों से जुड़े वकील व जानकार लोग चुन-चुन कर भाजपा के भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ सबूत जुटाएं।डा.स्वामी की तरह ही धुआंधार प्रायवेट याचिकाएं दायर करें।देखंे,फिर क्या होता है !

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आम जनता तो यही चाहती है कि भ्रष्ट लोग चाहे भाजपा के हों या गैर भाजपा दलों के हों,सब के खिलाफ चुन -चुन कर वैसी ही कानूनी कार्रवाइयां होनी चाहिए जिस तरह जय ललिता के खिलाफ डा.स्वामी ने की।

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अब इस देश में यह नहीं चलेगा कि सत्ता पक्ष ,प्रतिपक्ष को बचाए और प्रतिपक्ष सत्ता पक्ष को।

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और अंत में

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बात तब की है जब डा.जगन्नाथ मिश्र बिहार के मुख्य मंत्री थे और कर्पूरी ठाकुर बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता।

डा.मिश्र भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे थे।

डा.मिश्र ने बैलेंस करने के लिए कर्पूरी ठाकुर पर भी एक झूठा आरोप लगा दिया। उस पर कर्पूरी ठाकुर ने सदन में यह मांग की कि मेरे खिलाफ लगे आरोप की जांच के लिए न्यायिक जांच आयोग बैठाइए।

इस पर मुख्य मंत्री चुप हो गए।

कर्पूरी ठाकुर ने कहा कि आप मुझे क्यों बचाना चाहते हैं ?

क्या इसलिए कि हम सत्ता में आएं तो आपको बचाएं ?

ऐसा कभी नहीं होगा।

हम सत्ता मंें आएंगे तो आपको नहीं छोड़ेंगे।याद रखिए।

(उस मिश्र-ठाकुर संवाद का मैं प्रेस दीर्घा से गवाह बना था।)

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25 मार्च 23 


                   

  

 


शुक्रवार, 24 मार्च 2023

   ‘फोन शिष्टाचार’

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सुरेंद्र किशोर

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मिस्टर क-हलो !

मिस्टर ख-हलो !

क-पहचाने ?!

ख-नहीं पहचाने।

क-दिमाग पर जोर डालिए।

ख-डाल रहा हूं।

फिर भी आपकी आवाज नहीं पहचान पा रहा हूं।

क-मैं आपका करीबी रहा हूं।

इतनी जल्दी मुझे भूल गए ?  

ख-नाम तो बता दीजिए।

क्यों पहेली बुझा रहे हैं ?

क-मैं कामेश बोल रहा हूं।

ख-कौन कामेश ?

 कहां से बोल रहे हैं ?

 कामेश नाम के मेरे कई दोस्त हैं।

क-अब लीजिए !!

इस बीच आपके कई दोस्त बन गए ?

खैर, मैं बताता हूं।

मैं रांची से रामेश्वर कामेश बोल रहा हूं।

ख-खिन्न होते हुए -पहले ही बता दिए होते।

इतनी देर से भूमिका क्यों बांध रहे थे ?

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खैर,यह संवाद कोई अकेला संवाद नहीं है।

अनेक लोग जब किसी को फोन करते हैं तो बिना अपना नाम 

बताए,बातेें शुरू कर देते हैं।

क्या वे समझते हैं कि उनकी आवाज अमिताभ बच्चन जैसी या लालू यादव जैसी है  जिनकी आवाज करोड़ों लोगों के लिए जानी -पहचानी होती है ?

 यदि उधर के अपरिचित व्यक्ति से आप संकोचवश नाम नहीं पूछ पाते तो वह लंबी बात करने के बाद फोन रख देगा।

फिर भी आपको कुछ समझ में नहीं आएगा कि फोन करने वाला कौन था।

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अब बताइए।इसमें कसूर किसका है ?

उसी का जिसने काॅल किया।

यदि वह ‘फोन शिष्टाचार’ जान रहा होता तो फोन करने के साथ ही पहले अपना नाम,परिचय आदि बता देता।

फिर पूछता कि क्या आपसे बात करने का यह सही समय है ?

जब उसे सकारात्मक जवाब मिल जाता तो फिर बातचीत शुरू होती। 

हां,एक बात और ।

‘फोन बतकही’ को कभी मुलाकात का विकल्प मत बनाइए।

अन्यथा, कुछ लोग आगे से आपका काॅल नहीं उठाएंगे।

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21 मार्च 23


 


कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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 निर्दोषों को अंततः बचा ही लेगा इस देश का स्वतंत्र सुप्रीम कोर्ट  

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सन 1975-77 के आपातकाल में सुप्रीम कोर्ट उन नेताओं को भी न्याय नहीं दे सका था जो नाहक जेलों में ठूंस दिए गए थे।वे अदालती सुनवाई के बिना ही अनिश्चितकाल के लिए जेलोें में थे।

आम लोगों के जीने

तक का अधिकार यानी मौलिक अधिकार तब छीन लिया गया था। तब के सुप्रीम कोर्ट ने उस मामले में भी केंद्र सरकार का समर्थन कर दिया था।

आज सुप्रीम कोर्ट की स्थिति उसके ठीक विपरीत है।आज इस देश का सुप्रीम कोर्ट ‘स्वतंत्र’ है।

सन 2011 में सुप्रीम कोर्ट आपातकाल के उस जजमेंट को गलत बता चुका है।इसलिए उन लोगों को डरने की जरूरत नहीं है जो आज यह आरोप लगा रहे हैं कि केंद्रीय एजेंसियां उन्हें नाहक परेशान कर रही हैं।

अदालती छानबीन से जिन आरोपियों के बारे में यह साबित हो जाएगा कि उन्हें झूठे मामलों में फंसाया गया है,उन्हें मौजूदा सुप्रीम कोर्ट अंततः बचा लेगा,ऐसी उम्मीद की जाती है।

हां,जिन नेताओं तथा अन्य लोगों के खिलाफ आरोप सही साबित होंगे,उन्हें कोई बचा भी नहीं सकेगा।

एजेंसियां तो जांच -पड़ताल करके कोर्ट में आरोप पत्र दाखिल कर देती हैं।

बाद की जिम्मेदारी तो त्रिस्तरीय अदालतों की होती है।सुनवाई के बाद दोष साबित होने पर ही सजा होती है।वैसे भी अपने देश में जितने प्रतिशत आरोपितों की रिहाई हो जाती है,उतनी रिहाई किसी अन्य प्रमुख देशों में शायद ही होती है।क्योंकि अपने देश का न्याय शास्त्र यह कहता है कि ‘‘भले 99 दोषी छूट जाए,पर किसी एक निर्दोष को भी सजा नहीं मिलनी चाहिए।’’

हालांकि इस न्याय शास्त्र को बदलने की मांग भी हो रही है।यानी,‘‘चाहे कुछ निर्दोषों को सजा हो जाए किंतु एक भी अपराधी बचने न पाए।’’ 

हां,अपने देश के सुप्रीम कोर्ट को इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि किस तरह कुछ निर्दोष लोगों को एजेंसियों के हाथों फंसाए जाने की घटनाओं को तत्काल रोका जाए।

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मुकदमों का वोट पर असर 

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जिन नेताओं पर लाखों लोगों की नजरें रहती हैं,उनके बारे में आम जनता अच्छी तरह जानती है कि किसे गलत ढंग से फंसाया गया है और किसे नहीं।

हां,जनता के एक छोटे हिस्से की यह राय जरूर रहती है कि जब तक अन्य सारे दोषी नेताओं को सजा नहीं हो जाती है,तब तक हमारे नेता को परेशान नहीं किया जाए।

