शुक्रवार, 30 जून 2017

इमरजेंसी के बहाने नागार्जुन के बारे में कुछ खट्टी-मीठी बातें

एक व्यक्ति ने एक जगह हाल में लिखा कि नागार्जुन ने ‘इंदु जी, इंदु जी, क्या हुआ आपको’ वाली चर्चित कविता इमरजेंसी में ही लिखी थी। शायद वह यह कहना चाहते थे कि इमरजेंसी में भी प्रधानमंत्री की आलोचना करने की छूट थी।

इमरजेंसी और नागार्जुन को इतना कम जानने वाले लोग भी इस बार आपातकाल पर हुई चर्चाओं में शामिल हो गए।


याद रहे कि 25 जून 1975 की रात में इस देश में इमरजेंसी लगी थी। 25 जून को हर साल इमरजेंसी पर कुछ चर्चाएं होती हैं। कुछ लेख अखबारों में छपते हैं। संयोग से 30 जून बाबा नागार्जुन का जन्मदिन भी है। पर इस बीच के दशकों में इमरजेंसी लगाने वाली पार्टी और इमरजेंसी भुगतने वाले दल सत्ता के लिए आपस में मिलते-बिछुड़ते रहे। इसलिए नयी पीढि़यां इमरजेंसी के असली स्वरूप से पूरी तरह अवगत नहीं हो सकी। उनमें से अधिकतर लोगों के पास इस संबंध में जानकारी अधकचरी है या एकतरफा है। दरअसल उन्हें बताने वालों की ही कमी पड़ गयी।


अब नागार्जुन की उस चर्चित कविता के बारे में कुछ बातें।

नागार्जुन की कविता की कुछ पंक्तियां यूं हैं --
इंदु जी इंदु जी क्या हुआ आपको ?
सत्ता की मस्ती में भूल गयीं बाप को !
बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को।

इमरजेंसी में पुलिस किसी को ऐसी कविता गुनगुनाते हुए भी देख लेती तो उसकी जगह जेल होती। दरअसल यह कविता इमरजेंसी से पहली लिखी गयी थी। जेपी आंदोलन के दौरान की जनसभाओं और नुक्कड़ सभाओं में बाबा इस कविता का भी अक्सर पाठ करते थे। बल्कि यह कविता इमरजेंसी से पहले ही पटना के एक दैनिक अखबार में छप भी चुकी थी। 




फर्नांडिस ने किया था कविता पर मीठा एतराज़

1974 के जेपी आंदोलन के दौरान वैशाली जिले के महनार मेंं जनसभा हो रही थी। मुख्य वक्ता जार्ज फर्नांडिस थे। ऐसी सभाओं के लिए नागार्जुन की तब बड़ी मांग थी। स्वाभाविक था कि वहां बाबा भी थे। एक रिपोर्टर के रूप में मैं भी था।

पहले बाबा ने मंच से अपनी यह मशहूर कविता पढ़ी। खूब तालियां बजीं। पर जब बोलने के लिए जार्ज खड़े हुए तो बाबा की इस कविता से ही अपनी बात शुरू की। जार्ज ने कहा कि ‘इंदु जी इंदु क्या हुआ आपको और भूल गयीं बाप को’, यह लाइन सही नहीं है। दरअसल इनके बाप भी ऐसे ही थे। हालांकि श्रोताओं में जार्ज की इस बात की ग्राह्यता उतनी नहीं थी जितनी बाबा की उस कविता की। खैर यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि बाबा जेपी आंदोलन में थे। जेपी उनका बड़ा ख्याल रखते थे।


उस दौरान बाबा जेल भी गए। आंदोलन पर पुलिस दमन के विरोध स्वरूप बाबा ने  बिहार सरकार से मिल रही मासिक पेंशन को भी लेने से मना कर दिया था। हालांकि उनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। पेंशन मना करने वालों में रेणु भी थे। 4 नवंबर 1974 को जब पटना में जेपी पर पुलिस ने लाठी चलाई तो उसके विरोध में फणीश्वरनाथ रेणु ने तो पद्मश्री लौटा दी थी।


खैर बाबा का बाद के दिनों में जेपी आंदोलन से मन उचट गया था। दरअसल आंदोलन में शामिल कुछ अनुशासनहीन छात्रों से बाबा अधिक दुःखी थे। ऐसे उदंड आंदोलनकारियों से बाबा का बक्सर जेल में पाला पड़ गय़ा था। कुछ अन्य बातें भी रही होंगी।


बाद में उन्होंने आंदोलन से अलग होकर उस जेपी आंदोलन के खिलाफ भी एक जोरदार कविता लिख दी थी। जेपी आंदोलन में शामिल कुछ लोगों ने बाद के दशकों में जैसे-जैसे गुल खिलाए, उनपर बाबा की वह कविता सटीक बैठती है।


हालांकि सारे आंदोलनकारी वैसे ही नहीं साबित हुए।




जरा ढंग से हो पैथ लैब की जांच

एक अच्छी खबर है। पटना हाईकोर्ट के आदेश पर राज्य सरकार पैथ लैब की जांच कर रही है। कई फर्जी पाए गए। फर्जी लैब और फर्जी पैथोलाॅजिकल जांच से अनेक मरीजों का बड़ा नुकसान हो जाता है। कई मामलों में ऐसा नुकसान जिसकी कभी भरपाई नहीं हो पाती।

सवाल है यह कि जांच सिर्फ पंजीयन और तकनीकी स्टाफ की मौजूदगी की ही हो रही है या पैथोलाॅजिकल जांच की गुणवत्ता की भी जांच हो रही है ?


