बुधवार, 7 जनवरी 2015

बिहार में जनता परिवार के वोट की ताकत जीतेगी या नरेंद्र मोदी की साख ?

बिहार विधानसभा के अगले आम चुनाव में राजग जीतेगा या जदयू-राजद गठबंधन बाजी मारेगा ? इन दिनों राजनीतिक और गैर राजनीतिक हलकों में यही सवाल कौंध रहा है।

   इस सवाल का जवाब आसान नहीं है। वोट के आंकड़े जदयू - राजद के पक्ष में हंै तो कुछ दूसरी बातें राजग को ताकत पहुंचा रही हैं। देखना है कि ऊंट अंततः किस करवट बैठता है।

 अक्टूबर-नवंबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में यदि राजद-जदयू ने बाजी मार ली तो इससे गैर भाजपा दलों का मनोबल देश भर में बढ़ जाएगा। पर, यदि जनता का फैसला इसके विपरीत हुआ तो नरेंद्र मोदी और भाजपा की आगे की राह भी आसान हो जाएगी।

    गत अप्रैल-मई में लोक सभा के चुनाव हुए थे। उसमें राजग को बिहार में कुल 40 में से 31 सीटें मिली थीं। पर मात्र तीन महीने बाद जब विधानसभा की दस सीटों पर उप चुनाव हुए तो उसमें राजग साठ प्रतिशत सीटें हार गया।

 यानी राजद-जदयू-कांग्रेस गठबंधन को 6 सीटें मिल गईं। पर उस बीच एक फर्क आ गया था। लोकसभा का चुनाव राजद और जदयू ने अलग -अलग लड़ा था। पर उपचुनाव में जदयू ने राजद और कांग्रेस से गठबंधन बना लिया था।

   लोकसभा चुनाव के मतों के आंकड़ों के विश्लेषण से भी जदयू और राजद का मनोबल बढ़ा है। लोकसभा की जिन सीटों पर राजग को  विजय मिली थी, उनमें से 19 सीटें उसे नहीं मिल पातीं, यदि तब राजद-जदयू का गठबंधन रहा होता। यानी 19 सीटों पर  राजद और जदयू के मतों को जोड़ दें तो वे राजग से अधिक थे।

   ताजा राजनीतिक घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि अब जनता परिवार एक साथ आने ही वाला है। इतना ही नहीं, जनता परिवार अन्य गैर भाजपा दलों से भी चुनावी तालमेल करने की कोशिश करेगा ही।

  यदि गैर राजग दलों का अपसी तालमेल हो गया तो सैद्धांतिक रूप से यह गठबंधन राज्य की अधिकतर जनता के समर्थन वाला गठबंधन माना जाएगा। पर बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। राजग अभी केंद्र में सत्ता में है। हाल के लगभग सभी विधानसभा चुनावों में भाजपा को उसकी वास्तविक परंपरागत राजनीतिक ताकत की अपेक्षा अधिक वोट मिले हैं।

अनेक लोग नरेंद्र मोदी को एक अच्छी मंशा वाला नेता मान रहे हैं। इस वोट में खुद नरेंद्र मोदी के अपने वोट भी हैं। एक अन्य तर्क भी भाजपा के पक्ष में है।

 वह यह कि मतदाताओं का एक वर्ग यह चाहता है कि जिसकी सरकार केंद्र में हो, उसी की सरकार राज्य में भी होनी चाहिए ताकि राज्य सरकार केंद्र से तालमेल करके राज्य का विकास कर सके।

 राजग को इस बात का भी फायदा मिल सकता है कि यदि टिकट के बंटवारे के समय राजद-जदयू-कांग्रेस-एनसीपी तथा अन्य दल आपस में  लडेंगे।
 क्योंकि अधिक दलों के एक साथ आ जाने के बाद किसी भी एक दल के लिए यह जरूरी हो जाएगा कि वह अपने दल के अनेक उम्मीदवारों के टिकट कड़ाई से काट दे। जिनके टिकट कटेंगे, उन में कई स्थानीय स्तर पर ताकतवर नेता होंगे।

