बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

 बिहार सरकार की अपनी खुद की आय इन दिनों करीब 30 हजार करोड़ रुपए से अधिक है।
यदि 2001-02 में राज्य सरकार टैक्स के रूप में 8 हजार करोड़ रुपए भी जुटा रही होती तो मेरा अपना परिवार नहीं बिखरता।
 पर 2001- 02 में राज्य सरकार की अपनी आय सिर्फ करीब  2 हजार करोड़ रुपए थी।
 इतने कम पैसों से न तो जरूरी विकास हो सकता था  और न ही सरकारी कर्मचारियों को समय पर वेतन देना संभव था।
जब मेरे भाई और भतीजे को ,जो सरकारी सेवक थे, कई -कई महीने देर से वेतन मिलने लगा तो उन दोनों ने अपने लिए झारखंड राज्य का चयन कर लिया।सन 2000 में बिहार का बंटवारा हुआ था।
मैंने जब उन्हें मना किया तो उन्होंने कहा कि क्या आप चाहते हैं कि हमलोगों को पेंशन भी नसीब न हो ?
उन्हीं दिनों आंध्र प्रदेश सरकार को बिक्री कर से करीब छह हजार करोड़ रुपए मिलते थे।पर तब बिहार में तो टैक्स चोरों की भी चांदी थी।
एक हद तक चांदी तो अब भी है,पर  जरूरी खर्चे व विकास के लिए पहले की अपेक्षा बिहार सरकार के पास पर्याप्त  धन उपलब्ध हैं।
  यदि तब आज जैसी सरकार बिहार में होती तो हमारा अविभाजित परिवार एक साथ ही रहता।सब एक -दूसरे के दुःख-सुख में शामिल होते।अब तो देखा-देखी भी यदा -कदा ही हो पाती है। 
आज मेरे परिवार के करीब आधे सदस्य रांची में हैं और बाकी हम लोग पटना और गांव में।
  सरकार का काम प्रकृति की तरह का ही होता है।गर्मी के कारण पानी वाष्प बनकर आकाश में पहुंचता  है। बरसात में वाष्प पानी बन कर तपती जमीन को ठंडक पहुंचाता है।उससे फसलें लहलहाती भी हैं।
 इसी तरह सरकार का भी काम है  कि जिनके यहां टैक्स देय है,उनसे कड़ाई से टैक्स वसूलो।फिर वे पैसे जरूरतमंद जनता के बीच उदारतापूर्वक खर्च करो।


नेता से पत्रकार ने 5 करोड़ रुपए ठग लिए !

कई साल पहले दिल्ली के एक बहुत बड़े पत्रकार ने एक राज की बात मुझे बताई थी। उस पत्रकार से पंजाब के एक बहुत बड़े नेता ने एक शिकायत की थी। नेता ने कहा था कि मुझसे दिल्ली के एक बहुत बड़े पत्रकार ने 5 करोड़ रुपए ठग लिए।

मुझे तब लगा था कि किसी के पास पांच करोड़ रुपए ठगवाने के लिए आते कहां से हैं ? मैं  अनुमान के घोड़े दौड़ाने  लगा। पंजाब में खेती बहुत अच्छी होती है।
घूसखोरी भी बहुत है। बाद में सुना कि वहां ड्रग्स के करोबार में भी बहुत पैसे हैं।

पर, वह नेता ड्रग्स के धंधे में  नहीं रहा। मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका। बात यह भी है कि बहुत रिश्क उठा कर इन तरीकों से कमाए जाते हैं। कोई उन पैसों में से पांच करोड़ क्यों किसी को यूं ही दे देगा ?

पर मैंने जब कैप्टन अमरेंद्र सिंह के दामाद के बैंक घोटाले की कहानी पढ़ी तो  राज समझ गया। यानी किसानों के नाम पर बैंकों से करोड़ों  उठा लो और अधिक खुद रखो और कुछ ऐसे लोगों में बांट दो जिनके मुंह, कलम और कैमरे बंद कर देने की जरूरत महसूस हो।

इसलिए कि बैंकों के पैसे लौटाने की जरूरत तो है नहीं।अधिक कड़ाई हो तो विदेश भाग जाओ।कदम- कदम पर मदद के लिए लोग इस देश में मौजूद रहते ही हैं ।हमेशा रहे हैं।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कैप्टन के दामाद ने उस पत्रकार को पैसे दिए होंगे। पर जब बैंकों को इस तरह लूटने की छूट उपलब्ध है तो इस काम में सिर्फ अमरेंद्र के दामाद ही नहीं लगे होंगे !
कोई अन्य भी हो सकता है।


डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था, ‘इस पके आम के लिए आमों के पेड़ मत काटो’


28 फरवरी 1963 को राजेन बाबू को जहानाबाद से एक तार मिला। उसे पढ़ते ही उनकी तबियत बिगड़ने लगी। तार के जरिए यह सूचना आई थी कि उनके मित्र सुलतान अहमद नहीं रहे। नर्स से ऑक्सीजन लाने के लिए कहा। ऑक्सीजन सिंलेडर आने में थोड़ी देर हुई। वैसे ऑक्सीजन दरवाजे पर आया ही था कि राजेन बाबू नहीं रहे। एक आम आदमी  की तरह जिए और मरे।

1962 में राष्ट्रपति पद से अवकाश मिलने के बाद डॉ. राजेंद्र प्रसाद पटना आए । सदाकत आश्रम परिसर में रहने लगे। यह वही मकान था जहां से वे आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। अत्यंत सामान्य किस्म का वह घर था। बाद में रहने लायक भी नहीं रह गया था। 

जयप्रकाश नारायण ने चंदा करके उसे रहने लायक बनाया। हालांकि जेपी उनके लिए एक मकान बनवाना चाहते थे। पर उसके लिए आम के पेड़ काटने पड़ते।
राजेंद्र बाबू ने इस पर कहा था कि ‘इस पके आम के लिए आम के पेड़ों को मत काटो।’

देश के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, संविधान सभा के अध्यक्ष और  12 साल तक राष्ट्रपति रहे डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बुढ़ापे में देखभाल करने में सरकार का शायद कोई खास योगदान नहीं था। समकालीन पत्रकार रवि रंजन सिन्हा के अनुसार पटना में राजेंद्र बाबू के आसपास कहीं सरकारी तंत्र नजर नहीं आता था।

पटना के गंगा किनारे आम के बगीचे के बीच की उनकी ‘कुटिया’ में ए.सी. का भी  प्रबंध  नहीं था। ऐसा उनके दमा के मरीज होने के कारण था या साधन के अभाव में, इस पर कई बार चर्चा चलती रहती है।

जवाहर लाल नेहरू के साथ मनमुटाव 

तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के साथ उनके ठंडे संबंधों के कारण ऐसी चर्चाओं को बल मिलता रहा।
दोनों के बीच मनमुटाव और बढ़ गया था जब चीनी आक्रमण के बाद डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पटना के गांधी मैदान में ‘हिमालय बचाओ’ बैनर तले हुई सभा को संबोधित किया। डॉ. राम मनोहर लोहिया द्वारा आयोजित उस सभा में जनरल करियप्पा भी शामिल हुए थे। उस सभा में सरकार के खिलाफ भी कुछ बातें कहीं गयीं।

पुराने समाजवादी उमेश जी ने बताया कि राजेंद्र बाबू के निधन के समय डॉ. लोहिया भी पटना में थे। लोहिया के साथ पत्रकार जितेंद्र सिंह भी उस दिन राजेन बाबू से मिलने गए थे। राजेन बाबू के अंतिम संस्कार में शामिल होने जब जवाहरलाल नेहरू पटना नहीं आए तो उसका यह भी एक कारण बताया गया। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री विनोदानंद झा ने प्रधानमंत्री को फोन करके पटना आने के बारे में उनसे पूछा था। प्रधानमंत्री ने कहा था कि उन्हें जयपुर जाना है। वैसे अंत्येष्टि कार्यक्रम में राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन, लाल बहादुर शास्त्री तथा अन्य कई बड़े नेता शामिल हुए थे।

डॉ. प्रसाद बढ़ती उम्र और खराब स्वास्थ्य के बावजूद सार्वजनिक कार्यक्रमों का निमंत्रण जल्दी अस्वीकार नहीं करते थे। 28 फरवरी 1963 को उन्हें पटना विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह  को संबंोधित करना था। उसके लिए वे तैयार भी थे, पर इसी बीच मित्र के निधन की खबर मिल गयी।

जब वे राष्ट्रपति थे तो उनके स्टाफ में थे राजेंद्र कपूर । वे नौकरी छोड़ कर राजेंद्र बाबू के साथ रहने पटना आ गए थे। याद रहे कि राजेंद्र बाबू के छात्र जीवन में उनके एक परीक्षक ने उनकी उत्तर पुस्तिका में लिखा था कि ‘परीक्षार्थी, इस परीक्षक से बेहतर है।’

राजेंद्र बाबू ने किसी परीक्षा में कभी सेकेंड नहीं किया। आजादी की लड़ाई में उनका योगदान अप्रतिम था। संविधान सभा के अध्यक्ष और 12 साल तक राष्ट्रपति रहे राजेंद्र बाबू के लिए उस जगह कोई ढंग का अब तक स्मारक नहीं बन सका जहां उन्होंने अंतिम सांस ली और जहां से आजादी की लड़ाई लड़ी।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद का जन्म तीन दिसंबर, 1884 को बिहार के अविभाजित सारण जिले के जीरादेई गांव में हुआ था। छपरा के जिला स्कूल में उनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई। पटना के टी.के. घोष अकादमी में शिक्षक रहे राम नरेश झा को इस बात पर गर्व है कि छपरा जिला स्कूल के पहले राजेंद्र बाबू दो साल तक टी.के. घोष अकादमी के छात्र रहे। उच्च शिक्षा के लिए वे प्रेसिडेंसी कॉलेज कलकत्ता गए।

कुशाग्र बुद्धि के राजेंद्र बाबू ने एट्रेंस से बी.ए. तक की परीक्षाओं में विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया। एम.ए.की परीक्षा में भी प्रथम श्रेणी में विश्वविद्यालय में प्रथम आए। वकालत पढ़ी। सन 1911 में वकालत प्रारंभ की। पहले कलकत्ता और फिर पटना में। वर्ष 1917 में वे चम्पारण सत्याग्रह में गांधी जी के सहयोगी बने।

1920 में वकालत छोड़ दी। असहयोग आंदोलन में शमिल हो गए। तीन बार कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। अंतरिम सरकार में देश के खाद्य मंत्री थे।उन्हें 1962 में भारत रत्न से अलंकृत किए गए। वे बिहारी छात्र सम्मेलन के संस्थापक भी थे।


(पुण्यतिथि पर उनकी याद में)

जब वी.सी.डा.जाकिर हुसेन जामिया मिलिया के गेट पर बैठ गए थे छात्रों के बूट पालिश करने


   
डा.जाकिर हुसेन जब वाइस चांसलर थे तो वे एक दिन जामिया मिलिया के गेट पर ब्रश और बुट पालिश  लेकर बैठ गए।
वे आने -जाने वाले छात्रों के जूते पालिश करने लगे।
कुछ देर तक  उन्होंने किया।फिर  तो छात्र शर्मिंदा हो गए। और उनलोगों ने अपने वी.सी. से माफी मांगी।
  उससे पहले शिक्षा विद् डा.जाकिर हुसेन ने कई बार अपने छात्रों से कहा था कि वे साफ-सुथरे कपड़े पहन कर पढ़ने आएं ।जूते भी ठीक से पालिश  किए होने चाहिए।
 पर जब छात्रों ने इस पर  ध्यान नहीं दिया तो उन्होंने गांधीवादी तरीका अपनाया और उसका भारी असर पड़ा।
  एक बार जामिया मिलिया की सभा में अर्थशास्त्र में पीएच.डी.जाकिर हुसेन ने कहा था कि ‘मैं चााहता हूं कि जो लड़के और लड़कियां यहां से शिक्षा प्राप्त करके जाएं, वे अध्यापक बनें।सबसे पहले उसी की कोशिश होनी चाहिए।
आप कामयाब अध्यापक बन कर देश की सेवा करें।’
  शिक्षा से गहरे लगाव रखने वाले जाकिर साहब को गांधी जी ने 1937 में शिक्षा के राष्ट्रीय आयोग का अध्यक्ष बनाया था ।उसकी स्थापना गांधीवादी पाठ्यक्रम बनाने के लिए हुई थी।
  बुनियादी विद्यालयों की नींव डालनी थी।
 डा.जाकिर हुसेन इस देश के तीसरे सम्मानित राष्ट्रपति थे।वे भारत रत्न से भी सम्मानित किए गए।पर,उनका सिर्फ यही एक परिचय नहीं है।
 जाकिर साहब 23 वर्ष की उम्र में ही जामिया मिलिया के स्थापना दल के सदस्य बने।सन 1969 में निधन के बाद उन्हें उसी परिसर में दफनाया गया जहां वे 1926 से 1948 तक वाइस चांसलर थे।
विनोदप्रिय, विनम्र और मृदुभाषी जाकिर साहब का जन्म 8 फरवरी , 1897 को हैदरा बाद में हुआ था।
उनके पिता हैदराबाद में वकालत करते थे । साथ में कानून की पत्रिका ‘आइने  दक्कन’ का संपादन भी।
उनके पूर्वज अफगान के बहादुर सैनिक थे।
पर जाकिर साहब के  पिता फिदा हुसेन खान ने परंपरा तोड़ कर वकालत शुरू की।
जाकिर हुसेन नौ साल के ही थे कि उनके पिता गुजर गए।
उनका परिवार 1907 में इटावा पहुंच गया।
जाकिर साहब ने अपने तीन भाइयों के साथ इस्लामिया हाई स्कूल में शिक्षा ग्रहण की।अलीगढ़ विश्व विद्यालय से अर्थशास़्त्र में एम.ए.करने के बाद 
जाकिर साहब 1923 में जर्मनी चले गये।बर्लिन विश्व विद्यालय से उन्होंने पीएच.डी.की।बाद में जाकिर साहब 1948 में  अली गढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय के भी वी.सी.बने।वे सन 1956 तक उस पद पर रहे।
अलीगढ़ विश्व विद्यालय पहले मोहमडन एंग्लो ओरिएंटल कालेज कहा जाता था जब जाकिर साहब वहां छात्र थे।तभी
एक बार गांधी जी ने वहां छात्रों-अध्यापकों को संबोधित किया था।गांधी जी ने कहा था कि भारतीयों को ऐसी शिक्षा संस्थाओं  का बहिष्कार करना चाहिए जिन पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण है।
इसका असर जाकिर हुसेन पर भी पड़ा।
बुनियादी शिक्षा की जो कल्पना गांधी की थी,उसका क्र्रमिक विकास जाकिर हुसेन ने किया।जामिया मिलिया को उन्होंने इसका एक नमूना बनाया था।
सन 1967 मेें राष्ट्रपति बनने के बाद डा.हुसेन ने कहा कि देशवासियों ने इतना बड़ा सम्मान उस व्यक्ति को दिया है जिसका राष्ट्रीय शिक्षा से 47 वर्षों तक संबंध रहा।
मैंने अपना जीवन गांधी जी के चरणों में बैठकर शुरू किया जो मेरे गुरू और प्रेरक थे।
  कम ही लोग जानते होंगे कि जाकिर साहब  बच्चों की कहानियां भी लिखते थे।
उन्होंने प्लेटो की  प्रसिद्ध पुस्तक रिपब्लिक का भी उर्दू अनुवाद किया था।
अपने अंतिम समय में वे रिपब्लिक का हिंदी में अनुवाद करवा रहे थे।उनके अनुवाद पर तब एक विद्वान ने टिप्पणी की थी कि यदि खुद प्लेटो को उर्दू में रिपब्लिक लिखनी होती तो वे भी वैसे ही लिखते जैसा जाकिर साहब ने अनुवाद किया है।
उनकी चित्रकला, नाटक तथा कुछ अन्य विधाओं में भी गहरी रूचि थी।किंतु इन बातों का अधिक प्रचार नहीं हो सका।
वे सन 1957 में बिहार के राज्यपाल बने।
1962 तक राज्यपाल रहे।
सन 1962 में उप राष्ट्रपति बने जब राष्ट्रपति डा.एस.राधाकृष्णन थे।
सन 1967 में राष्ट्रपति बने।पर 3 मई 1969 को  उनका निधन हो गया।
  खुर्शीद आलम खान जाकिर हुसेन के दामाद थे।
कांग्रेस नेता व पूर्व मंत्री सलमान खुर्शीद, खुर्शीद आलम खान के पुत्र हंै।
  जाकिर हुसेन अपने दामाद को हर ईद पर ईदी के रूप् में एक छोटी रकम देते थे।
एक बार उनसे कहा गया कि महंगाई बढ़ रही है,ईदी बढ़ा दीजिए।
इस पर जाकिर साहब ने कहा कि मैं तो  इतना ही दूंगा। 

