रविवार, 19 अप्रैल 2009

जार्ज का एक वो भी जमाना था, एक ये भी जमाना है !

हाल में जार्ज फर्नांडीस और उनके समर्थक खुद जार्ज के लिए जदयू से एक अदद चुनावी टिकट के लिए जद्दोजहद कर रहे थे । यह दयनीय दृश्य देखकर कुछ पुराने लोगों को उनका सन् 1977 का उनका वह गौरवपूर्ण जमाना याद आ गया । तब उन्हें मुजफ्फर पुर की जनता ने 3 लाख 34 हजार मतों से जिताया था। मुजफ्फरपुर की अधिकतर जनता ने जब उन्हें जिताया, तब तक उन्हें देखा भी नहीं था। पर आज उसी जार्ज की अब कैसी स्थिति बन चुकी है ! इस पर कुछ लोगों को दया आ रही है तो कुछ लोगांे ंको गुस्सा। कई लोग यह भी कह रहे हैं कि उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी और ज्योति बसु की तरह शालीनतापूूर्वक सक्रिय राजनीति से रिटायर कर जाना चाहिए था। क्योंकि जार्ज का स्वास्थ्य सचमुच सक्रिय राजनीति करने लायक नहीं है। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि जब जार्ज चाहते थे तो जदयू को चाहिए था कि वह उन्हें टिकट दे देता।यदि किसी कारण टिकट नहीं दिया तो जार्ज को चाहिए था कि अपने लिए एक अदद टिकट के लिए बच्चे की तरह जिद नहीं करते। जार्ज देश के एक बड़े नेता रहे हैं।जब वे स्वस्थ थे तो उन्होंने अपनी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका भारतीय राजनीति में निभाई।ऐसी भूमिका, जिस तरह की भूमिका पर अधिकतर नेताओं को ईष्र्या ही हो सकती है। पर अंत में एक टिकट के लिए उनकी ऐसी दयनीय स्थिति ? इस पृष्ठभूमि में इन पंक्तियों के लेखक की वह रिपोर्ट यहां प्रस्तुत की जा रही है जो सन् 77 में जार्ज के चुनाव क्षेत्र से लिखी गई थी। मुजफ्फर पुर,13 मार्च 1977। जनता पार्टी के उम्मीदवार जार्ज फर्नांडीस के यहां सशरीर उपस्थित नहीं रहने के बावजूद लाखों मतदाताओं की जुबान पर वे छाए हुए हैं।जेल में बंद रहने के कारण लोगों में सर्वत्र उनके प्रति अतिरिक्त समर्थन और सहानुभूति देखी जा रही है।पिंजरे में बंद उनके पुतले तथा हथकड़ियों में जकड़े उनके चित्र वाले पोस्टर शासक दल के प्रति लोगों में गुस्सा पैदा कर रहे हैं। मुजफ्फर पुर संसदीय क्षेत्र के सघन दौरे के बाद यह संवाददाता इस नतीजे पर पहुंचा है कि जार्ज फर्नांडीस के चुनाव अभिकत्र्ता शारदा मल्ल के इस दावे में काफी दम है कि ‘सवाल जीत -हार का नहीं बल्कि इस बात का है कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट उम्मीदवारों की जमानत भी बच पाती है या नहीं।’ पर, जनता पार्टी के कार्यकत्र्ताओं के समक्ष एक और सवाल है कि लोगों की सद्भावना को 16 मार्च को पूरे तौर पर वोट में कैसे बदला जाए और इस सवाल का जवाब ही जनता पार्टी के भाग्य का फैसला करेगा।एक कांग्रेसी बुद्धिजीवी के अनुसार ‘भावनाओं से अधिक वस्तुगत स्थिति अधिक प्रभावकारी होगी।’ चुनाव की वस्तुगत स्थिति समझाते हुए जार्ज फर्नांडीस के सहयोगी प्रो.विनोद ने कहा कि मुजफ्फरपुर संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत 6 विधानसभा क्षेत्रों में से कुढहनी, बोचहा और सकरा से पिछले कई चुनावों से समाजवादी विधायक विजयी होते रहे हैं। मीना पुर और गायघाट में कांग्रेस पार्टी का प्रभाव रहा है, परंतु मुजफ्फरपुर नगर कम्युनिस्टों का कार्य क्षेत्र है। फिर भी कुल मिलाकर इन तीन क्षेत्रों में भी जनता पार्टी कांग्रेस और कम्युनिस्ट उम्मीदवारों से आगे है।’ प्रोफेसर विनोद के अनुसार कई स्थानों पर प्रतिपक्षियों द्वारा चुनाव में जोर-जबरदस्ती की भी आशंका है, जिसका जनता समुचित जवाब देगी। पर जनता पार्टी चुनाव कार्यालय के प्रभारी श्री नरेंद्र ने जिलाधिकारी को पत्र लिखकर मांग की है कि शहर के सर्किट हाउस के निकट निजी मकानों पर टंगे जनता पार्टी के झंडों को काजी मुहम्मदपुर थाने के दारोगा द्वारा जबरदस्ती उतरवाने तथा लोगों को झंडे टांगने से मना करने की घटना की जांच करायी जाये तथा ऐसी घटनाओं को रोका जाये। श्री नरेंद्र ने भाकपा कार्यकर्ताओं द्वारा चंदवारा मुहल्ले में जनता पार्टी के झंडों को जलाने की घटना की भी निंदा की है। जनता पार्टी के प्रवक्ता के अनुसार ‘‘कम्युनिस्टों की बौखलाहट इसलिए है कि जाॅर्ज फर्नांडीज की उम्मीदवारी से मजदूरों के बीच उनका प्रभाव लगभग समाप्त हो गया है।’’ सचमुच जार्ज फर्नाडीज को डाक-तार विभाग के भाकपा प्रभावित लोगों को छोड़कर शहर के लगभग सभी मजदूर संघटनों का समर्थन प्राप्त है। भाकपा से विद्रोह कर चुनाव लड़नेवाले निर्दलीय उम्मीदवार ने परंपरागत कम्युनिस्ट वोट को भी छिन्न-भिन्न कर दिया है। यह उम्मीदवार जिले भर के कार्यकर्ताओं में लोकप्रिय हैं। मीनापुर क्षेत्र में उनका विशेष प्रभाव है। उनके सहयोगियों का तो यह भी दावा है कि उन्हें भाकपा उम्मीदवार रामदेव शर्मा से अधिक मत प्राप्त होंगे। दूसरी ओर, माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के श्री नन्दकिशोर शुक्ल अपने दल-बल के साथ श्री फर्नांडीज के लिए काम कर रहे हैं। कई इलाकों में श्री शुक्ल का प्रभाव है। उन्होंने इस संवाददाता को बताया कि श्री फर्नाडीज जैसे मजदूर नेता के विरुद्ध भाकपा मजदूरों के समक्ष तर्कहीन हो गयी है। फिर भी शहरी क्षेत्र में भ्रमण के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि भाकपा वहां एक ताकत है, जो भले श्री फर्नांडीज से पीछे हो, पर कांग्रेस से आगे है। शहर में कांग्रेस का कोई नामलेवा नजर नहीं आता। तिलक मैदान स्थित कांग्रेस पार्टी के कार्यालय में जब यह संवाददाता पहुंचा, तो देखा कि वहां श्मशान की शांति थी। न कोई गाड़ी, न कार्यकर्ता, न ही चुनाव-कार्यों की चहल-पहल। एक कांग्रेसी नेता ने मरे स्वर में कहा, ‘‘ पता नहीं क्या हो गया है पार्टी को।’’ तभी समस्तीपुर से फोन आया। जिला कांग्रेस कामेटी के अध्यक्ष श्री रामसंजीवन ठाकुर ने फोन उठाया, ‘‘ हलो, क्या हाल है।’’ उधर से आवाज आई, ‘सन् 67 से भी बदतर हाल है।’ श्री ठाकुर के फोन रख देने के बाद एक अन्य कांग्रेसी नेता ने अपना अनुभव सुनाते हुए कहा, ‘‘ मैं एक गांव में अपने समर्थक के यहां गया, उसकी मैंने काफी मदद की थी। उससे वोट के बारे में बातें कीं। उसने कहा कि ‘‘अबकी बार छोड़ दिअउ, माफ कर दिअउ, उन्नीस महीने में बड़ जुलुम भेलई हअ।’’ कांग्रेस पार्टी के दफ्तर में भी जनता पार्टी की बड़ी- बड़ी चुनाव सभाओं की चर्चा होने लगी।एक ने कहा कि ‘लोग भी उसी तरह की बातें सुनना पसंद करते हैं।पता नहीं लोगोंको क्या हो गया है।’ जिला कांग्रेस कमेटी के सचिव शकूर अंसारी से जब हमने इस पर बातें की तो उन्होंने कहा कि ‘शहर में कांग्रेस पार्टी जरूर उदास है,उसके कारण हैं क्योंकि यहां तो कालाबाजारी,मुनाफाखोर और भ्रष्ट व्यापारी रहते हैं और वे सब के सब जनता पार्टी के साथ हैं।गांवों में हमारी स्थिति अच्छी है और प्रतिदिन स्थिति मजबूत होती जा रही है।’ पर अन्य सूत्रों से प्राप्त सूचनाओं के अनुसार जिला कांग्रेस पार्टी भीतर -भीतर दो खेमों में बंट गई है और कांग्रेसी उम्मीदवार नीतीश्वर प्रसाद सिंह कार्यकत्र्ताओं का अभाव महसूस कर रहे हैं।कांग्रेस के एक व्यक्ति ,जिसका अपनी जाति में काफी प्रभाव माना जाता है,टिकट न मिलने के कारण क्षुब्ध है और तथा वे भीतर ही भीतर कांग्रेस उम्मीदवार नीतीश्वर प्रसाद सिंह के विरूद्ध काम कर रहे हैं।बोचहा और सकरा के दोनों हरिजन विधायक रमई राम और हीरालाल पासवान ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया है।वे जनता पार्टी के लिए समर्थन जुटाने में लग गए हैं।इसके अतिरिक्त मुजफ्फर पुर जिले के कई भूतपूर्व सांसदों,विधायकों और युवा कांग्रेस के अनेक कार्यकत्र्ताओं ने दल से इस्तीफा दे दिया है और जनता पार्टी के उम्मीदवार के लिए काम करना प्रारंभ कर दिया है। छात्र आंदोलन के दौरान विश्व विद्यालय की नौकरी से निकाले गए आठ शिक्षक और दर्जनों छात्र जनता पार्टी की जीत के लिए दिन रात काम कर रहे हैं।इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र से शरद राव,दिल्ली से सुषमा कौशल ,उत्तर प्रदेश से जगदीश लाल श्रीवास्तव,कलकत्ता से अशोक सेकसरिया अपने दर्जनों सहयोगियांे के साथ चुनाव कार्य में लगे हुए हैं।इसके अतिरिक्त श्री फर्नांडीस की मां एलिस फर्नांडीस ने महिलाओं का ध्यान आकृष्ट किया है।कांपती हुई बूढ़ी एलिस फर्नांडीस का हाथ जोड़ अपने तीन बेटों की रिहाई की खातिर वोट मांगना प्रभावोत्पादक दृश्य उपस्थित करता है। श्री फर्नांडीस का चुनाव कार्यालय बहुत ही चुस्त और कार्यकुशल दिखाई पड़ा।श्री फर्नांडिस ने बड़ी संख्या में चुनाव साहित्य बंटवाए हैं।श्री फर्नांडीस भले रिहा नहीं किए गए,पर वे अपने सहयोगियों से निरंतर संपर्क बनाए हुए हैं।एक सूचना के अनुसार श्री फर्नांडीस ने देश भर में फैले अपने प्रशंसकों और शुभचिंतकों को मुजफ्फर चुनाव क्षेत्र में जाकर काम करने के लिए जेल से ही पत्र लिखे हैं।उन्होंने जनता पार्टी तथा जनतांत्रिक कांग्रेस के लगभग सभी बड़े नेताओं को पत्र लिख कर मुजफ्फर पुर पहुंचने का आग्रह किया है।यही कारण है कि मुजफ्फर पुर में जनता पार्टी की ओर से न तो बड़ी बड़ी आम सभाओं की कमी हुई,न कार्यकत्र्ताओं की और न साधनों की।देश भर से छेाटी छोटी रकम की मदद लगातार आ रही है।देश विदेश के लगभग सभी समाचार पत्रों ,संवाद समितियों तथा रेडियो-टेलीविजन संस्थाओं के प्रतिनिधियों ने मुजफ्फर पुर का दौरा किया है। दुनिया भर के लोगों की आंखें मुजफ्फर पुर की ओर लगी हुई है जहां 16 मार्च को सुबह 7.30 बजे और शाम 4.30 बजे के बीच लगभग पौने सात लाख मतदाता बड़ोदा डायनामाइट मुकदमे के मुख्य अभियुक्त ,सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष तथा अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त मजदूर नेता श्री जार्ज फर्नांडीस के भाग्य का फैसला करेंगे। जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अब्दुला बुखारी ने श्री फर्नांडीस को लिखे पत्र में कहा है कि ‘........हर सही सोचने वाला आदमी तुम्हारे कार्यों और जिस बहादुरी से तुम तानाशाह का सामना कर रहे हो,उसका आदर किए बिना नहीं रह सकता।तुम इस महान देश को दल -दल से निकालने की कोशिश कर रहे हो,तुम्हारी इस कोशिश में मैं तुम्हारे साथ हूं और तुम्हारी कामयाबी की कामना करता हूं।’ श्री बुखारी के पत्र और पटना के उर्दू दैनिक ‘संगम’ के संपादक व ओजस्वी वक्ता श्री गुलाम सरवर के भाषणों का मुजफ्फर पुर की जनता खास कर अल्पसंख्यकों पर ,प्रभाव पड़ा है जिससे सी.पी.आइ.को क्षति पहुंची है।क्योंकि अब तक भाकपा को ही मुसलमानों के अधिकतर वोट मिलते रहे हैं। दूसरी ओर गंवई इलाकों में जातिवाद टूटा है।लोग छोटी छोटी बातों से उपर उठकर परिवार नियाोजन,पारिवारिक तानाशाही और आपातकाल की ज्यादतियों पर चर्चा करने लगे हैं। जनता पार्टी के प्रवक्ता ने बताया कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां जनता पार्टी की समर्थक भोली भाली जनता को गाय बछड़ा और हंसिया बाल दिखा कर प्रचार कर रही है कि यही जनता पार्टी का चुनाव चिह्न है।प्रवक्ता के अनुसार जनता पार्टी के स्वयंसेवक इस भ्रम को दूर करने की कोशिश कर रहे हैं। जनता पार्टी के उम्मीदवार के पक्ष में सबसे बड़ी बात यह है कि वे तिहाड़ जेल में बंद हैं और उनके समर्थकों ने इस स्थिति से सर्वाधिक लाभ उठाने की कोशिश की है।मुजफ्फर पुर निर्वाचन क्षेत्र में श्री फर्नांडीस के समर्थन में जारी किए गए पोस्टरों,परचों,पुस्तिकाओं और अन्य प्रचार सामग्री में उनके जेल जीवन को अधिकाधिक उभारा गया है।मतदाताओं पर इसकी अनुकूल प्रतिक्रियाएं हुई हैं। जेलनुमा पिंजरे में बंदी फर्नांडीस के हथकड़ी-बेड़ी लगे पुतले तथा पोस्टरों पर जेल में बंद हथकड़ी लगे दो हाथ लोगों का ध्यान अनायास अपनी ओर खींच लेते हैं।इससे जनता में उनके प्रति सहज सहानुभूति पैदा हो जाती है। इसके अतिरिक्त श्री फर्नांडीस की 66 वर्षीया बूढ़ी मां की मतदाताओं से मार्मिक अपील ,उनके भाई लाॅरेंस फर्नांडीस पर ढाए गए पुलिस जुल्म की खबर और स्वयं जार्ज फर्नांडीस द्वारा तिहाड़ जेल में अनिश्चितकालीन अनशन की खबर ने सामान्य जन जीवन को स्पर्श किया है जो धूम धड़ाके के प्रचार से कहीं अधिक प्रभावकारी प्रतीत हो रहे हैं।
पब्लिक एजेंडा से साभार

