बुधवार, 24 जुलाई 2013

1966 के सूखे के समय केंद्र -बिहार आमने -सामने

सन् 1966 में बिहार में भयंकर सूखा पड़ा था। तब बिहार में के.बी. सहाय के नेतृत्व में कांग्रेस की ही सरकार थी। केंद्र में कांग्रेसी प्रधानमंत्री थीं इंदिरा गांधी। इसके बावजूद के.बी. सहाय ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया था कि ‘केंद्र न तो बिहार को पर्याप्त अन्न सहायता दे रहा है और न ही उसे अन्य प्रदेशों से सीधे अन्न खरीदने दे रहा है।

उन दिनों यह भी खबर आई थी कि आंध्र प्रदेेश की सरकार ने धमकी दी थी कि वह अपने प्रदेश से अनाज तब तक बिहार नहीं जाने देगा जब तक केंद्र सरकार आंध्र को यह पक्का आश्वासन नहीं दे देती कि देश का पांचवां इस्पात कारखाना आंध्र में ही लगेगा। हालांकि बाद में तब के मुख्यमंत्री ब्रह्मानंद रेड्डी ने समाचार पत्रों में छपी इस आशय की खबर का खंडन करते हुए कहा था कि आंध्र प्रदेश ने ऐसी कोई शर्त नहीं लगाई है।

खैर सूखा राहत को लेकर तब भी खींचतान चली थी। बिहार के सूखे की पृष्ठभूमि में ही चौथा आम चुनाव हुआ था। बिहार में कांग्रेस हार गई। मार्च 1967 में महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा की गैर कांग्रेसी सरकार बिहार में बन गई। वह इस दृष्टि से बिहार की अब तक की सबसे अच्छी सरकार मानी जाती है कि उसके अधिकतर मंत्री ईमानदार व कर्मठ थे। महामाया सरकार ने उस अकाल में अद्भुत सेवा कार्य किए। उस समय संयोग से जयप्रकाश नारायण जैसे नेता भी उपलब्ध थे जिन्होंने राहत के सराहनीय काम किए।

दिसंबर 1966 में दिल्ली में प्रेस के जरिए जयप्रकाश नारायण ने लोगों से अपील की कि वे ‘बिहार की अकालग्रस्त जनता को हरसंभव सहायता दें। उन्होंने यह भी कहा कि बिहार के प्रशासनिक ढांचे के सुधार के लिए जो भी कदम उठाए जा रहे हैं, उनका मैं स्वागत करता हूं।

याद रहे कि तब भी यह कहा गया था कि इस भीषण अकाल से निपटने में प्रशासनिक ढांचा अक्षम साबित हो रहा है। जेपी ने निर्दल लोकतंत्रवादियों के सम्मेलन में बिहार की अन्न वितरण व्यवस्था को असंतोषजनक बताया था। सर्वोदय नेता ने इस संबंध में उच्चस्तरीय समिति के गठन की सरकारी घोषणा का स्वागत किया।

साप्ताहिक दिनमान के अनुसार, ‘इस समिति में दो केंद्रीय मंत्री, जिनमें केंद्रीय कृषि और खाद्य मंत्री होंगे, तथा प्रदेश के मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल का एक सदस्य होगा। इसके अतिरिक्त इसमें केंद्र तथा राज्य से तीन वरिष्ठ अधिकारियों को भी शामिल किया जाएगा। प्रदेश सरकार के प्रशासनिक ढांचे को संतुलित करने के लिए केंद्र संयुक्त सचिव स्तर के छह अधिकारियों को भी बिहार भेजेगा। प्रशासनिक अनुशासन की इस व्यवस्था को जीवन बीमा निगम के अध्यक्ष श्री बी.डी. पांडेय का नेतृत्व मिलेगा। अतिरिक्त खाद्यान्न वाले प्रदेशों का हृृदय भी कुछ- कुछ पसीज रहा है। इस सिलसिले में भारतीय खाद्य निगम की अकर्मण्यता की चर्चा प्रायः हो चुकी है। इस बात के बावजूद श्री सुब्रह्मण्यम भारतीय खाद्य निगम का ढांचा ज्यों का त्यों बनाए रखने की घोषणा कर रहे हैं और भूख की समस्या के छू मंतर हो जाने की भविष्यवाणी करते फिर रहे हैं।’

बिहार अक्सर सूखे और बाढ़ की समस्याओं से जूझता रहता है, इसलिए 1966 की चर्चा मौजू है।

