रविवार, 31 दिसंबर 2017


  मेरा हमेशा ही यह मानना रहा है कि भारत जैसे गरीब देश के लिए भ्रष्टाचार सबसे बड़ी समस्या है।
  सरकारी और गैर सरकारी भ्रष्टाचार भुखमरी पैदा करता है ।या, पहले से जारी भुखमरी को बढ़ाता है।उनमें से कुछ लोग भुखमरी से बचने के लिए माओवादी बनते हंै तो कुछ अन्य लोग आतंकवादी।कुछ लोग अपराधी बन जाते हैं।कुछ अन्य गलत धंधे में लग जाते हैं।मरता, क्या न करता !
  हत्या करने वालों के लिए तो इस देश में फांसी का प्रावधान है।पर भ्रष्टाचार करके हजारों लोगों को रोज परोक्ष रुप से भूख से मार देने वालों के लिए ऐसी सजा नहीं है। आखिर क्यों ?
  जब सिर्फ जेल भेजने से भी भ्रष्ट लोगों में कोई सुधार नहीं हो रहा हो, तो देश को बचाने के लिए फांसी के अलावा और क्या उपाय है ? चीन के एक बड़े नेता ने हाल में कहा है कि यदि हमारे देश में भ्रष्टाचार इसी तरह बढ़ता रहा तो हमारा देश भी सोवियत संघ की तरह बिखर जाएगा।
जिस देश में भ्रष्टाचार के लिए फांसी का प्रावधान है,वहां तो भ्रष्ट लोग काबू में नहीं आ पा रहे हैं,और अपने देश में तो फांसी है नहीं,फिर अपने यहां के हर स्तर के भ्रष्टों की निश्चिंतता देख लीजिए।
  संभव है कि चीन खुद को बिखरने से बचाने के लिए फांसी के अलावा भी कुछ अन्य कठोर दंडों के बारे में सोच- विचार कर रहा होगा।हम क्या कर रहे हैं।
यहां के तो भ्रष्ट सिस्टम में मौजूद अत्यंत थोड़े से ईमानदार सत्ताधारी नेता व अफसर ,भ्रष्टाचारियों  की अपार ताकत के सामने खुद को लाचार पा रहे हैं।
 उत्तर प्रदेश के पूर्व डी.जी.पी.प्रकाश सिंह ने एक टी.वी.टाॅक शो में एक बार एक बड़ी बात कही थी।एक रिसर्च संस्था की जांच रपट का हवाला देते हुए श्री सिंह ने कहा था कि जब एक व्यक्ति को फांसी पर चढ़ाया जाता है तो हत्या के लिए उठे अन्य सात हाथ रुक जाते हैं। 
पूर्व आई.ए.एस.अधिकारी एन.सी.सक्सेना का कहना है कि इस देश में भ्रष्टाचार अभी अधिक लाभ और कम खतरे का सौदा है।
  एक व्यक्ति  ने अपने एक भ्रष्ट अधिकारी मित्र से पूछा कि आप भ्रष्टाचार करके बार -बार जेल जाते हो,निलंबित होते हो,फिर भी यह काम  नहीं छोड़ते हो ? ऐसा क्यांे ? उसने जवाब दिया कि मैं समझता हूं कि ‘जेल जाना भी मेरी ड्यूटी का ही हिस्सा है।’
  जब कभी भ्रष्टाचार की बात करो तो कुछ लोग कहने लगते हैं कि जनता ही भ्रष्ट हो चुकी है।
  अरे भई, जब जनता के हाथों में ही सब कुछ है तो नेता, पुलिस, प्रशासन और अदालत किसलिए है ?
इसकी स्थापना ही यही मान कर हुई थी कि  जनता के बीच के भ्रष्ट,देश द्रोही  और अपराधी तत्वों को कंट्रेाल करने की जरूरत पड़ेगी ही।
  साठ के दशक में एक अमरीकी प्रोफेसर पाॅल रिचर्ड ब्रास ने उत्तर प्रदेश में गहन रिसर्च करके लिखा था कि  आजादी के बाद सत्ताधारी नेताओं ने ही अपने स्वार्थ में भ्रष्टाचार को ऊपर से ही नीचे तक फैलाया।
  कुछ लोग कहते हैं कि जब तक जनता का विवेक नहीं जगेगा, तब तक भ्रष्टाचार नहीं रुकेगा।
 पर सवाल है कि वह कैसे जगेगा ?
हजारों -हजार  साधु,संत और अवतारी पुरूष सदियों से विवेक जगाने की कोशिश करते रहे हैं।फिर भी स्थिति बिगड़ती जा रही है।
   1857 के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन के बाद इस देश की जनता भी निराश होकर लगभग सो गयी थी। क्योंकि झांसी की रानी और वीर कुंवर सिंह जैसे नेता बाद में नहीं मिले।
  पर जब मोहनदास करमचंद गांधी का आगमन हुआ तो जनता जग गयी और देश आजाद हो गया।
 पर लोगों को जगाने और अच्छे काम के लिए प्रेरित करने के लिए नेता चाहिए और उसके  पास महात्मा गांधी जैसे निःस्वार्थी चरित्र भी  चाहिए।
गांधी का जीवन ही उनका संदेश था।आज कितने नेताओं का जीवन सकारात्मक  संदेश है ?
   सत्ताधारी नेताओं के पास अच्छे या बुरे काम करवाने के लिए यदाकदा सत्ता की ताकत मिल जाती है।
जो भी सत्ताधारी नेता निःस्वार्थी होकर कुछ अच्छे काम करने लगता है,तो जनता उस पर मोहित हो जाती है।
  इस संबंध में एक कहावत मुझे सही लगती है।
  दुनिया के हर देश,हर काल और हर जातीय समूह में तीन तरह के लोग होते हैं। दस प्रतिशत लोग अत्यंत ईमानदार होते हैं।दस प्रतिशत लोग अत्यंत बेईमान होते हैं।
बाकी अस्सी प्रतिशत लोग पिछलग्गू होते हैं।
यदि अत्यंत ईमानदार लोगों के बीच से  शासक पैदा होते हैं तो अस्सी प्रतिशत उनके पीछे लग जाते हैं।इसके विपरीत यदि अत्यंत बेईमान लोगों के पास सत्ता आ जाती है तो फिर अस्सी प्रतिशत उसी ओर चले जाते हैं या फिर मौन हो जाते हैं। 
  

शनिवार, 30 दिसंबर 2017

टाइम्स ग्रूप ने हाल में आॅनलाइन सर्वेक्षण किया था।
सर्वे का नतीजा टाइम्स आॅफ इंडिया के 16 दिसंबर 2017 के अंक में प्रकाशित हुआ ।
  नतीजा यह है कि देश के 79 प्रतिशत लोग 2019 के लोक सभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को वोट देना चाहते हैं।
20 प्रतिशत लोग राहुल गांधी के पक्ष में हैं।
 पर ध्यान रहे कि यह आॅनलाइन सर्वे है।
इससे साफ है कि इनमें अधिकतर शहरी लोगों ने हिस्सा लिया होगा।
पर गांवों के लोग 2019 में क्या करेंगे ? यह देश तो गांवों में बसता है।
वहां तो चुनावों में कई तरह के तत्व, भावनाएं  व घटक प्रभावी होते  हैं।
 खबर है कि शायद इसी कमी को ध्यान में रखते हुए कें्रद्र सरकार  दो अन्य महत्वपूर्ण काम जल्द करना चाहती है। एक है महिला आरक्षण विधेयक ।उसे पास कराना चाहती है।और दूसरा है ओ.बी.सी.के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत आरक्षण के कोटे को तीन हिस्सों में बांटने का काम।
कुछ राजग नेताओं को उम्मीद है कि ये दोनों काम हो जाने पर गांव-शहर हर जगह उसके वोट बढेंगे।देखते जाइए  ! राजग की यह उम्मीद पूरी होती भी है या नहीं ! 

शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017


  इस महीने का ‘तापमान’ देर से आया।यानी मुझे कुछ अधिक ही प्रतीक्षा करनी पड़ी।इस चर्चित मासिक पत्रिका की प्रतीक्षा रहती है।
इस बार जब देर होने लगी तो अचानक मुझे याद आया कि 
चारा घोटाले का अदालती निर्णय ही 23 दिसंबर को आने को है।
उसे कवर करना जरूरी था।
जब आया तो देखा कि लालू प्रसाद पर विस्तृत कवरेज है।पठनीय है।
 लालू प्रसाद पर तो कोई भी खबर पठनीय होती है।
 पर तापमान तो वैसे भी हर माह पठनीय खबरें जुटा लेता  है।चाहे लालू कवर पर हों या नहीं।
  पटना से प्रकाशित इस पत्रिका की कई विशेषताएं हैं।पर सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह पूरे बिहार की राजनीतिक खबरों का  आईना है।कैपसूल है।
पटना के दैनिक अखबारों के अनेक स्थानीय संस्करणों में विभक्त हो जाने के कारण पटना में बैठा कोई पाठक पूरे बिहार की सारी महत्वपूर्ण और भीतरी खबरें नहीं जान पाता।‘तापमान’ विभिन्न जिलों की महत्वपूर्ण खबरें हर माह छापता रहता है।खास कर राजनीतिक खबरें।अपराध की खबरों की अलग से चर्चा मैंने इसलिए नहीं की क्योंकि कई बार दोनों एक दूसरे में आम तौर पर समाहित रहते हैं।
   ‘तापमान’ में ऐसी खबरें रहती  हंै जिन खबरों को लिखने और छापने के लिए अतिरिक्त हिम्मत की जरूरत होती है।
  यह सब ‘तापमान’ के संपादक की देन है।
अविनाश चंद्र मिश्र पहले  दैनिक ‘आज’@पटना@ के संपादक थे।अच्छी प्रतिष्ठा है।अविराम काम करते हैं।विनम्र हैं ।उनके समाने जाकर कोई खुद को छोटा महसूस नहीं करता।इसलिए उनके पास बुद्धिजीवी जुटते रहते हैं।
 17 साल पहले जब उन्होंने यह पत्रिका शुरू की तो उन्होंने एक अच्छे नाम का भी  चयन कर लिया -‘तापमान।’वैसे इसका पूरा नाम समकालीन तापमान है।पर हम सब उसे तापमान ही कहते हैं।
इसका अच्छा -खासा सर्कुलेशन है।
बिहार और झारखंड के अलावा यह कुछ अन्य स्थानों में भी जाता है।
इसमें कुछ नामी -गिरामी  और तेज -तर्राट पत्रकार लिखते हैं।सामग्री रोचक रहती है।
यह सबकी खबर लेता है और सबको खबर देता है।
  किसी पूंजी घराने से इतर के किसी प्रकाशन का इतने लंबे समय से अविराम प्रकाशन ध्यान खींचता है।
  तापमान की सफलता  पर कई साल से कुछ लिखने की इच्छा थी।यह काम नहीं कर सका।अब जब सोशल मीडिया का सहारा है तो क्यों नहीं अविनाश जी और उनकी टीम को इस सफल व आकर्षक प्रकाशन के लिए बधाई दे दूं ।निरंतर सफलता की शुभकामना भी है।


      

  देश की सभी भाजपा शासित राज्य सरकारें उन लोगों के लिए पेंशन देने की योजना बना रही हंै जो 1975-77 के आपातकाल में जेलोें में बंद थे।
हालांकि बिहार सहित दो-तीन  राज्यों में पहले से ही यह सुविधा मिल रही है।
इस संबंध में मेरी यह राय रही है कि वैसे सभी राजनीतिक कर्मियों के लिए पेंशन की व्यवस्था होनी  चाहिए चाहे वे जिस किसी दल के हों और अहिंसक जन आंदोलनों में शामिल होने के कारण जेल गए हों। 
 इससे  सांसद-विधायक फंड के ठेकेदारों का दबदबा राजनीति में घटेगा।
 कुछ राजनीतिक दल धन्ना सेठों से अरबों रुपए का चंदा लेते हैं।उनके कुछ नेता चार्टर प्लेन से चलते हैं।उन चंदों का किसी को वे हिसाब तक नहीं देते।पर, उनके कई ईमानदार कार्यकत्र्ता कुछ  सौ -हजार रुपए के लिए तरसते हैं।
 या तो वे कार्यकत्र्ता अपने घर से पैसे खर्च करके राजनीति करें या फिर दलाली से पैसे कमाएं।
ये करोड़पति राजनीतिक दल हर जिले में अपने कुछ चुने हुए  कार्यकत्र्ताओं को पार्टी फंड से गुजारा भत्ता क्यों नहीं देते ?
   