एक सलाह है। जो लोग इस जांच के काम में लगे हैं, वे नमूना के तौर पर एक व्यक्ति के खून के तीन नमूनों की जांच तीन लेबोरेटरी में करवा कर देखें। यदि जांच रिजल्ट समान आता है तो खुशी की बात है। यदि नहीं तो सरकार उस मर्ज का भी स्थायी इलाज करे। तभी मरीजों का पूरा कल्याण हो पाएगा।




पैरवीकारों के प्रकाशित हों नाम 

जो व्यक्ति सरकारी जमीन बेचने के आरोप में पहले ही जेल जा चुका हो, उसकी पटना में डी.सी.एल.आर के पद पर तैनाती हैरान करती है। पर जहां जिसके पैरवीकार ताकतवर लोग हों, वहां कुछ भी असंभव नहीं। अभी फरार डी.सी.एल.आर. मिथिलेश कुमार सिंह पर पटना के कंकड़बाग पावर सब स्टेशन की जमीन गैर कानूनी तरीके से बेचने का आरोप है। जाहिर है कि जमीन करोड़ों की है।


इससे पहले के वर्षों में भी मिथिलेश कुमार सिंह पर आरोप लगते रहे। पर उसके बावजूद वह महत्वपूर्ण जगहों पर पोस्टिंग पाते रहे। ऐसा उच्चस्तरीय पैरवी से ही संभव है। ऐसी पैरवी में नेता, बड़े अफसर और रिश्वत कारगर होते हैं। कुछ मामलों में तो तीनों एक साथ। यदि मिथिलेश को इस केस में अंततः अदालत से सजा हो जाती है तो राज्य सरकार को चाहिए कि वह उनके पैरवीकारों के नाम राज्य के मंत्रियों और अफसरों में वितरित करा दे ताकि अब से उनकी जायज पैरवी पर भी कोई मंत्री-अफसर ध्यान नहीं दे। अन्य मामलों में भी ऐसा ही हो। भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए यह कारगर तरीका बन सकता है। 




ऐसे संभव है किन्नरों की मदद

 किन्नरों के सामने भी बेरोजगारी की समस्या है। इनका उपयोग कर्ज और बकाया वसूली के काम में हो सकता है। देश भर में बैंक और नगर निकाय के समक्ष बकाया और टैक्स वसूली की समस्या मुंह बाए खड़ी रहती हैं।

 2006 में पटना नगर निगम ने किन्नरों को वसूली के काम में लगा कर ऐसा प्रयोग किया भी था। उन्हें कमीशन मिलता था। वसूली के काम में कुछ सफलता भी मिली थी। पर पता नहीं, उसे क्यों बंद कर दिया गया!

किन्नर गाना-बजाना करके कुछ ही देर में बकायएदारों के यहां से आसानी से पैसे वसूल लेते हैं। कल्पना कीजिए कि जो बैंकों के कर्ज की किश्तें जान बूझकर नहीं दे रहा है। उसके दरवाजे पर पुलिस की सुरक्षा में रोज दस-पांच किन्नर पहुंच जाएं। वे रोज तीन -चार घंटे उसके घर के सामने अपना कार्यक्रम चलाएं। उनसे कर्ज लौटाने की गुजारिश करे। फिर क्या होगा ? अधिकतर मामलों में तीन चार दिनों में ही पैसे निकलने लगेंगे। 



और अंत में

महागठबंधन के आंतरिक विवाद को लेकर जिस तरह की टिप्पणी की प्रतीक्षा थी, अंततः वह भी आ ही गयी। एक बड़े नेता ने कहा कि कोई मतभेद नहीं है। सब मीडिया की साजिश है। ऐसी टिप्पणी चुनाव के दिनों में अधिक सुनने को मिलती है।


जब कोई पार्टी चुनाव जीतती है, तब तो वह कहती है कि ऐसा हमारे पुण्य प्रताप से हुआ। पर जब हारती है तो कह देती है कि मीडिया ने कुप्रचार करके हरवा दिया। मीडिया के लोगों को ऐसी बातें सुनने की आदत सी पड़ गयी है। 


वैसे अच्छा हुआ कि महागठबंधन का झगड़ा सुलझ गया। उम्मीद है कि उसकी सरकार विकास और सुशासन के काम में नए उत्साह के साथ लग जाएगी।


(प्रभात खबर पटना में 30 जून 2017 को प्रकाशित )

शुक्रवार, 23 जून 2017

भ्रष्टों के खिलाफ स्टिंग आॅपरेशन में क्यों नहीं लगते ईमानदार लोग !

