गुरुवार, 31 मई 2018

 पटना के ‘प्रभात खबर’ ने बिहार के जल संकट पर आज सचित्र सामग्री प्रकाशित की है।आंखें खोलने वाली है।
 चेत जाने का समय अभी बचा है।बाद में वह भी नहीं बचेगा।
    90 के दशक में बिहार में ढाई लाख के करीब तालाब हुआ करते थे।
आज राज्य में सिर्फ 93 हजार हैं।
अखबार के अनुसार जल निकायों की संख्या 199 लाख हैं  जिनमें सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अब भी 12027 जल निकाय अतिक्रमण के शिकार हैं।
सुप्रीम कोर्ट का निदेश है कि तालाब को भर कर उस पर भवन या उससे संबंधित किसी प्रकार का निर्माण कार्य नहीं किया जा सकता।सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में ही राज्य सरकारों से कहा था कि वे तालाबों का अतिक्रमण रोकने के लिए कड़ी व त्वरित कार्रवाई करें।
  पर लगता है कि न तो सरकार और न ही अतिक्रमणकारी यह समझने  को तैयार हैं कि ‘जल ही जीवन है।’
आखिर  हम जल संचय का महत्व कब समझेंगे ? 
  आशुतोष चतुर्वेदी ने ठीक ही लिखा है कि ‘पानी का मौजूदा संकट सिर्फ पानी की कमी और मांग बढ़ने से ही नहीं है।
इसमें जल प्रबंधन की कमी का बहुत बड़ा हाथ है।
दरअसल सबसे बड़ी समस्या यह है कि बारिश का पानी बाहर निकल जाता है।उसके संचयन का कोई उपाय नहीं है।इसे चेक डैम अथवा तालाबों के जरिए रोक लिया जाये तो साल भर खेती और पीने के पानी की समस्या नहीं होगी।’
@30 मई 2018@

बुधवार, 30 मई 2018

 पहले मेरी यह धारणा थी कि यदि कोई धन बटोरू 
नेता प्रधान मंत्री पद पर नहीं बैठा होगा तो सरकारी भ्रष्टाचार में काफी हद तक कमी आ जाएगी।जैसी कमी जवाहर लाल नेहरू-लाल बहादुर शास्त्री  के कार्यकाल में थी।
आज नरेंद्र मोदी के कट्टर विरोधी भी यह आरोप नहीं लगा रहे हैं कि नरेंद्र मोदी अपनी या अपने करीबी रिश्तेदारों की सरकारी मदद से निजी संपत्ति बढ़ा रहे हैं।
यही नहीं,जिस तरह मन मोहन सरकार के मंत्रियों के खिलाफ एक से एक महा घाटाले के आरोप लग रहे थे,वैसे आरोप भी मोदी मंत्रिमंडल के सदस्यांे के खिलाफ नहीं लग रहे हैं।
  इसके बावजूद आम लोगों को सरकारी भ्रष्टाचार से राहत नहीं मिल रही है।इसके क्या कारण हंै ?
 इसके लिए कौन लोग जिम्मेदार हंै ?
क्या आई.ए.एस.अफसर जिम्मेदार हैं ?
क्या केंद्रीय सचिवालय के बाबू ?
क्या वहां के चपरासी ?
या कोई और ?
कुछ समझ में नहीं आ रहा है।
आप ही कुछ समझाइए। 

मंगलवार, 29 मई 2018

पृथ्वीराज कपूर-पुण्य तिथि -29 मई --के अवसर पर
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1927 में फिल्म में काम करने जब बंबई पहुंचे तो पृथ्वीराज कपूर के 
पास  थे सिर्फ 70 रुपए
      --- सुरेंद्र किशोर---- 
नौजवान पृथ्वीराज कपूर 1927 में जब लायल पुर से बंबई पहुंचे तो उन्होंने तांगेवाले से कहा कि ‘मुझे समुद्र के किनारे ले चलो।’
  समुद्र के किनारे खड़े होकर उन्होंने मन ही मन कहा कि ‘हे ईश्वर यदि आप मुझे यहां काम नहीं दिलवाएंगे तो  मैं सात समंदर पार कर जाऊंगा और हाॅलीवुड  जाकर बड़ा स्टार बनूंगा।’
 पर वह नौबत नहीं आई।वे बंबई में ही बड़ा स्टार बन गए।इतना ही नहीं,उनका परिवार बाॅलीवुड का सबसे बड़ा व तेजस्वी फिल्मी परिवार बना।
 पहली बार वे जब बंबई की  इंपीरियल फिल्म कंपनी के गेट पर पहुंचे तो वहां उन्हें जानने वाला कोई नहीं था।
उन्होंने गेट पर एक पठान को देखा। उन्होंने उससे पश्तो में बातचीत शुरू कर दी।
दरवान बड़ा खुश हुआ कि उसके इलाके का कोई व्यक्ति उसके पास आया है।
एक पश्तो भाषा भाषी को दूसरे पश्तो भाषी दरवान ने आसानी से भीतर प्रवेश दिला दिया।
 बिना एप्वांटमेंट के वहां प्रवेश काफी कठिन था।
जब एक बार प्रवेश पा गए तो प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी पृथ्वीराज को जल्द ही कलाकार बन जाने का अवसर भी मिल गया।
  पृथ्वी राज कपूर का जन्म 3 नवंबर 1906 को लायल पुर जिले @अब पाकिस्तान@के समुद्री नामक शहर में हुआ था।तीन साल की उम्र में ही उनकी मां का निधन हो गया था।
  बालक ‘प्रिथी’ को अपने दादा दीवान केशवमल कपूर से अधिक स्नेह मिला।
उन्होंने प्रारंम्भिक शिक्षा पूरी करके जब लायल पुर के खालसा हाई स्कूल में दाखिला लिया  तो वहां मास्टर तारा सिंह ने उन्हें अंग्रेजी के साथ- साथ वाॅली बाॅल के भी दांवपेंच सिखाये थे।
  पृथ्वीराज ने हाई स्कूल और इंटर की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में पास की।वे पेशावर के एडवर्ड कालेज में दाखिल हुए जहां के प्राध्यापक जय दयाल ने उन्हें कालेज के नाटकों में भाग लेने और अपनी अभिनय प्रतिभा को निखारने का मौका दिया और प्रोत्सहित भी किया।पृथ्वीराज  कालेज के एमेच्युअर ड्रामेटिक क्लब के सचिव भी बने।बी.ए.पास करने के बाद पृथ्वीराज ने लाहौर के लाॅ कालेज में दाखिला लिया,पर लाॅ की पढ़ाई में उनका मन नहीं लगा।प्रथम वर्ष की परीक्षा में ही वे फेल कर गये।इससे वे विचलित हो गये।
उन्होंने इसके बाद अपने लिए अभिनय का क्षेत्र चुन लिया।
   अपने किसी रिश्तेदार से दो सौ रुपये उधार लेकर वे 1927 में मुम्बई रवाना हो गए।पर बंबई  पहुंचने  तक उनके पास मात्र 70 रुपये ही बच गये थे।
  बहुत कम ही लोग यह जानते होंगे कि पृथ्वीराज कपूर को मशहूर अकाली नेता मास्टर तारा सिंह ने अंग्रेजी पढ़ाई थी।तब वह लायल पुर के खालसा हाई स्कूल में प्रिंसिपल थे और पृथ्वीराज कपूर उनके छात्र।मास्टर तारा सिंह के साथ मास्टर शब्द उनके शिक्षक होने के कारण जुड़ा था।
मास्टर तारा सिंह बाद में  धार्मिक और राजनीतिक अभियानों में शामिल हुए और उसका नेतृत्व किया। कहते हैं कि पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह के बाद मास्टर तारा सिंह का ही सर्वाधिक सम्मान रहा।तारा सिंह का 1967 में निधन हो गया।
    किसी विधा के शीर्षस्थ व्यक्ति के लिए अंग्रेजी में ‘फादर फिगर’ शब्द का इस्तेमाल होता है।पृथ्वीराज कपूर अपने जमाने के फिल्मी संसार के लिए फादर फिगर ही थे।फिल्म जगत के सारे लोग उन्हें ‘पापा जी’ ही कहते थे।
  बंबई में पृथ्वीराज ने मुफ्त में एक्स्ट्रा के रूप में काम करने का प्रस्ताव रखा जिसे इरानी ने स्वीकार कर लिया।बाद में पृथ्वीराज की ओर  निदेशक वी.पी.मिश्र का ध्यान गया और उन्होंने ‘सिनेमा गर्ल’ में नायक की भूमिका दे दी।यह 1930 की बात है।इसके बाद सात मूक फिल्मों में पृथ्वीराज ने काम किया।प्रथम ऐतिहासिक  सवाक् फिल्म ‘आलम आरा’ में अभिनय करने का अवसर पृथ्वीराज कपूर को भी प्राप्त हुआ ।
   1944 में उन्होंने पृथ्वी थियेटर की स्थापना की।उन्होंने 60 कलाकारों का एक समूह तैयार किया।सबसे पहले उन्होंने ‘शकुंतला’ नाटक को मंच पर प्रस्तुत किया।हालांकि वह असफल रहा।उन्हें एक लाख रुपये का घाटा हुआ।पर वे मायूस नही ंहुए।
इसके बावजूद उन्होंने कलाकारों दो माह का बोनस दे दिया।
प्राचीन नाटकों के बदले उन्होंने नये नाटक लिखवाये।वे सफल रहे।थियेटर का घाटा उन्होंने फिल्मों में काम करके पूरा किया।पृथ्वी थियेटर ने फिल्मी दुनिया को कई बेहतरीन कलाकार दिये। उनके पुत्र राज कपूर ,शम्मी कपूर और शशि कपूर  ने भी नाटकों से ही  अभिनय शुरू किये थे।
1944 से 1960 तक पृथ्वी थियेटर ने 8 नाटकों को देश के विभिन्न हिस्सों में 26 सौ बार मंचित किये।पृथ्वीराज ने इन सब में अभिनय किया।वे कलाकारों के साथ ट्रेन के तीसरे दर्जे में सफर करते थे।
      पृथ्वीराज कपूर ने फिल्मों में सिकंदर,विक्रमादित्य और अकबर जैसे चरित्रों को परदे पर साकार किया।उनका व्र्यिक्तत्व इतना प्रभावशाली था कि वे अपनी उपस्थिति से पर्दे पर जान डाल देते थे।लोगों से मिलने ,उनसे बातें करने और उनकी समस्याएं जानने का उनमें उत्साह रहता था।जरूरतमंदों को मदद किया करते थे।
   वह चार साल तक कें्रद्रीय रेलवे मजदूर यूनियन के अध्यक्ष भी रहे।1966 में उन्हें चेकोस्लोवोक राष्ट्रीय कला अकादमी का पुरस्कार दिया गया था।यह पुरस्कार उन्हें ‘आसमान महल’ में मुख्य भूमिका के लिए   मिला था।वे आठ साल तक राज्य सभा के सदस्य रहे और सन् 1969 में उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया गया था।उन्हें 1972 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।
  29 मई 1972 को मुम्बई के टाटा मेमोरियल अस्पताल में उनका निधन हो गया।उस समय उनकी उम्र 66 साल थी।मृत्यु के समय वे अपने  परिवार के सदस्यों से घिरे हुए थे। अस्पताल से उनका शव जुहू स्थित उनके आवास पर लाया गया।अंतिम दर्शन के लिए जन समूह उमड़ पड़ा।बड़ी फिल्मी हस्तियों में चंदू लाल शाह,के.एन.सिंह,डेविड अब्राहम,और सोहराब मोदी शामिल थे।नई और पुरानी पीढ़ी के सभी प्रमुख निदेशकों और अभिनेताओं ने उन्हें श्रद्धांजलि दी।जुहू से शांताक्रूज श्मशान घाट के बीच के शवयात्रा के मार्ग पर भी इतनी भीड़ जमा हो जाती थी कि उन्हें नियंत्रित करना मुश्किल हो रहा था।ऐसे थे फिल्मी जगत के ‘पापाजी’।     
 @---दराइटरडाॅटइन@
    
