शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

जैन से सहारा तक डायरियों का नतीजा सिफर ही रहा है

सहारा समूह पर छापे के दौरान मिली एक डायरी इस समय देश भर में चर्चा का केंद्र है। लेकिन क्या इस डायरी में दर्ज सूची का हाल भी वही होने वाला है जो पहले की सूचियों का हुआ ?

नब्बे के दशक में चंदे की एक ऐसी ही सूची जैन हवाला डायरी में मिली थी।

  हवाला घोटाले की वह  सूची तो  आखिरकार दबा ही दी  गयी।

अब देखते हैं कि सहारा सूची का क्या होता है ! जब किसी सूची में अनेक दलों के बड़े-बड़े नेताओं के नाम होते हंै तो उसके अंततः दब जाने की ही आशंका रहती है। बिहार का चारा घोटाला भी एक हद तक सर्वदलीय और बहुपक्षीय प्रेरित घोटाला ही था।उस घोटाले की जांच के सिलसिले में भी एक सूची मिली थी।उस सूची में करीब चार दर्जन पत्रकारों के नाम भी थे। 

चलिए चारा घोटाले में कुछ लोगों को निचली अदालतों से  सजाएं होने लगीं हैं।पर चारा घोटाला के मामलों को सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने और वहां अंतिम फैसला होने में अभी वर्षों लगेंगे।

  इस देश में व्हिसिल ब्लोअर  एक सूची से दूसरी सूची की ओर दौड़ रहे हैं।इस बीच एक से बढ़कर एक सूची सामने आती रहती है।

 भला सिस्टम से कोई कितना और कैसे लड़ सकता है ! तब जबकि सिस्टम में ही घुन लग गया हो !
  व्हिसिल ब्लोअर विनीत नारायण हवाला मामले को उसकी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंचा सके।अब देखना है कि सहारा डायरी मामले में  प्रशांत भूषण को कितनी सफलता मिलती है ! पर एक बात जरूर है।अदालती फैसला आने से पहले जागरूक मीडिया के कारण असली बातें लोगों तक पहुंच ही जाती हैं।आजकल तो सोशल मीडिया भी ताकतवर होता जा रहा है जो कुछ भटकावों के बावजूद कमाल कर रहा है।सकारात्मक बात यह है कि  विनीत नारायण और प्रशांत भूषण जैसे बहादुर लोग उपलब्ध हैं।सिस्टम से  लड़ने का जोखिम उठाना भी बहुत बड़ी बात है।यहां तक कि हवाला डायरी मामले में भी विनीत नारायण के अलावा भी कुछ लोगों ने सराहनीय भूमिकाएं  निभाई थीं।

 सहारा सूची का क्या हश्र होगा,यह तो बाद की बात है।इस अवसर पर पहले जैन हवाला कांड का हश्र देख लेना मौजूं होगा।उससे आगे का संकेत मिल सकता है।

  1991 की बात है।उन दिनों भी देश में  आतंकी घटनाएं हो रही  थीं।

दिल्ली पुलिस ने जे.एन.यू. के एक छात्र शहाबुददीन गोरी को जामा मस्जिद इलाके से पकड़ा।उस पर आरोप था कि वह कश्मीरी आतंकियों को पैसे पहुंचाता था।पैसे हवाला के जरिए बाहर से आते थे।गोरी के यहां से जैन बंधुओं का सुराग मिला।

मामला सी.बी.आई.को सौंपा गया। सी.बी.आई. ने दिल्ली के साकेत में एस.के. जैन बंधुओं के यहां  छापा मारा।वहां भारी रकम के अलावा सनसनीखेज डायरी भी मिली।उससे पता चला कि इन हवाला कारोबारियों ने देश के विभिन्न दलों के करीब 115 बड़े नेताओं और अफसरों को कुल मिलाकर 64 करोड़ रुपए दिये।

उन नेताओं में  पूर्व प्रधान मंत्री ,पूर्व व वत्र्तमान केंद्रीय मंत्री, पूर्व मुख्य मंत्री तथा अन्य प्रमुख नेता शामिल थे ।
 उनमें से सिर्फ शरद यादव ने यह स्वीकार किया कि उन्हें जैन से 5 लाख रुपए मिले थे।क्या जैन बंधुओं के पैसे  सिर्फ शरद यादव के लिए थे  ?
ऐसा कत्तई नहीं था।

   पैसे लेने वाले अन्य नेताओं ने इस आरोप को साजिश बताया। विनीत नारायण की जान पर खतरा भी आया।उन्हें धमकियां मिल रही थीं।याद रहे कि विनीत  इस मामले को अदालत ले गए थे।आरोपित नेता गण इतने ताकतवर थे कि इस बीच उन नेताओं के प्रभाव में आकर एक बहुत बड़े वकील ने विनीत का साथ छोड़ दिया।
हालांकि ‘दान’ लेने वालों के नाम अखबारांें में छपे।लोकलाज से मुख्यतः लालकृष्ण आडवाणी और तीन केंद्रीय मंत्रियों ने अपने पदों से इस्तीफा भी दिया।

विदेश राज्य मंत्री सलमान खुर्शीद ने तब यह स्वीकार किया कि  चुनाव फंड में पारदर्शिता न होने के कारण हवाला कांड होते हैं।

 पर सवाल है कि खुर्शीद और उनकी पार्टी बाद  में अनेक वर्षों तक सत्ता में रहे।क्यों नहीं पारदर्शिता लाने की कोशिश की ?

जैन हवाला रिश्वत कांड का यह मामला जब अदालत में पहुंचने वाला था तो जांच एजेंसी सी.बी.आई पर भारी दबाव पड़ा।जब सत्ताधारी दल और मुख्य प्रतिपक्षी दलों के शीर्ष नेताओं पर आरोप हों तो ‘सरकारी तोता’ यानी सी.बी.आई.आखिर कर भी क्या सकती है ?

