मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

वन में कहां मिलेगी कुंडल की कस्तूरी !


‘कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढै वन माहिं।’ कांग्रेस की मौजूदा दुर्दशा पर 

कबीर की यह वाणी याद आती है।


  इस दुर्दशा का इलाज खुद नेहरु-इंदिरा परिवार के पूर्ववर्ती नेताओं की राजनीतिक व प्रशासनिक शैली में निहित है। कोई देखना चाहे तो देश और पार्टी के संविधान भी अच्छी राह दिखा सकते हैं। इससे भी काम नहीं चले तो कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व खुद से सवाल कर सकता है कि उसने आई.पी.सी. और सी.आर. पीसी की धाराओं को कितनी निष्पक्षता से जनहित में लागू होने दिया था ? 

  कांग्रेस की दुर्दशा के मुख्य कारण है कि उसके अधिकतर छोटे -बड़े नेताओं ने सरकारी तिजोरी के सदुपयोग के मामले में जवाहरलाल नेहरु की ईमानदारी का त्याग कर दिया। कठोर निर्णय के मामले में इंदिरा गांधी की राह छोड़ दी। राजीव गांधी की सहृदयता से भी कांग्रेस का कोई नाता नहीं रहा।

वोट के लिए शाही इमाम से मिलने वाली पार्टी के नेता राहुल गांधी अब पार्टी काॅडर से पूछ रहे हैं कि क्या कांग्रेस को हिन्दू विरोधी माना जा रहा है ? दर्द हाईकमान ने दिया, पर दवा कार्यकर्ताओं से मांगी जा रही है। बेचारे कार्यकर्ता और मध्यम दर्जे के नेतागण अब क्या बताएंगे जो आंख मूंद कर हाईकमान के हर निर्णय का समर्थन करने को बाध्य थे ?

क्या हाईकमान के खिलाफ एक शब्द उच्चारित करने की पहले उन्हें छूट थी ? कांग्रेस की दुर्दशा देखकर वैसे लोग भी दुःखी हैं जो कांग्रेस के समर्थक नहीं हैं, पर वे यह चाहते हैं कि देश में  अच्छी सरकार के साथ -साथ मजबूत और प्रामाणिक विपक्ष भी हो। पर कांग्रेस अब न तो मजबूत है और न ही प्रामाणिक। उसे ऐसा बने बिना उसका काम नहीं चलेगा।

 अधिकतर लोग यह मानते हैं कि लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत का अधिक श्रेय मनमोहन सरकार की विफलता को जाता है। उससे थोड़ा कम श्रेय नरेंद्र मोदी को जाता है।

पर, सत्ता में आने के बाद  मोदी  सरकार अपनी नकारात्मक ताकत को भी सकारात्मकता में बदलने पर उतारू है। यानी उसके एक से एक बेहतर कामों और नेक मंशा से लोगबाग और भी प्रभावित होते जा रहे हैं। यदि वह जारी रहा और कारगर भी हुआ तो कांग्रेस को कहीं पैर रखने की जगह नहीं मिलेगी।

इसके बावजूद कांग्रेस हाईकमान खुद के बदले कार्यकर्ताओं से पूछ रहा है। मानो गलती कार्यकर्ताओं ने ही की हो। हकीकत यह है कि खुद कांग्रेस हाईकमान और उसकी सरकार इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। यानी हाईकमान खासकर सोनिया गांधी-राहुल गांधी को खुद की नीयत, नीति और रणनीति बदलनी होगी।

मनमोहन सरकार के घोटालों के खिलाफ अन्ना हजारे अभियान चला रहे थे तो एक मंत्री ने पलट कर यह कहा था कि ‘अन्ना हजारे नीचे से ऊपर तक भ्रष्ट हैं।’ जब एक बड़ा घोटाला सामने आया तो एक दूसरे मंत्री ने कहा कि ‘इसमें जीरो लाॅस हुआ है।’ इतना ही नहीं बड़े से बड़े घोटालेबाज तभी जेल गए जब अदालत ने हस्तक्षेप किया।

एक पक्ष का आतंकवादी गिरफ्तार होता था तो सत्ताधारी नेता कहते थे कि इस गिरफ्तारी से मुझे पूरी रात नींद नहीं आई। जबकि इस देश में गिरफ्तार तो दोनों पक्षों के अतिवादी होते रहे हैं !

मनमोहन सरकार के एक अन्य मंत्री ने कहा था कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ जारी मुकदमों की सुनवाई के लिए विशेष कोर्ट बनाने के प्रस्ताव पर विचार किया जाएगा। इन सब एकतरफा बातों और कामों से भाजपा को लाभ मिलना ही थां।इस स्थिति में सुधार कौन कर सकता है ? कांग्रेस कार्यकर्ता, नेता या खुद पार्टी हाई कमान ?

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

एकता ही नहीं, राजनीतिक चरित्र में बदलाव से कमाल कर सकता है जनता परिवार

जनता परिवार की एकता की गंभीर कोशिश जारी है। उम्मीद है कि एकता होकर रहेगी। पर सवाल है कि सिर्फ एकता से ही जनता परिवार देश में कोई राजनीतिक कमाल दिखा पाएगा ?

ऐसा लगता तो नहीं है। बल्कि उसे अपने चाल, चरित्र और चिंतन में भी बदलाव लाना होगा। साथ ही उसे भाजपा की केंद्र सरकार के अलोकप्रिय होने की प्रतीक्षा भी करनी पड़ेगी। उसके लिए जिस धैर्य की जरुरत है, क्या वह जनता परिवार के सदस्यों में है ?  

 वैसे एकता की दिशा में हाल की कुछ बातों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इससे एकता की कोशिश की गति तेज होगी।

 नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की राजनीतिक दोस्ती बढ़ी है। नीतीश कुमार को लगता है कि लालू प्रसाद समय के साथ बदल रहे हैं। उधर लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव के बीच करीबी रिश्तेदारी की संभावना है। इससे दोनों दलों के बीच राजनीतिक रिश्ता भी काफी मजबूत होगा।
इन तीन नेताओं की एकता से जनता परिवार की एकता की ठोस नींव तैयार होगी। फिर जनता परिवार के अन्य सदस्यों के जुड़ने में कोई दिक्कत नहीं होगी।

   एकता की कोशिश का स्वागत करते हुए सीपीएम महासचिव प्रकाश करात ने कहा है कि भाजपा की बढ़ती ताकत का मुकाबला करने के लिए संसद में हम जनता परिवार से समन्वय बनाकर काम करेंगे।

  जनता परिवार के सदस्य 1977 और  1989 के चुनावों में भी एक हुए थे। तब के सत्ताधारी दल जनता में अलोकप्रिय हो चुके थे। एकता का लाभ उन्हें दोनों बार मिला था। इस बार की परिस्थिति बिलकुल अलग हैं। अभी सत्ताधारी दल लोकप्रियता के चरम पर है। इसलिए जनता परिवार के लिए राह अपेक्षाकृत कठिन है। अनुकूल चुनावी रिजल्ट पाने के लिए इस बार उसे कुछ अधिक ही प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है।

  पर राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए जल्द एक होने के अलावा और कोई उपाय भी तो नहीं है। जब दलों के बीच चुनावी एकता या विलयन की कोशिश होती है तो उन दलों के भीतर से ही अधिक विरोध होता है। इस बार भी हो रहा है।

 विरोध का मुख्य कारण पदों की कमी हो जाने का खतरा है। अपवादों को छोड़ दें तो आज कोई भी छोटा -बड़ा राजनीतिक कार्यकर्ता या नेता पद के बिना नहीं रहना चाहता। पर ऐसे विरोधों को नेतागण इस बार भी नजरअंदाज ही करेंगे।

   इसके अलावा बाधाएं बाहर से भी हैं। एक -दो अपवादों को छोड़ दें तो जनता परिवार के अधिकतर नेताओंं की सार्वजनिक छवि अच्छी नहीं है। जातीय वोट बैंंक का असर भी थोड़ा घटा है। उनकी जनता में स्वीकार्यता कम होती जा रही है। इसके मुकाबले कई कारणों से नरेंद्र मोदी और भाजपा के अनेक नेताओं की छवि बेहतर है।

  उधर एक बात और है। भाजपा के अधिकतर नेताओं की छवि के मुकाबले आम आदमी पार्टी के कुछ नेताओं की छवि बेहतर है।

  इसलिए कुछ राजनीतिक चिंतक ओर प्रेक्षक ‘आप’ को भाजपा का अगला विकल्प बता रहे हैं। दिल्ली विधानसभा का चुनाव होने वाला है।
यदि भाजपा के पक्ष में करीब- करीब देशव्यापी हवा के बावजूद दिल्ली विधानसभा चुनाव में ‘आप’ ने कोई कमाल दिखा दिया तो ‘आप’ को अनेक लोग सचमुच भाजपा के विकल्प के रूप में देखने लगेंगे।

  अंततः क्या होगा, यह तो भविष्य बताएगा। क्योंकि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि नरेंद्र मोदी की सरकार अगले महीनों में कैसा काम करती है।

दूसरी ओर जनता परिवार के कुछ प्रमुख नेताओं को अपनी छवि यदि बेहतर बनानी है और जनता की नजरों में भाजपा से ख्ुाद को बेहतर साबित करना है तो उन्हें  अपनी कार्यशैली बदलनी होगी। इस मामले में बिहार से तो थोड़ा -बहुत अच्छे संकेत मिल रहे हैं। पर समस्या यू.पी. में अधिक है। ये दो प्रदेश जनता परिवार के मुख्य राजनीतिक गढ़ हैं।

 पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले महीने कहा कि ‘हमने लालू जी से समझौता किया है, पर कानून से नहीं।’ याद रहे कि भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी का आरोप है कि लालू से मिलकर नीतीश कुमार आतंक राज लौटाना चाहते हैं। कुछ भाजपा नेता तो यह भी आरोप लगा रहे हैं कि बिहार में जंगल राज -2 कायम हो चुका है।

  पर राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति थोड़ी बिगड़ी जरूर है, पर वैसी अराजक स्थिति कत्तई नहीं हुई है जैसी लालू-राबड़ी राज में थी।

  राजद-जदयू के पास एक-एक मजबूत तर्क है। गत लोकसभा चुनाव में राजद-जदयू को मिले वोट भाजपा को मिले मतों से ज्यादा थे। साथ ही हाल के विधानसभा उपचुनाव में राजद-जदयू गठबंधन को भाजपा की अपेक्षा अधिक सीटें मिलीं।

हालांकि भाजपा गठबंधन के नेताओं के इस तर्क में भी दम है कि केंद्र से झगड़ा करने वाली सरकार बिहार में 2015 में बनेगी तो राज्य का विकास नहीं होगा।

  इन तर्क वितर्कों के साथ बिहार विधानसभा के अगले चुनाव में राजद-जदयू की ओर से साझा नेता कौन होगा, इस बात पर भी रिजल्ट बहुत हद तक निर्भर करेगा।

  पर ऐसी बेहतर स्थिति उत्तर प्रदेश की नहीं है। वहां से जो खबरें आती रहती हैं, उनके अनुसार वहां लगभग वैसी ही स्थिति है जैसी स्थिति लालू-राबड़ी राज में बिहार में थी। राजनीतिक संरक्षणप्राप्त इंजीनियर यादव सिंह के अभूतपूर्व  घोटाले ने तो रही -सही कसर भी पूरी कर दी है।

गत विधानसभा चुनावों में सपा को इसलिए सफलता मिली क्योंकि बसपा ने उम्मीदवार खड़ा नहीं कराया था। यानी यू.पी. में अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा की राह अधिक आसान लगती है।

   खैर जो हो, संकेत तो यही हैं कि जनता परिवार की एकता हो कर रहेगी। एकीकृत जनता परिवार निकट भविष्य में भले कोई बड़ी चुनावी सफलता हासिल नहीं कर सके, पर लगातार जन संघर्षों के जरिए वह देर सवेर अपने पुराने सुनहले दिन वापस ला सकते हैं। पर इसके लिए यह जरूरी है कि नरेंद्र मोदी की सरकार इस बीच उन वायदों को पूरा नहीं कर सके जो उसने गत लोकसभा चुनाव में किये थे। पर मोदी सरकार की आशंकित विफलता का लाभ उठाने के लिए जनता परिवार के अनेक प्रमुख नेताओं को अपने चाल, चरित्र और चिंतन में इस बीच भारी बदलाव करना होगा।

(2 दिसंबर 2014 के दैनिक भास्कर ,पटना में प्रकाशित) 

मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

आशीष नंदी ने तो मांग ली, कांचा इलैया कब मांगेंगे माफी !

प्रसिद्ध सोशल साइंटिस्ट आशीष नंदी ने कमजोर वर्ग के लोगों  के खिलाफ अपनी आपत्तिजनक टिप्पणी के लिए 24 नवंबर 2014  को सुप्रीम कोर्ट में  माफी मांग ली। पर, पोलिटिकल साइंटिस्ट कांचा इलैया कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ की गई अपनी आपत्तिजनक  टिप्पणी के लिए कब माफी मांगेंगे ?

