सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

पर्यावरण,सरकार और मीडिया

पर्यावरण संतुलन कायम रखने में इस देश की सरकारें पूरी तरह विफल रही हैं। पर्यावरण संतुलन बिगड़ते जाने की इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए अब मीडिया का एक हिस्सा इस ओर पहले की अपेक्षा अधिक ध्यान देने लगा है। यह खुश खबरी है। ‘डाउन टू अथर्’’ पत्रिका की संपादक सुनीता नारायण तो पहले से ही इस मामले में ऐतिहासिक काम कर रही हैं। पर हाल में एक ’ाालीन व जिम्मेवार इलेक्ट्रोनिक चैनेल एनडीटीवी ने भी यह सामाजिक जिम्मेदारी उठाई है। यह चैनल इन दिनों पर्यावरण जागरूकता के क्ष्ेात्र में भी बढि़या काम कर रहा है। उम्मीद है कि कुछ अन्य चैनल भी इस दिशा में जल्दी ही आगे आएंगे। इलेक्ट्रानिक चैनलों का भारतीयों के मानस पर भारी असर है।
अखबारों को भी चाहिए कि वे अब पर्यावरण को अलग एक प्रमुख ‘बिट’ के रूप में स्वीकार करें। क्योंकि बढ़ते पर्यावरण असंतुलन की यह समस्या काफी गंभीर बनती जा रही है। वैसे भी मीडिया का काम सूचना, शिक्षण और मनोरंजन ही तो है, पर केंद्र और राज्य सरकारें पर्यावरण के क्षेत्र में पहले जैसे ही अब भी लापारवाह हंै। यह लापारवाही इस बात के बावजूद है कि सुप्रीम कोर्ट ने सन् 1991 और उसके बाद बार -बार केंद्र और राज्य सरकारों को यह हिदायत दी कि वे प्राथमिक से विश्वविद्यालय स्तर तक पर्यावरण की पढ़ाई पृथक और अनिवार्य विषय के रूप में करे, ताकि कम- से-कम आनेवाली पीढियां तो इस गंभीर समस्या के प्रति जागरूक हों। इस आदेश को मानते हुए सीबीएसई और आईसीएसई से जुड़े विद्यालयों ने तो पृथक और अनिवार्य विषय के रूप से पर्यावरण की पढ़ाई शुरू कर दी । पर बिहार सरकार, विश्वविद्यालय तथा अन्य कुछ सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को नजरअंदाज ही कर दिया। या फिर इस तरह उसका पालन किया ताकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश की मंशा ही पराजित हो जाए। बिहार सरकार ने पर्यावरण विषय को अन्य कई विषयों के साथ मिला दिया और उस समाज अध्ययन को पढ़ाने के लिए भूगोल के टीचर पर जिम्मेदारी सौंप दी।
पटना के एएन काॅलेज तथा कुछ अन्य काॅलेजों में पर्यावरण विज्ञान व जल प्रबंधन विषय में बीएससी और एमएससी स्तर की पढ़ाई होती है और हर साल उनकी डिग्रियां दी जाती हैं, पर बिहार सरकार के पास उन डिग्रियों का कोई मोल नहीं है। यानी इन विषयों में पास करके कोई छात्र बिहार सरकार के किसी स्कूल या यहां के किसी विश्वविद्यालय या काॅलेज में शिक्षक नहीं बन सकता। सामाजिक कार्यकर्ता मिथिलेश कुमार सिंह ने सूचना के अधिकार के तहत बिहार सरकार के शिक्षा विभाग से कई महीना पहले एक सूचना मांगी। उन्होंने पूछा है कि बिहार सरकार के शिक्षा विभाग, शिक्षण संस्थान या यहां किसी भी विश्व विद्यालय में ऐसा कौन सा पद है जो सिर्फ पर्यावरण विज्ञान में एमएससी की डिग्री पाए उम्मीदवार को ही दिया जा सकता है ? ठीक उसी तरह, जिस तरह किसी कालेज के गणित विभाग में वही टीचर बन सकता है जिसके पास गणित में स्नातकोत्तर की डिग्री हो। पर इसका उत्तर अब तक शिक्षा विभाग की तरफ से नहीं आया है। लगता है कि ऐसा कोई भी पद नहीं है। यदि कोई पद ही नहीं है तो बिहार सरकार या फिर यहां के विश्व विद्यालय पर्यावरण विज्ञान की पढ़ाई करा कर छात्र छात्राओं के जीवन और कैरियर को क्यों बर्बाद कर रहे हैं ? यदि पर्यावरण विज्ञान के बदले वे गणित पढ़ते तो कम से कम विश्वविद्यालयों और काॅलेजों के गणित विभागों में नौकरी की उम्मीद रख सकते थे। पर बिहार सरकार के कुछ खास नीति निर्धारकों को किसी के जीवन बर्बाद होने या नहीं होने से कितना मतलब रह गया है ? उनकी प्राथमिकताएं तो कुछ और ही हैं।
इस देश में बढ़ते पर्यावरण असंतुलन को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण आंदोलन के महत्वपूर्ण नेता एम.सी.मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में लोकहित याचिका दायर की।सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका संख्या-860-91 पर विचार करते हुए 22 नवंबर 1991 को यह आदेश दिया कि राज्य सरकारें मैट्रिक स्तर या फिर इंटर स्तर तक पर्यावरण विषय को पृथक और अनिवार्य रूप से पढ़ाने की व्यवस्था करे। काॅलेज और विश्व विश्वविद्यालय स्तर पर भी इस विषय की पढ़ाई की अनिवार्यता कायम करने की संभावना पर इस देश के विश्वविद्यालय विचार करें। किंतु इस दिशा में कोई ठोस काम नहीं हुआ। जहां तक बिहार के स्कूलों में पर्यावरण की पढ़ाई का सवाल है तो इसे समाज विज्ञान का हिस्सा बना दिया गया है और इसे भूगोल के टीचर पढ़ाते हैं।
पर पर्यावरण विज्ञानी डा बिहारी सिंह बताते हैं कि आज पर्यावरण विज्ञान का जो सिलेबस है, उसमें भूगोल का हिस्सा मात्र सात प्रतिशत ही है।कोई भूगोल का टीचर उस विषय के साथ न्याय नहीं कर सकता।
खैर, अब बिगड़ते पर्यावरण की एक झलक। पर्यावरण से जुड़ी दुनिया की मशहूर संस्था वल्र्ड वाइल्डलाइफ फंड ने भविष्यवाणी की है कि जिस रफ्तार से संसाधनों की लूट हो रही है, उस हिसाब से अगले 50 साल के अंदर कार्बन डायआक्साइड सोंखने वाले सारे जंगल उजड़ जाएंगे और समुद्र की मछलियां गायब हो जाएंगी। न शुद्ध हवा मिलेगी और न शुद्ध पानी मिलेगा। इस बिगड़ती स्थिति को संभाल लेन के लिए हमारे पास सिर्फ सात साल का समय ही बचा है। तब तक नहीं संभला तो बाद में हम चाहते हुए भी नहीं संभाल पाएंगे।
सूखती और गंदे नाले में तब्दील होती गंगा नदी की दशा देख कर हम भविष्य की कल्पना कर सकते हैं। हाल में स्वामी रामदेव के नेतृत्व में संतों ने कान पुर से ही गंगा को बचाने के लिए अभियान शुरू करने का फैसला किया तो वहां के सांसद व केंद्रीय गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल घबरा गए और उन्होंने प्रधान मंत्री से संतों को मिलवाया। इसके बाद गंगा बेसिन प्राधिकार बनाने का केंद्र सरकार ने फैेसला भी किया। पर बाद में इसे भी भुला दिया गया। अब तक ऐसी कोई खबर नहीं मिली है कि प्राधिकार ने कोई बैठक भी की हो।पता नहीं ,हमारी तकदीर में क्या लिखा हुआ है जहां की विभिन्न सरकारों में ऐसे ऐसे नीति निर्धारक बैठे हुए हैं जो पर्यावरण की रक्षा का महत्व ही समझने को तैयार नहीं हैं।अब तो इस देश का भगवान ही मालिक है। सरकारों को जगाने के काम में लगा कोर्ट भी अब थक चुका।शायद मीडिया खास कर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया ही कोई असर पैदा करे !
(8 फरवरी, 2009)

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

राजनीति में एक और प्रयोग

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कल कहा कि ‘हम रहेंगे या भ्रष्टाचार ।’ अपनी ही सरकार के भ्रष्ट लोगों के खिलाफ नीतीश कुमार की जारी जंग को देख कर सन् 1969 की इंदिरा गांधी और 1990 के लालू यादव की जंगों की याद आती है। इन नेताओं ने भी तब अलग- अलग तरह से जंग की थी। यह और बात है कि दोनों नेताओं को अपनी जंग में आंशिक सफलता ही मिली थी। अब देखना है कि नीतीश कुमार को अपनी मौजूदा जंग में पूरी सफलता मिलती या नहीं ! पर मौजूदा जंग की पूर्ण सफलता के लिए यह जरूरी है कि पुरानी जंगों की गलतियों से शिक्षा ली जाए। सन् 1990 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की जंग आरक्षण विरोधियों के खिलाफ थी। वीपी सिंह की सरकार ने केंद्रीय सेवाओं में पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की तो आतुर आरक्षण विरोधी सड़कों पर आ गए। आरक्षण एक संवैधानिक व्यवस्था है जिसका विरोध अदूरदर्शितापूर्ण कदम रहा है। इसी विरोध और प्रति-विरोध की जंग में लालू प्रसाद बिहार की राजनीति के महाबली हो गए थे।यह और बात है कि इस जंग से मिली राजनीतिक ताकत का उन्होंने सदुपयोग नहीं किया। पर एक बात जरूर हो गई कि योग्यता के बावजूद अब बिहार में किसी सवर्ण के मुख्य मंत्री बनने की फिलहाल कोई संभावना नहीं नजर आ रही है। यानी अपनी अदूरर्शिता के कारण सवर्णों के बीच के आरक्षण विरोधियों ने खुद सवर्ण नेताओं का ही नुकसान कर दिया। उन दिनों जब आरक्षण विरोधी और आरक्षणपक्षी लोग आपस में जहां तहां भिड़ रहे थे तो बिहार विधान सभा के प्रेस रूम में बैठकर यदा कदा मैं कहा करता था कि यदि ‘सवर्ण लोग गज नहीं फाड़ेंगे तो उन्हें एक दिन थान हारना पड़ेगा। ’कांग्रेस के पूर्व विधायक हरखू झा मेरी इस टिप्पणी के गवाह हैं। पर कई लोग इसे मेरा लालू समर्थन मानते थे। ठीक उसी तरह कई लोग आज नीतीश सरकार के विकास कार्यों को लेकर मेरी तरफ से कभी कभी हो रही तारीफ को एक व्यक्ति का नाहक गुणगान मानते हैं। आज के हालात की तुलना इंदिरा गांधी के कार्यकाल और लालू प्रसाद के कार्यकाल की से जा सकती है। तब आम लोगों को लगा था कि इंदिरा जी उनके भले के लिए निहितस्वार्थियों से लड़ रही हैं। सन् 1990 में पिछड़ों को लगा था कि लालू प्रसाद उनके लिए लड़ रहे हैं। याद रहे कि पिछड़ों की आबादी आरक्षण विरोधियों की अपेक्षा काफी अधिक है। इसी तरह गरीबों की आबादी इस देश में काफी अधिक है। परिणामस्वरूप 1971 के लोक सभा चुनाव में इंदिरा गांधी की जीत हुई और सन् 1991 के चुनाव में लालू प्रसाद की भारी विजय हुई। अब उसी तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ जब नीतीश कुमार मुख्य मंत्री की कुर्सी पर बैठ कर लड़ रहे हैं तो उन्हें भी इसका लाभ जन समर्थन के रूप में मिलेगा ही। क्योंकि देश -प्रदेश की बहुमत आबादी किसिम -किसिम के भ्रष्टाचारों से इन दिनों काफी पीडि़त है। सन् 1969 में कांग्रेस के महा विभाजन के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था। उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और पूर्व राजाओं को हासिल प्रीवी पर्स समाप्त कर दिए। गरीब लोगों को लगा कि इंदिरा गांधी सचमुच गरीबी हटाना चाहती हैं। इंदिरा गांधी ने उन दिनों बार बार यह बयान दिया कि ‘इंदिरा गांधी चाहती है गरीबी हटाना और प्रतिपक्ष चाहता है इंदिरा गांधी हटाना।’ इस नारे का काफी असर हुआ।हालांकि तब मैं एक लोहियावादी समाजवादी कार्यकर्ता था, फिर भी मैं भी इंदिरा गांधी के इस लुभावने नारे से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। तब मैं सुरेंद्र अकेला के नाम से प्रतिष्ठित साप्ताहिक ‘दिनमान’ तथा अन्य कई पत्र-पत्रिकाओं में चिट्ठयां तथा लेख लिखा करता था। दिनमान में छपा एक पत्र भी किसी लेख से कम असरदार नहीं होता था। तब मैंने इंदिरा जी के गरीबपक्षी कदमों की तारीफ में दिनमान में पत्र लिखा, जो छपा। उन्हीं दिनों मैं दिल्ली गया हुआ था। पत्रिका ‘जन’ और मेनकाइंड के दफ्तर में मुझे ओम प्रकाश दीपक, विनय कुमार तथा कुछ अन्य समाजवादी बुद्धिजीवी मिले। उन्होंने देखते ही मुझे झाड़ लगानी शुरू कर दी। ‘अकेला, तुम कैसे इंदिरा के झूठ के प्रभाव में आ गए ? यह सब जनता को धोखा देने का उनका एक तरीका मात्र है।’ उनकी वरीयता और विद्वता को देखते हुए मैं चुप रह गया। पर मैं तब उनकी बातों से तनिक भी प्रभावित नहीं हुआ था। पर बाद के वर्षों में मुझे लगा कि वे कितना सही थे और मैं कितना गलत। इंदिरा जी ने सन् 1971 में लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल कर लेने के बाद आम लोगों की गरीबी हटाने के बदले अपने पुत्र की अमीरी बढ़ाने के लिए सरकारी साधन झोंक दिए। यानी मारुति कार कारखाना खोलवा कर वे अपने परिवार को इंडिया का फोर्ड बनाने की कोशिश में लग गईं। इंदिरा जी के शासनकाल में भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप जरूर मिल गया। इसका प्रमाण बाद में खुद उनके पुत्र राजीव गांधी ने दिया। सन् 1984 में प्रधान मंत्री बनने के बाद राजीव गांधी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि दिल्ली से एक रुपया चलता है, पर जनता तक उसमें से मात्र 15 पैसे ही पहुंच पाते हैं। बाकी पैसे बिचैलिए खा जाते हैं। ऐसी व्यवस्था किसने तैयार की ? समय के साथ देश व प्रदेश में भ्रष्टाचार बढ़ता गया। उसी के खिलाफ नीतीश कुमार इन दिनों जंग कर रहे हैं। पता नहीं, इस जंग में वे सफल होंगे या नहीं। पर, यदि सफल होते हैं, तो उससे उन्हें इंदिरा गांधी और लालू प्रसाद की तरह ही राजनीतिक ताकत मिलेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि यदि ताकत मिली, तो नीतीश कुुमार उस ताकत को इंदिरा गंाधी और लालू प्रसाद की तरह जाया नहीं करेंगे।
(6 फरवरी, 2009)

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

नेता, अभिनेता, बाबा और बाहुबली

जनता दल यू के अध्यक्ष शरद यादव ने बाबाओं, अभिनेताओं और व्यापारियों के राजनीति व संसद में बढ़ते दखल का सार्वजनिक रूप से विरोध किया है। इसके लिए उन्होंने अपने सहयोगी दल भाजपा को दोषी ठहरा दिया है। ऐसा करके उन्होंने एक नई बहस छेड़ दी है। बहस अपनी जगह पर सही है। पर इस बहस को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाया भी जाना चाहिए। शरद यादव के अनुसार नाचने-गाने वाले लोगों का भूख, गरीबी, सड़क, बिजली ,पेय जल जैसी समस्याओं के निदान से कोई मतलब नहीं है।दरअसल शरद यादव की बात में आधी सच्चाई है। क्योंकि वे भी यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि पूर्णकालिक राजनीति करने वालों में से अधिकतर लोगों को भी आम जन की भूख और गरीबी से कुछ लेना देना अब नहीं रह गया है। अन्यथा, आज इस देश में 20 रुपए रोज की औसत आय वाले गरीबों की संख्या 84 करोड़ तक नहीं पहुंच गई होती। दूसरी ओर फिल्मी क्षेत्र में भी सुनील दत्त जैसे व्यक्ति थे जो देश के बारे में सोचते थे। पर सामाजिक न्याय, समाजवाद, गांधीवाद, धर्मनिरपेक्षता तथा प्रखर राष्ट्रवाद के नाम पर चुनाव जीतने वाले लोक सभा सदस्यों की संख्या बढ़कर इन दिनों करीब सवा सौ तक पहुंच चुकी है जिनके खिलाफ घोटाले, हत्या, भ्रष्टाचार, अपहरण, बलात्कार, देशद्रोह तथा इस तरह के अनेक आरोपों के तहत मुकदमे चल रहे हैं। इनमें से कई सांसदों को तो निचली अदालतें सजा भी दे चुकी हैं। इन सवा सौ सांसदों में कितने बाबा, फिल्मी हस्ती या फिर उद्योगपति हैं ? इन सांसदों को गरीबों की भूख की कितनी चिंता रही है ? दरअसल जब पूरे कुएं में ही भांग पड़ गई है, तो क्या राजनीति और क्या फिल्मी क्षेत्र। बाबाओं और व्यापारियों को भी इस घनघोर कलियुग ने ग्रस ही लिया है। हर क्षेत्र में अच्छे और बुरे लोगों का अनुपात लगभग एक ही है। बल्कि देश के कुछ खास बड़े नेताओं की मदद से राजनीति में अपेक्षाकृत कुछ अधिक ही बुरे लोग प्रवेश कर गए हैं। अब यह नेताओं पर निर्भर करता है कि वे किन -किन क्षेत्रों से अच्छे लोगों का चयन करके राजनीति में आगे बढ़ाते हैं, ताकि वे गरीबों की भूख के बारे में भी सोचें।


गलती न दुहराने का वादा

एलके आडवाणी को ‘प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग’ का दर्जा दे दिया गया है। पता नहीं वे वेटिंग रूम से निकल कर सत्ता की राजधानी एक्सप्रेस गाड़ी पर सवार हो पाएंगे या नहीं। पर इससे पहले एक काम तो उन्हें कर ही देना चाहिए। बल्कि यह काम एनडीए के अन्य नेतागण भी करें तो वे फायदे में रहेंगे। वे मतदाताओं से एक वायदा करें। उन्हें चाहिए कि अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल में पूरी सरकार और उनके कई मंत्रियों ने जो- जो गलतियां की थीं, उन्हें वे फिर से सत्ता मिलने पर कतई नहीं दुहराएंगे। वे गलतियां क्या थीं ? एक गलती यह थी कि हवाला घोटाले के अनुसंधान का काम सीबीआई को तब ठीक से नहींं करने दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इसको लेकर सीबीआई को फटकारा भी था। वाजपेयी मंत्रिमंडल के चार सदस्य हवाला कांड के आरोपी थे। यदि एनडीए की फिर से केंद्र में सरकार बनती है और दुबारा ऐसा कोई घोटाला होता है, तो उन आरोपित मत्रियों के खिलाफ इस बार सीबीआई ईमानदारी से अनुसंधान करेगी, ऐसा वादा आडवाणी जी जनता से करें।तब तत्कालीन मुख्य सतर्कता आयुक्त एन ट्ठिल ने वाजपेयी मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों की संपत्ति की जांच के लिए जांच एजेंसी को लिखा था। इससे बौखला कर केंद्र सरकार ने सतर्कता आयोग के सदस्यों की संख्या एक से बढ़ा कर तीन कर दी थी, ताकि बिट्ठल के इकलौते चंगुल से उन मंत्रियों को साफ बचा लिया जाए। वे बच भी गए। इस तरह की कुछ और गलतियां वाजपेयी सरकार ने की थी। गलतियां करना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। पर उन्हें जान बूझ कर दुहराना महापाप है। यह पाप उस पाप से बड़ा है जो संसद में बाबाओं, फिल्मी अभिनेताओं और उद्योगपतियों को प्रवेश दिला कर किया जा रहा है। हालांकि वाजपेयी सरकार ने कई अच्छे काम भी किए थे। वे अच्छे काम बाबाओं और फिल्मी हस्तियों ने ही सरकार से करवाए, यह खबर नहीं मिली। साथ ही यह भी खबर नहीं मिली कि जो बुरे काम अटल सरकार ने किए, वे बाबाओं, फिल्मी हस्तियों के दबाव में ही किए गए।