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

सब्सिडी का सदुपयोग

जदयू ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में सब्सिडी और ‘एक साथ चुनाव’ के बारे में वायदा किया है। जदयू ने कहा है कि यदि उसे केंद्र में सत्ता मिली, तो सब्सिडी प्राप्त करनेवालों की एक ही बार विस्तृत सूची बना कर बैंक के माध्यम से उनके खाते में पैसे जमा कराए जाएंगे। यदि ऐसा कभी हो सका, तो वह एक अच्छी बात होगी।

आए दिन यह शिकायत मिलती रहती है कि तरह -तरह की सरकारी सब्सिडी के नाम पर हजारों-हजार करोड़ रुपए की बंदरबांट कर ली जाती है। उन पैसों का लाभ उनको बहुत ही कम मिलता है, जिनके लिए सब्सिडी का प्रावधान केंद्र सरकार ने कभी किया था।

कई साल पहले योजना आयोग के सचिव एन.सी. सक्सेना ने कहा कि गरीबी उन्मूलन के नाम पर भारत सरकार जो 35 हजार करोड़ रुपए हर साल खर्च करती है, उस पैसों को सचमुच के गरीबों तक नहीं पहुंचने दिया जाता । यदि उन पैसों को देश के 25 करोड़ गरीबों को सीधे मनिआर्डर से भेज दिया जाता, तो गरीबों की गरीबी कम होती। अब तो अधिक-से-अधिक लोगों के बैंक खाते खोलने की कोशिश सरकार कर रही है। अच्छा हो कि सब्सिडी के पैसे उन्हीं खातों में जाएं।

सन् 1967 तक तो लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक ही साथ हुआ करते थे। इससे सरकारों, दलों और उम्मीदवारों को कम खर्चे करने पड़ते थे। चुनाव अब अलग- अलग होते हैं और पंचायतों के चुनाव भी अलग से ही होते हैं। सारे चुनाव एक साथ होने लगे, तो जनता के टैक्स के पैसे नाहक जाया नहीं होंगे और चुनावों में कम काला धन लगाना पड़ेगा। सब्सिडी और एक साथ चुनाव के सुझाव पर तो अन्य दलों और नेताओं को भी विचार करना चाहिए। पर उपराष्ट्रीयता की जदयू की बात समझ से परे है। हिंदी प्रदेशों में किसी तरह की उपराष्ट्रीयता की न तो जरूरत है और न ही गुंजाइश। इन प्रदेशों में सुशासन और विकास की जरूरत है जिस ओर नीतीश कुमार ने मजबूती से कदम बढ़ा दिया है।

सी.बी.आई. या काठ का घोड़ा !
जगदीश टाइटलर के मामले में सी.बी.आई. के ताजा कदम ने इस एजेंसी की रही -सही साख को भी मिट्टी में मिला दिया है। अधिक दिन नहीं हुए जब उत्तर प्रदेश के कुछ प्रमुख नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों के बारे में सी.बी.आई. कछुए की तरह कभी मुंह बाहर, तो कभी भीतर करती रही थी। इससे पहले भी कई बार यह बात साबित हो गई कि बड़े राजनीतिक मामले सी.बी.आई. के वश में नहीं।
अब अच्छा यही होगा कि केंद्र की अगली सरकार सी.बी.आई. को भंग ही कर दे। सुप्रीम कोर्ट, मुख्य सतर्कता आयुक्त और प्रतिपक्ष के नेता से राय करके सी.बी.आई. की तरह ही कोई ऐसा निष्पक्ष जांच एजेंसी बनायी जाए, जो निष्पक्ष और निर्भीक होकर अपना काम कर सके। यदि ऐसा नहीं होगा, तो इस सिस्टम पर से आम लोगों का विश्वास और जल्दी उठने लगेगा। वह देश के लोकतंत्र के लिए खतरनाक स्थिति होगी।
जरूरी है जातीय गणना
सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर सरकार को कोई निदेश देने से इनकार कर दिया है कि वह अगली जनगणना जाति के आधार पर कराए या नहीं कराए। कोर्ट ने कहा कि यह नीति संबंधी मामला है। इस पर सरकार ही कोई फैसला कर सकती है।
याद रहे कि अंग्रेजों के जमाने में भारत में जाति के आधार पर जनगणना होती थी। सन् 1931 तक इस आधार पर जनगणना हुई थी। आजादी के बाद कांग्रेस सरकार ने जातीय जनगणना की नीति को ही समाप्त कर दिया।
पर बाद के वर्षों में पिछड़ों की स्थिति की जांच के लिए जितने भी आयोग बने उन्हें इस बात को लेकर कठिनाई हुई कि जातीय आधार पर जनगणना का कोई ताजा आंकड़ा उनके पास उपलब्ध ही नहीं था। मालूम हो कि इस देश की कई जातियां अब भी विभिन्न पेशों से मजबूती से जुड़ी हुई हैं। उन कमजोर वर्ग के पेशेवर लोगों के लिए कोई कल्याण या विकास योजना शुरू करने से पहले सरकार के पास कोई सही आंकड़ा नहीं होता। सरकार अपना पुराना निर्णय बदल कर जातियों के आधार पर अगली जनगणना तो करा ही सकती है।
और अंत में
इस देश में प्रधानमंत्री के करीब एक दर्जन उम्मीदवार हो गए हैं । क्या प्रधानमंत्री की कुर्सी हटा कर वहां एक बंेच लगा दिया जाना चाहिए ? !
प्रभात खबर से साभार

