शनिवार, 30 मार्च 2019

बिहार इंटर साइंस का आज रिजल्ट आया ।साइंस में करीब 81 प्रतिशत परीक्षार्थी पास कर गए।
  1996 में पटना हाईकोर्ट की  निगरानी व जिला जज-जिलाधिकरी  की सीधी देखरेख में कदाचारमुक्त परीक्षा हुई थी।
तब इंटर साइंस में 15 प्रतिशत परीक्षार्थी पास हो सके थे।
4 जून 1996 को तत्कालीन शिक्षा मंत्री जय प्रकाश नारायण यादव ने कहा था कि रिजल्ट से स्पष्ट है कि बिहार में शिक्षा माफियाओं के पैर उखड़ गए।
  ताजा रिजल्ट से क्या स्पष्ट हो रहा है ?
क्या शिक्षण संस्थाओं में पढ़ाई  1996 की अपेक्षा बेहतर हो चुकी है ?क्या आज परीक्षाएं कदाचारमुक्त हो रही हंै ?
जानकार लोग ही इसका सही जवाब दे सकते हैं।
  पर पहली नजर से मुझे तो लगता है कि शिक्षण और परीक्षण की ताजा स्थिति पर चिंतन और चिंता करने की सख्त जरूरत है। 

शुक्रवार, 29 मार्च 2019

देश में एक साथ लोक सभा व विधान सभा चुनाव की जरूरत-सुरेंद्र किशोर


जब-जब चुनाव आता है, कई लोगों को एक साथ चुनाव की जरूरत महसूस होने लगती है।
दरअसल चुनाव के दौरान विकास व कल्याण के  कामकाज बाधित हो जाते हैं।
अधिक चुनाव यानी कामकाज में अधिक बाधा और
 अधिक खर्च--सरकारी और गैर सरकारी।
 अधिक खर्च यानी काले धन का अधिक इस्तेमाल।
2018 में कई राज्य विधान सभाओं के  चुनाव हुए।
उससे पहले 2017 में 7 और 2016 में 5 राज्यों में चुनाव हुए थे।
बिहार और दिल्ली में अगले साल चुनाव होंगे।
इस साल लोक सभा का चुनाव हो रहा है।
  1967 तक लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव साथ- साथ होते थे।
कई बार यह मांग उठी कि एक बार फिर वैसा ही होना चाहिए।पर इस काम में अधिकतर राजनीतिक दलों व नेताओं के स्वार्थ बाधक रहे हैं। 
-महा गठबंधन की महा फिसलन-
भाजपा को हराने के ‘बड़े उद्देश्य’ के साथ महा गठबंधन की नींव पड़ी थी।
लगता था कि बिहार में राजग के सामने यह बड़ी चुनौती बन कर खड़ा होगा।
पर इन पंक्तियों के लिखते समय तक महा गठबंधन के कुछ नेताओं ने अपने समर्थकों को निराश ही किया है।
तालमेल में कमी का दोष कोई राजद को भले दे, किन्तु 
अनेक राजनीतिक पे्रक्षकों को यह लग रहा है कि कांग्रेस में त्याग की अधिक  कमी है।दोस्ती का मूल आधार त्याग होता है।चाहे वह दो व्यक्तियों की दोस्ती हो या दो संगठनों की। 
 कांग्रेस की मूल ताकत के अनुपात में राजद ने उसके लिए 
वाजिब संख्या में सीटें छोड़ी हैं।
पर लगता है कि कांग्रेस 2015 के विधान सभा चुनाव नतीजे को भूल नहीं पा रही है।
उसे तब 243 में से 27 सीटें मिल गयी थीं।पर उसे यह सफलता राजद-जदयू की उदारता के कारण मिली थी न कि उसकी अपनी राजनीतिक ताकत के कारण।
  कांग्रेस की असली ताकत के कुछ नमूने इस प्रकार हैं।
उसे बिहार विधान सभा के 2005 के चुनाव में 9 सीटें मिलीं।सन 2010 के विधान सभा चुनाव में 4 सीटें मिलीं।
2014 के लोक सभा चुनाव में बिहार में कांग्रेस को 40 में से मात्र दो सीटें ही मिल सकीं।
  --राष्ट्रीय स्तर पर मोदी विरोध-
2014 के लोक सभा चुनाव के बाद से ही गैर राजग दलों के नेतागण यह कहते रहे कि नरेंद्र मोदी सरकार से देश को मुक्त कराना अत्यंत बहुत आवश्यक है।
उसके लिए वे तरह -तरह के नारे गढ़ते रहे और उपाय भी करते रहे।
लोकतंत्र में यह कोई अजूबी बात नहीं है।
पर, इस बार प्रतिपक्ष में सरकार विरोध की जितनी तीव्रता  रही है,उतनी पहले कभी नहीं।
 पर जब मोदी को हटाने  का अवसर आया तो प्रतिपक्षी दल  देश भर में ‘एक के खिलाफ एक’ को चुनाव में खड़ा करने में विफल रहे।
 कारण है गैर राजग खेमे में प्रधान मंत्री पद के अनेक उम्मीदवारों की उपस्थिति।
 वे अपने- अपने दल के अधिक से अधिक सांसद चाहते हैं ताकि प्रधान मंत्री बनने में  उन्हें सुविधा हो।
वे  यह बात भूल गए कि  मोदी देश के लिए  खतरा है।उन्हें सिर्फ अपनी ‘भावी कुर्सी’ याद रही। 
     --टी.एन.शेषण की धमक !--
1994 में वैशाली लोक सभा का उप चुनाव हो रहा था।
चुनाव आयोग ने लाइसेंसी हथियार को जब्त करने का निदेश दिया।
  चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषण के नाम की तब ऐसी धमक थी कि वैशाली के निर्वाची अधिकारी ने भी अपनी लाइसेंसी बन्दूक जमा करा दी।ऐसा संभवतः पहली बार हुआ था।
  तत्कालीन मुख्य मंत्री लालू प्रसाद भी चुनाव सभा के समय का पूरा  ध्यान रखते थे।वे अपने लोगों से कहते थे कि आठ बजे से पहले सभा खत्म हो जानी चाहिए।जल्दी जाना है ।नहीं तो टी.एन.शेषण साहब बैठे हैं। 
   -और अंत में-
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एस.कृष्णमूत्र्ति ने हाल में क्षुब्ध 
होकर कहा  कि बेहतर हो कि आदर्श चुनाव आचार संहिता को समाप्त ही कर दिया जाए।क्योंकि कोई भी दल इसका पालन नहीं कर रहा है।
@29 मार्च, 2019 को प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@ 

  लोकपाल-भारत की धरती के भगवान !
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  देश के पहले लोकपाल का न्यायिक सदस्य बने अजय कुमार त्रिपाठी ने कहा है कि ‘मुझे जो भी दायित्व सौंपा जाएगा ,उसे पूरी निष्ठा से पूरा करूंंगा।मुझे विश्वास है कि लोकपाल के जरिए लोगों की आशाएं और आकांक्षाएं पूरी होंगी।’@-दैनिक भास्कर@
  मुझे त्रिपाठी जी की बात पर पूरा भरोसा है।
पटना हाईकोर्ट के जज की हैसियत से उन्होंने जिस ईमानदारी व निष्पक्षता से लंबे समय तक काम किया,उसकी सुगंध मुझे भी मिलती रही ।मैं उनसे न तो व्यक्तिगत रूप से परिचित हूं और न मिला हूं।
  हां, मैं आंख-कान खोल कर रहने वाला व्यक्ति हूं, इसलिए जानता हूंं।
पहले से डाक्टरों को ‘धरती का भगवान’ कहा जाता रहा है।मेरा तो मानना है कि धरती के एक और भगवान हैं-जो इस देश की तिजोरी को लूटने वालों को उनके असली मुकाम तक पहुंचा देते हैं।
  लोकपाल का भी यही तो काम है।जरूरत है कि उस प्रतिष्ठित संस्था से इस देश के बड़े- बड़े भ्रष्ट और घोटालेबाज डरें चाहे वे जितने भी ताकतवर क्यों न हों !
भ्रष्टाचार इस देश की सबसे बड़ी समस्या है।इसी से अन्य समस्याएं भी निकलती-बढ़ती-पनपती हैं।
है।अमीर देशों का भ्रष्टाचार लोगों की सुविधा में थोड़ी कमी  करता है।
पर,भारत जैसे गरीब देशों का भ्रष्टाचार तो आम लोगों की जान तक लेता रहता है।

 चुनाव के बीच चाणक्य
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न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहु 
प्रकारैरपि  शिक्ष्यमाणः।
आमूलसिक्तं पयसा घृतेन 
न निम्बवृक्षोः मधुरत्वमेति।।
             ..........चाणक्य

यानी,‘दुष्ट को सज्जन नहीं बनाया जा सकता।
दूध और घी से नीम को जड़ से चोटी तक सींचे 
जाने पर भी नीम का वृक्ष मीठा नहीं बनता।’

मौजूदा संदर्भ-दुष्ट लोगों को अपना बहुमूल्य वोट 
देकर उन्हें और अधिक दुष्ट बनने का अवसर न दें।
यदि दो दुष्टों में ही चुनना पड़े तो जो उम्मीदवार या 
दल अपेक्षाकृत बेहतर है,उसे वोट दे सकते हैं।



गुरुवार, 28 मार्च 2019

दुर्दम्य व दुर्धर्ष रमणिका का गुप्त निधन 
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अपनी शत्र्तों पर जीने वाली बहादुर महिला रमणिका गुप्त नहीं रहीं।
उनका जन्म 1930 में पंजाब में हुआ था।
वह बिहार विधान परिषद और विधान सभा की बारी -बारी से सदस्य रहीं।
पर उनका यह पूरा परिचय नहीं है।
वह इसके अलावा भी बहुत कुछ थीं।पूरे जीवन लीक से हटकर चलीं।
वे लेखन और मजदूर आंदोलन के क्षेत्र में भी रहीं। 
अभी उनके ही लिखे कुछ वाक्य यहां प्रस्तुत हैं,
‘औरत यदि खुदसर हो,पंजाबी भाषा में कहूं ‘आपहुदरी’-तो उसकी मुखालिफत लाजिमी है और अगर राजनीति में हो और वह लता बनकर नहीं बल्कि पेड़ या खूंटा बनकर तो उसे हिला देने की तरकीबें, झकझोर देने के ढंग ,उखाड़ फेंकने के प्रयास इन्तहा पर पहुंच जाते हैं।
अगर वह ट्रेड यूनियन में हो, वह भी सफेदपोशों की यूनियन में नहीं बल्कि स्वयं वर्गहीन होकर खांटी खटने वाली ब्लू कालर कोयला मजदूरों के बीच रह कर उन्हें संगठित कर आंदोलित करने का दम रखती हो, तब तो युद्ध और प्रेम में हर चीज जायज है का फार्मूला लागू करने में सहयोगी,सहभागी -यहां तक कि मित्र और प्रशंसक भी देर नहीं लगाते-दुश्मनों का तो कहना ही क्या ! .....तब ऐसी औरत के खिलाफ बहुत सी कनफुसियां, अफवाहें ,चटपटी प्रणय कथाएं ,झूठे -सच्चे किस्से हवा में तैरने लगते है।’
  ये वाक्य उनकी आत्म कथा के पहले खंड ‘हादसे’ से लिए गए हैं।इसके अलावा भी उन्होंने बहुत कुछ लिखा है।उन्होंने बिहार के कई बड़े नेताओं की ‘करतूतें’ खोल कर रख दी हैं।
राजेंद्र यादव ने रमणिका की आत्म कथा को ‘सपनों ,संघर्ष और साहस की कहानी बताते हुए लिखा है कि यह कहानी बीसवीं सदी के भारत का वह इतिहास है जिसे मुख्य धारा के इतिहासकारों ने बहुत महत्व नहीं दिया और जिसे खेतों -खलिहानों और खदानों में रमणिका ने अपने यौवन और प्रौढ़ ़उम्र के कागजों पर लिखा है।‘

   

पति को पत्नी और पुत्र को पिता की उपस्थिति के वास्तविक महत्व का पता तभी  चलता है जब वे इस दुनिया से उठ चुके होते हैं।
अपवादों की बात और है। 


