मंगलवार, 30 जुलाई 2019

जल ही जीवन--जल से जीवन
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1.-भोजन से 40 मिनट पहले या भोजन के 
एक घंटे बाद ही जल ग्रहण करें।
2.-जल चाय की तरह धीरे-धीरे ही ग्रहण करें।
3.-फ्रिज का पानी कभी मत पीजिए।
गर्मी के दिनों में घड़े का पानी पी सकते हैं।
4.-सुबह खाली पेट कम से कम तीन ग्लास गुनगुना 
जल पीजिए।  
 ..........................
ये बातें छोटी लग रही होंगीं।
पर, इसके बहुत फायदे हंै।


सोमवार, 29 जुलाई 2019

गत 24 जुलाई को पाक प्रधान मंत्री इमरान खान ने न्यूयार्क में स्वीकार किया कि जैश ए मोहम्मद भारत में सक्रिय है।
  पर, इधर भारत में जब ऐसा  आतंकी संगठन नर संहार करता है तो भारत के ही कुछ नेता,दल, बुद्धिजीवी तथा कुछ अन्य लोग यह बयान देते हैं कि भाजपा अपने वोट बढ़वाने के लिए और अंध राष्ट्र भक्ति भड़काने के लिए संघ से यह काम करवाती है।
  क्या आपने कोई ऐसा देश देखा-सुना  है जहां के कई लोग अपने ही देश की सुरक्षा के खिलाफ ऐसा खिलवाड़  करते हैं ?
     

पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने आदेश दिया है कि पंजाब,हरियाणा और चंडीगढ़ में अब मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारों और अन्य धार्मिक स्थलों में दस डेसीबल से अधिक आवाज में लाउड स्पीकर नहीं चलाए जाएं।
 इस सीमा तक लाउड स्पीकर चलाने के लिए भी जिला प्रशासन से मंजूरी लेनी होगी।
आवासीय क्षेत्रों में बच्चों की  परीक्षाओं से 15 दिन पहले से लाउड स्पीकर चलाने पर कोर्ट ने रोक लगा दी।
--दैनिक जागरण-28 जुलाई 2019
   

रविवार, 28 जुलाई 2019

धारा-370 पर डा.आम्बेडकर बनाम नेहरू-शेख अब्दुल्ला
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समाज में लोगों के बीच यह धारणा बनाई गई  है
 कि डा.आम्बेडकर ने ही संविधान की धारा 370 का मसौदा तैयार किया था।
मगर यह सच नहीं है।
डा.आम्बेडकर ने खुद अपने संस्मरण में इसका खंडन किया है।
उन्होंने लिखा है कि जब सन 1949 में संविधान की धाराओं का ड्राफ्ट तैयार हो रहा था ,तब शेख अब्दुला मेरे पास आए।
बोले कि नेहरू ने मुझे आपके पास यह कह कर भेजा है कि आप आम्बेडकर से कश्मीर के बारे में अपनी इच्छा के अनुसार ड्राफ्ट बनवा लीजिए जिसे संविधान में जोड़ा जा सके।
 डा.आम्बेडकर ने साफ शब्दों में लिखा है कि ‘मैंने शेख अब्दुल्ला की बातें ध्यान से सुनीं।उनसे कहा कि एक तरफ तो आप चाहते हो कि भारत कश्मीर की रक्षा करे।
कश्मीरियों को खिलाए-पिलाए।
उनके विकास के लिए प्रयास करे।
कश्मीरियों को भारत के सभी प्रांतों में सुविधाएं और अधिकार दिए जाएं।
किंतु भारत के अन्य प्रांतों के लोगों को कश्मीर में वैसी ही सुविधाओं और अधिकारों से वंचित रखा जाए।
आपकी बातों से ऐसा प्रतीत होता है कि आप भारत के अन्य प्रांत के लोगों को कश्मीर में समान अधिकार देने के खिलाफ हैं।’
यह कह कर आम्बेडकर ने शेख से कहा कि ‘मैं कानून मंत्री हूं।
मैं अपने देश के साथ गद्दारी नहीं कर सकता।
   ....................................जब आम्बेडकर ने शेख अब्दुल्ला से संविधान में उसके अनुसार ड्राफ्ट जोड़ने से यह कह कर साफ मना कर दिया कि मैं देश के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता,तब नेहरू ने गोपालस्वामी अयंगार को बुलवाया।
वे संविधान सभा के सदस्य थे और कश्मीर के राजा हरि सिंह के दीवान रह चुके थे।
प्रधान मंत्री के तौर पर नेहरू ने अयंगार को आदेश दिया कि शेख साहब जो भी चाहते हैं,संविधान की धारा 370 में वैसा ही ड्राफ्ट बना दिया जाए।
  --- 27 जुलाई 2019 के राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित 
कुमार समीर के लेख का अंश। 
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दरअसल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को ठीक से पहचाना नहीं था।
इसीलिए 1953 में शेख को गिरफ्तार करना पड़ा था।
  

   अश्लील  फिल्में और भारतीय संस्कृति !
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  भारतीय संस्कृति की  ध्वजवाहक भाजपा के राज में भी गंदी फिल्में बनाने का धंधा जारी है।
यह शर्म की बात है।
भोजपुरी फिल्मों ने तो अश्लीलता के मामले में सारी हदें पार कर दी हंै।अपवादस्वरूप ही अब अच्छी फिल्में बन रही हैं।
इस बीच आदिल हुसेन ने कहा है कि 
‘साठ के दशक में अच्छी फिल्में बना करती थीं।
फिल्मकारों की जिम्मेदारी है कि वे अच्छी फिल्में दें।’
  आर्ट सिनेमा,बाॅलीवुड मेनस्ट्रीम सिनेमा और अंतरराष्ट्रीय सिनेमा में अपनी पहचान बनाने वाले आदिल ने कहा है कि ‘फिल्मकार यह बहाना न बनाएं कि हम दर्शकों की पसंद की फिल्में बना रहे हैं।’
आदिल का तो आरोप है कि दर्शकों का मूड हम फिल्म मेकर्स ने ही बदला है।
  इधर मेरा मानना है कि फिल्मकार सेंसर के नियमों का पालन भर करें।सेंसर बोर्ड में ईमानदार व निडर लोग ही रखें जाएं। 
 बहुत पहले मैंने उन नियमों को पढ़ा था।
उन नियमों और आज की अधिकतर फिल्मों में कोई तालमेल ही नहीं है।
नियमानुसार तो ‘नदिया के पार’ और ‘बागवान’ जैसी फिल्में ही बन सकती हैं।
  सरकार ने तब से संेसर नियमों को नहीं बदला है।
 क्या यह उम्मीद की जाए कि कम से कम भाजपा की सरकार 
अश्लीलता के इस प्रदूषण को रोकने की कोशिश करेगी ?
यह प्रदूषण पीढि़यों को बर्बाद कर रहा है।



   अश्लील  फिल्में और भारतीय संस्कृति !
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  भारतीय संस्कृति की  ध्वजवाहक भाजपा के राज में भी गंदी फिल्में बनाने का धंधा जारी है।
यह शर्म की बात है।
भोजपुरी फिल्मों ने तो अश्लीलता के मामले में सारी हदें पार कर दी हंै।अपवादस्वरूप ही अब अच्छी फिल्में बन रही हैं।
इस बीच आदिल हुसेन ने कहा है कि 
‘साठ के दशक में अच्छी फिल्में बना करती थीं।
फिल्मकारों की जिम्मेदारी है कि वे अच्छी फिल्में दें।’
  आर्ट सिनेमा,बाॅलीवुड मेनस्ट्रीम सिनेमा और अंतरराष्ट्रीय सिनेमा में अपनी पहचान बनाने वाले आदिल ने कहा है कि ‘फिल्मकार यह बहाना न बनाएं कि हम दर्शकों की पसंद की फिल्में बना रहे हैं।’
आदिल का तो आरोप है कि दर्शकों का मूड हम फिल्म मेकर्स ने ही बदला है।
  इधर मेरा मानना है कि फिल्मकार सेंसर के नियमों का पालन भर करें।सेंसर बोर्ड में ईमानदार व निडर लोग ही रखें जाएं। 
 बहुत पहले मैंने उन नियमों को पढ़ा था।
उन नियमों और आज की अधिकतर फिल्मों में कोई तालमेल ही नहीं है।
नियमानुसार तो ‘नदिया के पार’ और ‘बागवान’ जैसी फिल्में ही बन सकती हैं।
  सरकार ने तब से संेसर नियमों को नहीं बदला है।
 क्या यह उम्मीद की जाए कि कम से कम भाजपा की सरकार 
अश्लीलता के इस प्रदूषण को रोकने की कोशिश करेगी ?
यह प्रदूषण पीढि़यों को बर्बाद कर रहा है।



शनिवार, 27 जुलाई 2019

दिल्ली के आवासीय इलाकों में स्थित व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को ‘सील’ करने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने बहुत पहले दिया था।
पर, संभवतः सीलिंग का वह काम आज तक नहीं हो सका।
  यदि यह खबर गलत हो तो कोई मित्र मुझे वास्तविकता बता दें।
 पर, पटना नगर निगम ने पटना के आवासीय इलाकों के व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को बंद कराने के लिए नोटिस दे दिए हैं।
 नियम-कानून जब दिल्ली में लागू नहीं हो पा रहा है तो वही काम पटना में कैसे लागू होगा,यह देखना दिलचस्प होगा।
  यदि यह काम हो जाए तो उससे लगेगा कि देश में कानून का राज है।
पर, यह असंभव काम है।क्योंकि निहितस्वार्थी तत्व इस देश में किसी भी सरकार या अदालत से अधिक ‘ताकत’ रखते हैं।
जिस राज्य में कोई जिलाधिकारी जब अपने अधीनस्थ कर्मचारियों तक को कार्य अवधि में अपने आॅफिस में उपस्थित होने के लिए बाध्य तक नहीं कर सकता,उस राज्य में बड़े- बड़े लोगों के व्यावसायिक संस्थानों को शासन कैसे हटवा सकता है ? 
  उन नियम भंजकों  के लिए तो अब इस देश में एक कल्याणकारी तानाशाह की जरूरत महसूस की जा रही है।
  खैर मैंने हाल में भी पटना की मुख्य सड़कों पर पार्किंग की जगह छोड़े बिना बड़े -बड़े व्यावसायिक भवनों का निर्माण होते देखा है।
  किनकी साठगांठ से वे आलीशान भवन बेधड़क बन रहे हैं,उसकी खोज- खबर लिए बिना संबंधित हुक्मरान अलग से मधुमक्खी के छत्ते  में हाथ डाल रहे हैं।
  वह उनके वश की बात नहीं।
जो शासन  पटना हाईकोर्ट के कड़े निदेशों के बावजूद  पटना की  मुख्य सड़कों पर बीचोंबीच पैसे लेकर दुकानें सजवाने से थानेदारों तक को नहीं रोक सकता है,वह आवासीय इलाकों से प्रभावशाली लोगों के व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को भला क्या खाकर हटाएगा ?
इस पहल को कुछ लोग बस मजाक और कुछ दूसरे लोग कुछ और ही समझ रहे हैं ! 
--27 जुलाई 2019  