   @--सुरेंद्र किशोर, फस्र्टपोस्टहिंदी@       

सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

दैनिक जागरण की खबर है कि उद्गम स्थल गोमुख से ऋषिकेश  तक 
गंगा का पानी पीने लायक है।ए श्रेणी का है।
 खबर के अनुसार गंगा को स्वच्छ व निर्मल बनाने के लिए  केंद्र की महत्वाकांक्षी योजना नमामि गंगे परियोजना का असर देव भूमि में नजर आने लगा है।
   यह एक उत्साहजनक खबर हे।
पर सवाल है कि ऋषिकेश से आगे की गंगा कब तक निर्मल होगी ?
क्या अविरलता के बिना निर्मलता आ पाएगी ?
अविरलता की राह में जो रोड़े खड़े कर दिए गए हैं,उन्हें हटाए बिना पूरी गंगा को निर्मल बनाया जा सकता है ?
पुराने लोग बताते थे कि अंग्रेजों के राज में पूरी गंगा निर्मल थी ही।सम्राट् अकबर रोज गंगा जल ही पीता था।
  मेरी तो राय है कि गंगा पर बांध -नहर बना कर जो उसकी अविरलता बाधित की गयी है,उसे हटाया जाना चाहिए।
उससे संबंधित राज्यों को जो आर्थिक क्षति हो ,उसकी पूत्र्ति गंगा टैकस लगा कर पूरा किया जाए।
अन्यथा गंगा के दूषित हाते जाने का नतीजा यह होगा कि गंगा के किनारे की करोड़ा आबादी कैंसर की शिकार होकर काल के गाल में समा जाएगी।   

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

बरात वाहनों के चालकों पर नजर रखने की जरूरत



तूफान केवट की बरात सोमवार को धूम धाम से निकली,पर वह गंतव्य स्थान तक नहीं पहुंच सकी।बरातियों से भरी बस दुर्घटनाग्रस्त हो गयी।
नौ  लोगों की दर्दनाक मौत हो गयी।
पटना जिले के गौरी चक में हुई यह बस दुर्घटना 
न कोई पहली घटना है और न ही आखिरी।
आम तौर पर चालक नशे में होता है।इस हादसे में भी यही कारण बताया गया।
चालक के साथ  बस मालिक पर भी तो कुछ कार्रवाई होनी चाहिए !
ऐसी खबरें लगन  में  आती ही रहती है।
चालक कभी  नशे में होता है तो कभी आधी नींद में।
  
कई बार ऐसी घटनाएं सरकार व प्रशासन के लिए भी सिरदर्द बन जाती हैं।
  इसके बावजूद न तो प्रशासन इसे रोकने के लिए कदम उठाता है न ही खुद वे लोग जो बरात साज कर निकलते हैं।
इस संबंध में कुछ नियम जरूरी है।दुर्घटना होने पर बरात ढोने वाले बसों के पियक्कड़ ड्रायवरों के साथ-साथ बस मालिकों के लिए भी सजा का प्रावधान होना चाहिए।या कम से कम उस बस का परमिट रद हो।
साथ ही बराती पक्ष  भी स्थानीय थाने को पहले ही यह लिख कर दे दे कि बरात में शामिल वाहनों के चालकों में से  कोई शराबी नहीं है।
यदि बाद में यह वादा गलत साबित हो तो वर पक्ष के अभिभावक को भी घटना के लिए जिम्मेदार बनाया जाए।
यदि पुलिस थानों को समय मिले तो बरात ढो रहे वाहनों को रोक कर कभी उनके चालकों की जांच कर ले कि उसने शराब तो नहीं पी रखी है।
 --- अफसरों के साथ कर्पूरी जी का व्यवहार---
दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव अंशु प्रकाश ने आरोप लगाया है कि ‘आप विधायकों ने केजरीवाल के सामने मुझे पीटा।’
लोकतंत्र के इतिहास में यह पहली  घटना है कि किसी चीफ सक्रेर्टी की मुख्य मंत्री के सामने ही पिटाई हो जाए।
इस सनसनीखेज व शर्मनाक आरोप की सच्चाई की जांच तो होगी ही।
पर आखिर अब ऐसा आरोप क्यों लगने लगा है ?
यदि केजरीवाल ईमानदार हैं और वे समझते हैं कि उनके अफसर बेईमान हैं तो उस समस्या से निपटने का यह कोई रास्ता नहीं है।
  अफसरों का यथा योग्य सम्मान किए बिना कहीं कोई सरकार नहीं चल सकती।
कर्पूरी ठाकुर देश के  किसी भी अन्य ईमानदार मुख्य मंत्री से कम ईमानदार नहीं थे।
उनके जमाने में भी कुछ अफसर बेईमान थे।
पर वे उनको अपमानित नहीं करते थे।
एक घटना मुझे याद है।
तब कर्पूरी ठाकुर विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता थे।मुख्य मंत्री रह चुके थे। देर शाम हो चुकी थी।एक  पैरवीकार  किसी आई.ए.एस अफसर को फोन करवाने की जिद कर बैठा।
 कर्पूरी जी उसे समझा रहे थे कि किसी बड़े अफसर को देर शाम फोन करना उचित नहीं है।उनका भी पारिवारिक जीवन है।वे काम से थके घर लौटे होंगे।उन्हें आराम करने दीजिए।कल फोन कर दूंगा।
पैरवीकार ने बड़ी जिद की।पर कर्पूरी जी नहीं माने।
 पर केजरीवाल के यहां तो मुख्य सचिव को आधी रात को बुलाकर अपमानित किया गया।क्या आधी रात को बुलाने की कोई इमरजेंसी थी ?इमरजेंसी में तो किसी अफसर को कभी भी बुलाया जा सकता है।
 ----एक कहानी सिंगा पुर की--- 
 बजट जब सरप्लस हुआ तो सिंगा पुर सरकार ने बचे हुए पैसे इस साल आम जनता में बांट देने का निर्णय  किया।
 अपने इस देश में तो क्वोत्रोचि,माल्या और नीरव मोदी जैसे आधुनिक ‘वारेन हेस्ंिटग्सों’से देश को लूटने की छूट दे दी जाती है और उसकी भरपाई के लिए जनता पर टैक्स बढ़ा दिया जाता है।
अपने देश के लोगों को सिंगापुर की ताजा कहानी सुनकर 
अजीब लगेगा।
पर क्या हमारे नये -पुराने हुक्मरानों को शर्म आएगी ?
सिंगा पुर को ऐसा किसने बना दिया जो वहां सरकार का बजट सरप्लस हो जाए ?
उस देश को ऐसा बनाने वाले का नाम था ली कुआन यू @1923-2015@।
ली कुआन कहा करते थे कि भारत में अपार संभावनाएं हैं ।पर उसे घिसे -पिटे समाजवादी नीतियों से बाहर निकलना होगा।
1959 से 1990 तक ली कुआन सिंगा पुर के प्रधान मंत्री थे।उन्होंने दूरदर्शिता और कठोर परिश्रम से सिंगा पुर को एक अमीर देश बना दिया।वे कहा करते थे कि व्यक्तिगत अधिकारों से अधिक जरूरी है सार्वजनिक कल्याण।उन्होंने थोड़ी कड़ाई जरूर की ,पर उनमें कम्युनिस्ट तानाशाह वाली क्रूरता नहीं थी।एक विश्लेषणकत्र्ता के अनुसार 
 सिंगा पुर का उदाहरण देख कर भारत को यह तय करना होगा कि वह  आधुनिक ‘वारेन हेस्टिंग्सों’ को लूट की छूट देता  रहेगा या सिंगा पुर की तरह कुछ कड़ाई करके उन्हें रोकेगा ? 
---कुछ न करने के बहुत बहाने--
2015 में ली कुआन यू के निधन के बाद अपने देश के राजनीतिक  विश्लेषकों ने तरह -तरह के लेख लिखे।
लिखा गया कि सिंगा पुर जैसे छोटे देश में ही ऐसा चमत्कार संभव है।भारत में नहीं।
सवाल है कि केरल में क्यों आरोपितों में से 77 प्रतिशत अपराधियों  को अदालतांंे से सजा दिलवा दी जाती है,पर पश्चिम बंगाल में यह प्रतिशत मात्र 11 है ?
क्यों दशकों के कम्युनिस्ट शासन के बावजूद कोलकाता के ग्रेट इस्टर्न होटल को निजी हाथों में दे देने को ज्योति बसु सरकार मजबूर हो गयी थी  ?
क्यों इसी देश में एक बस से शुरू करके निजी आपरेटर कुछ ही साल में दर्जनों बसों का मालिक हो जाता है और राज्य पथ परिवहन घाटे में रहता है ?दरअसल करने के बहुत रास्ते होते हैं औ न करने के अनेक बहाने ! 
--- एक भूली बिसरी याद---
मशहूर कम्युनिस्ट नेता जगन्नाथ सरकार ने लिखा था कि  राज कुमार पूर्वे के संस्मरणों से गुजरना एक दिलचस्प अनुभव है।दिवंगत पूर्वे की संस्मरणात्मक पुस्तक ‘स्मृति शेष’ का एक प्रकरण में सामान्य पाठकों 
की भी दिलचस्पी हो सकती है।
यह प्रकरण है भारत पर चीन के हमले का प्रकरण।
स्वतंत्रता सेनानी व विधायक रहे दिवंगत पूर्वे के अनुसार, चीन ने भारत  पर 1962 में आक्रमण कर दिया।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने आक्रमण का विरोध किया।
पार्टी में बहस होने लगी।
कुछ नेताओं का कहना था कि चीनी हमला हमें पूंजीवादी सरकार से मुक्त कराने के लिए है।दूसरों का कहना था कि माक्र्सवाद हमें यही सिखाता है कि क्रांति का आयात नहीं होता।
देश की जनता खुद अपने संघर्ष से पूंजीवादी व्यवस्था और सरकार से अपने देश को मुक्त करा सकती है।
पार्टी  के अंदर एक वर्ष से कुछ ज्यादा दिनों तक बहस चलती रही।
लिबरेशन या एग्रेशन का ?
इसी कारण कम्ुयनिस्ट पार्टी, जो राष्ट्रीय धारा के साथ आगे बढ़ रही थी और विकास कर रही थी, पिछड़ गयी।
लोगों में देश पर चीनी आक्रमण से रोष था।
यह स्वाभाविक था ,देशभक्त ,राष्ट्रभक्त की सच्ची भावना थी।
यह हमारे खिलाफ पड़ गया।कई जगह पर हमारे राजनीतिक विरोधियों ने लोगों को संगठित कर हमारे आॅफिसों और नेताओं पर हमला भी किया।
हमें चीनी दलाल कहा गया।
आखिर में उस समय 101 सदस्यों की केंद्रीय कमेटी में से 31 सदस्य पार्टी से 1964 में निकल गए।
उन्होंने अपनी पार्टी का नाम भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी@माक्र्सवादी @रखा।सिर्फ भारत में ही नहीं,कम्युनिस्ट पार्टी के इस अंतर्राष्ट्रीय फूट ने पूरे विश्व में पार्टी के बढ़ाव को रोका और अनेक देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों में फूट पड़ गयी।
    ----- और अंत में---
  उत्तर प्रदेश के खूंखार अपराधी अब पुलिस की गोली खाने के बदले जेल की खिचड़ी खाना पसंद कर रहे हैं।उन्हें लगता है कि वहां जाने पर कम से कम जान तो बच जाएगी।
क्योंकि वहां की सरकार ने पुलिस बल को निदेश दे दिया है कि वह खुद पहल करके अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करे।ऐसा न हो कि अपराधी पहल करें और आप उसका सिर्फ जवाब भर दें।बिहार में पुलिस पहल कब करेगी ?
@ 23 फरवरी, 2018 को प्रभात खबर-बिहार -में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@


पत्रकारिता के शीर्ष पुरूष राजेंद्र माथुर से 1983 में
हुई मेरी बातचीत का एक छोटा अंश मैं यहां प्रस्तुत 
कर रहा हूं।
----------------------------------
मैं -- आपका अखबार दब्बू है। आप इंदिरा गांधी के खिलाफ नहीं लिख सकते ।
माथुर साहब - यू आर मिस्टेकन।मेरा अखबार दब्बू नहीं है।
आप इंदिरा गांधी के खिलाफ जो भी खबर लाएं, मैं जरूर छापूंगा।पर इंदिरा जी में कई अच्छाइयां भी हैं।मैं उन्हें भी छापूंगा।मेरा अखबार अभियानी नहीं है।
----------
आज  मैं देखता हूं कि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा एक तरफ है तो दूसरा बड़ा हिस्सा दूसरी तरफ।दोनों के अपने -अपने तर्क भी हैं।
पर, मैं ऋषि तुल्य राजेंद्र माथुर के इस विचार को पत्रकारिता के लिए आदर्श मानता हूं।
आप इस पर क्या सोचते हैं ?   

