बात 1984 की है। उन दिनों मैं जनसत्ता का बिहार संवाददाता था और पटना के लोहिया नगर में किराए के मकान में रहता था। 1983 में जनसत्ता ज्वाइन करने से पहले मैं दैनिक ‘आज’ के पटना संस्करण में मुख्य संवाददाता था। चर्चित बाॅबी हत्याकांड को उद्घाटित करने के कारण मेरी चर्चा पहले से थी। उधर जनसत्ता ने अपने प्रकाशन के साथ ही तहलका मचा रखा था जिसका मैं संवाददाता था।
शायद इसी पृष्ठभूमि के चक्कर में एक दिन अचानक एक शार्प शूटर रघुनाथ सिंह मेरे घर आ धमका। उसके साथ मेरे एक पूर्व परिचित थे। रघुनाथ काफी लंबा-चैड़ा और हट्ठा-कट्ठा था। हुलिया देख कर मैं थोड़ा असहज हो गया। उसकी कमर में रिवाल्वर थी। बाद में पता चला कि वह साथ में हैंड ग्रेनेड लेकर भी चलता है।
मेरे परिचित ने मुझे बताया कि ये मेरे रिश्तेदार हैं। बिहार के एक बड़े माफिया का नाम लेते हुए कहा कि ये उनके बाॅडीगार्ड और शूटर थे। पर अब उससे इनका झगड़ा हो गया है। दोनों एक दूसरे की जान के प्यासे हैं।
रघुनाथ की शिकायत थी कि उस माफिया के लिए सारे मर्डर मैंने किये, पर मीडिया में नाम सिर्फ उसका होता है। वह तो भारी डरपोक आदमी है। एक चूहा भी नहीं मार सकता है। मेरा नाम भी होना चाहिए।
यह सनसनीखेज बात सुनकर मैं रघुनाथ की ओर मुखातिब हुआ।
मैंने उससे पूछा कि आपने कितने मर्डर किये हैं ? इस पर उसने अपना रिवाल्वर निकाल कर टेबुल पर रख दिया। कहा कि यह हथियार मेरे लिए शुभ साबित हुआ है। इससे मैंने कई मर्डर किये हैं। हालांकि कुल तेरह लोगों को मारा है। उस माफिया का नाम लेते हुए कहा कि सब उसी के कहने पर।
फिर उसने विस्तार से बताया कि एक चर्चित मजदूर नेता को उसने कैसे मारा।
आप क्या चाहते हैं ? -मैंने पूछा।
उसने कहा कि मैं चाहता हूं कि फोटो सहित आप मेरा इंटरव्यू छापिए। मैंने कहा कि आपको इंटरव्यू में यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आपने कितने और कैसे मर्डर किये हैं।
उसने कहा कि आप कहिए तो मैं हैंडनोट पर लिखकर दे दूंगा। पर मेरा नाम और फोटो जरूर छपना चाहिए। मैंने सुना है कि आपमें छापने की हिम्मत है।
मैंने कहा कि छपने के बाद पुलिस आप पर केस कर देगी। वैसा कोई केस होने पर उसका सामना करने को वह तैयार लगा।
मैंने कुछ सोचने के बाद कहा कि आप एक सप्ताह के बाद आइए। मैं विस्तार से आपसे बातचीत करूंगा। अभी मैं थोड़ा व्यस्त हूं।
वह चला गया।
मैंने सोचा कि रघुनाथ शायद अपने लोगों से इस बीच राय करेगा। लोग यही राय देंगे कि सिर्फ नाम छपने के लिए स्वीकारोक्ति देकर मत फंसो। और वह मान जाएगा। मेरे पास नहीं आएगा। मैंने इस बात को लेकर भी द्विविधा में था कि ऐसे शूटर का इंटरव्यू छापना चाहिए या नहीं। पर इसमें सार्वजनिक हित का पहलू यह था कि इसका इंटरव्यू उस बड़े माफिया के खिलाफ जाने वाला था। उस बड़े माफिया के समर्थकों और संरक्षकों में बड़े-बड़े नेता शामिल थे।
