शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

संभव नहीं है आपातकाल का इतिहास मिटाना

   
   इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली आपातकालीन सरकार ने कई मामलों में जेपी आंदोलनकारियों और देश के साथ ऐसा सलूक किया, जैसा व्यवहार सचमुच स्वतंत्रता सेनानियों के साथ अंग्रेजों ने भी नहीं किया था।

   गठबंधन धर्म निभाने के लिए बिहार सरकार ने अपने वेबसाइट से भले तत्संबंधी प्रकरण हटा दिया है, पर वह तो समकालीन इतिहास का अंग बन चुका है। आपातकाल के इतिहास को भला कैसे मिटाया जा सकता है ?

  25 और 26 जून 1975 के बीच की रात में आपातकाल लगाकर नई दिल्ली में जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर लिया गया था।

   उन्हें जब नजरबंदी में चंडीगढ़ में रखा गया तो जेपी ने सरकार से एक मांग की थी। वे चाहते थे कि साथी के रूप में उनके साथ किसी राजनीतिक कैदी को रखा जाये। पर सरकार ने उनकी बात नहीं मानी। जबकि जब जेपी 1942 में जेल में थे तो अंग्रेज सरकार ने उनकी ऐसी ही मांग मान ली थी।

डाॅ. राम मनोहर लोहिया को जेपी के साथ रहने की अनुमति दे दी गयी थी। जेपी की नजरबंदी के समय बंसीलाल हरियाणा के मुख्यमंत्री थे। जानकार लोगों के अनुसार जेपी के साथ बंसीलाल का व्यवहार दुश्मनों जैसा था।

 आपातकाल में देशभर में मीडिया पर कठोर सेंसरशीप लगा दिया गया था। सरकारी विभाग के प्रेस सूचना ब्यूरो से पास कराये बिना कोई भी अखबार छप नहीं सकता था। ऐसा अंग्रेजों के राज में नहीं था। स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा संचालित अखबारों को सिर्फ जमानत देनी पड़ती थी। आपत्तिजनक चीजें छापने पर सरकार जमानत जब्त कर लेती थी।

  अंगेजों के जमाने में अहिंसक राजनीतिक अभियान चलाने की एक सीमा तक छूट थी। पर आपातकाल में सरकार विरोधी दलों की ओर से कोई अहिंसक अभियान भी नहीं चलने दिया जाता था। पहली ही किस्त में करीब सवा लाख नेता और कार्यकर्ता जेलों में ठूंस दिये गये थे। अन्य राजनीतिक लोग बाद में जैसे ही सड़कों पर उतरते थे, उन्हें पकड़कर जेल भेज दिया जाता था।

  आपातकाल में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं की सुनवाई के दौरान एटाॅर्नी जनरल नीरेन डे ने सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि ‘आपातकाल में संविधान के कई अनुच्छेद स्थगित कर दिये गये हैं। उनमें  अनुच्छेद-21 और 39 ए शामिल हैं। परिणामस्वरूप नागरिकों को अब न्याय के लिए अदालत जाने का कोई अधिकार ही नहीं है। साथ ही लोगों को न तो अब व्यक्तिगत स्वतंत्रता हासिल है और न ही जीने का अधिकार।’ जानकार लोग बताते हैं कि ऐसी क्रूरता अंग्रेजों ने भी नहीं दिखाई थी। इसके अलावा भी आपातकाल की कई बातें थीं।

 इसलिए जहां-जहां आपातकाल का दमन अधिक था, वहां तो 1977 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस लगभग साफ हो गयी। दक्षिण भारत में दमन कम था, इसलिए वहां उसे चुनावी सफलता मिली। पूरे हिंदी भारत से  सिर्फ छिंदवारा सीट से कांग्रेस के कमलनाथ जीत सके थे।

 यह थी आपातकाल के प्रति मतदाताओं की राय। यह और बात थी कि जनता पार्टी के सत्तालोलुप नेताओं ने अपने कार्यकाल के बीच में ही ऐसी स्थिति पैदा कर दी थी कि 1980 में कांग्रेस दुबारा सत्ता में आ गयी।   


 (12 जनवरी, 2016 के दैनिक भास्कर, पटना संस्करण में प्रकाशित)

सोमवार, 11 जनवरी 2016

बदले की भावना का आरोप लगा देने मात्र से ही नहीं मिल जाएगा राजनीतिक लाभ


इंदिरा की बहू सोनिया गांधी, इंदिरा की कहानी भला कैसे दुहरा सकंेगीं ? सी.बी.आई. ने 1977 में जब इंदिरा गांधी को गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया था तो मजिस्ट्रेट ने पूर्व प्रधानमंत्री को तुरंत रिहा कर दिया
था। क्योंकि उनके खिलाफ सी.बी.आई. तब तक पूरा सबूत जुटा ही नहीं पाई थी।

