शनिवार, 22 अगस्त 2009

बंटवारे के लिए मौलाना आजाद की नजर में नेहरू जिम्मेदार

मिस्टर जिन्ना सन् 1946 के आरंभ में अखंड भारत के लिए तैयार हो गये थे, पर उसी साल के मध्य में जवाहर लाल नेहरू ने एक ऐसा बयान दे दिया कि जिन्ना ने डायरेक्ट एक्शन का नारा देकर पाकिस्तान बनवा लिया। यह बात आजाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद ने लिखी है। अपनी आत्मकथा ‘आजादी की कहानी’ में आजाद ने लिखा कि ब्रिटिश सरकार के कैबिनेट मिशन, कांग्रेस महासमिति और मुस्लिम लीग परिषद के बीच इस बात पर आपसी सहमति बन चुकी थी कि अखंड आजाद भारत की केंद्रीय सरकार के अधीन तीन विषय होंगे-रक्षा, विदेश और संचार। राज्यों को तीन श्रेणियों में बांट दिया जाएगा। उन्हें स्वायतता रहेगी। ‘बी’ श्रेणी के राज्यों में पंजाब, सिंध, उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत व ब्रिटिश बलोचिस्तान शामिल किए जाएंगे। ‘सी’ श्रेणी के राज्यों में बंगाल और असम शामिल थे। बाकी राज्य ‘ए’ श्रेणी में रखे गये थे। कैबिनेट मिशन का ख्याल था कि इस भावी व्यवस्था से मुसलमान अल्पसंख्यक वर्ग को पूरी तरह से इतमिनान हो जाएगा।

याद रहे कि आजादी के लिए हिंदुस्तान के प्रतिनिधियों से विचार-विमर्श की खातिर ब्रिटिश सरकार ने कैबिनेट मिशन भारत भेजा था। मौलाना आजाद ने लिखा कि ‘मिशन ने मेरी यह बात भी मान ली थी कि अधिकतर विषय प्रांतीय धरातल पर संभाले जाएंगे। इसलिए बहुमत वाले राज्यों में मुसलमानों को प्रायः पूरी स्वायत्तता प्राप्त होगी। बी और सी श्रेणियों के राज्यों में मुसलमानों का बहुमत था। इस तरह वे अपनी सारी औचित्यपूर्ण आशाओं को सफल बना सकते थे।’

‘शुरू- शुरू में मि. जिन्ना ने इस योजना का घोर विरोध किया। मुस्लिम लीग स्वतंत्र देश की अपनी मांग को लेकर इतना आगे बढ़ चुकी थी कि उसके लिए कदम वापस लौटाना मुश्किल था। पर कैबिनेट मिशन ने बहुत ही साफ -साफ और असंदिग्ध शब्दों में कह दिया कि वह देश के बंटवारे का सुझाव कभी नहीं दे सकता। मिशन के सदस्य लाॅर्ड पेथिक लारेंस और सर स्टैफर्ड क्रिप्स ने बार- बार कहा कि हमारी समझ में नहीं आता कि मुस्लिम लीग जिस पाकिस्तान सरीखे राज्य की कल्पना कर रही है, वह कैसे जियेगा, कैसे बढ़ेगा और कैसे स्थायी होगा? उनका ख्याल था कि मैंने जो सूत्र दिया है, वही समस्या का हल है। मंत्रिमंडलीय मिशन का ख्याल था कि इसमें कोई हर्ज नहीं है ।’

मौलाना आजाद ने लिखा कि ‘मुस्लिम लीग परिषद की तीन दिन तक बैठक हुई। तब कहीं जाकर वह किसी फैसले पर पहुंच सकी। आखिरी दिन जिन्ना को यह तसलीम करना पड़ा कि मिशन की योजना में जो हल प्रस्तुत किया गया है, अल्पसंख्यकों की समस्या का उससे अधिक न्यायपूर्ण हल और कोई नहीं हो सकता। और उन्हें इससे अच्छी शर्तें मिल ही नहीं सकतीं। उन्होंने परिषद को बताया कि मंत्रिमंडल मिशन ने जो योजना प्रस्तुत की है, उससे और कुछ भी ज्यादा मैं नहीं कर सकता। इसलिए उन्होंने मुस्लिम लीग को योजना मान लेने की सलाह दी और लीग परिषद ने सर्वसम्मति से उसके पक्ष में वोट दिया।’

इस संबंध में कांग्रेस के फैसले के बारे में मौलाना आजाद ने लिखा कि ‘कांग्रेस कार्य समिति में जो विचार विमर्श हुआ, उसमें मैंने कहा कि कैबिनेट मिशन की योजना मूलतः वही है जो कांग्रेस पहले स्वीकार कर चुकी है। ऐसी हालत में योजना में जो प्रमुख राजनीतिक हल प्रस्तुत किया गया था, उसे मान लेने में कार्यसमिति को कोई मुश्किल नहीं हुई। 26 जून, 1946 के अपने प्रस्ताव में कांग्रेस कार्य समिति ने भविष्य के संबंध में कैबिनेट मिशन की योजना स्वीकार कर ली-यद्यपि उसने अंतरिम सरकार का सुझाव मानने में अपनी असमर्थता प्रकट की। कैबिनेट मिशन योजना का कांग्रेस व मुस्लिम लीग दोनों के द्वारा स्वीकार कर लिया जाना हिंदुस्तान के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास की एक गौरवमय घटना थी। यह भी लगा मानो हम आखिरकार सांप्रदायिक कठिनाइयों को भी पीछे छोड़ आए हैं। मि. जिन्ना बहुत खुश न थे, लेकिन और कोई रास्ता न था, इसलिए योजना मानने के लिए उन्होंने खुद को तैयार कर लिया था।’

