बुधवार, 30 सितंबर 2020

 ‘‘एक बड़े नेता की संतान दिल्ली के एक ही कमरे में 

बैठकर 21 कंपनियां चलाती थीं।

6 हजार करोड़ रुपए की मालकिन बन बैठी।

तब देश की अर्थ-व्यवस्था बहुत मजबूत थी।

पर,जब मोदी सरकार ने उन फर्जी कंपनियों को बंद 

करा दिया तो मंदी आ गई।’’

              ---इरफान अहमद,

भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा के उपाध्यक्ष

11 सितंबर 2020

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‘‘चाहे यह भ्रष्टाचार का विरोध हो या भ्रष्ट के रूप में देखे जाने का भय,शायद भ्रष्टाचार अर्थ व्यवस्था के पहियों को 

आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण था,इसे काट दिया गया है।

मेरे कई व्यापारिक मित्र मुझे बताते हैं निर्णय लेेने की गति धीमी हो गई है।.............’’

                 -- नोबल विजेता अभिजीत बनर्जी,

              दैनिक हिन्दुस्तान, 23 अक्तूबर 2019

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अभिजीत बनर्जी राहुल गांधी के अघोषित आर्थिक सलाहकार बताए जाते हंै। 


मंगलवार, 29 सितंबर 2020

 अलबर्ट एक्का भवन में 

काॅफी हाउस बने

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पटना के निकट गंगा नदी पर निर्मित गांधी सेतु का 

शुभारम्भ 1982 में हुआ था।

अब उसका फिर से निर्माण हो रहा है।

पटना के अदालतगंज के विशाल परिसर में स्थित अलबर्ट एक्का भवन का 1984 में उद्घाटन हुआ था।

पर, इतने ही साल में वह जर्जर हो गया। 

वहां फिर से नए व भव्य भवन का निर्माण होने जा रहा है।

कोइलवर में सोन नद पर अंग्रेजों ने किस साल पुल बनवाया था ?

फिर भी अब भी उस पर आवागमन जारी है।

जब नवीन अलबर्ट एक्का भवन बने तो उसमें ‘काॅफी हाउस’ 

भी खुलना  चाहिए।

पटना में उसका अभाव खटकता है।

शासन को चाहिए कि वह उस भवन में काॅफी हाउस के लिए स्थान उपलब्ध कराए।

कभी काॅफी बोर्ड द्वारा संचालित पटना स्थित काॅफी हाउस के बंद हो जाने के बाद यहां उसकी कमी महसूस की जाती रही है।  

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25 सितंबर, 2020 के प्रभात खबर,पटना में प्रकाशित 

मेरे काॅलम कानोंकान से।


 एक पेंशन योजना ऐसी भी !

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सन 2006 में मुझे इ.पी.एफ.पेंशन योजना के तहत

हर माह पेंशन के रूप में 1046 रुपए मिलने शुरू 

हुए थे।

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 2016 में यह राशि बढ़कर 1231 रुपए हो गई।

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अगस्त, 2020 की पेंशन राशि भी पासबुक पर चढ़ा दी गई है।

अब भी मुझे हर माह 1231 रुपए ही मिलते हैं।

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आज 1231 रुपए मंे क्या-क्या मिल सकता है ?

 मेरी सेवानिवृत शिक्षिका पत्नी की पेंशन राशि से मेरे परिवार का खर्च चल रहा है।

 यदि यह सुविधा भी नहीं होती तो मुझे कब का अपने पुश्तैनी 

गांव में जाकर खेती के काम में लग जाना पड़ता।

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अब असली सवाल पर आएं।

आखिर क्या सोच कर केंद्र सरकार ने 1995 में ऐसी 

इम्प्लाइज पेंशन स्कीम शुरू की थी ?

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--सुरेंद्र किशोर-29 सितंबर 20

  

  


सोमवार, 28 सितंबर 2020

 


सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर 

निरंतर नजर रखे चुनाव आयोग-

--सुरेद्र किशोर--

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बिहार में चुनाव सामने है।

इसमें सोशल मीडिया के भारी दुरुपयोग की आशंका प्रकट की जा रही है।दुरुपयोग शुरू भी हो चुका है।

वैसे तो आम दिनों में भी इस माध्यम के दुरुपयोग की खबरें आती रहती हंै।पर चुनाव तो कई दलों व लोगों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता है।वैसे में सोशल मीडिया का दुरुपयोग करें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।

ऐसे में चुनाव आयोग की जिम्मेदारी बढ़ गई है।

वह देखे कि यह मीडिया गलत ढंग से मतदाताओं को प्रभावित न करे।

हाल ही में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि वह सोशल मीडिया को सुव्यवस्थित करे।

क्योंकि इस मीडिया की पहुंच काफी बढ़ गई है।

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चुनाव प्रचार में नेताओं 

 से शालीनता की उम्मीद

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2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में प्रचारकों ने कई बार शालीनता की लक्ष्मण रेखा पार कर दी थी।

उम्मीद है कि 2020 के राज्य विधान सभा चुनाव प्रचार में ऐसा नहीं होगा।

याद रहे कि लोक सभा चुनाव की अपेक्षा विधान सभा चुनाव में लक्ष्मण रेखा पार करने की अपेक्षाकृत अधिक घटनाएं होती रही हैं।

 ध्यान रहे कि जब कोई चुनाव प्रचारक, नेता या कार्यकत्र्ता लक्षण रेखा पार करता है तो वह अपना ही चरित्र और संस्कार उजागर करता है।

साथ ही, वह मुकदमे को भी आमंत्रित करता है।

2015 के चुनाव में मुकदमे हुए भी थे।

एक नेता पर ‘चारा चोर’ कहने के लिए केस हुआ था तो दूसरे पर ‘नरभक्षी’ कहने पर मुकदमा हुआ।

पर ऐसे मुकदमों का अंततः क्या हश्र होता है ?

आम तौर से कुछ नहीं होता।

तब एक वरिष्ठ नेता ने तो कहा भी था कि चुनाव प्रचार के दौरान प्रचारकों के मुंह से निकली  गालियों को होली की गाली मान कर बाद में भुला दिया जाना चाहिए।

वैसे आप भले भुला देंगे,पर आम लोगों के दिल ओ दिमाग पर संबंधित गालीबाज नेताओं के बारे में जो छाप पड़ती है,वह उन नेताओं के लिए ही अच्छा नहीं होता।

  गाली-गलौज,अपशब्दों का प्रयोग और निराधार आरोप-प्रत्यारोप स्वस्थ लोकतंत्र के लिए घातक है।

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भारी वाहनों से सड़कें ध्वस्त

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सारण जिला स्थित नवनिर्मित दिघवारा-भेल्दी-अमनौर स्टेट हाईवे की स्थिति इन दिनों जर्जर है।

यह पहले ग्रामीण सड़क थी।मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने इसमें रूचि लेकर इसे कुछ ही साल पहले स्टेट हाईवे में परिणत कराया ।

चूंकि यह सड़क मुख्य मंत्री की नजर में थी,इसलिए इसका निर्माण भी बेहतर हुआ।

पर हाल के महीनों में इस सड़क पर अत्यंत भारी वाहनों की  बेरोकटोक आवाजाही के कारण यह रोड जर्जर हो गया।

इसके पुनर्निर्माण में भारी धन की जरूरत पड़ेगी।

निर्माण पर करीब 44 करोड़ रुपए खर्च हुए थे।

अब सवाल है कि उस सड़क को बर्बाद करने के लिए किसने उस सड़क पर भारी वाहनों की आवाजाही की अनुमति दी ?

इस सड़क का मामला तो एक नमूना है।

ऐसा पूरे राज्य में होता रहता है।

यह सार्वजनिक धन की बर्बादी नहीं तो और क्या है ?

 पहले निर्माण में भारी खर्च करो।फिर कुछ ही समय बाद उसके पुनर्निर्माण में धन लगाओ।  

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 खुले में शौच का हाल 

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बिहार सरकार ने खुले में शौच रोकने के लिए काफी प्रयास किया।उसका कुछ सकारात्मक नतीजे भी सामने आए।

पर कुल मिलाकर स्थिति यह है कि वैसी सफलता नहीं मिली जिसकी उम्मीद थी।

जबकि खुले में शौच से मुक्ति के कई फायदे हैं।

बिहार सरकार को चाहिए कि वह चुनाव के बाद एक बार फिर उस दिशा में पहल करे।

इस बार सख्ती से लागू करे।

कोरोना तथा इस तरह की किसी अन्य महामारी के इस दौर में 

खुले में शौच एक जघन्य अपराध है। 

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अलबर्ट एक्का भवन में काॅफी हाउस बने

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पटना के निकट गंगा नदी पर निर्मित गांधी सेतु का 

शुभारम्भ 1982 में हुआ था।

अब उसका फिर से निर्माण हो रहा है।

पटना के अदालतगंज के विशाल परिसर में स्थित अलबर्ट एक्का भवन का 1984 में उद्घाटन हुआ था।

पर, इतने ही साल में वह जर्जर हो गया। 

वहां फिर से नए व भव्य भवन का निर्माण होने जा रहा है।

कोइलवर में सोन नद पर अंग्रेजों ने किस साल पुल बनवाया था ?