सन 1966-67 के बिहार के अकाल के संदर्भ में ब्रितानी अखबार गार्जियन ने बिहार की खाद्य समस्या को विश्व संकट घोषित कर अमेरिका, सोवियत संघ व अन्य समृद्ध देशों का अंतःकरण जगाने की कोशिश की। इस पर दिनमान ने लिखा कि लेकिन अंतःकरण अब तक केवल कनाडा और आस्ट्रेलिया का जागा है। कनाडा की संसद ने भारत-पाकिस्तान के अकालग्रस्त क्षेत्रों के लिए आपातकालीन पैमाने पर अन्न भेजने का कानून पास कर दिया है। आस्ट्रेलिया सरकार ने भी  भारत को डेढ़ लाख टन गेहूं भेजने का फैसला किया है। खाद्यान्न सहायता पर मौजूदा अमेरिकी प्रतिबंध की भारत में तीव्र प्रतिक्रिया हुई है और अब यह समाचार आने लगा है कि अमेरिका अपना निर्णय बदल रहा है।

उस समय के अकाल को लेकर दिनमान की कुछ पंक्तियां आज भी इस देश में  प्रासंगिक हैं, ‘जानलेवा भूख और भूख मिटा देने वाले भाषणों का सह अस्तित्व अकालग्रस्त भारत के लिए नया नहीं है। वरुण देवता से भारत सरकार की अनबन वैसे पुरानी है।’

ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति आजादी के 66 साल बाद भी बनी हुई है कि यहां का अधिकांश भूखंड वर्षा के जल पर ही निर्भर है।  

सोमवार, 22 जुलाई 2013

सही साबित हो रही है नीतीश की आशंका

 
नरेंद्र मोदी का राजनीतिक अभियान या यूं कहें कि चुनावी अभियान शुरू हो चुका है। जिन शब्दों और प्रतीकों के जरिए वह चल  रहा है, उससे लगता है कि भाजपा से अलग होने का नीतीश कुमार का निर्णय सही था। जदयू को यह  आशंका पहले से ही थी। उसे लगता था कि विभाजनकारी व्यक्तित्व वाले नेता होने के कारण नरेंद्र मोदी को कमान सौंपी गई तो वे देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की स्थिति ला देंगे। वह नुकसानदेह साबित होगा। आज लगता है कि यही हो रहा है।

  यहां तक कि खुद भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा को हाल में यह कहना पड़ा कि बहस वास्तविक मुद्दों से भटक गई है। आगामी चुनावों के लिए बहस आर्थिक स्थिति और आम आदमी को पेश आ रही समस्याओें पर होनी चाहिए जिनके लिए कांग्रेस सरकार जिम्मेदार है, न कि सांप्रदायिकता बनाम धर्म निरपेक्षता पर।

    क्या श्री सिन्हा की सलाह नरेंद्र मोदी मानेंगे ? पता नहीं। क्योंकि इस देश में दूसरी तरफ दिग्विजय सिंह जैसे बड़बोले नेता भी उपलब्ध हैं जो ऐसे विवादों की  आग में घी डालने का काम करते रहते हैं। इस देश में इन दिनों नरेंद्र मोदी और दिग्विजय सिंह सांप्रदायिकतायुक्त राजनीतिक विमर्श के मुख्यतः दो ध्रुव बन चुके हैं। यदि नरेंद्र मोदी कहते हैं कि मैं हिंदू राष्ट्रवादी हंू तो दिग्विजय सिंह कहते हैं कि मैं कर्मकांडी हिंदू हंू। मोदी इन दिनों धार्मिक स्थलों का कुछ अधिक ही भ्रमण कर रहे हैं। उधर दिग्विजय सिंह को अपने बारे में यह बात सार्वजनिक करना जरूरी लगता है कि ‘मैं हर एकादशी का व्रत रखता हूं।’

   क्या भारतीय राजनीति के विमर्श का यही स्तर होना चाहिए ? ऐसी नौबत किसने लाई ? इसके आगे और कैसे नतीजे होंगे ?

