शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2020

मुंह में संविधान और हाथ में पिस्तौल !
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कुछ लोग मुंह में भारतीय संविधान और हाथ में पिस्तौल  लेकर घूम रहे हैं।
उनके लिए इसी संविधान की कुछ पंक्तियों पेश हैं।
ऐसी स्थिति के लिए संविधान में नागरिक कत्र्तव्य साफ-साफ शब्दों में दर्ज हैं-
‘‘भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कत्र्तव्य होगा कि वह
भारत की प्रभुता,एकता और अखंडता की रक्षा करे।
साथ ही, सार्वजनिक संपत्ति को सरुक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे।’’--अनुच्छेद-51 ए 
--सुरेंद्र किशोर
28 फरवरी, 20


गुरुवार, 27 फ़रवरी 2020

  केजरीवाल जी, अतिवादियों की जगह आम
  मुसलमानों के हितों का ध्यान रखिए !
          सुरेंद्र किशोर 
जे.एन.यू.में 9 फरवरी, 2016 को अफजल गुरू की बरखी मनाई गई।
 वहां उस अवसर पर अफजल के प्रशंसकों ने जमकर राष्ट्र विरोधी नारे लगाए।
दिल्ली पुलिस ने उन नारेबाजों के खिलाफ अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया।
आरोप देशद्रोह का है। 
किंतु केजरीवाल सरकार अभियोजन पक्ष को मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दे रही है।
मामला लटका हुआ है।
  अल्पसंख्यक मतदाताओं ने गत दिल्ली विधान सभा चुनाव में कांग्रेस को छोड़कर ‘आप’ को एकतरफा वोट दे दिया।
 फिर भी विधान सभा की सीटों की संख्या की दृष्टि से पहले से ‘आप’ की संख्या इस बार घटी और भाजपा की ंसंख्या बढ़ी।
  अल्पसंख्यकों के बीच के अतिवादियों के साथ हमदर्दी दिखाने का जल्दी ही एक और अवसर केजरीवाल सरकार को मिल गया।
मनीष सिसोदिया ने ‘शाहीन बाग’ का समर्थन कर दिया ।
नतीजतन वे विधान सभा चुनाव हारते -हारते बचे।
 अब ताजा दंगों को लेकर  ‘आप’ के जिन अल्संख्यक नेताओं के खिलाफ आरोप लग रहे हैं,उनको लेकर ‘आप’ के नेता मौन हैं।या बचाव की मुद्रा में हैं।उल्टे वे पुलिस पर आरोप लगा रहे हैं।
  केजरीवाल जी,
  हाल के वर्षों से  इस देश के कई प्रमुख राजनीतिक दल अल्पसंख्यकों के बीच के अतिवादियों का एकतरफा समर्थन करते रहे हैं।
सामान्य अल्पसंख्यकों के हितों की चिंता की होती तो उन दलों का नुकसान नहीं होता।
  इस रवैए से देश के कई तथाकथति सेक्युलर दल कमजोर होते जा रहेे हैं।उनकी कीमत पर भाजपा बढ़ गई।
 क्या  केजरीवाल की पार्टी भी उसी राह पर है ?
यह हकीकत है कि केजरीवाल सरकार जनहित में अच्छे -अच्छे काम करती जा रही है। 
 इसलिए उसके पास  पुण्य का खजाना बड़ा है।
पर,यदि केजरीवाल समूह इसी तरह अतिवादियों का समर्थन देता रहा तो ‘आप’
का राजनीतिक भविष्य भी अन्य दलों की तरह अनिश्चित हो सकता है।
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27 फरवरी 2020


बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

2019 के लोक सभा चुनाव से ठीक पहले बिहार के कुछ स्वयम्भू नेता खूब हुंकार -फुफकार मार रहे थे।
चुनाव नतीजे के बाद वे धरातल पर आ गए।
कुछ महीनों के बाद बिहार विधान सभा का चुनाव होने वाला है।
  इस चुनाव के बाद कुछ राजनीतिक दलों को अपनी वास्तविक ताकत का पता चल जाएगा।
  --- सुरेंद्र किशोर
     26 फरवरी 2020

सन 2002 में गोधरा रेल डिब्बा कार सेवक दहन कांड की खबर जब तक तैरती रही,तब तक सारे ‘सेक्युलर’ मौन थे।
पर, जैसे ही गुजरात के दूसरे हिस्सों में प्रति हिंसा शुरू हुई,सारे ........वाचाल हो उठे थे ।
कुछ रोने लगे। 
कुछ चीत्कार करने लगे।
इतिहास कई बार खुद को दुहराता है।
इस बार भी इतिहास खुद को दुहरा रहा है।
26 फरवरी 2020

सोमवार, 24 फ़रवरी 2020

विरल रोग की चपेट में बच्चे 
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इन दिनों इस देश के कुछ बच्चे एक विरल व जटिल रोग से पीडि़त हैं।
यह आनुवांशिक रोग है।
इस रोग का नाम है--एम.पी.एस.-2 हंटर सिन्ड्रोम ।
देश में ऐसे मरीजों की कुल संख्या करीब 400 है।
दो से चार साल के शिशु के शरीर को यह जानलेवा रोग अपनी गिरफ्त में ले लेता है।
इस रोग से संबंधित सर्वाधिक दुखदायी बात यह है कि इसका इलाज अत्यंत महंगा है।
यदि हर साल 50 लाख रुपए खर्च किए जाएं
तो कुछ समय में मरीज ठीक हो सकता है।
पीडि़त के परिजन पिछले दिनों इस सिलसिले में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मिले थे।
उन्होंने कुछ आश्वासन भी दिया है।
पर मुझे लगता है कि इसमें प्रधान मंत्री के हस्तक्षेप की जरुरत है ताकि सैकड़ों अबोध बालकों की प्राण रक्षा की जा सके।
  ----सुरेंद्र किशोर--24 फरवरी 2020 


यह पोस्ट मेरे मित्र शकीलुज्जमां अंसारी के लिए विशेष
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बंगला देशी घुसपैठियों की समस्या से पीडि़त राज्यों का  सम्मेलन सितंबर, 1992 में दिल्ली में हुआ था।
 पी.वी.नरसिंह राव सरकार के गृह मंत्री एस. बी. चव्हाण की अध्यक्षता में असम, बंगाल, बिहार, त्रिपुरा, अरुणाचल और मिजोरम के  मुख्यमंत्री और मणिपुर, नगालैंड एवं दिल्ली के प्रतिनिधि  उस सम्मेलन में शामिल थे।
  सम्मेलन में सर्वसम्मत प्रस्ताव पास  किया गया।
प्रस्ताव यह हुआ कि ‘‘देश के  सीमावर्ती जिलों के  निवासियों को परिचय पत्र दिए जाएं।’’
सम्मेलन की राय थी कि ‘‘बांग्ला देश से बड़ी संख्या में अवैध प्रवेश के कारण देश के विभिन्न भागों में जनसांख्यिकीय परिवत्र्तन सहित अनेक गंभीर समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं।
  इस समस्या से निपटने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा मिलकर एक समन्वित कार्य योजना बनाने पर भी सहमति बनी।’’
 किंतु हुआ कुछ नहीं।नतीजतन 1992 और 2020 के बीच समस्या और भी गंभीर हो गई।
 इसके बावजूद इस अति गंभीर समस्या पर आज कांग्रेस व वाम दलों की राय देशहित से कितनी अलग है ?
आखिर क्यों ?
क्योंकि इसे ही आधुनिक राजनीति कहते हैं जिसमें देश कहीं नहीं है ।
ताजा खबर यह है कि पश्चिम बंगाल के जो जिले बंाग्ला देशी घुसपैठियों के कारण मुस्लिम बहुल हो चुके हैं,वहां हिन्दुओं को पूजा पाठ करने के लिए मस्जिदों से इजाजत लेनी पड़ रही है।यह बात हाल में लोक सभा में भी कही गई।
कोई मीडिया संगठन इस समस्या की रिपोर्ट नहीं कर रहा हैं।
कई साल पहले इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर जरूर छपी थी कि पश्चिम बंगाल के एक मुस्लिम बहुल गांव में हिन्दू लड़कियों को हाफ पैंट पहन कर हाॅकी खेलने से मना कर दिया गया। 
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 सुरेंद्र किशोर--20 फरवरी 20 




लाॅर्ड मेकाले ने 2 फरवरी, 1835 को ब्रिटिश संसद में निम्नलिखित भाषण दिया था-- 
उस चर्चित भाषण की भारत में आए दिन चर्चा
होती रहती है।
वह भाषण यहां हिन्दी में प्रस्तुत है।
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   ‘‘मैंने भारत का चैतरफा दौरा किया और यह पाया कि 
न ही यहां एक भी भिखारी है, और न कोई चोर ही।
ऐसा समृद्ध है यह देश ।
इतने ऊंचे नैतिक मूल्यों पर चलने वाले सद्चरित्र लोग,मुझे नहीं लगता कि हम इसको कभी अपने अधीन कर पाएंगे।
जब तक कि हम इसके  मूल आधार को ही नष्ट कर न दें ,जो कि है इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत।
  इसलिए मैं इसकी सनातन सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था को बदलने की अनुशंसा करता हूं ।
क्योंकि अगर भारतीय यह समझेंगे कि जो भी कुछ विदेशी और अंग्रेजी है,वह अच्छा है और उनसे बेहतर है,तब वह अपने आत्म सम्मान और अपनी मूल संस्कृति को खो देंगे, 
 और तब वे वही बन जाएंगे जो हम उन्हें बनाना चाहते हैं,और तभी  होगा हमारा इस देश पर पूर्ण आधिपत्य।’’
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  बंबई प्रेसिडेंसी के शिक्षा विभाग की 1858 की  रपट के अनुसार,
 ‘‘शासन ने अंग्रेजी शिक्षा देने के लिए चार जातियों को चुनाव।
रपट के अनुसार उनमें से एक जाति अपने पूर्वजों की वीरगाथा में इतनी मगलन थी कि उसे अंग्रेजी  शिक्षा में कोई रुचि नहीं थी।’’
     ---आम्बेडकर संपूर्ण से।
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क्या एक बार फिर मेकाले-वाद की तरह का ही खतरा
भारत पर उपस्थित है ? !!
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प्रस्तुति--सुरेंद्र किशोर - 21 फरवरी 2020