मंगलवार, 26 मार्च 2019

टाइम्स आॅफ इंडिया की विश्वसनीयता
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एक विदेशी आकलन के अनुसार विश्वसनीयता की दृष्टि से 
टाइम्स आॅफ इंडिया इस देश का सर्वाधिक विश्वसनीय 
अंग्रेजी अखबार है।
  यह अखबार ऐसा ही रहा भी है।
हां, एक अपवाद जरूर रहा।
आर.के.डालमिया जब इसके मालिक थे तो प्रधान मंत्री की इस अखबार से शिकायत थी।जवाहर लाल नेहरू इस अखबार को अपने यहां नहीं मंगाते थे।इलेस्ट्रेड वीकली भी नहीं।
पर शांति प्रसाद जैन के मालिकाना के साथ ही यह मध्यमार्गी व विश्वसनीय अखबार माना जाने लगा।आज भी इसकी बड़ी इज्जत है।नौकरी की तलाश में लगे किसी भी पेशेवर पत्रकार की यह ग्रूप पहली पसंद होता है।
  कई बार कुछ अखबार किसी अभियान में लग जाते हैं।आज भी कुछ लगे हुए हैं।
कभी- कभी कोई अभियान अच्छा लगता है।
पर, भरोसा तो मैं टा.आ.इंडिया पर ही करूंगा।
अपने देश में एक अंग्रेजी अखबार है जिसके न्यूज आइटम की हेडिंग में भी आप संपादकीय पढ़ सकते हैं।
एक दूसरा अखबार है जो किसी सरकार को गिराने या बचाने की जिम्मेदारी खुद ही उठा लेता है।उस काम में भी बहुत लोगों को मजा आता है।आना भी चाहिए।कोई हर्ज नहीं।
लोकतंत्र है।सबके लिए यहां जगह है।
पर एक ऐसा अखबार भी तो हो जो लगे कि ‘पंच परमेश्वर’ की भूमिका निभा रहा है।  

चाणक्य ने कहा था,
‘वेश्याएं निर्धनों के साथ नही रहतीं,
नागरिक कमजोर संगठन का समर्थन नहीं करते
और पक्षी उस पेड़ पर घोंसला नहीं बनाते 
जिस पर फल न हो।’



 ऐसे आ सकते हैं कांग्रेस के अच्छे दिन   -- सुरेंद्र किशोर--  
जीवन भर कांग्रेस के विरोधी रहे समाजवादी नेता  मधु लिमये ने अपने आखिरी दिनों में कहा था कि  ‘सुधरी हुई कांग्रेस 
ही विविधताओं से भरे  इस देश को बेहतर ढंग से चला सकती है।’
 गैर कांग्रेसी दलों की खिचड़ी सरकारों के कामों को नजदीक से  देखने के बाद लिमये इस नतीजे पर पहुंचे थे।
उनका  था कि मध्यमार्गी पार्टी कांग्रेस के कार्यकत्र्ता देश भर में हैं। वह  सभी समुदायों को भरसक अपने साथ बांध कर रख सकती है।
यह गुण न तो क्षेत्रीय दलों में है और न ही भाजपा में।’
  यदि मधु लिमये का यह सपना पूरा नहीं  हुआ तो इसके लिए और कोई नहीं बल्कि कांग्रेस ही अधिक जिम्मेवार है।
अब देश को चलाने की बात कौन कहे,कांग्रेस पार्टी में प्रतिपक्ष को चलाने की भी क्षमता नहीं बची।प्रतिपक्षी दल इससे दूर भाग रहे हैं।उधर इस बीच भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर ‘सबका साथ सबका विकास’ करने की कोशिश की है।
 देश और स्वस्थ लोकतंत्र के  लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि  भाजपा के मुकाबले  स्वस्थ व मजबूत प्रतिपक्ष नहीं है।अपवादों को छोड़ दें तो अधिकतर क्षेत्रीय दल घोर जातिवाद,वंशवाद और पैसावाद के आरोपों से सने हैं।
 कुछ अपवादों को छोड़ दें तो  क्षेत्रीय दल भी कांग्रेस को अपने साथ लेने को तैयार नहीं हैं।ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि उन्हें कांग्रेस एक कमजोर पार्टी नजर आ रही है।उन्हें  कांग्रेस मददगार के बदले बोझ लग रही है।
यहां तक कि जिन उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस कभी काफी ताकतवर थी,वहां भी क्षेत्रीय दलों के सामने वह निरीह बन चुकी है।
  पर कांग्रेस की निरीहता के लिए आखिर कौन जिम्मेवार है ?
खुद कांग्रेस ही अधिक जिम्मेदार रही है।फिर से ताकतवर बनने के लिए उसे ही खुद को बदलना होगा।पर क्या  बदलने की ताकत भी कांग्रेस में अब बची हुई है ?
कई बार अपनी ताकत न भी हो तो सत्ताधारी दल की विफलताओं का लाभ प्रतिपक्ष को मिल जाता है।पर,उस लाभ को बनाए रखने के लिए तो खुद ही प्रयास करना पड़ता है।
2014 में केंद्र में राजग के सत्ता में आने के लिए खुद राजग या नरेंद्र मोदी को 40 प्रतिशत ही श्रेय जाता है।बाकी 60 प्रतिशत लाभ तो उन्हें मन मोहन सरकार की विफलताओं के कारण मिला।
यहां तक कि हाल में मध्य प्रदेश,छत्तीस गढ़  और राजस्थान विधान सभा चुनावों में कांग्रेस को मिली सफलता के पीछे भी भाजपा सरकारों की विफलताएं ही अधिक थीं। 
इस पृष्ठभूमि में मौजूदा लोक सभा चुनाव के बाद शायद कांग्रेस नेतृत्व को  आत्म निरीक्षण करने का अवसर मिल सकता है ,यदि वह  चाहे।देश में स्वस्थ लोकतंत्र के विकास के लिए उसे ऐसा करना ही चाहिए।  
    बेहतर तो यह होता कि एक खास परिवार के बदले कुछ समझदार, राष्ट्रहित चिंतक व ईमानदार कांग्रेसियों की वर्किंग कमेटी, पार्टी को निदेशित करती। 
  इस बीच कांग्रेस के लिए यह जान लेना जरूरी है कि 1984 के बाद से ही कांग्रेस लगातार निरीह क्यों होती चली गई।
हालांकि उसका बीजारोपण पहले ही हो चुका था।
 यदि कांग्रेस ने सबका साथ लेकर सबके विकास की चिंता आजादी के बाद से ही की होती तो आज उसे यह दिन नहीं देखना पड़ता।
 आज के अधिकतर जाति आधारित क्षेत्रीय दल इस बहाने खड़े हुए और ताकतवर बने क्योंकि कांग्रेस ने उनकी जातियों के साथ न्याय नहीं किया।
न्याय का सबसे बड़ा आधार आरक्षण हो सकता था।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-340 में सामाजिक न्याय का प्रावधान भी किया गया।
पर, कांग्रेस ने लगातार उसका विरोध किया।
1990 में जब वी.पी.सिंह सरकार ने मंडल आरक्षण लागू किया तो कांग्रेस ने कई बहाने बना कर उसका विरोध कर दिया।
यानी समर्थन नहीं किया।
राम मंदिर पर भी कांग्रेस की ढुलमुल नीति के चलते कांग्रेस का जन समर्थन काफी घट गया।
उसके बाद कभी उसे लोक सभा में बहुमत नहीं मिल सका।
उससे पहले की पृष्ठभूमि यह थी कि आजादी के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार में जब -जब कांग्रेस को विधान सभाओं में पूर्ण बहुमत मिला,उसने सिर्फ सवर्णों को ही मख्य मंत्री बनाया।जबकि, ये राज्य पिछड़ा बहुल हैं।
 कांग्रेस के पास पिछड़ों में शालीन नेता उपलब्ध भी थे जिन्हें वह आगे बढ़ा सकती थी।
पर जब इन राज्यों में राजनीति की बागडोर गैर कांग्रेसी ताकतों के हाथों में चली गई तो उसने शालीनता-अशालीनता का ध्यान रखे बिना पिछड़ों के बीच से ऐसे नेताओं को  उभारा  जो ‘पिछड़ों के साथ हुए अन्याय का सूद सहित बदला’ ले सकें।
हालांकि उससे राजनीति बदतर हुई।पर इसे रोकने के लिए कोई कर भी क्या सकता था ?
अब स्थिति यह है कि कांग्रेस के पास उत्तर प्रदेश में 6 दशमलव 2 प्रतिशत और बिहार में अपना 6 दशमलव 7 प्रतिशत वोट बच गए हैं।
  इन सबके बावजूद  मन मोहन सरकार ने दस साल तक 
कुछ ऐसे-ऐसे विवादास्पद  काम भी किए जिनसे भाजपा व खासकर नरेंद्र मोदी को राजनीतिक लाभ मिला।हालांकि उनके कुछ काम अच्छे भी थे।
  2014 के लोक सभा चुनाव में हार के बाद गठित ए.के. एंटोनी कमेटी ने अपनी रपट में  महत्वपूर्ण बात कही थी।उन्होंने कहा था कि  ‘कांग्रेस की धर्म निरपेक्षता पर से लोगों का विश्वास उठ रहा  है और 
वे मानते हैं कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण में लगी हुई है।’
  एंटोनी की रपट के अलावा कांग्रेस के कमजोर होने में उन घोटालों -महा घोटालों की खबरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिनको लेकर मन मोहन सरकार पर गंभीर आरोप लगाए जाते रहे।
इन दो तत्वांे के संबंध में अपनी राह बदल कर कांग्रेस भाजपा को अब भी कमजोर कर सकती है।पर फिलहाल इसके संकेत नहीं मिल रहे हैं।
2019 के लोक सभा चुनाव के बाद शायद कांग्रेस इन मुद्दों पर वह एक बार चिंतन करे।
 हालांकि हाल के भारत -पाक द्वंद्व और बालकोट प्रकरण के बाद कई प्रमुख कांग्रेसी नेताओं के जिस तरह के बयान आए हैं,उनसे तो यही लगता है कि कांग्रेेस अपनी पिछली गलतियों से कोई सबक लेने को तैयार नहीं है।
  उत्तर प्रदेश में तो सपा-बसपा ने कांग्रेस को पूरी तरह अलग -थलग कर ही दिया,पर बिहार में राजद ने कुछ सीटें जरूर कांग्रेस के लिए छोड़ी हंै।शायद उस उपकार का बदला राजद चुका रहा है जो कांग्रेस ने सन 1999 और सन 2000 में ‘जंगल राज’ का समर्थन करके राजद पर किया था।
कांग्रेस ने 1999 में राष्ट्रपति शासन का राज्य सभा में विरोध करके भंग राबड़ी सरकार को वापस करवा दिया था।
साथ ही सन 2000 के विधान सभा चुनाव में जब राजद को बहुमत नहीं मिला तो कांग्रेस ने राजद से मिलकर सरकार बना ली।
पर इसी के साथ कांग्रेस की एक ऐसी पार्टी की छवि बन गयी जो राजद की छवि से बहुत अलग नहीं थी।
उसका भारी नुकसान कांग्रेस को हुआ।
कांग्रेस यह कहती रही कि ‘साम्प्रदायिक तत्वों को सत्ता में आने से रोकने के लिए’ हम लालू- राबड़ी सरकार  को बाहर-भीतर से समर्थन देते हैं।
 पर, इस विधि से कांग्रेस न तो भाजपा को सत्ता में आने से रोक सकी और न ही अपनी खुद की राजनीतिक ताकत ही बनाए रख सकी।
इन सबके बावजूद अब से भी यदि कांग्रेस कव राष्ट्रीय नेतृत्व घोटालों -महा घोटालों के प्रति खुद में नफरत पैदा करे और स्वस्थ व संतुलित धर्म निरपेक्षता की राह पर चले तो एक बार फिर कांग्रेस के अच्छे दिन आ ही सकते हैं।
@26 मार्च 2019 के ‘प्रभात खबर’ में प्रकाशित@
   
  








सोमवार, 25 मार्च 2019

‘लगता है जैसे कि महात्मा गांधी के तीन बंदरों 
ने योजना बनाकर हमें मोबाइल थमा दिया है, जिसके हाथ में होने पर , ना तो हम किसी से बात करते हैं ,ना किसी की ओर देखते हैं ना ही किसी को सुनने की जहमत उठाते हैं।’
                        --हर्ष गोयनका, उद्योगपति