और अंत में

जो नेता सत्ता की गद्दी छोड़ने के लिए हर दम तैयार रहता है, बार-बार गद्दी लौटकर उसके पास वापस आ जाती है।

प्रभात खबर (दो फरवरी, 2009)

बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

पड़ोसी -निरपेक्ष शहरी जीवन

आज सुबह सोकर उठा, तो देखा कि मेरा फोन कई दिनों के बाद एक बार फिर ‘डेड’ हो गया। आशंका थी कि संभवतः गत रात में भी किसी उदंड ट्रक ड्रायवर ने फोन के तार की परवाह किए बिना गाड़ी दौरा दी होगी। घर से बाहर निकला, तो दूर से ही यह लग गया कि तार फिर टूटा हुआ है। पर पोल के निकट जाने पर लग गया कि यह तो किसी तार कटवा की कारस्तानी है। कटे हुए फोन तार का बचा हुआ, हिस्सा साफ इसकी गवाही दे रहा था। इतना ही नहीं, तार का जो हिस्सा घर से भीतर बच गया है, उसके आस-पास के सामान की हालत दयनीय हो गई। बाहर तो तार काटा गया, पर भीतर से झटके से उसे खींच लिया गया, जिससे ट्यूब लाइट क्षतिग्रस्त हो गई। यानी आशियाना नगर फेज वन सरीखे शांत और शालीन मुहल्ले में भी चोर निर्भीक हो गए हैं। बड़े अपराधी जरूर इन दिनों अपेक्षाकृत शंात हैं । पर, छोटों पर लगाम कस जाना अभी बाकी है। पटना का यह एक ऐसा मुहल्ला है, जहां महिलाएं रात में भी भोजन के बाद सड़क पर टहल सकती हैं। यहां किसी भी मकान के साथ एक दूकान खोल देने की छूट नहीं है। सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इस मुहल्ले के सभी गेट एक साथ नहीं खुले रहते हंै। सफाई -व्यवस्था ठीक -ठाक है। जलापूर्ति को लेकर भी कोई शिकायत नहीं है, पर किसी अन्य शहरी इलाके की तरह यहां भी यह जरूरी नहीं है कि एक पड़ोसी अपने बगल के किसी मकान में रहनेवाले के बारे में जाने। किराए के मेरे आवास के पड़ोस के मकान मालिक साल में एक -दो बार ही कुछ दिनों के लिए ही यहां आते हैं। बाकी महीने वह घर खाली यानी बंद रहता है। उस मकान में यदा -कदा चोर ऐसे ही चोरी की कोशिश करते पाए जाते हैं, जिस तरह किसी बंद पड़े मकान में चूहे या तेलचट्टे उछल कूद करते रहते हंै। उस मकान मालिक ने किसी स्थानीय व्यक्ति को अपना फोन नंबर तक नहीं दिया है, ताकि किसी दुर्घटना की स्थिति में उन्हें सूचना दी जा सके। मेरे घर के भीतर आया फोन का तार उसी बंद पड़े मकान के अहाते से होकर गुजरता है। शायद चोर को लगा होगा कि वह उसी खाली मकान में लगे फोन का तार काट रहा है। उसे किसी तरह के प्रतिरोध का भय नहीं रहा होगा। हालांकि मेरा यह अनुमान गलत भी हो सकता है। तार कटने का कोई और कारण भी हो सकता है। हालांकि इस घटना ने मुझे चैंकन्ना कर दिया है। अब हमें कुछ अधिक ही सावधान रहना पड़ेगा। क्यांेकि बीट पुलिसिंग की कोई झलक मेरे घर तक अभी नहीं पहुंची है। अपनी रक्षा खुद ही करनी है। इसके साथ ही फोन महकमे के बारे में भी दो शब्द। इस बार तो मेरे फोन का तार ट्रक से नहीं टूटा है, पर इससे पहले कई बार ट्रकों या बड़े वाहनों का कोप मैं झेल चुका हूं। वाहन के टकराने से फोन का तार टूटने का एक मात्र कारण है कि मेरे घर के सामने फोन का पोल जरूरत के अनुसार पर्याप्त ऊंचा नहीं है। मैं तो इस मुहल्ले के लिए नया हूं, पर देखने से लगता है कि फोन के पोल जब लगे होंगे, तो सड़क की ऊंचाई कम रही होगी। अब ऊंचाई बढ़ गई है और पोल छोटा पड़ चुका है। इसलिए छोटे वाहनों से तो तारों को कोई कष्ट नहीं होता, पर कभी -कभी बड़े वाहन आते हैं तो फोन को डेड कर जाते हंै। एक पत्रकार के लिए फोन कितना जरूरी है, यह बात कोई पत्रकार ही समझ सकता है। फोन महकमे वालों के लिए इस महत्व का कोई मतलब नहीं है। एक समय था कि जबकि पत्रकारों सहित कुछ महत्वपूर्ण नागरिक सेवाओं से जुड़े लोगों के फोनों की समय -समय पर टेस्टिंग होती रहती थी, ताकि यह देख लिया जाए कि फोन किसी कारणवश बंद तो नहीं है। ऐसे फोनों की एक सूची फोन महकमा अपने पास रखता था। इस टेस्टिंग के लिए किसी तरह की शिकायत करने की जरूरत नहीं पड़ती थी।पर जिस तरह अन्य क्षेत्रों में भ्रष्टाचार, गिरावट और काहिली ने घर कर लिया है, उससे फोन महकमा अछूता कैसे रह सकता है ? अब शिकायत कीजिए और कई दिनों तक इंतजार कीजिए। इसके अलावा कोई चारा ही नहीं है। बड़े अफसरों को कहने का भी अब आम तौर पर कोई फायदा नहीं होता। अब तो मैंने कुछ कहना भी छोड़ दिया है। एक कटु अनुभव के बाद मुझे फोन महकमे से काफी निराशा हुई। जब मैं मजिस्ट्रेट कालोनी में रहता था, तो मेरे पास दो फोन थे। एक का नंबर 2586562 है, जो अब भी मेरे पास है। और दूसरे का नंबर था- 2586732 । दूसरा नंबर सन् 1996 में मैंेने अपने एक रिश्तेदार को दे दिया। उसके नाम फोन ट्रांसफर भी हो गया। उस व्यक्ति ने अलग से जमानत राशि भी जमा कराई जैसा कि नियम है। अब मेरे द्वारा जमा कराई गई जमानत राशि वापस होनी चाहिए थी। पर, करीब तेरह साल होने को है। अब भी मैं उस जमानत राशि का इंतजार कर रहा हूं। प्रारंभ के कुछ वर्षों तक तो मैंेने काफी दौड़- धूप की, पर बाद में हार कर छोड़ दिया। हालांकि इससे पहले संबंधित दफ्तर में फोटोग्राफर नरेंद्र देव के साथ जाकर वहां सुनील कुमार सिन्हा नामक एक अफसर को संबंधित सारे कागजात मैंने सौंप दिए थे और यह भी लिख कर दे दिया था कि फोन सेट की कीमत मेरी जमानत राशि में से काट ली जाए। याद रहे कि जिस रिश्तेदार को मैंने फोन ट्रांसफर किया था, उसे फोन महकमे ने कोई फोन सेट नहीं ही दिया। ऐसे कटु अनुभव के बावजूद मैं यह उम्मीद करता हूं कि फोन महकमे से अब और अधिक लोगों की नाराजगी नहीं बढ़े। क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र का भी जीवित रहना जरूरी है।
(तीन फरवरी, 2009)

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

सराहनीय श्रवण कुमार पुरस्कार

इससे बेहतर कोई खबर नहीं हो सकती थी जो अभी -अभी मिली है। महावीर मंदिर न्यास समिति ने श्रवण कुमार पुरस्कार के लिए समिति की घोषणा कर दी। शारीरिक रूप से अक्षम माता-पिता की निःस्वार्थ सेवा के लिए श्रवण कुमार पुरस्कार कायम किया गया है। इसके लिए अनुशंसा भेजने की आखिरी तारीख 31 मार्च, 2009 तय कर दी गई है। पटना स्थित महावीर मंदिर की न्यास समिति और किशोर कुणाल इसके लिए बधाई के पात्र हैं। कु-पुतों और कु-पतोहुओं की बढ़ती संख्या के बीच उपेक्षित माता-पिता के लिए बड़ी राहत भरी खबर है। शायद इन पुरस्कारों के जरिए उनकी उपेक्षा कुछ कम हो सके। मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति एसएन झा ने पुरस्कार समिति की अध्यक्षता स्वीकारी है। इससे इस समिति की विश्वसनीयता भी बढ़ी है। साथ ही पुरस्कार की राशि भी आकर्षक है। यानी प्रथम पुरस्कार एक लाख रुपए का है। दूसरा पुरस्कार 50 हजार रुपए का। तीसरा पुरस्कार 25 हजार रुपए का है। इसके अलावा 25 लोगों के लिए सांत्वना पुरस्कार एक -एक हजार रुपए का है। शिशु कन्या भ्रूण हत्या और दहेज प्रताड़ना की तरह ही उपेक्षित माता-पिता की समस्या भी इस देश और प्रदेश में चिंताजनक होती जा रही है। सरकार की तरफ से समुचित सामाजिक सुरक्षा के अभाव में यह समस्या और भी विकराल होने वाली है। ऐसे में अपने ढंग से महावीर मंदिर न्यास ने सकारात्मक पहल की है। अभी तो इसकी शुरुआत हो रही है, पर यदि साधन-सुविधा में बढ़ोतरी हो तो बाद के वर्षों में ऐसे अनेक पुरस्कारों की व्यवस्था जिला स्तर पर भी की जानी चाहिए। पर सवाल यह भी है कि एक किशोर कुणाल कहां -कहां क्या -क्या करेंगे ! एक व्यक्ति की अपनी सीमा भी है। बुजुर्गों की उपेक्षा संयुक्त परिवार के टूटते जाने से और भी बढ़ी है। स्व-केंद्रित युवा वर्ग अभी यह महसूस ही नहीं कर रहा है कि उसके घर में भी एक दिन ‘बागवान’ फिल्म की कहानी दुहराने की नौबत आ सकती है। मैं हर सुनने वाले को कहता हूं कि तुम अपने पिता-माता को बीच- बीच में गांव से बुला कर अपने पास रखो और उनकी सेवा करो, ताकि तुम्हारे बढ़ते हुए बच्चे भी देख कर यह सीख सकें। इससे होगा यह कि तुम्हारे बच्चे जब बड़े हो जाएंगे, तो वे भी तुम्हारा ध्यान रखेंगे। जिन कुछ देशों में भारत की तरह बड़ी संख्या में अरबपति पैदा नहीं होते, वहां भी बेरोजगारी और वृद्धावस्था पेंशन की राशि इतनी अधिक होती है, जिससे उनका जीवन चल जाता है। पर हमारे यहां जहां जनता के पैसे ही लूट कर कुछ लाख लोगों को तो अत्यंत अमीर बनने की छूट सरकार ने दे रखी है, पर मुझे हर माह सिर्फ 1046 रुपए पेंशन देती है। यदि मैं पत्नी और संतान के मामले में सौभाग्यशाली नहीं होता, तो क्या होता ? यदि रिटायर होने के बाद भी मुझमें काम करते रहने की शारीरिक क्षमता नहीं होती तो क्या होता ? यदि देश के संपादकों की मेरे प्रति सदाशयता नहीं होती, तो क्या होता ? पर, अमीर लोगों से भरे पड़े इस गरीब देश में मेरे जैसे कितने सौभाग्यशाली बुजुर्ग हैं ? मैंने अपनी पेंशन राशि सिर्फ उदाहरण के रूप में यहां पेश की। इसका कोई और उद्देश्य कतई नहीं है। यदि मेरी पेंशन राशि कम है, तो इसकी खुद मुझे कोई परवाह नहीं है। पर इससे इस देश की पेंशन व्यवस्था का पता तो चल ही जाता है। मेरी 1046 रुपए की पेंशन के बारे में भी कुछ शब्द और। यह पेंशन राशि भविष्य निधि के साथ जुड़ी हुई है। सरकार ने ठीक ही कल्पना की थी कि रिटायर करने के बाद भविष्य निधि की एकमुश्त राशि से तो आम तौर पर मकान निर्माण, लड़की की शादी तथा दूसरी जिम्मेदारियां पूरी होती हैं। यदि किसी रिटायरकर्मी का पुत्र दबंग और निकम्मा हुआ, तो वह उस एकमुश्त राशि को किसी-न-किसी बहाने झपट लेता है। फिर जीवन भर नौकरी निभा कर घर लौटा बुजुर्ग कैसे खाएगा ? इसी समस्या को ध्यान में रखकर शुरू की गई यह पेंशन योजना। पर इसकी अत्यल्प राशि तो देखिए। अन्य पेंशन राशि के विपरीत इस राशि में सालाना बढ़ोतरी भी नहीं होती। खैर यह तो एक अलग विषय है। इस पर सोचने की फुर्सत हमारे हुक्मरानों को नहीं है, जो आए दिन अपने वेतन, सुविधा और पेंशन बेशर्मी से बढ़ाते रहते हैं। जबकि उनमें से अधिकतर हुक्मरानों ने इन लाखों अत्यल्प पेंशनधारी बुजुर्गों की तरह जीवन भर लोक सेवा नहीं की है। जो हो, ऐसे लाखों लोग रिटयर होने के बाद इसी तरह की अत्यल्प राशि हर माह उठाते हैं। इनमें कुछ लोगों को तो मुझसे भी कम राशि मिलती है। ऐसे लोग अपनी संतान पर बुरी तरह निर्भर हंै, पर अधिकतर संतानों के लिए वे बोझ ही हैं। जिन बुजुर्ग लोगों के जीवन में किसी तरह की कोई पेंशन राशि नहीं है और यदि वे अपनी संतान की ओर से उपेक्षित हैं, तो कैसे उनका जीवन कटता होगा, इसकी कल्पना किशोर कुणाल ने की है। इसीलिए श्रवण कुमार पुरस्कार सामने आया है। शायद इन पुरस्कारों से उनमें से कुछ के जीवन में कुछ फर्क आए !
(दो फरवरी 2009)

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

नेता नहीं तो बाबा सही

कभी जेपी तो कभी वीपी और अब बाबा राम देव ! भ्रष्टाचार के खिलाफ इनके धारावाहिक अभियानों को यह देश देख रहा है। जेपी और वीपी के अभियान व संघर्ष तो बाद में कुछ भ्रष्ट व निकम्मे नेताओं के चलते एक तरह से निष्फल कर दिए गए। पर, अब बाबा राम देव के अभियान का क्या होगा ? इस प्रस्तावित अभियान के अच्छे नतीजों का देश को इंतजार रहेगा। जय प्रकाश नारायण ने सत्तर के दशक में भ्रष्टाचार तथा कुछ अन्य समस्याओं के खिलाफ अभियान शुरू किया था। अस्सी के दशक में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफर्स तथा अन्य कई घोटालों को लेकर देश में ऐसा समां बांधा था कि सन् 1989 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हार गई। सन् 1990 में देश की कई विधान सभाओं के चुनावों में भी कांग्रेस सरकारें बुरी तरह हार गईं। पर तब जिस तरह की जनता दल सरकारें बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में बनीं, उसने अपने काम काज से कांग्रेसियों को भी लजा दिया। भ्रष्टाचार बेतहासा बढ़ा। 1974 के जेपी आंदोलन के बाद केंद्र और राज्यों में जो सरकारें बनीं थीं,वे भी जेपी की कसौटी पर खरी नहीं उतर सकीं, किंतु 1990 के बाद राज्यों में बनी सरकारों से फिर भी वे बेहतर थीं।जेपी आंदोलन से उपजी केंद्र की सरकार के मुखिया मोरारजी देसाई थे।बिहार में सन् 1977 में मुख्य मंत्री बने थे कर्पूरी ठाकुर और उत्तर प्रदेश में राम नरेश यादव।तीनों नेता व्यक्तिगत रूप से ईमानदार थे। इसीलिए शासन-प्रशासन में वैसी गिरावट नहीं आई जैसी बाद के वर्षों में आई। अब तो भ्रष्टाचार इतना बढ़ गया है कि नेताओं के बीच से भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर आवाज उठाने वाला कोई नेता भी उपलब्ध नहीं है। भ्रष्टाचार से जर्जर राजनीति में अब वह नैतिक ताकत ही नहीं बची है।राज्य स्तर पर बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने जरूर भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान शुरू किया है,पर उस अभियान का भी बाहर-भीतर से इतना परोक्ष और प्रत्यक्ष विरोध हो रहा है कि मुख्य मंत्री अपने ही संघर्ष में हांफते नजर आ रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में स्वामी राम देव ने देश की राजनीति और शासन में कैंसर की तरह फैल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन के लिए कमर कस ली है।जेपी और वी।पी.की ताकत भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने से बढ़ी थी।जेपी हालांकि आजादी की लड़ाई के अप्रतिम योद्धा थे,पर सर्वोदय मेंे चले जाने के बाद उनकी सभाओं में कुछ सौ या हजार लोग ही आम तौर पर जुट पाते थे।पर जब उन्होंने 1974 में बिहार आंदोलन का नेतृत्व संभाला तो उन्हें सुनने के लिए लाखों लोग जुटने लगे थे। वीपी सिंह ने राजीव सरकार से संघर्ष का खतरा उठाया और भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान छेड़ दिया।लोगों ने उन पर विश्वास किया। क्योंकि वे भी व्यक्तिगत रूप से ईमानदार थे।पर अपने निधन के कुछ साल पहले वीपी सिंह ने यह कह कर देश को चैंका दिया कि उन्होंने बोफर्स को लेकर राजीव गांधी पर कोई आरोप ही नहीं लगाया था। उनका यह कहना सच नहीं था। सही बात यह है कि वी.पी.सिंह ने अपना पूरा बोफर्स अभियान राजीव गांधी के खिलाफ ही चलाया था। वीपी के पलटने से भी राज नेताओं की विश्वसनीय घटी। वैसे भी राजनीति में ं कितने लोग अब भी माजूद हैं जिनकी कुछ ताकत बची है और फिर भी वे भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाना चाहते हैं ? ऐसा नहीं हैं। संभवतः इसीलिए स्वामी राम देव को सामने आना पड़ रहा है। शारीरिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में स्वामी राम देव ने देश को जितना दिया है, उतना कम ही लोगों ने दिया है। जनता के एक बड़े हिस्से में उनकी काफी साख है। इसलिए उनको यह पूरा अधिकार है कि जनता की अन्य ज्वलंत समस्याओं पर अपनी राय रखें और उसके निराकरण के लिए अभियान चलाएं।गंगा की सफाई को लेकर उन्होंने जो अभियान चलाया,उसी का नतीजा है कि केंद्र सरकार ने गंगा बेसिन प्राधिकार बनाया। अब भ्रष्टाचार के खिलाफ जब भी वे अभियान शुरू करेंगे ,लोग उसे गंभीरता से लेंगे। शायद उसके कुछ अच्छे नतीजे भी सामने आएं।पर भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाना जितना जरूरी है, उसी अनुपात में उस अभियान में सफल होना उतना ही कठिन है। क्योंकि देश के हर क्षेत्र के प्रभावशाली लोगों में से अधिकतर लोग इस देश को अपनी पूरी ताकत से लूटने में लगे हुए हैं। जेपी और वीपी के विपरीत रामदेव ने अपने अन्य उपायों से संचित जन समर्थन की ताकत के बल पर अभियान शुरू करने का निर्णय किया है। वे यह भी कहते हैं कि उनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी नहीं है। भ्रष्टाचार के खिलाफ सक्रिय बाबा राम देव की यह समझ सही है कि देश की 99 प्रतिशत जनता ईमानदार है और 99 प्रतिशत नेता बेईमान हैं। याद रहे कि अनेक नेता यह तर्क देते हैं कि जब जनता ही चोर है तो नेताओं को भी वैसा बनने की मजबूरी है। बाबा ऐसा नहीं मानते। राम देव यह भी नहीं मानते कि देश की सिर्फ 5 प्रतिशत जनता ही टैक्स देती है। ऐसा प्रचार वहीं लोग करते हैं जो इस बात की अघोषित छूट चाहते हैं कि कुछ ही लोगांे ंको इस देश के संसाधनों के इस्तेमाल का हक हे। बल्कि सही बात यह है कि जो गरीब व्यक्ति नमक भी खरीदता है,वह भी टैक्स देता है और सरकार के संसाधनों पर उसका भी हक है। कुछ नेता यह कहते हैं कि भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता।रामदेव ऐसा नहीं मानते। इसी तरह की कुछ और बातें राम देव कहते हैं। यानी,देश की बीमारी की सही पहचान रामदेव ने कर ली है। जिस ईमानदार व योग्य डाक्टर ने मर्ज की सही पहचान कर ली,उसने बीमारी दूर भी कर दी। देखना है कि राम देव क्या कर पाते हैं। दुःखद बात यह है कि इस देश में जेपी कौन कहे, वीपी जैसे नेता भी अब उपलब्ध नहीं है। यह इस देश की राजनीति पर टिप्पणी है। इसीलिए राम देव को आगे आना पड़ रहा है। जबकि आज जेपी और वीपी के समय की अपेक्षा देश को अधिक गंभीर समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। (एक फरवरी, 2009)
sukishore_patna@yahoo.co.in