  

 अमरीका में स्मार्ट फोन की जगह अब ‘लाइट फोन; यानी हल्के फोन का चलन बढ़ रहा है।
 स्मार्ट फोन की बुराइयों से परेशान होकर कई अमरीकी अब ऐसा कर रहे हैं।
हालांंकि एप्पल के सह संस्थापक स्टीव जाॅब्स को तो इसकी बुराइयों का अनुमान पहले से ही था।इसीलिए उन्होंने  कभी अपने परिवार के बच्चों को स्मार्ट फोन का इस्तेमाल करने नहीं दिया।
 वे तो इसकी बुराइयों के परिचित थे ही।बाद के रिसर्च से तो पता चला कि यह किसी भी अन्य नशा से अधिक तगड़ा नशा है।
 जब पूरा अमरीका स्मार्ट फोन के नशे में डूब गया, 
लोगों की जीवन शैली बदलने लगी, आपसी संबंधों पर असर पड़ने लगा ,बच्चे बर्बाद होने लगे  तो एक बार फिर वहां के कुछ लोग पुराने वाले साधारण मोबाइल  फोन पर आ रहे हैं।
नये ‘लाइट फोन’ से, जिसे कुछ लोग मजाक में  ‘डम्ब फोन’ भी कह रहे हैं, सिर्फ बातचीत की जा सकती है और संदेश भेजे जा सकते हैं।एक दो और छोटे काम।
 पता नही,ं भारत में यह ‘वापसी’  कब होगी  ?
क्योंकि यहां भी लोग उसी तरह के नशे में डूबे हुए हैं।इस देश में भी करीब 34 करोड़ लोग स्मार्ट फोन का इस्तेमाल कर रहे हैं।
अनेक लोग घर आए मेहमान को अपने बैठकखाने में बैठा कर खुद स्मार्ट फोन को अपना समय देने लगते  हैं।यदि मेहमान के पास भी है तो वे भी वहीं स्मार्ट फोन पर व्यस्त हो जा रहे हैं।पहले जैसी बातचीत नहीं होती।
  आचार्य रजनीश का  1969 या उसके बाद का एक प्रवचन मुझे याद आ रहा है।
 अन्य बातों के अलावा उन्होंने अमरीका के अनाज के बारे में एक बात कही थी ।उन्होंने कहा कि वहां की दुकानों में कुछ अनाज ऐसे भी मिलते हैं जिन पर लगी तख्ती पर  यह लिखा होता है कि ये जैविक खाद से उपजाए गए हैं।
मेरे लिए यह खबर थी।
तब हम  भारत के लोग रासायनिक खाद से बढ़ी पैदावार से खुश हो रहे थे।यानी एक खास तरह से नशे में थे।उधर अमरिका नशा तब तक उतर चुका था।
  अब जाकर इस देश में जैविक खाद पर अधिक जोर दिया जाने लगा है जब रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाएं  हमारा बहुत नुकसान कर चुके हंै ।
 यानी हमारा नशा जरा देर से उतरता है।
   हम लोग जब खुद को और अपने बच्चों को स्मार्ट फोन से कुछ और बर्बाद कर चुके होंगे तब जाकर शायद  एक बार फिर  ‘लाइट फोन’ यानी ‘डम्ब फोन’ की ओर लौटेंगे। 

  

सोमवार, 28 मई 2018

  उनकी पुण्य तिथि के अवसर पर मैंने जवाहर लाल नेहरू
 के सकारात्मक पक्षों को चित्रित करते हुए कल अपनी दो सामग्री अपने फेसबुक वाॅल पर डाली।
  इससे पहले भी उन पर लिखता रहा हूं।
इस बार दोनों  लेखों पर कुल मिलाकर सिर्फ 102 लाइक,शेयर व टिप्पणियां  मिलीं।
   अभी मेरे 4999 फेसबुक फे्रंड हैं।1335 लोग फाॅलो करते हैं।ऐसे भी लोग हैं जो फ्रंेड तो नहीं हैं,फिर भी मेरे फेस बुक वाॅल पर लिखते रहते हैं।खास कर मेरी आलोचनाएं।
  पर नेहरू जी पर इतनी कम प्रतिक्रियाएं क्यों ? यदि आप पसंद करते हैं तो लाइक कीजिए।नापसंद करते हैं तो उनकी आलोचना लीखिए।
पर उपेक्षा क्यों ? मेरे इससे पहले के लेखों के साथ भी यही हुआ।
मेरी समझ में यह बात नहीं आती।आपको समझ आ रही हो तो जरूर बताएं।
ऐसा नहीं है कि नयी पीढ़ी ने उनका नाम नहीं सुना है।उनके नाम पर ऐसे भी देश भर में सैकड़ों स्मारक व संस्थान हैं।

