गुरुवार, 30 जुलाई 2020


‘‘समय से पहले और तकदीर से ज्यादा
किसी को कुछ नहीं मिलता।’’
            --- अज्ञात
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तो काहे को होत अधीर रे मनुआ !!!????
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इस कहावत के कुछ अपवाद भी हैं।
-- सुरेंद्र किशोर --27 जुलाई, 20

बुधवार, 29 जुलाई 2020


पटना के राजीव नगर थाने में दर्ज प्राथमिकी और मुम्बई पुलिस की
अब तक भूमिका के बीच विरोधाभास नजर आ रहा है।
  सुशांत सिंह राजपूत की मौत की जांच सी.बी.आई. से कराने
का यह एक बड़ा आधार बन सकता है।
   सी.बी.आई.जांच के लिए अदालत में याचिका दायर की जानी चाहिए।
याचिकाकत्र्ता, सुशांत की मौत के संबंध में डा.सुब्रह्मण्यम स्वामी के
पास जो जानकारियां हैं,उनका भी लाभ उठा सकता है।
   सी.बी.आई.जांच का आदेश केंद्र सरकार नहीं दे सकती।
उसे यह अधिकार नहीं है।
महाराष्ट्र की सरकार के पास वह अधिकार है।
पर वह राज्य सरकार शायद सी.बी.आई.जांच का खतरा मोल नहीं लेगी।
क्योंकि सी.बी.आई.जांच से बहुत सी ऐसी बातें भी सामने आ सकती हैं जो महाराष्ट्र के कुछ बड़े नेताओं के लिए भी असुविधाजनक हो सकती हैं।
इसलिए अदालती आदेश से ही सी.बी.आई.जांच संभव है।
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--सुरेंद्र किशोर 29 जुलाई, 20
  

रविवार, 26 जुलाई 2020

क्या कतिपय पैरवी पुत्रों और खास गुट के लोगों को हिन्दी फिल्मों में जमाने के 
लिए सेंसर नियमों में भारी ढील देकर भीषण हिंसक और गैर जरूरी सेक्सयुक्त दृश्यों की अनुमति दे दी गई थी ?
    उसके बाद तो ‘बागवान’ और ‘नदिया के पार’ जैसी साफ-सुथरी फिल्मों को अपवाद मानें तो ऐसी -ऐसी फिल्में बनने लगीं जिन्हें आम भारतीय समाज के लिए परिवार के साथ देखना संभव ही नहीं रहा। 
   क्या नरेंद्र मोदी की सरकार फिल्मों की इस गलत दिशा को बदलने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी उठाएगी ? 
    --- सुरेंद्र किशोर - 26 जुलाई 20

शनिवार, 25 जुलाई 2020


 संस्थागत विफलता की समस्या 
 का कहीं हल है तो वह सिर्फ 
 सुप्रीम कोर्ट के पास !
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  --सुरेंद्र किशोर-- 
आज हम यह जान पाते हैं कि चुनाव के उम्मीदवारों के खिलाफ कितने आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं।
उनके पास कितनी सपत्ति है।
उनकी शैक्षणिक योग्यता क्या है।
यह सब सुप्रीम कोर्ट के करीब 20 साल पहले के एक आदेश के कारण  ही संभव हो पा रहा है।
  तब की केंद्र सरकार ऐसी सामान्य सूचनाएं भी जाहिर नहीं होने देना नहीं चाहती थी।
प्रतिपक्ष भी उस समय इस मामले में सत्ता पक्ष के ही साथ था-यानी, छिपाने के पक्ष में।
विकास दुबे एनकाउंटर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जिसके खिलाफ इतने अधिक मुकदमे हों,वह यदि जमानत पा जाता है तो यह संस्थागत विफलता है।
कानून का शासन बहाल करने की जिम्मेदारी मुख्यतः राज्य सरकारों  की होती है।
जिम्मेदारी तो है ही।
पर जहां संस्थागत विफलता की बात सामने आ रही है,वैसे में उसे ठीक करने के लिए खुद सुप्रीम कोर्ट को ही कोई कारगर कदम उठाना पड़ेगा।
संस्थागत विफलता के कारणों का पता लगाने व उसे समाप्त करने का उपाय खोजने के लिए एक अलग से न्यायिक आयोग के गठन की जरूरत पड़ेगी।
इसकी पहल सुप्रीम कोर्ट ही कर सकता है।
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कानोंकान
प्रभात खबर
पटना
24 जुलाई 20

    चीन यह प्रदर्शित करने की कोशिश कर रहा है कि  दुनिया का अब वही ‘सुपर पावर’ है। 
पर, भारत ने दिखा दिया कि हम भी दबने वाले नहीं हैं।
चीन को भी भारत की ताकत का
एहसास हुआ।
     पर, यह एहसास स्थायी हो,उसके लिए भारत को कुछ और करना पड़ेगा।
अधिक ताकतवर बनना पड़ेगा।
    सरकारी पैसों के ‘लीकेज’ को यथासंभव बंद करके अपनी अर्थ व्यवस्था और मजबूत करनी होगी।
   साथ ही,बाहरी और भीतरी दुश्मनों का कड़ाई से मुकाबला करने के लिए सेना,पुलिस व हथियारों के मामलों में हमें और भी अधिक ताकतवर बनना होगा।
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सुरेंद्र किशोर
कानोंकान,
प्रभात खबर,पटना
17 जुलाई, 20

लता मंगेशकर सरीखी जादुई आवाज वाली अनुराधा पोंडवाल
मुम्बई की फिल्मी दुनियां में क्यों नहीं जम पाईं ?
उन्होंने खुद ही फिल्मी दुनिया छोड़ दीं या वह किसी दादागिरी या दीदीगिरी की शिकार हो गईं ?
कृपया प्रकाश डालें।
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--सुरेंद्र किशोर-25 जुलाई 20

ऐसे पैदा होते हैं बाहुबली !
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कई दशक पहले की बात है।
इस देश के एक राज्य के एक जिले में भूमिपतियों द्वारा खेतिहर मजदूरों का भीषण शोषण हो रहा था।
राज्य सरकार का श्रम विभाग उन शोषित मजदूरों 
की मदद नहीं कर सका।
वहां नक्सलियों के पैर जमाने के लिए अच्छा अवसर था।
भूमिपतियों और नक्सलियों के बीच संघर्ष शुरू हो गया।
हिंसा- प्रति हिंसा होने लगी।
पुलिस-प्रशासन न तो भूमिपतियों को नक्सलियों की हिंसा से बचा सका और न ही भूमिहीनों को भूमिपतियों के प्रहारों से।
 मारकाट जारी रही।
इस बीच भूमिपतियों के रक्षक के रूप में एक मनबढ़ू नौजवान हथियारों के साथ मैदान में आया।
वह नक्सलियों की हिंसा से भूमिपतियों को बचाने लगा।
जो काम शासन को करना था,वह काम उस नौजवान ने करना शुरू किया।
यह एक ऐसे राज्य की बात है जहां के अधिकतर सरकारी सेवकों 
के बारे में कहा जाता है,
‘‘वे आॅफिस आने के लिए वेतन लेते हैं और काम करने के घूस।’’
नतीजतन वह बाहुबली खास तरह के लोगों में लोकप्रिय हो गया।
विधान सभा चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीत गया।
साथ ही, उन नौजवान की गुंडई भी बढ़ती गई।
वह जिले में समानांतर सरकार चलाने लगा।
किसी विरोधी को मार देना उसके बाएं हाथ का खेल रहा।
उसके खिलाफ कोई गवाह 
तक उपलब्ध नहीं होता था।
उस राज्य के सत्ताधारी दल ने उस बाहुबली से ‘प्रभावित’ होकर उसे अगली बार लोक सभा चुनाव का टिकट दे दिया।
वह जीत भी गया।
फिर तो उसके पर लग गए।
उसने अपने जिले में अन्य दलों के आॅफिस तक बंद करवा दिए।
उसके एक पॅाकेट में डी.एम. और दूसरे पाॅकिट में एस.पी.रहने लगा।
 अंततः  उसका हश्र क्या हुआ,वह मत पूछिए।
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कहानी का मोरल यह है कि यदि शासन का सिस्टम अपना काम ईमानदारी व हिम्मत से करने लगे तो किसी बाहुबली को विकास पांडेय या फलां  सिंह या फलां यादव या फलां खान बनने का मौका ही नहीं मिलेगा।
स्टेट पाॅवर बहुत बड़ी चीज होती है।
पर, उस पावर का सदुपयोग होने लगे तब तो !!
सदुपयोग करवाने में राजनीतिक दलों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
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--सुरेंद्र किशोर--11 जुलाई 20

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

    बाबरी पर बदलते बयान !!
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‘‘मैंने स्पष्ट आदेश दिया था कि कारसेवकों पर गोली 
बिलकुल नहीं चलाई जाए।
इसके लिए मैंने पत्रावली पर आदेश दिया था।
और, अपना दस्तखत भी किया था।
इसके लिए कोई अधिकारी जिम्मेदार नहीं हैं।
मैं चुनौती देता हूं कि केंद्र सरकार मुझ पर मुकदमा चलाए।’’
         --कल्याण सिंह
         9 दिसंबर 1992
     -नवभारत टाइम्स,पटना
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‘‘बाबरी ढांचे को गिराए जाने की मैं पूरी जिम्मेदारी लेता हूं।’’
   --कल्याण सिंह 
 --हिन्दुस्तान टाइम्स-
   5 फरवरी 2009
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‘‘मैं बेकसूर हूं।
तब की केंद्र कांग्रेस सरकार ने मुझे फंसा दिया।’’
---कल्याण सिंह
-14 जुलाई 2020
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महात्मा गांधी और आज के नेताओं में यही फर्क है।
कानून तोड़ने पर गांधी सजा के लिए खुद को  प्रस्तुत कर देते थे।
पर आज ??
देख ही रहे हैं।
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इन दिनों इस देश के अनेक नेता
गण देश को लूट कर देस-विदेश में अरबांे रुपए की संपत्ति तो खड़ी कर लेते हैं।
पर, जब उन पर केस होता है तो वे कहते हैं कि उनके खिलाफ मोदी सरकार बदले की भावना से काम कर रही है।
 आप तो उनके जैसे नहीं हैं कल्याण जी !
आपने तो अपनी सोच के अनुसार प्रभु श्रीराम के काम आए हैं।
आप अपने पहले के बयान पर बने रहते तो लोग सोचते कि आप उन घोटालेबाजों से अलग तरह की प्राणी हैं।
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-- सुरेंद्र किशोर --23 जुलाई 20