उनके लिए दल बदल की गुंजाइश तो कम ही रहेगी, पर वे निर्दलीय उम्मीदवार बनकर अपने मूल दल के उम्मीदवार को परेशानी में डाल सकते हैं। अब देखना होगा कि इस आशंकित भगदड़ का कितना लाभ राजग को मिलता है।

 भाजपा को उम्मीद है कि सबसे बड़ा हंगामा तो राजद के वे दबंग नेता लोग करेंगे जिनके टिकट कटेंगे। इस बात पर भी सहमति बनाना कठिन होगा कि राजद कितनी सीटों पर लड़ेगा और जदयू कितनी सीटों पर !
  हालांकि विधानसभा का चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही राजद-जदयू लड़ेगा, इस पर सहमति बन चुकी है। ऐसा संकेत मिल रहा है। गत नवंबर में ही कांगे्रेस ने भी यह संकेत दे दिया था कि राजद नीतीश कुमार को गठबंधन का नेता मान ले।

   दूसरी ओर बिहार के चुनाव में भी राजग का नेतृत्व नरेंद्र मोदी ही करेंगे। भाजपा के पास जंगलराज की पुनरावृत्ति के खतरे का नारा है।
 भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी ने कहा है कि राजद के साथ जदयू के विलयन का लाभ भाजपा को मिलेगा। क्योंकि तब यह स्पष्ट हो जाएगा कि  जंगल राज -2 का आगमन होकर रहेगा। इस मिलन से नीतीश कुमार की राजनीतिक पूंजी समाप्त हो जाएगी।

  हालांकि यह खतरा गत अगस्त में हुए बिहार विधानसभा के उप चुनाव में राजद-जदयू को नुकसान नहीं पहंुचा सके थे। उधर नीतीश कुमार ने बार-बार बिहार की जनता से यह वादा किया है कि वे किसी भी कीमत पर कानून के राज से समझौता नहीं करेंगे।

   हालांकि गत अप्रैल में लोक सभा के चुनाव -प्रचार के दौरान नीतीश कुमार ने कहा था कि ‘लालू प्रसाद को राज्य को तबाह करने की महारत हासिल है।’ पर अब नीतीश कुमार लोगों को विश्वास दिलाना चाहते हें कि लालू प्रसाद समय के साथ बदल गए हैं।

 अंदरुनी सूत्रों से भी यह संकेत मिल रहा है कि लालू प्रसाद ने नीतीश कुमार को यह कह दिया है कि आपको ही बिहार संभालना है।
 यह बात अधिकतर लोग मानते हैं कि नीतीश कुमार का सुशासन और विकास का पिछला रिकाॅर्ड बहुत बढि़या है। देखना होगा कि अगले बिहार विधानसभा चुनाव में उस रिकाॅर्ड का कितना चुनावी लाभ जदयू-राजद को मिलता है। उधर नरेंद्र मोदी की साख भी तब कसौटी पर होगी ।        
   
   

सिर्फ इसी देश में सुरक्षा से ऊपर है राजनीति


 देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के मामलों में भी हमारे यहां की राजनीति आखिर इतनी बंटी हुई क्यों है ? कहीं आतंकी घटना या उस पर कार्रवाई हुई नहीं कि इस देश के नेतागण परस्पर विरोधी स्वर में बोलने लगते हैं।

 क्या किसी अन्य देश में ऐसा होता है ? शायद नहीं।

 क्या किसी ने कभी सुना कि अमेरिका के विश्व व्यापार केंद्र पर हमले को लेकर वहां के विरोधी दल ने सत्ताधारी नेताओं पर कोई आरोप लगाया ?
हां, उन दिनों भारत के कुछ कथित ढोंगी धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने यह  सवाल जरूर उठाया गया था कि 11 सितंबर 2001 को विश्व व्यापार केंद्र में कार्यरत सारे यहूदी कर्मचारी एक साथ छुट्टी पर क्यों थे ?