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

अररिया लोक सभा उप चुनाव नतीजे से तय होगी बिहार की अगली राजनीति की दशा-दिशा



           
अररिया लोक सभा उप चुनाव नतीजा बिहार की राजनीति की दशा-दिशा लगभग तय कर देगा।
 वहां 11 मार्च को उप चुनाव होगा।राजद के मोहम्मद तसलीमुद्दीन के निधन के कारण यह सीट खाली हुई है।उसके साथ उसी दिन दक्षिण बिहार के दो विधान सभा चुनाव क्षेत्रों में भी उप चुनाव होने हैं।वे क्षेत्र हैं जहानाबाद और भभुआ।ये सीटें भी जिला मुख्यालय की हैं।
  ये उप चुनाव बिहार में राजनीतिक समीकरण बदलने के बाद हो रहे हैं।गत साल जदयू ने लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले राजद का साथ छोड़कर 
राजग का दामन थाम लिया था।
 इस बीच लालू प्रसाद दूसरी बार चारा घोटाले में सजा पाकर जेल चले गए हैं।यानी, लालू प्रसाद चुनाव प्रचार के लिए उपलब्ध नहीं हैं।उनकी जगह उनके पुत्र तेजस्वी यादव ने  कमान संभाल ली है।वे बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता भी हैं।
राजद ने इस बार भी यह दावा किया है कि लालू प्रसाद के जेल  जाने के बाद आम जनता में राजद के प्रति समर्थन बढ़ा है।
सन् 2013 में जब लालू प्रसाद को चारा घोटाले के ही एक अन्य केस में सजा हुई थी तो राजद ने तब भी कहा था कि सहानुभूति के कारण बिहार में राजद लोक सभा की सभी 40 सीटें जीतेगा।
पर उसे 2014 के लोक सभा चुनाव में सिर्फ 4 सीटें मिलीं।देखना है कि इस बार राजद के लिए यह चुनाव  कैसा रहता है। 
 उप चुनाव नतीजे उस दावे की असलियत बता देंगे।
 याद रहे कि 2015 के  बिहार विधान सभा चुनाव के समय जदयू राजद के साथ था।
अब जदयू भाजपा के साथ है।सन 2014 के लोक सभा चुनाव में  तीनों दल अलग -अलग चुनाव लड़े थे।
दलीय समीकरण में आए बदलाव का सरजमीन पर कैसा असर पड़ा है ? उप चुनाव नतीजे इस सवाल का भी जवब दे दंेगे।
वैसे राजद ने जब सन 2010 में लोजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा तो उसे बिहार विधान सभा की कुल 243 सीटों में से सिर्फ 23 सीटें मिली थीं।लोजपा की 2 सीटें मिलीं।इन  ताजा उप चुनावों में राजद के साथ कांग्रेस है।भभुआ सीट पर कांग्रेस लड़ेगी।भभुआ कांग्रेस के आधार वोट वाली सीट मानी जाती है।
भाजपा के साथ तो जदयू है।लोजपा जैसे कुछ अन्य सहयोगी दल भी राजग में हैं।
सन 2014 के लोक सभा के चुनाव में अररिया में राजद के मोहम्मद तसलीमुद्दीन को कड़े़ मुकाबले में करीब 4 लाख 7 हजार  मत मिले थे।
भाजपा के प्रदीप कुमार सिंह को करीब 2 लाख 61  हजार और जदयू के विजय कुमार मंडल को करीब 2 लाख 21 हजार वोट मिले थे।
 इस बार अररिया में राजद और भाजपा के बीच  सीधा मुकाबला होगा।जदयू भाजपा का समर्थन कर रहा है।
 पिछले लोक सभा चुनाव में अररिया में प्रमुुख उम्मीदवारों को  मिले मतों को
ध्यान में रखें तो राजद के लिए यह सीट जीतना इस बार कठिन होगा।
पर इसके साथ कुछ अन्य तत्व भी चुनाव में काम कर सकते हैं।
लालू प्रसाद के परिवार की कानूनी परेशानियों से मतदाता कितने द्रवित होते हैं,यह देखना दिलचस्प होगा।या फिर उसका कोई असर नहीं पड़ता है ! यदि असर नहीं पड़ेगा तो राजद का राजनीतिक भविष्य अनिश्चित हो सकता है।
साथ ही केंद्र सरकार की उपलब्धियां भी कसौटी पर होंगी।
ताजा बैंक घोटाले को मतदाताओं ने किस रूप में लिया है ?
इस सवाल का भी जवाब इस उप चुनाव में मिल सकता है।  
तसलीमुद्दीन के पुत्र सरफराज आलम हाल तक जदयू के विधायक थे।उन्होंने अररिया लोक सभा उप चुनाव लड़ने के लिए विधान सभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है।
अब वे राजद में हैं।आलम अररिया जिले के ही जोकीहाट विधान सभा क्षेत्र से विधायक थे।वे अररिया में राजद उम्मीदवार हैं।
 पिता के निधन के बाद पुत्र के पक्ष में सहानुभूति मत कितना मिलता है,यह देखना भी दिलचस्प होगा। 
  तसलीमुददीन दबंग नेता थे।प्रधान मंत्री एच.डी.देवगौड़ा के कार्यकाल में तसलीमुददीन गृह राज्य मंत्री बनाये गए थे।
पर विवादास्पद परिस्थितियों में उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था।
तसलीमुददीन  आठ बार विधायक और 5 बार सांसद थे।  
   दक्षिण बिहार के जहानाबाद से राजद विधायक मुन्द्रिका सिंह यादव के निधन के कारण वह विधान सभा  सीट खाली हुई ।
वहां राजद और राजग के बीच सीधा मुकाबला होने की संभावना है।भाजपा ने कहा कि इस सीट पर जदयू ल़ड़े।
मुंद्रिका यादव के पुत्र वहां राजद उम्मीदवार हैं। 
गत विधान सभा चुनाव में राजद ने रालोसपा के प्रवीण कुमार को करीब 30 हजार मतों से हराया था।
तब राजद और जदयू मिल कर चुनाव लड़ रहे थे।
रालोसपा राजग का घटक दल है।
अगला उप चुनाव नतीजा  वहां राजग की ताकत का हाल बता देगा।
 भभुआ में पिछले चुनाव में भाजपा के आनंद भूषण पांडेय ने जदयू के प्रमोद सिंह  को हराया था।
देखना है कि इस बार बदले समीकरण में कैसा नतीजा आता है।
इन चुनाव क्षेत्रों के सारे  उम्मीदवार तय हो जाने के बाद स्थिति अधिक स्पष्ट होगी।
@मेरा यह लेख फस्र्टपोस्ट हिंदी पर प्रकाशित@



बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

Morarjee Desai diet
--------------------------
    Two litres of milk , in seven doses evenly spread over the day.
    Coconut water twice a day,
preferably in the morning at a three - hour interval.
  An early lunch at 9 .30 a.m.consisting of more milk, fruit, home made cottage cheese, butter from cow s milk, dates and something sweet.
   Dinner is the same ,with steamed ,not boiled ,vegetables substituted for fruit.
/ --The Telegraph magazine -- 26 Feb.1996 /


मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

 यदि एम.ओ.मथाई की चर्चित  संस्मरणात्मक पुस्तक पर भरोसा करें तो इस देश में सार्वजनिक उपक्रम को चूना लगाने के लिए पहली बार जयंती शिपिंग कंपनी के मालिक धर्म तेजा ने ‘हनी ट्रैप’ का उपयोग किया था।
मथाई 13 साल तक प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू का 
निजी सचिव था। इससे अधिक मुझसे कुछ मत पूछिएगा।

---और भी खतरे हैं माल्या-मोदी के सिवा ----


31 जनवरी, 2018 के हिंदू में  मैंने मुर्गे को लेकर एक पेज की खोजपूर्ण रपट पढ़ी थी।
तभी सोचा था कि कभी बाजार जाउंगा तो देखूंगा कि 
मुर्गे की मोटाई का इन दिनों क्या हाल है।
निरामिष होने के कारण मैं मांस-मुर्गे की दुकान देख कर मुंह फेर लेता हूं।
  कुछ साल पहले तक कभी -कभी मुर्गे को करीब से देख लेता था।पर साठ साल की उम्र में निरामिष हो गया।
  आज बाजार में मुर्गे की एक दुकान के पास ठहर कर गौर से देखा।
मोटे -मोटे मुर्गे नजर आए।
 हिन्दू ने यही तो लिखा था।
 अखबार के अनुसार इन दिनों मुर्गों को कोलिस्टीन नामक सुपर एंटी बायोटिक दिया जा रहा है।
मुर्गा फार्म की साफ-सफाई पर  ध्यान नहीं दिया जाता।
इसलिए अनेक मुर्गे मरते रहते  थे।पर इस एंटीबायोटिक के चलन के बाद अब वे नहीं मरते। साथ ही जल्द ही वे वजनदार भी हो जाते हैं।
 पर जो लोग वैसे मुर्गे खाते हैं,बीमार होने पर खुद उन पर कोई एंटी बायोटिक दवा जल्द काम नहीं करती।
क्योंकि ‘लास्ट होप’ के नाम से चर्चित कोलिस्टीन तो मुर्गा को दिया जा चुका है जिसे आपने खाया है। 
दरअसल इस देश को सिर्फ विजय माल्या -नीरव मोदी से ही खतरा नहीं है।कोलिस्टीन देने वाले मुर्गा फार्म मालिकों से भी तो है ! वैसे लोगों से मुर्गा खाने वालों को कौन बचाएगा ?
क्या हिंदू अखबार का कुछ असर सरकारों पर पड़ा ?

एक तरफ हर्षद मेहता जेल में ही मर गया, उधर लक्खुभाई केस में भी रिहा हो गए नर सिंह राव