ऐसी मानसिकता वाले लोगों को छोड़ दें तो अधिकतर जनता की उन नेताओं के प्रति कोई सहानुभति नहीं रहती जिन्होंने उनके अनुसार सचमुच गलती की है।इसलिए कोई नेता यह समझे कि मुकदमों के कारण उनका वोट बढ़ जाएगा तो वह गलतफहमी में हैं।

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दल बदलते ही सदस्यता जाए

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दल बदल विरोधी कानून सन 1985 में बना।बाद के वर्षों में उसमें संशोधन हुए।फिर भी दल बदल नहीं रुका।

मौजूदा कानून के अनुसार किसी भी दल के दो तिहाई विधायक या सांसद एक साथ दल छोड़ देंगे तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी।

अब दो -तिहाई सदस्य भी दल छोड़ने लगे।

साथ ही,एक और काम होने लगा।

यदि किसी इकलौते सदस्य को दल छोड़ना हुआ तो वह सदन की सदस्यता से इस्तीफा दे देता है।

सीट खाली हो जाती है।उप चुनाव होता है तो वही पूर्व सदस्य नए दल से उप चुनाव लड़कर सदन का सदस्य बन जाता है।

इस तरह वह दल-बदल विरोधी कानून की भावना का उलंघन करता है।

अब तो एक अजीब काम हो रहा है।

 किसी दल बदलू के मामले को कुछ स्पीकर सदन के पूरे र्काकाल तक लटकाए रखते हैं।

  यानी दल बदलने के बावजूद उस सदस्य की न तो सदस्यता जाती है और न उप चुनाव की नौबत आती है।ऐसे में क्या किया जाए ?

कुछ लोग एक खास तरह की सलाह दे रहे हैं।

सलाह यह है कि यदि कोई एक सदस्य भी दल -बदल करे या दो तिहाई सदस्य मिलकर करे,

उसकी सदस्यता दल बदलते ही खुद ब खुद समाप्त कर देने का कानूनी प्रावधान हो जाना चाहिए।

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भूली-बिसरी यादें

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फांसी के खिलाफ भगत सिंह के पिता ने 

भगत सिंह से पूछे बिना

ही ट्रिब्यूनल को दया याचिका भेज दी थी।

 इस पर भगत सिंह ने अपने पिता को पत्र लिखा,

 ‘‘पिता जी, आपने मेरी पीठ में छुरा भोंका है।मेरा जीवन उतना मूल्यवान नहीं।मेरे सिद्धांत मेरे जीवन से बड़े हैं।’’

याद रहे कि लाहौर षड्यंत्र केस में ट्रिब्यूनल ने सात अक्तूबर, 1930 को भगत 

सिंह,सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई।कमलनाथ तिवारी,विजय सिन्हा,जयदेव कपूर और शिव वर्मा को आजन्म कालापानी।अजय घोष और सुरेंद्र पांडेय को रिहाई हुई। 23 मार्च 1931 को इन्हें शूली पर लटका दिया गया था।

  आज देश के अनेक नेताओं के जो ‘हाल’ हैं,उसे देख कर सवाल उठता है कि शहीदों ने क्या ऐसे ही दिन देखने के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान किया था ? 

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और अंत में

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सोशल मीडिया बेसहारों के लिए सहारा है।किसी अच्छे अभियान के लिए कारगर शस्र है।इसका सदुपयोग होगा तो यह साधन सबके लिए उपलब्ध रहेगा।दुरुपयोग होगा तो एक दिन छिन जाएगा।या इस तक पहुंच सीमित हो जाएगी।आधुनिक युग के लिए यह वरदान है।भले लोगों का यह कर्तव्य है वे इसका दुरुपयोग होने से रोकें।

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13 मार्च 23



   दिवंगत अभय छजलानी की याद में

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    सुरेंद्र किशोर

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दैनिक नईदुनिया (इंदौर)के पूर्व संपादक-सह-पूर्व मालिक 

अभय छजलानी का कल निधन हो गया।

वे 89 वर्ष के थे।

(‘नईदुनिया’ का मालिकत्व अब दैनिक जागरण समूह के पास है।)

नईदुनिया के लिए मैं कभी बिहार से लिखता था।

जब राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर नईदुनिया के संपादक थे तो देश के एक शीर्ष साहित्यकार ने इन्दौर से लौट कर कहा था कि कि देश का सबसे बढ़िया हिन्दी अखबार इन्दौर से निकलता है।

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अखबार का मालिक होते हुए भी अभय छजलानी ने पत्रकारिता के विश्व विख्यात संस्थान थाम्सन फाउंडेशन, कार्डिफ से स्नातक की उपाधि ली थी।

  राजगीर जाने के रास्ते में अभय छजलानी जी एक बार पटना आए थे।

मैं उन दिनों जनसत्ता में काम करता था।

वे मुझे होटल में बुलाने के बदले मुझसे मिलने पटना स्थित इंडियन एक्सप्रेस-जनसत्ता आॅफिस  आए।

उन्होंने अपने अखबार की कार्य संस्कृति और कार्य शैली बताई थी।

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याद रहे कि अभय जी ने अपने अखबार के संपादकीय,विज्ञापन और प्रसार शाखाओं में बारी -बारी से प्रशिक्षु कर्मचारी की तरह काम करके काम सीखा था। 

काम सीखते समय वे शाखा प्रधानों को यह अहसास नहीं होने देते थे कि वे अखबार के मालिक बाबू लाभचंद छजलानी के पुत्र हैं।

जाहिर है कि ऐसे काबिल और शालीन व्यक्ति के निधन की खबर से मुझे दुख हुआ।

ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दें और उनके परिजन को दुख सहने की शक्ति दें।

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24 मार्च 23

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पुनश्चः-

काश ! जिस तरह बाबू लाभचंद छजलानी ने अपने पुत्र अभय को उनके काम में पारंगत बनाया,आज के राजनीतिक दलों के सुप्रीमो भी अपनी संतान को उसी तरह प्रशिक्षित करके ही राजनीति में उतारते।

उससे उनका,उनके दल का तथा देश -प्रदेश का अधिक भला होता।

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मंगलवार, 21 मार्च 2023

   मेरा यह प्रासंगिक लेख 20 मार्च, 2023 को वेबसाइट मनीकंट्रोल हिन्दी पर प्रकाशित हुआ।

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सरकारी पैसे से कारपेट,बेडशीट और तौलिया खरीदने पर जब सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के खिलाफ लाया गया महाभियोग का प्रस्ताव

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सत्ताधारी कांग्रेस ने पहले ही यह फैसला कर लिया था कि जज वी.रामास्वामी को बचाना है।

सुप्रीम कोर्ट के जज के खिलाफ 1993 में संसद में प्रस्ताव गिर जाने से न्यायपालिका में सुधार की गति धीमी पड़ गई।

जानकार लोग बताते है कि यह घटना विभिन्न अदालतों में भ्रष्टाचार के बढ़ने की एक महत्वपूर्ण कारक बनी।

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        --सुरेंद्र किशोर--

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 सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी.रामास्वामी के खिलाफ संसद में पेश महाभियोग प्रस्ताव 11 मई 1993 को गिर गया।

उस कारण न्यायपालिका में सुधार की गति धीमी पड़ गयी।

 पी.वी.नरसिंहराव के कार्य काल में महाभियोग आया था।

   कांग्रेस का तब यह अघोषित तर्क था कि महाभियोग प्रस्ताव पास करने से दक्षिण भारतीय मतदातागण कांग्रेस से नाराज हो जाएंगे।