रविवार, 27 मई 2018

 पहले फ्रेंड ! फिर फेसबुक फ्रेंंड !! तब फेसबुक फाइटर !!!
फिर दोस्ती खत्म !!!! मनमुटाव शुरू ।
अरे भई, इससे बेहतर तो यही था कि फेसबुक फ्रंेड  बने ही नहीं होते।
  क्यों किसी मोदी या किसी राहुल के लिए आपस में लड़ते हो ?
अगले चुनाव में  मोदी के विजयी हो जाने से कोई आपके ऊपर आसमान नहीं गिर जाएगा।न ही राहुल के जीत जाने से आपके नीचे की जमीन खिसक जाएगी।
लोकतंत्र में तो हर पांच साल पर चुनाव होना है।किसी न किसी को हर कोई वोट देता ही है।दो मित्र दो अलग -अलग दलों को वोट दे ही सकते हैं।
देने दीजिए।इसके लिए दोस्ती या स्नेह की पूंजी क्यों गंवा रहे हो ? क्यों किसी को अपने विचार का दास बनाना चााहते हो  ?
क्यों फासीवाद चलाना चाहते हो ? जीवन में राजनीति ही सब कुछ नहीं है।कितने अच्छे थे जब दो दोस्त आपस में हिलमिल कर अपना सुख -दुःख बतियाते थे ! अधिकतर गैर फेसबुकिए लोग अब भी बतियाते हैं ।पर मुझे अनेक फेसबुकिए पर अब शक है कि  ऐसा वे अब भी कर रहे हैं !
@26 मई 2018@


गुरुवार, 24 मई 2018

  केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक वरीय सचिवालय सहायक को
हाल में जोध पुर के एक होटल से गिरफ्तार किया गया।
उस पर  पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों 
से रिश्वत लेने का आरोप है।
  मन मोहन सरकार ने पाक में ‘जेहादियों’ के सितम से परेशान होकर भारत में आए 12 हजार 100 हिंदू शरणार्थियों को लंबी अवधि के लिए वीसा दिया था।वे राजस्थान में बसे हुए हैं।
तब से यह काम जारी है।क्योंकि नये शरणार्थी भी आते रहते हैं।
  इसके लिए केंद्र सरकार  के अफसर राजस्थान जाते रहते हैं ।उन में से कुछ अफसर उन दीन-हीन-बेबस-परेशान शरणार्थियों का काम भी तभी करते हैं जब उन्हें रिश्वत मिलती है।
  इन भ्रष्ट गिद्धों को किस्मत के मारे शरणार्थियों पर भी कोई दया नहीं आती।
जब उन पर भी दया नहीं आती तो यहां के लोगों के साथ ये गिद्ध गण कैसा व्यवहार करते हैं,उनकी कल्पना आसान है।
 लोगबाग देख ही रहे हैं।झेल भी रहे हैं। दरअसल इस पूरे देश भर के भ्रष्ट अफसरों व कर्मचारियों का कमोवेश यही हाल है।अधिकतर सरकारी
सेवक,  सेवा को अधिकार मान कर  सरकारी आदेशों को बेचते रहते हैं।
बिहार सहित देश के किस हिस्से के अधिकारी-कर्मचारी बिना रिश्वत का जनता का काम निःशुल्क  कर देते हैं,यह जानने में मुझे रूचि रहती है।
किसी को उस  पवित्र स्थान का पता हो तो लोगों को जाकर  वहां फूल चढ़ाना चाहिए।क्योंकि मैं मानता हूं कि ईमानदार अफसर व कर्मचारी अब भी जहां -तहां मौजूद हैं। सत्ताधारी नेताओं के बीच भी कुछ ईमानदार लोग हैं। पर वे आम तौर पर निर्णायक नहीं हो पा रहे हैं।
  जोध पुर की घटना सुन-जानकर एक बार फिर यह विचार मन में आया कि क्यों नहीं इस देश के आदर्शवादी और उत्साही नौजवान अखिल भारतीय स्तर पर स्टिंग आपरेशन दस्ते बना रहे हैं ?
 वे दस्ते ऐसे भ्रष्ट कर्मियों का स्टिंग करंे और  जनता के बीच उनका भंडाफोड़ करंे ? अब तो सोशल मीडिया भी ताकतवर होता जा रहा है।
  इस काम में खतरा तो जरूर है। पर आज यदि कोई ईमानदारी से राजनीति भी करता है तो उसमें भी खतरा है।
आर. टी. आई. कार्यकत्र्ताओं की हत्याओं की खबरें भी मिलती रहती हैं।फिर भी सूचना के अधिकार के क्षेत्र में काम बंद नहीं हुआ है। 
 आजादी की लड़ाई के दिनों में क्या स्वतंत्रता सेनानियों के समक्ष कम खतरे थे ?
मेरा मानना है कि इस स्टिंग आपरेशन के काम में जो लोग ईमानदारी से लगेंगे और बने रहेंगे तो उन्हें देर- सवेर जनता हाथों- हाथ लेगी।यदि वे चुनावी राजनीति भी करना चाहेंगे तो वंशवादी ,जातिवादी,सम्प्रदायवादी तथा धन पशु उम्मीदवारों को भी देर -सवेर वे मात दे सकते हैं। 




 डा.आम्बेडकर, इस्लामी फतवे और ईसाई मिशनरीज पर चर्चित पुस्तकें लिखने वाले अरूण शौरी को भाजपा ने केंद्र में मंत्री नहीं बनाया।जबकि, शौरी एक तेज -तर्राट और ईमानदार नेता हैं।केंद्र में मंत्री रह भी चुके हैं।
पर, दूसरी ओर  कांग्रेस ने पूर्व मुख्य मंत्री दिग्विजय सिंह को हाल में मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी की समन्वय समिति का प्रमुख बना दिया।
26 नवंबर, 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकी हमले पर अजीज बर्नी ने पुस्तक लिखी है।उसका नाम है ‘26 .-11 आर.एस.एस.की साजिश।’  
2010 में  उसका लोकार्पण कांग्रेस महा सचिव दिग्विजय सिंह ने किया था।
  दिग्विजय सिंह पुस्तक में वर्णित विवरण से सहमत भी रहे हैं।पुस्तक के नाम से ही यह स्पष्ट है कि उसमें क्या लिखा गया है।दूसरी ओर, हाल में पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री नवाज शरीफ ने  अंग्रेजी दैनिक  ‘डाॅन’ के साथ बातचीत में कहा कि ‘हमारे यहां हथियारबंद गुट मौजूद है।आप उन्हें नन -स्टेट एक्टर कह सकते हैं।क्या ऐसे गुटों को बाॅर्डर क्रास करने देना चाहिए कि वे मुम्बई जाकर डेढ़ लोगों को मार दें ? कोई समझाएं मुुुझे।हम इसी कोशिश में थे।हम दुनिया से कट कर रह गए हैं।हमारी बात नहीं सुनी जाती।’  
पूर्व केंद्रीय मंत्री ए.के.एंटोनी ने गत  लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की शर्मनाक हार का कारण बताते हुए जून, 2014 में कहा था कि ‘कांग्रेस की  धर्म निरपेक्ष होने की जो साख थी,उसमें अब लोगांे का विश्वास नहीं है।कांग्रेस मुस्लिम पक्षी नजर आ रही है।’
दिग्विजय सिंह को बड़ा पद देकर कांग्रेस हाई कमान ने एंटोनी की सलाह को अंततः ठुकरा दिया है।संभवतः कांग्रेस को यह लगता है कि राजग की केंद्र सरकार को अगले चुनाव में हरा देने के लिए गैर राजग दलों का गंठजोड़ ही पर्याप्त है।अन्य किसी तरह के सुधार की कोई जरूरत नहीं है।
क्या कांग्रेस का यह आकलन सही है ? 

बुधवार, 23 मई 2018

 यदि दो व्यक्तियों के बीच जमीन का झगड़ा है तो वह सिर्फ दो व्यक्तियांे के बीच का ही मामला है।
पर यदि किसी एक व्यक्ति ने दूसरे की हत्या कर दी तो वह स्टेट का मामला भी बन जाता है।
  पर यदि किसी ने किसी के खिलाफ झूठा व अपमानजनक बयान देकर या लेख लिखकर चरित्र हत्या कर दी तो वह दो व्यक्तियों के बीच का ही मामला क्यों है ?
वह भी सामान्य हत्या की तरह स्टेट का मामला बनना  चाहिए। 
 एक दूसरे को बदनाम करने के लिए कोई नेता या अन्य झूठे और बेबुनियाद आरोप लगा दे और वह  फिर माफी मांग ले।
मामला खत्म हो जाता है।यह उचित नहीं।
क्योंकि  इस बीच उसे प्रचार मिल जाता है।समाज में तनाव बढ़ता है।ऐसा ही आरोप लगाने का दूसरे को भी प्रोत्साहन  मिलता है।राजनीति व सामान्य जन जीवन का स्तर थोड़ा और नीचे गिरता है।यहां यह बात स्पष्ट कर दूं कि यदि आरोप सही हो तो वह लगाया ही जाना चाहिए।
पर झूठा लगे तो लगाने वाले को सजा जरूर हो।उसे आपसी समझौते के जरिए  बरी नहीं होना चाहिए।
हत्या और चरित्र हत्या में कानून की दृष्टि से फर्क क्यों ?
केस हो जाने पर वह व्यक्तिगत मामला भी  नहीं रह जाता।क्योंकि दोनों पक्ष कोर्ट का समय बर्बाद करते हैं।तारीख  पर तारीख पड़ती जाती है।नौ साल तक केस चलता है।दसवें साल एक खास सौदेबाजी के तहत दोनों पक्ष समझौता कर लेते हैं।
यदि कोर्ट का वह बहुमूल्य समय बचता तो उस अवधि में अदालत कोई अन्य जरूरी केस देख पाती।

