बुधवार, 27 मई 2015

बोफर्स सौदे के कई सवालों के जवाब बाकी हैं

चर्चित बोफर्स तोप सौदे में हुए घोटाले को लेकर कई सवाल अब भी अनुत्तरित रह गए हैं। 1986 में संपन्न इस सौदे को लेकर परस्पर विरोधी विचार यदा-कदा आते रहते हैं।आगे भी आते रहेंगे। इस मामले के जानकार लोगों के अनुसार सवाल इसलिए भी अनुत्तरित रह गए क्योंकि इस केस को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचने ही नहीं दिया गया। ऐसा राजनीतिक कारणों से किया गया।

  याद रहे कि इस घोटाले के कारण मलीन हुई कांग्रेस पार्टी को जनता ने 1989 के चुनाव में केंद्र की सत्ता से बाहर कर दिया था।

   इस मामले में एक रोचक मोड़ उस समय आया जब इस देश के आयकर न्यायाधीकरण ने जनवरी, 2011 में कहा कि बोफर्स तोप सौदे में क्वात्रोची और विन चड्ढ़ा को 41 करोड़ रुपए की रिश्वत दी गई थी। ऐसी आमदनी पर भारत में उन पर टैक्स की देनदारी बनती है।

  सवाल है कि न्यायाधिकरण के इस आदेश के बावजूद उन लोगों से टैक्स क्यों नहीं वसूला गया ?

 उपर्युक्त फैसले के बावजूद दिल्ली की सी.बी.आई. अदालत में सी.बी.आई. ने क्वोत्रोची के खिलाफ मामले को वापस लेने की अपील दायर कर दी ।
सी.बी.आई. ने कोर्ट से कहा कि इस केस की मेरिट को दरकिनार करके इस केस को वापस ले लेने की अनुमति दी जाए। 4 मार्च 2011 को सी.बी.आई कोर्ट ने केस वापस लेने की सी.बी.आई. की दलील मान भी ली।

 सी.बी.आई. ने केस की मेरिट को दरकिनार करते हुए इसे कोर्ट से वापस क्यों ले लिया ? 

याद रहे कि अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल मेंे सी.बी.आई. ने ही इस कांड के संबंध में अदालत में 22 अक्तूबर 1999 को आरोप पत्र दाखिल किया था।  उससे पहले वी.पी. सिंह के शासनकाल में 22 जनवरी 1990 को बोफर्स मामले में प्राथमिकी दायर की गई थी।

 1987 में इस घोटाले के प्रकाश में आने के बाद मीडिया में सबूतों के साथ इस घोटाले के बारे में प्रामाणिक खबरें छपती रहीं।इसके बावजूद तब की राजीव गांधी सरकार के कार्यकाल में इस संबंध में प्राथमिकी दर्ज क्यों नहीं की गई ?

 24 मार्च, 1986 को स्वीडन की हथियार बनाने वाली कंपनी ए.बी. बोफर्स से इस आश्वासन के बाद सौदा हुआ था कि इसमें कोई बिचैलिया नहीं है।
बिचैलिए की खबर आने पर केस होना चाहिए था।  18 अप्रैल 1987 को स्वीडन रेडियो ने खबर दी कि इस सौदे में भारतीय नेताओं और आला सैन्य अफसरों को रिश्वत दी गई।

  क्या इस सनसनीखेज सौदे की सही जांच होने दी गई ? दरअसल सरकार बदलने के साथ जांच की दिशा भी बदलती गई।

आखिर ऐसा क्यों हुआ ?

इस भटकाव के कारण जब अदालतों को इस मामले की तह में नहीं जाने दिया  गया तो फिर यह आरोप लगाना कितना सही है कि बोफर्स मामले में  मीडिया ट्रायल किया गया ?

  बोफर्स तोप एक अच्छी तोप है। पर विशेषज्ञ बताते हैं कि सौदा तय करते समय उसके साथ प्रतियोगिता फ्रंास की सोफ्मा तोप से थी। कुछ विशेषज्ञों ने सोफ्मा को  बेहतर बताया था। पर सोफ्मा शायद दलाली नहीं देता था।

    किस तरह अलग -अलग दलों की केंद्र सरकारों ने इस मामले में अलग -अलग रुख अपनाया, उसका पहला उदाहरण चंद्रशेखर सरकार का रवैया था। वी.पी. सिंह की सरकार के गिरने के बाद कांग्रेेस की मदद से चंद्रशेखर के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी। इस मामले में उस सरकार की राय वी.पी. सिंह की सरकार की राय से बिलकुल उलट थी।

नरसिंह राव सरकार के एक मंत्री माधव सिंह सोलंकी को मंत्रिमंडल से क्यों हटना पड़ा ? क्या यह बात सही है कि सोलंकी ने बोफर्स मामले की जांच रुकवाने के लिए संबंधित देश के सत्ताधारी व्यक्ति को पत्र दिया था ? ऐसा उन्होंने किसके कहने पर किया ? क्या इतने उलझे मामले के बारे में रिपोर्ट करना मीडिया ट्रायल होता है ?