उन दिनों बिहार में गैंगवार और नरसंहारों का दौर था।
मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि ठीक एक सप्ताह के बाद वह मेरे यहां आ धमका।
उससे पहले मैंने उसके बारे में पुलिस सूत्रों से जानकारी ली थी। सुना था कि वह ‘शब्दबेधी वाण’ चलाता है। यानी आवाज की दिशा में गोली चला देता है और निशाने पर लगती है।
वह उत्तर प्रदेश के पी.ए.सी. का भगोड़ा सिपाही है।
इस बात की भी पुष्टि हुई कि वह माफिया इसकी जान का प्यासा बना हुआ है जिसके यहां यह पहले काम करता था।
एक बार फिर अपने आवास में देखकर मैं थोड़ा चिंतित हुआ। इस बार वह अकेला था। मैंने उससे कहा कि आपको मारने के लिए कोई खोज रहा है।
यदि उसके लोग यहां हमला कर दें तब तो हम सब मारे जाएंगे। मैं परिवार के साथ रहता हूं।
चेहरे पर निर्भीक भाव के साथ इस बार उसने रिवाल्वर के साथ-साथ हैंड ग्रेनेड भी निकाल कर टेबुल पर रखा।
कहा कि इसमें छह गोलियां हैं। मेरा निशाना खाली नहीं जाता है। उसके बाद यह ग्रेनेड एक भीड़ को रोक लेगा। उसके बाद तो जय भवानी।
इसके बाद मैंने उससे बातचीत शुरू की। वह सनसनीखेज बातें बताता चला गया। मैं हाथ से लिख रहा था। क्योंकि तब मेरे पास कोई टेप रिकाॅर्डर भी नहीं था। मुझे यदि इस बात का पक्का भरोसा होता कि यह दूसरी बार मेरे यहां आ ही जाएगा तो मैं किसी मित्र से टेप रिकाॅर्डर मांग कर रख लेता।
लंबी बातचीत हुई। बातचीत बहुत ही सनसनीखेज थी। वह चला गया।
इस बीच मैंने जो लिखा था, उसे फेयर किया। तीन काॅपी बनाई। एक काॅपी करीब तीस पेज में थी।
रघुनाथ ने मुझे साथ में छापने के लिए कुछ सनसनीखेज फोटोग्राफ भी दे दिए थे।
मैंने जनसत्ता, रविवार और माया के लिए काॅपियां बनायीं। मुझे आशंका थी कि यह इतना सनसनीखेज है कि जल्दी कोई इसे छापेगा नहीं। एक नहीं छापेगा तो दूसरे को भेजूंगा।
फेयर काॅपी बनाकर मैं रघुनाथ की प्रतीक्षा करने लगा ताकि उस पर रघुनाथ का दस्तखत ले सकूं।
उधर वह इस बात की प्रतीक्षा कर रहा था कि वह कब छपता है। वह मोबाइल फोन का जमाना था नहीं। मेरे उस परिचित से भी रघुनाथ ने संपर्क नहीं रखा था जो मेरे यहां पहली बार उसे लेकर आया था।
करीब एक माह बाद रघुनाथ मेरे यहां तीसरी बार आया। इस बार वह थोड़ा गुस्से में था। कहा कि आपने मुझसे इतनी लंबी बातचीत की और कहीं छपा नहीं। ध्यान रहे कि वह बलिया की खास तरह की भोजपुरी में बोलता था। उसमें दबंगियत का लहजा होता है।
मैंने कहा कि आप दस्तखत कर दीजिए मैं अखबारों को भेज दूंगा। उसने कहा कि लाइए जहां कहिए वहां दस्तखत कर देता हूं। उसने तीनों काॅपियों के करीब सौ पेज पर खुशी-खुशी दस्तखत कर दिये।
मैंने पहले जनसत्ता और माया को भेजा। जनसत्ता में छपने की मुझे कत्तई उम्मीद नहीं थी। पर चूंकि मैं वहां नौकरी करता था, इसलिए वहां भेजना नैतिक रूप से जरूरी समझा।
