मंगलवार, 31 जनवरी 2023

 कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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दोहरे शासन की समाप्ति के बिना विश्व विद्यालयों में सुधार कठिन

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बिहार के विश्व विद्यालयों में शिक्षा-परीक्षा की हालत दयनीय है।

इसके लिए राज्य सरकार, राज भवन को और राज भवन राज्य सरकार को जिम्मेवार मानता रहा है।

चूंकि विश्व विद्यालयों पर द्वैध शासन है ,इसलिए एक दूसरे पर जिम्मेदारी थोपना आसान हो गया है।

ऐसे में अब यह जरूरी हो गया है कि विश्व विद्यालयों की पूरी जिम्मेदारी, संबंधित कानून में संशोधन करके,  बिहार सरकार खुद अपने हाथों में ले ले।

राजनीतिक कार्यपालिका के लोग चुनाव लड़ते हैं,जनता के पास उन्हें जाना पड़ता है।उनसे मतदातागण सवाल पूछते हैं कि शिक्षा क्यों चैपट होती जा रही है ?

  इस देश के कुछ राज्यों में वहां की राज्य सरकारों ने राज्यपालों को, कुलाधिपति के पद से मुक्त कर दिया है।शायद ऐसा करने का उनका उद्देश्य अलग है।

पर,यहां तो शिक्षा-परीक्षा को पटरी पर लाने की समस्या है।

लालजी टंडन जब बिहार के राज्यपाल थे तो मीडिया से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा था कि 

‘‘विश्व विद्यालय ठीक से चलें,यह अधिकार और जिम्मेदारी मेरे पास हैं।’’

पर, उससे पहले के पहले के राज्यपाल  देवानंद कुंवर के कार्यकाल में एक शर्मनाक घटना हो गई थी।

जब कुंवर जी बिहार विधान मंडल के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित कर रहे थे तो कांग्रेस की ही विधान पार्षद श्रीमती ज्योति ने अपनी ऊंची आवाज में सदन में ही राज्यपाल से पूछ दिया कि ‘‘आजकल आपके यहां वी.सी.बहाली का क्या रेट चल रहा है ?’’

  एक अन्य मामले में जब राज्य सरकार ने एक भ्रष्ट वी.सी.के खिलाफ कार्रवाई की तो राज भवन ने राज्य सरकार को लिख दिया कि आपने हमारी अनुमति के बिना उस वी.सी.के खिलाफ कार्रवाई क्यों की ?

दशकों पहले इस देश में जब राज्यपालों को विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति बनाने का निर्णय हुआ था तो इस बात की कल्पना तक नहीं थी कि कोई व्यक्ति, किसी राज्यपाल से पूछेगा कि ‘‘क्या रेट चल रहा है।’’

अब समय आ गया है कि राज्य सरकार खुद विश्व विद्यालयों की जिम्मेदारी ले अन्यथा बिहार की शिक्षा देर-सबेर पूरी तरह चैपट हो जाएगी।

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समझ में आने वाला अनुवाद

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सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चंद्रचूड़ ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की प्रतियां शीघ्र ही हिन्दी सहित अन्य क्षेत्रीय

भाषाओं में मिलेंगी।

यह सराहनीय व उपयोगी कदम है।

किंतु इस सिलसिले में एक खास बात पर ध्यान रखने की जरूरत पड़ेगी।

वह यह कि अनुवाद इतना सरल हो जो आसानी से समझ में आ जाए।

यहां यह इसलिए कहा जा रहा है कि भारतीय संविधान का हिन्दी अनुवाद सरल भाषा में नहीं हो सका है।

कानून की किताबों के अनुवाद भी ऐसे जटिल हैं कि उन्हें समझ पाना कठिन होता है।

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भूली-बिसरी याद

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सन 1973 में इलाहाबाद नगर महा पालिका ने डा.राम मनोहर लोहिया की आदमकद प्रतिमा स्थापित कर दी।

 पूर्व मुुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर को अनावरण के लिए आमंत्रित किया गया था।

कर्पूरी जी वहां जाने ही वाले थे।

किंतु उस बीच उत्तर प्रदेश के कुछ लोहियावादियों ने, जिन्होंने डा.लोहिया के साथ काम किया था,कर्पूरी जी से अपील की कि आप यह काम मत कीजिए।

क्योंकि यह काम खुद डा.लोहिया की इच्छा के खिलाफ है।

डा.लोहिया ने कहा था कि किसी व्यक्ति की मूर्ति या उसके नाम पर स्मारक स्थापित करने का काम उसके निधन के तीन सौ साल बाद ही होना चाहिए।

 तब तक उस व्यक्ति के बारे में आम लोग पूर्वाग्रह रहित होकर इस नतीजे तक पहुंच चुके होते हैं कि उस व्यक्ति का वास्तविक योगदान क्या था।

निधन के तत्काल बाद तो ख्याति से लोगबाग मोहित रहते हैं।समय बीतने के बहुत बाद यह तय हो पाता है कि उसकी ख्याति क्षणिक थी या स्थायी।उसका वास्तविक योगदान क्या था ?

याद रहे कि डा.लोहिया की मृत्यु सन 1967 में हुई थी।

डा.लोहिया की मूर्ति की स्थापना का विरोध करने वालों को यह नहीं पता था कि मूर्ति की स्थापना में लगे नेता व अन्य लोग लोहिया को उनकी मूर्ति तक ही सीमित कर देना चाहते थे।क्योंकि लोहिया की जीवन शैली,नीतियों और कार्य शैली का अनुकरण करना तो उनके वश में नहीं था।

ऐसे में कम से कम वे मूर्ति स्थपित करके उनको याद करने की औपचारिकता पूरी कर रहे थे।याद रहे कि विरोध के कारण कर्पूरी ठाकुर मूर्ति का अनावरण करने इलाहाबाद नहीं गए थे।    

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और अंत में

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बिहार में करीब आठ साल पहले जैविक खेती की शुरूआत हुई थी।

अब तो ऐसी खेती का काफी विस्तार हुआ है।

मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने अब मोटे अनाज के उत्पादन पर भी जोर दिया है।मोटे अनाज को सुपर फूड कहा जाता है।

पर,जैविक खेती में एक समस्या आ रही है।

व्यावसायिक ढंग से शुद्ध जैविक खेती करने पर उत्पाद काफी महंगा 

पड़ता है।

उदाहरणाथर्, एक लीटर शुद्ध जैविक सरसांे तेल की कीमत 389 रुपए है जबकि सामान्य सरसों तेल 225 रुपए प्रति लीटर की दर से बिक रहा है।अन्य उत्पाद की कीमत भी इसी तरह है।

सरकारी सब्सिडी की जरूरत महसूस हो रही है।अन्यथा,ऐसा न हो कि जैविक खेती के प्रति किसानों का उत्साह समय के साथ कम हो जाए।


    ‘‘इंडिया टूडे’’ के इस प्रशंसक पाठक का हाल

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      सुरेंद्र किशोर 

लगता है कि इंडिया टूडे के ‘‘हुक्मरानों’’ को अपने प्रकाशन के प्रसार में कोई खास रूचि नहीं है।

मैं पहले ‘दिनमान’ को पसंद करता था।

अब मेरी पसंदीदा पत्रिका है--‘इंडिया टूडे’।

क्योंकि इसकी विश्वसनीयता अपेक्षाकृत अधिक है।

मेरे निजी पुस्तकालय में सन 1982 से ‘इंडिया टूडे’ के अंक मौजूद है।

 पहले अंग्रेजी संस्करण और बाद में हिन्दी संस्करण।

2015 से जब मैं पटना के बगल के गांव में रहने लगा,तब से मुझे ‘इंडिया टूडे’ मिलने में काफी दिक्कत होने लगी।

क्योंकि अखबारों के हाॅकर यहां नहीं पहुंचाते।

इसलिए मैंने सोचा कि इंडिया टूडे के मुख्यालय से ही पत्र-व्यवहार करके शुल्क भेज कर डाक से उसे मंगवाने का प्रबंध करूं।

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  मैंने सबसे पहले एक सज्जन पत्रकार को मेल भेजा।

वे अब इंडिया टूडे -हिन्दी के संपादकीय विभाग में बड़े पद पर हैं।

उन्होंने मेरे मेल का जवाब तक नहीं दिया।

 जबकि, कुछ साल पहले मना करने के बावजूद नगर से दूर स्थित मेरे आवास पर आ गए थे।

 उन्होंने मेरा लंबा इंटरव्यू लिया था।सहृदय व्यक्ति लगे थे।

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पटना के मेरे एक वरिष्ठ पत्रकार मित्र कहा करते हैं कि दिल्ली वालों का यही हाल है।

उन्हें सिर्फ अपने काम से मतलब होता है।

इसीलिए यदि उनका कोई काम होता है तो मैं उसके बदले पहले ही भरपूर पैसे उनसे ले लेता हूं। 

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मैंने इंडिया टूडे के प्रसार विभाग के व्हाट्सेप्प पर भी संदेश भेजा।कोई जवाब नहीं मिला।

तीन दिन पहले इ मेल पर एक संदेश भेजा।

अब तक कोई जवाब नहीं।

अब इसका क्या अर्थ लगाया जाए ?!!

मैं चाहता था कि मेरे निजी-पारिवारिक पुस्तकालय में 

इंडिया टुडे की आवक बनी रहे ताकि हमारी अगली पीढ़ियां भी देखंे कि हमारे यहां एक अच्छी पत्रिका भी उपलब्ध है।

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31 जनवरी 23


सोमवार, 30 जनवरी 2023

   चुनावी आंकड़ों के जानकार प्रशांत किशोर ने जातिगत जन गणना का विरोध कर दिया है।

साथ ही, उन्होंने इस गणना के पीछे की मंशा पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि ‘‘समाज को जातीय गुटांें में बांटने की तैयारी है।’’

 मेरी समझ से ऐसा कहकर प्रशांत किशोर ने बिहार की 52 प्रतिशत आबादी से खुद को काट लिया है।

  इस राज्य में पिछड़ों की आबादी, कुल आबादी का 52 प्रतिशत है।

 मुझे तो पिछड़ी जाति का कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो जातिगत गणना का विरोध कर रहा हो।

क्या प्रशांत किशोर की उनकी बिहार यात्रा के दौरान पिछड़ी जाति का कोई ऐसा व्यक्ति उन्हें मिला ?

बिहार में राजनीति करने के लिए पहले यहां की सामाजिक स्थिति को समझना होगा।

सिर्फ चुनावी आंकड़ों का विशेषज्ञ होने से काम नहीं चलेगा।

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सुरेंद्र किशोर

27 जनवरी 23


   जातिगत गणना का विरोध 

 खुद सवर्णों के हक में नहीं

 मंडल आरक्षण को लेकर 

यह बात साबित हो चुकी है  

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सुरेंद्र किशोर

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सुप्रीम कोर्ट ने 20 जनवरी, 2023 को ठीक ही सवाल किया  कि ‘‘जातिगत गणना के बिना आरक्षण की नीति सही तरीके से कैसे लागू होगी ?’’