रविवार, 1 फ़रवरी 2009

गुप्त विदेशी खाते अब गुप्त नहीं

स्विट्जरलैंड के पास एक छोटा सा देश है। उसका नाम है लाइख टेंस्टाइन। उसके राज कुमार के बैंक का नाम है एलजीटी बैंक। उस बैंक में भारत सहित दुनिया भर के अमीरों के अपार काले पैसे रखे गए हैं। यहां खातेदार का नाम नहीं बताया जाता। हाल में स्विस बैंकों ने अपने यहां पैसे रखने वाले लोगों के नाम-पते की गोपनीयता बनाए रखने की परंपरा समाप्त कर दी। इस कारण काले धन के मालिकों ने लाइखटेंस्टाइन की ओर रुख किया। एलजीटी बैंक के एक कम्प्यूटर कर्मचारी हैनरिक कीबर ने सारे गुप्त खातों के नाम-पता वाला सीडी तैयार कर अपने पास रख लिया। बैंक के प्रबंधन ने भले इस अवैध काम के लिए कीबर को नौकरी से निकाल दिया, पर उसने वह पूरी सीडी जर्मनी की खुफिया सेवा को 40 लाख पाउंड में बेच दी। ब्रिटेन को सिर्फ अपने देश के काला धन वालों की सूची चाहिए थी। इसलिए उसे कम पैसे लगे। उसने मात्र एक लाख पाउंड में उन लोगों के नाम ले लिए। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, बेल्जियम और कई दूसरे देश उस सीडी में उपलब्ध जानकारियां कीबर से ले गए। ब्रिटिश सरकार के एक अधिकारी ने कहा कि यह लाभ का सौदा है। क्योंकि अपने देश के काला धन वालों से हम इस सूचना के जरिए टैक्स के रूप में काफी पैसे वसूल लेंगे।

पर, भारतीय ‘धन-पशु’ चिंतामुक्त
भारत के भी अनेक अमीर लोगों की भारी धन राशि उस बैंक में जमा है। जाहिर है कि वे काली कमाई की राशि है। गत साल यह खबर आई भी थी कि भारत के अमीर लोगों ने विदेशों में 30 से 40 बिलियन डालर गैर कानूनी तरीके से जमा कर रखा है। इस देश के टैक्स चोर हर साल नौ लाख करोड़ रुपए की टैक्स चोरी करते हैं। इस पृष्ठभूमि में इसी साल के प्रारंभ में यह खबर आई कि लाइखटेंस्टाइन में अमीर भारतीयों के गुप्त खातों के बारे में जानकारी देने संबंधी जर्मन सरकार की पेशकश पर भारत सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की है। इस संबंध में लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने तब प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह को पत्र लिखा था। पी चिदम्बरम् ने 16 मई, 2008 को उस पत्र का जवाब दे दिया। चिदम्बरम् ने स्वीकार किया कि जर्मनी सरकार ने ऐसी पेशकश की थी। चिदम्बरम् के अनुसार भारत सरकार ने फरवरी में ही उससे खातों का विवरण मांगा था। पर, जर्मन सरकार के कर कार्यालय ने जवाब दिया कि वह तत्काल ऐसा करने की स्थिति में नहीं है। सवाल है कि भारत सरकार कीबर से ही सूचनाएं खरीदने की कोशिश क्यों नहीं करती ? जो तरीका ब्रिटेन और जर्मनी की सरकारों ने अपनाया, वही तरीका भारत सरकार क्यों नहीं अपना सकती ? क्या भारत सरकार ने अपने किसी दूत केे जरिए जर्मन सरकार के प्रतिनिधि से मिलकर सूचनाएं खरीदने की कोशिश की ? या फिर आलोचनाओं से बचने के लिए सिर्फ पत्र-व्यवहार करके औपचारिकता पूरी कर ली ? क्या ऐसे मामले सिर्फ पत्र-व्यवहार से सुलझते हैं ? अगले लोकसभा चुनाव में प्रतिपक्ष यह सवाल खड़ा कर सकता है कि लाइख के खातों को छिपाने में केंद्र सरकार का कैसा निहितस्वार्थ है ?

कैसा है प्रतिपक्ष का दामन
पर क्या ऐसे सवालों पर बोलने का नैतिक अधिकार भाजपा को कितना है ? सन् 2002 में केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार थी। तब यह एक बड़ा खुलासा हुआ था कि इस देश के व्यापारी व उद्योगपति सरकारी बैंकों के 11 खरब रुपए दबा कर बैठ गए हैं। उन्होंने कर्ज के रूप में लिया था। पर रिजर्व बैंक उन डिफाॅल्टरों के नाम तक सार्वजनिक करने को तैयार नहीं है। इस 11 खरब की ‘लूट’ पर मनमोहन सिंह और पी चिदम्बरम् के तब के बयानों की शब्दावली उससे भी कड़ी थी जैसा ‘उद्गार’ अपने पत्र में श्री आडवाणी ने लाइख टंेस्टाइन बैंक के गुप्त खातों के बारे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखे पत्र में व्यक्त किया था। इस बीच यह खबर आई है कि सिर्फ बीस रुपए रोज पर जीवन गुजारने वाले भारतीयों की संख्या 80 करोड़ से बढ़ कर 84 करोड़ हो गई है। काला धन स्वदेश वापस आता तो वह इन गरीबों के तो काम आता, पर गरीबांे की चिंता आज कितने नेताओं को है ?

और अंत में
अपनी गलतियां सार्वजनिक रूप से कबूलना सचमुच अच्छी बात है। पर, कबूली गई उन्हीं गलतियों को जानबूझ कर बार-बार दुहराना गलत बात है।

प्रभात खबर (24नवंबर, 2008)

बिहार की सतत बदहाली के पीछे सरकारी भ्रष्टाचार

कोई पूछे कि आजादी के बाद बिहार की बदहाली का सबसे बड़ा कोई एक कारण कौन सा रहा है तो इसका सही जवाब यही होगा कि सरकारी भ्रष्टाचार ही इसका सबसे बड़ा कारण रहा है। राजनीति व शासन में भ्रष्टाचार को जारी रखने के लिए ही जातिवाद व अपराध का सहारा लिया जाता रहा है। यह मर्ज अपनी जड़ें इतनी गहरी जमा चुका है कि आज भी मुख्य मंत्री नीतीश कुमार के सामने वही सबसे बड़ी समस्या के रूप में सामने खडा है । इससे निपटने में एक कत्र्तव्यनिष्ठ मुख्य मंत्री के भी पसीने छूट रहे हैं। आजादी के पहले भी महात्मा गांधी को भी बिहार की धरती पर यहां के कुछ भ्रष्ट कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ कुछ कड़ी बातें कहनी पड़ी थीं। याद रहे कि सन् 1937 में अन्य राज्यों की तरह यहां भी कांग्रेसी सरकार बनी थी। भ्रष्टाचार के इतिहास पर जरा गौर करें।आजादी से पहले ही 1946 में बिहार में भी कांग्रेस की अंतरिम सरकार बन गई थी।उस सरकार के राजस्व मंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने 3 सितंबर 1946 को यह आदेश दिया कि बेतिया राज की जमीन सिर्फ उस गांव और अगल-बगल के गांवों के गरीब लोगों व किसानों के हाथों ही बंदोबस्त की जानी चाहिए जहां वह जमीन अवस्थित है,किसी दूसरे के हाथों नहीं।’पर, कुछ ही हफ्तों के बाद उसी बिहार सरकार ने राज्य के कई प्रभावशाली कांग्रेसी नेताओं के सगे-संबंधियों तथा कुछ अन्य महत्वपूर्ण हस्तियों के हाथों उन हजारों एकड़ जमीन को बंदोबस्त कर दिया। इस खुले भ्रष्टाचार पर पटना से दिल्ली तक भारी हंगामा हुआ।मामला तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल के पास पहुंचा। पटेल के निदेश पर राज्य सरकार को उस जमीन की वापसी के लिए बिहार विधान सभा में विधेयक लाना पड़ा। पर, जमीन की वापसी के लिए राज्य सरकार द्वारा आधे मन से लाए गए उस विधेयक पर हुई चर्चा के दौरान प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी सरदार हरिहर सिंह ने जो भाषण दिया,वह आगे राज्य सरकार के लिए एक तरह से अघोषित ‘दिशा निदेशक’ रहा।सरदार साहब की छवि एक ईमानदार नेता की रही है।बाद में वे बिहार के मुख्य मंत्री भी बने थे।पर उस विधेयक पर बहस के दौरान 25 मई 1950 को बिहार विधान सभा में सरदार साहब ने कहा कि ‘सन् 1857 में गदर में जिन लोगों ने सरकार की मदद की उन्हें काफी जमीन,जागीर और पेंशन वगैरह मिले।हमलोगों ने भी आजादी की लड़ाई में खून पसीना एक किया है,इसलिए हम लोगों को भी हक है कि हमलोग भी अपनी जीविका के लिए बंदोबस्ती लें।इसमें कोई गुनाह नहीं है।’यानी एक ईमानदार नेता का जब यह रूख था तो जो नेता व अफसर ईमानदार नहीं थे,उन लोगों ने बिहार सरकार में रह कर बाद के वर्षों में क्या-क्या किया होगा, इसका अनुमान कठिन नहीं है। आजादी के कई वर्षों बाद तक कई कांग्रेसी नेताओं पर गांधी युग की सादगी व ईमानदारी का थोड़ा -बहुत असर रहा।पर, कांग्रेस के सत्ता में लगातार रहने के बाद धीरे- धीरे ऐसे कांग्रसी नेताओं की संख्या भी तेजी से बढ़ने लगी जिनकी यह राय बनी कि उन्हें राज्य की गरीब जनता के खुशहाल होने के पहले ही उन्हें खुद को सरकारी पैसों से अमीर बना लेना चाहिए।इस काम के लिए सरकारी -गैर सरकारी भ्रष्टाचारों का सहारा लिया जाने लगा। समय बीतने के साथ भ्रष्टाचार की मात्रा बढ़ती गई। हालांकि फिर भी सारे नेता भ्रष्ट ही नहीं थे। बाद के वर्षों में गैर कांग्रेसी सरकारों के सत्ताधारियों ने तो अपवादों को छोड़कर कांग्रेसियों की अपेक्षा कुछ अधिक ही भ्रष्टाचार किया।इस सरकारी भ्रष्टाचार का सीधा व प्रतिकूल असर राज्य के विकास पर पड़ा।विकास के पैसे जब लोगों की जेबों में चले जाएंगे तो राज्य का आम विकास होगा कैसे ? उदाहरण स्वरूप कुछ विकास योजनाओं की चर्चा की जा सकती है।आजादी के तत्काल बाद शुरू की गई कोसी और गंडक सिंचाई योजनाएं किसानों को भ्रष्टाचार के कारण वांछित लाभ नहीं दे सकीं। कोसी योजना के निर्माण कार्य में एक मशहूर कांग्रेसी परिवार लूट मचाता रहा तो गंडक योजना में दूसरा कांग्रेसी नेता।परिणामस्वरूप उत्तर बिहार की उपजाउ मिट्टी में सिंचाई की समुचित व्यवस्था नहीं हो सकी और कृषि उपज के मामले में बिहार अन्य कई राज्यों की अपेक्षा पीछे रहा।किसानों की आय नहंीं बढ़ी तो उनकी क्रय शक्ति भी नहीं बढ़ी।क्रय शक्ति नहीं बढ़ने के कारण छोटे- बड़े उद्योगों का भी विकास राज्य में नहीं हो सका।इस तरह राज्य पिछड़ता ही चला गया। एक प्रकरण दिलचस्प है। आजादी के तत्काल बाद प्रांतीय विधान सभा के लिए चुनाव हो रहा था।सारण जिले में एक कांग्रेस विरोधी उम्मीदवार ने कुछ लोगों के शरीर पर छोआ लगा कर उन्हें चुनाव प्रचार में उतार दिया।इस तरह वह तत्कालीन कांग्रेसी सरकार के छोआ घोटाले को उजागर कर रहा था।इस पर डा।राजेंद्र प्रसाद ने बड़े दुख के साथ 17 जनवरी 1949 को सरदार पटेल को चिट्ठी लिखी थी। याद रहे कि चीनी मिलों के गन्ने की गाद यानी छोआ से शराब बनाई जाती थी।राज्य सरकार ने छोआ की आपूत्र्ति नियंत्रित करने के लिए 1946 में बिहार मोलेसेज @संेट्रल@आर्डिनेंस जारी किया।तब डा.श्रीकृष्ण सिंहा के नेतृत्व में बिहार में अंतरिम सरकार बनी थी।नियम बना कि चीनी मिलें दस प्रतिशत छोआ खुद बेचेगी ओर 90 प्रतिशत छोआ की बिक्री के लिए राज्य सरकार का आबकारी महकमा परमिट जारी करेगा।आबकारी महकमे नें राज्य के बड़े बड़े कांग्रेसी नेताओं के रिश्तेदारों व उनके समर्थकों के नाम छोआ के परमिट जारी कर दिए और उन लोगों ने उसे कालाबाजार में बेच दिया।ये भ्रष्टाचार के कुछ प्रारंभिक लक्षण थे जो पालने में ही पूत के पांव की तरह नजर आने लगे थे।समय बीतने के साथ वे बढ़ते गए। जो सरकारी पैसे विकास व कल्याण में लगने चाहिए थे, उनमें से बड़ी राशि भ्रष्ट नेताओं ,अफसरों,दलालों व व्यापारियों की जेबों में जाने लगी। सन् 1967 में जब राज्य में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो उसने छह प्रमुख कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ, जो आजादी के बाद से लेकर 1966 तक सत्ता में रहे,न्यायिक जांच आयोग बैठाया।उन पर भ्रष्टाचार के आरोपेां की जांच के लिए आयोग बना था।आयोग ने कमोवेश सभी को दोषी ठहराया।पर बाद के वर्षों में प्रतिपक्षी नेताओं ने इन्हीं दोषी नेताओं से राजनीतिक समझौता करके 1970 में सरकार बना लीं । इसके बाद तो भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने का मुख्य प्रतिपक्ष का नैतिक हक भी समाप्त हो गया।यह इस राज्य के साथ बहुत बुरा हुआ।फिर तो बाद के वर्षों में भ्रष्टाचार राजनीति की जीवन-पद्धति बन गई। और सदाचार अपवाद बन गया।भ्रष्ट लोगों को राजनीति से निकालना उतना ही कठिन हो गया जितना कंबल से रोएं को निकालना कठिन माना जाएगा।क्या कंबल से रोए को निकाला जा सकता है ?नहीं।इसलिए कि रोएं से ही कंबल बनता है।हालांकि फिर भी राजनीति में कुछ ईमानदार लोग बने रहे।आज भी हैं ।पर वे हाशिए पर ही हैं। साठ के दशक में तो मिली जुली सरकारों का जो दौर चला,उसमें विधायकों की खूब खरीद बिक्री हुई।हालांकि तब पैसे का खेल कम,पद का खेल अधिक होता था।सत्तर-अस्सी के दशकों में राजनीति में पैसे का खेल बढ़ गया।फिर भ्रष्ट नेता अपनी राजनीति की रक्षा के लिए जातिवाद व अपराधी तत्वों का सहारा लेने लगा।राज्य का विकास नेताओं के एजेंडा से बाहर हो गया।विकास व कल्याण कार्यों के नाम पर सरकार ने खूब पैसे खर्च किए,पर उनमें से अधिकांश भ्रष्ट तत्वों की जेबों में चले गए। अस्सी के दशक में खुद राजीव गांधी ने कहा था कि दिल्ली से जो 100 पैसे गांवों में भेजे जाते हैं उनमें से 15 पैसे ही पहुंच पाते हैं।बिहार में कई मामलों में तो स्थिति यह थी कि वे पंद्रह पैसे भी लूट लिए जाते थे।हालांकि नब्बे का दशक आते आते स्थिति और भी उल्टी हो गई।जिस मद में कोई राशि आवंटित ही नहीं थी,उस मद के नाम पर भी सरकारी तिजोरी से पैसे निकाल लिए गए।पशु पालन घोटाला इसका जीता जागता उदाहरण था।एक वित्तीय वर्ष में राज्य सरकार के पशु पालन विभाग का बजट 75 करोड़ रुपए का था।पर उसी साल सवा दो सौ करोड़ रुपए उस विभाग में दवाओं और चारा के नाम पर निकाल लिए गए। अपने ढंग का इतना बड़ा और एक ऐसा अनोखा भ्रष्टाचार है कि इसे देख समझ कर अदालत भी इन दिनों हैरान हो रही है।संभवतः इसीलिए सभी मुकदमों में अधिकतर आरोपितों को लोअर कोर्ट से सजा मिलती जा रही है।यानी, ऐसे ‘शैतानी’ व ‘नटवर लाली’ दिमाग वाले भ्रष्ट लोगों से बिहार का पाला पड़ा।वे न सिर्फ पशु पालन विभाग के मुर्गों की खुराक तक खा गए बल्कि अन्य विभागों में अंडे खाने के बदले मुगिर्योंं का ही जिबह कर दिया। एक बार किसी ने किसी से पूछा था कि अन्य प्रदेशों के भ्रष्टाचार से बिहार के सरकारी भ्रष्टाचार का फर्क किस तरह का है ?जवाब मिला कि अन्य प्रदेशों के भ्रष्ट लोग अपने यहां मुर्गी के अंडे खाते हैं,पर मुर्गी को ही मार कर नहीं खाते।पर बिहार में मुर्गी को ही मार कर खा जाते हैं।उदाहरणस्वरूप कहीं यदि कोई सड़क बन रही है तो संबंधित नेता,ठेकेदार,इंजीनियर और अफसर इतना अधिक मात्रा में रिश्वत व कमीशन ले लेता है कि बचे हुए पैसे से कोई टिकाउ निर्माण हो ही नहीं सकता।माना कि किसी को वित्तीय निगम से कर्ज लेकर कोई उद्योग खड़ा करना है।कर्ज की मंजूरी के दौरान ही संबंधित सरकारी भ्रष्ट तत्व उन उद्यमियों से इतना अधिक रिश्वत ले लेगा कि बचे हुए पैसे से वह उद्यमी ऐसा कोई उद्योग खड़ा ही नहीं कर सकता कि वह मुनाफा देने लायक बन सके।नतीजतन वह उद्यमी भी बचे हुए पैसे को अपनी आय समझ कर खा पी जाता है। हालांकि हर मामले में ऐसा नहीं होता, पर अनेक मामले में ऐसा होता हंै। ऐसी स्थिति मेंं कैसे बढ़ेगा बिहार में उद्योग धंधा ? बाद के वर्षों में तो बिहार के ‘अपहरण व रंगदारी उद्योग’ ने विकास पर विराम ही लगा दिया।हां,कुछ खास तरह के लेागों का खूब निजी विकास हुआ।भ्रष्टाचार के पैसों से सार्वजनिक निर्माण तो नहीं हुआ, पर खास तरह के लेागेां के पूरे बिहार में बड़े बड़े महल जरूर बने।भ्रष्टाचार की समर्थक शक्तियां सत्तर के दशक से ही इतनी मजबूत हो गई थी कि सन् 1973 के नवंबर महीने में कोसी सिंचाई योजना में लूट के खिलाफ जब सहरसा के वीर पुर में एक सर्वदलीय सभा हो रही थी तो भ्रष्ट नेताओं व ठेकेदारों के गुंडों ने वहां भाषण करने गए दो पूर्व मुख्य मंत्रियों तक को पीट डाला। बाद के वर्षों में तो भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़कों पर निकलना भी राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं के लिए कठिन हो गया।तो उन लोगों ने अदालत की शरण ली।पटना हाई कोर्ट ने सी.बी.आई.जांच का आदेश नहीं दिया होता तो 950 करोड़ रुपए के चारा घोटाले का मामला भी दब जाता जिस तरह बिहार के न जाने और कितने घोटाले दबा दिए गए।याद रहे कि घोटाले दबाने के लिए भी कई घोटाले किए बिहार के कुछ बड़े बड़े घोटालेबाजों ने।आज यदि पटना के पास स्थित गंगा ब्रिज अपने निर्माण के बीस साल के भीतर ही जर्जर हो चुका है तो इसके पीछे भी भारी सरकारी भ्रष्टाचार रहा है।कैसे कोई राज्य विकास करेगा ? चारा घोटाले में दो आई.ए.एस.अफसरों को कोर्ट सजा सुना चुका है।अन्य कई आई.ए.एस. अफसरों के खिलाफ सुनवाई चल ही रही है।उधर पुलिस बर्दी घोटाले में भी कई आई.पी.एस.अफसरों के खिलाफ मुकदमा चल रहा है।चारा घोटाले में दो पूर्व मुख्य मंत्री अभियुक्त हैं और वे इस केस में कई बार विचाराधीन कैदी के रूप में जेल जा चुके हैं।यह शर्मनाक बात है कि एक खास अवधि में राज्य में जितने पशुपालन मंत्री रहे वे सब बारी बारी से जेल गए और बिहार के चर्चित चारा घोटाले में अभियुक्त बने।यानी जिस राज्य में इतनी बड़ी बड़ी हस्तियांे पर जब भ्रष्टाचार के ऐसे गंभीर आरोप लगते हों,उस राज्य का विकास व जन कल्याण भला कैसे संभव है !वह राज्य तो पिछड़ा रहेगा ही।राज्य का विकास तो तभी होगा जब विकास व कल्याण के लिए आबंटित सरकारी धन में से अधिकांश राशि सही काम में खर्च हो। भ्रष्टाचार ने बिहार सरकार में कितनी गहरी जड़ें जमा ली हैं, इसका सही अनुमान मुख्य मंत्री नीतीश कुमार को इन दिनों मिल रहा है।वे चाहते हैं कि सरकारी धन ईमानदारी से विकास व कल्याण के कार्यों में लगे।पर उनकी ही सरकार के अनेक मंत्री व बड़े अफसर अपने भ्रष्टाचार के कारण मुख्य मंत्री के उद्देश्यों को पूरा नहीं होने दे रहे हैं। अधिकतर मंत्रियों के खिलाफ तरह तरह की शिकायतों के बाद मुख्य मंत्री ने अपने सभी मंत्रियों के विभाग कुछ माह पहले बदल दिए।पर इसका भी मनचाहा असर नहीं पड़ रहा है।भ्रष्टाचार के आरोप में कई आई.ए.एस.और आई.पी.एस.अफसरों को भी नीतीश कुमार की सरकार की निगरानी शाखा ने गिरफ्तार किया है।फिर भी दूसरे अनेक अफसर भ्रष्टाचार मंे ंलिप्त हैं।इन दिनों बिहार में भारी खर्चे से विकास व निर्माण कार्यों की धूम मची हुई हे।पर कार्यों की गुणवत्ता पर आए दिन सवाल उठ रहे हैं ।भ्रष्टाचार में सरकारी धन को जाने से जब तक निर्ममतापूर्वक रोका नहीं जाएगा तब तक बीमारू प्रदेश बिहार को एक विकसित राज्य बनाना कठिन ही रहेगा।बिहार की यही सबसे बड़ी समस्या है।
पब्लिक एजेंडा (एक अगस्त, 2008)