    शरद द्वय-अपनी अपनी वैतरणी ! 
      --सुरेंद्र किशोर-- 
एक शरद महाराष्ट्र की अपनी सरकार बचाने की कोशिश में लगे हुए हैं।
दूसरे शरद बिहार में अपने मन की सरकार बनवाने की अति महत्वाकांक्षी योजना की सफलता के लिए प्रयत्नशील हैं।
   दोनों शरद यानी शरद पवार और शरद यादव के बारे में 
एक खास बात कही जाती है।
 एक बार लालू प्रसाद ने मीडिया से कहा था कि शरद यादव को समझने में आपको सौ साल लगेंगे।
  पिछले दिनोें जब महाराष्ट्र में सरकार बनाने की जोड-़तोड़ चल रही थी,उस समय  खुद शिवसेना के संजय राउत ने कहा था कि शरद पवार क्या कह रहे हैं,उसे समझने में आपको सौ साल लगेंगे।
   चलिए कम से कम ऐसे दो नेता तो अपने देश में उपलब्ध हैं जिन्हें समझने में सौ साल लगेंगे ।
लगता है कि ये दर्शनीय नेता हैं !!
  खैर , अब देखना यह है कि ये रहस्यमयी नेता द्वय  अपने ताजा अभियानों में सफल होते हैं या असफल !!
  राजनीतिक प्रेक्षक कहते हैं कि शरद पवार शायद सफल भी हो जाएं ,पर शरद यादव की सफलता में अधिकतर लोगों को भारी संदेह हैं।
  वैसे भी महाराष्ट्र सरकार बचाना भी कम कठिन काम नहीं है।
  उद्धव ठाकरे के सामने संकट यह है कि सरकार बचाने पर उनका वोट बैंक चला जाएगा।
यदि वोट बैंक बचाएंगे तो सरकार चली जाएगी।
देखना है कि वे दोनों के बीच वे क्या चुनते हैं !! 
फरवरी 2020


  सार्वजनिक मंच से ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’ का नारा लगाने वाली अमूल्या लियोना के इस पाकपक्षी रुझान के पक्ष में जो भारतीय नागरिक पोस्ट लिखता है,उसे आप क्या कहेंगे ?
 यदि वह व्यक्ति वारिस पठान और गिरिराज सिंह की तो आलोचना करता है,पर अमूल्या का बचाव करता है,तो उसे आप क्या 
कहेंगे ?
 भारत-पाक एका का समर्थक,
 प्रगतिशील,
देशभक्त,
अबोध,
विक्षिप्त,
इतिहास से अनजान ,
पाक एजेंट 
या कुछ और ?????!!!!!!
फरवरी , 2020


‘‘हम 15 करोड़ हैं लेकिन 100 करोड़ पर भारी पड़ंेगे।
प्रिय वारिस पठान जी,
ये जो जहर आप उगलते हो ना,
ये बाकी मुसलमानों को निगलना पड़ता है।
  आप पूर्व एमएलए हैं,आपके साथ पुलिस है,
आपको कुछ नहीं होगा।
पीडि़त वे  होते हैं जो हिन्दुओं के बीच में बहुत ही 
प्रेम और भाईचारे के साथ रहते हैं।’’
                  --संपत सरल,कवि ,
            राष्ट्रीय सहारा, 22 फरवरी 20 
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साथ में, मेरी ओर से दो और बातें-
बड़े ओवैसी ने वारिस पठान से तो उस बयान को वापस करवा दिया।
पर उन्होंने  अपने छोटे भाई से 15 मिनट वाले बयान को वापस नहीं करवाया। आखिर क्यों ?
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ऐसे बयानों की तरह ही ‘‘शाहीन बागों’’ का अभियान भी है।
इससे देश में धु्रवीकरण हो रहा है।
इसलिए शाहीनबागों को  भी वापस कीजिए।
धु्रवीकरण से राजनीतिक तौर पर कौन मजबूत होगा ?
इसका जवाब सब जानते हैं।
यदि आपका यह ‘‘धर्म युद्ध’’ नहीं है तो आप मोदी को दिनानुदिन अनजाने में और भी मजबूत क्यों कर रहे हैं ?
अगर वास्तव में ‘‘शाहीनबाग’’ आपका धर्मयुद्ध है तब तो उसमें इस बात का कोई भी पक्ष ध्यान नहीं रखता कि युद्ध से कौन मजबूत हो रहा है और कौन कमजोर !
उसके बाद देश की तकदीर में जो होगा,वही होगा।
.........................सुरेंद्र किशोर--23 फरवरी 2020

रविवार, 23 फ़रवरी 2020

प्रो.जाबिर हुसेन रचित ‘‘जैसे रेत पर गिरती है ओस’’
मेरे सामने है।
 बिहार विधान परिषद के पूर्व सभापति प्रो. हुसेन राज्य सभा से रिटायर होने के बाद लगातार
लिख रहे हैं।
‘दोआबा’ के अंक भी लगातार आ रहे हैं।
मुझे नहीं मालूम कि उन्होंने सक्रिय राजनीति से अलग होकर 
खुद ही साहित्य रचना के अपने पुराने काम को तेज कर दिया है या कोई बात है !
उनसे मेरा भी संपर्क अत्यंत सीमित है।
  जो भी हो, राजनीति में सक्रिय व्यक्ति की क्षमता यदि किसी अन्य क्षेत्र में भी काम करने की होती है तो उसे राजनीति से अलग होना कम ही खटकता है।
  दरअसल खुद के दिमाग से सोचने -करने वालोें के लिए राजनीति में जगह सिकुड़ती जा रही है।
  दूसरे संदर्भ में एक सत्ताधारी नेता ने मुझसे कई साल पहले कहा था,
‘‘आप ही का अच्छा है।
आपको पढ़ने-लिखने आता था,
इसलिए सक्रिय राजनीति छोड़कर पत्रकारिता में चले गए।
मुझे तो यही सब झेलना है !’’
दरअसल मेरे सामने ही उनसे एक ऐसे करीबी मित्र ने एक ऐसे काम के लिए  पैरवी की थी जो काम वह नेता नहीं करना चाहते थे।
  नहीं करने पर उस मित्र की नाराजगी  झेलने की आश्ंाका से वह चिंतित थे। 
---सुरेंद्र किशोर -23 फरवरी 20 

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2020


दोहरा मापदंड अपनाने वालों को मुझसे 
फेसबुक वाॅल पर बहस करने का हक नहीं  
      --सुरेंद्र किशोर--
1.-बंगला देशी घुसपैठियों की समस्या से पीडि़त राज्यों का  सम्मेलन सितंबर, 1992 में दिल्ली में हुआ था।
  गृह मंत्री एस. बी. चव्हाण की अध्यक्षता में असम, बंगाल, बिहार, त्रिपुरा, अरुणाचल और मिजोरम के  मुख्यमंत्री और मणिपुर, नगालैंड एवं दिल्ली के प्रतिनिधि  उस सम्मेलन में शामिल थे।
  सम्मेलन में सर्वसम्मत  यह प्रस्ताव पास हुआ कि  
‘‘देश के  सीमावर्ती जिलों के  निवासियों को परिचय पत्र दिए जाएं।’’
  1992 की उस बैठक में जिन- जिन दलों के प्रतिनिधि शामिल थे ,वे आज सी.ए.ए.-एन.पी.आर. और एन.आर.सी.का जी जान से विरोध कर रहे हैं।
ऐसे दलों के लोगों व समर्थकों को मुझसे फेसबुक वाॅल पर बहस करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं।
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2.-जो लोग 2009 के वरुण गांधी के आपत्तिजनक भाषण का तो विरोध करते हैं, किंतु 2014 के इमरान मसूद के उससे भी अधिक आपत्तिजनक स्पीच का विरोध नहीं करते ,उन्हें मुझसे बतकूचन करने का हक नहीं।
मैंने समय- समय पर दोनों की लिखकर आलोचना की है।उसके रिकाॅर्ड मौजूद हैं।
वरुण ने 29 मार्च 2009 को कहा था कि जो हिन्दुओं की तरफ जो अंगुली उठाएगा,उसका हाथ काट लूंगा।
दूसरी ओर, सहारन पुर से कांग्रेस के लोक सभा उम्मीदवार इमरान मसूद ने कहा था कि नरेंद्र मोदी को बोटी -बोटी काट दूंगा।
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3.-मैंने साध्वी प्रज्ञा सिंह के विवादास्पद बयानों की आलोचना की है।
साथ ही, दिग्विजय सिंह के बयानों और विवादास्पद कर्मो की भी।
मेरे ब्लाॅग और फेसबुक वाॅल पर दोनों बातें उपलब्ध हैं।
पर, जो लोग इनमें से सिर्फ एक की आलोचना करते हैं और दूसरे की तारीफ ,उन्हें मैं फेसबुक फे्रंड नहीं रहने दूंगा।
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4.-तरबेज के हत्यारों की भी आलोचना करो,पर कश्मीर के पंडितों का संहार करने वालों की भी।
तभी मुझसे बात करो।
मैं खुद ऐसी दोनों तरह की घटनाओं की निंदा करता रहा हूंं।
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 5.-प्रदर्शनकारियों के मुकाबले के लिए जब -जब पुलिस बाहर निकलती है तो  खुफिया पुलिस के जवान भी सादी पोशाक में साथ में रहते रहे हैं।
यह दशकों से होता रहा है।
पर, जब से प्रदर्शनकारियों के बीच से  गोलियां और रोड़े  चलने लगे तो सादी पोशाक वाले सुरक्षा कवच पहनने लगे।
  कवच पहने खुफिया पुलिस के जवान कुछ लोगों को ए.वी.पी.पी. के कार्यकत्र्ता नजर आते हैं।
  पर  पी.एफ.आई.के लोग जब सड़कों पर उतर कर गोली -बारी और रोड़ेबाजी करते हैं तो उनकी आंखें बंद हो जाती हैं।
ऐसे ही लोगों को धर्मांध कहा जाता है।
  यदि पुलिस किसी भी आंदोलनकारी पर ज्यादती करती है कोई उसकी गोली से मरता है तो उसकी न्यायिक जांच होनी चाहिए।
पर सिमी-पी.एफ.आई.-एस.डी.पी.आई. के जो सदस्य जेहाद के तहत हिंसा करते- करवाते हैं,उनके खिलाफ भी तो दो शब्द बोलिए।
तभी मेरे फेसबुक वाॅल पर आइए।
यदि आप बंद दिमाग के नहीं हैं और  इन संगठनों के उद्देश्यों के बारे में कोई  शक है तो 30 सितंबर 2001 का टाइम्स आॅफ इंडिया पढ़ लीजिए।
सिमी ने लिखित घोषणा कर रखी है कि हमारा लक्ष्य हथियारों के  बल पर भारत में इस्लामिक शासन कायम करना है।
पुलिस सूत्रों के अनुसार ताजा आंदोलन पी.एफ.आई.ने ही शुरू किया है।पी.एफ.आई. सिमी के लोगों ने ही बनाया है।  
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6.-बजरंग दल आदि को पानी पी- पी कर गालियां दीजिए।
पर, दो शब्द राहुल गांधी के लिए भी बोलिए जो कहते हैं कि युवा लोग नरेंद्र मोदी को डंडों से पीटेंगे।
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7.-गोधरा रेलवे स्टेशन पर हिंंसक भीड़ ने 59 कारसेवकों को जिंदा जला दिया।
उसके बाद के दंगों में दोनों पक्षों के सैकड़ों लोग मारे गए।
कारसेवक संहार की भी निन्दा कीजिए और बाद के दंगों की भी।
एकतरफा नहीं चलेगा।
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8.-1989 में भागलपुर में धर्मांधों  ने एस.पी. की जीप पर बम फोड़ा।
उसकी प्रतिक्रिया में भीषण दंगे हुए।
दोनों घटनाओं की निन्दा कीजिए।
पर, क्या आप भागलपुर  दंगा के लिए तब के मुख्य मंत्री की उतनी ही जोर से आलोचना करते हैं जितनी ताकत से 2002 के गुजरात के मुख्य मंत्री की ?
  नहीं करते जबकि भागलपुर में गुजरात की अपेक्षा अल्पसंख्यकों की अधिक जानें गईं थीं।
गुजरात में दंगाइयों से लड़ते हुए 200 पुलिसकर्मी मारे गए थे।
पर भागलपुर से ऐसी कोई खबर नहीं आई।
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   दोहरे मापदंड के इस तरह के इस देश में अन्य अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं जो मेरे पास भी हैं।
मैं दोनों पक्षों के गलत लोगों की हमेशा आलोचना  करता रहा हूं।
पहले आप भी ऐसा ही कीजिए, तभी मुझसे बात कीजिए। 
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21 फरवरी 2020 