पर मैं यह इच्छा रखता था कि वह जनसत्ता में नहीं छपे। दरअसल यह ‘माया’ के स्वभाव वाला आइटम था।
पर संयोग से दोनों जगह शेड्यूल हो गया। जनसत्ता के मैगजिन सेक्सन में बेहतर डिसप्ले के साथ छपा। साथ ही माया ने भी छाप दिया।
इस पर माया के बाबूलाल शर्मा मुझसे थोड़ा नाराज हुए। उन्होंने मुझे नाराजगी का एक पत्र भी लिखा। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जनसत्ता ने पहले ही वाहवाही लूट ली थी। शर्मा जी ने लिखा कि आपको एक ही जगह भेजना चाहिए था।
रघुनाथ के शहर में जनसत्ता ब्लैक में बिका। पचास रुपए में एक काॅपी।
बाद में प्रभाष जोशी ने मुझे बताया था कि उस इंटरव्यू पर रामनाथ गोयनका भी प्रसन्न थे। गोयनका जी ने कहा था कि ‘पंडत, तुम्हारा पटना वाला आदमी तो बड़ा खरा है।’
इंटरव्यू छपने के बाद रघुनाथ बहुत चर्चित हो गया था। काफी खुश हुआ। मेरे आफिस में आया। पैर छूकर प्रणाम किया। फिर एक सनसनीखेज आॅफर दिया। ‘मैं आपको इसके बदले तो कुछ दे नहीं सकता। पर एक काम जरूर कर सकता हूं। आप जिसे कहिएगा, उस एक आदमी को मैं मार दूंगा।’
मैंने उसे समझाया। कहा कि आप हत्या करना छोड़कर उस माफिया की तरह अब आप भी चुनाव लडि़ए। इंटरव्यू छपने के बाद लोग आपको भी जान ही गए हैं। उसने फिर मेरा पैर छुआ और चला गया।
पर एक साल के बाद वह फिर मेरे पास आया। तब तक वह एक अन्य माफिया के साथ हो लिया था। उस दूसरे माफिया ने भी 1985 में विधानसभा का चुनाव लड़ा। पर हार गया।
चुनाव के दौरान विजयी उम्मीदवार के लोगों ने माफिया के भाई को मार डाला। उस माफिया ने रघुनाथ से कहा कि विजयी उम्मीदवार को मार दो। उसी के संबंध में मुझसे बात करने रघुनाथ आया था।
बोला कि भइया, आपने तो अब मर्डर करने से मना किया है। पर ‘वह’ कह रहा है कि फलां को मार दो। मैं नहीं चाहता। क्योंकि उस बड़े माफिया का अनुभव खराब है। मैंने उसके कहने पर एक बड़ा मर्डर किया। पर, उसने मुझे सिर्फ ढाई सौ रुपया दिया और कहा कि भाग जाओ और कहीं छिप जाओ। मुझे छिपने के दिनों में बड़ा कष्ट हुआ।
इस मामले में मैं क्या करूं। आपको मैं गुरु मानता हूं।
मैंने उसे कहा कि अब एक बार फिर कहंूगा कि आप यह सब काम छोड़ दीजिए। यह कह कर वह चला गया कि ‘हां, ठीक कहत बार भइया।’ जाते समय उसने फिर मेरा पैर छुआ।
खैर वाहवाही और अच्छी फिडबैक के साथ-साथ एक संकट भी आ गया। पुलिस ने शूटर रघुनाथ सिंह के उस इंटरव्यू को आधार बना कर एक चर्चित मर्डर केस में एडिशनल चार्जशीट लगा दिया और प्रभाष जोशी और मुझे गवाह बना दिया।
तब तक बिहार में लालू प्रसाद की सरकार बन गयी थी। यह पत्रकार को परेशानी में डालने वाला मामला बना। पटना के पत्रकारों ने इसे इसी रूप में लिया।
