बुधवार, 30 जनवरी 2019



ज्योतिषी नवीन खन्ना ने 2004 में भविष्यवाणी की थी कि 47 साल की उम्र में प्रियंका गांधी प्रधान मंत्री बनेंगी।
जब प्रियंका को ठीक 47 साल की उम्र में कांग्रेस का महा सचिव बनाया गया तो उस खन्ना की भविष्यवाणी याद आई।
याद रहे कि खन्ना ने नरेंद्र मोदी के उत्थान की भविष्यवाणी 2009 में ही कर दी थी।
  क्या यह मात्र संयोग है कि कुछ ही महीने बाद लोक सभा का चुनाव होने वाला है ? या कुछ और बात है ?
याद रहे कि तमिलनाडु के ज्योतिषी यागवा ने तो 1993 में ही यह भविष्यवाणी कर दी थी कि प्रियंका गांधी प्रधान मंत्री बनेगी।वह खबर 18 नवंबर 1993 के अखबार में छपी थी।
वैसे पिछले अनुभव बताते हैं कि आम तौर पर ज्योतिषियों की भविष्यवाणियां सही साबित नहीं होतीं।
पर कुछ की भविष्यवाणियां सही भी साबित हो जाती हैं।क्या नवीन खन्ना उन्हीें थोड़े से ज्योतिषियों में एक हैं ?
15 मार्च 2004 के इंडिया टूडे में  प्रकाशित नवीन खन्ना की भविष्यवाण्यिों में यह भी कहा गया था कि सोनिया गांधी कभी प्रधान मंत्री नहीं बनेंगी,बल्कि पी.वी.नरसिंह राव मंत्रिमंडल में रहा व्यक्ति प्रधान मंत्री होगा।
यह बात तब सही साबित हो गयी  जब मन मोहन सिंह 2004 में प्रधान मंत्री बने।
हालांकि पत्रिका के उसी अंक में छपी नवीन खन्ना की कुछ अन्य भविष्यवाणियां सही साबित नहीं हुईं।
मई, 2009 में ही नवीन खन्ना ने यह भविष्यवाणी कर दी थी कि 2012 में गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी का उत्थान होगा।@टाइम्स आॅफ इंडिया-11 मई 2009@
यह सच साबित हुआ।
 बोफर्स तोप सौदा घोटाला विवाद की पृष्ठभूमि में सन 1989 में लोक सभा चुनाव हुआ था।तब राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे।
चुनाव से ठीक पहले देश के दस प्रमुख ज्योतिषियों की भविष्यवाण्यिां ‘इलेस्टेटेेड वीकली आॅफ इंडिया’ ने छापी थी।
दस में से सिर्फ एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि वी.पी.सिंह प्रधान मंत्री बनेंगे।
अन्य नौ ज्योतिषी राजीव गांधी के दुबारा सत्ता में आने की भविष्यवाणी कर रहे थे।
याद रहे कि चुनाव के बाद वी.पी.सिंह प्रधान मंत्री बने थे।
 तब इन ज्योतिषियों के विपरीत अधिकतर चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में कांग्रेस की हार का अनुमान लगाया गया था।
  यानी, ओपिनियन पोल के काम में लगे लोगों का पूर्वानुमान 
ज्योषियों की अपेक्षा अधिक सटीक होता रहा है।
फिर भी अधिकतर छोटे -बड़े नेतागण चुनाव से ठीक पहले ज्योतिषियों के यहां चक्कर लगाने लगते हैं।
  आम लोगों में भी ज्योतिषियों के प्रति आकर्षण देखा जाता है।ऐसे में जब किसी ज्योतिषी की कोई एक भविष्यवाणी भी सही हो जाती है तो उसकी ओर लोगों की उत्सुकता भी काफी बढ जा़ती है।
 याद रहे कि नरेंद्र मोदी और मनमोहन सिंह के बारे में नवीन खन्ना की भविष्यवाणी सही साबित हो चुकी है।
 अब जरा कुछ दूसरे ज्योतिषियों द्वारा  2004 में की गई भविष्यवाणियों पर भी गौर कर लें।
दिल्ली के मशहूर ज्योतिषी  एल.डी.मदान ने 2004 के चुनाव से पहले यह भविष्यवाणी की थी कि अटल बिहारी वाजपेयी फिर प्रधान मंत्री बनेंगे।पर वे नहीं बने।
 यानी मदान जी गलत साबित हुए।
मुम्बई की ज्योतिषी वसुधा वाघ ने कहा कि 2004 के लोक सभा चुनाव के बाद कांग्रेस के समर्थन से तीसरे मोर्चे की सरकार बनेगी।
पर कांग्रेस के मन मोहन सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी।यानी वाघ की भविष्यवाणी आंशिक रूप से ही सही साबित हुई।
कोलकाता की ज्योतिषी कुसुम भंडारी की सिर्फ यह भविष्यवाणी सही साबित हुई कि चंद्र बाबू नायडु के दुबारा सत्ता में आने की संभावना नहीं है।उनकी बाकी अधिकतर भविष्यवाणियां गलत साबित हुईं।
बंगलूर की ज्योतिषी गायत्री देवी वासुदेव की यह भविष्यवाणी सही साबित हुई कि ‘चूंकि भाजपा अष्टम शनि में है, इसलिए पार्टी एक महत्वपूर्ण शक्ति गंवा देगी।’
याद रहे कि अटल सरकार 2004 में सत्ता गंगवा बैठी।
पेनामल संजीवन नेहरू नामक ज्योतिषी ने तो 2004 में यह हास्यास्पद भविष्यवाणी कर दी थी कि ‘भाजपा अध्यक्ष एम.वेंकैया नायडु प्रधान मंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी की जगह लेंगे।’
उन्हीं दिनों तंत्र विद्या की अध्येता मां प्रेम उषा ने भविष्यवाणी की थी कि अटल बिहारी वाजपेयी दोबारा प्रधान मंत्री बनेंगे और उनकी सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी।’
पर ऐसा नहीं हो सका।
यानी मां प्रेम उषा की तंत्र विद्या ने उनका साथ नहीं दिया।
अहमदाबाद के ज्योतिषी सनत कुमार दयाशंकर शास्त्री ने कहा था कि ‘अगले साल जुलाई या अगस्त में अटल बिहारी वाजपेयी लालकृष्ण आडवाणी के लिए रास्ता बनाएंगे और आडवाणी को जबरदस्त राजनीतिक शक्ति मिलेगी।’
यह भी न हो सका।
अब जरा 2013 की कुछ भविष्यवाणियों पर नजर डालें।
नवंबर, 2013 में पंडित देवेंद्र भट्ट ने कहा कि ‘आगामी चुनाव के बाद देश को अस्थिर सरकार मिलेगी।’
पर ऐसा नहीं हुआ।यानी भट्ट साहब फेल हुए।
पर, बेजान दारूवाला ने कहा कि मेरे ज्योतिषी पुत्र नस्तूर दारूवाला का दृढ विश्वास है कि ‘भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ही होंगे।’यानी दारूवाला पास हुए।
अब सवाल है कि ज्योतिष विद्या और तंत्रशास्त्र पर कितना विश्वास किया जाए ?
क्या यह किसी अंधे द्वारा तीर चलाए जाने जैसी बात है।पता नहीं।पर मेरा अपना अनुभव यह है कि नाड़ी ज्योतिषी अपेक्षाकृत  कुछ अधिक सटीक  भविष्यवाणियां करते हैं।
 @फस्र्टपोस्ट हिन्दी में प्रकाशित@


सुदर्शन के नाम से था रिजर्वेशन ,पटना स्टेशन पर लुंगी और लाल गमछे में पहुंचे थे जार्ज--सुरेंद्र किशोर


सन 1977 में मुजफ्फर पुर से सांसद बनने से पहले से ही जार्ज फर्नांडिस का बिहार से विशेष लगाव था।
इसके कई कारण थे।
वे सोशलिस्ट पार्टी के साथ -साथ  आॅल इंडिया रेलवेमेन्स फेडरेशन के भी अध्यक्ष थे।
 बिहार और उत्तर प्रदेश में समाजवादियों का पहले से ही जनाधार रहा ।इस कारण भी जार्ज की यहां सक्रियता थी।
जार्ज फर्नांडिस नई दिल्ली से प्रकाशित चर्चित  साप्ताहिक पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ के प्रधान संपादक थे जो बिहार में भी खूब पढ़ा जाता था।
 प्रतिपक्ष को आप ‘दिनमान’ और ‘ब्लिट्ज’ का मिश्रण कह सकते हैं। वह पार्टी का पत्र नहीं था भले जार्ज उसके प्रधान संपादक थे।वह पत्रिका गैर समाजवादी बुद्धिजीवियों में भी प्रचलित थी।
 उस पत्रिका के सिलसिले में जार्ज फर्नांडिस से मेरी मुलाकात 1972 में राजनीति प्रसाद ने कराई थी।
राजनीति ने उनसे कहा कि सुरेंदर  अच्छा लिखता है,आप इसे संवाददाता रख लीजिए।उन्होंने रख लिया।
  तब से 1977 तक मैंने जार्ज के बिहार से लगाव को करीब से  देखा।बाद में तो मैं मुख्य धारा की पत्रकारिता में आ गया और जार्ज से भी वैसा ही संबंध रह गया  जैसा एक पत्रकार का एक नेता से रहता है।
खैर, आपातकाल के भूमिगत आंदोलन में जार्ज के निदेश पर बिहार में बहुत जोरदार काम हुए थे।डा.विनयन और उनके साथियों ने उसे अंजाम दिया था।
1977 में जब लोक सभा चुनाव की घोषणा हुई तो उस समय जार्ज तिहाड़ जेल में थे।
उनके दो दर्जन साथियों के साथ उन पर बड़ौदा डायनामाइट षड्यंत्र केस के सिलसिले में देशद्रोह का मुकदमा चल रहा था।
उन्होंने जेल से ही नामांकन पत्र भरा और वे भारी मतों से जीते।
1980 तथा बाद में भी बिहार से सांसद बनते रहे।
   जब 25 जून, 1975 को जब देश में आपातकाल लगा तो उस समय जार्ज फर्नांडीस ओडिशा में थे। अपनी पोशाक बदल कर 5 जुलाई में जार्ज  पटना आये और तत्कालीन समाजवादी विधान पार्षद रेवतीकांत सिंहा के पटना के आर.ब्लाक स्थित सरकारी आवास में टिके ।
  बिहार के कई समाजवादी नेता उनसे मिले।
उनके पटना छोड़ते समय की कहानी सनसनीखेज किंतु रोचक है।याद रहे कि पुलिस उन्हें बेचैनी से खोज रही थी और वे भूमिगत हो गए थे।
उससे पहले जार्ज  देशव्यापी  रेलवे हड़ताल के जरिए केंद्र सरकार की नींद उड़ा चुके थे,इसलिए भी जार्ज पर सरकार की विशेष नजर थी।उसे लगता था कि जार्ज कोई गड़बड़ न कर दे।
शाम की गाड़ी से जार्ज को पटना से इलाहाबाद जाना था।
रेलवे यूनियन के स्थानीय नेता गण उनकी मदद में तैनात थे।
सुदर्शन नाम से ऊपरी बर्थ पर रिजर्वेशन हुआ।
 मैंने जार्ज को पटना स्टेशन जंक्शन पहुंचाया।
जार्ज लुंगी और खादी का कुत्र्ता पहने थे और लाल गमछा लिए हुए थे।
हाथ में जूट का थैला था जिसमें कागज थे।
स्टेशन पहुंच कर जार्ज प्लेटफाॅर्म की फर्श पर बैठ गए।बेंच पर नहीं बैठे।वे दिखाना चाहते थे कि वे कोर्ट- कचहरी के काम से पटना आए किसान थे।
  स्टेशन में जब गाड़ी प्रवेश कर रही थी तब अचानक पूरे स्टेशन की बिजली काट दी गयी।
अंधेरे में ही जार्ज ट्रेन में सवार हुए।ऊपर की अपनी सीट पर जाकर लेट गए।उन्होंने मुझसे कहा कि ‘मुझे उतरने की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि मैं छह -सात घंटे तक पेशाब रोक सकता हूं।ंं’
उतरने पर पहचान लिए जाने का खतरा जो था।जब गाड़ी खुलकर आगे बढ़ गई तभी स्टेशन की बिजली आॅन की गयी।बाद में  रेलवे यूनियन के एक नेता ने बताया कि यह पहले से तय था।
  खैर जार्ज जनता पार्टी से होते हुए जनता पार्टी एस ,जनता दल और समता पार्टी में रहे।
 समता पार्टी के प्रारंभिक दिनों में इसे खड़ा करने में नीतीश कुमार के साथ -साथ जार्ज की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी।
 जार्ज ने केंद्रीय मंत्री रहते हुए अन्य स्थानों के साथ- साथ अपने चुनाव क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण कार्य करवाए।
जार्ज तो राष्ट्रीय नेता थे,पर बिहार में भी उन्होंने अपने समर्थकों और साथियों को एक  बड़ा समूह  तैयार किया था।उनमें सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वे अपने समर्थकों की बातें ध्यान से सुनते थे।इससे कार्यकत्र्ताओं को संतोष मिलता था।
@--प्रभात खबर -बिहार संस्करण-30 जनवरी 2019@

जॉर्ज फर्नांडिस : जान हथेली पर लेकर इमरजेंसी का मुकाबला किया था


इमरजेंसी में ‘न्यूजविक’ ने भारत पर एक स्टोरी की थी। उस स्टोरी के साथ जयप्रकाश नारायण और जॉर्ज फर्नांडिस की तस्वीरें थीं। पत्रिका के अनुसार भारत में दो तरह से आपातकाल के खिलाफ संघर्ष हो रहा है। जेपी का अहिंसक तरीका है और जॉर्ज फर्नांडिस का डाइनामाइटी।