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

आपातकाल याद है मेनका जी ?

अपने पुत्र वरुण गांधी को लेकर मेनका गांधी बहुत परेशान हैं। परेशानी स्वाभाविक ही है। उन्होंने कहा है कि मायावती मां होतीं तो दर्द समझतीं। पर, आपातकाल में तो कई पुत्रों के साथ -साथ कई माताओं को भी अपार जेल -पीड़ा भुगतनी पड़ी थीं। याद है मेनका जी ? तब इस देश के करीब एक लाख लोगों को जेलों में बंद कर दिया गया था। उनका कसूर यही था कि वे जेपी तथा उन प्रतिपक्षी नेताओं के साथ थे, जो पहले बिहार विधानसभा को भंग करने की मांग करते रहे। फिर इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय के बाद वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से इस्तीफे की मांग कर रहे थे। अदालत ने इंदिरा जी का चुनाव रद कर दिया था।

वैसे मायावती आज वरुण के साथ जो कुछ कर रही हैं, वैसा ही सलूक कभी कोई तानाशाह उनके साथ भी कर सकता है। उन्हें भी यह याद रखना चाहिए। लोकतंत्र के लिए चिंता की बात यह है कि ऐसे अतिवादी कदम गद्दी और वोट के लिए उठाए जाते रहे हैं, जैसे आपातकाल लगाना, वरुण का उत्तेजक भाषण और मायावती सरकार का वरुण के खिलाफ एनएसए लगाना।



ज्यादती है वरुण पर एनएसए
वरुण गांधी पर एनएसए लगाना सचमुच उनके प्रति ज्यादती है। इसको लेकर आम सहानुभति वरुण के साथ दिखाई पड़ रही है। पर, इससे पहले राजनीति में नौसिखिए वरुण ने पीलीभीत में जो उत्तेजक भाषण दिया, उसको लेकर दो तरह की राय हैं। वैसे तो उस भाषण की सीडी की जांच की मांग हो रही है, पर यदि उन्होंने किसी खास समुदाय के खिलाफ सचमुच आपत्तिजनक बातें कही हैं, तो कानून के तहत उन पर कार्रवाई जरूर होनी चाहिए। यह बात और है कि इससे भी अधिक उत्तेजक और राष्ट्रविरोधी बातें कहने के लिए एक खास समुदाय के दूसरे कई नेताओं के खिलाफ वोट के लालच में आम तौर पर कोई कार्रवाई नहीं होती। इससे प्रकारांतर से भाजपा को ही मदद मिलती है।

अब एक सवाल मेनका गांधी से। इंदिरा गांधी से अलग होने के बाद मेनका गांधी ने संजय विचार मंच बनाया था। यानी वे अपने पति के विचारों से प्रभावित रही हैं। पर संजय गांधी तो आपातकाल में संविधानेत्तर सत्ता के कें्रद बन गए थे। अनेक ज्यादतियों के आरोप उन पर लगे। वे देश के अनेक प्रतिष्ठित राजनीतिक नेताओं को भी अनिश्चितकाल तक बिना अदालती सुनवाई के जेलों में ठंूस देने के पक्षधर थे। तब जो लोग जेलों में गये थे, उनमें से कितने लोगों को अपने परिजनों से मिलने की छूट थी ? जरा मेनका जी उन दिनों को भी याद करे लें। सब लोग यह बात समझ लें कि ‘सब दिन रहत ना एक समाना !’



आपातकाल की जेल
देश के अनेक पुत्रों की बात कौन कहे, आपातकाल में तो कई मांएं भी देश की विभिन्न जेलों में बंद कर दी गई थीं। जयपुर की राजमाता गायत्री देवी को तो पहले से बंदी वेश्याओं के साथ जेल में रखा गया था। गायत्री देवी मच्छरों और कीड़े-मकोड़ों से जेल में बुरी तरह परेशान हुई थीं। कन्नड़ की प्रसिद्ध अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी तो आपातकाल में अपार जेल यातना के कारण ही दिवंगत हो गई। उनकी संतानें बिलखती रह गईं।

बिहार के छात्र आंदोलन के जितने नेता बिना सुनवाई के जेलों में ठंूस दिए गए थे, उनमें से अधिकतर वरुण गांधी से कम ही उम्र के थे। जो फरार थे, उनका कष्ट तो और भी अधिक था। क्योंकि कोई रिश्तेदार भी उन्हें शरण देने को तैयार नहीं था। पता नहीं बाद के वर्षों मंे भी ंमेनका जी को इसके लिए अफसोस हुआ था या नहीं। यदि तब नहीं हुआ, तो अपने पुत्र का हाल देख कर अब भी आपातकाल के लिए उनमें अफसोस पैदा हो सके, तो लोकतंत्र के लिए अच्छी बात होगी। पर भाजपा ने तो वर्षों पहले जरूर अवसरवादिता दिखाई और मेनका को अपने सिर पर बैठा लिया।

यह वही मेनका गांधी हंै, जो केंद्र में 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार बन जाने के बाद सूर्या पत्रिका की संपादक के रूप में जयप्रकाश नारायण से यह सवाल पूछने पटना आई थीं कि संजय गांधी का क्या कसूर है ? याद रहे कि तब शाह आयोग में अन्य लोगों के साथ -साथ संजय गांधी के खिलाफ आरोपों को लेकर सुनवाई चल रही थी। हम करें तो ठीक और दूसरे करें तो गलत ?

कल्पना कीजिए कि मायावती जैसी एकाधिकारवादी प्रवृत्ति की शासक यदि कभी प्रधानमंत्री बन जाएं और वे किसी-न-किसी बहाने आपातकाल लगा दें, तो क्या होगा ?