आपराधिक न्याय व्यवस्था को कारगर बनाए बिना कैसे रुकंेगी मुठभेडें़ !--सुरेंद्र किशोर


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सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को हिदायत दी है कि ‘‘ध्यान रहे,विकास दुबे जैसी मुठभेड़ फिर न हो।’’
यह एक सही दिशा में ठोस हिदायत है।
  किंतु चीजों को ठीक करने के लिए सिर्फ यह हिदायत ही कारगर साबित नहीं होगी।
मौखिक हिदायत कौन कहे,गुजरात के सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में तो आई.पी.एस.अफसर डी.जी.बंजारा को तो करीब 9 साल जेल में रहना पड़ा था।
यदि विकास दुबे मुठभेड़ फर्जी है तो यह मानना पड़ेगा कि यू.पी.पुलिस ने बंजारा से भी कोई सबक नहीं लिया।
क्यों नहीं लिया ?
वैसे तो यू.पी.पुलिस ने कहा है कि 
विकास दुबे के साथ हुई मुठभेड़ फर्जी नहीं है,पर सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणी की शब्दावली बता रही है कि कोर्ट को फर्जी होने का शक है।
संभव है कि तीन सदस्यीय जांच समिति अंततः विकास दुबे -पुलिस मुठभेड़ को फर्जी करार 
दे दे ।
यानी, सोहराबुद्दीन कांड की कहानी दुहरा दी जाए।
पर, उससे भी क्या होगा ?
  वही होगा जो बंजारा के वर्षों जेल में रहने के बाद 
भी विकास दुबे कांड हो गया।
विकास दुबे कांड के बाद देश में कोई  और कांड नहीं होगा,इसकी भी कोई गारंटी नहीं।
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  गवाहों की सुरक्षा की समस्या
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 कई साल पहले एकाधिक बार सुप्रीम कोर्ट ने निदेश दिया था कि सरकार गवाहों को सुरक्षा प्रदान करे।
इस अदालती आदेश 
के बाद देश में उसका कितना पालन हुआ ?
जिस थाने में विकास दुबे ने एक प्रमुख राजनीतिक कर्मी की सरेआम हत्या कर दी थी,उसके खिलाफ उस थाने के किसी पुलिसमर्की ने डर से गवाही तक नहीं दी।क्योंकि उसको जान का डर था।
   वैसे बात सिर्फ यही नहीं है।
पूरे देश की आपराधिक न्याय व्यवस्था की कमियों को दूर करने की सख्त जरूरत है।
इसके लिए सुप्रीम कोर्ट को ही पहल करनी पड़ेगी।
चुनाव लड़ने वाली पार्टियां शायद यह काम नहीं कर सके।
पता लगाना होगा कि केरल में अदालती सजा की दर
 करीब 84 प्रतिशत है और पश्चिम बंगाल में 11 ही क्यों ?
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   उम्मीदवारों पर मुकदमों का विवरण
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 आज हम यह जान पाते हैं कि चुनाव के उम्मीदवारों के खिलाफ कितने आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं।उनके पास कितनी सपत्ति है।
उनकी शैक्षणिक योग्यता क्या है।
यह सब सुप्रीम कोर्ट के करीब 20 साल पहले के एक आदेश के कारण  ही संभव हो पा रहा हैं।
  तब की केंद्र सरकार ऐसी सामान्य सूचनाएं भी जाहिर नहीं होने देना नहीं चाहती थी।
प्रतिपक्ष भी उस समय इस मामले में सत्ता पक्ष के साथ था।
विकास दुबे एनकाउंटर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जिसके खिलाफ इतने अधिक मुकदमे हों,वह यदि जमानत पा जाता है तो यह संस्थागत विफलता है।
कानून का शासन बहाल करने की जिम्मेदारी मुख्यतः राज्य सरकारों  की होती है।
जिम्मेदारी तो है ही।
पर जहां संस्थागत विफलता की बात सामने आ रही है,वैसे में उसे ठीक करने के लिए खुद सुप्रीम कोर्ट को ही कोई कारगर कदम उठाना पड़ेगा।
संस्थागत विफलता के कारणों का पता लगाने व उसे समाप्त करने का उपाय खोजने के लिए एक अलग से न्यायिक आयोग के गठन की जरूरत पड़ेगी।
इसकी पहल सुप्रीम कोर्ट ही कर सकता है।
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  गाय के गोबर की खरीद
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इस महीने छत्तीस गढ़ सरकार ने एक अनोखा निर्णय किया है।
  राज्य सरकार ने पशुपालकों से गोबर 2 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से खरीदने का निर्णय किया है।
उनकी आय बढ़ाने का यह एक अच्छा जरिया साबित होने वाला है।
बिहार सहित अन्य राज्य भी इसका अनुसरण कर सकते हैं।
पर इस योजना में एक संशोधन करना चाहिए।
देसी गाय के गोबर की कीमत अन्य गायों से थोड़ी अधिक रख जानी चाहिए।
इससे देसी गाय की नस्ल कायम रहेगी।
अभी उसके विलुप्त होने का खतरा है।
याद रहे कि देसी गाय का दूध अन्य गायों की अपेक्षा बहुत अधिक गुणकारी है।उसमें  कई अन्य गुण भी हैं।
  आजादी के बाद हमने जिस तरह रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं का प्रयोग शुरू करके खेती को बर्बाद किया,उसी तरह देसी गाय की उपेक्षा करके जन स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचाया।इस स्थिति में बदलाव जरूरी है।
....................................
  और अंत में 
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सन 1970 में बंबई में एक संसदीय समिति की बैठक हुई थी।
उस बैठक में सूचना व प्रसारण मंत्री सत्यनारायण सिन्हा ने फिल्मों में गैर जरूरी सेक्स और हिंसा के प्रदर्शन पर गंभीर चिंता व्यक्त की।
सिन्हा ने कहा कि संेसर  से कहा गया है कि वह ऐसे दृश्यों को निर्ममता से काट दिया करे।
मंत्री ने यह भी कहा था कि यदि जरूरत पड़े तो पूरी फिल्म को भी रिजेक्ट कर दिया जाए।
  अब सवाल है कि 1970 से पहले भारतीय फिल्मों में कितनी गैर जरूरी हिंसा दिखाई जाती थी ?
  हिंसा और सेक्स के प्रदर्शन के मामले में आज  क्या स्थिति है ?
कोई भी जानकार व्यक्ति कहेगा कि आज तो परिवार के साथ फिल्में देखना असंभव हो गया है।अपवादों की बात और है।
यदि सेंसर बोर्ड सो रहा है तो सरकार भी क्यों सो 
रही है ?
क्या उसे भी भारतीय संस्कृति की रक्षा की चिंता नहीं है ?
या फिर कोई और बात है ?
....................................
कानोंकान,
प्रभात खबर,
पटना,
24 जुलाई 20






हाईकमान में चुश्ती और सत्तर्कता के बिना कांग्रेस के अच्छे दिन मुश्किल-सुरेंद्र किशोर
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कांग्रेस पूरे देश में फैली है।ऐसे दल के सफल संचालन के लिए उसके हाईकमान में जिस तरह की चुश्ती और सत्तर्कता जरूरी होती है,उसका कांग्रेस में अभाव है।
इसके आंतरिक संकट व बिखराव का यह एक बड़ा कारण है।
नीतिगत विचलन दूसरा कारण है।
 लोकतंत्र में मुख्य प्रतिपक्षी दल की जिस तरह की प्रभावकारी
व जिम्मेदार भूमिका होनी चाहिए थी,इसी कारण उसका  अभाव खटकता है।
 स्वस्थ लोकतंत्र में प्रतिपक्ष का मजबूत और जिम्मेदार होना जरूरी है।
 पर किसी प्रतिपक्षी दल को मजबूत बनाने का दायित्व सत्ताधारी दल का तो नहीं हो सकता !
  हालांकि कांग्रेस की आंतरिक कमजोरियांे व फूट का लाभ भाजपा या कोई अन्य पार्टी उठाएगी ही।
किंतु कांग्रेस का यह कहना सही नहीं है कि भाजपा ही कांग्रेस में बिखराव का कारण बन रही है।
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   अपना और पार्टी का भविष्य उज्ज्वल
   हो तो क्यों कोई छोड़ेगा पार्टी !
...................................
इस देश की राजनीति का आम चलन यह है कि जब किसी भी दल में कोई नेता अपना भविष्य नहीं देखता तो
वह दल त्याग कर देता है।
और यदि उस पार्टी का भविष्य भी अनिश्चित हो तब तो बिखराब अधिक ही होता है।
कांग्रेस में आज यही हो रहा है।
 विद्रोह के स्वर राजस्थान के अलावा भी कुछ अन्य राज्यों से भी आने लगे हैं।
झारखंड कांग्रेस के अध्यक्ष रामेश्वर उरांव ने आरोप लगाया
है कि भाजपा राज्य सरकार को अस्थिर करना चाहती है।
उरांव साहब,यदि आपका घर ठीक रहेगा तो चाहते हुए भी बाहर से कोई भी आपकी सरकार को अस्थिर नहीं कर सकता।
   उधर अपने विधायकों को संतुष्ट बनाए रखने  के लिए छत्तीस गढ़ में भी कांग्रेस सरकार उपाय कर रही है।
बल्कि लगता है कि उसे उपाय करना पड़ रहा है। 
 खबर है कि मुख्य मंत्री भूपेश बघेल ने हाल में 15 संसदीय सचिव बनाए हैं।
अभी 20 अन्य प्रमुख कांग्रेस नेताओं को बोर्ड और निगमों में स्थान देने का प्रस्ताव है।
   पर यह सब अस्थायी उपाय है।
राजनीतिक प्रेक्षक बताते हैं कि कांग्रेस को चाहिए कि वह उसके पास से भाग रहे आम वोटरों को अपने पास बुलाने का प्रयास करे।
उसके उपाय क्या-क्या  हो सकते हैं,वह सब ए.के.एंटोनी कमेटी की रपट में दर्ज है।
2014 के लोक सभा चुनाव में ऐतिहासिक हार के बाद कांग्रेस हाईकमान ने वह कमेटी बनायी थी।
पर उसकी रपट को आलमारी में बंद कर दिया गया।   
    