पर इस पूरी योजना को पलीता लगाने वाली घटना की चर्चा करते हुए मौलाना अबुल कलाम आजाद ने लिखा कि ‘तभी एक ऐसी दुःखद घटना घटी जिसने इतिहास का क्रम ही बदल दिया। दस जुलाई को कांग्रेस अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू ने बम्बई में एक संवाददाता सम्मेलन बुलाया। वहां उन्होंने एक बयान दिया जिस पर शायद सामान्य परिस्थितियों में कोई ध्यान भी न देता। पर उस बयान ने शंका और घृणा के तत्कालीन वातावरण में बड़े ही दुर्भाग्यपूर्ण परिणामों के एक क्रम को जन्म दिया।’

‘कुछ पत्र प्रतिनिधियों ने उनसे सवाल किया, ‘क्या कांग्रेस कार्य समिति के प्रस्ताव पास कर देने का मतलब यह है कि कांग्रेस ने योजना को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया है जिसमें अंतरिम सरकार के गठन का सवाल भी निहित है ?’

जवाब में जवाहर लाल ने कहा कि कांग्रेस करारों की बेड़ियों से बिलकुल मुक्त रह कर और जब जैसी स्थिति पैदा होगी, उसका मुकाबला करने के लिए स्वतंत्र रहते हुए, संविधान सभा में जाएगी।’ पत्र प्रतिनिधियों ने फिर पूछा कि क्या इसका मतलब यह है कि कैबिनेट मिशन योजना में संशोधन किए जा सकते हैं?

जवाहर लाल बड़ा जोर देकर जवाब दिया कि कांग्रेस ने सिर्फ संविधान सभा में भाग लेना स्वीकार किया है और वह मिशन योजना में जैसा उचित समझे, वैसा संशोधन-परिवर्तन करने के लिए अपने आपको स्वतंत्र समझती है।मौलाना आजाद ने लिखा कि ‘मैं यह कह दूं कि जवाहर लाल का बयान गलत था।

यह कहना सही न था कि कांग्रेस योजना में जो चाहे संशोधन करने के लिए स्वतंत्र है। असल में यह तो हम मान चुके थे कि केंद्रीय सरकार संघीय होगी ।’ (आजादी की कहानी:मौलाना अबुल कलाम आजाद की आत्म कथा-पृष्ठ-173)

आजाद के शब्दों में ‘जवाहर लाल नेहरू के इस बयान से मि. जिन्ना भौंचक रह गये। उन्होंने तुरंत एक बयान जारी किया कि कांग्रेस अध्यक्ष के इस वक्तव्य से सारी स्थिति पर फिर से विचार करना जरूरी हो गया है। जिन्ना ने लियाकत अली खान से लीग परिषद की बैठक बुलाने के लिए कहा और अपने बयान में कहा कि मुस्लिम लीग परिषद ने दिल्ली में कैबिनेट मिशन की योजना इसलिए स्वीकार कर ली थी कि यह आश्वासन दिया गया था कि कांग्रेस ने भी उसे स्वीकार कर लिया है और यह योजना हिंदुस्तान के भावी संविधान का आधार होगी। अब चूंकि कांग्रेस अध्यक्ष ने यह एलान किया है कि कांग्रेस संविधान सभा में अपने बहुमत से योजना को बदल सकती है, इसलिए इसका मतलब यह हुआ कि अल्पसंख्यक वर्ग बहुसंख्यक की दया पर जियेगा।

उसके बाद मुस्लिम लीग की बैठक 27 जुलाई को बम्बई में हुई। अपने उद्घाटन भाषण में मिस्टर जिन्ना ने फिर से पाकिस्तान की मांग की और कहा कि मुस्लिम लीग के सामने यही एक रास्ता रह गया है। तीन दिनों की बहस के बाद लीग परिषद ने मिशन योजना को अस्वीकार करते हुए एक प्रस्ताव पास कर दिया। उसने पाकिस्तान की मांग पूरी कराने के लिए ‘सीधी कार्रवाई’ करने का भी फैसला किया।’

(प्रभात खबर, 20 अगस्त 2009 से साभार)

बुधवार, 19 अगस्त 2009

‘आजादी लाओ’ से ‘आजादी बचाओ’ तक का सफर

स्वतंत्रता सेनानियों ने दशकों पहले अपना ‘आज’ न्योछावर करके हमारे ‘कल’ के लिए आजादी की बेजोड़ जंग छेड़ी थी। तभीे हम 62 साल पहले आजाद हुए। पर, इतने साल में हमारे सत्ताधारी व प्रतिपक्षी नेताओं ने इस देश के साथ क्या-क्या किया? कैसा सलूक किया? देश के लिए कितना और अपने निजी लाभ के लिए कितना कुछ किया? आजादी के बाद सत्ता में आए अधिकतर नेताओं ने मिलजुल कर या फिर बारी -बारी से, परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से, जाने या अनजाने तौर पर देश मंे आज एक अजीब दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ला दी। इस स्थिति में आज इस देश में ‘आजादी बचाओ’ आंदोलन’ शुरू करने की सख्त जरूरत आ पड़ी है। यानी, हमने 62 साल में ‘आजादी लाओ’ से ‘आजादी बचाओ’ तक का ही सफर तय किया है।