उसके उलट दिल्ली हाईकोर्ट ने नेशनल हेराल्ड केस में आरोपियों के आचरण को प्रथम दृष्टि में ही संदिग्ध माना है। 1977 में इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी के बाद कांग्रेसियों के हंगामे का असर जनता के एक हिस्से पर पड़ा था।वह असर कांग्रेस के पक्ष में गया। क्योंकि उन्हें लगा कि सबूत के बिना ही उन्हें गिरफ्तार किया गया।

पर, ताजा हंगामे का कोई लाभ सोनिया-राहुल और कांग्रेस को मिलेगा, इस बात में अनेक लोगों को अभी संदेह है। यानी नाहक फंसाने की आशंका पर तो आरोपियों को लाभ मिल सकता है, पर ठोस सबूत पर लाभ नहीं मिलता। चारा घोटाले का केस भी इसका एक नमूना है। तब लालू प्रसाद के लोगों ने भी सड़कों पर काफी हंगामा किया था। 

सिर्फ नेशनल हेराल्ड का ही मामला नहीं है जो सोनिया-राबर्ट वाड्रा परिवार पर चल रहा है। इसलिए कांग्रेस हंगामे से कोई खास राजनीतिक लाभ पाने की स्थिति में लगती नहीं है। अब कांग्रेस के इस प्रथम परिवार
पर भ्रष्टाचार के जितने आरोप लग रहे हैं, उतने और इस तरह के आरोप इंदिरा परिवार पर तब नहीं थे। भले अन्य तरह के आरोप अधिक गंभीर थे। उनमें इमरजंसी लगाकर देश में लोकतंत्र समाप्त करने का आरोप
शामिल था।

वैसे कानूनी मामले को राजनीतिक स्वरुप देने की कोशिश अंततः सफल होगी या नहीं, इसका पता तभी चलेगा जब इस केस में अदालत का फाइनल निर्णय आएगा। वैसे भी केंद्र में कांग्रेस की सरकार है नहीं जो बोफर्स जैसे मामले को दफना दिया जाएगा।

याद रहे कि पहले तो बोफर्स मामले को दफना दिया गया। क्वात्रोची को देश से भगा देने का प्रबंध कर दिया गया। स्विस बैंक की लंदन शाखा में स्थित क्वात्रोची के खाते को फिर से चालू करा देने का प्रबंध करा दिया
गया जिसमें बोफर्स की दलाली के पैसे थे। उसके बाद कांग्रेस द्वारा यह प्रचार कर दिया गया कि बोफर्स घोटाले का आरोप ही गलत था।

नेशनल हेराल्ड मामले में अदालत को केस को तार्किक परिणति तक पहुंचा देने का पूरा मौका मिलेगा। क्योंकि अगला लोकसभा चुनाव 2019 में है। यानी कांग्रेस के सत्ता में लौटने की उम्मीद मई, 2019 तक तो बिलकुल ही नहीं है।

यदि इस बीच अदालत हेराल्ड केस में सोनिया-राहुल गांधी को दोषमुक्त कर देती है तब शायद कांग्रेस उसका राजनीतिक लाभ उठाने की स्थिति में हो सकती है। पर इस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट की प्रारंम्भिक टिप्पणी से लगता है कि डा. सुब्रहमण्यम स्वामी द्वारा तैयार यह केस काफी मजबूत है।

इससे पहले इस तरह के कम से कम दो मामले हाल के वर्षों में इस देश में सामने आये थे। इंदिरा गांधी का मामला 1977 का है। सन 1996 में चारा घोटाला सामने आया जिसके मुख्य आरोपी लालू प्रसाद हैं।

कभी लालू प्रसाद तथा उनके दल ने चारा घोटाले को लेकर राजनीतिक लाभ उठाने की भरपूर कोशिश की थी।सन 1996 में पटना हाईकोर्ट ने चारा घोटाले की जांच का भार सी.बी.आई. को सौंपा था। तब अदालत ने कह
दिया था कि ‘उच्चस्तरीय साजिश के बगैर इतना बड़ा घोटाला नहीं हो सकता था।’ पटना हाईकोर्ट की निगरानी में जब इस घोटाले की जांच आगे बढ़ी तो लालू प्रसाद और उनके दल ने विधायिका के भीतर और बाहर काफी हंगामा किया। पटना में सी.बी.आई. की जांच के खिलाफ राजद ने
तलवार जुलूस तक निकाला।