 यदि भाजपा चुनाव अभियान समिति के प्रधान को किसी ने बीच में नहीं रोका तो अगला चुनाव सांप्रदायिक मुददों पर ही होगा। चुनाव तो अभी दूर है, उससे पहले देश का माहौल बिगड़ जाएगा। इसे बिगाड़ने में भाजपा और कांग्रेस दोनों के निहितस्वार्थ है, पर अन्य लोगों व संगठनों का क्या होगा ? नीतीश कुमार ने शायद इस स्थिति का पूर्वानुमान कर लिया था।

  समाजवादी पृष्ठभूमि के नीतीश कुमार ने गत जून के मध्य में ं ही भाजपा का साथ छोड़ते हुए ऐसी आशंका व्यक्त की थी। उन्होंने कहा था कि हम अपने बुनियादी उसूलों के साथ समझौता नहीं कर सकते चाहे इसका जो भी नतीजा हो। संभवतः वे यह भी इशारा कर रहे थे कि चुनाव हारने की कीमत पर भी देश को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की ओर ले जाने के काम में मददगार नहीं बनेंगे।

    उससे पहले भाजपा ने पंजिम में 9 जून को बड़े जोशो -खरोस और भारी ताम झाम के साथ नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रधान बनाया था। ताजपोशी तो उनकी चुनाव अभियान समिति के प्रधान पद पर हो रही थी, पर लग रहा था कि उन्हें भावी प्रधान मंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जा रहा था।

     नरेंद्र मोदी ने बुर्के वाली बात कहकर अपने इरादे का खुलेआम प्रदर्शन कर दिया कि वे आखिर अपने चुनावी व राजनीतिक अभियान को किस तरीके से चलाना चाहते हैं।उन्होंने गत 14 जुलाई को पूणे में कहा कि अपनी विफलताओं पर पर्दा डालने के लिए कांग्रेस धर्म निरपेक्षता के बुर्के के पीछे छिप जाती है। इस बयान पर विवाद उठना ही था।उठा भी।राजनीतिक और सांप्रदायिक माहौल गरमाया। मोदी की इस प्रतीकात्मक टिप्पणी को अल्पसंख्यकों ने किस रुप में लिया ?इसका जवाब भाजपा के ही एक अल्पसंख्यक नेता के बयान से मिल जाता है।

   भाजपा के ही  शाहनवाज हुसेन ने मोदी की इस टिप्पणी को ज्यों का त्यों नहीं दोहराया।बल्कि उन्होंने यह कहा कि कांग्रेस धर्म निरपेक्षता का कंबल ओढ़ कर गलत तरीके से वोट हथियाना चाहती है।बुर्के के बदले उन्होंने कंबल शब्द का इस्तेमाल किया।शाहनवाज को लगा होगा कि उनके मुंह से बुरका शब्द का इस्तेमाल अल्पसंख्यक पसंद नहीं करेंगे।

  यह और बात है कि बुर्के की चर्चा करने पर अल्पसंख्यक नेताओं ने कम बल्कि उन गैर-अल्पसंख्यक नेताओं ने ही अधिक तीखी प्रतिक्रियाएं जाहिर कीं जो अल्पसंख्यक मतों के सौदागर माने जाते हैं।ऐसे नेताओं के लिए नरेंद्र मोदी जैसे नेता चुनावी राजनीति में अनुकूल साबित होते हैं। सांप्रदायिक धु्रवीकरण का लाभ दोनों को मिलता  है।

  पर यशवंत सिंहा जैसे नेता भी इसके खतरे देख रहे हैं।अविभाजित बिहार के मूल निवासी होने के कारण सिंहा  अच्छी तरह जानते हैं कि अपवादों को छोड़ दें तो हिंदू मतदाता तो आम तौर पर जातियों में बंटे होते हैं,पर अल्पसंख्यक मतदाताओें में यदि भय पैदा होगा तो वे किसी एक ताकतवर  दल के पक्ष  में मजबूती से एकजुट हो जाएंगे।मजबूत दल अलग -अलग राज्य में अलग -अलग दल हो सकते हैं।

  क्या नरेंद्र मोदी  को ऐसे उद्गार प्रकट करने से कोई रोक पाएगा ? लगता तो नहीं है।क्योंकि ताजा खबर यह है कि जो कुछ मोदी जी कर रहे हैं,उनमें भाजपा के कुछ बड़े नेताओं के साथ -साथ संघ की भी सहमति है।इस बीच राम मंदिर का नारा भी एक बार फिर तेज कर दिया गया है।मोदी के अनन्य सहयोगी अमित शाह ने इसकी शुरुआत की है।उत्तर प्रदेश और बिहार के जातीय समीकरण के सामने भाजपा के विकास का मुद्दा नहीं चल पाने के कारण शायद ऐसा किया जा रहा है।