........................................
   कांग्रेस की कार्य शैली !
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कांग्रेस हाईकमान की ‘कार्य शैली’ को राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत 
अच्छी तरह जानते-समझते हैं।
उसी के अनुसार वे काम भी करते हैं।
उनके पुत्र वैभव गहलोत भी उसी कार्य शैली को सीख रहे हैं।
जब ऐसा है तो अब राजस्थान में भावी मुख्य मंत्री पद के लिए किसी ‘पायलट’ की भला क्या जरूरत है ?
असम में तरुण गोगोई का कांग्रेस हाई कमान से पूर्ण तालमेल रहा है।
 उसी राह पर उनके पुत्र गौरव गोगोई हैं।
फिर वहां मुख्य मंत्री पद के लिए किसी हेमंत विश्व शर्मा की कांग्रेस में कहां जगह है ?
   कांग्रेस हाईकमान की नजर में यही स्थिति  मध्य प्रदेश से  कमलनाथ -नकुल नाथ की है।
    ....................................................
     चुनाव की तारीख को लेकर यक्ष प्रश्न 
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बिहार का चुनाव कार्यालय यह मानकर मतदान की तैयारी के काम में लगा हुआ है कि बिहार विधान सभा का चुनाव समय पर ही आगामी अक्तूबर-नवंबर में  होगा।
  इस बार पहले की अपेक्षा राज्य में करीब 34 हजार अतिरिक्त मतदान केंद्र होंगे ताकि मतदाताओं के बीच  शारीरिक दूरी बनायी रखी जा सके।
 यदि स्थिति बिलकुल ही अनुकूल नहीं रही तो चुनाव टालना ही पड़ेगा।
एक सुझाव यह भी आ रहा है कि बिहार विधान सभा की आयु छह महीने के लिए बढ़ा दी जाए।
ऐसी स्थिति में मौजूदा राज्य मंत्रिमंडल भी बना रहेगा।
ऐसा अन्य कारणों से पहले भी इस देश में हो चुका है।
यह सुझाव सही लगता है।
देखें ,अंततः क्या होता है !
वैसे कुछ राजनीतिक दल अपनी 
सुविधा और कुछ अन्य दल जनता की असुविधा को ध्यान में रखते हुए चुनाव के समय के बारे में अपनी तरह तरह की सलाह सार्वजनिक कर रहे हैं।
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और अंत में
...............
चीन यह प्रदर्शित करने की कोशिश कर रहा है कि  दुनिया का अब वही सुपर पावर है। 
पर, भारत ने दिखा दिया कि हम भी दबने वाले नहीं हैं।
चीन को भी भारत की ताकत का
एहसास हुआ।
पर यह एहसास स्थायी हो,उसके लिए भारत को कुछ और करना पड़ेगा।
अधिक ताकतवर बनना पड़ेगा।
सरकारी पैसों के ‘लीकेज’ को यथासंभव बंद करके अपनी अर्थ व्यवस्था और मजबूत करनी होगी।साथ ही,बाहरी और भीतरी दुश्मनों का कड़ाई से मुकाबला करने के लिए सेना,पुलिस व  हथियारों के मामलों में हमें और भी ताकतवर बनना होगा।
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कानोंकान,
प्रभात खबर
17 जुलाई, 20

   भारत की अर्थ व्यवस्था को भ्रष्टाचार मुक्त 
   बनाए बिना अब देश का कल्याण नहीं,
अनेक कोरोना मरीजों की दुर्दशा ने सरकारी 
स्वास्थ्य सेवाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को पूरी 
तरह उजागर कर दिया है।
............................................. 
इस देश के अर्थ -तंत्र के साथ  संस्थागत रूप से जुड़ चुके भ्रष्टाचार को 
काफी हद तक कम किए बिना अर्थ व्यवस्था में सुधार संभव नहीं है ।
  अब सवाल यह है कि क्या केंद्र व राज्य सरकारों के अधिकतर स्तरों पर व्याप्त भीषण भ्रष्टाचार को कभी कम किया भी जा सकता है ?
जब केंद्र सरकार के मंत्रिमंडल स्तर से घोटालों-महा घोटालों  को खत्म किया जा सकता है।
जब इस देश के कई मुख्य मंत्री अपने लिए नाजायज पैसे नहीं कमाते। यदि यह सब संभव हो सका है तो उसके नीचे के विभिन्न सरकारी स्तरों से भी इसे काफी कम किया जा सकता है।
पर उसके लिए सर्जिकल स्टाइक की जरूरत पड़ेगी।
पर, इसके लिए नरंेद्र मोदी को कुछ अधिक ही साहस का परिचय देना होगा।
आज जितना विशाल जन समर्थन उन्हें हासिल है,उसके बल पर वे यह साहस भी कर सकते हैं।
चीन व कोरोना संकट के तत्काल बाद उन्हें यह कदम उठाना चाहिए। 
साहस इसलिए कह रहा हूं क्योंकि पिछले दशकों में इस देश के अच्छी मंशा वाले कई प्रधान मंत्रियों व मुख्य मंत्रियों को भी इस बात का डर 
सताता रहा  कि भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक व परिणामजनक  कार्रवाई  करने पर उनकी सरकार गिर जाएगी।
अच्छी मंशा वाले एक मुख्य मंत्री ने मुझसे एक बार कहा था कि इस देश के अधिकतर आई.ए.एस. अफसर भ्रष्टाचार कम होने ही नहीं देना चाहते।
यदि यह सच है तो वैसे आई.ए.एस. पर नकेल कसने के लिए नरेंद्र मोदी व संसद को कड़ा कदम उठाना पड़ेगा।
पर यह देख कर दुख होता है कि नरेंद्र मोदी जैसे ईमानदार नेता के  राज में भी सांसद फंड यानी ‘‘भ्रष्टाचार के रावणी अमृत कुंड’’ का नाश नहीं हो पा रहा है।
  सांसद फंड में जारी अबाध कमीशनखोरी को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि इसी के साथ अधिकतर सांसद व अफसर 
अपने प्रारंभिक काल से ही एक खास ‘‘कार्य शैली’’ सीख जाते  हैं। 
भ्रष्टाचार को जारी रखने के पक्ष में कितनी बड़ी-बड़ी शक्तियां इस देश में सकिंय हैं, उनका एक नमूना पेश है।-- 
राहुल गांधी को ‘न्याय योजना’ का विचार देने 
वाले नोबल विजेता अभिजीत बनर्जी की भ्रष्टाचार के बारे में राय जानिए।
यही राय कांग्रेस तथा कुछ अन्य संगठनों व मीडिया सहित विभिन्न क्षेत्रों की अनेक हस्तियों की भी रही है।
   दैनिक हिन्दुस्तान से बातचीत में अक्तूबर, 2019 में नोबल विजेता बनर्जी ने कहा था कि 
‘‘चाहे यह भ्रष्टाचार का विरोध हो या भ्रष्ट के रूप में देखे जाने का भय,शायद भ्रष्टाचार अर्थ व्यवस्था के पहियों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण था, इसे काट दिया गया है।
मेरे कई व्यापारिक मित्र मुझे बताते हैं निर्णय लेेने की गति धीमी हो गई है।.............’’
   आज यदि हजारों-हजार करोड़ रुपए का घोटाला करने वाले किसी नेता,अफसर या व्यापारी पर कानूनी कार्रवाई होती है तो वे व उनके समर्थक व लाभुक यह राग अलापने लगते है कि ‘‘बदले की भावना से कार्रवाई की जा रही है।’’
ऐसे में इस गरीब देश की अर्थ व्यवस्था भला कैसे सुधरेगी ?
सरकार के पैसों को लूट से कैसे बचाया जा सकेगा ?
1985 के राजीव गांधी के आंकड़े के अनुसार सरकार के सौ पैसों में से 85 पैसे बीच में ही लूट लिए जाते हैं।
अब सीधे बैंक खातों में पैसे डालने के बाद अब कुछ फर्क तो आया है,पर बहुत फर्क नहीं आया है।
बैंकों के लाभुक खातेदारों के आसपास मंड़राते दलालों पर अभी शासन की नजर नहीं जा रही है।
यह भी दुखद है।
...............................
  ---सुरेंद्र किशोर--20 जुलाई 20 