फिर भी अब भी उस पर आवागमन जारी है।

जब नवीन अलबर्ट एक्का भवन बने तो उसमें ‘काॅफी हाउस’ 

भी खुलना  चाहिए।

पटना में उसका अभाव खटकता है।

शासन को चाहिए कि उसके लिए उस भवन में स्थान उपलब्ध होना चाहिए।

कभी काॅफी बोर्ड द्वारा संचालित पटना स्थित काॅफी हाउस के बंद हो जाने के बाद यहां उसकी कमी महसूस की जाती रही है।  

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और अंत में

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बिहार के मुख्य मंत्री डा.श्रीकृष्ण सिंह और उप मुख्य मंत्री डा. अनुग्रह नारायण सिंह अपने चुनावी टिकट के लिए कभी कोई आवदेन पत्र नहीं देते थे।

बल्कि कांग्रेस पार्टी उन्हें टिकट आॅफर करती थी।

नामांकन पत्र दाखिल करने के बाद डा.श्रीकृष्ण सिंह यानी  श्रीबाबू कभी अपने क्षेत्र में चुनाव प्रचार करने नहीं जाते थे।

  हां, श्रीबाबू ने 1957 में अपना चुनाव क्षेत्र जरुर बदला।

किंतु अनुग्रह बाबू यानी ‘बाबू साहब’ लगातार एक ही चुनाव क्षेत्र से लड़े।

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कानोंकान ,प्रभात खबर 25 सितंबर 20 


 हंगामा सभाओं में बदलते विधान मंडल

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यह कौन सा न्याय है कि सदन के भीतर दुव्र्यवहार को लेकर तो कोई जेल न जाए,

किंतु बाहर यही काम करने पर कोई न बचे।

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       --सुरेंद्र किशोर--

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  पिछले दिनों संसद के उच्च सदन यानी राज्य सभा  में  अभूतपूर्व ,अशोभनीय और शर्मनाक दृश्य देखे गए।

ये दृश्य पूरे देश ने अपने टी.वी.सेट पर देखे।

विवेकशील लोग शर्मसार हुए।

 बाकी का नहीं पता !

  इन दृश्यों से यह साफ है कि लोकतंत्र के मंदिरों में अनुशासन और शालीनता लाने के अब तक के सारे प्रयास विफल ही साबित हुए हैं।

   इसलिए  देश की राजनीति की बेहतरी  और लोक जीवन को गरिमापूर्ण बनाने के कुछ खास उपाय करने पर नए सिरे से विचार करना पड़ेगा।

  राज्य सभा के उप सभापति हरिवंश के साथ उस दिन सदन में जो कुछ अकल्पनीय हुआ,वह कोई पहली घटना नहीं थी।

यदि कुछ ठोस उपाय नहीं होंगे तो वह आखिरी घटना भी नहीं होगी।

 किसी पीठासीन अधिकारी के साथ ऐसा अपमानजनक व्यवहार इससे पहले कभी नहीं हुआ ।

  यह इस देश की राजनीति के गिरते स्तर का द्योतक है जिसे जारी रहने की और छूट अब यह लोकतंत्र बर्दाश्त नहीं कर  सकता।

हल्की सजाओं के साथ  यदि इसी तरह छूट मिलती रहेगी तो इसे कुछ दिनों बाद लोकतंत्र नहीं कहा जा सकेगा, चाहे इसे  जो भी अन्य नाम दिया जाए।

   लोक सभा में हुई एक ऐसी ही शर्मनाक घटना को लेकर सन 1997 में संसद के दोनों सदनों ने करीब एक सप्ताह तक गंभीर व भावपूर्ण चर्चा की थी।

  तब लोक सभा के भीतर ही दो बाहुबली सांसदों ने आपस में मारपीट कर ली थी।

  उस चर्चा में सदस्यों ने  ‘‘लोक जीवन में भ्रष्टाचार के विकराल रूप और सामाजिक जीवन में बढ़ती असहिष्णुता को देश के लिए गंभीर खतरा बताते हुए इन प्रवृतियों पर तत्काल अंकुश लगाने पर बल दिया था।’’

  तब सार्वजनिक जीवन को आदर्श बनाने के संकल्प से संबंधित सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव भी पारित किया था।

उसमें भ्रष्टाचार को समाप्त करने,राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने के साथ चुनाव सुधार करने ,जनसंख्या वृद्धि ,निरक्षरता  और बेरोजगारी को दूर करने के लिए जोरदार राष्ट्रीय अभियान चलाने का संकल्प लिया गया था।

   उस विशेष चर्चा के दौरान विभिन्न दलों के वक्ताओं ने 

देशहित में भावपूर्ण भाषण दिया था,पर उसके बाद के वर्षों में 

इस संकल्प के संदर्भ में क्या -क्या काम हुए,इसका पता नहीं चला।

हां,संसद सहित देश के विभिन्न विधान मंडलों में चर्चा का स्तर जरूर गिरता चला गया।

संसदीय गरिमा में भी गिरावट आती गई।

लोकतंत्र की ये सभाएं हंगामा सभाओं में बदलती चली गईं।

अपवादों की बात और है।

 25 नवंबर, 2001 को संसद तथा राज्यों  के विधान मंडलों में अनुशासन और शालीनता विषय पर पीठासीन अधिकरियों ,मुख्य मंत्रियों ,संसदीय कार्य मंत्रियों ,विभिन्न दलों के  नेताओं और सचेतकों ने अपने अखिल भारतीय सम्मेलन में एक संकल्प स्वीकृत किया था।

   उसमें यह कहा गया था कि सदन में अनुचित आचरण जैसे नारेबाजी करना,इश्तिहार दिखाना ,पत्रों को फाड़ना और फेंकना,अनुचित और अभद्र मुद्राओं का प्रदर्शन करना,अध्यक्ष के आसन के समीप जाना,प्रदर्शन करना,धरने पर बैठना, कार्यवाही में बाधा डालना और अन्य सदस्यों को बोलने न देना,व्यवस्था बनाए रखने के लिए अध्यक्ष पीठ के निदेशों पर ध्यान न देना ,पीठासीन अधिकारियों के निर्णय पर प्रश्न चिन्ह लगाना आदि संसद और विधान सभाओं के समुचित कार्यकरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

 उस सम्मेलन में शामिल सभी लोगों ने एक स्वर से कहा था कि हम राजनीतिक दलों से आग्रह करते हैं कि वे अनुशासनहीन आचरण करने से अपने सदस्यों को रोककर विधान मंडलों में शालीनता बनाए रखने में सकारात्मक भूमिका निभाने के लिए आगे आएं।

  

यह याद रहे कि विधायिका के सदस्यों के लिए आचार संहिता है,जिसके अतिक्रमण के मामलों के लिए विभिन्न तरह की सजाओं के भी प्रबंध किए गए हैं।

 यदाकदा सजाएं दी भी जाती हैं ।

किंतु पिछले अनुभव बताते हैं कि 

उन सजाओं का सबक सिखाने लायक असर नहीं हो रहा है।

 इसके अलावा भी कई अन्य अवसरों पर संबंधित सम्मेलनों में 

सदन की गरिमा बनाए रखने की जरूरत बताई जाती रही है।

पर, राज्य सभा की ताजा घटना से यह लगता है कि कुछ  अनुशासनहीन सदस्यों के लिए ऐसे संकल्पों का कोई मतलब नहीं रह गया है।

क्या कभी यह सोचा गया है कि जब कभी स्कूली छात्रों का दल विधायिका की बैठक देखने जाता है तो उसकी कैसी

प्रतिक्रिया होती है ?

सच तो यह है कि हमारे लोकतंत्र के मंदिरों के बारे में उनकी  अच्छी प्रतिक्रिया नहीं होती।

एक बार तो एक छात्र ने कहा था कि 

इनसे अधिक अनुशासित तो हम छात्र अपने क्लास रूम में रहते हैं।

 हाल की  एक खबर के अनुसार राज्य सभा के प्रश्न काल का  60 प्रतिशत समय तो प्रतिपक्ष  के हंगामे में ही डूब जाता है।

 यह इस तथ्य के बावजूद होता है कि प्रश्न काल

सरकार को घेरने का सबसे अच्छा अवसर होता है।

इसी से आप अधिकतर सदस्यों की अपने मूल काम के प्रति गंभीरता का अंदाजा लगा सकते हैंे।

  कुल मिलाकर स्थिति यह है कि  पुराने उपायों से लोकतंत्र के मंदिरों की गरिमा वापस लौटने वाली नहीं है।

इसके लिए विशेष उपाय करने होंगे।

एक उपाय तो यह हो सकता है कि अपनी सीट छोड़ कर अकारण हंगामा करने के लिए सदन के ‘वेल’ में आने वाले सदस्यों की सदस्यता तत्काल प्रभाव से समाप्त हो जानी चाहिए।

  ऐसे कई अन्य कठोर उपाय भी होने चाहिए।

यह कौन सा न्याय है कि सदन के भीतर की मारपीट,गाली -गलौज को लेकर तो कोई जेल न जाए,किंतु सदन के बाहर यही काम करने पर कोई न बचे ।

  याद रहे कि कभी उत्तर प्रदेश विधान सभा में सदस्यों ने माइक के रड से एक दूसरे का  खून बहाया था। 

      कुछ अन्य विधान सभाओं में भी सदस्यों के बीच मारपीट और तोड़फोड़ हो चुकी है।

वर्ष 2015 में केरल विधान सभा में इसी तरह की घटना को लेकर छह विधायकों के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई गई थी।

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दैनिक जागरण 28 सितंबर 20


गुरुवार, 24 सितंबर 2020

 जो लोग सी.ए.ए.,

एन.पी.आर. 