ऐसा नहीं है कि इस देश को एक बार फिर ‘सोने की चिड़िया’ बना देने की देशवासियों में क्षमता नहीं है। शत्र्त है कि हमारे नेताओं में ईमानदारी होनी चाहिए। सन 1700 में विश्व जी.डी.पी. में भारत का हिस्सा 24 दशमलव 40 प्रतिशत था। पर ताजा उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार यह घटकर अब मात्र पांच प्रतिशत रह गया है। हां, इसी देश के हर क्षेत्र के चुने हुए प्रभावशाली लोगों की निजी संपत्ति आजादी के बाद बेशुमार बढ़ रही है। करोड़पतियों की संख्या इस देश में अब एक लाख तक पहुंच चुकी है। अरबपतियों की संख्या एक सौ पहुंच रही है। हालांकि यह सरकारी आंकड़ा ही है। काले धन वाले करोड़पतियों की संख्या तो और भी अधिक है। दूसरी ओर, योजना आयोग के अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्त के अनुसार इस देश में करीब 84 करोड़ लोगों की रोजाना औसत आय बीस रुपये मात्र है।

जिस देश में इतनी अधिक आर्थिक व सामाजिक विषमता है, भीषण गरीबी और भुखमरी है, वहां की आजादी को कितने दिनों तक बचाए रखा जा सकेगा? यह सवाल अब पूछा जाने लगा है। इस विषमता के लिए कोई और नहीं, बल्कि हमारे वे शासक ही जिम्मेदार रहे हैं, जिनके हाथों में आजादी के बाद से देश व प्रदेशों की सत्ता रही है। सभी दल परोक्ष व प्रत्यक्ष रूप से सत्ता में रहे हंै। किसी के दामन साफ नहीं हैं। इस देश की मूल समस्या यह नहीं है कि इस देश में समस्या है। गंभीर समस्या यह है कि उसे दूर करने की कहीं से कोई ईमानदार कोशिश नजर नहीं आ रही है। यदि कहीं कोई कोशिश है भी तो वह अपवादस्वरूप ही है और ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। यह अधिक चिंताजनक बात है।

संविधान के भाग चार में राज्य के लिए कुछ निदेशक तत्वों का समावेश किया गया है। उसके अनुच्छेद -38(2) में कहा गया है कि ‘राज्य विष्टितया आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यक्तियों बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा।’

क्या इस देश के शासन ने गत 62 साल में ऐसा कोई प्रयास किया? बल्कि इससे उलट किया। नतीजतन विभिन्न जनसमूहों व क्षेत्रों के बीच असंतोष बढ़ता जा रहा है। लगता है कि हमारे शासकों में से अधिकतर लोगों की नजर में पैसे ही सब कुछ है। राजनीति पर आज पैसा जितना हावी है,उतना पहले कभी नहीं था। यह कोई संयोग नहीं है कि गत लोकसभा चुनाव के बाद करोड़पति सांसदों की संख्या बढ़ कर दुगुनी हो गई। मौजूदा लोकसभा में 300 करोड़पति हैं। कांग्रेस के 66 प्रतिशत और भाजपा के 50 प्रतिशत सांसद करोड़पति हैं। ये सांसद समाज के अंतिम आदमी के बारे में कितना सोचेंगे?

लोकतंत्र पर हावी होते धनतंत्र वाले इस देश में एक दिन में ऐसी स्थिति नहीं बनी। आजादी के तत्काल बाद से ही इसके लक्षण दिखाई पड़ने शुरू हो चुके थे। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू सेे एक बार जब यह कहा गया था कि आपके मंत्रिमंडल व प्रशासन में भ्रष्टाचार घर करने लगा है,इसलिए कोई एजेंसी बनाइए जो उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार पर नजर रखे। नेहरू जी के निजी सचिव के अनुसार पंडितजी ने इस पर कह दिया कि ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि इससे मंत्रियों में डिमोरलाइजेशन आएगा।

अब भला भ्रष्टाचार की गति को बढ़ने से कौन रोक सकता था? वह बढ़ता गया। खुद पंडित जी के मन में सार्वजनिक धन के प्रति कोई निजी लोभ नहीं रहा, पर अपनी बिटिया को देर-सवेर अपना उत्तराधिकारी बनाने का रास्ता वे साफ कर गये। इंदिरा गांधी 41 साल की उम्र में कांग्रेस कार्यसमिति की सदस्या और 42 साल की उम्र में कांग्रेस अध्यक्षा बना दी गईं। यह नेहरू की सहमति से हुआ। व्यक्तिगत ईमानदारी के मामले में इंदिरा गांधी नेहरू जी की तरह कतई नहीं थीं, इसलिए उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद सरकार में भ्रष्टाचार ने संस्थागत स्वरूप ग्रहण कर लिया। जब उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे, तो इंदिरा गांधी ने कहा भी था कि भ्रष्टाचार तो वल्र्ड फेनोमेना है। यह सिर्फ भारत में ही थोड़े ही है।’