और अंत में
चांदनी चैक लोकसभा चुनाव क्षेत्र के कांग्रेसी उम्मीदवार कपिल सिब्बल ने उस क्षेत्र के भाजपा उम्मीदवार विजेंद्र गुप्त को चुनौती दी है कि वे टीवी चैनल पर मेरे साथ बहस कर लें। पर, इसी तरह की बहस के लिए एलके आडवाणी ने जब मनमोहन सिंह को न्योता दिया, तो कपिल सिब्बल और कांग्रेस ने ऐसी बहस का विरोध करते हुए कहा कि यह अमेरिका नहीं है कि टीवी चैनलों पर बहस हो।

कारण भले जूता हो, पर कांग्रेस में कुछ लोकलाज तो है!

दिल्ली के एक पत्रकार ने गृह मंत्री पी.चिदम्बरम की ओर जूता उछाला और कांग्रेस ने विवादास्पद जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार के चुनावी टिकट एक ही झटके से काट दिये। दूसरी ओर, एक जूता कौन कहे, इस देश में कुछ दल ऐसे भी हैं कि उनके नेताओं पर चार जूते भी उछाले जायें, तो भी वे अपने माफिया और बाहुबली उम्मीदवारों के टिकट नहीं काटेंगे।

ऐसे राजनीतिक माहौल में इस बात की सराहना की जानी चाहिए कि कांग्रेस में अब भी कुछ लोकलाज कायम है। हालांकि इसी कांग्रेस ने बिहार में कुछ सीटों पर अपने टिकट तय करते समय उस लोकलाज का ख्याल नहीं रखा है। कांग्रेस इसे अपवाद मान कर इसकी पुनरावृत्ति न करे, तो देश और कांग्रेस के लिए ठीक रहेगा। एक संतोषजनक बात यह है कि कांग्रेस में अन्य कई दलों की अपेक्षा सुधरने की गुंजाइश भी अभी बाकी है।

कांग्रेस राजनीति के अपराधीकरण, भ्रष्टीकरण और देशद्रोहीकरण के मामले में अन्य कुछ दलों की तरह नंगई पर नहीं उतरती। भले पर्दे के पीछे जो कुछ होता हो। कुछ दलों ने तो इस बार भी नरसंहार, भ्रष्टाचार तथा देशद्रोह के आरोपितों या फिर उनके रिश्तेदारों को संसद मंे भेजने के लिए उन्हें चुनावी टिकट दे दिये हैं। कांग्रेस की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह पूरे देश में फैली हुई हैै। अपने निधन से कुछ ही समय पहले समाजवादी नेता मधु लिमये ने कहा था कि इस देश को ‘सुधरी हुई कांग्रेस’ ही चला सकती है।

आज देश के सामने उपस्थित कठिन समय में कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों के और भी मजबूत होने की सख्त जरूरत है, क्योंकि न जाने कुछ क्षेत्रीय दल निजी स्वार्थवश इस देश को एक दिन कहां ले जाकर पटक देंगे.। सीमित स्वार्थ वाले कुछ क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय दल तभी मुकाबला कर पाएंगे जब वे खुद को इन क्षेत्रीय दलों की अपेक्षा बेहतर साबित कर दें।टाइटलर और सज्जन के टिकट काटना उस दिशा में एक छोटा कदम माना जा सकता है। पर क्या कांग्रेस और भाजपा खुद को कुछ और सुधारने को अब भी तैयार है ? हाल के वर्षों में कांग्रेस और भाजपा का विकास इसलिए रुका, क्योंकि इन दलों ने अपने ही घोषित सिद्धांतों, रणनीतियों और लोकलाज को सत्ता के लिए त्याग दिया।

चुनाव और उसके बाद सरकार का गठन एक ऐसा मौका है, जब कोई दल अपना बेहतर चरित्र देश के सामने पेश कर सकता है। साथ ही, सरकार में आने के बाद वह दल अपने जनपक्षी कामों के जरिए अपनी पिछली गलतियों का परिमार्जन भी कर सकता है । क्या कम-से-कम इन राष्ट्रीय दलों से इस बार यह उम्मीद की जाये कि वे सुधरेंगे और खुद को क्षेत्रीय दलों से बेहतर साबित करेंगे ? यदि बेहतर साबित करेंगे, तो आगे भी मतदाता उनकी ओर आकर्षित होंगे। इससे यह होगा कि किसी एक दल को बहुमत मिलेगा और देश की राजनीति ‘झारखंडीकरण’ से बच जाएगी। सबने देखा कि क्षेत्रीय दलों और निर्दलीयों ने झारखंड की राजनीति, प्रशासन और जनता के साथ कितना घोर अनर्थ किया ! झारखंडीकरण की पुनरावृति राष्ट्रीय स्तर पर भी हो सकती है, यदि लोकसभा के इस मौजूदा चुनाव में किसी एक दल को सरकार चलाने के लिए पर्याप्त सीटें नहीं मिलीं।

एक समय था जब केंद्र और राज्यों में सरकार चलाने के लिए कांग्रेस को आम तौर पर किसी अन्य दल से मदद लेने की जरूरत नहीं थी। क्योंकि जनता के सभी समुदायों और हिस्सों का समर्थन उसे हासिल था। वह समर्थन समय बीतने के साथ क्यों घटता गया ? क्यों कांग्रेस आज सत्ता के लिए पूरी तरह क्षेत्रीय दलों पर निर्भर हो गई ? क्यों वह क्षेत्रीय दलों के भयादोहन को झेलती रही ? क्यों इससे देश को पहुंच रहे नुकसान की वह मूकदर्शक भी बनी रही ? इसका जवाब जान कर उसे हल करने का यह चुनाव शायद आखिरी मौका है।

वैसे तो कांग्रेस ने पिछले दशकों में अनेक गलतियां कीं जिससे जनता उससे दूर हुई। पर कांग्रेस के सिमटने का मूल कारण यह रहा कि उसने गांधी के ‘अंतिम व्यक्ति’ के सिद्धांत को भुला दिया और अपने ही अन्य दिवंगत नेताओं की सलाहों को भी अमल में नहीं लाया। साथ ही आजादी के बाद कांग्रेस ने सत्ता व राजनीति में समाज के सभी समुदायों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया।

उसे इसे सुधारना होगा अन्यथा संकुचित स्वार्थों वाले क्षेत्रीय दलों से देश का वह बचा नहीं पाएगी। अब भी देर नहीं हुई है। कम समय में भी किस तरह उपलब्धि हासिल की जा सकती है, यह बात बिहार में नीतीश सरकार ने साबित कर दी है।