रविवार, 24 मार्च 2019

निष्ठावान जन प्रतिनिधि का सर्वोच्च सम्मान
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जिन सांसदों-विधायकों को अगले चुनाव के लिए  उनकी पार्टी टिकट नहीं देती,उनमें से कितने नेता उसी दल में 
फिर भी बने रहते हैं ?
अनुभव तो बता रहे हैं कि बहुत ही कम।
तो ऐसे लाॅयल नेताओं के लिए पार्टी को कुछ नहीं करना चाहिए या नहीं ? ऐसे निष्ठावान नेताओं को तो समारोह में सम्मानित किया जाना चाहिए।
 सदन में शानदार भूमिका के लिए तो उत्कृष्ट सांसद पुरस्कार दिया जाता है।दगाबाजों के इस दौर में वफादारों को इनाम -सम्मान क्यों नहीं  ?
यानी टिकट वंचित, फिर भी निष्ठावान नेताओं को कोई बड़ा पुरस्कार क्यों नहीं मिलना चाहिए !
मलाई के लिए भगदड़ मचाने वाले नेताओं की भीड़ वाली  राजनीति में कम ही लोग ऐसे मिलेंगे जो टिकट से वंचित रह जाने के बावजूद अपने दल में बने रहें।इसलिए पुरस्कार कम ही लोगों को देना पड़ेगा।
इस लोक सभा चुनाव के समाप्त हो जाने के बाद ऐसे नेताओं को देश भर से बुलाकर दिल्ली में ससमारोह पुरस्कृत किया जाना चाहिए।  
 यह लोकतंत्र के लिए बेहतर होगा।


‘आज सांसद व विधायक बनने लिए ही लोग किसी दल में शामिल हो जाते है।’
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दैनिक हिन्दुस्तान@19 मार्च 2019@ से बातचीत में बिहार के तीन बार मुख्य मंत्री रहे पूर्व केंदीय मंत्री  डा.जगन्नाथ मिश्र ने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकारा है कि ‘आज प्रतिबद्धता नहीं,पारिश्रमिक पर मिलते हैं कार्यकत्र्ता।’
खुद डा.मिश्र ने लंबे समय तक बिहार की राजनीति व सरकार को अपनी मुट्ठी में रखा था।
पर,उन्होंने यह नहीं बताया कि ऐसी स्थिति आने से रोकने के लिए खुद उन्होंने क्या प्रयास किया ? या फिर इस स्थिति के लिए वे खुद और उनका परिवार कितना  जिम्मेवार रहा है ।
  जीवन की संध्या बेला में उन्हें अब पूरी बात बोल ही देनी चाहिए।
यदि बोलेंगे तो आज की पीढ़ी उनका उपकार मानेगी।साथ ही, आज के नेता सावधान होकर सही रास्ते पर चलेंगे।
  बिहार के ही एक अन्य नेता ,जो इन दिनों कानूनी परेशानी में हैं,व्यक्तिगत बातचीत में इसी तरह की अधूरी बात बोलने लगे हैं।वे इन दिनों उन पत्रकारों की भूरी- भूरी प्रशंसा  कर रहे हैं जिन्हें वे कभी चुन-चुन कर गालियां दिया करते थे।
कतिपय संपादकों को उन्होंने नौकरी से निकलवाया भी था।
पर, अब उसी की तारीफ करने का क्या मतलब है ?
शायद उन्हें अब यह लग रहा होगा कि यदि उन पत्रकारों के लेखन पर पहले ध्यान दिया होता और खुद में सुधार लाया होता तो उनकी आज यह दुर्गत नहीं होती।
  खैर, ऐसे नेताओं का इस राज्य व यहां की राजनीति पर बड़ा उपकार होगा ,यदि वे पूरी बात लोगों को बताएंगे कि किन -किन गलतियों के कारण राज्य की और खुद उनकी ऐसी दुर्दशा हुई।ताकि आगे के नेतागण खास कर सत्ताधारी नेतागण उससे सबक ले सकें।
खैर, यह तो उन पर है कि वे बताते हैं या नहीं।लोगबाग तो जानते ही हैं।पर अब तक जितना बताया,उसके लिए उन्हें धन्यवाद ! शुक्रिया !
पर जो बातें उन लोगों ने नहीं बताई  है ,उसे संक्षेप में  बताने की मैं कोशिश कर रहा हूं।
 आज मुफ्त काम करने के लिए राजनीतिक कार्यकत्र्ता इसलिए नहीं मिल रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उस काम से समाज का भला कम और नेताओं का व्यक्तिगत और पारिवारिक भला ही अधिक होने वाला है।
 पहले कार्यकत्र्ता मिल जाते थे ।क्योंकि हर दल में कुछ ऐसे  शीर्ष नेता होते थे जिनके निजी जीवन भी प्रेरणादायक  थे।वे अपने लिए, अपने परिवार और अपनी जाति के लिए नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए काम करते थे।
हालांकि थोड़े से संगठनों में कार्यकत्र्ता अब भी मिल ही जाते
हैं।
पर,आज आम राजनीति का क्या हाल है ?वही हाल है जो ‘डाक्टर साहब’ ने बताया।
जातीय-साम्प्रदायिक वोट बैंक पर आधारित अनेक राजनीतिक दल  व्यापारियों  के कारखाने की तरह चलाए जा रहे हैं।जिस तरह व्यापारी जब बूढ़ा होता है तो अपना कारखाना अपनी  संतान को सौंप देता है,उसी तरह इस देश-प्रदेश के कई राजनीतिक दल एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपे जा रहे हैं।
यहां तक कि सांसदों और विधायकों की सीटें भी एक पीढ़ी से दूसरी  पीढ़ी को स्थानांतरित हो रही हंै।इस बीच राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं के लिए जगह है कहां ?
सांसद- विधायक फंड के ठेकेदार से लेकर दैनिक मजदूर तक कार्यकत्र्ता बने ही हुए हैं।फिर भला जरूरत क्या है असली राजनीत कार्यकत्र्ताओं की ?
तमाम बुराइयों के बावजूद सांसद-विधायक फंड इसीलिए तो समाप्त नहीं किए जा रहे  हैं।
दूसरी ओर अधिकतर सांसदों,विधायकों तथा सत्तासीनों की निजी संपत्ति उसी तरह दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ रही है जिस तरह व्यापारियों की बढ़ती जाती है।
अपवादों की बात और है।पर अपवादों से न तो राजनीति को चलना  है और न ही देश को। 
अल्ला जाने क्या होगा आगे ! ! 
       

अल्लाह के नाम पर कम से कम 55 सीट तो दे दे !!
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 पिछले लोक सभा चुनाव में कांग्रेस को इतनी भी सीटें नहीं 
मिल सकी थीं ताकि खड़गे साहब को प्रतिपक्ष के नेता का पूर्ण दर्जा मिल सके।
 खुदा करे , अगली बार किसी दल के साथ ऐसी दुर्घटना न हो।चाहे जो दल ‘मुख्य प्रतिपक्षी दल’ बने।
जनता को चाहिए कि उसे कम से कम 55 सीटें तो दे ही दे। ताकि, उसे  महत्वपूर्ण बैठकों में वोट देने का अधिकार हो।
लोकपाल की  चयन कमेटी की हाल की बैठक में भी खड़गे साहब शामिल नहीं हुए थे।
उससे पहले सी.बी.आई.निदेशक,सी.वी.सी. जैसे पदों पर तैनाती के लिए बुलाई गई बैठक में भी वे नहीं जा सके थे।
यह सब ठीक नहीं लगता। 
जाते।बाहर आकर कह देते कि मेरी बात नहीं मानी गई।
कम से कम ऐसी बैठकांे और महत्वपूर्ण पदों की बहाली के फैसलों में देर तो नहीं होती।
हां,बैठक में न शामिल होने का एक राजनीतिक फायदा जरूर है।
सरकार आपकी उपस्थिति की प्रतीक्षा लंबे समय तक करती रहे और आप जनता  को इस बीच बताते रहें कि ‘लोकपाल की नियुक्ति में सरकार देर कर रही है।कुछ दाल में काला जरूर है।’

शनिवार, 23 मार्च 2019

जन्म दिन के अवसर पर डा.राम मनोहर 
लोहिया की याद में उनके बारे में कुछ बातें
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1.-1967 में 12 अक्तूबर को लोहिया का निधन हो गया।
उस समय वे करीब 57 साल के ही थे।
नई दिल्ली के वेलिंगटन अस्पताल में उनके प्रोस्टेट का आपरेशन विफल रहा था।डाक्टरों की लापारवाही सामने आई थी।
लोहिया अपना आपरेशन जर्मनी में करवाना चाहते थे,पर पैसे का जुगाड़ नहीं हो सका था।सिर्फ 12 हजार रुपए लगने थे।
उन्हें जर्मनी के एक विश्वविद्यालय ने भाषण देने के लिए बुलाया था।आने -जाने का खर्च विश्व विद्यालय दे रहा था।
तब बिहार सहित कई राज्यों की सरकारों में उनके दल के मंत्री थे।लोहिया अपने दल के सर्वोच्च नेता थे।
पर,उन्होंने कह रखा था कि मेरे आॅपरेशन के लिए चंदा वहां से नहीं आएगा जिन राज्यों में हमारी पार्टी के मंत्री हैं।
वे चाहते थे कि बंबई के मजदूर चंदा करके पैसे भेजंे।पर चंदा आने में देर हो गई और दिल्ली में ही आपरेशन कराना पड़ा था।
आज का दौर तो नेताओं की डायरियों का है।किसी को पैसों की कोई कमी महसूस नहीं होती है।
कभी जैन हवाला डायरी सामने आती है तो कभी कर्नाटका डायरी ! कभी सहारा डायरी तो कभी बिड़ला डायरी।कभी किसी ‘डायरी वालों’ का बाल बांका नहीं होता।
 लोहिया जैसे नेता आज होते तो क्या होता ? आज की राजनीति को देख कर  आत्म हत्या कर ली  होती।
2.-लोहिया ने कहा था कि राजनीति में रहने वालों को अपना परिवार खड़ा नहीं करना चाहिए ।
वे खुद कंुवारे रहे।
3.-उनका कोई बैंक खाता नहीं था।न ही अपना कोई मकान बनाया और न अपने लिए कार तक खरीदी।
4.-पर जब लोक सभा में बोलने के लिए खड़ा होते थे सत्ताधारी बेंच सहम जाता था।
5.-उत्तर प्रदेश में मारवाड़ी पिछड़े समुदाय में नहीं आते।फिर भी लोहिया ने नारा दिया,‘पिछड़े पावें सौ में साठ।’
6.-जर्मनी से पीएच.डी.व कई पुस्तकों के लेखक लोहिया का आजादी की लड़ाई में बड़ा योगदान था।
7.-लोहिया रिक्शे की सवारी नहीं करते थे।कहते थे कि आदमी को आदमी खींचता है,यह ठीक नहीं।
वे यदाकदा साइकिल की पिछली सीट पर बैठकर एक जगह से दूसरी जगह जाते थे।
8.-साठ के दशक में रांची में उनकी पार्टी की बैठक थी।एक कार्यकत्र्ता के बारे में उन्हें सूचना मिली कि वह शराब बेचता है।उन्होंने उसे बुलाया।पूछा,शराब बेचते हो ?
उसने हां कहा।कहा कि मेरा भोजनालय है जिसमें शराब भी बिकती है।
लोहिया ने कहा कि यदि हमारी पार्टी में रहना हो तो शराब की दुकान बंद करके आओ।उसने शराब बेचनी बंद कर दी। 
और आज ? इस देश में कितने नेता बचे हैं जो  मदिरा पान नहीं करते ? हालांकि कुछ जरूर बचे होंगे ! ! इतनी भी गिरावट नहीं आई है ! 



 जब कभी मैं अपना एक मन पसंद चैनल लगाता हूं 
तो मेरी साढ़े पांच साल की पोती कहती है कि 
‘बाबा, इसे बंद कीजिए।यह बहुत चिल्लाता है।
मेरा कान दर्द करने लगता है।’
 मैं उसे क्या जवाब दूं ?
कुछ समझ में नहीं आता।
बच्चे के सामने हमपेशा की शिकायत भी तो कर नहीं सकते !
पर, किसी का चिल्लाना तो मुझे भी ठीक नहीं लगता।
पर, चिल्लाहटों के बीच जितनी कुछ बातें समझ में आ पाती हंै, उनसे लगता है कि वह चैनल बात तो पते की करता है।
वैसे पते की बात भी तो शालीनता से और बारी -बारी से बोल कर भी की ही जा सकती है।
पर, उन्हें कौन समझाए !
अधिकतर चैनल वाले तो आज खुद को ‘अर्ध देव’ से कम  समझते ही नहीं।
लगता है कि सरकार या प्रतिपक्ष को यानी कुल मिला कर देश को वही लोग चला रहे हैं।
अपने अतिथियों के साथ मिलकर हर शाम एक साथ कई -कई तेज आवाजों के साथ इतना अधिक शोरगुल @वैसे शोरगुल जैसा शालीन शब्द उस दृश्य को सही ढंग से चित्रित  नहीं करता।@ करते हैं कि शायद ही किसी श्रोता के पल्ले कुछ पड़ता है।
आखिर ऐसा कार्यक्रम ही क्यों जिसे ठीक से सुना तक न जा सके ! समझ में आने का तो सवाल ही नहीं है। 
क्या आपके पल्ले कुछ पड़ता है ?