संविधान के अनुच्छेद16(4) के अनुसार , ‘‘पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं है,राज्य नियुक्तियों या पदों के आरक्षण का प्रावधान करेगा।’’

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क्या ऐसा प्रावधान करते समय संविधान निर्माताओं का उद्देश्य 

हिन्दू समाज को बांटना था ?

संविधान निर्माताओं में अधिकतर लोग तो ऊंची जातियों के ही तो थे।दरअसल वे उदारमना थे।

सन 1931 तक तो जाति के आधार पर गणना हुई ही थी।

क्या उससे तब हिन्दू समाज बंट गया ?

आज किस जाति का उचित प्रतिनिधित्व नहीं ,यह जानने के लिए तरह -तरह की गणनाएं करनी ही पड़ेंगी।

उससे यह भी पता चलेगा कि सवर्णों में भी किसे कितनी सरकारी मदद की जरूरत है।

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1990 तक भारत सरकार में कैसा प्रतिनिधित्व था,उसके लिए आंकड़ा यहां प्रस्तुत है। 

इस आंकड़े के बावजूद मंडल आरक्षण का 1990 में कड़ा विरोध हुआ था।

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1990 में केंद्र सरकार के विभागों में पिछड़ी जातियों के कर्मियों की संख्या

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विभाग    ---  कुल क्लास वन अफसर ---- पिछड़ी 

                                          जाति 

-----------------------------------राष्ट्रपति सचिवालय --- 48  -------  एक भी नहीं

प्रधान मंत्री कार्यालय--  35 ------      1

परमाणु ऊर्जा मंत्रालय--  34   ------    एक भी नहीं 

नागरिक आपूत्र्ति-----  61  -------  एक भी नहीं 

संचार    ------    52  ------    एक भी नहीं

स्वास्थ्य -------- 240   -------  एक भी नहीं 

श्रम मंत्रालय------   74  --------एक भी नहीं

संसदीय कार्य----    18   ---         एक भी नहीं

पेट्रोलियम -रसायन--  121    ----   एक भी नहीं 

मंत्रिमंडल सचिवालय--   20  ------      1

कृषि-सिंचाई-----   261   -------   13

रक्षा मंत्रालय ----- 1379   ------      9

शिक्षा-समाज कल्याण--  259 -----      4

ऊर्जा ----------  641 -------- 20

विदेश मंत्रालय  ----- 649 -------- 1

वित्त मंत्रालय----    1008 ---------1

गृह मंत्रालय----      409  --------13

उद्योग मंत्रालय--     169----------3

सूचना व प्रसारण--    2506  ------124

विधि कार्य--         143   --         5

विधायी कार्य ---    112    ------ 2

कंपनी कार्य --       247      ------6

योजना---           1262 -----    72

विज्ञान प्रौद्योगिकी ----101  ---     1

जहाज रानी-           103 --        1

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----1990 के दैनिक ‘आर्यावत्र्त’ से साभार 

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( 27 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान के बावजूद केंद्रीय सेवाओं में अब भी यानी 2023 में भी पिछड़ों का प्रतिनिधित्व औसतन सिर्फ 19 प्रतिशत है।यह भी देखना चाहिए कि कमजोर पिछड़ों का हक मजबूत पिछड़े तो नहीं मार ले रहे हैं। यह भी गणना से ही तो पता चलेगा।जो गणना अभी बिहार में हो रही है,उससे अलग ढंग की सघन गणना भी करानी पड़े तो करानी ही चाहिए।) 

  1990 का ऊपर लिखित आंकड़़ा उनके लिए भी है जो लोग यह मानते हैं कि 1993 में लागू मंडल आरक्षण

इस देश की अनेक समस्याओं की जड़ में है।

यह आंकड़ा उस समय का है जब ओ.बी.सी. के लिए केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण लागू नहीं था।

जहां प्रत्येक को  वोट का समान अधिकार है,वहां 52 प्रतिशत पिछड़ी आबादी के लिए शासन में उतना ही प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए था जो ऊपर का 1990 या 2023 का आकंड़ा बता रहा है ?

वह भी आजादी के 76 साल बाद भी ?

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मंडल आयोग ने सन 1931 की जातीय जन गणना को आधार बनाया था।

1990 में आरक्षण विरोधियों ने इसे भी अपने विरोध का एक आधार बनाया।

सवाल उठाया कि 1931 के पुराने आंकड़े के आधार पर आज कोई निर्णय कैसे हो सकता है ?

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फिर तो 1931 की तरह आज भी जातीय गणना जरूरी है।

लेकिन जब गणना होने लगती है तो विरोध शुरू हो जाता है।

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वी.पी.सिंह की सरकार ने सन 1990 में जब 27 प्रतिशत आरक्षण किया तो देश में हंगामा खड़ा हो गया।

बिहार में पक्ष और विपक्ष में काफी संघर्ष भी हुए।

इस संघर्ष से लालू प्रसाद जैसे सामान्य नेता पिछड़ों के महाबली नेता बन गए।

मेरी समझ से इसका श्रेय आरक्षण विरोधियों को ही जाता है।

विरोध नहीं हुआ होता तो सामान्य ढंग की राजनीति पहले जैसी ही चलती रहती।कोई सवर्ण मुख्य मंत्री भी बन जाता।

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तब बिहार विधान सभा के प्रेस रूम बैठकर मैं लगातार यह कहता रहा कि आरक्षण का विरोध नहीं होना चाहिए।(1993 में तो सुप्रीम कोर्ट ने मंडल आरक्षण पर अपनी मुहर भी लगा दी।)

 मैं आरक्षण विरोधियों से यह भी कहता था कि ‘‘गज नहीं फाड़िएगा तो थान हारना पड़ेगा।’’

कांग्रेस के पूर्व विधायक हरखू झा को थान हारने वाली मेरी वह बात आज भी याद है।वे हमारे बीच मौजूद हैं।शंका हो तो फोन पर पूछ लीजिएगा।

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अब सवाल है कि थान कैसे हारे ?

यदि मंडल आरक्षण का कड़ा विरोध नहीं होता तो बिहार में कोई सवर्ण योग्य नेता मुख्य मंत्री बनने से वंचित नहीं हो जाता।

यह संयोग नहीं है कि सन 1990 से अब तक कोई सवर्ण बिहार का मुख्य मंत्री नहीं बन सका।

वह भी संयोग नहीं था जब हमंे आजादी मिली तो कांग्रेस ऐसे मामले में अतिवादिता के दूसरे छोर पर थी।

याद कीजिए कांग्रेस को बिहार विधान सभा जब- जब अपने बल पर पूर्ण बहुमत मिला,उसने चुन-चुन कर सिर्फ सवर्णों को ही मुख्य मंत्री बनाया।

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और अंत में 

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चैधरी चरण सिंह ने बहुत पीड़ा के साथ एक बार कहा था कि ‘‘मुझे लोग जाट नेता कहते हैं।जबकि हमारे केंद्रीय मंत्रिमंडल में सिर्फ एक ही जाट था,वह भी राज्य मंत्री था।दूसरी ओर, राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में 15 ब्राह्मण कैबिनेट मंत्री  हैं।फिर भी उन्हें कोई जातिवादी नहीं कहता।’’     

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जहां तक प्रतिभा की बात है,आजादी के तत्काल बाद की सरकारों  में शामिल सत्ताधारी नेताओं में सारे प्रमुख नेता व अफसर आॅक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज में पढ़े थे।फिर भी सरकारी  1 रुपया घिसकर 1985 आते- आते सिर्फ 15 पैसे ही रह गया था।यानी 100 सरकारी पैसे दिल्ली से चलते थे,पर गांव तक पहुंचते-पहुंचते सिर्फ 15 पैसे रह जाते थे।

बाकी भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाते थे।

अन्य विफलताएं भी सामने आईं।

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21 जनवरी 23                                           




                                             



लालू प्रसाद का बड़प्पन

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   सुरेंद्र किशोर

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यह बात तब की है जब पिछली बार लालू प्रसाद पटना आए थे।

मेरे एक मित्र उनसे मिलने गए हुए थे।

लालू जी ने उनसे पूछा,‘‘सुरेन्दर भाई तोहरे बगल में रहते हैं ?’’

उन्होंने कहा कि ‘‘हां’’

लालू जी ने कहा कि ‘‘उनका के हमर सलाम कहीह !’’

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मुझे जब यह बात बताई गई तो मैंने सोचा कि सिंगापुर से जब वे लौटेंगे तो मैं उनसे मिलूंगा,यदि वे समय देंगे तो।

खैर, यह तो सामान्य शिष्टाचार वाली बात हुई।

इससे बड़ी बात आगे बताऊंगा जिसे मैं उनका बड़प्पन मानता हूं।

थोड़ी आपसी संबंध की पृष्ठभूमि बता दूं।

1969 से मैं लालू जी को जानता हूं।

उस साल बिहार समाजवादी युवजन सभा के जो तीन संयुक्त सचिव चुने गए थे उनमें मैं, लालू जी और शांति देवी (बेगूसराय)थीं।

शिवानंद तिवारी सचिव चुने गए थे।

बाद के वर्षों में भी यदाकदा लालू प्रसाद से मुलाकातें होती रहीं,खास कर जेपी आंदोलन के दिनांे में भी।

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 वे सन 1990 में मुख्य मंत्री बने ।

  एक संवाददाता के रूप में मेरी उनसे मुलाकात होने लगी।

एक बार उन्होंने मुझसे कहा कि ‘‘सहयोग कर।मिलजुल के राज चलावे के बा।’’

मैंने कुछ कहा नहीं।

दरअसल उन्हें इस बात का अनुमान नहीं था कि मेरी सक्रिय राजनीति में अब कोई रूचि नहीं है।

खैर, जब उनकी सरकार की कमियां मुझे नजर आने लगीं तो मैं ‘जनसत्ता’ में एक पेशेवर पत्रकार के रूप में लिखने लगा।

उसी अनुपात में वे मुझसे नाराज होने लगे।

हालांकि मंडल आरक्षण का लालू प्रसाद ने जिस तरह बचाव किया और आरक्षण विरोधियों के खिलाफ वे जिस तरह हमलावर रहे,उस काम के लिए मैं उनका प्रशंसक

रहा।मैं सामाजिक न्याय के लिए आरक्षण को जरूरी मानता रहा हूं।

तदनुसार मैं आरक्षण के पक्ष में लिखता रहा।किंतु मैं उनके अन्य विवादास्पद कामों का बचाव नहीं कर सकता था,नहीं किया।