    आज नरेंद्र मोदी जिस तरह के उकसावापूर्ण भाषण दे रहे हैं और जिस गति से धार्मिक स्थलों का दौरा कर रहे हैं, वैसा वे नहीं भी करते तो भी उन्हें कोई राजनीतिक घाटा नहीं होता, ऐसा कुछ राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है। देश में ऐसे लोगों की संख्या अब कम नहीं है जो मनमोहन सिंह की कथित निकम्मी व भ्रष्ट सरकार से बुरी तरह उब चुके हैं। वे लोग लोग प्रधानमंत्री के पद पर नरेंद्र मोदी की तरह के ही एक सफल प्रशासक चाहते हैं। सन 2002 के दंगे के कारण भले नरेंद्र मोदी की एक खास छवि बन चुकी है, पर उनकी यह भी उपलब्धि गौर करने लायक है कि उन्होंने 2002 के बाद गुजरात में एक भी सांप्रदायिक दंगा नहीं होने दिया। यदि 2002 के दंगे के लिए उन्हें दोषी माना जाता है तो दंगे नहीं होने देने का श्रेय भी उन्हें मिलना ही चाहिए। यदि कोई व्यक्ति वर्षों तक दंगे रोकने का श्रेय मोदी को नहीं देना चाहता है तो उसे 2002 के दंगे के लिए भी उन्हें जिम्मेदार ठहराने का नैतिक  हक नहीं है।

 अक्सर बड़े दंगों के लिए चर्चित गुजरात में दंगे रोकने का काम कोई सफल प्रशासक ही कर सकता है।

  गुजरात विकास के मामले में पहले भी आगे था। पर नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने के बाद भी अपने शासन काल में उसे आगे बढ़ाया है। मोदी की कुछ विफलताएं हैं तो कई सफलताएं भी हैं। अनेक सर्वेक्षणों के अनुसार नरेंद्र मोदी अभी देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं। ऐसे सर्वेक्षण नतीजे उनके बुर्के और हिंदू राष्ट्रवादी वाले बयानों से पहले ही आ चुके हैं।

   पर, शायद नरेंद्र मोदी को यह गलतफहमी है कि गुजरात के बाहर इस देश के लोग उन्हें एक कट्टर हिंदू के रूप में ही देखना चाहते हैं।

  जबकि अधिक सही बात यह है कि इस देश के अधिकतर लोग प्रधान मंत्री पद के लिए एक ईमानदार और कड़ा प्रशासक और सब तरह की संकीर्णताओं से दूर रहने वाला नेता चाहते हैं। क्योंकि यह विभिन्नताओं का देश है। यदि मोदी खुद को हिंदू राष्ट्रवादी के रुप में ही पेश करना चाहते हैं तो भी उन्हें सार्वजनिक रूप से यह कहने की कोई जरूरत नहीं। उनकी उपस्थिति और उनका नाम ही बहुत कुछ कह जाता है।

( 21 जुलाई 2013 )
       

बुधवार, 3 जुलाई 2013

भारत की पतली हालत देख जबर बन गया चीन


यह महज संयोग नहीं है। एक तरफ भारत में सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष कोयला घोटाले को लेकर आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हुए हैं, वहीं दूसरी ओर चीन हमारी सीमाओं का अतिक्रमण कर रहा है। इन दोनों घटनाओं के बीच सीधा संबंध भी है।

कोयला घोटाला इस देश का कोई पहला घोटाला नहीं है। एक तरफ हमारे देश की सरकारें तरह -तरह के घोटालों में अपने संसाधनों को दोनों हाथों से लुटा रही हैं, वहीं दूसरी ओर हमारी सरकार के पास अपनी सेना और अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए पैसे की भारी कमी है। हमें कमजोर मान कर चीन ज्यादती कर रहा है।

  चीन में यह कहावत भी है कि भारत सरकार अपने बजट के पैसों को एक ऐसे लोटे में रखती है जिसकी पेंदी में अनेक छेद हैं। जाहिर है कि ये छेदें घोटालों की  ही हैं।

  विस्तारवादी चीन के अपने 14 पड़ोसी देशों से सीमा को लेकर विवाद हैं। चीन ने रुस के साथ अपना सीमा विवाद 2004 और 2008 की बातचीत के जरिए हल कर लिया।

पर, भारत के साथ वर्षों से जारी अनेक वार्ताओं के बावजूद विवाद हल नहीं हो पा रहा है।

इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि चीन हमें एक कमजोर देश मानता है। दूसरी तरफ रुस कमजोर देश नहीं है। रुस जैसे देश में अपनी सीमाओं की रक्षा और आतंकवाद से लड़ने को लेकर कोई आंतरिक मतभेद भी नहीं है। पर  भारत में यह भी एक बड़ी समस्या है। चीन यह अच्छी तरह जानता है।