और एन.आर.सी. का 

प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से 

विरोध कर रहे हैं, वे लोग भारत के खिलाफ

 अघोषित युद्ध लड़ रहे हैं।

मेरी यह बात अभी कई लोगों को बेसिरपैर की और कुछ लोगों को अतिशयोक्ति लग सकती है।

जिन्हें लगेगी,उनमें से कुछ तो अनजान हैं तो कुछ अन्य .....

अभी मैं उन्हें कोई नाम नहीं दूंगा।

दस-पांच साल बाद आप ही उन्हें कुछ नाम देने को बाध्य हो जाएंगे।

अभी आप भी नाम मत दीजिए।

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--सुरेंद्र किशोर 

20 सितंबर 20

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इस बीच दिल्ली दंगे से संबंधित आरोप पत्र अदालत में दाखिल कर दिया गया।

आरोप पत्र से भी जेहादी दंगाइयों के मंसूबे का पता चला है।

उससे भी मेरी ऊपर की आशंका की ही पुष्टि होती है।

यानी, देश भारी खतरे में है। 


    स्कूली जीवन का एक संस्मरण 

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यह बात तब की है,जब मैं हाई स्कूल में था।

नौंवी और दसवीं कक्षा में मेरा स्थान दूसरा रहता था।

फस्र्ट आने वाले का नाम था मुहम्मद ईसा।

ग्यारहवीं के लिए मैं किसी अन्य स्कूल में चला गया था। 

मैं ईसा का इस मामले में आज भी शुक्रगुजार हूं कि उसकी बहुत ही अच्छी लिखावट को देख -देख कर मैंने अपनी लिखावट सुधारी थी।

  अच्छी लिखावट का मुझे बाद के जीवन में बड़ा लाभ मिला।

याद रहे कि मैंने जीवन में कभी किसी सरकारी सेवा के लिए आवेदन तक नहीं दिया।

मुझे सार्वजनिक जीवन में जाने की

शुरू से इच्छा थी।

गया भी।

पर वहां से निराश होकर पत्रकारिता में चला आया।

पत्रकारिता भी एक अर्ध -सार्वजनिक जीवन ही है।

 स्कूल में फस्र्ट-सेकेंड करने के कारण मैं ईसा के पास ही  बैठता था।

पर, बात इतनी ही नहीं है।

एक बार तिवारी जी नामक शिक्षक ने मुझे बताया कि दरअसल तुमको ही फस्र्ट करना चाहिए।

किंतु उर्दू और फारसी में ईसा को करीब नब्बे -नब्बे प्रतिशत अंक मिल जाते हैं।

  दूसरी ओर संस्कृत शिक्षक मुझे सौ में सिर्फ 35 प्रतिशत अंक ही देते थे।

हिन्दी में भी बहुत अधिक अंक आने का सवाल ही नहीं था जो 90-90 प्रतिशत की ‘क्षतिपूत्र्ति’ कर सके।

   वैसे बिहार माध्यमिक विद्यालय परीक्षा बोर्ड की परीक्षा में संस्कृत में मुझे सौ में 84 अंक मिले थे।

  मेरे साथ सहानुभूति रखने वाले शिक्षक तिवारी जी ही यह जानते थे कि ईसा को कितने अंक मिलते थे।

उन्होंने संस्कृत शिक्षक से कहा भी था कि आप कम अंक क्यों देते हैं ?

उसके जवाब में पंडित जी ने कहा कि ज्यादा दूंगा तो छात्र पढ़ने में आलसी हो जाएगा और बोर्ड परीक्षा में अच्छा नहीं कर पाएगा।

  वैसे मेरे लिए तब इसका कोई खास महत्व नहीं था कि मैं फस्र्ट क्यों नहीं करता।

उस जमाने में एक नामी स्कूल में कक्षा में सेकेंड करना भी बड़ी बात थी।उसी से मैं संतुष्ट था।

  ईसा को इतने अधिक अंक मिल जाते थे,उसमें खुद ईसा का भला क्या कसूर ?

हां,उस उर्दू शिक्षक से जरूर पूछा जाना चाहिए था कि किस आधार पर भाषा में आप इतने अधिक अंक देते हैं ?

   ईसा पढ़ -लिखकर प्राइमरी स्कूल में शिक्षक बना।

जाहिर है कि बोर्ड परीक्षा में उसे अच्छे अंक नहीं आए होंगे।

मैं नहीं जानता कि बोर्ड परीक्षा उसने कितने अंकों के साथ पास किया।

  यदि मेरी तरह उसने फस्र्ट डिवीजन से पास किया होता तो उसे बेहतर नौकरी मिल सकती थी।

1963 में फस्र्ट डिविजनर बहुत कम होते थे।

उस स्कूल में उस साल सिर्फ चार विद्याथियों को ही फस्र्ट डिविजन मिला था।

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सुरेंद्र किशोर--19 सितंबर 20


 बिहार के डी.जी.पी.का प्रभार संभालने के बाद 

एस.के.सिंघल ने कहा कि 

‘‘पुलिस में अधिकतर मामलों में 

सिपाही,दारोगा और इंस्पेक्टर पर ही जिम्मेदारी तय होती थी।

पर, अब ऐसा नहीं होगा।

राजपत्रित पुलिस अधिकारियांे यानी एस.पी.,डी.एस.पी.और उससे ऊपर के अफसरों को भी अब जिम्मेदारी लेनी होगी।’’

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एक जानकार ने बताया कि सिंघल साहब ने पुलिस के मर्ज 

को पहचान लिया है।

यदि उनकी उपर्युक्त इच्छा पूरी हुई तो बहुत फर्क आएगा।

हालांकि पूरी होने की राह में बहुत सी बाधाएं हैं।

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--सुरेंद्र किशोर-24 सितंबर 20



मंगलवार, 22 सितंबर 2020

   सोशल मीडिया का दुरुपयोग करने वालों 

   के खिलाफ सख्त कार्रवाई करें 

गाली-गलौज बिलकुल बर्दाश्त न करें

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     --सुरेंद्र किशोर--

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बिहार में चुनाव के करीब आने के साथ ही सोशल मीडिया 

पर गाली-गलौज की रफ्तार बढ़ गई है।

समय के साथ और भी बढ़ेगी।

इसका समाज पर बुरा असर पड़ेगा।

तनाव बढ़ेगा।

इसलिए शरीफ -शालीन लोगांे को इस गाली- गलौज की क्राॅस फायरिंग से अलग ही रहना चाहिए।

क्योंकि सोशल मीडिया पर जिस तरह की गाली -गलौज होगी,उसका अनुकरण सरजमीन पर यानी गली-कूचे , हाट -बाजार में भी किया जाएगा।

    इसलिए गाली -गलौज व अशिष्ट-अशालीन शब्दावली का इस्तेमाल करने वालों को अनफं्रेड करें।

कम से कम डिलीट तो तत्काल ही कर दें।

  यदि कोई सीमा से बाहर जा रहा हो तो उसके खिलाफ पुलिस में शिकायत करें।

   जो सोशल मीडिया को कचरा बनाने के जिम्मेदार होंगे, उन्हें अगली पीढ़ियां माफ नहीं करेगी।

   मुझे आश्चर्य होता है कि कुछ नेता व अन्य लोग गाली-गलौज बर्दाश्त कर रहे हैं।

  दरअसल इस तरह अनजाने में  वे शालीन-शिष्ट समाज के विरोधी लोगों को बढ़ावा देने के दोषी माने जाएंगे।

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सोशल मीडिया उनके लिए बहुत बड़ा हथियार है जिन्हें मुख्य मीडिया में जगह नहीं मिलती या कम मिलती है।

इस हथियार का सदुपयोग करिएगा तो यह बचा रहेगा।

नहीं कीजिएगा तो एक बड़ा साधन एक न एक दिन आपके हाथों से छिन जाएगा।

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 --14 सितंबर 20


 बिना माओवादी बने एक 

‘योगी’ ने कर दिया कमाल !

