शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

भूख से अधिक भोजन के खिलाफ भी अभियान जरूरी

इन दिनों ‘चीनी छोड़ो अभियान’ की चर्चा है। पटना के बड़े चिकित्सकों के इससे जुड़ जाने से इसकी गंभीरता और भी बढ़ी है। लोगों पर इसका अच्छा असर दिख रहा है। पर एक दिक्कत आ रही है। सवाल है ंकि चीनी के बदले में हम जो गुड़ खरीदते हैं, वह कितना शुद्ध है!

कभी -कभी नकली और हानिकारक गुड़ कृत्रिम तरीके से बनाते हुए मिलावटखोर टी.वी. चैनलों पर नजर आते रहते हैं। ‘चीनी छोड़ो अभियान’ के साथ -साथ भूख से ‘कम खाओ अभियान’ की भी आज जरूरत है।
पांच साल पहले हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार दुनिया भर में अति भोजन जनित मोटापा की समस्या, कुपोषण और भुखमरी की अपेक्षा अधिक बड़ी समस्या बन चुकी थी। उससे पहले बात उल्टी थी। आज तो स्थिति और भी खराब बताई जा रही है।

भारत के बारे में एक पुरानी कहावत है कि जितने लोग अति भोजन से मरते हैं, उससे कम ही लोग भोजन के अभाव में मरते हैं। मैंने खुद अपने कई परिचितों को अति भोजन का अभ्यस्त पाया। उनमें से शायद ही कोई व्यक्ति अपने शरीर की नियमित डाक्टरी या पैथोलाॅजिकल जांच कराता था। उनमें से कई व्यक्ति कम ही उम्र में  दुनिया से उठ गए।

अस्सी के दशक की बात है। न्यूयार्क टाइम्स के नई दिल्ली ब्यूरो चीफ माइकल टी. काॅफमैन पटना आए थे। उनके साथ भोजन का मौका मिला था। उन्होंने सिर्फ तली मछली के कुछ टुकड़े खाए। इधर मैंने चार रोटियों के साथ-साथ और भी बहुत कुछ खा लिया। बाद में मैंने अपने खानपान पर विचार किया। देखा कि मैं अति भोजन का आदी हो गया था। बहुत प्रयास के बाद आदत छूटी। आज यदि मैं एक रोटी से अधिक खा लूं तो असहज महसूस करता हूं। इसके बावजूद मैं बिना थके घंटांे काम करता हूं।

नियमित पैथोलाजिकल जांच कराने और अति भोजन से बचने का अभियान यदि बड़े डाॅक्टर चलाएं तो उसका अच्छा असर पड़ेगा। पर साथ-साथ राज्य सरकार कुकुरमुत्ते की तरह उग आए मानकरहित  पैथालाजिकल जांच केंद्रों पर ताले लगवाए। अच्छा है कि पटना हाईकोर्ट इस समस्या पर गंभीर है।  


अतिवादियों से दूर ही रहें नेता

अहमदाबाद विस्फोट के आरोपित तौसीफ का संबंध सिमी की बिहार शाखा का प्रधान रह चुका गुलाम सरवर से था। याद रहे कि तौसीफ को हाल में गया से गिरफ्तार किया गया। तौसीफ पर  आतंकवादी तैयार करने का आरोप है।

सिमी कैसा संगठन था, इस बात का पता एक बार फिरं देश को चला है। उसका घोषित उद्देश्य हथियारों के बल पर भारत में इस्लामिक शासन कायम करना था। जमात-ए-इस्लामी के छात्र संगठन के रूप में 1977 में सिमी का गठन अलीगढ़ में हुआ था। पर जब सिमी की अतिवादी गतिविधियों की खबर जमात-ए-इस्लामी को मिली तो उसने सिमी से अपना संबंध तोड़ लिया।

सिमी को 2001 में प्रतिबंधित किया गया। बाद में सिमी के लोगों ने मिल कर इंडियन मुजाहिद्दीन बना लिया है। इन दिनों आई.एम. किस तरह विस्फोटक कार्रवाइयां कर रहा है, यह हर जागरूक नागरिक को मालूम है। जिसे जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठन से दुत्कार दिया, उसे हमारे देश के कुछ तथाकथित ‘सेक्युलर’ नेताओं ने अपना लिया।