ताजा खबर है कि जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फं्रट पर केंद्र सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया।
 यानी, अब तक उस पर प्रतिबंध नहीं था।
जो संगठन हथियारों के बल पर एक राज्य को लिबरेट करने के लिए सक्रिय हो या ‘जेहाद’ का समर्थक हो,उस पर प्रतिबंध लगाने में इतनी देरी ?
जेहादियों के साथ किसी देश को कैसा व्यवहार करना चाहिए,यह कोई चीन से सीखे।
  खैर, इस देश में  अभी और कई सवालों का हल होना बाकी  है।
सवाल यह है कि ऐसे ‘लश्करों’ से अघोषित युद्ध में पहली गोली कौन चलाए ?
इशरत जहां गिरोह चलाए या गुजरात पुलिस ?
इस देश को टुकड़े -टुकड़े करने की कोशिश में लगी बाहरी-भीतरी शक्तियों के अघोषित युद्ध को घोषित युद्ध में कब बदला जाएगा ? जब काफी देर हो चुकी होगी ?
याद रहे कि किसी युद्ध के मैदान में इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता कि पहली गोली किसने चलाई।
@ 23 मार्च 2019@

सोमवार, 18 मार्च 2019

राहुल गांधी ने प्रत्येक राफेल विमान की खरीद- 
कीमत कुछ यूं बताई
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जय पुर में -- 520  और 540 करोड़ रुपए
दिल्ली और कर्नाटका--700 करोड़ रुपए
संसद--520 करोड़ रुपए
हैदराबाद--526 करोड़ रुपए
राय पुर -540 करोड़ रुपए
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अब एक काल्पनिक सवाल--
मान लीजिए कि आपको अपनी दुकान के लिए  एक सेल्समैन रखना है।
आपने रख भी लिया।
आपके यहां एक तख्ती टंगी है जिस पर लिखा है-एक दाम।
वह सेल्समैन ग्राहकों से रोज-रोज एक ही सामान के चार या पांच दाम बताए तो उसे आप नौकरी पर बनाए रखिएगा ?
नहीं।क्योंकि आपके सामने कोई मजबूरी है नहीं।क्योंकि वह आपके वंश का नहीं है।
  उसे हटा कर कोई समझदार सेल्समैन रखिएगा तो आपकी दुकान के चल निकलने की संभावना बढ़ेगी।अन्यथा दुकान डूब जाएगी।

काश ! 1971 के बाद इस देश के अब तक के आधे मुख्य मंत्री भी रुपए-पैसे के मामले में मनोहर परिकर और कर्पूरी ठाकुर जितने ईमानदार होते।
  मैंने 1971 इसलिए लिखा क्योंकि यह वही समय है जब भष्टाचार ने सरकारों में संस्थागत रूप लेना शुरू कर दिया था।

रविवार, 17 मार्च 2019

एक ऐसी चिट्ठी जो अब नहीं लिखी जाती !
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 इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने के निर्णय के खिलाफ कांग्रेस एम.पी. महावीर त्यागी ने 1959 में जवाहर लाल नेहरू को कड़ा पत्र लिखा था।
याद रहे कि 1957 में कुछ लोगों ने बिहार के मुख्य मंत्री डा.श्रीकृष्ण सिंह से आग्रह किया था कि वे अपने पुत्र शिव शंकर सिंह को विधान सभा का उम्मीदवार बनने की अनुमति दें।
डा.सिंह ने कहा कि तो फिर मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा।क्योंकि एक परिवार से एक ही व्यक्ति को चुनाव लड़ना चाहिए।
  1980 में कर्पूरी ठाकुर से उनके दल के एक बड़े नेता ने कहा था कि आप @अपने पुत्र@ राम नाथ ठाकुर को विधान सभा का चुनाव लड़ने से मत रोकिए।कर्पूरी जी ने भी वही कहा था कि जो श्रीबाबू ने कभी कहा था।
बिहार के ये दोनों नेता जानते थे कि वंशवाद की तथा उससे जुड़ी हुई और क्या-क्या  बुराइयां हैं।उन्हें यह आशंका थी कि बुराई एक दिन देश को रसातल में ले जा सकती है।
आज उनकी आशंका सही साबित हो रही है।
   जवाहर लाल नेहरू की सहमति से इंदिरा गांधी 1959 में कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्षा बना दी गईं।
आजाद भारत में वंशवाद की वह ठोस व मजबूत शुरूआत थी। 
 कालक्रम में देश के  अन्य अनेक नेताओं  को उससे प्रेरणा मिली।
आचार्य व्यास ने पुराण में लिखा है कि 
‘महाजनो येन गतः स पन्थाः।’
क्या उम्मीद करते थे  ? नेता लोग नेहरू के सिर्फ ‘वैज्ञानिक सोच’ व ‘आइडिया आॅफ इंडिया’ वाले विचार को ही फाॅलो करेंगे ? वंशवाद को नहीं ?
वंशवाद व उसी से जुड़े  जातिवाद के साथ कई अन्य बुराइयां भी अब सामने आई हैं।आज देश का कौन वंशवादी नेता है जो भ्रष्ट व जातिवादी भी नहीं है ?
 हो सकता है कोई हो ! पर मुझे नहीं मालूम।आपको मालूम हो तो जरूर बताइएगा।
हालांकि यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि जो वंशवादी नहीं है,वह भ्रष्ट नहीं है।
आज तो स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि देश के अनेक वंशवादियों और परिवारवादियों के अयोग्य, अपात्र  व बकलोल संतान व परिजन  अगले चुनाव के जरिए ंइस देश की सत्ता पर कब्जा कर इस देश का बंटाढार करने पर अमादा हैं।
 यह और बात है कि नेताओं के सारे उत्तराधिकारी अपात्र ही नहीं हैं।
कुछ योग्य भी हैं।
पर, अपवाद स्वरूप ही।क्या अपवादों से देश चल सकेगा  ?
      नेहरू के नाम महावीर त्यागी की वह अभूतपूर्व चिट्ठी 
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  1959 में तो महावीर त्यागी जैसे पूर्व सैनिक व स्वतंत्रता सेनानी मौजूद थे जो वंशवाद के खिलाफ जवाहर लाल नेहरू जैसी हस्ती को भी देशहित में अत्यंत  कड़ी चिट्ठी लिख सकते थे।आज त्यागी जैसा कोई बहादुर नजर ही नहीं आ रहा है।यह देश का अधिक बड़ा दुर्भाग्य है। 
  कोई पत्रकार या लेखक इस बुराई की ओर इंगित भी करता है तो कुछ लोग उसे मोदी का सेवादार तक बताने लगते हैं।वे नहीं जानते कि देश के इतिहास के इस नाजुक दौर में वे क्या कर रहे हैं !
ईश्वर उन्हें माफ करें !
 अब पूर्व केंद्रीय मंत्री दिवंगत त्यागी जी का पत्र 
पढि़ए--
 प्रिय जवाहरलाल जी,
 मैं जानता हूं कि इस चिट्ठी के बाद मेरा कांग्रेस में रहना कठिन हो जाएगा।पर अपने स्वभाव@स्पष्टवादिता@को बेच कर कांग्रेस में रहा भी तो क्या ?
मेरी हैयित उन जैसी हो जाएगा जो मैत्री का व्यवसाय करते हैं।गोस्वामी तुलसी दास आपके लिए एक दोहा कह गए हैं--
‘सचिव, वैद्य, गुरु तीनि जौं, प्रिय बोलहिं भय आस,
राज , धर्म तन तीनि का, होइ बेगिही नास।’
    चारों ओर खुशामद ही खुशामद !
  ---------------------
 जब किसी के चारों ओर खुशामद ही खुशामद होने लगती है तो उस बेचारे को अपनी सूझबूझ और बुद्धि पर अटूट अंध विश्वास हो जाता है,यही कारण है कि आजकल आपके भाषणों में अधिकाधिक तीखापन झलक रहा है।विरोधी गलत भी हों तो क्या ?
प्रजातंत्र में उनका भी स्थान है।क्योंकि विरोधी मत द्वारा हम अपने विचारों की उचित जांच और छानबीन कर सकते हैं।
  यदि बुरा न मानो तो मैं आपको यह तहरीर देना चाहता हूं कि आपके दरबारियों ने केवल निजी स्वार्थवश आपके चारों ओर खुशामद के इतने घनघोर बादल घेर दिए हैं कि आपकी दृष्टि धुंधला गई है।
और अब समय आ गया है कि आप अपने इन चरण -चुम्बकों से सचेत हो जाओ।
वर्ना आपकी मान, मर्यादा ,सरकार और पार्टी सबका ह्ास होने जा रहा है।
  त्यागी जी ने लिखा कि ‘जैसे कि मुगलों के जमाने में मंत्रिगण नवाबों के बच्चों को खिलाया करते थे,उसी तरह आपकी आरती उतारी जा रही है और आपके इन भक्तों ने 
@शायद ‘मोदी भक्त’ मुहावरे का स्त्रोत यहीं है।@इसी प्रकार आपकी भोली -भाली इंदु का नाम कांग्रेस प्रधान पद के लिए पेश किया है और शायद आपने आंख मींच कर इसे स्वीकार भी कर लिया है।
  इंदु मेरी बेटी समान है।उसका नाम बढ़े ,मान बढ़े इसकी मुझे खुशी है।पर उसके कारण आप पर किसी प्रकार का कोई हर्फ आवे सो मुझे स्वीकार नहीं है।
मैं नाग पुर ,हैदराबाद,मद्रास,मैसूर और केरल का भ्रमण करके अभी लौटा हूं।वहां के कांग्रेस वाले क्या  टिप्पणी करते हैं आपको उसकी इत्तला नहीं है।
 इस खयाल में मत रहना कि इंदु के प्रस्तावकों और समर्थकों में जो होड़ हो रही है@कि उनका नाम भी छप जाए@यह केवल इंदु के व्यक्तित्व के असर से है।
 सौ फीसदी यह आपको खुश करने के लिए किया जा रहा है।
 इतनी छोटी-सी  बात को यदि आप नहीं समझ सकते तो मैं कहूंगा कि आपकी आंखों पर परदे पड़ गए हैं,परदे ।
मैं यह पत्र इतना कटु इसलिए लिख रहा हूं कि आंख के परदे केवल फिटकरी से कटते हैं।फिटकरी तो बेचारी घिस कर गल घुल जाती है।यह समझ लो कि अब कांग्रेस में पदलोलुपता और व्यक्तिवाद का ऐसा वातावरण छा गया है कि मुझे दो ऐसे व्यक्ति बता दें कि जो मित्र हों और आपस में दिल खोल कर बातें कर सकते हों।
  सपना टूट कर छिन्न -भिन्न
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इस बात को मान लो कि अब वह पुराना मुश्तरका सपना कि जिसमें हर रंग भरने वाले को हम हृदय से लगाते थे,टूटकर छिन्न भिन्न हो चुका है।अब हमारी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के सपने अलग- अलग हैं, और उन्हीं के पीछे हम दौड़ रहे हैं।
इसी को व्यक्तिवाद कहते हैं।
  कांग्रेस यानी सरकार- पुत्री पार्टी !
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ऐसे वातावरण में भय, स्वार्थ और संदेह की मनोवृत्ति होना अनिवार्य है।
    आज जबकि शासन का ढांचा ढीला पड़ चुका है,रिश्वत और चोरबाजारी का बोलबाला है,साथियों में ‘वह काटा,’ ‘वह मारा’ वाले पतंगबाजी के नारे लग रहे हैं,जबकि अधिकांश नेतागण मिनिस्ट्री, लोक सभा और विधान सभाओं की मेम्बरी कर रहे हों ,और केवल चार आने वाले साधारण सदस्य मंडलों में रह गए हों,ऐसे में जर्जरित ढांचे को इंदु बेचारी कैसे संभाल सकेगी ?
अभी तक लोग आपको यह कह कर क्षमा कर देते थे कि बेचारा जवाहर लाल क्या करे,उसे सरकारी कामों से फुर्सत नहीं है।
 कांग्रेस ठीक करने की जिम्मेदारी ढेबर भाई की है।
इंदु के चुने जाने  से वह सुरक्षा युक्ति यानी सेफ्टी वाॅल्व भी हाथ से निकल जाएगी।लोग कांग्रेस संस्था को सरकार-पुत्री कहने लगेंगे।
  इसलिए मेरी राय है कि इंदु को प्रधान चुने जाने से रोको।
या फिर आप प्रधान मंत्री पद से अलग होकर इंदु की मार्फत कांग्रेस का संगठन मजबूत कर लो।
आपके बाहर आने से केंद्रीय सरकार वैसे तो कमजोर हो जाएगी,पर आपके द्वारा जनमत इतनी शक्ति प्राप्त कर लेगा कि प्रांतीय सरकारें भी आपके डर से ठीक-ठीक कार्य कर सकेंगी और कांग्रेस के साधारण कार्यकत्र्ताओं को आपसे बहुत बल मिलेगा।
  स्वतंत्र बहस के प्रति असहिष्णुता ! 
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केंद्रीय शासन भी अधिक सचेत होगा।पार्लियामेंट्री कांग्रेस पार्टी भी ,जो आज आपके बोझ से इतनी दब गई है कि बावजूद कोशिशों के लोग स्वतंत्रतापूर्वक किसी भी विषय पर बहस करने को तैयार नहीं होते,आपके बाहर चले जाने से उसमें जान आएगी।और शायद यही एक ढंग हो सके ,जिससे बिना अधिक पैसा खर्च किए और बिना पूंजीपतियों से सहायता मांगे ,कांग्रेस फिर से बहुमत से चुनी जाकर प्रांतीय और केंद्रीय शासन को संभाल ले।
  अंत में, त्यागी ने लिखा कि नाग पुर कांग्रेस ने जो समाजवाद की ओर कदम बढ़ाया है, उससे कांग्रेस को बड़े -बड़े प्रभावशाली तबकों से मोर्चा लेना पड़ेगा।
इसके लिए भी अभी से तैयारियां करनी चाहिए।
मेरी आपसे अपील है कि आप कोई ढंग ऐसा निकालिए कि जिससे इस विलासिता और अकर्मण्यता के वातावरण से देश को निकाल कर फिर से त्याग और जन सेवा की भावना जागृत कर सकें।
  गांधी जी के बनाए हुए उस पुराने वातावरण को बिगाड़ने की जिम्मेदारी भी हमारी ही है।इसलिए हमीं को उसे फिर से फैलाना होगा।
यह काम कोरी दिल्ली की दलीलों से नहीं हो सकता।इसके लिए दिल की प्रेरणा चाहिए।माफ करना,मैंने अटरम शटरम जो कलम से आया, लिख दिया है।पर बिना यह लिखे मुझे 15 दिन से नींद नहीं आ रही थी।अब इस पत्र को तकिए के नीचे रख कर दो चार दिन सोऊंगा।ईश्वर आपको दीर्घायु दे।बंदा तो इस वातावरण में ज्यादा  दिन टिक न सकेगा।
        आपका,  महावीर त्यागी--1 फरवरी 1959
@ अपने जमाने की त्यागी जी की चर्चित
पुस्तक ‘आजादी का आन्दोलन हंसते हुए आंसू ’ से @     
  