गुरुवार, 20 फ़रवरी 2020

‘‘अगर कोई व्यक्ति किसी निर्दोष को मारने के लिए निकला है
और वह पुलिस के सामने पड़ता है तो या तो पुलिसकर्मी मरे या फिर वह मरे।,
किसी एक को तो मरना होगा।’’
          ----सी.एम.योगी आदित्यनाथ 
                उत्तर प्रदेश विधान सभा 
                  19 फरवरी 2020

बुधवार, 19 फ़रवरी 2020

26-11 -2008-
कसाब फर्जी हिंदू पहचान और हाथ में कलावा के साथ पकड़ा गया।
17-12-2008-
अंतुले ने संसद में संकेत किया कि मुंबई हमले के पीछे हिंदू हो सकते हैं।
20-7-09 - 
राहुल गांधी ने अमेरिकी राजदूत से कहा,
इस्लामिक आतंक से बड़ा खतरा है हिंदू आतंक।
28 12-2010-
दिग्विजय सिंह ने ‘26 -11 आर एस एस की साजिश’ नामक किताब रिलीज की।
       --- विक्रांत कुमार, दैनिक जागरण  

    प्रशांत किशोर को उतना ही महत्व-श्रेय 
    दीजिए जितने के वे हकदार हैं।
      ---सुरेंद्र किशोर .......
प्रशांत किशोर की इन दिनों बड़ी चर्चा है।
चर्चा उससे भी अधिक  है जितने के वे वास्तव में हकदार हैं।
मेरा मानना है कि प्रशांत किशोर जैसे व्यक्ति उसी दल 
को ‘जितवा’ सकते हैं जिसे जनता पहले से ही जिताने का कमा मन बना चुकी होती है।
अब तक ऐसा ही हुआ है। 
 जो दल जीतने लायक नहीं होता ,उसे प्रशांत क्या, कोई भी नहीं जितवा सकता।
  हां,जिस दल या नेता में आत्म विश्वास की कमी होती है,
वही प्रशांत की मदद लेता रहता है।
खैर, संभव है कि प्रशांत की उपस्थिति का सकारात्मक  मनोवैज्ञानिक असर दल या नेता पर पड़ता होगा !
 चुनावों में प्रशांत की भूमिका कुछ- कुछ मीडिया जैसी ही होती है।
  2017 का उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव रिजल्ट इस बात का गवाह है कि कांग्रेस की प्रशांत किशोर कोई मदद नहीं कर सकते।
ठीक ही कहा गया है कि जो अपनी मदद नहीं कर सकता ,उसका भगवान भी मददगार नहीं हो सकता।
  प्रशांत की सलाह पर अनेक खाट सभाएं करवाने के बावजूद
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मात्र 7 सीटें मिल सकीं।
जबकि  2012 में वहां कांग्रेस को 28 सीटें मिली थीं।
यहीं नहीं, प्रशांत की मदद के बावजूद 2017 में अमेठी की सभी चार सीटें भी कांग्रेस हार गई।
      2014 में प्रशांत, नरेंद्र मोदी के साथ नहीं होते तो क्या मोदी को सत्ता नहीं मिल पाती ?
क्या 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में राजद-जदयू की जोड़ी हार जाती,यदि प्रशांत नहीं होते ?
  मीडिया और प्रशांत जैसे लोग आंकड़े जुटा सकते हैं।
कुछ सूचनाएं दे सकते हैं जिससे दलों -नेताओं को संभवतः सुविधा हो जाए।
   पर, क्या किसी आम चुनाव में इस देश में मीडिया का भी रोल निर्णायक रहा है ?
मुझे तो याद नहीं।
हालांकि मीडिया का एक हिस्सा आजादी के बाद से ही ऐसा अहंकारपूर्ण व्यवहार करता रहा है मानो उसी टिटहरी की टांगों पर यह देश टिका  है।
आज भी कुछ मीडिया जन का ऐसा ही व्यवहार है।
हालांकि सबका नहीं।
    कुछ उदाहरण --गरीबी हटाओ -बैंक राष्ट्रीयकरण की पृष्ठभूमि में अधिकतर बड़े मीडिया हाउस इंदिरा गांधी के खिलाफ थे ।
फिर भी इंंदिरा गांधी की पार्टी 1971 में लोस चुनाव जीत गई।
1991 का लोक सभा चुनाव और 1995 का बिहार विधान सभा चुनाव मंडल आरक्षण विवाद  की पृष्ठभूमि में हुए थे।
  अपवादों को छोड़कर मीडिया लालू प्रसाद के सख्त खिलाफ था।फिर भी  लालू जीते।
  पहले भी था।पर 2014 में सत्ता में आने के बाद भी  मीडिया का बड़ा हिस्सा नरेंद्र मोदी के सख्त खिलाफ रहा है।
अभूतपूर्व ढंग से।
आज भी है।
प्रशांत भी अब मोदी के साथ नहीं हैं।
 फिर भी जनता ने मोदी को  2019 के लोस चुनाव में अपेक्षाकृत अधिक सीटें दीं।
  इसलिए आंकड़े जुटाने व नेताओं के बीच संदेशवाहक-संवाद  का काम करने की महत्वपूर्ण भूमिका प्रशांत की जरुर बनी रहेगी।
क्योंकि आज की  राजनीति में प्रशांत जैसा विद्याव्यसनी -बुद्धिजीवी बहुत ही कम आ रहे हैं।
  पर, यदि यह कहते रहिएगा कि प्रशांत किसी दल को जिता-हरा देंगे तो ऐसा कह कर आप खुद प्रशांतं के साथ अन्याय करेंगे।
  फिर तो एक दिन उन्हें कोई नहीं पूछेगा।
क्योंकि उनकी विफलताओं की लिस्ट लंबी होने पर उन्हें कौन पूछेगा ?
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18 फरवरी 2020

      असहमति के अधिकार की आड़
     लेकर नहीं कर सकते राष्ट्रद्रोह 
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         --सुरेंद्र किशोर--
वाणी की स्वतंत्रता के नाम पर राष्ट्रद्रोहात्मक गतिविधियां नहीं चलाई जा सकतीं।
असहमति के अधिकार का दुरुपयोग करके टुकड़े-टुकड़े गिरोह को देश तोड़ने की अनुमति नहीं है।
 बहुलवादी समाज का बहाना बना कर आप देश में अराजकता नहीं पैदा कर सकते। 
   आप यदि राष्ट्रद्रोह की गतिविधि में संलिप्त नहीं हैं तो आपको कोई उस केस में आरोपी नहीं बना सकता।
  क्योंकि राष्ट्रद्रोह की परिभाषा सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में ही तय कर रखी है।
राष्ट्रद्रोह पर 1962 के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय
की कसौटी पर ही अदालतें नए मामलों को भी देखेंगी।
उस चर्चित केस का एक बार फिर अध्ययन कर लीजिए। 
26 मइर्, 1953 को बेगूसराय में एक रैली हो रही थी।
फाॅरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के नेता केदार नाथ सिंह रैली को संबोधित कर रहे थे।
रैली में सरकार के खिलाफ अत्यंत कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने कहा कि 
‘सी.आई.डी.के कुत्ते बरौनी में चक्कर काट रहे हैं।
कई सरकारी कुत्ते यहां इस सभा में भी हैं।जनता ने अंगे्रजों को यहां से भगा दिया।
कांग्रेसी कुत्तों को गद्दी पर बैठा दिया।
इन कांग्रेसी गुंडों को भी हम उखाड़ फेकेंगे।’
   ऐसे उत्तेजक व अशालीन भाषण के लिए बिहार की कांग्रेस सरकार ने केदारनाथ सिंह के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दायर किया।
केदारनाथ सिंह ने हाईकोर्ट की शरण ली।
हाईकोर्ट ने उस मुकदमे की सुनवाई पर रोक लगा दी।
बिहार सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई।
सुप्रीम कोर्ट ने आई.पी.सी.की राजद्रोह से संबंधित धारा  
को परिभाषित कर दिया।
  20 जनवरी, 1962 को मुख्य न्यायाधीश बी.पी.सिन्हा की अध्यक्षता वाले संविधान पीठ ने कहा कि 
‘देशद्रोही भाषणों और अभिव्यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है,जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा, असंतोष या फिर सामाजिक असंतुष्टिकरण बढ़े।’
 चूंकि केदारनाथ सिंह के भाषण से ऐसा कुछ नहीं हुआ था,इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह को राहत दे दी।
   याद रहे कि अब भी सुप्रीम कोर्ट केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार वाले जजमेंट पर कायम है।
        --सुरेंद्र किशोर --19 फरवरी 2020