बिहार के सभी गांवों में बिजली एक युगांतरकारी घटना-----


 उपेक्षित दाना पुर दियारे के गांवों  के लोग इन दिनों बहुत खुश हैं।राज्य के अन्य गांवों के साथ-साथ उनके यहां भी बिजली पहुंच गयी है।इतनी जल्दी वे इसकी उम्मीद नहीं कर रहे थे।
पर यदि केंद्र और राज्यों में काम करने वाली सरकारें हों,तो कुछ भी असंभव नहीं ।मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने 2012 में ही कह दिया था कि यदि बिजली  की स्थिति सुधार नहीं सकूंगा तो अगली बार वोट मांगने नहीं आऊंगा।उनका वायदा पूरा हुआ।अब उपभोक्ताओं पर निर्भर है कि वे अपनी जिम्मेदारी निभाते जाएं।
  यानी, राज्य सरकार तो इस काम में लगी हुई थी ही,इस बीच केेंद्र की मोदी सरकार ने भी बिजलीकरण की गति तेज कर दी। इसका श्रेय केंद्र सरकार को मिल रहा है।
याद रहे कि 15-20 साल पहले तक बिहार के अधिकतर गांवों और छोटे नगरों -बाजारों तक लोग बिजली के लिए तरसते थे।
  कुछ  साल पहले तक किसी ने इसकी कल्पना तक नहीं की थी कि इतनी जल्द  बिहार के सभी गांवों में बिजली पहुंच जाएगी।
सामान्य गांवों की बात कौन कहे, अब तो उपेक्षित दियारे के लोग भी बिजली का उपभोग कर रहे हैं। दियारे के गांवों में बिजली का प्रवेश  एक ‘मिनी क्रांति’ की तरह है।
अपने गांव जाने के रास्ते में  मैं कई बार दाना पुर दियारा होते हुए दिघवारा तक गया हूं।
 देख कर मन में यह विचार आता था कि इतनी अधिक और उपजाऊ जमीन का बेहतर इस्तेमाल हो सकता है।
बिजली पहुंचने के बाद अब इसकी संभावना बढ़ी है।
सिर्फ बेहतर सड़कों की अभी वहां कमी रह गयी है।बुनियादी सुविधाओं से वंचित दियारे के अनेक लोग आसपास के शहर -बाजार में जाकर बस गए हैं।बिजली आने के बाद अब उनमें से कुछ लोग घर वापसी की योजना बना रहे हैं,ऐसी खबर मिल रही है।
घर वापसी का अपना ही सुख है।
 सड़क-बिजली उपलब्ध हो तो दियारे के मेहनती लोग वहां अपने बल पर भी  परिवततर््न ला सकते हैं।बिजली सड़क तो विकास के इंजन है।
कहा जाता है कि ‘अमेरिका ने सड़कें बनायीं और सड़कों ने अमेरिका को बना दिया।’
  राजनीतिक कर्मियों के लिए पेंशन-----
देश की सभी भाजपा शासित राज्य सरकारें उन लोगों के लिए पेंशन 
देने की योजना बना रही हंै जो 1975-77 के आपातकाल में जेलोें में बंद थे।
हालांकि बिहार सहित दो-तीन  राज्यों में पहले से ही यह सुविधा मिल रही है।
इस संबंध में मेरी यह राय रही है कि ऐसे उन सभी राजनीतिक कर्मियों के लिए पेंशन की व्यवस्था होनी  चाहिए चाहे वे जिस किसी दल के हों।
 इससे  सांसद-विधायक फंड के ठेकेदारों का दबदबा राजनीति में घटेगा।
 कुछ राजनीतिक दल धन्नासेठों से अरबों रुपए का चंदा लेते हैं।उनके कुछ नेता चार्टर प्लेन से चलते हैं।उन चंदों का किसी को हिसाब तक नहीं देते।पर उनके ईमानदार कार्यकत्र्ता सौ -दो सौ रुपए के लिए तरसते हैं।
 या तो वे अपने घर से पैसे खर्च करें या फिर दलाली से पैसे कमाएं।
ये अमीर दल हर जिले में अपने कुछ चुने हुए कार्यकत्र्ताओं को पार्टी फंड से गुजारा भत्ता क्यों नहीं देते ?
   राजनीतिक कार्यकत्ताओं की जिम्मेदारी---  
जदयू के एम.एल.सी. डा.रणवीर नंदन ने अपने दल के कार्यकत्र्ताओं 
से अपील की है कि वे लोक शिकायत निवारण कानून को जन सेवा का अपना हथियार बनाएं।
लोगों को बताएं कि इस कानून से किस तरह लोगों को राहत पहुंचायी जा सकती है।
 यह एक अच्छी सलाह है।
ऐसे कामों से खुद कार्यकत्र्ताओं का सम्मान बढ़ता है।
जब मैं राजनीतिक कार्यकत्र्ता था तो यह काम किया करता था।
सन 1969 में मैंने अपने गांव के छह भूमिहीनों को बासगीत का परचा दिलवाया था।
अपने गांव में ऐसा काम थोड़ा कठिन होता है।पर चूंकि उसमें से एक भूमिहीन को  मेरी खुद की  जमीन का परचा मिला था,इसलिए कोई विरोध नहीं हुआ।याद रहे कि उन दिनों कुछ प्रतिपक्षी दल  अपने कार्यकत्र्ताओं को ऐसा काम करने का निदेश देते थे।
  सत्ताधारी जदयू के लोग इस काम में लगें तो आम लोगों को और भी राहत मिलेगी।
सरकारी घूसखारों पर जन दबाव नहीं है,इसलिए आम लोग परेशान रहते हैं।ऐसी परेशानी को राजनीतिक कार्यकत्र्ता दूर करा सकते हैं।
       एक भूली -बिसरी  याद ----
इन दिनों न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की खूब चर्चा हो रही है।
पर इसके लिए कौन अधिक जिम्मेदार है ?
खुद न्यायपालिका या राजनीतिक कार्य पालिका ?
इस का जवाब एक खास प्रकरण से मिल जाता है।
वह प्रकरण है जस्टिस रामास्वामी के खिलाफ महा भियोग का प्रकरण।
 रामास्वामी के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे।
10 मई 1993 को लोक सभा में सोम नाथ चटर्जी ने महाभियोग प्रस्ताव पेश किया था।
कपिल सिबल ने लोक सभा में रामास्वामी के बचाव में छह घंटे तक बहस की।
   11 मई 1993 को  महाभियोग प्रस्ताव इसलिए गिर गया क्योंकि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के 205 सदस्यों ने सदन में चर्चा के दौरान उपस्थित रहते हुए भी मतदान में भाग ही नहीं लिया। प्रस्ताव के पक्ष में मात्र 196 मत पड़े। ध्यान देने लायक बात यह रही कि महाभियोग प्रस्ताव के विरोध में एक भी मत नहीं पड़ा।यानी जिन सदस्यों ने मतदान में भाग नहीं लिया,वे लोग भी रामास्वामी के पक्ष में खड़े होने का नैतिक साहस नहीं रखते थे।जबकि कांग्रेस ने यह कहते हुए मतदान के लिए कोई व्हीप जारी नहीं किया था कि ऐसे मामले में लोक सभा को अर्ध न्यायिक निकाय के रूप में काम करना पड़ता है और सदस्योें की हैसियत जज की होती है।ऐसे में जजों को व्हीप के रूप में निदेश कैसे दिया जा सकता है।बेहतर हो कि कांग्रेस के सदस्य अपने विवेक के अनुसार ही मतदान करें।
पर जज का रूप लिए लोग भी खुद को कुछ और ही साबित कर गए।
   हां,सुप्रीम कोर्ट ने रामास्वामी के प्रति वही रुख नहीं अपनाया जैसा सत्ताधारी दल कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने अपनाया।इस अंतर पर गौर करिए।
  महाभियोग से बचने के बावजूद रामास्वामी के साथ सुप्रीम कोर्ट में कोई जज बेंच में बैठने को तैयार नहीं हुआ।
अंततः 14 मई 1993 को रामास्वामी ने सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफा दे दिया। लोक सभा के स्पीकर के आग्रह पर न्यायाधीशों की ही कमेटी ने रामास्वामी के खिलाफ आरोपों की जांच की थी। 14 में से 11 आरोप सही पाए गए थे।उसके बाद ही सदन में महाभियोग प्रस्ताव आया था।वह आजाद भारत का पहला मौका था जब किसी जज को पद से हटाने के लिए संसद में प्रस्ताव आया था।
पर उस मौके को भी सत्ताधारी दल ने विफल कर दिया।यदि रामास्वामी को संसद के प्रस्ताव से हटा दिया जाता तो न्याय पालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर काबू पाने में सुविधा होती।
  यह संयोग नहीं था कि उसे रामास्वामी ने 1999 में एडीएमके के टिकट पर लोक सभा का चुनाव लड़ा।यह भी संयोग नहीं है कि 
उस दल की सर्वोच्च नेता जय ललिता को भ्रष्टाचार के आरोप में सजा हुई थी।
  यानी राजनीति के बीच के भ्रष्ट लोग चाहते हैं कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार बना रहे ताकि वे जरूरत पड़ने पर उसका लाभ उठा सकें।  
    और अंत में----
   एन.सी.आर.इ.टी. के पूर्व निदेशक व प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो.कृष्ण कुमार ने अंततः दिल्ली छोड़ दी।
वे कई दशकों  से वहां थे।पर, बढ़ते प्रदूषण ने उन्हें दिल्ली छोड़ देने को मजबूर कर दिया।बिहार के गांवों के  विद्युतीकरण के बाद अब पटना के कुछ लोग भी इस प्रदूषित होते महा नगर को छोड़कर अपने पुश्तैनी गांव की स्वच्छ हवा में जाकर बस सकते हैं।
अब तक बिजली की अनुपस्थिति एक बड़ी समस्या रही है।बिहार में इस समस्या को पूरी तरह दूर करने का प्रयास जारी है।
हां,गांवों में कानून -व्यवस्था बेहतर करने की जरूरत है।
सड़क और बिजली में सुधार जारी रहा तो अच्छे स्कूल और अस्पताल भी देर- सबेर गांवों की ओर अपना रुख करेंगे। 
@ 29 दिसंबर, 2017 को प्रभात खबर-बिहार -में प्रकाशित मेरे कानोंकान काॅलम से@  
   




   एन.सी.आर.इ.टी. के पूर्व निदेशक व प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो.कृष्ण कुमार ने अंततः दिल्ली छोड़ दी।
वे कई दशकों  से वहां थे।पर, बढ़ते प्रदूषण ने उन्हें दिल्ली छोड़ देने को मजबूर कर दिया।बिहार के गांवों के  विद्युतीकरण के बाद अब पटना के कुछ लोग भी इस प्रदूषित होते महा नगर को छोड़कर अपने पुश्तैनी गांव की स्वच्छ हवा में जाकर बस सकते हैं।
अब तक बिजली की अनुपस्थिति एक बड़ी समस्या रही है।बिहार में इस समस्या को पूरी तरह दूर करने का प्रयास जारी है।
हां,गांवों में कानून -व्यवस्था बेहतर करने की जरूरत है।
सड़क और बिजली में सुधार जारी रहा तो अच्छे स्कूल और अस्पताल भी देर- सबेर गांवों की ओर अपना रुख करेंगे। 



 जरूरत बेहतर साफ- सफाई की ही अधिक है।
पर, वह तो एक आदर्श है जिसे हासिल करने की हमें कोशिश जारी रखनी  चाहिए।
पर, इस बीच बिहार के जो मरीज औकात से अधिक  खर्च करके मुम्बई तथा दूसरी जगह बेहतर इलाज के लिए जाने को मजबूर हैं,उनके लिए थोड़ी राहत हो जाएगी, यदि यहां अस्पताल खुले।
  बेहतर साफ -सफाई और पर्यावरण की रक्षा जब दिल्ली की भी नहीं हो पा रही है जहां देश की सबसे ताकतवर सरकार निवास करती है, तो देश के बाकी हिस्से के बारे में क्या कहा जाए !
  ब्रिटेन के लोग गंदी टेम्स नदी की सफाई कर सकते हैं,पर हम लोग औषधीय गुणों  वाली मां गंगा को गंदे नाले मंे परिणत करते जा रहे हैं।गंगा के किनारे वाले जिलों में कैंसर का प्रकोप अधिक है।
   एम.सी.मेहता की लोक हित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 1993 में ही कें्र्रद्र और राज्य सरकारों को निदेश दिया था कि प्राथमिक स्कूलों से लेकर विश्व विद्यालय स्तर तक पर्यावरण विज्ञान की पढ़ाई पृथक व अनिवार्य विषय के रूप में हो।
  इस आदेश का कितना पालन हुआ ? हुआ भी तो कितना हुआ  ? मेरी जानकारी के अनुसार तो नहीं हुआ।जबकि इस आदेश के उलंघन के कारण अदालत ने कुछ राज्य सरकारों पर जुर्माना भी किया था।मेरी जानकारी के अनुसार इसमें भी निहितस्वार्थ बाधक बन गया था।
मेरी बेटी इन दिनों पर्यावरण विज्ञान में पीएच.डी.कर रही है।उसकी ससुराल यानी उसके घर जब भी मैं जाता हूं, तो उसकी साफ- सफाई देख कर सुखद आश्चर्य होता है।हालांकि उसकी ससुराल वाले भी पहले से ही सफाई के  मामले में काफी सतर्क रहे हैं।
 पर, जब वह पर्यावरण की पढ़ाई कर रही थी और हमारे साथ थी तभी  से हमलोगों को पर्यावरण व साफ -सफाई को लेकर जागरूक करती रहती थी।
यानी पढ़ाई और जागरूकता का कितना असर होता है, मैंने खुद देखा है।
सिर्फ जरूरत है इस बात की कि सरकारें भी अपने स्वार्थ छोड़कर इस ओर गंभीरता से काम करे।
पर जब प्रभुता, सत्ता और देश चलाने वाले लोग ही अपनी और अगली पीढि़यों की असामयिक मौत को खुद ही बुलाने पर अमादा हों तो कोई क्या कर सकता है ?