     ऐतिहासिक सच के साथ भी खिलवाड़ !
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         --सुरेंद्र किशोर- 
 नेताओं के वंशज-परिजन के बीच से निकले अयोग्य उत्तराधिकारियों के कारण आज इस देश के 
कुछ राजनीतिक दल संकट में हैं।
डूब रहे हैं।
आगे उनकी  स्थिति और भी खराब हो सकती है।
   इसके साथ ही, उन राजनीतिक-गैर राजनीतिक लोगों की उम्मीदें भी डूब रही हैं जो उन दलांे के अच्छे दिनों में मजे में थे।
आगे भी अच्छे दिन आने की वे प्रतीक्षा कर रहे थे।
पर, वे अब निराश हो रहे हैं।
 स्थिति सुधरती नहीं देख कर बीते दिनों के कुछ लाभुक व इच्छुक बुद्धिजीवी भी लंबे -लंबे लेख लिख रहे हैं।
लेख क्या है,विधवा विलाप मानिए।
पर, उन में से कुछ लेखों में अब भी डंडी मारी जा रही है।
झूठ परोसा जा रहा है।
पार्टी के पराभव के मूल कारणों की चर्चा कोई नहीं कर रहा है।
क्योंकि उसके कारण हाईकमान के यहां से उनकी गुड्डी कट जाएगी।
साथ ही, लेखों  के जरिए गलत तथ्य पेश करके नई पीढ़ी को गुमराह भी किया जा रहा है।
  आज के एक अखबार में छपे उसी तरह के एक लेख में वंशवाद की शुरूआत के लिए इंदिरा गांधी को जिम्मेदार ठहराया गया।
खैर, वह भी  जिम्मेदार तो थी हीं।
पर लेखक जरा उनके ऊपर भी झांक लेते !
उपलब्ध  दस्तावेजों के अनुसार कांग्रेस में वंशवाद मोतीलाल नेहरू ने शुरू किया था।
कांग्र्रेस अध्यक्ष मोतीलाल जी ने 1928 में महात्मा गांधी को बारी -बारीे से तीन चिट्ठयां लिखीं।
उनमें उन्होंने गांधी से आग्रह किया कि वे 1929 में जवाहरलाल को कांग्रेस अध्यक्ष बनवा दें।
पहली दो चिट्ठयों पर गांधी नहीं माने थे।
वे तब जवाहर को उस योग्य नहीं मानते थे।
पर, तीसरे पर गांधी मान गए।
सारी चिट्ठयां मोतीलाल पेपर्स के रूप में नेहरू मेमोरियल में उपलब्ध हैं।
   अब आइए ,1958-59 में।
1958 में इंदिरा गांधी कांग्रेस कार्यसमिति की सदस्य बनीं।
  कल्पना कीजिए,कितने बड़े -बड़े स्वतंत्रता सेनानी तब सदस्य बनने के काबिल थे।
पर उन्हें नजरअंदाज किया गया।
यही नहीं,इंदिरा गांधी 1959 में कांग्रेस अध्यक्ष बना दी गईं।
कांग्रेस संासद व पूर्व केंद्रीय मंत्री महावीर त्यागी ने इंदिरा गांधी को अध्यक्ष बनाए जाने के विरोध में जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखा।
नेहरू ने जवाब दिया,
‘‘ .......मेरा यह भी ख्याल है कि बहुत तरह से इस वक्त उसका (इंदु का) कांग्रेस का अध्यक्ष बनना मुफीद हो सकता है।’’
----पुस्तक -आजादी का आंदोलन -हंसते हुए आंसू--लेखक -महावीर त्यागी-पेज नंबर-230
प्रकाशक-किताब घर,नई दिल्ली।
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सुरेंद्र किशोर --20 जुलाई 20
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नोट-किसी का वंशज या परिजन राजनीति में आगे आए,इसमें किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए।
पर अयोग्य वंश को किसी दल के शीर्ष पर थोपा न जाए।
लगातार विफलताओं के बावजूद उसे शीर्ष पर ही बनाए नहीं रखा जाए।
क्योंकि राजनीतिक दल किसी व्यापारी का कारखाना नहीं होता।
उससे  लाखों-करोड़ों  लोगों व हजारों कार्यकत्र्ताओं की उम्मीदें जुड़ी होती हैं।
स्वस्थ लोकतंत्र का विकास का भी उससे संबंध है।


होशियार व्यक्ति दूसरों की, की गई गलती से सीख ले लेता है।
बेवकूफ लोग वही गलती खुद करके सबक लेने को बाध्य होते हैं।
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भाजपा नेता की असावधानी को आप मत दोहराइए।
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कोरोना संक्रमण से ठीक होने के बाद बिहार भाजपा अध्यक्ष ने अपना अनुभव सुनाया।
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‘‘वी.आई.पी.लोगों के सामने मास्क नहीं पहनने के कारण फंस गया।
कृपाकर यह गलती आप न दोहराएं।’’
---डा.संजय जायसवाल,
   बिहार भाजपा अध्यक्ष
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--राष्ट्रीय सहारा,पटना
  24 जुलाई 20

छोटी जगहों में भी गुणवत्तापूर्ण स्कूलों की स्थापना 
कर पैसे वाले पीढ़ियां गढ़ने का युगांतरकारी काम करें  
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अगली पीढ़ियां उन्हें याद रखेंगी
अब तो बिहार के गांव- गांव तक बिजली
पहुंच चुकी है।
सड़कों की हालत भी पहले से काफी बेहतर है।
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सी.बी.एस.ई. ने कल 12 वीं का रिजल्ट घोषित किया।
पटना जोन के टाॅपर्स की चर्चा करना चाहता हूं।
आटर््स में बिहार के मुजफ्फर पुर की 
अनम्या वत्स (केंद्रीय विद्यालय) ने 99 प्रतिशत अंक लाए।
   विज्ञान में आमी (सारण जिला)
स्थित शक्ति शांति अकादमी के शिवम संजय ने 99 प्रतिशत अंक लाए।
  काॅमर्स में सेंट पाॅल, हाजी पुर की निधि सिंह को 98.6 प्रतिशत नंबर मिले।
  अब कहिएगा कि इसमें कौन सी खास बात है !
सब कुछ तो आज के अखबारों में छप चुका है।
  पर एक बात जरूर है।
 मैं आमी के, जहां मशहूर व पवित्र अम्बिका स्थान भी है,
 उस स्कूल की चर्चा करना चाहता हूं जो छोटी जगह में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के प्रसार का नमूना बनता जा रहा है।
   कई साल पहले आमी के मूल निवासी व सरकारी अधिकारी रहे अवधेश कुमार सिंह ने अपने गांव में शक्ति शांति अकादमी नाम से  एक अच्छे स्कूल की स्थापना की ।
उस  इलाके के लोगों में प्रसन्नता हुई जो छोटी जगह में बेहतर शिक्षा की आस लगाए थे।
  शिवम संजय की उपलब्धि ने  सिर्फ इलाके का नाम रोशन किया,बल्कि यह बात भी साबित की कि छोटी जगहों की शिक्षण संस्थाएं भी अच्छी उपलब्धि हासिल कर सकती हैं।
   मेरा पुश्तैनी गांव आमी से अधिक दूर पर नहीं है।
मेरे इलाके के लड़के भी शक्ति शांति अकादमी में पढ़ते हैं।
पर आमी के आसपास के जिन दूर इलाकों से विद्यार्थी आमी तक नहीं पहुंच सकते,वहां एक ‘अवधेश कुमार सिंह’ की दरकार है।
ऐसे स्कूल में पढ़ाने में  पैसे तो लगते हैं,पर ये स्कूल पीढ़ियां गढ़ देते हैं।
  गरीब घर के लड़के निजी स्कूलों में अधिक फीस देकर नहीं पढ़ सकते।
पर, छोटी जगहों में गुणवत्तापूर्ण स्कूलों के अभाव में उनके बच्चे भी बेहतर शिक्षा नहीं पाते जो ऐसे स्कूलों की फीस देने की क्षमता रखते।
कई कारणों से अपवादों को छोड़कर सरकारी स्कूलों की हालत राम भरोसे है।
बिहार सरकार को चाहिए कि कोरोना संकट से उबरने के बाद वह सरकारी स्कूलों व अस्पतालों पर भी विशेष ध्यान दे।
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सुरेंद्र किशोर, 14 जुलाई 20

बुधवार, 22 जुलाई 2020

   श्रद्धांजलि
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राम अवधेश सिंह एक निरंतर 
उबलता समाजवादी
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सुरेंद्र किशोर  
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पी.टी.आई.के पटना ब्यूरो प्रमुख एस.के.घोष उर्फ मंटू दादा ने
विधायक राम अवधेश सिंह के लिए इबूलिएंट मेम्बर शब्द द्वय के प्रयोग किया था।
वे ‘इंडियन नेशन’ में काॅलम लिखते थे।
 उसके बाद मैंने शब्दकोष देखा।
उसमें इबूलिएंट का अर्थ था-उबलता हुआ,खौलता हुआ आदि आदि।
मैं उन दिनों राम अवधेश के ही सरकारी आवास में  रहता था।
पढ़ने-लिखने वाले इस समाजवादी कार्यकत्र्ता को 
पटना में पहली बार किसी ने रहने के लिए मुफ्त में एक कमरा दिया था।
भोजन-नाश्ता अलग से।
बदले में मैं राम अवधेश के लिए कुछ लिखा-पढ़ी  का काम कर देता था।
  मैंने मंटू दादा का चित्रण सही पाया।
 यह बात उस समय की है कि जब राम अवधेश 1969 में आरा से संसोपा के टिकट पर विधायक चुने गए थे।
राम अवधेश जब सदन में खड़ा हो जाते थे तो उन्हें बैठाना 
स्पीकर के लिए लगभग असंभव हो जाता था।
वे अपनी बात कह कर ही मानते थे।
उन दिनों मैं अक्सर स्पीकर दीर्घा का पास बनवा कर वहां बैठा करता था।
तब सदन में वैसा हंगामा नहीं होता है जैसा आज होता है।
राम अवधेश तथा उनके कुछ अन्य साथियों को तब लगता था कि इस देश में अब समाजवाद आने ही वाला है,इसलिए जरा हमें जोर लगा देना चाहिए।
 समाजवाद लाने के लिए 
उसी तरह बेचैन लोहियावादी विधायकों में पूरन चंद,विश्वनाथ मोदी और रामइकबाल बरसी प्रमुख थे।
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राम अवधेश बिहार के चैकीदारों और दफादारों के नेता थे।
तब चैकीदारों-दफादारों की सेवा अस्थायी थी।
उसे स्थायी करने की मांग पर राम अवधेश अड़े थे।
1970 में कर्पूरी ठाकुर पहली बार मुख्य मंत्री बने थे।
अच्छा मौका था।
रामअवधेश ने राज्य भर से हजारों चैकीदारों -दफादारों को बुलाकर उनसे पटना सचिवालय को अनिश्चित काल के लिए 
घेरवा दिया।
 साथ ही, खुद राम अवधेश भूमिगत हो गए।
यानी अपने दल के नेताओं की पहुंच से भी बाहर।
वह घेरा डालो आंदोलन इतना जोरदार था कि मुख्य मंत्री के लिए भी सचिवालय जाना कठिन हो गया।
  घेरा एक से अधिक दिनों तक चला।
 कर्पूरी ठाकुर परेशान थे।
उन्होंने प्रणव चटर्जी की मदद से किसी तरह राम अवधेश को 
बुलवाया।
पूर्व स्पीकर धनिकलाल मंडल के आवास में कर्पूरी जी से राम अवधेश की गरमा गरम बहस शुरू हुई।
तब मैं भी उस कमरे में उपस्थित था।
राम अवधेश ने कहा कि ‘‘आप चैकीदारों की मांगें मान लीजिए।’’
कर्पूरी जी ने कहा कि वित्त मंत्री जनसंघ घटक के हैं।वे नहीं मान रहे हैं।
राम अवधेश ने कहा कि जिस मांग पत्र को लेकर आप मेरे साथ राज्यपाल से मिल चुके हैं,वही मांग आप कैसे नहीं मानिएगा ?
कर्पूरी जी ने कहा आपकी मांग अव्यावहारिक है।
मैंने ऐसी मांग का समर्थन कभी नहीं किया।
इस पर राम अवधेश ने ऊंचे स्वर में कहा कि 
‘‘आप झूठ बोल रहे हैं।’’
मुख्य मंत्री ने उससे भी अधिक ऊंची आवाज में कहा
 ‘‘आप झूठ बोल रहे हैं।’’
इस गरम माहौल में मुझे कमरे से बाहर जाने को कहा गया।
क्योंकि मैं तो एक छोटा कार्यकत्र्ता था।
खैर, बाद में क्या हुआ, मुझे नहीं मालूम।
पर इस तरह जीवन में 
राम अवधेश का उबाल जारी रहा।
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पिछड़ों के लिए आरक्षण समर्थन में राम अवधेश का आंदोलन भी जोरदार रहा था।
1993 में जब मंडल आरक्षण लागू हुआ तो उसमें आर्थिक सीमा लगा दी गई।
राम अवधेश ने उसका नाम दिया था--बधिया आरक्षण।
बाद के वर्षों में राम अवधेश से मेरा संपर्क नहीं रहा।जहां -तहां यदाकदा मुलाकात हो जाती थी।
मेरे घर भी आते थे। मुझसे वे स्नेह रखते थे।
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राम अवधेश एक बार लोक सभा और एक बार राज्य सभा के सदस्य भी हुए थे।
 1977 के लोक सभा चुनाव में राम अवधेश ने बिक्रमगंज में  पूर्व केंद्रीय मंत्री डा.रामसुभग सिंह(कांगे्रेस) को भारी मतों से हराया था।
जनता पार्टी ने पहले अम्बिका शरण सिंह को टिकट देने का निर्णय किया था।
पर अंततः टिकट राम अवधेश को मिल गया।
83 वर्षीय राम अवधेश का कल पटना में निधन हो गया।
ऐसे राम अवधेश को मेरा शत शत नमन !
वैसे समाजवादी अब पैदा होने बंद हो गए हैं। 
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 21 जुलाई 20