कल्पना कीजिए कि कुछ उत्साही और ईमानदार लोग मिलकर एक ऐसा संगठन बना लें जो भ्रष्टाचार व अपराध के खिलाफ सिर्फ स्टिंग आपरेशन करें यानी ‘डंक अभियान’ चलाए ? जाहिर है कि वह संगठन रातोंरात देश में लोकप्रिय हो जाएगा।

क्योंकि आज बिहार सहित पूरे देश में आम लोग सरकारी -गैर सरकारी भ्रष्टाचार से काफी परेशान हैं। आज हर क्षेत्र के भ्रष्ट लोग इतने अधिक ताकतवर हो चुके हैं कि उनके खिलाफ अधिकतर मामलों में शासन की ओर से निर्णायक और सबक सिखाने वाली कार्रवाई नहीं हो पा रही है। ईमानदार मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री भी भ्रष्ट सरकारी अफसरों और कर्मियों पर काबू पाने में कई बार खुद को असमर्थ पाते हैं।

अपने मुख्यमंत्रित्व काल के प्रारंम्भिक वर्षों में नीतीश कुमार ने अपने दल के लोगों  से अपील की थी कि वे भ्रष्ट सरकारी कर्मियों को पकड़ने में निगरानी ब्यूरो की मदद करें। पर ऐसा नहीं हो सका। क्योंकि अपवादों को छोड़ दें तो आज अधिकतर राजनीतिक दलों में ऐसे ही कार्यकर्ताओं की भरमार है जो बिना कुछ किए रातोंरात कुछ पा लेना चाहते हैं। 

दरअसल स्टिंग आपरेशन वही लोग चला सकते हैं जो निःस्वार्थ समाज सेवा की भावना से ओतप्रोत हों। कुछ निजी चैनल के पत्रकार ‘डंक अभियान’ चलाते रहते हैं। उस अभियान का सकारात्मक असर भी पड़ता है। कई बार सरकार और विधायिका भी डंक अभियान पर कार्रवाई करने को बाध्य हो जाती है। 2005 में संसद ने अपने 11 सदस्यों की सदस्यता समाप्त कर दी थी।

सुप्रीम कोर्ट ने भी बाद में संसद के उस फैसले पर अपनी मुहर लगायी। उन सांसदों पर सदन में प्रश्न पूछने के लिए रिश्वत लेने का आरोप था। उनमें से राज्य सभा के एक सदस्य पर तो सांसद फंड के बदले में घूस लेने का आरोप था। ये सभी सांसद एक स्ंिटग आपरेशन में पकड़ में आ गए थे। पर इस देश में भ्रष्टाचार की भीषण समस्या की व्यापकता को देखते हुए इस काम में अधिकाधिक लोगों के लग जाने की जरूरत महसूस की जा रही है। अन्यथा देर हो जाएगी। 

अपनी सरकार में भ्रष्टाचार से परेशान एक राज्य के मुख्यमंत्री ने कई साल पहले अपने उत्साही और सिद्धांतवादी युवकों से अपील की कि वे भ्रष्टों के खिलाफ ‘डंक अभियान’ चलाएं। पर दूसरे ही दिन उस राज्य के बड़े अफसरों के संगठन ने प्रेस कांफ्रेंस करके मुख्यमंत्री की इस अपील का खुलेआम विरोध कर दिया। मुख्यमंत्री ने फिर अपनी बात नहीं दुहरायी।

इससे भी समझा जा सकता है कि यह समस्या कितनी गहरी है और उसके सामने ईमानदार नेता भी कितने लाचार हैं। हालांकि आम नेताओं में ईमानदारी तो और भी तेजी से घटती जा रही है। सरकारी भ्रष्टाचार के कारण देश के विकास की गति धीमी है।

कई बार अपने ड्राइंग रूम की बातचीत में कुछ लोग यह रोना रोते हैं कि भले लोगों के लिए राजनीतिक दलों में कोई जगह ही नहीं है। उनमें से कई अच्छी मंशा वाले लोग भी होते हैं। वैसे लोग डंक अभियान को परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से मदद कर सकते हैं। 

हां, इस मामले में सरकार को भी डंक अभियान के बारे में स्पष्ट गाइडलाइन जारी करनी चाहिए। यदि सरकारों की मंशा अच्छी है तो उसे ऐसे अभियानों से मदद ही मिलेगी। अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन में कुछ बंधनों के साथ स्टिंग आपरेशन की पूरी छूट है। इसे कानून के कार्यान्वयन की दिशा में विधिसम्मत तरीका माना जाता है। 2003 में  भारत के सुप्रीम कोर्ट ने भी डंक अभियान पर कुछ दिशा निदेश दिए थे। उससे ठीक पहले एक केंद्रीय मंत्री का मीडिया द्वारा स्टिंग आपरेशन हुआ था। उस घूसखोर मंत्री को यह कहते हुए कैमरे पर पकड़ा गया था कि ‘पैसा खुदा तो नहीं, पर खुदा की कसम, खुदा से कम भी नहीं।’