  पर आरोपितों को इतने से संतोष नहीं हुआ।उनमें से किसी ने सुप्रीम कोर्ट पर भी दबाव डलवाया।यह सब ऐसे कांड में हुआ जिस कांड में आतंकवाद का तत्व भी जुड़ा हुआ था।यानी जैन बंधुओं ने संभवतः इसलिए भी देश के लगभग सभी प्रभावशाली नेताओं और अफसरों को रिश्वत दी ताकि कश्मीरी आतंकवादियों को पैसे पहुंचाते रहने में उन्हें कोई बाधा नहीं आए।चिंताजनक बात यह है कि  आतंकवाद के प्रति हमारे अधिकतर हुंक्मरानों का ऐसा ही रवैया रहा है।हालांकि यह भी कहा गया कि कुछ नेताओं के पैसे उनकी काली कमाई के थे। 

   ताजा सहारा डायरी के अनुसार लाभुकों की दमदार सूची देखकर यह अंदाज लगाया जा सकता है कि इनके साथ जांच एजेंसियां कैसा सलूक करेंगी ! भूतकाल के अनुभव अच्छे नहीं हैं।

  आगे का अंदाजा न्यायमूत्र्ति जे.एस.वर्मा की पिछली टिप्पणी से लगाया जा सकता है।

14 जुलाई 1997 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जे.एस.वर्मा ने अदालत में कहा था कि हवाला कांड को दबाने के लिए हम पर लगातार दबाव पड़ रहा है।

हालांकि उन्हें दबाव में आने की जरूरत ही नहीं पड़ी।सी.बी.आई.ने ही इस कांड की ठीक से जांच  नहीं की।वर्मा ने बाद में सी.बी.आई.तथा अन्य जांच एजेंसियों के प्रति अपनी नाराजगी भी दर्ज कराई।

(इस लेख का संपादित अंश वेबसाइट हिंदी फस्र्ट पोस्ट के 23 दिसंबर 2016 के अंक में प्रकाशित )
       

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

मिनी युद्ध है नोटबंदी और काले धन के खिलाफ अभियान


शुरू में तो ऐसा नहीं लग रहा था । पर जैसे -जैसे नोटबंदी अभियान आगे बढ़ा तो लगने लगा कि यह तो मिनी युद्ध है। काले धन की काली ताकत के खिलाफ सरकार का युद्ध ! काफी ताकतवर साबित हो रही हैं ये काली ताकतें।

 इन काली शक्तियों को देश के प्रभु वर्ग का पूरा समर्थन मिला हुआ है। किसी तरह के युद्ध में दोतरफा क्षति होती ही है। नोटबंदी में भी यही हो रहा है। युद्ध में निर्दोष लोग भी मरते हैं और परेशान होते हैं।

 जब बेनामी संपत्ति पर बड़े पैमाने पर सरकारी हमले शुरू होंगे तो युद्ध भीषण रूप धारण कर सकता है।

  काली ताकतों की शक्ति तो देखिए! एक तरफ आम लोग कतारों में एक-दो हजार रुपए के लिए तरसते रहे तो दूसरी ओर काली ताकतों ने बैंकों के पिछले दरवाजों से करीब एक लाख करोड़ रुपये के अपने काले धन को सफेद बना लिया। यह रकम और बढ़ेगी।

 काले धन को सफेद करते हुए कुछ प्रमुख राजनीतिक दलों के कुछ नेता भी स्टिंग आपरेशन में कैमरों पर धरे गये।

 बैंकों के छोटे-बड़े कर्मचारियों की साठगांठ के बिना तो यह संभव ही नहीं था। ऐसे ही बैंक अफसरों और नेताओं की साठगांठ से बैंकों के लाखों करोड़ रुपए एन.पी.ए. बना दिये गये हैं।.

   रिजर्व बैंक ने बैंकों को निदेश दिया है कि वे सीसीटीवी रेकाॅर्डिंग को संभाल कर रखें। इस निदेश के बदले रिकाॅर्डिंग को तत्काल जब्त करना चाहिए था। क्योंकि जो बैंककर्मी काउंटर पर लगी कतार को तरसता छोड़ पिछले दरवाजे से काले धन का सफेद कर सकता है, वह अपने बचाव में सीसीटीवी की रिकाॅर्डिंग को भी सफेद करा सकता है।




देश में भुखमरी के बीच भ्रष्टों की चांदी
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि भ्रष्टाचार ने देश के विकास को रोक रखा है। यह आधा सच है। पूरा सच  है कि एक तरफ तो 40 प्रतिशत अन्न बर्बाद हो जाता है और दूसरी ओर करीब 20 करोड़ लोग हर शाम बिना भोजन के सो जाते हैं। अब भी एक तिहाई लोग गरीब हैंे। एड्स, मलेरिया और टीबी से कुल मिलाकर जितने लोग मरते हैं, उतने ही लोग भूख और कुपोषण से भी मर जाते हैं। देश के अधिकतर प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों में मरहम पट्टी तक के लिए रूई तक नहीं है। क्योंकि सरकारों के पास पैसे नहीं है। जितने पैसे हैं भी, उनमें से अधिकांश सरकारी-गैर सरकारी बिचैलिए हड़प लेते हैं। जरूरत के अनुसार न तो स्कूल बन रहे हैं और न ही अस्पताल। अदालत भवनों का भी यही हाल है।

 प्रभावशाली लोगों ने सरकारी  बैंकों से कर्ज लेकर करीब 7 लाख करोड़ रुपए पचा लिये हैं। उन लुटेरों के नाम तक जाहिर करने की हिम्मत किसी सरकार में नहीं है। वही काली ताकत नोटबंदी अभियान को भी विफल करने के काम में लगी हुई है।.

 ऐसे भ्रष्ट लोगों को अनेक नेताओं, सरकारी अफसरों और अन्य लोगों का समर्थन हासिल है। नोटबंदी पर कुछ नेताओं की बौखलाहट उसी का प्रतीक है। जिस नेता पर भ्रष्टाचार के जितने गंभीर आरोप हैं, वे उतने ही अधिक बौखला गए हैं।

  एन एन वोहरा कमेटी ने देश के लुटेरा गिरोहों की उपस्थिति की ओर इशारा किया था। इस गिरोह में अपराधी तत्व, माफिया सिंडिकेट, भ्रष्ट नेता, सरकारी अफसर, ड्रग कारोबारी और हवाला कारोबारी शामिल हैं। नीरा राडिया टेप पर भरोसा करें तो उस गिरोह में अब मीडिया के भी कुछ प्रभावशाली लोग शामिल हो चुके हैं।