सोमवार, 21 मई 2018

जब सी.पी.एम.के बाहुबलियों ने ममता बनर्जी को कर दिया था अधमरा---सुरेंद्र किशोर


16 अगस्त, 1990 को कलकत्ता में पुलिस की मौजूदगी में ममता बनर्जी को लाठियों से इस तरह बेरहमी से पीटा गया था कि उनके सिर पर 16 टांके लगाने पड़े।मरते-मरते बची थीं।
ममता की टूटी बांह में प्लास्टर लगा था।
पूर्व सांसद ममता बनर्जी के साथ इंदिरा कांग्रेस के जिन कुछ अन्य नेताओं को भी उस दिन माकपा बाहुबलियों की हिंसा का शिकार होना पड़ा ,उनमें इंटक नेता सुब्रत मुखर्जी भी शामिल थे।प्रेस फोटोग्राफर भी बुरी तरह पिट  गए थे।
इन दिनों जब पश्चिम बंगाल से  आए दिन सत्ता संरक्षित हिंसा की खबरें आती रहती हैं तो वैसे में 1990 की उस घटना को एक बार फिर याद कर लेना मौजूं होगा।
  यह घटना तब की है जब ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस नहीं बनायी थीं।वह कांग्रेस @इ@में थीं।वाम मोर्चा सरकार से सहमी कांग्रेस को वह लड़ाकू पार्टी बना रही थीं।
वह 1984-89 में लोक सभा सदस्य रह चुकी थीं।उन्होंने तब सी.पी.एम.के सोमनाथ चटर्जी को हराया था।
ममता तब एक निडर और तेज -तर्राट नेत्री के रूप में उभर रही थीं।
16 अगस्त 1990 को  कांग्रेस @आई@ने 
 सरकारी बस -ट्राम भाड़ा में वृद्धि के विरोध में 12 घंटे का ‘कलकत्ता बंद’ @तब तक कोलकाता नाम नहीं पड़ा था।@का आयोजन किया था।
उधर ज्योति बसु की सरकार किसी भी कीमत पर बंद को विफल करने पर अमादा थी।
कलकत्ता में परिवहन को चालू रखने के लिए उस दिन जहां पुलिस का भारी बंदोबस्त था,वहीं कांग्रेसी आंदोलनकारियों को सबक सिखाने के लिए बाहुबली सी.पी.एम.कार्यकत्र्ता लाठी और अन्य घातक हथियारों के साथ सड़कों पर तैनात कर दिए गए थे। 
कलकत्ता व उसके उप नगरों में करीब तीन लाख सी.पी.एम.कार्यकत्र्ताओं को इस ड्यूटी पर लगाया गया था ताकि इंका के लोग बंद न करा सकें। 
  उस दिन बंद के समर्थन में  ममता बनर्जी के नेतृत्व वाला जुलूस जब कलकत्ता के हाजरा क्रासिंग पर पहुंचा तो  बाहुबली जमात उन पर बेरहमी से लाठियां बरसाने लगीं।सी.पी.एम.के बाहुबली कार्यकत्र्ता लालू आलम ने ममता बनर्जी के सिर पर जोरदार लाठियां बरसायी  थीं।
जिन लोगों ने ममता को बचाने की कोशिश की ,उन्हें भी हिंसा का शिकार होना पड़ा।याद रहे कि लालू आलम 1972 में कांग्रेस में था।
बाद में सी.पी.एम. में आया।उसका भाई बादशाह तत्कालीन मंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का करीबी था।हालांकि  जब ममता बनर्जी मुख्य मंत्री बनीं तो लोगों ने देखा कि लालू आलम मुख्य मंत्री के यहां जाकर उनके सामने अपनी 1990 की गलती के लिए गिड़गिड़ाकर माफी मांग  रहा था। याद रहे कि सत्ता बदलने के साथ ही  पश्चिम बंगाल में राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं व बाहुबलियों के पक्ष बदलने की परंपरा पुरानी है।
  उस दिन जब ममता बनर्जी पर बेरहम लाठियां पड़ रही थीं तो   पास में ही बड़ी संख्या में पुलिस बल के साथ सहायक पुलिस कमिश्नर भी खड़ा था।पर पुलिस ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया।
हां, जब बाहुबलियों ने ममता बनर्जी को  पीट- पीट  कर बेहोश कर दिया, उनके सिर से काफी खून निकलने लगा तो उसके बाद ही पुलिस सक्रिय हुई, वह भी ममता को  अस्पताल पहुंचाने के लिए। उन्हें सरकारी अस्पताल एस.एस.के.एम.पहुंचाया गया।वहां उनके सिर में  16 टांके लगाने पड़े।
बाद में उन्हें निजी अस्पताल मेें पहंुचाया गया।वह कई दिनों तक  अस्पताल में जीवन और मृत्यु के बीच  जूझती रहीं।
उसी हमले के दौरान हेलमेट पहने सी.पी.एम. हमलावरों ने प्रेस फोटोग्राफर तारापद बनर्जी और पल्लव दत्ता को भी बुरी तरह पीटा।उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा।वे हिंसक घटनाओं  की तस्वीरें ले रहे थे।
   उधर बाद में मुख्य मंत्री ज्योति बसु ने ईमानदारी दिखाते हुए यह माना कि सी.पी.एम. के कार्यकत्र्ताओं ने हिंसा  की।
मौके पर मौजूद पुलिसकर्मियों को चाहिए था कि वे हिंसक तत्वों को तुरंत गिफ्तार करते।साथ ही मुख्य मंत्री ने  यह भी माना कि राज्य सचिवालय यानी राइटर्स बिल्डिंग में कर्मचारियों की सिर्फ 30 प्रतिशत ही उपस्थिति थी।
  यानी बंद सफल रहा।
पर, सवाल यह था कि सी.पी.एम. के राज्य मुख्यालय से निदेश लेने वाली पुलिस हिंसक तत्वों को गिरफ्तार कैसे करती ?
यह संयोग नहीं था कि बंद के एक दिन पहले ही ममता बनर्जी ने सार्वजनिक रूप से यह आशंका जाहिर की थी कि ‘मेरी हत्या का षड्यंत्र किया जा रहा है।’इसके बावजूद ममता को बचाने के लिए पुलिस सक्रिय नहीं हुई।
  दरअसल ममता से निपटने के तरीके के सवाल पर राज्य सी.पी.एम.में मतभेद की खबरें आ रही थीं।
कलकत्ता बंद के बाद जब मुख्य मंत्री ने प्रेस कांफ्रेंस बुलाई तो उनके साथ उनके करीबी मंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य नहीं थे।
जबकि पहले से ही यह चर्चा थी कि ज्योति बसु उन्हें ही अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते हैं।उन दिनों ऐसे अन्य अवसरों पर भट्टाचार्य मुख्य मंत्री के साथ देखे जाते थे। 
खैर इस घटना के बाद  ममता बनर्जी का नेतृत्व भी चमक उठा।उनके वाम का विकल्प बनने में इस घटना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।ठीक उसी तरह भाजपा कार्यकत्र्ता मार खा -खा कर इन दिनों भाजपा को ममता का विकल्प बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं।लगता है कि इतिहास खुद को दुहरा रहा है। 
@--साभार फस्र्टपोस्ट हिंदी....21 मई 2018@  





  गत 18 मई को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘राज्यपाल के दलों को सरकार बनाने के लिए बुलाने के विवेकाधिकार की न्यायिक समीक्षा की जाएगी।’
  सुप्रीम कोर्ट का यह कदम उचित है।पर, उसे इसके साथ ही  राष्ट्रपति के विवेकाधिकार की भी समीक्षा करनी चाहिए।याद रहे कि बहुमत की किसी गुंजाइश के बिना ही 1996 मंे तत्कालीन राष्ट्रपति डा.शंकर दयाल शर्मा ने अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधान मंत्री पद की शपथ दिला दी थी।
  यदि डा.शर्मा कांग्रेसी  पृष्ठभूमि के नहीं होते तो संजय निरूपम जैसा कोई नेता उन्हें भी कुत्ता कह देता।
गत 16 मई को मैंने अपने फेसबुक वाॅल पर लिखा था कि 
  ‘कर्नाटका के राज्यपाल को उसी  दल या दल समूह के नेता को मुख्य मंत्री  पद की शपथ दिलानी चाहिए जो विधान सभा में अपना बहुमत साबित कर सके।
   देश के अनेक लोग बड़े गौर से यह देख रहे हैं कि  लोकतंत्र की इस कसौटी पर राज्यपाल महोदय खरा उतरते 
हैं या नहीं।
 मौजूदा राजनीतिक स्थिति को देखते हुए यह काम तो जरा कठिन लगता है,पर यह कठिन काम भी लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए करना ही चाहिए।’
मैंने यह इसलिए लिखा था क्योंकि मुझे आशंका थी कि कर्नाटका के राज्यपाल उच्चस्तरीय दबाव में आकर अनुचित निर्णय कर सकते हैं।उन्होंने किया भी।
येदियुरप्पा के शपथ ग्रहण समारोह में न तो प्रधान मंत्री उपस्थित थे और न ही अमित शाह।
इससे उनका  अपराध बोध परिलक्षित होता है।
 एक हाल के एक सर्वे के अनुसार नरेंद्र मोदी सरकार के काम काज को देश के अधिकतर लोगों ने सराहा है।कर्नाटका जैसा लोभ प्रदर्शित करके भाजपा अपने पुण्य के बैंक बैलेंस को कम कर रही है।   
@ 21 मई 2018@