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दरअसल जब कोई पत्रकार किसी नेता की गलतियों को उजागर करता है तो उस नेता के मन में

कई तरह के विचार आते हैं-

जैसे

 1.पत्रकार जातीय भावना से लिख रहा है।

2.-मेरा राजनीतिक विरोधी के इशारे पर लिख रहा है

3.-मेरा भयादोहन करके मुझसे कुछ पाना चाहता है।

आदि .....आदि

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2005 में लालू प्रसाद की पार्टी बिहार की सत्ता से हट गई।

उसके बाद के वर्षों में भी लालू प्रसाद मेरे बारे में जानते-सुनते रहे।

उन्होंने देखा कि अब भी सुरेंदर के चाल,चरित्र चिंतन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है तो मेरे बारे में उनके विचार बदले।जिसमें बड़प्पन होता है,वह असलियत जान लेने के बाद अपना विचार बदल लेता है।

बदले हुए विचार के तहत लालू प्रसाद ने कई माह पहले मेरे बारे में जो विचार प्रकट किए,वह 

मेरे लिए ‘‘भारत रत्न’’ के समान है।

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एक पुस्तक लेखक लालू प्रसाद से मिलने रांची जेल में गये थे।

वे जेपी आंदोलन पर लिखना चाहते थे।

उनसे लालू जी ने कहा कि ‘‘यहां काहे  आ गए।पटना में सुरेंदर किशोर से बात कर लीजिए।

जेपी आंदोलन का सब कुछ वह जानता है।ईमानदारी से सब बात बता देगा ।उसमें किसकी कैसी भूमिका थी,वह सब जानता है।

अंत में लालू जी ने मेरे बारे में कहा कि ‘‘सुरेन्दर संत है,फकीर है , 24 कैरेट का सोना है।’’

(लगे हाथ यह भी बता दूं कि अधिकतर पत्रकार सहित समाज के अन्य मुखर वर्ग के लोगों के चाल,चरित्र,चिंतन के बारे में वह नेता सबसे अधिक जानता है जो कम से कम 5 साल तक भी राज्य का मुख्य मंत्री रह चुका हो।अधिक दिनों तक मुख्य मंत्री रह जाने वाला नेता तो और भी अधिक जानता है।)

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अभी वे स्वास्थ्य लाभ कर रहे है।

मैं लालू प्रसाद के दीर्घ जीवन की कामना करता हूं।

इसलिए कि वे बिहार को सतत विकसित होते हुए लंबे समय तक अपनी आंखों से देखें।

जिस तरह मेरे बारे में उनके विचार बदले,उसी तरह वे अपने एक पुराने विचार को भी बदल लें ।

जब वे सत्ता में थे तो उनका यह विचार था कि ‘‘विकास से वोट नहीं मिलते,बल्कि सामाजिक समीकरण से वोट मिलते हैं।’’

अब वे खुद देख लें कि किस तरह विकास से भी वोट मिलते हैं और सामाजिक समीकरण की भी उसमें भूमिका रहती है।

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29 जनवरी 23    

 

 


शनिवार, 28 जनवरी 2023

    

 

बी.बी.सी.की पक्षपाती डाक्युमेंट्री का 

लाभ अंततः भाजपा को मिलेगा

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इंदिरा गांधी और लालू प्रसाद को भी ऐसे ही 

मामलों में चुनावी लाभ मिल चुके हैं।

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सुरेंद्र किशोर

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जहां कम लोग मरे ,वहां के बारे में तो बी. बी. सी. की डाक्युमेंट्री फिल्म आ गई।

पर,जहां बहुत अधिक लोगों का एकतरफा संहार हुआ,वहां के बारे में चुप्पी रही। 

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कम से कम दो मामलों में इस देश में पहले भी ऐसा लाभ उन्होंने उठाया जिनका विरोध हुआ।

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सन 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों के तहत आरक्षण की घोषणा हुई।

आरक्षण विरोधियों ने आंदोलन शुरू कर दिया।

बिहार के तब के मुख्य मंत्री लालू प्रसाद ने लोगों से कहा कि ‘‘हम तो सामाजिक अन्याय को समाप्त करना चाहते हैं और आरक्षण विरोधी लोग हमें ही गद्दी से हटा देना चाहते हैं।’’

52 प्रतिशत पिछड़ी आबादी पर लालू प्रसाद की बातों का असर हुआ।नतीजतन 1991 के लोक सभा चुनाव में लालू प्रसाद के दल और उनके सहयोगी दलों ने बिहार की अधिकतर लोक सभा सीटें जीत लीं।

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उससे पहले सन 1969 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया।

 उनकी सरकार ने पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्स व विशेषाधिकार समाप्त किए। 

14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया।

आम लोगों को लगा कि सचमुच इंदिरा गांधी गरीबी हटाना चाहती है।

लोगों ने इंदिरा कांग्रेस को लोक सभा चुनाव में भारी बहुमत से जिता दिया।

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 अब आप देश के मौजूदा हालात पर गौर करिए।

 बी.बी.सी.ने गलत तथ्यों और कुतर्कों पर आधारित डाक्युमेंट्री बनाई।

  इस देश के भाजपा विरोधी लोगों ने प्रतिबंध के बावजूद उसे प्रदर्शित किया।

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आज इस देश के बहुसंख्य लोगों को यह लग रहा है कि नरेंद्र मोदी सरकार बड़े- बड़े घोटालेबाजांे और जेहादियों-आतंकियों  से कठिन लड़ाई लड़ रही है।

  दूसरी ओर, तरह-तरह के तत्व मोदी सरकार को येन केन प्रकारेण अपदस्थ करना चाहते हैं।

इंडिया टुडे -सी.वोटर के ताजा सर्वे के अनुसार ‘‘देश का मिजाज’’ यह है कि आज लोस का चुनाव हो जाए तो भाजपा को 298 सीटें मिलेंगी।

सर्वे के अनुसार 67 प्रतिशत लोग मोदी सरकार के काम काज से बेहद संतुष्ट हैं।

वैसे तो 2024 के लोस चुनाव में अभी दर है।

यदि इस बीच पूरा प्रतिपक्ष एकजुट हो जाए तो यह आंकड़ा बदल सकता है।

किंतु क्या पूरे प्रतिपक्ष को चुनाव के लिए एकजुट करना आसान काम है ? 

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 गुजरात दंगा पूर्व नियोजित 

साजिश नहीं --सुप्रीम कोर्ट

24 जून, 2022

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2002 का गुजरात दंगा बनाम 

  1984 का सिख नर संहार

 --1989 का भागलपुर दंगा।

मृतकों के आंकड़ों की तुलना कर लीजिए

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गुजरात दंगे के दौरान पूर्व कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी की जान भीड़ से बचाने के लिए गुजरात के तत्कालीन मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी को भी फोन किए गए थे।

किंतु दंगाइयों से पूर्व सांसद को नहीं बचाया जा सका।

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सन 1984 में दिल्ली में जब सिख संहार हो रहे थे तो तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने अपने रिश्तेदारों और मित्रों को दंगाइयों से बचाने के लिए कई बार प्रधान मंत्री राजीव गांधी और गृह मंत्री पी वी नरसिंह राव को फोन किए।

उनलोगों ने राष्ट्रपति तक के फोन नहीं उठाए।

ज्ञानी जैल सिंह ने बाद में अपने जीवनी लेखक से कहा था कि राजीव गांधी के प्रधान मंत्री बनने के दो-तीन दिनों के बाद से ही उनसे मतभेद शुरू हो गए थे।

क्या मतभेद का यही कारण था कि राष्ट्रपति के रिश्तेदारों-मित्रों को प्रधान मंत्री दंगाइयों से नहीं बचा सके ?

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‘खुशामद सिंह’ के नाम से चर्चित पत्रकार-लेखक खुशवंत सिंह के फोन भी किसी सत्ताधारी हस्ती ने 1984 में नहीं उठाए जबकि नेहरू-गांधी परिवार खासकर संजय गांधी का  इमरजेंसी में भी खुशवंत सिंह ने समर्थन किया था।

1984 में खुशवंत सिंह भी दंगाइयों से अपने लोगों की जान बचाना चाहते थे।

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मनमोहन सिंह ने सन 1984 में सेना नहीं बुलाने 

के लिए गृह मंत्री पीवी नरसिंह राव को दोषी माना।

याद रहे कि मनमोहन ने 

प्रधान मंत्री राजीव गांधी को दोषी नहीं माना।

आश्चर्य है।

   यदि वे उन्हें दोषी मान लेते तो 2004 में प्रधान मंत्री कैसे बनते ?

याद रहे कि एक से 4 नवंबर 1984 तक दिल्ली में सिख संहार होता रहा।पुलिस बल मूक दर्शक या मददगार बना रहा।

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पर जब 2002 में 59 कार सेवकों को गोधरा स्टेशन पर ट्रेन में पेट्रोल छिड़क कर जिन्दा जला देने के बाद धरती हिली तो कांग्रेसी तथा दूसरे अनेक वोट लोलुप दलों व पैसालोलुप या दिग्भ्रमित बुद्धिजीवियों ने आसमान सिर पर उठा लिया।

काश ! इसी तरह का उनका रुख-रवैया यदि सिख संहार व भागलपुर दंगे पर भी रहता तो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हिन्दू सांप्रदायिक तत्व सिर नहीं उठाते।

  इसी तरह के दोहरे मापदंड के कारण नरेंद्र मोदी आज प्रधान मंत्री हैं और आगे नहीं रहेंगे,इसकी कोई गारंटी भी नहीं।

  क्योंकि इस देश के ढोंगी सेक्युलरिस्टों का दोहरा मापदंड आज भी कायम है। 

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सिख संहार के केस में वरिष्ठ कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को उम्र कैद की सजा पर मुहर लगाते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने 17 दिसंबर, 2018 को कहा था कि 

‘‘ 1 से 4 नवंबर तक पूरी दिल्ली में 2733 सिखों की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी।

उनके घरों को नष्ट कर दिया गया था।

देश के बाकी हिस्सों में भी हजारों सिख मारे गए थे।सिखों का एकतरफा संहार हुआ था।

इस भयावह त्रासदी के अपराधियों के बड़े समूह को राजनीतिक संरक्षण का लाभ मिला और जांच एजेंसियों से भी उन्हें मदद मिली।’’

..........................................