   

गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

  टाटा ट्रस्ट ने बिहार सहित पूर्वी भारत में 12 कैंसर अस्पताल खोलने  की स्वीकृति दी है।
प्राप्त खबर के अनुसार वह बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल
और ओडिशा में कैंसर अस्पताल खोलेगा।
यदि उसे  पटना में जमीन मिल गयी तो वह राज्य मुख्यालय में ही खोलेगा।
  मध्य पटना में बड़ा भूखंड मिलना कठिन है, लेकिन आसपास के इलाके में उसे मिल ही जाएगी जमीन।
  इससे पहले राष्ट्रीय स्तर का  अस्पताल पटना में खुल चुका है और भी  कुछ खुलने वाले हैं।
 पटना में सेवारत निजी अस्पतालों को अब बिहार की छोटी जगहों का रुख करना चाहिए ताकि, जिला स्तर पर भी लोगों को शीघ्र व गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो सके।
अब तो बिहार राज्य भर में बिजली की व्यवस्था हो ही गयी है।हां, कानून -व्यवस्था पर राज्य सरकार को अभी कुछ और अधिक ध्यान देना होगा।  

 उन दिनों प्रभात खबर अंग्रेजी में भी छपता था।मैंने भी पढ़ा था।
आपने कमाल की रिपोर्टिंग करवाई थी।आपकी सराहना होती थी।
कुछ लोग हिम्मत की भी दाद देते थे।
दुर्भाग्यवश उन दिनों के प्रभात खबर की कटिंग मैं नहीं रख सका।
यू.एन.विश्वास के एक करीबी पत्रकार ने तब मुझे बताया था कि उसने वह लिस्ट देखी थी।पटना,रांची और दिल्ली के 55 पत्रकारों के नाम थे।रकम 
10 हजार से 35 लाख रुपए तक।
शर्मनाक स्थिति थी।
मैं जनसत्ता के लिए रिपोर्टिंग करता था।
विनोद जी, आप से बेहतर कौन जान सकता है  कि कितने तनाव में हम लोग रहते थे।
एक घोटालेबाज ने, जो तब जेल में था, अब भी जेल में हैं ,कई लोगों के सामने कहा था कि जेल से निकल कर सच्चिदानंद झा और सुरेंद्र किशोर की मुड़ी कटवा दूंगा।उत्तम सेन गुप्त तथा कई अन्य पत्रकारों की भूमिका शानदार थी।गर्व होता है ऐसे पत्रकारों पर।
  समाज के हर संबंधित क्षेत्रों के प्रभावशाली लोगों के बीच  पैसे बांटते थे वे घोटालेबाज।
इस देश में कितने लोग हैं जो घर आई लक्ष्मी का तिरस्कार करें ? जितने लोग हैं, उतने ही लोगों ने ठुकराया था।
@ मशहूर पत्रकार एस.एन.विनोद के एक लेख पर मेरी टिप्पणी@

बुधवार, 27 दिसंबर 2017

   अरूण शौरी और शत्रुघ्न सिंहा ने अपने उन प्रशंसकों 
को अंततः निराश किया है जो उनकी पिछली गैर राजनीतिक शानदार भूमिकाओं पर मोहित रहे हैं।
एक पत्रकार और लेखक के रूप में अरूण शौरी और
एक फिल्मी कलाकार के रूप में शत्रुघ्न सिंहा के अपेक्षाकृत अधिक फैन रहे हैं ।
केंद्रीय मंत्री के रूप में दोनों में से किसी ने भी कोई खास प्रभावित नहीं किया था।
 फिर भी इन दिनों  यह आम धारणा है कि ये दोनों बेमिसाल हस्तियां नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार पर इसलिए नाराज हैं क्योंकि इन्हें मंत्री बनने का इस बार  मौका नहीं मिला।
क्या मंत्री बनना इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि उसकी खातिर अपनी पिछली शानदार भूमिकाओं और उपलब्धियों को धुंधला हो जाने दिया जाए ?
   अटल बिहारी वाजपेयी जब पहली बार केंद्र में मंत्री बने थे तो उनसे किसी ने पूछा था कि कैसा लग रहा है ?
उन्होंने कहा था कि बहुत अच्छा लगता है जब आॅफिस के कमरे का दरवाजा  अपने -आप खुल जाता है और बंद हो जाता है।
 जाहिर है कि किसी मंत्री के लिए दरवाजा खोलने का काम सरकारी सेवक करता है।
  क्या इतने ही के लिए शौरी और सिंहा  मौजूदा भूमिका में हैं ? क्या इस देश में  एक केंद्रीय मंत्री की अपेक्षा इनके  कम प्रशंसक रहे हैं ? 

लंदन से एक अच्छी खबर आई है।वहां के युवा अखबार को आॅनलाइन की अपेक्षा प्रिंट में पढ़ना अधिक पसंद कर रहे हैं।
लगता है कि वहां के युवा समझदार हैं।
   दरअसल मेरी चिंता यह है कि नेट पर अधिक लिखंत-पढंत करने से आंखों को नुकसान हो सकता है।हालांकि लंदन के युवा वर्ग प्रिंट में पढ़ने का कारण दूसरा बता रहे हैंं।
  स्वाभाविक ही है कि मेरे पास नेट से लेकर स्मार्ट फोन तक की सुविधाएं हैं। फिर भी मेरे घर  रोज एक दर्जन से अधिक दैनिक अखबार आते हैं।ऐसा महंगा काम मैं अपनी आंखों को बचाने के लिए  करता हूं ।यानी   जरूरी हो तभी नेट का इस्तेमाल किया जाए और आंखों को अधिक से अधिक दिनों तक सुरक्षित रखने की कोशिश की जाए।
   नेट और स्मार्टफोन के अधिक इस्तेमाल के खराब नतीजे आने वाले दिनों में लोगों को भुगतने पड़ सकते हैं, ऐसा मेरा अनुमान है।हालांकि इस संबंध में वैज्ञानिक लोग ही बेहतर बता सकते हैं।
  पर मुझे लगता है कि अत्यधिक इस्तेमाल के कारण रासायनिक खादों और कीटनाशक दवाओं का जैसा खराब असर खेतों पर पड रह़ा है,वैसा ही विपरीत असर देर-सवेर वेब और एप का  पड़ सकता है। इसलिए जरूरत के हिसाब से ही ऐसी कृत्रिम चीजों का इस्तेमाल होना चाहिए।



  सिर्फ सवाल ही नहीं खड़े किए जा रहे हैं बल्कि धमकियां भी मिल रही हैं।जिन कुछ लोगों को मैं कभी  मित्र समझता था,वे भी मेरी मंशा पर सवाल उठा रहे हैं।
  पर, मेरे लिए यह कोई नई बात नहीं है।धमकी,मुकदमे, गालियां,नौकरी से निष्कासन , मारपीट ये सब मैं 1972 से ही झेल रहा हूं।कोई बताए कि मैंने किसी सत्ताधारी से अपने निजी फायदे के लिए कभी कुछ मांगा या पाया ? मिला भी तो क्या उसे स्वीकारा  ?
फिर यह सब क्यों ? सिर्फ पत्रकारिता की जिम्मेदारी निभाने के लिए ही तो !
   एक स्वजातीय मुख्य मंत्री के सबसे करीबी नेता ने मुझ पर मुकदमा किया था।दूसरे स्वजातीय मुख्य मंत्री ने डी.जी.पी.को कह कर मेरे उस मुकदमे को  समाप्त करवा दिया था जो मैंने उन लोगों पर किया था जिन्होंने मुझे फोन करके मेरे परिवार को उठा लेने की धमकी दी थी।
अब तो जीवन के पांच-दस साल बचे हैं।पारिवारिक जिम्मेदारियोंे
 से मुक्त हूं।कभी कोई राजनीतिक या आर्थिक महत्वाकांक्षा नहीं पाली।सिर्फ लोगों को सूचित करने के अपने अधिकार को बनाये रखने के लिए संघर्षरत रहा।
  जब इस देश के लोगों के साथ नाइंसाफी करने वाले लोग खुद को बदलने को तैयार नहीं हैं तो मैं किसी के कहने या धमकाने से खुद को क्यों बदल लूं ? हां, मुझे सदा अफसोस रहेगा यदि कभी किसी के बारे में गलत तथ्य लिख दूं।मैं हमेशा क्षमा याचना को तैयार रहता हूं।
पर आज तथ्यों पर बात करने के लिए कितने लोग तैयार हैं ?
@ 26 दिसंबर 2017@

  हालांकि वैसे भी कायस्थ और ब्राह्मण परिवारों में शिक्षा-दीक्षा 
का अपेक्षाकृत  बेहतर माहौल रहता है,पर कंठ परिवार की प्रगति देख-सुन कर मुझे उनके माता-पिता के बारे में जानने की इच्छा होती है।
 मैं कभी विनय कंठ परिवार के किसी सदस्य से नहीं मिला।पर उनकी उपलब्धियों के बारे में पढ़ता-सुनता रहा हूं।
हाल में जब विनय जी का निधन हुआ तो मुझे उन पर गुस्सा भी आया।समाज के लिए इतना बहुमूल्य जीवन कम ही उम्र में हमारे बीच से उठ गया।क्या उन्होंने अपने आहार-विहार में संयम नहीं रखा था ?
 मेरा मानना है कि जिन हस्तियों की ओर समाज उम्मीद भरी नजरों से देखता है,उन्हें किसी भी कीमत पर अपने स्वास्थ्य को भी आदर्श बना कर  रखना चाहिए।
खैर अभी बात उनके माता-पिता की।
उनकी संतानों ने प्रशासन, शिक्षा, चिकित्सा तथा विधि के क्षेत्रों में यदि शीर्ष स्थान पाया तो उसके पीछे उनके माता -पिता का बड़ा योगदान रहा होगा।कल्पना ही कर सकता हूं कि उन्होंने कैसे कुशल कारीगर की तरह  मूत्र्तियां गढ़ी होंगी।
उनके बारे में यदि कभी कोई कुछ लिखे तो अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिलेगी ।

  एक लाख 76 हजार करोड़ रुपए का  2 जी स्पैक्ट्रम घोटाला
है।देश का सबसे बड़ा घोटाला।
इस मुकदमे में सी.बी.आई.के विशेष न्यायाधीश का आज  निर्णय आया है।यह निर्णय खुद सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय के खिलाफ है जो उसने 2012 में दिया था।
   तब पहली नजर में इसे घोटाला मानते हुए  सुप्रीम कोर्ट ने 122 स्पैक्ट्रम लाइसेंस रद कर दिए थे।पर लोअर कोर्ट ने आज आरोपितों को दोषमुक्त करार दे दिया।
  सी.बी.आई. अदालत के आज के निर्णय के खिलाफ सी.बी.आई.हाईकोर्ट में अपील करेगी।
हाई कोर्ट होते हुए मामला अंततः सुप्रीम कोर्ट में जाएगा।
  तब सुप्रीम कोर्ट के सामने निचली अदालत के निर्णय के साथ 
ही 2012 का अपना निर्णय भी होगा।
सुप्रीम कोर्ट देखेगा कि लोअर कोर्ट ने मुकदमे के सबूतों को नजरअंदाज किया या फिर सी.बी.आई.ने निचली अदालत में सबूत ठीक से पेश ही नहीं किए।
 फिर तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
  पर इस बीच कई  नेतागण   आज के लोअर कोर्ट के निर्णय को फाइनल निर्णय मान कर बयान पर बयान दे रहे हैं।वे अपने राजनीतिक विरोधियों पर हमले कर रहे हैं ।वे ऐसे नेता हैं जो  अपने मामले में अक्सर यह कहा करते हैं कि जब तक किसी को  सुप्र्रीम कोर्ट से सजा न हो जाए, तब तक उसे दोषी नहीं माना जा सकता है।
फिर  जब तक कोई सुप्रीम कोर्ट से दोषमुक्त न हो जाए, तब तक उसे निर्दोष कैसे मान लिया जाए ?




मैंने मंडल आरक्षण विवाद के समय पूरी ताकत से लालू प्रसाद और अन्य आरक्षण समर्थकों के पक्ष में लिखा था।जनसत्ता की फाइल में मेरे  वे लेख आपको मिल जाएंगे।
मैं बिहार विधान सभा के प्रेस रूम में भी आरक्षण के पक्ष में अक्सर बोलता  था।
पूर्व कांग्रेसी विधायक हरखू झा उसके गवाह हैं।मैं आरक्षण विरोधियों से कहता था कि ‘गज नहीं फाड़ोगे तो थान हारना पड़ेगा।’
आप कल्पना कीजिए कि आरक्षण विरोधी लोग इस पर मुझसे कितना नाराज रहते होंगे।
मेरे एक रिश्तेदार ने तो कहा था कि आप पगला गए हैं।
 जनसत्ता में मेरा एक लेख पढ़कर तो तब लालू यादव ने कहा था कि ‘आरक्षण के सही ढंग से सुरेन्दरे भइआवा समझले बा।’
  पर बाद के वर्षों में लालू प्रसाद ने जो कुछ किया,उसे कोई पत्रकार कैसे नजरअंदाज कर सकता था ?@26 दिसंबर 2017@

मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

  वर्षों से मैं पटना रेलवे जंक्शन और न्यू मार्केट नहीं गया।
भीड ़भाड़, धक्कम धुक्की और ट्राफिक अराजकता के भय से। 
  अब शायद जा पाऊंगा।
पटना रेलवे जंक्शन के पास से गुजरने वाले फ्लाई ओवर के 
आज चालू हो जाने से यह संभावना बनी है।
 इस बीच मैं तीन चीजों के लिए तरसता रहा।
 पटना रेलवे जंक्शन स्थित व्हीलर बुक स्टाॅल,महावीर मंदिर के दक्षिण भारतीय लड्डू और मंदिर के पास जमीन पर बिछी हुई पत्र-पत्रिकाओं के दर्शन नहीं हो पाए।
 अब शायद हो।लगे हाथ बता दूं कि मिलावट रहित मिठाई के लिए मैं सिर्फ उस दक्षिण भारतीय लड्डू पर ही भरोसा कर सकता हूंं। 
वहां शायद  सड़कों पर सैकड़ों की संख्या में अतिक्रमित फुटपाथी दुकानदारों का हड़भोंग तो फिर भी कायम रहेगा।क्योंकि उस काम में ट्राफिक पुलिस व लोकल थाने का सक्रिय सहयोग रहता है।कोई नियमित आय को क्यों छोड़ेगा ?किसके भय से ?अदालत भी वहां लाचार है।
  पर पूरब से पश्चिम जाने वाले बहुत से वाहन जब फ्लाई ओवर से ऊपर-ऊपर निकल जाएंगे तो नीचे भीड़ कम होगी।
पर भय है कि पुलिस वाले आय बढ़ाने के लिए उनकी जगह नये फटपाथी दुकानदारों को वहा नं बसा दें ?      