पत्रकारों ने सवाल किया कि पत्रकार का काम रिपोर्ट करना है या कोर्ट जा -जाकर गवाही देना ? हिन्दुस्तान के संवाददाता श्रीकांत के नेतृत्व में पत्रकारों का एक दल लालू प्रसाद से मिला। लालू प्रसाद भी पत्रकारों की बातों से सहमत थे। उन्होंने कहा कि सुरेंद्र जी को बुला कर लाइए।
दूसरे दिन मैं उनके आॅफिस में गया। मुख्यमंत्री ने संबंधित जिले के एस.पी. को मेरे सामने फोन किया। कहा कि बड़े -बड़े पत्रकारों को मरवाओगे क्या ? गवाही देने जाएंगे, माफिया मार देगा। हमारी सरकार की बदनामी होगी। एस.पी. मुश्किल से माना। मैं नहीं जानता कि गवाही देने के मामले में प्रभाष जी की क्या राय थी, पर मैं तो जरूर थोड़ा डरा हुआ था।
पटना के पत्रकार मेरे साथ थे। इससे मुझे नैतिक बल मिला। हालांकि वैसे भी एक सवाल अब भी मेरे दिल को मथता है कि मुझे जान हथेली पर लेकर गवाही देनी चाहिए थी या नहीं! यह सवाल देश भर के पत्रकारों के लिए भी है।
इस क्रम में एक और छोटी घटना हुई। रघुनाथ जिस नये माफिया के साथ था, उसने रघुनाथ से कहा कि तुम मुझे भी जनसत्ता वाले से मिलवा दो। मेरा भी इंटरव्यू छपना चाहिए।
रघुनाथ उसे लेकर मेरे एक पत्रकार मित्र के घर पहुंचा। वहां मुझे बुलाया। पहले रघुनाथ ने मुझे अलग हटाकर कहा कि ‘ई हो सरवा चाह ता फोटो छपवाना। मत छपीह भइया।’
मैं जब उस छोटे माफिया से मिला तो उसने कहा कि मेरा भी इंटरव्यू लीजिए जिस तरह रघुनाथ का लिये थे।
मैंने कहा कि उसने मुझे लिखकर दिया था कि उसने किस- किस को मारा। आप भी दीजिए। छप जाएगा।
वह थोड़ा होशियार निकला। कहा कि यह मैं नहीं कर सकता। फिर मैंने कहा कि तब कैसे छपेगा ? वह चला गया।
शायद इसी पृष्ठभूमि के चक्कर में एक दिन अचानक एक शार्प शूटर रघुनाथ सिंह मेरे घर आ धमका। उसके साथ मेरे एक पूर्व परिचित थे। रघुनाथ काफी लंबा-चैड़ा और हट्ठा-कट्ठा था। हुलिया देख कर मैं थोड़ा असहज हो गया। उसकी कमर में रिवाल्वर थी। बाद में पता चला कि वह साथ में हैंड ग्रेनेड लेकर भी चलता है।
मेरे परिचित ने मुझे बताया कि ये मेरे रिश्तेदार हैं। बिहार के एक बड़े माफिया का नाम लेते हुए कहा कि ये उनके बाॅडीगार्ड और शूटर थे। पर अब उससे इनका झगड़ा हो गया है। दोनों एक दूसरे की जान के प्यासे हैं।
रघुनाथ की शिकायत थी कि उस माफिया के लिए सारे मर्डर मैंने किये, पर मीडिया में नाम सिर्फ उसका होता है। वह तो भारी डरपोक आदमी है। एक चूहा भी नहीं मार सकता है। मेरा नाम भी होना चाहिए।
यह सनसनीखेज बात सुनकर मैं रघुनाथ की ओर मुखातिब हुआ।
मैंने उससे पूछा कि आपने कितने मर्डर किये हैं ? इस पर उसने अपना रिवाल्वर निकाल कर टेबुल पर रख दिया। कहा कि यह हथियार मेरे लिए शुभ साबित हुआ है। इससे मैंने कई मर्डर किये हैं। हालांकि कुल तेरह लोगों को मारा है। उस माफिया का नाम लेते हुए कहा कि सब उसी के कहने पर।
फिर उसने विस्तार से बताया कि एक चर्चित मजदूर नेता को उसने कैसे मारा।