मुख्य जांचकत्र्ता और सी.बी.आई.के तत्कालीन संयुक्त निदेशक डा. यू.एन विश्वास को जान से मारने की धमकी तक दी गई। डा.विश्वास को पटना में विशेष सुरक्षा देनी पड़ी थी। डा.विश्वास ने पटना आने से पहले कोलकाता में अपनी पत्नी से कह रखा था कि इस जांच के सिलसिले में उनकी जान भी जा सकती है।

राजद ने सी.बी.आई., अदालत और अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ अपने लोगों की भावना भड़काने की काफी कोशिश की। इसके बावजूद न सिर्फ लालू प्रसाद जेल गये बल्कि सन 2000 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजद की सीटें काफी घट गयीं। यानी उस सी.बीआई. विरोधी राजनीतिक अभियान का राजद को कोई चुनावी लाभ नहीं मिला।

इस घोटाले के सामने आने के बाद लालू प्रसाद की राजनीतिक ताकत इतनी घट गई कि सन 2000 में बिहार में सरकार के गठन के लिए राजद को कांग्रेस की मदद लेनी पड़ी थी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि चारा घोटाला केस मजबूत था। इस केस के कारण जनता के बीच के लालू प्रसाद के पुराने समर्थकों के एक बड़े हिस्से
का उन पर विश्वास नहीं रहा। आखिरकार निचली अदालत ने लालू प्रसाद को सजा दे दी है। उनकी अपील हाईकोर्ट में विचाराधीन है।

अब भी लालू प्रसाद का कहना है कि उन पर कोई केस नहीं बनता है। आज भी लालू की पार्टी सत्ता में है तो अकेले नहीं बल्कि साझी सरकार के जरिए है। हालांकि लगता है कि कटु अनुभवों के बाद लालू प्रसाद और
उनका परिवार बदला- बदला नजर आ रहा है। वे कहते हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी शून्य सहनशीलता रहेगी और बिहार में विकास होगा। लालू प्रसाद अपने लोगों से लगातार यह अपील कर रहे हैं कि वे कानून को
अपने हाथों में नहीं लें।

देश के लिए यह अच्छा होगा यदि नेशनल हेराल्ड केस के जरिए इसी तरह सोनिया परिवार में भी बदलाव आ जाये। याद रहे कि 1977 में जब इंदिरा गांधी को सी.बी.आई. ने गिरफ्तार किया तो वह गिरफ्तारी केंद्र की तत्कालीन मोरारजी देसाई सरकार को उल्टा पड़ी।

हालांकि देसाई सरकार के पतन के पीछे सिर्फ यही एक कारण नहीं था। बल्कि जनता पार्टी का अंतरिक कलह मुख्य कारण था। तब के तीन बड़े नेताओं के बीच प्रारंभ से ही नहीं बन रही थी। हालांकि उस सरकार ने जनता के हक में अनेक अच्छे काम किये थे। 

दरअसल तत्कालीन गृहमंत्री चरण सिंह बदले की भावना से ओतप्रोत थे। वे जल्द से जल्द इंदिरा गांधी को जेल के भीतर देखना चाहते थे। इमरजंसी के अत्याचारों को लेकर चरण सिंह खास तौर से खफा थे।
परिणामस्वरुप 1977 में सी.बी.आई. ने इंदिरा गांधी के खिलाफ सबूत एकत्र करने से पहले ही इंदिरा गांधी को जल्दीबाजी में गिरफ्तार कर लिया था। सी.बी.आई. के अफसर जब इंदिरा गांधी के आवास पर गये तो इंदिरा
गांधी ने गुस्से में ऊंची आवाज में कहा कि ‘आपकी हथकडि़यां कहां हैं ? आप मुझे हथकड़ी लगाने ही आए होंगे।क्या गृहमंत्री ने आपको ऐसा करने का निदेश नहीं दिया है ?’

काफी हीला हवाला, शोरगुल और ड्रामे के बाद इंदिरा गांधी को अदालत मं पेश किया गया। अदालत में इंदिरा गांधी की ओर से बड़े -बड़े वकील खड़े थे जबकि अभियोजन पक्ष की तरफ से मामूली वकील थे। सरकारी वकील ने बार-बार अदालत का ध्यान एफ. आई. आर. की ओर खींचा जिसमें श्रीमती गांधी के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों का जिक्र था।

जब मजिस्ट्रेट ने सबूत के बारे में पूछा तो सरकारी वकील ने कहा कि मामला एक ही दिन पहले दर्ज हुआ था लिहाजा और सबूत इकट्ठा करने का समय नहीं था। मजिस्ट्रेट ने इंदिरा गांधी को तत्काल मुक्त कर दिया।
इससे अनेक लोगों में यह धारणा बनी कि उन्हें नाहक फंसाया जा रहा था जिस कोशिश को अदालत ने विफल कर दिया।