--आतंक निरोधक बिल का विरोध प्रतिपक्ष के लिए प्रति-उत्पादक-

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लोक सभा में प्रतिपक्ष ने ‘विधि विरुद्ध क्रिया कलाप निवारण संशोधन विधेयक, 2019’ का भी विरोध कर दिया।
  इस देश में देसी-विदेशी आतंकियों की बढ़ती गतिविधियों के बीच लोक सभा ने कल उस बिल को पास कर दिया।
 पर, इस विधेयक का विरोध प्रतिपक्ष के लिए प्रति -उत्पादक साबित हो सकता है।
  प्रतिपक्ष लगातार सत्ताधारी राजग से पराजित होता जा रहा है।हार के कारण भी स्पष्ट हैं।
ए.के.एंटोनी की रपट उसकी गवाही दे रही है।
फिर भी लगता है कि प्रतिपक्ष ने उससे कोई शिक्षा ग्रहण नहीं की है।वह अपनी पुरानी लाइन पर ही है।प्रतिपक्ष की असली चिंता अपने ‘वोट बैंक’ को लेकर है।
 2014 के लोक सभा चुनाव के तत्काल बाद कांग्रेस की हार के कारणों की जांच हुई थी।जांचकत्र्ता ए.के.एंटोनी ने जो रपट हाईकमान को दी थी,उससे भी कुछ सीखने को कांग्रेस अब भी तैयार नहीं है। 
 दरअसल देश की सुरक्षा से संबंधित किसी भी सरकारी उपाय के विरोध से अधिकतर जनता यह अर्थ लगाती है कि विरोध करने वाले जाने-अनजाने अतिवादियों को मदद पहुंचाना चाहते हैं।
भाजपा की चुनावी जीत का यह बहुत बड़ा कारण बनता रहा  है।
 यदि आतंकी विरोधी विधेयक में कोई कमी है,तो उसकी समीक्षा करने का भार अदालत को बाद में सौंप दिया जाना चाहिए।
 जब सरकार दावा कर रही है कि नए कानून में जांच एजेंसियों को आतंकियों से चार कदम आगे रखने का प्रयास है तो ऐसे मामले में व्यापक देशहित में सरकार का साथ दिया जाना चाहिए।
यदि साथ नहीं तो चुप तो रह ही सकते थे।
 पर,यदि प्रतिपक्ष पुलवामा और बालाकोट की घटना से कोई सबक सीखने को तैयार नहीं है तो उसे उसका राजनीतिक परिणाम एक बार और भुगतने के लिए तैयार रहना होगा।
 पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान खान ने हाल में यह स्वीकारा है कि पुलवामा का संगठन जैश ए मोहम्मद पाक में मौजूद है।
दूसरी ओर पुलवामा हमले के तत्काल बाद भारत के अधिकतर प्रतिपक्षी दलों ने क्या कहा था ?
यह भी याद कर लीजिए कि प्रतिपक्ष ने बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक पर क्या-क्या कहा था।
उसका चुनावी खामियाजा भी प्रतिपक्ष गत लोकसभा चुनाव में भुगत चुका है।फिर भी वही रवैया !
  अरे भई ,प्रतिपक्ष वालो ,कुछ ऐसा कीजिए जिससे देश में आपका पक्ष भी मजबूत हो।लोकतंत्र की मजबूती व जीवंतता के लिए प्रतिपक्ष की मजबूती भी जरूरी है।    
--जमीन का आॅनलाइन विवरण--
बिहार में रैयती जमीन का ब्योरा आॅनलाइन हो रहा है।
कहीं -कहीं यह काम पूरा भी हो चुका है।
पर, आॅनलाइन करने के क्रम में भारी गड़बडि़यों की भी खबरें आ रही हैं।
 पिछले दिनों पटना जिले के फुलवारी शरीफ अंचल में इस 
गड़बड़ी के खिलाफ जन प्रदर्शन भी हुआ था।
राज्य के सुदूर अंचलों से भी ऐसी ही गड़बडियों  की खबरें मिल रही हैं।
  उदाहरणार्थ,दशकों से जो भूस्वामी 10 बीघे जमीन का मालिक रहा है,पहले उसकी उतने ही की रसीद भी कटती थी।वह अब कागज पर सिर्फ सात बीघे का ही मालिक है।ऐसे में राज्य सरकार को राजस्व भी कम ही मिल रहा है।हालांकि दस बीघे वह अब भी जोत रहा है। 
  ऐसा भी उदाहरण मिला है कि जो 20 बीघे का मालिक रहा है,उसकी रसीद अब सिर्फ दो बीघे की ही कट पा रही है।
  इस गलती को जल्द सुधारने की जरुरत है।
इस गलती को सुधरवाने के क्रम में भी भूस्वामियों का सरकारी कर्मियों द्वारा भारी आर्थिक शोषण भी संभव है।
 इस मामले में राज्य सरकार सुधारात्मक उपाय शीघ्र करे। साथ ही,शासन भूस्वामी से शपथ पत्र के साथ उस जमीन का विवरण मांग सकता है जिस जमीन की रसीद उसे पहले दशकों तक मिलती रही थी।
भूस्वामी अपने सारे प्लाॅटों का विवरण शपथ पत्र में दे सकता है,ऐसी व्यवस्था की जा सकती है।याद रहे कि गलत शपथ पत्र देने पर छह माह तक की सजा का प्रावधान है।इसलिए कोई गलत शपथ पत्र क्यों देगा ? 
--अपराध के पीछे दिमागी गड़बड़ी--
1990 में अमेरिका में 25 सजायाफ्ता अपराधियों के दिमाग का इमेजिन तकनीकी से अध्ययन किया गया था।
अधिकतर अपराधियों के दिमाग के अगले हिस्से में विकार पाया गया।
अपराधियों के दिमाग के उस हिस्से की कुछ गतिविधियां एक जैसी पाई गई।
   इस शोध नतीजे का लाभ भारत भी उठा सकता है।
हत्या के मामलों में विचाराधीन कैदियों के दिमाग का अध्ययन किया जा सकता है।
इमेजिन तकनीकी से अध्ययन के नतीजों की मान्यता अदालतों से भी मिले,इसके लिए कानून बनाया जा सकता है।
यदि ऐसे दिमागी दोष वाले आरोपितों के लिए अलग से कुछ सुधारात्मक या दंडात्मक उपाय हों, तो जघन्य अपराध की घटनाओं में कमी आ सकती है।
--नेहरू ने भेजी थी शिव की प्रतिमा-- 
प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने एलिजाबेथ-प्रिंस फिलिप की शादी के अवसर पर उपहार स्वरूप भगवान शिव की चांदी की मूत्र्ति भेजी थी।
इसके साथ ही प्रधान मंत्री की ओर से भेजे गए उपहारों में  ‘डिस्कवरी आॅफ इंडिया’ और नेकलेस भी शामिल थे।
  उधर महात्मा गांधी ने अपने हाथ से काती गई सूत से बुना  
टेबल क्लाॅथ भिजवाया था।
गांधी ने कहा था कि मेरे पास इसके अलावा देने के लिए कुछ नहीं है।माउंटबेटन की सलाह पर महात्मा गांधी ने यह उपहार भेजा था।
पता नहीं कि सेक्युलर जवाहर ने किसकी सलाह पर शिव की मूत्र्ति भेजी थी ?क्या आज का कोई प्रधान मंत्री ऐसी हिम्मत कर सकेगा ?आज के अल्ट्रा सेक्युलरिस्ट उन्हें ‘जीने’ देंगे ?
याद रहे कि वह शादी 20 नवंबर, 1947 को हुई थी।
-- और अंत में-- 
बिहार सरकार ने गुम हुए तालाबों की तलाश शुरू कर दी है।
कई मिल रहे हैं।कई अब भी लापता हैं।
लक्ष्य है कि जितने तालाब मिलेंगे,उनकी सरकार सफाई कराएगी।
यह अच्छी बात है।
पर,इस संबंध में एक सुझाव है।
जिन तालाबों की उड़ाही हो जाएं,उसके पास एक मजबूत बोर्ड लगाया जाना चाहिए।
उस पर यह खुदा होना चाहिए कि इसकी सफाई किस अफसर की देखरेख मेंं किस एजेंसी ने करवाई।उस पर कितने पैसे लगे।
@26 जुलाई 2019 को प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@
  

बिहार की बाढ़ का हल नेपाल में
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बिहार में बाढ़ की मूल समस्या पर डा.गौरीशंकर राजहंस 
ने 22 जुलाई 2019 के दैनिक आज में एक लेख लिखा है।
उस लेख की कुछ पंक्तियां यहां प्रस्तुत हैं--
‘पिछले अनेक वर्षों से यह प्रयास हुआ कि नेपाल से निकलने वाली नदियों पर उनके उद्गम स्थान पर ही बांध बनाए जाएं।
पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय ऐसा लगता था कि नेपाल और भारत के बीच कोई संधि हो जाएगी।
जिससे नदियों के उद्गम स्थल पर बांध बनाए जाएंगे।
 परंतु चीन के बहकावे पर नेपाल पीछे हट गया।
नेपाल ने कहा कि इस तरह का जो बांध बनेगा, उसका खर्च भारत डाॅलर में दे।
भारत ने कहा कि उसके पास इतना डाॅलर नहीं है।
भूटान में भी भारत ने जो बांध बनाया था जिससे बिजली पैदा हुई, उसका खर्च भी दोनों देशों ने रुपए में ही बांटा था।
भूटान में जब बिजली पैदा हुई तो उससे न केवल भूटान की जनता को फायदा हुआ,बल्कि भारत के कई राज्यों की जनता भी लाभान्वित हुई।
इधर नेपाल से समझौता नहीं होने के करण दोनों देशों के लोग प्रलयंकारी बाढ़ से तबाह हो रहे हैं।
भारत सरकार को बांध बनाने के लिए  फिर से प्रयास करना चाहिए।

फंे्रड इन नीड, इज ए फें्रड इनडीड
यानी, मित्र वही जो समय पर काम आए
......................................................................
इजराइल ने हमारे फाइटर जेट्स के लिए लेजर गाइडेड मिसाइलें प्रदान कीं।
इजराइल ने कारगिल की उंचाइयों पर पाक की स्थिति के बारे में अपनी जानकारी भारत से साझा की थी।
  अमेरिका समेत कई देशों ने  भारत को हथियारों की डिलीवरी में देरी करने के लिए इजराइल पर दबाव डाला था।लेकिन इजराइल ने दबाव को खारिज कर त्वरित मदद की।
    --राष्ट्रीय सहारा में अंशुल सक्सेना की टिप्पणी
---------------------
अब समझ में आया कि देश के भीतर व बाहर के भारत विरोधी लोग क्यों इजराइल का लगातार विरोध करते रहे हैं ?
यह भी याद रहे कि 1992 में ही भारत ने इजराइल को मान्यता दी थी।
उससे पहले नहीं।
किसके प्रभाव में आकर भारत सरकार ने उससे पहले मान्यता नहीं दी थी ?

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इसके विपरीत स्थिति क्या रही थी ?
आजादी के बाद भारत ने चीन को भाई और सोवियत संघ को मित्र माना।
पर, जब चीन ने 1962 में भारत पर हमला किया तो सोवियत संघ ने भारत की मदद क्यों नहीं की ?
क्यों तब चीन से इस देश को बचाने के लिए नेहरू को अमेरिका की चिरौरी करनी पड़ी ?
एक लेखक ने तो प्रावदा को उधृत करते हुए यह भी लिखा है कि चीन ने भारत पर चढ़ाई करने से पहले सोवियत संघ से सहमति ले ली थी।
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कोई भी अन्य देश, देशों के बीच से दोस्तों का चुनाव करते समय अपने राष्ट्रीय हितों का ही अधिक ध्यान रखता रहा है।
पर अपना देश......? ! ! ! 