प्रधानमंत्री की यह राय जब सार्वजनिक हो गई तब भ्रष्टों पर भला रोक कौन लगाता ? नतीजतन राजीव गांधी का शासनकाल आते -आते सरकारी भ्रष्टाचार की स्थिति ऐसी हो गई कि सौ में से मात्र 15 पैसे ही सरजमीन तक पहुंच पाते थे। ऐसी स्थिति एक दिन में नहीं आई कि विकास व कल्याण के मद के एक रुपये में से 85 पैसे बिचैलिए खा जाएं और वे किसी तरह की सजा से बच भी जाएं। ऐसा उच्चस्तरीय संरक्षण से ही संभव हो सकता था। यही बात भी थी। आज अनेक निष्पक्ष लोग यह मानने लगे हैं कि इस देश की सबसे बड़ी समस्या सरकारी भष्टाचार ही है। यह भी कहा जा रहा है कि यदि इंदिरा गांधी के बदले कोई अन्य ऐसा नेता सन् 1966 में प्रधान मंत्री बना होता जो भ्रष्टाचार के प्रति कठोर होता, तो इस देश की ऐसी दुर्दशा नहीं होती। चीन हमलोगों के दो साल बाद आजाद हुआ था। पर वहां भ्रष्टाचार के खिलाफ फांसी का प्रावधान किया गया। तभी वह देश बन सका।

पर उसके उलट हमारे देश में जिस व्यक्ति पर भ्रष्टाचार का जितना अधिक गम्भीर आरोप लगता है, उसके अपने क्षेत्र में उतनी ही अधिक तरक्की करने का चांस होता है। बासठ साल की आजादी में राजनीति को चार भागों में बांटा जा सकता है। पहले राजनीति सेवा थी। बाद में यह नौकरी हुई जब सांसद पेंशन की व्यवस्था की गई। उसके बाद यह व्यापार बनी और अब इसे उद्योग का दर्जा मिल गया। कुछ नेताओं की कुल निजी संपत्ति का विवरण देख कर यह स्पष्ट है।

यह अकारण नहीं है कि कई हस्तियों, समितियों और आयोगों की सिफारिशों व सलाहों के बावजूद सांसद क्षेत्र विकास निधि को समाप्त नहीं किया जा रहा है, जबकि राजनीति को दूषित करने में किसी एक तत्व का यदि आज सबसे बड़ा हाथ है, तो वह सांसद-विधायक फंड ही है। लोकतंत्र का आज यही स्वरूप है। विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों के काले धन के विवरण देने के लिए जर्मनी व लाइखटेंस्टाइन देशों की एकाधिक एजेंसी तैयार हंै। पर भारत सरकार ही सूचना लेने को तैयार नहीं है। इतना ही नहीं, भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के एक वरीय अफसर ने हाल में जर्मनी स्थित भारतीय राजदूत को एक सनसनीखेज पत्र लिखा। पत्र में यह लिखा गया कि वे भारतीय खातेदारों के नाम रिलीज करने के लिए जर्मन सरकार पर दबाव नहीं डालें। याद रहे कि एक लिस्ट जर्मन सरकार ने लाइखटेंस्टाइन के एल.जी.टी. बैंक के एक विद्रोही कर्मचारी से प्राप्त कर ली, जिसमें भारतीयों के वहां जमा काले धन का पूरा विवरण है। ऐसा अपने ही देश में संभव है कि सरकार इस देश को लूटने वाले काला धन वालों की खुलेआम मदद करे। एक अनुमान के अनुसार भारत के तीन प्रतिशत अमीरों ने 30 से 40 बिलियन डाॅलर विदेशों में नाजायज तरीके से जमा कर रखे हैं।

62 साल की आजादी की एक उपलब्धि यह भी है कि आयकर के अनेक मामलों को जानबूझ कर उलझा दिया जाता है, ताकि टैक्स चोरों को राहत मिल सके। गत 4 अगस्त, 2009 को राज्यसभा में यह बताया गया कि आयकर के एक लाख 41 हजार करोड़ रुपये के मामले कानूनी विवादों में उलझे हुए हैं। एक अनुमान के अनुसार इस देश के अमीर लोग हर साल नौ लाख करोड़ रुपये की टैक्स चोरी करते हैं। साथ ही बैंकों के खरबों रुपये व्यापारियों ने दबा रखे हंै और भारत सरकार या रिजर्व बैंक उनके नाम तक सार्वजनिक करने को तैयार नहीं है। इस तरह के अनेक उदाहरण हैं, जिसमें सरकार ही लूट की मददगार है। शुकसागर में ठीक ही लिखा गया है कि भारत में एक दिन ऐसा भी आएगा, जब राजा ही अपनी प्रजा को लूटेगा।

यह तो राजनीतिक कार्यपालिका, प्रशासनिक कार्यपालिका और व्यापार जगत की हालत है। न्यायपालिका के लोग भी अपनी निजी संपत्ति का विवरण सार्वजनिक करने को तैयार नहीं हो रहे हैं। इस पर न्यायपालिका में ही मतभेद है। इससे दुःखी होकर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे.एस. वर्मा ने सार्वजनिक रूप से मौजूदा चीफ जस्टिस से यह कहा है कि वे मेरी संपत्ति का विवरण वेबसाइट पर सार्वजनिक कर दें। श्री वर्मा ने कहा है कि मैंने पद संभालने के साथ ही मार्च, 1997 में अपनी संपत्ति का विवरण सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को सौंप दिया था। पूर्व चीफ जस्टिस यह चाहते हैं कि जजों, उनके परिजनों की संपत्ति का विवरण सार्वजनिक करना न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए ठीक रहेगा। अब देखना है कि कितने जज श्री वर्मा की सलाह मानते हैं।

पर ऐसी घटनाओं से लगता है कि पूरे कुएं में भांग पड़ी हुई है और इस देश के लिए ये अच्छे लक्षण नहीं हैं।