          
शेयर दलाल हर्षद मेहता ने शपथ पत्र के जरिए तत्कालीन प्रधान मंत्री को घूस देने का आरोप सार्वजनिक रूप से लगाया था।
पर न तो झूठा आरोप लगाने के आरोप में हर्षद को सजा हुई और न ही घूस लेने के आरोप में नरसिंह राव को।
 नतीजतन इस देश में भ्रष्टाचार बढ़ता चला गया।
 हां, एक अन्य मामले में सजायाफ्ता हर्षद मेहता
2002 में जेल में ही मर गया।दूसरी ओर लक्खुभाई पाठक केस में नरसिंह राव 2003 में अदालत से बाइज्जत बरी हो गए थे।
   हर्षद मेहता ने 16 जून 1993 को मुम्बई के   प्रेस कांफ्रेंस में  यह आरोप लगाया था कि उसने प्रधान मंत्री पी.वी.नरसिंह राव को एक करोड़ रुपये से भरा एक सूटकेस उनके दिल्ली स्थित आवास पर जाकर घूस के रूप में दिया।
 उस प्रेस कांफ्रंेस में मशहूर वकील राम जेठमलानी भी मेहता की मददगार के रूप में मौजूद थे।
  दूसरी ओर इस आरोप को झूठ का पुलिंदा बताते हुए कांग्रेस ने कहा था कि मेहता प्रधान मंत्री का ब्लैकमेल करने के लिए यह झूठा आरोप लगा रहा है।
इस सनसनीखेज आरोप पर होना तो यह चाहिए था कि या तो रिश्वत लेने के लिए नरसिंह राव के खिलाफ कार्रवाई होती या फिर झूठ बोलने के लिए हर्षद मेहता के खिलाफ ।पर कुछ भी नहीं हुआ।मामला यूं ही रफा -दफा हो गया।क्योंकि इसी में महा प्रभुओं को फायदा दिखा।
  पर, इसके साथ ही हर साल इस देश के बड़े -बड़े नेताओं पर बड़े- बड़े घोटालों के आरोप लगते रहते  हैं और मामला रफा -दफा होता रहता है।किसी घोटाले बाज अधिकतर नेताओं  का अंततः कुछ  
नहीं बिगड़ता।इसके साथ ही सरकारी भ्रष्टाचार इस देश में दिन दुनी रात चैगुनी बढ़ता जा रहा है।किसी के खिलाफ कार्रवाई हुई भी लोकहित याचिकाओं पर अदालतों के निदेशों  के कारण ही।
सत्ताधारी नेताओं ने शायद ही कभी खुद कार्रवाई की।अपवादों की बात और है।
  काश ! हर्षद मेहता या फिर नरसिंह राव में से किसी को भी सजा मिली होती तो बाद के घोटाले नहीं होते।
  इसी बहाने एक बार फिर नरसिंह राव-हर्षद प्रकरण याद कर लिया जाए।  
हर्षद मेहता ने तब यह आरोप लगाया था कि मैं अपने साथ प्रधान मंत्री आवास एक सूटकेस ले गया था।उसमें 67 लाख रुपये थे।उसे मैंेने प्रधान मंत्री के व्यक्तिगत सचिव राम खांडेकर को दे दिया।ऐसा मैंेने प्रधान मंत्री के कहने से किया।एक करोड़ देने की बात थी,पर उस दिन सुबह तक मैं 67 लाख का ही प्रबंध कर सका था।दूसरे दिन मैंने शेष रकम पहुंचा दी।
  मैंेने मुलाकात के दौरान प्रधान मंत्री को यह भी बताया था कि शेयर बाजार में पैसे कमाना कितना आसान है।मैंने शपथ पत्र के जरिए प्रधान मंत्री को पैसे देने की बात कह दी है।
   जेठमलानी से पूछा गया था कि क्या हर्षद  की कही गई बातों को आप सिद्ध कर सकते हैं ? मशहूर वकील ने कहा था कि हमारे पास इतने प्रमाण हैं कि हम अग्नि परीक्षा से भी बखूबी गुजर सकते हैं।जरूरत पड़ेगी तो हम प्रमाणों को पेश कर देंगे।
  क्या हर्षद मेहता प्रधान मंत्री को ब्लैकमेल नहीं कर रहा है ?
इस सवाल के जवाब में जेठमलानी ने कहा कि सवाल यह है कि वह ऐसा भला क्यों करेगा ?वह एक सौ ग्यारह दिन पुलिस कस्टडी में रहते हुए ब्लैक मेल कर सकता था।किंतु तब तो उसने यह काम नहीं किया।
   इस संबंध में जब मशहूर वकील नानी पालकीवाला से पूछा गया कि मेहता के आरोप में कितनी सच्चाई है ?पालकीवाला ने कहा कि शपथ पत्र में दिए गए हर्षद के बयान में सच्चाई प्रतीत होती है।चारित्रिक रूप से हर्षद भले ही असामान्य व्यक्ति है,पर वह प्रधान मंत्री पर ऐसे आरोप लगाने की हिमाकत तभी कर सकता है ,जब उसके पास ठोस प्रमाण हो।
    अगर हर्षद का आरोप सच है तो प्रधान मंत्री को ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए ? इस पर पालकीवाला  ने कहा कि अगर आरोप सच है तो प्रधान मंत्री को इसे स्वीकार कर लेना चाहिए।लोक सभा का ऐसा कौन सा सदस्य है जिसने दूसरों की वित्तीय मदद के बिना चुनाव जीता हो ? कथनी और करनी में एकरूपता और अनुरूपता दिखाने का यही समय है।
  याद रहे कि प्रधान मंत्री पर यह आरोप लगा था कि उन्होंने नंदियाल लोक सभा उप चुनाव में खर्च करने के लिए हर्षद मेहता से आर्थिक मदद ली थी।जब 1991 में वे प्रधान मंत्री बने थे तब वे संसद के किसी सदन के सदस्य नहीं थे।बाद में वे नंदियाल से जीत कर आये।लोक सभा में भी  तब कांग्रेस को पूर्ण बहुमत हासिल नहीं था।तब झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को रिश्वत देकर नरसिंह राव ने अपनी सरकार बचाई थी।रिश्वत लेकर वोट देने का आरोप बाद में साबित भी हो गया ।पर उसको लेकर किसी को सजा इसलिए नहीं हो सकी क्यों कि वैसा करने का कोर्ट को अधिकार ही नहीं है।यह अधिकार कोर्ट को अब भी नहंी है।याद रहे कि संसद के भीतर के कामों के लिए किसी सांसद पर कोर्ट में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। 
@फस्र्टपोस्टहिंदी में 19 फरवरी 2018 को प्रकाशित मेरे काॅलम दास्तान ए सियासत से@

एक टी वी दर्शक ने कहा कि ‘मैं हर शाम 
अपने टी.वी.सेट पर रिमोट दबा-दबा कर पहले 
यह देख लेता हूं कि किस चैनल पर सबसे कम शोरगुल हो रहा है।
बस उसी चैनल पर ठहर जाता हूं भले कार्यक्रम कुछ कम 
सूचनाप्रद हो।ऐसे चैनल को क्या देखना जहां हर समय  चार लोग एक साथ  एक -दूसरे पर ऐसे झपटते रहते हैं जैसे गली के ........।कोई किसी का नहीं सुनता ।क्या एंकर को भी यह समझ में नहीं आता कि श्रोता कैसे सुन और समझ पाता होगा ? सही बात तो यह है कि श्रोता के पल्ले कुछ नहीं पड़़ता।

सोमवार, 19 फ़रवरी 2018


27 अप्रैल, 2017 को ही  सुप्रीम कोर्ट ने यह कह दिया था कि लोक सभा में प्रतिपक्ष के नेता का पद खाली रहने  के बहाने  लोकपाल की नियुक्ति के  काम को टालने का कोई औचित्य नहीं है।
  याद रहे कि लोकपाल  कानून, 2013 के संबंध में 1 जनवरी 2014 को ही अधिसूचना जारी कर दी गयी थी।पर आज तक लोकपाल की बहाली नहीं हो सकी।
केंद्र सरकार का तर्क है कि लोक सभा में प्रति पक्ष के नेता नहीं हैं।इसलिए चयन समिति का गठन नहीं हो पा रहा है।
केंद्र सरकार लोकपाल कानून में संशोधन करना चाहती है ताकि प्रतिपक्ष के नेता के बदले सबसे बड़ी पार्टी के नेता को चयन समिति में शामिल किया जा सके।
पर सवाल है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर जब हरी झंडी दे दी है तो भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने का दावा करने वाली मोदी सरकार लोकपाल की नियुक्ति क्यों नहीं कर रही है।
सरकार की ओर से हो रही इस देरी  को लेकर कई मोदी समर्थक भी अचंम्भित हैं।
  याद रहे कि लोकपाल कानून के अनुसार जिन पांच व्यक्तियों की चयन समिति लोकपाल का चयन करेगी उनमें प्रधान मंत्री ,लोक सभा के स्पीकर,लोकसभा  में प्रतिपक्ष के नेता,सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा मनानेनीत कोई अन्य न्यायाधीश।पांचवें सदस्य होंगे कोई मशहूर न्यायविद्।
  किसी को लोक सभा में प्रतिपक्ष के नेता का दर्जा तभी मिलता है जबकि उसके दल के सदस्यों की संख्या  सदन की कुल संख्या के दसवें हिस्से  से कम न हो।
याद रहे कि कांग्रेस के सदस्यों की संख्या इससे कम है।


स्कूल स्तर से ही पर्यावरण विज्ञान के शिक्षण की जरूरत बढ़ी--
पिछले कुछ वर्षों में हरियाली  क्षेत्र का विस्तार करके बिहार सरकार ने सराहनीय काम किया है।
यह अत्यंत जरूरी काम है।इससे पर्यावरण संतुलन कायम करने और रखने में सुविधा होगी।
 पर रोज-रोज बिगड़ते पर्यावरण संतुलन के बीच स्कूली स्तर से ही  पर्यावरण विज्ञान की अनिवार्य पढ़ाई आज  और भी जरूरी मानी जा रही है। 
बचपन से ही जागरूक बनाया जाए तो आगे चल कर नागरिक  पर्यावरण की रक्षा के प्रति अधिक सचेत रहेंगे।
  इसी को ध्यान में रखते हुए एम.सी.मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में लोक हित याचिका दायर की थी।
उस पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 22 नवंबर, 1991 को केंद्र और राज्य सरकारों को  निदेश दिये थे ।निदेश यह था कि  वे प्राथमिक से लेकर विश्व विद्यालय स्तर तक पर्यावरण विज्ञान की पढ़ाई ‘पृथक और अनिवार्य विषय’ के रूप में कराएं।
पर सरकारों ने इस जरूरी विषय को भूगोल के साथ मिला दिया।
नतीजतन उसका वांछित परिणाम सामने नहीं आ रहा है।
  अब जबकि देश के अधिकतर नगर और महा नगर बिगड़ते पर्यावरण के कारण रहने लायक नहीं रह गए हंै, सरकारों को इस मसले पर  एक बार फिर विचार कर लेना चाहिए।
 कई साल पहले चर्चित खगोल वैज्ञानिक स्टीफन हाॅकिंग ने कहा था कि ‘ यदि मनुष्य को अपने अस्तित्व की रक्षा करनी है तो उसे दूसरे ग्रहों पर भी अपना बसेरा बना लेना चाहिए।’
 उन्होंने इसके जो तीन कारण बताए थे, उनमें एक कारण यह भी है कि पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है।
जाहिर है कि तापमान बढ़ने का एक बड़ा कारण पर्यावरण संतुलन को लेकर अधिकतर लोगों की लापारवाही भी है।विभिन्न देशों की सरकारें भी या तो लापारवाह रही हैं या कम सावधान हैं।
भारत जैसे देश में आम लोगों में लापारवाही का एक बड़ा कारण जागरूकता का भारी अभाव है।
  ऐसी स्थिति में यदि जागरूकता स्कूली स्तर से ही ठीक ढंग से बढ़ाई जाए तो आगे चल कर उसके बेहतर रिजल्ट आ सकते हैं।
पर अब तक सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के 1991 के निदेशों को नजरअंदाज ही किया है।या फिर अधूरे मन  से उसका पालन किया है।  
यदि सरकार अपने प्रयास से हरित क्षेत्र का विस्तार कर सकती है तो पर्यावरण संतुलन के प्रति नयी पीढ़ी को जागरूक करने का कोई बेहतर उपाय भी कर ही सकती है।  
सन 2000 में राज्य के विभाजन के बाद शेष बिहार में करीब  आठ प्रतिशत वन क्षेत्र रह गया था।अब यह बढ़कर 15 प्रतिशत हो गया है।
राज्य सरकार की कोशिश है कि इसे अगले दो साल में 17 प्रतिशत कर दिया जाए।
 मेडिकल उपकरणों की खरीद--- 
खबर है कि इस देश में चीन निर्मित  मेडिकल उपकरणों की उपलब्धि के बाद अब सरकारी खरीद के काम में लगे अफसरों व आपूत्र्तिकत्र्ताओं की चांदी ही चांदी है।
कुछ जानकार लोग इस बारे में भीतरी सूचनाएं संबंधित लोगों को देते रहते हैं।पर उसका कोई असर नहीं पड़ता।
 कल्पना कीजिए कि सरकार को एक करोड़ रुपए की लागत से किसी विश्वसनीय कंपनी के मेडिकल उपकरण की खरीद करनी  है।
  आपूत्र्तिकत्र्ता वही उपकरण 30 लाख रुपए में चीनी कंपनी से खरीद लेगा।उस उपकरण पर उस विश्वसनीय कंपनी की मुहर लगा देगा।ऐसा उपाय कर देगा कि मशीन ऊपर से देखने पर उसी नामी विश्वसनीय कंपनी का ही दिखे।
 70 लाख रुपए कई लोगों के बीच बंट जाएंगे।
क्या यह खबर सही है ? क्या ऐसी कोई व्यवस्था है कि खरीदी गयी नयी  मशीन के भीतरी हिस्से की प्रामाणिक जांच होती है ? क्या ऐसे महंगे उपकरणों की थर्ड पार्टी जांच की व्यवस्था नहीं हो सकती ? 
     एक भूली -बिसरी याद---- 
    नरेंद्र मोदी की सरकार के गठन के बाद अब तक वोहरा कमेटी की रपट पर कोई चर्चा नहीं सुनी गयी है।यानी लगता है कि रपट सन 1993 से ही केंद्र सरकार की आलमारी में धूल खा रही है।क्या  मोदी सरकार ने उसे देखा है ?
उस रपट में कतिपय सरकारी अफसरों, नेताओं और देश के माफिया गिरोहों के बीच के अपवित्र गठबंधन का जिक्र है।उस गठबंधन को तोड़ने के उपाय भी रपट में सुझाए गये हैं। समिति की सिफारिश आर्थिक क्षेत्र में सक्रिय लाॅबियों, तस्कर गिरोहों ,माफिया तत्वों के साथ कुछ प्रभावशाली नेताओं और अफसरों की बनी आपसी सांठगाठ से संबंधित है।
      काले धन, अपराध, भ्रष्टाचार और देशद्रोह के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए इस रपट से खास रोशनी  मिलती है।
   पांच दिसंबर, 1993 को तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव  एन.एन.वोहरा द्वारा सरकार को पेश  रपट में  कहा गया है कि ‘ इस देश में अपराधी गिरोहों ,हथियारबंद सेनाओं, नशीली दवाओं का व्यापार करने वाले माफिया गिरोहों,तस्कर गिरोहों,आर्थिक क्षेत्रों में सक्रिय लाॅबियों का तेजी से प्रसार हुआ है।इन लोगों ने विगत कुछ वर्षों के दौरान स्थानीय स्तर पर नौकरशाहों,सरकारी पदों पर आसीन लोगों , राज नेताओं,मीडिया से जुड़े व्यक्तियों तथा गैर सरकारी क्षेत्रों के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन व्यक्तियों के साथ व्यापक संपर्क विकसित किये हैं।इनमें से कुछ सिंडिकेटों की विदेशी आसूचना एजेंसियों के साथ- साथ अन्य अंतरराष्ट्रीय सबंध भी हैं।’
    वोहरा रपट में यह भी कहा गया है कि इस देश के कुछ बड़े प्रदेशों  में इन गिरोहों को स्थानीय स्तर पर  राजनीतिक दलों के नेताओं और सरकारी पदों पर आसीन व्यक्तियों का संरक्षण हासिल है। समिति ने  यह भी कह दिया  
था कि ‘तस्करों के बड़े -बड़े सिंडिकेट देश के भीतर छा गये हैं और उन्होंने हवाला लेन-देनों , काला धन के परिसंचरण सहित विभिन्न आर्थिक कार्यकलापों को प्रदूषित कर दिया है।
  ं यह भी कहा गया था कि ‘कुछ माफिया तत्व नारकोटिक्स,ड्रग्स और हथियारों की तस्करी में संलिप्त हैं ।चुनाव लड़ने जैसे कार्यों में खर्च की जाने वाली राशि के मददेनजर राजनेता भी इन तत्वों के चंगुल में आ गये हैं।वोहरा समिति की बैठक में आई.बी.के निदेशक ने साफ- साफ कहा था कि ‘माफिया तंत्र ने वास्तव में एक समानांतर सरकार चला कर राज्य तंत्र को एक विसंगति में धकेल दिया है।’
  क्या मोदी सरकार ने इस बात का आकलन किया है कि इन मामलों में 1993 और 2018 में ंकितना फर्क आया है ?उस रपट पर अब भी कार्रवाई करने की जरूरत है भी या नहीं ? 
      और अंत में-----
 पठन -पाठन का  माहौल बनाने के लिए भाजपा ने अपने हर राज्य शाखा कार्यालय में अच्छी   लाइब्रेरी स्थापित करने का निर्णय किया है। पार्टी कार्यकत्र्ताओं को बौद्धिक तर्कों से लैस करने के लिए अब तक छह राज्यों में यह काम पूरा हो चुका है।अभी बिहार बाकी है।केंद्रीय भाजपा आफिस में  पुस्तकालय की स्थापना तो 2016 में ही हो चुकी थी।अन्य दल चाहें तो भाजपा के इस कदम से कुछ सबक ले सकते हैं।
@16 फरवरी 2018 को प्रभात खबर -बिहार-में प्रकाशित मेरे कानोंकान काॅलम से@ 