क्यों है यह मिनी युद्ध 
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 स्वाभाविक ही है कि ऐसी ताकतवर काली जनद्रोही शक्तियों के खिलाफ जब कोई छोटी कार्रवाई भी होगी तो वे पूरी तरह बौखला जाएंगे। नोटबंदी छोटी कार्रवाई है। शुरुआती कार्रवाई। नारों से हटकर यदि इस देश के गरीबों को उनका हक दिलाना है तो काली शक्तियों के खिलाफ जनसमर्थन के बल पर सरकार को मिनी क्या पूर्ण युद्ध लड़ना होगा। अभी केंद्र सरकार लड़ भी रही है। वह हार जाएगी तो जनता लड़ेगी।

 क्योंकि इस ‘युद्ध’ के सिलसिले में काली ताकतों के असली कारनामों का पता लोगों को लग जाएगा। इससे जनता का गुस्सा और बढ़ेगा।

 वैसे कारनामों का पता लगना शुरू भी हो गया है। इसलिए बैंकों और एटीएम के सामने लंबी और उबाऊ कतारों में घंटों खड़े होने के बावजूद कई लोग मीडिया को बता रहे हैं कि भले हमें तकलीफ हो रही है, पर नोटबंदी का फैसला सही है।




ऐसे-वैसे दलों के कैसे-कैसे नेता !
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समाजवादी पार्टी ने पूर्व सांसद अतीक अहमद को उत्तर प्रदेश विधान सभा का उम्मीदवार घोषित किया है। इस बीच उन पर आरोप लगा है कि उन्होंने अपने हथियारबंद समर्थकों के साथ इलाहाबाद के एक शिक्षण संस्थान में घुस कर वहां के स्टाफ के साथ मारपीट करवाई। इस सिलसिले में अतीक पर डकैती का मुकदमा कायम हुआ है।

 उधर मध्य प्रदेश के एक भाजपा विधायक पर आरोप लगा है कि उन्होंने शराब के नशे में धुत्त होकर एक सामाजिक समारोह में अपने आग्नेयास्त्र से धुआंधार फायरिंग की। फायरिंग करते समय वे लड़खड़ा रहे थे।

  इधर पटना में भाजपा नेता सुशील मोदी ने आरोप लगाया कि फर्जीवाड़ा के आरोप में एक जदयू विधायक की पत्नी फरार हैं। उधर जदयू के प्रवक्ता संजय सिंह का आरोप है कि भाजपा के 53 विधायकों में से 34 पर आपराधिक मुकदमे हैं। दिल्ली के एक वकील के यहां जब भारी मात्रा में कालाधन पकड़ा गया तो पता चला कि एक पूर्व केंद्रीय मंत्री का भी उसमें हिस्सा है।

कर्नाटक के आबकारी मंत्री को सेक्स स्कैंडल के आरोप में इस्तीफा देना पड़ा। रांची की अदालत ने झारखंड सरकार के एक पूर्व मंत्री को आय से अधिक संपत्ति एकत्र करने के आरोप में पांच साल की कैद की सजा सुनाई। नोटबंदी के दौरान तीन प्रमुख दलों के नेता भी काला धन को सफेद करते कैमरे पर पकड़े जा चुके हैं।

 केंद्रीय राज्य मंत्री किरण रिजिजू आरोपों के घेरे में हैं तो भाजपा के अनुसार अगस्ता हेलिकाॅप्टर खरीद घोटाले में एक राजनीतिक परिवार को रिश्वत मिली है।

 राहुल गांधी ने आरोप दुहराया है कि यदि वह प्रधानमंत्री के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का खुलासा कर दें तो भूकम्प आ जाएगा।

 इस बीच नरेंद्र मोदी ने अपना यह संकल्प दुहराया है कि सिस्टम से भ्रष्टाचार मिटाना मेरी प्राथमिकता है।
उपर्युक्त सारी खबरें इसी सप्ताह की हैं। ऐसी खबरें पहले भी आती रही हैं। इस देश में आखिर क्या हो रहा है ? विभिन्न दलों के नेताओं के परस्पर विरोधी बयानों से साफ है कि सिस्टम पर जन विरोधी और लालची तत्व पूरी तरह हावी हैं। ऐसे ही तत्व राजनीति और सत्तानीति को गहरे प्रभावित कर रहे हैं। ऐसे निहितस्वाथियों से सिस्टम को मुक्त करने के लिए कुछ लोग ‘मिनी युद्ध’ की जरूरत महसूस कर रहे हैं।




सारे बैंककर्मी एक जैसे नहीं
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  यह सच है कि कुछ बैंककर्मियों की मदद से ही  अनेक धंधेबाजों ने अपने काले धन सफेद किये। साथ ही अधिकतर बैंककर्मियों ने तो इस बीच रात दिन ग्राहकों की सेवा की है।

 गांवों से मिल रही खबरों के अनुसार अनेक लोग नोटबंदी के फैसले के कारण पहले से ही केंद्र सरकार से खुश है। अब जब बारी-बारी से भ्रष्ट बैंककर्मियों की गिरफ्तारी हो रही है तो वे और खुश हैं।उन्हें समाज के उन अन्य  बड़े धन पशुओं की भी गिरफ्तारी का इंतजार है जिनके धन बैंककर्मी सफेद कर रहे हैं। उन गिरफ्तारियों के बाद तो आम लोग और भी गदगद होंगे।

 लोगबाग यह देख रहे हैं कि एक तरफ आम लोग हजार-दो हजार रुपए के लिए तरस रहे हैं तो दूसरी ओर इस देश के कुछ भ्रष्ट लोग करोड़ों-अरबों में खेल रहे हैं।



और अंत में
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ताजा खबर के अनुसार बिहार के मेडिकल कालेजों के एमबीबीएस के 145 छात्र फस्र्ट इयर की फाइनल परीक्षा में फेल कर गये। कुछ साल पहले यह खबर आई थी कि पटना मेडिकल कालेज के प्रथम वर्ष के आधे छात्र फाइनल परीक्षा में फेल कर गये थे।

ये खबरें यह साफ बता रही हैं कि मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं में व्यापक धांधली हो रही है। कैसे-कैसे  डाक्टर तैयार कर रही है सरकार ?


( 16 दिसंबर, 2016 के प्रभात खबर के बिहार संस्करण में प्रकाशित)
 




शनिवार, 10 दिसंबर 2016

भूपेंद्र अबोध को हार्दिक श्रद्धांजलि



एक बार मैंने यूंही भूपेंद्र अबोध से पूछ दिया था कि आखिर मनोहर श्याम जोशी आपको और प्रभाष जोशी मुझे इतना प्यार क्यों करते हैं ?