शब्द भले डायनामाइटी न था, पर आशय गैर अहिंसक होने का था। जेपी, जॉर्ज के तरीके से असहमत थे। आपातकाल में जॉर्ज और उनके साथियों पर बड़ौदा डायनामाइट षड्यंत्र केस चला।
जेल में उन्हें व उनके साथियों को यातनाएं दी गयी थीं। मुकदमा तब उठा जब 1977 में मोरारजी की सरकार बनी।

25 जून, 1975 को जब देश में आपातकाल लगा तो उस समय जॉर्ज फर्नांडीस ओडिशा में थे। अपनी पोशाक बदलकर 5 जुलाई को जॉर्ज पटना आये और तत्कालीन समाजवादी विधान पार्षद रेवतीकांत सिन्हा के पटना के आर. ब्लॉक स्थित सरकारी आवास में टिके।


इन पंक्तियों का लेखक भी उनसे मिला जो उन दिनों जॉर्ज द्वारा संपादित चर्चित साप्ताहिक पत्रिका 
‘प्रतिपक्ष’ का बिहार संवाददाता था। जॉर्ज दो—तीन दिन पटना रहकर इलाहाबाद चले गये।

बाद में उन्होंने मध्य प्रदेश के प्रमुख समाजवादी नेता लाड़ली मोहन निगम को इस संदेश के साथ पटना भेजा कि वे मुझे और शिवानंद तिवारी को जल्द विमान से बंगलुरू लेकर आयें। शिवानंद जी तो उपलब्ध नहीं हुए। पर मैं निगम जी के साथ मुम्बई होते हुए बंगलुरू पहुंचा। वहां जॉर्ज के साथ तय योजना के अनुसार रामबहादुर सिंह, शिवानंद तिवारी, विनोदानंद सिंह, राम अवधेश सिंह और डॉ. विनयन को लेकर मुझे कोलकाता पहुंचना था।

पटना लौटने पर मैंने उपर्युक्त नेताओं की तलाश की। पर इनमें से कुछ जेल जा चुके थे या फिर गहरे भूमिगत हो चुके थे। सिर्फ डॉ. विनयन उपलब्ध थे। उनके साथ मैं धनबाद गया।

याद रहे कि आपातकाल में कांग्रेस विरोधी राजनीतिक नेताओं-कार्यकर्ताओं पर सरकार भारी आतंक ढा रही थी। राजनीतिककर्मियों के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाना तक कठिन था।भूमिगत जीवन जेल जीवन की अपेक्षा अधिक कष्टप्रद था।

धनबाद में समाजवादी लाल साहेब सिंह से पता चला कि राम अवधेश तो कोलकाता में ही हैं तो फिर हम कोलकाता गये। वहां जॉर्ज से हमारी मुलाकात हुई। पर वह मुलाकात सनसनीखेज थी।

जॉर्ज ने दक्षिण भारत के ही एक गैरराजनीतिक व्यक्ति का पता दिया था। उस व्यक्ति का नाम तीन अक्षरों का था। जॉर्ज ने कहा था कि इन तीन अक्षरों को कागज के तीन टुकड़ों पर अलग -अलग लिखकर तीन पाॅकेट में रख लीजिए ताकि गिरफ्तार होने की स्थिति में पुलिस को यह पता नहीं चल सके कि किससे मिलने कहां जा रहे हो। यही किया गया। पार्क स्ट्रीट के एक बंगले में मुलाकात हुई। दक्षिण भारतीय सज्जन ने कह दिया था कि बंगले के मालिक के कमरे में जब भी बैठिए, उनसे हिन्दी में बात नहीं कीजिए। अन्यथा उन्हें शक हो जाएगा कि आप मेरे अतिथि हैं भी या नहीं।


मनमोहन रेड्डी नामक उस दक्षिण भारतीय सज्जन ने हमें जॉर्ज से मुलाकात करा दी। हम एक बड़े चर्च के अहाते में गये। जॉर्ज उस समय पादरी की पोशाक में थे। उनकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी। चश्मा बदला हुआ था और हाथ में एक विदेशी लेखक की मोटी अंग्रेजी किताब थी। जॉर्ज,  विनयन और मुझसे देर तक बातचीत करते रहे। फिर हम राम अवधेश की तलाश में उल्टा डांगा मुहल्ले की ओर चल दिये। वहीं की एक झोपड़ी में हम टिके भी थे। फुटपाथ पर स्थित नल पर नहाते थे और बगल की जलेबी-चाय दुकान में खाते-पीते थे।

उल्टा डांगा का वह पूरा इलाका बिहार के लोगों से भरा हुआ था। जॉर्ज के साथ टैक्सी में हमलोग वहां पहुंचे थे। मैंने जॉर्ज को उस चाय की दुकान पर ही छोड़ दिया और राम अवधेश की तलाश में उस झोपड़ी की ओर बढ़े। पर पता चला कि राम अवधेश जी भूमिगत कर्पूरी ठाकुर के साथ कोलकाता में ही कहीं और हैं।

चाय की दुकान पर बैठे जॉर्ज ने इस बीच चाय पी थी। जब हम लौटे और जॉर्ज चाय का पैसा देने लगे तो दुकानदार उनके सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। उसने कहा, ‘हुजूर हम आपसे पैसा नहीं लेंगे।’ इस पर जॉर्ज थोड़ा घबरा गये। उन्हें लग गया कि वे पहचान लिये गये। अब गिरफ्तारी में देर नहीं होगी। जॉर्ज को परेशान देखकर मैं भी पहले तो घबराया, पर मुझे बात समझने में देर नहीं लगी। मैंने कहा कि जॉर्ज साहब, चलिए मैं इन्हें बाद में पैसे दे दूंगा। मैं यहीं टिका हुआ हूं।

फिर अत्यंत तेजी से हम टैक्सी की ओर बढ़े जो दूर हमारा इंतजार कर रही थी। फिर हमें बीच कहीं छोड़ते हुए अगली मुलाकात का वादा करके जॉर्ज कहीं और चले गये।

आपातकाल में जॉर्ज और उनके साथियों पर बड़ौदा डायनामाइट षडयंत्र केस को लेकर मुकदमा चला। सी.बी.आई. का आरोप था कि पटना में जुलाई 1975 मेें जॉर्ज फर्नाडीस, रेवतीकांत सिंह, महेंद्र नारायण वाजपेयी और इन पंक्तियों के लेखक यानी चार लोगों ने मिलकर एक राष्ट्रद्रोही षड्यंत्र किया। षड्यंत्र यह रचा गया कि डायनामाइट से देश के महत्वपूर्ण संस्थानों को उड़ा देना है और देश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर देनी है।

सन 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार बनने पर यह केस उठा लिया गया।  

@--फस्र्टपोस्टहिन्दी-29 जनवरी 2019@



      

इमरजेंसी विरोधी चेहरा -सुरेंद्र किशोर


 जार्ज फर्नांडिस का सर्वाधिक चमकीला चेहरा आपातकाल में ही उभर कर सामने आया था।तब  वे अपनी जान हथेली पर लेकर  तानाशाही से लड़ रहे थे।यदि आपातकाल नहीं हटता तो राष्ट्रद्रोह के आरोप में उन्हें फांसी की भी सजा हो सकती थी।ऐसा ही मुकदमा हुआ था उनपर।
उनके द्वारा तैयार एक अंडरग्राउंड बुलेटिन के यह  अंश का आज पढ़ना दिलचस्प होगा।
 ‘जब 26 जून 1975 को मैडम ने तानाशाही अख्तियार की,  
तब उनके सेंसर कानूनों ने कुछ ऐसा चमत्कार किया ,जो बड़े से बड़े भारत विरोधी अंग्रेज शासक ने ब्रिटिश राज के दिनों में करने का साहस नहीं किया था।
नागरिक स्वाधीनता पर ,प्रेस की स्वतंत्रता पर फासिज्म पर नेहरू जी ने जो कहा था,उस पर तो प्रतिबंध लग ही गया,महात्मा गांधी के कथनों पर भी रोक लग गयी।
हालांकि इन दोनों को अंग्रेजों ने गिरफ्तार किया था,पर उनके विचारों पर रोक कभी नहीं लगाई थी।
पर एक व्यक्ति था जिसे न उन्होंने कभी गिरफ्तार किया ,न उसके शब्दों पर रोक लगाई ।वे थे गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर।
गुरुदेव ठाकुर को अपनी मृत्यु के बाद 35 साल तक प्रतीक्षा करनी पड़ी ,जब मैडम यानी इंदिरा गांधी ने 26 जून को उनकी पंक्तियों पर भी सेंसर लगा दिया।
गीतांजलि में उन्होंने लिखा था,
‘जहां ज्ञान मुक्त है,
जहां शब्द सत्य की गहराई से आते हैं
...................................
उस स्वाधीनता के दिव्यलोक में ,
मेरे प्रभु मेरा यह देश जागे !’ 
जार्ज फर्नांडिस की इस मनःस्थिति को समझते हुए आपातकाल में उनकी भूमिका को समझा जा सकता है जो  उन्होंने आपातकाल में अपनी जान हथेली पर रखकर अपनाई थी।
 उन पर और उनके करीब दो दर्जन साथियों पर बड़ौदा डाइनामाइट षड्यंत्र मुकदमा चला था।
यह देशद्रोह का मुकदमा था जिसके तहत यह आरोप लगा था कि वे हथियार के बल पर राज सत्ता पलटना चाहते थे।
पूछताछ के दौरान इन्हें प्रताडि़त किया गया।कुछ खास बातें सी.बी.आई.जार्ज से कहलवाना चाहती थी।
पर जार्ज ने साफ मना कर दिया।हिरासत में रात-रात  भर उन्हें तेज रोशनी में रखा जाता  था ताकि वे सो भी न सकें।
 पर,जार्ज ने सी.बी.आई. से कह दिया था कि चाहे मार दो,पर मैं नहीं बताऊंगा कि क्या किया।यह बात मुझे जार्ज ने बाद में बताई थी।
जार्ज फर्नांडिस तो सिर्फ शांत तालाब में कंकड़ फेंक कर हलचल पैदा करना चाहते थे जिस तरह भगत सिंह ने सेंट्रल एसेंबली में बम फेंका था-बहरी सरकार  को सुनाने के लिए।
  दरअसल जून 1975 में एक लाख से भी अधिक नेताओं -कार्यकत्र्ताओं की गिरफ्तारी व सारी प्रतिपक्षी राजनीतिक गतिविधियों पर कठोर प्रतिबंध के बाद देश में प्रतिपक्षी राजनीति की दृष्टि से श्मशान की शांति छा गयी थी।अखबारों पर लगे कठोर सेंसरशिप ने वातावरण को और भी दम घोटूं बना दिया था।
बंबई के मजदूर नेता के रूप में भी जार्ज फर्नांडिस का जीवन भी जुझारू व उथल पुथल वाला रहा था।पर आपातकाल की तो बात ही कुछ और थी।
सन 1963 में जार्ज का नाम पूरे देश में गूंजा था जब वे पूरी 
बंबई बंद कराने में सफल रहे थे।
बसों,टैक्सियों व नगर निगम के कर्मचारियों में उनकी मजबूत यूनियन थी।
सन 1967 में तो उन्होंने मुम्बई के बेताज बादशाह व तत्कालीन केंद्रीय मंत्री एस.के.पाटील को लोक सभा चुनाव में पराजित कर दिया था।
इस कारण वे जाइंट कीलर कहलाए थे।
 जब 1975 में आपात काल लगा तो जार्ज का और भी क्रांतिकारी स्वरूप सामने आया।
25 जून को वे ओडिशा में थे।ओडि़शा में उनकी पत्नी लैला कबीर की ननिहाल है।
आपातकाल लगते ही उन्होंने तय किया कि वे गिरफ्तारी नही देंगे।वे  भूमिगत होकर संघर्ष करेंगे।
लंबी व थकाऊ बस यात्रा करके वे ओडि़शा से कोलकाता पहुंचे।
वहां उन्होंने  समाजवादी साथी व नेता विद्या बाबू से मुलाकात की ।उनसे कुछ पैसे लिए और टैक्सी से पटना रवाना हो गए।
कुुछ दूर तक तो टैक्सी ड्रायवर ने गाड़ी चलाई।पर जब वह आगे बढ़ने को तैयार नहीं हुआ तो आधे रास्ते से जार्ज खुद टैक्सी ड्राइव कर पटना पहुंचे।
पटना में दो तीन दिन रुक कर साथियों को गोलबंद किया।
 फिर तो व देश भर घूमते रहे।आपातकाल विरोधी गतिविधियां देश भर में चलाते रहे।
 वे निश्चिंत तभी हुए जब 1977 के चुनाव के बाद देश में मोरारजी देसाई की सरकार बनी।उन्होंने पहले संचार मंत्री और बाद में उद्योग मंत्री की जिम्मेदारी संभाली।वे मोरारजी के करीबी भी थे।
जार्ज के अंडरग्राउंड जीवन के दो प्रकरण पढ़ना रोमांचकारी होगा जिसका मैं गवाह व सहभागी रहा।
   आपातकाल में हम भूमिगत साथी जार्ज से मिलने कोलकाता गए थे।
उल्टा डांगा में एक चाय दुकान पर बिठाकर हम बगल की झोपड़ी में एक अन्य साथी को खोजने निकले।दुकान पर बैठे जार्ज ने इस बीच चाय पी थी।
जब हम लौटे और जार्ज चाय का पैसा देने लगे तो दुकानदार उनके सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया।उसने  कहा, ‘हुजूर हम आपसे पैसा नहीं लेंगे।’ इस पर जार्ज थोड़ा घबरा गये।उन्हें लग गया कि वे पहचान लिये गये।अब गिरफ्तारी में देर नहीं होगी।जार्ज को परेशान देखकर मैं भी पहले तो घबराया,पर मुझे बात समझने में देर नहीं लगी।मैंने कहा कि जार्ज साहब,चलिए मैं इन्हें बाद में पैसे दे दूंगा।मैं यहीं पास की झोपड़ी में टिका हुआ हूं।
फिर अत्यंत तेजी से हम टैक्सी की ओर बढ़े जो दूर हमारा इंतजार कर रही थी।फिर हमें बीच कहीं  छोड़ते हुए अगली मुलाकात का वादा करके जार्ज कहीं और चले गये।
    तब जार्ज पादरी की पोशाक में थे और हाथ में एक अंग्रेजी किताब थी।
 दूसरा प्रकरण बंगलुरू का है।
पिछले कर्नाटका विधान सभा  चुनाव को लेकर कर्नाटका  के कई स्थानों
की चर्चा मीडिया में हो रही थी।
उसमें एक नाम राम गढ़  का भी है।वहीं राम गढ़  जहां ‘शोले’ फिल्म की शूटिंग हुई थी।बंगलुरू-मैसूर मार्ग पर बंगलुरू से 50 किलोमीटर दूर है रामनगरम उर्फ राम गढ़।
 इमरजंेंसी में मैं  बंगलोर गया था  - लाड़ली मोहन निगम के साथ।करीब एक सप्ताह तक एक होटल में टिके थे।एक ही कमरे में तीन जन-
जे.एच.पटेल, लाड़ली मोहन निगम और मैं।पटेल बाद में वहां के मुख्य मंत्री बने और निगम राज्य सभा सदस्य।
  खैर,उन दिनों बंगलोर की आबोहवा  इतनी अच्छी थी कि वातानुकूलित सिनेमा हाॅल से निकलने के बाद बाहर ही अच्छा लगता था।
   गहरे भूमिगत जार्ज फर्नांडिस के साथ हर रात हम राम गढ़ की पहाड़ी के पास जाते थे।
क्या करने जाते थे,यह बताना यहां जरूरी नहीं।
आपातकाल विरोधी काम का ही वह हिस्सा था। 
तब वहां जाने व एक  खास काम करने में बड़ा रोमांच और संतोष था।
 वहीं सुना था कि शोले की शूटिंग के समय धमेंद्र ,अमिताभ तथा  अन्य कलाकार बंगलोर में रहते थे और रोज राम गढ़  जाते थे।वहां सिप्पी साहब ने शूटिंग के लिए ही एक गांव बसा दिया था जो फिल्म में दिखाई पड़ता है। वह राम गढ़  अब जिला बन गया है।
  एक प्रकरण आपातकाल से पहले का।
किसी पत्रिका  में छपी किसी तथाकथित आपत्तिजनक सामग्री पर संसद में लगातार पांच दिनों तक गरमागरम चर्चा हो,ऐसा जार्ज के कारण ही हुआ।
वह पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ थी जिसके प्रधान संपादक जार्ज फर्नांडिस थे।सामग्री ऐसी थी कि संसद कोई कार्रवाई नहीं कर सकी थी।
@-राष्ट्रीय सहारा -30 जनवरी, 2019@