  

देश के सर्वाधिक प्रतिभाशाली लेखकोें में से एक चेतन भगत ने 
2019 चुनाव मंे जीत के लिए कांग्रेस को 10 सूत्री सुझाव दिए हैं।
मेरा भी मानना है कि कांग्रेस इसका पालन करे तो उसकी स्थिति सुधर सकती है।
पर क्या इन सुझावों को वह मानेगी ?
क्या कांग्रेस में खुद को सुधारने की क्षमता बाकी रह भी गयी है ?
यदि आगे कभी वह चुनाव जीतेगी भी तो नकारात्मक वोट से ही।
वैसी स्थिति अभी तो नहीं दिखाई पड़ रही है।
चेतन के  भोले मन से दिए गए उस दस सूत्री सुझाव में से मैं यहां सिर्फ तीन सुझावों की चर्चा करूंगा।
क्या ये सुझाव कांग्रेस कभी मान सकती है ?मुझे तो नहीं लगता।
सुझाव संख्या एक-‘कांग्रेस सचिन पायलट को प्रधान मंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर दे।’
सुझाव संख्या दो-‘कांग्रेस हिंदू विरोधी नजर न आए।’
सुझाव संख्या तीन- ‘बुराई से दूर रहे।’
चेतन का सुझाव मुझे वैसा ही लगता है जैसे कोई कहे कि कंबल में से रोएं को निकाल दो।


कमल जी, आपने लिखा कि घोटाले  व्यवस्था की सड़ांध की परिचायक है।इसे बदले बिना कोई कानून कारगर नहीं हो सकता।
मैंने पूछा कि वह कौन सी व्यवस्था है जिसमें घोटालों की गंुजाइश नहीं।
आपने ठीक ही कहा कि व्यवस्था सही वही मानी जाएगी जो अपने सही रूप में अंतिम पायदान तक पहुंचे।
बहुत अच्छी बात आपने कही।पर वैसी किसी व्यवस्था की रूपरेखा  अब तक किसी ने तैयार नहीं की है।आपके पास हो तो बताइएगा।
 आपकी यह बात ज्यादा सही है कि बागडोर कैसे हाथों में है।
 आजादी के तत्काल बाद के पांच -दस साल तक लगता था कि कानून का शासन है।बाद में सत्ताधारी नेताओं की ढिलाई के कारण स्थिति बिगड़ी।
 पर आज भी केरल में 77 प्रतिशत आरोपितों को अदालतों से सजा हो जाती है।बिहार  और पश्चिम बंगाल में  यह प्रतिशत क्रमशः  10 और 11  है।
 1953 में पूरे देश में अपराधियों को सजा का औसत प्रतिशत 63.9 था।अब 45 प्रतिशत 1 है।
व्यवस्था तो वही है।पर उसे चलाने वाले बदल गए।
मैंने चीन और रूस की चर्चा इसलिए की क्योंकि पीडि़त मनुष्य के उद्धार के लिए अब तक की वह सबसे अच्छी व्यवस्था मानी गयी।उसने उद्धार किया भी।पर वह व्यवस्था भी जब गलत हाथों में चली गयी तो स्थिति बदल गयी।
चीन के एक शासक ने हाल ही में यह रोना रोया कि यदि हमारे देश में भ्रष्टाचार नहीं रुका तो यह देश सोवियत संघ की तरह ही बिखर जाएगा।
जबकि वहां भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी तक की सजा का प्रावधान है।
हमारे यहां उसका प्रयोग करके पहले देखना चाहिए।
यानी फांसी की सजा का प्रावधान करके।यहां कड़े  शासन 
का लोग पालन करते हैं। 1975-77 का आपातकाल उसका उदाहरण है।
यदि आपातकाल का उद्देश्य जन कल्याण रहा होता तो उसे आम स्वीकृति भी मिल गयी होती।
इसी देश में जब पोटा था तो आज की अपेक्षा अधिक देशद्रोहियों  को सजा हो पाती थी।
  यानी कानून भी बेहतर व समायानुकूल हो और शासन चलाने वाले भी ठीक ठाक हांे तो स्थिति बदल सकती है।
 पर दुर्भाग्य से हमारे यहां कानून तोड़कों को यह लगता है कि वे कुछ भी करके बच सकते हैं।
@मेरे फेस बुक वाल पर वरीय पत्रकार राजेंद्र कमल की टिप्पणी पर मेरा  जवाब@

रविवार, 18 फ़रवरी 2018

---और भी खतरे हैं माल्या-मोदी के सिवा ----
31 जनवरी, 2018 के हिंदू में  मैंने मुर्गे को लेकर एक पेज की खोजपूर्ण रपट पढ़ी थी।
तभी सोचा था कि कभी बाजार जाउंगा तो देखूंगा कि 
मुर्गे की मोटाई का इन दिनों क्या हाल है।
निरामिष होने के कारण मैं मांस-मुर्गे की दुकान देख कर मुंह फेर लेता हूं।
  कुछ साल पहले तक कभी -कभी मुर्गे को करीब से देख लेता था।पर साठ साल की उम्र में निरामिष हो गया।
  आज बाजार में मुर्गे की एक दुकान के पास ठहर कर गौर से देखा।
मोटे -मोटे मुर्गे नजर आए।
 हिन्दू ने यही तो लिखा था।
 अखबार के अनुसार इन दिनों मुर्गों को कोलिस्टीन नामक सुपर एंटी बायोटिक दिया जा रहा है।
मुर्गा फार्म की साफ-सफाई पर  ध्यान नहीं दिया जाता।
इसलिए अनेक मुर्गे मरते रहते  थे।पर इस एंटीबायोटिक के चलन के बाद अब वे नहीं मरते। साथ ही जल्द ही वे वजनदार भी हो जाते हैं।
 पर जो लोग वैसे मुर्गे खाते हैं,बीमार होने पर खुद उन पर कोई एंटी बायोटिक दवा जल्द काम नहीं करती।
क्योंकि ‘लास्ट होप’ के नाम से चर्चित कोलिस्टीन तो मुर्गा को दिया जा चुका है जिसे आपने खाया है। 
दरअसल इस देश को सिर्फ विजय माल्या -नीरव मोदी से ही खतरा नहीं है।कोलिस्टीन देने वाले मुर्गा फार्म मालिकों से भी तो है ! वैसे लोगों से मुर्गा खाने वालों को कौन बचाएगा ?
क्या हिंदू अखबार का कुछ असर सरकारों पर पड़ा ?

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

surendra kishore: वोट बैंक बनाने की मजबूरी

surendra kishore: वोट बैंक बनाने की मजबूरी:             भाजपा नेतृत्व  आंध्र प्रदेश के मुख्य मंत्री और  टी.डी.पी.के रूठे नेता चंद्र बाबू नायडु को मनाने में लraghvendra गा है।माना जा रहा है कि ...