याद रहे कि आरोप यह था कि चुनाव कार्यों के लिए एक फर्म से बड़ी संख्या में जीपें हासिल की गयी थीं। उस सिलसिले में इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री के रुप में अपने पद का दुरुपयोग किया था। ऐसा नहीं कि सबूत नहीं
थे। पर उन्हें हड़बड़ी में जुटाए नहीं जा सके थे। हड़बड़ी में इस बात का भी ध्यान नहीं रखा गया था कि अभियोजन की ओर से बड़े वकील अदालत में रहने चाहिए थे।

कुल मिलाकर अनेक लोगों की यह धारणा बनी कि बदले की भावना से ही इंदिरा गांधी को गिरफ्तार किया गया था। इसका लाभ 1980 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिला। इंदिरा गांधी दुबारा सत्ता में आ गयी।लगता है कि कांगेस नेशनल हेराल्ड केस के जरिए 1980 दुहराना चाहती है। शायद इसीलिए सोनिया गांधी ने कहा कि मैं इंदिरा गांधी की बहू हूं। पर डा. स्वामी जल्दीबाजी में नहीं रहे। उन्होंने नेशनल हेराल्ड की संपत्ति
को कथित तौर पर हड़पने को लेकर मजबूत केस तैयार किया है। सुब्रह्मण्यम स्वामी के जो आरोप हैं,वे पहली नजर में ही मजिस्ट्रेट को भी मजबूत लगे।

इसको लेकर सोनिया गांधी और राहुल गांधी तथा कुछ अन्य लोगों पर जो मामले बन रहे हैं, उस पर अनेक लोग विश्वास कर लेंगे, ऐसा संभव है। इसलिए बदले की भावना से नरेंद्र मोदी सरकार पर काम करने का
सिर्फ आरोप लगा देने से कांग्रेसी नेताओं का इस बार काम ंनहीं चलेगा।

केंद्र सरकार ने राहुल गांधी से उस आरोप का सबूत मांगा है जिसके तहत उन्होंने इसके लिए पी.एम.ओ. को दोषी ठहराया है। याद रहे कि सोनिया गांधी ने कहा है कि ‘मैं इंदिरा गांधी की बहू हूं। मैं किसी से नहीं डरती।’ उन्हें किसी से डरने की जरुरत ही नहीं है। उन्हें सिर्फ कोर्ट में जवाब देना है। कोर्ट के प्रति निरादर का भाव कांग्रेस का खास कर नेहरु-गांधी परिवार का पुराना है। 

हाल में भी जब सुप्रीम कोर्ट ने आर.एस.एस.से माफी मांगने का निदेश राहुल गांधी को दिया तो ऐसा करने से राहुल ने मना कर दिया। इससे पहले इमरजंसी में उन चुनाव कानूनों को ही इंदिरा गांधी ने बदलवा दिया था जिसके तहत 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उनका चुनाव रद किया था। इतना ही नहीं आपातकाल में इंदिरा गांधी ने संविधान में 39 वें संशोधन के जरिए राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, स्पीकर और प्रधानमंत्री के चुनाव को
अदालती जांच के दायरे से बाहर कर दिया था। पर अब तो आपातकाल नहीं है। अदालतें स्वतंत्र हैं। बदली हुई स्थिति में नेशनल हेराल्ड केस में ट्रायल कोर्ट द्वारा जारी समन को जायज ठहराते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने गत 7 दिसंबर, 2015 को कहा कि ‘सभी आरोपी एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल से जुड़े हैं। उन पर लगे अपराध के आरोप
की गंभीरता को देखते हुए उनके संदिग्ध आचरण की सच्चाई का पता लगाने के लिए जांच जरुरी है।’

याद रहे कि जब सी.बी.आई. ने इंदिरा गांधी को 1977 में गिरफ्तार करके अदालत में हाजिर किया था तो अदालत ने ऐसी कोई बात नहीं कही थी। बल्कि सी.बी.आई. से सबूत मांगा था जिसे जांच एजेंसी तत्काल पेश नहीं कर सकी थी । हालांकि यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि इंदिरा गांधी के खिलाफ सबूत थे ही नहीं। दरअसल तब की राजनीतिक कार्यपालिका को इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करवाने की जल्दीबाजी थी। इसलिए उसे जुटाने से पहले ही इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी के लिए सी.बी.आई. को उनके आवास पर भेज दिया गया।