अदालत के दिशा निर्देश का मूल तत्व यही है कि आम आदमी या पत्रकार व्यापक जनहित में ऐसा कर सकते हैं। पर किसी के भयादोहन के लिए इस तरीके का इस्तेमाल नहीं हो सकता। जाहिर है कि उस समय की अपेक्षा देश में भ्रष्टाचार बढ़ा है।



जी.एस.टी. के बेहतर नतीजों का इंतजार 

आर्थिक इतिहासकार अंगस मेडिसन के अनुसार पहली सदी से लेकर दसवीं सदी तक भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी। पहली सदी में विश्व के सकल घरेलू उत्पाद में भारत का योगदान 32 दशमलव 9 प्रतिशत था।

संभवतः भारत को सोने की चिडि़या जानकर ही अनेक विदेशी हमलावरों ने समय समय पर इस देश पर हमला किया। पंद्रहवी सदी में भारत का योगदान करीब 25 प्रतिशत था। सन् 1820 में यह आंकड़ा घटकर 16 प्रतिशत रह गया।

सन् 1950 में दुनिया की अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान सिर्फ 3 प्रतिशत रह गया था। यानी विदेशी लुटेरों ने पूरा दोहन किया। अब करीब छह प्रतिशत है। आजादी के बाद यह और भी बढ़ता, पर देसी लुटेरे भी कम नहीं हैं।
केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि जी.एस.टी. लागू हो जाने के बाद केंद्र और राज्यों का राजस्व बढ़ेगा। अब देखना है कि वह कितना बढ़ता है। राजस्व के बढ़ने का सीधा और सकारात्मक असर विकास पर होगा।

वैसे कोई कितनी भी अच्छी व्यवस्था बनाए, उसमें छेद करने का रास्ता भ्रष्ट लोग निकाल ही लेते हैंं। जी.एस.टी. एक अच्छी व्यवस्था मानी जा रही है। पर, भगवान इसे भ्रष्टों की नजर से बचाएं !



क्या हुआ महेश शाह की घोषणा का ?

गुजरात के एक बिंिल्ंडग व्यवसायी महेश शाह गत साल 30 सितंबर को अहमदाबाद स्थित आयकर कार्यालय गये। उन्होंने स्टेचुरी फार्म जमाकर अपने पास नकद 13 हजार 860 करोड़ रुपए होने की जानकारी दे दी। आयकर विभाग ने उनका फार्म स्वीकार कर लिया। यानी विभाग ने उनकी घोषणा को मान लिया।

पर दिसंबर, 2016 में  शाह ने कह दिया कि ‘कुछ व्यवसायियों और नेताओं ने उनका इस्तेमाल किया। नेता और व्यवसायी पीछे हट गए। इसलिए मैं पहली किस्त नहीं दे पाया।’ शाह को गिरफ्तार भी किया गया था। पर बाद में आयकर महकमे ने शाह के साथ क्या सलूक किया, यह पता नहीं चल सका। आयकर विभाग को चाहिए कि वह अब भी शाह के उस दावे और पीछे हटने के बारे में पूरा विवरण देश को बता दे। 

 केंद्र सरकार काला धन और बेनामी संपत्ति की खोज खबर के काम में गंभीरता से लगी हुई है। इस काम पर अधिकतर लोग सरकार से खुश हंै। यदि लोगों को महेश शाह के बारे में भी बता दिया जाता तो वे और भी खुश होते। क्योंकि अधिकतर लोग अब यह समझने लगे हैं कि प्रभावशाली लोगों के पास जो बेनामी संपत्ति या काला धन है, वह आम जनता का हक मार कर ही जुटाए गए हैं।  



 मजदूरी मद में किसानों को सब्सिडी देने का सुझाव

सन 2012 में तत्कालीन केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने सुझाव दिया था कि  सरकार खेतिहर मजदूरों की मजदूरी के मद में 50 प्रतिशत सब्सिडी किसानों को देने का प्रावधान करे। आत्महत्याओं की घटनाओं को ध्यान में रखते हुए उन्होंने यह सिफारिश की थी। पर मनमोहन सरकार ने उस सिफारिश पर ध्यान नहीं दिया। वह तो दूसरे ही कामों में व्यस्त थी। वैसे मनरेगा कार्यक्रम को किसानों की खेती से जोड़ने की भी सलाह दी गयी थी।

याद रहे कि दिनानुदिन खेती घाटे का सौदा बनती जा रही है। उसे उबारने के लिए सुझाव तो बहुत हैं, पर उन पर अमल कम ही होता है। एक बार फिर कर्ज माफी का दौर जारी है। यह भी जरूरी काम है। पर यह स्थायी हल नहीं है। किसानों को राहत देने के लिए कुछ स्थायी काम करने होंगे।पता नहीं यह कौन सरकार करेगी ! 