  बिहार विधान परिषद के पूर्व सभापति प्रो.जाबिर हुसेन ने यह सवाल 
उठाया है।प्रो.हुसेन का सवाल जायज लगता है।याद रहे कि कर्पूरी ठाकुर भी कमजोर वर्ग से ही आते थे।

  15 फरवरी 2013 को एक अखबार के साथ बातचीत में कांचा 
इलैया ने कहा था कि ‘लगभग निरक्षर हज्जाम कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्य मंत्री बन गए थे।’

दरअसल इलैया उस बातचीत में यह कह रहे थे कि पिछड़ों,दलितों और आदिवासियों में से दस प्रतिशत लोग भी अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण कर  लें तो भारत बदल जाएगा।’ 

  इस सिलसिले में उन्होंने कर्पूरी ठाकुर को लगभग निरक्षर हज्जाम बता दिया।संभवतःउन्हें लगता था कि अंग्रेजी जाने बगैर कर्पूरी ठाकुर कैसे ऊंचे पद तक पहुंच गए !

इससे कर्पूूरी ठाकुर के प्रशंसकों और उन्हें नजदीक से जानने वालों को गहरा धक्का लगा था।पर किसी ने इलैया पर केस नहीं किया।

  याद रहे कि कर्पूरी ठाकुर अंग्रेजी पढ़े-लिखे थे।वे  न सिर्फ अंग्रेजी  समझ सकते थे बल्कि वे अच्छी अंग्रेजी लिखते भी थे।उन्होंने अंग्रेजी राज में इंटर पास किया था।वे बी.ए.में पढ़ते थे जब गांधी जी से प्रभावित होकर आजादी की लड़ाई में कूद पड़े।

  जानकार लोग बताते हैं कि तब के मैट्रिक पास लोग भी अंग्रेजी अच्छी तरह लिखते और पढ़ते थे।क्योंकि उन दिनों परीक्षा में कदाचार की छूट नहीं रहती थी।

अंग्रेजी अखबारों के लिए अपने  प्रेस बयान उन्हें खुद लिखते हुए समकालीन लोगों ने कर्पूरी ठाकुर को देखा था।साथ ही उन्होंने बहुत स्वाध्याय भी किया था।

   दरअसल अनेक लोगों के दिलो दिमाग में अंग्रेजी को लेकर कर्पूरी ठाकुर की गलत छवि अंकित कर दी गई है।संभवतः कांचा इलैया भी उसी के शिकार रहे हैं।

  कर्पूरी ठाकुर 1967 में बिहार के उप मुख्य मंत्री ,वित्त मंत्री और शिक्षा मंत्री थे।तब डा.राम मनोहर लोहिया के निदेश पर मैट्रिक स्तर पर दिवंगत ठाकुर ने  अपनी सरकार से अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करवा दी थी।
 इससे यह गलत संदेश गया कि ठाकुर ने अंग्रेजी की पढ़ाई ही खत्म करा दी।वे अंग्रेजी के खिलाफ थे।क्योंकि वे खुद अंग्रेजी नहीं जानते थे।

 हालांकि ऐसा नहीं था।सन 1967 की बिहार सरकार के उस निर्णय के अनुसार  सिर्फ हुआ यह था कि जो छात्र अंग्रेजी में फेल कर जाते थे,उन्हें भी मैट्रिक पास कर दिया जाता था,यदि वे अन्य विषयों में सफल हों।

डा.लोहिया का तर्क था कि अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण गरीब घरों और ग्रामीण पृष्ठभूमि के अनेक विद्यार्थी मैट्रिक पास नहीं कर पाते थे।तब पुलिस में भर्ती के लिए मैट्रिक पास होना जरुरी था।किसी पुलिस  कांस्टेबल को अपने काम के सिलसिले में बिहार में अंग्रेजी की कोई जरुरत नहीं पड़ती।साथ ही उन दिनों शादी के लिए अधिकतर लोग मैट्रिक पास दुल्हन ही खोजते थे।डा.लोहिया के जेहन में भी  ये बातें  थीं।वे सवाल करते थे कि  अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण  किसी कन्या की शादी अच्छे घर में होने से क्यों रोका जाए ?

साथ ही विदेशी भाषा के कारण किसी गरीब घर के नौजवान को सिपाही बनने से क्यों रोका जाना चाहिए ? 

  पर इस सबका  खामियाजा कर्पूरी ठाकुर को भुगतना पड़ा।अंग्रेजी को लेकर कर्पूरी ठाकुर की राज्य के भीतर और बाहर लगातार आलोचना होती रही।

कांचा इलैया कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ जारी उसी दुष्प्रचार के शिकार हुए। उन्हें लगता था कि कोई निरक्षर नेता ही अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर सकता था।

    2013 में जयपुर  लिटरेचर फेस्टीवल में आशीष नंदी ने जब अपना विवादास्पद बयान दिया तो कांचा इलैया ने कहा  कि ‘उनका बयान खराब है।यह उनकी बौद्धिक गुंडागर्दी है।हालांकि उनकी मंशा सही थी।’

    आशीष नंदी ने जयपुर फेस्टिवल में कहा था कि सत्ता प्राप्त करने के बाद पिछड़े,दलित और आदिवासी अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक भ्रष्ट हो जाते हैं।इस आपत्तिजनक टिप्पणी के बाद नंदी पर मानहानि के मुकदमे हुए।मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा।कपिल सिबल उनके वकील थे।

अंततः बचने का कोई रास्ता नहीं देख कर इसी सोमवार को आशीष नंदी ने बिना शर्त मांफी मांग ली।

 जिस आशीष नंदंी पर कांचा ने बौद्धिक गुंडागर्दी का आरोप लगाया, उन्हें तो माफी मांगनी पड़ी ,पर, कांचा इलैया कर्पूरी ठाकुर को ‘निरक्षर हज्जाम’ कह कर साफ बच निकले।

गुरुवार, 13 नवंबर 2014

जनता परिवार का महामोर्चा समय की जरुरत


एक तरफ कांग्रेस मुरझा रही है तो दूसरी ओर भाजपा का हौसला सातवें आसमान पर है। ऐसे में जनता परिवार का महामोर्चा आज के समय की  जरुरत थी। वह पूरी हुई।

स्वस्थ लोकतंत्र  के लिए भी यह जरुरी है कि विपक्ष भी मजबूत हो।

  मुलायम सिंह यादव के यहां जुटे नेताओं का मंसूबा तो विभिन्न दलों में बिखरे पूरे जनता परिवार को एक बार फिर एक दल में शामिल कर देने का है। साथ ही वे यह भी चाहते हैं कि सभी गैर भाजपा -गैर कांग्रेस दल मिलकर काम करें। यह ऊंचा लक्ष्य है। पर फिलहाल जो कुछ भी वे कर पाए हैं, उसे भी सही दिशा में सही कदम ही माना जाएगा।

याद रहे कि महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा की जीत ने जनता परिवार को एक साथ बैठने का मजबूर कर दिया है।

  एक और अच्छी बात यह हुई है कि जनता परिवार के नेताओं ने नीतीश कुमार को अपना प्रवक्ता बना कर मीडिया के सामने पेश किया है। संतुलित और समतल दिमाग के सुलझे हुए नेता की जनता परिवार कमी रही है। ऐसे में नीतीश कुमार उन्हें काम आएंगे।

   फिलहाल नीतीश कुमार ने जो मुददे उठाए हैं, वे विवादास्पद नहीं कहे जा सकते। इन मुद्दों के जरिए मोदी सरकार को घेरने में सुविधा भी होगी। घनघोर जातिवाद, एकतरफा धर्मनिरपेक्षता का ओवरडोज, परिवारवाद और भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण जनता परिवार के अनेक नेताओं का इकबाल हाल के वर्षों में काफी घटा है। राजनीति व सरकार में इन तत्वों, बुराइयों व मुद्दों को निरुत्साहित करने की जरुरत जनता परिवार के समझदार नेताओं को पड़ेगी ।तभी वे भाजपा व खास तौर पर नरेंद्र मोदी का कारगर मुकाबला कर पाएंगे। क्या ऐसा वे कर पाएंगे ?

सपा,राजद,इनेलोद,जदयू और जद (एस) के नेताओं की बैठक के बाद नीतीश कुमार ने मीडिया से जो कुछ कहा,उससे तो यह साफ लगा कि वे विवादास्पद मुद्दों को किनारे ही करना चाहते हैं।यह शुभ संकेत है।

   उपर्युक्त दलों के अधिकतर नेता कभी समाजवादी नामधारी पार्टी में रहे हैं। उनके आदर्श पुरुष गांधी, लोहिया और जय प्रकाश रहे हैं।

बुधवार को पटना में अपनी पार्टी की बैठक में नीतीश कुमार ने कहा भी था कि हमारी विचारधारा गांधी,लोहिया और जयप्रकाश नारायण के विचारों पर आधारित है। उम्मीद है कि महामोर्चा के लिए काम करते हुए नीतीश कुमार तथा जनता परिवार के अन्य नेतागण  इस बात को याद रखेंगे।

 राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार महामोर्चा को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी होगी कि कांग्रेस की किन कमजोरियों का लाभ उठा कर भाजपा या फिर कहिए नरेंद्र मोदी ने चुनावी सफलता पाई।

कांग्रेस की मुख्य कमजोरी यह रही कि उसके प्रथम परिवार में कोई भी कमी देखने की किसी स्तर के कांग्रेसकर्मियों को कोई इजाजत ही नहीं है। दूसरी कमी यह रही कि कांग्रेस की सरकारें आम तौर पर अन्य सरकारों से अधिक भ्रष्ट व अहंकारी रही।

अधिकतर मतदाताओं के अनुसार गत लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की तीसरी और सबसे बड़ी गलती यह रही कि उसने एकतरफा व ढांेंगी धर्मनिरपेक्षता को मुख्य चुनावी मुददा बना दिया था।

  इन मुद्दों पर गांधी,लोहिया और जय प्रकाश नारायण के विचारों, कर्मो और जीवन शैली को महामोर्चा अपना सचमुच आदर्श माने तो उसे भाजपा सरकार का मुकाबला करने में सुविधा होगी। इस मामले में भारत का संविधान भी महामोर्चा के नेताओं के लिए बढि़या दिशा निदेशक का काम कर सकता है।

       
  
   

  

बुधवार, 12 नवंबर 2014

जनता परिवार का महामोर्चा समय की जरुरत

 एक तरफ कांग्रेस मुरझा रही है तो दूसरी ओर भाजपा का हौसला सातवें आसमान पर है। ऐसे में जनता परिवार का महामोर्चा आज के समय की  जरुरत थी। वह पूरी हुई।

स्वस्थ लोकतंत्र  के लिए भी यह जरुरी है कि विपक्ष भी मजबूत हो।
  मुलायम सिंह यादव के यहां जुटे नेताओं का मंसूबा तो विभिन्न दलों में बिखरे पूरे जनता परिवार को एक बार फिर एक दल में शामिल कर देने का है। साथ ही वे यह भी चाहते हैं कि सभी गैर भाजपा -गैर कांग्रेस दल मिलकर काम करें। यह ऊंचा लक्ष्य है। पर फिलहाल जो कुछ भी वे कर पाए हैं, उसे भी सही दिशा में सही कदम ही माना जाएगा।

याद रहे कि महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा की जीत ने जनता परिवार को एक साथ बैठने का मजबूर कर दिया है।

  एक और अच्छी बात यह हुई है कि जनता परिवार के नेताओं ने नीतीश कुमार को अपना प्रवक्ता बना कर मीडिया के सामने पेश किया है। संतुलित और समतल दिमाग के सुलझे हुए नेता की जनता परिवार कमी रही है। ऐसे में नीतीश कुमार उन्हें काम आएंगे।

   फिलहाल नीतीश कुमार ने जो मुददे उठाए हैं, वे विवादास्पद नहीं कहे जा सकते। इन मुद्दों के जरिए मोदी सरकार को घेरने में सुविधा भी होगी। घनघोर जातिवाद, एकतरफा धर्मनिरपेक्षता का ओवरडोज, परिवारवाद और भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण जनता परिवार के अनेक नेताओं का इकबाल हाल के वर्षों में काफी घटा है। राजनीति व सरकार में इन तत्वों, बुराइयों व मुद्दों को निरुत्साहित करने की जरुरत जनता परिवार के समझदार नेताओं को पड़ेगी ।तभी वे भाजपा व खास तौर पर नरेंद्र मोदी का कारगर मुकाबला कर पाएंगे। क्या ऐसा वे कर पाएंगे ?