इस पृष्ठभूमि में सोनिया गांधी के यह कहने का कोई अर्थ नहीं है कि ‘मैं इंदिरा गांधी की बहू हैं।’ क्या आज इंदिरा गांधी की कहानी दुहराना संभव है? शायद नहीं। सोनिया गांधी को सी.बी.आई. द्वारा गिरफ्तारी और कोर्ट द्वारा समन भेजे जाने के बीच के फर्क को समझना होगा। कोर्ट के किसी कार्रवाई या आदेश के प्रति आम तौर पर लोगों में सम्मान का भाव रहता है।

बिहार में हाल के वर्षों में कई मामलों में यह देखा गया है कि किसी नेता के खिलाफ जब किसी कोर्ट का आदेश सामने आता है तो उस नेता के प्रभाव क्षेत्र के मतों में से कुछ वोट उनके हाथ से बाहर हो जाते
हैं। कई बार वे चुनाव हार भी जाते हैं।

(09 दिसंबर 2015 )

मोदी पर नीतीश के बयान पीछे राजनीति नहीं


सत्तर के दशक की बात है। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई सोवियत संघ के दौरे पर थे। एक विदेशी संवाददाता ने उनसे पूछा कि दोनों देशों की बातचीत में असहमति के कौन-कौन से मुद्दे थे ? देसाई ने प्रति सवाल किया कि ‘क्या आप सहमति के मुददों को लेकर कोई सवाल नहीं कर सकते थे ?’

इसी तरह इन दिनों लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के बीच असहमति के मुददों की कुछ अधिक ही खोज हो रही है। हो सकता है कि कुछ मुद्दों पर दोनों नेताओं में असहमति हों। पर राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार ऐसे मुददों में भी टकराव का आविष्कार किसी के हित में नहीं है जहां ऐसा नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की
पाकिस्तान यात्रा भी ऐसा ही एक मुद्दा था। उस पर नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के अलग-अलग तरह के बयान जरुर आये थे। पर, उन बयानांे का बिहार की महागठबंधन सरकार से भला क्या संबंध ?

जो लोग यह मानकर चलते हैं कि किसी एक गठबंधन के दलों के नेताओं को हर मुददे पर एक ही स्वर में बोलना चाहिए, उनलोगों ने दोनों नेताओं के अलग -अलग तरह के उपर्युक्त बयानों में राजनीति खोज ही ली। पर अब तो लालू प्रसाद ने यह कह दिया कि ‘मैंने नीतीश कुमार की बात नहीं काटी थी। मेरा यही कहना है कि देश सुरक्षित हाथों में नहीं है।’

उधर प्रधानमंत्री की पाकिस्तान यात्रा पर नीतीश कुमार ने कहा था कि उनकी यात्रा सही दिशा में एक कदम थी। माना जा रहा है कि नीतीश कुमार ने देशहित को ध्यान में रखते हुए उनकी पाकिस्तान यात्रा की सराहना की। वैसे भी आज पाकिस्तान से संवाद बनाये रखने के सिवा भारत जैसे शांतिप्रिय देश के पास और रास्ता ही क्या है ?

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि नीतीश कुमार ने गठबंधन में शामिल दल की लाइन के खिलाफ अपनी स्वतंत्र राजनीतिक लाइन ली है। जदयू ने राष्ट्रपति चुनाव में प्रणव मुखर्जी को वोट दिये थे। भाजपा की लाइन अलग
थी। याद रहे कि तब बिहार में जदयू-भाजपा की मिलीजुली सरकार थी और नीतीश कुमार मुख्य मंत्री थे।

दरअसल नेता अगले चुनाव को ध्यान में रखकर काम करते हैं और ‘स्टेट्समैन’ अगली पीढि़यों को ध्यान में रखकर अपने कदम उठाते हैं। 

इस संबंध में डा. राम मनोहर लोहिया का एक उदाहरण मौजूं होगा। डा.लोहिया ने 1967 में चुनाव की पूर्व संध्या पर यह कह दिया था कि देश में समान नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए। तब वे खुद एक ऐसे क्षेत्र में उम्मीदवार थे जहां अल्पसंख्यकों की बड़ी संख्या थी। इस पर उनके समाजवादी मित्रों ने कहा कि ऐसे बयान के बाद तो अब आपको अल्पसंख्यकों के मत नहीं मिलेंगे। इस पर डा. लोहिया ने कहा कि ‘मैं वोट के लिए नहीं बल्कि देश के हित के लिए राजनीति करता हूं।’

शनिवार, 2 जनवरी 2016

संतोष गिरोह से कम नहीं गुणवत्ता से समझौता करने वाले

न तो समयबद्धता का ध्यान और न ही निर्माण में गुणवत्ता। ऐसे में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाराज होना स्वाभाविक ही था। राजगीर में बिहार पुलिस अकादमी के निर्माणाधीन भवन का हाल देख-सुनकर किसी को भी गुस्सा आ जाये ! 