    

जवाहर लाल नेहरू ने 1959 में लिखा था कि @इन्दिरा गांधी  का@‘ इस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष बनना मुफीद भी हो सकता है।’ ......कुछ नई हवा की जरूरत है।....यह न इन्दु के लिए मुनासिब या इनसाफ की बात होगी कि उसका नाम पेश हो।’
-----------------------------------
 प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू और पूर्व केंद्रीय मंत्री 
महावीर त्यागी के बीच ऐतिहासिक पत्र व्यवहार 
------------------------
प्रिय महावीर,
 तुम्हारा 31 जनवरी का खत मुझे आज मिला।उसको मैंने गौर से पढ़ा।अपनी निसबत तो,जाहिर है,मेरे लिए मुश्किल है कोई माकूल राय रखना।
   कोई भी अपनी निसबत ठीक राय नहीं दे सकता।जाहिर है कि यदि मुझमें खूबियां हैं तो कमजोरियां भी हैं,और शायद इस उम्र में उनसे बरी न हो सकूं।
हो सकता है कि मैं लोगों की बातों से धोखे मेंे पड़ जाता हूं और लोग खुली बात मुझसे नहीं करते।
लेकिन शायद तुम्हारा यह कहना सही न हो कि मेरे पास दरबारी लोग आते हैं या रहते हैं।
 मेरे यहां कभी भी दरबार नहीं लगा।
 और न मैं इस ढंग को पसंद करता हूं।
   तुमने इंदिरा के बारे में लिखा है,उन पहलुओं पर मैंने काफी गौर किया है।मुझे तो ख्याल भ्ी नहीं था कि उसका नाम कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए पेश होगा।नागपुर कांग्रेस के आखिरी दिन मैंने कुछ लोगों से सुना कि उसके नाम का चर्चा है।कुछ लोग दक्षिण के प्रदेशों से नाम पेश कर रहे हैं।उस रोज शाम को यह बात मेरे सामने पेश हुई।
मुझसे अलग नहीं,बल्कि एक कमेटी में कही गई जिसमें   हमारे कुछ नेता अलग -अलग सूबों के मौजूद थे।
मैं शुरू में खामोश रहा और सुनता रहा।फिर मैंने अपनी राय दी,जिसमें मैंने सब पहलुओं को सामने रखा और यह भी कहा कि यह न इन्दु के लिए और न मेरे लिए मुनासिब या इन्साफ की बात होगी कि उसका नाम पेश हो।
 इसके साथ मैंने यह भी कहा कि उसके चुने जाने से कुछ फायदे भी नजर आते हैं ,खास कर नाग पुर कांग्रेस के फैसलों के बाद जबकि कुछ नई हवा की जरूरत है।मैंने मुनासिब न समझा कि मैं इस मामले में कोई दखल दूं।
मैं जानता था कि इन्दिरा इससे परेशान होगी।
     फिर कुछ लोग इंन्दिरा के पास गए।मैंने बाद में  सुना कि उसने जोरों से इनकार किया।बहस हुई।उस पर काफी दबाव डाला गया।
तब उसने कहा कि अगर आप सब लोग इतना जोर डालते हैं 
मुझ पर ,तो मेरे लिए मुश्किल हो जाता है इनकार करना।
हालांकि यह मेरे लिए बड़ी मुसीबत होगी।
लोग उठ आए।कोई एक आध घंटे के बाद फिर वह परेशान होकर उनके पास गई और कहा कि मेरी तबियत इसको कबूल नहीं करती।फिर मुखतलिफ तरफ से दबाव पड़े ,और आखिर में वह राजी हो गई।
 मैंने मुनासिब न समझा दखल देना।
    जो बातें तुमने लिखी हैं,वह जाहिर हैं।लेकिन मेरा यह भी ख्याल है कि बहुत तरह से उसका इस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष बनना मुफीद भी हो सकता है ।
 खतरे भी जाहिर हैं।जहां तक मुमकिन है मैंने इस सवाल को 
कोशिश की सोचने की अपने रिश्ते वगैरा को भूलकर।
   तुमने लिखा है कि मेरी वजह से संसदीय पार्टी दबी रहती है और दिल खोल कर बोल नहीं सकती।इसकी निसबत मैं क्या करूं ?
मैं चाहता हूं कि वह दिल खोल कर बोलें और मैं भी दिल खोल कर बोलूं।
हमारे सामने जो इस वक्त सवाल हैं,उन पर सफाई से बातें होनी चाहिए।और मैंने कोशिश की है कि हमारे साथी मेम्बरान अपनी राय दिया करें।तो क्या मुझे हक नहीं है कि मैं भी अपनी राय दूं उसी सफाई से ?
    हमारे सामने मुश्किल सवाल हैं।लेकिन मेरी राय में हिन्दुस्तान का भविष्य अच्छा है।मैं उससे घबराता नहीं।
                                      तुम्हारा,
     1 फरवरी, 1959                जवाहर लाल नेहरू

    

राष्ट्र गान
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जन गण मन अधिनायक जय हे,
भारत भाग्य विधाता 
पंजाब सिन्धु गुजरात मराठा 
द्राविड़ उत्कल बंग
विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा 
उच्छल जलधि तरंग 
तव शुभ नामे जागे ,
तव शुभ आशिष मांगे,
गाहे तव जय गाथा।
जन गण मंगल दायक जय हे 
भारत भाग्य विधाता !
जय हे,जये हे,जय हे,जय जय जय जय हे। 
---रवीन्द्र नाथ ठाकुर--1911
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वैकल्पिक राष्ट्र गान--स्वीकृति के लिए प्रेषित 
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जन गण मन अविराम ये गाहे
भारत वर्ष हमारा 
चहुं दिशि सुखद मनोरम श्यामल
धरनी धवल गिरि न्यारा 
गंग जमुन जल जीवन धारा
प्राण स्वदेश हमारा
सागर चरण पखारे
रागिनी मंगल गाहे
तिमिर मिटे तब सारा
जन गणतंत्र स्वतंत्र सुनिश्छल
भारतवर्ष हमारा
जय हे जये हे जय हे
जय जय जय जय हे
--रचयिता-कमलाकांत प्रसाद सिन्हा।
दुमका निवासी श्री सिन्हा अविभाजित बिहार की कर्पूरी ठाकुर सरकार में संसदीय सचिव थे।
उन्होंने इस वैकल्पिक राष्ट्र गान को मंजूरी के लिए अटल बिहारी वाजपेयी को भेजा था जब वे प्रधान मंत्री थे। 


शनिवार, 16 मार्च 2019

किसके राज में कितना घिसा एक रुपया ? !
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भावुक हृदय प्रधान मंत्री राजीव गांधी 1985 में सूखाग्रस्त- -अकालग्रस्त कालाहांडी @ओडिशा@की यात्रा पर थे।
वहां की भीषण गरीबी देख कर राजीव ने सार्वजनिक रूप से एक नंगा सच कह दिया था।
उन्होंने कहा था कि 
‘सरकार जो हर एक रुपया खर्च करती है,उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही जरूरतमंदों तक पहुंच पाते हैं।’
  ऐसा कह कर राजीव गांधी किस पूर्ववर्ती प्रधान मंत्री या किस सरकार की विफलताओं पर टिप्पणी कर रहे थे ?
  100 पैसे को घिसकर पंद्रह पैसे बना देने के लिए लाल बहादुर शास्त्री कितना जिम्मेवार थे और  मोरारजी देसाई कितना ?
 या फिर जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गांधी कितना जिम्मेवार थे ?
1947 से 1984 तक 37 साल होते हैं।इसमें से  जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी ने कुल मिलाकर 33 साल देश पर राज किया।
अब नेहरू-इंदिरा भक्तों को यह बताना चाहिए  कि इस गरीब देश के किसके राज में एक रुपया कितना घिसा ?
 याद रहे कि घिसने का मुख्य कारण भ्रष्टाचार है।
अमीर देश का भ्रष्टाचार सुख- सुविधाएं कम करता है,पर भारत जैसे गरीब देश का भ्रष्टाचार मौत लाता है।देश को असुरक्षित बनाता है।  
  वैसे इन बातों के बावजूद मैं यह मानता हूं कि इस देश में जितने भी प्रधान मंत्री हुए,सबने अपने -अपने ढंग से देश को बनाने - बिगाड़ने में अपना योगदान किया।
इन में से कुछ ने बनाया अधिक और बिगाड़ा कम ।तो कुछ अन्य ने बिगाड़ा अधिक और बनाया कम।
उसी के अनुसार इतिहास उन नेताओं के साथ यथायोग्य व्यवहार करे तो बेहतर रहेगा। इससे परे जो टिप्पणियां आती रहती हैं,उन्हें एक पक्ष या दूसरे पक्ष के ‘भक्तों’ या ‘गोदी मीडिया’ की टिप्पणियां ही मानी जाएंगी। 
 भक्त दोनों तरफ हैं तो गोदियां भी।

लंदन में सिर्फ चार फ्लैट ‘अर्जित’ करने वाला पाकिस्तानी नेता इन दिनों पाक  कारागार में सड़ रहा है।
पर, उसी महा नगर में नौ -नौ फ्लैट ‘अर्जित’ करने वाला एक नामी मोदी विरोधी भारतीय खुलेआम इस देश में घूम रहा है।
फिर भी कुछ लोगों को लग रहा है कि भारत में अघोषित इमर्जेंसी लगी हुई है।
क्या 1975-77 की इमरजेंसी में इस देश के सरकार विरोधी दल का कोई भी बड़ा नेता जेल से बाहर था ?