 अनेक लोगों का यह मानना था कि यदि प्रस्ताव के जरिए रामास्वामी पद से हटाए गए होते तो  न्यायपालिका के विवादास्पद तत्वों में भय पैदा होता।

   इसका प्रभाव अन्य क्षेत्रों  पर भी पड़ा।

नतीजतन भारतीय संसद लोकतंत्र के विभिन्न स्तम्भों में बढ़ रहे भीषण भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में विफल साबित हो रही है।

    ग्यारह मई, 1993 को लोक सभा में जस्टिस रामास्वामी के खिलाफ पेश महाभियोग प्रस्ताव इसलिए गिर गया क्योंकि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के 205 सदस्यों ने सदन में चर्चा के दौरान उपस्थित रहने के बावजूद मतदान में भाग ही नहीं लिया। 

  प्रस्ताव के पक्ष में मात्र 196 मत पड़े। महाभियोग प्रस्ताव के विरोध में एक भी मत नहीं पड़ा।

कांग्रेस ने कोई व्हीप जारी नहीं किया था ।

सत्ताधारी कांग्रेस ने पहले ही यह फैसला कर लिया था कि जज वी.रामास्वामी को बचाना है।

  जानकार लोग बताते हैं कि यह घटना विभिन्न अदालतों में भ्रष्टाचार के बढ़ने की एक महत्वपूर्ण कारक बनी।

    खुद सुप्रीम कोर्ट के  अनेक मुख्य न्यायाधीश समय -समय पर इस देश की न्यायपालिका में बढ़ते भ्रष्टाचार को लेकर चिंता जाहिर करते रहे हैं।

  लोक सभा में किसी जज के खिलाफ महाभियोग चलाने का वह एक मात्र उदाहरण है।

   दूसरी ओर, जब- जब सांसदों के खिलाफ न्यायपालिका कोई फैसला करती है तो दबे व खुले स्वर में अनेक सांसद न्यायपालिका पर  आरोप लगा देते हैं।

पर जब किसी जज को सजा देने का मौका आता है तो अधिकतर संासद कन्नी काट लेते हैं।

आखिर अधिकतर सांसद चाहते क्या हैं ? क्या वे यही चाहते हैं कि न्यायपालिका उनके भ्रष्टाचार पर पर्दा डाले और मौका आने पर हम रामास्वामी जैसे जजों को बचा लें ?

  माक्र्सवादी सांसद सोमनाथ चटर्जी द्वारा  प्रस्तुत महाभियोग प्रस्ताव पर लोक सभा में दस मई, 1993 को सात घंटे तक बहस चली।रामास्वामी पर लगाये गये आरोपों का उनके वकील कपिल सिब्बल ने सदन के भीतर खड़े होकर छह घंटे तक जवाब दिया।

 उन्होंने मुख्यतः यह बात कही कि खरीददारी का काम जस्टिस रामास्वामी ने नहीं बल्कि संबंधित समिति ने किया था।

  महाभियोग पर चर्चा को दूरदर्शन के जरिए लाइव प्रसारित किया जा रहा था। ग्यारह मई को फिर इस पर नौ घंटे की बहस चली।सोमनाथ चटर्जी ने चर्चा का जवाब दिया।लोक सभा मंे ंजब -जब कपिल सिब्बल ने कोई जोरदार तर्क पेश किया तो कांग्रेसी सदस्यों ने खुशी में मेजें थपथपाईं। विधि मंत्री हंसराज भारद्वाज टोका- टोकी के बीच कपिल सिब्बल का ही पक्ष लेते रहे।

 ये सब किस बात के सबूत थे ? 

    लोक सभा तो रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव नहीं पास कर सका,पर सुप्रीम कोर्ट के अधिकतर  साथी जजों ने रामास्वामी के साथ  बेंच मेें बैठने से इनकार कर दिया। 

 आखिरकार 14 मई 1993 को वी.रामास्वामी ने अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी।

 उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘लोक सभा में मेरे खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव के  गिर जाने से मेरे  दृष्टिकोण की पुष्टि हुई है।साथ ही  भविष्य में निहितस्वार्थ वाले तत्वों द्वारा  निंदा और उनके बेतुके हमले से निर्भीक और स्वतंत्र विचारों वाले न्यायाधीशों के सम्मान की रक्षा संभव हुई है।’’ 

  अब जरा उन आरोपों पर गौर करें जो वी.रामास्वामी पर लगे थे। नवंबर 1987 और अक्तूबर 1989 के बीच पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में वी.रामास्वामी ने अपने आवास व कार्यालय के लिए सरकारी निधि से पचास लाख रुपये के गलीचे और फर्नीचर खरीदे।

यह काम निविदा आमंत्रित किए बिना और नकली तथा बोगस कोटेशनों के आधार पर किया गया।

दरअसल ये फर्नीचर खरीदे ही नहीं गये थे।

पर कागज पर खरीद दिखा दी गई।यह खर्च राशि, खर्च सीमा से बहुत अधिक  थी।

  जस्टिस वी.रामास्वामी ने चंडीगढ़ में अपने 22 महीने के कार्यकाल में गैर सरकारी फोन काॅलों के लिए आवासीय फोन के बिल के 9 लाख 10 हजार रुपये का भुगतान कोर्ट के पैसे से कराया।मद्रास स्थित अपने आवास के फोन के बिल का भी पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट से भुगतान कराया।वह बिल 76 हजार 150 रुपये का था।इसके अलावा भी कई अन्य गंभीर आरोप वी.रामास्वामी पर थे। 

  ये ऐसे जज थे जिन्हें तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने आतंकवादियों के खिलाफ मुकदमे निपटाने के लिए मुख्य न्यायाधीश बनवा कर चंडीगढ़ भेजा था।

 ऐसा संवेदनशील काम जिसके जिम्मे हो,उस पर ऐसा आरोप ?

  पर उन्होंने वहां चीफ जस्टिस के रूप में भी आतंकवादियों के मुकदमों को लेकर कोई उल्लेखनीय काम नहीं किए।वे जबतक रहे टाडा के अभियुक्त धुआंधार जमानत पाते रहे। 

  फरवरी, 1991 में राष्ट्रीय मोर्चा,वामपंथी दल और भाजपा के 108 सांसदों ने मधु दंडवते के नेतृत्व में ंलोक सभा में वी.रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव की नोटिस दी।तब रवि राय  लोक सभा के स्पीकर थे।अपने सवैधानिक दायित्व का पालन करते हुए उन्होंने इसकी सत्यता की जांच के लिए 12 मार्च 1991 को तीन

जजों की समिति बना दी।

 सुप्रीम कोर्ट के जज पी.बी.सामंत के नेतृत्व में गठित इस न्यायिक समिति के सामने रामास्वामी ने अपना पक्ष रखने से इनकार कर दिया।सावंत समिति के अन्य सदस्य थे

बंबई हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पी.पी.देसाई और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ओ.चिनप्पा रेड्डी। 

 पी.बी.सावंत समिति ने अपनी जांच रपट में कहा था कि ‘जस्टिस वी.रामास्वामी ने अपने पद का जानबूझ कर दुरूपयोग किया।

सरकारी खजाने के बूते पर उन्होंने जानते- बूझते  फिजूलखर्ची की।

सरकारी पैसों का कई तरह से निजी उपयोग करने के नाते वे नैतिक रूप से भ्रष्ट हैं।उन्होंने न्यायाधीश की ऊंची पदवी पर धब्बा लगाने के साथ -साथ