वोट बैंक बनाने की मजबूरी


           
भाजपा नेतृत्व  आंध्र प्रदेश के मुख्य मंत्री और  टी.डी.पी.के रूठे नेता चंद्र बाबू नायडु को मनाने में लगा है।माना जा रहा है कि दोनों के बीच सुलह हो जाएगी।
कुछ राजनीतिक सहयोगियों के मामले में यही काम सन् 2004 के लोक सभा चुनाव से पहले भाजपा नहीं कर सकी थी।नतीजतन सत्ता उसके हाथ से निकल गयी।
इस बार लगता है कि भाजपा छाछ फंूक -फंूक कर पी रही है। 
यदि भाजपा ने तब राम विलास पासवान को समय पर मना लिया होता और वह डी.एम.के. से दूर नहीं चली गयी होती तो 2004 के लोक सभा चुनाव के बाद भी सत्ता एन.डी.ए.के पास  ही रहती।
 1999 और 2004 लोक सभा  चुनाव के  आंकड़े इस बात की स्पष्ट गवाही देते  हैं। 
दरअसल कोई बड़ा चुनाव जीतने के लिए न सिर्फ अच्छे कामों की जरूरत पड़ती है बल्कि मजबूत सहयोगी और एक स्थायी वोट बैंक भी चाहिए।
वैसे वोट बैंक का इस्तेमाल इस देश में विभिन्न तरह के नेता व दल अलग- अलग उद्देश्यों की पूर्ति के लिए करते रहते हंै।
 कोई अपने जातीय-सांप्रदायिक वोट बैंक के बल पर अपने वंशवाद,व्यापक भ्रष्टाचार ,अपराध , और व्यक्तिगत धन संग्रह अभियान के काम को आगे बढ़ाने के लिए करता  है तो कोई इसका इस्तेमाल व्यापक जनहित में करता है।
 यदि अच्छे काम करने वाले सत्ताधारी दल के पास भी एक स्थायी वोट बैंक की ताकत नहीं होगी तो उसका तम्बू भी छोटी-मोटी विपरीत राजनीतिक -गैर राजनीतिक हवा -बयार में ही उखड़ जाएगा। जिस तरह हाल में राजस्थान के उप चुनावों में हुआ। 
जाने -अनजाने वोट बैंक इस देश की राजनीति पर 
1952 से ही हावी है।
  आजादी के तत्काल बाद की  सरकार ने अनुसूचित जातियों और जन जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान किया।
 आरक्षण दस साल के लिए ही हुआ था।
यानी दस साल के बाद आरक्षण नियम के नवीनीकरण के लिए इस समुदाय को सरकार यानी कांग्रे्रेस पर निर्भर रहना ही था।
फिर वे किस दूसरे दल को  वोट देते ? क्यों अनिश्चितता को आमंत्रित करते ?
वैसे भी आजादी दिलाने का जिस दल को सबसे अधिक श्रेय मिला था,उसके प्रति आम लोग वैसे भी प्रारंभिक वर्षों में आकर्षित थे।
पर वे वोट बैंक बाद के वर्षों में कांग्रेस के राजनीतिक दुर्दिन में भी काम आते रहे।याद रहे कि हर दस साल पर आरक्षण का नवीनीकरण होता रहा।  
 1947 में भारी सांप्रदायिक हिंसा व तनाव  के बीच देश का बंटवारा हुआ था। जो मुसलमान  भारत में ही रह गए,उनकी सुरक्षा की समस्या थी।कांग्रेस सरकार ने उन्हें सुरक्षा का वादा किया।एक हद तक सुरक्षा दी भी।
वह भी एक वोट बंैक बन गया।
जिस जाति का प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री होता है,उस जाति का
बिन मांगे समर्थन उस नेता व पार्टी को मिल जाता है।
1987-89 में तो जब लगा कि वी.पी.सिंह प्रधान मंत्रंी बनने ही वाले हैं  तो उनकी जाति के अधिकतर लोगों का बिना मांगे समर्थन उन्हें मिल गया था।यह लाभ देश के प्रथम प्रधान मंत्री को भी मिलना स्वाभाविक ही था।
  इंदिरा गांधी के प्रधान मंत्रित्व काल में तो महिला का भी आकर्षण कांग्रेस के प्रति बढ़ा।हालांकि इंदिरा गांधी को सबसे अधिक लाभ गरीबी हटाओं के उनके नारे से मिला।गरीबों का एक  वोट बैंक भी उनके पक्ष में तैयार हो गया था।
यानी ऐसे वोट बैंक के सहारे कांग्रेस बहुत दिनों तक राज करती रही।कुछ अच्छे किंतु  अधिकतर विवादास्पद कार्यो के बावजूद कांग्रेस की सत्ता लंबे समय तक चलती रही।पर समय बीतने के साथ जैसे -जैसे मतदाताओं ने देखा कि कांग्रेस सरकारें वोट बैंक का सदुपयोग नंहीं कर रही है तो उसे बारी -बारी से केंद्र और अधिकतर राज्यों की सत्ता से हटा  दिया।
    इसके मुकाबले राजग,भाजपा और खास कर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का भी अपना वोट बैंक तैयार हो रहा  है।कुछ अन्य वोट बैंक तैयार करने की राजग सरकार कोशिश कर रही है।
हालांकि उसमें देर हो रही है जो उसके लिए घातक साबित हो सकती है।
 राजग सरकार के पक्ष में ऐसे लोगों का वोट बैंक तैयार हो चुका है जो चाहता है कि राजनीतिक कार्यपालिका भ्रष्टाचार से मुक्त  हो।
इस मामले में नरेंद्र मोदी सरकार सफल रही है।मोदी मंत्रिमंडल के किसी सदस्य पर भ्रष्टाचार का कोई गंभीर  आरोप नहीं लगा है।
सरकार में भ्रष्टाचार है ,पर मंत्रियों ने आम तौर पर दामन बचा रखा है।यदि कहीं कुछ है भी वह सामने नहीं आ रहा है।
खुद प्रधान मंत्री का तो कहना ही क्या !
एक -दो अपवादों को छोड़कर अब तक के अधिकतर केंद्रीय मंत्रिमंडलों का कोई न कोई मंत्री गंभीर आरापों के घेरे में था।
 राजग के पक्ष में दूसरा वोट बैंक ऐसे लोगों का है जो चाहते  
हैं कि केंद्र सरकार देश को तोड़ने और हथियारों के बल पर सत्ता पर कब्जा करने की कोशिश में लगे आतंकवादियों-अतिवादियों  के प्रति नरमी न दिखाए।मोदी इस काम में सफल होती दिख रही है।
हां,भ्रष्टाचार के मामले में मोदी सरकार की सफलता अधूरी है,पर अनेक लोग उसकी मंशा पर शक नहीं कर रहे हैं।
संकेत है कि राजग नेतृत्व  दो अन्य प्रमुख  मुद्दों पर मंथन
कर रहा है ।
एक मुद्दा है पिछड़ों के लिए जारी 27 प्रतिशत आरक्षण को तीन हिस्सों में बांटने का।
दूसरा मुददा है महिला आरक्षण विधेयक पास कराने का।
अगले लोक सभा चुनाव के लिए मजबूत वोट बैंक तैयार करने की दिशा में ये मुददे काफी मददगार साबित हो सकते हैं।
  पर सवाल है कि  इन मुद्दों को आगे बढ़ाने के लिए जैसी राजनीतिक इच्छा शक्ति की जरूरत होनी चाहिए,राजग नेतृत्व में मौजूद  है ?
 मंडल आरक्षण के वर्गीकरण को लेकर जिस तरह की इच्छाशक्ति केंद्र सरकार ने दिखाई है,उससे तो सकारात्मक संकेत आ रहे हैं।
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने 2011 में ही मन मोहन  सरकार से यह सिफारिश की थी कि 27 प्रतिशत के मंडल आरक्षण कोटे को तीन हिस्सों में बांट दिया जाना चाहिए।उस सरकार ने इस सिफारिश को राजनीतिक रूप से नुकसानदेह माना।
मोदी सरकार ने गत साल गांधी जयंती पर  इस संबंध में बड़ा निर्णय किया।
न्यायाधीश रोहिनी के नेतृत्व में एक समीक्षा समिति बना दी गयी।
समिति आयोग की सिफारिश की समीक्षा करेगी।
उसे तीन महीने में रपट देनी है।उस रपट के आ जाने के बाद संभवतः केंद्र सरकार उस पर अपना अंतिम निर्णय कर सकती है।
अब तक यह पाया जाता रहा है कि  27 प्रतिशत के कोटे के बावजूद औसतन 11 प्रतिशत पिछड़ों को ही कोटे की नौकरियों में  जगह मिल पा रही है।
यदि वर्गीकरण से कुछ लोगों को अपने हक में यह प्रतिशत बढ़ने की संभावना नजर आएगी तो पिछड़ों के उन  हिस्सों का समर्थन भी राजग को मिल सकता है ।
 महिला आरक्षण विधेयक  2010 में राज्य सभा से पास हो गया था।इस विधेयक के जरिए विधायिकाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें रिजर्व करने का प्रावधान है।
पर वह विधेयक लोक सभा से पास नहीं हो सका।
आम सहमति के अभाव में यह संविधान संशोधन विधेयक लटक गया।
2014 के अगस्त में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महिला आरक्षण विधेयक पास करने की जरूरत बताई  थी।
 यानी यदि केंद्र सरकार अब महिला विधेयक संसद में पेश करती है तो कांग्रेस उसका विरोध नहीं करेगी।
 मोदी सरकार के लिए यह एक  अनुकूल राजनीतिक अवसर है।
यदि पास हो गया तो भी उसका राजग को राजनीतिक लाभ मिलेगा।यदि कांग्रेस ने सदन में उसका विरोध कर दिया तौभी राजग अगले चुनाव में कांग्रेस पर  महिला विरोधी होने का आरोप लगा  सकता है।
  कुल मिलाकर पहल करने का अवसर केंद्र की राजग सरकार को मिला हुआ है।
ऐसा अवसर  1969 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को मिला था। उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ का लोक लुभावन नारा दे दिया।उन्होंने  14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। और, प्रिवी पर्स व राजाओं के विशेषाधिकार समाप्त करके ऐसा माहौल बना दिया कि वे अपने ही बल पर आसानी से 1971 का लोक सभा चुनाव जीत गयीं।     
  @ मेरे इस लेख का संपादित अंश 15 फरवरी, 2018 के दैनिक जागरण में  प्रकाशित@
      

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

बिहार की राजनीति को लेकर इन दिनों तरह -तरह की
अफवाहों का बाजार गर्म है।
अधिकतर लोग तो अपनी इच्छा का प्रकटीकरण भविष्यवाणी के रूप में करते हैं।
 पर यदि उनकी खबर सही भी है तो मतदाताओं  का मन किसकी ओर कितना डोल रहा है,उसकी जांच का अवसर अगले महीने ही आ रहा है।
11 मार्च को एक लोक सभा और दो विधान सभा चुनाव क्षेत्रों में उप चुनाव होने वाले हैं।
उनके नतीजे कुछ ठोस राजनीतिक संकेत दे देंगे।
उसके बाद जिन्हेें अपने मन की जितनी मिठाई खानी ,खा लीजिएगा।यह भी संभव है कि कुछ अन्य लोगों के मुंह का स्वाद ही बिगड़ जाए।


2007 में यह खबर आई थी कि ब्रिटेन के प्रिंस हैरी 
इराक युद्ध में जाने को लालायित थे, पर सेना प्रमुख ने उन्हें रोक दिया।क्योंकि उन्हें अधिक खतरा लगा।याद रहे कि उससे पहले प्रिंस इराक जा चुके थे।
याद रहे कि उन्होंने दस साल की मिलिट्री ट्रेनिंग ली ।वे कप्तान  बने ।सवाल है कि क्या ऐसी ट्रेनिंग उनके लिए जरूरी  थी ? पता नहीं।हां,देश के लिए उनके मन में प्रेम के कारण वे रणक्षेत्र में जाना चाहते थे।
  हमारे देश के कुछ ‘लोकतंात्रिक राजाओं’ और उनके आधुनिक प्रिंस लोगों के लिए क्या यह कोई सबक बन सकता है ?
पता नहीं।
ऐसी घटनाओं से पता चलता है कि कोई देश कैसे गुलाम और आजाद बनता है और बना रहता है।अपने देश के गुलाम बनने के कुछ कारण बताए जाते रहे हैं।
पर, अब तो अपने देश में ऐसा कोई बंधन नहीं है कि कुछ खास जातियों को ही हथियार  उठाने दिया जाता है।जिस काल में ऐसे प्रतिबंध की बात कही जाती है,उस बात में भी कितनी सच्चाई है,यह मैं नहीं जानता। 
  दुनिया के कुुछ अन्य देशों में वहां के नागरिकों के लिए आवश्यक मिलिट्री ट्रेनिंग का प्रावधान है।छह माह से ढाई साल तक के लिए।
चीन और इजरायल में ऐसा प्रावधान है तो बात समझ आती है।पर कुछ ऐसे देशों में भी ऐसे प्रावधान हैं जिन देशांे को शायद ही कभी युद्ध झेलना पड़ा हो।
 अपने देश में यदि कोई यह बात उठा दे कि यहां एक खास आयु के आम नागरिकों के लिए अनिवार्य मिलिट्री ट्रेनिंग का प्रावधान होना चाहिए तो यहां  राजनीतिक तूफान  उठ जाएगा।कुछ लोग उठाने वाले को  कच्चा चबा जाना चाहेंगे।
जबकि हमारे देश पर एक  पड़ोसी ने अघोषित युद्ध छेड़ रखा है।उस युद्ध में हमारे भीतर के अनेक जयचंद-मिरजाफर भी सक्रिय है।अपने -अपने तरीके  से वे अपनी भूमिकाएं निभाते रहते हैं।कुछ प्रत्यक्ष तो कुछ परोक्ष ढंग से।
दूसरा पड़ोसी हमेशा षड्गहस्त है।पता नहीं, कब क्या हो जाएगा ?
 चीन ने पचास के दशक में जब तिब्बत में सक्रियता दिखाई तो हमारे देश के अच्छी मंशा वाले कुछ नेताओं ने भारत सरकार को चेताया।पर हमारी तब की सरकार तो पंचशील के नशे में थी।नतीजतन 1962 में हमें चीन के हाथों शर्मसार होना पड़ा।
चीन युद्ध के  समय जब हमारे मित्र सोवियत संघ ने भी हमारा साथ नहीं दिया तो प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने  अमेरिकी सरकार को लगातार कई त्राहिमाम संदेश भेजे।
एक दिन तो कुछ ही घंटे के भीतर जब दो संदेश अमेरिका स्थित भारतीय राजदूत को मिले तो हमारी बेचारगी पर वह राजदूत  भी शर्मिंदा हो गए थे।
 खैर, कल्पना कीजिए कि हमारे दो पड़ोसी मुल्क एक साथ हम पर युद्ध थोप दंे तो वैसी स्थिति में क्या यह जरूरी नहीं हो जाएगा कि आम नागरिकों में से जो स्वस्थ हैं ,वे भी देश को बचाने के काम में लग जाएं ?
यदि उन्हें कोई ट्रेनिंग नहीं रहेगी तो वे क्या करेंगे ?
जहां तक मुझे याद है मैंने सुना था कि एक युद्ध के समय तो हमारे देश में एन.सी.सी. के कैडेट दिल्ली में ट्राफिक का काम देख रहे थे।
  अब जरा उन देशों की सूची देख लीजिए जहां के नागरिकों के लिए कुछ अपवादों को छोड़कर अनिवार्य मिलिट्री ट्रेनिंग का प्रावधान है।
आस्ट्रिया-@ 8 माह@,ग्रीस-@18 माह@,इजरायल और चीन--स्त्री-पुरूष दोनों के लिए-जरूरी।
फीनलैंड-6 माह,जर्मनी- 9 माह।
मलेशिया-3 माह।लेबनान-एक साल।
सिंगा पुर -ढाई साल।साउथ कोरिया - 26 माह।इनके अलावा स्वीडेन, स्विट्जर लैंड, ताइवान आदि में जरूरी सैनिक प्रशिक्षण का प्रावधान है।
हम कहां हैं ?
  
   

सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

  बहुत दिनों से मैं सोच रहा था कि आपको अपने बारे में एक खास बात बताऊं।यह भी कि वह खास  बात  किस तरह मेरे जीवन में बड़े काम की साबित हुई।
 मैंने 1977 में एक बजुर्ग पत्रकार की नेक सलाह मान कर 
अपने जीवन में एक खास दिशा तय की।
उसका मुझे अपार लाभ मिला।
 मैंने फरवरी 1977 में अंशकालीन संवाददाता के रूप में दैनिक ‘आज’ का पटना आॅफिस ज्वाइन किया था। 
  हमारे ब्यूरो चीफ थे पारस नाथ सिंह।
उससे पहले वे ‘आज’ के कानपुर संस्करण के स्थानीय संपादक थे। वे ‘आज’ के नई दिल्ली ब्यूरो में भी वर्षों तक काम कर चुके थे।
 पटना जिले के तारण पुर गांव के प्रतिष्ठित राजपूत परिवार में उनका जन्म हुआ था।
 वे बाबूराव विष्णु पराड़कर  की यशस्वी धारा के पत्रकार थे।
 विद्वता और शालीनता से भरपूर।
इधर मैं लोहियावादी समाजवादी पृष्ठभूमि से निकला था।पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रबल समर्थक।
सक्रिय राजनीति से निराश होकर पत्रकारिता की तरफ बढ़ा ही था कि देश में आपातकाल लग गया।
  पहले  छोटी-मोटी पत्रिकाओं में काम शुरू किया था ।उन पत्रिकाओं में नई दिल्ली से प्रकाशित चर्चित साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ भी था।उसके प्रधान संपादक जार्ज फर्नांडिस और संपादक कमलेश थे।गिरधर राठी और मंगलेश डबराल भी प्रतिपक्ष में थे।भोपाल के आज के मशहूर पत्रकार एन.के.सिंह भी कुछ दिनों के लिए ‘प्रतिपक्ष’ में थे।ं 
पर वह जार्ज के दल  का मुखपत्र नहीं था।वह ब्लिट्ज और दिनमान का मिश्रण था।
  आपातकाल में मैं फरार था।बड़ौदा डायनामाइट केस  के सिलसिले में सी.बी.आई.मुझे बेचैनी से खोज रही थी कि मैं  मेघालय भाग गया।
जब आपातकाल की सख्ती  कम हुई तो में पटना लौट आया और ‘आज’ ज्वाइन कर लिया।
मैंने अपनी पृष्ठभूमि इसलिए बताई ताकि आगे की बात समझने में सुविधा हो।
  आज ज्वाइन करते ही मैंने देखा के ‘आज’ में हर जगह ब्राह्मण भरे हुए हैं।
मैंने पारस बाबू से इस संबध्ंा में पूछा और सामाजिक न्याय की चर्चा की । उन्होंने जो कुछ कहा ,उसका मेरे जीवन पर भारी असर पड़ा।
  ऋषितुल्य पारस बाबू ने कहा कि आप जिस पृष्ठभूमि से आए हंै,उसमें यह सवाल स्वाभाविक है।पर यह कोई लोहियावादी पार्टी का दफ्तर नहीं है।
  यदि यहां ब्राह्मण भरे पड़े हैं तो यह अकारण नहीं हैं।
  ब्राह्मण विनयी और विद्या व्यसनी होते हैं।
ये बातें पत्रकारिता के पेशे के अनुकूल हैं।
यदि आपको पत्रकारिता में रहना हो तो ब्राह्मणों के इन गुणों को अपने आप में विकसित कीजिए।
अन्यथा, पहले आप जो करते थे, फिर वही करिए।
  मैंने पारस बाबू की बातों की गांठ बांध ली।
उसके अनुसार चलने की आज भी कोशिश करता रहता हूं।
उसमें मेहनत, लगन और ध्यान केंद्रण अपनी ओर से जोड़ा।यदि 1977 के बाद के शुरूआती वर्षों में पत्रकारिता के बीच के अनेक ब्राह्मणों ने मुझे शंका की दृष्टि से देखा,वह स्वाभाविक ही था।उन्हें लगा कि
पता नहीं मैं अपने काम में  सफल हो पाऊंगा या नहीं।पर पारस बाबू की शिक्षा  मेरे जीवन में रंग दिखा चुकी थी।
 नतीजतन मेरे पत्रकारीय जीवन में एक समय ऐसा आया जबकि देश के करीब आध दर्जन जिन प्रधान संपादकों ने मुझे स्थानीय संपादक  बनाने की दिल से कोशिश की, उनमें पांच ब्राह्मण ही थे।उनमें से एक -दो तो अब भी हमारे बीच हैं।
मैं इसलिए नहीं बना क्योंकि मैं खुद को उस जिम्मेदारी के योग्य नहीं पाता।
 पर, आज भी मेरे पास लिखने-पढ़ने के जितने काम  हैं ,वे मेरी क्षमता से अधिक हैं।पैसे के मामले में भी संतुष्टि है।नौकरी में रहते हुए जितने पैसे मुझे मिलते थे,उससे अधिक अब भी मिल जाते हैं।मूल्य वृद्धि को ध्यान में रखने के बावजूद ।
 यह सब पारस बाबू के गुरू मंत्र का कमाल है।मैंने तो अपने जीवन में ‘आरक्षण’ का विकल्प  ढंूढ़  लिया ।वैसे 
यह बता दूं कि मैं अनारक्षित श्रेणी वाले समाज से आता हूं। 
    