भ्रष्टाचार के कारण भारत में बढ़ी गरीबी से जनता में असंतोष फैला। फिर कुछ समुदायों, जातियों और उनके नेताओं ने देखा कि मंत्रिमंडल और ब्यूरोक्रेसी में तो उनकी जाति का प्रतिनिधित्व ही नगण्य है। सत्ता की मलाई कुछ खास लोग ही खा रहे हैं। फिर जातीय आधार पर गोलबंदी करने का कुछ गैर कांग्रेसी नेताओं को मौका मिल गया। यदि आजादी के तत्काल बाद की केंद्र और राज्य सरकारों ने सत्ता में लगभग सभी जातीय समूहों को संभव भागीदारी दी होती, तो क्षेत्रीय दलों को मजबूत होने का अवसर नहीं मिलता। अधिकतर क्षेत्रीय दलों के समर्थन का मुख्य आधार जातीय ही है।

कांग्रेस की इन गलतियों और कमियों का लाभ क्षेत्रीय दलों ने कैसे उठाया ? दरअसल कांग्रेस की सरकारों के कार्यकाल में जनता का जो हिस्सा लाभन्वित नहीं हुआ या अपेक्षाकृत काफी कम लाभान्वित हुआ,उसने देखा कि जब कांग्रेस को भी सत्ता में आने के बाद वही सब काम करना है, जो काम भ्रष्ट क्षेत्रीय व जातीय नेता करते रहे हैं, तो क्षेत्रीय दलों को सत्ता में लाने पर कम से कम इस बात में उन्हें मनोवैज्ञानिक संतुष्टि मिलती है कि कम-से-कम हमारी जाति के व्यक्ति के हाथों में सत्ता तो है, जो मध्यकालीन राजा की तरह उसका उपभोग कर रहा है ! कांग्रेस खुद को सन् 1952 या कम से कम सन् 57 के चरित्र वाली कांग्रेस बना कर क्षेत्रीय दलों के विकास को रोक सकती है। इससे जनता के हर हिस्से को यह संतोष मिलेगा कि वह एक बेहतर विकल्प यानी कांगेस को वोट देकर सत्ता में उसे पहुंचा रहा है जो व्यापक देशहित का ख्याल रखेगी। इससे देश के सामने उपस्थित गरीबी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और नक्सलवाद की समस्याओं से लड़ने में सुविधा होगी।

इसी तरह के सुधार यदि भाजपा भीं अपने -आप में करे तो क्षेत्रीय दल उसे नहीं पछाड़ पाएंगे। याद रहे कि भाजपा सरकार की कई गलतियां उस समय प्रकट हुई जब वह सन् 1998 से 2004 तक केंद्र में सत्ता में थी। चुनाव सुधार, नेताओं के भ्रष्टाचार और कुछ अन्य मामलों में भाजपानीत एन.डी.ए. सरकार का रिकार्ड कांग्रेस जैसा ही खराब रहा। अच्छा होगा कि ये दल खुद को सुधार कर जनता के आकर्षण का केंद्र बनें, ताकि देश को राजनीति में घुसे ऐसे तत्वों को नुकसान पहुंचाने का मौका नहीं मिले जिनके लिए निजी व पारिवाारिक स्वार्थ, भ्रष्टाचार, देशद्रोह और अपराध और माफियागिरी कोई समस्या ही नहीं है। इसके लिए कई बड़े मुद्दों पर कांग्रेस और भाजपा को अपने अपने क्षेत्रों में उसी तरह झटके से फैसला करना पड़ेगा, जिस जूते पड़ने पर जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार के मामले में किया गया।

प्रभात खबर से साभार

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

भारतीय खातेदारों के नाम बताने को तैयार है विदेशी बैंक का बर्खास्त कर्मचारी

उस बैंक का एक बर्खास्त कर्मचारी एक विदेशी बैंक के गुप्त खातेदारों के नाम -पते बताने को तैयार है।फिर भारत सरकार क्यों उस कर्मचारी से मदद लेने को तैयार नहीं है ? हालांकि मदद लेने की शर्त यही है कि भारत सरकार को उसके बदले में कुछ धन खर्च करने पड़ेंगे। खबर है कि उस बैंक में अनेक भारतीयों के भारी मात्रा में काला धन जमा हैं।

वैसे भी विदेशों में सक्रिय खुफिया एजेंसियां तरह -तरह की गुप्त सूचनाएं एकत्र करने के लिए धन खर्च करती ही हैं। खबर मिली है कि अपने- अपने देशों के भ्रष्ट लोगों के काले धन के गुप्त खातों के विवरण कई देशों ने पहले ही प्राप्त कर लिए हैं।इसी सिलसिले में जर्मनी सरकार की खुफिया एजेंसी ने 40 लाख पाउंड और ब्रिटेन सरकार ने एक लाख पाउंड में उस पूर्व बैंक कर्मचारी से खरीद लिए हंै। यही काम भारत सरकार क्यों नहीं कर सकती ? 16 मई 2008 को ही भारत के वित्त मंत्री पी.चिदम्बरम ने एल.के. आडवाणी को पत्र लिखा था कि ‘भारत सरकार ने जर्मनी सरकार से गत फरवरी में ही उन खातों का विवरण मांगा था। पर जर्मनी सरकार ने कह दिया कि कुछ कारणवश वह तत्काल ऐसा करने की स्थिति मेें नहीं है।’ बाद में यह खबर आई कि एक जर्मन वकील ने कानूनी बाधा खड़ी करके भारत सरकार को जर्मन सरकार से गुप्त खातों का विवरण नहीं लेने दिया। पर इसके बावजूद उस बर्खास्त बैंक कर्मचारी से तो खातों ंका विवरण प्राप्त किया ही जा सकता है। याद रहे कि श्री आडवाणी के पत्र के जवाब में चिदम्बरम ने उन्हें गत साल भाजपा नेता को लिखा था। पूरी दुनिया की मीडिया में यह खबर कई महीनों से आ रही है कि कई देशों ने बारी -बारी से उस कर्मचारी से अपने -अपने देश के काला धन वालों के विवरण प्राप्त कर लिए।

पहले यह खबर आई थी कि जर्मनी सरकार, भारत के लोगों के गुप्त खातों के उस विवरण को भारत सरकार को मुफ्त देने को तैयार है। पर, पता नहीं किस षड्यंत्र के तहत एक जर्मन वकील से इस काम में बाधा खड़ी करवा दी गई ? जर्मनी सरकार बाद में क्यों पलट गई ? या फिर चिदम्बरम साहब ने देश को गुमराह किया ? खैर जो हो, फिलहाल यह मान भी लिया जाए कि जर्मनी सरकार ने खाते का विवरण देने से फिलहाल मना कर दिया, पर खुद जर्मनी सरकार ने जिस तरीके से गुप्त खातों के विवरण प्राप्त किए, उसी तरीके से भारत सरकार ने क्यों हासिल नहीं किया ? गुप्त बैंक खातों की यह कहानी भारत तथा कुछ अन्य देशों की मीडिया में विस्तार से गत साल आई थी। दरअसल यह कहानी स्विस बैंक के खातों की नहीं है।यह मामला स्विट्जर लैंड के बगल के एक देश का है। इस छोटे देश लाइखटेंस्टाइन के एल.जी.टी. बैंक में पड़े भारतीयों के अपार काले धन का विवरण देने के लिए उस बैंक का एक पूर्व कर्मचारी तैयार है। पर भारत सरकार उस विवरण को उससे हासिल करने को तैयार ही नहीं है।