न्यायपालिका में जनता के विश्वास को मिटा कर रख दिया है।अपनी जांच रपट में जस्टिस सावंत ने कहा कि ये सब बातें अब भी लागू होती हैं और उन्होंने जो अपराध किए हैं,वे सभी अपराध ऐसे हैं कि उनका पद पर बने रहना न्यायपालिका के और सार्वजनिक हित में नहीं होगा।’

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 जैसे राहुल राफेल पर कोई प्रमाण नहीं दे सके थे,उसी तरह 

वह अदाणी मामले में भी कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर पा रहे

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इसके विपरीत वी.पी.सिंह ने बोफोर्स मामले में अपने आरोपों से संबंधित दस्तावेज 15 नवंबर, 1988 को लोक सभा में पेश कर दिए थे

उसमें वह बैंक खाता नंबर (99921 टी.यू.) भी था जिसमें बोफोर्स कंपनी ने दलाली की राशि का भुगतान किया था 

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   अदाणी मामले में अवसर देखती कांग्रेस

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      --सुरेंद्र किशोर--

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 राहुल गांधी और अन्य कांग्रेस नेता एक अर्से से अदाणी मामले को लेकर मोदी सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे हैं।

  इस कोशिश में कई अन्य विपक्षी दल भी शामिल हो गए हैं।

वे इस मामले को घोटाले की शक्ल देकर संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की मांग कर रहे हंै।

  यह कुछ वैसी ही मुहिम है,जैसी एक वक्त बोफोर्स मामले को लेकर उस समय के विपक्ष ने चलाई थी।

  लेकिन राजीव गांधी के खिलाफ ‘बोफोर्स अभियान’ इसलिए सफल रहा था,क्योंकि उस सौदे के लिए दी गई दलाली की रकम बैंक खाते में पाई गई थी।

  अदाणी मामले में राहुल गांधी का अभियान इसलिए सफल नहीं हो पा रहा ,क्योंकि उनके पास रिश्वत या वित्तीय गड़बड़ी का कोई साक्ष्य नहीं है।

 राहुल गांधी ने लोक सभा में गौतम अदाणी को लेकर प्रधान मंत्री पर सीधे

आरोप लगाए।

आखिर वह उन आरोपों से संबंधित दस्तावेजों की अभि प्रमाणित प्रति संसद में पेश क्यों नहीं करते ?

 ध्यान रहे कि वी.पी.सिंह ने बोफोर्स मामले में अपने आरोपों से संबंधित दस्तावेज 15 नवंबर, 1988 को लोक सभा में पेश किए थे।

 उसमें वह बैंक खाता नंबर भी था जिसमें बोफोर्स कंपनी ने दलाली की राशि का भुगतान किया था।

  वह खाता इतालवी दलाल ओत्तावियो क्वात्रोचि का था।

 स्विस बैंक की लंदन शाखा के उस खाते का नंबर 99921 टी.यू था।

बोाफोर्स मामले से संबंधित जो आरोप पत्र सन 1999 में अदालत में दाखिल किया गया,उसमें भी इसी बैंक खाते का जिक्र था।

  जब भी किसी घोटाले की चर्चा होती है तो लोग सवाल उठाते हैं कि बोफोर्स मामले का क्या हुआ ?

 फिर खुद ही जवाब देते हैं कि कुछ नहीं हुआ।

यह झूठ वर्षों से जारी है।

कांग्रेस में कुछ सलाहकार, शीर्ष नेतृत्व को यही सलाह दे रहे हैं कि जिस तरह वी.पी.सिंह ने बोफोर्स का मामला उठाकर राजीव गांधी को सत्ता से बाहर किया था,उसी तरह राहुल गांधी भी अगले आम चुनाव में मोदी को मात देने के लिए अदाणी के मुद्दे को उछालें।

  राहुल गांधी ने ऐसी ही कोशिश पिछले आम चुनाव में राफेल मुद्दा उठाकर की थी।

 राफेल मामले में भी राहुल कोई सुबूत नहीं दे सके थे। 

शीर्ष अदालत के फैसले से भी उनके आरोपों की हवा निकल गई।

 ऐसे में लगता है कि राहुल गांधी और कांग्रेस के कर्ताधर्ता पिछली भूल से सबक सीखने को तैयार नहीं।

 अदाणी मामले में इस समय जे पी सी से जांच का दबाव बनाया जा रहा है तो ऐसी मांग करने वाले जान लें कि बी.शंकरानंद की अध्यक्षता में बोफोर्स घोटाले की जांच के लिए भी जेपीसी बनी थी और उसने उस कागज पर विचार ही नहीं किया,जिसे वी पी सिंह ने संसद में पेश किया था।

 तब जेपीसी को बोफोर्स खरीद में कोई गड़बड़ी कैसे मिलती ?

जेपीसी में सत्ताधारी दल का ही बहुमत होता है।

बोफोर्स मामले में सी.बी.आई.ने सन 1999 में 25 पन्नों का जो आरोप पत्र दाखिल किया ,उसमें राजीव गांधी का नाम अभियुक्त के रूप में 20 बार शामिल किया गया था।

चूंकि तब तक उनका निधन हो चुका था,इसलिए उनका नाम आरोप पत्र के दूसरे काॅलम में लिखा गया था।

  जिस समय बोफोर्स घोटाला सामने आया,तब घोषित सरकारी नीति यही थी कि किसी रक्षा सौदे में दलाली नहीं दी जाती,लेकिन बोफोर्स खरीद में इस नियम का उलंघन किया गया।

राजीव गांधी क्वात्रोचि का लगातार बचाव करते रहे।

इस मुद्दे पर पी एम राजीव के बदलते बयानों से जनता का संदेह गहराता गया।

परिणामस्वरूप सन 1989 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस को पराजय का मुंह देखना पड़ा।

चूंकि सीबीआई के आरोप पत्र में दलाली की रकम के हस्तांतरण से जुड़े साक्ष्य थे तो वह मामला मजबूत होता गया।

  फिर कांग्रेसी सरकारों के दौरान जानबूझ कर इस मामले को कमजोर किया गया।

अदालत में उचित तरह से मामले को पेश नहीं किया गया।

 दिल्ली हाईकोर्ट ने फरवरी, 2004 में बोफोर्स मामला खारिज कर दिया।

यह ध्यान रहे कि मनमोहन सिंह की सरकार में ही आयकर न्यायाधीकरण ने कहा था कि ‘‘क्वात्रोचि और विन चड्ढा को बोफोर्स दलाली के 41 करोड़ रुपए मिले थे।

ऐसे में उन पर टैक्स देनदारी बनती है।’’

सी.बी.आई.को पहले ही सुबूत मिल गए थे कि क्वात्रोचि ने दलाली के पैसे स्विस बैंक की लंदन शाखा में जमा करवाए थे।

 विपक्षी दलों द्वारा केंद्र सरकार से क्वात्रोचि का पासपोर्ट जब्त करने की लिखित मांग के बावजूद कांग्रेस सरकार ने उसे भारत से भाग जाने दिया।

 इतना ही नहीं,लंदन स्थित स्विस बैंक के जब्त खाते को खुलवा कर क्वात्रोचि को पैसे निकाल लेने की सुविधा प्रदान की गई।

 जब्त खाता खुलवाने के लिए मनमोहन सरकार ने एक अधिकारी लंदन भेजा था।

 खाता खुलने के बाद क्वात्रोचि उससे पैसे निकाल कर फरार हो गया।

 वैसे बोफोर्स मामले में एक गैर सरकारी अपील अब भी सुुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है।

 आयकर विभाग में सन 2019 में बोफोर्स दलाल विन चड्ढा के मुंबई स्थित फ्लैट को 12 करोड़ 2 लाख रुपए में नीलाम कर दिया था।

  सीबीआई के अनुसार दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय के विरूद्ध वह मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी अपील करना चाहती थी,लेकिन तत्कालीन सरकार ने ऐसा करने से रोक दिया।

 ऐसे में जो लोग यह सवाल उठाते हैं कि आखिर बोफोर्स मामले में क्या मिला,वे तथ्यों को अपनी सुविधानुसार अनदेखा कर देते हैं।

जिस मामले में दलाली पर आयकर वसूलने के लिए दलाल का फ्लैट तक जब्त कर लिया जाता है,उस मामले में अपील न हो तो आप और क्या कहेंगे ?