गुरुवार, 25 जुलाई 2019

 अब एक साथ चुनाव की जरूरत 
        सुरेंद्र किशोर  
कर्नाटका तख्ता पलट प्रकरण ने भी देश में लोक सभा और विधान सभाओं के एक साथ चुनाव कराने की जरुरत रेखांकित कर दी है।
 कांग्रेस नीत गठबंधन के 16 विधायकों के सदन की सदस्यता से इस्तीफे के बाद ही कुमार स्वामी सरकार का
 जाना तय हो गया था।विश्वास प्रस्ताव पर ऐतिहासिक रूप से लंबी चर्चा के बावजूद उन  विधायकों की घर वापसी नहीं कराई जा सकी।
 याद रहे कि दो निर्दलीय विधायकों ने भी सरकार से समर्थन वापस ले लिया था।
  इस थोक दल बदल का एक कारण पैसा व पद भी हो ही सकता है।पर, मूल कारण कुछ और  है।
  पक्ष परिवत्र्तन करने वाले विधायकों की मुख्य चिंता यह रही कि वे अगला चुनाव कैसे जीतेंगे।क्योंकि कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन के जनाधार
के वापस लौटने के फिलहाल संकेत नहीं हैं। 
ऐसी ही  चिंता गोवा  में भी देखी गई जहां 15 में से 10 कांग्रेस विधायकों ने पार्टी छोड़ दी। कांग्रेस में वे अपना कोई राजनीतिक भविष्य नहीं देख रहे थे।
 इसी साल जिस कर्नाटका राज्य की लोक सभा की 28 में से 25 सीटें भाजपा को मिल चुकी हो,उस राज्य में कांगे्रसनीत गठबंधन के विधायकों का चुनावी भविष्य कैसा रहेगा,इस पर बहुत अनुमान लगाने की जरूरत नहीं है।
   एक तरफ तो कांग्रेस और उसके सहयोगी दलांे की हालत ठीक नहीं है,दूसरी ओर निकट भविष्य में भाजपा व राजग के समक्ष किसी तरह की राजनीतिक चुनौती खड़ी करने की स्थिति में प्रतिपक्ष नजर नहीं आता ।  
  ऐसे में वैसे विधायक क्या करेंगे, जिनका सबसे बड़ा लक्ष्य  विधायक बनना होता है।
   कल्पना कीजिए कि यदि 2019 के  लोक सभा चुनाव के साथ-साथ कर्नाटका विधान सभा के भी चुनाव संपन्न हो गए होते तो राज्य सरकार के गिरने की नौबत नहीं आती।
क्योंकि अधिकतर मतदाताओं का मूड राजग के पक्ष में रहा।
 हालांकि ताजा राजनीतिक तख्ता पलट से भाजपा को भी बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है।
  ऐसे विधायकों के बल पर जब आप सरकार बनाएंगे जिनकी लाॅयल्टी किसी पार्टी के प्रति नहीं बल्कि अपने राजनीतिक कैरियर के प्रति हो,उनके साथ आप कितने दिनों तक सरकार चला पाएंगे ?
ऐसे मामलों में इस देश में अच्छा अनुभव नहीं रहा है।
संभव है कि किसी कारणवश अगली भाजपा सरकार की आयु भी छोटी हो जाए और कर्नाटक में फिर से विधान सभा चुनाव कराना पड़ जाए ।
अधिक चुनाव यानी अधिक खर्च और सरकारी कामकाज में अधिक व्यवधान ।
 फिर क्यों नहीं ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की ओर देश लौट जाए ?
राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने भी इस साल के अपने अभिभाषण में कहा कि ‘यह समय की मांग  है कि एक राष्ट्र एक चुनाव की व्यवस्था लाई जाए जिससे देश का तेजी से विकास हो और देश लाभान्वित हो।’
याद रहे कि बार -बार चुनाव के कारण चुनाव आचार संहिता लागू करनी पड़ती है जिससे कुछ समय के लिए विकास रुकता है।
चुनाव पर अधिक खर्च होते हैं और सरकारी सेवक चुनाव कार्य में व्यस्त हो जाते हैं।उससे भी जनता के काम बाधित होते हैं।
पर आश्चर्य है कि कांग्रेस ने भी एक राष्ट्र,एक चुनाव का विरोध कर दिया है।
जबकि जब एक साथ चुनाव हो रहे थे,तो उन दिनों के 
कांग्रेस के ही नामी गिरामी नेता सत्ता के शीर्ष पर  थे। 
1952 से 1967 तक लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव साथ-साथ ही होते थे।
 पर 1971 के लोक सभा के मध्यावधि चुनाव के साथ पुरानी व्यवस्था समाप्त हो गई।
  1971 के बाद कम से कम दो बार ऐसे अवसर आए जब लोक सभा के चुनावों के तुरंत बाद राज्यों के भी चुनाव करवा दिए गए।
यह तर्क दिया गया कि राज्य सरकारों ने जनादेश खो दिया है।
  आपातकाल की पृष्ठभूमि में 1977 में लोक सभा का चुनाव हुआ।
जनता पार्टी ने लोकसभा में बहुमत हासिल कर लिया।
उस चुनाव में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी तक भी चुनाव हार गए थे।
जनता पार्टी ने तर्क दिया कि चूंकि कांग्रेस ने जनता का विश्वास खो दिया है,इसलिए उन राज्य विधान सभाओं के भी चुनाव होने चाहिए जहां कांग्रेस की सरकारें हैं।
 इंदिरा गांधी ने जब लोक सभा चुनाव की घोषणा की ,उसके तत्काल बाद जय प्रकाश नारायण ने कह दिया था कि यदि जनता पार्टी को केंद्र में बहुमत मिल गया तो हम विधान सभाओं के भी चुनाव करा देंगे।
 आपातकाल से पहले  जेपी आंदोलन की मुख्य मांग भी थी कि बिहार विधान सभा को भंग करके नए चुनाव कराएं जाएं।
  जब 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की  सरकार बन गई तो उसने जेपी के वायदे को लागू करने की प्रक्रिया शुरू कर दी।मोरारजी सरकार ने नौ कांग्रेस
शासित राज्यों की विधान सभाओं को भंग करने की राष्ट्रपति से सिफारिश की।
 उन दिनों उप राष्ट्रपति बी.डी.जत्ती कार्यवाहक राष्ट्रपति थे।उन्होंने मोरारजी सरकार की सिफारिश को लागू करने में विलंब कर दिया।वे इस तर्क से सहमत नहीं थे कि 
लोक सभा के चुनाव नतीजे के अनुकूल ही मतदातागण विधान सभाओं के लिए भी मतदान करेंगे।
  उन दिनों राजनीतिक हलकों में यह अपुष्ट चर्चा थी कि यदि विधान सभाओं को भंग करने की अधिसूचना राष्ट्रपति जारी नहीं करेंगे तो मोरारजी देसाई सरकार इस्तीफा दे देगी। 
इसी मुद्दे पर दुबारा चुनाव होगा।
  इसके बाद जत्ती साहब ने अधिसूचना जारी करने का आदेश जारी कर दिया।नौ राज्यों में चुनाव हुए।
वहां भी जनता पार्टी की जीत हुई।
 यानी मान्यवर जत्ती साहब जिस आधार पर अधिसूचना जारी करने में आगा पीछा कर रहे थे ,वह आधार सही नहीं था।
  ऐसा ही अवसर 1980 में आया था।चरण सिंह की सरकार के गिरने के बाद जनवरी, 1980 में लोक सभा के चुनाव हुए।
इंदिरा गांधी फिर सत्ता में आ गईं।
एक बार फिर यह सवाल उठा कि जिन राज्यों में जनता पार्टी की सरकारें हैं,उनके साथ केंद्र की कांगे्रसी सरकार कैसा सलूक करे ?
 इतिहास दुहराया गया।
एक बार फिर नौ राज्यों की सरकारें बर्खास्त कर दी गईं।
वहां विधान सभाओं के चुनाव हुए।वहां भी केंद्र की तरह ही कांगे्रेस की ही सरकारें बनीं।
 यानी जो जनादेश केंद्र के लिए था,वैसा ही जनादेश राज्यों के लिए भी रहा।
फिर अलग -अलग चुनावों का औचित्य ही क्या हैं ?
क्यों बार -बार चुनाव हो और अधिक खर्च किए जाए।
यदि 1977 में लोक सभा और विधान सभाओं के लिए एक साथ चुनाव हो गए होते तो कुछ ही महीने बाद अलग से चुनाव कराने की जरूरत ही क्यों पड़ती ?
यही काम 1980 में हो सकता था।
 इस तरह 1971 की गलती को सुधारा जा सकता था।
1971 में लोक सभा का मध्यावधि चुनाव करा कर एक राष्ट्र दो चुनाव की परंपरा कायम कर दी गई जो आज तक जारी है।  
  उसे एक बार फिर पटरी पर लाने के लिए मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार प्रयत्नशील है।
पता नहीं, इस काम में उसे सफलता मिलेगी या नहीं।
  एक साथ चुनाव कराने पर अतिरिक्त स्थायी चुनावी उपकरणों की खरीद पर कुछ अधिक खर्च जरूर आएगा।पर वे उपकरण दशकों तक काम आएंगे।पर राजनीतिक दलों के खर्च कम हो जाएंगे।
  एक आकलन के अनुसार इस साल के लोक सभा चुनाव में राजनीतिक दलों ने करीब 60 हजार करोड़ रुपए खर्च किए।
अलग से विधान सभा चुनाव पर इतने ही खर्च करने पड़ेंगे।
यानी, एक साथ चुनाव पर दलों का खर्च आधा हो जाएगा।
  राजनीतिक दलों का खर्च यानी घुमा-फिरा कर जनता के पैसों का ही इस्तेमाल।
  जहां तक क्षेत्रीय जन भावनाओं के प्रतिबिंबित होने का सवाल है,वह तो 1967 में भी प्रतिबिंवित हुए ही थे।
 1967 के लोक सभा चुनाव के बाद केंद्र में तो कांग्रेस की सरकार बन गई,पर सात राज्यों में गैर कांग्रेस सरकारें बनीं।
 एक साथ हुए उस आखिरी चुनाव के बाद अन्य दो राज्यों में दलबदल के कारण कांग्रेसी सरकारें गिर गईं और वहां भी गैर कांग्रेसी सरकारें बन गईं थीं।
 इसलिए यह कहना सही नहीं है कि अलग -अलग चुनाव होने से क्षेत्रीय आकांक्षाएं दब जाएंगी।
-- 25 जुलाई 2019 के प्रभात खबर में प्रकाशित-- 
   




  

बुधवार, 24 जुलाई 2019

सच बोलने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि 
आपको याद नहीं रखना पड़ता कि आपने किससे,
कब, कहां, क्या कहा था ।
                       -- राबर्ट बेन्सन
नोट--लेकिन जन्मजात झूठों पर बेन्सन की यह बात लागू 
नहीं होती।
जन्मजात झूठे हर पेशे में पाए जाते हैं।
पर, एक खास पेशे में सर्वाधिक पाए जाते हैं। 
उनकी बातें आए दिन मीडिया में आती रहती हैं।

मंगलवार, 23 जुलाई 2019

नेहरू युग के एक बहुत बड़े व नामी-गिरामी वामपंथी इतिहासकार ने समकालीन
इतिहासकारों से कहा था कि आप महाराणा प्रताप और शिवाजी के पराक्रम और साहस के बारे में कुछ न लिखें क्योंकि उससे संप्रदायवाद के फैलने का खतरा है।
  जानकार लोग बताते हैं कि वामपंथी इतिहासकारों ने
वैसा ही किया।
बल्कि उन लोगों ने  दूसरे सत्ताधारियों का महिमामंडन किया जिन्हें आम भारतीय कम ही पसंद  करते हैं।
   कुछ अन्य जानकार लोग बताते हैं कि यह संयोग नहीं था कि जवाहरलाल नेहरू के प्रथम मंत्रिमंडल में राजपूत या मराठा जाति का एक भी  कैबिनेट मंत्री नहीं था।
  जबकि दूसरी ओर राणा प्रताप की सेना के सेनापति का नाम हकीम खान सूरी था।
शिवाजी की सेना व सरकार में बड़ी संख्या में मुस्लिम बड़े पदों पर थे। 
  एक राजनीतिक विश्लेषणकत्र्ता के अनुसार भाजपा व नरेंद्र मोदी के उदय के कारणों में यह सब कारण भी शामिल रहे । 

  

पाक अधिकृत कश्मीर में चल रहे 20 आतंकी 
प्रशिक्षण शिविरों को पाक ने इस साल बंद 
कर दिया।
 जब तरह -तरह की आर्थिक मार पड़ी तो वे जेहाद भूल गए।
इमरान खान का इस बार अमेरिका में जैसा ‘स्वागत’ हुआ,उसके बाद शायद कुछ और फर्क पड़े !
  अरे भई, इसी दुनिया को स्वर्ग बनाने की कोशिश के बदले किस स्वर्ग की उम्मीद में इस दुनिया को नर्क बनाने पर तुले हो ?