   
   


शुक्रवार, 17 जुलाई 2020


हाईकमान में चुश्ती और सत्तर्कता के बिना कांग्रेस के अच्छे दिन मुश्किल-सुरेंद्र किशोर
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कांग्रेस पूरे देश में फैली है।ऐसे दल के सफल संचालन के लिए उसके हाईकमान में जिस तरह की चुश्ती और सत्तर्कता जरूरी होती है,उसका कांग्रेस में अभाव है।
इसके आंतरिक संकट व बिखराव का यह एक बड़ा कारण है।
नीतिगत विचलन दूसरा कारण है।
 लोकतंत्र में मुख्य प्रतिपक्षी दल की जिस तरह की प्रभावकारी
व जिम्मेदार भूमिका होनी चाहिए थी,इसी कारण उसका  अभाव खटकता है।
 स्वस्थ लोकतंत्र में प्रतिपक्ष का मजबूत और जिम्मेदार होना जरूरी है।
 पर किसी प्रतिपक्षी दल को मजबूत बनाने का दायित्व सत्ताधारी दल का तो नहीं हो सकता !
  हालांकि कांग्रेस की आंतरिक कमजोरियांे व फूट का लाभ भाजपा या कोई अन्य पार्टी उठाएगी ही।
किंतु कांग्रेस का यह कहना सही नहीं है कि भाजपा ही कांग्रेस में बिखराव का कारण बन रही है।
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   अपना और पार्टी का भविष्य उज्ज्वल
   हो तो क्यों कोई छोड़ेगा पार्टी !
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इस देश की राजनीति का आम चलन यह है कि जब किसी भी दल में कोई नेता अपना भविष्य नहीं देखता तो
वह दल त्याग कर देता है।
और यदि उस पार्टी का भविष्य भी अनिश्चित हो तब तो बिखराब अधिक ही होता है।
कांग्रेस में आज यही हो रहा है।
 विद्रोह के स्वर राजस्थान के अलावा भी कुछ अन्य राज्यों से भी आने लगे हैं।
झारखंड कांग्रेस के अध्यक्ष रामेश्वर उरांव ने आरोप लगाया
है कि भाजपा राज्य सरकार को अस्थिर करना चाहती है।
उरांव साहब,यदि आपका घर ठीक रहेगा तो चाहते हुए भी बाहर से कोई भी आपकी सरकार को अस्थिर नहीं कर सकता।
   उधर अपने विधायकों को संतुष्ट बनाए रखने  के लिए छत्तीस गढ़ में भी कांग्रेस सरकार उपाय कर रही है।
बल्कि लगता है कि उसे उपाय करना पड़ रहा है। 
 खबर है कि मुख्य मंत्री भूपेश बघेल ने हाल में 15 संसदीय सचिव बनाए हैं।
अभी 20 अन्य प्रमुख कांग्रेस नेताओं को बोर्ड और निगमों में स्थान देने का प्रस्ताव है।
   पर यह सब अस्थायी उपाय है।
राजनीतिक प्रेक्षक बताते हैं कि कांग्रेस को चाहिए कि वह उसके पास से भाग रहे आम वोटरों को अपने पास बुलाने का प्रयास करे।
उसके उपाय क्या-क्या  हो सकते हैं,वह सब ए.के.एंटोनी कमेटी की रपट में दर्ज है।
2014 के लोक सभा चुनाव में ऐतिहासिक हार के बाद कांग्रेस हाईकमान ने वह कमेटी बनायी थी।
पर उसकी रपट को आलमारी में बंद कर दिया गया।   
    
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   कांग्रेस की कार्य शैली !
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कांग्रेस हाईकमान की ‘कार्य शैली’ को राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत 
अच्छी तरह जानते-समझते हैं।
उसी के अनुसार वे काम भी करते हैं।
उनके पुत्र वैभव गहलोत भी उसी कार्य शैली को सीख रहे हैं।
जब ऐसा है तो अब राजस्थान में भावी मुख्य मंत्री पद के लिए किसी ‘पायलट’ की भला क्या जरूरत है ?
असम में तरुण गोगोई का कांग्रेस हाई कमान से पूर्ण तालमेल रहा है।
 उसी राह पर उनके पुत्र गौरव गोगोई हैं।
फिर वहां मुख्य मंत्री पद के लिए किसी हेमंत विश्व शर्मा की कांग्रेस में कहां जगह है ?
   कांग्रेस हाईकमान की नजर में यही स्थिति  मध्य प्रदेश से  कमलनाथ -नकुल नाथ की है।
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     चुनाव की तारीख को लेकर यक्ष प्रश्न 
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बिहार का चुनाव कार्यालय यह मानकर मतदान की तैयारी के काम में लगा हुआ है कि बिहार विधान सभा का चुनाव समय पर ही आगामी अक्तूबर-नवंबर में  होगा।
  इस बार पहले की अपेक्षा राज्य में करीब 34 हजार अतिरिक्त मतदान केंद्र होंगे ताकि मतदाताओं के बीच  शारीरिक दूरी बनायी रखी जा सके।
 यदि स्थिति बिलकुल ही अनुकूल नहीं रही तो चुनाव टालना ही पड़ेगा।
एक सुझाव यह भी आ रहा है कि बिहार विधान सभा की आयु छह महीने के लिए बढ़ा दी जाए।
ऐसी स्थिति में मौजूदा राज्य मंत्रिमंडल भी बना रहेगा।
ऐसा अन्य कारणों से पहले भी इस देश में हो चुका है।
यह सुझाव सही लगता है।
देखें ,अंततः क्या होता है !
वैसे कुछ राजनीतिक दल अपनी 
सुविधा और कुछ अन्य दल जनता की असुविधा को ध्यान में रखते हुए चुनाव के समय के बारे में अपनी तरह तरह की सलाह सार्वजनिक कर रहे हैं।
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और अंत में
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चीन यह प्रदर्शित करने की कोशिश कर रहा है कि  दुनिया का अब वही सुपर पावर है। 
पर, भारत ने दिखा दिया कि हम भी दबने वाले नहीं हैं।
चीन को भी भारत की ताकत का
एहसास हुआ।
पर यह एहसास स्थायी हो,उसके लिए भारत को कुछ और करना पड़ेगा।
अधिक ताकतवर बनना पड़ेगा।
सरकारी पैसों के ‘लीकेज’ को यथासंभव बंद करके अपनी अर्थ व्यवस्था और मजबूत करनी होगी।साथ ही,बाहरी और भीतरी दुश्मनों का कड़ाई से मुकाबला करने के लिए सेना,पुलिस व  हथियारों के मामलों में हमें और भी ताकतवर बनना होगा।
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कानोंकान,
प्रभात खबर
17 जुलाई, 20

मंगलवार, 14 जुलाई 2020

   ओली का एहलाम !!
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   नेपाल के चीनपंथी प्रधान मंत्री के.पी.शर्मा ओली के
अनुसार ‘‘असली अयोध्या नेपाल में ही है।’’
यदि ऐसा है तो नेपाल के हिन्दू राजाओं ने वहां कोई भव्य 
राम मंदिर क्यों नहीं बनवाया ?
उन राजाओं को इस रहस्य का पता क्यों नहीं था ?
याद रहे कि नेपाल में सैकड़ों साल तक हिन्दू राजाओं ने 
राज किया।
नेपाल लंबे समय तक घोषित हिन्दू राष्ट्र भी रहा।
     उस तथाकथित असली अयोध्या को तोड़ने के लिए वहां कोई मुस्लिम आक्रांता गए ।
और न ही किन्हीं बाबर या मीर बाकी ने वहां उस जगह कोई मस्जिद बनवाई।
   अपने ताजा बयान के जरिए ओली सिर्फ अपना भारत विरोध ही दर्शा रहे हैं।
  या फिर प्रकारांतर से नेपाल के उन दिवंगत हिन्दू राजाओं पर अकर्मण्यता और रामद्रोही होने का आरोप लगा रहे हैं।
जिन राजाओं को कभी नेपाल की अधिकतर जनता विष्णु का अवतार मानती थी,
उन राजाओं पर भगवान राम की घोर उपेक्षा का ताजा आरोप क्या नेपाल की आज की हिन्दू जनता पसंद करेगी ?
.................................. 
--सुरेंद्र किशोर-14 जुलाई 20