और अंत में

एक फेसबुक मित्र ने टिप्पणी की है कि ‘हे ईश्वर, मुझे कभी इतना बड़ा आदमी मत बनाना ताकि निहितस्वार्थवश मैं साहुकार को साहुकार और चोर को चोर कह पाने का साहस खो दूं!’


(23 जून 2017 को प्रभात खबर में प्रकाशित)

जून में देश के साथ-साथ बिहार की राजनीति भी रहेगी गरम

1975 के जून में इस देश की राजनीति में दूरगामी परिणामों वाली घटनाएं हुई थीं। वैसी बड़ी तो नहीं, पर कुछ महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं की आहट इस जून में भी जरूर सुनाई दे रही हैं।

बिहार में राजद और भाजपा के कुछ बड़े नेताओं के बीच गंभीर आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है। आरोप भ्रष्टाचार को लेकर हैं। पता नहीं, इस मामले मंे आगे क्या-क्या होने वाला है। रोज नये-नये खुलासे हो रहे हैं। यदि इन आरोप-प्रत्यारोपों में कोई बड़ा मोड़ आ गया तो वह राजनीति और कुछ नेताओं के लिए यादगार बन सकता है। बिहार की जनता के लिए भी।

  इस बार की बिहार इंटर परीक्षा के रिजल्ट ने भी देश  का ध्यान खींचा है। दो-तिहाई परीक्षार्थी फेल कर गए हैं। इसको लेकर पीडि़त छात्र उद्वेलित हैं। राज्य सरकार उनकी समस्या के समाधान का भरोसा दिला रही है। देखना है कि वैसे परीक्षार्थियों की वाजिब मांगों का समाधान कब तक होता है ! जितनी जल्द हो जाए,उतना ही अच्छा है।

इस महीने यह भी देखना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव में दलीय जोड़तोड़ को लेकर बिहार के महागठबंधन के नेतागण राष्ट्रीय स्तर पर कैसी भूमिका निभाते हैं! जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए अभी होने वाली दलीय गोलबंदी, 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए पूर्व पीठिका का काम कर सकती है।

यह महीना कश्मीर को लेकर भी काफी महत्वपूर्ण है। पाकिस्तान ने पूरा जोर लगा दिया है। भारतीय सेना पहले की अपेक्षा अधिक ताकत से भारत विरोधी ताकतों को जवाब दे रही है। केंद्र सरकार ने जरूरत के अनुसार फौजी कार्रवाइयां करने की पूरी छूट सेना को दे दी है। ऐसा कम ही होता है जब सेना को पूरी छूट मिल जाए !

हाल में पशु बाजारों में वध के लिए मवेशियों की खरीद-बिक्री पर केंद्र सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। इसको लेकर ‘सेक्युलर दल’ और उनकी राज्य सरकारें रोष में हैं। इससे ध्रुवीकरण का खतरा भी सामने है। हालांकि ताजा खबर के अनुसार केंद्र सरकार इस मामले में कुछ सहूलियत देने को तैयार लग रही है।

खबर यह भी आ रही है कि यू.पी.ए. सरकार के कार्यकाल में दिग्विजय सिंह ने जाकिर नाइक को कानूनी परेशानियों से बचाया था। हालांकि जाकिर ऐसा व्यक्ति नहीं जिसके साथ किसी देशभक्त की सहानुभूति हो सकती है। भारत के कई मुस्लिम धर्म गुरू भी जाकिर की कार्यशैली के खिलाफ रहे हैं।

याद रहे कि पुलिस ने जाकिर नाइक की आपत्तिजनक गतिविधियों के लिए उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई का प्रस्ताव किया था। उस पर धर्म परिवर्तन का आरोप है। वह सार्वजनिक रूप से अन्य धर्मों की निंदा करता है।
इन दिनों वह इस देश की पुलिस के डर से फरार है। पर सवाल है कि यह दिग्विजय सिंह भी कैसे नेता हैं जिनका नाम ऐसे विवादास्पद लोगों से यदाकदा जुड़ता रहता है ? या फिर ऐसे लोगों से श्री सिंह खुद को जोड़ लेते हैं ?
कपिल मिश्र जैसे अपने ही पूर्व सहयोगी द्वारा अरविंद केजरीवाल तथा उनके सहकर्मियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं। इन आरोपों से एक नयी शैली की राजनीति के पतन की आहट मिल रही है। किसी ने अनुमान भी नहीं लगाया होगा कि जनलोकपाल आंदोलन के जरिए 2011 में अन्ना हजारे के साथ उभरे अरविंद केजरीवाल की सरकार पर कुछ ही वर्षों में इतने संगीन आरोप लगेंगे।

यह बात और है कि आरोपों को अभी साबित किया जाना है। पर आरोप लग ही क्यों रहे हैं ? ऐसे आरोपों से स्वच्छ राजनीति की उम्मीद में बैठे आम नागरिकों को झटका लगता है। लगता है कि इसी जून में अरविंद मंडली पर लग रहे आरोपों को उनकी तार्किक परिणति तक पहुंचा दिया जाएगा।



जरा याद कर लें जून 1975 भी !

