शनिवार, 10 जून 2023

 मेरा यह लेख आज के दैनिक जागरण और दैनिक नईदुनिया के 

सारे संस्करणों में एक साथ प्रकाशित

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देशहित में नहीं राजद्रोह कानून का खात्मा

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      सुरेंद्र किशोर

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देश के समक्ष बढ़ रही चुनौतियों को देखते हुए राजद्रोह कानून के मामले में समग्र परिदृश्य को ध्यान में रखकर विचार करने की आवश्यकता है।

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देश में अक्सर यह बहस जोर पकड़ने लगती है कि अब राजद्रोह कानून की विदाई दे दी जाए।

  इसी शाश्वत बहस के बीच बीते दिनों विधि आयोग की ताजा रपट में 

इस कानून को बनाए रखने की अनुशंसा की गई है।

   देश की एकता और अखंडता के लिए इस कानून की आवश्यकता रेखांकित करते हुए विधि आयोग ने कहा है कि इस कानून में कुछ संशोधन किए जा सकते हैं।

  इस सिलसिले में निर्धारित सजा को बढ़ाने की बात भी उसने की।

 स्वाभाविक है कि ऐसी सिफारिश के बीच राजद्रोह कानून विरेाधी लाॅबी को नए सिरे से अपना विरोध करने का अवसर मिल गया है,लेकिन सामान्य समझ वाला कोई भी व्यक्ति सहजता से यह देख सकता है कि संप्रति देश में राजद्रोही मंशा एवं मनोवृति वाले तत्वों की संख्या बढ़ती जा रही है।

  ऐसे में इस कानून की समाप्ति राष्ट्रीय हितों के प्रति बड़ा आघात होगी।

  इस रिपोर्ट के संदर्भ में केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने कहा कि विधि आयोग की सिफारिश बाध्यकारी नहीं है और हम सभी हितधारकों से विचार-विमर्श के बाद ही राजद्रोह कानून पर कोई अंतिम फैसला करेंगे।

    वर्तमान में राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर नई चुनौतियों ने दस्तक दी है।

सरकार इससे जुड़ी समस्याओं का समाधान निकालने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है।

इसमें न्यायिक तंत्र से भी आवश्यक सहयोग अपेक्षित है।

 न्यायिक तंत्र सामान्य अपराध और आतंकी अपराधों के बीच फर्क करें।

 राजद्रोह कानून की समाप्ति के पीछे सबसे बड़ा तर्क इसके दुरुपयोग का दिया जाता है।

 निःसंदेह ,दुरुपयोग रोकने के उपाय होने चाहिए,लेकिन याद रहे कि सिरदर्द होने पर सिर को तो नहीं काटा जाता।

  आखिर किस कानून का दुरुपयोग नहीं होता ?

फिर राजद्रोह कानून की समाप्ति पर इतना जोर क्यों ?

 खुद सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व में यह कहा कि राजद्रोह कानून के दुरुपयोग को लेकर उसने यानी सुप्रीम कोर्ट ने सन 1962 में जो दिशा निर्देश दिया,वह यानी सुप्रीम कोर्ट आज भी उससे सहमत है।

 हालांकि राजद्रोह कानून को लागू करने पर रोक से संबंधित हालिया फैसले से विचित्र स्थिति उत्पन्न हो रही है।

 उम्मीद है कि केंद्र सरकार संबंधित पक्षों से मंत्रणा कर  देशहित में सुप्रीम कोर्ट को ताजा स्थिति से अवगत कराएगी,क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा की प्राथमिक जिम्मेदारी केंद्र सरकार की ही है।

  राजद्रोह कानून पर केंद्र सरकार किस तरह आम सहमति बनाती है,यह तो भविष्य के गर्भ में है।

लेकिन इस कानून से जुड़े कुछ विवादों पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि किसी भी देश के लिए इस प्रकार का कानून कितना आवश्यक है।(भारत के लिए तो और भी आवश्यक है क्योंकि बाहर-भीतर की राष्ट्रद्रोही शक्तियां इस देश को खरबूजे की तरह काट कर बांट लेना चाहती हैं।उसके लिए वे तेजी से काम भी कर रही हैं।)

  इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के 1962 के एक फैसले को याद करना उपयोगी होगा।

 26 मई, 1953 को बिहार के बेगूसराय में एक रैली हो रही थी।

 फारवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के नेता केदारनाथ सिंह रैली को संबांेधित कर रहे थे।

सरकार के विरुद्ध कड़े शब्दों का उपयोग करते हुए उन्होंने कहा कि ‘सी.आई.डी. के कुत्ते बरौनी में चक्कर काट रहे हैं।

कई सरकारी कुत्ते यहां इस सभा में भी हैं।

जनता ने अंग्रेजों को यहां से भगा दिया।

कांग्रेसी कुत्तों को गद्दी पर बैठा दिया।

इन कांग्रेसी गुंडों को हम उखाड़ फेंकेंगे।’

ऐसे उत्तेजक और अमर्यादित भाषण के लिए बिहार सरकार ने केदारनाथ सिंह के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दायर किया।(तब डा.श्रीकृष्ण सिंह बिहार के मुख्य मंत्री थे।) 