   गांवों में कोई दबंग व्यक्ति अपने कमजोर पड़ोसी की जमीन में अतिक्रमण कर लेता है। पर उसी दबंग का किसी दूसरे दबंग से पाला पड़ता है तो वह बैठकर आपस में बातचीत के जरिए समझौता कर लेता है।

   सन् 1962 में चीन के हाथों शर्मनाक पराजय के बावजूद भारत की सरकारों ने खुद को आर्थिक व सैनिक दृष्टि से मजबूत नहीं बनाया। यदि बनाया होता तो जिस तरह चीन ने रुस के साथ अपने सीमा विवाद हल कर लिये, उसी तरह भारत के साथ भी उसे किसी न किसी तरह का समझौता करना पड़ता।

   रिटायर सेना प्रमुख वी.के. सिंह ने अपने कार्यकाल में सरकार को लिखा था कि हमारी सेना के पास हथियारों की भारी कमी है।

क्या इस पर सरकार ने कुछ किया ? शायद कुछ नहीं।

यदि तुलनात्मक ताकत का ध्यान रखें तो चीन की सीमा पर भारतीय सैनिक तैनाती की स्थिति और भी खराब रही है। इस कमी को देखते हुए कुछ महीने पहले सेना ने रक्षा मंत्रालय के जरिए वित्त मंत्रालय को एक विशेष प्रस्ताव भेजा था। प्रस्ताव चीन की सीमा पर  भारतीय सेना को मजबूत बनाने के लिए था।

उस इलाके में सेना को आधुनिक हथियारों तथा साजो सामान से सुसज्जित करने के लिए 50 हजार करोड़ रुपये की जरूरत है। इस प्रस्ताव को अस्वीकार करने के साथ ही वित्त मंत्रालय ने रक्षा मंत्रालय से एक अजीब सवाल भी पूछ दिया था। वह सवाल यह था कि क्या कुछ साल बाद तक भी सीमा पर चीन से खतरा आज की तरह ही बरकरार रहेगा?

 यह खबर अखबार में भी काफी प्रमुखता से छपी थी। हमारे देश के हुक्मरानों को उस खबर पर जरूर नजर गई होगी। इसके बावजूद उस पर क्या हुआ, यह अब तक पता नहीं चल सका है। चीन से खतरे की वास्तविकता की जानकारी वित्त मंत्रालय को किसी ने दी या नहीं, पता नहीं। पर, यह खबर इस बीच जरूर आ रही है कि चीन भारतीय सीमा का लगातार उल्लंघन कर रहा है।

इस पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कहते हैं कि यह तो स्थानीय मसला है। इसी तरह का जवाब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी संसद में दिया था जब पहली बार भारतीय भूभाग में चीनी घुसपैठ की खबर आई थी।

नेहरू ने कहा था कि जिस भूभाग की चर्चा की जा रही है, वहां घासकी पत्ती भी नहीं उगती। इस पर कांग्रेस के ही महावीर त्यागी ने कहा था कि मेरे सिर में तो एक भी बाल नहीं है तो क्या इस कारण मेरा सिर काट लोगे ?
  इस तरह जानबूझ कर अपनी सीमाओं की रक्षा में विफल नेहरू सरकार को 1962 के युद्ध में पराजय का अपमान झेलना पड़ा। जब चीनी फौज भारतीय सीमा में घुसती जा रही थी और फौजी साजो-सामान के अभाव में हमारी सेना पीछे हटती जा रही थी तो नेहरू ने बचाव में आने के लिए अमेरिका को कई पत्र लिखे। एक बार तो उन्होंने एक ही दिन में दो -दो पत्र राष्ट्रपति जाॅन एफ.कैनेडी को लिखे।

इस अपमान के बावजूद भारत की विभिन्न परवर्ती सरकारों ने भी सेना को इतना मजबूत नहीं किया ताकि हम विस्तारवादी पड़ोसी को वाजिब जवाब दे सकें। नतीजतन आज भी जब सीमा में जबरन घुसपैठ और उस पर भारत सरकार की अकर्मण्यता की खबर आ रही है तो पूरे देश में एक उदासी छाई हुई है।

 यह सही है कि चीन के साथ हमारा सीमा विवाद पुराना है। पर सीमावर्ती भूभाग पर हमारा दावा भी ऐतिहासिक कारणों से कमजोर नहीं है।  

  यह बात साठ के दशक में भारतीय संसद की चर्चाओं से भी प्रकट होती है। समाजवादी नेता व स्वतंत्रता सेनानी डा. राम मनोहर लोहिया ने एक बार भारत सरकार से सवाल किया था कि दुनिया में कौन सी कौम है जो अपने सबसे बड़े देवी-देवताओं में से एक को परदेस में बसाया करती है ?