  हिमांशु जी, मेरी मंशा पर शक करने के बदले तथ्यों पर बात कीजिए।इसलिए कि मैं आपकी मंशा पर शंक नहीं करता।आप अपना काम कीजिए। मुझे अपना काम करने दीजिए।मैं यही काम इसी गति में लगभग 45 साल से कर रहा हूं।किसी के मात्र दस-बीस लेख पढ़कर उसके बारे में कोई राय नहीं बनानी चाहिए।कुछ अधिक जानना हो तो मेरा ब्लाॅग पढि़ए।
उसमें मेरे सैकड़ों लेख मिलेंगे।उसमें आपके सवालों के जवाब शायद मिल जाएं।
 वैसे उन्हें तो कोई जवाब कभी नहीं मिलेगा जो मुझे अपनी कार्बन काॅपी के रूप में देखना चाहते हैं।
 हां, यदि मेंरे तथ्यों मंे कमी हो तो बताइए।स्वागत करूंगा।
मेरी जानकारी  के अनुसार 2 -जी केस में अभियोजन पक्ष की ओर से साक्ष्य पेश करने का समय नवंबर, 2013 में ही समाप्त हो गया था।
सी.बी.आई.की सहमति से  अभियोजन पक्ष ने  आग्रह किया था कि बचाव पक्ष अब अपना साक्ष्य प्रस्तुत कर सकता है।
   ं केंद्र की  नई सरकार उससे करीब चार -पांच महीने बाद सत्ता में आई।
उसके बाद वह क्या कर सकती  थी जो उसने  नहीं किया ? उसे कानूनन क्या करना चाहिए था ?  इस संबंध में किसी संबंधित जानकार व्यक्ति से पता करके मुझे बताइएगा तो मेरा ज्ञानवर्धन होगा ।और लोग भी जान जाएंगे कि सरकारों का कैसा चरित्र होता है। देखिए, मैं  यह मान कर चलता हूं कि लगभग सभी सरकारें भ्रष्ट होती हैं। अधिकतर नेता अवसरवादी होते हैं।
कुछ कम तो कुछ ज्यादा। तो कुछ  और भी ज्यादा।मुझे याद है कि अटल बिहारी सरकार ने अपने शासन काल के अंतिम चार महीनों में किस तरह बोफर्स केस को जाने या अनजाने खराब कर दिया  था।
  जनता   खास समय पर जिसे सबसे कम भ्रष्ट समझती है,उसे वोट देकर सत्ता दे देती है।वैसे उन मतदाताओं को छोड़कर यह बात की जा रही है जो जाति, विचार धारा, संप्रदाय तथा व्यक्तियों को प्राथमिकता देते हैं।
बाकी बातें उनके लिए गौण होती हैं।हां, विभिन्न दलों में कुछ नेता  ईमानदार होते हैं तो कुछ अन्य नेता  भ्रष्ट। कुछ अत्यधिक भ्रष्ट।


चर्चित पत्रकार वीरेंद्र कुमार यादव ने बिहार का सामाजिक -राजनीतिक 
इनसाइक्लोपीडिया प्रकाशित किया है।
  इस पुस्तक में सांसद-विधायकों की जाति से लेकर जातीय चरित्र तक का बेबाक विश्लेषण है।
कुछ ऐसी बातें भी हैं जो लिखने की हिम्मत कम ही लोगों में है।
 पहले पेज पर ही लेखक ने लिखा है कि यह हर उस व्यक्ति के लिए उपयोगी है जिन्हें बिहार में एम.पी-एम.एल.ए.बनना है।
   औरंगाबाद जिले के डिहरा के मूल निवासी वीरेंद्र यादव दशकों से पटना में पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं।
 वीरेंद्र मेहनती हैं।विनम्र हैं।युवा हैं।जानने लायक सामग्री जुटाते रहते हैं।
कुछ कड़वी सच्चाइयां भी  लोगों को बताते  हैं।
बौद्धिक जगत में समाज के विभिन्न तबकों का अब तक 
किस तरह प्रतिनिधित्व नहीं हो सका है,उसे आंकड़ों के साथ वीरेंद्र यादव ने इस पुस्तक में बताया है।
आप उनकी कुछ बातों से असहमत हो सकते हैं,पर उन हकीकतों को नजरअंदाज नहीं कर सकते जो समाज में प्रचलित है।
 वीरेंद्र ने भोपाल के प्रतिष्ठित माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई की है।हिन्दुस्तान,और प्रभात खबर में काम कर चुके हैं।अभी नौकरशाहीडाॅटकाम न्यूज पोर्टल चलाते हैं।
बिहार पर एक साथ बहुत सी जानकारियां वाला जिस तरह का इनसाइक्लोपीडिया वीरेंद्र ने तैयार की है,वह बहुत ही मेहनत वाला काम है।
ऐसी जानकारियां वाली पुस्तक तैयार करने  वाले वीरेंद्र से यदि आप संपर्क करना चाहेंेगे तो उसके लिए उन्होंने अपने मोबाइल नंबर भी लिख दिये हैं। वे हैं - 9431094428 और 9199910924 . 
वीरेंद्र का यह काम  मुझे अच्छा लगा तो मैंने सोचा कि इसकी सूचना मैं भी अपनी ओर से जाहिर करूं ।

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

  चारा घोटाले में लालू प्रसाद को सजा और जगन्नाथ  मिश्र की रिहाई को लेकर इन दिनों एक बार फिर एक खास तरह का विमर्श जारी है।
 इसमें महत्वपूर्ण मुद्दा  दफा और सजा की अवधि का नहीं है
।सवाल तो तब भी उठ जाता  है कि जब कोई नेता एक दिन के लिए भी जेल जाता है।वह कहता है कि वह किसी खास जाति या समुदाय का है, इसीलिए उसे जेल भेजा गया।पहले के लुटेरों को क्यों नहीं भेजा गया ?
यह कहने से मुख्य मुद्दे को दरकिनार करने में उसे सुविधा होती है।फिर अपने इर्दगिर्द जाति का किला बना लेने से राजनीति सुरक्षित हो जाती है।
  साठ के दशक में बिहार के एक स्वतंत्रता सेनानी को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाने की नौबत आई।उन्होंने एक ठेकेदार से 75 हजार रिश्वत तब ले ली थी जब वह मंत्री थे।
उन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाना मंजूर नहीं हुआ। लाज आई। स्वतंत्रता आंदोलन में वह शान से कई बार जेल जा चुके थे।पर भ्रष्टाचार में जेल जाने से बचने के लिए सत्तर के दशक में उन्होंने  जहर खाकर अपनी जान दे दी।पर उन्होंने यह नहीं कहा कि मैं किसी खास जाति का हूं इसीलिए मुझे नाहक फंसा दिया गया।
याद रहे कि उन दिनों भी राजनीति में जातीय वैमनस्य रहता  था।
वह आसानी से  प्रतिद्वंद्वी जाति पर आरोप लगा सकते थे।
 अब जमाना बदल गया है।अब पीडि़त होने का बहाना बनाने से   वोट बढ़ने की संभावना होती है।बढ़ती है या नहीं यह अलग बात है।
 ऐसा ही सवाल  लोक सभा में उठाते हुए मैंने नब्बे के दशक में सबसे पहले झामुमो के एक सांसद को टी.वी.पर तब देखा था जब झामुमो सांसद रिश्वत कांड सामने आया था।
उस सांसद ने कहा था कि जब आजादी के बाद से ही ऊंची जाति के लोग इस देश को लूट रहे थे तो इतना हंगामा क्यों नहीं हो रहा था ? अब हम कुछ कर रहे हैं तो बड़ा हंगामा हो रहा है।
उन्हीं  दिनों किसी ने कहा था कि नेहरू मंत्रिमंडल के सदस्य के.डी.मालवीय ने जब रिश्वत ली तो भी बहुत हंगामा हुआ। मालवीय मंत्रिमंडल से निकाल बाहर किए गए थे।
  दूसरी बार नब्बे के दशक में शरद यादव ने तब यह सवाल उठाया था जब लालू प्रसाद पर चारा घोटाले का आरोप लगा था।शरद ने मांग की थी कि 1952 से अब तक जिसने भी नाजायज संपत्ति बनाई है, लालू के साथ- साथ उनकी भी जांच होनी चाहिए।
  अब तो कुछ लोग बड़े जोर से कह रहे हैं कि अदालती फैसलों में जातीय तत्व हावी है। इसीलिए लालू को सजा मिल रही है और जगन्नाथ मिश्र छूट जा रहे हैं।
  पर दूसरे जवाब दे रहे हैं  कि ब्राह्मण जय ललिता को सजा मिल रही है और दलित ए.राजा और पिछड़ी जाति की  कनिमोझी देाषमुक्त  हो जाते हैं।
 सुशील मोदी कह रहे हैं कि चारा घोटाले में जिन 16 लोगों को 23 दिसंबर को रांची अदालत ने सजा दी ,उनमें आधे सवर्ण हैं ।
 जैन हवाला केस में इस देश के जितने नेता आरोपी बनाये गये थे,उनमें कम्युनिस्ट दल छोड़ कर लगभग सभी प्रमुख दलों के बड़े नेता शामिल थे।सभी जातियों के थे।सजा होती तो सबको होती।पर जांच एजेंसी की कृपा से सब बच गए।
चारा घोटाला  भी उसी तरह लगभग सर्व दलीय घोटाला है और सर्वजातीय भी ।विभिन्न मुकदमों में  सजा भी सभी जातियों  के आरोपित पा रहे हैं।
 दूसरी ओर यू.पी. के दो  गैर सवर्ण नेताओं पर अरबों की निजी संपत्ति जुटाने का आरोप है।पर वे एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए। दूसरी ओर पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री मतंग सिंह जेल में हैं।शेयर घोटालेबाज हर्षद मेहता जेल में ही मर गया।
देश में इस तरह के अनेक उदाहरण हंै।ऐसा नहीं है कि संवैधानिक संस्थाओं तथा अन्य जगह जातीय तथा सांप्रदायिक भावनाएं काम नहीं करतीं।पर सब कुछ उसी से तय नहीं होता।अपवादों की बात और है।
जब अदालतें तीन स्तरीय हैं तो उसमें इसकी गुंजाइश कम है।
अब देश के लोगों को तय करना है कि ऐसे विमर्श में उनकी क्या राय है। इससे न्यायपालिका की इज्जत बढ़ रही है या सरकार के खजाने की रक्षा हो रही है ? यह  देश कहां जा रहा है ?
यदि पहले किसी जाति के महा प्रभुओं  ने इस देश को लूटा तो उसी आधार पर अन्य जातियों के लोगों को बारी -बारी से सत्ता में आ -आ कर उतना ही या उससे भी अधिक लूट लेने का अधिकार मिल जाता है ? इतने साधन इस देश के खजाने में है ?
क्या ऐसी लूट और अराजकता की छूट सबको मिल जाएगी तो लोकतंत्र बचेगा ? यदि बारी -बारी से लूट के कारण जब सेना के लोगों को तनख्वाह पर आफत आएगी तो सेना वाले क्या करेंगे ?वे देश की रक्षा कैसे करेंगे ?



  जिस दिन रांची की अदालत ने पूर्व मुख्य मंत्री लालू प्रसाद को सजा सुनाई,उसी दिन एक अन्य पूर्व मुख्य मंत्री को भी सजा हुई।
यू.पी. के सिद्धार्थ नगर की अदालत ने उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री जगदम्बिका पाल को एक महीने की सजा सुनाई।
  उन पर  चुनाव आचार संहिता के उलंघन का आरोप था।यह आरोप 2014 के लोक सभा चुनाव के समय का है।
श्री पाल अभी भाजपा के सांसद हंै और वे पिछड़ी जाति से नहीं आते हैं।
 उन्हें ऐसे मामले में सजा हुई जिस मामले में सजा की कोई खबर मैंने तो अब तक कहीं नहीं पढ़ी है।किसी मित्र के पास  ऐसे उदाहरण हांे तो बताइएगा।मैं अपने रिकाॅर्ड में रख लूंगा।
  चुनाव आचार संहिता के उलंघन के आरोप में हर चुनाव के दौरान  सैकड़ों केस दायर होते हैं।पर बाद में सब निर्दोष पाए जाते हैं।
ताकि वे  अगले चुनाव में ऐसे उलंघन के लिए  तैयार रहें ।
संभवतः जगदम्बिका पाल अगली बार कोई उलंघन नहीं करें।
@25 दिसंबर 2017@




 मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने  सरयू राय की पुस्तक ‘समय का लेख’ का पटना में लोकार्पण किया।
  झारखंड सरकार के मंत्री श्री राय इससे पहले भी एकाधिक पुस्तकें लिख चुके हैं।
 सरयू राय की पुस्तकें पठनीय होती हैं।क्योंकि वह रिसर्च के बाद लिखी होती हैं और  तथ्यपरक होती हैं।
प्रभात प्रकाशन ने ‘समय का लेख’ प्रकाशित किया है।
  इस पुस्तक में राय जी के उन लेखों का संकलन है जो अखबार में छप चुके हैं।नब्बे के दशक के बिहार के आर्थिक मुद्दों पर लिखे उन लेखों में अधिकतर लेखों को मैं पहले भी पढ़ चुका हूं।अब वह पुस्तक भी खरीदूंगा।
   इस अवसर पर एक अन्य बात भी।
नीतीश कुमार और सरयू राय की दोस्ती एक मिसाल है।राजनीति मेंं ऐसी दोस्ती कम ही होती है।
यदि एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव हो और जायज -नाजायज कामों के लिए एक -दूसरे के इस्तेमाल की कोशिश न हो तो ऐसी दोस्ती राजनीति में भी लंबी चल सकती है।  
@ 2 दिसंबर 2017@
  
  
   