आप क्या चाहते हैं ? -मैंने पूछा।
उसने कहा कि मैं चाहता हूं कि फोटो सहित आप मेरा इंटरव्यू छापिए। मैंने कहा कि आपको इंटरव्यू में यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आपने कितने और कैसे मर्डर किये हैं।
उसने कहा कि आप कहिए तो मैं हैंडनोट पर लिखकर दे दूंगा। पर मेरा नाम और फोटो जरूर छपना चाहिए। मैंने सुना है कि आपमें छापने की हिम्मत है।
मैंने कहा कि छपने के बाद पुलिस आप पर केस कर देगी। वैसा कोई केस होने पर उसका सामना करने को वह तैयार लगा।
मैंने कुछ सोचने के बाद कहा कि आप एक सप्ताह के बाद आइए। मैं विस्तार से आपसे बातचीत करूंगा। अभी मैं थोड़ा व्यस्त हूं।
वह चला गया।
मैंने सोचा कि रघुनाथ शायद अपने लोगों से इस बीच राय करेगा। लोग यही राय देंगे कि सिर्फ नाम छपने के लिए स्वीकारोक्ति देकर मत फंसो। और वह मान जाएगा। मेरे पास नहीं आएगा। मैंने इस बात को लेकर भी द्विविधा में था कि ऐसे शूटर का इंटरव्यू छापना चाहिए या नहीं। पर इसमें सार्वजनिक हित का पहलू यह था कि इसका इंटरव्यू उस बड़े माफिया के खिलाफ जाने वाला था। उस बड़े माफिया के समर्थकों और संरक्षकों में बड़े-बड़े नेता शामिल थे।
उन दिनों बिहार में गैंगवार और नरसंहारों का दौर था।
मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि ठीक एक सप्ताह के बाद वह मेरे यहां आ धमका।
उससे पहले मैंने उसके बारे में पुलिस सूत्रों से जानकारी ली थी। सुना था कि वह ‘शब्दबेधी वाण’ चलाता है। यानी आवाज की दिशा में गोली चला देता है और निशाने पर लगती है।
वह उत्तर प्रदेश के पी.ए.सी. का भगोड़ा सिपाही है।
इस बात की भी पुष्टि हुई कि वह माफिया इसकी जान का प्यासा बना हुआ है जिसके यहां यह पहले काम करता था।
एक बार फिर अपने आवास में देखकर मैं थोड़ा चिंतित हुआ। इस बार वह अकेला था। मैंने उससे कहा कि आपको मारने के लिए कोई खोज रहा है।
यदि उसके लोग यहां हमला कर दें तब तो हम सब मारे जाएंगे। मैं परिवार के साथ रहता हूं।
चेहरे पर निर्भीक भाव के साथ इस बार उसने रिवाल्वर के साथ-साथ हैंड ग्रेनेड भी निकाल कर टेबुल पर रखा।
कहा कि इसमें छह गोलियां हैं। मेरा निशाना खाली नहीं जाता है। उसके बाद यह ग्रेनेड एक भीड़ को रोक लेगा। उसके बाद तो जय भवानी।
इसके बाद मैंने उससे बातचीत शुरू की। वह सनसनीखेज बातें बताता चला गया। मैं हाथ से लिख रहा था। क्योंकि तब मेरे पास कोई टेप रिकाॅर्डर भी नहीं था। मुझे यदि इस बात का पक्का भरोसा होता कि यह दूसरी बार मेरे यहां आ ही जाएगा तो मैं किसी मित्र से टेप रिकाॅर्डर मांग कर रख लेता।
लंबी बातचीत हुई। बातचीत बहुत ही सनसनीखेज थी। वह चला गया।
इस बीच मैंने जो लिखा था, उसे फेयर किया। तीन काॅपी बनाई। एक काॅपी करीब तीस पेज में थी।
रघुनाथ ने मुझे साथ में छापने के लिए कुछ सनसनीखेज फोटोग्राफ भी दे दिए थे।