सोमवार, 28 जनवरी 2019

जो कुछ अरनब गोस्वामी में है, वह अरनब गोस्वामी में ही है !
--------------------------------
अरनब गोस्वामी का ‘रिपब्लिक भारत’ जल्द दस्तक देने जा रहा है।
 मुझे तो उसका बेचैनी से इंतजार है।
मेरा मानना है कि जो बात अरनब गोस्वामी में है, वह अरनब गोस्वामी में ही है !
अरनब में जो कुछ है, मैं उसका फैन हूं।
पर,एक बात को छोड़कर।
वह एक बात यह है।
अरनब गोस्वामी जब अपने ‘टाॅक शो’ में एक साथ आधा दर्जन मुंहजोड़ अतिथियों को बोलने-चिल्लाने  देते हैं तो मुझे उन पर बड़ा गुस्सा आता है।पर, मैं करूं तो क्या करूं !  
न तो मैं अपना टी.वी.सेट फोड़ सकता हूं और न ही अपना सिर ! सिर्फ चैनल बदल सकता हूं।
इसीलिए जब मैंने अपने पसंदीदा एंकर अमिताभ अग्निहोत्री को बड़बोले अतिथियों का माइक डाउन करते देखा तो मैं उनकी तारीफ में लिखने  से खुद को नहीं रोक नहीं सका।
 खैर, इसके बाद भी कुछ लोगों की एक और शिकायत अदमनीय अरनब गोस्वामी से है।वह यह कि अरनब लगभग एकरफा हैं।
हालांकि वैसा ही एकतरफापन कुछ दूसरे चैनल का भी है तो उन लोगों की उनसे कोई  शिकायत नहीं है !
खैर, यह सब उनकी समस्याएं हैं।
मुझे तो किसी के एकतरफापन से कोई शिकायत नहीं है।
 इस देश के कुछ लोग एक विचार के साथ में मगन हैं तो दूसरे लोग कुछ दूसरे विचार के साथ।उन्हें मगन रहने दीजिए।कुछ विचार देश के लिए सही हैं तो कुछ अन्य .......।
  मेरी शिकायत सिर्फ इस बात से होती है जब कोई मीडिया  गलत तथ्य पेश करता है या फिर तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करता है।
  तथ्य तो पवित्र है, अपने विश्लेषण के लिए आप जरूर स्वतंत्र हैं।सारे तथ्य बाहर आने दीजिए ।चाहे वह किसी के पक्ष में जाता हो या विरोध में।
हर सरकार के कार्यकाल में कुछ अच्छा होता है तो कुछ गलत भी।किसी में ज्यादा अच्छा तो किसी अन्य के कार्यकाल में ज्यादा बुरा।
 यदि आप एकतरफापन की शिकायत करेंगे तो यह भी बता दीजिए कि मीडिया में एकतरफापन कब नहीं रहा है ? अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर।
 मैं तो नेहरू काल से अखबार पढ़ रहा हूं और मीडिया के बारे में जान-समझ-पढ़ रहा हूं।
मैं बंबई के साप्ताहिक ब्लिट्ज और करंट दोनों पढ़ता था।
एक घोर वामपंथी  तो दूसरा घनघोर दक्षिणपंथी।
नीर क्षीर विवेक के साथ उसे ग्रहण कर लेता था।आप भी ग्रहण कीजिए।सबकी सुनिए, अपनी करिए !  













भारत रत्नों की सूची में बारी-बारी से 48 नाम अब तक जुड़ चुके हैं।
इन में से 20 नेता केंद्र या राज्य की सत्ता में रह चुके हैं।
इतने भारत रत्नों के बावजूद 
इतनी गरीबी ?
इतना भ्रष्टाचार ?
इतनी अराजकता ?
इतनी भुखमरी ?
इतना आतंकवाद ?
देश की सीमाओं पर इतना दबाव ?
भीतरी देशद्रोहियों का मनोबल सातवें आसमान पर ?
...........
............
और न जाने क्या क्या !
कुछ अन्य देशों को तो वहां के एक या दो रत्नों ने ही 
मिलकर संवार दिया।
पर, दूसरी ओर 1985 में इस देश का हाल यह था कि 100 सरकारी पैसों को घिसकर भ्रष्टों ने उसे 15 पैसा बना  दिया था।तब तक के भारत रत्न टुकुर -टुकुर देखते रह गए थे !
ऐसे रत्न किस काम के ?

जैश ए मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर ने 30 नवंबर 2018 को कहा था कि ‘अगर अयोध्या में राम मंदिर बना तो दिल्ली से लेकर काबुल तक तबाही मचेगी।मेरे लड़ाके दिल्ली से लेकर काबुल तक तबाही मचा देंगे।’

शनिवार, 26 जनवरी 2019

कांग्रेस नेता आनंद शर्मा ने बता दिया कि यदि उनकी सरकार बनेगी तो वह पहला काम क्या करेंगे।
नितिन गडकरी जब प्रतिपक्ष में थे तो उन्होंने भी जांच एजेंसी को इसी तरह की धमकी दी थी।
याद रहे कि जांच एजेंसी गडकरी से जुड़ी कंपनियों की जांच कर रही थी।
इन दिनों देश के अनेक गैर राजग नेताओं के खिलाफ तरह -तरह के भ्रष्टाचारों की जांच हो रही है।
कांग्रेस कहती है कि ‘बदले की भावना’ आकर मोदी सरकार  जांच करवा रही है।
  पर जिन मामलों में अदालतों ने सजा दे दी है,उसके बारे मेंं क्या राय है ? क्या अदालतों को भी कोई बदला लेना होता है ?


भारत रत्न नानाजी देशमुख
----------------
आप चाहे जिस किसी विचारधारा के मानने वाले हों,आप जो संकल्प लेते हैं,उसको पूरा कीजिए।तभी लोग आपकी इज्जत करेंगे।
 नानाजी देशमुख उन थोड़े से लोगों में थे जिन्होंने इसकी जरूरत समझी थी।
 नानाजी ने कहा था कि नेताओं को 60 साल की उम्र के बाद सक्रिय राजनीति से अलग हो जाना चाहिए।
  खुद वे उस उम्र में राजनीति से अलग हो गए थे।समाजसेवा में लग गए थे।
नानाजी को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने जनसंघ की राजनीति में अतिवादी बलराज मधोक को दरकिनार करके उदारवादी अटल बिहारी वाजपेयी को आगे बढ़ाया।
नाना जी उन कुछ लोगों में शामिल थे जिन्होंने 4 नवंबर, 1974 को पटना में जेपी की जान बचाई।
आयकर चैराहे के पास जब सी.आर.पी.एफ.के  जवानों ने जेपी पर लाठियां बरसानी शुरू की तो नानाजी ने एक  लाठी को अपनी बांह पर  ले लिया।उससे उनकी बांह को भारी चोट लगी।वे कई दिनों तक पी.एम.सी.एच.के राजेंद्र सर्जिकल वार्ड में इलाज में रहे।
मशहूर पत्रकार प्रभाष जोशी नानाजी के काफी करीबी थे जिनसे मैंने उनके बारे में और जाना था।

अमिताभ अग्निहोत्री मेेरे पसंदीदा समाचार विश्लेषकों में रहे 
हैं।
हाल में उन्होंने एक और बड़ा काम किया है।
मैंने उन्हें न्यूज एंकरिंग करते हाल में देखा।देखकर तबियत खुश हो गयी।
एंकर की अवहेलना करके लागतार बोलते जाने वाले मुंहजोड़ अतिथियों की माइक डाउन करके अमिताभ जी ने श्रोताओं का बड़ा कल्याण किया है।
दरअसल इस देश में कुछ ऐसे मुंहजोड़ व उदंड टी.वी.अतिथि हैं जो एंकर की नहीं सुनते,बस खुद बोलते ही जाते हैं।
नतीजतन एक साथ तीन या चार अतिथि कुत्तों की तरह भौंकते रहते हैं और दर्शक -श्रोताओं  के पल्ले कुछ नहीं पड़ता।
लगता है कि कुछ खास एंकर तो ऐसा ‘कुत्ता भुकाओ कार्यक्रम’ जानबूझ कर करवाते रहते हैं।पता नहीं,उससे उन्हें कौन सा सुख मिलता है ! हां,उस पर श्रोताओं को सिर्फ गुस्सा आता है।
पर इस टेलीविजनी हंगामों के बीच अमिताभ जी को मेरा सलाम !