काश, आजादी के वीर बांकुरे सत्ता में आने के तत्काल बाद इस मामले में कड़ाई दिखाते तो हालात इतने नहीं बिगड़ते। आज तो हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि देश के 186 जिलों में नक्सली हावी हो चुके हैं और उनसे निपटने के लिए सेना की मदद ली जा रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि नक्सली समस्या सामाजिक-आर्थिक समस्या है। यदि इस देश की सरकार में भीषण भ्रष्टाचार नहीं होता, तो सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को हल करने में सुविधा होती।

दूसरी समस्या आतंकवाद और विदेशी घुसपैठियों की है। आतंकवाद से निर्णायक ढंग से लड़ने में वोट बैंक की राजनीति बाधक है। साथ ही हमलावर आतंकवादियों पर प्रति-हमला करने में हमारी शिथिलता और भ्रष्टाचार बाधक है। चूंकि आम तौर पर दोषियों को सजा नहीं मिलती, इसलिए एक ही तरह की गलती बार -बार इस देश में होती है।

मुम्बई के ताज होटल पर जब आतंकी हमला हुआ तो एन.एस.जी. कमांडो को दिल्ली से मुम्बई भेजने में साढ़े आठ घंटे लग गये। इससे पहले जब कंधार विमान अपहरण हुआ, तो अपहृत विमान को अमृतसर में इसलिए नहीं रोका जा सका, क्योंकि समय पर उच्चत्तम स्तर पर कार्रवाई करने का कोई फैसला ही नहीं हो सका। क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक विमान में थे और उसमें सेटेलाइट फोन नहीं था। वही कोई फैसला करते।

इतना ही नहीं सैन्य व पुलिस बल को उपलब्ध कराने के लिए जो बुलेट प्रूफ जैकेट दिए जाते हैं, वे बुलेट को रोक ही नहीं पाते। क्योंकि उसकी खरीद में भ्रष्टाचार होता है और कमीशन के चक्कर में घटिया बुलेट प्रूफ आते हैं। शर्मनाक बात यह है कि देश की रक्षा के मामले में भी हो रहे शिथिलता,राजनीति और भ्रष्टाचार के आरोपितों पर आम तौर पर कोई कार्रवाई नहीं होती। बासठ साल में यहां तक पहुंच चुके हैं हम। फिर कैसे बचेगी हमारी आजादी? यह आजादी बड़ी कीमत देकर हासिल की गई हे। इसे हम सिर्फ पंद्रह अगस्त और 26 जनवरी को याद करके अपने कत्र्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। पर हमें इस बात की पड़ताल करनी होगी कि जिस देश के 99 प्रतिशत नेता बेईमान हैं और अनेक प्रभावशाली लोग इस देश को लूट कर विदेशों में पैसे जमा कर रहे हैं, उनके हाथों में आजादी कितनी सुरक्षित है?

(दैनिक जागरण के पटना संस्करण से साभार-15 अगस्त, 2009)

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

जस की तस धर दीनी चदरिया

‘जस की तस धर दीनी चदरिया।’डी.एन.गौतम जब आज रिटायर हो रहे हैं तो कबीर की उपर्युक्त उक्ति सहसा याद आ रही है।काश इस लोकतंत्र में अफसर के बदले नेता के लिए इस उक्ति का ं अक्सर इस्तेमाल करने का मुझे अवसर मिलता !ऐसा होता तो मुझे और भी अच्छा लगता।

बिहार के एक प्रमुख नेता ने गौतम के लिए इससे भी बेहतर बात कभी कही थी।वह बात कर्पूरी ठाकुर ही कह सकते थे।उन्होंने बिहार विधान सभा में कहा था कि के.बी.सक्सेना और डी.एन.गौतम जैसे अफसर गरीबों के लिए भगवान की तरह हैं।कर्पूरी ठाकुर के बारे में भी यह कहा जा सकता है कि उन्होंने ‘तस की तस धर दीनी चदरिया।पर जस की तस चदरिया को धर देने के लिए जो जतन करना पड़ता है,वह जतन करते हुए मैंने कर्पूरी ठाकुर को करीब से देखा था।गौतम साहब से मेरा कोई खास हेल -मेल नहीं रहा। वे कोई प्रचार प्रिय हैं भी नहीं।पर, उनके बहादुरी भरे कामों पर मैंने उनके सेवा के प्रारंभिक काल से ही गौर किया है।पूत के पांव पालने में ही प्रकट हो गये थे।यदि कोई सरकार सड़क के किनारे- किनारे मजबूत नालियां भी बनवाना शुरू कर दे तो समझिए कि उसका मूल उददेश्य सिर्फ लूटपाट नहीं है।उसी तरह जिस अफसर की भ्रष्ट नेता और माफिया तत्व आलोचना करने लगंे तो समझिए कि वह अपना काम कर रहा है और उसे अपने वेतन मात्र पर ही संतोष है।

ईमानदार तो और कई लोग भी हैं जिन्हें मैं जानता हूं और कई ऐसे लोग भी होंगे जिन्हें मैं नहीं जानता।पर उनमें से अधिकतर निष्क्रिय ईमानदार ही हैं।सक्रिय ईमानदारी से ही जनता को लाभ मिलता है।निष्क्रिय ईमानदारी से खुद को संतोष मिलता है।डी.एन.गौतम की खूबी रही कि वे सक्रिय ईमानदार रहे।