एक बड़ा सवाल यह भी है कि 1993 में केंद्र सरकार ने क्वात्रोची को इस देश से गैर कानूनी ढंग से क्यों भाग जाने दिया ? 1991 से 1996 तक पी.वी. नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे।

सवाल यह भी है कि 2006 में भारत सरकार  की किस हस्ती के इशारे पर ब्रिटेन में स्थित क्वात्रोची के उस खाते को डिफ्रीज कर  दिया गया जिसमें बोफर्स की दलाली का पैसे होने की खबर थी और उसे 2003 में भारत सरकार ने फ्रीज करवा दिया था ? याद रहे कि 2004 से 2014 तक मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे।

   जब बोफर्स घोटाले के मामले में खुद केंद्र सरकार का रवैया बदलता रहा और एक खास पार्टी की सरकार ने इस मामले को कोर्ट में हल नहीं होने दिया तो फिर आशंकाएं तो पैदा होंगी ही।कोई कितना भी कहे ,पर जो हाल बोफर्स जांच का किया गया ,उससे यह स्थिति बन गई है कि इतिहास  इस कांड की निष्पक्ष जांच पर बड़ा प्रश्न चिह्न उठाएगा ही। चाहे कोई इसे मीडिया ट्रायल कहे या कुछ और। अपने पापों और गलतियों पर पर्दा डालने के  लिए उल्टे मीडिया पर आरोप लगा देना इस देश की राजनीति के एक बड़े हिस्से की आदत सी हो गई है।    

  (दैनिक जनसत्ता के 27 मई 2015 के अंक में प्रकाशित)
   

गुरुवार, 21 मई 2015

दिल्ली की जंग का असर देश की राजनीति पर


जन लोकपाल विधेयक जब विधानसभा से पास नहीं होने दिया गया तो विरोधस्वरुप केजरीवाल ने 2014 में मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया। दिल्ली की जनता ने केजरीवाल के प्रति अभूतपूर्व एकजुटता दिखाते हुए इस साल के चुनाव में कुल 70 में से 67 सीटें ‘आप’ को दे दी।

अब जब यह धारणा बन रही है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘आप’ के बेलौस युद्ध में केंद्र सरकार रोड़े अटका रही है तो इसका अगला राजनीतिक नतीजा क्या होगा ?

    राजनीतिक पे्रक्षकों के अनुसार यदि इस युद्ध में ‘आप’ सरकार शहीद हुई तो न सिर्फ भाजपा का राजनीतिक जलवा कुछ और कम हो जाएगा, बल्कि देश में अरविंद केजरीवाल का जन समर्थन बढ़ जाएगा।

 अनेक लोगों का यह मानना है कि नियमतः भले उप राज्यपाल को कुछ खास अधिकार मिले हुए हों, पर मुख्यमंत्री की मंशा सही है। वे भ्रष्टाचार से ईमानदारी से लड़ रहे हैं। उनको कम से कम उन लोगों का साथ मिलना चाहिए था जो भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलते रहे हैं।

 पर साथ देने के बदले दिल्ली में ऐसी स्थिति बन गई है जहां के मुख्यमंत्री अपनी सरकार के मुख्य सचिव तक का खुद चयन नहीं कर सकते ।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ठीक ही कहा है कि ‘राज्य सरकार एक मुख्य सचिव नियुक्त नहीं कर सकती तो वह और क्या कर सकती है ? ’

    खुद मोदी सरकार गैरभाजपा शासित राज्यों में भी राज्यपाल नियुक्त करने से पहले संबंधित मुख्यमंत्री की सहमति ले लेती है। पर जब केजरीवाल को अपना मुख्य सचिव नहीं चुनने देती तो कई लोगों को केंद्र की मंशा पर शक होता है।

 खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकारी भ्रष्टाचार से परेशान रहे हैं। एक साल के शासन के बाद भी देश की अर्थव्यवस्था गतिशील नहीं दिख रही है तो इसका सबसे बड़ा कारण भ्रष्टाचार है। दूसरी ओर यदि दिल्ली में एक सरकार इस दिशा में ठोस कदम उठा रही है तो केंद्र सरकार को चाहिए था कि वह उसे इस काम में बढ़ावा दे।

  गत 14 फरवरी को शपथ ग्रहण के बाद केजरीवाल ने कहा था कि उनकी सरकार दिल्ली को भ्रष्टाचार मुक्त करेगी। क्या ‘आप’ का यह कसूर है कि वह अपना वादा नहीं भूल रही है ?

 18 मई को केजरीवाल ने कहा कि दिल्ली सरकार में भ्रष्टाचार 70 से 80 प्रतिशत कम हो चुका है। क्या ऐसा दावा केंद्र की मोदी सरकार कर सकती है ?

ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री अपनी सरकार से भ्रष्टाचार हटाना नहीं चाहते हंै। पर वह भ्रष्टाचार का होमियोपैथी इलाज कर रहे हंै जबकि जरुरत सर्जरी की है। केंद्र सरकार की राजनीतिक कार्यपालिका स्तर पर तो  घोटाले की कोई सूचना अब तक नहीं मिली है। पर क्या यही बात प्रशासनिक कार्यपालिका के बारे में कही जा सकती है ?

  यह ध्यान देने की बात है कि केजरीवाल की लड़ाई प्रशासनिक कार्यपालिका से ही अधिक है। होना तो यह चाहिए था कि केंद्र सरकार देशहित में ‘आप’ सरकार से सहयोग करके यह तरीका सीखती कि वह कैसे 70-80 प्रतिशत भ्रष्टाचार कम कर पाई है। इसके बदले यह धारणा बन रही है कि केंद्र सरकार  ‘आप’ सरकार को  सत्ताच्युत करना चाहती है। सवाल है कि दिल्ली राज्य की सरकार से च्युत होने के बाद कहीं पूरे देश में केजरीवाल, भाजपा के लिए राजनीतिक खतरा न पैदा कर दे !

(21 मई 2015 के दैनिक भास्कर के पटना संस्करण में प्रकाशित)