केदारनाथ सिंह ने पटना हाईकोर्ट की शरण ली।

हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई पर रोक लगा दी।

बिहार सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई।

सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह से संबंधित आई.पी.सी.की धारा को परिभाषित किया।

20 जनवरी, 1962 को मुख्य न्यायाधीश बी.पी.सिन्हा (जो बिहार के ही शाहाबाद जिले के मूल निवासी थे)की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने कहा कि ‘राजद्रोही भाषणों और अभिव्यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है ,जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा ,असंतोष या फिर सामाजिक आक्रोश बढ़े।’

चूंकि केदारनाथ सिंह के भाषण से ऐसा कुछ नहीं हुआ था,इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह को राहत दे दी।

(याद रहे कि आज इस देश के जो लोग राजद्रोह कानून की समाप्ति चाहते हैं,उनमें से अधिकतर लोग नक्सली और जेहादी हिंसा का प्रत्यक्ष या  परोक्ष रूप से समय -समय पर किसी न किसी बहाने समर्थन करते रहते हैं।इसलिए यह आम लोगों के लिए समझने की बात है कि राजद्रोह को समाप्त करवा कर कौन-कौन  शक्तियां अपने कैसे-कैसे लक्ष्य को हासिल करना चाहती हंै !!)

    हालांकि राजद्रोह के सभी मामले केदारनाथ सिंह सरीखे नहीं होते।

जैसे फरवरी, 2016 में जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय यानी जेएनयू परिसर में हुआ भारत विरोधी आयोजन। 

    उसमें कश्मीरी आतंकी अफजल गुरु की बरसी मनाई जा रही थी।

भारत की बर्बादी के नारे लगाए जा रहे थे।

नारा लगाने वाले जेएनयू में थे और इस आयोजन के कर्ताधर्ता कश्मीर में।

(कश्मीर में अफजल गुरु जैसे लोग क्या-क्या करते रहे हैं,यह किसी से कभी छिपा हुआ नहीं रहा है।)

जेएनयू मामले में राजद्रोह का केस दर्ज हुआ।

लेकिन विडंबना देखिए कि दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी ने मामला चलाने की  अनुमति देने में एक साल का समय लगा दिया।

मामला अब भी अदालत में लंबित हैै।

यह भी कोई संयोग नहीं कि आम आदमी पार्टी भी राजद्रोह कानून की समाप्ति के पक्ष में है।

(जेएनयू कांड के एक आरोपित कन्हैया कुमार अब कांग्रेस में हैं।पहले सी.पी.आई. में थे।

सी.पी.आई. के डी.राजा ने राज्य सभा में निजी विधेयक पेश कर रखा है।वह विधेयक राजद्रोह कानून की समाप्ति के लिए है।कांग्रेस तो राजद्रोह कानून की समाप्ति के पक्ष में है ही।)

सवाल वोट बैंक का जो है।

अब तो पापुलर फं्रट आॅफ इंडिया यानी पी.एफ.आई. भी देश में बड़े पैमाने पर सक्रिय है।

उसके पास से हाल में मिले साहित्य से यह स्पष्ट है कि उसका घोषित लक्ष्य है कि सन 2047 तक हथियारों के बल पर इस देश में इस्लामिक शासन कायम कर देना है।

  राजद्रोह कानून के अभाव में ऐसे तत्वों से निपटना आसान नहीं।

  किसी भी कानून के कार्यान्वयन पर रोक लगाने वाले सुप्रीम कोर्ट के सामने जब पूरे तथ्य आ जाते हैं तो अक्सर वह अपना पिछला निर्णय बदल देता है।

जैसे सुप्रीम कोर्ट ने आपातकाल(1975-77)के दौरान अपने एक चर्चित निर्णय से बाद में स्वयं को अलग कर लिया था।

 वह निर्णय बंदी प्रत्यक्षीकरण से जुड़ा था।

 तब यानी आपातकाल में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘आपातकाल में कोई नागरिक अपने मौलिक अधिकारों की मांग नहीं कर सकता।’

  उल्लेखनीय है कि मौलिक अधिकारों में जीने का अधिकार भी शामिल है।

तब केंद्र सरकार के वकील नीरेन डे ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि यह आपातकाल ऐसा है जिसके दौरान यदि शासन किसी की जान भी ले ले तो उस हत्या के विरुद्ध अदालत की शरण नहीं ली जा सकती।

सुप्रीम कोर्ट ने तब नीरेन डे की बात पर मुहर लगा दी थी।

वहीं,जब आपातकाल का आतंक समाप्त हुआ तो सुप्रीम कोर्ट को अपने उस निर्णय पर पछतावा हुआ।

ऐसी उदारता इस देश के सुप्रीम कोर्ट में मौजूद है।

ऐसे में राजद्रोह के मामले में भी शीर्ष अदालत को समग्र परिदृश्य को ध्यान में रखकर विचार करना चाहिए।

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(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ स्तभकार हैं।)

9 जून 23  

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नोट-इस लेख के बीच में जहां -तहां ब्रैकेट में कुछ वाक्य लिखे गए हैं।वे प्रकाशित लेख का हिस्सा नहीं हैं।बातें और भी स्पष्ट हों,इसलिए मैंने बाद में उसे जोड़ा है।याद रहे कि किसी ऐसे लेख में शब्द सीमा का ध्यान रखना पड़ता है।

    

  

  

   






गुरुवार, 8 जून 2023

 समर शेष हैं,नहीं पाप का भागी केवल व्याध,

जो तटस्थ हैं,समय लिखेगा,उनका भी अपराध !