रविवार, 21 जुलाई 2019

राजनेताओं में संत काॅमरेड ए.के.राय के निधन पर
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1977 में जब लोस चुनाव की घोषणा हुई,उस समय ए.के.राय हजारीबाग जेल में थे।
जेपी आंदोलन की पृष्ठभूमि में इमरजेंसी का दौर जारी था।
 वे  बिहार विधान सभा की सदस्यता से इस्तीफा दे चुके थे।
जेपी ने प्रतिपक्षी विधायकों से ऐसा करने को कहा था। 
जनता पार्टी ने धनबाद छोड़कर बाकी सारी सीटों पर चुनाव लड़ा।पर धनबाद ए.के.राय के लिए छोड़ दिया था।
राय साहब पहले सी.पी.एम.थे।
पर बाद में माकपा से निकले कुछ अन्य प्रमुख नेताओं के साथ राय साहब ने माक्र्सवादी समन्वय समिति बनाई थी।
 जार्ज फर्नांडिस के बाद राय साहब दूसरे नेता थे जो बिहार से जब लोक सभा के लिए चुने गए तब वे जेल में ही थे।
इनके लिए दलीय नेताओं,कार्यकत्र्ताओं तथा आम लोगों ने चुनाव प्रचार किया।
इमरजेंसी की पृष्ठभूमि में हुए चुनाव में माहौल ही कुछ ऐसा था।
  जनता पार्टी ने उन्हें टिकट आॅफर किया था,पर उन्हें किसी अन्य दल का टिकट  स्वीकार नहीं था।फिर जय प्रकाश नारायण के हस्तक्षेप से वे जनता पार्टी के समर्थित उम्मीदवार बने।
 राय साहब तीन बार विधायक और तीन बार सांसद रहे।
 पर न तो उन्होंने अपना परिवार खड़ा किया और न ही कोई संपत्ति बनाई।
खुद इंजीनियर थे।पर मजदूरों के कल्याण -अधिकार के लिए संघर्ष में अपना पूरा जीवन होम कर दिया।
 अंतिम दिनों में वे एक साथी के साथ धनबाद में रह रहे थे।
उन्होंने कलकत्ता इंजीनियरिंग काॅलेज में पढ़ाई की थी।उन्होंने धनबाद जिले के सिंदरी के पीडीआईएल में नौकरी शुरू की थी।पर ठेका मजदूरों के हक के लिए संघर्ष करने के लिए नौकरी छोड़ दी थी।
  मुझसे कोई पूछे कि इस गरीब देश का नेता कैसा होना चाहिए,तो मैं कुछ अन्य थोड़े से नेताओं के नाम के साथ ए.के. राय का भी नाम लूंगा।
1972 में जब वे बिहार विधान सभा के सदस्य थे तो मैं उनके पटना स्थित सरकारी निवास यानी एम.एल.ए.फ्लैट जाकर उनके साथ कभी -कभी भूंजा खाता था और बातें करता था।
पूरी तरह वे ‘डि-क्लास’ थे । बातचीत और पहनावे से  कहीं से भी यह नहीं लगता था कि वे इंजीनियर रह चुके हैं।
 ईमानदारी ,कर्मठता और हिम्मत के कारण जीवन काल में भी उनका लोगों में ऐसा सम्मान था,वैसा कम ही नेताओं को नसीब होता है। 

  विवादास्पदों के निष्कासन में दोहरा मापदंड !
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भाजपा ने हथियार लहराने के आरोप में उत्तराखंड के अपने विधायक कुंवर प्रणव चैंपियन को छह साल के लिए पार्टी से निकाल दिया।
 बहुत अच्छा किया।ऐसे लोगों को सार्वजनिक जीवन में रहने का कोई हक नहीं।
  पर, विधायक आकाश विजयवर्गीय और सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर का क्या हुआ ?
उन्हें भी तो भाजपा ने कारण बताओ नोटिस दे रखे हैं।
क्या यह भाजपा का दोहरा मापदंड नहीं है ?
दरअसल बात इतनी ही नहीं है।
कार्रवाई भी तभी होती है जब स्टिंग में पकड़े जाते हैं।
  2006 में संसद ने 10 लोक सभा सदस्यों और एक राज्य सभा सदस्य की सदन की सदस्यता समाप्त कर दी थी।
10 पर प्रश्न पूछने के लिए पैसे लेने का आरोप था।राज्य सभा  के सपा सदस्य पर सांसद फंड में कमीशन लेने का आरोप था।ये सभी 11 सांसद  टी.वी.के स्टिंग आपरेशन में पकड़ में आ गए थे।
पूरी दुनिया ने उन्हें देखा था। राजनीतिक दलों को लाज लगी और उन्हें निकाल दिया गया।
निष्कासित सांसदों में अधिकतर भाजपा के थे।बाकी कांग्रेस,राजद, बसपा और सपा के थे।
सपा के निष्कासित राज्य सभा सांसद को तो बाद में भाजपा ने अपनी पार्टी में शामिल कर लिया था।
यानी, जो स्टिंग में पकड़ा जाएगा,सिर्फ वही निकाला जाएगा ?
अन्य जन प्रतिनिधियों में से कौन क्या कर रहा है,वह बात किसी से छिपी रहती है ?
ऐसे लोगों की खुफिया जांच करवा कर खुद राजनीतिक दल कार्रवाई क्यों नहीं करते ?
 शायद मैं दलों से कुछ अधिक की उम्मीद कर रहा हूं !



शनिवार, 20 जुलाई 2019

सदानंद धूमे के अनुसार
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  1969 में इंदिरा गांधी द्वारा राष्ट्रीयकरण किए जाने से पहले 14 निजी बैंकों का लाभ था--5 दशमलव 70 करोड़ रुपए।
 2019 में उन्हीं बैंकों को हानि हुई - 497 अरब रुपए।
बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक घातक कदम था,ऐसा मानने वाले भारतीय नेताओं की संख्या शून्य है।

विभिन्न जांच एजेंसियों के मामलों में सजा दर में भारी अंतर क्यों ?



एन.आई.ए.,सी.बी.आई. और राज्य पुलिस के मामलों में अदालती सजा दर में भारी अंतर रहता है।आखिर ऐसा क्यों है ?
क्या इस अंतर को कम नहीं किया जा सकता ?
यदि कम किया जा सकता है तो किस हद तक ?
 ताजा जानकारी के अनुसार एन.आई.ए.यानी राष्ट्रीय जांच एजेंसी का कन्विक्शन रेट 92 प्रतिशत है।
 यह लगभग अमेरिका की सजा दर के बराबर है।
आदर्श स्थिति तो जापान में है जहां 98 प्रतिशत मामलों में अभियोजन को अदालतों में कामयाबी मिल जाती है।
सी.बी.आई.जिन मामलों की तहकीकात करती है,उनमंे से सिर्फ 65 प्रतिशत मुकदमों में ही वह अदालतों से सजा दिलवा पाती है।
सबसे खराब स्थिति राज्य पुलिस की है।सजा दिलाने का उसका राष्ट्रीय औसत मात्र 45 प्रतिशत है।
यानी इस देश के 55 प्रतिशत आरोपित अदालतों से बच जाते हैं।
पर बिहार पुलिस  तो सिर्फ 10 प्रतिशत मामलों में ही आरोपितों को सजा दिलवा पाती है।
ऐसे में कानून -व्यवस्था की स्थिति कैसी रहेगी,उसका अंदाजा कोई भी आसानी से लगा सकता है।
 हां, केरल पुलिस 77 प्रतिशत मुकदमों में सजा दिलवा देती है।
क्या केरल पुलिस पर काम का बोझ बिहार की अपेक्षा 
कम है ?
    इन सब बातों का विधिवत तुलनात्मक अध्ययन होना चाहिए।अध्ययन से जो सूचनाएं मिले , उनके आधार पर राज्य पुलिस की कार्य प्रणाली में भरसक सुधार किया जा सकता है।
  जिस राज्य में 90 प्रतिशत आरोपित अदालतांे से बरी हो जाते हों,वहां के आम लोग किस तरह के खौंफ में जीते हैं,उसका अंदाज लगाना कठिन नहीं है।
इस स्थिति को जल्द से जल्द बदलने की जरूरत है।
वैसे तो एन.आई.ए. के पास जांच कार्य के लिए कई तरह की ऐसी सुविधाएं उपलब्ध हैं जो राज्य पुलिस के पास नहीं हैं।पर क्या सिर्फ यही बात है ?
--जल संकट के मुकाबले 
 का एक उपाय यह भी-- 
 जैसा भीषण जल संकट इस साल लोगांे ने चेन्नई में झेला, वैसा ही संकट दो -तीन साल में देश के अन्य नगरों को भी झेलना पड़ सकता है।
पटना का भूजल स्तर भी तेजी से नीचे जा रहा है।
बिहार की राजधानी पर आबादी के बढ़ते दबाव के कारण भी जल संकट बढ़ रहा है।और अधिक बढ़ने वाला है।
पर, प्रस्तावित 160 किलोमीटर लंबी पटना रिंग रोड जल संकट को कम करने में मदद कर सकती है।
  जाहिर है कि इस रिंग रोड के बन कर तैयार हो जाने के बाद पटना पर आबादी का बोझ बढ़ना न सिर्फ कम होगा,बल्कि घट सकता है।
  क्योंकि पटना के अनेक लोग
जो किराए के मकानों में रहते हैं,वे अपेक्षाकृत सस्ती जमीन खरीद कर गंगा पार बस सकते हैं।
अनेक लोग वहां जमीन खरीद भी रहे हैं।
 हैदराबाद के रिंग रोड के किनारे बड़ी संख्या में लोग बसे हैं।
 इसलिए प्रादेशिक राजधानी में बढ़ते प्रदूषण और आशंकित जल संकट को कम करना हो तो प्रस्तावित पटना रिंग रोड का निर्माण प्राथमिकता के आधार पर करना होगा।
 तमिलनाडु सरकार ने एक बड़े उपाय पर काम शुरू कर दिया है।        
 जल समस्या से सबक सीखते हुए तमिलनाडु सरकार ने चालू वित्तीय वर्ष में 10 हजार चेक डैम बनाने के लिए 312 करोड़ रुपए का आवंटन भी कर दिया है।
और इधर हम ऐसी छोटी योजनाओं के लिए अपने राज्य के सरकारी  इंजीनियरों को राजी नहीं कर पा रहे हैं।तो फिर हम रिंग रोड जैसी बड़ी योजना तो जल्द ही पूरी तो करवा ही सकते हैं।
अभी गंगा पार उतना जल संकट नहीं है जितना पटना में है।   
    --बिना अधिग्रहण रैयती
   जमीन पर सड़क क्यों ?--
 केंद्र सरकार की ताजा घोषणा के अनुसार प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तीसरे फेज के तहत देश में सवा लाख किलोमीटर सड़कों का निर्माण होगा।
उस पर 80 हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे।
 यह तो बड़ी अच्छी खबर है।
  पर  इस योजना मंे शुरू से ही एक भारी कमी महसूस की जाती रही है।
 इस योजना के तहत जमीन के अधिग्रहण का कोई प्रावधान ही नहीं है।
पहले से मौजूद कच्ची सड़कों और आहर आदि  को इस योजना में शामिल कर लेने का प्रावधान रहा है।
जहां जमीन की कमी पड़ी,वहां भूस्वामी की अनुमति से उसकी रैयती जमीन पर सड़क बना दी गई।
कहीं सहमति के बिना भी जबरन कब्जा हो गया।ध्यान रहे कि अनेक ठेकेदार इलाके के दबंग व्यक्ति ही होते हैं।कौन कमजोर व्यक्ति उन भूस्वामियों से पंगा लेगा ?
यदि इस योजना के तहत निर्मित कोई सड़क नदी या बाढ़ के  कटाव से लुप्त हो गई तो कई बार विभाग बगल के किसान की रैयती जमीन पर सड़क जबरन बना देता है।
 यदि कोई किसान कोर्ट जाता है तो विभाग कह देता है कि हम क्या करें ?
इस योजना में भूमि अधिग्रहण के लिए पैसे का तो कोई प्रावधान ही नहीं है।
फिर  अदालत उस सड़क को उजाड़ने का आदेश दे देती है।
  भोज पुर जिले में एक पूर्व केंद्रीय मंत्री की जमीन पर बनी सड़क पटना हाई कोर्ट के आदेश से कुछ साल पहले उजड़ चुकी है।
  राज्यों के मुख्य मंत्रियों को चाहिए कि वे केंद्र सरकार से कहें कि इस योजना में भी भूमि अधिग्रहण के लिए धनराशि का आवंटन करे। 
          --और अंत में-- 
   केंद्र सरकार ने हाल में बिहार सरकार की नल जल योजना को अपना लिया है।यह बिहार सरकार की उपलब्धि है।
 उधर दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने एक अच्छी योजना शुरू की है।वह है सरकारी प्राथमिक शालाओं में सी.सी.टी.वी.कैमरे लगाने की योजना।
वहां के स्कूल में क्या हो रहा है,बच्चों के अभिभावक अपने मोबाइल पर देख सकेंगे।
  चाहे तो नमूने के तौर पर बिहार सरकार भी अपने यहां कुछ चुने हुए स्कूलों में सीसीटीवी कैमरे लगवा कर उसकी लाभ -हानि का आकलन कर सकती है। 
--19 जुलाई 2019 के प्रभात खबर -बिहार -में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से--