बदल जाएगी राजनीति


  बिहार में अब ‘लालू शैली’ की राजनीति कमजोर होगी।यह गरीब राज्य के लिए एक महत्वपूर्ण  विकास है।यह राजनीतिक विकास
कुछ लोगों के लिए तो सकारात्मक होगा तो कुछ अन्य लोगों के लिए नकारात्मक । जिन्हें लालू शैली से अब तक लाभ हुआ है, वे उदास होंगे। लालू प्रसाद के खिलाफ रांची अदालत के ताजा फैसले के बाद यह स्थिति पैदा हुई है।
‘लालू शैली’ की राजनीति को जारी रखने के लिए खुद लालू प्रसाद की बिहार में उपस्थिति जरूरी है।लालू शैली क्या है, यह राजनीति का क ख ग जानने वाले जानते हैं।
 चारा घोटाले में इस दूसरी सजा के बाद लालू प्रसाद के लिए अब जेल से बाहर आना कठिन है।
कानून विशेषज्ञ बताते हैं कि एक बार से अधिक सजा पाए सजायाफ्ता को आम तौर पर जमानत नहीं मिलती।उसे अपनी सजा पूरी करनी पड़ती है। 
   लालू प्रसाद ने  अपने छोटे पुत्र तेजस्वी प्रसाद यादव को अपना उत्तराधिकारी बना दिया है।तकनीकी तौर पर पार्टी में उनकी ही बात चलनी चाहिए।पार्टी के नेता और कार्यकत्र्ता तो उसे  ही मानेंगे जिनकी पीठ पर  लालू प्रसाद का हाथ होगा।पर लालू परिवार में कई अन्य महत्वपूर्ण हस्तियां भी हैं।लालू प्रसाद की अनुपस्थिति में सबके बीच तालमेल बना कर रखने की चुनौती रहेगी।
  जानकार लोग बताते हैं कि यह कोई मामूली चुनौती नहीं है।
 इसलिए पार्टी के भीतर व विधायका में रोज ब रोज के काम कैसे सुचारू रूप से राजद चलाएगा,यह देखना दिलचस्प होगा।
   उधर  जदयू से संबंध -विच्छेद के बाद राजद बिहार की राजनीति में लगभग अकेला पड़ गया है।यह अकेलापन अब अस्थायी नहीं लगता।क्योंकि नीतीश कुमार अब भाजपा का साथ नहीं छोड़ेंगे।क्योंकि उनकी फिलहाल कोई अखिल भारतीय महत्वाकांक्षा नहीं  है।
राजद का  कांग्रेस से तालमेल बना रहेगा।भाजपा विरोेध के नाम पर कम्युनिस्ट भी राजद के साथ आ सकते हैं।पर उनकी ताकत बहुत कम है।
 यानी राजद अब किसी मजबूत गठबंधन का अगुआ नहीं रहेगा।
 लालू प्रसाद जेल से बाहर होते तो पार्टी और गठबंधन को मजबूत करने की कोशिश कर सकते थे।
 यानी कोई कमजोर पार्टी या गठबंधन अपनी पुरानी ‘लालू शैली’ की राजनीति नहीं चला सकती।लालू शैली की राजनीति तो लालू ही चला सकते थे।
  इधर इस दूसरी सजा के बाद लालू प्रसाद व राजद कितना कमजोर या मजबूत होकर उभरता है,यह देखना महत्वपूर्ण होगा।राजद तो दावा कर रहा है कि अब राजद अधिक मजबूत होगा।क्योंकि अदालत ने डा.जगन्नाथ मिश्र को रिहा कर दिया और लालू को सजा दे दी।इसका संदेश पिछड़ी जनता में जरूर जाएगा।
 हालांकि सन् 1996 में चारा घोटाले के प्रकाश में आने के बाद से ही लालू प्रसाद का जन समर्थन लगातार घटता चला गया है।इस बीच कभी उनके दल की सीटें बढ़ीं भी तो वह चुनावी गठबंधन में शामिल सहयोगी दलों के सहयोग के बल पर न कि राजद की खुद की ताकत के कारण।सजा तो 2013 में हुई।जन समर्थन पहले ही घटना शुरू हो चुका था।
  सन 2013 में लालू प्रसाद को चारा घोटाला मामले में  पहली बार सजा हो जाने के बाद राजद का जन समर्थन और भी घट गया।
इस बार की सजा के बाद इस फैसले का राजनीतिक असर क्या होता है,यह देखना महत्वपूर्ण  होगा।
वैसे  सामाजिक स्तर एम.वाई.- गठबंधन आम तौर पर लालू प्रसाद के दल के साथ ही रहेगा।हालांकि सिर्फ एम -वाई यानी मुस्लिम -यादव गठजोड़ बिहार में किसी राजनीतिक दलीय गठबध्ंान को सत्ता दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं है।यह गठबंधन अन्य समुदायों में प्रतिक्रिया भी पैदा जरूर करता है।जहां भाजपा मुकाबले में हो ,तब तो यह और भी अधिक।
 लालू  परिवार में लालू के राजनीतिक उत्तराधिकार की समस्या राजद को आगे भी परेशान करती रहेगी।वैसे  लालू प्रसाद ने अपने जिस  पुत्र तेजस्वी प्रसाद यादव को अपना उत्तराधिकारी  घोषित  किया है, वे  अपेक्षाकृत अधिक योग्य भी हैं।
  लालू प्रसाद कभी बिहार की राजनीति के महा बली थे।  मंडल आरक्षण विवाद की पृष्ठभूमि में लालू  के दल को 1991 के लोक सभा चुनाव में बिहार में  54 में से 31 सीटें मिली थीं।उनके सहयोगी दलों को भी कुछ सीटें मिली थीं।उन दिनों लगभग पूरा पिछड़ा समुदाय लालू के साथ था।
सन् 1990 में जब लालू प्रसाद मुख्य मंत्री बने थे तब उनके दल यानी जनता दल को बिहार विधान सभा में बहुमत प्राप्त नहीं  था।
भाजपा ने  बहुमत की कमी को पूरा किया था।तब केंद्र में भी वी.पी.सिंह की सरकार भाजपा और कम्युनिस्ट के समर्थन से ही चल रही थी।
  पर 1995 के  चुनाव में लालू प्रसाद को अकेले  विधान सभा में बहुमत मिल गया।इसका पूरा श्रेय सिर्फ लालू को मिला था।यह ताकत उन्हें इस बात से आई क्योंकि उन्होंने कमजोर वर्ग यानी पिछड़ों को  सीना तान कर चलना सिखाया था।पर उस काम के साथ- साथ  लालू दूसरे  कामों में भी लग गए थे जो उनके लिए सकारात्मक नहीं रहा।
  लोक सभा चुनाव 1996 में हुआ था।उसमें भी बिहार में लालू के दल को 22 सीटें मिलीं। 1998 के लोक सभा चुनाव में भी लालू दल को 17 सीटें मिल गयी थीं।
 पर राजद  को 1999 के लोक सभा चुनाव सिर्फ 7 सीटें मिलीं।यानी जन समर्थन का क्षरण शुरू हो गया था।
इस बीच 1997 में चारा घोटाले में विचाराधीन कैदी के रूप में लालू पहली बार जेल भी जा चुके थे।
   सन 2000 के बिहार विधान सभा चुनाव में लालू के दल को खुद का बहुमत नहीं मिला।पर कांग्रेस के समर्थन से राबड़ी देवी मुख्य मंत्री बनीं।
याद रहे कि जेल जाने से पहले 1997 में ही लालू अपनी जगह अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्य मंत्री बनवा चुके थे।
1997 में पार्टी भी टूट चुकी थी।
1994 में उनसे नीतीश कुमार अलग होकर समता पार्टी बना चुके थे।
बाद में समता पार्टी और शरद यादव के नेतृत्व वाले जनता दल का आपस में विलय हो गया।जदयू बना ।इस दल ने भाजपा से तालमेल करके बिहार में लालू के खिलाफ एक मजबूत विकल्प खड़ा कर दिया।
  सन 2004 में राम विलास पासवान के साथ गठबंधन बना कर लालू प्रसाद लोक सभा की 22 सीटें जीत चुके थे।पर सन 2005 के बिहार विधान सभा चुनाव में  लालू के दल के हाथों से सत्ता निकल गयी। 2005 में नीतीश कुमार भाजपा के समर्थन से मुख्य मंत्री बने।
बीच में कुछ महीनों के लिए जीतन राम मांझी को नीतीश ने मुख्य मंत्री बनवा दिया था।पर बाद में खुद नीतीश मुख्य मंत्री बन गए।
 2015 के  विधान सभा चुनाव में कांग्रेस और नीतीश के साथ गठबंधन के कारण लालू को विधान सभा में सबसे अधिक सीटें यानी 80 सीटें जरूर मिल गयी,पर वे सीटें  लालू की ताकत को प्रतिबिंबित नहीं करती।
अब लालू प्रसाद का दल नीतीश कुमार के जदयू से अलग हैं।
अब उन्हें किसी अगले चुनाव में कितनी सीटें मिलती  हैं, यह देखना बाकी है।
सन 2010 के बिहार विधान सभा चुनाव में लालू और राम विलास पासवान मिल कर चुनाव लड़े थे।
उस चुनाव में इन्हें 243 सीटों में से सिर्फ 25 सीटें मिली थीं।इसे एक संकेतक माना जा सकता है।
अब दूसरी बार सजायाफ्ता होने पर उनका जन समर्थन कितना घटता या बढ़ता है ,यह देखना दिलचस्प होगा।इस बार एक और फर्क आया है।लगभग पूरा लालू परिवार कानूनी परेशानियों में है।
वैसे 2010 की अपेक्षा एक सकारात्मक फर्क जरूर आया है । कांग्रेस अब लालू के साथ मजबूती से रहेगी।
@  25 दिसंबर 2017 के राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित मेरा लेख @
  


दक्षिण मेंं सामाजिक-राजनीतिक परिवत्र्तन के कर्णधर थे ई.वी. रामास्वामी नायकर





               
  द्रविड़ मुनेत्र के संस्थापक और ‘स्वाभिमान आंदोलन’ के सूत्रधार ई.वी.रामास्वामी नायकर पेरियार अपने पिता से झगड़ा के बाद 25 साल की उम्र में घुमक्कड़ बन गए थे।
अनेक धर्म स्थल घूमते हुए बनारस पहुंचे।
 बनारस को वह सर्वाधिक पवित्र स्थल मानते थे।
पर वहां भी उन्हें लगा कि गैर ब्राह्मण होने के कारण उनके साथ  अपमानजनक व्यवहार हो रहा है।नतीजतन वे भ्रमण का काम छोड़कर मद्रास लौट गए और 1915 में राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गए। 
 सन् 1919 में तो कांग्रेस में शामिल हुए और मद्रास पे्रसिडेंसी  कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे।पर  आरक्षण के उनके प्रस्ताव को कांग्रेस ने नहीं माना तो उन्होंने पार्टी छोड़ दी।
  कुछ मुद्दों पर गांधी जी से भी उनका मतभेद हुआ।
 1927 में नायकर से ब्राह्मण- विरोध छोड़ने की अपील करते हुए गांधी जी ने कहा कि ब्राह्मण ज्ञान के भंडार और बलिदान की प्रतिमूत्र्ति हैं।
पर नायकर अपनी जिदद पर अड़े रहे।नायकर ने गांधी जी से साफ -साफ कह दिया कि भारत की सच्ची आजादी कांग्रेस, हिंदूवाद और ब्राह्मणवाद को नष्ट करके ही आ सकती है।
नायकर उन लोगों में प्रमुख थे जो आर्यवाद को छोड़कर द्रविड़ मूल की तलाश में थे।
   17 सितंबर 1879 को मद्रास प्रसिडेंसी के एक गांव में जन्मे रामास्वामी ने 1925 में कांग्रेस छोड़ने के बाद ‘आत्म सम्मान आंदोलन’ शुरू किया।उनका उददे्श्य गैर ब्राह्मणें के मन में अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति गर्व की भावना भरना था।नायकर का निधन 24 दिसंबर 1973 को हुआ।पर इस बीच उन्होंने दक्षिण के समाज और राजनीति पर अपना भारी प्रभाव छोड़ा।हमेशा विवादों में रहे।बाद में तो उन्हें अपने अनेक सहयोगियों से भी मतभेद हो गया था।
रामास्वामी नायकर ‘पेरियार’ मानते थे कि हमारी द्रविड़ परंपरा ब्राह्मणों की परंपरा से श्रेष्ठत्तर है।
   1937 में कांग्रेस के सी.राज गोपालाचारी  मद्रास पे्रसिडेंसी  के प्रधान मंत्री बने थे। कांग्रेस की नीतियों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने 1938 में सरकारी विद्यालयों में हिंदी को अनिवार्य कर दिया।
रामास्वामी के लिए यह अच्छा मौका था।उन्होंने इसके खिलाफ जोरदार आंदोलन शुरू कर दिया।
नायकर ने कहा कि हिंदी आर्य दमन का हथियार है।
उनके कुछ लोगों ने राजा जी के घर के समाने अनशन किया।आंदोलन तेज हो गया।स्थिति बेकाबू होते देख पुलिस ने नायकर को गिरफ्तार कर लिया।
उस गिरफ्तारी के कारण द्रविड़ आंदोलन और बढ़ा।
नायकर का कद बढ़ता गया।
अंततः हिंदी की अनिवार्यता समाप्त कर दी गयी।
नायकर ने द्रविड़ों के लिए अलग देश तक की मांग कर दी थी।
पर इस मांग को मद्रास की जनता का समर्थन नहीं मिला।
नायकर और सी.एन.अन्ना दुरै ने मिलकर 1944 में द्रविड़ कषगम नामक नया राजनीतिक दल बनाया।
  बाद के वर्षों में यानी आजादी के बाद अन्ना दुरै , नायकर से अलग हो गए।
अन्ना दुरै 1967 में मद्रास के मुख्य मंत्री बने।करूणानिधि भी
अन्ना दुरै के साथ थे।द्रविड़ कषगम बाद में द्रविड़ मुनेत्र कषगम बन गया।
   नायकर अपनी अतिवादी राह पर चलते रहे।
एक बार तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने रामा स्वामी नायकर को सार्वजनिक रूप से पागल कह दिया था।
तब उन पर हिंसा भड़काने के आरोप में मुकदमा चल रहा था।
यह 1958 की घटना है।नायकर को छह महीने की सजा भी हो गयी।
वह जेल में थे।अस्वस्थ होेने के कारण जब अस्पताल में थे तो समाजवादी नेता डा.राममनोहर लोहिया ने उनसे जाकर अस्पताल में मुलाकात की।लोहिया चाहते थे कि नायकर अपने अतिवादी विचारों का त्याग करें और पूरे देश के नेता बनें।
 लोहिया ने उनसे कहा कि इस उम्र में आपको जेल में नहीं रहना चाहिए।
प्रधान मंत्री ने आपको जो पागल कहा है,उसको लेकर उन पर मानहानि का मुकदमा चलाया जाना चाहिए।
  पर साथ ही लोहिया ने उनसे आग्रह किया कि वे ब्राह्मणों के खिलाफ अपना अभियान बंद कर दें।
आप जातिप्रथा के खिलाफ आंदोलन जरूर करिए, पर व्यक्तिगत ब्राह्मणों के खिलाफ इस आदंोलन का रुख नहीं होना चाहिए।
इस पर रामास्वामी ने कहा कि ‘हिंसा से मेरा कोई सरोकार नहीं है।असलियत यह है कि मद्रास का प्रेस ब्राह्मणों के हाथों में है।और वे मुझे बदनाम करना चाहते हैं।
में अपने को सदैव नियंत्रित रखता हूं।’
इस पर लोहिया ने कहा कि यही काफी नहीं है कि हिंसा नहीं होनी चाहिए।बल्कि स्पष्ट रूप से आपकी ओर से यह कहा जाना चाहिए कि व्यक्तिगत रूप से लक्ष्य बनाकर ब्राह्मणों के खिलाफ अभियान नहीं होना चाहिए।
नायकर ने कहा कि किसी तरह की हिंसा मेरे दल और  ब्राह्मणों दोनों का ही विनाश कर डालेगी।
लेकिन मेरे जीवन काल में तो ऐसा नहीं होने को है।
लोहिया ने उनसे कहा कि उत्तर भारत का विरोध छोड़ कर आप देश की सभी समस्याआंे पर  सोचें।
  अगली किसी मुलाकात का वायदा करके दोनों अलग हुए।
 नायकर के निधन के बाद मद्रास में उनकी स्मृति में लाइब्रेरी और शोध केंद्र स्थापित किया गया जिसका समारंभ 1974 में तत्कालीन मुख्य मंत्री एम.करूणानिधि ने किया।
पेरियार को तमिलनाडु के लोग अब भी श्रद्धापूर्वक याद करते हैं।तमिलनाडु से बाहर भी वे यदाकदा याद किए जाते हैं।ं 
@ नाइकर की पुण्य तिथि -24 दिसंबर -पर मेरा लेख@