मैंने जनसत्ता, रविवार और माया के लिए काॅपियां बनायीं। मुझे आशंका थी कि यह इतना सनसनीखेज है कि जल्दी कोई इसे छापेगा नहीं। एक नहीं छापेगा तो दूसरे को भेजूंगा।
फेयर काॅपी बनाकर मैं रघुनाथ की प्रतीक्षा करने लगा ताकि उस पर रघुनाथ का दस्तखत ले सकूं।
उधर वह इस बात की प्रतीक्षा कर रहा था कि वह कब छपता है। वह मोबाइल फोन का जमाना था नहीं। मेरे उस परिचित से भी रघुनाथ ने संपर्क नहीं रखा था जो मेरे यहां पहली बार उसे लेकर आया था।
करीब एक माह बाद रघुनाथ मेरे यहां तीसरी बार आया। इस बार वह थोड़ा गुस्से में था। कहा कि आपने मुझसे इतनी लंबी बातचीत की और कहीं छपा नहीं। ध्यान रहे कि वह बलिया की खास तरह की भोजपुरी में बोलता था। उसमें दबंगियत का लहजा होता है।
मैंने कहा कि आप दस्तखत कर दीजिए मैं अखबारों को भेज दूंगा। उसने कहा कि लाइए जहां कहिए वहां दस्तखत कर देता हूं। उसने तीनों काॅपियों के करीब सौ पेज पर खुशी-खुशी दस्तखत कर दिये।
मैंने पहले जनसत्ता और माया को भेजा। जनसत्ता में छपने की मुझे कत्तई उम्मीद नहीं थी। पर चूंकि मैं वहां नौकरी करता था, इसलिए वहां भेजना नैतिक रूप से जरूरी समझा।
पर मैं यह इच्छा रखता था कि वह जनसत्ता में नहीं छपे। दरअसल यह ‘माया’ के स्वभाव वाला आइटम था।
पर संयोग से दोनों जगह शेड्यूल हो गया। जनसत्ता के मैगजिन सेक्सन में बेहतर डिसप्ले के साथ छपा। साथ ही माया ने भी छाप दिया।
इस पर माया के बाबूलाल शर्मा मुझसे थोड़ा नाराज हुए। उन्होंने मुझे नाराजगी का एक पत्र भी लिखा। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जनसत्ता ने पहले ही वाहवाही लूट ली थी। शर्मा जी ने लिखा कि आपको एक ही जगह भेजना चाहिए था।
रघुनाथ के शहर में जनसत्ता ब्लैक में बिका। पचास रुपए में एक काॅपी।
बाद में प्रभाष जोशी ने मुझे बताया था कि उस इंटरव्यू पर रामनाथ गोयनका भी प्रसन्न थे। गोयनका जी ने कहा था कि ‘पंडत, तुम्हारा पटना वाला आदमी तो बड़ा खरा है।’
इंटरव्यू छपने के बाद रघुनाथ बहुत चर्चित हो गया था। काफी खुश हुआ। मेरे आफिस में आया। पैर छूकर प्रणाम किया। फिर एक सनसनीखेज आॅफर दिया। ‘मैं आपको इसके बदले तो कुछ दे नहीं सकता। पर एक काम जरूर कर सकता हूं। आप जिसे कहिएगा, उस एक आदमी को मैं मार दूंगा।’
मैंने उसे समझाया। कहा कि आप हत्या करना छोड़कर उस माफिया की तरह अब आप भी चुनाव लडि़ए। इंटरव्यू छपने के बाद लोग आपको भी जान ही गए हैं। उसने फिर मेरा पैर छुआ और चला गया।
पर एक साल के बाद वह फिर मेरे पास आया। तब तक वह एक अन्य माफिया के साथ हो लिया था। उस दूसरे माफिया ने भी 1985 में विधानसभा का चुनाव लड़ा। पर हार गया।
चुनाव के दौरान विजयी उम्मीदवार के लोगों ने माफिया के भाई को मार डाला। उस माफिया ने रघुनाथ से कहा कि विजयी उम्मीदवार को मार दो। उसी के संबंध में मुझसे बात करने रघुनाथ आया था।