गुरुवार, 18 जुलाई 2019

--अल कायदा की धमकी के बाद नेपाल सीमा पर अधिक चैकसी जरूरी--सुरेंद्र किशोर



इसी साल फरवरी में यह खबर आई थी कि बिहार से सटी नेपाल सीमा पर सशस्त्र सीमा बल ने अपनी चैकसी कई गुणा बढ़ा दी है।
 घुसपैठ और नशीली पदार्थों की तस्करी रोकने के लिए ऐसा किया गया।
पर ‘अल कायदा’ की हाल की धमकी के बाद अब सीमा पर खुफिया तंत्र को भी अधिक सशक्त और सक्रिय करने की जरूरत है।सीमावर्ती पुलिस थानों के प्रभारियों को भी चाहिए कि वे देशभक्त होकर अपनी ड्यूूटी निभाएं जिस तरह भारतीय सेना निभाती है।  
गत माह एक उच्चस्तरीय बैठक में मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने  अन्य बातों के अलावा यह भी कहा था कि बिहार पुलिस के स्पेशल ब्रांच के खुफिया तंत्र को और मजबूत करने की जरूरत है।
वैसे स्पेशल ब्रांच में मानव संसाधन बढ़ाने की भी जरूरत पड़ेगी।
वैसे केंद्रीय खुफिया  एजेंसी एस.आई.बी. भी समानांतर ढंग से अपना काम करती रहती है।
  इस बीच अंतरराष्ट्रीय आतंकी व जेहादी संगठन ‘अल कायदा’ के प्रमुख जवाहिरी ने भारत के सरकारी ठिकानों और सेना पर हमला करने की धमकी देकर हमें अधिकाधिक सतर्क रहने का अवसर दे दिया है। 
  --कड़ी जांच परीक्षा के बिना
 ड्राइविंग लाइसेंस देना घातक-- 
दिल्ली में स्वचालित ड्राइविंग लाइसेंस टेस्ट के तीन केंद्र 
खोले गए हैं।
जांच के इस नए तरीके से स्वचालित जांच में शामिल हुए करीब 49 प्रतिशत ड्राइवर फेल कर गए।
  पहले जब परंपरागत तरीके से जांच होती थी तो करीब 16 प्रतिशत आवेदनकत्र्ता ही असफल होते थे।
 याद रहे कि दिल्ली में हर साल 2000 लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं।इनमें से अधिकतर मामलों में चालकों की ही गड़बड़ी पाई जाती है।
  इधर बिहार में तो स्वचालित ड्राइविंग जांच परीक्षा का अभी  प्रावधान ही नहीं है।
  यहां तो अधिकतर जिलों में डी.टी.ओ.आॅफिस के दलाल किसी भी तरह की जांच के बिना ही स्थायी ड्राइविग लाइसेंस भी दिलवा देते हैं।
कुछ दशक पहले धनबाद डी.टी.ओ.आॅफिस ने लिट्टे के प्रधान प्रभाकरण के नाम भी डी.एल.जारी कर दिया था।
  याद रहे कि 2015 के आंकड़े के अनुसार बिहार में करीब 5000 लोग सड़क दुर्घटना में मरे थे।अब तो वह आंकड़ा और भी बढ़ गया है। 
क्या बिहार में भी आॅटोमेटेड ड्राइविंग लाइसेंस टेस्ट केंद्र खोलने का अवसर नहीं आ चुका है ?  
--लोहिया नगर कब तक 
रहेगा कंकड़बाग !--
मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने कहा है कि पटना के बेली रोड को अब ‘नेहरू पथ’ के नाम से  जाना जाएगा।
 वैसे बहुत पहले उसका नाम पड़ गया था -जवाहर लाल नेहरू पथ।
पर,चार शब्दों के उच्चारण में लोगों को दिक्कत आती है।इसलिए वह बेली रोड ही कहा जाता रहा है।
अब शायद ‘नेहरू पथ’ प्रचलन में आ जाए।
  पर यही फार्मला गार्डिनर रोड पर लागू नहीं हो सकता।
उसका नाम पड़ा है वीरचंद पटेल पथ।
उसे यदि पटेल पथ कहा जाने लगे तो कई लोगों को  उससे  
सरदार पटेल का बोध होने लगेगा।
  पर आश्चर्यजनक बात है कि पटना के कंकड़बाग को आज भी लोहिया नगर नहीं कहा जाता।जबकि सन 1967 में यह नाम पड़ गया था।
मौजूदा शासन को चाहिए कि वह लोहिया नगर में जगह-जगह लोहिया नगर का बोर्ड लगवा दे ।
शायद नई पीढ़ी की जुबान पर वह नाम भी चढ़ जाए !
--नल -जल योजना से जुड़ी
 है सरकार की छवि-- 
बिहार सरकार की नल जल योजना को भारत सरकार ने भी अंगीकार कर दिया है।
पूरे देश में इस योजना को लागू किया जाना है।
पर, दोनों  सरकारों को इस बात को ध्यान में रखना होगा कि
इस योजना के साथ उनकी साख भी जुड़ी हुई है।
कहीं ऐसा न हो कि नल के जल के साथ सरकारी भ्रष्टाचार
की अविरल धारा की जानकारी घर -घर न पहुंच जाए !
  जिस तरह इस देश में सरकारों की लगभग हर योजना में भ्रष्टाचार का दीमक लगा हुआ है,उससे यह योजना अछूती कैसे रहेगी ?हालांकि प्रयास करके अछूती रखी जानी चाहिए।
बिहार में तो कई जगहों से यह खबर मिलनी शुरू भी हो गई है कि घटिया पाइप लगाए जा रहे हैं।
 यदि यह खबर सही है तो उसका घर- घर में क्या असर होगा ?
इसलिए कंेद्र और राज्य सरकारों को चाहिए कि इस योजना की वे सोशल आॅडिट कराते जाएं ताकि घर -घर में सरकार की बेहतर छवि बने।वैसे बिहार सरकार के संबंधित मंत्री विनोद नारायण झा ने वादा किया है कि इस योजना पर पूरी नजर रखी जाएगी।  
--और अंत में--
 खनन घोटाले के सिलसिले में 
 सी.बी.आई.ने उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री और चार आई.ए.एस.अफसरों के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी है।
इस मामले में एक पूर्व मुख्य मंत्री भी देर-सवेर जांच के लपेटे में आ सकते हैं।
 हाल के दशकों में सरकारी-गैर सरकारी भ्रष्टाचार और घोटालों के सिलसिले में कई नेता,अफसर और व्यापारी जेल गए।कुछ जेल यात्रा के कारण ही मरे भी।
कुछ अन्य अब भी मुकदमों का सामना कर रहे हैं ।या जेल में सड़ रहे हैं।
कुछ दल व परिवार बर्बाद भी हो रहे हैं।
संकेत साफ हंै कि अगले चार -पांच साल के भीतर इस देश की  अन्य अनेक बड़ी हस्तियां जेल की हवा खाने वाली हैं।
इसके बावजूद प्रभावशाली लोगों में अपार धन की हवस कम ही नहीं हो रही है।
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ? क्या भ्रष्टाचार निरोधक कानून नाकाफी हैं ? या, सजा की दर कम है ? 
--12 जुलाई 2019 को प्रभात खबर-बिहार- में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से--  

बुधवार, 17 जुलाई 2019

  कश्मीर में आइ.एस.बनाम हिजबुल मुजाहिद्दीन
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इस्लामिक स्टेट बनाम हिजबुल मुजाहिदीन-लश्कर ए तोयबा।
इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार, इन दो अतिवादी इस्लामिक गिरोहों के बीच हाल में कश्मीर में हथियारी मुंठभेड़ हुई है।
  ये  गिरोह कश्मीर में अपने -अपने ढंग के खलीफा राज
स्थापित करने के लिए जेहाद कर रहे हैं।
 जब कश्मीर पर भारत का शासन है, तब तो ये जेहादी तत्व इतना सक्रिय हो गए हैं।
थोड़ी देर के लिए कल्पना करिए कि कश्मीर आजाद हो जाए ! तो उसका भी हाल क्या इराक -सिरिया तथा उन मुस्लिम देशों से अलग होगा जिसे बगदादी की सेना आई.एस.ने बर्बाद कर रखा है ?
इस तथ्य के बावजूद इस देश के कुछ तथाकथित सेक्युलर तत्व उन जेहादियों के प्रति सहानुभूति के भाव से भरे हुए हैं। 
इनमें से कुछ राजनीतिक कारणों से ऐसा करते हैं।कुछ को कहीं से पैसे मिलते हैं और कुछ अन्य दिग्भ्रमित हैं।
  एक बात साफ -साफ समझ लेनी चाहिए।भारत की कोई भी सरकार कश्मीर को आजादी नहीं दे सकती।
यदि दे देगी तो वह सरकार दूसरे ही दिन  गिर  जाएगी।साथ ही असम,केरल और पश्चिम बंगाल के खास इलाकों में  सक्रिय जेहादी तत्वों की गतिविधियां बेकाबू हो जाएंगी।
हालांकि वहां आज भी हालात चिंताजनक हैं।
  उधर कश्मीर के जेहादी तत्व भी नहीं मानने वाले हैं।इसलिए जो होना है,वह कश्मीर में ही हो जाए।यही भारत के हित में है भले भारत में ही रहने वाले राष्ट्र विरोधियों व टुकड़े -टुकड़े ‘गिरोहो’ं के हित में वह न हो।
हालांकि इस देश में बड़ी संख्या में ऐसे मुस्लिम भी हैं जो शांति से रहना चाहते हैं।
पर,उनके साथ दिक्कत यह है कि वे अपने बीच के अतिवादियों का कड़ा विरोध नहीं कर पाते जिस तरह हिन्दुओं के बीच के प्रगतिशील तत्व अतिवादी हिन्दुओं का खुलेआम कड़ा विरोध करते रहते हैं।
 उन ‘गिरोहो’ं में कुछ हिन्दू भी हैं और अधिक मुस्लिम हैं। 
 अगली पीढि़यों को सतर्क करने के लिए कुछ बातें साफ- साफ कही और लिखी जानी चाहिए चाहे भले आपको कोई तथाकथित ‘सेक्युलर’ मानने से कल से इनकार कर दे।
मध्य कालीन इतिहास लेखन के काम में बेईमानी करके खास विचारधारा वाले इतिहासकारों ने इस देश के साथ भारी अन्याय किया है। 
उसका परिणाम यह पीढ़ी भी भुगत रही है।
2019 
    