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कारोबारी सुगमता की दृष्टि से देश में उत्तर प्रदेश

का स्थान अब दूसरा हो गया है।

2017-18 में वह प्रदेश 12 वें स्थान पर था।

तमिलनाडु का पहली और बिहार का 26 वां स्थान है।

 आखिर उत्तर प्रदेश में  यह फर्क आया कैसे ?

इस बीच क्या चमत्कार हो गया ?

एक ही बात ध्यान में आती है।

इस बीच उत्तर प्रदेश पुलिस और खूंखार अपराधियों के बीच अनगनित मुंठभेड़ें हुईं।

संभव है कि इनमें से कुछ मुंठभेड़ें फर्जी रही होंगी।

पर,यदि ऐसी मुंठभेड़ें ही  किसी राज्य को उद्यमियों के लिए सुगम स्थान बनाती हैं तो फिर कानून के शासन 

का क्या होगा ?

इस पर सबको विचार करना है।

  क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को कौन ठीक करेगा ?

क्या उसके लिए किसी तानाशाह को आना पड़ेगा ?

यहां तो टेनें भीए समय पर तभी चलती हैं जब आपातकाल  (1975-77) होता है।

याद रहे कि उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से आज के अखबार में जारी विज्ञापन में कहा गया है कि 

‘‘ईज आॅफ डूइंग बिजनेस में ऊंची छलांग का एक कारण प्रदेश में बेहतर कानून व्यवस्था भी रही है।’’

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कुछ साल पहले मैं रांची में था।

देश के एक बड़े औद्योगिक समूह के एक प्रबंधक से संयोग से मुलाकात हो गई।

मैंने पूछा,‘‘कैसा कारोबार चल रहा है ?’’

उन्होंने कहा, ‘‘अब ठीक चल रहा है।

पहले हर माह रिश्वत व रंगदारी के मद में कुल 27 लिफाफे बनाने पड़ते थे।

अब एक ही लिफाफे से काम चल जा रहा है।

अपमान भी नहीं झेलना पड़ता है।

हमारे यहां आने वाले सरकारी महकमे के लोगांे के अलावा राजनीतिक दल व अपराधियों -रंगदारों की संख्या 27 थी।

अब सिर्फ माओवादियों को एक लिफाफा दे देता हूं।

माओवादी उन 27 से निपट लेते हैं।

   माओवादियों के डर से अब अन्य कोई लिफाफे के लिए नहीं आता।

पहले वे आकर हम पर रंगदारी भी झाड़ते थे।

हमें अपमानित भी करते थे और पैसे भी ले जाते थे।

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कुछ समय पहले बिहार के एक उद्यमी ने कहा कि 

अब इस राज्य में ‘जंगल राज’ तो नहीं है,

किंतु कानून -व्यवस्था में थोड़ा और सुधार की जरूरत है।

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--सुरेंद्र किशोर -19 सितंबर 20


    लाख दुखों की एक दवा,

    मिट्टी, पानी, धूप, हवा !

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   --सुरेंद्र किशोर--

भागलपुर स्थित तपोवर्धन प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र के 

डा.जेता सिंह कल मेरे कोरजी गांव स्थित आवास पर आये।

उनके साथ डिजिटल पोर्टल ‘न्यूजहाट’ के स्थानीय प्रबंध संपादक कन्हैया भेलाड़ी भी थे।

 चूंकि प्राकृतिक चिकित्सा में छात्र -जीवन से ही मेरी रूचि रही है।

इसलिए मैं डा.जेता सिंह व उनके चिकित्सा केंद्र या इस तरह के अन्य प्राकृतिक चिकित्सा केंद्रों के कामों व उपलब्धियों को सराहना की दृष्टि से देखता रहा हूं।

  साठ-सत्तर  के दशकों में गोरखपुर स्थित आरोग्य मंदिर से प्रकाशित पत्रिका ‘आरोग्य’ नियमित रूप से मैं पढ़ता था।

‘‘लाख दुःखों की एक दवा,मिट्टी, पानी, धूप हवा !’’

तभी मैंने सीखा था।

आरोग्य मंदिर के संचालक बिट्ठलदास मोदी का इस क्षेत्र में बड़ा नाम था।अब वे नहीं रहे।

 वहां अब पहले जैसी बात नहीं है।

सिनियर बिट्ठल जी के पुत्र एलोपैथिक चिकित्सा क्षेत्र चले गये। 

  खैर, हिन्दी क्षेत्र के लिए अच्छी बात है कि तपोवर्धन चिकित्सा केंद्र वर्षों से सेवारत है।

 हाल में उसके विस्तार का काम भी शुरू हुआ है।

वहां कुछ अनोखी योजनाएं भी हैं-जैसे मिट्टी के घर।

याद रहे कि मिट्टी के घरों में रहने वालों के पास रोग कम ही फटकते हैं।

  विशेषज्ञ लोग बताते हैं कि ईंट-सीमेंट वालों पर अपेक्षाकृत खतरा अधिक रहता है।

सर्वाधिक खतरे में वे हैं जिन्होंने दीवालों पर पुट्टी लगवा रखी है।

 इस बात का सर्वे होना चाहिए कि मिट्टी के घरों में रहने वालों को कोरोना ने अपेक्षाकृत कम परेशान 

किया या नहीं !

  डा. जेता सिंह की बातों से लगा कि भागल पुर का यह चिकित्सा केंद्र प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में नए आयाम प्रदान करेगा।

मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने इस चिकित्सा केंद्र के विकास में रूचि ली है।

वह चाहते हैं कि बिहार से बाहर लोग भी इस चिकित्सा केंद्र से अधिकाधिक संख्या में लाभान्वित हों।

लंबी बातचीत से मुझे लगा कि डा.जेता सिंह मुख्य मंत्री की आकांक्षा को पूरा करने के लिए प्रयत्नशील हैं।


शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

    मीडिया ट्रायल तब और अब !

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जो लोग वर्षों तक नरेंद्र मोदी और अमित शाह का ‘‘मीडिया

ट्रायल’’ करते रहे,उन्हीें लोगों को आज इस बात पर सख्त एतराज है कि रिया चक्रवर्ती और फिल्मी दुनिया के नशेड़ियों-गंजेड़ियों का मीडिया ट्रायल क्यों हो रहा है ?

अरे भई, कोई नहीं कह रहा है कि फिल्मी दुनिया के सारे लोग नशा करते हैं।

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दरअसल इस देश के किसी नेता पर जब भ्रष्टाचार -अपराध के सिलसिले में मुकदमा दायर होता है, वह गिरफ्तार होता है,उसे सजा होती है तो वह कहता है कि हमारी जाति का अपमान हो रहा है।

  उसी तरह फिल्मी दुनिया के किन्हीं खास लोगों पर जब नशेड़ी होने का आरोप लगता है तो उस दुनिया के कुछ लोग उस आरोप को पूरी फिल्मी दुनिया पर फैला देते हैं।

उन्होंने संभवतः यह सब नेताओं से सीखा है।

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--सुरेंद्र किशोर-16 सितंबर 20


 क्या मुम्बई में ड्रग्स की बिक्री से आए पैसे 

आतंकियों के पास भी जाते रहे हैं ? !!

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1993 में केंद्र सरकार को समर्पित एन.एन. वोहरा 

समिति की रपट का एक अंश निम्न प्रकार है--

‘‘...........बम्बई सिटी पुलिस तथा बम्बई के अपराध जगत के बीच सांठ-गांठ के बारे में सी.बी.आई. ने सन 1986 में एक रिपोर्ट तैयार की थी।

    सी.बी.आई. द्वारा नए सिरे से अध्ययन कराया जाना उपयोगी होगा ।

क्योंकि इसके आधार पर उपयुक्त प्रशासनिक /कानूनी उपाय किये जा सकते हैं।

  एक संगठित अपराधी सिंडिकेट /माफिया आम तौर पर

स्थानीय स्तर पर छोटे -छोटे अपराध करके अपनी गतिविधियां शुरू करता है ।

    बड़े शहरों में यह अपराध मुख्यतः अवैध रूप से शराब बनाने/जुआ खेलने ,संगठित रूप से सट्टा चलाने तथा वेश्यावृति से संबंधित होते हैं।

    जिन शहरों में बंदरगाह हैं,वे वहां पहले तस्करी करते हैं और आयायित सामनों को बेचते हैं।

  बाद में धीरे -धीरे मादक पदार्थों और नशीली दवाओं के व्यापार में संलिप्त हो जाते हैं।

  बड़े शहरों में इन तत्वों की आय का प्रमुख साधन भू -सम्पदा  आदि है जब ये भूमि/भवनों पर कब्जा कर लेते हैं।

ऐसी सम्पतियों के वत्र्तमान स्वामियों /किराएदारों इत्यादि को जबरन हटाकर वे इन सम्पतियों को सस्ते दर पर प्राप्त कर लेते हैं।

     इस प्रकार अर्जित धन शक्ति का इस्तेमाल नौकरशाहों तथा राजनेताओं के साथ संपर्क बनाने के लिए किया जाता है

ताकि बेरोकटोक अपनी गतिविधियां चालू रख सकें।

   इस धन शक्ति का इस्तेमाल लठैतों का नेटवर्क विकसित करने के लिए किया जाता है जिसका इस्तेमाल राजनीतिज्ञों द्वारा भी चुनावों के दौरान किया जाता है।

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अब आप 6 सितंबर, 2020 के दैनिक ‘आज’ की एक खबर का एक छोटा अंश पढिए।

‘‘--रिया चक्रवर्ती के व्हाॅट्सएप चैट से इस बात का खुलासा होता है कि उन्होंने वर्जित उत्पाद को खरीदा है,बेचा ह,ै इस्तेमाल किया है जो नार्कोटिक ड्रग्स और साइकोट्रापिक सब्सटेंसेज एक्ट, 1985 के दायरे में आता है।’’

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अब इसमें दो सवाल हैं

1.-इस बीच तथाकथित स्टाॅकलैंड यार्ड नामधारी (महाराष्ट्र के सत्ताधारियों द्वारा दी गई उपाधि के अनुसार) मुम्बई पुलिस क्या करती रही ? !!