इसीलिए वे अक्सर निहितस्वार्थियों के निशाने पर रहे।पर बिहार की जनता में वे किसी अच्छे नेता की तरह ही लोकप्रिय रहे।उत्तर प्रदेश के हमीर पुर जिले के मूल निवासी गौतम जी 1974 बैच के आई.पी.एस. हैं।उन्होंने एम.एससी.और पीएच.डी. भी किया है। पता नहीं कि वे रिटायर होने के बाद कहां बसेंगे ! यदि वे बिहार में रहते तो कई लोगों को प्रेरित करते रहते।सारण,मुंगेर और रोहतास जिले के एस.पी.के रूप में उन्होंने जिस तरह की कत्र्तव्यनिष्ठता दिखाई ,उससे इस राज्य के निहितस्वार्थी सत्ताधारियों को यह लग गया कि ऐसे अफसर को कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देनी खतरे से खाली नहीं हैं।इसीलिए जब नीतीश कुमार ने उन्हें गत साल पुलिस प्रधान बनाया तो अनेक लोगों ने मुख्य मंत्री की हिम्मत की दाद दी।ऐसा अफसर जो गलत काम कर ही नहीं सकता,उसे पुलिस प्रमुख बना कर बेहतर छवि वाले नीतीश कुमार ने अपनी छवि और भी निखारी।गौतम जी ऐसे अफसर हैं जो यदि किसी खास पद पर जाकर बहुत कुछ करामात नहीं भी कर सकें तो एक बात तो तय है कि जिस उंची कुर्सी पर वे बैठे,उसे घूस कमाने का जरिया तो नहीं बनने दे सकते।इसका भी असर नीचे तक कुछ न कुछ होता है।

पुलिस प्रमुख के रूप में देवकी नंदन गौतम का कुल मिलाकर कैसा अनुभव रहा,यह तो कभी बाद में वे बता सकते हैंे,पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि उनके खिलाफ उनकी सेवा अवधि के अंत -अंत तक ऐसा कोई अशोभनीय विवाद नहीं हुआ जिससे उनकी छवि को धक्का लगा हो।वह भी ऐसे समय में जब मनोनीत डी.जी.पी.आनंद शंकर को यह कहना पड़ रहा है कि पुलिसकर्मी वेतन पर ही संतुष्ट रहना सीखें।खुशी की बात है कि आनंद शंकर जी ने बीमारी न सिर्फ पकड़ी है,बल्कि उसका सार्वजनिक रूप से एजहार भी कर दिया है।पर, यह बीमारी उपर भी तो है।एक परिचित थानेदार ने कुछ साल पहले मुझे बताया था कि उसने अपने अब तक के सेवाकाल में दस एस.पी.के मातहत काम किया।पर एक डा.परेश सक्सेना को छोड़कर अन्य सभी नौ एस.पी.ने मुझे तभी थाना प्रभारी बनाया जब उन्हें रिश्वत दी गई।जिस राज्य में भ्रष्टाचार का यह हाल है,वहां डी.एन.गौतम को अपनी चदरिया जस की तस धर देने के लिए कितनी जतन करनी पड़ी होगी,इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है।

बिहार का सौभाग्य होगा यदि गौतम की तरह काम करने की कोशिश करने वाले दस -बीस आई.पी.एस.अफसर यहां मिलें।अपराध और भ्रष्टाचार से निर्णायक लड़ाई का इस राज्य में यह संक्रमण काल भी है।अगले कुछ समय में पता चल जाएगा कि किसकी जीत हुई।अभी भ्रष्ट तत्व तो नहीं,पर अपराधी जरूर दबाव में हैं।डी.एन.गौतम वैसे अफसरों के लिए प्रेरणा पुरूष साबित होंगे जो अफसर अपराधी और भ्रष्ट तत्वों के खिलाफ मजबूती से उठ खड़े होंगे।इससे उनका इस लोक के साथ साथ वह लोक भी संवर जाएगा।गौतम ने जो पूंजी कमाई है,उसे भला कौन लूट सकता है ? घूसखोरी से बनी पूंजी को तो एक न एक दिन चोर-डकैत, ,विजिलंेस या फिर नालायक संतान द्वारा लूट लिए जाने से कम ही लोग बचा पाते हैं।यदि बचा भी पाए तो वे अपनी अगली कई पीढ़ियों को अपराध बोध की पूंजी जरूर दे जाते हैं।

हां,ईमानदारी से अपने काम करने के सिलसिले में तरह -तरह के कष्ट और तनाव जरूर होते हैं,पर उसके लिए गीता जैसी ‘ तनाव व दर्दनाशक दवा हमारे पूर्वजों ने हमें दे ही रखी है।इसी क्रम में गौतम साहब की सेवा अवधि से जुड़े कुछ संस्मरण यहां पेश हैं।सारण जिले से जब डी.एन.गौतम का समय से पहले तबादला कर दिया गया तो वे छपरा से पटना सड़क मार्ग से आ रहे थे।किसी ने तब मुझे बताया था कि जिसे भी पता चला कि गौतम साहब इस मार्ग से लौट रहे हैं तो वह सड़क के किनारे उन्हें देखने के लिए खडा हो गया।प्रत्यक्षदर्शी ने ,जो गौतम जी का स्वजातीय भी नहीं था,़बताया कि कई लोग उसी तरह रो रहे थे जिस राम के वनवास के समय अयोध्यावासी के रोने की चर्चा रामायण में है।इस घटना ने यह बात भी बताई कि बिहार में बड़े अपराधियों और उनके संरक्षक नेताओं से लड़कर उन्हें कमजारे कर देने की कितनी अधिक जरूरत जनता महसूस करती है।ऐसे ही तत्वों से तो लड़ते हुए गौतम साहब समयपूर्व तबादला ही झेलते रहे।