    घुसपैठियों को भगाओ,
    अब नहीं तो कभी नहीं,
   भारत की अर्थ व्यवस्था पर बोझ कम करो,
    मोदी सरकार की अग्नि परीक्षा
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देश के गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि ‘देश की  इंच -इंच जमीन पर जितने भी घुसपैठिए रह रहे हैं,उन्हें देश से बाहर करेंगे।’
दरअसल यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था।
लेकिन इस देश के अनेक वोट लोलुप नेताओं व दलों ने ऐसा नहीं होने दिया।
उन लोगों घुसपैठियों को खुली  सीमा के जरिए प्रवेश दिलवा कर उन्हें यहां जहां -तहां बसाया और उनके वोटर कार्ड 
बनवाए। 
उम्मीद है कि मोदी सरकार 2024 तक उन्हें यहां से निकाल बाहर करने का यह शुभ कार्य कर देगी।
 किस तरह कुछ खास दलों व अफसरों ने घुसपैठियों  की समय- समय पर मदद की,उसके दो  उदाहरण पेश हंै।
 वैसे उदाहरण तो बहुत हैं।
कुछ दशक पहले एक टी.वी.डिबेट सुन रहा था।
एक तरफ नेहरू युग के एक चर्चित आई.एफ.एस. अफसर थे तो दूसरी तरफ एक शिव सेना के एक सांसद।
  शिव सेना नेता ने कहा कि बंगला देश की सीमा पर मजबूत बाड़ लगाई जानी चाहिए।
उस पर उस अफसर ने कहा कि बाड़ लगाने से पूरी दुनिया में भारत की छवि खराब हो जाएगी।
उस पर शिव सेना नेता ने कहा कि आप भारत के विदेश सचिव थे या बंगला देश के ? 
वे चुप हो गए।
   एक दूसरा उदाहरण सुनिए।
नब्बे के दशक में मैं एक तथाकथित सेक्युलर पार्टी के लोक सभा उम्मीदवार के साथ पूर्वोत्तर इलाके के एक चुनाव क्षेत्र में घूम रहा था।वह अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं।
  एक गांव में दूर- दूर ताजी फूस की सैकड़ों झोपडि़यां में बंगला देशियों को अवैध ढंग से बसाया गया था।
उम्मीदवार हर झोपड़ी के सामने जाता था।कहता था कि आप लोग निश्चिंत रहिए।आपको यहां से कोई नहीं भगाएगा।
पता चला कि वे वोटर भी बना दिए गए थे।
क्या दुनिया के किसी अन्य देश में यह संभव है कि वोट के लिए करोड़ों घुसपैठियों को अपने देश में वहां के सत्ताधारी राजनीतिक दल ही बसा दे ?
पर यहां तो यह भी संभव है कि ऐसे पोस्ट लिखने पर कुछ लोग घुसपैठियों के पक्ष में तर्क देने लगें।
     
   


इस साल भी लोगबाग बाढ़ से खूब ‘प्रभावित’ 
हो रहे हैं।
  पहले के जमाने में लोगबाग बाढ़ से ‘पीडि़त’ हुआ करते  थे और नेताओं से ‘प्रभावित’ होते थे।
 पर आज का मीडिया तो बता रहा है कि लोग बाढ़ से पीडि़त नहंीं बल्कि प्रभावित हो रहे हैं।
पहले लोग माक्र्स-लेनिन-गांधी-लोहिया-जेपी-दीन दयाल उपाध्याय आदि से प्रभावित हुआ करते थे।आज भी होते हैं।
  पर जब अधिक लोग भ्रष्ट और बाहुबली नेताओं से पीडि़त होने लगे तो प्रभावित शब्द को मीडिया ने बाढ़ के साथ जोड़ दिया।
ठीक ही है,अच्छा किया। बात समझ में आ जानी चाहिए,शब्दों का भला क्या व कितना मोल है आज ! 
2019

     अब हम लौट चलें !
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कुछ माह पहले सारण जिला समता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और जदयू नेता राघव प्रसाद सिंह ने मही नदी में चेक डैम यानी छोटे बांध बनाने के लिए मुख्य मंत्री नीतीश कुमार को पत्र लिखा था।
मुख्य मंत्री ने उस पत्र को कार्रवाई के लिए संबंधित विभाग को भिजवा दिया।
  विभाग ने इस सुझाव को नहीं माना।
  संभवतः विभाग बड़े- बड़े बांधों के पक्ष में रहा है।
कारण सब जानते हैं।
अब जल संरक्षण विशेषज्ञ भी कहने लगे हैं कि आने वाले भीषण जल संकट से आबादी को बचाना हो तो विकेंद्रित जल प्रबंधन करना होगा।
  नीति आयोग के अनुसार 2020 तक देश के 21 बड़े शहरों के पास अपना पानी नहीं होगा।
जल पुरुष राजेंद्र सिंह के अनुसार तो अगले साल देश के 90 शहर जल संकट से कराहेंगे।
इस साल तो चेनै के जल संकट के बारे में देश ने देखा-सुना।वही हाल हर जगह होने वाला है।
   दरअसल हमारे सामने संकट सिर्फ यही नहीं है।
हर तरह की मिलावट से मानव जाति का अस्तित्व खतरे में है।
पर, इस देश में मिलावट करने वाले राक्षसों को रिश्वत लेकर सरकारी महकमा अभय दान दे देता रहता  है।
कितनों को सजा होती है ?
  गेहूं से लेकर दूध तक और पनीर से लेकर दवा तक सब मिलावटी हैं।
मैं तो कच्चा आम खरीद कर घर में पकाता हूं और मिठाई की जरूरत हो तो पटना जं.के पास महावीर मंदिर जाकर  वहां का विशेष लड्डू चढ़ा कर ले आता हूं।
बाकी फल -मिठाई के फेर में आप पड़े तो देर सवेर गए काम से ! 
 जल संकट और मिलावट से अपना  शरीर और अपनी अगली पीढ़ी को बचाने के लिए लोगों को गांवों की ओर लौटना चाहिए,जो लौट सकें।
यदि आपके पास थोड़ी भी जमीन है तो वहां जाकर आप जैविक खेती कर सकते हैं। विकेंद्रित जल प्रबंधन के काम में योगदान दे सकते हैं।यदि आप  कोई छोटा -मोटा रोजगार कर सकते हैं तो गांवों की ओर लौटिए। देश-विदेश से लौट कर अनेक युवजन गावों में खेती कर भी रहे हैं।जान है तो जहान है !
गांवों तक बिजली तो पहुंच ही गई है।बाकी का इंतजाम खुद करिए।पढ़े -लिखे व ईमानदार लोग स्थानीय प्रशासन पर दबाव डाल कर अनेक कागजी योजनाओं को सरजमीन पर उतार सकते हैं। 
 कुछ कम ही कमाइएगा,पर आप  और आपका परिवार शासन प्रायोजित जहर खोरी के शिकार होने से तो बच जाएंगे।
सब लोग ऐसा नहीं कर सकते हैं।पर जो कर सकते हैं,उन्हें करना चाहिए।
मुझे तो लगता है कि हमारे शासकों को भी प्रलय मंजूर है,लेकिन भोज्य व खाद्य पदार्थों में भारी मिलावट को रोकना मंजूर नहीं है।
 यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि अपने देश में मिलावट के लिए सिर्फ 6 माह से लेकर 3 साल तक की सजा का प्रावधान है।एक हजार रुपए जुर्माना है।जबकि बंगला देश सरकार इस अपराध के लिए फांसी या फिर आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान करने पर विचार कर रहा है।
नेपाल तक हमारा फल -सब्जी गुणवत्ता की गड़बड़ी को लेकर  बोर्डर पर रोक देता है।पर ,हमारे अफसर घूस लेकर न जाने कितना जहर इस देश में आने देते हैं। 
जुलाई 2019

  सुपर -30 के आनंद कुमार जब 
जनसत्ता के कुमार आनंद से मिले
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सुपर-30 के प्रमुख आनंद कुमार का पैर छूते ऋतिक रोशन की तस्वीर आज के दैनिक भास्कर में छपी है।
इस पर मुझे एक और पैर छूना याद आ गया।
आनंद कुमार दैनिक भास्कर के एक समारोह में आए थे।उन्होंने मेरा पैर छुआ।तब भास्कर को पटना से निकालने की तैयारी चल रही थी।
मुझे थोड़ा अटपटा लगा।
कोई मेरा पैर छुए,यह मुझे अच्छा नहीं लगता।
आनंद ने कहा, ‘आपने मुझे नहीं पहचाना ?’
आपने ही मेरे लिए जनसत्ता वाले कुमार आनंद जी को पत्र लिखा था।
कुमार आनंद ने जनसत्ता में मेरे काम के बारे में विस्तार से छापा था।’
राष्ट्रीय स्तर पर आनंद कुमार को संभवतः पहली बार
जनसत्ता के जरिए ही पब्लिसिटी मिली थी।
  कुमार आनंद मूल रूप से बिहार के ही हैं।इन दिनों भी वे दिल्ली में किसी बड़े पद पर हैं।
मैं उन दिनों जनसत्ता का बिहार संवाददाता था।
  यानी आनंद कुमार का सफर  कुमार आनंद तक !
खैर, बाद में कुछ लोगों ने मुझसे कहा कि सुपर -30 वाले आनंद कुमार आम तौर पर पिछड़े वर्ग के लड़कों को तरजीह देते हैं।
पर, बाद में मुझे लगा कि शायद यह प्रचार सही नहीं है।
फिर भी यदि पिछड़ों को ही तरजीह दे रहे हैं तो भी अच्छा है।
क्योंकि पिछड़ों को बेहतर शिक्षा के क्षेत्र में आगे लाने से देश मजबूत ही होगा।
  पर, एक दिन मेरे गांव का राजपूत का एक लड़का मेरे घर आया।
वह उन दिनों एन.आई.टी.पटना में पढ़ता था।
मुझे खुशी हुई कि मेरे गांव का एक और लडक़ा इंजीनियर बना।
उसने बताया कि वह आनंद कुमार की कोचिंग से ही पढ़कर इंजीनियरिंग में दाखिला कराया।
जुलाई 2019
   

   चाहिए एक ‘सरदार’ का मजबूत डंडा
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कई लोग देश में तो जीवंत लोकतंत्र चाहते हैं।
चाहते हैं कि उन्हें कुछ भी बोलने व लिखने की आजादी मिले।
कई बार वे राष्ट्रद्रोह पर भी उतारू हो जाते हैं।
फिर भी वे चाहते हैं कि उन्हें उसकी कोई सजा न हो।
पर, वही लोग अपनी पार्टी के लिए एक दबंग ‘सरदार’ चाहते हैं।
ताकि,तानाशाह  ‘सरदार’ बलपूर्वक सब पर तानाशाही चलाता रहे ।
भेड़-बकरी की तरह सबको अपने डंडे से हांक कर एकजुट बनाए रखे।
 सबको अपने कदमों में झुकाएं रहे।
सरदार के खिलाफ कुछ भी बोलना ईश निंदा मानी जाए।
पर हां, अधिकतर मातहतों की कोशिश इस बात की भी रहती है कि ‘माल-असवाब’ का बंटवारा ठीक ढंग से होता रहे।
यदि उसमें कोई कमी आएगी तो वे हरी घास के लिए पुरानी पार्टी किसी भी क्षण छोड़ देंगे।
  अपवादों को छोड़ दें तो इस देश की राजनीति का आज यही आम चलन हो गया है।
  ऐसी राजनीति और चम्बल के गिरोहों के बीच कितना अंतर रह गया है ?
जुलाई 2019