शनिवार, 19 मई 2018

 कर्नाटका मेें इस बार 72 दशमलव 36  प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया है। वहां सन 2013 के विधान सभा चुनाव में 71 दशमलव 45 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया था।
  2015 में हुए बिहार विधान सभा  चुनाव में 56 दशमलव 8 प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान किया था।उससे पहले 2010 में 52 दशमलव 7 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाले थे।
यानी मतदान का प्रतिशत बढ़ तो रहा है,पर अत्यंत धीमी गति से।
  जानकार लोग बताते हैं कि यदि इस देश के  हर राज्य में कम से कम 80 -90 प्रतिशत मतदातागण मतदान करने लगें तो  जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंक का महत्व व दबाव काफी घट जाएगा।
 जातीय वोट बैंक का दबाव किसी खास कमजोर  जाति के आम कल्याण व विकास के लिए हो तब तो बात समझ में आती है,पर यहां तो अनेक नेता जातीय वोट बैंक का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए करते हैं।इससे देश का नुकसान हो रहा है।अंततः उन जातियों का भी कोई खास भला नहीं होता। 
  यह स्थिति कैसे बदलेगी  ?
 यदि 80 -90 प्रतिशत लोग मतदान करने लगें तो जरूर बदलेगी।कोई भी जातीय वोट बैंक अधिक से अधिक 20 -30 प्रतिशत का ही होता है।
यदि 90 प्रतिशत लोग वोट करने लगेंगे तो उसमें 20-30 प्रतिशत मत अधिकतर मामलों में निर्णायक नहीं रह जाएंगे। 
 सुप्रीम कोर्ट ने भी 5 फरवरी 2017 को कहा था कि ‘यदि आप मतदान नहीं करते तो आपको सरकार को दोष देने और उसके निर्णयों पर सवाल उठाने का अधिकार नहीं है।
उससे पहले एक एन.जी.ओ. से जुड़े  याचिकाकत्र्ता ने सुप्रीम कोर्ट में यह कहा  था कि ‘मैंने जीवन में कभी मतदान नहीं किया।’ 

यह नोटबंदी के दौर की बात है। यानी 2016 का अंतिम महीना।
तब आयकर महकमे ने यह कहा था कि उसने बिहार -झारखंड के 1784 संदिग्ध खातों की जांच शुरू कर दी है।
ये वैसे खाते हैं जिनमें नोटबंदी के तत्काल बाद एक करोड़ रुपए से अधिक की राशियां जमा की गयी हैं।
उन्हीें दिनों यह भी खबर आई थी  कि मुजफ्फर पुर के एक चपरासी के नाम फर्जी खाते खोल कर 13 करोड़ रुपए का लेनदेन किया गया था।
अब सवाल है कि आयकर जांच का क्या नतीजा निकला ?
यह पता नहीं चल सका है।क्या आयकर महकमा सभी 1784 खातों का पूरा विवरण पेश करेगा ? क्या उन खातेदारों के नाम बताएगा जिन लोगों ने तब अपने काले धन जमा किए थे ?
  

50 करोड़ रुपए से अधिक के सारे कर्जों का बैंकों ने फारेंसिक आॅडिट कराना शुरू कर दिया है।
यदि इस तरह के आॅडिट में  इस बात की आशंका दिखी कि कर्ज की वापसी की संभावना कम है तो वैसे मामलों को जांच एजेंसियों को सांैप दिया जाएगा।
 साथ ही 250 करोड़ रुपए से अधिक के कर्जों पर अलग से नजर रखी जा रहा है।
देखा जा रहा है कि कहीं कर्ज देने की नियम को तोड़ा तो नहीं गया है।
 यानी आने वाले दिनों में ऐसे कर्जखारों की नींद हराम हो सकती है जिनका इरादा कर्ज वापस करने का कभी नहीं रहा। 
साथ ही ऐसे मामलों में वैसे वी.वी.आई.पी.भी बेनकाब हो सकते हैं जिन लोगों ने अपने प्रभाव का दुरुपयोग करके ऐसे लोगों को भारी कर्ज दिलवाए जिनकी कर्ज वापसी की क्षमता काफी कम है।

शुक्रवार, 18 मई 2018

  महाराष्ट्र सरकार ने इस साल जनवरी में ही उन लोगों को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दे दिया  जो लोग इमरजेंसी में जेलों में थे।वे इंदिरा सरकार से राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे थे।
साथ ही, वहां  उन्हें हर माह दस हजार रुपए पेंशन देने का निर्णय किया गया।साल में एक बार 10 हजार रुपए  मेडिकल भत्ता  देने का भी निर्णय हुआ।
बिहार सहित कुछ  राज्य सरकारों ने भी पेंशन का प्रावधान किया है।
 इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार पर गत दिसंबर में ही एक प्रमुख भाजपा नेता ने कहा था कि जहां भी भाजपा सरकार में है,वहां पेंशन का प्रावधान किया जाएगा।पता नहीं उसका क्या हुआ ?
इधर बिहार के जेपी सेनानियों ने उनके लिए भी कुछ करने की राज्य सरकार से मांग की है जो भूमिगत थे।
आजादी की लड़ाई के सेनानियों और उनके परिजन को केंद्र सरकार पेंशन देती है।यह भी मांग उठ रही है कि केंद्र सरकार अलग से जेपी सेनानियों व इमरजेंसी के भुक्तभोगियों को पेंशन दे।
इससे 1975 -77 में लोकतंत्र के लिए लड़ने वालों की याद भी बनी रहेगी।


दाना पुर-दिघवारा प्रस्तावित पुल सारण को बनाएगा मिनी ‘नोयडा’



पटना के पास गंगा नदी पर एक और पुल के निर्माण की योजना है।उस पर शुरूआती प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है।
इस पुल के बन कर तैयार हो जाने के बाद आर्थिक रूप से पिछड़े जिले सारण के विकास की प्रक्रिया तेज हो जाने की संभावना है।
  वैसे भी जेपी सेतु के चालू हो जाने के बाद सारण के एक बड़े इलाके में बिल्डर्स और डेवलपर्स सक्रिय हो चुके हैं।
दाना पुर -दिघवारा प्रस्तावित पुल के बन जाने के बाद उन इलाकों में कृषि उद्योग की संभावनाएं भी बढ़ सकती हैं।सारण मुख्यत एक कृषि प्रधान जिला है।
पर वहां आबादी अधिक व खेती का रकबा कम है।
नतीजतन बड़ी संख्या में लोग राज्य के बाहर जाकर नौकरी करते हैं या छोटा-मोटा रोजगार ।