2.-यदि मंहगे ड्रग्स की खरीद-बिक्री जारी रही तो क्या उससे प्राप्त पैसों में से कुछ इस देश में सक्रिय जेहादी आतंकवादियों के पास भी जा रहे थे ?  

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सुरेंद्र किशोर--6 सितंबर 20


मंगलवार, 15 सितंबर 2020

 ‘‘ बंबई सिटी पुलिस और बंबई के अपराध जगत के बीच साठगांठ के बारे में सी.बी.आई.ने 1986 में एक रिपोर्ट तैयार की थी।

सी.बी.आई.द्वारा नए सिरे से अध्ययन कराया जाना उपयोगी होगा। ’’

 -- 1993 में केंद्र सरकार को समर्पित एन.एन.वोहरा समिति की रपट से उधृत।

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जाहिर है कि 1986 के बाद नए सिरे से अध्ययन नहीं कराया गया।कारण अधिकतर लोगों को मालूम है। 

नतीजतन 1993 के बाद इस मामले में स्थिति और बिगड़ी है।

  नारकोटिक कंट्रोल ब्यूरो की मुम्बई आदि में ताजा छापेमारियों से यह बात साबित हो रही है कि ड्रग्स के मामले में स्थिति बिगड़ती जा रही है।

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--सुरेंद्र किशोर-15 सितंबर 20


सोमवार, 14 सितंबर 2020

 जब जनता साथ है तो मीडिया 

को भ्रष्ट नेताओं की चिंता क्यों ?

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कई साल पहले की बात है।

एक संपादक चिंतित थे।

उन्होंने मुझसे कहा कि 

हमारे अखबार की छवि सरकार समर्थक बन गई है।

यदि अगले चुनाव में यह सरकार हार गई तो हमारा 

प्रबंधन मुझ पर नाराज होगा।

क्योंकि अगली सरकार हमें परेशान करेगी।

मैंने उनसे एक सवाल किया।

‘‘आपके अखबार का प्रसार बढ़ रहा है या घट रहा है ?’’

उन्होंने कहा कि वह तो बहुत बढ़ रहा है।

मैंने कहा कि फिर आप चिंतित न होइए।

आप जनता के साथ हैं।

अगली बार भी यही सरकार सत्ता में आएगी।

वही हुआ भी।

कभी ‘इनाडु’ के साथ भी यही हुआ था।

जब वह अखबार कांग्रेस के खिलाफ अभियानरत ‘‘तेलुगु विड्डा’’ एन.टी.रामाराव का समर्थन कर रहा था और उसका सर्कुलेशन भी तेजी से बढ़ता जा रहा था।

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अब सवाल है कि ‘रिपब्लिक’ चैनल का टी.आर.पी.हाल के हफ्तों में महाराष्ट्र में कितना बढ़ा है ?

इस सवाल के जवाब के साथ शिवसेना का भावी चुनावी उत्थान या पतन जुड़ा हुआ है।

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--  सुरेंद्र किशोर -- 12 सिंतबर 20  


    परदा थोड़ा और उठने तो दो !

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सुशांत सिंह राजपूत और कंगना राणावत के मामले 

को गहराई से समझने की जरूरत है।

  जांच के दौरान जैसी -जैसी गंभीर सूचनाएं अब आ रही हैं,उनसे इस जरूरत को बल मिल रहा है।

गंम्भीर बात यह भी है कि इससे ठीक पहले मुम्बई पुलिस क्यों इन सूचनाओं को दबा रही थी ?

  जाहिर है कि राजनीतिक कार्यपालिका के दबाव के बिना किसी राज्य की पुलिस ऐसी हरकत नहीं कर सकती ।

यानी, इस आरोप में दम लगता है कि अनेक समर्थवान नेताओं का समर्थन देश विरोधी तत्वों को हासिल रहा है।

किसी बंदरगाह वाले महा नगर की ऐसी स्थिति हो तो पूरे देश की  सुरक्षा के लिए यह बहुत ही खतरनाक स्थिति है।

 सुशांत की मौत या हत्या सिर्फ एक व्यक्ति की हत्या का मामला नहीं है।

यह मुम्बई की लगभग पूरी फिल्मी दुनिया के ड्रग्स में डूबे रहने का मामला है।

यह बात और है कि अब भी फिल्मी दुनिया के कुछ लोग ड्रग्स नहीं लेते।पर वह तो अपवाद है।

यह मामला भी है कि किस तरह फिल्म जगत का बड़ा हिस्सा पड़ोस के देश में बैठे माफिया के कब्जे में है।

सवाल यह भी है क्या ड्रग्स के अंतरराष्ट्रीय व्यापार के पैसों में से काफी पैसे इस देश में आतंकियों को ताकत पहुंचाने में तो नहीं लग रहे हैं ?

क्या यह संयोग है कि कुछ वैसे राजनीतिक दल आज रिया चक्रवर्ती के पक्ष में खड़े हो गए हैं जो जे.एन.यू.में ‘‘भारत तेरे

टुकड़े होंगे’’ का नारा लगाने वालों के साथ भी जाकर खड़े हो गए थे ?खुदा करे कि यह संयोग ही हो। 

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मुम्बई में संभवतः पहली बार ईमानदारी से केंद्रीय एजेंसियों द्वारा जांच चल रही है।

इस बीच यदि साथ-साथ मीडिया का दबाव व खोजबीन जारी रहेगा तो केंद्रीय एजेंसियां इस देश विरोधी धंधे में लगी ताकतों  को उनके असली मुकाम तक सफलतापूर्वक पहुंचा पाएंगी। 

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पर कुछ लोग चाहते हैं कि मीडिया अपना ध्यान मुम्बई से हटा कर दूसरी ओर लगाए।

इस सलाह के पीछे क्या उनका भी कोई निहित स्वार्थ है ?

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----सुरेंद्र किशोर--12 सितंबर 20


 डा.राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि जो 

लोग राजनीतिक जीवन में जाना चाहते हैं,उन्हें

 अपना परिवार नहीं बसाना चाहिए।

   दरअसल उन्होंने कतिपय बड़े नेताओं पर उनकी संतान व परिजन का उत्तराधिकारी बना देने के लिए भारी दबाव तभी देखा था।

आज तो इस देश की राजनीति में महामारी की तरह परिवारवाद-वंशवाद की बीमारी फैल चुकी है।

  संभवतः इसका अनुमान डा.लोहिया को पहले से ही रहा होगा।

 खुद डा.लोहिया ने अपना परिवार नहीं बसाया।

क्या इस कारण कि ऐसा करने पर बुढ़ापे में उन्हें भी अपनी संतान से दबाव पड़ने की आशंका हो गई थी ?

पता नहीं। 

---सुरेंद्र किशोर--11 सितंबर 20


 बहुत साल पहले की बात है।

तब के बिहार के मुख्य मंत्री को एक सांसद अपने 

चुनाव क्षेत्र में ले गए।

मुख्य मंत्री जिस जाति के थे,उन्हीं की जाति की 

बहुलता वाले एक बड़े गांव में सभा रखी गई थी।

  सांसद महोदय दूसरी जाति के थे।

स्वागत भाषण करते हुए सांसद ने कहा कि मुख्य मंत्री जी आए हैं।

ये  आपके गांव में हाईस्कूल की स्थापना की घोषणा आज जरूर कर देंगे।

  बाद में मुख्य मंत्री ने भाषण किया।

किंतु हाई स्कूल की उन्होंने कोई चर्चा तक नहीं की।

सभा समाप्ति के बाद दोनांे एक ही कार में लौटने लगे।

मुख्य मंत्री ने सांसद से कहा कि आपने हाई स्कूल की चर्चा क्यों कर दी ?