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दैनिक जागरण में 18 मार्च, 2023 को प्रकाशित  

  


 कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

.........................

संसद और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने की जरूरत

...............................................

लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने की दिशा में केंद्र सरकार प्रयत्नशील है।इसके लिए विभिन्न स्तरों पर विमर्श जारी है।अब यह मामला विधि आयोग में विचाराधीन है।

1967 तक दोनों चुनाव एक साथ हुए थे।

दरअसल इस काम में सबसे बडे बाधक कुछ राजनीतिक दल रहे हैं।

उसके पीछे राजनीतिक स्वार्थ है।पर,यह व्यापक जनहित में होगा कि यह काम हो जाए।

इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा।

 एक साथ चुनाव के विरोध का सबसे बड़ा तर्क यह कि ‘‘मतदाता लोग स्थानीय मुद्दों की बजाय राष्ट्रीय मुद्दों पर वोट देंगे।

इससे एक दल को लाभ होगा।’’

पर, पिछला इतिहास इस तर्क की पुष्टि नहीं करता।

सन 1967 में मतदाताओं ने केंद्र में तो कांग्रेस को सत्तासीन किया किंतु सात राज्यों में गैरकांग्रेसी दलों को जिता दिया

जबकि, चुनाव एक ही साथ हुए थे।

संविधान निर्मातागण भी जानते थे कि यह देश विविधताओं का है।

फिर भी उनका भरोसा मतदाताओं के विवेक पर था।

एक साथ चुनाव के फायदे ही फायदे हैं।

उससे जनता का पैसा बचेगा।

चुनाव खर्चों में कमी आएगी।

यानी राजनीतिक दलों को अपेक्षाकृत कम चंदा वसूली करनी पड़ेगी।उससे भ्रष्टाचार कम करने में आसानी होगी।

ऐसे तो इस देश में लगभग हर दूसरे-तीसरे साल जहां- तहां चुनाव होते ही रहते हैं।इस कारण बड़े पैमाने पर सरकारी मशीनरी को आए दिन एक काम को छोड़वा कर दूसरे काम में लगाना पड़ता है।

चुनावी आचार संहिता के कारण विकास कार्य भी बार-बार रुकते हैं।सरकारी मशीनरी के जिम्मे आम तौर से जो काम रहते हैं,उनमें भी बाधा पड़ती है।देश नाहक इतना नुकसान क्यों सहे जबकि संविधान निर्माताओं ने एक ही साथ चुनाव की प्रावधान किया था ?

.....................................

किन्नरों के लिए रोजगार

   .....................................

ओड़िशा के भुवनेश्वर नगर निकाय ने बकाया करों की वसूली का काम

सन 2019 में किन्नरों को सौंपा था।

खबर आई थी कि किन्नरों ने स्वयं सहायता समूह बनाकर यह काम शुरू किया था।

ओड़िशा सरकार ने उन्हें कुछ अधिकार भी दिए थे।

आगे उस स्वयं सहायता समूह की कैसी उपलब्धि रही,यह पता नहीं चल सका।

   पता लगाना चाहिए कि नए तरह के उस प्रयास का अंततः कैसा नतीजा आया। सकारात्मक नतीजा आया तो वह काम बिहार में भी किया जाना चाहिए।

  इससे एक तरफ तो कर वसूली में रफ्तार आएगी,दूसरी तरफ किन्नरों को रोजगार मिलेगा।

 अभी किन्नर आय के लिए परपंरागत तरीके अपनाते हैं।पहले तो शिशु जन्म के अवसर पर उन्हें लोगों से कुछ मिलता रहा।अब उन्हें वह काफी नहीं पड़ रहा है।

दूसरे मांगलिक अवसरों पर भी लोगों के यहां किन्नर पहुंच जाते हैं।

अधिक से अधिक वसूली के लिए जोर-जबर्दश्ती होने लगती है।कई बार कानून -व्यवस्था की समस्या भी खड़ी हो जाती है।ं

ऐसे में भुवनेश्वर फार्मला बीच का रास्ता है।

किन्नरों की वसूली -क्षमता का नगर निकाय लाभ उठाएं।

...........................

 नगरों का विस्तार

.........................

 शोभन बाइपास पर एम्स बनाने से दरभंगा नगर का विस्तार होगा।दूसरी ओर 

बीच नगर में एम्स जैसे बड़े संस्थान के निर्माण से भीड़भाड़ बढ़ेगी।उससे रोड जाम और प्रदूषण होंगे।

शोभन के पक्ष में बिहार सरकार का निर्णय सही है।इसी तर्ज पर अन्य नगरों का भी विस्तार होना चाहिए।

यह बात प्रादेशिक राजधानी पटना पर भी लागू होनी चाहिए।

नए संस्थान बीच पटना के बदले आसपास के इलाकांे में स्थापित हों।

बहुत पहले इन पंक्तियों के लेखक ने इस बात की जरूरत बताई थी कि पटना कोर्ट-कलक्टरी,पी.एम.सी.एच. और पटना विश्व विद्यालय में से किसी एक को 

नगर से बाहर किया जाना चाहिए।

खैर,वह तो नहीं हुआ।पर,एक काम अच्छा हो रहा है।यानी,पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय को बख्तियारपुर के पास ले जाने का काम।

............................ 

भूली बिसरी यादें 

...............................

डा.राममनोहर लोहिया सन 1958 में माखनलाल चतुर्वेदी से मिलने खंडवा गए थे।

‘‘पुष्प की अभिलाषा’’ के रचयिता चतुर्वेदी जी से डा.लोहिया ने कहा,‘‘दादा,हमारी पार्टी ने अंग्रेजी अखबारों की ‘होलिका’जलाने का निर्णय किया है।हिन्दी के विकास में अंग्रेजी अखबार बाधक हैं।ये हमारी गुलाम प्रवृति को कायम रखे हुए हैं।

हम इसके लिए आपका आशीर्वाद चाहते हैं।इस पर चतुर्वेदी जी ने कहा कि ‘‘लोहिया जी, हिन्दी के प्रति आपकी चिंता से मुझे प्रसन्नता हुई।

राजनीति में मुझे इतनी गहन चिंता अन्य किसी के मस्तिष्क में अंकित नहीं दिखाई दे रही है।यह बहुत बड़ी बात है।

आपकी वाणी ने हमारी निराशा को कम किया है।

लेकिन हिन्दी के विकास के लिए अंग्रेजी अखबारों को जलाना जरूरी नहीं है।यदि हम जलाते हैं तो अपनी ही कमजोरी का इजहार करते हैं।’’

दादा से उनकी कुछ और बातें भी हुईं और डा.लोहिया ने अंगे्रजी अखबारों को जलाने का अपना विचार त्याग दिया।  

 ........................

और अंत में

......................