अबोध जी ने बिना देर किए कहा कि ‘जोशी लोग बड़े उदार होते हैं।’ बाद में जब नवीन जोशी का भी स्नेह मुझे मिला तो अबोध जी की बात मुझे और भी सही लगने लगी।

 मनोहर श्याम जोशी जब साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक थे तो दिलीप कुमार ने इंटरव्यू देना मंजूर किया था। जोशी जी ने बिहार से भूपेंद्र अबोध को ही इस काम के लिए बंबई भेजा था। अबोध जी की प्रतिभा पर ऐसा विश्वास था मनोहर श्याम जोशी का। अबोध जी ने तो फिल्मी दुनिया की बहुत सी रपटें लिखीं। पटना में स्वामी दादा फिल्म की कहानी को लेकर जब केस हुआ था तो देवानंद ने कल्पना कार्तिक के भाई को पटना जाकर भूपेंद्र अबोध से मिलने को कहा था।

  पर अबोध जी का रचना संसार सिर्फ फिल्मी क्षेत्र ही नहीं था। टेलीफोन एक्सचेंज की साधारण नौकरी और बड़े परिवार के पालन-पोषण की जिम्मेदारी के बावजूद उन्होंने कविता -कहानी के साथ-साथ कथा रिपोर्ताज भी खूब लिखे।

  महेंद्र मिसिर और नक्षत्र मालाकार पर अबोध जी की खोजपूर्ण रपट मुझे याद हंै। संभवतः किन्हीं बड़ी हस्तियों के लिए वे ‘घोस्ट राइटिंग’ भी करते थे। उनके साथ बातचीत में इसका संकेत भी मुझे मिला था। हालांकि वे इसका खुलासा नहीं करते थे। लगता है कि परिवार की आर्थिक जिम्मेदारी उठाने के लिए उन्हें यह सब करना पड़ता था। क्षमता से अधिक मेहनत।

इलाहाबाद के मित्र प्रकाशन की पत्रिकाओं के लिए भी उन्होंने जम कर लेखन किया।

 अबोध जी नये पत्रकारों के लिए मार्ग दर्शक भी थे। मैं भी उनके साथ लंबी बैठकी करता था और कुछ सीखता था। हम दोनों की बैठकी के बीच एक ही बाधा थी उनकी चेन स्मोकिंग की लत। अतिशय सिगरेट ने उनके शरीर को जर्जर बना दिया था। ऐसे बहुमूल्य जीवन को अपने लिए नहीं तो कम से कम समाज के लिए अपने स्वास्थ्य को बचाकर रखना चाहिए।

अब अबोध जी हमारे बीच नहीं रहे। खैर उनकी निशानी के रूप में उनकी बहुत सारी रचनाएं और उनका प्रतिभाशाली कार्टूनिस्ट पुत्र पवन हमलोगों के बीच है। योग्य पिता के योग्य पुत्र।
पवन जैसा कार्टूनिस्ट विरले हैं।

एक से अधिक लोगों ने मुझे बताया कि हिंदुस्तान के प्रति उनके आकर्षण का सबसे बड़ा कारण पवन के कार्टून हंै।

नंद किशोर नवल ने 2007 में लिखा था कि ‘मनोहर श्याम जोशी ने भूपेंद्र अबोध की प्रतिभा को पहचाना था जिससे वे साप्ताहिक हिंदुस्तान के अनिवार्य लेखक हो गए थे। वे मूलतः कवि और कथाकार थे। अखबारी और सामयिक लेखन उनके लिए उपयुक्त क्षेत्र नहीं था। लेकिन जब वे उस तरफ मुड़े तो वहां भी अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा का चमत्कार दिखाया।’    

गुरुवार, 8 दिसंबर 2016

झाड़ दीजिए रपट की धूल

   काले धन की झाड़ी साफ करने की कोशिश जारी है।पर झाड़ी की जड़ में मट्ठा कब डाला जाएगा? जड़ खोदे बिना काले नोटों की झाड़ी फिर- फिर उग आएगी। 

 वोहरा कमेटी ने भ्रष्टाचार, अपराध और आतंक के त्रिगुट की चर्चा की है। जड़ तो वही है। नीरा राडिया टेप प्रकरण के अनुसार उस त्रिगुट में कुछ अन्य तत्व भी जुड़ चुके हैं।

 भ्रष्टाचार को जड़ से मिटा देने से संबंधित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ताजा वायदा देशवासियों को संतोष और दिलासा देने वाला है।

 पर, वायदा पूरा करने के सिलसिले में उन्हें वोहरा समिति की रपट पर से भी धूल झाड़नी पड़ेगी। वह रपट कें्रदीय सचिवालय में 1993 से पड़ी हुई है। 

 23 साल पहले वोहरा रपट आने के बाद तो इस बीच भ्रष्टाचार, अपराध  और आतंक की जड़ें और भी  गहरी हो चुकी हैं। इनसे   कुछ अन्य अवांछित तत्व जुड़कर उन्हें बेहद ताकतवर बना रहे हैं।
रपट में उन तत्वों की बेबाक चर्चा है।

तत्कालीन गृह सचिव एन.एन.वोहरा के नेतृत्व में बनी समिति की रपट में सरकारी अफसरों, नेताओं और देश के माफिया गिरोहों के बीच के अपवित्र गठबंधन का जिक्र है। गठबंधन को तोड़ने के  उपाय भी  सुझाए गये हैं। यह गठजोड़ अब अधिक खतरनाक स्तर पर पहुंच  चुका है। 
   माफिया तत्वों, आर्थिक क्षेत्र में सक्रिय लाॅबियों, तस्कर गिरोहों के साथ कतिपय प्रभावशाली नेताओं और अफसरों की सांठगाठ की विस्तृत चर्चा वोहरा समिति की रपट में है। पर, 1993 और उसके बाद की किसी भी सरकार ने उसकी सिफारिश पर अमल करने का साहस नहीं दिखाया। इससे माफिया तत्वों की ताकत का पता चलता है।