5 जून 1975 को जयप्रकाश नारायण ने पटना के गांधी मैदान की सभा में ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया था। यह और बात है कि वह सपना भी पूरा नहीं हुआ। 12 जून 1975 को  इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का रायबरेली से लोकसभा का चुनाव खारिज कर दिया। अदालत ने लोकसभा में वोट देने का प्रधानमंत्री का अधिकार भी समाप्त कर दिया। उसी दिन यह खबर आई कि गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी हार गयी।

जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी से मांग की कि वह अब प्रधानमंत्री पद छोड़ दें। उस मांग पर जोर डालने के लिए 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी ने जनसभा की। सभा बड़ी थी। स्वतःस्फूर्त भी। उसी रात देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गयी। देश के लगभग सारे गैर कांग्रेसी नेता जेलों में बंद कर दिए गए। अखबारों पर कठोर सेंसरशीप लगा दी गयी। किसी एक महीने में एक साथ इतनी बड़ी घटनाएं संभवतः कभी नहीं हुईं जितनी जून 1975 में हुईं। 



देश बचाने के लिए कठोर कार्रवाई जरूरी 

गत 29 मई 2017 को यह खबर आई कि कश्मीर में अलगाववादियों को मिल रही वित्तीय मदद के तार दिल्ली के हवाला कारोबारियों से जुड़े होने के सबूत एन.आई.ए. को मिले हैं। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। क्योंकि हमारे देश का तंत्र चुस्त नहीं है। हवाला कारोबारियों पर कारगर कार्रवाई नहीं हो पाती। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि हमारे देश के अनेक नेताओं और बड़े अफसरों का हवाला कारोबारियों से करीबी संबंध हैं।

नब्बे के दशक में वह संबंध उजागर हुआ था। तभी दोषियों को सजा हो गयी होती तो संभवतः आज कश्मीर के आतंकवादियों व अलगाववादियों को हवाला करोबारियों की ‘सेवाएं’ नहीं मिल पातीं।

27 मार्च 1991 में जे.एन.यू. का एक छात्र शहाबुददीन गोरी लाखों रुपए के साथ पकड़ा गया था। वे पैसे कश्मीर के आतंवादियों के लिए थे। इसी तरह के राष्ट्रविरोधी धंधे में लगा हिजबुल मुजाहिद्दीन का अशफाक लोन उन्हीं दिनों गिरफ्तार हुआ था। इन लोगों से मिले सुराग के बाद पांच हवाला कारोबारी  गिरफ्तार हुए।

सी.बी.आई. ने 3 मई 1991 को 20 स्थानों पर एक साथ छापे मारे। जिन स्थानों में छापामारी की गई, उनमें  जे.के. जैन का परिसर भी था। उसके यहां से सनसनीखेज डायरी मिली। उस डायरी में दर्ज था कि देश के कई दलों के 115 अत्यंत ताकवर नेताओं और बड़े अफसरों को हवाला के पैसों में से लाखों-करोड़ों रुपए दिए गए।

नेताओं में कई पूर्व केंद्रीय मंत्री भी थे। यानी जो कश्मीर के आतंकवादियों को पैसे दे रहे थे, वही इस देश के बड़े नेताओं को भी खुश कर रहे थे। जांच हुई, पर सी.बी.आई. नामक तोता ने उसे रफादफा कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जे.एस. वर्मा ने भी कहा था कि इस जैन हवालाकांड की तो सी.बी.आई. ने कोई जांच ही नहीं की।



और अंत में

किसी ने ठीक ही कहा है कि ‘कफन में जेब नहीं होती।’ पर इस देश के अनेक नेताओं की तरह ही पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत जयललिता भी इस उक्ति का मर्म नहीं समझ सकीं थीं। कौन सी संपत्ति लेकर परलोक गयीं हैं जयललिता ? ताजा खबर यह है कि तमिलनाडु सरकार ने जयललिता की निजी संपत्ति जब्त करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। याद रहे कि अदालत ने जायज आय से अधिक संपत्ति जब्त करने का आदेश दे रखा है। 

जयललिता ने कुल कितनी संपति बनाई थी, उसके बारे में तो हमेशा अटकलों का बाजार ही गर्म रहा है। पर सवाल है कि उन्होंने किसके लिए संपत्ति बनाई ? शशिकला जिस केस में जेल की सजा भुगत रही हैं, उसी केस की मुख्य आरोपित जयललिता थीं।

बंगलुरू की विशेष अदालत ने 27 सितंबर 2014 को जयललिता को 4 साल की कैद और एक अरब रुपए का जुर्माना किया था। उन्हें जेल जाना पड़ा था। जयललिता पहले से ही अस्वस्थ चल रही थीं। जेल की  अव्यवस्था ने उनकी बीमारी को और भी गंभीर बना दिया था। नतीजतन उनका असामयिक निधन हो गया।

( दो जून 2017 को प्रभात खबर में प्रकाशित)

प्रकृति से गांधी की निकटता से सीख लेंगे आज के नेता ?