पांच साल पर ही चुनाव की व्यवस्था जरूरी


एक कम जरूरी मुद्दे को लेकर इस देश में एक बार फिर केंद्र सरकार के गिर जाने और समय से पहले चुनाव होने की नौबत आ गई है।उम्मीद तो यही की जा रही है कि मन मोहन सरकार अंततः बच जाएगी। वैसे भी कांग्रेस के नेतृत्व में जब भी केंद्र में सरकार बनती है तो वह पूरे पांच साल चलती है।कांग्रेसी प्रधान मंत्रियों ने एकाधिक बार खुद ही अपनी मर्जी से समय से पहले लोक सभा के चुनाव कराए थे।पर, इस बार नौबत तो इसे गिराने की ही ला दी गई है।इस देश में ऐसी नौबत पहले भी कई बार लाई जा चुकी है।कई अवसरों पर तो इसी तरह के कम जरूरी या फिर गैर जरूरी मुद्दों को लेकर कें्रद की सरकार गिराई भी जा चुकी है। इस पृष्ठभूमि में एक बार फिर इस सवाल पर विचार करने का अवसर आ गया है कि संसद व विधान सभाएं पांच साल से पहले किसी भी हालत में भंग नहीं हों।इसके लिए संविधान में जरूरी संशोधन ही कर दिया जाए।इससे यह गरीब देश अनावश्यक चुनावी खर्चे का बोझ उठाने से बच जाएगा।इससे देश भर में लोक सभा व विधान सभाओं के चुनाव एक फिर एक ही साथ कराए जाने की पृष्ठभूमि भी तैयार हो जाएगी।सन् 1967 तक दोनों चुनाव एक ही साथ होते भी थे।दोनों चुनाव एक साथ कराए जाने के कारण विघटनकारी तत्वों को क्षेत्रीय मुद्दे उछालने का अवसर भी कम मिलेगा।चुनावी खर्चे घटेंगे।इससे राजनीतिक भ्रष्टाचार पर काबू पाने में भी सुविधा होगी। आज इस देश के सामने सबसे बड़ी दो समस्याएं हैं भीषण महंगी और मारक आतंकवाद ।इन दोनोंं समस्याओं से मुकाबले में केंद्र सरकार विफल हो रही है।यदि कम्युनिस्ट पार्टियांे की प्राथमिकता में देशहित होता तो वे इन दो में से किसी मुद्दे पर मन मोहन सरकार से समर्थन वापस लेतींे। आतंकवाद व अतिवाद के बढ़ते खतरे को आधार बना कर समर्थन वापस लेने की उम्मीद तो कम्युनिस्टों से नहीं ही की जा सकती,पर वे महंगी को तो आधार बना सकते थे।क्योंकि गरीब ही महंगी से सर्वाधिक पीडि़त होते है। गरीबों के हितों की रक्षा का दावा अन्य दलों की अपेक्षा कम्युनिस्टों का सबसे अधिक रहा है।इस देश के करीब अस्सी करोड़ लोगों की रोज की आय मात्र बीस रुपए है। नंदीग्राम व सिंगुर के बावजूद उन्हें ऐसा दावा करने का अधिकार भी दिया जा सकता है।पर, इसकी जगह उन्होंने परमाणु करार को आधार बना कर देश में राजनीतिक अस्थिरता की नौबत ला दी है। यहां ऐसा नहीं कहा जा रहा है कि परमाणु करार का विरोध करने का उन्हें अधिकार नहीं है। पर महंगी और आतंकवाद-अतिवाद छोड़ कर परमाणु मुद्दे को पकड़ने के पीछे व्यापक जनहित नहीं प्रतीत होता है।हां, दलहित या फिर कोई और हित हो सकता है। जब इस देश के जिम्मेदार दल भी देशहित व जनहित के बदले किसी और तरह के हितों को ध्यान में रखकर केंद्र सरकार को लगातार अस्थिर करने की नौबत लाते रहें तो फिर विधायिकाओं के फिक्स्ड कार्यकाल तय कर देने की जरूरत और भी बढ़ जाती है।मन मोहन सरकार से वाम दलों द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद जो स्थिति बन रही है,क्या वे देश के लिए सुखद होंगी ? क्या मन मोहन सिंह सरकार के नए समर्थक अपने समर्थन की कैसी-कैसी कीमतें वसूलेंगे, इस बात की कल्पना समर्थन वापस करते समय कम्युनिस्ट ने की थी ? क्या मन मोहन सरकार के नए दोस्तों ने अपनी व्यक्तिगत व दलीय समस्याओं को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार के संकटमोचक नहीं बने हैं ? उन समस्याओं को केंद्र की सरकार से हल कराने का असर आम जनता और राजनीति पर कैसा पड़ेगा ?वे समर्थन के जो मूल्य वसूलना चाहते हैं,वे सिर्फ इसलिए अदा किए जाएंगे ताकि लोक सभा को तत्काल भंग होने से बचाया जा सके।क्योंकि भीषण महंगी से पैदा हुई स्थिति के बीच कोई सत्ताधारी दल अभी चुनाव में जाने के लिए तैयार नहीं लगता है।यदि लोक सभा का चुनाव पांच साल से पहले होना असंभव होता तो समर्थन लेने के लिए कोई भी कीमत देने की किसी के सामने कोई मजबूरी नहीं होती। समय से पहले चुनाव यानी देश में अधिक चुनाव।अधिक चुनाव यानी एक बार फिर मल्य वृद्धि।यानी आम जनता को अधिक आर्थिक परेशानी।पर आज की राजनीति को गौर से देखने से लगता है कि गांधी का ‘अंतिम व्यक्ति’ किसी दल के एजेंडे में नहीं है। आज कांग्रेस को इस बात का बुरा लग रहा होगा कि एक मामूली परमाणु समझौते को लेकर उनकी सरकार को अस्थिर बना दिया गया है।पर ऐसे मामले में खुद कांग्रेस का रिकार्ड खराब रहा है।बल्कि ऐसे मामूली मुद्दों पर केंद्र की कई सरकारों को बारी बारी से गिरा देने का काम भूत काल में कांग्रेस दलहित में कर चुकी है।दरअसल रास्ता तो उसी का दिखाया हुआ है।हालांकि समय से पहले गुजराल सरकार को गिरवा देने का लाभ कांग्रेस को नहीं मिला था।बाद में जब चुनाव हुआ तो अटल बिहारी वाजपंयी की सरकार बन गई थी। सीताराम केसरी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी हाथ मलती रह गई थी। क्या कांग्रेस पार्टी को याद है कि उसने चरण सिंह ओर चंद्र शेखर के नेतृत्व वाली सरकारों को किस जनहित के तहत गिराया था ? इन सरकारों को गिराने के बाद कांग्रेस पार्टी की सरकार जरूर बन गई थीं, पर देश को जरूर अनावश्यक चुनाव का खर्च उठाना पड़ा था।यह मानी हुई बात है कि हर चुनाव के बाद आम तौर पर महंगी बढ़ती है।राजनीति की नैतिकता कुछ और नीचे गिरती है।इंदर कुमार गुजराल सरकार को गिराने का प्रकरण तो न सिर्फ मनोरंजक बल्कि शर्मनाक भी था।तब जैन आयोग की रपट आई थीं । आयोग ने अपनी अधपकी अंतरिम रपट में यह कह दिया कि राजीव गांधी की हत्या के लिए द्रमुक भी जिम्मेदार था।तब द्रमुक के मंत्री गुजराल सरकार में शामिल थे।संयुक्त मोर्चा की गुजराल सरकार कांग्रेस के बाहरी समर्थन से चल रही थी।जैन आयोग की फाइनल रपट की प्रतीक्षा किए बिना ‘ओल्ड मैन इन हरी’ सीताराम केसरी ने गुजराल सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इसके कारण सन् 1998 में गुजराल सरकार गिर गई और लोक सभा का मध्यावधि चुनाव कराना पड़ा।इसके बाद भाजपा सत्ता में आ गई।पिछला चुनाव सिर्फ दो साल पहले यानी 1996 में ही हुआ था। याद रहे कि जब जैन आयोग की अंतिम रपट आई तो पता चला कि जैन के अनुसार द्रमुक दोषी था ही नहीं । समय से पहले मामूली कारण को आधार बना कर सरकार गिराने का यह एक मात्र उदाहरण नहीं था। चंद्र शेखर के नेतृत्व में कांग्रेस के बाहरी समर्थन से बनी केंद्र सरकार को गिराने का तो यह हास्यास्पद बहाना बनाया गया कि कांग्रेस के एक अति महत्वपूर्ण नेता के दिल्ली स्थित आवास के आसपास हरियाणा की खुफिया पुलिस जासूसी कर रही थी।एक बार फिर जब देश उसी तरह की स्थिति से जूझ रहा है तो इस देश के समझदार नेताओं को मिल बैठकर इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि क्या विधायिकाओं की फिक्स्ड अवधि कर देने के लिए संविधान संशोधन की जरूरत नहीं आ पड़ी है ? इस देश की विधान सभाओं के भी समय से पहले अनावश्यक चुनाव होते रहे हैं।

हिन्दुस्तान में प्रकाशित

संसदीय दलों के नेता ही सदन में करें एकमुश्त मतदान


सांसदों या विधायकों के बदले संसदीय या विधायक दलों के नेता ही सदन में एकमुश्त मतदान कर दें, ऐसा नियम बनाने पर विचार करने का अवसर अब आ गया है।इसके लिए सदन कीे संचालन नियमावली में संशोधन किया जा सकता है।हाल के सांसद रिश्वत कांड के बाद इस बात पर विचार करने की जरूरत और भी बढ़ गई है कि किन-किन उपायों से ऐसी प्रवृतियों को रोका जाए। एकमुश्त मतदान भी एक उपाय बन सकता है। अधिक दिन नहीं हुए जब यह नियम बनाया गया कि राज्य सभा के चुनाव में मतदाता यानी विधायक अपने संबंधित दलों के नेता या उसके प्रतिनिधि को दिखा कर ही वोट कर सकते हैं। पहले गुप्त मतदान होता था।पर, रुपए लेकर राज्य सभा के चुनाव में वोट देने की कुप्रथा जब शर्मनाक हद तक पहुंच गई तो खुले मतदान की छूट देनी पड़ी ताकि विधायकांे पर संबंधित दलों का नियंत्रण रहे। अब राज्य सभा के चुनाव में वोट देने के पहले मत पत्र दलीय नेता या उसके प्रतिनिधि को नहीं दिखाने पर संबंधित विधायक की सदस्यता भी जा सकती है। इस बार लोक सभा में रिश्वत लेकर जितने बड़े पैमाने पर सांसदों ने मत विभाजन के समय पक्ष-परिवर्तन किया, उससे लोक तंत्र कुछ और बदनाम हो गया।रिश्वत खोरी के मामले की जांच के लिए सदन की सर्वदलीय समिति गठित करने का स्पीकर सोम नाथ चटर्जी का निर्णय सराहनीय है। इससे पहले भी इस तरह के मामले पर विचार के लिए सदन की समिति बनी थी और उसकी सिफारिश पर कुछ सांसदों की सदस्यता समाप्त भी कर दी गई थी। सदस्यता समाप्त करने के उस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी हस्तक्षेप करने से मना कर दिया था। ताजा नोट कांड पर इस बार भी संभवतः उसी तरह का फैसला होगा। पर, यह तो स्थायी उपाय नहीं है।वैसे भी जहां के अधिकतर नेता भ्रष्टाचार करने पर अमादा हों, वहां कौन सा उपाय कितना कारगर साबित होगा, यह कहना कठिन है। पर, जरूरत के अनुसार नियम बदलने के काम को जारी रखा ही जाना चाहिए। इससे यह भी आभास होगा कि रही -सही शुचिता समाप्त करते इस देश के लोकतंत्र को पटरी पर फिर से लाने की ताकत व इच्छा शक्ति इस व्यवस्था में अब भी मौजूद है। अभी विश्वास प्रस्ताव या अविश्वास प्रस्ताव जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर भी सदन में अलग -अलग वोट देने का अधिकार सभी सदस्यों को हासिल है। जब तक सदस्य देश हित या फिर दलहित में ‘मुफ्त’ में सदन में मतदान करते रहे, तब तक तो चिंता की कोई बात नहीं थी। पर, अब तो सदस्यों द्वारा बड़े पैमाने पर पैसे लेकर स्वहित में मतदान करने का आरोप लगने लगा है। इस धंधे में बड़े- बड़े दलों के सांसद भी लिप्त हैं। इस नए माहौल में नए उपाय चाहिए। एक उपाय तो सन् 1993 के झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड को ध्यान में रख कर भी करना पड़ेगा।उस कांड पर सुप्रीम कोर्ट के दस साल पुराने फैसले को ध्यान में रख कर संविधान के अनुच्छेद 105 (2) में जरूरी संशोधन करना पड़ेगा। पर वह तो अलग तरह का मामला ही था। उसमें तो संसदीय दल के नेता पर ही रुपए लेकर एकमुश्त बिक जाने का आरोप लगा था। पर आज जो ताजा स्थिति पैदा हुई है,उसमें संसदीय दल का कोई नेता रुपए लेकर नहीं बिका। हांं, पद के लिए सौदा हुआ हो तो यह बात अलग है।यानी बड़े दलों के संसदीय दलों के नेताओं पर इस बात के लिए विश्वास किया जा सकता है कि वे पार्टी की लाइन पर ही सदन के भीतर मतदान करंेगे। नियम को इस तरह बदला जाना चाहिए ताकि विश्वास प्रस्ताव जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर सदन में हो रहे मत विभाजन के समय विभिन्न संसदीय दलों के नेताओं को अपने- अपने पूरे संसदीय दल की तरफ से सदन में एकमुश्त मतदान कर देने की सुविधा मिले। किस पार्टी के संसदीय दल में कौन -कौन और कितने सदस्य हैं ,यह सूचना सदन के सचिवालय के पास पहले से ही मौजूद रहती है। सदन सचिवालय के अफसर मत विभाजन के बाद दलीय सदस्य संख्या के आधार पर मतों की एकमुश्त गणना कर लें। हां, निर्दलीय सदस्यों को मत विभाजन में भाग लेने की सुविधा पहले जैसी रहेगी ही। हां, यदि किसी राजनीतिक दल का कोई्र सदस्य पार्टी ह्विप के खिलाफ जाकर सदन में मत देना चाहता है तो उसे मत देने की सुविधा जरूर मिले, पर उस सदस्य को ह्विप के उलंघन के कारण मिलने वाली ‘सजा’ को भी भुगतने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। यानी उसकी सदस्यता जा सकती है। पर अब तो यह भी कानूनी व्यवस्था करनी होगी कि सदस्यता भी जाए तथा अगले छह साल तक वह व्यक्ति चुनाव भी नहीं लड़ सके। शायद इस उपाय से संसद को घोड़ामंडी बनाने के आरोप से एक हद तक बचने का कोई तरीका मिल जाए।