  हर बड़े चुनाव से पहले और बाद में दल बदल होते रहते हैं।
इक्के -दुक्के दल बदल से किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए।
 पर, यहां आदतन दलबदलुओं की बात की जा रही है।
  बिहार में कई ऐसे नेता हैं जिन्होंने अब तक अनेक बार दल बदल किया है।
एक नेता तो ऐसे हैं जिन्हें खुद भी याद नहीं होगा कि वे अब तक किन -किन दलों में रहे हैं !
  खैर दल बदल विरोधी कानून भी दल बदल को नहीं रोक सका है।
 अब कुछ अपेक्षाकृत बेहतर दलों व नेताओं को इस दिशा में ऐसी पहल करनी चाहिए ताकि आदतन दल बदलुओं की आदत ही छूटे। 
  2019 के लोक सभा चुनाव के बाद भी कुछ आदतन दलबदलू नेता एक बार फिर सुरक्षित ‘घर’ खोजेंगे।
घर वालों को चाहिए कि वे सिर्फ इस बात का ध्यान रखें कि
शरण मांगने वाले ने तीन बार से अधिक बार दल बदल तो नहीं किया है ! 
यदि तीन से कम बार किया हो तो भले उसे आप शरण दे दें ,पर उससे अधिक पर दुत्कार दें।
अन्यथा आने वाले दिनों में आपको भी फिर छल कर
कहीं और चला जाएगा।  

बुधवार, 23 जनवरी 2019

कर्पूरी ठाकुर की स्मृति में
---------------
सत्तर के दशक की बात है।समाजवादी कार्यकत्र्ता के 
रूप में मैं कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव था।
कर्पूरी जी तब बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता थे।
तब नेता, प्रतिपक्ष को कोई खास सुविधा हासिल नहीं थी।सिर्फ विधान मंडल भवन में बैठने का एक बड़ा कमरा और सरकार की ओर से एक स्टेनो टाइपिस्ट। 
एक दिन कर्पूरी जी ने मुझे एक बिल दिया और कहा कि जाकर एकाउंट सेक्सन में दे दीजिए।
बिल करीब छह सौ रुपए का था।
मैंने बिहार विधान सभा सचिवालय की उस शाखा के किरानी को वह बिल  दिया।
उस घाघ किरानी ने बिल को पढ़ा और मुझे ऊपर से नीचे तक निहारा । कहा, कैसे -कैसे लोग कुत्र्ता -पायजामा पहन कर बड़े -बड़े नेताओं के साथ लग जाते है !
आपको कुछ एहसास है ? कर्पूरी जी जैसे बड़े नेता का काम इस छह सौ से कैसे चलेगा ?
जाइए, इसे 13 सौ का बना कर जल्दी ले लाइए।’
 मुझे तो इन सब चीजों का यानी बिल ऊपर-नीचे करने का कोई ज्ञान था नहीं ।
 मैं लौटकर कर्पूरी जी के पास गया।उनसे  कहा कि ‘किरानी  कह रहे हैं कि इसे 13 सौ का बना कर लाइए।’
इस पर कर्पूरी जी बिफर पड़े ।गुस्से में बोले, ‘लाइए बिल ! मुझे नहीं पास कराना ।ये लुटेरे हैं,बेईमान हैं।राज्य को लूट लेंगे।’
बाद में उस बिल का क्या हुआ,मुझे नहीं मालूम।
हां, वह किरानी बाद में बिहार के एक ऐसे सत्ताधारी नेता के स्टाफ का सदस्य बन गया जो बाद में भ्रष्टाचार के आरोप में जेल गया।सही जगह पर सही व्यक्ति पहुंच गया था ! 
वैसे भी मैं मात्र  डेढ़ साल तक ही कर्पूरी जी के साथ रहा।
मुझे जब  लगा कि राजनीति के लिए मैं अनफिट व्यक्ति हूं  तो मुख्य धारा की पत्रकारिता में चला गया ।
पहले भी मैं पत्रकारिता करता था,पर वह समाजवादी धारा की पत्रकारिता थी।
 कर्पूरी  जी का कल धूमधाम से जन्म दिन मनाया जाएगा।
अधिकतर नेता लोग इस चुनावी साल में उन्हें अति पिछड़ों के नेता के रूप में ही पेश करेंगे ।
  पर उनके मौलिक गुणों को याद करना अधिक जरूरी है ताकि शायद उससे नई पीढ़ी प्रेरित हो।
एक बात मैं कह सकता हूं ।करीब डेढ़ साल तक रात- दिन साथ रहने का मेरा अनुभव यह रहा कि उनके जैसा संयमी, ईमानदार व शालीन नेता मैंने नहीं देखा।
वे सिर्फ अपने पुत्र और नौकर को ही तुम कह कर पुकारते हैं।
अन्य सबको आप बोलते थे।निधन के बाद वे निजी संपत्ति के नाम पर गांव की वही पुश्तैनी झोपड़ी छोड़ गए जो उन्हें पूर्वज से मिली थी। 
       

मंगलवार, 22 जनवरी 2019

बिहार राजद अध्यक्ष डा.राम चंद्र पूर्वे ने कहा है कि सवर्ण आरक्षण पर पूर्व कें्रदीय मंत्री रघुवंश सिंह का दिया गया बयान उनका व्यक्तिगत बयान है।
बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने कहा है कि राजद गरीब सवर्णों को आरक्षण देने के पक्ष में है,पर प्रावधानों पर पार्टी को आपत्ति है।
उधर अनुकूल राजनीतिक अवसर  देख कर उप मुख्य मंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा है कि डा.रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे नेता को राजद में समुचित सम्मान नहीं मिल रहा है।हम उन्हें एन.डी.ए.में  उचित सम्मान देंगे।
  पता नहीं रघुवंश जी सुशील मोदी के आॅफर को स्वीकार करेंगे या नहीं,पर एक बात साफ है कि उनका चुनावी भविष्य अब अनिश्चित सा हो गया है।बेहतर है कि वे अपने चुनाव क्षेत्र के सवर्ण मतदाताओं के बीच जाकर उनका मन एक बार फिर टटोलें।
 लगता है कि प्रारंभिक तौर पर उनका मन जानने के बाद ही उन्होंने परसों एक ऐसा बयान दे दिया था जिसका पूर्वे जी को खंडन करना पड़ा।
फिर या तो डा.लोहिया के शब्दों पिछड़ों के लिए रघुवंश जी खाद बनें या अपनी प्रतिभा के बेहतर इस्तेमाल के लिए कोई और राह चुनें।हालांकि यह सब तो उन पर ही निर्भर करता है।पर एक बात तय है कि उनके जैसे ईमानदार व कत्र्तव्यनिष्ठ नेता के राजनीतिक कैरियर का अवसान देख कर अनेक लोगों को  अच्छा नहीं लगेगा।
  राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार संकेत यह है कि राजद अगले लोक सभा चुनाव को एक बार फिर अगड़ों और पिछड़ों के बीच की लड़ाई में बदलना चाहता है।उसने 2015 में भी ऐसा ही किया था।
 तब तो जदयू के साथ के कारण 80 विधान सभा सीटें मिल गयीं थीं,पर इस बार वह स्थिति नहीं है।
गत साल मार्च में हुए उप चुनाव के नतीजे राजद के लिए कोई शुभ संकेत नहीं देते।
  यानी राजद को अब सिर्फ एम वाई से काम नहीं चलेगा।
सिर्फ उसी से निर्णायक जीत मिलने वाली नहीं।यदि लोक सभा चुनाव में बिहार में राजद ने अगड़ा बनाम पिछड़ा करने की कोशिश की तो राजद के सवर्ण उम्मीदवारों की स्थिति अनिश्चित हो जाने का खतरा है।
10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण ने वह पृष्ठभूमि तैयार भी कर दी है।


खबर है कि कल राजस्थान हाई कोर्ट ने राबर्ट वाड्रा को
कोई राहत नहीं दी।
उधर अन्य अदालत से पी.चिदम्बरम को अब तक आठवीं बार राहत मिल चुकी है।
  लगता है कि राहत पाने के मामले में चिदम्बरम के पास कोई खास कानूनी ‘मंत्र’ है।उस मंत्र से वे वाड्रा को लाभान्वित क्यों नहीं कर रहे हैं ? आश्चर्य होता है।
याद रहे कि अखबारों से प्राप्त सूचनाओं के अनुसार यह कहना कठिन है कि चिदम्बरम अधिक ‘मालधनी’ हैं या वाड्रा ! 

सोमवार, 21 जनवरी 2019

बुरे नतीजे की चेतावनी के बावजूद कांग्रेस ने 1990 में गिरने से बचा ली थी मुलायम की सरकार



   सन् 1990 में कांग्रेस पार्टी ने मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव की  कुर्सी बचा ली थी।ऐसा उसने अपनी उत्तर प्रदेश शाखा के कड़े विरोध और बुरे नतीजे की चेतावनी के बावजूद किया था।
  मुलायम को समर्थन देने के विरोध में खड़े  कांग्रेसियों ने तब हाईकमान को चेताया था कि मुलायम सरकार को समर्थन देकर अभी  बचा लेने से आगे चल कर कांग्रेस के लिए आत्मघाती साबित होगा।
हाल में जब सपा ने कांग्रेस को नजरअंदाज करके बसपा से 2019 के लिए चुनावी तालमेल करने का एलान कर दिया तो पता नहीं तब कांग्रेस हाई कमान को 1990 की वह घटना याद आई थी या नहीं।
वैसे भी राजनीति में किसी एहसान के प्रतिदान की समाप्त होती परंपरा के बीच अखिलेश यादव के राजनीतिक आचरण से कम ही लोगों को आश्चर्य हुआ होगा।
पर शायद इस घटना से एहसान करने वाले कुछ देर रुक कर जरूर सोच सकते हैं।
 नब्बे के दशक में जनता दल में विभाजन के बाद उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव, चंद्र शेखर गुट में शामिल हो गए थे।वी.पी.सिंह से दोनों की राजनीतिक दुश्मनी थी।
तब मंडल और मंदिर आंदोलन का दौर चल रहा था।
देश में भारी राजनीतिक तनाव था।कई नेता एक दूसरे को निपटाने के काम में लगे हुए थे।
 वैसे में उत्तर प्रदेश कांग्रेस के लिए भी एक निर्णायक घड़ी सामने आ खड़ी हुई थी।
जनता दल में विभाजन के बाद मुलायम सिंह के सामने उत्तर प्रदेश विधान सभा में विश्वास मत हासिल करने की एक बहुत बड़ी समस्या थी। 
तब राजेंद्र कुमारी वाजपेयी उत्तर प्रदेश इंदिरा कांगेस की अध्यक्षा थीं।बलराम सिंह यादव तब उत्तर प्रदेश कांग्रेस के बड़े नेता थे और वे मुलायम सिंह यादव के कट्टर विरोधी थे।
  मुलायम सिंह यादव का विधान सभा में बहुमत समाप्त हो जाने के बाद नई दिल्ली से लखनऊ तक राजनीतिक हलचल तेज हो गयी।
  वाजपेयी और यादव  ने इंका हाईकमान को चेताया कि मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव को समर्थन देना आगे चल कर पार्टी के लिए आत्मघाती साबित होगा।
उन नेताओं का आशय था कि इससे कालक्रम में मुलायम मजबूत होंगे और कांग्रेस कमजोर।सत्ता में बने रहने से मुलायम को अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ा लेने में सुविधा होगी।ऐसा वे कांग्रेस की कीमत पर करेंगे।
तब राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस का नाम इंदिरा कांग्रेस था।
हालांकि इन दोनों नेताओं ने हाईकमान का आदेश को माना।
तब उत्तर प्रदेश में विधान सभा में इंका के 94 विधायक हुआ करते थे। 
आगे चल कर धीरे- धीरे वही होता गया जिसकी भविष्यवाणी 
वाजपेयी और यादव ने की थी।
हाल में जब अखिलेश यादव ने कांग्रेस को नजरअंदाज करके बसपा से तालमेल कर लिया तो उस समय उन्होंने 1990 के 
उपकार को याद नहीं रखा।दरअसल राजनीति में उपकार नाम की कोई चीज नहीं होती।
होती है तो सिर्फ महत्वाकांक्षा,महात्वाकांक्षा और सिर्फ महत्वाकांक्षा !
  दरअसल इंका ने भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए मुलायम सिंह यादव की सरकार बचाई थी।
मुलायम सिंह यादव ने तब कहा था कि मेरी सरकार गिराने के लिए वी.पी.सिंह ने भाजपा के साथ मिल कर साजिश रची है।
  बगल के राज्य बिहार में भी उन दिनों कमोवेश ऐसी ही राजनीतिक स्थिति रही।
  भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए कांग्रेस और सी.पी.आई.ने लालू -राबड़ी सरकार की मदद की।
पर न तो वे भाजपा को सत्ता में आने से रोक सके और न ही खुद को कमजोर होने  से बचा  सके।-सुरेंद्र किशोर 
@मेरा यह लेख फस्र्टपोस्ट हिन्दी में 21 जनवरी 2019 को प्रकाशित@