   --- राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर

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भारतीय इतिहास के चार अध्याय

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(वर्तमान दौर सर्वाधिक खतरनाक)

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     अध्याय-1

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 जयचंद ने जब-जब पृथ्वीराज चैहान का साथ दिया, 

गोरी तब-तब हारा।

पर,जब निजी अपमान के कारण जयचंद चुप बैठ गया तो गोरी ने चैहान को हरा दिया।

भले अपुष्ट इतिहास के अनुसार बाद में जयचंद भी गोरी के हाथों ही मरा।पर,देश का इतिहास तो बदल चुका था।  

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कौन नहीं जानता कि मान सिंह ने अपनी सत्ता के लिए अकबर से समझौता करके महाराणा प्रताप के खिलाफ युद्ध लड़ा !ऐसे अन्य उदाहरण भी हैं।

किन्हीं दो-चार शासकों से 

ही इतिहास नहीं बदला।

लाखों-करोड़ों तटस्थ लोगों ने भी विदेशी आक्रंाताओं की प्रत्यक्ष-परोक्ष मदद की।

 आज यह देख-समझ कर आंखों से आंसू आ जाते हैं कि वही इतिहास आज दुहराया जा रहा है।

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अध्याय-2

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ब्रिटिश साम्राज्य के संस्थापक राबर्ट क्लाइव के अनुसार,

 ‘‘हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने के लिए 

जब हमने पहला युद्ध किया और जीतने के बाद हम जब विजय जुलूस निकाल रहे थे तो वहां मौजूद हिन्दुस्तानी जुलूस देखकर तालियां बजा रहे थे।

अपने ही देश के राजा के हारने पर वे खुशी से हमारा स्वागत कर रहे थे।

  अगर वहां मौजूद सब हिन्दुस्तानी मिलकर उसी समय को सिर्फ एक -एक पत्थर उठाकर हमलोगों ही मार देते तो हिन्दुस्तान आजाद हो जाता।उस समय हम अंग्रेज सिर्फ तीन हजार थे।’’

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अध्याय-3

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 ब्रिटिश इतिहासकार सर जे.आर.सिली (1834-1895)ने लिखा है कि ब्रिटिशर्स ने भारत को कैसे जीता।

मशहूर किताब ‘द एक्सपेंसन आॅफ इंगलैंड’ के लेखक सिली  के अनुसार , 

‘‘हमने (यानी अंग्रेजों ने) नहीं जीता,बल्कि खुद भारतीयों ने ही भारत को जीतकर हमारे प्लेट पर रख दिया।’’

  सिली ने लिखा है कि ‘‘भारत को जीतने की दिशा में जिस समय हमने पहली सफलता प्राप्त की थी,उसी समय हमने अमेरिका में बसी अपनी जाति के तीस लाख लोगों को,जिन्होंने इंगलैंड के ताज के प्रति अपनी भक्ति को उतार फेंक दिया था,अनुशासन के तहत लाने में पूरी विफलता का मुंह देखा था।’’

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अध्याय-4

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हाल में अतिवादी जेहादी संगठन पाॅपुलर फं्रट आॅफ इंडिया का एक गुप्त केंद्र बिहार के फुलवारीशरीफ में पकड़ा गया।

उसके पास से बरामद गुप्त कागजात से यह पता चला कि पी.एफ.आई. हथियारों के बल पर सन 2047 तक भारत को इस्लामिक देश बना देने के लक्ष्य के तहत पूरी तरह सक्रिय है।वह हजारों हथियार अपने लश्करों को बांट रहा है।

उसका एक राजनीतिक संगठन है जिसका नाम है--एस.डी.पी.आई.।

इस दल के साथ हाल के कर्नाटका चुनाव में भी कांग्रेस ने पिछले दरवाजे से तालमेल किया।

नतीजतन कांग्रेस को अधिकांश मुस्लिम वोट मिल गये।मुसलमानों ने कांग्रेस से कुछ खास शर्तें मनवाने के बाद  जद एस को वोट नहीं दिया।

इससे पहले सन 2018 के विधान सभा चुनाव में भी पी.एफ.आई.के साथ कांग्रेस ने कर्नाटक में 25 विधान सभा सीटों पर तालमेल किया था।

कांगे्रस तथा अन्य सभी दलों को मालूम है कि पी.एफ.आई.का लक्ष्य क्या है। 

  फिर भी कोई भी तथाकथित सेक्युलर दल या प्रगतिशील बुद्धिजीवी पी.एफ.आई. और उसके कारनामों के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलता।देश व हमारी अगली पीढ़ियों के लिए कितनी खतरनाक बात है !