शुक्रवार, 15 मार्च 2019

 सी.पी.आई.और कांग्रेस के नेतागण बिहार में वर्षों तक लालू-राबड़ी की सरकार का समर्थन करते रहे।
कोई संवाददाता  तब इन दलों के नेताओं से जब पूछता था कि आप ऐसी सरकार का समर्थन क्यों कर रहे हैं जिस पर घोटालों -महा घोटालों के अनेक आरोप हैं और पटना हाईकोर्ट कहता है कि यहां जंगल राज है ?
 इसके जवाब में बड़े आत्म विश्वास के साथ कांग्रेस-कम्यनिस्ट नेतागण कहा करते थे कि हम साम्प्रदायिक शक्तियों यानी भाजपा को बिहार में सत्ता में आने से रोकने के लिए ऐसा कर रहे हैं।
  पर हुआ क्या ?
पर,वे भाजपा को सत्ता में आने से रोक नहीं सके।इतना ही नहीं, उल्टे इस क्रम में ये दल खुद भी इतना कमजोर हो गए कि आज इन दो दलों के नेतागण लोकसभा की सीट के लिए रांची का दौरा पर दौरा कर रहे हैं।
लालू प्रसाद के समक्ष याचक बने हुए हैं।
  फिर भी कांग्रेस व कम्युनिस्ट अब भी यह नहीं जान-समझ पाए हैं कि ‘साम्प्रदायिक शक्तियों’ यानी भाजपा को सत्ता में आने से कैसे रोका जा सकता है।
शायद आगे भी नहीं समझ पाएंगे।
   

जद@से@के सुप्रीमो व पूर्व प्रधान मंत्री एच डी देवगौड़ा के दो पोते इस बार लोक सभा  चुनाव लड़ रहे हैं।
 पुत्र मुख्य मंत्री हैं।दूसरे पुत्र राज्य में मंत्री हैं।
पतोहू कर्नाटका विधान सभा की सदस्या हैं।
  बुधवार को  जन सभा में देवगौड़ा ने कहा कि ‘ बताइए, मुझ पर परिवारवाद का आरोप लगाया जा रहा है !’
यह कह कर वे रोने लगे।
 अब भला आप बताइए ! डायनेस्टिक डेमोक्रेसी के इस दौर में  किसी वंशवादी-परिवारवादी नेता के प्रति ऐसा ‘अन्याय’  न तो उत्तर भारत में होता है और न ही बगल के तमिलनाडु में !
उत्तर प्रदेश में तो दो राजनीतिक परिवारों ने एक दूसरे के परिजन के खिलाफ उम्मीदवार तक नहीं देने का निर्णय किया है।
फिर एक परिवार के सिर्फ 5 ही सदस्य तो  राजनीति में लाए गए हैं। इतनी सी छोटी बात के लिए  कर्नाटका के मीडिया,लोग और दल  इतना बड़ा ‘अन्याय’ देवगौड़ा परिवार के साथ आखिर क्यों कर रहे  हैं ! ?
बात समझ में आ रही है न कि देश किस ओर जा रहा है ! 
इस पर आप रोएंगे या हंसेंगे ? 


20 लाख शब्द लिख चुके हैं बी.के.मिश्र
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कोई व्यक्ति लगातार 47 साल से मुख्य धारा की पत्रकारिता
 में हो और उसके  लेखन को लेकर कभी कोई विवाद न हो,तो ऐसे पत्रकार विरल होते हैं।
 ऐसे ही पत्रकार सह शिक्षक रहे हैं बी.के.मिश्र।
शालीन स्वभाव के मिश्र जी पटना साइंस काॅलेज के प्रिंसिपल भी रहे चुके हैं।वे वहीं के छात्र भी  थे।
एक अन्य समकालीन पत्रकार लव कुमार मिश्र बताते हैं कि उन्होंने दोनों पेशों  के साथ न्याय किया।
 काॅलेज और अखबार के दफ्तरों में सामंजस्य बनाए रखा।
    बी.के.मिश्र ने 1972 में पटना के सबसे बड़े अंग्रेजी दैनिक ‘इंडियन नेशन’ से कैरियर शुरू किया था।1987 में टाइम्स आॅफ इंडिया में लिखना शुरू किया।अब भी जारी है।
उन्होंने अब तक 20 लाख शब्द लिखे हैं।
दूसरों पर लाखों शब्द लिखने वाले पत्रकारों  पर भी यदाकदा कुछ शब्द लिखे ही जाने चाहिए।
इससे पहले भी मैंने उन पत्रकारों पर  लिखा है जिन्होंने कभी मुझे प्रभावित किया।
 बी.के.मिश्र की नब्बे प्रतिशत रपटें शिक्षा से संबंधित रहीं।
 हालांकि अन्य विषय पर भी याद रखने लायक रपट उन्होंने लिखी।
 मिश्र जी की 1977 की एक रपट के कारण तो तत्कालीन प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई को जेपी से मिलने पटना आना पड़ा।
 उन दिनों पूर्व सांसद व समाजवादी नेता किशन पटनायक के संपादकत्व में ‘सामायिक वात्र्ता’ नामक पाक्षिक विचार पत्रिका पटना से ही निकलती  थी।
किशन जी ने जय प्रकाश नारायण का एक लंबा इंटरव्यू किया था।
जेपी ने कहा था कि यदि सरकार चुनाव घोषण पत्र लागू नहीं करती है तो एक बार फिर आंदोलन होगा।
हम सरकार को एक साल का समय देते है।
इस इंटरव्यू के विषय वस्तु को आधार बना कर बी.के.मिश्र ने इंडियन नेशन में एक प्रभावकारी रपट छापी।
मोरार जी भाई जेपी से मिलने पटना आ गए।
 शिक्षा की समस्याओं को लेकर सकारात्मक-सुझावात्मक ढंग से रिपोर्टिंग करने के कारण राज्यपाल तथा अन्य संबंधित लोग बी.के.मिश्र की रपटों को गंभीरता से लेते थे।कई बार राज्यपाल उनसे विचार -विमर्श भी करते थे।
 राजेंद्र माथुर कहा करते थे कि रिपोर्टर ऐसा हो जो मिल कर भी खुश करे और लिख कर भी।
ऐसे ही पत्रकार हैं बी.के.मिश्र।


 26 मइर्, 1953 को बेगूसराय में एक रैली हो रही थी।
फाॅरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के नेता केदार नाथ सिंह रैली को संबांधित कर रहे थे।
रैली में सरकार के खिलाफ अत्यंत कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने कहा कि 
‘सी.आई.डी.के कुत्ते बरौनी में चक्कर काट रहे हैं।
कई सरकारी कुत्ते यहां इस सभा में भी हैं।जनता ने अंगे्रजों को यहां से भगा दिया।
कांग्रेसी कुत्तों को गद्दी पर बैठा दिया।
इन कांग्रेसी गुंडों को भी हम उखाड़ फकेंगे।’
   ऐसे उत्तेजक व अशालीन भाषण के लिए बिहार सरकार ने केदारनाथ सिंह के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दायर किया।
केदारनाथ सिंह ने हाईकोर्ट की शरण ली।
हाईकोर्ट ने उस मुकदमे की सुनवाई पर रोक लगा दी।
बिहार सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई।
सुप्रीम कोर्ट ने आई.पी.सी.की राजद्रोह से संबंधित धारा  
को परिभाषित कर दिया।
  20 जनवरी, 1962 को मुख्य न्यायाधीश बी.पी.सिन्हा की अध्यक्षता वाले संविधान पीठ ने कहा कि ‘देशद्रोही भाषणों और अभिव्यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है,जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा असंतोष या फिर सामाजिक असंतुष्टिकरण बढ़े।’
 चूंकि केदारनाथ सिंह के भाषण से ऐसा कुछ नहीं हुआ था,इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह को राहत दे दी।
   अब इस जजमेंट को जेएनयू के केस से जोड़कर देखें।
 कुछ लोग वहां 9 फरवरी 2016 को अफजल गुरू का फांसी दिवस मना रहे थे।
 उसमें देशद्रोही नारे लग रहे थे,ऐसा आरोप लगाते हुए दिल्ली पुलिस ने कन्हैया कुमार तथा 9 अन्य लोगों के खिलाफ अदालत में आरोप पत्र दाखिल कर दिया है।पर अरविंद केजरीवाल सरकार अभियोजन चलाने की अनुमति नहीं दे रही है।
केजरीवाल सरकार का कहना है कि यह राजद्रोह का केस नहीं बनता।
  संभवतः यह मामला कभी सुप्रीम कोर्ट में जाए तो वह 1962 के जजमेंट की कसौटी पर कस कर इस मामले को देख सकता है।क्या अफजल जैसे राजद्रोही घर घर  पैदा करने की कामना करने वालों पर राजद्रोह का मुकदमा नहीं चलेगा ?
क्या अफजल जैसे देशद्रोही के साथ एकजुटता दिखाना राजद्रोह की श्रेणी में नहीं आता ?
इस बीच यह खबर आई है कि कांग्रेस के  चुनाव घोषणा पत्र के मसविदे में  कहा गया है कि हम सत्ता में आएंगे तो 
राजद्रोह के कानून को रद कर देंगे।यदि फाइनल घोषणा पत्र में यह बात आ गई तो उससे अफजल गुरू के भारतीय प्रशंसकों को अपार खुशी नहीं होगी।
भाजपा को भी खुशी होगी क्योंकि उसको चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ एक और संवेदनशील मुद्दा मिल जाएगा।
 याद रहे कि 11 सितंबर, 2001 को ओसामा बिन लादेन ने अमेरिका के विश्व व्यापार केंद्र पर विमान से हमला करवाया था।
उस घटना के बाद अमेरिका सहित कई देशों की सरकारों ने अपने यहां 
के आतंक विरोधी कानूनों को और कड़ा बनाया।
इस देश में 2002 में पोटा कानून बना था।
पर, मनमोहन सिंह की सरकार ने 2004 में सत्ता में आने के
तत्काल बाद पोटा कानून को समाप्त कर दिया।
पोटा के कारण अनेक राष्ट्रद्रोहियों को कोर्ट से सजा दिलवाने में सुविधा होती  थी।  
  अब कांग्रेस कह रही है कि सत्ता में आने के बाद हम राजद्रोह के कानून को ही खत्म करेंगे।
  यदि ऐसा हुआ था तो कुछ अन्य लोगों को विश्वविद्यालयों में घूम घूम कर यह नारा लगाने में सहूलियत हो जाएगी--
‘भारत तेरे टुकड़े होंगे,इंशा अल्ला, इंशा अल्ला !
कितने अफजल मारोगे,घर-घर से अफजल निकलेगा।’
2001 में लश्कर ए तोयबा और जैश ए मोहम्मद ने मिलकर भारतीय संसद पर हमला करवाया  था।
उसका एक लश्कर अफजल गुरू भी था।
जब कभी हर घर से अफजल निकलेगा,जैसे  नारे लगाने की छूट मिल जाएगी तो उससे प्रेरित होकर न जाने कितने अफजल तैयार हो जाएंगे और न जाने और कितनी बार संसद पर हमला करने वाले लश्कर तैयार होते रहेंगे।
मौजूदा समय में जो दूसरे देसी-विदेशी ‘अफजल’ इस देश को तोड़ने की कोशिश में हर पल लगे हुए हैं,उन्हें ऐसे नारों से प्रोत्साहन नहीं मिलेगा ? 