    जिन राजनीतिक दलों का मूल आधार मुख्यतः 
परिवारवाद, जातिवाद-संपद्रायवाद और पैसा वाद 
ही रहा है, वे अपना भविष्य अब अनिश्चित ही समझें।
   हां, यदि वे अपने इस ध्येय में बदलाव कर सकेंगे तो 
चुनावी उपलब्धि भी मिल सकती है।
--सुरेंद्र किशोर-14 जुलाई, 20  

रविवार, 12 जुलाई 2020

1.-त्रेता युग में इस धरा के ब्राह्मणों ने स्वजातीय किंतु मर्यादाहीन 
रावण की जगह मर्यादा पुरूषोत्तम राम का साथ दिया था।
यह भी रही है ब्राहमणों की दिव्य परंपरा ।
..................................
2.- इस घोर कलियुग का भी एक उदाहरण पेश है।
 स्वजातीय पत्रकारों की जोरदार पैरवियों को ठुकरा कर प्रभाष जोशी
ने मुझे 1983 में ‘जनसत्ता’ में रखा।
 पटना के एक्सप्रेस आॅफिस को एकाधिक संदेश भेज कर उन्होंने पटना
से मुझे दिल्ली बुलवाया था।
मेरा पहले से उनसे कोई परिचय तक नहीं था।
सिर्फ वे मेरा काम जानते थे।
................................
3.-1977 में जब मैंने पटना में दैनिक ‘आज’ ज्वाइन किया तो ब्यूरो 
प्रमुख पारसनाथ सिंह ने मुझे एक मंत्र दिया।
उन्होंने कहा कि पत्रकारिता ब्राह्मणों के स्वभाव के अनुकूल पेशा हैं।
ब्राह्मण विनयी और विद्या व्यसनी होते हैं।
यदि आपको इस पेशे में बेहतर करना है तो ये दो गुण अपनाइए।
मैंने इसकी कोशिश की।
मुझे लाभ हुआ।
4.-कैरियर के बाद के वर्षों में इस देश के जिन आधा दर्जन प्रधान संपादकांे ने इस गैर ब्राह्मण को यानी मुझे संपादक बनाने की कोशिश की,उनमें चार ब्राह्मण ही थे।
...............................
मैंने यह सब आज क्यों लिखा ?
थोड़ा लिखना, बहुत समझना !
...............................
--- सुरेंद्र किशोर -- 12 जुलाई 20    

मौजूदा कोरोना काल में गंभीरता से याद रखें,‘सावधानी हटी ,दुर्घटना घटी।’-सुरेंद्र किशोर



 प्रशासन को एक बार फिर पटना के लाॅकडाउन का निर्णय
करना पड़ा।
राज्य के कुछ अन्य नगरों के भी लाॅकडाउन का आदेश हुआ है।
   इससे पहले के लंबे लाॅक डाउन के बाद लगा था कि अब शायद इसकी नौबत दुबारा नहीं आएगी।
किंतु कई कारणों से उसकी नौबत आ ही गई।
कोरोना मरीजों की संख्या में असामान्य वृद्धि के  कारण फिर लाॅकडाउन का निर्णय हुआ।
  सावधान हटी और दुर्घटना घटी !
क्योंकि लाॅकडाउन के नियमों का पालन आधे मन से हुआ।
शारीरिक दूरी एक प्रमुख नियम है।
मास्क पहनना दूसरा प्रमुख नियम है।
जान है तो जहान है।
नियमों को तोड़कर अपनी और परिजन की  जान को खतरे में डालने में भला कौन सी समझदारी है ! 
पिछले लाॅकडाउन के खुलने के बाद यदि लोगबाग सावधानी बरतते,इस संबंध में जारी शासकीय निदेशों का पालन करते तो शायद दुबारा लाॅक डाउन की नौबत नहीं आती।
इस बीच समय -समय पर टी.वी.चैनलों पर भीड़ द्वारा नियमों के उलंघन के नमूने दिखाई पड़ते रहे हैं।
  उम्मीद है कि कल से शुरू हो रहे लाॅकडाउन में लोग अतिरिक्त सावधानी बरतेंगे।
नियमों का पालन करके ऐसी स्थिति बना देंगे ताकि एक बार फिर लाॅकडाउन की नौबत न आए। 
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  बुजुर्ग मतदाताओं की सुविधा के लिए
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अब 65 साल से अधिक उम्र  के 
 सारे मतदातागण वोट मतदान कर पाएंगे।
चुनाव आयोग के ताजा आदेश से यह स्थिति बनी है।
चुनाव आयोग उन्हें पोस्टल बैलेट उपलब्ध कराएगा।
यानी बुजुर्गों के लिए मतदान आसान हो जाएगा।
वे बड़ी संख्या में मतदान कर पाएंगे।
   इससे पहले कई कारणों से सभी बजुर्ग मतदान नहीं कर पाते थे।
हां, उनमें से अनेक लोग मतदान केंद्रांे पर जाकर भी मतदान करते रहे हैं।
जो नहीं जा पाते, उनमें कुछ शारीरिक रूप से असमर्थ होते हैं।
कुछ अन्य मतदातागण बूथ पर जाने को लेकर अनिच्छुक होते हैं।
सर्वाधिक कठिनाई उन बुजुर्गों के समक्ष आती रही है जिनके मतदान केंद्रों में अक्सर शांति-व्यवस्था की समस्या रहा करती है।
यानी मतदान केंद्रों पर अक्सर हिंसा होती है।
 इस देश के कुछ राज्यों के खास -खास हिस्सों में  अनेक मतदान केंद्रों से असली  मतदाताओं को भगा दिया जाता है।
ताकि, नकली मतदाताओं से अपने पक्ष में वोट डलवाए जा सकंे।
या फिर जानबूझकर हिंसा कर दी जाती है। 
 वैसे मतदान केंद्रों से जुड़े मतदाताओं के लिए पोस्टल बैलेट वरदान साबित होंगे।
बोगस मतदाताओं को निराशा होगी।
बोगस मतदान से लाभान्वित दलों को तो और भी निराशा होगी। 
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 दो विभागों के बीच तालमेल की कमी
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   ग्रामीण कार्य विभाग ने चकमुसा-जमालुद्दीन चक सड़क 
के रख -रखाव के लिए एक बार फिर निविदा आमंत्रित की है।
पटना जिले के फुलवारी शरीफ अंचल स्थित इस सड़क की निविदा 7 जुलाई, 2020 के अखबार में छपी है।
कुछ महीने पहले भी अन्य सड़कों के साथ इस सड़क के निर्माण के लिए टेंडर आमंत्रित किया गया था।
  दूसरी ओर,
उसी सड़क के बारे में ताजा  खबर यह  है कि 
उद्योग मंत्री श्याम रजक-सासंद राम कृपाल यादव ने  इस सड़क के निर्माण कार्य का इसी 8 जुलाई को शिलान्यास कर दिया। 
 सूचना अधिकार कार्यकत्र्ता आर.एन.सिंह को सोन नहर प्रमंडल, खगौल ने 3 जून, 20 को एक पत्र लिखा था।
उस पत्र के अनुसार ,करीब 5 करोड़ रुपए की लागत पर चकमुसा-जमालुद्दीन चक सड़क का चैड़ीकरण और पक्कीकरण होने जा रहा है।
उसकी निविदा भी मंजूर की जा चुकी है।
   पिछले कई वर्षों से नहर के किनारे की इस  सड़क का काम ग्रामीण कार्य विभाग किया करता था।
पर  सिंचाई विभाग ने हाल में इसे वापस लेकर खुद काम कराने का निर्णय किया।
उसके बाद सिंचाई विभाग को चाहिए था कि इसकी खबर वह ग्रामीण कार्य विभाग को दे देता।
पर कई बार ऐसा होता है कि एक ही सरकार का एक ‘हाथ’ नहीं जानता कि उसी का दूसरा हाथ क्या कर रहा है।  
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चीन का वही पुराना राग ं
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चीन ने सीमा पर ताजा भिड़ंत के लिए उल्टे  भारत को 
ही जिम्मेदार ठहरा दिया है।
चीन की यह पुरानी आदत है।
1962 में भी उसने यही काम का किया था।
तब हमारी हजारों वर्ग मील जमीन पर कब्जा भी किया और हमें ही जिम्मेदार ठहरा दिया।
तब के चीनी प्रधान मंत्री चाउ एन लाई ने उस संबंध में 15 नवंबर, 1962 को
एशिया और अफ्रीका के देशों के प्रधान शासकों को चिट्ठी लिखी थी।
 उस चिट्ठी के साथ 13 रंगीन नक्शे भी संलग्न किए थे।
वे नक्शे सीमा क्षेत्र के थे।चीन ने उस चिट्ठी को किताब का रूप दिया।उसे अपने भारतीय समर्थकों के जरिए इस देश में भी बंटवाया। 
उस चिट्ठी में चीन ने खुद को निर्दोष बताया था।
जबकि पूरी दुनिया जानती है कि 1962 में चीन ने भारत के साथ कैसा सलूक किया।
   चीन का करीब दो दर्जन देशों से लंबा विवाद रहा है।
क्या उन विवादों के लिए भी दूसरे ही देश जिम्मेदार हैं ?
चीन नहीं ?
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  और अंत में
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व्यक्ति हो या देश !
जब उस पर कोई संकट आता है तो 
अपनों  और परायों  की पहचान हो जाती है।
चीन ने हमारे सामने संकट खड़ा कर दिया था ।
हालांकि मोदी सरकार ने उसका दृढ़ता और सफलतापूर्वक
उसका मुकाबला किया।और कर भी रही है।
उसको लेकर दुनिया में नरेंद्र मोदी की तारीफ भी हुई।
पर इस दौरान हमने  बाहर -भीतर के दुश्मनों की भी अच्छी तरह पहचान कर ली।
भीतर के दुश्मनों की तो कुछ वर्षों के भीतर दूसरी बार पहचान हुई है।
............................
कानोंकान,प्रभात खबर,
पटना, 10 जुलाई 20