सपा, राजद, इनेलोद, जदयू और जद (एस) के नेताओं की बैठक के बाद नीतीश कुमार ने मीडिया से जो कुछ कहा,उससे तो यह साफ लगा कि वे विवादास्पद मुद्दों को किनारे ही करना चाहते हैं।यह शुभ संकेत है।

   उपर्युक्त दलों के अधिकतर नेता कभी समाजवादी नामधारी पार्टी में रहे हैं। उनके आदर्श पुरुष गांधी, लोहिया और जय प्रकाश रहे हैं।

बुधवार को पटना में अपनी पार्टी की बैठक में नीतीश कुमार ने कहा भी था कि हमारी विचारधारा गांधी,लोहिया और जयप्रकाश नारायण के विचारों पर आधारित है। उम्मीद है कि महामोर्चा के लिए काम करते हुए नीतीश कुमार तथा जनता परिवार के अन्य नेतागण  इस बात को याद रखेंगे।
 राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार महामोर्चा को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी होगी कि कांग्रेस की किन कमजोरियों का लाभ उठा कर भाजपा या फिर कहिए नरेंद्र मोदी ने चुनावी सफलता पाई।

कांग्रेस की मुख्य कमजोरी यह रही कि उसके प्रथम परिवार में कोई भी कमी देखने की किसी स्तर के कांग्रेसकर्मियों को कोई इजाजत ही नहीं है। दूसरी कमी यह रही कि कांग्रेस की सरकारें आम तौर पर अन्य सरकारों से अधिक भ्रष्ट व अहंकारी रही।

अधिकतर मतदाताओं के अनुसार गत लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की तीसरी और सबसे बड़ी गलती यह रही कि उसने एकतरफा व ढांेंगी धर्मनिरपेक्षता को मुख्य चुनावी मुददा बना दिया था।

  इन मुद्दों पर गांधी,लोहिया और जय प्रकाश नारायण के विचारों, कर्मो और जीवन शैली को महामोर्चा अपना सचमुच आदर्श माने तो उसे भाजपा सरकार का मुकाबला करने में सुविधा होगी। इस मामले में भारत का संविधान भी महामोर्चा के नेताओं के लिए बढि़या दिशा निदेशक का काम कर सकता है।
       
  
   

  

बुधवार, 10 सितंबर 2014

जल्दबाजी होगी कांगेेस के विलुप्त होने की भविष्यवाणी


 इस देश के कुछ भाजपाई चिंतक इन दिनों उत्सहित हैं। वे कांग्रेस की दुर्दशा देखकर खुश हैं। वे उसके विलुप्त होने की भी भविष्यवाणी करने लगे हैं। कांग्रेस के लोकसभा में मात्र 44 सीटों पर सिमट जाने के बाद उनकी ऐसी भविष्यवाणी स्वाभाविक ही है।

  पर समकालीन इतिहास बताता है कि वे खुशफहमी में लगते हैं। अब तक कांग्रेस की विफलताओं का लाभ प्रतिपक्ष और प्रतिपक्ष की विफलताओं का चुनावी लाभ कांग्रेस उठाती रही है। अगली बार भी ऐसा नहीं होगा, यह नहीं कहा जा सकता।

   निष्पक्ष राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार कांग्रेस का विलुप्त होना इस बात पर निर्भर करेगा कि नरेंद्र मोदी सरकार अगले छह महीने में कुल मिलाकर कैसा काम करती है। सिर्फ सौ दिनों में किसी सरकार के बारे में किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता है।

  छह महीने में मोदी की विफलता कांग्रेस की सफलता की राह तैयार करेगी। पर मोदी की सफलता कांग्रेस के लिए घातक साबित हो सकती है।

  1967 में देश के नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी दलों की सरकारें बन गई थीं। सात राज्यों में चुनाव के जरिए और अन्य दो राज्यों में दल-बदल के जरिए। तब की गैर कांग्रेसी सरकारों के शिल्पी थे समाजवादी नेता व चिंतक डाॅ. राम मनोहर लोहिया। उन्होंने कम्युनिस्ट और जनसंघ को न्यूनत्तम कार्यक्रम के आधार पर  एक साथ ला दिया था। यदि तब प्रतिपक्षी दलों में पूर्ण चुनावी एकता हो गई होती तो उसी समय केंद्र की सत्ता से कांग्रेस का एकाधिकार खत्म हो चुका होता।

  चुनाव के तत्काल बाद अपनी राज्य सरकारों से डाॅ. लोहिया ने कहा था कि छह महीने के भीतर जनहित में कुछ ऐसे चैंकाने वाले काम करो जिनसे जनता को तुम लोगों और कांग्रेस के बीच साफ -साफ अंतर दिख जाए। और वह कांग्रेेस को भूल जाए। यदि तुम ऐसा नहीं कर पाओगे तो कांग्रेस दुबारा सत्ता में आ जाएगी क्योंकि वह एक माहिर पार्टी है।

   डाॅ. लोहिया की भविष्यवाणी सही साबित हुई। कांग्रेस वापस आ गई। क्योंकि मिलीजुली सरकारें अपेक्षाकृत ईमानदार होते हुए भी बेमतलब आपसी कलह में उलझकर बारी- बारी से जल्दी ही समाप्त हो गई।क्यों कि उनमें से अनेक  गैर कांग्रेसी नेताओं में  आलस्य,व्यक्तिगत कुंठा और सत्तालोलुपता  हावी हो गई थी।

    कांग्रेस को विलुप्त करना है तो नरेंद्र मोदी सरकार और भाजपा को डाॅ. लोहिया की वह भविष्यवाणी याद रखनी पड़ेगी। मोदी सरकार को छह महीने के भीतर ठोस नतीजे देने होंगे। लोगबाग कांग्रेस को तभी भूलेंगे जब मोदी सरकार जनहित के चैंकाने वाले कामों से लोगों को प्रभावित कर दे।

 मोदी सरकार के प्रारंभिक काम तो अधिकतर लोगों को अभी अच्छे लग रहे हैं। अच्छे कामों से अधिक उसकी अच्छी मंशा की सराहना हो रही है। खास कर भ्रष्टाचार व राजनीति के अपराधीकरण के मामले में मोदी सरकार के फैसले व घोषणाएं ठीक मानी जा रही हैं। सांप्रदायिक मामलों में अभी मोदी सरकार की निर्णायक परीक्षा होनी बाकी है।

 पर इसके अलावा भाजपा व सहयोगी दलों का जिस तरह का तानाबाना, कार्यशैली, जीवन शैली तथा राजनीतिक शैली रही है, उनसे कई तरह के अपशकुन भी हो रहे हैं।

 सवाल यह उठ रहा है कि क्या मोदी सरकार का यह प्रारंभिक टेम्पो बना रह सकेगा ?

 अगले छह महीने में कुछ अन्य बातें देखी जाएंगी। उस आधार पर मोदी सरकार को कसौटी पर कसा जाएगा। उसके बाद ही यह कहा जा सकेगा कि कांग्रेस विलुप्त होने की दिशा में आगे बढ़ेगी या दुबारा कमबैक करेगी।

    आपातकाल की पृष्ठभूमि में हुए 1977 के चुनाव में जब कांग्रेस उत्तर भारत से लगभग साफ हो गई थी तब भी कुछ लोग कांग्रेस के बारे में ऐसी ही भविष्यवाणी करने लगे थे। पर वह गलत साबित हुई। क्योंकि कांग्रेस विरोधी दलों की विफलता ने कांग्रेस को अगले चुनाव में चुनावी सफलता दिला दी।

   1977 के चुनाव के बाद बनी मोरारजी देसाई सरकार अच्छा काम कर रही थी। महंगाई और भ्रष्टाचार पर बहुत हद तक काबू था। अधिकतर जनता भी सरकार से खुश थी। पर जनता पार्टी के आंतरिक झगड़े और कुछ बड़े जनता नेताओं की पदाकांक्षा ने कांग्रेस की सत्ता में वापसी का रास्ता बना दिया।

 इसके लिए कांग्रेस की अच्छाई नहीं बल्कि जनता पार्टी सरकार की बुराई जिम्मेदार रही। तीन ही साल में इंदिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बन गई। ऐसा नहीं था कि सत्ता में आने से पहले इंदिरा गांधी ने अपनी कार्यशैली बदल ली थी।

  यदि मोदी सरकार ने मोरारजी सरकार वाली गलती की तो इस बार भी  कांग्रेस ‘विलुप्त’ होने से साफ बच जाएगी! इसके लिए सोनिया गांधी और राहुल गांधी को अपनी कार्यशैली भी बदलने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वे बदल भी नहीं सकते। बदलने की उनकी क्षमता सीमित है।

     देश का लोकतांत्रिक इतिहास बताता है कि केंद्र और राज्य स्तर पर  कांग्रेस में घट -घटकर बढ़ जाने की अजीब सी ताकत मौजूद है। यह ताकत वह आम तौर कांग्रेसविरोधी दलों से ही हासिल करती रही है।

     वैसे भी कांग्रेस एक अखिल भारतीय पार्टी है। अखिल भारतीय होने से उसे विशेष ताकत मिलती है। भाजपा अभी उस प्रक्रिया में है। उसके पास नेहरु-इंदिरा परिवार के रूप में अवलंब लेने के लिए एक खंभा उपलब्ध है। वह खम्भा अपने केंद्र की ओर कांग्रेसी नेताओं व कार्यकर्ताओं को खींचता है।

     वैसे भाजपा के पास भी ऐसा खम्भा नागपुर में है। अन्य अधिकतर मध्यमार्गी दल तो परिवारवादी हैं। विचारधारा के आधार पर इस देश में जब राजनीति होती थी उस समय डाॅ. राम मनोहर लोहिया कभी समाजवादियों के लिए ऐसे ही खम्भा थे। अब तो समाजवादियोंे को पहचानना भी मुश्किल है।

     कुल मिलाकर आज स्थिति यह है कि भाजपा व मोदी सरकार कांग्रेस की चिंता करने के बदले अपने खुद के कामों की चिंता करें। यह भाजपा सरकारों पर निर्भर है कि वह एक पर एक जनहित में अपने चैंकाने वाले  कामों से लोगों को मजबूर करती है कि वे कांग्रेस को भूल जाएं या फिर अपने गलत कदमों के जरिए लोगों को बाध्य कर देती है कि वे कांग्रेस को वापस सत्ता में बुला लें।

      इस देश में अब तक तो यही हुआ कि अधिकतर लोगों ने कांग्रेस की गलतियों को नजरअंदाज भी किया है, पर गैर कांग्रेसी सरकारों के छोटे भटकावों को भी माफ नहीं किया है। क्योंकि लोग गैर कांग्रेसी दलों से कुछ अधिक ही उम्मीद रखते हैं।

(8 सितंबर 2014 के दैनिक जनसत्ता,नई दिल्ली में प्रकाशित)

बुधवार, 6 अगस्त 2014

अपने ‘शहजादे’ हों तो दूसरों पर अंगुली कैसे उठाएंगे मोदी

 (30 जुलाई 2014 के जनसत्ता में प्रकाशित)  

गत लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी को लगातार ‘शहजादा’ कहा था। उसका भी मतदाताओं पर असर पड़ा था।

क्योंकि राहुल गांधी के कामकाज से अनेक लोग नाराज थे। वे मानते थे कि सिर्फ किसी परिवार में जन्म ले लेने के कारण ही किसी व्यक्ति को कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नहीं दी जानी चाहिए। बल्कि योग्यता हो तभी वैसी जिम्मेदारी मिलनी चाहिए जैसी राहुल गांधी को मिली थी।  

   पर, खबर है कि अगले माह होने वाले बिहार विधानसभा के उपचुनाव में कुछ भाजपा सांसदों ने अपनी छोड़ी हुई सीटों पर अपने परिजनों को खड़ा करने की जिद कर दी है। यदि भाजपा नेतृत्व ने उनकी जिद पूरी कर दी तो क्या अगले किसी चुनाव में नरेंद्र मोदी राहुल गांधी को ‘शहजादा’ कह पाएंगे ?

    जब अपनी ही पार्टी मेंे ढेर सारे शहजादे हों तो कोई नेता किसी दूसरे दल पर इस आधार अंगुली कैसे उठा पाएगा ? वैसे भी आखिर अब और कितने अधिक ‘शहजादे’ खुद भाजपा की शोभा बढ़ाएंगे ? पहले से ही अनेक हैं।

  गत लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अनेक बड़े नेताओं के रिश्तेदारों को पहली बार या दूसरी बार टिकट देकर उन्हें लोकसभा में पहुंचाया।

  जब उन्हें टिकट मिल सकता था तो बिहार के ही सांसदों के साथ भेदभाव क्यों होना चाहिए? यह सवाल स्वाभाविक है।

  परिवारवादी नेताओं के इस तर्क का भाजपा नेतृत्व के पास आखिर क्या जवाब होगा? पर इस बीच नरेंद्र मोदी ने परिवारवाद पर चोट की है।

   प्रधानमंत्री मोदी ने अपने मंत्रियों के साथ पहली ही मुलाकात में उन्हें कड़ाई से यह कह दिया कि वे अपने स्टाफ में अपने रिश्तेदारों को नहीं रखें। मोदी की इस कड़ाई का अच्छा संदेश गया।

   पर क्या यही मापदंड वे बिहार में विधानसभा के टिकट देने में भी लागू करेंगे? यह सवाल उनसे ही है क्योंकि आज मोदी जी की सरकार के साथ- साथ पार्टी में भी तूती बोल रही है। उनके कुछ प्रारंभिक अच्छे कामों की सराहना भी है। इसलिए भी परिवारवाद की बुराई को अब और आगे नहीं बढ़ने देने की उनसे लोगबाग उम्मीद भी कर सकते हैं। 

  बिहार विधानसभा के जिन दस क्षेत्रों में उपचुनाव होने वाले हैं, उनमंे से चार सीटें भाजपा विधायकों के इस्तीफे से खाली हुई हैं।

  इस देश में इन दिनों चुनाव क्षेत्रों को निजी जागीर समझने वाले नेताओं की भरमार हो गई है। खुद भाजपा ने गत लोकसभा चुनाव में कई बड़े नेताओं के लोकसभा क्षेत्रों को उनकी जागीर मानकर उनके परिवार के सदस्यों को टिकट देकर उन्हें लोकसभा में पहुंचाया है।

  पर, तब यह माना जा रहा था कि नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी की इतनी बड़ी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं थे। वैसे में वे तब अपने दल के किसी बड़े नेता के परिजन को टिकट देने से इनकार करके भीतरघात का खतरा मोल लेने को तैयार नहीं थे।

  पर लोकसभा चुनाव नतीजों से यह साफ लगा कि आम लोग नरेंद्र मोदी से कुछ बेहतर की उम्मीद कर रहे हैं। क्योंकि उन्होंने बेहतरी का वादा भी किया है। उनकी जीत में भाजपा कार्यकर्ताओं का बड़ा योगदान रहा है। क्या उन कार्यकर्ताओं के टिकट काटकर अब भी नेता पुत्रों को टिकट दिया जाएगा ? भाजपा कार्यकर्ता दबे स्वर में यह पूछ रहे हैं। फिर इस मामले में कांग्र्रेस और भाजपा के बीच कितना फर्क बचेगा ?