करीब 15 साल पहले सिमी के समर्थन में कई राजनीतिक दल और उनके बड़े नेता सार्वजनिक रूप से उठ खड़े हुए थे। उनमें बिहार और उत्तर प्रदेश के चार बड़े नेता प्रमुख  थे। क्या वे नेता लोग जनता से इस बात के लिए अब माफी मांगेंगे कि सिमी को पहचानने में उनसे गलती हुई थी ? दरअसल ऐसी गलतियों के कारण ही भाजपा इस देश में मजबूत हुई है। पता नहीं माफी मांगेंगे या नहीं , पर कुछ ऐसे ‘सेक्युलरिस्ट’ नेतागण आज भी उसी तरह की गलतियां दुहरा रहे हैं।


डाॅ. स्वामी की चेतावनी

भाजपा के राज्यसभा सदस्य डाॅ. सुब्रमणियन स्वामी ने कहा है कि मैं अपनी जीवनी लिखूंगा और उसके बाद कई लोगों की प्रतिष्ठा समाप्त हो जाएगी। कौन -कौन लोग उनके दिमाग में हैं, यह तो वे ही जानते हैं। पर कुछ अनुमान जरूर लगाया जा सकता है। यानी राजनीतिक क्षेत्र के कुछ दिग्गज।

दरअसल डाॅ. स्वामी ने मनमोहन ंिसंह के शासनकाल में अनेक महाघोटालों को उजागर किया था। उन्होंने केस करके कई बड़ी हस्तियों को जेल भिजवाया। इस तरह 2014 चुनाव से पहले उन्होंने राजग के लिए राजनीतिक जमीन मजबूत की थी।

यानी 2014 की जीत में कुछ योगदान तो स्वामी का भी रहा। इसके एवज में उन्हें कैबिनेट मंे एक सीट तो मिलनी ही चाहिए थी। इसकी उम्मीद वह कर रहे थे। पर उनका दबंग व्यक्तित्व और कुछ मामलों में उनकी अतिवादी सोच के कारण वह नहीं हो सका।

उधर मोदी कैबिनेट में डाॅ. स्वामी के एक कट्टर विरोधी मजबूत स्थिति में हैं। अतः भविष्य में भी कोई चांस नहीं लगता। इस पृष्ठभूूमि में यदि डाॅ. स्वामी कोई विस्फोटक किताब लिखकर कुछ लोगों को बेनकाब करते हैं तो इसमें किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। आम लोगों को भी यह जानने का हक है कि किस दल का कौन नेता देश की सेवा कर रहा है या कोई और धंधा। यह सब बताने की हिम्मत कम ही लोग में है। उन साहसी लोगों में डाॅ.  स्वामी भी  हंै।


बुलेट ट्रेन तो ठीक, पर आम यात्रियों की भी सुध लीजिए!

इस देश में बुलेट ट्रेन आ रही है। कुछ लोगांे को वह भी चाहिए। सरकार तो सबके लिए होती है। पर अब रेल ंत्री को चाहिए कि वह आम यात्रियों पर भी ध्यान दें। पिछली बार जब मैंने रेल यात्रा की थी तो यह अनुभव हुआ कि सेकेंड ए.सी. के शौचालय का दरवाजा टूटा हुआ है। किसी तरह काम चलाया।

अन्य समस्याएं अनेेक हैं। मोदी सरकार के आने के बाद लोगांे में उम्मीद बंधी थी। पर पता नहीं क्यों चीजें नहीं सुधर रही हैं। 

क्यों नहीं सुधर रही हैं, उस संबंध में एक खबर जवाब देगी। हजारों गैंग मैन रेलवे के बड़े अफसरों की निजी सेवा मंे हैं और उधर पटरियां असुरक्षित हैं। दुर्घटनाएं हो रही हैं। जिस महकमे में ऐसे -ऐसे अफसर हों, वहां किस तरह की उम्मीद आप कर सकते हैं? 