रोहतास और मुंगेर में भी यही हुआ।मुंगेर में 16 मई 1985 को डी.एन .गौतम ने एस.पी.का पदभार ग्रहण किया ।पर जब उन्होंने भ्रष्ट व अपराधी तत्वों के खिलाफ सख्त कार्रवाई शुरू की तो 9 जुलाई 1986 को उन्हें मुंगेर से हटा दिया गया।

दिलचस्प कहानी हजारीबाग पुलिस प्रशिक्षण कालेज में प्राचार्य के रूप में डी.एन.गौतम की तैनाती के बाद सामने आई।सन् 1994 की बात है।पटना में पहले से ही इस बात की चर्चा थी कि दारोगा की बहाली में इस बार घोर अनियमितता बरती जा रही है। आखिरकार नवनियुकत 1640 दारोगाओं ंको प्रशिक्षण के लिए हजारीबाग भेज दिया गया। इनमें से करीब चार सौ दरोगाओं को प्रशिक्षण कालेज में भर्ती करने से ही गौतम साहब ने साफ इनकार कर दिया। यह अभूतपूर्व स्थिति थी।क्योंकि गौतम के अनुसार वे दारोगा बनने लायक थे ही नहीं ।कुछ की तो निर्धारित मापदंड के अनुसार शरीर की उंचाई तक नहीं थी। इधर उन दारोगाओं को प्रशिक्षण दिलाना कई प्रभावशाली लोगों के लिए जरूरी था।इसीलिए आनन फानन में डी.एन.गौतम को प्राचार्य पद से हटाकर पटना पुलिस मुख्यालय में तैनात कर दिया गया।जो हो,इसी तरह राम राम कहते -कहते गौतम जी सेवा करते रहे।अब उनका ध्यान गीता और विवेकानंद की ओर अधिक जाए तो वह स्वाभाविक ही है।यह देश और प्रदेश ऐसे ‘मानव संसाधन’ की घोर कमी के कारण ही तो दुर्दशा को प्राप्त हो रहा है !

उनकी कत्र्तव्यनिष्ठता के लिए बिहार की ईमानदार जनता की ओर गौतम साहब को हार्दिक धन्यवाद।

प्रभात खबर / 31 जुलाई 2009 /से साभार

काठ की हांडी फिर चढ़ा रहे हैं लालू

कभी के राजनीतिक महाबली लालू प्रसाद को इस बार लोक सभा की पिछली बंेच पर जगह दी गई है। बिहार की राजनीति में तो वे पहले ही पिछली कतार में पहुंच चुके हैं।क्या वे फिर कभी पहले की तरह राजनीति की अगली कतार में पहुंच पायेंगे ?

खुद लालू प्रसाद ने पिछले महीने ही कहा कि ‘राजनीतिक तौर पर मेरे सफाये की भविष्यवाणी गलत ही साबित होगी। मेरा दल छोड़ कर जिसको जिस दल में जाना है,जाए।मैं जीरो से शुरू करूंगा। पार्टी को काॅडर आधारित बनाउंगा। 18 से तीस साल तक उम्र के युवकों को पार्टी में शामिल करूंगा। उनका टास्क फोर्स बनाउंगा और तीस प्रतिशत युवकों को चुनाव में टिकट दूंगा और फिर सत्ता में वापस आउंगा।’

सच यही है कि लालू प्रसाद की एक समय में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक व ऐतिहासिक भूमिका थी,जिसको उन्होंने पूरा भी किया। पर अब उनकी भूमिका और राजनीतिक उपयोगिता भी लगभग समाप्त हो चुकी है।दरअसल जिस शैली की राजनीति के लालू प्रसाद अभ्यस्त रहे हैं,वह शैली उसी तरह पुरानी पड़ चुकी है जिस तरह एलसीडी टी.वी .के इस दौर में पुराने रेडियो व ट्रांजिस्टर घर के अंधेरे कोने में रख दिए जाते हंै।सन् 1990 में मंडल आरक्षण आंदोलन के ऐतिहासिक मोड़ पर मुख्य मंत्री के रूप में लालू प्रसाद ने आरक्षण समर्थकों के कठिन आंदोलन का बहादुरी से नेतृत्व दिया था।उसी के कारण वे पिछड़ा आबादी बहुल प्रदेश बिहार की राजनीति के महाबली भी बने थे।तब आरक्षण विरोधी सवर्णों ने बिहार में आरक्षण के खिलाफ तीखा आंदोलन चला रखा था।मुख्य मंत्री पद पर रहते हुए लालू प्रसाद ने सड़कों पर उतर कर आरक्षण विरोधियों को उससे भी अधिक तीखे स्वर में न सिर्फ जवाब दिया बल्कि कुछ स्थानों में तो खड़े होकर आरक्षण विरोधियों को अपने समक्ष पुलिस से बुरी तरह पिटवाया।इससे आम पिछड़ों को लगा कि पिछड़ों के हक में खड़ा होने वाला इतना मजबूत नेता पहली बार सामने आया है।