  वैसे भी मौजूदा लोकसभा में 135 ऐसे सदस्य हैं जो किसी न किसी प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद या फिर विधायक के परिवार से आते हैं।

यदि विभिन्न दलों द्वारा जन प्रतिनिधियों के रिश्तेदारों को टिकट देने का सिलसिला इसी तरह बढ़ता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब लोकसभा की आधी से अधिक सीटें उन्हीं परिवारवादियों से भर जाएगी। विधानसभाओं का भी यही हाल होगा। फिर किसी आलोचक को समाजवादी पार्टी को  ‘समस्त परिवार’ पार्टी’ कहने का हक कैसे रहेगा ? राहुल गांधी को शाहजादा कैसे कहा जा सकेगा ?

    वैसे भी जातीय वोट बैंक वाले क्षेत्रीय दलों की बात कुछ और है। इनमें से कुछ दलों के तो गांव के गांव कार्यकर्ता हैं। बाकी कार्यकर्ताओं की कमी सांसद व विधायक फंड के ठेकेदार पूरी कर देते हैं। वैसे भी जब अधिकतर सीटों को जब देर-सवेर परिवारवाद के आधार पर ही भरना है तो वास्तविक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए जगह कहां बच जाएगी ?

पर यह सब जब काॅडर आधारित दल भाजपा में भी होने लगे तो लोकतंत्रवादी मिजाज वाले उन लोगों के लिए चिंतित व उदास होना स्वाभाविक है जिन लोगों ने बड़ी उम्मीद से भाजपा व नरेंद्र मोदी को वोट दिए हैं।

   बिहार के उन टिकटार्थी नेता पुत्रों का तर्क है कि वे काफी समय से राजनीति में सक्रिय हैं। इसलिए उनका दावा बनता है। पर उनसे सवाल पूछा जा रहा है कि यदि सक्रियता ही मापदंड है तो बिहार भाजपा में ऐसे लोगांे की कोई कमी नहीं है जो उन नवनिर्वाचित सांसदों से भी अधिक वरिष्ठ हैं जो अपने परिजनों के लिए टिकट की जिद कर रहे हैं।


 (30 जुलाई 2014 के जनसत्ता में प्रकाशित)  

अच्छे नेताओं को भले लोगों के समर्थन की जरूरत


राजनीति में नैतिकता के पतन की इससे बड़ी कहानी और भला क्या हो सकती है? तमिलनाडु के एक पूर्व मुख्यमंत्री को 2001 में भ्रष्टाचार के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार किया था। लोअर कोर्ट के जज एस. अशोक कुमार ने उन्हें जमानत दे दी थी।

  उस जज पर भ्रष्टाचार के अनेक गंभीर आरोप थे। इसके बावजूद उस पूर्व मुख्यमंत्री के दल ने 2007 मेें केंद्र सरकार पर दबाव डालकर एस.अशोक कुमार को मद्रास हाईकोर्ट का स्थायी जज बनवा दिया।

  इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज मार्कंडेय काटजू ने हाल में रहस्योद्घाटन किया। तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने काटजू के रहस्योद्घाटन की एक हद तक पुष्टि की।

  यानी राजनीतिक प्रदूषण ने एक हद तक न्यायपालिका को भी प्रदूषित कर दिया। याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट के कई मुख्य न्यायाधीशों ने समय -समय पर न्यायपालिका में बढ़ते भ्रष्टाचार पर चिंता जाहिर की है।

एक मुख्य न्यायाधीश ने तो यह भी कहा था कि न्यापालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर सख्ती से काबू पाने के लिए हम सरकार व संसद से कानूनी अधिकार मांग रहे हैं, पर वह अधिकार हमें मिल ही नहीं रहे हैं।

  इस प्रकरण से यह साबित होता है कि राजनीति के बीच के भ्रष्ट तत्व समाज के अन्य हिस्सों के साथ -साथ न्यायपालिका को भी प्रदूषित करने का काम करते रहते हैं।

यहां यह कह देना जरूरी है कि न तो राजनीति में सारे लोग भ्रष्ट हैं और न ही न्यायपालिका में।

  पर जब राजनीति के बीच के अनेक ईमानदार लोग भी सत्तालोलुपता में आकर भ्रष्ट नेताओं के दबाव में आ जाएं तब भ्रष्ट लोग हावी नजर आते हैं।
अब भला बताइए कि एक दिन जब न्यायपालिका मेंे भी बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया जाने लगेगा तो आम लोगों को न्याय कौन देगा?
दरअसल हर क्षेत्र के भ्रष्ट तत्वों को पकड़कर अदालत के सामने खड़ा कर देने की जिम्मेदारी शासन की होती है। पर यदि अदालत ईमानदार नहीं होगी तो किसी भी क्षेत्र के भ्रष्टों को सजा कैसे हो पाएगी ?

   शुक्र है कि अभी अदालतों की हालत अधिक नहीं बिगड़ी है। बल्कि भ्रष्टाचार के समुद्र में अपवादों को छोड़कर अदालत ही अब भी ईमानदारी का टापू नजर आती है। हाल के वर्षों में यदि विभिन्न मामलों में अदालतों ने कड़ा रुख नहीं अपनाया होता तो अनेक बड़े -बड़े घोटालेबाज भी जेल जाने से बच जाते।

 पर यदि न्यायपालिका की साख को कहीं से सर्वाधिक खतरा है तो वह राजनीतिक कार्यपालिका से ही। इससे पहले 1993 में भी तत्कालीन केंद्र सरकार ने सुप्रीम के जज वी. रामास्वामी को महाभियोग से बचा लिया था। जबकि सुप्रीम कोर्ट की जांच कमेटी ने रामास्वामी के खिलाफ भ्रष्टाचार के कई सबूत संसद के कटघरे में पेश कर दिए थे।

   राजनीति में गिरावट इस देश में कोई नई बात नहीं है। आजादी के तत्काल बाद से ही उसके लक्षण प्रकट होने लगे थे। तब के कई सत्ताधारी नेताओं ने खुद ईमानदार होने के बावजूद भ्रष्टाचार को नजरअंदाज किया। इस कारण समय के साथ भ्रष्ट नेताओं का मनोबल बढ़ता चला गया।
विचारधारा का महत्व धीरे-धीरे घटने लगा। त्याग, तपस्या और ईमानदारी शब्द मुख्यधारा की राजनीति से गायब होने लगे।

  अब तो गिरावट इस कदर व्याप्त हो चुकी है कि अपवादांे को छोड़कर राजनीति का एक ही मंत्र रह गया है --किसी तरह सत्ता व पद प्राप्त कर लो चाहे इसके लिए किसी तरह के समझौते क्यों न करने पड़े।

पैसे से सत्ता और सत्ता से फिर पैसा--यही रणनीति बन चुकी है।

  इसीलिए राजनीति के भीतर के थोड़े से ईमानदार लोगों का दम घुट रहा है क्योंकि वे निर्णायक स्थिति में नहीं है। जो निर्णायक स्थिति में हैं, वे भी लाचार हैं क्योंकि सिस्टम को पूरी तरह भ्रष्ट बना दिया गया है। एक ईमानदार मुख्यमंत्री ने कई साल पहले इन पंक्तियों के लेखक से कहा था कि ‘मैं इस लोकतांत्रिक सिस्टम को बचाने की कोशिश तो कर रहा हूं, पर लगता है कि यह बच नहीं पाएगा।’ सत्ता व राजनीति को भीतर से देखने से उन्हें साफ लग रहा था कि विभिन्न क्षेत्रों के भ्रष्ट लोग अपने स्वार्थ में एक दिन इस लोकतंत्र को ही खत्म कर देंगे।

  यदि आज कोई नेता अपने निजी फायदे के लिए किसी भी दल में बेहिचक चला जा रहा है और कोई भी दल किसी अन्य दल से तुरंत समझौता कर ले रहा है तो इसका एक ही कारण है कि राजनीति में नीति -सिद्धांत, त्याग-तपस्या व जनसेवा का स्थान किन्हीं अन्य तत्वों ने ले लिया है।



    इस पृष्ठभूमि में देश के विभिन्न क्षेत्रों की कुछ ईमानदार हस्तियों ने  समय -समय पर जो टिप्पणियां व्यक्त की है, उन्हें एक बार फिर याद कर लेना मौजूं होगा।

  पूर्व सी.ए.जी. विनोद राय ने गत मई में कहा कि ‘ मैं राजनीति में कभी नहीं आऊंगा।’

उससे पहले 2003 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त जे.एम. लिंगदोह ने कहा था कि ‘राजनीति में प्रवेश से बेहतर है कि आत्महत्या कर ली जाएं।’

  भले मनमोहन सिंह स्वेच्छा से विवादास्पद सरकार का नेतृत्व करते रहे, पर वे खुद रुपए-पैसे के मामले में बेईमान नहीं माने जाते। उन्होंने 1996 में एक अखबार से भेंट में कहा था कि ‘इस देश की पूरी व्यवस्था सड़ गई है।’ 

समाजवादी नेता मधुलिमये ने 1988 में ही कह दिया था कि ‘मुल्क के शक्तिशाली लोग देश बेचकर खा रहे हैं।’

ज्योति बसु ने भी कहा था कि इस व्यवस्था को देख मुझे शर्म आती है।

  सुप्रीम कोर्ट ने 2007 में कहा था कि ‘भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान होना चाहिए।’

अन्ना हजारे से जब चुनाव लड़ने के लिए कहा गया तो उन्होंने जवाब दिया कि जहां सौ-सौ रुपए में वोट बिकते हैं, वहां मैं चुनाव जीत ही नहीं पाऊंगा।

 इन सब टिप्पणियों का क्या किया जाए ? 

अनेक लोग कहते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था सबसे अच्छी शासन व्यवस्था है। इस व्यवस्था मेंं गरीब अपनी आवाज उठा सकता है। पर जब राजनीति के भीतर के अच्छे लोगों को ताकत मिलेगी तभी तो गरीबों की आवाज सुनी जाएगी। अच्छे लोग कब निर्णायक स्थिति में आएंगे ? तभी आ पाएंगे जब जनता के बीच के अच्छे लोग राजनीति के अच्छे लोगों को ताकत पहुंचाएंगे। यह सब कब तक होगा? पता नहीं। 


(दैनिक भास्कर के पटना संस्करण में 29 जुलाई 2014 को प्रकाशित)    
      
  

मंगलवार, 15 जुलाई 2014

नीतीश को मिली अच्छे कामों की सजा ?