हिंदुत्व पर सुप्रीम कोर्ट के 1995 के फैसले के धमाके की गूंज अब भी कायम



    सन 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हिंदुत्व धर्म नहीं,बल्कि जीवन शैली है।
मुख्य न्यायाधीश जे.एस.वर्मा के नेतृत्व वाले खंडपीठ के इस जजमेंट की गूंज अब भी बाकी है।
 इस निर्णय को पलटने की कोशिश अब तक विफल रही है।इस बीच गत साल पूर्व प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह ने ए.बी.बर्धन स्मारक भाषणमाला में बोलते हुए इस निर्णय को गलत बताया था।
  हालांकि जस्टिस वर्मा ने इस्लाम धर्म के विशेषज्ञ मौलाना वहीदुद्दीन खान को उधृत करते हुए तब कहा था कि हिंदुत्व का मतलब भारतीयकरण हो गया है।
  महाराष्ट्र विधान सभा के दो शिव सेना सदस्यों की चुनाव याचिकाओं  पर सुप्रीम कोर्ट ने 11 दिसंबर 1995 को जो ऐतिहासिक निर्णय दिया,उसकी छिटपुट चर्चा अक्सर चुनावों के समय हो जाती है जब प्रचार में कोई हिंदुत्व शब्द का इस्तेमाल करता है।संभव है कि अगले चुनावमें भी हो !
उससे पहले बंबई हाईकोर्ट ने  शिव सेना विधायकों के चुनावों को रद कर दिया था।आरोप था कि उनके प्रचारकों बाल ठाकरे और प्रमोद महाजन ने सांप्रदायिक घृणा फैलाई थी और धर्म के नाम पर वोट मांगे थे।
सुप्रीम कोर्ट ने एक विधायक के खिलाफ हाई कोर्ट का निर्णय तो कायम रखा ,पर दूसरे विधायक के मामले में निर्णय उलट दिया।
वैसे उस मशहूर जजमेंट से पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक शिवसेना नेता को उनके इस बयान के लिए फटकारा था कि महाराष्ट्र देश का पहला ‘हिंदू राज्य’ होगा। 
 एक तरफ जहां कई हलकों में इस जजमेंट की आलोचना हुई,वहीं तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा था कि ‘अदालत ने हिंदुत्व की हमारी विचार धारा पर न्यायिक मुहर लगा दी।’         
  स्वाभाविक तौर पर ही राजनीतिक हलकों में इस फैसले पर मिली जुली प्रतिक्रिया हुई।न्यायिक क्षेत्र में भी यही हाल रहा।
मशहूर वकील पालकीवाला ने इस निर्णय पर अचरज जाहिर करते हुए  कहा कि इस पर पुनर्विचार के लिए सुप्रीम कोर्ट का 11 सदस्यीय पीठ कायम होना चाहिए।
हालांकि शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे इस निर्णय से संतुष्ट नहीं थे।
उन्होंने कहा कि हमें कुछ हद तक ही इंसाफ मिला है।
क्योंकि पाकिस्तानी मुसलमानों और पाकिस्तान समर्थक मानसिकता वाले इस देश के  मुसलमानों का मामला कायदे से सुप्रीम कोर्ट के सामने नहीं आया।
दूसरी ओर मशहूर वकील ननी पालकीवाला ने कहा कि यह दो दशक पहले आपातकाल की वैधानिता को दी गयी चुनौती को याद दिलाता है।तब देश के सात हाई कोर्ट इंदिरा गांधी के खिलाफ थे,पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के सामने समर्पण कर दिया था।
याद रहे कि उस केस के सिलसिले में एटाॅर्नी जनरल नीरेन डे ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि यदि शासन आज किसी की जान भी ले ले तो भी उसके खिलाफ अदालत की शरण नहीं ली जा सकती।क्योंकि इमरजेंसी में मौलिक अधिकार स्थगित कर दिया गया है।सुप्रीम कोर्ट ने नीरेन डे की बात मान ली।  
 हिंदुत्व पर 1995 के जजमेंट के बारे में भाजपा नेताओं के वकील अरूण साठे ने कहा था कि चुनाव कानून वाकई बहुत तकनीकी है।ऐसे मामलों में आरोपों को पूरी तरह साबित होना जरूरी है।
  विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष विष्णु हरि डालमिया ने इस जजमेंट पर खुशी जाहिर करते हुए कहा कि हिंदुत्व के प्रचार में कानूनी बाधा अब दूर हो गयी है।
 स्वाभाविक ही है कि इस पर भाजपा विरोधी दलों व बुद्धिजीवियों की  प्रतिक्रियाएं विरोध में थीं।
चूंकि मामला सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का था,इसलिए भाजपा विरोधी दल व अन्य संगठन संभल कर सार्वजनिक तौर पर बोले।पर उन्होंने इस जजमेंट को  उलटवा देने का प्रयास जारी रखा।
 तिस्ता सेतलवाड ने सुप्रीम में याचिका भी दायर की ।पर उन्हें सीमित सफलता ही मिली।
 सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय कायम रह गया कि ‘हिंदुत्व का मतलब भारतीय करण है और उसे धर्म जैसा नहीं माना जाना चाहिए।’पर इतना जरूर कहा कि धार्मिक भावनाएं जगा कर वोट लेना गलत है।
क्या इस जजमेंट ने वैसे लोगों के बीच भी भाजपा व संघ परिवार की स्वीकार्यता बढ़ाई जो तब तक उनसे अलग थे ?
यह यक्ष प्रश्न है जिसका अब तक कोई ठोस व प्रामाणिक जवाब सामने नहीं आया है।
@मेरा यह लेख फस्र्टपोस्ट हिन्दी में प्रकाशित @
    

हर खेत को पानी के सुंदर सपने को पूरा करने में सावधानी जरूरी



बिजलीकरण का संुदर सपना लगभग पूरा हो रहा है।
अब सरकार हर खेत को पानी देने के सुंदर सपने को पूरा करने के लिए सचेष्ट है।
बिहार सरकार की यह कोशिश ऐतिहासिक है।
पर संकेत हैं कि बड़ी संख्या में बंद पड़े राजकीय नलकूपोंं को फिर से चालू करने की बड़ी योजना शुरू हो सकती है।
वह भी अच्छी बात है।
पर, उस सिलसिले में इस बात पर ध्यान रखना जरूरी है कि हम कितना भूजल निकालने जा रहे हैंं।क्या उतने के पुनर्भरण
 का भी देर सवेर प्रबंध हो सकेगा ?
यदि हो सकेगा तो बहुत अच्छा।यदि नहीं तो हम आगे के जल संकट के लिए तैयार रहें।हालांकि इस संबंध में कोई पक्की बात विशेषज्ञ ही बता सकते हैं।
पर इस देश का ‘पारंपरिक विवेक’ खेती के लिए  भूजल की जगह सतही जल के इस्तेमाल के पक्ष में रहा है।
इसीलिए हजारों साल से भूजल संकट नहीं रहा।
संयुक्त राष्ट्र विश्व जल विकास रपट, 2015 के अनुसार कुछ दशकों में बिहार में जल संकट गंभीर हो सकता है।
सतही जल संपदा के मामले में बिहार एक धनी राज्य है।फिर भी भूजल को निकालने की होड़ लगी रहती है, पुनर्भरण की चिंता किए बिना। 
  --जल संरक्षण पर गांधीवादी नजरिया--
पूर्व मंत्री व कट्टर गांधीवादी जगलाल चैधरी से  उनके चुनाव क्षेत्र के लोग अक्सर कहा करते थे कि चैधरी जी ,सिंचाई के लिए नल कूप की व्यवस्था करवा दीजिए। 
उनका जवाब होता था कि नलकूप लगाने से पाताल का पानी सूख जाएगा।
यह साठ के दशक की बात है।उस समय जल संकट आज जैसा नहीं था।पर चैधरी जी को आज के संकट का पूर्वानुमान था।गांधीवादी शिक्षा का उन पर असर जो था।
खेतों में सिंचाई के लिए सतही जल के इस्तेमाल के तरीके उपलब्ध हैं।कुछ राज्यों में इस पर काम हो चुके हैं।
पर यदि नलकूप की भी जरूरत हो तो जल पुनर्भरण का प्रबंध होने पर आने वाले जल संकट से उबरा जा सकता है।
 --अनुकरणीय कदम--
जस्टिस ए.के.सिकरी ने लंदन स्थित राष्ट्रमंडल सचिवालय मध्यस्थता न्यायाधीकरण में नामित करने के केंद्र सरकार
 के प्रस्ताव पर दी गयी अपनी सहमति वापस ले ली है। 
विवाद के बाद जस्टिस सिकरी ने यह कदम उठाया है।
यानी जस्टिस सिकरी उन चंद लोगों में शामिल हो गए है जिन्हें पद से अधिक अपनी प्रतिष्ठा प्यारी होती है।
उनके वंशज भी उन पर गर्व करेंगे।
 इस अवसर पर इसी तरह का एक प्रसंग याद आ गया।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूत्र्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने 
1975 में इंदिरा गांधी का लोक सभा चुनाव रद कर दिया  था।
1977 में इंदिरा गांधी की जगह मोरारजी देसाई प्रधान मंत्री बने।
देसाई सरकार ने उन्हें एक बड़े पद का आॅफर दिया था।उन्होंने उसे तत्काल ठुकरा दिया।रिटायर जस्टिस सिन्हा ने कहा था कि मुझे पुस्तकें पढ़ने और 
बागवानी करने से बेहतर कोई दूसरा सुखद काम नहीं लगता।
--नार्को-डीएनए के लिए
 स्वीकृति जरूरी क्यांे ?--
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जांच के दौरान पुलिस यदि फिंगर प्रिंट उठाती है और उसके लिए उसके पास मजिस्ट्रेट के आदेश नहीं हैं तो भी ये फिंगर प्रिंट  अमान्य नहीं होंगे।
ये फिंगर प्रिंट  कोर्ट मेें स्वीकार्य साक्ष्य होंगे।
  काश ! सुप्रीम कोर्ट का ऐसा ही निर्णय नार्को टेस्ट और डी.एन.ए. जांच को लेकर भी किसी दिन आ जाता।
 कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि आरोपी की पूर्वानुमति के बिना उसका न तो नार्को टेस्ट हो सकता है और न ही डी.एन.ए.जांच।
 सुप्रीम कोर्ट  का यह निर्णय इस देश के अनेक खूंखार अपराधियों के लिए कवच बन गया है।
यदि सुप्रीम कोर्ट अपने इस निर्णय को पलट दे तो देश में गंभीर अपराधों पर काबू पाने में सुविधा होगी।
जरूरत के अनुसार सुप्रीम कोर्ट अपने पिछले निर्णयों को पलटता भी रहा है।
--शराब की कमाई से खतरनाक हथियार--
खबर है कि बिहार में अन्य लोगों के अलावा शराब के अवैध धंधे में अनेक छोटे-बड़े अपराधी भी लगे हुए हैं।
 अधिकांश धंधा पुलिस के सहयोग से चल रहा है।
एक तीसरी बात भी निकल कर  आ रही है।
शराब के धंधे में लगे छोटे अपराधी  अब बड़े अपराधी बनने की प्रक्रिया में हंै।क्योंकि वे बड़े पैमाने पर ए.क.े -47 और अन्य छोटे घातक आग्नेयास्त्र खरीद रहे हैं।शराब के धंधे में अपार पैसा जो है !
  जिस अपराधी के पास जितना अधिक घातक हथियार होता है,वह उतना ही बड़ा अपराधी माना जाता है !बाद में वह राजनीतिमें भी अपनी भूमिका निभाता है।
फिलहाल ,ये अपराधी आने वाले दिनों में पुलिसकर्मियों के समक्ष भी खतरा पैदा करेंगे जब पुलिसकर्मी  किसी केस में उन्हें गिरफ्तार करने जाएंगे।
यानी शराब के धंधे में मददगार पुलिसकर्मी अपने लिए भस्मासुर तैयार कर रहे हैं। 
--भूली बिसरी याद--
एक अप्रैल, 1997 को दिल्ली की एक अदालत में उस समय
अजीब दृश्य उपस्थित हो गया जब झामुमो सांसद शैलेंद्र महतो ने कहा कि मेरे बैंक  खाते में जमा रिश्वत की राशि सरकार जब्त कर सकती है।
याद रहे कि सांसदों को रिश्वत देने के मामले में झामुमो के 4 सासंदों सहित 21 अभियुक्तों पर मुकदमा चल रहा था।
उससे पहले 22 मार्च को दिए गए अपने इकबालिया बयान में शैलेंद्र महतो ने यह स्वीकार किया था कि 28 जुलाई 1993 को 
पी.वी.नरसिंह राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ वोट देने के लिए उन्होंने बतौर रिश्वत 40 लाख रुपए प्राप्त किए थे।
इसमें से 39 लाख 80 हजार रुपए मैंने पंजाब नेशनल बैंक की नौरोजी नगर स्थित शाखा में जमा कर दिए।बीस हजार रुपए अपने व्यक्तिगत खर्च के लिए रख लिए।
 नरसिंंह राव के वकील आर.के.आनंद ने कोर्ट में कहा कि शैलेंद्र महतो दंड से बचने के लिए सरकारी गवाह बनना चाहता है।उसे बचकर नहीं जाने देना चाहिए।यह पूर्व सांसद रिश्वत प्राप्तकत्र्ता होने के कारण ज्यादा बड़ा अपराधी है।
याद रहे कि झामुमो सांसद शिबू सोरेन, सूरज मंडल, साइमन मरांडी और शैलेंद्र महतो ने यह स्वीकार किया था कि उन्हें 
‘देशहित में’ नरसिंह राव की अल्पमत सरकार को सदन में गिरने से बचाने के एक करोड़ 20 लाख रुपए दिए गए थे।हमने सरकार को बचाया  भी। 
बाद मंे यह मामला सुपी्रम कोर्ट में गया तो सबसे बड़ी अदालत ने इस पर कुछ करने से साफ इनकार कर दिया।कहा कि संसद के अंदर किए गए किसी काम 
के खिलाफ अदालत कोई कार्रवाई नहीं कर सकती, चाहे वह रिश्वत लेने का मामला ही क्यों न हो।अदालत ने कहा कि 
इसमें संविधान ने हमारे हाथ बांध रखे हैं।
 यानी ऐसे रिश्वतखारों के खिलाफ कार्रवाई के लिए संविधान में संशोधन की जरूरत है।पर इतने साल के बाद भी किसी सत्ताधारी दल ने अब तक संशोधन  दिशा में कोई पहल नहीं की।पता नहीं,कब किस दल को नरसिंह राव की तरह ‘देशहित में’ अपनी सरकार बचाने की जरूरत आ पड़े !
-और अंत में-
जनता पार्टी के शासन काल में प्रधान मंत्री के पद को लेकर 
तीन बुजुर्ग नेता आपस में भिड़े हुए थे।तब किसी ने कहा था कि प्रधान मंत्री की कुर्सी को हटा कर वहां एक बेंच लगा दिया जाना चाहिए।
  पर 2019 के लिए देश में जितनी संख्या में प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार नजर आ रहे हैं,उसे मद्दे नजर रखते हुए अब एक बंेच से भी काम नहीं चलेगा !
  मूल बात यह है कि यदि  किसी बड़े पद के लिए भी किसी तरह की  न्यूनत्तम योग्यता की  घोषित या अघोषित अनिवार्यता न रह जाए तो ऐसी ही स्थिति पैदा हो  जाती है।
@18 जनवरी, 2019 के प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@


शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

याद कीजिए 2015 । बिहार विधान सभा का चुनाव होने
वाला था।
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कह दिया था कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए।
फिर क्या था !
लालू प्रसाद ने घोषणा कर दी कि यह चुनावी लड़ाई अगड़ों और पिछड़ों के बीच है।
क्योंकि भाजपा सत्ता में आएगी तो हमारा आरक्षण समाप्त कर देगी।
नतीजतन पिछड़ों के वोट से पहले से जीत रहे अधिकतर भाजपा उम्मीदवार 2015 में हार गए।
हुकुम देव नारायण यादव के पुत्र भी उम्मीदवार थे।
वे उस क्षेत्र के यादवों से कहते रह गए कि आरक्षण समाप्त नहीं होगा।पर मतदाता नहीं माने।
हुकुमदेव जी जैसे नेताओं को भाजपा में ‘अतिथि कलाकार’ माना जाता है।
 अब राजद के ‘अतिथि कलाकार’ रघुवंश प्रसाद सिंह कह रहे हैं कि राजद सवर्ण आरक्षण के खिलाफ नहीं है।
जब लोगों ने हुकुमदेव जी की बात नहीं सुनी तो रघुवंश जी की कैसे सुन लेंगे ?