दक्षिण अफ्रीका में वकालत करते समय मोहनदास करमचंद गांधी पेट की बीमारी से ग्रस्त हो गये थे। उन्होंने दवाएं खाईं। पर कोई लाभ नहीं हुआ। वेजिटेरियन सोसायटी के एक मित्र ने उन्हें एक किताब दी। एडोल्फ जस्ट लिखित ‘रिटर्न टू नेचर’ उन्होंने ध्यान से पढ़ी। उस पुस्तक ने गांधी को बड़ी सीख दी। गांधी प्रकृति के करीब हो गए।

उन्होंने अपने आहार में बदलाव किया। उन्होंने महसूस किया कि मिट्टी, पानी, धूप और हवा मंे बड़ी ताकत है। ये चीजें शरीर को खुद-ब-खुद स्वस्थ होने और रखने में बड़ी मदद करती हैं। यह भारत जैसे देश के लिए भी अनुकूल है जहां के अधिकतर लोग गांवों में यानी प्रकृति के पास रहते हैं।

खुद महात्मा गांधी अपना इलाज धूप स्नान, पेट और शरीर पर मिट्टी की लेप तथा इसी तरह के अन्य प्राकृतिक उपायों से करते रहे। उसका उन्होंने जीवन भर पालन किया। उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र की स्थापना भी की। उनके आश्रम के अन्य सहवासी भी प्राकृतिक जीवन जीते थे। नतीजतन आजादी की लड़ाई में लगे अधिकतर गांधीवादी नेता और कार्यकर्ताओं ने लंबा जीवन जिया। 

देश गांधी के चम्पारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष मना रहा है। क्या आज के नेतागण गांधी की तरह ही भरसक प्राकृतिक जीवन जीने का संकल्प लेंगे? कुछ आधुनिक नेतागण तो प्राकृतिक जीवन से काफी दूर हैं। थोड़े से लोग पालन करते हैं। 

बढ़ते प्रदूषण और जानलेवा मिलावट के इस दौर में यह और भी जरूरी है कि लोग प्रकृति के करीब जाएं। नेता इस मामले में भी देश को नेतृत्व दे सकते हैं। इस संदर्भ में भी आज के कई बड़े नेताओं के बारे में अच्छी खबरें नहीं आतीं। सुना जाता है कि साठ-सत्तर की उम्र में ही बीमार रहने लगते हैं। उन्हें देश-विदेश के अस्पतालों के चक्कर काटने पड़ते हैं। इससे खुद उन्हें, उनके परिजन और उनके समर्थकों -प्रशंसकों में निराशा फैलती है। इनमें से तो कुछ नेता समाज के एक बड़े हिस्से में बड़े लोकप्रिय होते हैं। उन्हें कोई अधिकार नहंीं है कि वे खानपान,  रहन- सहन और आहार -विहार में अतिशय कुसंयम अपनाकर अपने प्रश्ंासकों को निराश करें।
आज के नेता यदि चाहें तो प्राकृतिक जीवन और प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति अपना कर वे इस चम्पारण शताब्दी वर्ष में बापू को बेहतर श्रद्धांजलि दे सकते हैं।
   
क्यों बार-बार टूट जाता है पीपा पुल 

खबर है कि दानापुर के पास गंगा नदी पर बना पीपा पुल गत चार महीनों में तीसरी बार विसंधित हो गया यानी टूट गया। नदी में पानी कम होने पर हर साल पीपा पुल बनता है। डेढ़ करोड़ रुपए की लागत आती है। इतने अधिक खर्च के बावजूद निर्मित पुल को आंधी से बचाने का कोई उपाय क्यों नहीं है, यह बात समझ में नहीं आती। क्या हर साल नये पीपे का निर्माण कराया जाता है ?

गांधी सेतु के जर्जर हो जाने की स्थिति में दानापुर का यह अस्थायी पुल लाखों लोगों को राहत देता है। इसके बावजूद इसके निर्माण और रखरखाव में इतनी बड़ी लापरवाही ? आश्चर्य होता है।

अच्छा तो होता कि दानापुर से दिघवारा के बीच गंगा नदी पर स्थायी पुल के निर्माण पर सरकार विचार करती। उससे पटना महानगर के विस्तार में भी सुविधा होती। पर जब तक ऐसा नहीं होता है, तब तक ऐसा पीपा पुल तो बने जो आंधियों को झेल सके !



कोयला सचिव को तो सजा, पर कोयला मंत्री ? 