  यानी, आज एक बार फिर मध्य युग दुहराया जा रहा है।

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पी.एफ.आई. तथा अन्य अतिवादी मुस्लिम संगठन सेक्युलर दलों की प्रत्यक्ष-परोक्ष मदद से लव जेहाद,अवैध घुसपैठ,धर्मांतरण और अन्य तरीकों से इस देश में मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ा रहे हैं।लव जेहाद ने तो महामारी का रूप ग्रहण कर लिया है।

जाकिर नाइक ने, जिसे कांग्रेसी दिग्विजय सिंह शांति दूत कहते हैं,कहा है कि भारत में मुसलमानों की आबादी बढ़कर 40 प्रतिशत हो चुकी है।

पिछले कुछ ही साल में देश के कई हिन्दू बहुल जिले मुस्लिम बहुल हो चुके हैं।

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और केरल में सी.पी.एम.सरकार इनके सबसे बड़े मददगार हैं।

अब कर्नाटका के सिद्धारमैया भी ममता और सी.पी.एम. से इस मामले में प्रतियांगिता कर रहे हैं।हालांकि अन्य सेक्युलर दल भी दूध के धोए नहीं हैं।

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अब अगले दस-पंद्रह वर्षों में हिन्दुओं के ही एक हिस्से के मौन व मुखर समर्थन से पी.एफ.आई व अन्य क्या-क्या गुल खिलाने वाले हैं,उसकी कल्पना कर लीजिए।

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7 जून 23

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इतिहास के इस नाजुक मोड़ पर ऐसे कटु सत्य लिखने के लिए मैं मजबूर हो गया था।

यदि नहीं लिखता तो मेरी अंतरात्मा मुझे माफ नहीं करती।

मेरा यह पोस्ट जिसे जैसा लगे,लगता रहे,मैंने जीवन की संध्या बेला में सिर्फ लेखक -पत्रकार के रूप में अपना धर्म निभाया है।

 

  


मंगलवार, 6 जून 2023

       

    जोधा -अकबर की झूठी कहानी 

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गीतकार जावेद अख्तर की एक खास टिप्पणी यू ट्यूब पर उपलब्ध है।

उसमें वे यह कहते सुने जा रहे हैं कि 

‘‘अकबर की कोई पत्नी नहीं थी जिसका नाम जोधा बाई था।’’

आज के ‘‘राष्टीय सहारा’’ में भी इसी तरह की बात छपी है।

 उदय ठाकुर लिखते हैं कि 

‘‘जोधा अकबर की कहानी झूठी निकली।

सैकड़ों सालों से प्रचारित झूठ 

का खंडन हुआ।

अकबर की शादी हरकू बाई से हुई जो मान सिंह की दासी थी।

जयपुर रिकार्ड व पुरातत्व विभाग भी यही मानता है कि जोधा एक झूठ है जिस झूठ को वामपंथी इतिहासकारों व फिल्मी भांडी ने रचा है।’’

---उदय ठाकुर

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मुगल ए आजम और जोधा अकबर की चर्चा करते हुए वामपंथी गीतकार जावेद अख्तर ने भी इस संदर्भ में यह भी कहा है कि ‘‘फिल्मों को हिस्ट्री मत समझिए और हिस्ट्री को फिल्म मत समझिए।’’

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याद रहे कि अकबर मीना बाजार भी लगवाता था।

बाजार क्यों लगता था ?

उसमें  किन -किन लोगों का प्रवेश होता था ?

वे वहां क्या करते थे ?

इतिहास के गंभीर विद्यार्थी इन प्रश्नों के जवाब जानते हैं।



 




मेरा यह लेख 4 जून, 23 को वेबसाइट ‘‘मनी कंट्रोल हिन्दी’’ पर प्रकाशित

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आखिर किस महारानी ने हारे हुए पति के लिए किले का दरवाजा बंद कर दिया था ?

वह उदयपुर के महाराणा की पुत्री थी और महाराजा जसवंत सिंह को ब्याही गयी थी

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इस अभूतपूर्व घटना का विवरण किसी भारतीय ने नहीं बल्कि फ्रांसीसी इतिहासकार बर्नियर ने लिखा है।

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सुरेंद्र किशोर

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मध्य युग में राजस्थान की एक महारानी  ने अपने पराजित 

महाराजा पति के लिए किले का दरवाजा बंद करवा दिया था।

     फ्रांसिसी इतिहासकार बर्नियर ने लिखा है कि महाराजा जसवंत सिंह जब युद्ध में हार कर अपने किले के गेट पर वापस पहुंचे तो उनकी पत्नी ने किले का दरवाजा बंद करवा दिया।

उसने पति की हार से खुद को अपमानित महसूस किया था।

अपने राज घराने की परंपरा को ध्यान में रखते हुए वह चाहती थी कि पति या तो जीत कर आएं या युद्ध भूमि में ही शहीद हो जाएं।

याद रहे कि कई राज घरानों की महिलाएं पराजय के बाद खुद को जला लिया करती थीं।क्योंकि उन्हें आशंका रहती थी कि आक्रांता मृत शरीर के साथ भी कुकृत्य कर सकते थे।ऐसा ही उन आक्रांताओं का इतिहास था।