मंगलवार, 18 फ़रवरी 2020


देश,काल और पात्र के अनुसार जयप्रकाश नारायण ने
कई बार अपने ही पिछले विचारों और कार्यनीतियों में परिवत्र्तन किए थे ।
  पर उस विचार परित्र्तन में कभी भी उनका निजी स्वार्थ   नहीं था।
 जीवन के प्रारंभिक काल में जेपी माक्र्सवादी थे।
बाद में महात्मा गांधी के साथ जुड़े।
महत्वपूर्ण साथियों से मिलकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनाई।
1942 में क्रांतिकारी आजाद दस्ता बनाया।
 आजादी के बाद कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को 
कांग्रेस से अलग किया।
सोशलिस्ट पार्टी बनी।
1952 के चुनाव अभियान का नेतृत्व किया।
बाद में सर्वोदय -भूदान के काम किए।
देश की तब की विषम स्थिति देखकर उन्होंने 1974-77 में बिहार आंदोलन का नेतृत्व किया।
   यानी देश,काल पात्र के अनुकूल जनहित में उन्होंने समय -समय तरह -तरह की भूमिकाएं निभाईं।
नेहरू के बुलावे के बावजूद वे कभी सत्ता में शामिल नहीं हुए।
मेरी समझ से ईमानदार लोगों को देश,काल पात्र यानी देशहित-जनहित की जरुरतों को देखते हुए अपनी भूमिका तय करनी चाहिए।
कोई जरुरी नहीं कि आप किसी दल से जुड़ें।
इस बात के आधार पर तय नहीं करनी चाहिए कि कुछ लोग मेरी भूमिका पर क्या सोचेंगे।
  आज देश की स्थिति विषम है।
बल्कि देश चैराहे पर है।
देश तोड़क शक्तियां इस बात पर अमादा हंै कि ‘‘अब नहीं तो कभी नहीं।’’
जब वे लोग अपनी भूमिका तय करके मरने -मारने पर उतारू हैं तो फिर इस देश की एकता-अखंडता की रक्षा के लिए भी असली संविधानवादियों को भी खुल कर सामने आना ही चाहिए।क्योंकि आज की परिस्थिति की यही मांग है।
पहले की अपनी किसी ‘‘बंदरमूठ टाइप’’ विचारधारा के कारण आज यदि आपको 
स्पष्ट लाइन लेने में दिक्कत हो रही है तो फिर तो आप मौजूदा इतिहास का हिस्सा बनने से वंचित रह जाएंगे। 
अंत में, एक ही शत्र्त है कि आप की किसी पहल के पीछे कोई निजी हित नहीं हो।
   ---सुरेंद्र किशोर-
   18 फरवरी 2020 


  

सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

टिकट बिक्री और मनि लाॅन्ड्रिंग के लिए 
ही सैकड़ों राजनीतिक दल अस्तित्व में 
    -- सुरेंद्र किशोर -
इस देश में कुल  2300 राजनीतिक दल हैं।
चुनाव आयोग के एक पूर्व प्रधान के अनुसार इनमें बड़ी संख्या फर्जी और कागजी दलों की है।
ये कागजी दल केवल मनी लांॅन्ड्रिंग के उद्देश्य से बनाए गए हैं।
  दलों का निबंधन तो चुनाव आयोग करता है,पर आयोग उनका निबंधन रद नहीं कर सकता।
  केंद्र सरकार इस संदर्भ में कानून बनाए तो चुनाव सुधार में मदद मिलेगी।
अब तो अनेक राजनीतिक दल टिकट बेचने के लिए ही अस्तित्व में हैं।
 खैर, चुनाव आयोग ने चुनाव सुधार के लिए 40 सुझाव केंद्र सरकार को दे रखे हंै।
वे दो दशकों से लंबित हैं।
  आश्चर्य है कि एक बेहतर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकल में में भी सुधार नहीं हो पा रहा है।
शायद अब सुप्रीम कोर्ट ही कुछ कर सके।
............फरवरी 2020


एक जानकारी यूं ही
....................................
1967 में साधारण सैलून में दाढ़ी बनाने 
का खर्च 20 पैसे ।
‘आर्यावत्र्त’ की कीमत तब 15 पैसे थी।
‘दिनमान’ 50 पैसे में मिलता था।
...............................
आज ‘हिन्दुस्तान’ का दाम चार रुपए है।
................
1966 के 100 रुपए के बराबर
 2020 के 5319 रुपए हैं।
.............................
सुरेंद्र किशोर 
फरवरी 2020

रविवार, 16 फ़रवरी 2020

गंगा नदी पर बिहार में निर्माणाधीन-प्रस्तावित -स्वीकृत पुलों का विवरण
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वैसे यह विवरण कुछ पुराना है।
इसमें कोई संशोधन हो तो बताएं ।
..............................................
कैसा रहेगा जिस दिन ये सारे पुल बन कर तैयार हो जांएगे !
..................................
पहले से उपलब्ध पुलों का विवरण इसमें नहीं है।
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1.-बक्सर में नया 2 लेन पुल --निर्माणाधीन
2.-आरा-छपरा 4 लेन --   यातायात चालू
3.-शेर पुर -दिघवारा-6 लेन--डीपीआर प्रक्रियाधीन
4.-जेपी सेतु के समानांतर--डीपीआर प्रक्रियाधीन
5.-गांधी सेतु के समानांतर -- स्वीकृत
6-कच्ची दरगाह-बिदुपुर-  निर्माणाधीन
7.-बख्तियारपुर-ताजपुर --निर्माणाधीन
8-औटा-सिमरिया पुल-निर्माणाधीन
9.-मुंगेर घाट पुल--रेलवे यातायात चालू
                  सड़क निर्माणाधीन
10.-सुलतान गंज-खगडि़या--निर्माणाधीन
11.-विक्रमशिला सेतु के समानानंतर--प्रस्तावित
12.-मनिहारी-साहेब गंज--भूअर्जन प्रक्रियाधीन 
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सुरेंद्र किशोर 
16 फरवरी 2020


जो पुलिस और थानों को ठीक कर दे वह जीत सकता है तीन चुनाव--सुरेंद्र किशोर
मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल ने सरकारी अस्पतालों और विद्यालयों आदि को बेहतर बना कर दो चुनाव जीते लिए।
पर, इस देश की कोई राज्य सरकार यदि पुलिस थानों को बेहतर बना दे तो 
वह सिर्फ इसी ‘पुण्य’ के आधार पर लगातार
 तीन चुनाव जीत सकती है !
  याद रहे कि ‘आप’ ने दिल्ली का पहला विधान सभा चुनाव भ्रष्टाचार के विरोध में जारी अन्ना आंदोलन के कारण जीता था।
अपवादों को छोड़ कर देश भर के पुलिस थानों के बारे में यह आम धारणा है कि शरीफ लोगों को थानों में जाने से डर लगता है।
क्योंकि पुलिस जनता की दोस्त नहीं है जैसा यूरोप के देशों में है।मजबूरी में ही लोग वहां जाते हैं।
जबकि, वहां जनता से मिले टैक्स के पैसों से वेतन पाने वाले लोग ही वहां बैठते हैं।
दूसरी बात यह कि अपवादों को छोेड़कर पुलिस थानों में बिना पैसा कोई काम नहीं होता।
 वैसे मेरा मानना है कि इसके लिए सिर्फ थाना और थानेदार ही जिम्मेदार-कसूरवार  नहीं है।
  ऊपर से ही ऐसा कोई प्रयास नहीं है कि थानों को जनता का सेवक -रक्षक बनाया जाए।
  टाटा इंस्टिट्यट और सोशल साइंस,मुुम्बई के एक छात्र को अपने शैक्षणिक काम के सिलसिल में वहां के  एक थाने में लगातार एक माह तक जाना पड़ा था।
उसने मुझे बताया कि उस थाने में सरकार कार्बन -कागज जैसी बुनियादी सुविधाएं तक नहीं देती।
संभवतः फंड बीच में कहीं अटक जाते हैं जिसे बड़ी मछली गटक जाती है।थानों को कह दिया जाता है कि अपने प्रभाव का इस्तेमाल करो।
‘चंदा’ वसूल कर थाना चलाओ।
क्या यह सही है ?
इसकी निष्पक्ष जांच होनी  चाहिए। 
जब पेट्रोलिंग के लिए भी सरकार की ओर से पर्याप्त साधन थानों को नहीं मिलते तो चंदा किस विधि से जुटाया जाता होगा,उसकी कल्पना कर लीजिए।
  यह सब नाजायज तरीके से थानेदार जुटाता है।जब थाना चलाने के लिए जुटाएगा तो अपने लिए भी क्यों नहीं उसमें से बचाएगा ?यह सब कानून -व्यवस्था की कीमत पर ही तो संभव है।
ऐसा महाराष्ट्र,उत्तर प्रदेश,बिहार पश्चिम बंगाल हर जगह हो रहा है।
    इस तरह के अनेक उदाहरण है।थानों की कार्य शैली की जांच के लिए निष्पक्ष जांच हो,तो बहुत सारे खुलासे होंगे।
पुलिसकर्मियों की  शिकायतेंे  और उनके खिलाफ शिकायतों का समुचित उपचार हो।
  इस तरह थानों को जो राज्य सरकार सुधारेगी ,उस सरकार को चलाने वाले दल पर मतों की बरसात हो जाएगी।
 थाने और राजस्व अंचल कार्यालय सरकारोंं की आंख-कान-खिड़की   हैं।
जनता का उनसे सीधे पाला पड़ता है।कोई अच्छी सरकार यह नहीं चाहेगी कि उनकी सरकार की ये खिड़कियां जनता की ओर खुलं ही नहीं।
 --दिल्ली चुनाव के बाद 
बिहार को लेकर अटकलें--
दिल्ली के बाद अब बिहार विधान सभा चुनाव को लेकर अटकलों का बाजार गर्म है।
स्वाभाविक ही है।
पर अनुमान छह अंधों और हाथी की कहानी की तरह ही हैं।
बिहार में स्थिति स्पष्ट है।
मोटी -मोटी बातोें में सच्चाई छिपी  है।
राज्य में मुख्यतः तीन राजनीतिक शक्तियां हैं।राजद,जदयू और भाजपा।
इनमें से कोई दो एक साथ आ गए तो तीसरे के लिए सत्ता की गुंजाइश समाप्त हो जाती है।
अभी जद यू और भाजपा साथ -साथ है।इसके अलग होने की कोई संभावना नहीं दिखाई पड़ती।
अमित शाह भी कह चुके हैं कि बिहार में राजग नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगा।इसलिए नेतृत्व पर भी कोई विवाद नहीं होना है।
  हां,  खास -खास सीटों के बारे में सूचनाएं पाने के लिए लागबाग उत्सुक जरूर रहेंगे।
  याद रहे कि मौजूदा बिहार विधान सभा का कार्यकाल नवंबर, 2020 में पूरा हो रहा है। 
--राजद के कुछ सकारात्मक कदम--
अपने संगठन को लेकर राजद ने हाल में कुछ सकारात्मक कदम उठाए हैं।
दल का दावा है कि ‘‘हम ए. टू जेड’’हैं यानी  सबके लिए हैं।
याद रहे कि लालू प्रसाद पहले यह कहते नहीं थकते थे कि हमारा एम.वाई समीकरण है।
2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में तो राजद सुप्रीमो ने यह भी कह दिया था कि यह लड़ाई अगड़ों और पिछड़ों के बीच है।
बीच में राजद ने संसद में पेश सामान्य वर्ग आरक्षण विधेयक का विरोध करके बड़ा राजनीतिक खतरा मोल ले लिया।
उसका नतीजा यह हुआ कि 2019 के लोक सभा चुनाव में राजद को एक भी सीट नहीं मिल सकी ।
  चलिए,
अच्छा हैं।
अपने अनुभवों से सीख कर राजद का एम.वाई. अब  ए.टू.जेड.तक पहुंच गया है।
पर राजनीतिक प्रेक्षकोें के अनुसार राजद को उसका इतिहास इतनी जल्दी पीछा छोड़ देगा,यह कहना कठिन है।
अभी उसे और लंबी यात्रा तय करनी होगी।
हां,पिछले महीनों राजद का एक और सकारात्मक पक्ष सामने आया।
प्रदर्शन के दौरान आम गरीबों  की संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले नेताओेें पर भी पार्टी ने कार्रवाई की।
      --और अंत में-
  पटना में लोगों को डुबोने वाले अफसरों के खिलाफ बिहार सरकार ने वैसी ही कार्रवाई की है जिसके वे काबिल  हैं।
उम्मीद है कि यह शुरुआती कार्रवाई अपनी तार्किक परिणति तक भी पहुंचेगी।
उधर मुजफ्फर पुर बालिका गृह उत्पीड़न कांड में अदालती सजा भी सबक सिखाने वाली है।
 इस देश और प्रदेश में इस तरह की सख्त कार्रवाइयांें के बिना  आम लोगों का सिस्टम पर से कैसे बढ़ेगा ?
--कानोंकान-प्रभात खबर-पटना-14 फरवरी 20 
  