(इस लेख का संपादित अंश 19 मई 2014 के जनसत्ता में प्रकाशित)



बुरे कामों की सजा तो मतदाता देर-सवेर जरूर देते हैं, पर इस बार बिहार में नीतीश कुमार को उनके कुछ अच्छे कामों की भी सजा मिल गयी।

  बिहार के अधिकतर सवर्ण मतदाताओं ने नीतीश को ऐसी गलती के लिए सजा दी जो उन्होंने की ही नहीं थी। अधिकतर सवर्ण मतदातागण नीतीश कुमार से इन दिनों नाराज चल रहे हैं। पर यहां यह कहना जरूरी है कि नरेंद्र मोदी फैक्टर का भी चुनाव में जबर्दस्त असर था।

हालांकि मोदी की लहर नहीं होती तोभी बिहार के अधिकतर सवर्ण मतदाता  नीतीश कुमार के गठबंधन को वोट नहीं देते।

उन लोगों ने इस लोकसभा चुनाव 2014 मंे जदयू को वोट नहीं दिया जबकि नीतीश कुमार की सरकार ने सन 2005 में सत्ता में आने के बाद सर्वाधिक राहत सवर्णों को ही पहुंचाई। नीतीश कुमार को सत्ता में लाने में खुद सवर्णों ने भी कभी बड़ी भूमिका निभाई थी। वे लालू के जंगल राज से ऊब चुके थे। पर बाद में स्थिति बदल गई।

  लालू -राबड़ी के कथित ‘जंगल राज’ से व्यवसायियों के बाद सवर्ण ही सर्वाधिक परेशान थे। वे लालू-राबड़ी राज से मुक्ति चाहते थे। नीतीश ने मुक्ति दिलाई।

जो सवर्ण किसान गांवों में नक्सलियों, अपराधियों व सरकारी संरक्षणप्राप्त दबंगों के डर से खेती तक नहीं कर पा रहे थे, उन्हें नीतीश की सरकार ने भारी राहत दिलाई। कानून -व्यवस्था ठीक करके नीतीश सरकार ने ऐसा किया।

   नीतीश राज आने पर वर्षों बाद राज्य के अनेक गांवों में फिर से खेती-बाड़ी शुरू हो गई। खेती-बाड़ी बंद होने से अनेक गांवों मंे शादी-विवाह भी बंद थे। सब चालू हो गए। इसके अलावा भी कई तरह की राहतें नीतीश सरकार ने पहुंचाई।

पर आखिर नीतीश कुमार व उनकी सरकार ने उनका बाद में क्या बिगाड़ा कि वे उनके खिलाफ हो गये ?

उनका तो कुछ नहीं बिगाड़ा। बल्कि कई तरह के उपायों से अन्य लोगों के साथ -साथ उनका भी भरसक बनाया ही। नीतीश सुशासन व न्याय के साथ विकास की नीति पर चल रहे थे। न्याय के साथ विकास का मतलब है गरीबों का भी विकास। राज्य के विभिन्न हिस्सों से मिल रही सूचनाओं के अनुसार दरअसल कमजोर वर्ग के लोगों का सरकार द्वारा भला किए जाने के कारण अधिकतर सवर्ण नीतीश से खफा हो गये।

ठीक ही कहा गया है कि कुछ लोग अपने दुःख से नहींे बल्कि पड़ोसियोंे के सुख से अधिक दुःखी हो जाते हैं। 

आम सवर्णों के प्रति भी नीतीश कुमार का सदा मधुर व्यवहार रहा है। लंबे समय से मुख्य सचिव व डी.जी.पी. सवर्ण ही हैं। एक कांग्रेसी स्वतंत्रता सेनानी के पुत्र होने के कारण नीतीश कुमार को ऐसा संस्कार मिला जिसके तहत सामाजिक मामलों में उनका संतुलित दृष्टिकोण रहता है। 

 कुछ ही साल पहले नीतीश कुमार जब ‘थ्री इडिएट’ फिल्म देखने पटना के एक सिनेमा हाॅल गये थे तो उनके साथ उनके चार गहरे दोस्त थे। चारों सवर्ण ही थे। यह कोई संयोग नहीं था। जानकार लोग बताते हैं कि दरअसल नीतीश कुमार ने जातीय भावना से कभी कोई काम नहीं किया। इसी तरह की अन्य कई बातें हैं। 

लालू-राबड़ी राज में बुरी तरह बिगड़ी कानून -व्यवस्था को ठीक करने में नीतीश सरकार ने महत्वपूर्ण काम किया। विकास के काम भी काफी तेज  हुए। उससे भी समाज के अन्य लागों के साथ -साथ सवर्णों को भी काफी लाभ हुआ। सरकारी पदों पर लाखों बहालियों से सवर्णों को भी लाभ मिला।

 लालू -राबड़ी राज में सरकारी पद खाली रहने के बावजूद बहालियां लगभग बंद थीं। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार इस चुनाव में सवर्णों के वोट से वंचित नीतीश कुमार को यदि राजनीतिक मजबूरी में कभी राजद के साथ जाना पड़ेगा तो इसके लिए आखिर कौन जिम्मेदार माना जाएगा ? जाहिर है कि वे सवर्ण ही अधिक जिम्मेदार होंगे जिन्होंने नीतीश कुमार को बीच मझधार में छोड़ दिया। हालांकि राजद के साथ जदयू की कभी सरकार बनेगी तो उससे सवर्णों का कितना भला होगा ?

     यह बिहारी समाज के लिए विडंबना ही है कि नीतीश कुमार से  सवर्णों की नाराजगी का एक बड़ा कारण यह रहा कि नीतीश सरकार ने कमजोर वर्ग के लिए बड़े पैमाने पर कल्याण व विकास के काम किये। उन लाभान्वित लोगों में अधिकतर खेतिहर मजदूर हैं। जब नीतीश के कारण उनका आर्थिक सशक्तीकरण हुआ तो वे भूमिपतियों से मजदूरी को लेकर सौदेबाजी की स्थिति में आ गये। वे कभी -कभी आराम भी करने लगे। यदा कदा अब वे काम पर जाने से मना कर देते हैं। भूमिपतियों में सवर्ण ही अधिक हैं। यह सौदेबाजी व मजदूरों की ‘आराम तलबी’ उन्हें मंजूर नहीं है। उन्हें खेती के लिए अपनी पुरानी यानी सस्ती शर्तों पर मजदूर मिलने में दिक्कत होने लगी है। कमजोर वर्ग के लोग अब आम तौर पर उनसे दबते नहीं हैं। 

   गांवों के कई सवर्ण भूमिपतियों ने चुनाव से पहले इन पंक्तियों के लेखक को बताया था कि लालू प्रसाद तो पिछड़ों के लिए सिर्फ बड़ी -बड़ी बातें ही अधिक करते थे, पर नीतीश कुमार ने तो आर्थिक सशक्तीकरण करके उनका मनोबल वास्तव में बहुत बढ़ा दिया है। अब हमलोगों के लिए खेती करना कठिन हो गया है। इस बार हम नीतीश को हरा देंगे।
  यही हुआ भी।

 सन 2009 के लोकसभा चुनाव में जदयू को बिहार में 24.04 प्रतिशत वोट मिले थे, पर इस बार जदयू 15.80 प्रतिशत सिमट गया।

   उधर एक बात और है। भाजपा के पक्ष में लगभग देशव्यापी लहर से बिहार भला अछूता कैसे रह पाता ? इसलिए बिहार में भाजपा की भारी सफलता राज्य की राजनीति के लिए उतनी महत्वपूर्ण बात नहीं है जितनी सत्ताधारी नीतीश कुमार के दल की भारी विफलता और इस विफलता से उपजी राजनीतिक अनिश्चितता। जदयू इस चुनाव में तीसरे स्थान पर रहा। कहते हैं कि होम करते नीतीश के हाथ जले। दूसरा स्थान राजद गठबंधन को मिला। यानी सवर्णों के अलावा भी कुछ दूसरे लोगों ने भी नीतीश को वोट नहीं दिये। तीसरे स्थान पर जाने का भी दुःख जदयू को है।

  जबकि नीतीश सरकार ने बिहार को लगभग हर मोर्चे पर विकसित किया। अब भी विकास के काम धुआंधार जारी हैं। उन्होंने पिछड़ों, दलितों व अल्पसंख्यकों के बीच के उस हिस्से के लिए विशेष काम किये जिन्हें उसकी सर्वाधिक जरूरत थी।

  विकास के करीब -करीब हर संकेतक में बिहार का प्रदर्शन शानदार रहा। कानून व्यवस्था बेहतर होने के कारण लोगबाग अपने- अपने छोटे -बड़े रोजगार में निर्भीकतापूर्वक लगे हुए हैं। पहले आतंक के माहौल में व्यापार कठिन था। तब व्यापारी राज्य के बाहर भाग रहे थे।

   इसके साथ ही कई अन्य सकारात्मक बातें भी हो रही हैं। इसके बावजूद यदि नीतीश कुमार को मतदाता अस्वीकार कर दे तो उस नेता के लिए हतोत्साहित होना स्वाभाविक ही है। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार मतदाताओं के एक हिस्से ने नीतीश कुमार को ठुकराकर नीतीश से अधिक खुद का यानी बिहार का अधिक नुकसान किया है। क्योंकि शासन की दृष्टि से बिहार जैसे एक बीहड़ प्रदेश को पटरी पर लाने का काम करने की कूबत नीतीश कुमार के अलावा अन्य किस नेता में है, इस सवाल का जवाब अभी कई लोगों को नहीं मिल रहा है।

  जदयू और खासकर नीतीश कुमार का इसलिए भी दुखी व उदास होना स्वाभाविक है कि ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और जयललिता ने जनता की मदद से तो मोदी की लहर को रोक ही लिया है। यह काम बिहार में क्या नहीं हो सकता था ? जबकि बिहार में मुख्यमंत्री के रुप में नीतीश कुमार ने बहुत मेहनत की थी और जनता से वे अपनी मेहनत की मजदूरी मांग रहे थे। वह मजदूरी उन्हें नहीं मिली।

  राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार नीतीश जैसे ईमानदार, मेहनती, कल्पनाशील व संवेदनशील नेता के इस्तीफे के पीछे यह पीड़ा साफ झलकती है। 

(इस लेख का संपादित अंश 19 मई 2014 के जनसत्ता में प्रकाशित)

रविवार, 13 जुलाई 2014

मीडिया ने पिछड़ा उभार को सकारात्मक नजरिये से नहीं देखा

(प्रभात खबर, पटना में 7 अप्रैल 2001 को प्रकाशित)


 पत्रकार सुरेंद्र किशोर से प्रभात खबर के लिए 
अनीश अंकुर और अविनाश की बातचीत 

प्रश्न-पिछले दस वर्षों के दौरान पिछड़ा उभार या सशक्तीकरण का बिहार के समाज पर जो असर पड़ा, मीडिया ने उसको किस रूप में रेखांकित किया ?

उत्तर- कुछ अपवादों को छोड़कर मीडिया ने पिछड़ा उभार या सशक्तीकरण को सकारात्मक नजरिए से नहीं देखा। इसके कई कारण हैं। इस सवाल का जवाब मीडिया के लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि में भी ढूंढ़ा जा सकता है। पिछड़ा उभार और सशक्तीकरण के आंदोलन के नेतागण भी इसके लिए जिम्मेदार रहे हैं। सवर्ण बहुल मीडिया से यह उम्मीद करना ज्यादती होगी कि वह सशक्तीकरण के नाम पर पिछड़ों के बीच की कुछ खास जातियों को उन्मादी और नव सवर्ण रूप में स्वीकार कर ले। सशक्तीकरण को व्यापक और समरूप बनाने की जरूरत है। दूसरी ओर मीडिया की सामाजिक बुनावट में यदि परिवर्तन नहीं हुआ, तो खुद मीडिया के सामने विश्वास का संकट और भी गहराएगा। 

प्रश्न - लोग कहते हैं कि पिछड़े वर्गों के सशक्तीकरण ने बिहार के आर्थिक विकास की अवस्था को पीछे धकेलने का काम किया। इसकी क्या वजह हो सकती है?

उत्तर - इसके लिए सशक्तीकरण के नेता जिम्मेवार हैं। सशक्तीकरण से पहले भी बिहार विकास के मामले में पीछे ही जा रहा था। पर पिछले दस वर्षों से सत्ता जिसके हाथों में रही, उन्हें जातिवाद, भ्रष्टाचार व अराजकता के बदले विकास को अपना मूलमं़ बनाना चाहिए था। ऐसा नहीं हुआ। इस कारण एक तरह राजनीतिक संरक्षण प्राप्त गुंडा गिरोह बड़े पैमाने परपनपे और दूसरी ओर नक्सली।

प्रश्न - हिंदी प्रदेशों में वामपंथ का सबसे मजबूत गढ़ बिहार माना जाता रहा है। पर आज उसमें एक ठहराव-सा दिखता है। बिहार में ही वामपंथ के ज्यादा आगे बढ़ने के क्या कारण रहे तथा आज जो ठहराव व गतिरोध की स्थिति है उसे कैसे तोड़ा जा सकता है?

उत्तर- बिहार एक अद्र्धसामंती समाज है। वामपंथियों के गढ़ बंगाल से यह सटा हुआ प्रदेश है। बिहार में पहले से ही राजनीतिक जागरूकता अधिक रही है। इस तरह के कारणों से वामपंथी दल यहां मजबूत हुए। पर, यहां भी वामपंथी नेताओं ने कार्यकर्ताओं व समर्थकों को छला। पहले के नेता अपने निजी जीवन की सादगी व निष्ठा के जरिए युवकों व छात्रों को प्रेरित व प्रभावित करते थे। अब वैसी बात नहीं है। कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट पार्टियों के उत्तराधिकारी संगठनों के कार्यकर्ता आज आम तौर पर अभिकर्ता (ठेकेदार) बन चुके हैं। अपवादों की बात अलग है। इस गतिरोध को कैसे तोड़ा जाए, इस सवाल का जवाब आसान नहीं है।

प्रश्न- बिहार में लोहिया के तमाम लोहार आज त्रिशूल बना रहे हैं। किसी भद्र पुरुष के इस कथन को आप किस तरह देखेंगे?