  




--नकद नकारने वाला मतदाता ही होगा लोकतंत्र का असली प्रहरी-- 
  चुनावों में मतदान से पहले मनी और माल का वितरण अब कोई खबर नहीं है।
संभवत पहले दक्षिण भारत में इसका प्रचलन बड़े पैमाने पर शुरू हुआ था।
बाद में यह देश के कुछ अन्य हिस्सों तक पहुंंचा।
  बिहार जैसे  अपेक्षाकृत गरीब राज्य
के कुछ इक्के दुक्के  अमीर नेताओं ने तो यह सब बहुत पहले से शुरू कर दिया था।पर अब तो जल्दी यह तय करना कठिन हो जाता है कि बिहार में भी कौन उम्मीदवार अमीर हैं और कौन गरीब !
कल्पना कीजिए कि जो उम्मीदवार आठ-नौ करोड़ रुपए में टिकट ही खरीदेगा,वह चुनाव क्षेत्र में कितने पैसे छिटेगा !
सत्तर के दशक में बिहार में हुए एक लोक सभा के  उप चुनाव में एक उम्मीदवार ने 33 लाख रुपए खर्च किए थे।
यह राशि उन कुछ उम्मीदवारों से भी अधिक थी जिनके पास तब निजी हेलीकाॅप्टर हुआ करते थे।
  पर, बाद के चुनावांे में बिहार के  कई अन्य उम्मीदवारों द्वारा मतदाताओं के बीच नकद बांटने की लगातार खबरें मिलती रहंीं।
  ऐसा नहीं है कि सारे उम्मीदवार ऐसा करते हैं।यह भी नहीं है कि नकदी ने हमेशा ही बंाटने वाले के पक्ष में अनुकूल रिजल्ट ही दिए हैं।
  फिर भी इससे राजनीति दूषित तो होती ही है।
चुनावों के दिनों इन बिछे हुए प्रलोभनों को ठुकराने वालों की कहानियां भी यदाकदा सुनी जाती हैं।
 पर संकेत मिल रहे  हंै कि  इस बार पहले की अपेक्षा नकदी का वितरण कुछ अधिक ही हो सकता है।यानी प्रलोभन अधिक ‘आकर्षक’ होगा।
क्योंकि इस लोक सभा चुनाव से अनेक उम्मीदवारों ,नेताओं,दलों और अंततः देश की तकदीरें तय होने वाली हैं।
 टिकट खरीदने और नेताओं के बैंक खातों में पैसों के आदान- प्रदान होने की खबरें तो अभी से आने लगी हैं।
 पर वह दिन दूर नहीं जब नकदी तथा सामान भी बंटेंगे।
उम्मीद है कि इन सब चीजों पर नजरें रखने वाली सरकारी
 एजेंसियां भी इस बार कुछ अधिक सक्रिय रहेंगी।पर खुद मतदाताओं व हर दल के ईमानदार राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं को  भी सावधान रहना होगा।
 वे देश का लोकतांत्रिक भविष्य धनपशुओं के काले धन  से तय न होने दें।वैसे भी बिहार एक जागरूक व और आंदोलनों की भूमि रहा है।   
    --चुनाव पूर्व दल बदल-
हर चुनाव की पूर्व संध्या पर दल -बदल होते ही रहते हैं।
उसके कई कारण होते हैं।
हर बार अनेक  दलों को दल बदल से नेताओं की ‘आमद’ हो जाती है।
पर एक बात ध्यान देने लायक है।
 चुनाव में किस दल के प्रति दलबदलुओं यानी मौसमी पक्षियों का अधिक आकर्षण रहता है।
  जिसकी ओर अधिक है,उसकी चुनावी हवा मानी जाती है।क्योंकि राजनीति के मौसमी पक्षियों की घ्राणशक्ति अन्य लोगों ंंकी अपेक्षा कुछ अधिक होती है।
 ओपिनियन पोल के नतीजों की बात अलग है।
पर अपवादों को छोड़कर अधिकतर विश्लेषण कत्र्ताओं को वही  दल  जीतता हुआ नजर आता है जिसे वे जिताना चाहते हैं।
 इस बार भी खूब भविष्यवाणियां होंगी।होनी शुरू भी हो चुकी है।
जिनके पास समय हो,वे ऐसी भविष्यवाणियां नोट करते जाएं।उन्हें रिजल्ट से मिलाए।फिर गलत भविष्यवाणी करने वाले  संबंधित विश्लेषणकत्र्ताओं की बातों पर अगले किसी चुनाव के समय ध्यान न दें।  
  --कितना बदल गया इनसान !--
चांद न बदला,सूरज न बदला, न बदला आसमान,
कितना बदल गया इनसान !
1954 की फिल्म ‘नास्तिक’ के लिए कवि प्रदीप ने यह गीत  लिखा था।यानी, 1954 में ही इस देश में इतना बदलाव आ चुका था ।अब  जरा आज तक के हुए परिवत्र्तनों  की कल्पना कर  लीजिए।
सर्वाधिक बदलाव पक्ष-विपक्ष की राजनीति में ही आया है।
इसका असर समाज और शासन के अन्य क्षेत्रों में भी पड़ा है।
किसी आम चुनाव के समय ही इस बात की सही जांच हो जाती है कि राजनीति में शुचिता बढ़ रही है या गिरावट !
 इस  चुनाव में उसे एक बार फिर साफ-साफ देख पाना  संभव होगा।
   एक पुराने नेता ने बताया था कि आजादी की लड़ाई के दौरान व बाद के कुछ वर्षों तक नजारे कुुछ और होते थे।
तब घर का कोई अमीर व्यक्ति भी राजनीति में पैर रखता था तो उसके बोलचाल और वस्त्र में भी सादगी टपकती थी।
किन्तु अब ?
अब तो ‘डायनेस्टिक डेमोक्रेसी’ के  दौर में कई सिनियर  नेता राजा और जूनियर नेता राज कुमार की तरह दिखते हैं।
देखना है कि ऐसी राजनीति का अगले कुछ दशकों में क्या हश्र होता है !
--एक बढि़या नारा--
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा है कि ‘इस चुनाव में एक तरफ कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपना जनाधार तैयार करना चाहती है तो दूसरी ओर हम भाजपा को हराना चाहते हैं।’
    -- भूली बिसरी याद--
अधिक दिन नहीं हुए।नब्बे के दशक की बात है।तब तक राजनीति अपराधियों व धन लोलुपों से भर चुकी थी।
 मांझी से विधायक और महाराजगंज से सांसद रहे राम बहादुर सिंह ने एक बार मुझसे कहा था कि अब मुझे चुनाव लड़ने की इच्छा नहीं होती है।
मैंने पूछा --क्यों ?
उन्होंने कहा कि ‘अब क्षेत्र में नौजवान गोली-बंदूक और शराब मांगते हैं।यह काम तो मुझसे कभी नहीं होगा।’
    खबर मिली थी कि खगडि़या के निवत्र्तमान समाजवादी सांसद शिव शंकर यादव ने 1977 में चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था।
कहा कि सांसद होने पर लोगबाग नाजायज पैरवी के लिए दबाव डालते हैं।वह काम मुझे मंजूर नहीं।
 अगली कहानी  तब की  है जब विधायिकी कमाई का जरिया नहीं हुआ करती थी।
1957 में कांग्रेस का टिकट बंटने वाला था।
मोरारजी देसाई पर्यवेक्षक के रूप में पटना आए थे।
पूर्वोत्तर बिहार के एक  क्षेत्र से 1952 में निर्वाचित विधायक के बारे में किसी ने शिकायत कर दी कि वे छुआछूत मानते हैं।मोरारजी ने उनसे पूछा।उन्होंने कहा कि ‘हां,मानता 
हूं।’
उस पर देसाई ने कहा कि तब तो आपको टिकट नहीं मिलेगा।उहोंने कहा कि ‘अपने  पास रखिए यह टिकट।’यह कह कर वे तुरंत घर लौट गए।
   1969 में राम इकबाल पीरो से विधायक थे।
बाद में जब उनसे चुनाव लड़ने के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा कि हर बार मैं ही क्यों लड़ंगा ? दूसरे व्यक्ति लड़ें।
1967 में बिहार में गैर कांग्रेसी सरकार का गठन हो रहा था।
संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के शीर्ष नेता ने राज्य सभा सदस्य भूपेंद्र नारायण मंडल से कहा कि आप मंत्री बन जाइए।
मंडल जी ने यह कहते हुए मंत्री बनने से इनकार कर दिया कि लोहिया जी बुरा मानेंगे ।क्योंकि लोहिया जी कहते हैं कि जो जहां के लिए चुना जाए,वहीं काम करे।
लोहिया ने यह नियम  बनाया था कि जो लोक सभा या विधान सभा का चुनाव लड़े,वह राज्य सभा या विधान परिषद में न जाए।
इसी आधार पर मधु लिमये और कपिल देव सिंह जैसे समाजवादी कभी उच्च सदन में नहीं गए जबकि आॅफर थे।
एक वे दिन थे और एक आज की राजनीति  !!  
         --और अंत मेें--
जद@से@के सुप्रीमो व पूर्व प्रधान मंत्री एच डी देवगौड़ा के दो पोते इस बार लोक सभा  चुनाव लड़ रहे हैं।
एक पुत्र मुख्य मंत्री हैं।दूसरे पुत्र राज्य में मंत्री हैं।
पतोहू कर्नाटका विधान सभा की सदस्या हैं।
  बुधवार को एक जन सभा में देवगौड़ा ने कहा कि ‘ बताइए, मुझ पर परिवारवाद का आरोप लगाया जा रहा है !’
यह कह कर वे रोने लगे।
 अब भला बताइए ! डायनेस्टिक डेमोक्रेसी के इस दौर में  किसी वंशवादी-परिवारवादी नेता के प्रति ऐसा ‘अन्याय’  न तो उत्तर भारत में होता है और न ही बगल के तमिलनाडु में !
उत्तर प्रदेश में तो दो राजनीतिक परिवारों ने एक दूसरे के परिजन के खिलाफ उम्मीदवार तक नहीं देने का निर्णय किया है।
फिर एक परिवार के सिर्फ 5 ही सदस्य के राजनीति में आने पर कर्नाटका के मीडिया,लोग और दल  इतना बड़ा ‘अन्याय’ देवगौड़ा परिवार के साथ आखिर क्यों कर रहे  हैं ! ?
बात समझ में आ रही है न कि देश किस ओर जा रहा है !  
@15 मार्च 2019@

बिहार के मतदाताओं के ‘व्यवहार’ के बारे में लालू प्रसाद
के पास जितनी अधिक समझ है,महा गठबंधन के किसी अन्य नेता के पास नहीं है।
कुछ नेता तो काफी बढ़ -चढ़कर दावा कर रहे हैं।
  अब भी राजद के पास एम -वाई वोट बैंक की बड़ी ताकत है।
 इसीलिए यदि सीटों के वितरण को लेकर महागठबंधन के नेतागण लालू प्रसाद के फैसले को मान लेंगे तो उनके लिए बेहतर ही रहेगा।
वैसे अन्य राज्यों में जो भी हो,पर बिहार में तो कुल मिलाकर राजग का ही अपर हैंड नजर आता है। 

बुधवार, 13 मार्च 2019

  कांग्रेस ने पहले दिल्ली और बाद में पंजाब में आम आदमी पार्टी  से चुनावी तालमेल करने से इनकार कर दिया है।
पंजाब से 2014 में ‘आप’ के चार सांसद चुने गए थे।
यानी ‘आप’ कांग्रेस को वहां लाभ पहुंचाने की स्थिति में है। 
फिर भी तालमेल न करने का आखिर क्या कारण है ?
2016 में जेएनयू परिसर में  अफजल गुरू के ‘फांसी दिवस’ पर राष्ट्र विरोधी नारे लगाए गए थे।
नारे लगे थे --
 भारत तेेरे टुकड़े होंगे।
कितने अफजल मारोगे,
घर -घर से अफजल निकलेगा।
और भी उत्तेजक नारे।
इस  ‘टुकडे -टुकड़े गिरोह’ के खिलाफ मुकदमा शुरू हुआ।
कोर्ट में मामला गया।पर मुकदमा चलाने की अनुमति ‘आप’ की दिल्ली सरकार ने अब तक नहीं दी है।
‘आप’ विरोधियों का आरोप है कि आप की सहानुभूति राष्ट्रद्रोहियों के साथ है।
‘आप’ का तर्क  है कि राष्ट्रद्रोह का कोई केस ही नहीं बनता।
  क्या ‘आप’ से कांग्रेस का चुनावी तालमेल न करने का यही अघोषित कारण है ?
  दिल्ली में तालमेल न होने का सीधा फायदा भाजपा को मिल सकता है।
 पर दूसरी ओर अफजल गिरोह के समर्थकों -प्रशंसकों से एकजुटता दिखाने का नुकसान किसी दल को  पूरे देश में हो सकता है।वह अधिक नुकसानदेह साबित हो सकता है।
क्योंकि वैसे तालमेल से भाजपा के पास कांग्रेस के खिलाफ एक और बड़ा नारा मिल जाएगा।वैसे भी अभी देश में अघोषित युद्ध का माहौल है।
लगता है कि कांग्रेस ने कम से कम इस मामले में होशियारी दिखाई है।ऊपर से देखने से तो यही लग रहा है।पर, पता नहीं भीतरी बात क्या है !