अब गुजरात दंगे और 1989 के भागलपुर दंगे की तुलना करते हैं।

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मनमोहन सिंह सरकार ने संसद को बताया था कि गुजरात दंगे में अल्पसंख्यक समुदाय के 790 और  बहुसंख्यक समुदाय के 254 लोग मरे।

गुजरात दंगे में दंगाई भीड़ को कंट्रोल करने की कोशिश में 

200 पुलिसकर्मी शहीद हुए थे।

गुजरात पुलिस ने दंगाइयों पर जो गोलियां चर्लाइं,उस कारण भी दर्जनों लोग मारे गए थे।

 गुजरात में दंगा में

सिर्फ नौ जानें जाने के बाद ही वहां सेना सड़कों पर थी।

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इसके विपरीत 1989 के दंगे में भागलपुर में अल्पसंख्यक समुदाय के 900 और बहुसंख्यक समुदाय के 100 लोग मरे।

पुलिस की गोलियों से वहां कितने दंगाई मारे गए ?

मुझे नहीं मालूम।भागलपुर दंगे को हैंडिल करने में कांग्रेस सरकार की भूमिका विवादास्पद रही।

..........................................

अधिक क्रूर दंगा 2002 में गुजरात में हुआ या 1989 में भागलपुर में ?

आंकड़े तो बता रहे हैं कि भागलपुर में अधिक क्रूरता हुई।

क्योंकि जहां अपेक्षाकृत अधिक लोगों को मारा जाता है,उसे अधिक क्रूर कहा जाता है।

फिर भी बी.बी.सी.ने कम हिंसा वाली जगह पर फिल्म बनाई और अधिक हिंसा को नजरअंदाज किया।

  ..........................

 फिल्म बनाना कोई सामान्य बात नहीं है।

इसके पीछे गूढ़ रहस्य है।

क्या रहस्य है?

पता लगाइए।

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28 जनवरी 23


 



जब कम खतरे में अधिक मुनाफा हो तो कैसे 

थमेगा सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार ?

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स्टिंग आॅपरेशन की राह कारगर

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सुरेंद्र किशोर

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बिहार सरकार के निगरानी जांच ब्यूरो की पड़ताल के बाद हाल में यह पता चला है कि एक करोड़पति क्लर्क आालीशान माॅल का भी मालिक है।

आरोप है कि ग्रामीण कार्य विभाग के उस क्लर्क ने इसके अलावा भी काफी नाजायज संपत्ति बना रखी है।

ऐसे  मामले आते ही रहते हैं।पर,भ्रष्टाचार नहीं रुक रहा है।क्योंकि भ्रष्टाचार की जड़ में कोई सरकार मट्ठा नहीं डाल रही है।उसकी डालियां काटी जा रही हैं।

    इसी क्लर्क की काली कमाई क्या उसके ऊपर के अधिकारियों से उसकी सांठ गांठ के बिना संभव थी ?

बिलकुल नहीं।

  यदि क्लर्क का नार्को-पाॅलीग्राफिक-ब्रेन मैपिंग टेस्ट कराया जाए तो वह यह तथ्य उगल देगा कि उसने नाजायज धनोपार्जन के लिए अपने ऊपर और नीचे के कितने अफसरों और सरकारी -गैर सरकारी लोगों से सहयोग लिया था।

 यदि उन सबकी संपत्ति की जांच इस क्लर्क की जांच के साथ ही हो जाए और सब पर मुकदमा चलाया जाए तो भ्रष्ट प्रशासक डरेंगे।

यदि यह काम करने के लिए अभी कोई कानून उपलब्ध नहीं हो तो वैसा कानून बनाया जाना चाहिए।

  इस देश यह आम धारणा बन चुकी है कि सरकारी भ्रष्टाचार कम खतरे और ज्यादा मुनाफे का धंधा है।   

......................

और अंत में

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पटना जिले के बेलछी अंचल के राजस्व कर्मचारी को  निलंबित कर दिया गया।

उस पर रिश्वतखोरी का आरोप है।

रिश्वत मांगने संबंधी ओडियो वायरल हुआ।

यानी, उस कर्मचारी की गिरफ्तारी तभी संभव हुई जब उसके खिलाफ स्टिंग आपरेशन हुआ।

जानकार लोग बताते हैं कि यदि स्टिंग आपरेशन्स को व्यापक बनाया जाए,तो सरकारी दफ्तरों के भ्रष्ट तत्वों में काफी भय पैदा होगा।

अभी निजी प्रयासों से ही छिटपुट स्टिंग हो रहे हैं।

क्या बिहार सरकार का निगरानी ब्यूरो खुद अपनी एक स्टिंग आपरेशन शाखा नहीं खोल सकता ?

वह शाखा गुप्त ढंग से अपना काम करे।

केंद्र सरकार का इंटेलिजेंस ब्यूरो और राज्य पुलिस का स्पेशल ब्रांच देशहित में गुप्त तरीके से बहुत सारी सूचनाएं एकत्र करता ही रहता है।

 भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई के लिए यदि लीक से हट कर भी कोई उपाय करना पड़े तो वह देशहित का ही काम होगा।क्योंकि सामान्य व परंपरागत उपायों से तो भ्रष्टाचार कम हो ही नहीं रहा है।

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साप्ताहिक काॅलम ‘कानांेकान’

प्रभात खबर,पटना

23 जनवरी 23


    

 

बी.बी.सी.की पक्षपाती डाक्युमेंट्री का 

लाभ अंततः भाजपा को मिलेगा

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इंदिरा गांधी और लालू प्रसाद को भी ऐसे ही 

मामलों में चुनावी लाभ मिल चुके हैं।

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सुरेंद्र किशोर

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जहां कम लोग मरे ,वहां के बारे में तो बी. बी. सी. की डाक्युमेंट्री फिल्म आ गई।

पर,जहां बहुत अधिक लोगों का एकतरफा संहार हुआ,वहां के बारे में चुप्पी रही। 

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कम से कम दो मामलों में इस देश में पहले भी ऐसा लाभ उन्होंने उठाया जिनका विरोध हुआ।

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सन 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों के तहत आरक्षण की घोषणा हुई।

आरक्षण विरोधियों ने आंदोलन शुरू कर दिया।

बिहार के तब के मुख्य मंत्री लालू प्रसाद ने लोगों से कहा कि ‘‘हम तो सामाजिक अन्याय को समाप्त करना चाहते हैं और आरक्षण विरोधी लोग हमें ही गद्दी से हटा देना चाहते हैं।’’

52 प्रतिशत पिछड़ी आबादी पर लालू प्रसाद की बातों का असर हुआ।नतीजतन 1991 के लोक सभा चुनाव में लालू प्रसाद के दल और उनके सहयोगी दलों ने बिहार की अधिकतर लोक सभा सीटें जीत लीं।

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उससे पहले सन 1969 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया।

 उनकी सरकार ने पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्स व विशेषाधिकार समाप्त किए। 

14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया।

आम लोगों को लगा कि सचमुच इंदिरा गांधी गरीबी हटाना चाहती है।

लोगों ने इंदिरा कांग्रेस को लोक सभा चुनाव में भारी बहुमत से जिता दिया।

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 अब आप देश के मौजूदा हालात पर गौर करिए।

 बी.बी.सी.ने गलत तथ्यों और कुतर्कों पर आधारित डाक्युमेंट्री बनाई।

  इस देश के भाजपा विरोधी लोगों ने प्रतिबंध के बावजूद उसे प्रदर्शित किया।

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आज इस देश के बहुसंख्य लोगों को यह लग रहा है कि नरेंद्र मोदी सरकार बड़े- बड़े घोटालेबाजांे और जेहादियों-आतंकियों  से कठिन लड़ाई लड़ रही है।

  दूसरी ओर, तरह-तरह के तत्व मोदी सरकार को येन केन प्रकारेण अपदस्थ करना चाहते हैं।

इंडिया टुडे -सी.वोटर के ताजा सर्वे के अनुसार ‘‘देश का मिजाज’’ यह है कि आज लोस का चुनाव हो जाए तो भाजपा को 298 सीटें मिलेंगी।

सर्वे के अनुसार 67 प्रतिशत लोग मोदी सरकार के काम काज से बेहद संतुष्ट हैं।

वैसे तो 2024 के लोस चुनाव में अभी दर है।

यदि इस बीच पूरा प्रतिपक्ष एकजुट हो जाए तो यह आंकड़ा बदल सकता है।

किंतु क्या पूरे प्रतिपक्ष को चुनाव के लिए एकजुट करना आसान काम है ? 

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 गुजरात दंगा पूर्व नियोजित 

साजिश नहीं --सुप्रीम कोर्ट

24 जून, 2022

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2002 का गुजरात दंगा बनाम 

  1984 का सिख नर संहार

 --1989 का भागलपुर दंगा।

मृतकों के आंकड़ों की तुलना कर लीजिए

   ..........

गुजरात दंगे के दौरान पूर्व कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी की जान भीड़ से बचाने के लिए गुजरात के तत्कालीन मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी को भी फोन किए गए थे।

किंतु दंगाइयों से पूर्व सांसद को नहीं बचाया जा सका।

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सन 1984 में दिल्ली में जब सिख संहार हो रहे थे तो तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने अपने रिश्तेदारों और मित्रों को दंगाइयों से बचाने के लिए कई बार प्रधान मंत्री राजीव गांधी और गृह मंत्री पी वी नरसिंह राव को फोन किए।

उनलोगों ने राष्ट्रपति तक के फोन नहीं उठाए।

ज्ञानी जैल सिंह ने बाद में अपने जीवनी लेखक से कहा था कि राजीव गांधी के प्रधान मंत्री बनने के दो-तीन दिनों के बाद से ही उनसे मतभेद शुरू हो गए थे।

क्या मतभेद का यही कारण था कि राष्ट्रपति के रिश्तेदारों-मित्रों को प्रधान मंत्री दंगाइयों से नहीं बचा सके ?

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‘खुशामद सिंह’ के नाम से चर्चित पत्रकार-लेखक खुशवंत सिंह के फोन भी किसी सत्ताधारी हस्ती ने 1984 में नहीं उठाए जबकि नेहरू-गांधी परिवार खासकर संजय गांधी का  इमरजेंसी में भी खुशवंत सिंह ने समर्थन किया था।

1984 में खुशवंत सिंह भी दंगाइयों से अपने लोगों की जान बचाना चाहते थे।

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मनमोहन सिंह ने सन 1984 में सेना नहीं बुलाने 

के लिए गृह मंत्री पीवी नरसिंह राव को दोषी माना।

याद रहे कि मनमोहन ने 

प्रधान मंत्री राजीव गांधी को दोषी नहीं माना।

आश्चर्य है।

   यदि वे उन्हें दोषी मान लेते तो 2004 में प्रधान मंत्री कैसे बनते ?