एल.जी.टी. बैंक के बारे में कम ही लोगों को पता है। यह तब चर्चा में आया जब स्विस बैंकों ने अमेरिका के भारी दबाव के तहत अपने यहां के बैंकों के खातों की गोपनीयता से संबंिधत नियमों में ढील देने का निर्णय किया। उसके बाद दुनिया भर के काला धन वालों ने लाइखटेंस्टाइन के एल.जी.टी. बैंक की ओर रुख कर लिया।वह बैंक वहां के राजा के परिवार का है और वहां गोपनीयता की अब भी गारंटी है।

जर्मनी को उन खातों का विवरण कैसे मिला ? इसके पीछे भी एक कहानी है। लाइखस्टेंस्टाइन के एल.जी.टी. बैंक के साथ कुछ समय पहले एक हादसा हो गया।उस बैंक का एक कम्प्यूटर कर्मचारी हेनरिक कीबर कुछ कारणवश बैंक प्रबंधन से बागी हो गया। उसे नौकरी से निकाल दिया गया। वह बैंक के सारे गुप्त खातेदारों के नाम पते वाला वाला कम्प्यूटर डिस्क लेकर फरार हो गया। इस तरह दुनिया के अनेक देशों के भ्रष्ट लोगों के गुप्त खातों का विवरण कीबर के पास आ गया। उसने उस पूरी सी. डी.की काॅपी को जर्मनी की खुफिया पुलिस को 40 लाख पाउंड में बेच दिया। ब्रिटेन ने सिर्फ अपने देश के गुप्त खातेदारों के नाम उससे लिए। इसलिए उसे सिर्फ एक लाख पाउंड में विवरण मिल गया। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, बेल्जियम और अन्य दूसरे देश कीबर से बारी -बारी से अपने -अपने देश के भ्रष्ट लोगों के गुप्त खातों के विवरण ले गए। ब्रिटेन ने कहा कि उसे मात्र एक लाख पाउंड लगे।पर उस विवरण के आधार पर कार्रवाई करने पर सरकार को टैक्स के रूप में भारी धन राशि मिल गई। इस तरह यह सौदा ब्रिटेन के लिए काफी फायदे का साबित हुआ।

याद रहे कि यह सौदा भारत के लिए और भी फायदे का साबित हो सकता है। यह खबर गत साल ही पक्के तौर पर आ गई थी कि लाइखटेंस्टाइन के उस बैंक में बड़ी संख्या में भारतीयों के भारी मात्रा में काला धन जमा है। इसी की सूचना पाकर लोक सभा में प्रतिपक्ष के नेता एल.के. आडवाणी ने वित्त मंत्री को पत्र लिख कर उसे वापस लाने का उनसे आग्रह किया था।

एक अन्य खबर के अनुसार भारत के टैक्स चोर हर साल नौ लाख करोड़ रुपए की टैक्स चोरी करते हैं। इनमंे से अधिकांश राशि दुनिया भर में फैले ऐसे विदेशी बैंकों के गुप्त खातों में जमा कर दी जाती है। ये पैसे आम तौर पर भ्रष्ट नेताओं, व्यापारियों और अफसरों के होते हैं। इन पैसों का इस्तेमाल भारत में आतंकवादी गतिविधियां फैलाने और चुनावों को प्रभावित करने के लिए भी होता है। इस देश के काला धन वाले और भारतीय बैंकांे के रुपए मारने वाले इतने ताकतवर हैं कि उन पर कोई कार्रवाई करने की ताकत एल.के.आडवाणी सहित किसी नेता या दल की नहीं है जो अब तक केंद्र की सत्ता में रहे हैं।कांग्रेसी नेता व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने ठीक ही सवाल उठाया है कि एन.डी.ए. जब छह साल तक सत्ता में था तो उसने विदेशी बैंकों के गुप्त खातांे की खोज -खबर क्यों नहीं ली ?

स्विस बैंक कौन कहे, इस देश के राष्ट्रीयकृत बैंकों ंसे कर्ज के बहाने अरबों रुपए दबाकर बैठे बड़े बड़े व्यापरियों तथा अन्य लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने की ताकत भी एन.डी.ए. या यू.पी.ए. नेताओं में है ? सन् 2002 में इंडियन एक्सप्रेस ने यह खबर छापी थी कि ‘इस देश के व्यापारियों और उद्योगपतियों ने बैंकों के ग्यारह खरब रुपए दबा रखे हैं। उन उद्योगपतियों और व्यापारियों के नाम तक प्रकाशित करने की हिम्मत अब तक रिजर्व बैंक को नहीं हो रही है। ये रुपए कर्ज के रूप में लिए गए हैं। पर लौटाए नहीं जा रहे हैं।’ इस खबर के छपने के बाद तत्कालीन प्रतिपक्षी नेताओं यानी मनमोहन सिंह और पी. चिदम्बरम के उसी तरह के सरकार विरोधी कड़े बयान मीडिया में आए थे जिस तरह के बयान गुप्त विदेशी खातों पर इन दिनों एल.के. आडवाणी, शरद यादव तथा अन्य एन.डी.ए. नेताओं के आ रहे हैं।
मनमोहन सिंह और पी. चिदम्बरम गत पांच साल से सत्ता में हैं। क्या आपने कभी सुना कि इन सत्ताधारियों ने उस 11 खरब रुपए की कभी चर्चा भी की हो ? यदि अगली मई में आडवाणी जी सत्ता में आ जाएंगे, तो आप देखेंगे कि वे गुप्त विदेशी खातों की बात वे भी भूल जाएंगे। यदि वे खुदा न खास्ता याद रखेंगे, तो भारतीय राजनीति का इसे चमत्कार ही माना जाएगा ! इस देश के पक्ष -विपक्ष के नेताओं के बारे में पिछले अनुभव तो यही बताते हंै।


सन्मार्ग, पटना से साभार

बुधवार, 1 अप्रैल 2009

सुप्रीम कोर्ट उम्मीद की आखिरी किरण


सुप्रीम कोर्ट ने संजय दत्त के मामले में जो फैसला किया है,उससे इस देश के लोकतंत्र के प्रति शांतिप्रिय लोगों की उम्मीद बंधती है। अन्यथा,तो बुद्ध और गांधी के इस देश की सबसे बड़ी पंचायत को बाहुबलियों और उनके परिजनों का अड्डा बनाने पर इस देश के अधिकतर नेता व दल अमादा हो ही चुके हैं।