  यदि यहां हाई स्कूल खुल जाएगा और ये सब पढ़-लिख जाएंगे तो क्या ये हमें ही वोट देंगे ?

  यह बात उस सांसद ने मुझे व्यक्तिगत बातचीत में कभी बताई थी।

  अब आप मत पूछिएगा कि यह पुरानी बात आज प्रासंगिक कैसे है ?

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--सुरेंद्र किशोर-13 सितंबर 20   


 कभी पश्चिम बंगाल की कांग्रेस डा.विधानचंद्र राय,सिद्धार्थ शंकर राय और प्रणव मुखर्जी पर गर्व करती थी।

  किंतु अब अधीर रंजन चैधरी ने वह स्थान रिया चक्रवर्ती को दे दिया !!

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--सुरेंद्र किशोर-14 सितंबर 20 


शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

 संदर्भ-सुशांत सिंह राजपूत की 

गलत पोस्टमार्टम रपट

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  सन 1983 में पटना में चर्चित बाॅबी हत्याकांड हुआ था।

श्वेतनिशा त्रिवेदी उर्फ बाॅबी बिहार विधान परिषद की सभापति राजेश्वरी सरोज दास की दत्तक पुत्री थी।

   बाॅबी की मृत्यु के कारण पर दो डाक्टरों ने परस्पर विरोधी सर्टिफिकेट दे दिए थे।

एक ने लिखा कि आंतरिक रक्तस्त्राव से मरी।

दूसरे डाक्टर ने लिखा कि सहसा हृदय गति रुक जाने के कारण मरी।

  जब पटना पुलिस ने बाॅबी की लाश कब्र से निकाल कर पोस्टमार्टम और वेसरा जांच करवाई तो तीसरा ही कारण सामने आया।

उसे मेलेथियन जहर देकर मारा गया था।

तीसरे डाॅक्टर ने कहा था कि मुझे पता था कि जहर दिया गया था,पर मैंने उसे छिपाया।

इनमेंसे दो डाक्टरों ने बाद में यह स्वीकार किया था कि उन्होंने नेताओं के कहने पर मौत का गलत कारण लिखा। 

  बाॅबी मामले में केंद्र सरकार के उच्चत्तम स्तर से सी.बी.आई.पर दबाव पड़ा कि बाॅबी हत्याकांड को रफादफा कर दो।

अन्यथा, लोकतंत्र के अनेक संचालक कलंकित हो जाएंगे।

कई का राजनीतिक कैरियर बर्बाद हो जाएगा।

फिर क्या था !

सी.बी.आई.ने उन तीनों डाक्टरों को गवाह बना दिया।

यदि उन डाक्टरों को तब आरोपी बनाया गया होता  तो मुम्बई के उन पांच डाक्टरों को यह हिम्मत नहीं होती कि सुशांत का गलत पोस्टमार्टम रिपोर्ट तैयार करता। 

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--सुरेंद्र किशोर--8 सितंबर 20




 कांग्रेस को बिहार विधान सभा में जब -जब बहुमत मिला,उसने सवर्ण को ही मुख्य मंत्री बनाया।

 किसी ने इस पर कभी कोई सवाल खड़ा नहीं किया।

   पर, कुछ लोग आज यह सवाल जरूर कर रहे हैं कि पिछले तीस साल से मुख्य मंत्री के पद पर गैर सवर्ण ही क्यों बैठे हैं ?


    ‘कृतघ्न’ कांग्रेसी अब सोनिया को यह उपदेश दे रहे हैं कि

वह परिवार के मोह से ऊपर उठें।

अरे लेटर बम वालो,कांग्रेस परिवारवाद से कब ऊपर थी ?!!

जब कांग्रेस सत्ता में थी,तब तो आपने ऐसी कोई चिट्ठी नहीं लिखी थी ?

क्यों ?

कारण लोग समझ रहे हैं।

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कांग्रेस सुप्रीमो पर लेटर फोड़ने वाले खुद को धोखा दे रहे हैं या जनता को ?कुछ लोग तो उन्हें कृतघ्न भी कह रहे हैं।

अब वे सांनिया गांधी को उपदेश दे रहे हैं कि आप परिवार के मोह से ऊपर उठिए।

   क्या ये लोग नहीं जानते कि सन 1928-29 से लेकर आज तक नेहरू-इंदिरा  परिवार कभी परिवारवाद के मोह से ऊपर नहीं उठ पाया ?

इसके बावजूद लेटर बम फेंकने वाले तीसमार खान लोग व उनके ‘पूर्ववर्ती तब कहां थे जब कांग्रेस सत्ता में थी ?

  मनमोहन सिंह के 10 साल के शासनकाल में इन तीसमार खानों ने सोनिया गांधी पर दबाव डालकर महा घोटाला दर -महा घोटालों को रोकने के लिए एक भी पत्र लिखा ?

जब कांग्रेस नेतृत्व अतिवादी मुस्लिमों के तुष्टिकरण में लगी हुई थी,तब ये तीसमार खान कहां थे ?

क्या इन दो मुद्दों पर अपना रवैया बदले बिना कांग्रेस का पुनरुद्धार संभव है ?

क्या नेतृत्व बदल देने मात्र से ये दो ‘नीतियां’ बदल जाएंगी ?

   अरे भई,परिवारवाद से ऊपर उठने का उपदेश देने से पहले  कांग्रेस का इतिहास जरा पढ़ लेते !

  नहीं पढ़े तो मैं संक्षेप में उसकी हल्की झलक यहां पेश कर रहा हूं।

मुलायम सिंह यादव परिवार जब उत्तर प्रदेश में सत्ता में थी तो यह खबर आई कि 

उनके परिवार के 25 सदस्यों को विभिन्न सरकारी पदों पर बैठाया गया है।

मैंने लखनऊ के एक वरिष्ठ पत्रकार से कहा कि इस परिवार ने तो इस देश का रिकाॅर्ड तोड़ दिया।

  उस पर उन्होंने कहा कि नेहरू परिवार का अभी रिकाॅर्ड नहीं टूटा है।

  याद रहे कि 1928 में कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू ने अपने पुत्र को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाने के लिए गांधी जी को लगातार तीन चिट्ठयां लिखीं।

मोतीलाल की दो चिट्ठियों पर तो गांधी जी नहीं माने थे।

पर तीसरी चिट्ठी पर गांधी जी मजबूर हो गए।

उन्होंने 1929 में जवाहरलाल को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का रास्ता साफ कर दिया।

   1937 में जब राज्यों में सरकार बन रही थी तो जवाहरलाल नेहरू ने अपने परिजन को उत्तर प्रदेश में मंत्री बनाने के चक्कर में मुहम्मद जिन्ना को नाराज कर लिया।

  1946 में क्या हुआ ?

सरदार पटेल के पक्ष में कांग्रेस का बहुमत था।

किंतु गांधी जी ने जवाहरलाल नेहरू को पहले कांग्रेस अध्यक्ष और बाद में प्रधान मंत्री बनवा दिया।

जवाहर लाल ने जब इंदिरा गांधी को 1958 में कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य बनवाया,क्या उस समय इंदिरा गांधी को वह दर्जा परिवारवाद के कारण नहीं मिला था ?

हद तो तब हो गई जब 1959 में जवाहरलाल नेहरू की सहमति से इंदिरा गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बना दी गईं।

  बाद के वर्षों में क्या-क्या हुआ,वह आज की पीढ़ी को याद है।

  लेटर बम फोड़ने वालों में एक हैं सत्यदेव त्रिपाठी।

पहले लोहियावादी थे।

बाद में संभवतः एच.एन.बहुगुणा के साथ कांग्रेस में चले गए।

हाल तक तो त्रिपाठी जीे नेहरू-गांधी का वंशवाद-परिवारवाद 

सहर्ष स्वीकार करते रहे।

क्या इसलिए कि तब कांग्रेस सत्ता में थी ?

या फिर सत्ता में लौट आने की संभावना थी ?

पर अब वैसा कुछ नहीं है तो  लेटर बम फोड़ रहे हैं !

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मोतीलाल ने जो नींव डाली थी,उसका हश्र वही होना था जो कांग्रेस के साथ हो रहा है।इस देश के अन्य वंशवादी दलों के साथ भी देर -सवेर वही होने वाला है।

  कांग्रेस के स्वतंत्रता सेनानियों के पुराने पुण्य प्रताप के कारण जनता भी वर्षों तक वंशवाद भी बर्दाश्त करती रही। 

पर अब वैसा नहीं होगा,चाहे कितना लेटर बम कोई फोड़े।

कांग्रेस ने खुद को सुधारने की क्षमता खो दी है।

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इस देश के एक नामी नेता कभी पाकिस्तान जाकर वहां के लोगों से अपील कर आए  थे कि आपलोग नरेंद्र मोदी को हराइए।

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अब कुछ अन्य नेता यह उम्मीद पाल रहे हैं कि चीन भारत को युद्ध में हरा दे ताकि मोदी सरकार अगले चुनाव में हार जाए।

यह भी नहीं होने वाला है।

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क्योंकि जनता जानती है कि महाराणा प्रताप की तरह लड़ते हुए हारने वाले का कोई कसूर नहीं होता।

पर विश्व नेता बनने के चक्कर में जानबूझ कर सेना व सीमा को कमजोर रखने वालों को जनता माफ नहीं करती।

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--सुरेंद्र किशोर--7 सितंबर 20 

 


सोमवार, 7 सितंबर 2020

      पराकाष्ठा पर दोहरा रवैया !