नार्को टेस्ट को लेकर ठोस कानून के बिना सजा का प्रतिशत बढ़ना मुश्किल-सुरेंद्र किशोर   
22 मई, 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘‘आरोपी या फिर संबंधित व्यक्ति की सहमति से ही उसका नार्को एनालिसिस हो सकता है।
किसी की इच्छा के खिलाफ उसका ब्रेन मैपिंग नहीं हो सकता।
पाॅलीग्राफ टेस्ट के बारे में भी यही बात लागू होगी।’’
  इस जजमेंट से खास तरह की स्थिति पैदा हो गई है।
अभियोजन पक्ष के सामने कई बार बेबसी रहती है।
गवाह कम मिलने पर नार्को टेस्ट की रपट काम आ सकती है।
हाल में एक जघन्य अपराध के मामले में अदालत इस आधार पर जमानत दे दी कि एक ही गवाह ने इनके खिलाफ गवाही दी है।
पटना के चर्चित शिल्पी-गौतम हत्याकांड में आरोपी ने डी.एन.ए.जांच के लिए अपने खून का नमूना देने से मना कर दिया था।
इस पृष्ठभूमि में केंद्र सरकार को चाहिए कि वह इस आदेश को बदलने की सुप्रीम कोर्ट से पहले गुजारिश करे।
  यदि सुप्रीम कोर्ट अपना  निर्णय  बदलने को तैयार नहीं हो, तो इस संबंध में संसद कानून बनाए।
साथ ही, उसे नवीं अनुसूची में डाल दे।
  नवीं अनुसूची में डाल देने पर उस कानून को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकेगी।
ऐसा कानून बने जिसके तहत जांच एजेंसी जरुरत समझने पर किसी आरोपी का नार्को आदि टेस्ट करवा सके।आरोपी की अनिच्छा बाधक न बने।
यह कानूनी- व्यवस्था भी हो कि उसे कोर्ट भी साक्ष्य के रूप में स्वीकारे।
 याद रहे कि ऐसी जांचों के अभाव में न जाने कितने खूंखार अपराधी और राष्ट्रद्रोही सजा से बच जा रहे  हैं।
याद रहे कि इन दिनों अपराधियों में राष्ट्रविरोधी तत्व भी अच्छी-खासी संख्या में हैं।
 जानकार लोग बताते हैं कि नार्को टेस्ट के अभाव में भी इस देश में सजा का प्रतिशत नहीं बढ़ रहा है।
  यह अच्छी बात है कि बिहार सरकार ने गवाहों की सुरक्षा के लिए ठोस कदम उठाने की घोषणा की है।किन्तु  वही काफी नहीं है।
जांच का तरीका भी बदला जाना चाहिए।
  क्योंकि अपराध के तरीके भी समय के साथ बदलते जा रहे हैं।
   --  सजा की दर चिंताजनक--
साठ के दशक में अपने देश में 65 प्रतिशत आरोपितों को अदालतों से सजा मिल जाया करती थी।
  पर सत्तर के दशक से राजनीति और प्रशासन में जो गिरावट शुरू हुई,उसका सीधा असर आपराधिक न्याय व्यवस्था पर पड़ा।
आज अपने देश में सौ में से 73 बलात्कारी अदालती सजा से साफ बचा लिए जाते हैं।
 सौ में से 64 हत्यारे सजा से बच जाते हैं।
बिहार में तो 98 प्रतिशत आरोपित हत्यारे सजा से बच जाते हैं।
आम अपराध में इस देश में सिर्फ 46 प्रतिशत आरोपितों को ही कोर्ट से सजा हो पाती है।
बिहार में आम अपराध के आरोपितों में से 90 प्रतिशत 
आरोपितों को कोई सजा नहीं होती।पश्चिम बंगाल में  ग्यारह प्रतिशत अपराधियों को ही सजा हो पाती है।
दूसरी ओर, जापान में सजा की दर 99 है तो अमेरिका में 93 है।
  बिहार के लिए यह अच्छी बात होगी  कि 
यहां गवाहों को सरकारी सुरक्षा देर -सवेर मिलने लगेगी।
पर साथ ही नार्को टेस्ट आदि के बारे में कानून बने तो सजा
की दर बढ़ेगी।
  --प्लास्टिक कूड़े से सड़क-निर्माण--
सन 2015 में केंद्र सरकार ने प्लास्टिक कूड़े को अन्य सामग्री में मिलाकर 
सड़क बनाने का निदेश सड़क निर्माताओं को दिया था।
उसका अच्छा असर हुआ है।
खबर है कि इस विधि से देश के 11 राज्यों की एक लाख किलोमीटर सड़कों का निर्माण हो रहा है।
यह पता नहीं है कि इनमें से कितनी सड़कें बन कर तैयार हो गर्इं और कितनी अब भी निर्माणाधीन है।
ताजा खबर यह है कि महाराष्ट्र के रायगढ में रिलायंस कंपनी ने 40 किलोमीटर सड़क प्लास्टिक कूड़े की मदद से बनवाई है।
  प्लास्टिक कूड़े से बनने वाली सड़क न सिर्फ टिकाऊ होती है,बल्कि उस पर खर्च भी अपेक्षाकृत कम आता है।
 उधर प्लास्टिक को नष्ट करने की समस्या भी कम होती है।
           --और अंत में--
कभी भाजपा के ‘‘थिंक टैंक’’ रहे के.एन.गोविंदाचार्य का 
मानना है कि भाजपा को झारखंड में उबारने के लिए 
पूर्व मुख्य मंत्री बाबूलाल मरांडी बेहतर विकल्प होंगे।
चलिए,अब भी गोविंद जी को भाजपा से हमदर्दी है।
ऐसा कम ही होता है।
...........................
-- प्रभात खबर, पटना-31 जनवरी 20


शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2020

विचारों में ऐसी भारी समरुपता के
 पीछे का क्या है रहस्य ? !!!!
.............................................
सुरेंद्र किशोर 
.............................
 इस लोकतंत्र में एक खास संप्रदाय के करीब 90 
प्रतिशत लोग खास मुद्दे पर एक ही तरह से सोचते 
और करते हैं।
एक खास जाति के 95 प्रतिशत लोग खास मुद्दे पर 
एक ही तरह से सोचते और करते हैं।
और 
एक खास विचारधारा के 99 प्रतिशत लोग खास मुद्दे
पर एक ही तरह से सोचते और करते हैं।
किंतु
...........
देश में उन्हें ‘अपनी’ करने के लिए खुला-छुट्टा 
माहौल चाहिए।
सामाजिक न्याय के कार्यान्वयन के लिए सबका सहयोग -सौहार्द चाहिए।
और
 संविधान के नाम पर वाणी की बेलगाम स्वतंत्रता 
भी चाहिए।
...................
अरे भई, बहुसंख्य आबादी को नाराज करके यह सब कब तक चला पाओगे ?  
---13 फरवरी 2020

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020

मेरे गांव में अब
आॅप्टिकल फाइबर के जरिए जल्द ही
लैंड लाइन,नेट,टी.वी.चैनल,सुरक्षा सिस्टम आदि
की सुविधाएं मिलंेगी
....................................
मेरे तकनीकी मार्ग दर्शक व फोटो जर्नलिस्ट विक्रम कुमार 
वर्षों से आॅप्टिकल फाइबर के जरिए इन सुविधाओं की आहट  मुझे देते रहे थे।
अब साकार हो रहा है।
वह भी गांव-गांव  तक !
सुखद आश्चर्य ! ! 
................................... 
अब हम चाहेंगे तो हमारे घर के सी.सी.टी.वी.कैमरे स्मार्ट फोन से जुड़ जाएंगे
........................................
फोन में आवाज बीच में कटेगी नहीं।
स्पष्ट होगी।
........................
 मोबाइल वाले रेडिएशन का खतरा लैंड लाइन में नहीं रहेगा।
नेट की स्पीड काफी बढ़ जाएगी।
एक घर में तीन टी.वी.सेट को केबुल कनेक्शन मिलेंगे।
पिक्चर साफ रहेगी।
केबल आपरेटर के अनुसार दो -तीन दिनों में सुविधाएं मिलने की उम्मीद है।
यह कहानी तो पटना एम्स के पास वाले  मेरे गांव की है।
सुनते हैं कि सारण जिले के मेरे पुश्तैनी गांव में भी यह सेवा पहुंचने में अब देर नहीं लगेगी।यानी राज्य के अन्य गांवों में भी सुविधा मिलेगी।
शहर से भागने का नुकसान कम होगा।
शहर ही आपके पास पहुंच रहा है।  
  करीब पांच साल पहले जब मैंने मुख्य पटना को छोड़कर 
कोरजी गांव आया था तो  कुल मिलाकर यह सिर्फ गांव ही गांव था।
  पर, एक -एक कर अब ऐसी सुविधाएं आती जा रही हंै जो जीवन आसान करती जाएंगी।
मेरे घर से मात्र दो किलोमीटर दूर स्थित पटना एम्स 2016 में चालू हो गया।
इस गांव में एक अपार्टमेंट बन गया।
लोग रहने लगे।
मशहूर जयपुरिया स्कूल यहां स्थापित हो गया।
अब आॅप्टिकल फाइबर के आगमन का इंतजार है !!
पास में ही आर्यभट्ट का जन्म स्थान है।
यह सब उनको शानदार श्रद्धांजलि है।
.......................
--सुरेंद्र किशोर --13 फरवरी 2020