एक भूली बिसरी याद 

प्रधानमंत्री बनने से पहले तक लाल बहादुर शास्त्री के पास अपनी कोई निजी कार नहीं थी। याद रहे कि उससे पहले वे देश के गृहमंत्री और रेलमंत्री रह चुके थे। प्रधानमत्री बनने के बाद परिवार के सदस्यों ने उनसे कहा कि कम से कम अब तो एक अपनी कार होनी चाहिए। शास्त्री जी मान गए। उन्होंने अपना बैंक खाता चेक किया। उसमें 7 हजार रुपए थे। फिएट कार की कीमत उन दिनों 12 हजार रुपए थी। उन्होंने 5 हजार रुपए बैंक से कर्ज लिया।

कर्ज वापस करने से पहले ही शास्त्री जी का निधन हो गया। परवर्ती प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा कि इस कर्ज को हम माफ कर देना चाहते हैं। दिवंगत नेता की विधवा ललिता शास्त्री ने मना कर दिया। पेंशन के पैसे से कर्ज का भुगतान हुआ।   


और अंत में

स्वच्छ भारत अभियान का काम जहां से शुरू करना चाहिए था, वहां से नहीं हो रहा है। पहले तो देखना चाहिए कि देश के महानगरों और नगरों में जो वेतन भोगी सफाईकर्मी हैं, क्या उनकी संख्या पर्याप्त हैं ?
कार्यरत सफाई कर्मियों में से कितने कर्मी अफसरों के घरेलू नौकर बने हुए हैं और कितने सरजमीन सक्रिय हंै ? जिन सफाईकर्मियों को वेतन मिल रहे हैं, उनमें से कितने बोगस हैं और कितने असली ?
सफाई के काम के लिए ठीके पर लगाई गयी निजी एजेंसियों के साथ निकायों के अफसरों के घूसखोरी के रिश्ते की खबर में कितनी सच्चाई है ? 

(प्रभात खबर पटना में 22 सितंबर 2017 को प्रकाशित)

शनिवार, 16 सितंबर 2017

वंशवादी राजनीति के बुरे नतीजे

सबसे पहले कांग्रेस ने इस देश की राजनीति में वंशवाद की शुरुआत की और जब कुछ अन्य दलों ने उसे अपना लिया तो अब राहुल गांधी कह रहे हैं कि ‘भारत ऐसे ही चलता है। यह भारत के अधिकतर दलों की समस्या है।’ जिसने शुरू किया, वही इसे समाप्त करने की पहल करे तो कांग्रेस भी बच सकती है और अन्य दल भी।
कांगे्रस यदाकदा यह कहती रही है कि जवाहर लाल नेहरू ने इस देश को वैज्ञानिक सोच दी। अनेक उच्चस्तरीय संस्थान भी दिए। पर वह यह कहना भूल जाती है कि सर्वाधिक समय तक इस देश पर राज करने वाली कांग्रेस के शासनकाल में यदि गरीबी बढ़ी, भ्रष्टाचार फैला और वंशवाद-परिवारवाद कायम हुआ तो उसके लिए किसे जिम्मेदार माना जाए ?


मीठा-मीठा गप और कड़ुआ कड़ुआ थू ?

आज तो केंद्र के चारों शीर्ष पदों पर बैठे कोई नेता परिवारवाद की उपज नहीं हैं। फिर भी देश बेहतर ढंग से चल रहा है। अधिकतर आम लोगों की सोच है कि देश बेहतर चलना चाहिए चाहे वंशवादी चलाएं या गैर वंशवादी। पर घटनाएं बताती हैं कि अपवादों को छोड़कर गैर वंशवादियों ने ही देश को बेहतर ढंग से चलाया है।
आज शीर्ष पदों पर गैरवंशवादी ही क्यों बैठे हैं ? आखिर यह कैसे संभव हुआ ? इसलिए संभव हुआ क्योंकि मतदाताओं ने 2014 में कांग्रेस को सत्ता से हटा दिया जो अनेक बुराइयों और विफलताओं की प्रतीक बन चुकी थी। उनमें से अपनी एक -दो विफलताएं तो खुद राहुल गांधी ने भी स्वीकारी हैं।
पर विफलताएं तो अनेक हैं।