  

रविवार, 24 दिसंबर 2017

  जावेद अख्तर ने हाल में कहा है कि जोधा बाई नाम की अकबर की कोई पत्नी नहीं थी।
यह तो ‘मुगल ए आजम’ फिल्म के  लेखक की कल्पना मात्र थी।
पर अख्तर साहब, आपको मालूम है कि उससे समाज के एक हिस्से 
को दूसरे के सामने नाहक कितना लज्जित होना पड़ा ?
साठ के दशक में बिहार में कांग्रेस विधायक दल के नेता पद का चुनाव हो रहा था।
मुख्यतः कायस्थ, यादव और राजपूत विधायक एक साथ थे।दूसरे पक्ष ने दबे स्वर में यह प्रचार किया कि ‘लाला, ग्वाला और अकबर के साला’ एक साथ हो गए हैं।कुछ ही समय पहले मुगल ए आजम फिल्म रिलीज हुई थी।
  अब बताइए कि ऐसी टिप्पणी सुनकर राजपूतों पर क्या बीतती होगी !
  पद्मावती के बारे में अनेक लोगों के मन में यह धारणा है कि वह जौहर करने वाली  बहादुर क्षत्राणी थीं।उन्होंने अपने पति को एक ताकतवर दुश्मन के कब्जे से छुड़ा लिया था।
  पर, पद्मावती फिल्म के प्रोमो में यह दिखाया गया है कि दीपिका पादुकोण यानी पद्मावती जब घूमर नाच कर रही हैं तो उसकी  पीठ और पेट नंगी हैं।
  क्या पद्मावती के प्रशंसकों की भावना आहत करने वाला यह दृश्य नहीं है ? ऐसे दृश्यों को उस फिल्म से निकाल देने में क्या हर्ज है ? 
क्या भावनाएं कुछ ही लोगों की आहत होती हैं ?
समझ में नहीं आता कि कभी-कभी कुछ लोग खास समूह या  समुदाय को क्यों नाराज और उत्तेजित करने पर तुल जाते हैं ?
यह सिर्फ राजपूतों का ही सवाल नहीं है।ऐसा अन्याय इस देश में कभी -कभी अन्य समुदायों और समूहों के साथ भी होता रहता है।यह सब प्रगतिशीलता व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर होता है।

  
 ,

  दहेजमुक्त शादी में जो कुछ खास तरह की समस्याएं  आती हंै, आज मैं उनकी चर्चा करना चाहूंगा।
ऐसा नहीं है कि समाज के पास इन  समस्याओं का हल नहीं है।
पर, शत्र्त यह है कि समाज के कुछ जन सेवी लोगों को थोड़ा समय देना होगा।
  जातीय व सामाजिक संगठन इसमेें अच्छी भूमिका निभा सकते हैं।
कुछ तो निभाते भी हैं।पर, इसमें विस्तार की जरूरत है।
 फिल्म ‘पद्मावती’ को लेकर राजपूत समुदाय में जो एकता देखी जा रही है, उस एकता का सदुपयोग ऐसे  काम में हो सकता है।
   मेरे छोटे भाई नागेंद्र सन 1976 में बिहार सरकार में श्रम प्रवत्र्तन पदाधिकारी पद पर नियुक्त हुए थे।एक तो सरकारी नौकरी,दूसरे अपनी खेती-बारी और तीसरे लड़के का प्रभावशाली व्यक्तित्व।
  दहेज देने वालों की कमी नहीं थी।
पर, मेरा परिवार चाहता था कि हम दहेज के चक्कर में न पड़ें।अन्य बातों पर ध्यान दें।हमने 1979 में पटना जिले के बैकट पुर मंदिर में नागेंद्र की शादी आयोजित की।कोई दहेज नहीं ,कोई फालतू दिखावा नहीं।
 अच्छी शादी हुई।परिवार व रिश्तेदार अच्छे मिले।
   पर, उससे पहले मुझे 1978 में एक अजीब अनुभव हुआ। उन दिनों मैं दैनिक ‘आज’ के पटना ब्यूरो में काम करता था।एक विधि पदाधिकारी  मेरे एक रिश्तेदार को लेकर मेरे आॅफिस में  आए।आते ही उस पदाधिकारी ने मुझसे पूछा कि ‘आप भाई का कितना तिलक लीजिएगाा ?’
मैंने कहा कि हम लोग तिलक -दहेज नहीं लेते।
लड़की यदि पसंद आ जाएगी तो मुफ्त में शादी हो जाएगी।
 वे चले गए।उन्होंने लौटते समय मेरे रिश्तेदार से कहा कि लगता है कि लड़के में कोई दोष है,इसीलिए यह आदमी दहेज नहीं मांग रहा है।
   अब यहीं सामाजिक संगठन की भूमिका आती है।
संगठन ऐसे लोगों की सूची तैयार करें जो दहेजमुक्त और कम से कम खर्च में शादी करना चाहते हैं।
  मैरिज एक्सचेंज बनाएं।दोनों पक्षों को मिलाएं।वैसे लोग कम मिलेंगे,पर मिलेंगे जरूर।
 वैसी जातियों के समाजसेवी लोगों को यह काम पहले शुरू करना चाहिए जिन जातियों में दिखावे के लिए शादियों में अनाप -शनाप खर्च करने की परंपरा रही है।शादियों में फिजूलखर्ची के कारण कई परिवारों की आर्थिकी बिगड़ते मैंने देखा है।
   एक और कठिनाई है।
यदि किसी लड़की वाले से कहिए कि हम मंदिर में शादी करना चाहते हैं तो वे कहेंगे कि लोग क्या कहेंगे ?
बारात हमारे दरवाजे पर आनी चाहिए।
  ऐसी ही समस्या 1971 में कर्पूरी ठाकुर को भी झेलनी पड़ी थी।वे चाहते थे कि उनकी पुत्री की शादी देवघर मंदिर में हो,पर लड़की की मां की जिद पर शादी उनके गांव पितौझिया में हुई।
  मेरी अपनी शादी 1973 में सोन पुर में हुई।मैं भी चाहता था कि शादी मंदिर में हो।पर मेरी भावी पत्नी के पिता की अपनी समस्या थी।
उनकी बड़ी लड़की की दहेजमुक्त आदर्श शादी मंदिर में हुई थी।
इस बार मेरी ससुराल वाले चाहते थे कि उनके घर बारात जाए।
मेरी शादी दहेज मुक्त होनी थी।इसलिए समस्या थी कि बारात का खर्च कहां से आएगा ?
मैंेने बाबू जी को साफ मना कर दिया था कि बारात सजाने के लिए जमीन नहीं बिकेगी। 
हालांकि वे वैसा करने को तैयार थे।
 उन्होंने कहा कि जब मेरे रिश्तेदार और मित्र-परिचित बारात में नहीं जाएंगे तो मैं भी नहीं जाऊंगा।उन्हें मैं कैसे छोड़ दूं ? तुम जाओ शादी कर लो।
मुझे कोई एतराज नहीं।
 फिर क्या था ! मेरी शादी की ‘बारात’ में पटना  लाॅ कालेज  के मेरे  सहपाठी, युवजन सभा के  साथी और सोशलिस्ट नेता तथा  आधा दर्जन विधायक थे ।मेरे दोनों भाई जरूर शादी में थे।कर्पूरी ठाकुर ने एक तरह से समधी की भूमिका निभाई।
  रात में ही बारात के लोग पटना लौट आए।लगे हाथ बता दूं कि उसी साल मेरी अपनी शादी के कुछ ही दिन पहले मैं पटना के लाला लाजपत भवन में नीतीश कुमार के आदर्श विवाह में शामिल हुआ था।
मैंने अपने बड़े बेटे अमित की शादी भी उसी तरह से की।मेरे समधी उदय नारायण सिंह हजारीबाग में वकील हैं।
वे ही लोगों को बताते हैं कि ‘मुझसे  सुरेंद्र जी ने कोई दहेज नहीं ली।’
मेरे छोटे पुत्र अनुपम ने मुम्बई के टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंस से एम.एस.डब्ल्यू. किया है। उसने  ‘नेट’ भी कर लिया है।इन दिनों वह रांची में  एन. जी. ओ. में काम करता है।
उसने कहा है कि वह जब भी शादी करेगा, कोर्ट मैरिज ही करेगा।
कोई तामझाम नहीं।जाहिर है कि मुझे उसके फैसले पर गर्व है।
पर मेरा मानना है कि ऐसी शादियों के लिए जो भी और जहां भी तैयार हो, उन्हें समाज का बढ़ावा और सहयोग मिलना चाहिए ताकि ऐसे कदमों को  सामाजिक स्वीकृति मिले।
  जहां इस देश के अधिकतर सत्ताधारी नेताओं के यहां की  शादियों में अत्यंत कीमती उपहारों की झरी लगा दी जाती है, वहीं बिहार के उप मुख्य मंत्री सुशील कुमार मोदी ने आज अपने पुत्र की दहेजमुक्त शादी करके मिसाल कायम की है।उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसी शादी  से अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिलेगी।
@ --सुरेंद्र किशोर--3 दिसंबर 2017@

   
  


  

  देश के थोड़े से चर्चित मुकदमों के बारे में संक्षिप्त बातें यहां पेश हैं।
यदि किसी मित्र के पास इस तरह के अन्य उदाहरण व जानकारियां भी हों तो कृपया साझा करें।
चारा घोटाले से जुड़े डी.ए.केस में लालू प्रसाद बहुत पहले ही अदालत से दोषमुक्त  हो चुके हैं।
जय ललिता-शशि कला हाईकोर्ट से रिहा हुई थीं, पर सुप्रीम कोर्ट 
ने उन्हें सजा दे दी।
कनिमोझी की रिहाई विवादास्पद है।ऊपरी अदालत में उनके साथ भी यथायोग्य हो सकता है।
पूर्व केंद्रीय मंत्री सुखराम को टेल्कम घोटाले में 2011 में पांच साल की सजा हुई थी।उससे पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री श्यामधर मिश्र को सजा हुई थी।उन पर हत्या का आरोप था।
खुद डा.जगन्नाथ मिश्र को 2013 में लालू प्रसाद के साथ ही सजा मिल चुकी है।
अजित सरकार हत्याकांड मुकदमे में क्या सी.बी.आई. ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी ?
शेयर घोटालेबाज हर्षद मेहता 2002 में जेल में ही मर गया।
पूर्व कंेद्रीय राज्य मंत्री मतंग सिंह जेल में हैं या बाहर ?
उत्तर प्रदेश के दो बड़े विवादास्पद नेता के भ्रष्टाचार जग जाहिर हैं।उनके खिलाफ पी.आई.एल. का क्या हाल है ?
 क्या कभी वे गिरफ्तार हुए ?
  23 दिसंबर 2017 को  लालू प्रसाद के साथ जगदीश शर्मा को भी सजा हुई और डा.मिश्र के साथ भगत और निषाद रिहा हो गए।
इस तरह के मुकदमों के अनेक उदाहरण हंै।
सारी चीजों को एक खास चश्मे से देखने से किसी को कोई लाभ नहीं होता।न व्यक्ति को, न देश को न ही किसी जाति  की अगली पीढि़़यों को।
 इस बात पर विचार क्यों नहीं करते कि लालू प्रसाद के साथ मंडल आरक्षण आंदोलन के समय यानी 1990 में पिछड़ी जातियों के जितने लोग थे, आज उतने क्यों नहीं हैं ? 
  अंग्रेजों के जाने के बाद से ही इस देश में सजा पाने का प्रतिशत घटता जा रहा है।लालू प्रसाद भी लंबे समय तक सत्ता में थे।उन्होंने 
अधिक से अधिक आरोपितों को सजा दिलवाने के लिए अभियोजन व्यवस्था को टाइट करने के लिए क्या किया ? इस दिशा में आज भी देश और खास कर बिहार में क्या हो रहा है ? 
अभी बिहार में सिर्फ दस प्रतिशत मामलों में ही सजा हो पाती है।हत्या के मामले में तो यह दो प्रतिशत ही है।यह स्थिति एक दिन में पैदा नहीं हुई ।न ही इसके लिए कोई एक सत्ताधारी नेता जिम्मेदार नहीं है। 