1972 से पहले अविभाजित सारण जिले को मनीआर्डर इकोनाॅमी का जिला कहा जाता था।कमोवेश अब भी यही स्थिति है।
 पटना से करीब होने के बावजूद सारण का समुचित विकास नहीं हो सका है।पर अब स्थिति धीरे -धीरे बदल रही है।हाल के वर्षों में सड़क-बिजली ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
 पटना और हाजी पुर के बीच के गांधी सेतु के 1982 में चालू हो जाने के बाद वैशाली जिले का विकास तो हुआ,पर सारण के विकास की प्रक्रिया जेपी सेतु ही तेज कर सका।
  अब नये प्रस्तावित पुल से दाना पुर दियारे का भी विकास तेज हो सकता है यदि वह पुल दियारे से होकर गुजरे और दियारे के लोगों को भी पुल तक पहुंचने का आसान मौका मिले।
  जानकार सूत्रों के अनुसार प्रस्तावित पुल को लेकर अभी दो   वैकल्पिक संरेखनों यानी एलाइनमेंट पर विचार किया जा रहा है।
 पुल को सगुना मोड़ से शुरू करके उसे गंगा के उस पार सोन पुर -छपरा एन.एच. से मिला दिया जाए।
या फिर दाना पुर से ही शुरू करके दियारा होते हुए उस पार दिघवारा से मिला दिया जाए।
 दूसरे विकल्प से सारण के अपेक्षाकृत अधिक इलाकों को लाभ पहुंच सकेगा।
अधिक लाभ यानी अपेक्षाकृत सारण के अधिक भूभाग का विकास।सोन पुर से दिघवारा तक गंगा के किनारे दिल्ली के यमुना पार वाली स्थिति बन सकती है।
जाहिर है कि ऐसे विकास में गैर सरकारी एजेंसियां भी  भूमिका निभाती हैं।
सारण के विकास होने पर पटना पर से आबादी का बोझ घटेगा।
 इससे प्रादेशिक राजधानी पर प्रदूषण व भू जल संकट की मार भी कम होगी।
साथ ही पटना और  उत्तर बिहार के बीच आना -जाना और सुगम हो जाएगा।
 अब देखना है कि इस प्रस्तावित पुल का निर्माण कार्य कब शुरू होता है।   
   कितनी महंगी हो गयी राजनीति !--
कर्नाटका एक यह खबर आई कि प्रत्येक विधायक को खरीदने के लिए इस बार 100 करोड़ रुपए का आॅफर दिया गया।
पता नहीं, यह आरोप सही है या गलत  ! पर एक बात तो  पक्की है कि आज की राजनीति बहुत  महंगी हो चुकी है।
 अपवादों को छोड़ दें तो आम लोग तो चुनाव लड़ ही नहीं सकते।
 2013 में एक सांसद ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि उन्हें  2009 के अपने चुनाव क्षेत्र में 8 करोड़ रुपए खर्च करने पड़े थे।
नब्बे के दशक में यह खबर आई थी कि कुछ सांसदों को 50 -50 लाख रुपए देकर ‘प्रभावित’ किया गया था।इतने रुपए उनके बैंक खातों में पाए भी गए थे।
ऐसा एक दिन में नहीं हुआ है। राजनीति व शासन में बढ़ते भष्टाचार के साथ साथ धीरे -धीरे चुनावी खर्च भी बढत़ा चला 
गया।जिस तबके ने यह खर्च बढ़ाया है,जिम्मेदारी उसी की है कि वह उसे कम करे। 
 एक बार पूर्व केंद्रीय मंत्री एल.पी.शाही ने बताया था कि 1952 के विधान सभा चुनाव  में उनका  सिर्फ 11 हजार रुपए खर्च हुआ था।
1972 में 30 हजार रुपए और 1980 में 35 हजार ।पर 1991 में मुजफ्फर पुर लोक सभा चुनाव क्षेत्र में उनके 11 लाख रुपए खर्च हुए।
 कर्ज दबाने वालों के लिए बुरी खबर---
50 करोड़ रुपए से अधिक के सारे कर्जों का बैंकों ने फारेंसिक आॅडिट कराना शुरू कर दिया है।
यदि इस तरह के आॅडिट में  इस बात की आशंका दिखी कि कर्ज की वापसी की संभावना कम है तो वैसे मामलों को जांच एजेंसियों को सांैप दिया जाएगा।
 साथ ही 250 करोड़ रुपए से अधिक के कर्जों पर अलग से नजर रखी जा रहा है।
देखा जा रहा है कि कहीं कर्ज देने की नियम को तोड़ा तो नहीं गया है।
 यानी आने वाले दिनों में ऐसे कर्जखारों की नींद हराम हो सकती है जिनका इरादा कर्ज वापस करने का कभी नहीं रहा। 
साथ ही ऐसे मामलों में वैसे वी.वी.आई.पी.भी बेनकाब हो सकते हैं जिन लोगों ने अपने प्रभाव का दुरुपयोग करके ऐसे लोगों को भारी कर्ज दिलवाए जिनकी कर्ज वापसी की क्षमता काफी कम है।

एक भूूली बिसरी याद----
जून 2011 में पूर्व कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने भ्रष्टाचार रोकने के लिए मन मोहन सिंह सरकार को कुछ ठोस सुझाव दिए थे।
इस सुझाव पर पी.एम.के सलाहकार सैम पित्रोदा और योजना आयोग के सलाहकार अरूण मायरा के साथ मोइली की बातचीत भी हुई थी।पर सवाल है कि इन सुझावों पर कितना कुछ हुआ ?
उन  सुझावों  का विवरण इस प्रकार है।
1-किसी भी सेवा निवृत नौकरशाह को नियामक@रेगुलेटर@ न बनाया जाए।ऐसे पदों पर सिर्फ सेवारत अफसर ही तैनात हों।
रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले पद के लालच में सेवारत अफसर भ्रष्टाचार में मदद करते हैं।
2-जो अधिकारी  सरकार में अभी कार्यरत हैं,सिर्फ उन्हें ही 
रेगुलेटरी दायित्व दिए जाने चहिए।इसके लिए प्रशासनिक तंत्र को जिला,राज्य व केंद्र स्तर पर अपने अधिकारियों को प्रशिक्षित करना चाहिए।सेवारत अधिकारियों व जजों को रेगुलेटर बनाने से उन्हें सफलता-असफलता या सही गलत काम के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकेगा।
3-ऐसा कानून बने जिससे सरकार के खिलाफ झूठे आरोप लगाने वाले किसी व्यक्ति या स्वयंसेवी संगठनों को भी दंडित किया जा सके।
4-पूरे देश में जहां भी माइनिंग हो रही है या खानें लीज पर हैं,उन सारे मामलों की विस्तार से जांच हो और उनकी लीज को पूरी तरह पारदर्शी बनाया जाए।
ऐसा देखा जा रहा है कि माइनिंग कराने वाले स्थानीय स्तर पर अनेक किस्म के भ्रष्टाचार को जन्म और प्रश्रय दे रहे हैं।
5.-सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को उनके प्रदर्शन के आधार पर कोई सेवा विस्तार दिया जाए ताकि वे ज्यादा जिम्मेदारी से कार्य कर सकें और इसके लिए नौकरी से संबंधित कानूनों में आवश्यक संशोधन किए जाएं।
6.-लोकपाल और लोकायुक्त जैसी संस्थाओं  को सक्रिय किया जाये।
7-जिन लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गयी हो, उन्हें सरकारी पदों पर नियुक्त न किया जाए और यही नियम चुनाव के समय राजनैॅतिक उम्मीदवारों के मामले में भी लागू किया जाए।
 मतदान का प्रतिशत बढ़ने का  लाभ--- 
कर्नाटका मेें इस बार 72 दशमलव 36  प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया है। वहां 2013 के विधान सभा चुनाव में 71 दशमलव 45 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया था।
  2015 में हुए बिहार विधान सभा  चुनाव में 56 दशमलव 8 प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान किया था।उससे पहले 2010 में 52 दशमलव 7 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाले थे।
  जानकार लोग बताते हैं कि यदि देश में हर राज्य में कम से कम 80 -85 प्रतिशत मतदातागण मतदान केंद्रों पर पहुंचने लगें तो जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंक का महत्व व दबाव घट जाएगा।
      और अंत में--
  उत्तर प्रदेश के पिछड़ा कल्याण मंत्री ओम प्रकाश भर के अनुसार ‘भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने मुझे आश्वासन दिया है कि 2019 के लोक सभा चुनाव से ठीक छह माह पहले 27 प्रतिशत पिछड़ा आरक्षण को तीन हिस्सों में बांट दिया जाएगा।’ 
@--18 मई 2018 को प्रभात खबर -बिहार-में प्रकाशित मेरा काॅलम ‘कानोंकान’@






गुरुवार, 17 मई 2018

ब्रिटिश प्रधान मंत्री के पोते बटे्र्रंड रसेल ने बोअर युद्ध में अपने ही देश का किया था विरोध