शनिवार, 11 जुलाई 2020

महाजनो येन गतः स पन्थाः
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यानी,महापुरुष जिस पथ से जाते हैं,
वही मार्ग अनुकरणीय है।
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बात सन 1950 से पहले की है।
जो  कुछ मैं यहां लिख रहा हूं,वह मैंने एम.ओ.मथाई की संस्मरणात्मक
पुस्तक में पढ़ी है।
मथाई 13 साल तक प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू का निजी सचिव था।
एक केंद्रीय मंत्री के पु़त्र ने उत्तर प्रदेश में एक व्यक्ति की हत्या कर दी।
वह गिरफ्तार भी हो गया।
मंत्री जी दौड़े -दौड़े प्रधान मंत्री के यहां गए।
जवाहर लाल नेहरू ने 
साफ-साफ कह दिया कि हम आपके पुत्र की कोई मदद नहीं कर सकते।
मंत्री एक अन्य प्रभावशाली केंद्रीय मंत्री के यहां गए।
उन्होंने पूरी मदद कर दी।
पुत्र जेल से छूट गया।
उसे तत्काल विदेश भेज दिया गया।
 वह वी.आई.पी.पुत्र बाद में कभी कचहरी में हाजिर तक नहीं हुआ।
केस रफा -दफा हो गया।
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सवाल है कि सिर्फ मंत्री पुत्र ही हत्या कांड से बचाया जा सकेगा ?
कत्तई नहीं।
इसलिए अन्य प्रभावशाली लोगों ने भी इस परंपरा को आगे बढ़ाया।
यदि कोई केंद्रीय मंत्री पुत्र मोह में कानून तोड़ेगा तो पुलिस धन लोभ में किसी अपराधी का क्यों नहीं बचाएगी ?
समय बीतने के साथ खूंखार अपराधियों के भी सजा से बच जाने की गति बढ़ती चली गई।
इसके लिए कौन -कौन लोग जिम्मेदार रहे हैं ,इस पर बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है।
उसे यहां दुहराना आवश्यक नहीं।
......................................
2 अक्तूबर, 2019 के आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश के आरोपित अपराधियों में से सिर्फ 10 प्रतिशत को ही अदालतों से सजा हो पाई।
जिस राज्य में 90 प्रतिशत अपराधी छूट जाएं, उस राज्य में विकास दुबे पैदा नहीं होगा तो कौन पैदा होगा ? !!
बगल के राज्य बिहार में भी अदालती सजा का प्रतिशत लगभग इतना ही है।
............................
यानी, आपराधिक न्याय व्यवस्था में आमूल चूल परिवत्र्तन की सख्त जरूरत है।
पर, यह काम कौन करेगा ?
पता नहीं।
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--सुरेंद्र किशोर--11 जुलाई 20


  जाकी रही भावना जैसी,
पुलिस मुंठभेड़ दिखे तिन तैसी  !!
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मुंठभेड़ें दो तरह की होती हैं।
एक लतीफ टाइप एनकाउंटर।
दूसरा सोहराबुद्दीन टाइप एनकाउंटर।
यह आप पर निर्भर है कि आप अपनी राजनीतिक व 
अन्य तरह की भावना के अनुसार किस एनकाउंटर की आलोचना करते हैं या  किस एनकाउंटर पर खुशी से  ताली बजाते हैं।
  गुजरात के कथित माफिया सरदार लतीफ को पुलिस ने 1997 में एनकाउंटर में मार डाला।
तब गुजरात में कांग्रेस समर्थित राजपा मुख्य मंत्री दिलीप पारीख
की सरकार थी।
  तब लतीफ को मार गिराने वाली पुलिस का सार्वजनिक रूप से
अभिनंदन किया गया।
 पर जब नरेंद्र मोदी के मुख्य मंत्रित्वकाल में 2005 में पुलिस के साथ मुठभेड़ में सोहराबुद्दीन मारा गया तो क्या हुआ ?
इसके कारण अन्य लोगों के साथ-साथ  गुजरात के राज्य मंत्री को भी जेल भिजवा दिया गया।
  हालांकि जानकार लोगों का कहना है कि दोनों मुठभेड़ें एक ही तरह की थीं।
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--सुरेंद्र किशोर--10 जुलाई 20

बुधवार, 8 जुलाई 2020

‘धोखाधड़ी के पोस्टर ब्वाय’ की एक कहानी
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विजय माल्या ने एक बार कहा था कि 
‘‘मैं धोखाधड़ी का पोस्टर ब्वाय बन गया हूं।’’
 ऐसा कह कर वह कुछ लोगों की सहानुभूति हासिल करना चाह रहा था।
माल्या की अनियमितता की एक कहानी 
पत्रकार कुलदीप नैयर ने लिखी थी।
उस प्रकरण से भी माल्या की कोई अच्छी छवि नहीं बनती।
तब वह राज्य सभा का सदस्य था।
कुलदीप नैयर भी उन दिनों राज्य सभा में थे।
परंपरा यह रही है कि जो सांसद जिस बिजनेस से जुड़ा रहा हो,
वह उससे संबधित मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति का  सदस्य नहीं बन सकता।
पर माल्या का प्रभाव तो देखिए !
इसके बावजूद विजय माल्या नागरिक विमानन मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति का  सदस्य बन गया था।
उस समिति में अन्य लोगों के अलावा राहुल गांधी और कुलदीप नैयर भी थे।
समिति की एक बैठक में माल्या का प्रस्ताव था कि विमानों की स्वदेशी उड़ानों में भी शराब परोसने की छूट मिलनी चाहिए।
प्रस्ताव पास भी हो गया।
हालांकि उसे सरकार द्वारा माना नहीं गया।
किंतु कुलदीप नैयर ने  माल्या की ऐसी पहल को बहुत खराब माना था।
क्योंकि इससे संसदीय सलाहकार समिति की गरिमा कम होती थी।   
याद रहे कि माल्या शराब के व्यापार से भी जुड़ा रहा।
नैयर को इस बात पर भी आश्चर्य हुआ था कि उस बैठक में उपस्थित राहुल गांधी ने भी माल्या के प्रस्ताव का विरोध नहीं किया।
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--सुरेंद्र किशोर--7 जुलाई 20

1.-योगी ने विकास दुबे का एनकाउंटर नहीं कराया।
गिरफ्तार किया।
ताकि,वह जेल से अपना कारोबार चला सके।
विकास दुबे भाजपा का आदमी है।
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2.-योगी ने विकास दुबे को गिरफ्तार नहीं करवाया।
  एनकाउंटर करवा दिया।
 ताकि, वह कोई राज न उगल  सके।
विकास दुबे भाजपा का आदमी है।
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 आप दोनों किस्म की कहानियों के लिए तैयार रहिए।
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  ---के.एस.द्विवेदी,
 दैनिक जागरण,पटना
  8 जुलाई 20 
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के.एस.द्विवेदी ने इस देश की राजनीति के असली चरित्र
का चित्रण कर दिया है।
अब आप ही बताइए कि इसमें अपवाद कौन-कौन  हंै ?
कुछ नेता अपवाद हो सकते हैं।
पर क्या दल भी ? !!!
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चीन सीमा समस्या पर हमारे देश के कुछ नेताओं के 
कैसे -कैसे बयान आ रहे हैं !!!!
ऐसे -ऐसे बयान आ रहे हैं ताकि चीन और पाकिस्तान 
खुश हो जाए।
भारत जैसा दूसरा कौन सा देश इस धरती पर है 
जहां ऐसे -ऐसे नेता बसते हैं ? 
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--सुरेंद्र किशोर 

मंगलवार, 7 जुलाई 2020

अपनी राजनीतिक टांगें बचा सको तो बचा लो !
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सन् 2019 के लोक सभा चुनाव की बात है।
अपनी वास्तविक राजनीतिक ताकत की अपेक्षा 
अधिक ऊंची राजनीतिक उड़ान भरने की कोशिश में 
कुछ बिहारी नेताओं ने अपनी राजनीतिक टांगें तुड़ा 
लीं।
   बिहार विधान सभा का चुनाव भी अब दूर नहीं।
संकेत हैं कि आगामी चुनाव में भी कुछ वैसे ही 
स्वभाव के नेताओं की राजनीतिक टांगें टूटने ही वाली हैं।
  इस बीच जो चेत गए और धरती पर आ गए 
तो शायद वे अपनी ‘टांगें’ बचा ले जाएं।
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  --सुरेंद्र किशोर--23 जून 20



 1962 के चीनी हमले पर बनी जांच समिति 
 की रपट को भारत सरकार ने क्यों दबा दिया था ?
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 1962 के  चीन-भारत युद्ध में पराजय के कारणों की जांच का भार  भारतीय सेना के दो अफसरों को  
सौंपा गया था।
उनके नाम हैं 
 लेफ्टिनेंट जनरल हंडरसन ब्रूक्स और 
ब्रिगेडियर पी.एस..भगत ।
 सन् 1963 में ब्रूक्स-भगत रपट आई ।
 उसे तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल जे.एन.चैधरी ने अपने  कवर लेटर के साथ  रक्षा मंत्रालय को भेज दिया था।
केंद्र सरकार ने इसे वर्गीकृत यानी गुप्त सामग्री का दर्जा 
देकर दबा दिया।
 आखिर  उसे क्यों दबा दिया गया ?
क्या उस रपट के प्रकाशन से  तत्कालीन भारत सरकार और उसके नेतृत्व की छवि को नुकसान होने वाला था ?
 क्या यह बात सही है कि उस रपट के अब भी सार्वजनिक हो जाने पर आज के कुछ नेताओं की बोलती बंद हो जाएगी ?
   ---सुरेंद्र किशोर - 25 जून, 20  