बुधवार, 12 फ़रवरी 2020

   दिल्ली की जनता ‘आप’ को सिर्फ विधान
    सभा के ही ‘लायक’ क्यों मानती है ?
     ‘आप’ लोक सभा के लिए ‘नालायक’ क्यों ?
       --सुरेंद्र किशोर--
    सिर्फ नौ माह पहले लोक सभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को मात्र 18 प्रतिशत दिल्लीवासियों ने वोट दिए थे।
पर, हाल के विधान सभा चुनाव में ‘आप’ को करीब 54 प्रतिशत मत मिले।
  इससे पहले 2013 में भी लोगों ने अरविंद केजरीवाल को 
मुख्य मंत्री बनाया।
पर, कुछ ही महीने बाद हुए लोक सभा चुनाव में भाजपा को दिल्ली की सारी सीटें मिल गईं।
आगे के चुनावों में भी ऐसा ही होता रहेगा,ऐसे संकेत हैं।
 आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ?
दरअसल इन दिनों इस देश के खिलाफ अघोषित युद्ध जारी है।
उस युद्ध में इस देश के भी कुछ लोग विदेशी श्क्तियों के जाने- अनजाने मददगार बने हुए हंै।
स्थिति बहुत ही खतरनाक है जिसे कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा  छिपाने की कोशिश हो रही है।
 पर आम जनता इस स्थिति को समझ रही है।
इस पृष्ठभूमि में दिल्ली की जनता आंतरिक और बाह्य सुरक्षा को लेकर ‘आप’ पर भरोसा नहीं कर सकती।
इस स्थिति से मोदी सरकार ही निपट सकती है।निपट भी रही है।पर उसके सामने देश के भीतर से ही भारी बाधाएं भी खड़ी की जा रही हैं।
यदि मोदी सरकार निपटने में अंततः विफल होगी तो इस देश में देर सवेर चीन जैसी सरकार बन जाने की आशंका है।
आपने भी देख ही लिया।
मनीष सिसोदिया ने शाहीन बाग का समर्थन कर दिया।
  केजरीवाल सरकार ने जेएनयू राष्ट्रद्रोह मुकदमे में अभियोजन चलाने की अनुमति आज तक नहीं दी।
पर केजरीवाल सरकार ने दिल्ली की जनता के लिए ऐसे अच्छे -अच्छे काम किए जो अभूतपूर्व हैं।
आप के अधिकतर नेताओं ने भरसक निजी ईमानदारी भी बनाए रखी।
 दूसरी ओर, खबर है कि दिल्ली भाजपा में अपवादों को छोड़ कर ईमानदार व कत्र्तव्यनिष्ठ नेताओं -कार्यकत्र्ताओं की  कमी रही है।
लोगों के लिए स्कूल-अस्पताल को ठीक करने के लिए भी कठोर ईमानदारी चाहिए।
जिस दिन ‘आप’ अपना राष्ट्रद्रोही समर्थक रुझान छोड़ देगी,उस दिन दिल्ली की जनता यह समझ लेगी कि अब यह  दल भी लोक सभा में जाने लायक हो गया।
उधर यदि एम.सी.डी. में भाजपा ईमानदारी से काम करने लगेगी तो उसे दिल्ली विधान सभा ‘लायक’ भी समझा जा सकता है।
.........................................  
12 फरवरी 2020
    
  

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2020

‘‘ताजा तरीन किताब है वी.पी.मेनन, द अनसंग आर्किटेक्ट
आॅफ माडर्न इंडिया।
उसे उनकी पोती नारायणी बसु ने लिखा है।
इसमें तमाम दस्तावेजी प्रमाणों के साथ कहा गया है कि
नेहरू ने पटेल को पहली कैबिनेट के सदस्यों की सूची से बाहर रखा था।
वह इस पर तब राजी हुए, जब माउंटबेटन ने हस्तक्षेप किया।’’
  --शेखर गुप्त ,दैनिक भास्कर 11 फरवरी 2020 
 मैंने कहीं पढ़ा था कि महात्मा गांधी की सिफारिश के बावजूद नेहरू राज कुमारी अमृत कौर को मंत्रिमंडल में शामिल करने के लिए तैयार नहीं थे।
बाद में गांधी ने नेहरू को मनाया।
   राजेंद्र प्रसाद पहले मंत्रिमंडल में थे।
पर नेहरू को यह पसंद नहीं था।
उन्होंने गांधी से शिकायत करके उन्हें मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिलवा दिया था।
  यह बात संभवतः नेहरू के निजी सचिव एम.ओ.मथाई ने लिखी है।
--सुरेंद्र किशोर ,11 फरवरी 2020

सरकारी स्कूल,अस्पताल और थाने ठीक करो !!
         --सुरेंद्र किशोर--
 इन दिनों एग्जिट पोल के रिजल्ट आम तौर
 पर सही साबित होते हैं।
 इस बार भी सही हुए तो दिल्ली में ‘आप’ की सरकार 
फिर बनेगी।
 इस जीत का सबसे बड़ा कारण होगा स्कूलों में बेहतर पढ़ाई और अस्पतालों में पूरी दवाई !!
ऐसा नहीं है कि ‘आप’ सरकार में भ्रष्टाचार नहीं है।
पर उतना नहीं जितना अन्य अधिकतर राज्यों में है।
   पिछले विधान सभा चुनाव में जब ‘आप’ की जीत हुई
थी तो राहुल गांधी ने कहा था कि हम ‘आप’ से सीखेंगे।
पर क्या सीखेंगे ? !!!
उनकी किसी राज्य सरकार ने इन दो क्षेत्रों में वैसा काम नहीं किया।
 सीखने की अब वैसे भी राहुल की उम्र है नहीं !!
 पर, भाजपा तो सीख ही सकती है।
 यदि स्कूलों-अस्पतालों को लेकर महाराष्ट्र,हरियाणा और झारखंड की भाजपा सरकारों ने जरुरत के अनुसार काम किया होता तो उनके चुनावी रिजल्ट बेहतर होते।
  पर लगता है कि इसके लिए भाजपा को अपने बीच के भ्रष्टाचारियों पर नकेल कसनी होगी।
पर सवाल है कि क्या वह कर पाएगी ?
जब ज्योति बसु नहीं कर पाए तो देखना है कि भाजपा कर पाती है या नहीं  !!
   आज देश में सरकारी स्कूल,अस्पताल और पुलिस थानों को शीघ्र सुधार देने की सख्त जरूरत है।
   ---सुरेंद्र किशोर--10 फरवरी 2020

  भाजपा सबक ले सकती है
....................................
सन 2013 में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा था कि 
कांग्रेस पार्टी ‘आप’ से सबक लेगी।
 पर, उन्हें न तो कोई शिक्षा लेनी थी, न ली।
शिक्षा लेने में उनका ही नुकसान है।
कई कारणों से कांग्रेस ने खुद को सुधारने की क्षमता बहुत पहले ही खो दी।
कांग्रेस की राजनीति को सेवा की राजनीति बना देना कोई आसान काम है क्या ?
  खैर, भाजपा तो सबक ले ही सकती है।
क्योंकि भाजपा में भ्रष्टाचारी अपेक्षाकृत कम हैं।
महा घोटालेबाज तो नजर ही नहीं आते जिस तरह मन मोहन राज में आते थे। 
  अरविंद केजरीवाल को दिल्ली की जनता ने सिर्फ चेहरा देख कर नहीं जिताया है।
उनकी मंशा और सेवा के क्षेत्र में उनकी सरकार की उपलब्धि को देख कर तीसरी बार जिताया है।
जिस तरह देश की जनता
नरेंद्र मोदी की मंशा को सही मानती है।
  यदि भाजपा की राज्य सरकारें केजरीवाल सरकार की तरह ही अपनंे यहां के कम से कम स्कूलों व अस्पतालों के क्षेत्र में बेहतर काम करे तो उसके लिए अब कोई ‘‘झारखंड’’ नहीं दुहराएगा।
   आश्चर्य है कि पटना में बैठ कर हम तो लगातार रघुबर सरकार की गड़बडियों के बारे में सुनते रहे,पर  भाजपा हाईकमान को भनक तक नहीं लगी  !! ?
उसका निगरानी तंत्र कमजोर है।
   केजरीवाल सरकार के देशद्रोही जैसे दो कामों के बावजूद लोगों ने यदि ‘आप’ को जिताया तो इसलिए कि सेवा-कल्याण-विकास  क्षेत्र में उसके काम लाजवाब रहे ।
   लोगों ने देखा कि भाजपा या कांग्रेस में ऐसे ईमानदार नेता  कार्यकत्र्ता की भारी कमी है जो सेवा व कल्याण-विकास के क्षेत्र में ‘आप’ का मुकाबला कर सकंे।
सत्ता में आने के बाद जो खुद अपना घर भरने में लग जाएगा,वह संेवा क्या खाक करेगा !!
............................
‘आप’ के राष्ट्रद्रोही जैसे काम
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1.-मनीष सिसोदिया ने खुद स्वीकारा है कि हमारे चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं ने मुझसे सवाल किया  कि आपने शाहीनबाग का समर्थन क्यों किया ?आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था।
2.-फरवरी, 2016 में जेएनयू परिसर में राष्ट्र विरोधी नारों के मामले में दिल्ली पुलिस ने तो कोर्ट में आरोप पत्र दाखिल कर दिया,किंतु केजरीवाल सरकार ने आज तक अभियोजन चलाने की अनुमति तक नहीं दी। 
.    --सुरेंद्र किशोर--11 फरवरी 2020
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निकलने लगीं हैं ढकी-छुपी बातें
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एक ताजा किताब से यह बात सामने आई कि जवाहर लाल नेहरू अपने प्रथम मंत्रिमंडल में सरदार पटेल को शामिल करने के पक्ष में ही नहीं थे।
  इससे पहले भी बारी -बारी से कई ढकी-छुपी बातें सामने आती रही हैं।
रामचंद्र गुहा सहित अनेक  लेखकों  ने लिखा कि इंदिरा गांधी को राजनीति में आगे बढ़ाने में नेहरू का कोई हाथ नहीं था।
पर जब महावीर त्यागी-जवाहरलाल नेहरू पत्र -व्यवहार सामने आया तो सच्चाई का पता चल गया।
  नेहरू ने 1 फरवरी, 1959 को  त्यागी को लिखा था कि ‘‘इस वक्त उसका कांग्रेस अध्यक्ष बनना मुफीद भी हो सकता है।’’
  मोतीलाल पेपर्स के अनुसार मोतीलाल नेहरू ने अपने बाद 1929 में जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के लिए गांधी को तीन चिट्ठियां लिखीं।
पहले दो चिट्ठियों पर गांधी राजी नहीं हुए थे।
तीसरी पर मान गए।
 अब कांग्रेस की आज की दयनीय स्थिति पर नजर डालिए।
पचास-साठ के दशकों की कांग्रेस से उसकी तुलना कीजिए।
उसकी अवनति में वंशवाद का कितना योगदान है ?
किसी नेता के योग्य पुत्र को पद देना बुरा नहीं है।
पर किसी वंश में यह परंपरा ही डाल दी जाए कि योग्य हो या न हो, उसी वंश का व्यक्ति प्रधान बनेगा तो उसका खामियाजा भी भुगतना ही पड़ेगा।
  स्थानीय कारणों से कांग्रेस भले कुछ राज्यों में चुनाव जीत जाए, पर राष्ट्रीय स्तर उसका कोई हस्तक्षेप बचा भी है ?
   बातें छुपाने का एक प्रयास कुछ साल पहले भी हुआ था।
वामपंथी लेखक की एक किताब आई जिसमें लिखा गया कि इस देश की राजनीति में वंशवाद की परंपरा सिंधिया परिवार ने डाली।
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---सुरेंद्र किशोर--11 फरवरी 2020