याद रहे कि एक से 4 नवंबर 1984 तक दिल्ली में सिख संहार होता रहा।पुलिस बल मूक दर्शक या मददगार बना रहा।

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पर जब 2002 में 59 कार सेवकों को गोधरा स्टेशन पर ट्रेन में पेट्रोल छिड़क कर जिन्दा जला देने के बाद धरती हिली तो कांग्रेसी तथा दूसरे अनेक वोट लोलुप दलों व पैसालोलुप या दिग्भ्रमित बुद्धिजीवियों ने आसमान सिर पर उठा लिया।

काश ! इसी तरह का उनका रुख-रवैया यदि सिख संहार व भागलपुर दंगे पर भी रहता तो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हिन्दू सांप्रदायिक तत्व सिर नहीं उठाते।

  इसी तरह के दोहरे मापदंड के कारण नरेंद्र मोदी आज प्रधान मंत्री हैं और आगे नहीं रहेंगे,इसकी कोई गारंटी भी नहीं।

  क्योंकि इस देश के ढोंगी सेक्युलरिस्टों का दोहरा मापदंड आज भी कायम है। 

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सिख संहार के केस में वरिष्ठ कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को उम्र कैद की सजा पर मुहर लगाते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने 17 दिसंबर, 2018 को कहा था कि 

‘‘ 1 से 4 नवंबर तक पूरी दिल्ली में 2733 सिखों की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी।

उनके घरों को नष्ट कर दिया गया था।

देश के बाकी हिस्सों में भी हजारों सिख मारे गए थे।सिखों का एकतरफा संहार हुआ था।

इस भयावह त्रासदी के अपराधियों के बड़े समूह को राजनीतिक संरक्षण का लाभ मिला और जांच एजेंसियों से भी उन्हें मदद मिली।’’

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अब गुजरात दंगे और 1989 के भागलपुर दंगे की तुलना करते हैं।

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मनमोहन सिंह सरकार ने संसद को बताया था कि गुजरात दंगे में अल्पसंख्यक समुदाय के 790 और  बहुसंख्यक समुदाय के 254 लोग मरे।

गुजरात दंगे में दंगाई भीड़ को कंट्रोल करने की कोशिश में 

200 पुलिसकर्मी शहीद हुए थे।

गुजरात पुलिस ने दंगाइयों पर जो गोलियां चर्लाइं,उस कारण भी दर्जनों लोग मारे गए थे।

 गुजरात में दंगा में

सिर्फ नौ जानें जाने के बाद ही वहां सेना सड़कों पर थी।

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इसके विपरीत 1989 के दंगे में भागलपुर में अल्पसंख्यक समुदाय के 900 और बहुसंख्यक समुदाय के 100 लोग मरे।

पुलिस की गोलियों से वहां कितने दंगाई मारे गए ?

मुझे नहीं मालूम।भागलपुर दंगे को हैंडिल करने में कांग्रेस सरकार की भूमिका विवादास्पद रही।

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अधिक क्रूर दंगा 2002 में गुजरात में हुआ या 1989 में भागलपुर में ?

आंकड़े तो बता रहे हैं कि भागलपुर में अधिक क्रूरता हुई।

क्योंकि जहां अपेक्षाकृत अधिक लोगों को मारा जाता है,उसे अधिक क्रूर कहा जाता है।

फिर भी बी.बी.सी.ने कम हिंसा वाली जगह पर फिल्म बनाई और अधिक हिंसा को नजरअंदाज किया।

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 फिल्म बनाना कोई सामान्य बात नहीं है।

इसके पीछे गूढ़ रहस्य है।

क्या रहस्य है?

पता लगाइए।

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28 जनवरी 23


मंगलवार, 24 जनवरी 2023

 नए पटना मास्टर प्लान -2041 में सारण जिले के 

तीन अंचल दरियापुर,दिघवारा और सोनपुर शामिल होंगे

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सुरेंद्र किशोर

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 मैंने छात्र जीवन में सोचा भी नहीं था कि हमारे पुश्तैनी गांव(भरहापुर,अंचल-दरियापुर,जिला-सारण)

को भी कभी पटना महानगर का हिस्सा बनाने पर विचार होगा।

किंतु दैनिक भास्कर ने आज खबर दी है कि प्रस्तावित ‘‘पटना मास्टर प्लान-2041’’ में सारण जिले के तीन अंचल-दरियापुर,दिघवारा और सोनपुर-भी शामिल होंगे।

 गांव में रहने के दिनों हमलोगों को दिघवारा ही बहुत दूर लगता था।पटना की बात कौन करे !

गांव से करीब 3 किलोमीटर दूर स्थित दिघवारा मिडिल स्कूल में मैंने छठवीं कक्षा की पढ़ाई शुरू की थी।

मेरे गांव में तब तक सिर्फ अपर प्राइमरी स्कूल था।

रोज कच्ची सड़क से गुजरते हुए दिघवारा जाता-आता था।

  पर, तब और आज ?

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हाल के वर्षों में पहले की अपेक्षा कुछ अधिक ही विकास हुआ है।याद रहे कि मेरे गांव बिजली पहली बार सन 2009 में ही जा सकी।

  कुछ महीने पहले मुख्य मंत्री नीतीश कुमार प्रस्तावित छह लेन के शेरपुर-दिघवारा गंगा पुल के स्थल निरीक्षण करने गए थे।

  निरीक्षण के बाद उन्होंने कहा था कि पुल के बनकर तैयार हो जाने के बाद दिघवारा से नया गंाव तक का पूरा इलाका ‘न्यू पटना’ बन जाएगा।

 प्रस्तावित मास्टर प्लान-2041 यदि बन कर तैयार हो जाएगा तो हमारे पुश्तैनी गांव के इलाके की तकदीर बदल जाएगी।

यानी,वहां के लोगों के यहां एक लघु ‘पटना’ पहुंच जाएगा,यदि राज्य सरकार शीघ्रातिशीघ्र पटना के समानुपातिक वहां भी विकास कर दे।

वैशाली और सारण जिलों को जोड़ने के लिए पटना के पास स्थित गंगा नदी पर अभी दो पुल हैं।

एकाधिक पुल प्रस्तावित हैं।

खबर है कि शेरपुर-दिघवारा गंगा पुल का तो इसी मार्च से निर्माण कार्य भी शुरू हो जाएगा।

  अच्छी बात है कि ‘‘डबल इंजन’’ फेल कर जाने के बावजूद दोनों सरकारों का शेरपुर-दिघवारा पुल पर ध्यान है।

 सारण के सांसद राजीव प्रताप रूडी भी इस मामले में जागरूक और प्रयत्नशील रहे हैं।

  बिल्डर्स और डेवलपर्स सारण जिले में पहले से ही सक्रिय हो चुके हैं।

शेरपर-दिघवारा पुल में हाथ लग जाने के बाद तो अधिक संख्या में डेवलपर्स और बिल्डर्स पुरं इलाके में सक्रिय हो जाएंगे। 

कभी मनीआर्डर इकाॅनोमी पर निर्भर सारण प्रमंडल का विकास तेज हो जाएगा।

  सारण में मुख्य सड़कें बेहतर हुई हैं।

सोनपुर -छपरा एन एच में काम लगा हैै।

पटना हाई कोर्ट निगरानी कर रहा है।

मेरे आग्रह पर कुछ साल पहले मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने दिघवारा- भेल्दी- ग्रामीण सड़क को स्टेट हाईवे में बदल दिया।

यदि प्रस्तावित मास्टर प्लान-2041 वाले इलाकों में ग्रामीण सड़कों के विशेष मरम्मत,सुदृढ़ीकरण व रख-रखाव पर राज्य सरकार विशेष ध्यान दे तो मेरे जैसे पटनावासी लोगों का अपने गांवों में भी वैकल्पिक आवासन होगा।

 इससे मुख्य पटना पर आबादी का बोझ घटेगा। 

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23 जनवरी 23   


  जन्म दिन की पूर्व संध्या पर 

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कर्पूरी ठाकुर की बेमिसाल विनम्रता

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    सुरेंद्र किशोर 

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सन 1972 की बात है।कर्पूरी ठाकुर बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता थे।

विधान सभा भवन स्थित अपने आॅफिस के मुख्य टेबल पर उनके निजी सचिव व कर्पूरी जी के लिए दोपहर का खाना आया।

   निजी सचिव खाना खाकर पहले ही उठ गया।हाथ धोने बेसिन की ओर चला गया।

उसने अपनी जूठी थाली टेबल पर ही छोड़ दी थी।

कर्पूरी जी ने जब अपना खाना खत्म किया तो उन्होंने एक हाथ से अपनी और दूसरे हाथ से अपने निजी सचिव की थाली उठाई और उसे कमरे के बाहर रख दिया।कर्पूर्री जी भी हाथ धोने चले गए।

बेसिन थोड़ा दूर था।

इस बीच निजी सचिव आ गया।

वहां पहले से बैठे प्रणव चटर्जी ने निजी सचिव से पूछा, ‘आपको पता है कि आपकी थाली किसने उठाई ?’

निजी सचिव ने कहा कि ‘दुर्गा ने उठाया होगा।दुर्गा कैंटीन का स्टाफ था।’

बक्सर के  पूर्व विधायक  प्रणव जी ने कहा कि ‘नहीं आपकी जूठी थाली खुद कर्पूरी जी उठाई और बाहर रखा।’

यह सुनकर निजी सचिव शर्मिंदा हो गया।उसे बहुत बड़ी शिक्षा जो मिल गयी थी। 

 यदि कर्पूरी जी की जगह कोई अन्य नेता, खास कर आज का कोई नेता होता ,या कोई साधारण विधायक भी होता तो उस स्थिति में वह क्या करता ?

अनुमान लगा लीजिए।

अब पूछिए कि वह निजी सचिव कौन था ?

भई,वह व्यक्ति मैं ही था।

मैं राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में सन 1972 के प्रारंभ से 1973 के मध्य तक कर्पूरी जी का निजी सचिव था।

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सुरेंद्र किशोर

22 जनवरी 23


 कर्पूरी ठाकुर के जन्म दिन पर

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सरकारी शिक्षिकाओं की सुविधा के 

लिए कर्पूरी सरकार का फैसला 

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सुरेंद्र किशोर

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मुंशीलाल राय सन 1977 में पहली बार जनता पार्टी के टिकट पर विधायक चुने गए थे।

बाद में तो वे मंत्री भी बने थे।

अब नहीं रहे।

उनकी पत्नी तब वैशाली जिले के एक सरकारी स्कूल में 

शिक्षिका थीं।

मुंशीलाल जी उनकी बदली पटना के किसी स्कूल में कराना चाहते थे।

पर,तब तक जिला ट्रांसफर का कोई प्रावधान ही नहीं था।

मुंशीलाल जी ने इस संबंध में तत्कालीन मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर से बात की।

कर्पूरी जी ने तुरंत जिला ट्रांसफर का प्रावधान करवा दिया।

  मुंशीलाल जी की पत्नी की पटना में बदली हो गई।

बाद में मुंशीलाल जी ने मुझसे कहा कि हमने प्रावधान करवा दिया है।आप भी अपनी पत्नी की बदली करवा लीजिए।

मेरी पत्नी उन दिनों सारण जिला स्थित मेरे पुश्तैनी गांव के पास के एक स्कूल में थीं।मैंने भी बदली करवा ली।

 इसी तरह राबड़ी देवी की सरकार के कार्यकाल में सरकारी महिला शिक्षिकाओं के ‘कठिन दिनों’ को ध्यान में रखते हुए हर माह दो दिनों के एसपी.सी.एल.का प्रावधान किया गया।

इस प्रावधान के लिए मेरी पत्नी के मन में राबड़ी देवी के लिए अब भी सराहना का भाव मैं देखता हूं।

वह कहती हैं कि राबड़ी जी ने ही महिला कर्मचारियों के कष्ट को समझा।

सवाल है कि सन 1977 से पहले वाली सरकारों का ध्यान महिला शिक्षिकाओं की इन समस्याओं की ओर क्यों नहीं था ?