दल बदलुओं को टिकट देने से हतोत्साहित होंगे अपने कार्यकत्र्ता --सुरेंद्र किशोर




 बिहार विधान सभा चुनाव का माहौल गरमाने लगा है।
इसी के साथ दल -बदल का मौसम भी शुरू हो गया है।
स्वाभाविक ही है।
ऐसा हर बार होता है।
पर कुछ कारणवश इस बार कुछ अधिक ही होने वाला है।
क्योंकि सन 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में एक मजबूत 
गठबंधन के कारण अनेक ऐसे नेता चुनाव जीत गए जो गठबंधन 
के बिना नहीं जीत पाते।
 उनको फिर सहारा देने के लिए कोई मजबूत गठबंधन अब नहीं है।
इसलिए उनमें से अनेक नेता मजबूत गठबंधन यानी राजग की ओर रुख करेंगे।
ऐसे संकेत मिलने शुरू भी हो गए हैं।
 यदि उन्हें बड़े पैमाने पर राजग टिकट देने लगे तो उसके अपने दल के कार्यकत्र्ताओं का राजनीतिक भविष्य कैसा रहेगा  ?
आखिर वे किस उम्मीद में अपने दल के लिए आगे भी जी-जान से काम करेंगे ?
   वंशवाद,पैसावाद और जातिवाद पहले से ही अनेक 
कार्यकत्र्ताओं का हक मारते रहे हैं।
अब दल बदलुआंे को सम्मानित करने के लिए तो 
अपने  समर्पित कार्यकत्र्ताओं को  तिरस्कृत मत कीजिए !
हर नियम के कुछ अपवाद होते हैं।
पर अपवाद कुछ ही होते हैं।
उसी तरह अपवादस्वरूप ही दलबदलुओं को तरजीह 
दी जा सकती है।
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    तैयारी के बिना पुलिस छापामारी
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आए दिन यह खबर आती रहती है कि छापामारी करने गए पुलिस बल को
माफियाओं ने मार कर भगा दिया।
कई मामलों में पुलिस अफसर भी घायल हो जाते हैं।
 साथ-साथ यह भी खबर मिलती है कि पुलिस के लोग पूरी तैयारी के बिना ही गए थे।
इन दिनों आम तौर बालू 
और शराब माफियाओं के खिलाफ छापामारियां होती रहती हैं।
  याद रहे कि अपार नाजायज पैसों के बल पर राज्य में शराब -बालू माफिया काफी ताकवतर हो चुके हैं।
फिर बिना पूरी तैयारी के छापमारी क्यों ?
जब माफिया पुलिस को कहीं से मारकर भगा देते हैं 
तो आम पुलिस प्रशासन का मनोबल गिरता है ।
साथ ही, आम अपराधियों का मनोबल बढ़ता है।
इसका विपरीत असर कानून -व्यवस्था पर भी पड़ता है।
आश्चर्य है कि शासन  ऐसा होने देता है।
या तो छापामारी मत करो या करो तो इतनी ताकत के साथ
 करो कि माफियाओं को उनकी नानी याद आ जाए।
 यदि ऐसा नहीं होता है तो इन अधूरी तैयारी के पीछे लोगबाग कुछ खास मतलब भी लगाने को स्वतंत्र हो जाते हैं।
  सवाल उठ ही सकता है कि क्या छापामारी का उद्देश्य ही तो गैर -पेशेवर नहीं है ?
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  लोस और रास टी.वी को 
 मिलाकर बनेगा ‘संसद टी.वी.’
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  राज्य सभा टी.वी.और लोक सभा टी.वी.चैनलों का आपस 
में विलयन हो जाएगा।
इसकी प्रक्रिया चल रही है।
प्रक्रिया आखिरी दौर में है।
लोस टी.वी.चैनल की शुरूआत 2006 में हुई थी।
2011 में राज्य सभा टी.वी.चैनल का श्रीगणेश हुआ।
कुछ समय से कई लोग यह सवाल उठा रहे थे कि 
दो चैनलों की जरूरत 
क्यों पड़ी ?
तरह -तरह की बातें हो रही थीं।
हाल में दोनों सदनों के पीठासीन पदाधिकारियों ने इनके 
विलयन की जरूरत महसूस की।
सांसदों से भी राय ली गई।
तय हुआ कि विलयन हो जाए।
इससे खर्चों में बचत होगी।
खबर है कि यह काम जल्द ही पूरा हो जाएगा।
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भूली-बिसरी याद
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25 जून, 1975 की रात में देश में आपातकाल लागू हुआ।
 अगले दिन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने भारत सरकार के सचिवों 
की बैठक की।
प्रधान मंत्री के तब के संयुक्त सचिव रहे बिशन टंडन के अनुसार,
उस बैठक में श्रीमती गांधी ने कहा कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए 
यह कदम उठाया गया है।
प्रधान मंत्री ने  निम्नलिखित तर्क पेश किए थे।
यह आज की पीढ़ी को तय करना है कि वे तर्क सही थे या 
नहीं।
सन 1977 में तो मतदाताओं ने उनके तर्क को नकार दिया था।
हां, फिर भी आज कुछ लोग उस आपातकाल से आज की स्थिति की 
तुलना करते जरूर देखे जा रहे हैं।
तब श्रीमती गांधी के तर्क थे कि 
‘‘प्रतिपक्ष नाजीवाद फैला रहा है।
नाजीवाद केवल सेना व पुलिस के उपयोग से ही नहीं आता है।
कोई छोटा समूह जब गलत प्रचार करके जनता को गुमराह करे तो 
वह भी नाजीवाद का लक्षण है।
भारत में दूसरे दलों की सरकारें भले बन जाएं ,पर मैं माक्र्सवादी 
कम्ुनिस्टों और जनसंघ की सरकार नहीं बनने दूंगी।
जय प्रकाश के आंदोलन के लिए रुपया बाहर से आ रहा है।
अमरीकी खुफिया संगठन सी.आई.ए. यहां बहुत सक्रिय है।
के.जी.बी.का कुछ पता नहीं।
लेकिन उनके यानी के. जी. बी. के कार्य का कोई प्रमाण सामने 
नहीं आया  है।
प्रतिपक्ष का सारा अभियान मेरे विरूद्ध है।
मेरे अतिरिक्त मुझे कोई ऐसा व्यक्ति नजर नहीं आता जो इस 
समय देश के सामने आई चुनौतियों का सामना कर सके।’’
 बिशन टंडन के अनुसार प्रधान मंत्री जब के.जी.बी.की चर्चा कर रही थीं तो वह प्रकारांतर से यह भी कह रही थीं कि सोवियत संघ का यह खुफिया संगठन 
भारत में कोई गलत काम नहीं कर रहा था।
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और अंत में
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राजनीति के मौसमी पक्षी चुनाव विश्लेषण और आकलनकत्र्ताओं के 
काम को थोड़ा
 आसान कर देते हैं।
मौसमी पक्षी बेहतर ढंग से जानते हैं कि हवा का रुख किधर हैं।
नतीजतन वे पहले ही अपने लिए अनुकूल व मजबूत डाल पकड़ लेते हैं।
 पहले के हर चुनाव की तरह 
ही आगामी बिहार विधान सभा चुनाव से पहले भी यह हो रहा है।
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26 जून 2020 के प्रभात खबर ,पटना में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से

   
    कभी के अपने ही शीर्ष नेता 
    के प्रति निष्ठुर होते नेतागण 
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28 जून को पूर्व प्रधान मंत्री पी.वी.नरसिंह राव की जयंती मनाई गई।
क्या उस अवसर पर राव के योगदान से संबधित मनमोहन सिंह के किसी उद्गार पर आपकी नजर पड़ी ?
मेरी तो नहीं पड़ी।
मनमोहन सिंह तथा अन्य कांगेसी नेताओं ने संभवतः इसलिए चुप्पी साधी क्यांेकि संभवतः सोनिया गांधी राव को पसंद नहीं करतीं।
   कभी प्रधान मंत्री राव के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह नरसिंह के
कदमों में बैठकर राय -मशविरा करते थे।-चित्र देखें ।
  पर, बाद में राजनीतिक स्थिति बदली तो सरदार जी ने गत साल एक रहस्योद्घाटन कर दिया।
  राव को सिख दंगा नहीं रोकने के लिए दोषी ठहरा दिया।
  यह बात तब की है कि जब 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में पुलिस के सरंक्षण में सिखों का एक तरफा नर संहार हो रहा था।
  मनमोहन सिंह के अनुसार गृह मंत्री नरसिंह राव ने तब गुजराल की बात मानी होती तो  दंगा इतना भयावह नहीं होता।
याद रहे कि पूर्व केंद्रीय मंत्री आई.के. गुजराल ने राव से मिलकर कहा था कि सेना जल्द बुलाइए।
पर जल्द नहीं बुलाई गई।
   मन मोहन जी ने यह बात छिपा ली कि नरसंहार के समय तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी राष्ट्रपति जैल सिंह और पत्रकार खुशवंत सिंह के फोन भी नहीं ले रहे थे।
  क्या राजीव गांधी को सूचना नहीं मिल रही थी कि सिखों का तीन दिनों तक संहार होता रहा ?
पुलिस मूकदर्शक थी या दंगाइयों का सहयोग कर रही थी ?
क्या तत्काल सेना बुलाने के लिए वे राव को निदेश नहीं दे सकते थे ?
उल्टे राजीव ने तो बाद में यह भी कह दिया था कि ‘जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है।’
  इस धरती के हिलने से रोकने में सिर्फ नरसिंह राव कैसे सहायक हो सकते थे ?
इस पोस्ट के साथ में प्रस्तुत हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित एक चित्र बहुत कुछ कह देता है। 
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अपनी ही पार्टी के किसी प्रधान मंत्री की ऐसी उपेक्षा ध्यान देने लायक है।
  इस बार तेलांगना के मुख्य मंत्री ने पी.वी.नरसिंह राव के बारे में
देश भर के अखबारों में पूरे पेज का  विज्ञापन देकर नई पीढ़ी को कुछ जानकारियां दीं।
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--सुरेंद्र किशोर--2 जुलाई 20