उत्तर - लगता है कि लोहियावाद अब किताबों में सिमट कर रह गया है। किशन पटनायक जैसे थोड़े से लोग उसे जहां-तहां चला रहे हैं। बिहार के संदर्भ में देखें तो आज के अधिकतर नेता अपने-अपने कबीले के सरदार जैसे लगते है। कोई यादवों का नेता है, तो कोई कुर्मियों का। कोई कोइरी का नेता है, तो कोई राजपूतों का। कोई पासवान नेता है, तो कोई चमार नेता है। ऐसा कहे जाने पर  भी उन्हें कोई असुविधा नहीं होती। पूरे समाज का कोई नेता नहीं नजर आता। इन ‘कबीलाई सरदारों’ के रहन-सहन, हाव भाव और क्रियाकलाप मध्ययुगीन राजाओं से मिलते-जुलते हैं। पिछड़े नेताओं ने सामाजिक न्याय का उसी तरह कचूमर निकाला, जिस तरह कांग्रेसियों ने गांधीवाद का।

प्रश्न - बिहार हिंदुस्तान भर में जातीय हिंसा से सर्वाधिक त्रस्त राज्यों में रहा है। बिहार के साथ जातिवाद जैसे समानार्थक हो गया है। आप क्या कहते हैं?

उत्तर- सवाल है कि जातिवाद को मापने का क्या पैमाना बने। बिहार बदनाम अधिक है। दूसरी जगहों में जातिवाद ज्यादा या इतना ही रहा है। दरअसल जातिवाद की जकड़न को तोड़ने के लिए बिहार में अधिक कोशिशें हुई हैं। उसका शोर अधिक हुआ। इसलिए कि जकड़न टूटी। जिन लोगों को जकड़न टूटने से नुकसान हुआ, उन्होंने जातिवाद का शोर अधिक मचाया। आज सन 1950-60 की तरह सत्ता सिर्फ दो सवर्ण जातियों के हाथों में नहीं है। पर बंगाल में सत्ता अब भी दो सवर्ण जातियों के हाथों में है। यदि वहां भी इस लाइन पर आंदोलन हुआ होता, तो वहां भी जातिवाद को शोर मचा होता। 

     यह भी आरोप लगाया जाता है कि केंद्र की 1952-57 की सरकार जितनी जातिवादी थी, उतनी जातिवादी लालू-मुलायम की सरकारें भी नहीं रही हैं। आंकड़े तो यही बताते हैं। मेरिट केक नाम पर एक खास जाति के लोगों को बड़ी संख्या में पद दिये गये। इन कथित मेरिट वालों ने आजादी के बाद देश को ऐसे चलाया कि हम भारी विदेशी कर्जे में डूब गये। आज हमें उन कर्जों के सिर्फ सूद के रूप में हर साल करीब एक लाख करोड़ रुपये देने पड़ते हैं।

प्रश्न-बिल्कुल इधर ‘गांव बचाओ देश बचाओ’ रैली में लालू यादव ने कहा कि अब बैकवर्ड-फारवर्ड की लड़ाई मैं बंद करता हूं। पहले देश बचाना जरूरी है। जब देश बचेगा, तो लड़ाई फिर कभी हो जाएगी। लालू यादव में इस परिवर्तन के राजनीतिक अर्थ क्या हो सकते हैं?

उत्तर - लालू यादव पहले भी यह बात कह चुके हैं। जब-जब वे राजनीतिक जरूरत महसूस करते हैं, ऐसी बातें कहते हैं। यदि लालू यादव इस समस्या के प्रति गंभीर होते तो वे पहले पता लगाते कि ऐसी नौबत क्यों आई कि देश एक बार फिर आर्थिक गुलामी की ओर बढ़ रहा है। इस समस्या को विकट बनाने में खुद उनकी बिहार सरकार का पिछले दस साल में कितना बड़ा योगदान रहा है? फिर उस कमी को दूर करने की वे कोशिश करते तो गांव बचाने में मदद मिलती।

रैली में करोड़ों रुपये फूंक देने से तो देश और जल्दी गुलाम होगा! सब जानते हैं कि ऐसी रैलियों के लिए पैसे कहां से आते हैं।

मान लीजिए कि बिहार सरकार ने विश्व बैंक से भारी कर्ज लेकर राज्य में बड़ी निर्माण योजानाएं शुरू कीं। ंयोजना के पैसों की बंदरबांट कर ली गई। योजना से कोई रिटर्न नहंीं आया। कर्ज और सूद बढ़ता गया। सरकार महाजन के पैसे वापस करने की स्थिति में नहीं है। अब सरकार को महाजन के निर्देश पर काम करना पड़ेगा। उसी तरह के महाजनों के दबाव पर इस देश की केंद्रीय सरकार उदारीकरण के खिलाफ देश बचाओ गांव बचाओ रैली की जा रही है। क्या लालू यादव ने यह पता लगाया कि विदेशी कर्जे से शुरू हुई कितनी विकास योजनाएं बिहार के प्रशासनिक भ्रष्टाचार की बलिवेदी पर चढ़ गयी?

भ्रष्टाचारियों पर कौन सी कार्रवाई हुई? किसी ने ठीक ही कहा है कि भ्रष्ट सरकार अपने देश की स्वतंत्रता कायम नहीं रख सकती।

प्रश्न- पचास साल बाद बिहार की तस्वीर आपको कैसी नजर आती है ?

उत्तर-विभिन्न क्षेत्रों में पूरे देश में गिरावट की जो रफ्तार है, उसके अनुसार तो अगले दस साल में ही पूरे देश की हालत गड़बड़ होने वाली है। भूमंडलीकरण व उदारीकरण के दुष्परिणाम सामने आने लगेंगे तो आशावादी लोगों के होश उड़ जाएंगे। मैं तो निराशावादी बन गया हूंं। पानी की कमी व पर्यावरण असंतुलन की जो भीषण समस्या अगले दस पंद्रह साल में ही जो सामने आने वाली है, उसकी कल्पना करके डर लगता है। इस बीच केंद्र सरकार देश में एक सवा लाख करोड़ रुपये खर्च करके सुपर हाईवे बनवा रही है जबकि तत्काल लाखों तालाब बनवाने की जरूरत है। ताकि भूमिगत जल का स्तर और नीचे नहीं जाए।

वर्षा का पानी तालाबों में इकट्ठा होता है। अटल बिहारी वाजपेयी शाहजहां की तरह ताजमहल बनवा रहे हैं जबकि उन्हें शेरशाह की तरह सड़क बनवा कर वृक्ष लगवाने चाहिए थे। आज तालाबों की उतनी ही जरुरत है जितनी शेरशाह के जमाने में सड़क की थी।

प्रश्न-बिहार में इन दिनों हो रही पत्रकारिता का विश्लेषण आप कैसे करेंगे? पिछले दशक में बिहार की पत्रकारिता में किन लोगों के योगदान को आप महत्वपूर्ण मानते हैं?

उत्तर-अखबार जनता के कुछ अधिक करीब गये हैं। पिछले दशक में कई पत्रकारों ने अच्छा काम किया है। खासकर बिहार के अनेकानेक घोटालों की खबरें पूरी की पूरी जनता तक गई हैं।

पत्रकारिता में सुधार की गुंजाइश तो हमेशा ही रहती है। पर्यावरण, जल प्रबंधन और उदारीकरण के खतरों की ओर बहुत कम अखबार ध्यान दे रहे हैं। इन दिनों अखबारों में व्याकरण गलतियों में भारी वृद्धि हुई है। अधिक पन्ने, चिकने कागज और रंगीन छपाई पर तो ध्यान दिया जा रहा है, पर इस बात पर गौर नहीं किया जा रहा है कि छात्रों की भाषा बिगड़ती जा रही है। पहले अंग्रेजी और हिंदी अखबारों से भी छात्र भाषा सीखते थे।

          --अनीश अंकुर एवं विनाश। 
(प्रभात खबर, पटना में 7 अप्रैल 2001 को प्रकाशित)

बुधवार, 7 मई 2014

चुनाव में मनी पावर यानी एक नया वोट बैंक

चुनावों में ‘मनी पावर’ एक नये ढंग के वोट बैंक के रूप में तेजी से उभर रहा है। यह तत्व भी मतदान को एक हद तक प्रभावित करने लगा है।
 जिन चुनाव क्षेत्रों में थोड़े मतों से हार-जीत का फैसला होता है, वहां मनी पावर निर्णायक साबित होता दिख रहा है।

 यह मनी पावर यानी नया वोट बैंक, परंपरागत जातीय व सांपद्रायिक वोट बैंक को जहां -तहां काफी ताकत पहुंचा रहा है। तीनों तत्व मिलकर कहीं -कहीं निर्णायक साबित हो रहे हैं।

 मिल रही सूचनाओं के अनुसार मनी पावर अभी किसी जातीय वोट बैंक से अधिक ताकतवर नहीं बना है, पर यह उस रास्ते पर जरूर है।

   मौजूदा चुनाव में आयकर दस्तों ने देश भर में 273 करोड़ रुपये नकदी और करीब दो करोड़ लीटर शराब जब्त की है। यह आंकड़ा गत एक मई तक का है। बिहार सहित देश भर में ऐसी जब्तियां अब भी जारी हैं। जब्तियों की यह मात्रा अभूतपूर्व है।

  जितने पैसे व शराब पकड़े गये हैं, वे उन अपार धन व सामग्री के बहुत छोटा हिस्सा हंै जो पकड़े नहीं जा सके। वे मतदाताओं के एक हिस्से के बीच वितरित कर दिये गये।

 एक ताजा अध्ययन के अनुसार देश के नेतागण इस पूरे चुनाव में कुल करीब तीस हजार करोड़ रुपये खर्च करेंगे। इनमें वैध व अवैध खर्च शामिल हैं।

   गत साल जून में भाजपा नेता गोपी नाथ मुंडे ने सार्वजनिक रुप से यह स्वीकार किया था कि उन्होंने 2009 के लोकसभा के चुनाव में अपने क्षेत्र में 8 करोड़ रुपये खर्च किये थे।

 गत दिनों चुनाव आयुक्त एच.एस. ब्रह्मा ने एक रहस्योद्घाटन किया । श्री ब्रहमा ने कहा कि मैंने सुना है कि आंध्र प्रदेश के एक संभावित लोकसभा उम्मीदवार अपने चुनाव क्षेत्र में एक सौ करोड़ रुपये खर्च करने वाला है। एक अन्य उम्मीदवार ने व्यक्तिगत बातचीत में श्री ब्रह्मा को बताया था कि अपने चुनाव क्षेत्र में वह 35 करोड़ रुपये खर्च करने वाला है।

  इन आंकड़ों व सूचनाओं को देखकर क्या ऐसा नहीं ंलगता कि ‘मनी पावर’ एक नया वोट बैंक बनता जा रहा है। वह  जातीय व सांप्रदायिक वोट बैंक से कम खतरनाक नहीं है !

  यह संयोग नहीं है कि इस देश की संसद व विधायिकाओं में करोड़पतियों व अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।

 चुनाव आयोग की कड़ाई के कारण चुनाव में बाहुबल का इस्तेमाल पहले की अपेक्षा थोड़ा कम हुआ है। पर, कई क्षेत्रों में मनी पावर, अब बाहुबल का विकल्प बन कर उभरा है।

  बूथ कैप्चर की जगह भारी पैसे के बल पर मतदाताओं के एक हिस्से को अपने प्रभाव में लाया जा रहा है। मतदाताओं का जो हिस्सा पैसे स्वीकार कर रहा है,उनमें से अधिकतर लोगों के दिलों -दिमाग में यह भाव उभर रहा है कि जब सत्ता में आने के बाद किसी भी दल को आम जन की भलाई के लिए काम नहीं ही करना है, खुद की भलाई के लिए ही बहुत करना है, तो क्यों नहींं आज जो कुछ उनसे मिल रहा है, उसे ही स्वीकार करके संतोष कर लिया जाए।

राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार वैसे मतदाता इस बात की परवाह नहीं कर रहे हैं कि पैसे के बल पर चुनाव जीतने वाले नेतागण  और भी कितना अधिक निर्भीक होकर इस देश को लूटंेगे।

 हालांकि यह बात भी सही है कि इसी देश में  कुछ दल व नेता ऐसे भी हैं जो चुनावों में मनी पावर के खेल में शामिल नहीं हैं।  


(साभार -दैनिक भास्कर ,पटना संस्करण- 6 मई 2014)

होली की गालियां या गब्बर सिंह के डायलाॅग ?