 हाल में पोरबंदर के पास पाकिस्तान की एक संदिग्ध नाव पर भारतीय कार्रवाई के बाद कांग्रेस ने सवाल खड़ा कर दिया है। हालांकि पेशेवर खोजबीनकत्र्ता जरूर कुछ संतुलित सवाल उठा सकते हैं। वह नाव मछुआरों की थी या आतंकियों की ?

उस पर मादक पदार्थों के तस्कर थे या उस नाव का उद्देश्य कुछ और था ?
  भारत के नेशनल टेकनिकल रिसर्च आॅर्गनाइजेशन के अनुसार उस नाव में सवार चार लोगों के पास स्नाइपर राइफले, अग्नि बम और गोला -बारुद थे।

  एक अन्य खबर के अनुसार उस नाव पर मादक पदार्थों के पाकिस्तानी तस्कर थे। पर, सवाल है कि पकड़े जाने की आशंका से तस्कर आत्महत्या कर लेते हैं ?

 आतंकवाद और मादक पदार्थों की तस्करी के बीच के गहरे रिश्ते को पूरी दुनिया जानती है, सिर्फ उन भारतीय नेताओं को छोड़कर जो भारत सरकार से सबूत मांग रहे हैं।

  इस माहौल में कई लोगों को मध्ययुग की याद आती है जब इस देश पर बाहरी लोगों द्वारा कब्जा करने के प्रयास में इसी देश के कुछ लोगों ने उन्हें मदद की थी।

  एक ब्रिटिश इतिहासकार प्रो. जे. आर. शेेली ने भी लिखा है कि हमने बेहतर नस्ल होने के कारण भारत को नहीं जीता, बल्कि खुद कुछ भारतीयों ने भारत को हमारे लिए जीत कर हमारी तश्तरी में परोस दिया।

  ठीक ही कहा गया है कि जो इतिहास से नहीं सीखता ,वह इतिहास को दुहराने को अभिशप्त होता है।यह कहावत भारत पर अधिक लागू होती है। हमारे यहां तो कुछ इतिहासकारों की यह भी शिकायत रही है कि यहां सच्चा व संपूर्ण इतिहास तो पढ़ाया ही नहीं जाता।

 26 नवंबर 2008 को पाकिस्तान से भेजे गए आतंकियों ने मुम्बई में  ताज होटल सहित दस स्थानों पर हमला करके सौ से अधिक निर्दोष लोगों को मार डाला।

उससे पहले दिल्ली के बाटला हाउस में आंतकियों ने पुलिस अफसर की हत्या कर दी। दोनों ही मामलों में अदालतों ने आतंकियों का सजाएं दीं। ये सजाएं जब हुईं तब देश में भाजपा की सरकार नहीं थी।

  पर मुम्बई हमले के बाद एक पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने आरोप लगाया था कि इस कांड में बाहरी नहीं बल्कि भीतरी तत्वों का ही हाथ है।

 बाटला हाउस मुठभेड़ पर  एक अन्य कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री ने आशंका जाहिर की थी कि वह मुठभेड़ नकली थी।

 इस पृष्ठभूमि में भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने ठीक ही कहा है कि आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई पर कांग्रेस के सवाल पाकिस्तान को आक्सीजन दे रहे हैं ।

 याद रहे कि पोरबंदर नौका कांड को लेकर कांग्रेस प्रवक्ता अजय कुमार ने सवाल उठाया है कि कोई सबूत नहीं है, फिर भी यह दावा कैसे कर सकते हैं कि आतंकी हमले को नाकाम कर दिया गया ?


साभार-दैनिक भास्कर पटना में 06 जनवरी 2015 को प्रकाशित