    श्रमदान से समाजसेवा
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 बुंदेल खंड के एक गांव में पानी की समस्या को एक बाबा ने किस तरह हल किया है,उसकी कहानी दैनिक आज ने छापी है।
 हमीर पुर जिले के बड़ा पचखुरा गांव में पानी की समस्या किशनपाल सिंह उर्फ कृष्णानंद बाबा ने हल की।
चार साल में अकेले परिश्रम करके 8 बीघे में फैले तालाब की गहरी खुदाई करके बाबा ने उसे पुनर्जीवित कर दिया है।
   इस देश में मनरेगा के पैसे का सदुपयोग हो रहा होता तो 
कृष्णानंद को यह काम नहीं करना पड़ता।
  खैर, मैंने पचास के दशक में सारण जिले के अपने गांव और आसपास श्रमदान से स्वयंसेवी लोगों को बांध,तालाब और आहर के काम करते देखा है।
  मेरे गांव में उन दिनों एक शांति बाबा आते थे।मेरे दालान में बैठते थे।
करीब सात फीट के कसरती शरीर वाले बाबा घोड़े पर चढ़कर आते थे।हाथ में भाला होता था।राजस्थानी परिधान में होते थे।
हमारे यहां आने पर उन्हें दूध दिया जाता था।
 हर बरसात से पहले आसपास के बांधों की मरम्मत श्रमदान से वे कराते थे।कोई भी ग्रामीण उनके आदेश का उलंघन नहीं कर सकता था।
  मूलतः वे राजस्थान के राजपूत थे और दिघवारा में गंगा किनारे आश्रम बना रखा था।
  साठ के दशक में मैंने दाउद पुर के पास के साध पुर छत्र गांव में केदार नाथ सिंह नामक शिक्षक को लोगों से श्रमदान के जरिए आहर पोखर की उड़ाही कराते देखा था।
मास्टर साहब खुद भी श्रमदान करते थे।
साध पुर मेरे बहनोई का गांव है जहां मैं अक्सर जाया करता था।  
  उन दिनों सिंचाई व बाढ़ नियंत्रण के लिए सरकार के पास अधिक पैसे नहीं हुआ करते थे।पर,तब तक  गांवों का सामाजिक बंधन और बुजुर्गांे का अघोषित  अभिभावकत्व आज की तरह मरा नहीं था।
इसलिए मिलजुल कर लोग श्रमदान करते थे।
-2019-


केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी जी ने कहा है कि ‘अगर अच्छी सर्विस चाहिए,तो टोल टैक्स चुकाना होगा।टोल कभी बंद नहीं होगा।’
  टोल कभी बंद होना भी नहीं चाहिए।
क्योंकि उसका एक और लाभ है।
जो अपराधी गण राजनीति में जाकर महत्वपूर्ण बन चुके हैं,उनका मूल चेहरा इन्हीं टोल टैक्स वसूली स्थलों पर अधिक प्रकट होता रहता है। 
  लोगों को जानते रहना चाहिए कि कैसे-कैसे लोग हम पर राज कर रहे हैं या फिर राज करने की ट्रंेनिंग ले रहे हैं।

     भारत में 16 अरब डालर की बिजली की हर साल चोरी
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अपने देश में करीब 16 अरब डालर की बिजली की हर साल चोरी हो जाती है।इतनी चोरी किसी अन्य देश में नहीं होती है।
एक डालर करीब 69 रुपए के बराबर  है।
  यदि आप किसी सुविधा का दुरुपयोग करंेगे तो एक न एक दिन वह सुविधा आपसे छिन जाएगी।
 अभी यह सुविधा है  कि आप पहले बिजली का उपभोग करें और बिल बाद में अदा करेे।
  पर अब वह सुविधा छीन ली जागी।
पहले भुगतान करिएगा और बाद में बिजली का उपभोग करिएगा।
आपका मतलब आप नहीं, बल्कि वे जो बिजली की चोरी करते हैं।
  नई व्यवस्था में बड़ा झटका बिजली महकमे के उन अफसरों -कर्मचारियों को लगेगा जो रिश्वत लेकर बिजली की चोरी करवाते हैं।
पर, देश और आम जनता का अंततः भला होगा।
आप समझिए कि अभी 40 प्रतिशत बिजली चोरी ही में चली जाती है।
  उसकी कीमत बचेगी तो आम उपभोक्ताओं को बिजली थोड़ी सस्ती  मिलेगी और देश की अर्थ -व्यवस्था भी सुधरेगी।

मंगलवार, 16 जुलाई 2019

  --परंपरागत आॅटो उद्योग की जीत होगी या
  इलेक्ट्रिक वीकल समर्थक मोदी सरकार की ?--
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वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा है कि हम अगले 6 साल में इस देश में पूरी तरह इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रचलन का लक्ष्य पूरा करने की कोशिश करेंगे।
 पर्यावरण थिंक टैंक सी.एस.ई.की ताजा रपट में कहा गया है कि वायु प्रदूषण के कारण इस देश में हर साल एक लाख बच्चों की जान चली जाती है।
  अन्य की मौत अलग है।
वाहन से निकलने वाले प्रदूषण का इसमें बहुत बड़ा योगदान होता है।
  वित्त मंत्री की घोषणा के बाद बजाज आॅटो के एम.डी.राजीव बजाज ने कहा है कि‘क्या हम दुकान बंद कर घर बैठ जाएं ?’
 राजीव बजाज के पूर्वज जमुनालाल बजाज स्वतंत्रता सेनानी थे और आजादी की लड़ाई में उनका बड़ा योगदान था।
 अपने वंशज की इस प्रतिक्रिया पर जमुनालाल बजाज परलोक में क्या सोच रहे होंगे ?
क्या इसीलिए उन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ी कि उनके ही वंशज इस बात की भी परवाह न करे कि प्रदूषण से हर साल एक लाख तो सिर्फ बच्चे मर रहे हैं ?
 खैर, यह तो राजीव बजाज को सोचना है। पर क्या मोदी सरकार अंततः बच्चों की जिंदगी का ध्यान रखेगी या बजाज तथा दूसरे आॅटो उद्योग के रोजगार का ?
आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि कौन किसके दबाव में आता है। 


   कितनी योजनाएं कागजी !
   कितनी सरजमीन पर ?
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आम लोगों के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार अलग -अलग और मिलकर जन कल्याण व आम विकास की सैकड़ों योजनाएं चलाती रहती हैं।
   उनके लिए हर साल अरबों-अरब रुपए खर्च किए जाते हैं।
  कुछ योजनाएं दिखाई पड़ती हैं। उनके लाभ भी लोगों तक पहुंचते हैं।
पर,यह आरोप भी लगता रहता है कि अन्य अनेक योजनाएं सिर्फ कागजों पर ही चलाई जाती  हैं । उन मदों के पैसों की बंदरबांट हो जाती है।
ऐसी योजनाओं के नाम भी कम ही लोगों को मालूम हो पाते हैं। 
   क्या यह सच है ?
इसकी सत्यता का पता आखिर कैसे चलेगा ?
 दोनों सरकारों की कुल योजनाओं के नाम अखबारों में विज्ञापन के रूप में छपवाए जाने चाहिए । इससे आसपास देख कर आम लोग यह जान सकेंगे कि उनके नाम पर पैसों की सिर्फ लूट हो रही है या उसे सरजमीन पर लगाया जा रहा है।
  

चेतन भगत ने लिखा है,
‘प्रिय कांग्रेस, आने वाले कुछ दिन आपके भविष्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं।
नई वास्तविकताओं को स्वीकार करते हुए
एक ऐसे नेता को चुनिए जो आपको भविष्य में सुधार के लिए सबसे बेहतर अवसर प्रदान कर सके।’
  प्रिय चेतन,
अन्य कई बातों की आपकी समझ बेजोड़ है।
पर, पता नहीं आप मौजूदा कांग्रेस का डीएनए समझने में कैसे गलती कर बैठे !
 क्या आप कभी किसी वैसे डूबते हुए व्यापारिक घराने को यह सलाह दे सकते हैं कि आप अपनी कंपनी का नेतृत्व परिवार के बाहर किसी अन्य के हाथों में सौप दें ताकि कंपनी का पुनरुद्धार हो सके ?
 ऐसी सलाह आप देंगे भी तो वह नहीं मानेगा चाहे कंपनी डूब ही क्यों न जाए।
कौन अपनी संपत्ति दूसरे को यूं ही दे देता है ?
चेतन की कल्पना के अनुसार जो नेता कांग्रेस का सुधार कर देगा,वह खुद कांग्रेस का सुप्रीमो नहीं बन जाएगा ! ?
ऐसा मौका ‘प्रथम परिवार’ किसी अन्य को क्यों देगा ?
वह तो मोदी सरकार के अलोकप्रिय होने का इंतजार भर करेगा। भले उसके इंतजार के साल लंबे हो जाएं।
   यानी, कांग्रेस नामक निजी पारिवारिक कंपनी का नेतृत्व वैसे व्यक्ति को सौंपने का सुझाव आप कैसे दे सकते हैं जो कांग्रेस को सुधार दे ?
  प्रथम परिवार कांग्रेस की कमान यदि किसी बाहरी व्यक्ति को  सौंपेगा भी तो वह व्यक्ति ‘एक और मन मोहन ंिसंह’ ही होगा।वह  मोदी के अलोकप्रिय होने तक सीट गरम करता रहेगा।भले वह दिन आने से पहले ही कांगे्रस का इतिश्री हो जाए।हालांकि लोकंतत्र के लिए यह अच्छा नहीं होगा।
सरकारें तो बदलती ही रहनी चाहिए।
 प्रथम परिवार को भी हार के कारणों का पता है।पर उसने सुधार की इच्छा,सामथ्र्य  और शक्ति खो दी  है।प्रथम परिवार का तो एजेंडा ही गैर राजनीतिक है।
   2014 की लोस हार के बाद पूर्व रक्षा मंत्री ए.के.एंटोनी ने हार का कारण प्रथम परिवार को साफ- साफ बता दिया था।
एंटोनी ने अपनी रपट में साफ -साफ कह दिया था कि ‘2014 के  लोक सभा चुनाव में हमारी हार इसलिए हुई क्योंकि लोगों में यह धारणा बनी कि कांग्रेस 
धार्मिक अल्पसंख्यकों के पक्ष में पूर्वाग्रहग्रस्त है।
इसलिए बहुमत मतदाताओं का झुकाव भाजपा की ओर हुआ।
एंटोनी के अनुसार भ्रष्टाचार, मुद्रास्फीति  और दल में  अनुशासनहीनता हार के अन्य कारण थे।’
  पर 2014 के बाद कांग्रेस ने एंटोनी समिति की रपट पर कोई ध्यान ही नहीं दिया।
बल्कि उसी गलत दिशा में कांग्रेस आगे बढ़ती चली गई।
उसकी ओर हाल में आनंद शर्मा ने इशारा किया है।
 2019 की हार के कुछ कारण प्रमोद जोशी -राष्ट्रीय सहारा- 
के अनुसार कांग्रेस दुलारा नेता आनंद शर्मा ने बता दिया है।
दरअसल प्रथम परिवार को छोड़कर बाकी नेता व कार्यकत्र्ता कंपनी के छोटे -बड़े अफसर या कर्मचारी मात्र हैं।वे जब तक पार्टी में हैं, तब तक वही बात बोलेंगे जो प्रथम परिवार चाहता है।
  देश के लोकतंत्र का यह दुर्भाग्य है कि एक महत्वपूर्ण बड़ी पार्टी को, जिसमें संभावनाएं थीं,बिखर रही है। वंश तंत्र अन्य क्षेत्रीय दलों की तरह अंततः उसे  बर्बाद ही कर रहा है।
   अब कांग्रेस नेता आनंद शर्मा की ताजा उक्तियां पढि़ए--
‘पार्टी घोषणा पत्र में देशद्रोह के कानून को खत्म करने और आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में भारी बदलाव करने वाली बातों को शामिल करना गलती थी।कांग्रेस के घोषणा पत्र में यह भी कहा गया था कि कश्मीर में सेना कम करनी है।
आनंद शर्मा के अनुसार इन बातों का वोटरों पर विपरीत प्रभाव पड़ा।
  आनंद जी,यह गलती नहीं, बल्कि वंश तंत्र पर आधारित अधिकतर राजनीतिक दलों की रणनीति का यह हिस्सा रहा  है।
 जातीय व सांप्रदायिक वोट बैंक बनाओ,कुछ दलों से चुनावी तालमेल करो। सत्ता पाओ और सत्ता भोगो।
इस बीच कुछ जनहितकारी काम हो जाए, तो हो जाए।
अपने वंश-परिवार  और आधार वोट बैंक वाली जाति के लोगों को सबसे महत्वपूर्ण पदों पर बैठाओ।लाभ कमाओ और कमआओ।
सांप्रदायिक वोट बैंक की धार्मिक भावनाओं को सहलाओ और उनके धार्मिक एजेंडा को आगे बढ़ाने में मदद करो।
जहां ऐसी राजनीति चलेगी, वहां भाजपा सत्ता में नहीं आएगी तो कौन आएगा ! ?