वैसे तो सबसे बड़ी अदालत का यह निर्णय एक संकेतक है। साथ ही, ‘बाहुबलवादी’ नेताओं के गाल पर करारा तमाचा भी है। पर, यह उम्मीद करना फिजूल है कि ‘बाहुबलवादी’ नेतागण इससे कोई शिक्षा ग्रहण करेंगे। पर, इससे आम मतदाता जरूर मनोबल उंचा करके चाहें तो अपराधियों और उनके परिजनों को इस चुनाव में धूल चटा सकते हैं।अन्यथा,ये बाहुबलवादी एक दिन लोकतंत्र की ऐसी दुर्गत कर देंगे कि आम जनता का इस सिस्टम पर से ही भरोसा उठ जाएगा और या तो माओवादी छा जाएंगे या फिर सेना। इन दोनों में से कोई भी लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं रहेगा।

पहले गांधीवादी होते थे। थोड़े लोग अब भी हैं। पहले समाजवादी और संघवादी होते थे।थोड़े अब भी हैं। पहले लोहियावादी और साम्यवादी हुआ करते थे। थोड़े लोग अब भी है।पर, वे सब हाशिए पर ही हैं।राजनीति की मुख्य धारा पर तो अब दूसरे ही तरह के लोगों का ही कब्जा होता और बढ़ता जा रहा है।अब परिवारवादी होते हैं। जातीय समीकरणवादी हैं। पैसावादी होते हैं।अपहरणवादी होते हैं।हत्यावादी होते हैं।संविधानविरोधवादी होते हैं।कानूनविरोधवादी और बाहुबलवादी होते हैं।और न जाने क्या क्या वादी होते हैं।

क्या यह देश के लोकतंत्र के लिए कोई मामूली घटना है कि जिसे देशद्रोह के आरोप में अदालत सजा सुना चुकी है,उसे एक राजनीतिक दल लोक सभा में भेजने पर अमादा हो ? क्या यह कोई सराहनीय बात है कि कोई अन्य दल यह कहे कि उसके खिलाफ हम उम्मीदवार ही खड़ा नहीं करेगे क्योंकि उस सजायाफ्ता के परिवार का बड़ा योगदान रहा है ?

भला हो,सुप्रीम कोर्ट का जिसने संजय दत्त को इस लायक नहीं समझा कि वे चुनाव लड़ सके। उन दूसरे सजायाफ्ताओं के बारे में क्या फैसला होगा,इससे यह भी साफ हो गया। पर बिहार के नेतागण कुछ अधिक ही चतुर निकले।उन्होंने उन बाहुबलियों के परिजनों को टिकट दे दिया जिन्हें अदालत ने सजा सुना रखी है।यानी बिहार के कुछ नेताओं ने प्रकारांतर से अदालत के फैसले और मंशा को पराजित करने की चतुर कोशिश की है।हालांकि बाहुबलियों के परिजनों के भी ताकतवर होने पर कुल मिलाकर समाज व सरकार पर नतीजा वही होगा जो खुद बाहुबलियों के चुनाव लड़ने और जीतने से होता रहा है।आखिर ऐसे बाहुबलवादी नेतागण अपने क्षणिक स्वार्थ में इस देश और लोकतंत्र के साथ और खास कर आने वाली अपनी ही पीढ़ियों के साथ क्या करना चाहते हैं ?

लगता यह है कि एक चुनावी लड़ाई तो जनता के बीच लड़ी जा रही है जिसमें विभिन्न दल आमने -सामने हैं। पर दूसरी लड़ाई अदालतों में लड़ी जा रही है जहां कई दलों के लोग यह लड़ाई लड़ रहे हैं कि उन्हें बाहुबलियों और देशद्रोहियों ंसे लोक सभा को भर लेने दिया जाए। इस देश के लिए सौभाग्य की बात है कि काफी हद तक न्यापालिका और एक हद तक मीडिया ऐसे बाहुबलवादियों के खिलाफ देशहित में चट्टान की तरह खड़ी हंै। इस लड़ाई में इस बार मतदाताओं की अधिक मदद की जरूरत है।मतदाताओं ने यदि जातपांत से उपर उठकर अपराधी, जातिवादी व भ्रष्ट तत्वों को लोक सभा में जाने से नहीं रोका तो ये गर्हित तत्व देश के लिए बहुत बुरा दिन ला देंगे।फिर बाद में पछतावा ही रह जाएगा। हमारा देश जब गुलाम हुआ था,तब शायद उन दिनों इसी तरह की परिस्थितियां बन गई होंगी।

संजय दत्त को चुनाव लड़ाने का निर्णय इतना गलत था कि गत एक फरवरी 2009 को ही एक अखबार में लेख लिख कर राम जेठमलानी ने कहा था कि संजय दत्त का लोक सभा में जाना देशहित में नहीं है।यह वही राम जेठमलानी हैं जिन्होंने संजय दत्त को पहली बार ं जमानत दिला देने जैसा असंभव काम किया था। उन्होंने अपने मित्र और एक अति शालीन हस्ती सुनील दत्त के कहने पर संजय का वकील बनना मंजूर किया था।सुनील दत्त ऐसे भले व शालीन अभिनेता थे जो अपनी फिल्म की हीरोइन के हाथ पकड़ने में भी संकोच करते थे।यह उनके अभिनय के शुरूआती दौर की बात है।पर उसी देशभक्त का पुत्र ऐसा निकला कि राम जेठमलानी को लेख लिख कर यह कहना पड़ा कि उसे लोक सभा में नहीं जाना चाहिए। पर इस देश के पक्ष-विपक्ष की पतनशील राजनीति को तो देखिए कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद ऐसे लोगों को और उनके परिजनों को टिकट देने वाला थोड़ा भी शरमा नहीं रहा है।

इस संदर्भ में सन् 2002 के एक प्रकरण को एक बार फिर याद कर लेना मौजूं होगा।इससे पक्ष- विपक्ष के बाहुबलवादी चेहरे का पता चलता है। जून 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि जन प्रतिनिधि बनने की इच्छा रखने वालों को अपने धन-संपत्ति,शिक्षा और केस वगैरह के बारे में सूचनाएं सार्वजनिक करनी होंगी।इसके बाद लगभग सारे राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ एकजुट हो गए।तब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी।सरकार ने इस फैसले को पराजित करने के लिए तत्काल राष्ट्रपति से एक अध्यादेश भी जारी करवा दिया। बाद में उसे कानून का रूप भी दे दिया।पर जब मामला फिर सुप्रीम कोर्ट में गया तो सर्वोच्च अदालत ने इस नए कानून को रद कर दिया। आखिर हार कर यह व्यवस्था करनी पड़ी कि उम्मीदवार अपने धन संपत्ति, शिक्षा और आपराधिक मुकदमों का विवरण नामांकन के समय ही जााहिर कर देंगे जो सार्वजनिक कर दिया जाएगा।

यानी राजनीतिक दल अदालत के दबाव के कारण ही इस बात पर राजी हुए।ऐसे नहीं। ऐसे तो उनमें से अधिकतर लोगों ंके पास छिपाने के लिए अब भी बहुत कुछ है। क्या हो रहा है इस सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् शस्य श्यामलम् देश के साथ ?