पर इस आंदोलन के कारण मिली अपार राजनीतिक ताकत का लालू प्रसाद ने लगातार दुरूपयोग ही किया।नतीजतन उन्हें कई बार जेल तक जाना पड़ा और अब भी वे भ्रष्टाचार से संबंधित अनेक मुकदमों के अभियुक्त हैं।लालू प्रसाद अपने त्याग, तपस्या और सकारात्मक राजनीतिक कर्माे के कारण तो मुख्य मंत्री बने भी नहीं थे।उन्हें तो देवी लाल -शरद यादव की जोड़ी ने प्रत्यक्ष रूप से और चंद्र शेखर ने परोक्ष रूप से मदद कर बिहार का मुख्य मंत्री बनवाया था। आरक्षण विरोधी आतुर सवर्णों ने तीखा आंदोलन करके लालू प्रसाद को पिछड़ों का मसीहा बन जाने का अनजाने में मौका दे दिया।बाद में चारा घोटाले का अभियुक्त बनने के बाद और जनता दल में विभाजन के पश्चात कांग्रेसियों ने लालू प्रसाद की गद्दी बचाई और वे लगातार वर्षों तक बचाते रहे। उस बीच राज्य में विकास थम गया,अपराधियों का बोलबाला बढ़ गया।सिर्फ बात बना कर काम चलाया जाने लगा।लालू प्रसाद की मदद में कम्युनिस्ट भी आगे रहे।यदि कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों ने यह शत्र्त रखी होती कि आप की गद्दी हम तभी बचाएंगे जब आप अपनी राजनीतिक और प्रशासनिक शैली बदलेंगे तो लालू प्रसाद और बिहार का भला होता।

बिहार जैसे अर्ध सामंती समाज में लालू प्रसाद ने पिछड़ों को सीना तान कर चलना जरूर सिखाया,पर उनके खाली पेट में अन्न के दो दाने डालने का प्रबंध नहीं किया जिससे पिछड़े एक -एक करके लालू प्रसाद से उदासीन होते चले गये।सन् 2000 के बाद तो लालू प्रसाद के वोट हर अगले चुनाव में घटते गये।गत लोक सभा चुनाव में तो उनके दल को सिर्फ 19 प्रतिशत मत मिले। क्योंकि इस बीच आम लोगों ने साम्प्रदायिकता के खतरे की अपेक्षा भीषण सरकारी भ्रष्टाचार, अविकास और राजनीति के अपराधीकरण के खतरे को अधिक गंभीर माना।अब देर से सही, पर समय बीतने के साथ कांग्रेस सहित अनेक सहयोगी दल व नेता गण लालू प्रसाद का साथ बारी- बारी से छोड़ते चले जा रहे हैं तो लालू प्रसाद अकेला पड़ रहे हैं।इस बदले माहौल में यदि कांग्रेस ने राम विलास पासवान को मिला लेने में सफलता पा ली तो बिहार मंे ंइस बात के लिए प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाएगी कि किसी अगले चुनाव मंे ंकांग्रेस और राजद में से कौन सा दल एक दूसरे से आगे रहेगा।अभी राजद बिहार का मुख्य प्रतिपक्षी दल है।हालांकि गत लोक सभा चुनाव में वह विधान सभा की कुल 243 सीटों में ंसे सिर्फ 33 सीटों पर ही बढ़त बनाने में सफल हो पाया।उसकी ताकत भविष्य में और भी घटने की उम्मीद है क्योंकि उसके विधायक, पूर्व विधायक और गैर विधायक नेता राजद छोड़ते जा रहे हैं।

दरअसल लालू प्रसाद की मूल समस्या उनकी शैली है।उनकी राजनीतिक शैली के कुछ नमूने यहां पेश हैं।वे जब बिहार में सत्ता में थे तो राजनीति के अपराधीकरण पर वे कहा करते थे कि ‘जनता ने जिसको वोट दिया,वह कहां का अपराधी ?’ जब उनसे कहा गया कि सी.बी.आई.ने चारा घोटाले में आप पर केस किया है ,क्या आप मोरल ग्राउंड पर इस्तीफा देंगे ?उनका जवाब होता था,‘ फुटबाॅल ग्राउंड तो होता है, यह मोरल ग्राउंड क्या होता है ? अरे यार, राजनीति प्रमुख होती है।नैतिकता क्या चीज है ?’जब कोई पिछड़े बिहार का विकास करने के लिए कहता था तो वे कहते थे कि ‘विकास से वोट नहीं मिलता।सामाजिक समीकरण से वोट मिलता है।’उनकी यह शैली आज भी नहंीं बदली।यदि शैली बदलने की उनकी इच्छा होती तो वे सबसे पहले राबड़ी देवी को विधान सभा में प्रतिपक्ष की नेता पद से हटवा कर उनकी जगह किसी काबिल व दबंग नेता को बैठाते।

इसके विपरीत अपराध,भ्रष्टाचार और विकास के बारे में नीतीश कुमार की शैली लालू प्रसाद से बिलकुल उलट है। इस शैली को जनता ेने पसंद किया है क्योंकि आम लोगों ने यह समझा है कि भले नीतीश कुमार को कई मामलों में सफलता अब भी नहीं मिल रही है,पर उनकी मंशा सही है।इसीलिए पिछले आम चुनाव में राजग को बिहार में 40 में से 32 सीटें मिली हैं।

सन् 2005 में सत्ता में आने के बाद नीतीश कुमार की सरकार ने पिछड़े समुदाय के आर्थिक व राजनीतिक हित के लिए कम ही समय में लालू प्रसाद की अपेक्षा अधिक काम किया है।साथ ही समावेशी विकास योजनाओं का लाभ सवर्ण सहित पूरे समाज को समरूप ढंग से थोड़ा- बहुत मिल रहा है।यही है नीतीश की वैकल्पिक शैली जिसका मुकाबला लालू तो दूर कांग्रेस तक को करने में दिक्कत आ रही है।इसके मुकाबले लालू प्रसाद का रास्ता तो और भी कठिन है।

/दैनिक हिंदुस्तान 28 जुलाई 2009 से साभार/