बात बहुत पुरानी है।
एक टोपी बेचने वाला अपनी टोपियों के गट्ठर के साथ 
दोपहर एक पेड़ के नीचे सो गया।
 उस पेड़ के ऊपर बहुत सारे बंदर थे।
वे एक -एक कर नीचे उतरे और एक -एक टोपी लेकर पेड़ पर जा बैठे।
टोपी वाले के सिर पर एक टोपी बची थी।
उसने बंदरों को दिखा कर वह टोपी अपने सिर से उतार कर जमीन पर फेंक दी।
बंदर तो नकल करते हैं।
बारी- बारी से सभी बंदरों ने अपनी -अपनी टोपियां जमीन पर फेंक दी।टोपी वाले ने टोपियां समेटीं और वह आगे निकल पड़ा।
   टोपी वाले ने अपने पुत्र को यह कहानी बता रखी थी।
टोपी वाले का बेटा भी एक दिन उसी रास्ते टोपी  बेचने निकला।
उसी पेड़े के नीचे जाकर सो गया।
बंदरों ने फिर वही काम दुहराया।
उसी उम्मीद में जूनियर  टोपी वाले ने भी अपने सिर की टोपी जमीन पर फेंक दी।
पर इस बीच बंदरों ने शिक्षा ग्रहण कर ली थी।एक बंदर पेड़ से नीचे उतरा और वह टोपी भी लेकर ऊपर चला गया।
  यानी इस बीच बंदर ने तो शिक्षा ग्रहण कर ली थी।पर टोपी वाले ने नहीं।
 बहुत पहले यह कहानी मैंने आचार्य रजनीश से सुनी थी।
 अब आज के बारे में सोचिए।
  जयचंद ने पृथ्वीराज चैहान के सफाए में  मोहम्मद गोरी की मदद की थी।पर जयचंद का सफाया कैसे हुआ ? कोई कल्पना कर सकता है कि खुद गोरी ने जयचंद का भी काम तमाम कर दिया था ?
 हां, ऐसा ही हुआ था।
यह एक ऐसा प्रकरण है जिससे शिक्षा ग्रहण की जा सकती थी।
 शिक्षा यह कि कैसे -कैसे लोगों की हमें मदद करनी चाहिए और कैसे -कैसे लोगों की मदद बिलकुल नहीं।
 पर लगता है कि हम में से कम ही लोगों ने ऐसी कोई शिक्षा ग्रहण की है।

बुधवार, 16 जनवरी 2019

संदर्भ--जस्टिस सिकरी ने पद ठुकराया
-------------------------
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मार्कंडेय काटजू 
ने कहा है कि ‘प्रशासनिक व्यवस्था में दुष्ट, भ्रष्ट और धूत्र्त अधिकारी होते हैं।ऐसे अधिकारियों की आलोचना का अधिकार है।
इसके साथ ही ईमानदार लोग भी होते हैं जिनका सम्मान होना चाहिए।लेकिन दुख की बात है कि मीडिया को अच्छे लोग नहीं दिखाई देते।आप किसी भी शख्स को यूं ही नहीं बदनाम नहीं कर सकते।‘

मंगलवार, 8 जनवरी 2019

  पटना साहिब से अभी ‘बिहारी बाबू’ सांसद हैं।जिस क्षेत्रसे शत्रुघ्न सिन्हा सांसद हैं, उस क्षेत्र पर यदि देश भर की नजरें हैं, तो स्वाभाविक ही है।
खास कर इसलिए भी कि वे अब भाजपा से विद्रोही हो गए हैं।
 उनके उम्दा कलाकार होने के कारण मैं उनका भारी प्रशंसक हूं।खुद को बिहारी बाबू कहलाना पसंद करने के कारण भी   प्रशंसक हूं।
जब अधिकतर बिहारी लोग  बिहार के बाहर खुद को बिहारी कहलाना पसंद नहीं करते थे,उस समय सतरू भैया  बिहारी बाबू बने।
हालांकि उनके ‘राजनीतिक व्यवहार’ का मैं प्रशंसक नहीं हूं।
मुझसे बाहर के कुछ  लोगों ने फोन पर पूछा,क्या होगा बिहारी बाबू के चुनाव क्षेत्र में ?
मैंने बताया कि अगली बार  बिहारी बाबू दूसरे ही दल से लड़ेंगे,यह तो तय है।
अब सवाल यह है कि उनका मुकाबला किससे होगा और वह कितना कारगर रहेगा।
 स्वाभाविक है कि भाजपा में इस क्षेत्र से कई टिकट के उम्मीदवार हैं।क्योंकि जो बिहारी बाबू को हराएगा और यदि राजग की सरकार फिर बनेगी तो उसके  मंत्री बनने का चांस रहेगा।
 मैं अभी यह नहीं कह रहा हूं कि बिहारी बाबू हार ही जाएंगे।
पर जैसी सामाजिक बुनावट पटना साहिब की है,उसमें भाजपा का चांस बेहतर रहेगा,ऐसा जानकार लोगों का मानना है।
हालांकि इस संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता कि यह सीट जदयू के कोटे में चला जाए।
चर्चा है कि इस सीट के लिए भाजपा में टिकट केे एक प्रत्याशी को दिल्ली में मीडिया का प्रभार मिल गया।
दूसरे सिक्किम के प्रभारी बन गए।तीसरे को भी भाजपाने कोई अन्य जिम्मेदारी दे दी।
  अब बचे आर.के.सिन्हा जो राज्य सभा में भाजपा के सदस्य भी हैं।मैं नहीं जानता।पर यदि आर.के.सिन्हा भाजपा के टिकट के प्रत्याशी हैं तो यह स्वाभाविक ही है।सुना है कि हैं।
सत्तर के दशक में आर.के.सिन्हा यानी रवीन्द्र किशोर चर्चित पत्रकार थे।अब  वे हिन्दुस्तान समाचार ग्रूप के अध्यक्ष है।
उनके पत्रकार होने के कारण मेरी उनसे भारी सहानुभति है।
बातचीत में भी विनम्र हैं।लोगों के सुख -दुख में शामिल रहते हैं।यदि भाजपा उन्हें टिकट देती है तो वह उसका सही निर्णय   होगा।
 कई लोग मानते हैं कि वे बिहारी बाबू का कारगर मुकाबला कर पाएंगे। मुझे भी ऐसा लगता है।पर अभी तो सब कुछ भविष्य के गर्भ  में है।  

रविवार, 6 जनवरी 2019

ड्रायवर रखने में सावधानी बरतें नेतागण
-----------------------
पूर्व रेल मंत्री सी.के.जाफर शरीफ के बारे मंे यह कहानी मैंने 
तभी सुनी थी।
पर, मैंने उस पर पूरा विश्वास नहीं किया था।
पर, जब कर्नाटका के पत्रकार मनोहर यडवट्टि ने पाक्षिक पत्रिका ‘यथावत’ के ताजा अंक में वही बात लिख दी तो मुझे लग गया कि अन्य लोगों को भी यह कहानी बतानी चाहिए ।ताकि, कम से कम बड़े नेतागण व महत्वपूर्ण लोग  अपना ड्रायवर रखने में सावधानी बरतें।
 हाल में जाफर शरीफ के  निधन के बाद मनोहर यडवट्टि ने उस किस्से को कुछ इस तरह लिपिबद्ध किया,
  ‘गरीब परिवार में जन्मे और अल्प शिक्षित जाफर शरीफ जवानी के दिनों में कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर के नेता एस.निजलिंगप्पा के संपर्क में आए।उनके निजी सहायक और ड्रायवर के रूप में अपने कैरियर की शुरूआत की।’
@ यह बात उस समय की है जब 
निजलिंगप्पा कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे।@
‘इस कारण जाफर शरीफ को बड़े नेताओं के बीच होने वाली बातचीत और राजनीतिक योजनाओं आदि के बारे में भी जानकारी रहती थी।
जब कांग्रेस में इंदिरा गांधी के नेतृत्व को लेकर विवाद की शुरूआत हुई ,उस समय निजलिंगप्पा इंदिरा गांधी के खिलाफ हो गए।
एक दिन कार में कहीं जाते वक्त निजलिंगप्पा अपने कुछ अन्य सहयोगियों के साथ इंदिरा गांधी को सबक सिखाने की योजना पर बातचीत कर रहे थे।
इस बातचीत को जाफर शरीफ ने ध्यान से सुना और उसके  तुरंत बाद वे राजधानी दिल्ली के लिए रवाना हो गए।
प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को सारी बातें विस्तार से बतार्इं।
उससे इंदिरा गांधी को अपने खिलाफ बनाई जा रही सारी योजनाओं की जानकारी मिल गई।
हालांकि इसके लिए जाफर शरीफ को विश्वासघाती तक की संज्ञा दी गयी।
लेकिन इंदिरा गांधी उनकी निष्ठा से काफी प्रभावित हुईं।1969 में कांग्रेस का विभाजन हो गया।
1971 में जब संसदीय चुनाव हुए तो इंदिरा गांधी ने जाफर शरीफ को कनक पुरा संसदीय क्षेत्र से पार्टी का टिकट दिया।
वह जीते भी।
इंदिरा गांधी ने उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया।
इंदिरा गांधी के रहते उनका कद हर समय ऊंचा बना रहा।’ 







   




यू.पी.ए.शासनकाल का कोयला घोटाला कुल मिला कर 1 लाख 86 हजार करोड़ रुपए का था।
क्या सचिव स्तर का एक अफसर अकेले इतना बड़ा घोटाला कर सकता है ? 1 लाख 86 हजार करोड़ रुपए को देख कर  किसी अन्य सत्ताधारियों के मुंह से लार नहीं टपकी ? 
  हालांकि ये घोटाले टुकड़ों में हुए,पर टुकड़ों मेें ही सही,बड़े निर्णायक लोगों में से सजा तो सिर्फ पूर्व कोल सेक्रेट्र्री हरिश्चंद्र गुप्त को ही मिल रही है।
 कोयला खान के आवंटन की फाइल न जाने कहां -कहां से गुजरते हुए कोयला मंत्री तक पहुंची थी।उस समय उस पद भी प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह ही थे।अंतिम निर्णय उनका ही था।
पर उनका बाल बांका नहीं हुआ।बेचारा ‘गरीब’ सचिव जिसने आदेश का पालन भर किया होगा ,पीडि़त हो रहा है।उसने कहा है कि जमानत के लिए वकील को देने के लिए मेरी  पेंशन राशि के पैसे काफी नहीं हैं, इसलिए मैं जेल जाऊंगा।उसके साथी उसे ईमानदार बता रहे हैं।
यह हुआ आरोपों का कृष्ण मेननीकरण !
 ऐसा ही एक और उदाहरण ! एयर फोर्स के बड़े अधिकारी एस.पी.त्यागी हेलिकाॅप्टर घोटाले में पकड़ में आ गए।घोटाला 36 हजार करोड़ रुपए का है।इतने रुपए देख कर न जाने इस देश के कितने बड़े -बड़े हुक्मरानों की जीभ से लार टपके होंगे ! हालांकि कुछ के नहीं भी टपके होंगे।
पर पकड़ में तो आए त्यागी जी ही !एक दो अन्य छोटे लाल ! उन्हें न तो कोई हरिश्चंद्र कह रहा और न ही त्यागी ही।पर बेचारा सिर्फ वही क्यों ? क्या अन्य बड़े घोटालेबाज सहभागी लोग परलोक में ही अपने पापों को फल भोगेंगे ! ?
  कृष्ण मेननीकरण जारी है ......। ऐसे ही चल रहा है अपना देश !
   

15 अगस्त 2014 को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि  ‘मेरा क्या और मुझे क्या’ की संस्कृति से हमें ऊपर उठना पड़ेगा।
उनका इशारा सरकारी हुक्मरानों की ओर था।लाल किले से अपने प्रथम संबोधन में मोदी ने कहा था कि ‘दुर्भाग्यवश ऐसा वातावरण बन गया है कि अगर कोई किसी के पास किसी काम से जाता है तो वह कहने लगता है कि इसमें ‘मेरा क्या ?’@यानी इसमें मुझे कितना मिलेगा ?@
पर जब पता चलता है कि उसे कुछ नहीं मिलेगा तो कहता है कि फिर ‘मुझे क्या ?’यानी मैं यह काम नहीं करूंगा। 
  अब प्रधान मंत्री चुनाव में जा रहे हैं।उन्हें देश को बताना चाहिए कि इस वातावरण को वे कितना बदल सके ?यदि नहीं तो बदलने में उनकी  क्या कठिनाइयां रहीं ?
  मोटामोटी केंद्रीय मंत्रिमंडल को छोड़ दें तो जानकार लोग बताते हैं कि सरकारी अफसरों ने उस वातावरण को बनाए ही रखा है।
एक बार एक मुख्य मंत्री ने मुझे बताया था कि अधिकतर आई.ए.एस.अफसर भ्रष्टाचार को कम नहीं होने देते।
क्या नरेंद्र मोदी का भी अनुभव यही रहा ? या राजनीतिक कार्यपालिका ने भ्रष्टाचार को जारी रखने का काम किया ?
बिहार के पूर्व मुख्य सचिव पी.एस.अप्पू ने लिखा था कि आई.ए.एस.अफसरों को संविधान ने इतना अधिक पावर दे रखा है कि उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
मोदी सरकार ने भी एक संशोधन करके यह कानूनी प्रावधान कर दिया है कि निर्दोष मन से किए गए गलत निणयों पर भी कोई कार्रवाई नहीं होगी।
  2019 के लोक सभा चुनाव में जनता यह पूछेगी कि मोदी जी,आप सरकारी भ्रष्टाचार पर काबू क्यों नहीं कर पाए ? कर पाए तो कितना ? फिर आपका क्या जवाब होगा ?