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इसी साल जनवरी में फिल्म अभिनेता नसीरूद्दीन शाह ने कहा था कि हिन्दुस्तान छोड़ने का अब वक्त आ गया है।

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2015 में आमिर खान ने भी कहा था कि मेरी पत्नी किरण कह रही है कि देश में असुरक्षा का माहौल है।

वह बच्चों के साथ देश छोड़कर जाना चाहती है।

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इन बयानों पर शिवसेना या किसी अन्य दल ने तब क्या कहा था ?

क्या उन पर राजद्रोह का केस किया ?

या,ऐसी मांग भी की ?

पता नहीं।

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पर,जब कंगना राणावत ने मुम्बई की तुलना पाक अधिकृत कश्मीर से की तो शिवसेना ने क्या कहा ?

वरीय शिवसेना विधायक प्रताप सरनायक ने कहा कि कंगना के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दायर  किया जाना चाहिए।

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अब वरीय कांग्रेस नेता अशोक चव्हाण का एक बयान देखिए।

उन्होंने जनवरी, 2020 में कहा था कि हम शिवसेना सरकार में इसलिए शामिल हुए क्योंकि हमारे मुसलमान भाइयों ने भी हमसे जोर देकर यह कहा कि भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए आप लोग शिवसेना सरकार में शामिल हो जाइए।

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अब इन बयानों का मतलब निकालिए।

साथ ही देखिए कि पिछले कुछ महीनों से मुम्बई में क्या -क्या हो रहा है।

और क्या -क्या होने का अनुमान व अंदेशा  है !

क्या आपको लग रहा है कि मुम्बई में कानून का शासन है ?

या अंधेरे की दुनिया के लोगों का शासन है ?

क्या ड्रग्स के कारोबारियों के सामने पूरी राज्य सरकार व मुम्बई पुलिस लाचार नहीं है ?

इस देश में आज सुप्रीम कोर्ट यदि नहीं रहता तो मुम्बई के ड्रग्स माफिया का पर्दाफाश होता ?

 ड्रग्स के कारोबार में कौन -कौन लोग लिप्त हैं ?

मुम्बई फिल्म जगत किसकी मुट्ठी में है ?

दाउद इब्राहिम और उसके स्थानीय लोगों की कैसी भूमिका रहती आई है ?उसके संरक्षक कौन कौन हैं ?

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---सुरेंद्र किशोर--7 सितंबर 20


शनिवार, 5 सितंबर 2020

 


  टिकट का आधार परिवारवाद होने पर कैसे टिकेंगे कार्यकत्र्ता !-सुरेंद्र किशोर

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 बिहार विधान सभा के आगामी चुनाव को लेकर एक खास संकेत मिल रहा है।

वह संकेत उम्मीदवारों को लेकर है।

राजनीति में परिवारवाद कोई नई बात नहीं है।

किंतु समय के साथ संख्या बढ़ती जा रही है।

 जीवंत लोकतंत्र के लिए यह चिंताजनक स्थिति है।

  संकेत हैं कि इस बार बिहार विधान सभा के चुनाव में विभिन्न दलों से जितनी संख्या में वंशज व परिजन उतरेंगे,वह एक रिकाॅर्ड होगा।

   इस बीच कांग्रेस के प्रमुख नेता आंनद शर्मा ने भी अपने कमजोर होते दल के बारे में कहा है कि ‘‘बड़े नेताओं के बच्चों और पैसे वालों का संगठन पर कब्जा होता जा रहा है।

   सवाल है कि कांग्रेस ने जो बोया,वही तो काट रही है !

कांग्रेस में वंशवाद आजादी की लड़ाई के दिनों से ही शुरू हो गया था।

आजादी के बाद उसका विस्तार होता चला गया।पहले शीर्ष स्तर पर वंशवाद-परिवारवाद  था।

अब निचले स्तर पर भी यह बीमारी घर कर गई है।इस कारण भी  कांग्रेस  कमजोर होती जा रही है।जब सांसद के पुत्र व विधायक के परिजन ही टिकट पाएंगे तो आम राजनीतिक कार्यकत्र्ता किस उम्मीद में दल  में बने रहेंगे।

   अन्य अनेक दलों को भी वंशवाद और  परिवारवाद धीरे -धीरे घुन की तरह खा रहा है।पर कोई चेत नहीं रहा है।

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 फिल्म सेंसर नियमों को लागू करना जरूरी 

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सेंट्रल बोर्ड आॅफ फिल्म सर्टिफिकेशन यानी फिल्म सेंसर बोर्ड के कुछ कड़े नियम हैं।

यदि उन नियमों का पालन होने लगे तो उससे न सिर्फ फिल्मों को लोगबाग परिवार के साथ बैठकर देख सकेंगे बल्कि फिल्मी जगत में भी सुधार होगा।

  पचास-साठ के दशकों में  शालीन व सोद्दश्य फिल्में बनती थीं।

क्योंकि, फिल्म सेंसर बोर्ड के सदस्य आम तौर से नियमानुसार प्रमाणपत्र देते थे।

आज क्या करते हैं ?

यह जानने के लिए बोर्ड के उन मुख्य नियमों पर एक नजर डाल लीजिए।

किसी फिल्म को प्रमाणपत्र देने से पहले नियमतः इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए  कि उस फिल्म के प्र्रदर्शन से सार्वजनिक व्यवस्था न बिगड़े।

किसी की मानहानि न हो।

दर्शकों को मर्यादा और शालीनता की सीख मिले।

फिल्म में अश्लीलता न हो।

 आज की  कितनी फिल्में इन कसौटियों पर खरी उतरती हैं ?

यदि नहीं तो क्यों ?

कहते हैं कि पचास-साठ के दशकों के फिल्मी कलाकार ड्रग्स नहीं लेते थे।

किंतु आज ?

क्या केंद्र सरकार को इस बिगड़ती स्थिति को बदलने के लिए कुछ नहीं करना चाहिए ?

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नारको आतंक तंत्र

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करीब पांच दशक पहले निर्मित एक  फिल्म का नाम था- ‘‘बंबई रात की बांहों में।’’

सुशांत सिंह राजपूत मौत की जांच के सिलसिले में जो खबरें आ रही हंै,उनसे लगता है कि अब मुम्बई नारको आतंक तंत्र के साये में है।

  1993 में केंद्र सरकार को समर्पित वोहरा समिति की रपट में 

इन्हीं शब्दों का इस्तेमाल किया गया था-नारको आतंक तंत्र।

वोहरा समिति ने कहा था, 

‘‘कुछ माफिया तत्व नारकोटिक्स ड्रग्स और हथियारों की तस्करी में संलग्न हैं।

उन्होंने विशेषकर जम्मू और कश्मीर,पंजाब ,गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में अपना नारको आतंक का तंत्र स्थापित कर लिया है।’’

 कहा जा रहा है कि बिहार मूल का एक प्रतिभाशाली कलाकार सुशांत इसी तंत्र का शिकार हो गया।

मुम्बई का फिल्मी जगत यदि ड्रग्स से अपना नाता नहीं तोड़ सकता तो हिन्दी फिल्म निर्माण का केंद्र किसी हिन्दी राज्य में स्थापित करने पर विचार क्यों नहीं होना चाहिए ? 

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अकेला पड़ते कोरोनाग्रस्त

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   बचपन में मैंने बगल के गांव में एक अलग ढंग का दृश्य देखा था।

परिवार का मालिक घर के बाहर एक झोपड़ी में रहता था।

पहले तो मुझे लगा कि वे संत  हो गए ।

दरअसल वे टी.बी.रोग ग्रस्त थे ।

तब तक टी.बी.की दवा यहां उपलब्ध नहीं थी।

संयोगवश उनकी बीमारी के बीच में ही वह दवा आ गई।

उन्होंने दवा का सेवन किया।वे स्वस्थ हो गए।

 पर जब वे कुछ साल तक जो झोपड़ी में थे ,उन दिनों उनके दिल ओ दिमाग पर कैसा असर पड़ा होगा ?