हिन्दुस्तान में प्रकाशित

बिहार के लिए संदेश

गुजरात विधान सभा चुनाव में भाजपा ने अपने एक तिहाई निवत्र्तमान विधायकों के टिकट काट दिए थे। मध्य प्रदेश में भी हाल के चुनाव में भाजपा ने यही काम किया । दिल्ली विधान सभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद पार्टी के महा सचिव अरूण जैटली ने कहा कि केंद्रीय नेतृत्व को चाहिए कि वह कुछ निवर्तमान विधायकों को भी टिकट देने से मना कर देना सीखे। याद रहे कि दिल्ली में भाजपा ने टिकट नहीं काटे थे। अब इस पृष्ठभूमि में जरा बिहार की राजनीति पर गौर करें। अगले विधान सभा चुनाव के लिए संदेश साफ है। चुनाव तो सन् 2010 में होने हैं, पर यह तय है कि राजग के अनेक निवत्र्तमान विधायकों को दुबारा टिकट नहीं मिलने वाला है।जाहिर है कि ऐसे वंचित लोगों में कुछ मंत्री भी शामिल रहेंगे। बिहार भाजपा ंके लिए तो यह तय है। पर जदयू क्या करेगा ? संकेत है कि जदयू का नेतृत्व अपने विधायकों के कार्यकलापों का आकलन कर रहा है। उसे उस कसौटी पर कसा जा रहा है जो सुशासन व विकास के लिए नीतीश कुमार ने तय की है।मंत्रियों पर भी कड़ी नजर है। उनमें से कई मंत्रियों की फाइलें रोज- रोज उनका हाल बता रही हैं। हालांकि अब भी उन राजग विधायकों व मंत्रियों के चेत जाने का अवसर है जिनके काम संतोषजनक नहीं माने जा रहे हैं। क्या वे सन् 2010 से पहले चेतेंगे ?

मुख्य चुनौती भ्रष्टाचार
मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने ठीक ही कहा है कि भ्रष्टाचार पर काबू पाना राज्य सरकार के सामने मुख्य चुनौती है। नीतीश कुमार इस पर काबू पाने की भरसक कोशिश तो कर रहे हैं किंतु भ्रष्टाचार के बदलते स्वरूप के कारण भी उन्हें कठिनाई हो रही है। इसका बदला हुआ एक स्वरूप यह भी है कि भ्रष्टाचार का करीब -करीब राज्य भर में आउटसोर्सिंग हो चुका है। अनेक मामलों में घूस के जो पैसे भ्रष्ट अधिकारी व कर्मचारी सीधे ले लेते थे, अब वे बिचैलियों के माध्यम से ले रहे हैं। नरेगा और इंदिरा आवास योजना में मची लूट ने ऐसे अनेक नए बिचैलिए भी पैदा कर दिए हैं। इस काम में लगे दलालों ने इस तरह स्वरोजगार ढ़ूंढ़ लिया है। इसे मजाक में गांवों में ‘स्वरोजगार योजना’ भी कहा जाता है। इंदिरा आवास योजना में प्रत्येक आवास निर्माण पर सरकार लाभुक को 25 हजार रुपए देती है। इस में से 5 हजार रुपए कमीशन में चले जाते हैं। ये 5 हजार रुपए दलाल, मुखिया, अफसर और बैंक कर्मी में बंट जाते हैं। इस तरह स्वरोजगारी की आय भी तय है।हर जगह इलाके के लोग जानते हैं कि ये ‘स्वरोजगारी’ कौन- कौन हैं।क्या उनकी खोज -खबर सरकार लेगी ?

यह कैसी विसंगति !
बिहार सरकार ने राज्य के हाई स्कूलों के खुलने के पूर्व निर्धारित समय में हाल में परिवत्र्तन कर दिया। अब हाई स्कूल सुबह आठ बजे के बदले 10 बजे से खुल रहे हैं। पर, यही काम मध्य और प्राथमिक विद्यालयों के बारे में नहीं हुआ। छोटे बच्चे-बच्चियों वाले स्कूल इस भीषण ठंड में अब भी सुबह आठ बजे ही खुलते हैं। ऐसा क्यों हुआ ? यह बात समझ में नहीं आ रही है। क्या छोटे बच्चे-बच्चियों को कम ठंड लगती है और बड़े बच्चे -बच्चियों को अधिक ?

मुस्कान के साथ शासन
मुस्कान के साथ शासन करने वाले मुख्य मंत्रियों शीला दीक्षित, शिवराज सिंह चैहान और डा।रमण सिंह को उसका भी चुनाव में लाभ मिला है। शीला दीक्षित के बारे में तो एक बात और मालूम हुई है। उनकी दिल्ली सरकार देश भर की 18 लघु पत्रिकाओं को प्रति अंक 20 से 30 हजार रुपए तक का विज्ञापन देती है। उनमें बिहार की भी एक साहित्यिक पत्रिका भी शामिल है। यानी, शीला दीक्षित ने इस तरह देश भर के साहित्यकारों व बुद्धिजीवियों के एक हिस्से की शुभ कामना भी हासिल कर ली है।

और अंत में
एक पाकिस्तानी न्यूज चैनल ने मुम्बई हमला कांड में गिरफ्तार कसाब के गांव में अपने स्टिंग आपरेशन के बाद कहा कि पाकिस्तान सरकार का यह कहना गलत है कि अजमल कसाब पाकिस्तानी नागरिक नहीं है। दूसरी ओर, मुम्बई हमले पर संसद में हुई विशेष चर्चा में एलके आडवाणी के भाषण की माकपा के सांसद सलीम तक ने भी तारीफ की। जरा परिवर्तन तो देखिए !
प्रभात खबर (15 दिसंबर, 2008)

डा लोहिया और बराक ओबामा

मार्टिन लूथर किंग के साथ-साथ ओबामा की जीत से डा राम मनोहर लोहिया को भी श्रद्धांजलि मिली है। सन् 1964 में डा लोहिया को अमेरिका में गिरफ्तार कर लिया गया था। क्योंकि वे एक ऐसे होटल में प्रवेश करने की कोशिश कर रहे थे जहां अश्वेत का प्रवेश वर्जित था। बाद में वे रिहा कर दिए गए और अमेरिकी सरकार ने इस गिरफ्तारी के लिए माफी भी मांगी थी। डा लोहिया ने अमेरिकी सरकार से कहा था कि उसे मुझसे नहीं बल्कि ‘स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी’ से माफी मांगनी चाहिए। पर, ओबामा की जीत के बाद एक बुद्धिजीवी सांसद ने इन पंक्तियों के लेखक को एस।एम.एस. भेजा,‘ बिहारी नेताओं के लिए ओबामा की जीत का कोई अर्थ है क्या, जो रात-दिन बैकवर्ड-फारवर्ड और शिया -सुन्नी करते रहते हैं ?’ सांसद जी को शायद नहीं मालूम कि आज कल बिहार के कई नेता बैकवर्ड -फारवर्ड नहीं, बल्कि बैकवर्ड बनाम अति बैकवर्ड का खेल, खेल रहे हैं।

पप्पू बनाम रंजीता
हाल में लोक सभा के बाहर देश की संसदीय राजनीति पर गंभीर चर्चा हुई। लोक सभा स्पीकर सोम नाथ चटर्जी भी उपस्थित थे। इस चर्चा के दौरान सहरसा की सांसद रंजीता रंजन ने ंमार्के की एक बात कही। उन्होंने कहा कि मैं सदन की बैठक को बाधित करने में विश्वास नहीं करती। पर हमारे दलीय नेता ऐसा करने के लिए बाध्य कर देते हैं। फिर मैं क्या करूं ? आप ही बताएं। इस पर एक अन्य नामी वक्ता ने आशंका व्यक्त की कि यहां ऐसा कह देने के लिए शायद अगली बार आपको पार्टी से टिकट ही नहीं मिले ! पप्पू यादव से कितनी अलग हैं उनकी पत्नी !

बेशुमार चुनावी खर्च
आंध्र प्रदेश के एक चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता व राजनीतिक विश्लेषक जय प्रकाश ने कहा है कि अगले आंध्र विधान सभा चुनाव में प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में करीब पंद्रह करोड़ रुपए खर्च होने वाले हैं। इसमें से 80 से 90 प्रतिशत राशि वोटरों को खरीदने की कोशिश में ही खर्च होगी। इससे पहले छत्तीस गढ़ से भी यह खबर आई है कि कई उम्मीदवार वहां वोटरों को खरीदने पर भारी धनराशि खर्च कर रहे हैं। वहां चुनाव प्रचार जारी है। इन खबरों के बीच अब इस देश में इस मांग का महत्व बिलकुल समाप्त ही हो गया है कि सरकार, उम्मीदवारों के चुनावों का खर्च दे ताकि चुनावों में काले धन का असर समाप्त हो सके। कोई भी सरकार चुनाव लड़ने के लिए सरकारी खजाने से अधिकत्तम कितनी धनराशि देगी ? औसतन एक चुनाव क्षेत्र के लिए पंद्रह करोड़ तो कतई नहीं देगी।

अल्वा के साथ अन्याय क्यों ?
इस देश में एक राजनीतिक दल है जो डकैतों को भी चुनावी टिकट दे देता है, यदि डकैत टिकट चाहे। एक अन्य दल है जो छोटे हत्यारे को विधान सभा व बड़े हत्यारे को भी लोक सभा का टिकट दे देता है। एक तीसरा दल छोटे माफिया को लोक सभा और अंतरराष्ट्रीय माफिया को राज्य सभा का टिकट देता है। अब कोई कहे कि पहले दल ने एक डकैत को टिकट दिया और दूसरे को इसी आधार पर नहीं दिया कि वह डाकू है तो क्या कहा जाएगा ! और, दूसरे दल ने किसी हत्यारे को दुतकार दिया और तीसरे ने यदि यह कह कर माफिया को टिकट नहीं दिया कि वह तो माफिया है तो यह अस्वाभाविक ही तो माना जाएगा ! इसी लाइन पर कांग्रेसी नेता मार्गरेट अल्वा की पीड़ा जायज है जिनके पुत्र को चुनावी टिकट देने से पार्टी ने इनकार कर दिया है। जिस कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व परिवारवाद के आधार पर ही निर्मित है, वह पार्टी मार्गरेट अल्वा के साथ अन्याय कैसे कर सकती है ! जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी ! फिर एक अल्वा के बाद दूसरा अल्वा क्यों नहीं ?

और अंत में
एमपी विधायक फंड में ‘कमीशनखोरी’ के आरोपों की तेज होती चर्चाओं के बीच अब जन प्रतिनिधियों पर जाली टीए-डीए उठाने के आरोप लगने लगभग बंद हो गए हैं।
प्रभात खबर (10 नवंबर, 2008)

कर्पूरी ठाकुर लाचार थे अपने ही मंत्रियों के समक्ष


‘उदय भान जी, मैं जिस सरकार में मुख्यमंत्री था, उस सरकार का हर एक मंत्री कम-से-कम मुझसे अपने को ताकतवर मान कर चल रहा था। मैं जिस मंत्रिमंडल की बैठक में भू-हदबंदी का प्रस्ताव लाता, उस मंत्रिमंडल की बैठक के बाद मैं जीवित बाहर नहीं आता, मेरी लाश आती। और जानते हैं ? उस बैठक में जो पिछड़ी जाति के सामंत थे, वही पहले मेरी हत्या करते। अगर मुझे जिंदा रह कर गरीब और कमजोर जातियों के लिए कुछ करना था, तो उस प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में ही पड़े रहने देने में मेरी और दलितों पिछड़ों की भलाई थी।

उदयभान जी, मुझे खून का घूंट पीकर रह जाना पड़ता है, जब गरीबों पर अत्याचार होता है और वह अत्याचार अगड़ी जातियों के सामंतांे से पहले पिछड़ी जाति के सामंतों द्वारा होता है। मैं उस दिन के इंतजार में हूं जब ये कमजोर जातियां संगठित होकर सामंतों से जुल्म के एक -एक पल का हिसाब मांगेंगीं। तब बड़े भू-धारी लोग, जो गरीबों का हक मार कर पटना, रांची और दिल्ली में महल खड़ा किये हैं-खुद भाग जायेंगे। पता नहीं, वह दिन कब आयेगा। मैं दिन- रात इसी सोच में डूबा रहता हूं।’


कर्पूरी ठाकुर ने गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर उदयभान त्रिपाठी से यह बात कही थी। कर्पूरी ठाकुर की इस पीड़ा का विवरण उन पर लिखी नरेंद्र पाठक की ‘कर्पूरी ठाकुर और समाजवाद’ नामक पुस्तक में दर्ज है।


उदयभान जी कहते हैं, ‘कर्पूरी जी आपातकाल में नेपाल आते -जाते कई बार मेरे घर रुके थे। मुझसे उनका लगाव बड़ा ही स्नेहपूर्ण था, पर वे जब मुख्यमंत्री रहे, मैं पटना नहीं जा सका। 1980 में जब एक चुनावी सभा में शामिल होने के लिए गोरखपुर आये, तो मेरे घर भी आये थे। भोजन के बाद जब वे आराम कर रहे थे, तब मैंने उनसे अन्य बातों के अलावा भूमि सुधार के संबंध में अपनी जिज्ञासा प्रकट की। मैंने उनसे पूछा कि आप बिहार में भूमि सुधार क्यों नहीं ला सके, जबकि गरीब जातियों का आप पर बहुत विश्वास था ? मेरी इस बात को सुनते ही कर्पूरी जी तमतमा गये और उठ कर बैठ गये। थोड़ी देर चुप रहने के बाद बहुत गंभीर मुद्रा में उन्होंने जो कहा वह जेपी की संपूर्ण क्रांति से उपजी गैर कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार के चरित्र को स्पष्ट कर देता है।’


 राज्य भर में व्यापक भूमि सुधार की बात कौन कहे, कोसी क्षेत्र में सीमित दायरे में भूमि विकास के जरिये ‘कोसी क्रांति’ लाने की जेपी और बीजी वर्गिस की कोशिश वहां के सवर्ण भूमिपतीपक्षी जनता पार्टी विधायकों ने विफल कर दी। यह भी कर्पूरी ठाकुर की सरकार के कार्यकाल की बात ही है। भूमि सुधार कानूनों को लागू करना और समयानुसार उनमें संशोधन करना गरीब बिहार के लिए कितना जरूरी है, यह बात समय -समय पर विशेषज्ञ बताते रहे हैं। पर राजनीतिक कार्यपालिका यह काम यदि आज तक नहीं कर सकी है, तो उसके कारण हंै। उसकी स्पष्ट झलक कर्पूरी जी की बातों से मिलती है।


बाद के शासकों ने भी इस नाजुक विषय को छेड़ना ‘राजनीतिक दृष्टि से’ ठीक नहीं समझा। नीतीश सरकार राज्य का व्यापक आम विकास करके भूमि सुधार की कमी को शायद पूरा करना चाहती है। मौजूदा सरकार ने भूमि सुधार के लिए बंदोपाध्याय कमेटी बनायी। रपट भी आ गयी, पर लगता है कि वह काम इस सरकार की प्राथमिकता में नीचे स्थान रखता है। हां, नीतीश सरकार एक अन्य महत्वपूर्ण काम जरूर करना चाह रही है, जो भूमि सुधार से अधिक महत्वपूर्ण है। वह है राज्य सरकार में व्याप्त भीषण भ्रष्टाचार का खात्मा।


मामूली भ्रष्टाचार तो अंगरेजों के राज में भी था, पर भीषण भ्रष्टाचार तो विकास और कल्याण की कोशिश को ही विफल कर देता है। राज्य सरकार का इस साल का विकास बजट करीब 13 हजार करोड़ रुपये का है। यदि भ्रष्टाचार पर काबू नहीं पाया गया, तो टिकाउ निर्माण ही नहीं हो पायेगा। यदि टिकाउ निर्माण नहीं होगा, तो न तो पूंजी का निर्माण होगा और न ही नये रोजगार का सृजन।


कर्पूरी ठाकुर ने तो 1978 में पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियों मंे आरक्षण देने में तो सफलता पा ली थी। उन्होंने मुख्यमंत्री की कुरसी को भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद से परे रखा। इस तरह उस कुरसी की गरिमा को एक बार फिर कायम किया। उनकी कुछ और भी उपलब्धियों रहीं, पर सरकार से भ्रष्टाचार कम करने में वे भी विफल रहे और यह काम इसलिए नहीं हो पाया, क्योंकि उनके ही दल के अनेक मंत्री, विधायक और सांसद भ्रष्टाचार पर हमले के खिलाफ थे। कम-से-कम वे तब तिलमिला उठते थे, जब उनकी जाति के किसी अफसर पर भ्रष्टाचार को लेकर कोई कार्रवाई होती थी।


हालांकि सारे नेता तब ऐसे नहीं थे, पर वे इतनी संख्या में जरूर थे, ताकि वे निर्णायक साबित हो जायें, जबकि आज की अपेक्षा बिहार के सत्ता और प्रतिपक्ष की राजनीति में अपेक्षाकृत अधिक ईमानदार नेता तब मौजूद थे। इस पृष्ठभूमि में भ्रष्टाचार के खिलाफ नीतीश कुमार के ताजा अभियान के सामने आ रही कठिनाइयों को समझा जा सकता है।


इस संबंध में एक उदाहरण काफी होगा। सत्तर के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के शासनकाल में बिहार के एक वरिष्ठ पुलिस अफसर के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे। उन आरोपों की जांच की सीबीआइ से कराने की जरूरत तत्कालीन मुख्य सचिव ने महसूस की। मामला कर्पूरी ठाकुर के सामने गया। मुख्यमंत्री ने सहमति दे दी। यह खबर जब उस अफसर को मिली, तो उसने स्वजातीय सांसद-विधायकों की बैठक करा दी। वह अफसर पिछड़ी जाति का ही था। स्वजातीय विधायकों ने कर्पूरी ठाकुर को धमकी दी कि यदि सीबीआइ जांच हुई, तो आपकी सरकार गिर जायेगी। जांच नहीं हुई। नतीजतन शासन में भ्रष्टाचार बढ़ा। बढ़ता ही गया। आज स्थिति यह है कि शासन के भ्रष्टाचारियों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करने में नीतीश कुमार को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। देखना यह है कि जिन मामलों में कर्पूरी ठाकुर को निहितस्वार्थी तत्वों ने सफल होने नहीं दिया उन मामलों में नीतीश कुमार सफल होते हैं या नहीं !