याद रहे कि कैलास मान सरोेवर तिब्बत में है।

लोहिया ने कहा था कि चीन, तिब्बत पर अपना आधिपत्य जताने और जमाने के लिए तो अंग्रेजों को गवाह बनाता है, पर उन्हीं अंग्रेजों द्वारा तैयार मैकमोहन रेखा को चीन नहीं मानता।

एक बार एक दिलचस्प प्रकरण लोहिया ने लोकसभा में उठाया था। उन्होंने कहा था कि तिब्बत स्थित मनसर नामक गांव के लोग भारत सरकार को सन 1962 तक राजस्व देते थे। मनसर भारत-तिब्बत सीमा से 200 मील अंदर तिब्बत में है। इस पर कांग्रेस के वामपंथी सदस्य शशि भूषण ने लोहिया का मजाक उड़ाते हुए कहा कि वह राजस्व लोहिया जी को ही मिलता होगा। लोहिया ने जांच की मांग की। सरकार ने जांच कराई। लोहिया की बात सही पाई गई।

लोहिया के अलावा कई अन्य दिग्गज सांसदों ने भी 1950 के बाद से ही चीनी सीमा पर अपनी सैनिक तैयारी मजबूत करने के लिए भारत सरकार को आगाह किया था। पर आज तक भारत सरकार सचेत नहीं हुई है। लगता है कि इतिहास से कुछ भी नहीं सीखने की हमारे हुक्मरानों ने कसम खा ली है।

(साभार जनसत्ता ः एक मई 2013)


वोट बैंक के बीच बिहार में मोदी प्रेम की मंद बयार

 बिहार के महाराजगंज लोकसभा उपचुनाव में जदयू उम्मीदवार की हार से जदयू और भाजपा के बीच कड़वाहट बढ़ गई है। दरअसल इस उपचुनाव पर भी नरेंद्र मोदी की अदृश्य छाया पड़ गई थी जो जदयू के लिए अपशकुन साबित हुई।

 महाराजगंज में जदयू के उम्मीदवार पी.के. शाही को महाबली लालू प्रसाद और बाहुबली प्रभुनाथ सिंह के साथ- साथ दिग्गज नरेंद्र मोदी की अदृश्य ताकत से भी एक साथ मुकाबला करना पड़ा था।

प्रतिष्ठा के इस चुनाव क्षेत्र में नरेंद्र मोदी की भी अदृश्य किंतु मजबूत उपस्थिति रही। ऐसा नहीं था कि लालू प्रसाद और नरेंद्र मोदी में कोई भीतरी तालमेल था। बल्कि नीतीश कुमार के मोदी विरोधी रुख से महाराजगंज चुनाव क्षेत्र के भी मोदी समर्थक सख्त नाराज थे। वे जदयू को सबक सिखाना चाहते थे। नरेंद्र मोदी समर्थकों में अब ऐसे लोग भी शामिल हो चुके हैं  जो भाजपा के सदस्य या समर्थक नहीं हैं। नरेंद्र मोदी बनाम नीतीश कुमार को लेकर बिहार भाजपा के कुछ नेताओं की राय जग जाहिर है। हालांकि सुशील कुमार मोदी सहित कई नेताओं ने जदयू के पक्ष में महाराजगंज में दिल से प्रचार भी किया था। पर, सरजमीन पर चुनाव को लेकर जदयू और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच कम ही तालमेल हो पाया।

   सन 2009 के लोकसभा चुनाव में महाराजगंज में बहुत ही कम मतों से राजद के उमाशंकर सिंह ने जदयू के प्रभुनाथ सिंह को हराया था। उमाशंकर सिंह के निधन से यह सीट खाली हुई थी। इस बार राजद के प्रभुनाथ सिंह ने जदयू के पी.के. शाही को एक लाख 37 हजार मतों से हरा दिया। मतों का भारी अंतर राजग खास कर जदयू के लिए चिंता का कारण बना हुआ है।