गत बिहार विधानसभा चुनाव में भी प्रतिस्पर्धी नेताओेंं के बीच तीखे आरोपों -प्रत्यारोपों के दौर चले थे। तब एक बड़े नेता ने कहा था कि चुनाव के दौरान की गई आलोचनाएं होली की गालियां जैसी होती हैं। उन गालियों को होली बीतने के बाद भुला दिया जाता है।

   पर क्या इस बार की तीखी व अभूतपूर्व गालियां भी होलियाना ही हैं ? ऐसा तो नहीं लगता। इन गालियों व तीखे संवादों के सामने तो शोले फिल्म के गब्बर सिंह के डायलाॅग भी फीके हो गये हैं।

क्या नेताओं के जहर बुझे बयानों से लगे घाव चुनाव के बाद भी जल्दी भर पाएंगे ? उम्मीद की जानी चाहिए कि वे घाव जल्द ही भर जाएं और तनावमुक्त ढंग से लोकतंत्र की गाड़ी फिर से चलने लगे।

   पर, ऐसा होने मेंे  कई लोगों को अभी संदेह है। उनका मानना है कि इसका असर चुनाव के बाद भी कुछ दिनों तक रहेगा। कई लोगों को इस बात पर आश्चर्य हो रहा है कि क्यों चुनाव आयोग  कसूर के अनुपात में तौलकर उन नेताओं को  सजा नहीं दे रहा है जो नेतागण खुलेआम चुनाव आचार संहिता का घोर उल्लंघन कर रहे हैं। साथ ही जो वोट के लिए समाज में विद्वेष फैलाने के साथ- साथ लोकतंत्र की गरिमा भी गिरा रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यदि आचार संहिता के सवाल पर एक -दो चुनाव क्षेत्रों के चुनाव स्थगित कर दिए गए होते तो बेलगाम नेताओं की बोलती बंद हो गई होती।

   चुनाव के कुछ फेज अब भी बाकी हैं। अब यह मतदाताओंं पर ही निर्भर है कि एक दूसरे के खिलाफ बयानों के ऐसे जहर बुझे तीर चलाने वालों को वे वोट देंगे या नहीं। क्या मतदातागण ऐसे ही लोगों के हाथों संसदीय जनतंत्र की कमान सौंपेंगे जिनकी जुबान इतनी बेलगाम व जहरीली हैं ? जो वोट के लिए किसी भी हद तक जाकर जातीय व सांप्रदायिक भावनाएं उभार सकते हैं ? जो किसी की भी प्रतिष्ठा का ख्याल रखे बिना किसी भी तरह के अपुष्ट व उल्टे सीधे आरोप लगा सकते हैं ?

  इतने गंदे, अश्लील, दिलों को भेदने वाले तथा समाज में द्वेष फैलाने वाले आरोप-प्रत्यारोप इससे पहले किसी चुनाव में नहीं लगाये गये थे। जब जुबान पर हिंसा हो तो सरजमीन पर भी उसका असर देखा ही जा सकता है। चुनाव से संबंधित हिंसक घटनाओं की खबरें आने भी लगी हैं।

  इसके साथ ही जितनी अधिक मात्रा में काला धन का इस्तेमाल मौजूदा चुनाव में हो रहा है,उतना इससे पहले कभी नहीं हुआ था।

  लगातार पकड़े जा रहे भारी मात्रा में काला धन से इस बात की पुष्टि होती है। याद रहे कि जुबान ही नहीं बल्कि काला धन भी मतदाताओं के एक हिस्से को प्रभावित करते हैं। इस देश के लोकतंत्र में तेजी से घर कर रही इन गंभीर बीमारियों का इलाज सिर्फ मतदाताओं के पास है। उनसे उम्मीद की जा रही है कि नफरत व चुनावी गंदगी फैलाने वाले नेताओं को इस चुनाव में नकार दें।

   अन्यथा जहर उगलने वाले नेतागण अपने राजनीतिक लाभ के लिए आने वाली पीढि़यों के दिलो -दिमाग में भी जहर ही घोलेंगे।   

अब जरा कुछ नेताओं की बदजुबानियों के कुछ नमूने पढि़ए।

 एक नेता ने अपने प्रतिद्वंद्वी नेता के बारे में कहा कि वह घमंडी और लुटेरा है। दूसरे ने कहा  कि वह कसाई है। तीसरे की टिप्पणी थी कि उसे देख कर तो कसाई भी शर्मा जाते हैं।

  जब तक वे एक दूसरे को पप्पू और फेंकू कह रहे थे, तब तक वह सहनीय था। क्योंकि उसमें मनोरंजन का भी पुट था। पर अब तो आरोप-प्रत्यारोपों में खांटी दुश्मनी के भाव दिख रहे हैं। जीजाजी शब्द के उच्चारण से राजनीति की गरिमा गिरी। नपुंसक व गुंडे शब्द ने लोकतंत्र को शर्मा दिया। इनके अलावा भी कुछ ऐसे डायलाॅग बोले गये जिन्हें सुन कर गब्बर सिंह के डायलाॅग भी फीके लगने लगे।

वैसे अभी चुनाव प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है। अब भी न जाने कितने विषैले तीर हमारे नेताओं के पास बचे हुए हैं। हालांकि यह कहना भी सही नहीं होगा कि सारे नेता ऐसे ही हैं। इस तनावपूर्ण चुनाव में भी कुछ नेताओं की जुबान पर अब भी शालीनता विराजमान है।


(30 अप्रैल 2014 के दैनिक भास्कर के पटना संस्करण में प्रकाशित)       

गुरुवार, 1 मई 2014

विचारों की बेतरतीबपना से जूझती ‘आप’


आम आदमी पार्टी में वैचारिक संतुलन बिगाड़ने के लिए क्या प्रशांत भूषण कम थे जो शाजिया इल्मी ने भी मोर्चा संभाल लिया? दरअसल यह ‘आप’ में फैली वैचारिक बेतरतीबपना की निशानी है। यह समय-समय पर प्रकट होती रहती है। कुछ लोग इसे वैचारिक अराजकता भी कह रहे हैं।

  इससे देश भर में फैले ‘आप’ के अनेक प्रशंसक निराश हो रहे हैं। यदि यह सब जारी रहा तो वे हताश हो सकते हैं। इससे उन लोगों को वास्तव में निराशा हुई है जो उम्मीद कर रहे हैं कि ‘आप’ एक न एक दिन भाजपा और कांग्रेस के मुकाबले देश में ‘वैकल्पिक राजनीति’ पेश करेगी।

  पर वैकल्पिक राजनीति पेश करने का काम वह संतुलित विचारों के जरिए ही कर सकती है। ‘आप’ के अधिकतर नेताओं में अच्छी मंशा, त्याग व व्यक्तिगत ईमानदारी की पूंजी पहले से है। इसलिए भी उनमें संभावना है। बल्कि अन्य दलों की अपेक्षा संभावना अधिक है।

   भाजपा पर एक रंग की सांप्रदायिकता को हवा देने का आरोप है तो कांग्रेस पर दूसरे रंग की सांप्रदायिकता को बढ़ाने का आरोप है।
कई लोग इस स्थिति से ऊब रहे हैं।   


जनता का कुशासन और भ्रष्टाचार विरोधी मूड

 आवेश से भरे इस चुनावी माहौल में जनता का कुशासन और भ्रष्टाचार विरोधी मूड साफ देखा जा सकता है। तरह -तरह के सांप्रदायिक तत्वों को सत्ता व राजनीति के शीर्ष से परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा देना भी कुशासन का ही तो हिस्सा है।

  जनता के मूड को देख कर नरेंद्र मोदी को भी यह कहना पड़ रहा है कि सत्ता मिलने के बाद वे भारत के संविधान के अनुसार ही देश को चलाएंगे। गिरिराज सिंह जैसे नेताओं के जहरीले बयानों की ओर इशारा करते हुए मोदी कहते हैं कि हमारे शुभचिंतक संकीर्ण बयानों से परहेज करें। पर दूसरी ओर गाजियाबाद में आम आदमी पार्टी की उम्मीदवार शाजिया इल्मी मुसलमानों से अपील कर रही हैं कि उन्हें अधिक धर्मनिरपेक्ष बनने की जरूरत नहीं है। वे थोड़ा सांप्रदायिक होकर वोट करें। विरोध होने पर शाजिया अपने इस विवादास्पद बयान पर माफी मांगने को भी तैयार नहीं हैं।

  अपने बयान पर सफाई में शाजिया ने जो कुछ कहा है, वह भी अनेक लोगों की नजरों में उन्हें क्लीन चीट नहीं देता। शाजिया के ऐसे बयान से सिर्फ भाजपा के बीच के अतिवादी तत्वों को ही राजनीतिक फायदा मिलेगा। जनमत सर्वेक्षणों के अनुसार अब भी दिल्ली में भाजपा की मुख्य विरोधी पार्टी ‘आप’ ही नजर आती है। वाराणसी में भी मुख्य मुकाबले में मोदी और केजरीवाल ही अभी बताये जा रहे हैं।

 वाराणसी में भी भाजपा को शाजिया के बयान से बल मिल सकता है। क्योंकि एक रंग की सांप्रदायिकता दूसरे रंग की सांप्रदायिकता की खुराक पर पलती है।

  वहां कुछ निष्पक्ष लोग यह पूछ सकते हैं कि क्या उन्हें ऐसे दलों के बीच से ही चुनाव करना होगा जिन दलों में गिरिराज सिंह और शाजिया इल्मी जैसे नेता मौजूद हैं ?

याद रहे कि न तो शाजिया को ‘आप’ ने दल से निलंबित किया है और न ही भाजपा ने गिरिराज के खिलाफ कोई कार्रवाई की है।      

  शाजिया इल्मी एक ऐसी पार्टी की प्रमुख नेता हैं जो पार्टी देश के संविधान और कानून की दुहाई देती रही है। भारतीय संविधान हमें पंथनिरपेक्ष बने रहने की सीख देता है। आप नेता मनीष सिसोदिया ने शाजिया के बयान पर कहा है कि ‘हम सांप्रदायिक राजनीति में विश्वास नहीं करते। बल्कि हम भारत और सभी भारतीयों को एक करने में विश्वास करते हैं।’

पर, ‘आप’ की ओर से इतना ही कहा जाना काफी नहीं है।

    अनेक निष्पक्ष राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार कसूर को देखते हुए गिरिराज और शाजिया पर क्रमशः भाजपा व आप का रुख काफी नरम ही माना जा रहा है। ऐसे नरम रुख से बाद में इन दलों के कुछ अन्य अतिवादियोें की ओर से भी कुछ इस तरह के बयान आ सकते हैं।


अरविंद केजरीवाल ने बरती सावधानी

    हालांकि इससे पहले मुख्यमंत्री के रूप में अरविंद केजरीवाल ने बाटला हाउस एनकाउंटर की फिर से जांच कराने की मांग ठुकरा कर यह दिखा दिया था कि उनकी राजनीति एक तरफा नहीं है।

हाल में वाराणसी में मुख्तार अंसारी के समर्थन के सवाल पर भी केजरीवाल ने सावधानी बरती।

याद रहे कि विवादास्पद अंसारी के चुनाव मैदान से हट जाने के बाद वाराणसी में एक जाली चिट्ठी बंटी। वह चिट्ठी ‘आप’ की तरफ से अंसारी को लिखी बताई गई थी। उसमें लिखा गया था कि मुख्तार अंसारी के चुनाव मैदान से हट जाने के लिए आम आदमी पार्टी अंसारी का धन्यवाद देती है। अरविंद ने इसे जाली बताया। 

   आश्चर्य है कि जिस दल में योगेंद्र यादव और प्रो. आनंद कुमार जैसे समाजवादी विचारक हैं, उस दल के कुछ हलकों में एक तरफा बातें की जा रही हैं। तथा कुछ अन्य तरह की वैचारिक तथा अन्य तरह की अराजकता भी देखी जा रही है। दरअसल समाजवादी लोग दोनों रंगों की सांप्रदायिकताओं के खिलाफ रहे हैं।


प्रशांत भूषण का कश्मीर पर बयान

   इससे पहले अरविंद केजरीवाल प्रशांत भूषण के उस बयान से अपनी असहमति जाहिर कर चुके हैं जिसमें भूषण ने कश्मीर में जनसंग्रह की बात कही थी। हालांकि प्रशांत ने बाद में अपने बयान पर सफाई दी थी। पर उनकी सफाई भी कश्मीर में भारतीय सेना के रुख से मेल नहीं खाता। इसलिए प्रशांत के बयान व सफाई से आप की एक खास तरह की छवि बन रही है।

   यदि यही सब जारी रहा तो आप का कोई अन्य नेता कल बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के पक्ष में बयान दे सकता है जो उतना ही बुरा होगा।



(हिंदी दैनिक जनसत्ता के 24 अप्रैल 2014 के अंक में इस लेख का संपादित अंश प्रकाशित)
  
   

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

जनता के कठघरे में सांप्रदायिकता बनाम शासनहीनता

क्या राष्ट्रीय स्तर पर दुहराएगा 2005 का बिहार ?