जब एक ही जिले में पद उपलब्ध हैं ही तो पति और पत्नी की अलग -अलग जिलों में तैनाती क्यों हो रही थी ?

सिर्फ इसलिए कि उस पद का जिला काॅडर है ?

पिछली सरकारों का यह अमानवीय व्यवहार था जिसकी ओर ध्यान दिलाने के साथ ही मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर ने उस अमानवीयता को समाप्त कर दिया था।यही बात राबड़ी सरकार पर लागू होती है।महिलाआंे के उनके ‘कठिन दिनों’ में राहत तभी मिली ,जब एक महिला मुख्य मंत्री बनीं।

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24 जनवरी 23


 आज का चिंतन

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1.-जातीय-साम्प्रदायिक आग्रह-दुराग्रह,

2.-विचारधारा का बोझ,

3.-पैसे-पद का लोभ

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उपर्युक्त ‘त्रिदोष’ को आप कफ-पित्त-वात कह सकते हैं।

मुख्यतः ये ही ‘त्रिदोष’ मीडियाकर्मियों को पूरा सच लिखने-बोलने से रोकते हंै।

अपवादों की बात और है।

फिर भी ऐसे मीडियाकर्मियों से भले टुकड़ों में किंतु अधूरा सच तो हमें मिल ही जाता है।

कोई बात नहीं,हम अपने कौशल से उसे जोड़-घटा कर पूरा सच फिलहाल हासिल कर लेते हैं।

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सुरेंद्र किशोर

24 जनवरी 23


शनिवार, 21 जनवरी 2023

 ‘पहले पेज का शेष’

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सुरेंद्र किशोर

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रोज की तरह आज भी मेरे सामने पटना और दिल्ली के 11 दैनिक अखबार हैं।

इनमें से एक को छोड़ कर दस अखबारों के पहले पेज पर 

61 जगह लिखा हुआ है--‘पहले पेज का शेष।’

   मुझे इन अखबारों को 61 बार उलटना और 61 बार पलटना पड़ेगा।

क्या कीजिएगा !

यह काम तो करना ही पड़ेगा।

उस काम में मेरा कितना बहुमूल्य समय जाया होगा ?

ये ‘शेष’ तो मेरे समय के लिए रोज ही ‘शेष नाग’ का काम करते हैं।

आज के एक अखबार के पहले पेज के सभी 13 समाचारों के शेष भीतर के पन्ने पर गए हैं।

अरे भई, ऐसी एक दो खबर हो तो बात समझ में आ सकती है।

 किसी स्टाॅल से किसी खास अखबार का झटके से सिर्फ पहला पेज देखकर अखबार खरीदने वालों के लिए ऐसा करना व्यावसायिक रूप से सही हो सकता है।

किंतु अधिकतर अखबारों को खरीदने या मंगाने वालों की अपनी -अपनी पसंद होती है।

वे सारे पेज पढ़ते हैं न कि सिर्फ पहला पेज।

इसलिए खबर आप चाहे जिस किसी पेज पर दें ,वे पढ़ ही लेंगे।

इसके बदले पहले पेज को सुंदर व शालीन बनाइए।

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21 जनवरी 23   





शुक्रवार, 20 जनवरी 2023

      गोपालजी को श्रद्धांजलि

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मेरे सहपाठी और रिश्तेदार गोपाल प्रसाद सिंह का गत 5 जनवरी, 2023 को पटना में निधन हो गया।

वे सारण जिले के दिघवारा अंचल के मानु पुर गांव के मूल निवासी थे।

वे एक संपन्न व शालीन परिवार से आते थे।वे अपने पीछे भरा-पूरा परिवार छोड़ गए हैं।

  वे बिहार प्रशासनिक सेवा से रिटायर हुए थे।अपने पुत्र अभिजीत कुमार के साथ पटना में रहते थे।

शालीन व्यक्तित्व के धनी गोपाल जी के निधन की खबर सुनकर से वे सब दुखी हुए जो उन्हें जानते थे।

पिछले ही साल मेरे छोटे भाई नागेंद्र का असामयिक निधन हो गया।

अतः यह मेरे लिए दोहरा दुख है।

अपनी उम्र के या अपने से कम उम्र के परिजन जब दिवंगत होते हैं तो कुछ अधिक ही दुख होता है।

  दिघवारा स्थित जयगोविन्द उच्च विद्यालय में हम छात्र थे।

एक ही बैच के एक सेक्शन में गोपाल जी फस्र्ट आते थे और दूसरेे सेक्शन में मैं अपने क्लास में सेकेंड आता था।

गोपाल जी के यहां जब मेरे भतीजे की शादी हुई तो हमारे स्कूल के शिक्षक धर्मदेव सिंह(मलखाचक) भी शादी में गए थे।

 उन्होंने कहा कि मुझे बड़ी खुशी हुई कि मेरे दो प्रिय छात्र आपस में रिश्तेदार भी हो गए।

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सुरेंद्र किशोर

18 जनवरी 23


गुरुवार, 19 जनवरी 2023

 कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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आपराधिक विवरण छपवाने के आयोग के आदेश का उलंघन जारी

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 चुनाव आयोग का यह पुराना आदेश है।इसके अनुसार उम्मीदवारों को अपने आपराधिक रिकाॅर्ड का विवरण तीन बार समाचार पत्रों में छपवाना होगा।

नाम वापसी की आखिरी तारीख बीत जाने के बाद और मतदान के दिन से पहले तक तीन बार छपवाना होगा।

मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने हाल में भी इस आदेश को दुहराया है।

उन्होंने गुवाहाटी में कहा कि यह एक जरूरी आदेश है।

आपराधिक रिकाॅर्ड का विवरण समाचार पत्र,टेलीविजन चैनल और वेबसाइट पर  देना होगा।क्योंकि मतदाताओं को यह पता होना चाहिए कि जिसे वे वोट देने जा रहे हैं ,उसका आचरण कैसा रहा है।

 दरअसल चुनाव आयोग हर चुनाव से पहले इस तरह का निदेश राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को देता रहा है।

किंतु कुछ ही उम्मीदवार इसका पालन करते हैं।

अपवादस्वरूप ही कुछ उम्मीदवार अपने विवरण छपवाते हैं।चुनाव संपन्न हो जाने के बाद चुनाव आयोग इस बात की जांच नहीं कराता कि कितने उम्मीदवारों ने उसके इस निदेश का पालन किया है।कितने उम्मीदवारों ने ऐसे समाचार माध्यमों में विज्ञापन दिए ताकि अधिक से अधिक पाठकों और श्रोताओं तक 

जानकारी पहुंचे ?   

यह भी पता नहीं चल पाता कि किन उम्मीदवारों ने आयोग के इस स्पष्ट निदेश का पालन नहीं किया।यदि ऐसा हुआ तो उनके खिलाफ आयोग ने कौन सी कार्रवाई की ?

  यदि आयोग हर चुनाव के बाद ऐसा सर्वेक्षण करवाने लगे तो शायद कुछ फर्क पड़े।

जब तक इस आदेश का उलंघन करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं होगी तो तब तक इस आदेश का उलंघन होता रहेगा।

इस आदेश को सही ढंग से लागू करने के लिए आयोग एक उपाय कर सकता है।वह नामांकन पत्र के साथ ही विज्ञापन का खर्च अपने यहां जमा करा ले।आयोग ही मीडिया को विज्ञापन जारी करे।

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 गैर जरूरी लोकहित याचिकाएं

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सुप्रीम कोर्ट की ताजा पहल सराहनीय है।सबसे बड़ी अदालत अब कुछ लोकहित याचिकाओं को संबंधित उच्च न्यायालयों में ही दाखिल करने का निदेश देने लगी है।वर्षों से बड़ी संख्या में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हो रही लोकहित याचिकाओं से सुप्रीम कोर्ट परेशान रहा है।उससे उस पर काम का बोझ बढ़ता है।

  कई लोकहित याचिकाएं तो जरूरी होती है।सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत किए जाने के लायक भी होती हैं।वैसी याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट सुनवाई के लिए स्वीकार भी कर रहा है।

 सर्वोच्च न्यायालय पर अनावश्यक याचिकाओं का दबाव कम हो,इसको लेकर जरूरी कदम उठाना जरूरी था।

सिर्फ प्रचार के लिए दायर की जा रही याचिकाओं को खारिज करने का काम तो उच्च न्यायालयों को भी कर देना चाहिए।

इससे अन्य अति आवश्यक मुकदमों पर ध्यान देने का अदालतों को अधिकाधिक समय मिलेगा।

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लूट को ऐसे रोकें

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बिहार में काॅमन सर्विस सेंटर के संचालकों की जान अक्सर खतरे में आ जाती है।

आए दिन यह खबर आती रहती है कि संचालकों से पैसे लूट लिए गए।

कई बार संचालकों को लूट के दौरान गोली मार दी जाती है।

वर्षों से ऐसा हो रहा है।पर,इस समस्या का कोई स्थायी निदान नहीं हो पा रहा है।

बहुत पहले बिहार पुलिस की ओर से यह कहा गया था कि जिन्हें भी 25 हजार रुपए से अधिक की राशि बैंक में जमा करनी हो,वे पुलिस की मदद ले सकते हैं।

पता नहीं,कितने लोगों ने मदद ली।

पर,यदि ऐसी मदद लेने वालों से पुलिस आधिकारिक तौर पर कुछ शुल्क लेने लगे तो उससे पुलिस की आय भी बढ़ेगी और लोगों की जान भी बचेगी।

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भूली-बिसरी याद

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सन 1967 तक इस देश में लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक ही साथ होतेे थे।

1967 के चुनाव में बिहार में लोक सभा और विधान सभा के अलग -अलग रिजल्ट आए।

 लोक सभा की कुल 53 सीटों में से कांग्रेस को 31 सीटें मिलीं।लेकिन विधान सभा की 318 सीटों मंे से कांग्रेस को सिर्फ 128 सीटें ही मिलीं।