  2 जी. स्पैक्ट्रम घोटाला मुकदमे में ए.राजा और कनिमोझी को दोषमुक्त करते हुए विशेष सी.बी.आई.  जज ओ.पी.सैनी ने गत गुरूवार को कहा था कि कलाइनगर टी.वी.को कथित रिश्वत के रूप में शाहिद बलवा की कंपनी डी.बी.ग्रूप द्वारा 200 करोड़ रुपए देने के मामले मेंं अभियोजन पक्ष ने किसी गवाह से जिरह नहीं की।कोई सवाल नहीं किया।याद रहे कि उस  टीवी कंपनी का मालिकाना करूणानिधि परिवार से जुड़ा है।
मान लिया कि कोई सवाल नहीं किया ।क्योंकि शायद मनमोहन सरकार के तोते सी.बी.आई. के वकील को ऐसा करने की अनुमति नहीं रही होगी।
पर खुद जज साहब के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम में ऐसे ही मौके के लिए  धारा -165 का प्रावधान किया गया है।आश्चर्य है कि  धारा -165 में प्रदत्त अपने अधिकार का सैनी साहब ने इस्तेमाल क्यों नहीं किया।
 संभवतः इस सवाल पर अब ऊपरी अदालत में विचार होगा कि 
 जज ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा -165 में  मिली शक्ति का उपयोग क्यों नहीं किया जबकि उनके पास  यह सूचना थी कि
इस घोटाले में 200 करोड़ रुपए की रिश्वत देने का आरोप लगा हैै ?
इस केस का यह सबसे प्रमुख सवाल है।
  उक्त धारा के अनुसार- ‘न्यायाधीश सुसंगत तथ्यों का पता चलाने के लिए या उनका उचित सबूत अभिप्राप्त करने के लिए ,किसी भी रूप में किसी भी समय, किसी भी साक्षी या पक्षकारों से, किसी भी सुसंगत या विसंगत तथ्य के बारे में कोई भी प्रश्न, जो वह चाहे पूछ सकेगा तथा किसी भी दस्तावेज या चीज को पेश करने का आदेश दे सकेगा और न तो पक्षकार और न उनके अभिकत्र्ता हकदार होंगे कि वे किसी भी ऐसे प्रश्न या आदेश के प्रति कोई भी आक्षेप करंे , न ऐसे किसी भी प्रश्न  के  प्रत्युत्तर में दिए गए किसी भी उत्तर पर किसी भी साक्षी की न्यायालय की इजाजत के बिना प्रति परीक्षा करने के हकदार होंगें।’


शनिवार, 23 दिसंबर 2017

कभी महाबली रहे लालू चारा घोटाले के कारण खोते गए जन समर्थन


            

सन् 1996 में चारा घोटाले के प्रकाश में आने के बाद से लालू प्रसाद का जन समर्थन लगातार घटता गया है।कभी उनके दल की सीटें बढ़ीं भी तो वह चुनावी गठबंधन में शामिल सहयोगी दलों के बल पर न कि राजद की खुद की ताकत के कारण।
   जन समर्थन पहले से तो घट ही रहा था,पर  सन 2013 में लालू प्रसाद को चारा घोटाला मामले में  पहली बार सजा हो जाने के बाद राजद का जन समर्थन और भी घट गया।
इस बार की सजा के बाद इस फैसले का राजनीतिक असर क्या होता है,यह देखना दिलचस्प होगा।
किंतु एक बात तय है कि सामाजिक स्तर एम.वाई.- गठबंधन आम तौर पर लालू प्रसाद के दल के साथ ही रहेगा,ऐसा राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है।हालांकि सिर्फ एम -वाई यानी मुस्लिम -यादव गठजोड़ किसी राजनीतिक दलीय गठबध्ंान को सत्ता दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं है।हां,यह गठबंधन अन्य समुदायों में प्रतिक्रिया पैदा जरूर करता है।जहां भाजपा मुकाबले में हो तब तो यह और भी अधिक।
  पर, सबसे बड़ी बात यह है कि लालू प्रसाद के परिवार में उनके राजनीतिक उत्तराधिकार की समस्या राजद को आगे भी परेशान करती रहेगी।वैसे अपनी ओर से लालू प्रसाद ने अपने छोटे पुत्र.तेजस्वी प्रसाद यादव को अपना उत्तराधिकारी जरूर घोषित कर दिया है।छोटे पुत्र अपेक्षाकृत अधिक योग्य भी हैं।
  1990 के  मंडल आरक्षण विवाद की पृष्ठभूमि में लालू प्रसाद के दल को 1991 के लोक सभा चुनाव में बिहार में बड़ी संख्या में सीटें मिली थीं।खुद लालू के दल जनता दल को बिहार में 54 में से 31 सीटें मिल गयी थीं।उनके सहयोगी दलों को भी कुछ सीटें मिली थीं।उन दिनों लगभग पूरा पिछड़ा समुदाय लालू के साथ था।
सन् 1990 में जब लालू प्रसाद मुख्य मंत्री बने थे तब उनके दल को बिहार विधान सभा में बहुमत का समर्थन हासिल नहीं था।
भाजपा के समर्थन से उन्हें बहुमत हुआ  था।
पर 1995 के बिहार विधान सभा चुनाव में लालू प्रसाद को अकेले  विधान सभा में बहुमत मिल गया।इसका पूरा श्रेय सिर्फ लालू को मिला था।श्रेय मिलना सही भी था।उन्होंने कमजोर पिछड़ों को भी सीना तान कर चलना सिखाया था।
  1996 के लोक सभा चुनाव में भी बिहार में लालू के दल को 22 सीटें मिलीं। 1998 के लोक सभा चुनाव में भी लालू दल को 17 सीटें मिल गयी थीं।
पर 1999 के लोक सभा चुनाव में लालू प्रसाद के दल यानी राजद  को सिर्फ 7 सीटें मिलीं।यानी जन समर्थन का क्षरण शुरू हो गया।
इस बीच चारा घोटाले में विचाराधीन कैदी के रूप में लालू जेल में रह  चुके थे।
  बिहार विधान सभा का चुनाव सन 2000 में हुआ।लालू के दल को खुद का बहुमत नहीं मिला।पर कांग्रेस के समर्थन से राबड़ी देवी मुख्य मंत्री बनीं।
याद रहे कि जेल जाने से पहले 1997 में ही लालू अपनी जगह अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्य मंत्री बनवा चुके थे।
1997 में पार्टी भी टूट चुकी थी।
1994 में उनसे नीतीश कुमार अलग होकर समता पार्टी बना चुके थे।
बाद में समता पार्टी और शरद यादव के नेतृत्व वाले जनता दल का आपस में विलय हो गया।जदयू बना ।इस दल ने भाजपा से तालमेल करके बिहार में लालू के खिलाफ एक मजबूत विकल्प खड़ा कर दिया।
  सन 2004 में राम विलास पासवान के साथ गठबंधन बना कर लालू लोक सभा की 22 सीटें जीत चुके थे।पर सन 2005 के बिहार विधान सभा चुनाव में  लालू के दल के हाथों से सत्ता निकल गयी।2005 में नीतीश कुमार भाजपा के समर्थन से मुख्य मंत्री बने।
बीच में कुछ महीनों के लिए जीतन राम मांझी को नीतीश ने मुख्य मंत्री बनवा दिया था।पर बाद में खुद नीतीश मुख्य मंत्री बन गए।
 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में कांग्रेस और नीतीश के साथ गठबंधन के कारण लालू को विधान सभा में सबसे अधिक सीटें यानी 80 सीटें जरूर मिल गयी,पर वे सीटें  लालू की ताकत को प्रतिबिंबित नहीं करती।
अब लालू नीतीश कुमार से अलग हैं।
अब उन्हें किसी अगले चुनाव में कितनी सीटें मिलती  हैं,यह देखना बाकी है।
हां, एक संकेतक जरूर हैं ।सन 2010 के बिहार विधान सभा चुनाव में लालू और राम विलास पासवान मिल कर चुनाव लड़े थे।
इन्हें 243 सीटों में से सिर्फ 25 सीटें मिली थीं।
अब दूसरी बार सजायाफ्ता होने पर उनका जन समर्थन कितना घटता या बढ़ता है ,यह देखना दिलचस्प होगा।इस बार एक और फर्क आया है।लगभग पूरा लालू परिवार कानूनी परेशानियों में है।
2010 की अपेक्षा एक सकारात्मक फर्क जरूर आया है । कांग्रेस अब लालू के साथ रहेगी।पर कांगेेस की अपनी ताकत बहुत ही कम
है।  
@ 23 दिसंबर 2017 को फस्र्टपोस्टहिंदी  में प्रकाशित मेरा लेख@
  

  



एक महीने में ही सरकार से समर्थन वापसी की अजूबी राजनीतिक घटना



            

इंदिरा गांधी ने एक महीने के भीतर ही चरण सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया था।
यह राजनीति की अजूबी घटना थी।
  साथ ही दूसरी घटना यह हुई कि चरण सिंह  संसद 
का सामना किए बिना प्रधान मंत्री पद से हट गए।बड़े नेताओं की राजनीतिक उच्चाकांक्षा के कारण जनता पार्टी में टूट के बाद 15 जुलाई 1979 को मोरारजी देसाई ने प्रधान मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।कांग्रेस और सी.पी.आई. के समर्थन से जनता@एस@के नेता चरण सिंह 28 जुलाई 1979 को प्रधान मंत्री बने।
 राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने निदेश दिया  था कि चरण सिंह 20 अगस्त तक लोक सभा में बहुमत सिद्ध करें।
   पर इस बीच इंदिरा गांधी ने 19 अगस्त को ही यह घोषणा कर दी कि वह चरण सिंह सरकार को संसद में बहुमत साबित करने में साथ नहीं देगी।
नतीजतन चरण सिंह ने लोक सभा का सामना किए बिना ही अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
राष्ट्रपति ने 22 अगस्त 1979 को लोक सभा भंग करने की घोषणा कर दी।
  लोक सभा का मध्यावधि चुनाव हुआ और इंदिरा गांधी 14 जनवरी 1980 को प्रधान मंत्री बन गयीं।
  यह सब इतनी जल्दी कैसे हो गया ?
  इसके लिए कौन जिम्मेदार थे ? किसे किसने ठगा और किसे इसका राजनीतिक लाभ मिला  ?
 यह सब बताना तो  इतिहास लेखकांे का काम है,पर मोटा- मोटी कुछ बातें समझ में आ जाती हैं।
  इंदिरा गांधी और संजय गांधी ने चरण सिंह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का पूरा राजनीतिक लाभ उठाया।
संजय गांधी तभी से राज नारायण से सीधे संपर्क में थे जब मोरार जी देसाई और चरण सिंह में खटपट शुरू हो गयी थी।
 पर चरण सिंह भी एक हद से अधिक समझौते नहीं कर सकते थे।उनके भी कुछ उसूल थे जिससे वे कभी डिगते नहीं थे।
  मोरारजी देसाई के प्रधान मंत्रित्व काल में इंदिरा गांधी और संजय गांधी पर मुकदमे हुए थे।
स्वाभाविक ही था कि कांग्रेस समर्थन के बदले में उन मुकदमों की वापसी की उम्मीद चरण सिंह की सरकार से करे।
  पर चरण सिंह इसके लिए तैयार नहीं थे।
फिर यह गठबंधन चलता कैसे  ?नहीं चला।
पर इसी बीच इंदिरा गांधी का एक बड़ा राजनीतिक  उद्देश्य पूरा हो चुका था।उन्होंने जनता नेताओं की पदलोलुपता और फूट को जनता के सामने प्रदर्शित कर दिया।
 1977 में लोगों में जनता पार्टी के नेताओं के लिए जैसी इज्जत की भवाना थी,वह कम हो गयी।इससे कांगे्रस की सत्ता में वापसी का रास्ता साफ हो गया।
  पर चरण सिंह अपनी सरकार के चले जाने का कारण इन शब्दों में बताया था।अपदस्थ चरण सिंह ने तब बताया था कि ‘मुझे इंदिरा गांधी के बारे में गलतफहमी कभी नहीं थी।
पर,हमने सोचा कि एक महत्वपूर्ण सवाल पर जिससे राष्ट्रीय एकता जुड़ी हुई थी,जब उन्होंने बिना शत्र्त समर्थन की पेशकश की तो हमने उसे स्वीकार किया।जब हम गरीबों, किसानों, पिछड़ों और उपेक्षित वर्गाें के लिए अपना कार्यक्रम बना ही रहे थे कि इंदिरा गांधी ने अपने नजदीकी लोगों से इस तरह के संदेश भेजना शुरू कर दिया कि जब तक संजय गांधी के खिलाफ जारी मुकदमे उठा नहीं लिए जाते वे 20 तारीख को  विश्वास मत पर सरकार का साथ नहीं दे सकतीं।’
 चरण सिंह ने यह भी कहा कि ‘ यह देश हमें कभी माफ नहीं करता यदि कुर्सी से चिपके रहने के लिए मुकदमे उठा लेते जो इमरजेंसी के अत्याचारों के लिए जिम्मेदार थे।मैं ब्लैकमेल की राजनीति स्वीकार कर एक दिन भी सत्ता में नहीं रह सकता।’
   हालांकि उन दिनों चरण सिंह की इस बात पर कुछ लोगों ने यह सवाल किया कि क्या चरण सिंह इतने भोले थे कि वे इंदिरा गांधी की मंशा नहीं समझ सके थे ?  संजय पर मुकदमे चलते रहने की स्थिति में भी इंदिरा गांधी चरण सिंह की सरकार को समर्थन देना कैसे जारी रख  सकती थीं ? क्या इंदिरा गांधी पर संजय के प्रभाव से चरण सिंह अवगत नहीं थे ?
  खैर दरअसल चरण सिंह प्रधान मंत्री बनने की जल्दीबाजी में थे।वे तो बन भी गए।
  पर इसके अतिरिक्त चरण सिंह में कई गुण भी थे।वह पढ़े -लिखे थे।कुछ पठनीय किताबें भी लिखी हैं।जीवन के प्रारंभिक काल में गाजियाबाद में वकालत करते थे। किसानों की समस्याओं को वे जितना समझते थे,उतना कम ही नेता समझते थे।
वे बार- बार कहा करते थे कि जब तक किसानों की आय नहीं बढ़ेगी, तब तक कारखानों में उत्पादित माल के खरीदार नहीं बढे़ंगे।खरीदार नहीं बढ़ेंगे तो कारखाने मुनाफे में कैसे रहेंगे  ? 
  चैधरी चरण सिंह का जन्म 23 दिसंबर 1902 को  यूनाइटेड प्रोविंस के नूर पुर गांव में, जो अब उत्तर प्रदेश है,  हुआ था।
वे सन 1937 में  विधान सभा के सदस्य चुने गए थे।
सन् 1967 में मुख्य मंत्री बनने से पहले राज्य के कैबिनेट मंत्री रह चुके थे।वे 1970 में भी मुख्य मंत्री बने थे।
 सन् 1977 में वे केंद्र सरकार में उप प्रधान मंत्री और गृह मंत्री बने।वे आजादी की लड़ाई और आपातकाल में जेल में रहे।
उन्होंने हमेशा वही किया जो वे चाहते थे।
29 मई 1987 को उनका निधन हो गया।
@चरण सिंह के जन्म दिन पर फस्र्टपोस्टहिंदी पर 23 दिसंबर 2017 को प्रकाशित मेरा लेख@
  