बोला कि भइया, आपने तो अब मर्डर करने से मना किया है। पर ‘वह’ कह रहा है कि फलां को मार दो। मैं नहीं चाहता। क्योंकि उस बड़े माफिया का अनुभव खराब है। मैंने उसके कहने पर एक बड़ा मर्डर किया। पर, उसने मुझे सिर्फ ढाई सौ रुपया दिया और कहा कि भाग जाओ और कहीं छिप जाओ। मुझे छिपने के दिनों में बड़ा कष्ट हुआ।
इस मामले में मैं क्या करूं। आपको मैं गुरु मानता हूं।
मैंने उसे कहा कि अब एक बार फिर कहंूगा कि आप यह सब काम छोड़ दीजिए। यह कह कर वह चला गया कि ‘हां, ठीक कहत बार भइया।’ जाते समय उसने फिर मेरा पैर छुआ।
खैर वाहवाही और अच्छी फिडबैक के साथ-साथ एक संकट भी आ गया। पुलिस ने शूटर रघुनाथ सिंह के उस इंटरव्यू को आधार बना कर एक चर्चित मर्डर केस में एडिशनल चार्जशीट लगा दिया और प्रभाष जोशी और मुझे गवाह बना दिया।
तब तक बिहार में लालू प्रसाद की सरकार बन गयी थी। यह पत्रकार को परेशानी में डालने वाला मामला बना। पटना के पत्रकारों ने इसे इसी रूप में लिया।
पत्रकारों ने सवाल किया कि पत्रकार का काम रिपोर्ट करना है या कोर्ट जा -जाकर गवाही देना ? हिन्दुस्तान के संवाददाता श्रीकांत के नेतृत्व में पत्रकारों का एक दल लालू प्रसाद से मिला। लालू प्रसाद भी पत्रकारों की बातों से सहमत थे। उन्होंने कहा कि सुरेंद्र जी को बुला कर लाइए।
दूसरे दिन मैं उनके आॅफिस में गया। मुख्यमंत्री ने संबंधित जिले के एस.पी. को मेरे सामने फोन किया। कहा कि बड़े -बड़े पत्रकारों को मरवाओगे क्या ? गवाही देने जाएंगे, माफिया मार देगा। हमारी सरकार की बदनामी होगी। एस.पी. मुश्किल से माना। मैं नहीं जानता कि गवाही देने के मामले में प्रभाष जी की क्या राय थी, पर मैं तो जरूर थोड़ा डरा हुआ था।
पटना के पत्रकार मेरे साथ थे। इससे मुझे नैतिक बल मिला। हालांकि वैसे भी एक सवाल अब भी मेरे दिल को मथता है कि मुझे जान हथेली पर लेकर गवाही देनी चाहिए थी या नहीं! यह सवाल देश भर के पत्रकारों के लिए भी है।
इस क्रम में एक और छोटी घटना हुई। रघुनाथ जिस नये माफिया के साथ था, उसने रघुनाथ से कहा कि तुम मुझे भी जनसत्ता वाले से मिलवा दो। मेरा भी इंटरव्यू छपना चाहिए।
रघुनाथ उसे लेकर मेरे एक पत्रकार मित्र के घर पहुंचा। वहां मुझे बुलाया। पहले रघुनाथ ने मुझे अलग हटाकर कहा कि ‘ई हो सरवा चाह ता फोटो छपवाना। मत छपीह भइया।’
मैं जब उस छोटे माफिया से मिला तो उसने कहा कि मेरा भी इंटरव्यू लीजिए जिस तरह रघुनाथ का लिये थे।
मैंने कहा कि उसने मुझे लिखकर दिया था कि उसने किस- किस को मारा। आप भी दीजिए। छप जाएगा।
वह थोड़ा होशियार निकला। कहा कि यह मैं नहीं कर सकता। फिर मैंने कहा कि तब कैसे छपेगा ? वह चला गया।
(हिंदी दैनिक ‘नया इंडिया’ के 30 अप्रैल 2016 के अंक में प्रकाशित)
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