  अनेक मतदाता जो प्रभुनाथ सिंह से खुश नहीं भी रहे हैं, वैसे लोगों ने भी जदयू को सबक सिखाने के लिए राजद को इस बार वोट दे दिया। ऐसे लोग नीतीश कुमार के मोदी विरोधी रुख से नाराज हैं। ऐसे लोगों में भाजपा के कट्टर समर्थक तो शामिल हैं ही। जदयू उम्मीदवार पी.के. शाही का यह आरोप गलत नहीं लगता है कि असहयोग के कारण उनकी हार हुई है। असहयोग सिर्फ भाजपा समर्थकों की ओर से ही नहीं था। बल्कि कुछ स्थानीय जदयू नेताओं की ओर से भी शाही को पूर्ण सहयोग नहीं रहा। कहा जाता है कि जदयू के कुछ स्थानीय नेता अपना भी राजनीतिक भविष्य देख रहे थे। वे प्रभुनाथ सिंह से दुश्मनी मोल लेना नहीं चाहते थे। इसके बावजूद जदयू उम्मीदवार पी.के. शाही को 2 लाख 44 हजार मत मिले। इन मतों में भाजपा का योगदान कम ही रहा। इससे यह बात भी साफ है कि जदयू की भी अपनी एक ताकत है जो महाराजगंज सहित पूरे राज्य में भी फैली हुई है। यह ताकत विपरीत परिस्थिति में भी जदयू को काम आने वाली है।

  हालांकि महाराजगंज की स्थिति विशेष है। इसी तरह की एक विशेष राजनीतिक और सामाजिक परिस्थिति मेें 1994 में लोकसभा का उपचुनाव वैशाली में हुआ था। तब के सत्ताधारी दल जनता दल को निर्दलीय लवली आनंद के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा था। हालांकि एक ही साल बाद हुए बिहार विधानसभा के आम चुनाव में लालू प्रसाद यादव के दल को पूर्ण बहुमत मिल गया था।

   कोई माने या नहीं माने, पर देश के एक बड़े हिस्से में इन दिनों नरेंद्र मोदी की मंद बयार हवा बह रही है। उसमें जातीय, उप जातीय व सांप्रदायिक वोट बैंक की राजनीति वाला बिहार भी शामिल है।

यह हवा सिर्फ गुजरात दंगे में मोदी की कथित भूमिका को लेकर नहीं है। कुछ  अन्य तत्व भी हैं। एक तो मोदी की छवि कठोर प्रशासक की बन गई है और उन पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का कोई आरोप भी नहीं है। दूसरी ओर केंद्र सरकार में इन गुणों की भारी कमी है।

  जो लोग यह मानते हैं कि यह देश नक्सली हिंसा, आतंकवादी घटनाओं, व्यापक सरकारी भ्रष्टाचार, लुंजपुज शासन तथा सीमा की रक्षा के प्रति लापरवाही की समस्याओं से जूझ रहा है, उन्हें नरेंद्र मोदी से उम्मीद जग गई है। यह और बात है कि अंततः उनकी उम्मीदें पूरी होंगी या नहीं।

   स्वाभाविक है कि ऐसे लोग महाराजगंज में भी हैं। उन्हें मोदी के खिलाफ नीतीश कुमार का रुख अच्छा नहीं लग रहा है। ऐसे लोगों ने अपने कारणों से इस बार राजद को वोट दे दिये। जरूरी नहीं कि वे लोग 2015 में लालू प्रसाद के दल को बिहार की गद्दी सौंपने के प्रयास को भी मदद पहुंचा ही देंगे।

   नरेंद्र मोदी के खिलाफ नीतीश कुमार के राजनीतिक रुख का सैद्धांतिक आधार  है। पर, महाराजगंज का चुनाव नतीजा उन्हें यह बताने के लिए पर्याप्त है कि नरेंद्र मोदी का विरोध जदयू के लिए अगले चुनाव में महंगा पड़ सकता है। क्योंकि यह जरूरी नहीं है कि मोदी विरोध के बावजूद अल्पसंख्यकों के मत थोक में जदयू को मिल ही जाएंगे। यदि थोक वोट नहीं मिलेंगे तो भाजपा से अलग होने के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई जदयू कैसे कर पाएगा?

  हालांकि नीतीश कुमार ने यह भी कहा है कि वे अपने रुख पर कायम रहेंगे, भले इसके लिए उन्हें कोई भी राजनीतिक कीमत क्यों न चुकानी पड़े। यदि सचमुच कीमत चुकानी पड़ी तो इस तरीके से नीतीश कुमार का नाम इतिहास में दर्ज जरूर हो जा सकता है कि उन्होंने सिद्धांत के लिए गद्दी को खतरे में डाल दिया। ऐसे नेता देश में नहीं के बराबर हैं। पर वैसी स्थिति आई तो इसके साथ ही बिहार की जनता के उस हिस्से को भी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है जो लालू प्रसाद के दल के शासन की वापसी कत्तई नहीं चाहते।क्योंकि अनेक लोगों को लालू प्रसाद के इस वायदा पर कतई विश्वास नहीं है कि वे सत्ता में आने के बाद इस बार शांति व्यवस्था व विकास के लिए काम करेंगे। जिस तरह उत्तर प्रदेश में मुलायम -अखिलेश अपना यह वादा नहीं पूरा कर पा रहे हैं, उसी तरह इस वायदे को पूरा करना खुद लालू प्रसाद के हाथ में भी नहीं है।क्योंकि आरोप है कि उनके साथ शांति व विकास विरोधी लोग ही अधिक हैं।