राहुल गांधी अपने वंशवाद को जायज ठहराने के लिए 

अखिलेश यादव से लेकर स्टालिन तक का उदाहरण दे रहे हैं। इस तरह वे अपने वंशवाद का बचाव करना चाहते हैं। पर 1928 में तो न कोई अखिलेश थे और न ही कोई स्टालिन। तब कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू थे। महात्मा गांधी सर्वोच्च नेता थे।

मोतीलाल ने महात्मा गांधी को लिखा कि ‘वैसे तो सरदार बल्लभ भाई पटेल कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सर्वोत्तम उम्मीदवार हैं, पर आप जवाहर लाल नेहरू को अध्यक्ष बना दीजिए।’

नेहरू मेमोरियल में मोतीलाल पेपर्स पढ़ने के बाद इतिहासकार रिजवान कादरी ने लिखा कि ‘मोतीलाल नेहरू युवा को आगे बढ़ाना चाहते थे।’

आखिर किसी युवा की तलाश सिर्फ अपने ही घर से क्यों? एक चिट्ठी आने के बावजूद महात्मा गांधी जवाहर लाल को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने को तैयार नहीं थे। इसीलिए इसके लिए मोतीलाल नेहरू ने उन्हें दो  चिट्ठयां और लिखीं। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने अन्य हस्तियों से भी गांधी जी को लिखवाया। गांधी भारी दबाव में आ गए।
दरअसल यही तो वंशवाद है जिसे देश के अन्य दलों ने अपने स्वार्थवश बाद में अपनाया। ‘महाजनो येन गतः स पंथाः !’ नब्बे के दशक में लालू प्रसाद ने कहा था कि ‘मेरा परिवार बिहार का नेहरू परिवार है।’ उन्होंने इसे साबित करके भी दिखाया।

वंश को आगे बढ़ाने में मोतीलाल जी को थोड़ी कठिनाई जरूर हुई थी, पर जवाहर लाल नेहरू को नहीं हुई। उन्होंने 1958 में इंदिरा गांधी को 24 सदस्यीय कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य बनवा दिया। उससे पहले जवाहर लाल जी फिरोज गांधी तथा अपने परिवार के अन्य अनेक सदस्यों को महत्वपूर्ण पदों को बिठवा चुके थे।
1959 में जब इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाने की प्रक्रिया शुरू हुई तो कांग्रेसी सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री महावीर त्यागी ने जवाहर लाल नेहरू को चिट्ठी लिखी। त्यागी ने कई वजहें गिनाते हुए 31 जनवरी 1959 को लिखा कि ‘मेरी राय है कि इंदु को कांग्रेस प्रधान चुने जाने से रोको। या फिर आप प्रधानमंत्री पद से अलग हो जाओ।’उसके जवाब में जवाहर लाल नेहरू ने त्यागी को 1 फरवरी 1959 को लिखा कि ‘मेरा यह भी ख्याल है कि बहुत तरह से उसका इस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष बनना मुफीद होगा।’

आज राहुल गांधी अन्य दलों के वंशवाद की चर्चा कर रहे हैं। पर 1959 में किस दल के किस नेता ने अपनी पार्टी का अध्यक्ष पद अपनी संतान के हवाले कर दिया था ?  अब देखिए इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद क्या किया ? उन्होंने अपने पुत्र संजय गांधी को शासन  का संविधानेत्तर केंद्र बनातेे हुए आपातकाल में उनके जिम्मे एक तरह से सरकार ही सौंप दी थी। संजय गांधी के नहीं रहने के बाद इंदिरा जी ने राजीव गांधी को पार्टी सौंप दी। वे किसी राजनीतिक अनुभव के बिना महासचिव बना दिए गए।