मुख्यमंत्री के गृह जिले में यह हाल है जहां वे अक्सर जाते रहते हैं। राज्य के दूर-दराज इलाकों में सरकारी
निर्माण कैसे चल रहा होगा, इसकी कल्पना कठिन नहीं है। 

इस सिलसिले में एक उदाहरण पर्याप्त होगा।

2014 के अगस्त की बात है। मुजफफरपुर जिले से यह खबर आई कि 25 करोड़ रुपये की लागत से बना पुल उद्घाटन से पहले ही ध्वस्त हो गया। बागमती नदी की उपधारा पर बसघटा के पास बिहार राज्य पुल निर्माण निगम ने वह पुल बनवाया था।

स्थानीय लोगों ने बताया कि घटिया सामग्री के इस्तेमाल के कारण ऐसा हुआ।शासन ने भी कहा कि इसके लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। पता नहीं चला कि कोई कार्रवाई हुई भी या नहीं।

दरअसल ऐसे मामलों में आम तौर पर कोई सख्त कार्रवाई नहीं होती। इसलिए भी गलत काम करने वालों का धंधा चलता रहता है। आम लोगों के जानमाल की कीमत पर ऐसा हो रहा है। राजगीर का मामला भी उसी कड़ी में है। बागमती पुल जैसे मामले यदाकदा सामने आते रहते हैं।

क्या ऐसे घोटालेबाज और कामचोर लोग संतोष झा गिरोह की अपेक्षा राज्य को कम नुकसान पहुंचाते हैं ? याद रहे कि दरभंगा जिले में निर्माण कार्य में लगे दो इंजीनियरों की हाल में हत्या कर दी गयी। संतोष गिरोह ने 75 करोड़ रुपये की रंगदारी मांगी थी। न देने पर हत्या की गयी।

हालांकि यह समस्या सिर्फ बिहार सरकार में ही नहीं है। पिछले महीने रेलवे सुरक्षा आयुक्त पी.के. आचार्य पटना आये थे। वे दीघा-पहलेजा रेल पुल का निरीक्षण कर रहे थे। उन्होंने उसमें कई गड़बडि़यां पायीं।
जांच स्थल पर ही उन्हें यह कहना पड़ा कि जब तक कुछ लोगों को निलंबित नहीं किया जाएगा, तब तक वे सुधरेंगे नहीं। इस देश में आखिर यह सब क्या हो रहा है ?

राजगीर में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जब स्थल निरीक्षण किया, तब उन्हें यह पता चला कि सब कुछ ठीकठाक नहीं है।

स्थानीय रेलवे अधिकारियों द्वारा सब कुछ ठीकठाक घोषित कर देने के बाद ही मुख्य सुरक्षा आयुक्त स्थल निरीक्षण पर जाते हैं। इसके बावजूद आचार्य ने गत 17 दिसंबर को यह पाया था कि रेल की पटरी से दो बोल्ट गायब थे। एक अन्य स्थान पर उन्होंने पटरियों को जोड़ने के स्थान पर ‘होल’ को गलत पाया।

सवाल यह है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और सुरक्षा आयुक्त पी.के आचायर् से पहले नीचे के अन्य संबंधित अधिकारी गण इन चीजों को ठीक क्यों नहीं करते ? इसके पीछे काहिली है या भ्रष्टाचार ? या फिर तकनीकी
पक्ष की कमजोरी ? क्या इस देश के अभियंताओं की शिक्षा-दीक्षा में ही कुछ कमी रह जा रही है। 

संतोष झा गिरोह की धरपकड़ के लिए विशेष पुलिस दस्ते गठन हुआ है। क्या निर्माण की गुणवत्ता और समयबद्धता बनाये रखने के लिए भी किसी स्पेशल टास्क फोर्स का गठन किया जाएगा? मुख्यमंत्री तो हर जगह निरीक्षण कर नहीं सकते।


( 2 जनवरी, 2016 के दैनिक भास्कर,पटना से साभार)