‘स्मार्ट वाच’ में लगे जासूसी कैमरे में रिश्वतखोरी का दृश्य कैद किया गया था।

कर्नाटका में पिछले दिन इस विधि से 40 लाख रुपए स्वीकार करते हुए जो व्यक्ति पकड़ा गया था,वह वहां के एक सत्ताधारी विधायक का बेटा है।

उस विधायक को कोर्ट ने जमानत दे दी है।पर लोकायुक्त ने जमानत के खिलाफ ऊपरी अदालत मंे अपील कर दी है।

 स्मार्ट वाॅच में जासूसी कैमरे को फिट करवाने की पहल अनुकरणीय है।क्यों न इसका इस्तेमाल अन्य राज्यों में भी हो ? 

...................................



































कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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संसद और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने की जरूरत

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लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने की दिशा में केंद्र सरकार प्रयत्नशील है।इसके लिए विभिन्न स्तरों पर विमर्श जारी है।अब यह मामला विधि आयोग में विचाराधीन है।

1967 तक दोनों चुनाव एक साथ हुए थे।

दरअसल इस काम में सबसे बडे बाधक कुछ राजनीतिक दल रहे हैं।

उसके पीछे राजनीतिक स्वार्थ है।पर,यह व्यापक जनहित में होगा कि यह काम हो जाए।

इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा।

 एक साथ चुनाव के विरोध का सबसे बड़ा तर्क यह कि ‘‘मतदाता लोग स्थानीय मुद्दों की बजाय राष्ट्रीय मुद्दों पर वोट देंगे।

इससे एक दल को लाभ होगा।’’

पर, पिछला इतिहास इस तर्क की पुष्टि नहीं करता।

सन 1967 में मतदाताओं ने केंद्र में तो कांग्रेस को सत्तासीन किया किंतु सात राज्यों में गैरकांग्रेसी दलों को जिता दिया

जबकि, चुनाव एक ही साथ हुए थे।

संविधान निर्मातागण भी जानते थे कि यह देश विविधताओं का है।

फिर भी उनका भरोसा मतदाताओं के विवेक पर था।

एक साथ चुनाव के फायदे ही फायदे हैं।

उससे जनता का पैसा बचेगा।

चुनाव खर्चों में कमी आएगी।

यानी राजनीतिक दलों को अपेक्षाकृत कम चंदा वसूली करनी पड़ेगी।उससे भ्रष्टाचार कम करने में आसानी होगी।

ऐसे तो इस देश में लगभग हर दूसरे-तीसरे साल जहां- तहां चुनाव होते ही रहते हैं।इस कारण बड़े पैमाने पर सरकारी मशीनरी को आए दिन एक काम को छोड़वा कर दूसरे काम में लगाना पड़ता है।

चुनावी आचार संहिता के कारण विकास कार्य भी बार-बार रुकते हैं।सरकारी मशीनरी के जिम्मे आम तौर से जो काम रहते हैं,उनमें भी बाधा पड़ती है।देश नाहक इतना नुकसान क्यों सहे जबकि संविधान निर्माताओं ने एक ही साथ चुनाव की प्रावधान किया था ?

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किन्नरों के लिए रोजगार

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ओड़िशा के भुवनेश्वर नगर निकाय ने बकाया करों की वसूली का काम

सन 2019 में किन्नरों को सौंपा था।

खबर आई थी कि किन्नरों ने स्वयं सहायता समूह बनाकर यह काम शुरू किया था।

ओड़िशा सरकार ने उन्हें कुछ अधिकार भी दिए थे।

आगे उस स्वयं सहायता समूह की कैसी उपलब्धि रही,यह पता नहीं चल सका।

   पता लगाना चाहिए कि नए तरह के उस प्रयास का अंततः कैसा नतीजा आया। सकारात्मक नतीजा आया तो वह काम बिहार में भी किया जाना चाहिए।

  इससे एक तरफ तो कर वसूली में रफ्तार आएगी,दूसरी तरफ किन्नरों को रोजगार मिलेगा।

 अभी किन्नर आय के लिए परपंरागत तरीके अपनाते हैं।पहले तो शिशु जन्म के अवसर पर उन्हें लोगों से कुछ मिलता रहा।अब उन्हें वह काफी नहीं पड़ रहा है।

दूसरे मांगलिक अवसरों पर भी लोगों के यहां किन्नर पहुंच जाते हैं।

अधिक से अधिक वसूली के लिए जोर-जबर्दश्ती होने लगती है।कई बार कानून -व्यवस्था की समस्या भी खड़ी हो जाती है।ं

ऐसे में भुवनेश्वर फार्मला बीच का रास्ता है।

किन्नरों की वसूली -क्षमता का नगर निकाय लाभ उठाएं।

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 नगरों का विस्तार

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 शोभन बाइपास पर एम्स बनाने से दरभंगा नगर का विस्तार होगा।दूसरी ओर 

बीच नगर में एम्स जैसे बड़े संस्थान के निर्माण से भीड़भाड़ बढ़ेगी।उससे रोड जाम और प्रदूषण होंगे।

शोभन के पक्ष में बिहार सरकार का निर्णय सही है।इसी तर्ज पर अन्य नगरों का भी विस्तार होना चाहिए।

यह बात प्रादेशिक राजधानी पटना पर भी लागू होनी चाहिए।

नए संस्थान बीच पटना के बदले आसपास के इलाकांे में स्थापित हों।

बहुत पहले इन पंक्तियों के लेखक ने इस बात की जरूरत बताई थी कि पटना कोर्ट-कलक्टरी,पी.एम.सी.एच. और पटना विश्व विद्यालय में से किसी एक को 

नगर से बाहर किया जाना चाहिए।

खैर,वह तो नहीं हुआ।पर,एक काम अच्छा हो रहा है।यानी,पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय को बख्तियारपुर के पास ले जाने का काम।

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भूली बिसरी यादें 

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डा.राममनोहर लोहिया सन 1958 में माखनलाल चतुर्वेदी से मिलने खंडवा गए थे।

‘‘पुष्प की अभिलाषा’’ के रचयिता चतुर्वेदी जी से डा.लोहिया ने कहा,‘‘दादा,हमारी पार्टी ने अंग्रेजी अखबारों की ‘होलिका’जलाने का निर्णय किया है।हिन्दी के विकास में अंग्रेजी अखबार बाधक हैं।ये हमारी गुलाम प्रवृति को कायम रखे हुए हैं।

हम इसके लिए आपका आशीर्वाद चाहते हैं।इस पर चतुर्वेदी जी ने कहा कि ‘‘लोहिया जी, हिन्दी के प्रति आपकी चिंता से मुझे प्रसन्नता हुई।

राजनीति में मुझे इतनी गहन चिंता अन्य किसी के मस्तिष्क में अंकित नहीं दिखाई दे रही है।यह बहुत बड़ी बात है।

आपकी वाणी ने हमारी निराशा को कम किया है।

लेकिन हिन्दी के विकास के लिए अंग्रेजी अखबारों को जलाना जरूरी नहीं है।यदि हम जलाते हैं तो अपनी ही कमजोरी का इजहार करते हैं।’’

दादा से उनकी कुछ और बातें भी हुईं और डा.लोहिया ने अंगे्रजी अखबारों को जलाने का अपना विचार त्याग दिया।  

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और अंत में

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‘स्मार्ट वाच’ में लगे जासूसी कैमरे में रिश्वतखोरी का दृश्य कैद किया गया था।

कर्नाटका में पिछले दिन इस विधि से 40 लाख रुपए स्वीकार करते हुए जो व्यक्ति पकड़ा गया था,वह वहां के एक सत्ताधारी विधायक का बेटा है।

उस विधायक को कोर्ट ने जमानत दे दी है।पर लोकायुक्त ने जमानत के खिलाफ ऊपरी अदालत मंे अपील कर दी है।

 स्मार्ट वाॅच में जासूसी कैमरे को फिट करवाने की पहल अनुकरणीय है।क्यों न इसका इस्तेमाल अन्य राज्यों में भी हो ? 