         
सन 1899 में दक्षिण अफ्रीका में बोअर-ब्रिटिश युद्ध हुआ था।ब्रिटिश प्रधान मंत्री अर्ल रसेल के पोता औन नोबेल पुरस्कार विजेता बर्टेंड  रसेल  तब बोअर स्वतंत्रता का समर्थक बन गये थे।
  इतना ही नहीं,  बट्र्रेंड उर्फ बर्टी युद्ध विरोध व साम्राज्यवाद विरोधी अभियान के एक प्रमुख कार्यकत्र्ता भी थे।
   ब्रिटेन जैसे अमीर और साम्राज्यवादी देश के 
दार्शनिक,गणितज्ञ व तर्क शास्त्री  बर्टी दुनिया की गरीबों की पीड़ा से दग्ध होते रहते थे।
साठ के दशक की  हिंदी फिल्म ‘अमन’ में शांतिदूत बट्र्रेंड रसेल से अभिनेता राजेंद्र कुमार को  बातचीत करते हुए देखा जा सकता है--अमन व शांति का संदेश देते हुए।
फिल्म में राजेंद्र कुमार डाॅक्टर बने थे जो युद्धपीडि़तों की सेवा के लिए जापान जाना चाहते थे।वे रसेल का आशीर्वाद लेने उनके पास गए थे।
   सत्तर के दशक में जब रसेल की जीवनी छपकर आई तो लोगों ने इस अनूठे व्यक्तित्व स्वामी के कई अनजाने पहलुओं को जाना।
  रसेल ने  लिखा  कि उन्होंने अनेक बार अपने जीवन का अंत करना चाहा ,किंतु ज्ञान की पिपासा ने उन्हें जीने की प्रेरणा दी।
  अत्यंत बेबाक तरीके से लिखी गई  चर्चित  आत्म कथा में उन्होंने यह भी लिखा कि मेरे जीवन को जिन तीन बड़ी ही नैसर्गिक किंतु दुर्दम्य वासनाओं ने  अनुप्राणित किया ,वे हैं प्रेम की लालसा,सत्य की खोज तथा मानव वेदना के प्रति गहन सहानुभूति ।युद्ध और परमाणु हथियारों के सख्त विरोधी रसेल ने लिखा कि वे अभी सोलह साल के भी नहीं हुए थे कि उनकी इच्छा अनेक बार आत्म हत्या करने की हुई।पर गणित के प्यार ने उन्हंे ऐसा करने से रोक दिया।
       18 मई ,1872 को  जन्मे रसेल का 2 फरवरी  1970 को  निधन हो गया।उनके दादा अर्ल रसेल ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रह चुके थे।बचपन में ही रसेल के माता-पिता का निधन हो चुका था।उनकी दादी ने उन्हें पाला।रसेल  युद्ध के इतने खिलाफ थे कि उन्होंने बोअर युद्ध के भी खिलाफ
विचार प्रकट किया था।याद रहे कि दक्षिण अफ्रीका में बोअर-ब्रिटिश युद्ध चल रहा था।इस संबंध में ‘धर्मयुग’ ने तब लिखा था कि यह एक ऐतिहासिक बिडंबना ही है कि रसेल जब बोअर स्वतंत्रता के समर्थक बन गये तब गांधी जी ने ब्रिटिश पक्ष का सक्रिय समर्थन किया था।   
  बर्टी कभी लोकप्रिय नहीं बन सके,हालांकि वे हमेशा जनहित कार्यों में सक्रिय रहे।वैसे भी किसी भी समाज में सच बोलने वाला भला लोकप्रिय कैसे बन सकता है !
  सबसे अनोखी बात  बर्टी ने अपनी माता के बारे लिखी ।वैसी  बात लिखने की हिम्मत शायद ही किसी अन्य जीवनी लेखक ने कभी की हो।
बर्टी की आत्म कथा के अनुसार ‘बर्टी के बड़े भाई को पढ़ाने के लिए एक विद्वान ट्यूटर रखे गये थे,जो अविवाहित और दुर्बल थे।राजयक्ष्मा के कारण ,जो उन दिनों असाध्य रोग माना जाता था,इस विद्वान का विवाह अवांछनीय था।इस प्रकार वे बेचारे विवशता से ब्रह्मचारी रह गये थे। रसेल के माता-पिता बड़े भावुक मानवतावादी थे।और केवल सैद्धांतिक दष्टि से उन्हें यह बात बड़ी निष्ठुरतापूर्ण लगी कि कोई बेचारा सहज यौन संबंध सुख से वंचित रहे।रोग के कारण उसका संतानहीन होना तो अभीष्ट था,किंतु ब्रह्मचर्य आचरण की अपेक्षा करना क्रूरता।बर्टी लिखते हैं कि उदार दृष्टि अपनाते हुए उनके पिता ने उनकी माता से उनके भाई के टयूटर के सहवास की अनुमति दे दी। उन्हें इसका पता बाद में पिता के कागज पत्रों,डायरी आदि से लगा ।यह तो वास्तव में एक विवश मानव के प्रति सहानुभूतिपरक कत्र्तव्यात्मक कर्म मात्र था।
  रसेल ने इस घटना का वर्णन बड़े ही निर्लिप्त भाव से एक तटस्थ पर्यवेक्षक के रूप में किया है।किसमें साहस है कि अपनी जननी के ऐसे रहस्य का दार्शनिक विश्लेषण दुनिया के सामने इस सहज भाव से लिख डाले ? लेकिन बर्टेंड रसेल तो हमारी धरती की लोकलाज के मापदंडों से परे थे।
    आज जब आधुनिक राजनीति में अपनी चमड़ी बचाने के लिए अधिकतर नेता रोज -रोज  मीडिया के सामने सफेद झूठ बेशर्मी से उगलते रहते है,ऐसे में स्पष्टवादी रसेल याद आते हैं।रसेल ने सत्य को देशहित और परिवारहित से भी ऊपर रखा।
  बर्टेंड रसेल ने प्यार,करूणा और गणित के बारे में कुछ अदभुत बातें लिखी हैं।उन्होंने लिखा कि मैंने प्यार चाहा है क्योंकि वह उल्लास देता है।इतना महान उल्लास कि कभी- कभी मुझे लगा कि उस आनंद की चंद घडि़यों के लिए मैं अपना शेष सारा जीवन न्योछावर कर सकता हूं।
  उन्होंने लिखा कि उतने ही मनोवेग के साथ मैंने ज्ञान की खोज की है।मैंने लोगों के हदय में पैठकर उन्हें जानना चाहा है।मैंने जानना चाहा है कि सितारे क्यों चमकते हैं और गणित के ब्रहमांण्डीय रहस्य भी जानना चाहा है।
  प्यार और गणित जहां तक मुझे प्राप्य थे,मुझे हमेशा धरती से ऊपर सितारों की ओर ले जाते रहे।लेकिन करूणा मुझे सदा धरती पर वापस ले आती थी। 
जहां कहीं भी पीड़ा की चीत्कार थी,उसकी गूंज मेरे मन में उठने लगती थी।अकाल में दम तोड़ते बच्चे ,अत्याचारी के अत्याचार से पिसते निर्बल,गरीबी और अकेलेपन ।मैं चाहता हूं कि सारी बुराई मिटा दूं।पर मिटा नहीं सकता,इसलिए खुद पीड़ा से दग्ध होता रहता हूं।’
  ब्रिटेन जैसे अमीर और साम्राज्यवादी देश के रसेल दुनिया की गरीबों की पीड़ा से दग्ध होते रहते थे।पर हमारे ही देश के मौजूदा अधिकतर नेतागण ! ?----Surendra kishore .
@ द राइटर डाॅट इन से साभार@

पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव में हुई हिंसा पर 
राजनीतिक दलों में एक खास तरह की होड़ मची है।
एक दल कह रहा है कि हमने कम मारे तो दूसरा दल कह 
रहा है कि हमने तुमसे कम मारे।
  यानी कम मरें या ज्यादा, लोग तो  मर ही रहे हैं।
पर शीर्ष नेताओं को ऐसी मौतों पर कोई चिंता भी है ?
इन्हें रोकने का कोई उपाय भी वे कर रहे हैं ?
कत्तई नहीं।ंं
क्योंकि मर तो  रही है पैदल सेना ! बड़े नेता मर रहे होते तो शायद उस पर रोक लगाने के लिए सर्वदलीय बैठकें होने लगतीं।
   हां, नेताओं से अलग बंगाल और देश की शांतिप्रिय जनता बंगाल के नेताओं से एक उम्मीद तो कर ही रही है।
अब तो बंद करो हिंसा-प्रतिहिंसा !
बहुत हो गया।वहां के अधिकतर दलों को अपनी हिंसा का जवाब, प्रति हिंसा से मिल चुका है।मिल रहा है।
इस पर मिल बैठकर तय करो कि हमारे दलों  में गुंडों, हत्यारों और आतंकवादियों के लिए कोई जगह नहीं रहेगी।
पहल कांग्रेसी करेंं।क्योंकि सत्तर के दशक में कांग्रेसी सरकार ने ही पश्चिम बंगाल में बड़े पैमाने पर हिंसा शुरू करवाई थी - हिंसक नक्सलियों के सफाये के लिए।
  जब 1977 में वाम मोर्चा सत्ता में आया तो कांग्रेस की उस हिंसक वाहिनी के अनेक सदस्यों ने वाम  में शरण ले ली।
याद है न कि  सत्ता में आने से पहले किस तरह तृणमूल कांग्रेस के लोग वाम बाहुबलियों की हिंसा के शिकार होते थे ?
ममता बनर्जी पर भी अनेक बार हमले हुए थे।
पर तृणमूल के सत्ता में आते ही वाम के साथ ‘काम’ कर रहे अनेक बाहुबली तृणमूल के सिपाही बन गए।
अब मार खाने की बारी ममता विरोधियों की है।
यदि अगली बार कोई अन्य दल सत्ता में आ गया तो जो बाहुबली आज तृणमूल की सेवा में हैं,वे नये सत्ताधारी दल में शामिल हो जाएंगे।
आखिर कब तक यह धारावाहिक  चलता रहेगा ? देश को कभी दिशा देने वाला बंगाल कब तक एक अराजक प्रदेश बना रहेगा ? क्या अब भी वहां के राजनीतिक दल खुद को बाहुबलियों से मुक्त नहीं करेंगे ?
मैं जानता हूं कि वे नहीं करेंगे।फिर भी हमारे जैसे अहिंसक लोगों का यह कत्र्तव्य है कि उनसे ऐसा आग्रह किया जाए।