जीतना ही होगा अपराधियों-भ्रष्टों के खिलाफ जारी राज्य शासन का यह निर्णायक युद्व


बिहार के छोटे-बड़े अपराधियों और भ्रष्टों के खिलाफ शासन ने
निर्णायक युद्व छेड़ दिया है।
यह युद्ध शासन को जीतना ही होगा।यह लड़ाई जीतना अब आसान भी
होगा।क्योंकि सत्ताधारी दलों के प्रमुख नेताओं ने यह आश्वासन दे रखा है
कि ऐसे लोगों को उनका कोई संरक्षण न है और न मिलेगा।
राजनीतिक कवच नहीं हो तो अपराधी और भ्रष्ट तत्व अधिक दिनों तक
नहीं टिक पाते।हालांकि वे भी आखिरी दम तक लड़ेंगे।क्योंकि उनमें से कई
लोगों की यह आदत बन चुकी है।यह उनका रोजगार भी है।
मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने ऐसे तत्वों के खिलाफ निर्णायक जंग का कड़ा
आदेश सरकारी तंत्र को दे दिया है।यदि इस काम में तंत्र ने मुख्य मंत्री का
पूरे दिल से साथ नहीं दिया तो उसे भी परिणाम भुगतने के लिए तैयार
रहना होगा।
दरभंगा में दो अभियंताओं की हत्या के बाद
यह सवाल उठ रहा है कि इस युद्ध में अंततः आखिर किसकी जीत होगी।
इस जघन्य हत्याकांड के बाद प्रतिपक्षी नेताओं को यह कहने का मौका
मिल गया है कि बिहार में जंगल राज लौट रहा है।
इस आरोप का जवाब शासन को अपने कर्मों के जरिए जल्दी ही देना
पड़ेगा।
अनेक लोगों को यह भरोसा है कि नीतीश सरकार अपराधियों और
भ्रष्ट लोगों पर देर-सवेर काबू पा लेगी।
गत चुनाव के बाद ही नीतीश कुमार ने एक बार फिर लोगों को यह
आश्वासन दिया था कि राज्य में कानून-व्यवस्था कायम है और कायम
रहेगी।
राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद ने भी कह दिया है कि ‘कोई व्यक्ति कानून
अपने हाथ में नहीं लेगा।’ उन्होंने यहां तक भी कह दिया कि ‘कोई यह
भ्रम नहीं पाले कि जाति विशेष का होने से किसी पर कार्रवाई नहीं
होगी।’ लालू प्रसाद भी अपनी बातों पर कायम हैं, ऐसे संकेत मिल रहे
है।
इन बातों का काफी हद तक सकारात्मक असर पड़ा है।
इसके बावजूद कुछ समस्याएं अभी हल होनी बाकी हंै।संगठित अपराध
और स्थानीय पुलिस की उनसे साठगांठ चिंताजनक है।लगता है कि
सत्ताधारी नेताओं का उपर्युक्त संदेश सरजमीन तक पूरी तरह नहीं पहुंच
रहा है।शासन का उपरी हिस्सा निचले स्तर के कर्मचारियों और अफसरों
को यह समझाने में अभी सफल नहीं हुआ है कि सुशासन और विकास की
गति तेज करने के लिए आत्मानुशासन जरुरी है।यही सरकार की नीति है।
यदि वे आसानी से नहीं समझ रहे हैं तो उन्हें कड़े अनुशासन के डंडे से
समझाना पड़ेगा।मुख्य मंत्री ने इसका संकेत भी दे दिया है।
यदि कानून तोड़कों के खिलाफ यह युद्ध नहीं जीता जा सका तो
नीतीश सरकार के अगले पांच साल के एजेंडे को लागू नहीं किया जा
सकेगा।
शासन के निचले स्तर की भ्रष्टाचार, लापारवाहियों और उदंडता के कुछ
उदाहरण यहां पेश किये जा सकते हैं।सुरक्षा वापस लेने के अगले ही दिन
दरभंगा जिले में सड़क निर्माण कंपनियों के दो अभियंताओं की हत्या कर
दी गयी।
सवाल है कि क्या हत्यारा गिरोह और स्थानीय पुलिस के बीच साठगांठ
के परिणामस्वरुप सुरक्षा हटाई गयी थी ?
क्या निचले स्तर के राजनीतिककर्मियों का संरक्षण विभिन्न हत्यारा गिरोहों
को हासिल रहता है ? ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि किसी
प्रतिपक्षी दल ने भी अब तक यह आरोप नहीं लगाया है कि संतोष झा
गिरोह को राज्य के किसी बड़े सत्ताधारी नेता का संरक्षण हासिल है।
याद रहे कि तरह-तरह के छोटे-बड़े कानून तोड़क इन दिनों सुशासन
की परीक्षा ले रहे हैं।
यह परीक्षा और भी कड़ी होगी जब अगले अप्रैल में नशाबंदी लागू करने