  एक तरफ तो बर्नियर ने ऐसा लिखा है,पर,दूसरी तरफ 

  आधुनिक भारत में बंधकों के कुछ सौ रिश्तेदारों ने

अटल बिहारी सरकार पर भारी दबाव बनाकर सन 1999 में खूंखार आतंकवादी मसूद अजहर और उसके दो साथियों को  रिहा कर देने के लिए बाध्य कर दिया था।

अजहर के गुर्गों ने भारतीय विमान का अपहरण करके फिरौती में मसूद अजहर की रिहाई की मांग की थी।

  आज भी जब कुछ खास  आतंकवादियों के खिलाफ सरकार कोई कार्रवाई करती है तो इसी देश के कुछ खास तरह के (वोटलोलुप) लोगों को भारी दर्द होने लगता है।

  बर्नियर के अनुसार महाराजा जसवंत सिंह राठौर अपने 30 हजार राजपूत वीरों को लेकर विदेशी हमलावरों की सेना के साथ युद्ध करने के लिए गया था।

 राजपूतों ने पूरी बहादुरी दिखाई।

जहां तक उनका वश चला वे लड़े भी।

परंतु आखिर में हुआ यह कि शत्रु सेनाओं ने हर ओर से घेरा डाल दिया। घेराव से बचने के लिए महाराजा जसवंत सिंह राठौर अपने 20 हजार सैनिकों को लेकर अपनी राजधानी वापस पहुंच गया।

याद रहे कि उसके 10 हजार सैनिक युद्ध में मारे जा चुके थे।

 महाराजा के लौटने की खबर सुनकर महारानी के चेहरे पर जो भाव व्यक्त हो रहे थे,उसे देख कर बर्नियर को यही लग रहा होगा,जो उसने लिखा।

बर्नियर के अनुसार महाराजा की पत्नी उदय पुर के महाराणा की पुत्री थी।

वह राठौर को युद्ध से हार कर लौटते देखना नहीं चाहती थी।वह समझती थी कि वैसा व्यक्ति न तो मेरा पति होने लायक है और न ही राणा का दामाद होने लायक है।

 महारानी ने बंद द्वार के उस पार खड़े अपने पति को यह संदेश भिजवाया कि या तो जीत कर आएं या वीर गति को प्राप्त हो जाएं।

यह संदेश पाते ही महाराजा फिर से युद्ध भूमि की ओर चला गया और वहीं लड़ते -लड़ते वीर गति को प्राप्त हो गया।

  बर्नियर ने लिखा कि बाद में महारानी ने खुशी -खुशी अपने लिए 

चिता जलवायी और उसमें कूद गयी।

बर्नियर ने लिखा कि ऐसी हिम्मत मैंने इसी देश की महिलाओं में देखी।

  पर, इस घटना की तुलना सन 1999 की एक घटना से करें।

उस साल के दिसंबर में कंधार विमान अपहरण कांड हुआ था।

उस विमान में डेढ़ यात्री बंधक थे।

वे जीवन और मौत के बीच झूल रहे थे।

इधर नई दिल्ली में प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के आवास के समक्ष उनके घरों के स्त्री-पुरूषों की भीड़ तरह -तरह के नारे लगा कर सरकार पर दबाव डाल रही थी।

भीड़ में शामिल स्त्रियां अधिक गुस्से में थीं।भीड़ यह मांग कर रही थी कि केंद्र सरकार किसी भी कीमत पर उन बंधकों को रिहा कराए।

उधर कश्मीर को लेकर भारत के खिलाफ  अघोषित युद्ध में संलग्न आतंकवादियों ने बड़ी कीमत मांगी थी।

‘युद्धरत’ मसूद अजहर नामक खूंखार आतंकवादी को रिहा कर देने की मांग थी।इस युद्ध की गंभीरता की कत्तई परवाह उन परिजनों को नहीं की।

 उनके लिए देश के ऊपर उनके अपने रिश्तेदार थे।

 सरकार पर जब बंधकों के रिश्तेदारों से भारी दबाव पडा़ तो उसने सर्वदलीय बैठक बुलाई।

सोनिया गांधी सहित सभी प्रमुख दल के नेता बैठक में आए।

सर्वदलीय बैठक ने सर्वसम्मति से अटल सरकार को यह सलाह दी कि वे बंधकों को छुड़ाने के लिए कुछ भी करें।

 मसूद अजहर और दो अन्य खूंखार आतंकवादियों को जेल से निकाल कर उन्हें केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह के संरक्षण में कंधार पहुंचा दिया गया।

एक वह महाराजा जसवंत सिंह राठौर की पत्नी थी और दूसरे एक आधुनिक जसवंत सिंह थे जिन्होंने वोट के लिए आतंकवादियों को कंधार पहंुचा दिया।

 पर, इस प्रकरण में सिर्फ आधुनिक जसवंत सिंह जिम्मेदार नहीं थे।

बल्कि सर्वदलीय बैठक में शामिल वे सारे नेता गण जिम्मेदार थे।

इन विपक्षी नेताओं में से कई नेताओं ने बाद में राजनीतिक कारणों से उस कंधार रिहाई के लिए अटल सरकार को दोषी ठहराया जबकि उस फैसले में वे खुद भी शामिल थे।

सन 2016 में पठानकोट में आतंकी हमला मसूद अजहर ने ही करवाया था।उससे पहले भी न जाने उसने और उसके साथियों ने भारत में कितने सौ लोगों के खून बहाए और बहवाए !