 याद रहे कि 1993 के बंबई बम विस्फोट की पृष्ठभूमि में ही वोहरा समिति का गठन किया गया था। श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोट बाहर-भीतर के आतंकी और देशद्रोही तत्वों की आपसी साठगांठ का परिणाम था। उसमें करीब 300 निर्दोष लोगों की जानें गई थीं।
  
  पांच दिसंबर, 1993 को वोहरा ने अपनी सनसनीखेज रपट गृह मंत्री को सौंपी थी। रपट में कहा गया कि ‘इस देश में अपराधी गिरोहों, हथियारबंद सेनाओं, नशीली दवाओं का व्यापार करने वाले माफिया गिरोहों, तस्कर गिरोहों, आर्थिक क्षेत्रों में सक्रिय लाॅबियों का तेजी से प्रसार हुआ है। इन लोगों ने विगत कुछ वर्षों के दौरान स्थानीय स्तर पर नौकरशाहों, सरकारी पदों पर आसीन लोगों, राज नेताओं, मीडिया से जुड़े व्यक्तियों तथा गैर सरकारी क्षेत्रों के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन व्यक्तियों के साथ व्यापक संपर्क विकसित किये हैं। इनमें से कुछ सिंडिकेटों की विदेशी खुफिया एजेंसियों के साथ-साथ अन्य अंतरराष्ट्रीय सबंध भी हैं।’

     रपट में यह भी कहा गया है कि इस देश के कुछ बड़े प्रदेशों  में इन गिरोहों को स्थानीय स्तर पर राजनीतिक दलों के नेताओं और सरकारी पदों पर आसीन व्यक्तियों का संरक्षण हासिल है। तस्करों के बड़े-बड़े सिंडिकेट देश के भीतर छा गये हैं। उन्होंने हवाला लेन-देनों, काला धन के परिसंचरण सहित विभिन्न आर्थिक कार्यकलापों को प्रदूषित कर दिया है। उनकी  समानांतर अर्थव्यवस्था के कारण देश के आर्थिक ढांचे को गंभीर क्षति पहुंची है। इन सिंडिकेटों ने सरकारी तंत्र को सभी स्तरों पर सफलतापूर्वक भ्रष्ट किया हुआ है। इन तत्वों ने जांच-पड़ताल तथा अभियोजन अभिकरणों को इस तरह प्रभावित किया हुआ है कि उन्हें  अपना काम चलाने में अत्यंत कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।’
  रपट के अनुसार ‘कुछ माफिया तत्व नारकोटिक्स, ड्रग्स और हथियारों की तस्करी में संलिप्त हैं। चुनाव लड़ने जैसे कार्यों में खर्च की जाने वाली राशि के मददेनजर नेता भी इन तत्वों के चंगुल में आ गये हैं। रपट में आई.बी. के निदेशक की बातें दर्ज की गयी हैं। उनके अनुसार ‘माफिया तंत्र ने वास्तव में एक समानांतर सरकार चलाकर राज्य तंत्र को एक विसंगति में धकेल दिया है।’

‘इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि इस प्रकार के संकट से प्रभावी रूप से निपटने के लिए एक संस्थान स्थापित किया जाए। इस समय ऐसा कोई तंत्र मौजूद नहीं है जो विशेषकर अपराध सिंडिकेट और माफिया के सरकारी तंत्र के साथ बने संबंधों के बारे में सूचनाएं एकत्रित और समेकित कर सके।’

सी.बी.आई. के निदेशक के अनुसार बड़े शहरों में संगठित अपराधी सिंडिकेट/माफिया की आय का प्रमुख साधन भू संपदा आदि है। वे भूमि और भवनों पर जबरन कब्जा कर लेते हैं। इस प्रकार से अर्जित धनशक्ति का इस्तेमाल नौकरशाहोंं तथा नेताओं के साथ संपर्क बनाने के लिए किया जाता है ताकि वे बेरोकटोक अपनी गतिविधियां चालू रख सकें। वे लठैत पालते हैं। उनका इस्तेमाल चुनावों में भी होता है।

छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में भी लठैतों का दबदबा आम बात हो गयी है। भाड़े के हत्यारे इन संगठनों के अभिन्न अंग हैं। अपराधी गिरोहों, पुलिस, नौकरशाही तथा नेताओं के बीच साठगांठ अब देश के विभिन्न हिस्सों में खुलकर सामने आ चुकी है। वर्तमान आपराधिक न्याय प्रणाली, जो मूलतः व्यक्तिगत अपराधों से निपटने के लिए बनाई गयी थी, माफिया की गतिविधियों से निपटने के लिए पर्याप्त नहीं है। आर्थिक अपराधों के संबंध में भी हमारे कानून के उपबंध कमजोर हैं।’

  रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के अफसर ने कहा कि विदेशों में स्थित इस एजेंसी के कार्यालयों की वर्तमान क्षमता इतनी अधिक नहीं है कि वह अपनी गतिविधियों के क्षेत्र को व्यापक बना सके।   

    1993 के बाद देश के संसाधनों को लूटने वालों ने अपनी कार्यशैली व रणनीति में थोड़ा बदलाव जरूर किया है, पर मूल तत्व वहीं हंै। इस बीच नये कानून व संस्थान भी बने हैं। पर वे अपर्याप्त हैं।

   समिति की मुख्य सलाह यह है कि गृह मंत्रालय के तहत एक  नोडल एजेंसी तैयार हो जो देश मेंे जो भी गलत काम हो रहे हैं, उसकी सूचना वह एजेंसी एकत्र करे। ऐसी पक्की व्यवस्था भी की जाए ताकि सूचनाएं लीक नहीं हों।

   सावधानी बरतते हुए  वोहरा ने इस रपट की सिर्फ तीन प्रतियां तैयार की थीं। यह काम उन्होंने खुद किया।ऐसा उन्होंने लीक होने के डर से किया। वोहरा ने रपट की  प्रति तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री और गृह राज्य मंत्री (आंतरिक सुरक्षा) को सौंपी। तीसरी प्रति वोहरा ने अपने पास रखी। 

वोहरा ने उस रपट में लिखा कि ‘गृह मंत्री द्वारा इस रपट के अवलोकन के बाद मैं उनसे अनुरोध करूंगा कि वे आगे की कार्रवाई के लिए वित्त मंत्री,राज्य मंत्री @आंतरिक सुरक्षा@ और मेरे साथ विचार विमर्श करने का कष्ट करें। उससे जो रास्ता निकलेगा, उसको अमल में लाने से पहले प्रधानमंत्री जी की मंजूरी प्राप्त की जा सकती है।’
  पर जानकार लोग बताते हैं कि वोहरा की इस सलाह को सरकार ने कुल मिलाकर नजरअंदाज ही कर दिया।

( 8 दिसंबर 2016 के राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित)

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

एनडीए में जाने की कयासबाजी !