प्रभात खबर (24 जनवरी, 2009)

भूमि अर्जन की प्रेत बाधा

बिहार सरकार इन दिनों सरकारी उद्देश्यों के लिए किसाानों से काफी भूमि अर्जन कर रही है। राज्य सरकार के विकास अभियान को सफल बनाने के लिए अभी और अधिक जमीन चाहिए। पर, भूमि अर्जन की राह में कई बाधाएं सामने आती रहती हैं। भूमि के मुआवजे के मामले में नीतीश सरकार ने उदारता बरती है। पर ऐसी ही उदारता राज्य सरकार के संबंधित अफसर और कर्मचारी नहीं बरत रहे हैं।इससे किसानों का मन छोटा हो रहा है। साथ ही इसको लेकर किसानों में कहीं -कहीं राज्य सरकार के प्रति गुस्सा भी है। हाल में एक किसान ने बताया कि राज्य सरकार ने हमारी बहुमूल्य जमीन का अधिग्रहण कर लिया।ठीक है,उससे हमें कोई एतराज नहीं है। पर मुआवजे का भुगतान करने के काम में लगे सरकारी कर्मी ने मुआवजे की राशि के भुगतान के लिए 80 हजार रुपए की रिश्वत की मंाग कर दी है। अब भला हम इतने पैसे कहां से लाएं।खेत बेचकर ला सकते थे।पर बेचने के लिए अब हमारे पास खेत है कहां ? भू अर्जन के बाद मुआबजा बांटने वाले अफसर मुआवजे की राशि का दो प्रतिशत रिश्वत मांगते हैं। अब भला किसान क्या करे ?



विकास यात्रा बनाम पद यात्रा

नीतीश कुमार गांवों की विकास यात्राएं कर रहे हैं। इसके जवाब में लालू प्रसाद जन संपर्क के लिए पद यात्रा करने जा रहे हैं। क्या सिर्फ विकास यात्रा और जन संपर्क पद यात्रा से वोट मिलते हैं ? ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार को सिर्फ विकास यात्रा से वोट मिल जाएंगे और लालू प्रसाद को पद यात्रा से। दरअसल अब तो संकेत यह है कि काम पर वोट मिलेंगे।मतदाताओं ने पिछले वर्षों में बहुत कुछ सीखा है। बिहार के पिछले कुछ चुनाव नतीजों को देखने से यह लगता है कि अब भावनाओं पर वोट पाने का समय बीत चुका है।अब लोगों को विकास चाहिए। विकास होने भी लगे हैं। शुरूआत नीतीश कुमार की सरकार ने सन् 2005 में ही कर दी । अब लालू प्रसाद भी रेलवे के जरिए बिहार में विकास करवा रहे हैं।नीतीश कुमार ने सिर्फ विकास यात्राएं शुरू की होतीं और कोई विकास नहीं किया होता तो उन्हें इस यात्रा का कोई लाभ नहीं मिलता। पर विकास कार्य तो बिहार सरकार राज्य भर में करवा रही है। उन विकास कार्यों का लेखा- जोखा लेने नीतीश कुमार गांवों में जा रहे हैं।उन विकास कार्यों में कुछ प्रेत बाधाएं जरूर लगी हुई हैं। उन प्रेत बाधाओं में सबसे बड़ी बाधा सरकारी भ्रष्टाचार है।यह बात गांवों में आम लोगों ने मुख्य मंत्री को बताई है।उन बाधाओं को दूर करने के उपाय करने का मुख्य मंत्री आश्वासन दे रहे हैं।वे यह नहीं कह रहे हैं कि यह सब प्रतिपक्षी दलों का दुष्प्रचार है।दूसरी ओर लालू प्रसाद ने बिहार में रेलवे की कई योजनाएं शुरू कराई हैं। इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं। हालांकि जब उनका बिहार में राजपाट था, तब तो वे कहा करते थे कि विकास का राजनीति से कोई आपस में रिश्ता ही नहीं है। देर आए, दुरूस्त आए। अच्छा होगा, वे पद यात्राएं उन्हीं इलाकों में करें जहां उन्होंने रेलवे योजनाओं का शिलान्यास किया है। उन निर्माण योजनाओं पर यदि वे काम तेज करा सकें तो बिहार की जनता उनका शुक्रगुजार रहेगी। साथ ही, आम जनता को भी तुलना करने में सुविधा होगी कि नीतीश सरकार का विकास कार्य अधिक प्रभावकारी और प्रामाणिक है या फिर लालू जी का। फिर तो वोट का फैसला हो ही जाएगा।ऐसा नहीं है कि विकास पर वोट नहीं मिलते।



पद्म पुरस्कार व दशरथ मांझी

जो पुरस्कार दशरथ मांझी को नहीं मिल सकता,उस पुरस्कार को इस गरीब देश में बने रहने का क्या औचित्य है ? अच्छा किया था कि मोरारजी देसाई की सरकार ने 1977 में उन पद्म पुरस्कारों की व्यवस्था ही समाप्त कर दी थी। पर, उसे फिर 1980 में शुरू कर दिया गया। बिहार सरकार ने दशरथ मांझी को पद्म पुरस्कार देने की तीन बार भारत सरकार से सिफरिश की। पर, ऐसे-वैसे और न जाने कैसे -कैसे लोगों को भी हर साल पद्म पुरस्कार मिलते रहते हैं,पर दशरथ मांझी को इस बार भी नहीं मिला।मिल जाता तो परलोक में उनकी आत्मा को शांति मिलती। कर्मयोगी दशरथ मांझी ने गया जिले की गहलोर घाटी की पहाड़ी को अकेले बल पर 22 वर्षों में काट कर लंबा रास्ता बना दिया था। अब वहां के लेागों को एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए मीलों तक लंबी घुमाववार दूरी तय नहीं करनी पड़ती।उन्होंने 350 फीट लंबी, 16 फीट चैड़ी और 25 फीट उंची यानी एक लाख 40 हजार घन फीट पहाड़ को अकेले काट डाला था। किसी अन्य देश में होते तो मांझी को संभवतः वहां का सबसे बड़ा पुरस्कार मिलता। पर यहां के किसी योग्य पुरस्कार के बिना ही वे गत 17 अगस्त 2007 को 80 साल की आयु में गुजर गए।



पद्म पुरस्कारों का हाल

अक्सर यह आरोप लगता रहता है कि इस देश में पद्म पुरस्कार कई मामलों में वोट बैंक, समुदाय-जाति बल, धन बल और जुगाड़ टैक्नोलाॅजी के आधार पर मिलता है। हालांकि अनेक मामलों में प्रतिभा का भी कद्र किया जाता है। फिर तो वह दशरथ मांझी को कैसे मिल सकता था। अनेक लोगों ने इन पुरस्कारों को लेने से समय समय पर मना कर दिया था क्योंकि उनके अनुसार इसे तय करने का कोई पारदर्शी आधार नहीं है। देश के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने तो ंभारत रत्न’ जैसे बड़े सम्मान को भी ठुकरा दिया था। उन्होंने कहा था कि जो सरकार, भारत रत्न से सम्मानित करने के लिए व्यक्तियों का चुनाव करती है,उसी सरकार में शामिल व्यक्तियों को खुद ही यह सम्मान नहीं ले लेना चाहिए। याद रहे कि कई अन्य लोगों के साथ- साथ 1954 में तत्कालीन उप राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन, 1955 में जवाहर लाल नेहरू 1957 में गोविंद बल्लभ पंत और 1962 में डा. राजेंद्र प्रसाद को भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। मौलाना आजाद को तो उनके निधन के बहुत बाद यानी सन् 1992 में भारत रत्न मिला। याद रहे कि सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह को इस सम्मान के लायक नहीं समझा गया। सरदार बल्लभ भाई पटेल व जय प्रकाश नारायण को भी यह सम्मान 1990 के बाद ही दिया गया जबकि तमिलनाडु के फिल्मी अभिनेता-सह -मुख्य मंत्री ं एम.जी.रामचंद्रन को 1988 में ही ‘भारत रत्न’ से सम्मानित कर दिया गया था। पद्म पुरस्कारों के बारे में खुशवंत सिंह और कांग्रेसी सांसद राजीव शुक्ल की राय गौर करने लायक है। गत साल 26 जनवरी को अपने नियमित काॅलम में खुशवंत सिंह ने लिखा था कि ‘अभी तक हमारी सरकारें लोगों को सम्मानित करने के लिए चुनाव करती हैं। नेताओं, वैज्ञानिकों, समाज सेवकों , साहित्यकारों ,संगीतकारों कलाकारों और पत्रकारों को पुरस्कारों के लिए चुना जाता है। हर साल होने वाले इन चुनावों में किस बात का ध्यान दिया जाता है, यह आज तक मेरी समझ में नहीं आया।’ इस बात को समझाया खुद राजीव शुक्ल ने। 26 जनवरी 2008 को दैनिक जागरण में प्रकाशित अपने लेख में शुक्ल ने लिखा कि ‘दिल्ली में लाॅबिंग करके कुछ लोग पहले भी पद्मश्री और पद्म भूषण पुरस्कार ले चुके हैं। मुझे लगता है कि प्रधान मंत्री को हस्तक्षेप करके इन पुरस्कारों की चयन समिति के सदस्यों के नाम तय करने चाहिए।’ इस बार कई अच्छे लोगेां को भी पुरस्कार मिले हैं। पर कुछ नाम ऐसे भी हैं जिन्हें देख कर लगता है कि प्रधान मंत्री ने राजीव शुक्ल की गत साल वाली सलाह नहीं मानी।



ऐसे ठुकराया पुरस्कार

सितारा देवी को जब 2002 में पद्म भूषण आॅफर किया गया तो उन्होंने यह कह कर उसे ठुकरा दिया कि मुझसे जूनियर और अल्पज्ञात लोगों को पहले ही पद्म विभूषण मिल चुका है। मुझे पद्म भूषण देना मेरा अपमान है। उस्ताद विलायत खान ने 1964 में पद्मश्री और 1968 में पद्म विभूषण यह कह कर ठुकरा दिया कि चयन समिति में संगीत की गुणवत्ता के बारे में फैसला करने की योग्यता रखने वाले सदस्य नहंी थे। मलयालम लेखक सुकुमार अजिकोड ने पद्मश्री ठुकराते हुए कहा कि ऐसा पुरस्कार देना संविधान विरोधी काम है। पत्रकार निखिल चक्रवर्ती ने 1990 में यह कहते हुए ठुकराया कि पत्रकार को प्रतिष्ठान से खुद को नहीं जोड़ना चाहिए। पुरस्कारों के बारे में एक बात जरूर कही जा सकती है कि तुलसी दास ने किस पुरस्कार के लिए राम चरित मानस की रचना की थी ? आज इतने अधिक पुरस्कार मौजूद हैं, फिर भी कोई कालजयी रचना सामने नहीं आ रही है।

तापमान (फरवरी, 2009)

नकली दवाओं का समंदर



युद्ध, आपसी झगड़े और आतंकी हमलों में कुल मिलाकर जितनी जानें जाती हैं, एक मोटे अनुमान के अनुसार उससे कहीं काफी अधिक जानें नकली और घटिया दवाओं के इस्तेमाल से जा रही हैं। नकली और घटिया दवाओं का मानव शरीर पर परोक्ष व प्रत्यक्ष असर पड़ता है। कुछ मामलों में असर देर से होता है और कुछ मामलों में जल्दी ही । अमेरिका और ब्रिटेन जैसे कुछ देश जरूर अपवाद हैं, पर नकली दवाओं की यह बीमारी, तो लगभग पूरे विश्व में फैल चुकी है। सर्वाधिक खराब हालत भारत की है। इस मामले में भी बिहार इस देश में सर्वाधिक पीडि़त राज्य है। अमेरिका और ब्रिटेन सहित कुछ थोड़े से देशों ने नकली दवाओं के खिलाफ जरूर कारगर कार्रवाई की है, पर अन्य अनेक देशों के तो भगवान ही मालिक हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सन् 2007 में ही कहा था कि भारत के प्रमुख नगरों में जो दवाएं बिक रही हैं, उनमें से हर पांच दवा में एक दवा नकली है। गत दो साल में हालात और भी खराब हो चुके हैं। सबसे बड़ी समस्या यह है कि इन्हें रोकने की प्रशासनिक कोशिश समस्या के अनुपात में ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है। रही-सही कसर व्यापक सरकारी भ्रष्टाचार पूरी कर देता है। इस सिलसिले में कुछ आंकड़े यहां पेश हैं। देश की राजधानी यानी नेशनल कैपिटल रिजन में हर साल करीब तीन सौ करोड़ रुपये की नकली दवाओं की बिक्री हो रही है। पूरी दुनिया में 32 बिलियन डालर की नकली दवाएं हर साल बिकती हैं। पूरे भारत की बात करें, तो किसी प्रदेश में यदि सर्वाधिक नकली दवाओं का इस्तेमाल कहीं होता है, तो वह बिहार ही है। वैसे भी दुनिया में जितनी भी नकली दवाओं की आपूर्ति होती है, उनमें से 75 प्रतिशत नकली दवाओं की आपूर्ति भारत, चीन और पाकिस्तान से ही की जाती है। अब भला बिहार में कौन नहीं जानता कि नकली दवाएं किन स्थानों में बनती हैं। हां, सिर्फ प्रशासन को पता नहीं होता। धांधलीबाज पकड़े भी जाते हैं, पर रिश्वत ले देकर छोड़ दिए जाते हैं। या फिर गवाहों को खरीद लिया जाता है। एन।सी.आर. के गाजियाबाद और चांदनी चैक इलाकों से कई बार नकली दवाएं बरामद की जा चुकी हैं, पर उन काले धंधों पर कारगर रोक नहीं लगती। वैसे भी नकली दवाओं की जांच के लिए भारत में सिर्फ सात ही प्रयोगशालाएं हैं। नकली दवाओं के कारोबारियों के खिलाफ पहले से मौजूद सन् 1940 के कानून में संशोधन करके उसे और कड़ा बनाने की केंद्र सरकार गंभीर कोशिश कर रही है, पर तत्संबंधी कानूनों को लागू करने की दिशा में सरकारी मंशा, समस्या के अनुपात में काफी लचर है। क्योंकि सरकारी मशीनरी में भ्रष्टाचार और काहिली की जंग लगी हुई है। नकली दवाएं चूंकि देर-सवेर मरीजों के प्राण हर लेती हैं, इसलिए इसके लिए कसूरवारों को फांसी की सजा तो मिलनी ही चाहिए। ऐसा कानूनी प्रावधान होना चाहिए।नकली व घटिया दवाओं के निर्माता तो सामूहिक नरसंहार के दोषी होते हैं। नकली दवाओं के कारण मरनेवालों का सही आंकड़ा यदि मिल जाए, तो वह सचमुच चैंकाने वाला ही होगा। क्योंकि नकली दवाएं कई तरह से मरीजों को मौत तक पहुंचाती हैं। एक चिकित्सक के अनुसार लगातार नकली दवाएं लेते रहनेवाले मरीजों के शरीर पर कुछ दिनों के बाद असली दवाएं भी काम करना बंद कर देती हैं। यदि कोई पूछे कि बिहार सरकार को कौन सा काम सबसे पहले करना चाहिए, तो उसका सटीक जवाब यही होगा कि प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के तर्ज पर ही नकली दवाओं की समस्या से निपटने के लिए भी राज्य सरकार को कोई कार्यनीति जल्दी बनानी चाहिए। क्योेंकि यह एक बहुत बड़ी आपदा है, जो भीतर- ही -भीतर बिना किसी शोर के बड़ी संख्या में जानें ले रही है। सड़क, पुल, स्कूल तथा विकास कार्य भी जरूरी है, पर मनुष्य यदि जिंदा रहेगा तभी तो वह उसका उपभोग कर पाएगा। जिस तरह कोई भी संवेदनशील सरकार कोसी जैसी बाढ़ के पानी में जनता के डूबने से बचाने के लिए भरसक कोशिश करती है, उसी तरह नकली दवाओं के समंदर में लाखों लोगों के डूब जाने से बचाने के लिए भी उसे कोशिश करनी चाहिए।


राष्ट्रीय सहारा, पटना (29 जनवरी, 2009)

राजनीति नहीं, जन-धन की चिंता

इस देश के कई बड़े उद्योगपति इन दिनों नरेंद्र मोदी के इतने बड़े प्रशंसक कैसे हो गये, जबकि व्यापारीगण आम तौर पर उस नेता की तरफ अधिक मुखातिब होते हैं, जिसकी सरकार केंद्र में होती है। यदि इस देश के कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण व्यापारी नरेंद्र मोदी को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं, तो वे लोग एक साथ दो -दो खतरे मोल ले रहे हैं। इस तरह वे ‘प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग’ को भी मन-ही-मन नाराज कर रहे हैं। साथ ही केंद्र सरकार की नाराजगी मोल लेने का खतरा भी उठा रहे है, पर इतना बड़ा खतरा व्यापारी ऐसे ही मोल नहीं ले रहे हैं। दरअसल देश में आये दिन घट रही आतंकी घटनाओं के कारण व्यापारियों की खुद के जान -माल पर भी भारी खतरा उत्पन्न हो चुका है। मुंबई में हुए हाल के आतंकी हमले के बाद व्यापारी यह महसूस कर रहे हैं कि उनकी रक्षा वही कर सकता है, जिसके पास आतंकवाद से दो टूक लड़ाई लड़ने का नरेंद्र मोदी जैसा साहस हो। जब जान-माल की रक्षा होगी, तभी तो व्यापार व उद्योग भी रहेगा ! यह अकारण नहीं है कि मुंबई में ताज पर हमले से हुई व्यापक जन-धन की क्षति के बाद रतन टाटा ने मीडिया से कहा था कि मजबूत नेतृत्व और कारगर कानून के जरिये ही आतंकवाद से लड़ा जा सकता है। कांग्रेस की केंद्र सरकार को चाहिए कि नरेंद्र मोदी को लेकर व्यापारियों कीे ताजा टिप्पणियों पर नाराज होने के बदले आतंकवाद के खिलाफ अपनी दो टूक लड़ाई को और तेज करे। इधर केंद्र सरकार के रूख में सकरात्मक बदलाव जरूर आया है, पर वह काफी नहीं है। नये कानून और नये गृह मंत्री से इस दिशा में उम्मीद जरूर जगती है। लगता है कि पी चिदंबरम के कुछ हाल के बयानों में वोट बैंक की चिंता नहीं है, बल्कि देश की सुरक्षा की अधिक चिंता है। इस तरह के कुछ और कदम केंद्र सरकार उठा कर व्यापारियों के जान-माल की सुरक्षा की गारंटी दे, तो वे नरेंद्र मोदी की तरफ उनका झुकाव खुद-ब-खुद कम होगा, ऐसा राजनीतिक प्रेक्षक कहते हैं। एक व्यापारी ने कहा कि गुजरात दंगे को लेकर बार-बार नरेंद्र मेादी को मौत का सौदागर कहने भर से काम नहीं चलेगा। सन् 1984 में तो दिल्ली के हजारों सिक्खों के संहार के बाद किसी को मौत का सौदागर क्यों नहीं कहा जाता ?