शत्रुघ्न सिन्हा ने कहा है कि प्रधान मंत्री का इंटरव्यू प्रायोजित था।वे विनोद दुआ और रविश कुमार का  सामना क्यों नहीं करते ?
शत्रु जी ने ठीक कहा है ।प्रधान मंत्री को  किसी भी पत्रकार का सामना करना ही चाहिए।
पर खुद बिहारी बाबू ने केद्रीय स्वास्थ्य  मंत्री के रूप में संसद का सामना कैसे किया,उसका एक नमूना यहां पेश है--
-----------------------------------
शत्रुघ्न बोले-क्यों मेरा इम्तिहान ले रहे हो ?
---------------------------
संसद में शॅाटगन के लगातार उपहास का पात्र बनने का क्रम जारी
--------------------------------
नयी दिल्ली,4 दिसंबर,2002,एजेंसियां ।संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने के पश्चात स्वास्थ्य मंत्री शत्रुघ्न सिन्हा को  आज लोक सभा में अपने मंत्रालय से संबंधित सवालों के बारे में अनभिज्ञ होने के कारण एक बार पुनः सदस्यों के उपहास का पात्र बनना पड़ा।
 लोक सभा में प्रश्न काल के दौरान सदस्यों के प्रश्नों का जवाब देने के लिए खड़े शत्रुघ्न  हर सवाल पर बगले झांकते नजर आए।
उनकी हालत यह थी कि अधिकारियों द्वारा भेजी गयी पर्चियां पढ़ते तो सवाल छूट जाते और सवाल सुनते तो पर्चियों में उनका जवाब नहीं तलाश पाते।
 देश में प्रतिबंधित दवाओं के नाम पढ़ते समय स्वास्थ्य मंत्री हड़बड़ा गए और उनसे दवा के नाम  का उच्चारण करते नहीं बना तो कहा कि जो भी है ....पांच छह सात दवाएं हैं जिन्हें प्रतिबंधित किया गया है।उनके इस जवाब पर सदन ठहाकों से गूंज उठा।
अन्ना द्रमुक के पी.एच.पांडियन के सवाल  के जवाब में उन्होंने कहा कि आप लोग क्यों मेरा इम्तिहान ले रहे हैं ?
मैं कोई डाॅक्टर नहीं हूं।मेहनत करके सीख रहा हूं।
मैं आप लोगों का अशीर्वाद हासिल कर रहा हूं।
उन्होंने यह भी कहा कि सदन में इतने अच्छे मेरे भाई हैं।आप लोग सहयोग कीजिए।
उनकी इस टिप्पणी के बावजूद सदस्य उनसे चुहलबाजी करने से बाज नहीं आए।
  दूसरी ओर अधिकारी स्वास्थ्य मंत्री को संकट से उबारने में लगे रहे और एक के बाद एक पर्चियां भेजते रहे।हालत यह हुई कि हर नई पर्ची आने पर सभी सदस्य बेसाख्ता हंसते रहे।
बाद में सिन्हा जब एक अन्य प्रश्न का उत्तर देने लगे तो विपक्ष की ओर से आवाज आयी, बहुत डायलग मार रहा है।इस पर सिन्हा ने उनकी ओर मुखातिब होकर हंसते हुए धीरे से कहा कि आप भी डाॅयलाग मारते हैं।
इस पर स्पीकर मनोहर जोशी ने उन्हें विपक्ष की टीका -टिप्पणी पर ध्यान न देने की सलाह दी।
तब सिन्हा ने कहा कि मैं उन्हें गंभीरता से नहीं लेता।
इसके बाद जोशी ने तीन -चार प्रश्नकत्र्ताओं  के नाम पुकारे तो वे सदन में  नदारत थे।संयोग से ये सारे सवाल स्वास्थ्य मंत्री से संबंधित थे। इस पर कांग्रेस के एस.बंगरप्पा ने सिन्हा की तरफ मुखातिब होकर  चुटकी ली, कुछ गड़बड़झाला लग रहा है।@दैनिक जागरण-5 दिसंबर 2002@
---------
नोट-शत्रु जी अगली बार जब मंत्री बनेंगे तो यह नौबत फिर न आ जाए,उसकी पूर्व तैयारी उन्होंने जरूर इस बीच कर ली होगी ! मेरी शुभकामना !

--हंगामा करते सदस्यों को निकाल देने की लोक सभा की पहल अनुकरणीय--सुरेंद्र किशोर --


लोक सभा में 2 जनवरी को हंगामा कर रहे अन्ना द्रमुक के 24 सदस्यों को स्पीकर सुमित्रा महाजन ने सदन से पांच काम- काजी दिवसों के लिए निलंबित कर दिया।
लोस स्पीकर का यह कदम सराहनीय है।हालांकि  यह सजा काफी कम है। यह सजा सबक सिखाने के लिए तो बिलकुल ही अपर्याप्त  होगी।
 खैर शुरूआत अच्छी है।
 अब राज्यों की विधायिकाओं के पीठासीन पदाधिकारियों को भी जरूरत पड़ने पर ऐसे ही कदम उठाने ही चाहिए।ऐसा करके वे लोकतंत्र का भला करेंगे।
लोक सभा में लगभग रोज ही हो रहे हंगामे से क्षुब्ध स्पीकर ने पिछले महीने कहा था कि आपकी हालत तो स्कूली छात्रों से भी बदतर है।ठीक ही कहा था।
उन्होंने चेतावनी भी दी थी कि यदि हंगामा बंद नहीं हुआ तो कार्रवाई होगी।
 उन्होंने कार्रवाई की शुरूआत भी कर दी।
उधर राज्य सभा में पीठासीन पदाधिकारी हंगामों से अब भी परेशान रहते हैं।दरअसल सत्ताधारी गठबंधन को वहां बहुमत हासिल नहीं है, लगता है इसीलिए किसी तरह की सख्त कार्रवाई में हिचक है।
 लेकिन बिहार सहित देश की  अनेक राज्य विधान सभाओं में अनुशासन लाने के लिए संबंधित पीठासीन पदाधिकारी लोक सभा स्पीकर का अनुसरण कर सकते हैं।उससे लोकतंात्रिक संस्था  के प्रति नई पीढ़ी में गलत धारणा नहीं बनेगी।
उनको इसका श्रेय भी मिलेगा।
  दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि देश की  अधिकतर विधायिकाएं 
‘हंगामा सभाएं’  बन कर रह गई हैं।
इसके लिए सारे दल जिम्मेदार हैं।जो जहां प्रतिपक्ष में है,वहां वह हंगामा करना अपना कत्र्तव्य समझता है।नतीजतन लोकतंत्र लहू लुहान हो रहा है।नई पीढ़ी को गलत संदेश मिल रहा है।संसद की कार्यवाही देखने गए एक स्कूली छात्र ने एक बार कहा था कि ‘हम तो इनसे अच्छे हैं।’ 
--नो-मो-फोबिया से ग्रस्त-- 
नोमोफोबिया यानी एक ऐसी बीमारी जिसमें मोबाइल साथ में नहीं रहने पर डर लगता हो ! कहीं जरूरी फोन करना है तो काम बिगड़ सकता है,यदि उस समय मेरे पास मोबाइल नहीं हो।यह है डर !
  अब तो स्मार्ट फोन का जमाना आ गया है।शहर से गांव तक यह महामारी के रूप मौजूद  है।बढ़ता जा रहा है।
स्मार्ट फोन में व्यस्त पिता को पुत्र से बात करने की फुर्सत नहीं तो पति को पत्नी से।अब तो पत्नियों के हाथों में भी स्मार्ट फोन नजर आने लगा है।इससे सबसे अधिक खतरा बच्चों की आंखों को है।पर कौन ध्यान देता है !
कई बार तो आपके ड्राइंग रूम में बैठे आपके चारों -पांचों मित्रों की नजरें  अपने -अपने स्मार्ट फोन पर 
होती हैं और आपकी तरफ से वे लगातार लापारवाह रहते हैं।
  हद तो तब हो जाती है जब कोई राजनीतिक दल या संगठन किसी गंभीर विषय पर बात करने के लिए कुछ प्रमुख व्यक्तियों की बैठक बुलाए।
बैठक में रह -रह कर  मोबाइल की घंटियां ध्यान बंटा देती हैं।
हाल में दार्जिलिंग में जब गोरखा जन मुक्ति मोर्चा ने गंभीर चिंतन के लिए बैठक बुलाई तो उसने सख्त हिदायत दे दी थी कि किसी के हाथ में मोबाइल सेट नहीं होगा।
ऐसी बैठकों के लिए एक अन्य उपाय भी हो सकता है।उससे ‘नो-मो-फोबिया’ से एक हद तक  लोगों को बचाया जा 
सकता है।
बैठक हाॅल में प्रवेश करने से पहले सारे लोग अपने मोबाइल सेट की बैट्री एक छोटे लिफाफे में रख कर एक जगह जमा कर दें।
जाहिर है कि उन लिफाफों में उनके नाम लिखे होंगे।इससे लौटाने में सुविधा होगी।
मोबाइल सेट तो पास में रहने का संतोष होगा,पर बात नहीं कर पाएंगे।
यानी  यह संतोष  रहेगा कि कुछ देर बाद बैट्री वापस मिलते ही बातें होने लगेंगी।शायद इससे ‘नोमोफोबिया’ से बचा जा सके ! 
याद रहे कि नोमोफोबिया शब्द 2010 से ही चलन में है।
 -- पी.एम.उम्मीदवार ममता बनर्जी--
तृणमूल कांग्रेस  ममता बनर्जी को प्रधान मंत्री की उम्मीदवार के रूप में पेश करके चुनाव लड़ेगी।
पार्टी के स्थापना दिवस पर यह घोषणा की गयी।ममता बनर्जी के भतीजा व सांसद अभिषेक बनर्जी ने उम्मीद जताई है कि  नया साल अच्छे दिन लाएगा।
खबर मिल रही है कि देश के कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों के कुछ नेता भी उम्मीद कर रहे हैं कि शायद उन्हें भी  उसी तरह प्रधान मंत्री बनने का अवसर मिल सकता है जिस तरह नब्बे के दशक में एच.डी.देवगौड़ा को मिला था।
हालांकि बेल के पेड़ के नीचे संयोग से ही आम मिला करता है।
पर ‘हम किससे कम !’ इसी तर्ज पर राजनीति चल रही है।
पर इसमें एक दिक्कत भी है।
अधिकतर क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपनी औकात से अधिक लोक सभा सीटों पर लड़ना चाहते हैं ताकि अधिक सीटें जीतें।अधिक विजयी सांसद यानी उस दल के नेता के पी.एम.बनने के उतना ही अधिक चांस !
 पर इस सिलसिले में विभिन्न दलों के बीच चुनावी तालमेल में दिक्कतें आ रही हैं।देखना है कि आने वाले दिनों में महा गठबंधन व फेडरल फं्रट इस समस्या का किस तरह समाधान करते हैं।
 --बांध के साथ ही घाट का भी निर्माण जरूरी-- 
सारण जिले के दरिया पुर अंचल के भरहा पुर गांव के पास की नदी पर इस राज्य सरकार ने कुछ साल पहले मजबूत व ऊंचा बांध बनवाया।उसकी जरूरत भी थी।लोग खुश हुए।
 बांध बनने  से पहले नदी के घाट पर लोग नहाते  व छठ पूजा वगैरह करते थे।पहले घाट काम चला देते थे।
पर अब उस काम में काफी दिक्कतें आ रही हैं।क्योंकि 
बांध से उतर कर नदी में जाने के लिए ढलान अब बहुत तीखा हो गया है।
सरकार नदियों में घाट बनाती ही रहती है।यदि बांध निर्माण को घाट निर्माण के काम से जोड़ दिया जाए तो लोगों  की खुशियां दुगुनी हो जाएंगी।
    -- भूली बिसरी याद--
आजादी के तत्काल बाद राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर कई अच्छे कानून बनाए गए,पर उन्हें कड़ाई से लागू नहीं किया गया ।
पश्चिम बंगाल का बटाईदारी कानून उसका बड़ा उदाहरण है।
जानकार बताते हैं कि बिहार का जमीन्दारी उन्मूलन कानून भी कुछ वैसा ही था।जमींदारों के फायदे के लिए उसमें  कुछ छेद छोड़ दिए गए थे।
पश्चिम बंगाल की वाम मोरचा सरकार का ‘बरगा आपरेशन’ काफी चर्चित और कारगर रहा।उसका राजनीतिक लाभ वर्षों तक वाम मोरचा को मिला।
पर वाम सरकार का बरगा अभियान कोई नया नहीं था।डा.विधान चन्द्र राय के कांग्रेसी मंत्रिमंडल के समय के भू राजस्व मंत्री विमल चन्द्र सिंह ने बटाईदारों को जोतदारों द्वारा अनवरत बेदखल किए जाते देख एक कानून बनाया था।विमल चन्द्र सिंह हांलाकि खुद बहुत बड़े जमीन्दार थे।उस कानून
के तहत बटाईदारों के नाम दर्ज करना जरूरी कर दिया गया था।
उस मंत्री ने उस समय यह भी कहा था कि जो भी बटाईदार अपना नाम दर्ज कराने आएगा, उसका नाम दर्ज करना अनिवार्य होगा।पर कांग्रेसी सरकार ने उस कानून पर अमल ही नहीं किया।अमल किया ज्योति बसु के नेतृत्व वाली वाम सरकार ने। 
   -- और अंत में--
इस देश के कुछ खास नेताओं की मीडिया के एक हिस्से  से अक्सर एक खास तरह की शिकायत रहती है।
वे कभी कहते हैं कि उनके बयान को गलत ढंग से पेश किया गया।कभी कहते हैं कि मेरे बयान का गलत अर्थ लगाया गया।कभी कुछ और तो कभी कुछ और !
अरे भई नेता जी ,आपके ही बयानों के साथ अक्सर ऐसा  क्यों होता है ?
आप द्विअर्थी संवाद आखिर बोलते ही क्यों हैं ?
ऐसे बयान देते ही क्यों हैं जिनके दो अर्थ लग सकते हों ?
पर,शायद आप जानबूझकर ऐसे बयान देते हैं।आप कुछ खास संदेश भी देना चाहते हैं।साथ ही, अपने बयान के कुपरिणाम से बचना भी चाहते हैं।ऐसे में मीडिया पर दोषारोपण कर देने से बढि़या और कोई उपाय है भी नहीं !
हां, ऐसे आदतन द्विअर्थी संवाद अदायगी वाले नेताओं का मीडिया बहिष्कार करने लगे तो उनके होश ठिकाने आ जाएंगे।
@4 जनवरी 2019 को प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@

सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज मार्कंडेय काटजू ने कहा है कि 
‘ कई मुस्लिमों की समस्या यह है कि जब मैं हिंदुओं की बुराइयों की आलोचना करता हूं तो वे ताली बजाते हैं।
 लेकिन जब मैं मुसलमानों की बुराइयों की आलोचना करता हूं तो वे शोर मचाने लगते हैं।
यह नहीं चलगा। सेक्युलरिज्म एकतरफा नहीं हो सकता।
यह दो तरफा होता है।’  

शुक्रवार, 4 जनवरी 2019

पाटलिपुत्र विश्व विद्यालय का स्थायी भवन पटना के मीठा पुर बस स्टैंड के पास बनेगा।
यानी पटना को गैस चेम्बर बनने से रोकने का एक और अवसर बिहार सरकार ने खो दिया।
 यह स्थान इस तर्क के आधार पर चुना गया है कि प्रादेशिक राजधानी के सारे बड़े शिक्षण संस्थान एक ही साथ आसपास रहें।
यह तर्क तो सही है।
पर, पटना मेडिकल काॅलेज अस्पताल का प्रस्तावित विशाल भवन भी तो नगर के बीच में ही बनने जा रहा है।
विशाल बिहार म्यूजियम नगर की मुख्य सड़क पर बन गया।
पटना कलक्ट्री को नगर के बाहर ले जाने का प्रस्ताव कुछ साल पहले सामने आया था।पर वह भी कार्यान्वित नहीं हो सका।
  नगर में अधिक आॅफिस और प्रतिष्ठान, यानी महा नगर बन रहे  पटना नगर में अधिक वाहन।अधिक वाहन यानी अधिक प्रदूषण।
अधिक आबादी यानी भूजल पर भी अधिक दबाव।अन्य अनेक समस्याएं।
  चीन ने अपने महा नगरों से कुछ प्रतिष्ठान बाहर शिफ्ट करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है।वे अपने महा नगरों को गैस चेम्बर बनने से अभी से रोक देना चाहते हैं।पर हमारी केंद्र सरकार यही काम दिल्ली में नहीं कर रही है।
 जहां सबसे ताकवर सरकार बसती है,उस महा नगर दिल्ली में सर्वाधिक प्रदूषण ! ?आश्चर्य होता है।
भीषण प्रदूषण के कारण दिल्ली के लोगों की आयु 7 साल कम हो गयी है।पटना का भी यही हाल है।
दिल्ली से कुछ लोग बाहर जा रहे हैं,पर प्रतिष्ठान व सरकारी दफ्तर यथावत हैं।क्यों भाई ?
अपनी ही अगली पीढि़यों की थोड़ी चिंता तो कर लो !
रवीन्द्र नाथ ठाकुर के जमींदार परिवार के पास कलकत्ता में भी जमीन थी,पर उन्होंने वहां से 168 किलोमीटर दूर शांति निकेतन बसाया।      

गुरुवार, 3 जनवरी 2019

 आतंकी तत्वों से हमदर्दी की आदत--सुरेंद्र किशोर
------------------------------- 
   हाल में दिल्ली के जाफराबाद और उत्तर प्रदेश के अमरोहा से एनआइए ने एक मौलवी और इंजीनियरिंग छात्र सहित दस लोगों को देश के खिलाफ आतंकी साजिश रचने के आरोप में  गिरफ्तार किया। 
    उनकी योजना देश को दहलाने और कुछ हस्तियों को नुकसान पहुंचाने की थी।बताया जा रहा है कि ये लोग आइएस से प्रेरित थे।हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि अतीत में प्रतिबंधित आतंकी संगठन ‘सिमी’ के साथ इस देश के कुछ दलों और नेताओं का  स्नेह-समर्थन का  संबंध रहा है।
   संभवतः ऐसी ‘उर्वर भूमि’ देख-सुन कर ही अबु बकर अल बगदादी के समर्थकों ने अपनी सक्रियता बढ़ा दी हो।
नतीजतन यह मामला सामने आया।
पता नहीं, इस देश में अभी और कहां-कहां अमरोहा या जाफराबाद पल रहा है !
  देखा जाए तो  सिमी, खलीफा के शासन का पक्षधर था और बगदादी का आइ.एस. भी।
      1977 में अलीगढ़ में गठित छात्र संगठन सिमी अपने प्रेस इंटरव्यू में साफ-साफ कहता रहा कि हम हथियारों के बल पर इस देश में इस्लामिक शासन कायम करना चाहते हंै।ं
स्थापना के समय सिमी का संबंध जमात ए इस्लामी से था।
लेकिन  जब उसने  इस्लाम के जरिए भारत की मुक्ति का नारा दिया तो 1986 में जमात ए इस्लामी ने सिमी से अपना नाता तोड़ लिया।
इसके बावजूद कुछ तथाकथित सेक्यूलर दलों के बड़े नेतागण उसे छात्रों का निर्दोष संगठन बताने लगे। जब उस पर 2001 में प्रतिबंध लगा तो कांग्रेसी नेता सलमान खुर्शीद सिमी के बचाव  में सुप्रीम कोर्ट में खड़े हो गए।खुर्शीद उस समय उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे।
     इसके अलवा बिहार,उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के कई बड़े नेताओं ने भी खुलेआम सिमी का बचाव करते हुए कहा कि सिमी एक निर्दोष संगठन है।
2008 में दिल्ली हाईकोर्ट के ट्रिब्यूनल ने सिमी पर लगे प्रतिबंध को समाप्त कर दिया तो सपा नेता मुलायम सिंह यादव और राजद नेता लालू प्रसाद ने ट्रिब्यूनल के निर्णय का स्वागत किया।लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिब्यूनल के निर्णय को रद कर दिया।उसके बाद भी लालू प्रसाद ने प्रतिबंध हटाने की वकालत की।
     मुलायम सिंह ने इसी तरह की मांग करते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश में सिमी ने कोई आतंकी कार्रवाई नहीं की है।पर सिमी की हिंसक और देशद्रोही करतूतों को ध्यान में रखते हुए पूर्ववर्ती केंद्र सरकार@कांग्रेसनीत सरकार@ ने सिमी पर से प्रतिबंध नहीं हटाया।
चूंकि हमारे यहां आतंकियों का खुलेआम समर्थन करने वालों के लिए किसी तरह की सजा का प्रावधान नहीं है,इसलिए भी उन लोगों ने अपना काम जारी रखा है।  
यशवंत सिन्हा और अरूण शौरी के नेतृत्व में भाजपा 
का शिष्टमंडल 19 अगस्त, 2008 को चुनाव आयोग दफ्तर गया था।
 शिष्टमंडल ने आयोग से मांग की थी कि सिमी जैसे चरमपंथी संगठन का पक्ष  लेने वाले राजनीतिक  दलों की मान्यता खत्म की जाए।परंतु यशवंत सिन्हा और अरूण शौरी जैसे नेता आज चुप हैं क्योंकि अब वे भाजपा में नहीं हैं।
      इस देश में पार्टी बदल जाने पर देश की रक्षा के प्रति नेताओं की गंभीरता में भी फर्क आ जाता है।
 सिमी की पत्रिका ‘इस्लामिक मूवमेंट’@सितंबर 1999@ के  संपादकीय ने सेक्यूलर लोकतंत्र के बजाए जेहाद और शहादत की अपील की।
सिमी @अहमदाबाद@के जोनल सेके्रट्री साजिद मंसूरी ने एक अंग्रेजी अखबार टाइम्स आॅफ इंडिया  @30 सितंबर 2001@से कहा था  कि ‘जब भी हम सत्ता में आएंगे ,हम मंदिरों को नष्ट कर देंगे और वहां मस्जिद बनाएंगे।’
 इसी तरह ‘सिमी-संघर्ष यात्रा के 25 वर्ष’ नामक पुस्तिका में सिमी ने लिखा था कि ‘राष्ट्रवाद खिलाफत में सबसे बड़ी बाधा है।’
       सिमी बिहार जोन के सचिव रियाजुल मुसाहिल ने 20 सितंबर 2001 को कहा था कि ‘कुरान हमारा संविधान है।हम भारतीय संविधान से बंधे हुए नहीं हैं।हम भारत सहित पूरी दुनिया में खलीफा का शासन चाहते हैं।’
    अहमदाबाद धमाके के बाद पकड़े गए सिमी सदस्य अबुल बशर ने बताया कि सिमी की इस नीति से प्रभावित हूं कि लोकतांत्रिक तरीके से इस्लामिक शासन संभव नहीं।उसके लिए एकमात्र रास्ता जिहाद है।
इसके बावजूद कांग्रेसी नेता डा.शकील अहमद ने कहा था कि गुजरात दंगे के विरोध स्वरूप इंडियन मुजाहिदीन यानी आइएम का गठन हुआ।
जबकि  हकीकत यह है कि अनेक हिंसक कारनामों की खबरों के बीच 2001 में जब केंद्र सरकार ने सिमी पर प्रतिबंध लगाया तो सिमी के नेताओं ने 2002 में इंडियन मुजाहिदीन बना लिया।
2002 के गुजरात दंगे से बहुत पहले सिमी एलान कर चुका था कि हमारा उद्देश्य हथियार के बल पर भारत में इस्लामिक शासन कायम करने का है।हमारे आदर्श ओसामा बिन लादेन हैं।माना जाता है कि आइ एम के मोस्ट वांटेड आतंकी अब्दुल सुभान कुरैशी उर्फ लादेन और उसके साथियों ने पाकिस्तान के पैसे के बल पर इंडियन मुजाहिदीन की जड़ें जमाईं।
    26 जुलाई 2008 को अहमदाबाद में एक साथ 21 बम विस्फोट हुए जिनमें 56 लोगों की जान गई थीं।
उस विस्फोट की जिम्मेदारी इंडियन मुजाहिदीन ने ली थी।दरअसल सिमी के सदस्य ही आइ एम में सक्रिय हो गए थे।
यह तथ्य सिमी और इंडियन मुजाहिदीन की कार्यशैली को समझने के लिए पर्याप्त होना चाहिए।फिर भी कुछ कथित सेक्युलर दलों के नेताओं ने सिमी से संबंध जारी रखा।
याद रहे कि 2012 में पश्चिम बंगाल के तत्कालीन डी.जी.पी.एन.मुखर्जी ने कहा था कि सिमी के जरिए आई.एस.आई.ने माओवादियों से तालमेल बना रखा है।
इसके अलावा हाल में  केरल पुलिस ने वहां के हाई कोर्ट को यह बताया है कि पोपुलर फं्रट आॅफ इंडिया, सिमी का ही नया रूप है।
 पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी जब गत वर्ष  पी.एफ.आई. से जुड़े महिला संगठन के कार्यक्रम में केरल गए थे,तो उस पर भारी विवाद हुआ था। 
इस पृष्ठभूमि में एनआइए की ओर से की गई गिरफ्तारी को देखना मौजूं होगा।
 दुख की बात है कि आइएस की बर्बरता की खबरें मिलते जाने पर भी राजनीतिक कारणों से कई दलोें में कोई खास चिंता नहीं देखी जा रही है।
तथाकथित सेक्यूलर बुद्धिजीवी भी बेपरवाह हैं।कुछ तो इस पर एनआइए का मजाक उड़ाने के लिए सक्रिय हो गए कि उसने सुतली बम बरामद किए।
यह एक तरह से राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति प्रदर्शित की जाने वाली घोर अगंभीरता ही है।
इस अगंभीरता से यही प्रकट हुआ कि अपने देश में राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े सवालों को किस तरह संकीर्ण राजनीतिक चश्मे से देखने की आदत भी पनपने लगी है।
@ 3 जनवरी , 2019 के  दैनिक जागरण में प्रकाशित@