  

 1.-राज्य सभा में अनुशासन हीनता के कारण 3 सितंबर, 1962 को समाजवादी सदस्य गौड मुरहरि सत्र की बाकी बैठकों के लिए निलंबित कर दिए गए।
इसके बावजूद जब वे सदन से बाहर जाने को तैयार नहीं हुए तो उन्हें मार्शल के जरिए बाहर कर दिया गया।
2.- 25 जुलाई, 1966 को समाजवादी राज नारायण और मुरहरि ऐसे ही कारणों से एक सप्ताह के लिए निलंबित किए गए और सदन से जबरन  निकाल बाहर कर दिए गए।
3.- 12 अगस्त, 1971 को भी राज नारायण बाकी बैठकों के लिए राज्य सभा से निलंबित हुए और मार्शल आउट कर दिए गए।
4.- 15 मार्च, 1989 को 63 सदस्य राज्य सभा से एक सप्ताह के लिए निलंबित किए गए।
5.- 23 दिसंबर 2005 को डा.छत्रपाल सिंह लोधा राज्य सभा से निष्कासित किए गए।
    पर चूंकि 2005 के बाद अनुशासनहीनता के बावजूद ऐसी कार्रवाइयां बंद हो गयीं इसलिए राज्य सभा में हंगामा बढता़ गया और सभापति के लिए निरंतर बेचारगी की स्थिति पैदा होती गयी।राज्य सभा की कवर्यवाही  का दृश्य टी.वी. पर देख- देख कर देश के विवेकशील लोग कुढ़ते रहते हैं।
अब तो स्थिति यह हो गयी है कि जिसे देश ने ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया है,उसे भी  राज्य सभा में जनोपयोगी बातें बोलने का मौका नहीं मिल रहा है। निराश होकर वह अपनी बात कहने के लिए सोशल मीडिया का सहारा ले रहा है।
पर वैसे सांसद गण बोलने का खूब अवसर पा रहे हैं जो सांसदों के वेतन बढ़ाने की मांग करते हैं और जन प्रतिनिधियों के खिलाफ त्वरित अदालतों के गठन के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का विरोध करते हैं।
कहां जा रही है यह देश, राज्य सभा और संसदीय व्यवस्था ?
इस हड़भोंग को आखिर  कौन ठीक करेगा ?
यदि इसे आज के लोकतंात्रिक नेतागण ठीक नहीं करंेगे तो कोई और आकर ठीक कर देगा।फिर पछताने से कुछ नहीं होगा।
  मौजूदा राज्य सभा सभापति वेंकैया नायडु इसे ठीक करना चाहते हैं।पर राज्य सभा में सत्ताधारी जमात का अभी  बहुमत नहीं है।
अगले साल बहुमत होने की उम्मीद है।
 नायडु साहब, उसके बाद आप बेरहमी से इस हड़भोंग को बंद कराइए । जिन लोगों ने लोकतंत्र के नाम पर राज्य सभा को चंडूखाना बना रखा है,उनसे राज्य सभा की गरिमा की रक्षा कीजिए और लोकतंत्र की भी।उससे देश के अधिकतर लोग आपको धन्यवाद देंगे।@ 23 दिसंबर 2017 @
साठ के दशक मंे जब राज नारायण और गौड़ मुरहरि मार्शल आउट किए जा रहे थे, तब लोकतंत्र समाप्त नहीं हुआ था।आगे भी ऐसा करिएगा तोभी लोकतंत्र समाप्त नहीं होगा। बल्कि लोकतंत्र जनता के लिए अधिक उपयोगी बनेगा। 


शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

गलत मुकदमे की जल्दी सुनवाई से खुश होते हैं आरोपित


यदि किसी के खिलाफ निराधार  मुकदमे कायम  कर दिए जाएं तो वह खुद ही चाहता है कि उस मुकदमे की सुनवाई शीघ्र हो जाए ।ऐसे में उसे अदालत से राहत की उम्मीद होती है।साथ ही वह नाहक बदनामी से बचता है।
पर अगर बात इसके उलट हो तो आरोपित चाहते हैं कि मुकदमा लंबा खिंचे। इस बीच गवाह दिवंगत हो जाएं।सबूत कमजोर कर दिए जाएं।जांच अधिकारी  को अन्य तरह से प्रभावित कर लिया जाए।
कुछ सांसदों और विधायकों के खिलाफ जारी मुकदमों के मामले में भी यही हो रहा है।
हालांकि कुछ अन्य सांसद-विधायक चाहते हैं कि उनके खिलाफ चल रहे मुकदमे की सुनवाई जल्द पूरी हो जाए
ताकि दाग शीघ्र मिट सके।
  पर हाल में  कांग्रेस और सपा के सदस्यों ने राज्य सभा में सवाल उठाया कि सांसदों-विधायकों के खिलाफ चल रहे मुकदमों की त्वरित सुनवाई के लिए  12 विशेष अदालतें गठित क्यों की जा रही है ?
 सुप्रीम कोर्ट ने सन् 2009 में छह विशेष अदालतांे  के गठन का आदेश दिया था ताकि गुजरात दंगों के आरोपितों के खिलाफ मुकदमों की सुनवाई शीघ्र हो सके।
  तब विशेष अदालतें बनी भी।अन्य लोगों के साथ- साथ उस विशेष अदालत से  माया कोडनानी को भी सजा हुई।कोडनानी गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार की राज्य मंत्री थीं जब गुजरात में दंगा हुआ था।उन पर दंगा कराने का आरोप था।
तब कांग्रेस या किसी अन्य दल ने  यह नहीं कहा कि विशेष अदालतों का गठन सिर्फ दंगा के मामलों के लिए नहीं होना चाहिए बल्कि देश के सभी मुकदमों के लिए होना चाहिए।
  पर   पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने जब कहा कि सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित मामलोंं की जल्द सुनवाई के लिए विशेष अदालतें बने तो कांग्रेस और सपा विरोध में उठ खड़ी हुई।
सपा के नरेश अग्रवाल ने गत मंगलवार को राज्य सभा में कहा कि ‘अदालत संविधान नहीं बदल सकती ।’
अग्रवाल से सवाल है कि  गुजरात दंगों के लिए विशेष अदालतों के गठन के लिए संविधान बदला गया था ?
 राज्य सभा में कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजादी ने कहा कि अदालतों का गठन सिर्फ सांसदों-विधायकों के लिए ही नहीं बल्कि 
सभी नागरिकों के लिए होना चाहिए।
गुलाम नबी केंद्र में ंमंत्री रह चुके हैं।वे जानते हैं कि सरकार के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वह सभी 3 करोड़ मुकदमों के लिए विशेष अदालतें बना पाएगी।यानी उनका तर्क है कि 
 सबके लिए विशेष अदालतें बनने   तक सांसदांे-विधायकों के लिए अदालतों के गठन का काम रुका रहे।जानकार लोग समझते हैं कि ऐसे तर्क क्यों दिए जाते हैं।  
--सांसदों-विधायकों के मामलों की 
सुनवाई में देरी जानबूझ कर --
सुप्रीम कोर्ट ने गत 1 नवंबर को केंद्र सरकार से कहा कि वह सांसदों-विधायकों पर चल रहे मुकदमों की शीघ्र सुनवाई के लिए विशेष न्यायालय गठित करे।
इस संबंध में अगले छह सप्ताह में केंद्र सरकार हमारे यहां प्रस्ताव पेश करे।
 केंद्र सरकार ने 12 विशेष अदालतों का प्रस्ताव सुप्रीम कोर्ट में पेश भी कर दिया।अब उस पर काम शुरू होने वाला है।
  इस प्रस्ताव पर मिली जुली -प्रतिक्रिया देखी जा रही है।
जिन जन प्रतिनिधियों पर निराधार या मामूली आरोपों के तहत वर्षों से मुकदमे चल रहे हैं, वे विशेष अदालत की खबर से खुश हैं।
उन्हें इस झंझट या बदनामी से शीघ्र मुक्ति की उम्मीद जो है।
पर जिन जन प्रतिनिधियों के खिलाफ गंभीर आरोप हैं और उन्हें सजा होने और उनके राजनीतिक जीवन समाप्त होने का खतरा है,वे मुकदमे को अनंत काल तक लटकाए रखना चाहते हैं।
याद रहे कि देश के 1581 सासंदों और विधायकों के खिलाफ विभिन्न धाराओं में मुकदमे चल रहे हैं।इन में से कई मुकदमे तो दशकों से चल रहे हैं।
  राजनीति में घुसे अपराधियों के खिलाफ मुकदमे भी चलते हैं और वे अपराधी अगला अपराध भी करते जाते हैं।यदि आपराधिक छवि का व्यक्ति जन प्रतिनिधि हो तो वह अपने इलाकों में अन्य अनेक अपराधियों का संरक्षणदाता भी बन जाता है।
इससे न सिर्फ एक बड़े इलाके की कानून -व्यवस्था खराब होती है बल्कि रंगदारी वसूली के कारण विकास कार्य भी प्रभावित होते हैं।
इसीलिए सामान्य अपराधियेां और वैसे आरोपितों में फर्क है जो जन प्रतिनिधि भी बन गए हैं।
पर इस फर्क को समझने के लिए कुछ कांग्रेस व सपा नेता तैयार ही नहीं है।
हालांकि सब समझते हैं कि वे ऐसा क्यों करते हैं।
  मुफस्सिल पत्रकारों की सुरक्षा----
आए दिन मुफस्सिल पत्रकारों को धमकी दिए जाने और उन पर हमले की खबरें आती रहती हैं।  
कभी -कभी उनकी हत्या भी हो जाती है।
कुल मिलाकर स्थिति यह है कि बिहार में सरजमीनी पत्रकारिता करने वाले ऐसे संवाददाताओं की सुरक्षा को लेकर चिंता करने का समय आ गया है।बिहार सरकार ने हाल में राज्य सभा के पूर्व सदस्यों के लिए सुरक्षा की व्यवस्था करने का निर्णय किया है।
 संवाददाताओं के काम का महत्व देखते हुए पत्रकारों की सुरक्षा के लिए भी सरकार को कुछ करना चाहिए। कम से कम जो पत्रकार अपनी जान पर खतरा महसूस करें, उनको निशुल्क सुरक्षाकर्मी मुहैया कराने के बारे में राज्य सरकार को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।
 ----- राजनीति में आदर्श उदाहरण--
जदयू से अपने वैचारिक मतभेद के कारण एम.पी. वीरेंद्र कुमार ने पार्टी छोड़ दी और हाल में राज्य सभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया।
वीरेंद्र कुमार केरल से राज्य सभा में जदयू के सदस्य थे।
उनका कार्यकाल 2022 तक का था।इसके बावजूद ऐन केन प्रकारेण सदस्य बने रहने के लिए उन्होंने कोई बहाना नहीं ढूंढ़ा।
बल्कि  उन्होंने मशहूर समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव की राह चुनी।
 आदर्शवादी आचार्य ने जब 1947 में कांग्रेस छोड़ने का निर्णय किया तो उन्होंने अपने करीब एक दर्जन साथियांे के साथ उत्तर प्रदेश विधान सभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया था।
 याद रहे कि आजादी के बाद कांग्रेस ने कह दिया था कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के लोग दोनों दलों में एक साथ नहीं रह सकते।वे कोई एक पार्टी चुन लें।आजादी की लड़ाई के दिनों कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेता व कवर्यकत्र्ता कांग्रेस के भीतर ही रह कर आजादी की लड़ाई में  सक्रिय थे।आचार्य जी के साथ साथ जेपी और लोहिया भी कांसोपा में ही थे। 
   आचार्य जी को कुछ नेताओं ने कहा था कि उप चुनाव में आप लोग हार जाएंगे।क्योंकि कांग्रेस की हवा है।
 आचार्य जी ने कहा कि भले हम हार जाएं,पर अब मैं उस दल में नहीं हूं जिस दल ने मुझे विधायक बनाया था।इसलिए सदन से इस्तीफा दूंगा।
वहीं हुआ ।उप चुनाव में इस्तीफा दे चुके 12 उम्मीदवारों में से सिर्फ एक व्यक्ति जीते ।पर आचार्य जी को इसका कोई अफसोस नहीं था।  
       ------और अंत में---
छात्र जीवन में  एक दफादार से मेरा परिचय कराया गया था।
साढ़े छह फुट लंबा ,रोबीला और कड़ी मूंछों  वाला दफादार था वह ।जब ‘दफादार साहब’ चले गए तो परिचय कराने वाले
ने बताया कि अंग्रेजों के जमाने में यह एक  डाकू था।
पर यह आदमी अपना पुराना धंधा छोड़ना चाहता था।पुलिस महकमे को  पता चला तो इसे दफादार बना दिया गया।जब से दफादार बना है, इलाके में शांति हैं।क्योंकि छोटे चोर और डाकू सब इससे डरते हैं।
  आज बिहार के गांवों में अपराध की जो स्थिति है,उसमें पुराने रोबिले चैकीदार -दफादार याद आते हैं।
वह व्यवस्था अब लगभग टूट चुकी है।
साथ ही अपराधियों और दबंग लोगों पर सामाजिक दबाव कम हो गया है।
 उधर आपराधिक छवि के राजनीतिककर्मियों ने स्थानीय बदमाशों को संरक्षण दे रखा है।
 इस स्थिति से निपटने के लिए अंग्रेजों के जमाने के कुछ फार्मूलों  को आजमाया जा सकता है।
@ 22 दिसंबर 2017 के प्रभात खबर -बिहार-में प्रकाशित मेरे  कानोंकान काॅलम से@