कई नेहरू भक्त इन दिनों यह लगातार लिख रहे हैं कि नेहरू का पटेल से बहुत अच्छा संबंध था।
  उनक पास इस बात का क्या जवाब है कि नेहरू पटेल को अपने मंत्रिमंडल से भी दूर रखना चाहते थे ?
   गांधी जी ने 20 अप्रैल 1946 को ही यह साफ कर दिया था कि जवाहर लाल प्रधान मंत्री होंगे।
इसके बावजूद 29 अप्रैल को 15 में से 12 प्रदेश कांग्रेस कमेटियों ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए पटेल के पक्ष में राय भेजी।
तय था कि कांगेस अध्यक्ष को ही सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाएगा।
   गांधी ने पटेल से कहा कि आप अपना दावा छोड़ दीजिए।
उन्होंने छोड़ दिया।
गांधी ने जवाहर लाल को अध्यक्ष बनवा दिया।
गवर्नर जनरल ने उन्हें सरकार बनाने के लिए बुलाया।  
यही लोकतंत्र था गांधी-नेहरू का !!!
सुरेंद्र किशोर--11 फरवरी 2020 

रविवार, 9 फ़रवरी 2020

   अमेरिका,चीन ,जर्मनी और जापान कौन कहे,यहां तक 
कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगला देश में भी
नागरिकता रजिस्टर और नागरिकता कार्ड का 
प्रावधान  है।
लोगों को दिए गए हैं।
  पर, भारत में कुछ लोगों को एन.आर.सी. किसी भी कीमत पर मंजूर  नहीं  है !!
क्यों भाई ?
इसलिए कि एन. आर. सी. विरोधी मुसलमानों के लिए भारत कोई देश नहीं, बल्कि मात्र धर्मशाला है।
इस देश में जनसंाख्यिकी बदलाव की प्रक्रिया अभी जारी है।
जब प्रक्रिया पूरी हो जाएगी
 तो फिर यहां भी एन.आर.सी.बन जाएगा।
इधर इस देश के नकली सेक्युलर दलों के लिए देश से अधिक महत्वपूर्ण वोट बैंक है।
--सुरेंद्र किशोर --9 फरवरी 2020
  

शनिवार, 8 फ़रवरी 2020

अपनी बागवानी की यह कहानी मैं लिखने ही वाला था कि अमित ने बाजी मार ली।
यानी ,बेटा बाप से आगे निकल गया।
अच्छा ही हुआ।
पर, इस मामले में  सबसे आगे तो मेरी पोती रही।
 वह महत्वपूर्ण बात अमित उर्फ गुड्डन से छूट ही गई।
 इस फल का नामकरण भी हो चुका है।
  यू.के.जी. में पढ़ रही गुड््न की बेटी आद्या से एक दिन मैंने पूछा कि यह तो अजीब फल है।इसमें नींबू और संतरा दोनों के गुण हैं।
  इसका क्या नाम रखा जाए ?
उसने एक क्षण देर किए कह दिया-
-‘नीसंत !!’
यानी नींबू प्लस संतरा।



    सूचना के अधिकार का इस्तेमाल आप भी करें
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समाज सेवी राघवेंद्र नारायण सिंह उर्फ आर.एन.सिंह ने आर.टी.आई. के जरिए इस इलाके के संबंध मंें एक महत्वपूर्ण जानकारी गत माह सोन नहर प्रमंडल से  हासिल की है।
  यह प्रमंडल बिहार सरकार के सिंचाई विभाग के तहत पड़ता  है।
  बिहार के पटना जिले के फुलवारीशरीफ अंचल 
के सुन्दर नगर ,कोरजी मोहम्मद पुर निवासी श्री सिंह को बताया गया है कि जमालुद्दीन चक से नकटी भवानी सड़क के निर्माण कार्य का स्पेशिफिकेशन यानी पूर्ण विवरण क्या है।
याद रहे कि इसी इलाके में पास में ही पटना एम्स अवस्थित है।
   सिंचाई विभाग के सोन नहर प्रमंडल,खगौल  के अंतर्गत स्थित साढ़े तीन किलोमीटर लंबी इस सड़क के निर्माण का टेंडर प्रक्रिया में है।
इस पर लगभग लगभग 4 करोड़ 79 लाख रुपए खर्च आने कव अनुमान है।
 गत 21 जनवरी, 2020 को श्री सिंंह को लिखी चिट्ठी में कार्यपालक अभियंता ने सूचित किया है कि फरवरी -मार्च में निर्माण का काम शुरू हो जाएगा।
   ई.अनिल कुमार शर्मा के अनुसार स्पेशिफिकेशन का विवरण इस प्रकार है--
 जी.एस.बी.- 365 एम एम 
डब्ल्यू एम एम -225 एम एम 
डी बी एम -50 एमएम 
एस.डी.बी.सी.-25 एम एम
  इस तरह राघवेंद्र नारायण सिंह के प्रयास से इस महत्वपूर्ण सड़क के पुनर्निर्माण से संबंधित अनिश्चितता अब दूर हो गई है।
 एक पत्रकार के इलाकावासी  होने के कारण यहां के लोगबाग अक्सर  इस सड़क की लगातार दुर्दशा और भारी मरम्मत में देरी का कारण मुझसे पूछते रहते थे।
  राघवेंद्र जी के सहयोग से उन लोगों की जिज्ञासा का जवाब अब मिल गया है।
  सूचना का अधिकार कानून यानी आर.टी.आई.आम लोगों के लिए एक अच्छा साधन है ।
उसी के इस्तेमाल से यह संभव हुआ है।
अब यहां के लोगों की इच्छा है कि यह सड़क जब भी बने मजबूत बने।
क्योंकि यह छोटी जरूर है,पर दो एन.एच.को आपस में 
जोड़ती  है।
मरीजों को एम्स तक पहुंचने के लिए यह भी प्रमुख फीडर रोड  है।
--सुरेंद्र किशोर--7 फरवरी 2020



शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2020

पाक से लौट कर सबक दे गए सज्जाद 
जहीर और जोगेंद्र नाथ मंडल !
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यदि  सीखना चाहते हों 
तो अब भी समय है !!
हालांकि अब समय काफी कम है।
 --सुरेंद्र किशोर--
जो कुछ बातें आजादी के बाद हमसे भरसक छिपाई गई हैं,उनमें जोगेंद्र नाथ मंडल और सज्जाद जहीर की कहानियां भी शामिल हैं।
दैनिक जागरण को धन्यवाद कि आज उसने नई पीढ़ी को अपने देश की भाषा में मंडल की कहानी लिख ही दी।
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  सज्जाद जहीर की संक्षिप्त  कहानी 
इसी के साथ मेरी ओर से पेश है 
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पाक के पहले कानून मंंत्री 
जिन्हें लौटना पड़ा था भारत
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भारत-पाकिस्तान  का विभाजन बीती बात हो चुकी है।
लेकिन तुलनात्मक रूप से देखें तो पाकिस्तान आज भारत से पीछे है।
यह कुंठा पाकिस्तानी राजनेताओं के बयानों और आतंकी कार्रवाइयों के जरिए समझ में  भी आती है।
  पाकिस्तान ने लोगों को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया और फिर उन्हें छोड़ दिया। 
चाहे फिर वो पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री जोगेंद्र नाथ मंडल ही क्यों न हो।
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर जवाब देते हुए अपने संबोधन में जोगेंद्र नाथ मंडल का जिक्र किया।
जिज्ञासा जरूर पनपती है कि कैसे एक दलित शख्स पाकिस्तान कव पहला कानून मंत्री बना और फिर कैसे उन्हें वापस भारत लौटना पड़ा।
 शुरुआती जीवन
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जोगेंद्र नाथ मंडल का जन्म 29 जनवरी, 1904 को नामसुंद्रा दलित समाज में अविभाजित बंगाल में हुआ था।
शुरुआती जीवन में उन्हें छुआछूत का सामना करना पड़ा।
उनका राजनीतिक जीवन बंगाल में अनुसूचित जातियों के नेता के रूप में शुरू हुआ।
वे 1937 में बंगाल विधान सभा के लिए चुने गए।
बाद में मंत्री बने।
हालांकि कांग्रेस से मोहभंग होने के बाद वे मुस्लिम लीग से जुड़े।
  पाकिस्तान में योगदान
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जोगेंद्र नाथ मंडल उन प्रमुख व्यक्तियों में थे जिन पर मुहम्मद अली जिन्ना को काफी विश्वास था।
 वे उन प्रमुख व्यक्तियों में एक थे जिन्होंने पाकिस्तान को आधुनिक व विकसित करने का ख्वाब देखा था।
वे पाकिस्तान के पहले कानून अैर श्रम मंत्री रहेे।
 साथ ही वे राष्ट्रमंडल और कश्मीर मामलों के दूसरे मंत्री थे।
लीग के लिए उनका समर्थन इस विश्वास से उपजा था कि भारत में जवाहरलाल नेहरू या महात्मा गांधी की तुलना में जिन्ना के धर्म निरपेक्ष पाकिस्तान में दलित हित को बेहतर रूप में संरक्षित किया जाएगा।
 विभाजन के बाद वे 1947 में पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य बने।
 ऐसे बिगड़ी बात
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मुस्लिम बहुल देश में मंडल को कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा।
खास तौर पर 1948 में जिन्ना की मौत के बाद।
मार्च 1949 में मंडल ने एक विावदास्पद प्रस्ताव का समर्थन किया।
जिसमें पाकिस्तान के लिए कई सिद्धांत थे।
जिनमें ब्रह्मांड पर अल्लाह की सम्प्रभुता,लोकतंत्र के सिद्धांत ,स्वतंत्रता सभी को इस्लाम के अनुसार देखा गया।
 छोड़ दिया पाकिस्तान
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पाकिस्तान बननने के बाद ही गैर मुस्लिमों के हालात लगातार बिगड़ने लगे।
मंडल ने इसके खिलाफ आवाज उठाई।
जवाब में उनकी देशभक्ति पर संदेह किया जाने लगा।
उन्होंने लियाकत अली मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया।
8 अक्तूबर 1950 को भारत लौट आए।
 इस्तीफे में लिखा यह
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मंडल ने अपने इस्तीफे में लिखा कि पाकिस्तान में दलितों के खिलाफ अत्याचार बढ़ गए हैं।
कोई सुनवाई नहीं है।
हत्या-अत्याचार आम है।
इसमें उन्होंने हिन्दुओं पर हुए अत्याचारों का जिक्र किया।
कहा कि बलपूर्वक इस्लाम में परिवत्र्तन किया जा रहा है।
5 अक्तूबर, 1968 को मंडल  का निधन हो गया।
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अब कम्युनिस्ट नेता
सज्जाद की कहानी
साम्यवाद का प्रचार करने के लिए 
पाक में जा बसे थे।
निराश होकर लौटने के लिए नेहरू की मदद लेनी पड़ी।
उससे पहले वे वहां के जेल में भी रहे।
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पाक से लौटना पड़ा था सज्जाद जहीर को
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सज्जाद जहीर उत्तर प्रदेश के एक अच्छे खानदान से आते थे।
उनके पिता न्यायाधीश थे।
फिर भी उन्होंने संघर्ष का जीवन अपनाया।
आजादी की लड़ाई में कूद पड़े।
कम्युनिस्ट बने।
प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की।
भारत के बंटवारे के बाद सी.पी.आई.ने इस प्रमुख कम्युनिस्ट नेता सज्जाद जहीर को पाकिस्तान भेजा ताकि वहां बेहतर ढंग से पार्टी का काम हो सके।
  पर, वहां जाकर जहीर को निराशा हुई।
वहां उनके काम करने का कोई माहौल ही नहीं था।
उन्हें 1951 में पाक सरकार ने जेल में डाल दिया।
  किसी तरह छूटे और प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू की मदद से 1954 में भारत लौट आए।
 1973 में उनका निधन हो गया।
याद रहे कि फिल्म अभिनेता राज बब्बर की पहली शादी सज्जाद जहीर की  बेटी नादिरा से हुई। 
यानी नादिरा का जन्म एक ऐसे सेक्युलर व प्रगतिशील माहौल में हुआ था कि उन्हें राज बब्बर से शादी करने में कोई परेशानी नहीं हुई।
ऐसे सेक्युलर नेता की पाकिस्तान में भला क्या जरूरत !!
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कहां शिष्ट पंडित नेहरू और 
कहां अगिनखोर राहुल !!
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 कहां जवाहरलाल नेहरू जैसे शिष्ट नेता और कहां 
राहुल गांधी नामक उनका वंशज !!
राहुल गांधी ने इस बुधवार को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल किया है,वैसा अब तक किसी शीर्ष नेता ने दूसरे शीर्ष नेता के खिलाफ नहीं किया है।
 ऐसे में एक बात याद आ गई।
 बात तब की है जब पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधान मंत्री थे।
बिहार के एक मनबढू सांसद ने संसद में जे.बी.कृपलानी को सी.आई.ए.का एजेंट कह दिया।
यह उस समय सबसे बड़ी राजनीतिक गाली मानी जाती थी।
यह सुनकर देशभक्त कृपलानी बीमार पड़ गए।
उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा।
  प्रधान मंत्री उन्हें देखने अस्पताल गए।
लौटकर उन्होंने उस तमीज हीन सांसद को बुला भेजा।
बुलावे पर युवा सांसद बड़ा खुश हुआ।
उसे लगा कि अब तो मेरा मंत्री पद पक्का !
 याद रहे कि कृपलानी प्रधान मंत्री की तीखी आलोचना
किया करते थे।
यानी उस सांसद ने सोचा कि शायद सीधे प्रधान मंत्री आवास से राष्ट्रपति भवन जाना है !
वह अच्छी पोशाक में सज -धज कर तीनमूत्र्ति भवन पहुंचा।
पर वह आज का जमाना तो था नहीं कि नेता को ‘‘एलसेशिएन’’ 
पालने की जरूरत थी।
आज तो लगभग हर दल के नेताओं को उसकी जरूरत पड़ती है।यह परंपरा ‘इंदिरा युग’ में शुरू हुई।
हां, तब जवाहरलाल जी बड़े आईने के सामने खड़ा होकर उस समय दाढ़ी बना रहे थे।
शीशे में ही उन्होंने जैसे ही उस सांसद को देखा,वे तेजी से पलटे ।
और लगे डांटने उस सांसद को।
बाद में वह सांसद कई महीनों तक प्रधान मंत्री के आमने- सामने  होने से बचता रहा।
  यह कहानी तब के सांसद व बाद के मुख्य मंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह ने मुझे सुनाई थी।
  अब इस पृष्ठभूमि में राहुल गांधी को देखिए।
राहुल ने एक रैली में कहा कि 
‘‘ये जो नरेंद्र मोदी भाषण दे रहा है, 6 महीने बाद घर से बाहर नहीं निकल पाएगा।
हिन्दुस्तान के युवा इसे डंडा मारेंगे।’’
राहुल  पहले भी चैकीदार चोर है जैसी  भाषा का इस्तेमाल करते रहे हैं।
ऐसी भाषा सुनकर किसी को यह लग सकता है कि  मोदी से राहुल का कोई व्यक्तिगत झगड़ा है।
जमीन या संपत्ति का झगड़ा है।
  किसी ने कहा कि ‘‘झगड़ा है न !
जब किसी की अरबों रुपए की संपत्ति  मुकदमे में फंस जाएगी और डा.स्वामी से कोई राहत भी प्रधान मंत्री उसे न दिलाएंगे तो फिर कैसी बोली निकलेगी ?
जल्द फिर से सत्ता मिलने की उम्मीद भी रहती तो जुबान से ऐसी आग नहीं निकलती जो परलोक में पंडित नेहरू को शर्मिंदा करती होगी !!’’
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--सुरेंद्र किशोर--7 फरवरी 2020

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

अपनी  आंखों को बचाइए !
डिजिटल कम और प्रिंट पर
ज्यादा समय बिताइए !!
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सुरेंद्र किशोर 
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मीडिया से संबंधित एक खबर पर मैं भी कुछ कहना चाहता हूं।
 इस देश के कुछ अखबारों के घटते प्रसार के बीच यह सवाल उठ रहा है कि पिं्रट मीडिया का भविष्य कैसा है ?
क्या कम्प्यूटर, टैब व स्मार्ट फोन के स्क्रिन एक दिन  कागज की जगह ले लेंगे ? 
 मुझे तो ऐसा नहीं लगता है।
 वैसे भी सारे अखबारों के प्रसार नहीं घट रहे हैं।
कुछ के बढ़ भी रहे हैं।
   नहीं घटने का कारण भी बताया जा रहा है ।
कतिपय अखबारों ने खबरों, संपादकीय 
सामग्री और संपादकीय विभाग  पर खर्च बढ़ा दिया है।
इस तरह उसने 
डिजिटलाइजेशन का सफलतापूर्वक मुकाबला कर लिया है।
 अन्य अखबारोंे को भी चाहिए कि वे संक्रमण काल में फिलहाल कम मुनाफे पर संतोष कर लें।
अखबार के रुझान में  संतुलन रखें।
सबको लगे कि यह अखबार उनका भी है।
अच्छे दिन फिर आएंगे।
  वैसे मेरी जानकारी में यह समस्या लगभग पूरी दुनिया
के प्रिंट मीडिया के सामने है।
बाहर के देशों के संबंधित लोग भी इस समस्या से निपटने की कोशिश में अपने-अपने ढंग से लगे हुए हैं।
चीन एक ढंग से तो अमेरिका दूसरे तरीके से।
 इस संबंध में मेरी जानकारी तो सीमित है।
पर, एक बात कह सकता हूं।
  स्क्रीन पर लगतार समाचार अधिक दिनों तक पढते रह़ना
ठीक भी नहीं है।
उससे कुछ समय बाद आंखों पर उसका विपरीत असर पड़ना शुरू हो जाएगा ।
फिर तो प्रिंट मीडिया की शरण में लोगों को एक बार फिर जाना ही पड़ेगा।
  ऐसा इसलिए भी होगा क्योंकि कम्प्यूटर-टैब-स्मार्ट फोन का इस्तेमाल करते समय अधिकतर लोग आंखों के डाक्टर की सलाह की उपेक्षा करते हैं।
  साठ के दशक में रासायनिक खाद व उर्वरक का प्रचलन शुरू हो गया था।
हमारी अदूरदर्शी सरकार ने उसे खूब बढ़ावा दिया ।वह चाहती थी कि  यहीं पैदावार अधिक हो और विदेशों से अनाज कम से कम  मंगाना पड़े।
अमेरिका के पी एल.-480 यानी फुड फाॅर पीस पर कितने दिनों तक निर्भरता 
रहती  ?
  कुछ दिनों तक तो ठीक ठाक रहा।
 पर, रासायनिक खादों ने जब खेतों व लोगों के स्वास्थ्य पर काफी खराब असर डालना शुरू किया तो अनेेक समझदार लोग अब फिर जैविक खेती  की ओर तेजी से लौट रहे हैं।
  देर -सवेर वही कहानी  डिजिटल बनाम प्रिंट मीडिया के
मामले में भी दुहराई जा सकती है।
  मेरी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है।
फिर भी अपनी आंखों को बचााए रखने के लिए रोज ग्यारह अखबार मंगाता  हूंं।
    नतीजतन इस उम्र में भी आज तक मैं मोतियाबिंद से भी बचा हुआ हूं।
 वैसे पेशे की दृष्टि से मेरे लिए प्रिट और डिजिटल दोनों बराबर हैं।
  प्रति लेख की दर की दष्टि से सर्वाधिक पारिश्रमिक मुझे डिजिटल से ही मिला है।
  और अंत में
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अखबार के मालिक घाटे को पाटने के लिए ‘गोयनका फार्मूला’ अपना सकते हैं।
 संविधान सभा के सदस्य और दो बार लोक सभा सदस्य रहे रामनाथ गोयनका ने देश के बड़े नगरों में बहुमंजिली इमारतें बनवा दी थीं।
उसमें जरूरत भर अपने पास रखा। 
बाकी  किराए पर लगा दिया।
उससे अखबार का घाटा पूरा होता रहा ।
साथ ही वे एक जमाने में मीडिया की स्वतंत्रता -स्वाभिमान का प्रतीक बन गए थे। 
अस्सी के दशक में मेरे लिए भी एक्सप्रेस ग्रूप का बहुत  आकर्षण था ।तब  मैंने नवभारत टाइम्स के अधिक वेतन के आॅफर को ठुकराते हुए ‘जनसत्ता’ ज्वाइन कर लिया था।