याद रहे कि अमेरिका तथा इसरायल जैसे देश ऐसे किसी अपराधी को  किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ते, चाहे वे बंधकों के साथ जो भी व्यवहार करें।उन देशों की जनता भी  सरकार के ऐसे किसी  निर्णय को स्वीकार करती  है।

मध्य युग की उस की महारानी ने जो काम किया, अमेरिका -इसरायल जैसे देश आज भी कर रहे हैं।

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4 जून 23

   

  




    

   


रविवार, 4 जून 2023

 वोट बैंक का दबाव रंग दिखाने लगा

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कर्नाटका की नवगठित कांग्रेस सरकार 

गो वध पर रोक हटाने पर अमादा !

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क्या अनजाने में इस तरह भाजपा की सेवा नहीं कर रही कांग्रेस ??

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सुरेंद्र किशोर

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इस देश के संविधान के नीति निदेशक तत्व वाले चैप्टर में लिखा हुआ है कि राज्य गो वध को रोकने की दिशा में कदम उठाएगा(अनुच्छेद- 48)।

किंतु कांग्रेस की कर्नाटका सरकार के पशुपालन मंत्री वी.वेंकटेश ने सवाल उठाया है कि जब भैंस का वध किया जा सकता है तो गाय का क्यों नहीं ?

संभवतः कर्नाटका सरकार इस संबंध में संबंधित कानून में संशोधन करेगी ताकि गायों का भी वध किया जा सके।जाहिर है कि वह सरकार किसके दबाव में यह काम करने जा रही है।

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और कुछ नहीं,यह मुस्लिम वोट बैंक का कर्नाटका सरकार पर दबाव का नतीजा है।

अतिवादी मुस्लिम संगठनों का कर्नाटका सरकार पर दबाव है कि वह 

उनकी इच्छा के अनुसार अन्य कानूनों और नियमों में संशोधन करे।

कुछ अन्य मामलों में राज्य सरकार वैसा करने  भी जा रही  है।

याद रहे कि कर्नाटका के मुसलमानों ने हाल के विधान सभा चुनाव में ज द एस को छोड़कर अपना एकमुश्त मत कांग्रेस को दे दिए । कर्नाटका में कांग्रेस सरकार इसीलिए बन सकी है।

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कांग्रेस कहती है कि भाजपा भावनाएं उभार कर हिन्दुओं के वोट ले लेती है।संभव है कि वैसा वह करती होगी।

किंतु कांग्रेस यह बताए कि गो वध की खुलेआम वकालत करने वाले अपने मंत्री के ताजा बयान पर देश भर के हिन्दुओं की भावनाएं उभरेगी या नहीं।उभरेगी तो उसके लिए 

कौन जिम्मेदार होगा ?

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कर्नाटका के मंत्री के. वेंकटेश के बयान की गूंज पूरे देश भर में नहीं फैलेगी ?

अक्सर संविधान की दुहाई देने वाली कांग्रेस का यह बयान संविधान सम्मत है ?

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गाय और गंगा के प्रति हमारे पूर्वजों की भावनाओं से हम अपने बचपन से वाकिफ हंै।

हमारे किसान परिवार में हमेशा दो गायें पाली जाती थीं।

जब कोई बूढ़ी गाय मरती थी तो हमारे परिवार की महिलाएं उसी तरह रोती थीं जिस तरह किसी परिजन के निधन पर रोती थीं।

गाय के उस मृतक शरीर को हमने सादर जमीन में गाड़ते हुए भी देखा है।

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हमारे यहां की देसी गाय के दूध में ऐसा विशेष औषधीय तत्व मौजूद रहता है जैसा किसी अन्य नस्ल की गाय में नहीं।

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आजादी तक गंगा में स्वच्छ पानी पाया जाता था।

मध्य युग में तो अकबर बादशाह गंगा जल मंगवा कर रोज पीता था।

पर,आजादी के बाद की हमारी सरकारों ने गंगा को बांध कर और उसके किनारे प्रदूषण फैलाने कारखानों की संख्या बढ़ा कर गंगा जल को नाले के जल में परिणत कर दिया।

कांग्रेस सरकार ने कभी हिन्दू भावनाओं का ध्यान नहीं रखा।भाजपा के उभरने के जो कारण रहे उनमें कांग्रेसी सरकारों के भीषण भ्रष्टाचार,बेशर्म परिवारवाद और गाय-गंगा-पीपल आदि की उपेक्षा।

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4 जून 23

  ं


 वोट बैंक का दबाव रंग दिखाने लगा

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कर्नाटका की नवगठित कांग्रेस सरकार 

गो वध पर रोक हटाने पर अमादा !

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क्या अनजाने में इस तरह भाजपा की सेवा नहीं कर रही कांग्रेस ??

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सुरेंद्र किशोर

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इस देश के संविधान के नीति निदेशक तत्व वाले चैप्टर में लिखा हुआ है कि राज्य गो वध को रोकने की दिशा में कदम उठाएगा(अनुच्छेद- 48)।

किंतु कांग्रेस की कर्नाटका सरकार के पशुपालन मंत्री वी.वेंकटेश ने सवाल उठाया है कि जब भैंस का वध किया जा सकता है तो गाय का क्यों नहीं ?