  वैसे महाराजगंज की हार के कई और कारण भी हैं जिन पर सत्ताधारी जदयू को विचार करना होगा। महाराजगंज के आम राजपूत मतदाताओं के बीच इस बात को लेकर नाराजगी थी कि जदयू ने पहले की तरह उनके समुदाय के ही किसी नेता को टिकट नहीं दिया। सारण प्रमंडल में प्रभुनाथ सिंह जातीय पहचान के प्रतीक बन गये हैं।

हालांकि यह बात भी सच है कि जदयू ने इस बार राजपूत समुदाय से आने वाले जिस नेता को पहले टिकट का आॅफर किया था, उसने लड़ने से ही इनकार कर दिया।

 2009 में पराजय के बाद प्रभुनाथ सिंह क्षेत्र में सक्रिय रहे, लोगों से इस बार विनम्रता से बातें करते रहे और अपने सामाजिक समीकरण को मजबूत बनाते रहे।

  एक तरफ विधायक फंड के बंद होने और दूसरी ओर सरकारी दफ्तरों में जम कर घूसखोरी जारी रहने का असर राजग कार्यकर्ताओं पर भी पड़ा। उनमें से अनेक लोगों ने इस चुनाव में वैसी सक्रियता नहीं दिखाई जैसी उन्हें दिखानी चाहिए थी। दूसरी ओर बाहुबली प्रभुनाथ सिंह की ऐसी छवि बनी हुई है कि वे अपने लोगों के काम के लिए सरकारी दफ्तरों पर खुद भारी दबाव भी बना सकते हैं।

   इधर इन दिनों किसानों को खेतिहर मजदूर कम मिल रहे हैं। ऐसा मनरेगा और राज्य सरकार की ओर से गरीब परिवारों को तरह- तरह के मदों में  मिल रही  भारी आर्थिक व अनाज की मदद के कारण हो रहा है। खेतिहर मजदूरों की सौदेबाजी की ताकत बढ़ गई है। अनेक किसानों के एक बड़े हिस्से को यह लगता है कि सरकार किसानों की अपेक्षा खेतिहर मजदूरों की ही अधिक मदद कर रही है। ऐसे किसान भी महाराजगंज में प्रभुनाथ सिंह के काम आ गये।

  अब सवाल यह है कि क्या महाराजगंज का नतीजा लोकसभा व बिहार सभा के आगामी चुनावों में भी दोहराएगा ? यदि भाजपा और जदयू साथ- साथ रहे तो बिहार में इस गठबंधन को हराना किसी के लिए आसान नहीं होगा।

  अधिक लोगों की तो यही राय है कि वैशाली लोकसभा उप चुनाव की तरह महाराजगंज का एक विशेष स्थान है जहां प्रभुनाथ सिंह जैसे एक ताकतवर नेता हैं। हर जगह ऐसे दबंग व जमीनी नेता लालू प्रसाद को ंनहीं मिल सकते। ऐसी जातीय बनावट भी हर क्षेत्र में नहीं है।

 पर किसानों की वाजिब शिकायतों व बुनियादी जरुरतों पर भी राज्य सरकार को विशेष ध्यान देना होगा। हां, जिन अर्ध सामंती किसानों को इस बात का गुस्सा है कि नीतीश कुमार ने कमजोर वर्ग के लोगों का मन बढ़ा दिया है, तो उस मानसिक समस्या का हल तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं मिलेगा।

  नरेंद्र मोदी को लेकर बिहार जदयू और भाजपा के बीच बढ़ती खटास को देखते हुए इस पर कोई फैसला जल्द करना होगा अन्यथा बाद में देर हो जाएगी। क्योंकि इस बीच जदयू और भाजपा कार्यकर्ताओं व नेताओं के बीच भी कटुता बढ़ती जाएगी। इसका विपरीत असर साथ चुनाव लड़ने के बावजूद पड़ सकता है।

(संपादित अंश जनसत्ता के 7 जून 2013 के अंक में प्रकाशित)