हकीकत है या फसाना ? किसी को हकीकत लग रहा है तो किसी को फसाना। जो बिहार की राजनीति को जानते हैं ,वे इसे पूरी तरह फसाना ही मान  रहे हैं। नोटबंदी पर नीतीश  का समर्थन देखकर अकारण  तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं।

 इसमें  अचरज  भी नहीं।क्योंकि कई बार नेता पाला बदलने से पहले अपने बयानों का रुख भी उसी दिशा में कर लेते हैं।पर इस कसौटी पर नीतीश कुमार को कसने पर धोखा ही मिलेगा।

 नीतीश  की राजनीतिक शैली के जानकार लोग राजग में उनके जाने की  संभावना को  हकीकत से कोसों दूर बता रहे हैं।यदि बीच में कोई राजनीतिक पहाड़ न टूट पड़े  तो  अगले  लोस चुनाव तक तो इसकी कोई संभावना नहीं।

 नीतीश कह चुके हैं कि वह प्रधान मंत्री पद की तमन्ना नहीं पालते।पर  अक्तूबर में जब उन्होंने जदयू  अध्यक्ष पद का कार्यभार संभाला तो जदयू के कुछ नेताओं ने कहा कि नीतीश कुमार पी.एम.मेटेरियल हैं।

 पूर्व मुख्य मंत्री बाबूलाल मरांडी भी यही मानते हैं।

  गत अप्रैल में तो लालू प्रसाद ने कह दिया था कि मैं प्रधानमंत्री पद के लिए नीतीश का समर्थन करूंगा।
 वैसे भी खुद नीतीश देश के कुछ राजग विरोधी दलों को एकत्र करने की कोशिश करते रहे हैं। यदि राजनीतिक संभावना और अवसरवादिता की दृष्टि से भी देखें तो नीतीश के राजग में जाने की संभावना अभी कहां बनती है ?

 अगले लोकसभा चुनाव का क्या नतीजा होगा, यह अनिश्चित है। वैसे तो अभी नरेंद्र मोदी की बढ़त लग रही है। पर अगले ढाई साल में राजनीति कैसी करवट लेगी, यह भला कौन जानता है !

 यदि तब राजग विरोधी दलों के लिए कोई संभावना बनती है तो नीतीश भी प्रधानमंत्री पद के एक उम्मीदवार बन सकते हैं। 

अपनी विनम्रता के तहत भले नीतीश आज कहें कि वह प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं,पर उस संभावना को वह अभी से क्यों समाप्त करना चाहेंगे ? देश के  कई नेता कभी उम्मीदवार नहीं थे, पर प्रधान मंत्री बने।गुजराल और देवगौड़ा इसके उदाहरण हैं। मुलायम और ज्योति बसु के नाम भी कभी गंभीरता लिये गये थे।

  क्या राजग में जाने के बाद नीतीश की वह संभावना समाप्त नहीं हो जाएगी ? और राजग में जाने पर अभी नीतीश को अतिरिक्त मिल क्या जाएगा ?     

  राजग में जाने की अफवाह उड़ने के पीछे नीतीश का नोटबंदी समर्थक बयान है।इस पृष्ठभूमि में अमित शाह से उनकी मुलाकात और प्रधान मंत्री से उनकी बातचीत की अफवाहें भी उड़ने लगीं।जबकि राजग या जदयू के किसी सूत्र ने इस खबर की पुष्टि नहीं की।इससे दुःखी होकर नीतीश कुमार ने कहा कि  ‘मेरे राजनीतिक जीवन को खत्म करने की साजिश चल रही है।देश के राजनीतिक सवालों पर अपना नजरिया रखने पर अनर्गल राजनीतिक व्याख्या की जाती है। यह साजिश है जिसकी मैं चिंता नहीं करता हूं।’

  दरअसल यह पीड़ा नीतीश की खास राजनीतिक शैली का परिणाम है। यह शैली अन्य  अधिकतर नेताओं  से उन्हें अलग करती है। पर अफवाहें फैलाने का मौका भी दे देती है।

  नीतीश ने नोटबंदी के मोदी सरकार के फैसले का समर्थन क्या किया कि राजग में उनके शामिल होने की भविष्यवाणियां की जाने लगीं। नीतीश कुमार इसका कई बार खंडन कर चुके हैं।

 आम राजनीतिक चलन तो यही है कि अपने राजनीतिक विरोधियों  के हर काम का विरोध करना चाहिए।आम नेतागण अपने विरोध के दल का समर्थन तभी करते हैं जब उन्हें उस दल से साठगांठ करनी होती है। हालांकि आए दिन बदलते राजनीतिक समीकरणों के इस दौर में  किसी दल के अगले कदम के  बारे में कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है। खुद जदयू भी अपना समीकरण बदलता रहा है।पर जदयू के बारे में फिलहाल यह कहा जा सकता है कि  कोई अत्यंत मजबूरी नहीं हो गयी तो वह दलीय  समीकरण सन 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले कत्तई नहीं बदलेगा। 

 अपने विरोधी के भी अच्छे कामों का देशहित में समर्थन की शैली नीतीश की पहले से भी रही है।वह कभी-कभी सहयोग भी करते रहे।

विरोध करने वाली बातों का विरोध तो करते ही हैं। हालांकि कुल मिलाकर नीतीश कुमार कम बोलने वाले नेता हैं। हाल में नोटबंदी के मोदी सरकार फैसले का समर्थन कर दिया तो अनेक लोगों, नेताओं और राजनीतिक प्रेक्षकों को मौका मिल गया। अनुमान लगाया जाने लगा है कि जदयू राजग में शामिल होने वाला है।

 एक जदयू नेता ने कहा कि ऐसा यह सोचे बिना हो रहा है कि   ऐसी अपुष्ट खबरों यानी अफवाहों का कैसा असर राजद और कांग्रेस पर पड़ेगा जिनके समर्थन से नीतीश कुमार आज मुख्यमंत्री हैं।