   यहां ऐसा भी होता है !
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2001 में विश्व व्यापार केंद्र पर आतंकी हमले के बाद अमेरिका ने अपने कानूनों को और भी कड़ा कर लिया था।सुरक्षा जांच कठोर बना दी।
 इन दिनों चीन भी अपने देश में सक्रिय जेहादी तत्वों का एक खास तरह से ‘इलाज’ कर रहा है।
अन्य देश भी अपने देश की सुरक्षा के लिए 
जरूरत के अनुसार कठोर कदम उठाते रहते हैं।
पर, दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति सिर्फ भारत के साथ है।
  यहां अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 2002 में  
कारगर ‘पोटा’ कानून बनाया।
  उससे आतंकवादियों से निपटने में सुविधा मिल रही थी।
पर, उससे कांग्रेस तथा कुछ अन्य दलों के वोट बैंक को तकलीफ हो रही थी।
2004 में जब मन मोहन की सरकार बनी तो पोटा को समाप्त कर दिया गया।
  नतीजतन 2004 से 2008 तक आतंकी गतिविधियां काफी बढ़  गईं।
2008 में तो मुम्बई पर भारी आतंकी हमला हो गया।मजबूर होकर मन मोहन सरकार को एन.आई.ए.बनाना पड़ा।
पर, अब जब एन.आई.ए.नाकाफी साबित हो रहा है तो मोदी सरकार ने एन.आई.ए.संशोधन विधेयक, 2019 लोक सभा से आज पास कराया।
  स्वाभाविक ही था कि ओवैसी जैसे नेता किसी न किसी बहाने उसका विरोध करें।
पर कांगेेस के सदस्य ने भी आज लोक सभा में उस बिल के खिलाफ भाषण क्यांे किया ?कहा कि इस कानून से पुलिस
राज कायम हो जाएगा। 
उसने तो यह भी कहा कि गुवाहाटी हाईकोर्ट  सी.बी.आई.को असंवैधानिक घोषित कर चुका है।
  दरअसल कांग्रेस के अनेक नेतागण इन दिनों सी.बी.आई. और अदालत की गिरफ्त में हैं।लगता है कि वे चाहते हैं कि सी.बी.आई.अपना काम रोक दे।
  2014 की हार के बाद ए.के. एंटोनी ने कांग्रेस की हार का कारण भ्रष्टाचार व मुस्लिम तुष्टिकरण बताया था।
2019 की हार के भी वही कारण रहे।
फिर भी लगता है कि कांग्रेस अपने चाल, चरित्र और चिंतन में कोई परिवत्र्तन करने वाली नहीं है चाहे उसके अच्छे दिन कभी आएं या नहीं !
 भारत के अलावा दुनिया में ऐसा और कौन सा देश है जहां के कुछ नेतागण जाने अन जाने या वोट के लिए ऐसे- ऐसे काम करते रहते हैं जिनसे  देसी -विदेशी आतंकवादियों को उस देश को क्षत -विक्षत करने मेें मदद मिले ? 
  मेरी जानकारी में तो कोई अन्य देश नहीं है।
आपकी नजर में हो तो जरूर बताइएगा।

सोमवार, 15 जुलाई 2019

वृद्धाश्रम में मां बाप को छोड़कर वो पलटा ही था 
कि बाप ने आवाज देकर कहा,
बेटा, अपने मन मेें किसी प्रकार का बोझ मत रखना।
तुझे पाने के लिए 
दो बेटियों की हत्या की थी,
सजा तो मिलनी ही थी।
उन्हीं बेटियों ने बहू बन कर बदला लिया है। 

जेपी और आर.एस.एस.
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जय प्रकाश नारायण ने 6 मार्च, 1975 को दिल्ली
में आयोजित विशाल प्रदर्शन के अवसर पर अपने भाषण में कहा था कि 
‘अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ फासी है तो मैं भी फासी हूं।’
 जेपी के निजी सचिव रहे सच्चिदानंद ने 13 अप्रैल 1980 के दिनमान में लिखे अपने लेख में यह ऐतिहासिक तथ्य दर्ज किया है।
सच्चिदानंद लिखते हैं कि अपने आंदोलन में संघ को शरीक करने के कारण कांग्रेस और माकपा के लोग जेपी की कटु आलोचना करते थे।
वे कहते थे कि संघ एक फासी संगठन है और जेपी इस संगठन को बढ़ावा देकर फासीवाद की मदद कर रहे हैं।
जेपी उनकी आलोचना
का उस दिन जवाब दे रहे थे।
  पर सच्चिदानंद जी ने इतना ही भर नहीं लिखा।
उन्होंने यह भी लिखा कि अपने आंदोलन के दौरान जेपी अनेक बार संघ के शिविरों में शामिल हुए।
ऐसा ही एक शिविर 13 मई 1975 को कालीकट में हुआ था।
शिविरार्थियों को संबोधित करते हुए जेपी ने कहा था कि 
मैं तो वह दिन देखना चाहता हूं कि आर.आर.एस. में मुसलमान
युवक भी होंगे और ईसाई युवक भी होंगे।
आज भी जहां -तहां शायद हों, मैं नहीं कह सकता।
अधिक संख्या में वे हों और उनको लगे कि जैसे हिन्दू युवकों को ,बालकों को संघ की शिक्षा प्राप्त करने का ,कवायद सीखने का अधिकार है, वैसे ही उनको भी हो।
समय आएगा,जब संघ निर्णय करेगा कि हमारे दरवाजे सबके लिए खुले हैं।
आज भी आपके उपर के लोगों से मेरी बातें होती हैं तो मुझे कुछ आशा होती है कि मानस इस प्रकार का बन रहा है,और वह दिन मैं बहुत जल्द देखना चाहता हूं।’   
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प्रभाष जोशी के जन्म दिन के अवसर पर
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बहु आयामी व्यक्तित्व व प्रतिभा के संपादक प्रभाष जोशी
का अपने अधीनस्थ पत्रकारों के साथ भी स्नेहिल व्यवहार रहता था।
 उन अधीनस्थों में सौभाग्यवश मैं भी शामिल था।
इस बात का पता तो मुझे पहले से ही था।
पर, उसकी गहराई उनकी पत्नी ने उनके नहीं रहने बाद मेरी पत्नी को बताई।
  प्रभाष जी के गुजर जाने के बहुत बाद एक दफा मैं सपरिवार दिल्ली गया था।
उषा भाभी से मिलने पुत्र के साथ मेरी पत्नी रीता जनसत्ता अपार्टमेंट गई थी।
बहुत सारी बातों के साथ -साथ उषा जी ने यह भी बताया कि वे यही पास का फ्लैट सुरेंद्र जी को दिलवाना चाहते थे।
वे चाहते थे कि इन दोनांे फ्लैटों के एक -एक कमरे को मिला कर उसे लाइब्रेरी बना दिया जाए।
उसमें हम दोनों की पुस्तकें व संदर्भ सामग्री रहें।
 हालांकि अपने जीवन काल में प्रभाष जी ने कभी मुझसे यह इच्छा नहीं बताई थी।
यदि बताई होती तो मैं उनसे कहता कि मेरे पुस्तकालय-संदर्भालय में जो कुछ आपको पसंद हो ,उसे मैं मुफ्त में आपको भिजवा दूंगा।
 एक बार उन्होंने पटना के मेरे घर में उसे देख कर कहा था कि देश के किसी पत्रकार के पास ऐसा पुस्तकालय-संदर्भालय  नहीं है।
उषा भाभी से उनकी इच्छा जानने के बाद मैंने महसूस किया कि इस पुस्तकालय-सह -संदर्भालय का प्रभाष जी से बेहतर कोई भी अन्य व्यक्ति इसका सदुपयोग नहीं कर सकता था।मैं तो कत्तई नहीं।
   पर, लगता है कि जिस फूल को ईश्वर अधिक पसंद करता है,उसे समय से पहले ही चुन लेता है।
 प्रभाष जी के गुजर जाने की कोई उम्र नहीं थी।
उनके नहीं रहने के बाद मेरे सहित देश के अनेक पत्रकार  अनाथ से हो गए।
  बिहार के एक दबंग नेता ने एक बार किसी से कहा था कि सुरेंदर का रक्षक जोशी जी हैं।इसलिए उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
जोशी जी के नहीं रहने पर उस नेता ने मेरा बिगाड़ भी दिया था।
 खैर, प्रभाष जी मेरे पीछे में यह कहा करते थे कि धीरेंद्र श्रीवास्तव और सुरेंद्र किशोर के लिए कुछ और करना चाहता हूं।
चूंकि पटना में विशेष संवाददाता से बड़ा पद मुझे नहीं दे सकते थे,इसलिए उन्होंने 1998 में लखनउ से हेमंत शर्मा के साथ-साथ पटना से मेरा भी तबादला दिल्ली करवा दिया था।
  मैंने कभी खुद को दिल्ली के अनुकूल नहीं पाया।इसलिए उनसे विनती करके एक महीने बाद ही फिर पटना लौट आया।
  मेरी बदली के पीछे उनका उद्देश्य मेरा प्रमोशन था जिसका हकदार वे मुझे समझते थे।
अपने कार्यकाल में राहुल देव भी मुझे दिल्ली बुलाकर बड़ा पद देना चाहते थे।मैं उनका भी आभारी हूं।
   मैं जो भी बन पाया हूं ,उसमें प्रभाष जी का सबसे बड़ा योगदान रहा  है।
उन्होंने खुद पर खतरा व नुकसान उठाकर भी अन्य सहकर्मियों के साथ -साथ हमेशा ही मेरा भी बचाव किया।
यहां तक कि सती प्रथा वाले चर्चित संपादकीय की जिम्मेवारी भी प्रभाष जी ने खुद पर ले ली थी जबकि उसके लेखक कोई और थे।
याद रहे कि अदमनीय अखबार जनसत्ता के संवाददाताओं पर सत्ताधारी नेताओं का तरह -तरह से भारी दबाव रहा करता  था।
दबाव डालने वालों में गोयनका जी के मददगार नेता भी शामिल थे।
पर जोशी जी ने उनकी भी कभी परवाह नहीं की।इसके लिए रामनाथ गोयनका भी धन्यवाद के पात्र थे। 
 कुल मिलाकर इस संक्षिप्त विवरण में यही कहा जा सकता है कि प्रभाष जोशी के बाद कोई प्रभाष जोशी पैदा नहीं हुआ।
आज जो माहौल है,उसमें संभवतः होगा भी नहीं।
होने नहीं दिया जाएगा।
बाबरी मस्जिद को ढाहे जाने के बाद प्रभाष जी भावुक हो उठे थे।
उसके बाद उन्होंने कुछ खास संगठनों के खिलाफ खूब लिखे।
पर उसमें उनकी भावना थी न कि उनका कोई एजेंडा।
इसीलिए फिर भी संघ से जुड़े कई लोगों का उनके प्रति आदर कम नहीं हुआ। 
   राजेंद्र माथुर के साथ-साथ उन्हें भी हाल के वर्षों की पत्रकारिता का युग पुरुष ही कहा जाएगा।