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कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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संसद और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने की जरूरत

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लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने की दिशा में केंद्र सरकार प्रयत्नशील है।इसके लिए विभिन्न स्तरों पर विमर्श जारी है।अब यह मामला विधि आयोग में विचाराधीन है।

1967 तक दोनों चुनाव एक साथ हुए थे।

दरअसल इस काम में सबसे बडे बाधक कुछ राजनीतिक दल रहे हैं।

उसके पीछे राजनीतिक स्वार्थ है।पर,यह व्यापक जनहित में होगा कि यह काम हो जाए।

इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा।

 एक साथ चुनाव के विरोध का सबसे बड़ा तर्क यह कि ‘‘मतदाता लोग स्थानीय मुद्दों की बजाय राष्ट्रीय मुद्दों पर वोट देंगे।

इससे एक दल को लाभ होगा।’’

पर, पिछला इतिहास इस तर्क की पुष्टि नहीं करता।

सन 1967 में मतदाताओं ने केंद्र में तो कांग्रेस को सत्तासीन किया किंतु सात राज्यों में गैरकांग्रेसी दलों को जिता दिया

जबकि, चुनाव एक ही साथ हुए थे।

संविधान निर्मातागण भी जानते थे कि यह देश विविधताओं का है।

फिर भी उनका भरोसा मतदाताओं के विवेक पर था।

एक साथ चुनाव के फायदे ही फायदे हैं।

उससे जनता का पैसा बचेगा।

चुनाव खर्चों में कमी आएगी।

यानी राजनीतिक दलों को अपेक्षाकृत कम चंदा वसूली करनी पड़ेगी।उससे भ्रष्टाचार कम करने में आसानी होगी।

ऐसे तो इस देश में लगभग हर दूसरे-तीसरे साल जहां- तहां चुनाव होते ही रहते हैं।इस कारण बड़े पैमाने पर सरकारी मशीनरी को आए दिन एक काम को छोड़वा कर दूसरे काम में लगाना पड़ता है।

चुनावी आचार संहिता के कारण विकास कार्य भी बार-बार रुकते हैं।सरकारी मशीनरी के जिम्मे आम तौर से जो काम रहते हैं,उनमें भी बाधा पड़ती है।देश नाहक इतना नुकसान क्यों सहे जबकि संविधान निर्माताओं ने एक ही साथ चुनाव की प्रावधान किया था ?

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किन्नरों के लिए रोजगार

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ओड़िशा के भुवनेश्वर नगर निकाय ने बकाया करों की वसूली का काम

सन 2019 में किन्नरों को सौंपा था।

खबर आई थी कि किन्नरों ने स्वयं सहायता समूह बनाकर यह काम शुरू किया था।

ओड़िशा सरकार ने उन्हें कुछ अधिकार भी दिए थे।

आगे उस स्वयं सहायता समूह की कैसी उपलब्धि रही,यह पता नहीं चल सका।

   पता लगाना चाहिए कि नए तरह के उस प्रयास का अंततः कैसा नतीजा आया। सकारात्मक नतीजा आया तो वह काम बिहार में भी किया जाना चाहिए।

  इससे एक तरफ तो कर वसूली में रफ्तार आएगी,दूसरी तरफ किन्नरों को रोजगार मिलेगा।

 अभी किन्नर आय के लिए परपंरागत तरीके अपनाते हैं।पहले तो शिशु जन्म के अवसर पर उन्हें लोगों से कुछ मिलता रहा।अब उन्हें वह काफी नहीं पड़ रहा है।

दूसरे मांगलिक अवसरों पर भी लोगों के यहां किन्नर पहुंच जाते हैं।

अधिक से अधिक वसूली के लिए जोर-जबर्दश्ती होने लगती है।कई बार कानून -व्यवस्था की समस्या भी खड़ी हो जाती है।ं

ऐसे में भुवनेश्वर फार्मला बीच का रास्ता है।

किन्नरों की वसूली -क्षमता का नगर निकाय लाभ उठाएं।

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 नगरों का विस्तार

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 शोभन बाइपास पर एम्स बनाने से दरभंगा नगर का विस्तार होगा।दूसरी ओर 

बीच नगर में एम्स जैसे बड़े संस्थान के निर्माण से भीड़भाड़ बढ़ेगी।उससे रोड जाम और प्रदूषण होंगे।

शोभन के पक्ष में बिहार सरकार का निर्णय सही है।इसी तर्ज पर अन्य नगरों का भी विस्तार होना चाहिए।

यह बात प्रादेशिक राजधानी पटना पर भी लागू होनी चाहिए।

नए संस्थान बीच पटना के बदले आसपास के इलाकांे में स्थापित हों।

बहुत पहले इन पंक्तियों के लेखक ने इस बात की जरूरत बताई थी कि पटना कोर्ट-कलक्टरी,पी.एम.सी.एच. और पटना विश्व विद्यालय में से किसी एक को 

नगर से बाहर किया जाना चाहिए।

खैर,वह तो नहीं हुआ।पर,एक काम अच्छा हो रहा है।यानी,पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय को बख्तियारपुर के पास ले जाने का काम।

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भूली बिसरी यादें 

...............................

डा.राममनोहर लोहिया सन 1958 में माखनलाल चतुर्वेदी से मिलने खंडवा गए थे।

‘‘पुष्प की अभिलाषा’’ के रचयिता चतुर्वेदी जी से डा.लोहिया ने कहा,‘‘दादा,हमारी पार्टी ने अंग्रेजी अखबारों की ‘होलिका’जलाने का निर्णय किया है।हिन्दी के विकास में अंग्रेजी अखबार बाधक हैं।ये हमारी गुलाम प्रवृति को कायम रखे हुए हैं।

हम इसके लिए आपका आशीर्वाद चाहते हैं।इस पर चतुर्वेदी जी ने कहा कि ‘‘लोहिया जी, हिन्दी के प्रति आपकी चिंता से मुझे प्रसन्नता हुई।

राजनीति में मुझे इतनी गहन चिंता अन्य किसी के मस्तिष्क में अंकित नहीं दिखाई दे रही है।यह बहुत बड़ी बात है।

आपकी वाणी ने हमारी निराशा को कम किया है।

लेकिन हिन्दी के विकास के लिए अंग्रेजी अखबारों को जलाना जरूरी नहीं है।यदि हम जलाते हैं तो अपनी ही कमजोरी का इजहार करते हैं।’’

दादा से उनकी कुछ और बातें भी हुईं और डा.लोहिया ने अंगे्रजी अखबारों को जलाने का अपना विचार त्याग दिया।  

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और अंत में

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‘स्मार्ट वाच’ में लगे जासूसी कैमरे में रिश्वतखोरी का दृश्य कैद किया गया था।

कर्नाटका में पिछले दिन इस विधि से 40 लाख रुपए स्वीकार करते हुए जो व्यक्ति पकड़ा गया था,वह वहां के एक सत्ताधारी विधायक का बेटा है।

उस विधायक को कोर्ट ने जमानत दे दी है।पर लोकायुक्त ने जमानत के खिलाफ ऊपरी अदालत मंे अपील कर दी है।

 स्मार्ट वाॅच में जासूसी कैमरे को फिट करवाने की पहल अनुकरणीय है।क्यों न इसका इस्तेमाल अन्य राज्यों में भी हो ? 