ताकि जनता का विश्वास न टूटे

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने साल के महीनों में अदालतों में भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए कई सराहनीय कदम उठाये हैं। कई जजों पर इस सिलसिले में उन्होंने कार्रवाई का रास्ता साफ किया है। पर हाल में उन्होंने यह कर जनता को निराश किया है कि जजों के लिए अपनी संपत्ति का ब्योरा देने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। यदि इस संबंध में कानूनी बाध्यता नहीं है कि मुख्य न्यायाधीश से यह उम्मीद की जा रही है कि ऐसा कानून बनाने के लिए सरकार व संसद कहें। वे खुद न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को लेकर चिंतित रहे हैं।दूसरी बात यह भी है कि हाल के वर्षों में आम जनता का न्याय के लिए न्यायपालिका खास कर हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट पर निर्भरता बढ़ी है। इस भारतीय लोकतंत्र का इन दिनों ऐसा स्वरूप बनता जा रहा है, जिससे यह लगता है कि अंततः अदालत और मीडिया से ही कुछ उम्मीद की जा सकती है। अपवादों की बात छोेड़ दें, तो इस देश की राजनीति, वोट, परिवार और पैसे में उलझ कर रह गयी है। प्रशासनिक कार्यपालिका के घोड़े पर तो राजनीतिक कार्यपालिका सवार रहती है। जब अदालतों से जनता का विश्वास बढ़ रहा है, तो जजों की भी इस मामले में जिम्मेदारी बढ़ जाती है। यदि जज अपनी संपत्ति का विवरण सार्वजनिक करने को राजी हो जायें, तो जनता में उनके प्रति विश्वास और भी बढ़ जायेगा। अन्यथा यदि लोकतंत्र के सभी स्तंभों के प्रति बारी-बारी से जनता में अविश्वास बढ़ता गया, तो एक दिन लोकतंत्र पर ही खतरा उपस्थित हो जायेगा। लोकतंत्र की रक्षा करने से न्यायपालिका का भी महत्व बना रहेगा। जब जज अपने मुख्य न्यायधीश को अपनी संपत्ति का ब्योरा देते ही हैं, तो उसे सार्वजनिक कर देने पर राजी हो जाने में भला क्या कठिनाई हो सकती है।



और अंत में

दोनों के आचार, विचार, स्वभाव और मित्रमंडली को देखते हुए यह स्वाभाविक ही था कि सुनील दत्त कांग्रेस में थे और उनके पुत्र अब संजय दत्त समाजवादी पार्टी में हैं।

प्रभात खबर (19 जनवरी, 2009)

स्पीकर पद पर एक नजर

लोक सभा के पहले स्पीकर जीवी मावलंकर ने अध्यक्ष चुने जाने के बाद कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया था। पर, मौजूदा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी को इस बात का अफसोस है कि 2004 में स्पीकर चुने जाने के साथ ही उन्होंने अपनी पार्टी माकपा से इस्तीफा क्यों नहीं दे दिया था। यह बात उन्होंने हाल में कुछ पत्रकारों को बताई। सोमनाथ चटर्जी का कार्यकाल अब पूरा होने जा रहा है। पर, उनका कार्यकाल कई कारणोें से चर्चित व विवादास्पद रहा। मुख्य प्रतिपक्षी दल भाजपा ने कई बार उन पर यह आरोप लगाया कि उनका प्रतिपक्ष के साथ व्यवहार एक वाम नेता की तरह ही था। दूसरी ओर, उनके दल सीपीएम ने भी उनके साथ ऐसा व्यवहार किया, जैसा व्यवहार किसी लोक सभा स्पीकर के साथ अब तक उनके दल ने नहीं किया था। इस प्रकरण के साथ ही इस गरिमायुक्त पद पर एक बार फिर नजर डाल लेने की जरूरत महसूस की जा रही है। ब्रिटेन में तो ‘वन्स अ स्पीकर, अलवेज स्पीकर’ की परंपरा रही है। यानी स्पीकर के खिलाफ अगले चुनाव में प्रतिपक्षी दल अपना कोई उम्मीदवार ही खड़ा नहीं करता। वहां स्पीकर जब तक चहते हंै, इस पद पर बने रहते हैं और स्वेच्छा से रिटायर हो जाने के बाद भी वे राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं होते। इसीलिए वहां स्पीकर निष्पक्षता से सदन का संचालन कर पाते हैं। यहां तो ऐसा संभव नहीं लगता। पर कम से कम एक प्रावधान तो किया ही जा सकता है कि इस देश की विधायिकाओं के अगले स्पीकर मावलंकर की परंपरा पर चलें। यानी ऐसे व्यक्ति स्पीकर बनें, जिनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा अपूर्ण नहीं रह गई हो। ऐसे नेता की तलाश जरा कठिन है, पर असंभव नहीं। यदि ऐसा हुआ तो सोम नाथ चटर्जी प्रकरण दुहराया नहीं जा सकेगा। यह लोकतंत्र के लिए भी गरिमायुक्त होगा । क्योंकि निष्पक्ष और कारगर स्पीकर की उपस्थिति के कारण सदन में अनेक सदस्यों के आचरण व चर्चाओं के गिरते स्तर को रोका जा सकेगा।

यूपी के चुनावी आंकड़े
कल्याण सिंह के मुलायम सिंह से मिल जाने के बाद उत्तर प्रदेश के पिछले चुनावी आंकडों पर एक नजर डाल लेना दिलचस्प होगा।समाजवादी पार्टी को पिछले तीन चुनावों में यूपी में हर बार करीब -करीब छब्बीस प्रतिशत मत मिले। 2002 में 26।27 प्रतिशत, 2004 में 26.74 प्रतिशत और 2007 में 26.07 प्रतिशत। यानी ‘गुंडा राज’ के बसपा के आरोप के बावजूद सपा के अपने वोट नहीं घटे। ये तीन चुनाव हैं - सन् 2002 का विधानसभा चुनाव, 2004 का लोक सभा चुनाव और 2007 का विधान सभा चुनाव। हां, सपा की सत्ता इसलिए छिन गई क्योंकि बहुजन समाज पार्टी का वोट 25 प्रतिशत (2004) से बढ़कर 30 प्रतिशत (2007) हो गया। ये अतिरिक्त मत ब्राह्मण मतदाताओं के थे जिन्हें सतीश मिश्र ने बसपा से जोड़ा।ये मतदाता भाजपा से इसलिए नाराज थे कि उसने ब्राह्मणों को राज्य का भी नेतृत्व नहीं सौंपा। दूसरी ओर, राजा भैया जैसे ठाकुर नेताओं ने सपा की सत्ता का लाभ उठा कर अपना वर्चस्व बढ़ाया।अब तो बसपा राज पर ही ‘गुंडा राज’ का आरोप लग रहा है। अब ‘बाबरी मस्जिद प्रसिद्धी’ वाले कल्याण सिंह के मुलायम सिंह से जुड़ने के बाद क्या होगा ? बसपा के खिलाफ सत्ता- विरोध के तत्व का कितना असर अगले लोक सभा चुनाव पर पड़ेगा ? यूपी भाजपा में ब्राह्मणों का वर्चस्व बढ़ने के बाद क्या ब्राह्मणों के एक हिस्से की फिर घर-वापसी होगी ? अगले कुछ हफ्तों में इन सवालों के जवाब मिलेंगे। फिर उसी के आधार पर चुनाव नतीजे तय होंगे। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि बसपा और सपा के बीच मतों का अधिक अंतर नहीं जान पड़ता है।

फर्क सिवान और सारण का !
सिवान और सारण जिले के कालेज एक ही विश्वविद्यालय के तहत हैं। पर सिवान जिले की परीक्षाओं में कदाचार नहीं के बराबर है। इसलिए वहां के काॅलेजों में नामांकन कम हो रहे हैं। दूसरी ओर सारण और गोपाल गंज जिलों में कदाचार पर कारगर रोक नहीं है। इसलिए वहां के काॅलेजों में छात्र-छात्राओं की भरमार है। एक ही विश्व विद्यालय में ऐसा दोहरा मापदंड क्यों ? या तो छूट सब जगह रहे या कहीं न रहे।

और अंत में
मुलायम सिंह यादव - कल्याण सिंह - मिलन की खबर पाकर यही लगा कि इस देश की राजनीति में सत्ता ही सत्य है और बाकी सारी बातें झूठ हैं।
प्रभात खबर (26 जनवरी, 2009)

आपराधिक न्याय व्यवस्था कैसी ?

इस देश में हत्या कांडों के सौ में से 95 आरोपित, साक्ष्य के अभाव में अदालतों से अंततः सजामुक्त हो जाते हैं। बलात्कार कांडों के आरोपित लोगों में से 75 प्रतिशत आरोपित कोर्ट से छूट जाते हैं। साक्ष्य जुटाने की मुख्य जिम्मेदारी अभियोजन पक्ष की होती है।उसकी आज इस देश में कैसी स्थिति है,यह सबको मालूम है। दरअसल पुलिस महकमे में भीषण भ्रष्टाचार, राजनीतिक दबाव और पेशेवर अकुशलता के कारण ऐसा होता है। आए दिन सुप्रीम कोर्ट अभियोजन पक्ष को इस बात के लिए फटकार लगाता रहता है कि उसने केस का अनुसंधान ठीक ढंग से नहीं किया। अब सवाल है कि हत्याकांडों के जो 95 प्रतिशत आरोपित जब कोर्ट से छूट जाते हैं तो उनमें से कितने लोग मीडिया के सामने आकर यह आरोप लगाते हैं कि उन्हें जानबूझ कर इसलिए फंसा दिया गया था क्योंकि वे किसी खास जाति या धर्म के हैं ?पर आतंकवादी घटनाओं के अधिकतर आरोपी और उनके तरह- तरह के संरक्षक गण यही आरोप लगाते हैं।ऐसा क्यों होता है ? इसका जवाब भी अनेक लेागों को मालूम है।

किधर रहेंगे पासवान जी
राम विलास पासवान की पार्टी लोजपा अगले लोक सभा चुनाव में अकेले चुनाव लड़ेगी या राजद के साथ रहेगी ? सन् 2004 के लोक सभा चुनाव में पासवान जी ने लालू प्रसाद और कांग्रेस से चुनावी तालमेल किया था और उसका लाभ भी सभी पक्षों को मिला था। पर बाद के वर्षों में पासवान जी का लालू जी से मधुर संबंध नहीं रहा। अब जबकि चुनाव सिर पर है, इस बात को लेकर एक बार फिर अटकलों का बाजार गर्म है।राजद चाहता है कि बिहार में यूपीए साथ मिल कर चुनाव लड़े। पर इसी शनिवार को पासवान जी का दिल्ली से यह बयान आ गया कि उनकी पार्टी बिहार की सभी 40 लोक सभा सीटों के लिए उम्मीदवार तलाशने के काम में जुट गई है। इससे पहले लोजपा के उपाध्यक्ष प्रो रंजन प्रसाद यादव ने इन पंक्तियों के लेखक से बातचीत में इन अटकलों का खंडन किया था कि राजद से लोजपा का चुनावी तालमेल होने जा रहा है। उलटे उन्होंने सवाल किया था, क्या ऐसा राम विलास जी का कोई बयान आपने कभी सुना या पढ़ा है ? राम विलास पासवान के ताजा बयान से लगा कि रंजन यादव की बात सही है। पर राजनीति में कौन आज क्या बोल रहा है और वही व्यक्ति कल क्या बोलेगा, इसका कोई ठिकाना नहीं है। पर एक बात पक्की है कि भले नीतीश कुमार की सरकार के विकास का डंका बिहार में बज रहा है, फिर भी राम विलास पासवान चुनाव में एक फैक्टर तो बने ही रहेंगे। यह और बात है कि इसको लेकर अनुमान जरूर लगाया जा सकता है कि वे कितने बड़े या छोटे फैक्टर बनेंगे।

पहले केंद्र सुस्त, अब बिहार
पटना में जेपीएन एम्स के निर्माण के काम में पहले केंद्र सरकार ने सुस्ती दिखाई थी। अब बिहार सरकार की काहिली विकास विरोधी साबित हो रही है। अब भी बिहार के हजारों मरीज दिल्ली एम्स की शरण में जाने को बाध्य हैं। सन् 2004 की जनवरी में पटना में जेपी की स्मृति में एम्स की तरह के एक अच्छे अस्पताल की आधारशिला रखी गई थी। पर बाद में केंद्र में यूपीए की सरकार बन गई तो उसने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। पर पटना हाई कोर्ट में वकील एमपी गुप्त की लोकहित याचिका ने कमाल किया। काम शुरू करने को केंद्र सरकार को अदालत ने बाध्य कर दिया। पर कुछ आधारभूत संरचनाएं तैयार करने का काम तो बिहार सरकार को करना है। पर बिहार सरकार की गति इस मामले में कछुए की है। इसलिए एम्स के निर्माण में अनावश्यक देरी हो रही है।

और अंत में
एक पार्टी सुप्रीमो के बारे में उनके कुछ कार्यकर्ताओं की यह शिकायत है कि वे तो देख कर मुस्कराते भी नहीं हैं। हाल में एक महिला अधिकारी ने अपने एक अधीनस्थ को देखकर मुस्करा क्या दिया कि उसे मोबाइल पर प्रेम संदेश आ गया। क्या पार्टी सुप्रीमो को भी यही भय है कि जहां मुस्कराए कि सामने वाले की तरफ से किसी अफसर की ट्रांसफर-पोस्टिंग की पैरवी न आ जाए ?
प्रभात खबर (12 जनवरी, 2009)

आसान नहीं माफियाओं पर कार्रवाईं

केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने गत 20 दिसंबर को सभी मुख्य मंत्रियों को एक महत्वपूर्ण पत्र लिखा । पत्र में उन्होंने यह आग्रह किया कि वे 6 जनवरी तक सभी शहरों के माफिया डाॅन और सफेदपोश अपराधियों पर पुलिसिया नकेल कस कर उन्हें शहर से बाहर निकालें। याद रहे कि यह माना जाता है कि ये तत्व आतंकवादियों के मददगार साबित हो रहे हैं। विभिन्न प्रदेशों की सरकारों ने इस संबंध में अब तक कितना कुछ किया है, उसका विवरण मुख्य मंत्रियों की दिल्ली में होने वाली अगली बैठक के बाद ही पता चल सकेगा। हालांकि इस बीच यह सवाल जरूर उठ रहा है कि क्या इस मामले में कुछ करना इतना आसान काम है जो एक पत्र लिखने से पूरा हो जाएगा ? क्या देश की मौजूदा पुलिस -व्यवस्था में व्यापक सुधार किए बिना माफिया और सफेदपोश अपराधियों के खिलाफ कोई करगर कार्रवाई संभव है ? अनेक सफेदपोश अपराधी तो इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का लाभ उठा कर बडे़ -बड़े संवैधानिक पदों पर बैठ चुके हैं। उनके जायज -नाजायज हितों की रक्षा करना अनेक मुख्य मंत्रियों के राजनीतिक कर्म का एक हिस्सा सा बन चुका है। यानी, पुलिस सुधार तब तक नहीं होगा जब तक राजनीतिक सुधार नहीं होगा। इस देश के अधिकांश भूभाग में माफिया-अफसर-पुलिस -नेता गंठजोड़ का इतना कड़ा शिकंजा कस चुका है कि उसे तोड़ना काफी कठिन काम है। मौजूदा पुलिस ढांचे से तो इसे तोड़ना और भी कठिन है। क्योंकि पुलिस तो सत्ताधारी नेताओं के चेरी बना कर रख दी गई है। उत्तर प्रदेश के हाल के इंजीनियर मनोज गुप्त हत्याकांड में स्थानीय थानेदार की भूमिका इस बात की ताजा गवाह है। इस देश के अनेक राज्यों केे कुछ खास जिलों में ऐसे -ऐसे एस।पी. की पोस्टिंग होती है जो स्थानीय माफिया-सह सत्ताधारी नेता की ठीक- ठाक ‘सेवा’ करता रहे। क्या इस देश के कई मुख्य मंत्री माफियाओं के दबाव में उनके मनचाहे एसपी की पोस्टिंग कराना कभी बंद कर पाएंगे ?

वोहरा कमेटी का हश्र
सन् 1993 के भयानक मुम्बई विस्फोटों में दाउद इब्राहिम के नाम आने के बाद भारत सरकार ने तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव एनएन वोहरा के नेतृत्व में उसी साल की जुलाई में एक कमेटी का गठन किया था। उस कमेटी को माफिया-अपराध सिंडिकेट-अफसर-नेता गंठजोड़ के आरोप की जांच करनी थी। कमेटी की रपट में कई सनसनीखेज खुलासे हुए। उस पर केंद्र सरकार को कार्रवाई करनी थी।पर गत 15 साल में क्या हुआ ? इस बीच कई सरकारें आईं और गईं। एक बार फिर यह खबर आई कि गत नवंबर में हुए मुम्बई हमला कांड में शामिल आतंकियों को भी दाउद ने ही भारत पहुंचाने के लिए साधन मुहैया कराया था । एक बार फिर महाराष्ट्र के एक नेता ने गत माह यह आरोप लगाया कि अब भी कुछ भारतीय नेताओं का दाउद इब्राहिम से संपर्क बना हुआ है। ऐसे में चिदंबरम साहब के ताजा पत्र का क्या असर पड़ेगा, यह देखना दिलचस्प होगा। एनएसजी के एक पूर्व प्रमुख ने हाल में अपने अनुभवों के आधार पर बड़ी पीड़ा के साथ एक टीवी कार्यक्रम में कहा कि ‘भारत एक बहुत ही नरम राज्य है।’ यानी, वे यह कहना चाहते थे कि इस देश का भगवान ही मालिक है। इस देश में न तो फोर्स को पेशेवर ढंग से काम करने दिया जाता है और न ही उसे भरपूर साधन व जन बल उपलब्ध कराया जाता है। माफियाओं और आतंकियों के खिलाफ कड़े कानून बनाने में तो इस देश के अधिकतर नेताओं की नानी मरने लगती है। सवाल वोट बैंक का जो है !