 याद रहे कि न तो जदयू और न ही भाजपा के किसी जिम्मेदार नेता ने इस खबर या इसकी संभावना की पुष्टि की है।

 जहां तक नीतीश की अलग तरह की राजनीतिक शैली का सवाल है,सन 2012 में जदयू  ने राष्ट्रपति पद के चुनाव में यू.पी.ए. के उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी को वोट दिए थे।नीतीश तब राजग में थे । 

 उन्हीं दिनों राजग में रहते हुए नीतीश कुमार ने जी.एस.टी. विधेयक का समर्थन किया जबकि भाजपा ने मनमोहन सरकार के जी.एस.टी. विधेयक को पास नहीं होने दिया।

  भारतीय सेना के सर्जिकल स्ट्राइक का भी नीतीश कुमार ने समर्थन किया था। कुछ अन्य विरोधी दल सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगते रहे।

संकेत हैं कि नोटबंदी के मूल फैसले का अधिकतर आम लोगों ने विरोध नहीं किया है। यदि विरोध किया होता तो भाजपा हाल के लोकसभा -विधानसभा उपचुनावांें में अपनी सीटें गंवा बैठती।

  महाराष्ट्र और गुजरात में नोटबंदी के बाद हुए निकाय चुनावों में भी भाजपा ने बड़ी जीत हासिल की है। यानी शहरों में भी जीत और गांवों में भी। नीतीश कुमार की राजनीतिक घ्राणशक्ति कमजोर नहीं मानी जाती। वह जनता के खिलाफ क्यों जाते ?

   नीतीश नोटबंदी का विरोध करके देश के कुछ अन्य विवादास्पद नेताओं की कतार में खुद को क्यों शामिल कर लेते जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं ?

भाजपा का यह आरोप रहा है कि नोटबंदी पर जनता की पीड़ा के बहाने कई नेता अपनी पीड़ा का एजहार कर रहे हैं। यानी  नीतीश के बयान को राजग से दोस्ती की संभावना से भला कैसे जोड़ा जा सकता है ?  

 (2 दिसंबर 2016 के राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित)

पदों के साथ-साथ पिछड़ों को चाहिए कल्याणकारी योजनाएं

केंद्र सरकार अगले कुछ वर्षों में पिछड़ों के कल्याण के लिए कितने ठोस काम करने वाली है ?

  यदि सचमुच कुछ चैंकाने वाले कल्याणकारी काम हुए तो उससे नवनियुक्त प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नित्यानंद राय की पैठ पिछड़ों में बढ़ेगी।अन्यथा वह भी उसी तरह लालू प्रसाद के सामने प्रभावहीन रहेंगे जिस तरह उनके समुदाय से आने वाले पहले के दो प्रदेश अध्यक्ष रहे।

 हां, नित्यानंद राय की नियुक्ति के साथ एक बात जरूर हुई है। वह यह कि संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण पर गत साल दिए बयान के कारण पिछड़ों के एक हिस्से में जो गुस्सा पैदा हुआ था,वह संभवतः थोड़ा कुंद होगा।

नित्यानंद राय की नियुक्ति के साथ डा.प्रेम कुमार और सुशील कुमार मोदी की नियुक्तियों को जोड़ कर देखा जाए तो बिहार भाजपा की अब एक भिन्न छवि उभरती है। यह छवि भाजपा की परंपरागत सवर्ण बहुल छवि से भिन्न है।

   छवि बनना एक बात है, पर पिछड़ों में पैठ बनाना दूसरी बात है। बिहार में भाजपा के लिए लालू-नीतीश की दमदार जोड़ी से मुकाबला करना आसान नहीं है। नीतीश कुमार की छवि तो समावेशी नेता की है। वह न्याय के साथ विकास के पक्षधर रहे हैं।

नीतीश की धारणा है कि जिस समुदाय की जितनी मदद की जरूरत है, उतनी मदद उसे मिलनी चाहिए। वह सवर्णों का भी ध्यान रखते रहे हैं।

 पर 1990 के मंडल आरक्षण आंदोलन के दौरान लालू प्रसाद  अपनी बेजोड, साहसी और ऐतिहासिक भूमिका के कारण पिछड़ों खास यादवों के डार्लिंंग बने हुए हैं।

लालू की ताकत को कमजोर करना टेढी खीर है।

हां, इन दिनों प्रधान मंत्री जिस तरह आक्रामक मुद्रा में हैं,जिस तरह वे भ्रष्टाचार व काला धन के दानव से लड़ रहे हैं,उससे यह उम्मीद बनती है कि वह देर सवेर एक दिन इस देश के उपेक्षित पिछड़ों के लिए भी कुछ ठोस काम कर देंगे।पिछड़ों के विकास के बिना देश का सम्यक विकास कैसे होगा ?  भागवत के बयान की वास्तविक क्षतिपूर्ति तभी होगी।

पिछड़ों के लिए पहला काम तो यह हो सकता है कि केंद्र सरकार पिछड़ा वर्ग आयोग की इस सिफारिश को मान ले कि 27 प्रतिशत आरक्षण को तीन भागों में बांट दिया जाए।उससे पिछड़ों के बीच के कमजोर तबकों को भी आरक्षण का लाभ मिलने लगेगा।

 आम पिछड़ों के व्यापक भले  के लिए भी कई काम हो सकते हैं ताकि वे समाज में आगे बढ़ चुके लोगों के समकक्ष आ सकें।



बिहार भाजपा के भीतर 
राज्य भाजपा के कई सवर्ण नेता प्रदेश अध्यक्ष पद के उम्मीदवार थे। पर उन्हें नजरअंदाज करके नित्यानंद को यह सम्मान मिला। हाईकमान का यह फैसला गलत नहीं है। पर सवाल है कि वैसे नेतागण नित्यानंद राय को सहयोग करेंगे? ऐसी उम्मीद करना जल्दीबाजी होगी।

पर राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार वैसे नेता नित्यानंद के साथ  पार्टी के भीतर जितना असहयोग करेंगे, पिछड़ों में नित्यानंद की पैठ उतनी ही बढ़ेगी नित्यानंद संघ पृष्ठभूमि के हैं। इसलिए वह संघ के बड़े नेताओं को यह बताने की बेहतर स्थिति में हैं कि भविष्य में आरक्षण पर बयान देने से पहले सोच विचार कर लिया जाए।