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कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

.........................

संसद और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने की जरूरत

...............................................

लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने की दिशा में केंद्र सरकार प्रयत्नशील है।इसके लिए विभिन्न स्तरों पर विमर्श जारी है।अब यह मामला विधि आयोग में विचाराधीन है।

1967 तक दोनों चुनाव एक साथ हुए थे।

दरअसल इस काम में सबसे बडे बाधक कुछ राजनीतिक दल रहे हैं।

उसके पीछे राजनीतिक स्वार्थ है।पर,यह व्यापक जनहित में होगा कि यह काम हो जाए।

इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा।

 एक साथ चुनाव के विरोध का सबसे बड़ा तर्क यह कि ‘‘मतदाता लोग स्थानीय मुद्दों की बजाय राष्ट्रीय मुद्दों पर वोट देंगे।

इससे एक दल को लाभ होगा।’’

पर, पिछला इतिहास इस तर्क की पुष्टि नहीं करता।

सन 1967 में मतदाताओं ने केंद्र में तो कांग्रेस को सत्तासीन किया किंतु सात राज्यों में गैरकांग्रेसी दलों को जिता दिया

जबकि, चुनाव एक ही साथ हुए थे।

संविधान निर्मातागण भी जानते थे कि यह देश विविधताओं का है।

फिर भी उनका भरोसा मतदाताओं के विवेक पर था।

एक साथ चुनाव के फायदे ही फायदे हैं।

उससे जनता का पैसा बचेगा।

चुनाव खर्चों में कमी आएगी।

यानी राजनीतिक दलों को अपेक्षाकृत कम चंदा वसूली करनी पड़ेगी।उससे भ्रष्टाचार कम करने में आसानी होगी।

ऐसे तो इस देश में लगभग हर दूसरे-तीसरे साल जहां- तहां चुनाव होते ही रहते हैं।इस कारण बड़े पैमाने पर सरकारी मशीनरी को आए दिन एक काम को छोड़वा कर दूसरे काम में लगाना पड़ता है।

चुनावी आचार संहिता के कारण विकास कार्य भी बार-बार रुकते हैं।सरकारी मशीनरी के जिम्मे आम तौर से जो काम रहते हैं,उनमें भी बाधा पड़ती है।देश नाहक इतना नुकसान क्यों सहे जबकि संविधान निर्माताओं ने एक ही साथ चुनाव की प्रावधान किया था ?

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किन्नरों के लिए रोजगार

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ओड़िशा के भुवनेश्वर नगर निकाय ने बकाया करों की वसूली का काम

सन 2019 में किन्नरों को सौंपा था।

खबर आई थी कि किन्नरों ने स्वयं सहायता समूह बनाकर यह काम शुरू किया था।

ओड़िशा सरकार ने उन्हें कुछ अधिकार भी दिए थे।

आगे उस स्वयं सहायता समूह की कैसी उपलब्धि रही,यह पता नहीं चल सका।

   पता लगाना चाहिए कि नए तरह के उस प्रयास का अंततः कैसा नतीजा आया। सकारात्मक नतीजा आया तो वह काम बिहार में भी किया जाना चाहिए।

  इससे एक तरफ तो कर वसूली में रफ्तार आएगी,दूसरी तरफ किन्नरों को रोजगार मिलेगा।

 अभी किन्नर आय के लिए परपंरागत तरीके अपनाते हैं।पहले तो शिशु जन्म के अवसर पर उन्हें लोगों से कुछ मिलता रहा।अब उन्हें वह काफी नहीं पड़ रहा है।

दूसरे मांगलिक अवसरों पर भी लोगों के यहां किन्नर पहुंच जाते हैं।

अधिक से अधिक वसूली के लिए जोर-जबर्दश्ती होने लगती है।कई बार कानून -व्यवस्था की समस्या भी खड़ी हो जाती है।ं

ऐसे में भुवनेश्वर फार्मला बीच का रास्ता है।

किन्नरों की वसूली -क्षमता का नगर निकाय लाभ उठाएं।

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 नगरों का विस्तार

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 शोभन बाइपास पर एम्स बनाने से दरभंगा नगर का विस्तार होगा।दूसरी ओर 

बीच नगर में एम्स जैसे बड़े संस्थान के निर्माण से भीड़भाड़ बढ़ेगी।उससे रोड जाम और प्रदूषण होंगे।

शोभन के पक्ष में बिहार सरकार का निर्णय सही है।इसी तर्ज पर अन्य नगरों का भी विस्तार होना चाहिए।

यह बात प्रादेशिक राजधानी पटना पर भी लागू होनी चाहिए।

नए संस्थान बीच पटना के बदले आसपास के इलाकांे में स्थापित हों।

बहुत पहले इन पंक्तियों के लेखक ने इस बात की जरूरत बताई थी कि पटना कोर्ट-कलक्टरी,पी.एम.सी.एच. और पटना विश्व विद्यालय में से किसी एक को 

नगर से बाहर किया जाना चाहिए।

खैर,वह तो नहीं हुआ।पर,एक काम अच्छा हो रहा है।यानी,पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय को बख्तियारपुर के पास ले जाने का काम।

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भूली बिसरी यादें 

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डा.राममनोहर लोहिया सन 1958 में माखनलाल चतुर्वेदी से मिलने खंडवा गए थे।

‘‘पुष्प की अभिलाषा’’ के रचयिता चतुर्वेदी जी से डा.लोहिया ने कहा,‘‘दादा,हमारी पार्टी ने अंग्रेजी अखबारों की ‘होलिका’जलाने का निर्णय किया है।हिन्दी के विकास में अंग्रेजी अखबार बाधक हैं।ये हमारी गुलाम प्रवृति को कायम रखे हुए हैं।

हम इसके लिए आपका आशीर्वाद चाहते हैं।इस पर चतुर्वेदी जी ने कहा कि ‘‘लोहिया जी, हिन्दी के प्रति आपकी चिंता से मुझे प्रसन्नता हुई।

राजनीति में मुझे इतनी गहन चिंता अन्य किसी के मस्तिष्क में अंकित नहीं दिखाई दे रही है।यह बहुत बड़ी बात है।

आपकी वाणी ने हमारी निराशा को कम किया है।

लेकिन हिन्दी के विकास के लिए अंग्रेजी अखबारों को जलाना जरूरी नहीं है।यदि हम जलाते हैं तो अपनी ही कमजोरी का इजहार करते हैं।’’

दादा से उनकी कुछ और बातें भी हुईं और डा.लोहिया ने अंगे्रजी अखबारों को जलाने का अपना विचार त्याग दिया।  

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और अंत में

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‘स्मार्ट वाच’ में लगे जासूसी कैमरे में रिश्वतखोरी का दृश्य कैद किया गया था।

कर्नाटका में पिछले दिन इस विधि से 40 लाख रुपए स्वीकार करते हुए जो व्यक्ति पकड़ा गया था,वह वहां के एक सत्ताधारी विधायक का बेटा है।

उस विधायक को कोर्ट ने जमानत दे दी है।पर लोकायुक्त ने जमानत के खिलाफ ऊपरी अदालत मंे अपील कर दी है।

 स्मार्ट वाॅच में जासूसी कैमरे को फिट करवाने की पहल अनुकरणीय है।क्यों न इसका इस्तेमाल अन्य राज्यों में भी हो ? 

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