संभवतः कर्नाटका सरकार इस संबंध में संबंधित कानून में संशोधन करेगी ताकि गायों का भी वध किया जा सके।जाहिर है कि वह सरकार किसके दबाव में यह काम करने जा रही है।

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और कुछ नहीं,यह मुस्लिम वोट बैंक का कर्नाटका सरकार पर दबाव का नतीजा है।

अतिवादी मुस्लिम संगठनों का कर्नाटका सरकार पर दबाव है कि वह 

उनकी इच्छा के अनुसार अन्य कानूनों और नियमों में संशोधन करे।

कुछ अन्य मामलों में राज्य सरकार वैसा करने  भी जा रही  है।

याद रहे कि कर्नाटका के मुसलमानों ने हाल के विधान सभा चुनाव में ज द एस को छोड़कर अपना एकमुश्त मत कांग्रेस को दे दिए । कर्नाटका में कांग्रेस सरकार इसीलिए बन सकी है।

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कांग्रेस कहती है कि भाजपा भावनाएं उभार कर हिन्दुओं के वोट ले लेती है।संभव है कि वैसा वह करती होगी।

किंतु कांग्रेस यह बताए कि गो वध की खुलेआम वकालत करने वाले अपने मंत्री के ताजा बयान पर देश भर के हिन्दुओं की भावनाएं उभरेगी या नहीं।उभरेगी तो उसके लिए 

कौन जिम्मेदार होगा ?

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कर्नाटका के मंत्री के. वेंकटेश के बयान की गूंज पूरे देश भर में नहीं फैलेगी ?

अक्सर संविधान की दुहाई देने वाली कांग्रेस का यह बयान संविधान सम्मत है ?

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गाय और गंगा के प्रति हमारे पूर्वजों की भावनाओं से हम अपने बचपन से वाकिफ हंै।

हमारे किसान परिवार में हमेशा दो गायें पाली जाती थीं।

जब कोई बूढ़ी गाय मरती थी तो हमारे परिवार की महिलाएं उसी तरह रोती थीं जिस तरह किसी परिजन के निधन पर रोती थीं।

गाय के उस मृतक शरीर को हमने सादर जमीन में गाड़ते हुए भी देखा है।

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हमारे यहां की देसी गाय के दूध में ऐसा विशेष औषधीय तत्व मौजूद रहता है जैसा किसी अन्य नस्ल की गाय में नहीं।

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आजादी तक गंगा में स्वच्छ पानी पाया जाता था।

मध्य युग में तो अकबर बादशाह गंगा जल मंगवा कर रोज पीता था।

पर,आजादी के बाद की हमारी सरकारों ने गंगा को बांध कर और उसके किनारे प्रदूषण फैलाने कारखानों की संख्या बढ़ा कर गंगा जल को नाले के जल में परिणत कर दिया।

कांग्रेस सरकार ने कभी हिन्दू भावनाओं का ध्यान नहीं रखा।भाजपा के उभरने के जो कारण रहे उनमें कांग्रेसी सरकारों के भीषण भ्रष्टाचार,बेशर्म परिवारवाद और गाय-गंगा-पीपल आदि की उपेक्षा।

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4 जून 23

  ं


शुक्रवार, 2 जून 2023

यदाकदा

सुरेंद्र किशोर

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सजा मिलते ही सदस्यता की समाप्ति वाले प्रावधान को बदला जाए 

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निचली अदालत से सजा मिलने के बाद सपा नेता आजम खान की विधान सभा की सदस्यता गत साल चली गयी।

वे उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य थे।

इस साल ऊपरी अदालत ने उस केस में उन्हें सजामुक्त कर दिया।

इस बीच उस चुनाव क्षेत्र से एक अन्य व्यक्ति चुन लिया गया।

यदि आजम खान का यह मामला बारी -बारी से उच्चत्तर अदालतों में जाए और वहां से भी आजम खान निर्दोष ही घोषित हो जाएं तो क्या कहा जाएगा ?

क्या यह माना जाएगा कि आजम खान के साथ न्याय हुआ ?

दरअसल यह मामला सिर्फ आजम खान का नहीं है।

इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि राहुल गांधी के मामले में भी ऊपरी अदालत ऐसा ही जजमेंट नहीं दे देगी। 

दरअसल यह प्रकरण लिली थाॅमस मामले में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश से जुड़ा हुआ है।

उस केस में अदालत ने कहा कि यदि किसी एम.पी.या एम.एल.ए. को दो वर्ष या उससे अधिक सजा होगी तो सदन की सदस्यता तत्काल प्रभाव से चली जाएगी।

अब इस जजमेंट के एक पक्ष को लेकर सुप्रीम का ध्यान आकृष्ट किया जाना चाहिए।

वह यह कि ऐसी परिस्थिति में क्या किया जाए जब ऊपरी अदालत किसी को दोषमुक्त कर दे और उस बीच उस क्षेत्रमें उप चुनाव हो जाए ?