सीधे प्रसारण का असर
भारतीय संसद के दोनों सदनों में शोरगुल और हंगामा बढ़ने के क्या- क्या कारण हैं ? कई कारण बताए जाते हैं। पर इसका एक बड़ा कारण सदन की कार्यवाही का टीवी पर सीधा प्रसारण है। संसद के कई समझदार लोगों की भी यही राय बनती जा रही है। जो सदस्य सदन की बैठकों में फिर से शालीनता व गंभीरता का युग वापस लाना चाहते हैं, वे कह रहे हैं कि सीधा प्रसारण अब बंद होना चाहिए। शायद कभी संसद की आचार समिति इस पर विचार भी करे और इसे बंद करने की अनुशंसा कर दे। याद रहे कि संसद में हाल में नोटों के बंडलों के प्रदर्शन के बाद तो लोकतंत्र के इस स्वरूप की और भी फजीहत हुई है। इस बीच बिहार विधान मंडल की बैठकों की कार्यवाही के सीधा प्रसारण की मांग बढ़ रही है। अच्छा होगा, बिहार में ऐसा कुछ शुरू करने से पहले भारतीय संसद के अनुभवों का अध्ययन कर लिया जाए।

और अंत में
किसी राज्य विधान सभा चुनाव में किसी दल की जीत होती है तो यह कहा जाता है कि यह तो सर्वोच्च नेता और दल की नीति की जीत है। और, जब हार होती है और सत्ता नहीं मिलती तो यह कहा जाता है कि दल की प्रादेशिक इकाई के नेताओं के आपसी झगड़े के कारण पार्टी हार गई।
प्रभात खबर (पांच जनवरी, 2009)

आय में बढ़ते फर्क के खतरे

ओएनजीसी यानी तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम के अफसरों की इस माह के प्रारंभ में तीन दिनों की हड़ताल हुई। इससे पूरे देश में आम लोगों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ा। अफसर अपने वेतन बढ़ाने के लिए हड़ताल पर थे। अब सवाल है कि उन्हें कितना वेतन मिलता है और वे उसमें कितनी वृद्धि की मंाग के लिए सरकार का भयादोहन कर रहे थे ? हड़ताली अफसरों के संघ के अध्यक्ष का मासिक वेतन हर माह एक लाख 29 हजार रुपए है। वे इसमें और वृद्धि के लिए हड़ताल पर चले गए थे। वे ओएनजीसी में अधीक्षण अभियंता हैं। संघ के उपाध्यक्ष का वेतन 99 हजार रुपए है। एक अन्य उपाध्यक्ष का वेतन एक लाख 26 हजार रुपए है। इसी तरह ओएनजीसी के अन्य अफसरों को भी भारी वेतन दिया जाता है। शुक्र है कि केंद्र सरकार ने कड़ा रुख अपनाया और हड़ताल समाप्त हो गई। गत 11 जनवरी को निगम ने अपने 64 हड़ताली अफसरों को सेवामुक्त कर दिया है।इस हड़ताल को उन कुछ नेताओं ने भी विवेकहीन हड़ताल बताया जो कामगारों के पक्ष में अक्सर उठ खड़े होते हैं। सवाल है कि इस गरीब देश के सरकारी कर्मियों को कितना वेतन मिलना चाहिए ? जाहिर है कि वेतन समितियां जो रकम तय करती हैं, उतनी रकम तो मिलनी ही चाहिए। पर क्या कुछ लोगों को उससे भी ज्यादा मिलना चाहिए ? अन्यथा वे देश का जरूरी काम काज भी ठप कर देंगे ? तेल का मामला तो देश की सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ है। इन दिनों देश पर कई तरह के बाहरी -भीतरी खतरे मौजूद हैं। उनकी हड़ताल न सिर्फ मौजूदा कानून बल्कि भारत के संविधान की मंशा के भी खिलाफ थी।संविधान में दर्ज राज्य के नीति निदेशक तत्वों में से एक महत्वपूर्ण तत्व का विवरण अनुच्छेद-39 (ग) में दिया गया है। उसके अनुसार, ‘राज्य अपनी नीति का, विष्टितया, इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रुप से आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन साधनों का सर्व साधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण नहीं हो।’ इस देश में 84 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनकी रोज की औसत आय मात्र बीस रुपए है। दरिद्र लोगों से भरे- पड़े ऐसे देश का कोई सरकारी अफसर कहे कि उसे हर माह मिलने वाले करीब सवा लाख रुपए से तो काम नहीं चलेगा,तो उसके साथ शासन का कैसा सलूक करना चाहिए ? वैसा ही जैसा शासन ने किया।पर, इस कड़े सलूक को नैतिक बल भी मिल जाता यदि खुद शासक वर्ग भी हर स्तर पर मितव्ययिता अपनाता और फिजूलखर्ची से बचता। गत साल यह खबर आई थी कि इस देश के एक सांसद पर सरकार हर माह औसतन दो लाख पैंतीस हजार रुपए खर्च करती है। जाहिर है कि सांसदी पूर्णकालिक काम नहीं है। एक सांसद के जिम्मे जितना भी काम है,उसे अधिकतर सांसद ठीक ढंग से नहीं कर रहे हैं। पिछले सत्र में आठ विधेयक सिर्फ सत्रह मिनट में पारित कर दिए गए। ओएनजीसी के अफसरों की यह शिकायत हो सकती है कि भारत सरकार के अधिकतर अफसर और मंत्री ओएनजीसी के साधनों का नाजायज तरीके से इस्तेमाल करते रहते हैं। सांसद जब चाहते हैं, अपना वेतन- भत्ता सदन में सर्वसम्मति से बढ़ा लेते हैं। पर इंजीनियरों व कामगारों के साथ ऐसी उदारता नहीं बरती जाती।ऐसा क्यों ? आजादी के तत्काल बाद जब मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के लिए वेतन तय हो रहा था तो तब के नेताओं ने इस बात को लेकर शिकायत नहीं की कि उनको आईएएस अफसरों से कम वेतन-भत्ते क्यों दिए जा रहे हैं। तब राजनीति सेवा थी, नौकरी या व्यापार नहीं। पर अब तो अफसरों को शिकायत है कि कुल मिलकर सांसदों -विधायकों पर उनकी अपेक्षा जनता के अधिक पैसे खर्च हो रहे हैं। क्या राजनीतिक वर्ग एक बार फिर अपनी नैतिक धाक कायम करने की दिशा में कुछ त्यागमय कदम उठाएगा ताकि ओएनजीसी के बर्खास्त अफसरों को कुछ कहने का मौका न मिले ? एक बात साफ -साफ समझ ली जानी चाहिए कि आय के बढ़ते अंतर के अपने भयंकर खतरे हैं। उन खतरों को सबसे अधिक नेताओं को ही झेलना पड़ेगा।
राष्ट्रीय सहारा (15 जनवरी, 2009)

भारत में सफल,पर चीन में क्यों विफल हुए यूरोपियन

अंग्रेज गवर्नर वारेन हेस्ंिटग्स (1772-1785) ने खुद ब्रितानी संसद में बड़े अभिमान के साथ यह कबूल किया था कि उसने किस तरह भारतीय शासकों के बीच फूट डाल कर राज किया। आज जब एक बार फिर इस देश में विभाजनकारी शक्तियां सिर उठा रही हंै, वारेन के इन शब्दों को याद करके उनसे कुछ सीख लेना जरूरी है, ‘ महान भारतीय संघ के एक सदस्य निजाम को ठीक मौके पर उसका कुछ इलाका वापस करके संघ से फोड़ा। दूसरे मूदाजी भोंसले के साथ मैंने गुप्त पत्र-व्यवहार जारी रखा और उसे अपना मित्र बना लिया। तीसरे माधो जी सिंधिया को दूसरे कामों में लगाकर और पत्र व्यवहार करके मैंने भुलाए रखा और सुलह के लिए बतौर अपने हथियार के उसका उपयोग किया।’

अंग्रेजों की इस फूट नीति और कूटनीति के बारे में सुंदर लाल ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ में विस्तार से लिखा है। सुंदर लाल ने लिखा कि ‘ वारेन हेस्टिंग्स के समय में हिंदुस्तान के अंदर ईस्ट इंडिया कम्पनी का इलाका नहीं बढ़ा। फिर भी वारेन का शासन काल ब्रिटिश भारत के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। क्लाइव ने इस देश के अंदर अंग्रेजी राज की जो बुनियाद डाली थी,वारेन ने भारत की राज शक्तियों को और अधिक कमजोर करके उन बुनियादों को पक्का कर दिया।’

 अंग्रेजों के आने से पहले मध्य युग में भी विदेशी हमलावरों ने हमारी आपसी फूट का भरपूर लाभ उठाया था। अंग्रेजों के जमाने में भी हमारे देशी शासकों ने इतिहास से नहीं सीखा। कम से कम आज तो हम पूरी तरह चेत जाएं, इसके लिए जरूरी है कि हम भूले-बिसरे प्रकरणों को याद करते रहेंं।

 वारेन हेस्टिंग्स कैसा शासक था, इसके बारे में खुद लार्ड मैकाले ने लिखा था,‘ वारेन हेस्टिंग्स ने भी चाहे ईमानदारी से हो चाहे बेईमानी से जिस तरह हो सके , भारत से धन बटोरने का निश्चय कर लिया। देश की स्थिति का उसे पूरा ज्ञान था और सूझ की भी कमी उसमें नहीं थी।’ अंग्रेजों ने इस देश के साथ क्या- क्या किया,उसकी एक झलक उस चर्चा से मिलती है जो ब्रिटिश संसद में हुई थी।

चर्चा सन् 1804 के दूसरे मराठा युद्ध के औचित्य को लेकर हुई थी। सर फिलीप फैं्रसिस ने संसद में कहा था कि ‘भारत के साथ हमारा संबंध कैसे शुरू हुआ, इसके बारे में मुझे आपको यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि शुरू में हमारा संबंध केवल तिजारत का था। देशी नरेशें ने भी हम पर संदेह नहीं किया, बल्कि हर तरह से हमारे साथ अनुग्रह का व्यवहार किया।

उन्होंने न केवल तिजारत करने और उससे खूब फायदा उठाने के लिए हमें हर तरह की सुविधा प्रदान की, बल्कि ऐसी -ऐसी रियायतें और माफियां भी हमें दे दीं जो उनकी अधिकांश प्रजा को भी प्राप्त न थीं।’ ‘ व्यापार की दृष्टि से विदेशी कौमों के साथ अपनी तिजारत को बढ़ने का मौका देना देशी नरेशों के लिए बुद्धिमता थी, किंतु जबकि उनकी तिजारती आंखें खुली हुई थीं, उनकी राजनीतिक आंखें बंद थीं। उन्होंने उन असूलों पर काम नहीं किया, जिन असूलों पर चीन वालों ने काम किया और जिनके कारण यूरोपियन कौमें चीन पर अपनी सत्ता जमाने में सफल न हो सकीं।’

 सर फिलिप फ्रैंसिस ने अपने भाषण में यह भी दिखलाया कि किस तरह अंग्रेज शासक भारतीय नरेशों के खासकर उस समय के सिंधिया के चरित्र पर बिलकुल झूठे दोष लगा कर उसे बदनाम करते थे और किस तरह के छलों द्वारा उन नरेशों की स्वाधीनता हरते थे। उन्होंने कहा था कि ‘पहले हमने तिजारत शुरू की, तिजारत से कोठियां हुईं, कोठियों से किलेबंदी , किलेबंदी से सेनाएं, सेनाओं से देश विजय और विजयों से हमारी आजकल की हालत।’ उनकी राय में भारत मंे इलाके के विजय करने और अपने राज्य को बढ़ाने की योजनाएं करना अंग्रेज कौम की इच्छा के विरूद्ध है।’

 एक अन्य अंग्रेज इतिहासकार ने ठीक ही लिखा है कि ‘हमलोगों में यह रिवाज है कि पहले किसी देशी नरेश का राज उससे छीन लेते हैं।फिर पदच्युत नरेश पर और उसके बनने वाले उत्तराधिकारी पर झूठे कलंक लगा कर उसे बदनाम करते हैं।’ इतने चतुर व घाघ अंग्रेज शासकों से लड़कर हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने भारी संघर्ष व बलिदान के बलकर हमें आजादी दिलाई है। पर आज इस कीमती आजादी को बचाए रखने के लिए हमें जो कुछ सावधानियां बरतनी चाहिए, वे सावधानियां क्या हम बरत रहे हैं ? आज राजनीतिक गुलामी की तो नहीं, पर इस देश पर आर्थिक गुलामी का खतरा तो बरकरार है ही। इतिहास से शिक्षा लेकर हम किसी नए खतरे से जरूर बच सकते हैं। इतिहास से शिक्षा तभी मिलेगी जब हम अपना सही -सही इतिहास पढ़ेंगे। पर इस देश के कई बुद्धिजीवियों और इतिहासज्ञों के साथ दिक्कत यह है कि वे हमें एक खास तरह का इतिहास ही पढ़ाना चाहते हैं।
प्रभात खबर (1 जनवरी, 2009)

स्वामी रामदेव और गंगा

गंगा नदी को साफ करने के लिए स्वामी रामदेव की गंभीर पहल स्तुत्य है। गंगा को उसकी पूरी लंबाई में साफ करके फिर से उसकी धारा को निर्मल व अविरल बनाने के लिए राम देव जी की कोशिश को देश भर के साधु संतों का समर्थन मिल रहा है।देश की शीर्ष धर्म सत्ता इस मुद्दे पर इन दिनों एक मंच पर है। स्वामी राम देव ने कहा है कि ‘हमारी मांग है कि केंद्र की सरकार गंगा को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करे और गंगा में गंदगी फैलाने वालों के खिलाफ संज्ञेय अपराध की धाराओं के तहत कार्रवाई हो। इस मांग के समर्थन में संतों ने अभियान शुरू भी कर दिया है।’ सवाल है कि चुनाव सर पर है। केंद्र की कथित धर्मनिरपेक्ष सरकार गंगा के लिए कुछ करने से पहले संभवतः इस बात का आकलन करेगी कि इससे उसके वोट बैंक पर तो कोई विपरीत असर तो नहीं पड़ेगा। यानी गंगा के लिए रामदेव जी की ‘लड़ाई’ लंबी होने वाली है। गंगा नदी की भी लम्बाई 2507 किलोमीटर है। संतों ने गंगा की पूरी लंबाई में जगह जगह शिविर लगाने का निर्णय किया है ताकि लोगों को ंगंगा की सफाई के प्रति जागरूक बनाया जा सके। गंंगा की सफाई का मसला देश के बिगड़ते पर्यावरण से भी जुड़ा हुआ है। पर संतों को इस मामले में एक और तरह से इस दिशा में पहल करनी चाहिए।जो नगर और महा नगर गंगा के किनारे बसे हुए हैं, उनकी नालियों और नालों के जरिए अत्यंत ही प्रदूषित जल सीधे गंगा में बहाया जा रहा है।पटना में ऐसे 29 नाले हैं जो गंगा को रोज- रोज प्रदूषित कर रहे हैं। बाबा राम देव तथा इस देश के कई अन्य संतों के पास इन दिनों काफी पैसे हैं।यदि ये संत अपने कुछ पैसे खर्च करके जहां तहां कुछ ही संख्या में वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगवा देते तो संबंधित सरकारों को थोड़ी शर्म आती। इससे इन संत लोगों को सरकारों से ऐसी ही मांग करने का कुछ और नैतिक अधिकार मिल जाता।एक बात और है। संबंधित सरकार के सहयोग से स्वामी राम देव या कोई अन्य संत कहीं वाटर ट्रीटमेंठ प्लांट लगाएंगे तो उस प्लांट की गुणवत्ता भी बेहतर होगी ।क्या राम देव जी को तुलसी दास की वह बात याद हैजिसमें उन्होंने कहा था,‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरही ते नर न घनेरे ।’राम देव जी महाराज जब मंच पर बैठ कर खुद आसन-प्राणयाम करके लोगों को सिखाते हैं तभी लोगांे ंपर उसका भारी असर होता है।

जामिया मिलिया की छवि दांव पर
दिल्ली में आतंकी गतिविधि में शामिल आरोपितों को जामिया मिलिया के वी।सी.मुशीरूल हसन ने जामिया मिलिया के खर्चे पर कानूनी सहायता देने का निर्णय किया है। भारत में हो रही आतंकवादी घटनाओं के बारे में मुशीरूल साहब क्या सोचते हैं,यह बात खुद उन्होंने गत 22 सितंबर 2008 को सार्वजनिक रूप से बताई है। उन्होंने एन.डी.टी.वी. के कार्यक्रम में कहा कि ऐसी आतंकवादी घटनाएं इसलिए हो रही हैं क्योंकि भारत का मुस्लिम समुदाय यहां खुद को अलग थलग महसूस कर रहा है।उन्होंने सच्चर कमेटी की रपट का जिक्र करते हुए कहा कि मसलमानों की आर्थिक दशा काफी खराब है। मुशीरूल हसन के इस तर्क से यह बात स्पष्ट होती है कि आतंकवादी गतिविधियों में शामिल आरोपित ‘अलग-थलग पड़े’ मुस्लिम समुदाय की ओर से हिंसक लड़ाई लड़ रहे हैं।जबकि इस देश में आतंकी कार्रवाइयों में लिप्त सिमी और इंडियन मुजाहिदीन के जेहादी बार बार लिख लिख कर और बयान दे देकर यह खुलेआम कह रहे हैं कि वे भारत में इस्लामी शासन कायम करने के लिए लड़ रहे हैं। वे खलीफा का राज चाहते हैं। अब इन बातों का यहां अधिक व्याख्या करना जरूरी नहीं है। पाठक खुद समझ लें कि अंततः कौन क्या चाहता है। हा, एक सवाल मुशीरूल हसन से पूछा जा सकता है।वह यह कि वे जिन आतंकवादियों को कानूनी सहायता दे रहे हैं, वे यदि अदालत से दोषी करार दे दिए गए तो फिर जामिया मिलिया की पूरी दुनिया में कैसी छवि बनेगी ? क्या उसकी वह छवि बनी रह पाएगी जैसी छवि की कल्पना उसके कभी के उसके एक कुलपति जाकिर हुसेन ने की थी ?

नक्सली और इंडियन मुजाहिदीन
दिल्ली के जामिया नगर में हुई आतंकी-पुलिस मुंठभेड़ के बाद कुछ लोगों के द्वारा नक्सलियों से इन आतंकियों की तुलना की जाने लगी है।कहा जा रहा है कि नक्सली भी तो समाज की मुख्य धारा से अलग- थलग पड़े मुख्यतः दलितों और आदिवासियों को गोलबंद करके उनके लिए हथियारबंद लड़ाई लड़ रहे हैं ! पर यह तुलना गलत है। इंडियन मुजाहिदीनों और नक्सलियों के चरित्र में मूल अंतर हैं।नक्सलियों ने न सिर्फ दलित-आदिवासी के लिए, बल्कि समाज के करीब अस्सी प्रतिशत गरीब लोगों के लिए लड़ाई शुरू की है।वे इस देश पर सर्वहारा का शासन चाहते हैं। इस देश में अस्सी प्रतिशत सर्वहारा हैं जिनकी रोज की औसत आय मात्र बीस रुपए है। यानी वे बहुमत का शासन चाहते हैं।पर इंडियन मुजाहिदीन कुरान के उपदेशों के आधार पर अल्पसंख्यक का बहुमत पर शासन कायम करना चाहते हैं जैसा कि मध्य युग में यहां था।यह बात उनके साहित्य और बयानों में है जिसे मुशीरूल हसन जैसे बुद्धिजीवी जानबूझकर या अनजाने में नजरअंदाज कर रहे हैं।हालांकि यहां नक्सलियों के तरीके का समर्थन नहीं किया जा रहा है।एक बात और याद रखने की है।जब नक्सलियों की धरपकड़ के सिलसिले में उनके छिपे हुए स्थानों में पुलिस या अर्ध सैनिक बल धावा बोलते हैं और मुंठभेड़ें होती हैं और कुछ निर्दोष लोगों को भी क्षति पहुंचती है,तो उन स्थानों और उसके आसपास के लोगों की वैसी ही प्रतिक्रिया नहीं होती जैसी प्रतिक्रिया इन दिनों जामिया नगर और आसपास के कुछ लोगों की हो रही है।

दिन में कहीं, रात में कहीं और
राजनीति में भीतरघाती पहले भी हुआ करते थे,पर अब उनकी संख्या काफी बढ़ गई है। राजनीति में पैसे का बोलबाला बढ़ने और किसी तरह के आदर्श के लोप होतेे जाने के कारण ऐसा हुआ है। बिहार में किस दल का कौन नेता दिन में कहां है और रात में कहां रहता है, इसका पता ही नहीं चल रहा है। अपने दलीय सुप्रीमो से विश्वासघात करने वालों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। कुछ सुप्रामों भी परेशान हैं।पर उन्होंने भी जब मौका आया था तो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए अपने कैरियर निर्माताओं के साथ इसी तरह विश्वासघात किया था। छोटे नेता अपने बड़े नेताओं को अब उसी लहजे में जवाब दे रहे हैं।कहते हैं कि एक गति से चलना गधे का गुण होता हे। होशियार व्यक्ति तो जिस सीढ़ी के जरिए छत पर चढ़ता उस सीढ़ी को ढोए नहीं फिरता। यह बात और है कि जब वह छत से गिरता है तो उसे चोट बहुत लगती है। यह हर पेशे में है।पर राजनीति जबसे सेवा के बदले पेशा हो गई है, तब से इसमें यह अधिक है। हालांकि आज भी राजनीति में कई अच्छे लोग भी हैं। अगले लोक सभा चुनाव में बिहार का कौन सा नेता कहां से लड़ेगा, यह ठीक नहीं है। इस आशंका में टिकटार्थियों द्वारा लाॅयल्टी बदलने की प्रक्रिया तेज है। कोसी प्रलय को लेकर नेताओं और दलों के बीच आरोप प्रत्यारोप का जो दौर चल रहा है उसमें तो कई नेता अपने ही सुप्रीमो के खिलाफ उनके राजनीतिक विरोधियों को दबे छिपे सूचना, ‘मसाला’ व तर्कों से लैस कर रहे हैं।
तापमान (अक्टूबर, 2008)