 शिष्टाचारवश जो बातें आमने-सामने बैठकर नहीं कही जा सकतीं, उसके लिए आजकल फेसबुक एक अच्छा जरिया बन गया है।
 मुझे भी ऐसी ही एक बात कहनी है जो मैं किसी को सामने बैठकर नहीं कह सकता।
  कई बार हम ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं जिनकी आदत  लगातार एकालाप करने की होती है।
चाहे आप उनके घर जाएं या वे आपके यहां आएं।मिलते ही वे  शुरू हो जाएंगे तो बिछुड़ने तक जारी रहेंगे।
 खुद के बारे में, अपने बाल -बच्चों के बारे में, अपने दफ्तर में अपनी हैसियत के बारे में और न जाने क्या क्या !
  इस बीच आपसे एक बार भी नहीं पूछेंगे कि आप कैसे हो  ?
आपके बाल -बच्चे क्या कर रहे हैं ?
इस बीच आप कहां -कहां गए ? क्या-क्या  देखा ?
इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं ?
शालीन व्यक्ति तो उनके एकालाप को झेल लेता है।पर यदि कोई उन्हीं की तरह का उन्हें मिल गया तब तो ईगो का टकराव शुरू हो जाता है। और, बातचीत जल्द ही समाप्त हो जाती है।
हालांकि कुल मिलाकर घाटा एकालापियों को ही होता है।
ऐसे लोगों की बातों पर बाद में कम ही लोग ध्यान देने लगते हैं जिनसे वे उपेक्षित महसूस करने लगते हैं।इसलिए एकालापियो, सावधान हो जाओ ! थोड़ा दूसरों की भी सुनो ! 


 1990 में तत्कालीन प्रधान मंत्री चंद्र शेखर की पहल पर 
शरद पवार ने राम जन्म भूमि न्यास और भैरो सिंह शेखावत ने
बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी से अलग अलग बातचीत कर ली थी।
  गत साल शरद पवार ने कहा कि बाबरी मस्जिद -राम मंदिर विवाद के हल के हमलोग काफी करीब पहुंच चुके थे।
इस बीच राजीव गांधी ने चंद्र शेखर की सरकार गिरा दी।
  लेखक पत्रकार खुशवंत सिंह ने एक बार कहा था कि 3997 मस्जिदों पर से हिंदू अपना दावा छोड़ दें।उधर मुस्लिम समुदाय अयोध्या, काशी और मथुरा की मस्जिदों को छोड़ दें।
इस तरह के हल की कोशिश समय -समय पर होती रहती है।पर इस देश में कुछ लोग ऐसे हैं जो चाहते हैं कि दोनों समुदायों में सौहार्द बढ़ने से उनकी नेतागिरी पर खतरा पैदा हो जाएगा।इसलिए वे हल नहीं होने देते।


फेस बुक नये युग का वरदान है।इसके बेहतर इस्तेमाल के लिए कुछ बातों पर ध्यान देना जरूरी है।
आप पोस्ट को पूरा पढ़े।पोस्ट आपको लंबा लगे तो  भले न मत पढ़े।पर बिना पूरा पढ़े कोई टिप्पणी न करें।अन्यथा आप हंसी के पात्र होंगे।
 इतना ही नहीं, पोस्ट पर अब तक आई सारी टिप्पणियों को भी पढ़ ले।तभी कुछ लिखें।
मै अक्सर देखता हूं कि पोस्ट की दो लाइन पढ़कर जो सवाल उठा दिया जाता है,उसका जवाब उसी पोस्ट की अगली पंक्तियों में पहले ही लिख दिया  गया होता है।
कई नयी बातें तो मित्रों की टिप्पणियों में पहले ही आ चुकी होती हैं,उन्हें भी दोहराने की कुछ लोगों की आदत है क्योंकि टिप्पणियों को तो वे पढ़ते ही नहीं।
 इस तरह की बातों पर ध्यान रखा जाए तो मेरे पोस्ट से आप कुछ ग्रहण कर पाएंगे और आपकी टिप्पणियों से मैं कुछ सीख पाऊंगा।
एक बार फिर कह दूं।
किसी पार्टी या नेता का समर्थन करना या उसका भक्त बनना कोई बुरी बात नहीं।
आप खुशी से बनिए।पर, अपनी बात दूसरों पर मत थोपिए।
आप जो कुछ अपने फेसबुक वाॅल पर लिखना चाहते हैं,खुशी से लिखें।पर यदि कोई दूसरा व्यक्ति अपने वाल पर कुछ लिखता है तो वहां जाकर उसे परेशान करने,नीचा दिखाने धमकी देने और उसकी मंशा पर शक करने की कोशिश मत कीजिए। अन्यथा आप ब्लाॅक कर दिए जाएंगे।


‘1990 से लेकर 2005 तक के जंगल राज का टैक्स लोगों को अच्छी तरह याद है।’
जदयू के प्रदेश प्रवक्ता संजय सिंह का यह बयान आज के ‘जागरण’ में छपा देख एक नये राजनीतिक कार्यत्र्ता ने मुझसे पूछा ,‘ आप तो पुराने पत्रकार हैं।संजय सिंह लालू जी को बदनाम करने लिए अंट -शंट बयान देता रहता है या इसमें कुछ सच्चाई भी है ?
मैंने उन्हें अपना ही एक कटु अनुभव सुना दिया।
सुन कर वे चुप हो गए।
उसे मैं यहां भी दर्ज कर दे रहा हूं।
पटना के पास के एक गांव में मैंने 1990 में 24 सौ वर्ग फीट एक सहकारी समिति से जमीन खरीदी।
पति-पत्नी के वेतन से सेविंग और एक रिश्तेदार से कर्ज लेकर जमीन के लिए 29 हजार रुपए जुटाए थे।जमीन तो हो गयी,पर बाउंडरी  के लिए पैसे नहीं  थे।
  जब कुछ पैसे हुए तो एक दिन अमीन और संबंधित कोआपरेटिव सोसायटी के एक व्यक्ति को लेकर जमीन पर गया।
  नापी हो ही रही थी कि बगल से कुछ बाहुबली आ गए।उनमें से एक ने आदेशात्मक लहजे में कहा कि नापी बंद करिए।
मैंने पूछा ,‘ क्यों ?
 उसने कहा कि ‘बहस मत कीजिए, बंद करिए।’
किसी ने उससे कहा कि ये हिन्दुस्तान अखबार के राजनीतिक संपादक हैं, इन पर थोड़ा रहम कीजिए।
उस बाहुबली ने कहा कि ‘ये क्या होता है ?’
एक डी एस.पी. नापी कराने यहां आए थे। मैंने उनसे कहा कि भागिए नहीं तो मार छुरा के लाद फाड़ देंगे।वे भाग गए।
इस पर मैंने कहा कि मैं भी जा रहा हूं।
यह कह कर मैं वहां से हट गया।
कुछ लोगों ने मुझे सलाह दी कि आप ऊपर से मदद लीजिए।आपको तो सब जानते हैं।मैंने कहा कि मैं किसी से मदद नहीं लूंगा।
जमीन के लिए मैं किसी से विनती नहीं करूंगा।
जो होना होगा, होगा।जो कुछ अन्य लोग भोग रहे हैं,वही सब मैं भी भोगंूगा।
 मेरे एक रिश्तेदार ने कहा कि आप बड़ा आरक्षण का समर्थन करते थे। अब क्या हुआ ?
मैंने कहा कि अब भी करता हूंं ।दोनांे दो बातंे हैं।
फिर 2005 के बाद मैं उस जमीन पर गया।बिना किसी मदद ,हो-हंगामा के नापी भी हो गयी और बाउंडरी  भी हो गयी।
पर इस बीच आसपास काफी बाउंडरी हो चुकी थी।जिन लोगों ने उस बाहुबली को रंगदारी दे दी,उनका काम हो गया।
मुझे नुकसान यही हुआ कि 24 सौ के बदले 22 सौ वर्ग फीट पर ही संतोष करना पड़ा।

  


जब किसी मरीज के शरीर पर अन्य कोई एंटी बायोटिक असर नहीं करता है तो डाॅक्टर उसे कोलिस्टीन नामक सुपर एंटी बायोटिक देते हैं।
इसे लास्ट होप की संज्ञा दी गयी है।
  यह एंटी बायोटिक अब देश के अनेक मुर्गा फार्म में भी इस्तेमाल हो रहा है।मुर्गों को दिया जा रहा है।
इससे मुर्गों की मौत में कमी आयी है।साथ ही वे जल्द वजनदार भी हो जाते हैं।
 पर ऐसे मुर्गों को खाने वाले मनुष्य के शरीर पर इसका क्या असर पड़ता है  ?
विशेष जानकारी तो विशेषज्ञ चिकित्सक ही देंगे, पर मोटा- मोटी जानकारी यह है कि इस तरह का मुर्गा खाने वाले जब खुद बीमार पड़ेंगे और यदि उन्हें एंटी बायोटिक देने की जरूरत पड़ेगी तो उनके शरीर पर कोई एंटी बायोटिक दवा शायद काम नहीं करेगी।
  हमारे डाक्टर मित्र जरूर इस पर टिप्पणी करें कि क्या ऐसा मुर्गा खाना सचमुच नुकसानदेह है ?
यदि नहीं तो आप जरूर खाएं ।निश्चिंत होकर खाएं।आज छुट्टी के दिन कुछ अधिक  ही खाएं।यदि नुकसान देह है तो मुर्गा के बदले मूंगफली खाएं जिसमें अधिक प्रोटीन  है। 
प्रति 100 ग्राम मूंगफली में 25 ग्राम प्रोटीन है तो 100 ग्राम चिकेन में 20 ग्राम ही प्रोटीन है। 

रविवार, 11 फ़रवरी 2018

    15 अगस्त, 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से कहा था कि ‘आज किसी के पास कोई काम लेकर जाओ तो वह पूछता है कि ‘इसमें मेरा क्या ?’ जब उसे पता चलता है कि उसे कुछ नहीं मिलने वाला है तो वह कहता है कि ‘तो फिर मुझे क्या ?’ दरअसल वे केंद्र सरकार के काम काज की एक झलक दे रहे थे।ठीक ही कह रहे थे।
  अगले पंद्रह अगस्त को प्रधान मंत्री पांचवी बार लाल किले से झंडा फहराएंगे।
प्रधान मंत्री को इस बार देश को यह बताना चाहिए कि इस मामले में उनकी सरकार की अब क्या स्थिति है ? उन्होंने इस बीच ‘तो फिर मुझे क्या ’ कहने वालों में से कितने लोगों को अब तक जेल भिजवाया है ?
या फिर अगले अगस्त तक ऐसे कितने लोग जेल जाने वाले हैं ? या कम से कम ऐसे कितने सरकारी सेवक अब तक बर्खास्त हुए ?
इस बीच उन्हें इस संबंध में आंकड़ा जुटा लेना चाहिए। कार्रवाई में कोई कमी रह गयी हो तो उसे पूरा कर लेना चाहिए। अन्यथा..........।प्रतिपक्षी दलों को छोड़ दीजिए तो खुद मोदी जी की मंशा पर शक करने वाले लोगों की संख्या  कम ही देखी जा रही है।

शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

 अविभाजित बिहार विधान सभा में बगोदर से विधायक हुआ करते थे माले नेता  महेंद्र प्रसाद सिंह।
  जब वे सदन में बोलते थे तो अन्य सदस्य शांत होकर उन्हें सुनते थे।
  आप पूछिएगा  कि यह कौन सी नयी बात हो गयी ?
आज लोकतंत्र में यही तो बड़ी बात हो गयी है।आज किस सदन में कितने  नेता का भाषण शांत होकर अन्य सदस्य सुनते हैं ?
खैर, महेंद्र सिंह एक और अनोखा काम करते थे।
जैसे ही उन्हें पता चलता था कि किसी सरकारी कर्मी ने उनके चुनाव क्षेत्र के किसी व्यक्ति से किसी जायज काम के लिए घूस ले लिया तो वे उस अफसर के यहां शांतिपूर्ण आंदोलन करने  पहुंच जाते थे।
वे घूस लौटाने की मांग करते थे।अधिकतर मामलों में उन्हें सफलता मिल ही जाती थी।
  आज यदि कोई नेता या संगठन ‘घूस लौटाओ अभियान’ शुरू कर दे तो उसे आम लोगों का व्यापक 
मौन और मुखर समर्थन मिल जाएगा।इस रास्ते में दिक्कतें जरूर आएंगी।पर कुछ दशक पहले तक तो दिक्कतें उठाकर ही तो लोग राजनीतिक कर्म करते थे।
  हां, हाल के दशक में राजनीति का स्वरूप जरूर बदल गया है।ऐसा  इसलिए भी हो गया है क्योंकि अधिकतर  राजनीतिक कार्यकत्र्ता व मझोले कद के नेता दलीय सुप्रीमो के रहमो -करम पर ही निर्भर हो गए हैं।क्योंकि उनमें सर जमीन पर जनता के सुख- दुःख के लिए मरने -जीने का माद्दा नहीं है।अपवादों की बात और है। 
  हां, महेंद्र सिंह एक गलती जरूर करते थे।वे अपनी सुरक्षा के प्रति अत्यंत लापारवाह थे।मैंने उनसे एक बार कहा था कि आपकी जान पर खतरा है।आप सुरक्षा में चलिए।वे जवाब देते थे कि जनता मेरी रक्षा करेगी जिसके लिए मैं काम करता हूंं।पर अंततः जब उनका अंतिम समय आया तो बेचारी जनता उनकी रक्षा करने के लिए उनके आसपास मौजूद नहीं थी।
एक बहुमूल्य जीवन को राजनीतिक द्वेषवश असमय अंत कर दिया गया।
ऐसे लोगों को अपने लिए नहीं तो जनता के भले के लिए खतरे के अनुपात में अपनी सुरक्षा रखनी चाहिए।

बिजली और सी.सी.टी.वी.कैमरे के प्रसार का
कुछ अतिरिक्त लाभ भी देखा जा  रहा है।
 अब उन देहाती इलाकों में भी अधिक लोगों के लिए टी.वी.देखना संभव हो रहा है जहां हाल तक बिजली नहीं थी।
अब कुछ अधिक लोग टी.वी.पर  नेताओं को सुन-देख रहे हैं।उन्हें समझने का अधिक अवसर मिल रहा है।राजनीतिक जागरूकता तो पहले से ही रही है।लोगों की जानकारियां अब और भी बढ़ रही हैं।
जानकारियां बढ़ने के अपने नतीजे होते हैं।कहा जाता है कि इन्फोरमेशन इज पावर ! सूचना में बड़ी ताकत होती है।
देखना होगा कि आने वाले दिनों में ऐसी बढ़ी हुई ताकत का राजनीतिक इस्तेमाल कहां -कहां और कैसे- कैसे होता है।
 गांवों में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके यहां भले अखबार  नहीं आता है  लेकिन वे टी.वी. रखना पसंद करते हैं।
   उधर सी.सी.टी.वी.कैमरे से अपराधियों का पकड़ने में पुलिस को अब कुछ अधिक सुविधा हो रही है।हालांकि अभी इसका प्रसार गांवों में नहीं है।  


    

कैसे फिर लौटे बिहार पुलिस का अपना इकबाल




साठ के दशक की बात है।बिहार के एक दबंग सत्ताधारी  नेता ने अपने पड़ोसी की जमीन पर कब्जा कर लिया।पड़ोसी ने जब कब्जा हटा लेने की उनसे विनती की तो उन्होंने उसे जान से मार डालने की धमकी दे डाली।
 बेचारा पड़ोसी दीघा पुलिस थाने की शरण ली।
दीघा थानेदार ने उस व्यक्ति के घर के आगे एक मुड़ेठा धारी सिपाही तैनात कर दिया।
 उसके हाथ में सिर्फ एक लाठी थी।
पर सरकार की हनक, हैबत और इकबाल के लिए किसी वैसे
सिपाही को ही तब पर्याप्त माना जाता था।
 उधर  नेता जी उसी पर आग बबूला हो गए।उन्होंने मुख्य मंत्री से कह कर उस दारोगा का न सिर्फ तबादला करवा दिया बल्कि उसका डिमोशन भी करवा दिया।
 शायद वह घटना बिहार पुलिस का मनोबल तोड़ने के मामले में मील का पत्थर साबित हुई थी।
  पर क्या एक बार फिर पुलिस को पहले ही जैसा प्रतापी नहीं बनाया जा सकता ? वैसा क्यों नहीं हो सकता है ? पर उसकी कुछ शत्र्तें हैं।
  लोकतंत्र के लिए बेहतर कानून -व्यवस्था जरूरी ----
अपहरण, चोरी और डकैती की घटनाएं तो चिंताजनक हैं ही।पर सबसे अधिक चिंताजनक बात है लगातार पुलिस पार्टी पर हमला।
यानी पुलिस का प्रताप काफी घट गया है।
इन दिनों  जहां कहीं पुलिसकर्मी अतिक्रमण हटाने के काम में सहयोग करने जाते हैं,उन पर हमला हो जाता है।अवैध शराब के अड्डों पर भी यही हो रहा है।अवैध कारोंबारी कई बार पुलिस को मार कर भगा देते हैं।
अदालती आदेश के कार्यान्वयन के सिलसिले में भी किसी दबंग अपराधी को पकड़ना पुलिस के लिए टेढ़ी खीर है।
 एक जगह पुलिस को भगा देने का मतलब होता है कि दूसरी जगह के अपराधियों का मनोबल बढ़ जाता है।वे दोगुने उत्साह से अपने अपराध कर्म में लग जाते हैं।
 इजरायल सरकार ने एक नियम बना रखा है।वह अपने देश के किसी अपहृत व्यक्ति को छुड़ाने के एवज में न तो किसी को फिरौती देती  हैं और न ही बदले में किसी अपराधी को छोड़ती  है।ऐसी ही दृढ़ इच्छा शक्ति वाले देश से उसके दुश्मन डरते हैं।
इजरायल अकेले एक साथ कई देशों का मुकाबला आसानी से कर लेता है।
क्या बिहार सरकार यह निर्णय  नहीं कर सकती कि वह पुलिस पर हमला करने वाले लोगों को कभी माफ नहीं करेगी ?
पर हां, इसके साथ एक काम और उसे करना होगा।
  ऐसा न हो कि पुलिस एक दिन पहले अतिक्रमणकारियों से हफ्ता वसूलने जाए और अगले दिन अतिक्रमण हटाने।यदि यह सब जारी रहा तो सरकार का कोई उपाय काम नहीं आएगा।
ऐसे में तो कानून तोड़कों का पुलिस पर गुस्सा कम नहीं होगा।    
कानून के राज से ही अपराधीकरण पर अंकुश
कानून का राज हो तो राजनीति के अपराधीकरण पर भी अंकुश लग सकता है।
अनेक बाहुबलियों ने  लचर कानून -व्यवस्था का ही लाभ उठाया है।
नब्बे के दशक से पहले तक बिहार के एक चुनाव क्षेत्र में एक ईमानदार स्वतंत्रता सेनानी विधायक हुआ करते थे।पर जब उस क्षेत्र में  अपराधियों का उत्पात बढ़ने लगा तो दूसरे पक्ष का एक बाहुबली उस स्वतंत्रता सेनानी से मिला।उसने कहा कि अब राजनीति आपके वश की  नहीं है।आप आम लोगों को गुंडों से नहीं बचा पाएंगे।
मुझे अब चुनाव लड़ने दीजिए।
वह लड़ा और जीता भी।
विजयी बाहुबली और भी बड़ा बाहुबली बन गया।दूसरे पक्ष के बाहुबली तो अपना काम कर ही रहे थे।पुलिस लगभग मूक दर्शक थी।ऐसा बहुत दिनों तक चला।सन 2005 के बाद कुछ स्थिति बदली।
भला यह भी कोई लोकतंत्र है ? ऐसे में कितना जरूरी है कानून का शासन कायम करना !
ऐसी पुलिस बने जो सभी पक्षों के कानून तोड़कों के खिलाफ समान रूप से कार्रवाई करे। पुलिस ऐसी कब बनेगी ? 
     लालू प्रसाद की नेक सलाह-- 
 लालू प्रसाद ने अपने दल के नेताओं और कार्यकत्र्ताओं से कहा है कि आप लोग मीडिया को उचित सम्मान दें।
वे आपकी बातों को जन -जन पहुंचाते हैं।
याद रहे कि मंगलवार को लालू प्रसाद की उपस्थिति में उनके दल के एक कार्यकत्र्ता विजय यादव ने रांची में मीडिया से बदसलूकी की थी।
लालू प्रसाद की ताजा नेक सलाह सराहनीय है।
पर इसके साथ इस अवसर पर एक सलाह दी जा सकती है।राजद नेताओं को चाहिए कि वे अपने ड्राइंग रूम में अपने कार्य कत्र्ताओं से यह न कहें कि उनके नेताओं की परेशानियों के लिए मीडिया ही जिम्मेदार है।
 मीडिया के खिलाफ आपकी कोई शिकायत हो तो आप खंडन छपवाएं।उससे काम न चले तो प्रेस काउंसिल से शिकायत करें।मानहानि के मुकदमे का रास्ता भी सबके लिए खुला है।
 पर यदि आप ही मीडिया के खिलाफ भड़काऊ बातें करेंगे तो बेचारा विजय यादव जैसा कार्यकत्र्ता क्या करेगा ?वही करेगा जो उसने किया था।उसे लगा होगा कि उससे उसका राजनीतिक कैरियर ऊपर जाएगा।
 एक बात के तो लालू प्रसाद खुद गवाह हैं। 1995 में एक -दो अपवादों को छोड़कर लगभग सारे पत्रकार लिख रहे थे कि बिहार विधान सभा चुनाव में लालू प्रसाद का दल हार रहा है।पर चूंकि उन दिनों अधिकतर जनता लालू प्रसाद के साथ थी, इसलिए बिहार विधान सभा में उनको बहुमत मिल गया।
आगे भी जनता साथ देगी तो उनकी पार्टी जीतेगी।नहीं देगी तो नहीं जीतेगी।यह तो उनके और जनता के बीच की बात है।इसमें
मीडिया का रोल सीमित है।नाहक मीडियाकर्मियों  को ‘जहां -तहां’ से क्यों धकियाना भई ! ?  
तारीख पर तारीख यानी बुढ़ापे में कष्ट--- 
कुछ प्रभावशाली आरोपी लोग तरह-तरह के बहाने बना-बना कर अपने केस को अदालतों में लंबा खींचते रहते हैं।
नतीजा यह होता है कि अंतिम निर्णय आने के समय  वे बूढ़े हो चुके होतेे हैं।यदि सजा से बच गए तब तो ठीक।पर यदि सजा हो गयी तो जेल में बुढ़ापे में बड़ा कष्ट होता है।यदि जवानी में जेल काट लिए होते तो बेहतर होता।क्योंकि जवानी में बर्दाश्त करने की क्षमता अधिक होती है।
 यदि अदालत एक केस में तीन बार से अधिक सुनवाई की तारीखें बढ़ाने की अनुमति आरोपितों को न दे तो किसी केस की सुनवाई जल्द पूरी हो सकती है।वैसे जल्द सुनवाई के लिए देश में अदालतों की संख्या बढ़ाना और भी जरूरी है।
     एक भूली बिसरी याद--
पटना में जन्मे पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री डा.विधान चंद्र राय ऐसे डाक्टर थे जो मरीज को देखते ही कह देते थे कि क्या रोग है।
डा.राय के समकालीन व बिहार के मुख्य मंत्री डा.श्रीकृष्ण ंिसंह कई बार किसी गंभीर मरीज को अपने पत्र के साथ विधान बाबू के यहां कलकत्ता भेज देते थे।
विधान बाबू 1948 से 1962 तक मुख्य मंत्री रहे।
उन्होंने पटना काॅलेज से स्नातक की पढ़ाई की थी।बाद में तो एफ.आर.सी.एस.और एम.आर.सी.पी. भी बने।
  यह संयोग ही रहा कि उनका जन्म भी 1 जुलाई और निधन भी 1 जुलाई को ही हुआ।
वे 1882 में जन्मे और 1962 में गुजर गए।

प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू के वे मित्र थे।
वे एक- दूसरे को उनके नाम के पहले शब्द से संबोधित करते थे।
स्वतंत्रता के तत्काल बाद जवाहर लाल जी उन्हें उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बनाना चाहते थे।पर उन्होंने इनकार कर दिया था।
वे मुख्य मंत्री पद पर रहते हुए रोज मरीजों के लिए भी समय निकाल लेते थे।
वे अविवाहित थे और महात्मा गांधी,मोतीलाल नेहरू जवाहर लाल नेहरू तथा कई बड़े नेताओं के सलाहकार चिकित्सक थे।
         और अंत में--
 खबर है कि दिल्ली में 17 नयी प्रजातियों की तितलियां नजर आई हैं।बहुत अच्छी खबर है।
क्या कभी इस देश में उन प्रजातियों के राजनीतिक कार्यकत्र्ता और नेता एक बार फिर प्रकट होंगे जिस तरह के कार्यकत्र्ता  आजादी की लड़ाई के दिनों में और  आजादी के बाद के कुछ वर्षों तक पाए जाते थे ?
@ 9 फरवरी 2018 को प्रकाशित  मेरे काॅलम कानोंकान -प्रभात खबर-बिहार से@