मौजूदा स्थिति बनी रहेगी तो सजामुक्त हुए लोग दिल से यह कैसे यह स्वीकार करेंगे कि उनके साथ न्याय हुआ ?     

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आर्यभट्ट स्मारक 

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बिहार सरकार ने 2009 में यह घोषणा की थी कि आर्यभट्ट से जुड़े बिहार के तीन स्थलों को विकसित किया जाएगा।

वे स्थान हैं खगौल,तरेगना और परेब।

नीतीश सरकार आम तौर पर अपने वायदे को निभाती रही है।यदि इस बीच यह काम हो चुका है या हो रहा है तो अच्छी बात है।

यदि नहीं हुआ तो इन पंक्तियों के जरिए याद दिलाई जा रही है। 

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मेउिकल काॅलेजों में आरक्षण

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मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने जून, 2021 में यह घोषणा की थी कि बिहार के मेडिकल और इंजीनियरिंग काॅलेजों में लड़कियों के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित की जाएंगी।

तब उनकी इस घोषणा का स्वागत हुआ है।

हाल में भारतीय प्रशासनिक सेवा परीक्षा के

नतीजे आए।

लड़कियों ने लड़कों से बेहतर परिणाम दिए हैं।

विद्यालय बोर्ड परीक्षाओं के नतीजों में भी हम यह पाते हैं कि लड़कियों के रिजल्ट बेहतर हो रहे हैं।

आज इंजीनियरिंग और मेडिकल शिक्षा -परीक्षा की गुणवत्ता पर यदा कदा  सवाल उठते रहते हैं ।

ऐसे में लड़कियों को यदि अधिक संख्या में वहां दाखिला मिलेगा तो आम तौर पर मेडिकल-इंजीनियरिंग की शिक्षा -परीक्षा -रिजल्ट में बेहतरी आएगी।

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कैसे बनें सुव्यवस्थित काॅलोनियां

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बिहार सरकार ने सत्तर के दशक के पटना के दीघा में और अस्सी के दशक में पटना के ही धनौत में जमीन का अधिग्रहण किया।

प्रादेशिक राजधानी में व्यवस्थित काॅलोनियां बसाने के नेक उद्देश्य से वैसा  हुआ था।

पर,दोनों महत्वाकांक्षी योजनाओं में भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया।

उसके बाद राज्य सरकार ने काॅलोनी विकसित करने के लिए जमीन के  अधिग्रहण का काम त्याग दिया।नतीजतन अब काॅलोनियां बसाने की पूरी जिम्मेदारी निजी डेवलपर्स पर आ गयी है।

अधिकतर निर्माणकर्ताओं को किसी तरह की ‘सुव्यवस्था’ से प्यार नहीं है।

 पटना और आसपास के इलाकों में बड़े पैमाने पर अव्यवस्थित काॅलोनियां बस रही हैं। स्लम विकसित हो रहे हैं।वे एक दिन राज्य सरकार के लिए भी सिरदर्द बनेंगे।क्यों नहीं सरकार अभी से उन डेवलपर्स और बिल्डर्स पर नजर रखती है ?

यदि उन्हें किसी तरह की मदद की जरूरत हो तो सरकार उन्हें करे।यदि वे  अनर्थ कर रहे हैं तो उन्हें समय रहते सरकार रोके।

निर्माणधीन व प्रस्तावित काॅलोनियांे में राज्य सरकार ही सड़क और नाले बनाए। 

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भूली-बिसरी यादें

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इस देश में गठबंधनों की सरकारों का मिलाजुला अनुभव रहा है।

पहली बार केंद्र में सन 1977 में गैर कांग्रेसी सरकार बनी।

चुनाव के ठीक पहले चार दलों ने मिलकर जनता पार्टी बनायी थी।

 दल के भीतर दल थे।

वह सरकार 27 महीनों के बाद गिर गयी।

उसकी जगह कांग्रेस के बाहरी समर्थन से चरण सिंह प्रधान मंत्री बने।

वे तो संसद का भी सामना नहीं कर सके।सन 1989 में भाजपा और वाम दलों के बाहरी समर्थन

से वी.पी.सिंह की सरकार बनी।

 वह सरकार 343 दिन ही चली।

उनकी जगह कांग्रेस के बाहरी समर्थन से चंद्रशेखर की सरकार बनी।वह 223 दिन चली। बाद में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी।वह 16 दिन चली।

सन 1996 में ही एच.डी.देवगौड़ा की सरकार बनी।वह 324 दिन चली।

उसके बाद आई.के.गुजराल की सरकार 332 दिन चली।

हां,अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 1998 में बनी सरकार लगातार 6 साल 64 दिन चली।   

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और अंत में

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किसी भी अगले चुनाव के दौरान आप सब मतदान केंद्रों पर जरूर जाइए।

तभी आप अपनी पसंद की सरकार बनवा सकेंगे।

आप चाहे जिस किसी दल,नेता या विचारधारा के समर्थक हों,किंतु आपके मन लायक सरकार तभी बन सकेगी, जब आप मतदान करेंगे।मतदान के दिन न तो आप घर में बैठे रहें और न ही छुट्टी मनाएं। लोकतंत्र का उत्सव मनाएं। 

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2 जून 23