हाल के वर्षों में सोनिया गांधी ने दस साल तक परदे के पीछे से राज चलाया। कैसा राज चला ? लोकसभा में 44 सीटें लायक ही तो। अब राहुल कह रहे हैं कि वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने को तैयार हैं।

वंशवाद की तारीफ होती, यदि वंशवादियों ने सत्ता में आकर देश का सचमुच देश का भला किया होता। यदि भला हुआ होता तो 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा नहीं दिया होता।
आजादी के बाइस साल बाद भी, जिसमें 19 साल एक वंश का शासन रहा हो, आखिर गरीबी क्यों नहीं हटी थी? क्या गरीबी हटाओ का नारा 17 साला शासन पर टिप्पणी नहीं था ?


अमरीकी शोधकर्ता पाॅल आर ब्रास का शोध


अमरीकी शोधकर्ता पाॅल आर ब्रास ने साठ के दशक में उत्तर प्रदेश सरकार में भ्रष्टाचार पर गहन शोध किया था। ब्रास के शोध का नतीजा था कि मंत्रियों ने जिलों में अपने गुटों को ताकत देने के लिए ऊपर से नीचे की ओर सरकारी भ्रष्टाचार को फैलाया।

 जवाहर लाल नेहरू के निजी सचिव ने लिखा है कि नेहरू ने भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की पोख्ता व्यवस्था इसलिए नहीं की क्योंकि वे मानते थे कि इससे शासन में पस्तहिम्मती आएगी।

जवाहर लाल और इंदिरा गांधी के शासनकाल मंे भ्रष्टाचार का क्या हाल था, उसका जवाब खुद राजीव गांधी ने अस्सी के दशक में दिया था। तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधीे ने कहा था कि हम सौ पैसे दिल्ली से भेजते हैं और गांवों तक उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही मिल पाते हैं।क्या यह एक दिन में हुआ ?

कोई पूछे कि ऐसी नौबत किसने लाई थी ? तो इस सवाल के जवाब के लिए किसी को सिर खुजलाना नहीं पड़ेगा।
 वंशवाद ने तो देश को यही दिया है ! कभी मिस्टर क्लिन कहलाने वाले प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सत्ता के दलालों के खिलाफ आवाज उठाई थी। पर विडंबना यह रही कि बोफर्स तोप सौदे के दलाल को बचाने के प्रयास में ही उन्होंने अपनी गद्दी गंवा दी। यह अनुभवहीनता का परिणाम था या कुछ और ?

 उधर अधिकतर वंशवादी क्षेत्रीय दलों ने सत्ता में आकर तो हदें पार कर दी हैं। वैसे अनेक नेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के तहत मुकदमे चल रहे हैं।

इस बीच इन दिनों गैर वंशवादी प्रधानमंत्री सत्ता में हैं। खुद नरेंद्र मोदी कौन कहे, उनके मंत्रिमंडल के किसी सदस्य के खिलाफ किसी भ्रष्टाचार के आरोप की कोई खबर नहीं मिल रही है।

यही नहीं, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरो को उनके पद से तभी हटाया जा सका जब 1964 में लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे। उनपर और उनके परिजन पर भ्रष्टाचार के आरोप थे। जबकि कैरो के खिलाफ जांच आयोग ने पहले ही अपनी रपट दे रखी थी।
  दरअसल अधिकतर मामलों में वंशवाद और जातिवाद जुड़वा भाई हैं। वंशवादी नेता अपने जातीय वोट बैंक को लेकर निश्चिंत रहते हैं। फिर तो वह समझने लगते हंै कि वह कोई भी अनर्थ करके बच सकते हंै। उसके मतदातागण हर हाल में उसका साथ देते ही रहेंगे। इस प्रचलन-प्रवृत्ति से देश का अधिक नुकसान हुआ है।
 पर जो वंशवादी नहीं हैं, उन्हें सरकार में आने पर कुछ काम करके दिखाना पड़ता है।

(इस लेख का संपादित अंश 15 सितंबर 2017 के दैनिक जागरण में प्रकाशित)