  सांप्रदायिकता को भष्टाचार और शासनहीनता से अधिक खतरनाक मानने वाले दलों को 2005 में बिहार में चुनावी मात मिली थी। क्या वही चुनावी कथा इस बार राष्ट्रीय स्तर पर भी दुहराएगी जाएगी? पता नहीं कि अंततः क्या होगा। क्योंकि देश बड़ा है और चुनावों में एक साथ कई फैक्टर काम करते रहते हैं। अधिकतर क्षेत्रों में मतदान होने भी अभी बाकी हैं।

 फिर भी मतदाताओं के जो प्रारंभिक किंतु अपुष्ट रुझान मिले हैं, उनसे लगता है कि अधिकतर मतदाताओं के समक्ष  सांप्रदायिकता की अपेक्षा भ्रष्टाचार व महंगाई के दानव बहुत बड़ी समस्या बन कर उपस्थित हुआ है। अनिर्णय, अशासन व कुशासन ने इन समस्याओं को बढ़ाया है। बिहार में भी यही हुआ था।

   बिहार में 1991 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही जनता के सामने भ्रष्टाचार, अविकास, शासनहीनता व जंगल राज की समस्याएं बड़ी तीव्रता से उठ खड़ी हुई थीं।

राज्य में 1990 से 1997 तक लालू प्रसाद मुख्यमंत्री थे। 1997 से 2005 तक राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं। सन 2000 से 2005 तक तो बिहार में राजद और कांग्रेस की मिलीजुली सरकार थी।

  कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी इस बीच लगातार बिहार सरकार का बचाव करती रहीं। इन दलों ने तब कहा कि वे सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने से रोकने के लिए लालू-राबड़ी की सरकार का साथ दे रही हैं। इसके विपरीत अधिकतर जनता के लिए सांप्रदायिकता की समस्या की अपेक्षा भ्रष्टाचार, जंगल राज और अविकास की समस्याएं काफी बड़ी समस्याएं थीं।

  1996 में समता पार्टी के नेता नीतीश कुमार ने भी यह बात समझ ली थी। इसीलिए उन्होंने तब भाजपा से हाथ मिला लिया।

  नतीजतन 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू-भाजपा गठबंधन सत्ता में आ गई। एकतरफा व ढोंगी धर्म निरपेक्षता की माला जपने वाली पार्टियां हाशिए पर चली गईं। नीतीश सरकार में भाजपा की मजबूत उपस्थिति रही। हालांकि भाजपा नीतीश कुमार के दबंग व्यक्तित्व के कारण बिहार में हिन्दुत्व का एजेंडा नहीं चला सकी। यहां तक कि वह पूर्वोत्तर बिहार में बंगलादेशी घुसपैठियों की समस्या भी भूल गई जिसको लेकर ए.बी.वी.पी. अक्सर आंदोलन करता रहता था।

 सत्ता में आने के बाद नीतीश सरकार ने भागलपुर सांप्रदायिक दंगे में शामिल दोनों पक्षों के आरोपियों को अदालतों से सजाएं दिलवाई। इसके लिए बंद करा दिये गये मुकदमों को भी फिर से खुलवाया गया था। इस कदम से दोनों समुदाओं में से किसी ने भी यह महसूस नहीं किया कि  शासन किसी के साथ पक्षपात कर रहा है। याद रहे कि इस मामले में बिहार सरकार ने वैसी एकतरफा कार्रवाई नहीं की जैसी कार्रवाई हाल के मुजफ्फरनगर दंगे के सिलसिले में करने का आरोप अखिलेश सरकार पर लगा।

   याद रहे कि इस काम में भाजपा ने नीतीश सरकार का विरोध नहीं किया। भागलपुर दंगे के एक आरोपी व एक हिन्दू संगठन से जुड़े कामेश्वर यादव के खिलाफ भी बंद केस को फिर से खुलवा कर शासन ने उसे अदालत से सजा दिलवाई। इसका भी भाजपा ने विरोध नहीं किया।

  ऐसा करके नीतीश कुमार अपने नेता डा. राम मनोहर लोहिया का ही अनुसरण कर रहे थे जिन्होंने अपने जीवनकाल में दोनों धर्मों के कट्टरपंथियों का समान रुप से विरोध किया था।

   1967 के आम चुनाव से ठीक पहले डा. लोहिया ने सार्वजनिक रुप से यह कह दिया था कि वे देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के पक्षधर हैं। याद रहे कि भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्वों वाले अनुच्छेद में यह लिखा हुआ है कि शासन देश में समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करेगा।

  पर डा. लोहिया के इस बयान का अल्पसंख्यकों के एक बड़े हिस्से ने कड़ा विरोध कर दिया।

  खुद डा. लोहिया के दल के कुछ बड़े नेताओं ने लोहिया से कहा  कि चुनाव सिर पर है और आपने ऐसा बयान दे दिया। अब तो आप चुनाव हार जाएंगे।

 डा. लोहिया ने जवाब दिया कि मैं सिर्फ चुनाव जीतने के लिए राजनीति में नहीं हूं। बल्कि देश की बेहतरी के लिए राजनीति में हूं। इस विवाद के कारण 1967 में डा. लोहिया मुश्किल से मात्र लगभग चार सौ मतों से ही लोकसभा चुनाव जीत सके थे।

  याद रहे कि लोहिया यह भी कहा करते थे कि इस देश में जब -जब कट्टर हिन्दुत्व हावी रहा है तब -तब देश कमजोर हुआ है। पर इसके विपरीत स्थिति होने पर देश का भला हुआ है। पर आज के कितने नेतागण सांप्रदायिक समस्या पर इस तरह सम्यक व संतुलित रूप से सोचते हैं ?

  पर, बिहार में सन 2009 के लोकसभा चुनाव व 2005 और 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव नतीजों के विश्लेषण से यह साफ लगता है कि आम जनता में से अधिकतर लोग उन नेताओं व दलों को ंपसंद नहीं करते हैं जो सांप्रदायिक समस्या का एकतरफा हौवा खड़ा करते रहते हैं।

  जनता के चुनावी फैसलों से यह नतीजा निकलता है कि वह दोनों तरह की कट्टरताओं को नापसंद करती है। ताजा लोकसभा चुनाव मंे हो रहे मतदान के ताजा रुझान भी कमोवेश यही संकेत दे रहे हैं। इसके बावजूद दोनों पक्षों के अतिवादी नेताओं के उत्तेजक व एकतरफा बयान आने  थम नहीं रहे हैं। यदि यह सब जारी रहा तो इसका असर आगे के मतदानों पर भी पड़ सकता है।

  बिहार के चुनाव नतीजों व ताजा लोकसभा चुनाव के मतदान के आरंभिक रुझानों से एक साफ संदेश मिलता है। पर क्या नेता व बुद्धिजीवी लोग संकेत ग्रहण करना चाहेंगे ?

  यदि वे कथित सांप्रदायिक दलों को सत्ता में आने से सचमुच रोकना चाहते हैं तो वे कुछ कथित सेक्युलर दलों से भी यह अपील करें कि वे अपने दल व सरकार में जारी भ्रष्टाचार, अपराध, वंशवाद और जातिवाद पर काबू पाएं।

 दरअसल संविधान व कानून का पालन करने वाली भ्रष्टाचारमुक्त व अपराधमुक्त पार्टी व निर्मल शासन-व्यवस्था ही सभी रंगों के सांप्रदायिक तत्वों से भी कारगर तरीके लड़कर उन्हें पराजित  सकती है। याद रहे कि भ्रष्टाचार से महंगाई बढ़ती है। महंगाई  जाति और संप्रदाय के स्तर पर कोई भेदभाव नहीं करती।

( इस लेख का संपादित अंश 12 अप्रैल, 2014 के जनसत्ता में प्रकाशित)
     
 

बुधवार, 26 मार्च 2014

खुशवंत के जीवन में एक अफसोस और एक कुख्याति

खुशवंत सिंह को इस बात का अफसोस रहा कि ‘मैंने जीवन का बहुत सा हिस्सा वकालत और राजनयिक सेवा जैसी व्यर्थ की नौकरी में गंवा डाला। काश ! मेरा वह समय भी लिखने में लगा होता।’

  याद रहे कि 1939 से 1947 तक उन्होंने लाहौर हाईकोर्ट में वकालत की। वकालत चल नहीं रही थी। बैठे -बैठे मक्खियां मारने की नौबत थी।

1947 में विदेश मंत्रालय की नौकरी कर ली। लंदन में भारतीय उच्चायोग में सूचना अधिकारी बन गये। पर तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त वी.के. कृष्ण मेनन से तालमेल नहीं बना पाने के कारण खुशवंत का ओटावा तबादला कर दिया गया। 

   एक साक्षात्कार में उन्होंने लेखिका उषा महाजन को 1997 में एक और बात बताई थी, ‘लोग मुझे नाहक शराबी, कबाबी और व्यभिचारी समझते हैं जबकि मैं ऐसा नहीं हूं। इस नाहक कुख्याति का भी उन्हें अफसोस रहा। पर उन्होंने यह स्वीकारा कि मानता हूं कि अपनी इस कुख्याति के लिए मैं खुद ही जिम्मेदार हूं।

उन्होंने कहा ः दरअसल मेरी यह छवि बंबई में इलेस्ट्रेटेड वीकली के संपादन के दौरान बीते नौ वर्षों की देन है। वहांं मैंने सेक्स जैसे प्रतिबंधित विषयों पर लिखने की शुरुआत की और लड़कियों की अर्धनग्न तस्वीरें छापीं। इससे पत्रिका की प्रसार संख्या 80 हजार से बढ़कर चार लाख से भी अधिक हो गई।ल ेकिन दुर्भाग्यवश इसके साथ ही एक ऐसी छवि भी अर्जित कर ली जो मेरी सही तस्वीर न होते हुए भी आज तक मुझसे चिपकी हुई है। मेरे परिवारवाले और मुझे करीब से जानने वाले जानते हैं कि मैं वैसा नहीं हूं।

मैं न तो शराबी हूं और न ही औरतों आशिक हूं। दिन भर पढ़ने -लिखने और लोगों से मिलने का इतना काम रहता है कि इन सब चीजों की फुर्सत ही नहीं मिल सकती।

सिर्फ शाम में मैं अपनी ड्रिंक के साथ रिलैक्स करता हूं। ज्यादा कभी नहीं पीता वरना दूसरे दिन काम कैसे करूंगा ? अपनी पूरी जिंदगी में मैंने एक बार भी शराब पीकर अपने होश नहीं खोये।

  खुशवंत सिंह ने जब भी किसी को कोई इंटरव्यू दिया, उन्होंने सच्ची बातें बता दीं। ऐसी बातें भी जिन्हें आम तौर पर लोग छिपा जाते हैं।

 हाल ही में दिल्ली की एक हिंदी पाक्षिक पत्रिका से बातचीत में उन्होंने कहा था कि संजय गांधी के कहने पर मुझे एक अंग्रेजी दैनिक का संपादक बनाया गया था।

 उन्होंने यह भी स्वीकारा था कि उनकी नेहरु-इंदिरा परिवार से नहीं बल्कि सिर्फ संजय गांधी से घनिष्ठता थी। इंदिरा गांधी के कहने पर मुझे उस अखबार के संपादक पद से हटा दिया गया था।

इस साल के प्रारंभ में उनसे पूछा गया था कि इस उम्र में भी सक्रिय रहने का राज क्या है ? उन्होंने बताया कि मैं अपने जीवन में बहुत सख्त हूं। कम खाता हूं। मैं बहुत कम पीता हूं। ज्यादातर तरल लेता हूं। क्योंकि वह पचाने में आसान होता है।

 कई विधाओं में कलम चलाने वाले खुशवंत सिंह ने सिख इतिहास भी लिखा था जिसकी शुरू के दिनों में व्यापक चर्चा भी हुई।वे कथाकार थे। ट्रेन टू पाकिस्तान उनका चर्चित उपन्यास है जिस पर फिल्म भी बनी। अपनी पुस्तकों में से ‘दिल्ली’ को वे सर्वाधिक पसंद करते थे।

साहित्यिक पुरस्कारों के बारे में उन्होंने अपनी राय करीब डेढ़ दशक पहले ही बता दी थी। उन्होंने कहा था कि ‘जिनको अवार्ड मिलते हैं, वे अपने आप को वोट देकर अवार्ड ले लेते हैं। खुद को कैनवैस करके, लोगों के आगे -पीछे लग कर न जाने कितनी सेकेंड ग्रेड की किताबों को मिल जाते हैं पुरस्कार ! मैंने उनमें से एक भी किताब बाजार में नहीं देखी।

    ‘राज्यसभा की सदस्यता के बारे में उन्होंने कहा था कि राज्यसभा की सदस्यता ऐसे नहीं मिलती है। मांगनी पड़ती है। कैनवेसिंग करनी पड़ती है। इसके लिए बहुत तरफ से दबाव पड़ रहे होते हंै उन पर।’ उनसे पूछा गया था कि आपके मित्र इंदर कुमार गुजराल अब प्रधानमंत्री हैं। क्या आपको पुनः राज्यसभा की सदस्यता कर उम्मीद है ? खुशवंत सिंह 1980 से 1986 तक राज्यसभा के सदस्य थे।

 खुशवंत सिंह की याद आते ही एक और सवाल बरबस जेहन में कौंध जाता है। खुशवंत सिंह ने अधिक पुस्तकें लिखीं या उनके पिता सर सोभा सिंह और दादा सरदार सुजान सिंह ने अधिक बिल्डिंगें बनवार्इं ?

वे दिल्ली के सबसे बड़े ठेकेदार थे। सचिवालय का साउथ ब्लाॅक, इंडिया गेट, आकाशवाणी भवन, राष्ट्रीय संग्रहालय, बड़ौदा हाउस और सैकड़़ों सरकारी बंगले उन्होंने बनवाये।

  (जनसत्ता के 21 मार्च 2014 के अंक में प्रकाशित)