का समय आएगा।साथ ही मैट्रिक और इंटर परीक्षाओं में कदाचार रोकने
की कोशिश के दौरान भी शासन की इच्छाशक्ति की परीक्षा होगी।
उससे पहले शासन को इन दिनों रोज ब रोज खुद को प्रमाणित करने का
मौका मिल रहा है।कुछ मामलों में सफलता और कुछ में विफलता मिल रही
है।
पटना में सघन वाहन जांच और अतिक्रमण हटाने के काम चल रहे
हैं।मंत्री के पी.ए. और पुलिसकर्मी भी जुर्माना अदा करने को मजबूर हो रहे
हैं।बिना हेलमेट व कागजात के पकड़े जाने पर नियम तोड़क लोग
पुलिसकर्मियों से भिड़ जाते हैं।इससे भी लगता है कि चीजें कितनी बिगड़ी
हुई हंै और उसे सुधारना कितना जरुरी है।
मंत्री के पी.ए.को जुर्माना भरना पड़ेगा तो उससे शासन की हनक कायम
होगी।
पर अतिक्रमण हटाने के काम में शासन वैसी चुस्ती नहीं दिखा पा रहा है।
क्योंकि आम तौर पर अतिक्रमणकारियों की स्थानीय पुलिस से साठगांठ
रहती है।पुलिस की नाजायज कमाई का वह भी एक जरिया है।
पटना में वाहन जांच और अतिक्रमण हटाने के काम यदि बिना किसी
भेदभाव के संपन्न होते हैं तो उसका असर राज्य के अन्य जिलों में भी
पड़ेगा।
खगौल रोड ओवर ब्रिज को बंद करके उसके बाकी काम पूरे किये जा रहे
हैं।बड़े वाहनों के लिए बदले हुए मार्ग की घोषणा भी जिला प्रशासन ने कर
दी है।शासन ने यह आदेश जारी किया है कि बड़े वाहन फुलवारी शरीफ
से एन.एच.-98 होते हुए नौबत पुर जाएंगे और वहां से शिवाला होते हुए
पटना लौटेंगे। पर वाहन बदले हुए मार्ग पर नहीं चल रहे हैं।बड़ी संख्या
में बड़े वाहन नकटी भवानी से चकमुसा- कुर्जी-सरारी होते हुए गुजर रहे
हैं। लोगों को बड़ी परेशानी हो रही है।दुर्घटनाएं हो रही हैं। अन्य छोटे
वाहनों का पतली सड़क पर चलना कठिन हो गया है।इसके लिए कौन
जिम्ेदार है ? पुलिस बल की कमी, उसकी काहिली या भ्रष्टाचार ?
पटना की दो खबरें चिंताजनक हैं।पटना जिला मुख्यालय से कुछ ही
कदम पर प्रखंड कार्यालय स्थित है।जिलाधिकारी संजय अग्रवाल के औचक
निरीक्षण से अंचल कार्यालय की पोल खुल गयी।
अंचल कार्यालय की जमीन पर भारी अतिक्रमण और दलालों के जमावड़े
को देखकर डी.एम.दंग रह गये।सवाल है कि इससे पहले किसी डी.एम.ने
इतने करीब स्थित अंचल कार्यालय की ओर झांकने तक की जहमत क्यों
नहीं उठायी थी जबकि वहां के भ्रष्टाचार की खबरें आम हैं ?
इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान के गेट पर अपराधियों के गिरोह खुलेआम
शराब पीते हैं।वहां महिलाएं कौन कहे,पुरुष भी असुरक्षित हैं।मना करने पर
उन लोगों ने डाक्टरों से मारपीट कर ली।स्थानीय पुलिस आखिर करती
क्या है ? सुशासन के प्रति राजनीतिक कार्यपालिका की इच्छाशक्ति की
हनक वहां तक भी पहुंचनी चाहिए।ऐसी छोटी-छोटी घटनाएं आम लोगों के
दिलो दिमाग पर शासन के प्रति नकारात्मक असर डालती हैं।
पर,इस बीच पुलिसकर्मियों के खाली पदों को भरना होगा।
पुलिसकर्मियों को बेहतर प्रशिक्षण के साथ-साथ आधुनिक हथियार भी
मिलने चाहिए।संगठित गिरोंहों के पास पुलिस से बेहतर व आधुनिक
हथियार हैं।
पुलिस को बेहतर सेवा शत्र्तों की भी दरकार है।उनके काम के घंटे तय
होने चाहिए।उन्हें असीमित घंटे काम करने पड़ते हैं।
बड़ी-बड़ी बातें तो ठीक हैं।पर ऐसे छोटे-मोटे सुधारों से राज्य में
विकास का माहौल बनेगा।यदि बिहार का कायापलट करना है तो अब यह
नहीं चलने दिया जाना चाहिए कि ‘यहां सब चलता है।’ ं
कानून तोड़कों के खिलाफ यह एक ऐसा युद्ध है जिसे किसी की भी
परवाह किए बिना हर हाल में जीतना ही पड़ेगा ।
@ इस लेख का संपादित अंश दैनिक भास्कर,पटना के 29 दिसंबर 2015
के अंक में प्रकाशित@