 यानी, कांग्रेस की सरकार बिहार में नहीं बनी।

 तब इंदिरा गांधी प्रधान मंत्री थीं।बिहार की कांग्रेसी सरकार के खिलाफ लोगों में जितना असंतोष था,उतना इंदिरा गांधी की केंद्र सरकार के खिलाफ नहीं था।

 एक ही साल पहले इंदिरा गांधी प्रधान मंत्री बनी थीं।

 लोक सभा और विधान सभा के चुनाव जब एक साथ हुए, फिर भी दो तरह के रिजल्ट आए।

अब तो लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव अलग- अलग समय पर हो रहे हैं।मुद्दे भी थोड़े अलग होते हैं।

इसलिए अगले किसी चुनाव में लोक सभा की तरह ही नतीजे विधान सभाओं में न आए तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

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और अंत में

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‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान लुधियाना-जालंधर के रास्ते में कांग्रेस सांसद संतोष सिंह का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।वे 76 साल के थे।

भारत के लोगों की औसत आयु 70 साल है।यह घटना राजनीतिक दलों को शिक्षा देती है।सबक यह है कि वे किसी यात्रा, आंदोलन या अभियान के दौरान एक खास बात पर ध्यान दें।

वे जरा संवेदनशीलता दिखाएं।उनमें किसी बुजुर्ग को शामिल करने के बारे में विचार कर लें।भीषण गर्मी या कड़ाके की ठंड के दौरान बुजुर्गों को किसी अभियान से मुक्त ही रखें,तो बेहतर होगा।

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प्रभात खबर-पटना 15 जनवरी 23    


 ‘‘पाकिस्तान अगर मंदिर और गुरुद्वारे नहीं तोड़ता तो वहां की जनता आज लंगर से अपना पेट भर पातीं।’’

  ---रेनी लिन

राष्ट्रीय सहारा

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  दरअसल रेनी लिन ने महमूद गजनवी के दरबारी इतिहासकार उत्बी की किताबें नहीं पढ़ी हैं।

इसीलिए ऐसी बातें उन्होंने लिख दीं।

उत्बी के अनुसार सोमनाथ मंदिर के पुजारियों ने गजनवी(सन-971-सन 1030) के सामने बहुत सारा सोना रख दिया था।

और, उससे विनती की कि और भी सोना हम आपको दे सकते हैं।किंतु आप मूर्ति को मत तोड़िए।

उस पर गजनवी ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता।

क्योंकि मैं मरने के बाद खुदा के सामने बुत परस्त यानी मूर्ति पूजक के रूप में हाजिर नहीं होना चाहता।

  दरअसल पाकिस्तान के मदरसों में आज जो कुछ पढ़ाया जाता है ,उसके अनुसार मूर्ति भंजकों को जन्नत में जगह मिलती है।

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यह और बात है कि आजादी के बाद के भारत के ‘‘एकतरफा सेक्युलर’’ सत्ताधीशों के निदेश पर वामपंथी इतिहासकारों ने हमें यह पढ़ाया कि मध्य युग के हमलावर पैसों के लुटेरे थे।

कुछ अन्य हमलावारों के स्थानीय राजाओं से जो युद्ध हुए,वे वैसे ही थे जैसे किन्हीं दो राजाओें के बीच युद्ध होते रहते  हैं।इनमें धर्म कहीं नहीं था।

दूसरी ओर, भाजपा से जुड़े इतिहासकार उत्बी जैसे समकालीनों को आधार बना कर इतिहास बताते हैं।

उत्बी की किताबों -- ‘किताब उल यामिनी’ और ‘तारीख उल यामिनी’ का विवरण आप गुगल पर पढ़ सकते हैं।उन्हें मंगा सकते हैं।और खुले दिमाग से ऐसे विषय पर खुद नतीजा निकाल सकते हैं। 

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सुरेंद्र किशोर

19 जनवरी 23


    आटा या जेहाद ?

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पाकिस्तानी शासकों को अपने नागरिकों के लिए आटा 

चाहिए या भारत सहित पूरी दुनिया में जेहाद ?

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सुरेंद्र किशोर

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पाकिस्तान के पी.एम.ने यह स्वीकार किया है कि भारत से जंग लड़ने के कारण ही हमें कंगाली मिली है।

 हालांकि शहबाज शरीफ कश्मीर का मुद्दा फिर भी छोड़ना नहीं चाहते।यानी, उन्हें जेहाद, आटा की अपेक्षा अधिक पसंद है।

  इधर भारत की कोई भी सरकार कश्मीर आपको देने वाली है नहीं।

  नतीजा यह होगा कि पाकिस्तान , कश्मीर तथा भारत की मुख्य भूमि पर अपने जेहादी भेजना बंद नहीं करेगा।

फिलहाल भारत के आतंकवादी संगठन पी.एफ.आई.ने भी हथियारों के बल पर सन 2047 तक भारत को इस्लामिक देश बना देने का संकल्प कर रखा है।

इसके लिए वह हथियार भी बांट रहा है।उसको पाक और भारत के भी कई तथाकथित सेक्युलर दलों और बुद्धिजीवियों का समर्थन हासिल है।

  इस माहौल में नरेंद्र मोदी के और भी मजबूत होने से भला कौन रोक सकता है ?

याद रहे कि हमारे देश के कुछ नेताओं व बुद्धिजीवियों को तुलसी की चैपाई पर तो सख्त एतराज है,जरूर एतराज कीजिए,पर वे पी.एफ.आई. के हथियार- वितरण- कार्यक्रम-की चर्चा तक नहीं करते न ही उनके 2047 के लक्ष्य की।

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इस बीच पाक टी.वी.चैनलों को देखने से यह लगता है कि वहां की मुस्लिम युवा पीढ़ी का एक हिस्सा भारत की तरह ही आधुनिक बनकर प्रगति करना चाहता है।

यानी, वहां भी आंतरिक कशमकश है।

आबादी के उस हिस्से के लिए ‘आटा’ अधिक महत्वपूर्ण है।

आटा तो एक प्रतीक है।

इधर प्रतिबंधित पी.एफ.आई.भी यह स्वीकार करता है कि भारत के मुसलमानों में से 10 प्रतिशत  भी अभी उसके साथ नहीं हैं।

हां,फिर भी भारत को पाॅपुलर फं्रट आॅफ इंडिया पाकिस्तान,सिरिया,अफगानिस्तान बनाने पर अमादा है।इन देशों में उपद्रव व कंगाली के अलावा और क्या है ?

शाहीन बाग आंदोलन पी.एफ.आई.ने ही किया था।याद कीजिए कि विदेशी फंडिंग से हुए उस आंदोलन के प्रति समर्थन जताने कितने सेक्युलर नेता शाहीन बाग पहुंचे थे।

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कुल मिलाकर स्थिति यह है कि अब तो पाक व भारत के तरक्कीपसंद व शांतिप्रिय मुस्लिम ही अगले खतरों से

इन देशों को बचा सकते हैं।

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18 जनवरी 23  

 


शनिवार, 14 जनवरी 2023

 महाराणा प्रताप की याद में 

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जो घास की रोटी खाना मंजूर करता है, फिर भी अपने सिद्धांत से समझौता नहीं करता,उसे उसी तरह का सम्मान मिलता है जिस तरह का सम्मान महाराणा प्रताप व उनके वंशज को मिलता रहा है।

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कुछ नमूने प्रस्तुत हैं--

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भारत की आजादी के बाद तक भी राजस्थान के सभी राजा, महाराणा प्रताप के वंशज को शाष्टांग प्रणाम

करते थे।

सभी राजा यानी सभी राजा !

पता नहीं, अब क्या स्थिति है ?

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अंग्रेजी सरकार ने जार्ज पंचम के दिल्ली दरबार में हाजिर होने से सिर्फ महाराणा प्रताप के वंशज को छूट दी थी।

क्योंकि सारे भारतीय राजाओं की यह मजबूरी होती थी कि वे ब्रिटिश किंग के सामने झुककर उन्हें नजराना दें।

चूंकि महाराणा के वंशज इसके लिए तैयार नहीं थे,इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें यह छूट दे दी थी।(-पुस्तक नेहरू के साथ तेरह वर्ष-एम.ओ.मथाई से)

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आजादी के बाद एकमात्र अपवाद सामने आया था।

महाराणा के वंशज को ‘महाराज प्रमुख’ बनाया गया।

अन्य राजे-महाराजे ‘राज प्रमुख’ ही बने।

जबकि, जयपुर अपेक्षाकृत बड़ा राज्य था।

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प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने महाराणा के वंशज को दिल्ली बुलाकर अपने साथ प्रधान मंत्री आवास में ठहराया और उनकी समस्या दूर की थी।

प्रधान मंत्री की ओर से ऐसा सम्मान शायद ही किसी को मिलता था।  

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यह सब क्यों हुआ ?

क्योंकि महाराणा प्रताप एक मात्र राजा थे जिन्होंनंे घास की रोटी भले खाई, किंतु अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की।

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बिहार सरकार ने यह तय किया है कि पटना के मुख्य मार्ग यानी मजहरूल हक पथ,यानी, फ्रेजर रोड पर महाराणा प्रताप की मूर्ति लगाई जाएगी।

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बिहार विधान परिषद के सदस्य व बिहार जदयू के उपाध्यक्ष संजय सिंह महाराणा की याद में स्वाभिमान समारोह का आयोजन करने जा रहे हैं।

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कहानी का मोरल ??

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पर,सवाल है कि महाराणा प्रताप के जीवन से आज के नेताओं व अन्य लोगों को कैसी शिक्षा लेनी चाहिए ?

जवाब है कि सबसे बड़ी शिक्षा तो यही अपेक्षित है कि भले ‘‘घास की रोटी खानी पड़े’’ किंतु वे सत्ता सुख के लिए अपने सिद्धांतों से समझौता न करें।

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क्या ऐसी शिक्षा ग्रहण करना आसान है ?

आसान तो नहीं है किंतु असंभव भी नहीं है।

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सुरेंद्र किशोर

14 जनवरी 23 


शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

   जार्ज-नीतीश संबंध को लेकर 

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      सुरेंद्र किशोर

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नीतीश कुमार के आलोचक अक्सर यह आरोप लगा देते हैं कि 

नीतीश कुमार ने जार्ज फर्नांडिस की उपेक्षा की।

इस संबंध में कभी -कभी कड़े शब्दों का भी इस्तेमाल किया जाता है।

मेरा मानना है कि इस संबंध में आलोचकों को जो कहना हो,वे कहें।

 उन्हें रोकने वाला मैं कौन होता हूं !