  बड़े कामों के लिए अधिक जन समर्थन जरूरी

 नरेंद्र मोदी ने कुछ बड़े काम करने का बीड़ा उठाया है। ऐसे काम जिनके बारे में किसी पिछली सरकार ने सोचा तक नहीं। वैसे कामों को अंजाम देने के लिए सरकार को जनता की ताकत चाहिए। पिछले लोक सभा चुनाव में देश के सिर्फ एक तिहाई मतदाताओं का ही समर्थन राजग को मिला था। पिछड़ गए समुदायों के बीच अपनी पैठ बनाये बिना मोदी का समर्थन नहीं बढ़ सकता। कम समर्थन वाली किसी सरकार को निहितस्वार्थी तत्व ऐसे  काम करने नहीं देंगे।

काम क्या हैं ? इस देश में आम तौर पर जो व्यापार होता हैं, उसके दो खाते होते हैं। एक सफेद खाता और दूसरा काला खाता। मोदी काले धन के, खाते को बंद करना चाहते हैं। क्या यह मामूली काम है ?

अधिकतर सरकारी दफ्तरों में अधिकतर सरकार निर्णय बिकाऊ हैं। मोदी जी इसे बंद करना चाहते हैं। यह आसान काम है ?

चुनावों में खर्च के दो हिसाब होते हैं। चुनाव आयोग को देने वाला  कागजी हिसाब और दूसरा काले धन का प्रयोग।

क्या चुनाव में काले धन का प्रयोग बंद करना आसान काम है? संपत्ति खरीद में कुछ पैसे चेक से दिया जाते हंै और अधिक पैसे नकद। क्या सारे पैसे चेक देने के लिए मजबूर किया जा सकता है?

जानकार लोग बताते हैं कि इस तरह के कुछ और काम केंद्र सरकार की सूची में हैं। विमुद्रीकरण उसी सूची में था।

 इन सब कामों को करने के लिए सरकार को बड़ी ताकतों से टकराना होगा। इनमें से कुछ शक्तियां खुद मोदी सरकार के भीतर हैं। वे शक्तियां सरकार गिराने की भी कोशिश कर सकती हैं।उन काली शक्तियों का मुकाबला सरकार भारी जन समर्थन से ही कर सकती है। यह समर्थन मोदी सरकार को तभी मिलेगा जब वह सदियों से पिछड़ गए लोगों के भले के लिए कुछ चैंकाने वाले काम करके दिखाए। तभी नित्यानंद राय की नियुक्ति भी सार्थक मानी जाएगी।


ममता के गद्दार वाले बयान पर

 पूर्व केंद्रीय मंत्री डा. रघुवंश प्रसाद सिंह ने ममता बनर्जी के साथ नोटबंदी के खिलाफ पटना में धरना दिया। ठीक किया। लोकतंत्र में इसकी अनुमति है। पर ममता जी ने नोटबंदी के समर्थकों को गददार कह दिया। क्या यह उचित है ?

क्या रघुवंश जी उस बयान से खुद को अलग करेंगे? राजग के बाहर के कुछ राजनेता भी नोटबंदी का समर्थन कर रहे हैं।क्या उन्हें गददार कहा जाना चाहिए?


 कब तक चलेगी लर्नर लाइसेंस पर गाड़ी ! 

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने गत सितंबर में यह सही कहा था  कि दिल्ली सरकार एक कलम खरीदने में भी सक्षम नहीं है। वह और उनके कैबिनेट सहयोगी अधिकारों से पूरी तरह वंचित हैं।’

यह भी सही बात है कि दिल्ली की राजनीतिक कार्यपालिका को उतने अधिकार नहीं हैं जितने बिहार, पंजाब तथा इस तरह के पूर्ण दर्जा वाले राज्यों की राजनीतिक कार्यपालिकाओं को हंै।

 पर केंद्र की मोदी सरकार ने केजरीवाल सरकार को उतने अधिकारों का भी उपयोग नहीं करने दिया जितना शीला दीक्षित मुख्यमंत्री के रूप में करती थीं।

दिल्ली के अगले विधान सभा चुनाव में केजरीवाल की पार्टी जनता से यह कह सकती है कि हमें तो अधिकार ही नहीं दिया तो हम  काम कैसे कर पाते ? पर पंजाब में आप को यदि मौका मिला तो शायद वहां उनके हाथ नहीं रुकेंगे।

  पर सवाल है कि केजरीवाल साहब कब तक ‘लर्नर लाइसेंस’ के साथ गाड़ी चलाते रहेंगे? प्रौढ राजनीति करना कब सीखेंगे ? ताजा उदाहरण नोटबंदी पर उनका विरोध है। वह शारदा-नारदा के दागियों  और आय से अधिक संपत्ति जुटाने का आरोप झेल रहे नेताओं की कतार में खड़े नजर आए।


बड़ा  संकट आ गया तो क्या होगा ? 

साठ के दशक में अन्न संकट से उबरने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने रेडियो संदेश के जरिए देशवासियों से अपील की कि वे हर  सोमवार को एक वक्त का भोजन त्याग दें। लोगों ने इसे ‘शास्त्री व्रत’ कह कर उसका पालन किया।यहां तक कि तब रेस्त्रां और होटल भी सोमवार की शाम में बंद रहते थे।

पर अर्थ संकट से उबरने के लिए लागू नोटबंदी पर अनेक लोग अड़ंगे लगा रहे हैं। खुदा न करे, पर यदि भारत को कोई युद्ध लड़ना पड़ गया तो वैसे लोग क्या करेंगे ?


और अंत में
  नरेंद्र मोदी सरकार ने नोटबंदी के साथ ही राष्ट्रीय विमर्श का मुद्दा ही बदल दिया है। एक तरफ साक्षी महाराज, साध्वी प्राची तो दूसरी ओर असदुददीन ओवैसी और दिग्विजय सिंह जैसे नेता अभी बेरोजगार से हो गए लगते हैं। यह देशहित में होगा कि दोनों पक्षों के ऐसे नेतागण कम से कम अगले कुछ समय के लिए ‘शांति’ बनाए रखें।

(प्रभात खबर, बिहार संस्करण ः 2 दिसंबर 2016 से साभार)