मंगलवार, 12 मार्च 2019

जाॅन आॅफ आर्क के बदले दुर्गा ही क्यों ?
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इंदिरा गांधी 15 वीं सदी की फ्रांसीसी वीरांगना
जाॅन आॅफ आर्क को अपना आदर्श मानती थीं।
झांसी की रानी की तरह जाॅन आॅफ आर्क ने भी अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़ीं थीं ।
पर जब इंदिरा गांधी ने 1971 में बंगला देश का युद्ध जीता तो
खुद को ‘दुर्गा’ कहलाना पसंद किया न कि जाॅन आफ आर्क।
पाक ने भी अपनी मिसाइल के नाम गोरी व गजनी रखे हंै ताकि धार्मिक भावनाओं का दोहन किया जा सके।
   1972 के विधान सभाओं के चुनावों में ‘दुर्गा’ और ‘राष्ट्रभक्ति’ की मिलीजुली भावनाओं ने भी कांग्रेस को जितवाने में मदद की थी।
 इसके अलावा इंदिरा जी ने तब मतदाताओं के नाम व्यक्तिगत पत्र लिख कर उनसे  अपील की थी कि जिस तरह हमने युद्ध जीता है,उसी लगन से हमें गरीबी हटानी है।
इसलिए हमें प्रदेशों में  अनुकूल सरकारें चाहिए।कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र में भी कहा गया कि इंदिरा गांधी के सफल नेतृत्व के कारण हमने युद्ध जीता।
  इंदिरा जी ने यह सब नहीं भी किया होता तौभी उन्हें चुनावों में बंगला देश युद्ध में जीत का लाभ मिलता।
  अब जब कि बालाकोट हमले तथा इस तरह के  कई अन्य पाक विरोधी उपायों का लाभ अगले चुनाव में राजग को मिलने वाला है तो कांग्रेस तथा उसके हमसफर बुद्धिजीवी फतवा दे रहे हैं कि बालाकोट हमले का राजनीतिकरण या चुनावीकरण नहीं होना चाहिए।
ऐसा दोहरा मापदंड क्यों भई ?
  अब भला बताइए कि यदि नरेंद्र मोदी कल से यह प्रचार भी करने लगें कि आपलोग वोट देते समय हाल में  पाक के साथ हुए द्वंद्व को तनिक भी ध्यान में न रखें तो भी क्या  मतदाता उनकी बात मान लेंगे ?
मोदी सरकार ने इस बार पाक को जितना झुका कर पूरी दुनिया में उसे अलग -थलग कर दिया है,उसे आम जनता नहीं देख रही है ?
  सबसे अधिक जानकारियां  तो गांव -गांव व घर -घर में मौजूद स्मार्ट फोन दे रहे हैं।एक कहावत है-सूचना में शक्ति होती है।
बंगला देश युद्ध में इंदिरा गांधी की हिम्मत की कहानी भी घर -घर फैल गई  थी।तभी तो उन्हें चुनावों में भारी लाभ मिल गया था।
अब उसी तरह का लाभ मोदी को मिलने की उम्मीद बन रही है तो इतनी घबराहट क्यांे ? 

पहले राष्ट्र के नाम संदेश,अब टिकट के लाले !
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2014 में सत्ता में आने के बाद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 
अपने दल के सांसदों और विधायकों से कई बार यह अपील की कि वे अपनी बारी से पहले न बोलें।
राष्ट्र के नाम संदेश न दें ।अपना काम करें और मीडिया को अपनी बातों से मिर्च -मसाला उपलब्ध न कराएं।
  पर, इसके बावजूद कुछ सांसदों व मंत्रियों ने मोदी की बात पर ध्यान ही नहीं दिया।
अब जब भाजपा के कुछ निवत्र्तमान सांसदों के टिकट कट जाने की आशंका जाहिर की जा रही है तो देखा जा रहा है कि उनमें से तो अधिकतर सांसद अपना मूल काम छोड़ कर ‘राष्ट्र के नाम संदेश’ देने के काम में ही लगे रहते थे।

‘कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने शनिवार को कहा कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी देश को बताएं कि वोे भाजपा की सरकार थी,जिसने एक भारतीय जेल से जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को रिहा किया था।’
         ----राष्ट्रीय सहारा--10 मार्च 2019
‘देश के प्रमुख राजनीतिक दलों ने इंडियन एयरलाइंस के अपहृत विमान के यात्रियों और चालक दल की सकुशल रिहाई के लिए आवश्यक कदम उठाने का सरकार को सुझाव दिया है।
इन दलों के नेताओं ने कहा कि संकट की इस घड़ी में 
वे सभी एक हैं ,मगर पल -पल बदलते घटनाक्रम के मद्दे नजर जरूरी कदम उठाने का निर्णय तो सरकार ही ले सकती है।
प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा बुलाई गई इस बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ,नटवर सिंह,हरकिशन सिंह सुरजित,जे.चितरंजन,अमर सिंह आदि नेताओं ने भाग लिया।’
       ---दैनिक हिन्दुस्तान-28 दिसंबर ,1999 

क्या बिहार में चुनाव आचार संहिता के उलंघन के 
आरोप में आज तक किसी को अदालत से 
सजा हुई है ?
मेरी जानकारी में तो नहीं हुई है।आपकी जानकारी में हो तो जरूर बताइएगा।
एक बार फिर प्रशासन ने ऐसे मुकदमे कायम करने शुरू कर दिए है।
अंततः इन्हें भी कोई सजा नहीं होगी।
लगता है कि केस ही इस तरह के बनाए जाते हैं ताकि उन्हें साबित नहीं किए जा सके ?
फिर ऐसे केस करते ही क्यों हो भाई  ?
क्या यह न्यायिक प्रक्रिया का सदुपयोग  है ?
  

इन दिनों इस देश के बैंक सर्विस चार्ज के नाम पर 
उपभोक्ताओं का खूब दोहन कर रहे हैं।
 सीमित आय वाला  एक नौजवान इसको लेकर भारी गुस्से में रहता है।शायद इसी कारण वह गैर राजनीतिक युवक नरंेद्र मोदी के खिलाफ हो गया है।
  पता नहीं, दोहन की ऐसी खबरें प्रधानमंत्री तक पहुंचती भी है या नहीं ! मुझे भी सर्विस चार्ज कुछ ज्यादा ही लगता है।
  वैसे वह तो नौजवान है।गुस्सा जायज है।
एक अति बुजुर्ग को एक अत्यंत मामूली बात को लेकर मुख्य मंत्री का विरोधी होते देखा।पहले वे भारी समर्थक थे।
वे रोज बिहार विधान परिषद के स्मोकिंग रूम में बैठते थे।
अब दिवंगत हो चुके हैं।
 कई साल पहले की बात है।एक दिन वे रिक्शे से सिंचाई भवन की ओर से सचिवालय में प्रवेश करने लगे।संतरी ने उन्हें रोक दिया।
  फिर क्या था ! वे आग बबूला हो गए।स्मोकिंग रूम  लौट आए।
उसके बाद लगातार मुख्य मंत्री की बात -बात में आलोचना करने लगे।
बैंकों के अतिशय सर्विस चार्ज के लिए भले आप प्रधान मंत्री को परोक्ष रूप से जिम्मेदार मान लेंं, पर क्या कोई मुख्य मंत्री ने  संतरी को ऐसा आदेश दे सकता है कि फलां नेता जी का रिक्शा भीतर जाने नहीं देना ?
 इस बहाने एक अंतिम किन्तु  महत्वपूर्ण जानकारी।
    आजादी हुई ही थी।उन दिनों गांधी जी पटना में ही थे।
जमशेद पुर के एक बहुत बड़े नेता उनसे मिलने सड़क मार्ग से 
पटना आ रहे थे।
गांधी जी समय के बड़े पाबंद थे।यह बात उस नेता को मालूम थी।
  पर दुर्भाग्य यह हुआ कि फतुहा के पास रेलवे क्रासिंग का फाटक बंद था।
टे्रन आने ही वाली थी।जहां तहां सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे।गोरखा सिपाहियों का जहां  पहरा था।
   नेता जी ने फाटक खोल देने के लिए कहा।गोरखा  तैयार नहीं हुआ।
नेता जी अत्यंत गुस्सेल थे।उन्होंने गोरखा को एक थप्पड़ कस कर मार दिया।उसने उन्हें गोली मार दी।
नेता जी का निधन हो गया।
बाद में यह खूब प्रचार हुआ कि इसमें राज्य के एक बहुत बड़े सत्ताधारी नेता का हाथ था।
 उस नेता जी के निजी सचिव रहे एक बंगाली बाबू  बहुत बाद में कहीं मिले थे।उन्होंने ही मुझसे कहा कि वे बड़े गुस्सेल थे।  
    

सोमवार, 11 मार्च 2019

‘राजवंशीय’ लोकतंत्र के बढ़ते कदम-एक और चुनाव



मशहूर पत्रकार नीरजा चैधरी ने 2003 में लिखा था कि ‘भारतीय राजनीति मात्र 300 परिवारों तक सीमित है।’
नीरजा ने यह भी लिखा था कि ‘हर व्यवसाय में डिग्री की जरूरत होती है।लेकिन राजनीति ऐसा पेशा है जहां बेटा बड़ी आसानी से बाप की राह को अपना सकता है।’
@पंजाब केसरी-30 नवंबर 2003@
  पिछले 16 साल में ऐसे परिवारों की संख्या कितनी बढ़ी है ?
 यह संख्या बढ़कर अभी 565 हुई या नहीं ?
कब तक हो जाएगी ? 2019 के चुनाव में कितने नए परिवार जुड़ेंगे  ?
याद रहे कि अंगे्रजों के शासनकाल में हमारे यहां 565 राज घराने थे।
  राज घरानों को जन कल्याण से कम ही मतलब रहता था।
उस जमाने में कलक्टर रहे एक आई.सी.एस.अफसर ने लिखा है कि जिले में कहीं दैविक विपदा या अगलगी वगैरह होने पर राहत के लिए पैसे बिलकुल नहीं होते थे।हमलोग स्थानीय व्यवसायियों से विनती करके कुछ पैसे एकत्र करते थे।उन्हीं पैसों से विपदापीडि़त बेसहारा लोगों को थोड़ी राहत पहुंचाते थे।
लोकतंत्र के राजवंशीय शासक अपने वोट बैंक के अलावा कितनों को राहत पहुंचाते रहे हैं ?
  ताजा खबर जय पुर से है।
इंडिया टूडे लिखता है कि ‘सभी निगाहें अब वैभव गहलोत पर लगी है कि अब वे चुनावी पारी शुरू करने का संकेत देते हैं या नहीं।’ 
आज के अधिकतर राजनीतिक परिवारों के चाल, चरित्र और  चिंतन उन रजवाड़ों से ही मिलते -जुलते लगते हैं।
  जिस तरह पहले से ही यह तय रहता था कि जय पुर राज घराने के  जय सिंह के बाद राम सिंह उनके उत्तराधिकारी होंगे।राम सिंह के बाद माधो सिंह और उनके बाद सवाई मान सिंह उत्तराधिकारी होंगे,उसी तरह आज के डायनेस्टिक डेमोक्रेसी के दौर में कई राजनीतिक दलों में यह उत्तराधिकार सूची पहले से तय है।
  उस दल को सत्ता मिलने पर यह भी तय है कि कौन मुख्य मंत्री या प्रधान मंत्री होगा।दल के मसले पर अंतिम निर्णय किसका होगा।
 कम्युनिस्ट व संघ परिवार से जुड़े दल को छोड़कर आज अधिकतर दलों का यही हाल है।
कम्युनिस्ट तो विलुप्त हो रहे  हंै।उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उसे न तो सामाजिक न्याय की कोई समझ है और न ही राष्ट्रवाद की।वैसे आर्थिक मामले में ईमानदारी औरों से अधिक है। 
कल्पना कीजिए कि भाजपा भी किसी कारणवश कभी विलुप्त होने लगे तो इस देश की राजनीति में क्या बचेगा ?
बच जाएंगे नए ‘राजनीतिक घराने’ ! लोकतंत्र के राजवंशीय घराने।
उनके मुख्य लक्षण होंगे -जातिवाद, संप्रदायवाद, अपराध और धनलोलुपता !
इनमें से कुछ लक्षण तो भाजपा व कम्युनिस्ट दलों में भी हैं।
पर पराकाष्ठा तो दूसरी ओर ही है।
 नीरजा चैधरी के 300 घरानों की संख्या में  अब तक कितनी बढ़ोत्तरी हुई है ?
इस चुनाव के बाद और कितने घराने बढ़ेंगे ?
यह संख्या बढ़कर 565 तक कब पहुंच जाएगी ?
 अंत में--परिवारवाद तो लगभग हर दल में है।पर,परिवारवाद और परिवारवाद में भी भारी अंतर है। 
 एक राजनीतिक परिवार अपनी पूरी पार्टी निजी कारखाने की तरह अपनी अगली पीढ़ी को सौंप जाता है।
 कुछ दूसरे दलों में ऐसा नहीं है।पर उनमें भी कुछ नेताओं यानी एम.पी.एम.-एल.ए.के परिजन टिकट पा जाते हैं या मंत्री बन जाते हैं।हालांकि वह भी सही नहीं है।उससे राजनीतिक कार्यकत्र्ता घटते हैं।
 वैसे इन दिनों एम.पी.-एम.एल.ए.फंड के ठेकेदार वह कमी पूरी कर रहे हैं।इसीलिए ये फंड बंद भी नहीं हो रहे हैं।