  बाद में मैं उनसे मिलता जरूर था,पर यह बात पूछने की हिम्मत नहीं थी।

   उससे भी खराब स्थिति कई कोरोनाग्रस्त मरीजों की हो रही है ।वे  समाज कौन कहे,परिजन द्वारा भी उपेक्षित कर दिए गए-खासकर बुजुर्ग।

उनमें से कुछ लोग स्वस्थ होकर अपनी पीड़ा जाहिर भी कर रहे हैं।

 यही नहीं, कुछ बीमार चिकित्सकों की भी उनके पड़ोसियों ने उपेक्षा की।

यह एक ऐसे देश में हुआ जहां पारिवारिक व सामाजिक जीवन का बंधन अन्य देशों की अपेक्षा अधिक मजबूत रहा है।

  पर, इस बीच अधिकतर डाक्टरों व नर्सों ने जान की बाजी लगाकर और कई मामलों  में जान देकर भी मरीजों की सेवा की और कर रहे हैं।

  वैसे अनेक परिवारों ने अपने मरीजों की भरसक सेवा की। पर चिकित्सा सुविधाओं की कमी से भी लोगों को जरूर परेशानी होती रही है।

कोरोना का असर पूरी तरह समाप्त हो जाने के बाद ऐसी समस्या पर देश को सोचना चाहिए।

ऐसी स्थिति में कोई लोक कल्याणकारी राज्य अपनी जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को  बेहतर ढंग से कैसे निभाए ?

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 और अंत में

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 चुनाव के उम्मीदवार अब अपने आपराधिक रिकाॅर्ड को प्रकाशित करने से बच नहीं सकेंगे।

यह नियम पहले से लागू हैं।

किंतु इसका कड़ाई से पालन नहीं होता।

 आयोग अब गंभीर हो गया है।

बिहार के चुनाव में उसका असर देखने को मिल सकता है।

दो बार क्षेत्रीय व एक बार राष्ट्रीय अखबार में अपने आपराधिक रिकाॅर्ड प्रकाशित करने होंगे।

टी.वी.चैनलों पर भी तीन बार प्रदर्शित करवाना होगा।

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कानोंकान,प्रभात खबर

पटना -4 सितंबर 20



 



गुरुवार, 3 सितंबर 2020

 ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित मेरी यह पहली रपट 

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मुजफ्फरपुर चुनाव क्षेत्र

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जिसने एक बंदी को विजयी बनाया

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    शायद दुनिया के संसदीय चुनावों के इतिहास में यह पहली घटना होगी,जबकि राजद्रोह के इतने संगीन मुकदमे के मुजरिम ने जेल से ही चुनाव लड़ा हो और उसे मतदाताओं ने इतने भारी मतों से विजयी बनाया हो।

   पर, बड़ौदा डायनामाइट मुकदमे के मुजरिम श्री जार्ज फर्नांडीस पर लगाए गए आरोपों पर मतदाताओं ने न सिर्फ कोई ध्यान नहीं दिया,बल्कि उसे उसका विशेष अलंकरण ही माना।

   चुनाव के समय मुजफ्फरपुर की जनता में जार्ज फर्नांडीस के लिए उस उत्साह को जिसने भी देखा ,किसी को भी उनकी जीत के संबंध में कोई शंका नहीं थी।

    चुनाव के दस दिन पूर्व ( छह मार्च को ) ही श्री फर्नांडीस के चुनाव अभिकत्र्ता श्री शारदा मल ने मुझे बताया कि प्रश्न यह नहीं है कि यहां जनता पार्टी जीतती है या नहीं,बल्कि यह है कि प्रतिस्पर्धी उम्मीदवार अपनी जमानत भी बचा पाते हैं या नहीं ?

  और सचमुच वे अपनी जमानत नहीं बचा पाये।

श्री फर्नांडीस के सभी प्रतिद्वंद्वियों की जमानतें जब्त हो गईं।

    मतदाताओं का रुख देख कर तो चुनाव के दिन सुबह दस बजे ही कांग्रेसी उम्मीदवार और राज्य के पूर्व शिक्षा राज्यमंत्री श्री नीतीश्वर प्रसाद सिंह सोने चले गये।

   बाद में उन्होंने यह शिकायत की कि सभी पीठासीन और निर्वाचन पदाधिकारी जनता पार्टी से मिल गये हैं।

    पर, उनके इस आरोप पर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया।

 न जनता ने ,न ही निरीक्षण में गये चुनाव अधिकारी ने।

    पर इस क्षेत्र के चुनाव का मुख्य मुद्दा यह नहीं था कि कांग्रेस हारे या जनता,बल्कि जनता पार्टी द्वारा इस चुनाव के माध्यम से एक बड़े अपराध के आरोप में फंसे एक अतर्राष्ट्रीय ख्याति के नेता और उसके ‘कारनामों’ को ‘लिगिटिमेसी’ दिलाना था।

    क्योंकि श्री फर्नांडीस को मिले छात्रों -युवजनों के अपार स्नेह का यह कारण नहीं था कि उन्होंने रेल हड़ताल करायी और वे एक अच्छे वक्ता हैं,बल्कि इसलिए कि उन्होंने आपातकाल की ‘लंबी काली रात’ के समक्ष समर्पण नहीं किया।

   उनके चुनाव अभियान में जनता पक्ष और छात्र संघर्ष समिति के युवा कार्यकत्र्ता और विद्यार्थी अपने खर्चे से घर -घर जा कर जार्ज का संदेश पहुंचाते रहे।

  श्री जयप्रकाश नारायण ने चुनाव के तीन दिन पूर्व पटना की एक आम सभा में कहा था कि ‘‘श्री फर्नांडीस देश के युवजनों के नेता हैं और आज सींखचों के भीतर कैद हैं।

मैं मुजफ्फरपुर की जनता से अपील करता हूं कि वे उन्हें भारी मतों से विजयी बनायें।’’

  और,सचमुच मुजफ्फरपुर के उस चुनाव में किसी भी अन्य क्षेत्र से अधिक छात्र-युवजन कार्यरत थे।

 अंततः जयप्रकाश नारायण की शुभकामनाएं फलित हुईं।

    जनता पक्ष की न्यायाग्रही नयी सरकार ने अब यह मुकदमा उठा लिया है और आज जार्ज फर्नांडीस जनता सरकार के संचार मंत्री हैं।

अब उन्हें यह सिद्ध करना है कि उनकी रचनात्मक प्रतिभा गरीब जनता के जीवन निर्माण में भी कारगर हो सकती है।

   28 मार्च को उन्होंने शपथ ग्रहण करने के पहले अत्याचार 

के शिकार अपने भाई और अपनी वृद्धा माता का अभिवादन किया।जार्ज को अनेकानेक बधाइयां !

 --सुरेंद्र किशोर

धर्मयुग-साप्ताहिक,बंबई

10 अप्रैल, 1977  

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 क्या भ्रष्टाचारजनित काले धन पर टिकी 

 अर्थ व्यवस्था से खुश होगी जनता  ?

    --सुरेंद्र किशोर--

राहुल गांधी ने एक बार फिर कहा है कि नोटबंदी से देश की अर्थ व्यवस्था टूट गई।

  सवाल है कि आमजन के मानस को कब समझेंगे राहुल गांधी ?

नोटबंदी के तत्काल बाद उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव हुआ था।

भाजपा वहां भारी बहुमत से जीत गई।

क्योंकि अधिकतर लोगों को लगा कि नोटबंदी से काले धन की एक हद तक रीढ़ टूटी।

क्योंकि बड़ी मात्रा में काला धन बैंकों में जमा करने की मजबूरी हुई।

सरकार को उस पर टैक्स मिला।

उसके बाद से टैक्स का दायरा भी बढ़ा।

  पर, राहुल तो भष्टाचार जनित काले धन पर आधारित अर्थ व्यवस्था के पक्षधर रहे हैं।

इसीलिए राहुल के  अघोषित आर्थिक सलाहकार व नोबल विजेता अभिजीत बनर्जी ने गत साल कहा भी था कि

 ‘‘चाहे यह भ्रष्टाचार का विरोध हो या भ्रष्ट के रूप में देखे जाने का भय,शायद भ्रष्टाचार अर्थ व्यवस्था के पहियों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण था,इसे काट दिया गया है।

मेरे कई व्यापारिक मित्र मुझे बताते हैं निर्णय लेेने की गति धीमी हो गई है।.............’’

           दैनिक हिन्दुस्तान,

            23 अक्तूबर 2019

क्या किसी देश की अर्थ व्यवस्था को भ्रष्टाचार के सहारे चलने देना चाहिए ?

   कभी नहीं।

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--सुरेंद्र किशोर-3 सितंबर 20


बुधवार, 2 सितंबर 2020

 अंग्रेजी समर्थकों की धृष्टता,अहंकार ,अज्ञान असीम है।

अंग्रेजी हमारी गुलामी की माध्यम भाषा है।

किस मुंह से इसे पूरे भारत की राष्ट्रभाषा या अकेली संपर्क भाषा बनाने की बात करते हैं ?

 200 सालों की कोशिशों के बावजूद 10-12 प्रतिशत से ज्यादा भारतीयों की प्रथम भाषा नहीं बन पाई है।

---राहुल देव,  

    जनसत्ता के पूर्व

    संपादक