दिल्ली की विशेष अदालत ने गत 22 मई को पूर्व केंद्रीय कोयला सचिव तथा दो अन्य कार्यरत आई.ए.एस. अफसरों को दो -दो साल की सजा सुनाई है। इस मामले में कुछ अन्य संबंधित लोगों को भी सजा दी गयी है। अदालत ने यह अच्छा किया है। हालांकि सजा कम लगती है। बड़े अफसरों को इस तरह सजा होगी तो शायद देश के संसाधनों की लूट कम होगी। क्योंकि यदि बड़े अफसरगण सरकारी भ्रष्टाचार के धंधे में पूरी हिम्मत से असहयोग करने लगें तो सत्ताधारी नेतागण देश को लूट नहीं सकेंगे।

हालांकि खबर तो यह भी आती रहती है कि पहले से लगभग ईमानदार रहे मंत्रियों को भी कुछ घाघ अफसर ही लूटने का मंत्र सिखा देते हैं। पर इस मामले में एक बड़ा सवाल देश के सामने है। सिर्फ अफसरों को ही क्यों सजा दी जाए?

कोयला मंत्री को क्यों नहीं ? सचिव के प्रस्ताव पर कोयला ब्लाॅक के आवंटन का अंतिम आदेश तो कोयला मंत्री का ही था ! उन दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही तो कोयला मंत्री भी थे। शायद इस मामले में ऊपरी अदालत मंे अपील होगी तो यह सवाल उठेगा कि कोयला मंत्री कैसे सजा से बच सकते हैं ? यह मामला मध्य प्रदेश में गलत ढंग से कोयला खान आवंटन का था।

वैसे तो देश भर में ऐसे घोटाले हुए थे। सी.ए.जी. ने कहा था कि इस तरह के आवंटन से सरकारी खजाने को एक लाख 86 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। हालांकि वास्तविक नुकसान और अधिक था। 24 सितंबर 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने 214 कोल ब्लाॅक के आवंटन को रद कर दिया था। अब सवाल है कि 214 कोल ब्लाॅक के आवंटन में घोटाला सिर्फ सचिव स्तर के अफसरों की मिलीभगत से संभव है ?

 जब यह घोटाला सामने आया था तो चर्चा यह थी कि इस घोटाले में परदे के पीछे बड़ी हस्तियां शामिल थीं। पर उम्मीद है कि ऊपरी अदालत उन लोगों को भी सजा देगी जिन सत्ताधारियों के दस्तखत से कोयला घोटाले को अंजाम दिया गया।



त्रिशंकु शत्रुघ्न सिन्हा

 
अन्य लाखों लोगों के साथ -साथ मैं भी कुछ बातों को लेकर शत्रुघ्न सिन्हा का प्रशंसक रहा हूं। आगे भी रहूंगा। वह एक अच्छे कलाकार हैं। कैरियर के शुरुआती दौर में उन्होंने विलेन के रूप में भी दर्शकों की तालियां बटोरी थी। यह एक नयी बात थी। जब पूरे देश में बिहारियों को उपहास की नजर से देखा जाता था, उस समय भी उन्होंने खुद को ‘बिहारी बाबू’ कहलाना पसंद किया।

जब फिल्मी दुनिया के लोग आम तौर पर प्रतिपक्षी राजनीति का दामन नहीं थामते थे, शत्रुघ्न सिन्हा ने सत्ता के खिलाफ जेपी का साथ दिया था। पर अनेक शालीन हलकों में शत्रुघ्न सिन्हा की मौजूदा राजनीतिक भूमिका अच्छी नहीं मानी जा रही है। कायदे की राजनीति की मांग तो यही है कि या तो भाजपा बिहारी बाबू को पार्टी से निकाल दे या फिर वह खुद ही पार्टी छोड़ दें। खुद दल छोड़ने में उन्हें दिक्कत हो सकती है। क्योंकि तब उनकी लोकसभा की सदस्यता चली जाएगी। पर कार्रवाई करने में पार्टी को क्या दिक्कत है ? यह बात अनेक लोगों की समझ से बाहर है।



और अंत में

बिहार भाजपा के मंत्री ऋतुराज सिन्हा ने कहा है कि शत्रुघ्न सिन्हा को ख्याल रखना चाहिए कि वह भाजपा के चुनाव चिह्न पर सांसद बने हैं। ऋतुराज ने ठीक ही कहा है। पर सवाल है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की शत्रुघ्न सिन्हा के बारे में क्या राय है ? क्या शाह जी ने बिहारी बाबू को कभी इस बात की याद दिलाई कि वे भाजपा के सांसद हैं ? यदि दिलाई भी होगी तो इस बात का पता आम लोगों को नहीं है।

दरअसल ‘शत्रु जी’ फिल्म में तो विलेन से हीरो बने थे।

राजनीति में वे विपरीत दिशा में चल रहे हैं। कम से कम भाजपा के लिए तो विलेन ही बन  गये हैं। हां, भाजपा विरोधी दलों के लिए शत्रुघ्न सिन्हा जरूर हीरो बने हुए हैं। टेढ़े-मेढ़े और परोक्ष-प्रत्यक्ष बयानों के जरिए अपनी ही पार्टी को सार्वजनिक रूप से जितनी परेशानी में बिहारी बाबू ने डाला, वह भी एक रिकाॅर्ड है।
अभी और क्या - क्या करेंगे, वह सब देखना दिलचस्प होगा।


(26 मई 2017 को प्रभात खबर में प्रकाशित)