मैं न तो नीतीश कुमार के दल में हूं और न ही उनका  प्रवक्ता हूं। 

हां,समकालीन पत्रकार और जार्ज का कभी सहकर्मी होने के नाते मेरी भी इस संबंध में कुछ जानकारियां हैं,जो मैं आम लोगों से आज शेयर करना चाहता हूं।

दरअसल,मेरी जानकारी के अनुसार, नीतीश ने जार्ज को नहीं छोड़ा,बल्कि 2005 के आसपास जार्ज ने ही नीतीश को छोड़ दिया था।

  मेरी जानकारी के अनुसार ,जार्ज साहब नीतीश के बदले तब दिग्विजय सिंह(बांका) को बिहार का मुख्य मंत्री बनवाना चाहते थे।

  ऐसे में नीतीश कुमार क्या करते ?!

 एक राजनेता जो करता है,वही नीतीश ने भी किया। 

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इस अप्रिय प्रसंग के बावजूद उनके जीवन की संध्या बेला में,जब वे शारीरिक रूप से अशक्त हो रहे थे, नीतीश कुमार ने  

जार्ज को बिहार से राज्य सभा का सदस्य बनवा दिया।

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जार्ज फर्नांडिस का मैं बड़ा प्रशंसक रहा हूं।

उनके अन्य कई साथियों की तरह ही मैंने भी आपातकाल में भूमिगत होकर जार्ज के साथ ‘डायनामाइटी अभियान’ चलाया था। 

जान हथेली पर लेकर चलने वाला वह समय था।

मैंने जार्ज जैसा देशभक्त,ईमानदार व बहादुर इंसान राजनीति में बहुत ही कम देखे हैं।अब तो और भी नहीं।

 लेकिन यह बात भी है कि कोई व्यक्ति पूर्ण नहंीं होता।

न मैं, न आप, और न जार्ज।

मैं कुछ अन्य बड़े नेताओं के अलावा जार्ज के साथ के अपने अनुभव भी विस्तार से बाद में लिखूंगा।

तब बातें और साफ होंगी।

मेरा मानना है कि सन 2005 के बिहार की राजनीतिक-सामाजिक स्थिति के आकलन में जार्ज गलती कर गए थे।

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12 जनवरी 23 


   इस देश के एक राज्य में एक ऐसे नेता भी मुख्य मंत्री हुए हैं जिन्हें छात्र जीवन में मानसिक आरोग्यशाला में भर्ती होना पड़ा था।

उनके अभिभावक ने उनके इलाज के लिए वहां भर्ती किया था।

बाद में वे ठीक हो गए और मुख्य मंत्री तक बने।

हालंाकि तब भी कभी- कभी उनकी उलटी-सीधी बातों से यह लग जाता था कि शायद कभी वे ‘बीमार’ रह चुके होंगे।

 इसी देश के एक राज्य में एक ऐसे आई.पी.एस.अफसर राज्य के पुलिस प्रमुख बने थे जिन्हें अपने सेवा काल में भी यदाकदा मानसिक आरोग्यशाला जाना पड़ता था।

 पर,पुलिस प्रमुख तो बने ही ।

इसलिए उन लोगों को चिंता करने की जरूरत नहीं जिनके दिमाग में हर बार सुलझे हुए विचार नहीं आते।

 किसी को बताए बिना देश या विदेश के किसी अच्छे मानसिक आरोग्यशाला में वे अपना इलाज ठीक ढंग से करा लें।

ठीक हो जाएं।

फिर तो वे बड़े से बड़ा पद पर बैठ ही सकते हैं।

---सुरेंद्र किशोर

13 जनवरी 23




     आज का चिंतन

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 देश की राजनीति,कल,आज और कल !!

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       --सुरेंद्र किशोर-

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   सन 2014 में नरेंद्र मोदी की जीत के क्या-क्या कारण बने थे ?

उसके लिए कौन से तत्व जिम्मेदार थे ?

मेरी समझ से उस जीत में यू.पी.ए.सरकार की खामियों का योगदान 60 प्रतिशत था।

 जीत में 40 प्रतिशत ही योगदान नरेंद्र मोदी व राजग की खूबियों का था।

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2019 लोस चुनाव में भी स्थिति लगभग वही बनी रही।

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आज भी लगभग वही स्थिति है जबकि 2024 का चुनाव कुछ ही महीने दूर है।

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अगले कुछ महीनों में मोदी विरोधी दलों ने यदि अपना चाल,चरित्र और चिंतन नहीं बदला तो सन 2024 में भी वही रिजल्ट आने वाला है।

रवैया कैसे बदला जा सकता है,उस पर फिर कभी बाद में लिखूंगा।

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लेकिन यदि मोदी सन 2024 में फिर सत्ता में आ गए तो प्रतिपक्ष का क्या होगा ?

खास कर उन छोटे -बड़े दर्जनों प्रतिपक्षी नेताओं का क्या होगा जिन पर देश की विभिन्न अदालतों में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में मुकदमे चल रहे हैं ?

  2024 चुनाव से पहले कई अन्य प्रतिपक्षी नेताओं के खिलाफ भी मुकदमे शुरू हो सकते हैं।

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यदि मोदी की 2024 में भी विजय हुई तो 2024 और 2029 के बीच क्या -क्या होगा ?

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  प्रतिपक्षी दलों के अधिकतर नेताओं के खिलाफ मुकदमों में कम से कम लोअर कोर्ट्स से तो फैसले आ ही चुके होंगे।

सबूत देखने के बाद उन नेताओं को इन दिनों अदालतंे कोई खास राहत नहीं दे रही हैं।

इसलिए अंतिम नतीजों का भी अनुमान लगा लें।

बड़े नेताओं को बड़ी सजाएं ही हांेगी !

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यह भी अनुमान लगा लें कि 2024 और 2029 के बीच कितने प्रतिपक्षी नेतागण जेलों में होंगे और कितने बाहर ?

फिर देश का राजनीतिक दृश्य कैसा होगा ?

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31 दिसंबर 22

  


   


      बिहार के शिक्षा मंत्री ने भाजपा 

    को दे दिया उसके अनुकूल मुद्दा

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     सुरेंद्र किशोर

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यदि बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्र शेखर जी सन 2024 के लोक सभा चुनाव तक अपने पद पर बने रह गए तो भाजपा को एक अच्छा-खासा चुनावी मुद्दा उपलब्ध रहेगा।ऐसा मुद्दा भाजपा के लिए अनुकूल होता है।

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2014 में जब मोदी सरकार केंद्र की सत्ता में आई तो भाजपा के कई बड़बोले सांसद व मंत्री ‘राष्ट्र के नाम संदेश’ देने लगे जिस तरह का संदेश चंद्रशेखर दे रहे हैं।

पर नरेंद्र मोदी ने अपने दल के नेताओं से सार्वजनिक रूप से अपील की कि आप राष्ट्र के नाम संदेश देने के बदले अपने काम करें।

फिर भी कई भाजपा नेता संदेश देते रहे।

इस तरह वे भाजपा विरोधी दलों को मुद्दा थमाते रहे।

वैसे सबसे अधिक ऐसे ‘‘संदेश’’ जीतनराम मांझी ने दिए थे जब वे मुख्य मंत्री बने थे।

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1977 के बिहार मंत्रिमंडल के एक सदस्य के यहां मैं गया था।

पुराने परिचित थे।

उन्होंने करीब दो घंटे तक मुझसे बातचीत की। 

अपने विभाग की बात छोड़कर देश-दुनिया की ही बातें वे करते रहे।

 मंत्री बनने के बाद वे ‘चिंतक’ बन गए थे।उसके बाद वे कभी चुनाव नहीं जीत सके।

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  12 जनवरी 23 


 इस देश के कुछ नेताओं और बुद्धिजीवियों के लिए प्रज्ञा सिंह ठाकुर के ‘कुबोल’ कोई समस्या नहीं।

नेताओं और बुद्धिजीवियों के दूसरे हिस्से के लिए ‘‘गजवा ए हिन्द’’ कोई समस्या नहीं।

  जबकि, देश की एकता,लोकतांंित्रक-व्यवस्था और सुख -शांति के लिए हर नागरिक को इन दोनों तरह की प्रवृतियों  के खिलाफ उठ खड़ा होना चाहिए।

  पर, वोट बैंक की राजनीति जो न कराए !!

इसे इस देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे।

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7 जनवरी 23  


   राष्ट्रपति वेंकटरमण ने डा.लोहिया के तैल चित्र 

  का अनावरण करने से इनकार कर दिया था

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    सुरेंद्र किशोर

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वीर सावरकर की बात तो अभी छोड़ ही दीजिए।

मैं डा.राम मनोहर लोहिया की बात करता हूं।

लोहिया ने कभी ब्रिटिश सत्ता को माफीनामा नहीं लिखा।

फिर भी ‘‘इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया’’ की धारणा पालने वाली कांग्रेस के नेता रहे आर.वंेकटरमण जब राष्ट्रपति बने तो उन्होंने संसद के सेंट्रल हाॅल में लोहिया के तैल चित्र का अनावरण करने से साफ इनकार कर दिया था।

बाद में प्रधान मंत्री चंद्रशेखर ने लोहिया के उस चित्र का अनावरण किया।

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तब वेंकट रमण को मधु लिमये ने इसके विरोध स्वरूप एक लंबा व कड़ा पत्र लिखा था।

वह पूरा पत्र कलकत्ता से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका ‘संडे’ में छपा था।मैंने भी उसे पढ़ा था।

उस अंक को मैं अपनी लाइबे्ररी में खोज रहा हूं।मिल जाएगा तो उससे भी उधृत करते हुए कुछ बातें भी लिखूंगा।

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 आजादी की लड़ाई के दिनों जवाहर लाल नेहरू जब कांग्रेस अध्यक्ष बने तो उन्होंने पार्टी का ‘विदेशी मामलों का प्रभाग’ बनाया था।नेहरू ने लोहिया को उसका सचिव मनोनीत किया।

 नेहरू के प्रधान मंत्री बनने के बाद एक बार लोहिया दिल्ली ़ जेल भेज दिए गए थे।

आमों का मौसम था।

नेहरू जी इंदिरा गांधी के साथ एक दिन भोजन के टेबल पर थे।

 उन्होंने पूछा, ‘‘इन्दु,लोहिया को तो आम नहीं मिला होगा।

उसे आम भिजवाना चाहिए।’’

उस पर नेहरू के सचिव एम.ओ.मथाई आम लेकर जेल गए थे।

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लगता है कि बाद के वर्षों में कांग्रेस में ऐसी प्रवृति पैदा कर दी गई जो रही कि कुछ खास नेताओं के अलावा किसी अन्य को आजादी की लड़ाई का श्रेय नहीं दिया जाए।

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 13 जनवरी 23