 क्या मल्लिकार्जुन खगड़े को लोक सभा में प्रतिपक्ष के नेता 
का दर्जा इसलिए नहीं दिया गया क्योंकि वे अनुसूचित 
जाति के हैं ?
  यह आरोप सच नहीं है।सच यह है कि दर्जा पाने की कानूनी शर्त वे पूरी नहीं करते।
फिर भी कांग्रेस प्रवक्ता आनंद शर्मा ने यही आरोप लगाया है।
 शर्मा को लगता है कि जातीय आधार वाले आरोप से कर्नाटका के चुनाव में कांग्रेस को लाभ मिलेगा।
  क्या झूठे आरोप से भी लाभ मिलता है ?
जो व्यक्ति कम से कम 55 सांसदों वाले दल  का नेता होगा,उसे ही वह पद मिलेगा।यानी सदन के सदस्यों की कुल संख्या के दसवंें हिस्से का नेता।
पर कांग्रेस यह शत्र्त पूरी नहीं करती।उसके पास उससे कम सदस्य हैं।फिर भी उसे वह पद चाहिए।
क्योंकि उस पद को कई तरह की सुविधाएं हासिल हैं।
  तत्संबंधी कानून 1977 में बना था।उसके बाद कई बार कांग्रेस सत्ता मंे आई।उसे उस कानून को बदलवा देना चाहिए था।
ताकि, कम सदस्यों वालों को भी दर्जा मिल सके।पर उसे तो लगता था कि वह कभी कम सीटें जीतेगी ही नहीं।इसलिए प्रतिपक्ष को लाभ पहुंचाने के लिए क्यों कानून बदला जाए।
पर जब गत चुनाव में कांग्रेस 44 सीटों पर ही सिमट गयी तो उसने दलित कार्ड खेलना शुरू कर दिया।
  सोनिया गांधी ने हाल में यह आरोप लगाया कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी गलत ऐतिहासिक तथ्य पेश कर रहे हैं।
सोनिया गांधी के आरोप में दम है।
पर स्वस्थ राजनीति के हक में  खुद कांग्रेस भी तो गलत आरोप न लगाए।  

पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री नवाज शरीफ ने अब यह स्वीकार किया  है कि 2008 मेें हुए मुम्बई हमले में पाक आतंकियों के हाथ थे।उस हमले में करीब डेढ़ सौ लोग मारे गए थे।
पर उस हमले के तत्काल बाद कांग्रेस महा सचिव दिग्विजय सिंह व पूर्व मुख्य मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले ने क्या -क्या बयान दिए थे ? कुछ याद है ? 

  यह प्रसंग स्वतंत्रता सेनानी जगलाल  चैधरी  की पुत्री  की शादी के अवसर का है।
 तब वे बिहार सरकार के कैबिनेट  मंत्री थे।कैबिनेट मंत्री तो वे 1937 में भी थे।
उनकी सरकार ने हाल में गेस्ट कंट्रोल एक्ट पास किया था।
 उस कानून के अनुसार अत्यंत सीमित संख्या में ही अतिथियों को ही बुलाने का नियम बनाया गया ।चैधरी जी के यहां बारात आई।उतने ही लोगों का खाना बना ।
पर,बिना बुलाए कई अन्य अतिथि आ गए।
नतीजतन खुद चैधरी जी के परिवार को उस रात भोजन नहीं मिला।चैधरी जी ने अतिरिक्त भोजन नहीं बनने दिया था।
शादी को सम्मेलन बनाने वाले नेताओं के आज के दौर में 
जगलाल चैधरी याद आते हैं।हालांकि गेस्ट कंट्रोल एक्ट आज भी लागू है ,पर सिर्फ कागज पर। 
मेरी राय में ऐसे कानून को समाप्त ही कर देना चाहिए जो कानून आप लागू नहीं कर सकते।
कोई कानून मौजूद है और उसे लोग रोज टूटते हुए देख रहे हैंं तो यह देख कर अन्य तरह के कानून तोड़कों को बढ़ावा ही मिलता है।
 हालांकि गेस्ट कंट्रोल एक्ट बिहार के बाहर अधिक टूटता है।जो लोग कानून का पालन करने के लिए बहाल  होते हैं,उनके सामने भी टूटता है।
  बिहार में भी सामान्य लोग समाज के दबाव में निर्धारित अतिथियों से अधिक अतिथि शादी-ब्याह में बुलाते है।अमीर लोग अपने पैसों के प्रदर्शन के लिए ऐसा करते हैं।नेता लोग अपने यहां की शादियों में अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने के लिए हजारों लोगों को बुला लेते हैं।

   

सोमवार, 14 मई 2018

   26 नवंबर, 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकी हमले पर अजीज बर्नी ने एक पुस्तक लिखी है ।उसका नाम है --‘ 26-11 आर.एस.एस.की साजिश।’
उसका लोकार्पण कांग्रेस महा सचिव दिग्विजय सिंह ने 6 दिसंबर, 2010 को दिल्ली में किया।
पुस्तक के नाम से ही स्पष्ट है कि उसमें क्या लिखा गया है।
उधर पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री नवाज शरीफ ने पाकिस्तान के अंगेजी दैनिक डाॅन से बातचीत में कहा है कि ‘हमारे यहां हथियारबंद गुट मौजूद हैं।आप उन्हें नाॅन स्टेट एक्टर कह लें।
 क्या ऐसे गुटों को बार्डर क्रास करने देना चाहिए कि वे मुम्बई जाकर डेढ़ सौ लोगों को मार दें ?
समझाएं मुझे ! हम इसी कोशिश में थे।
हम दुनिया से कट के रह गए हैं।हमारी बात नहीं सुनी जाती।’ 
  एक तरफ भारत के दिग्विजय सिंह व अजीज बर्नी कह रहे हैं कि 2008 के मुम्बई हमले में आर.एस.एस.का हाथ है और दूसरी ओर नवाज शरीफ पाकिस्तान सरकार की शह पाए नाॅन स्टेट एक्टर्स को उसके लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।ताजा खबर यह है कि दबाव के बावजूद नवाज अपने बयान पर कायम हैं।
 फिर भी  कांग्रेस दिग्विजय सिंह को पार्टी से निलंबित भी नहीं करती है।
  इसी तरह जब अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर 2001 में आतंकियों ने हवाई हमले किए  तो भारत के कई भाजपा विरोधी लोगों ने अखबारों में लेख लिख कर यह साबित करने की कोशिश की कि उस दिन वल्र्ड ट्रेड सेंटर से सारे यहूदी कर्मचारी अनुपस्थित थे।यानी यहूदियों ने ही हमला किया था।
ऐसे एकाध लेख मेरे पास भी है।
जबकि दूसरी ओर 27 अक्तूबर 2001 को ओसामा बिन लादेन का एक टेप सामने आया जिसमंे उसे यह कहते हुए दुनिया ने देखा कि ‘अमेरिका के खिलाफ  हमले की तारीफ होनी चाहिए।क्यांेकि वह इस्लाम का दुश्मन है और इजरायल की मदद करता है।’
  दिल्ली के बाटला हाउस में पुलिस के साथ आतंकियों की मुंठभेड़ की घटना के बाद कुछ बड़े कांग्रेसी नेताआंे ने उसे नकली बताया।जबकि खुद मन मोहन सरकार की पुलिस ने उसे आतंकियों के साथ पुलिस मुडभेड़ बताया।
 उस कांड में दिल्ली पुलिस की भूमिका पर शंका उठाने वाले कांग्रेसियों के खिलाफ कांग्रेस हाई कमान  ने कोई कार्रवाई नहीं की। 
 2002 में गोधरा में 50 से अधिक कार सेवकों को जिंदा जला दिया गया।
भाजपा विरोधियों नेताओं ने कहा कि ट्रेन दहन के लिए खुद कार सेवक ही जिम्मेदार थे।
 दूसरी ओर सी.बी.आई.ने जांच करके असली हत्यारों को सजा दिलवाई।
 ऐसे कई अन्य उदाहरण समय -समय पर सामने आते रहते हैं।मणि शंकर अययर समय -समय पर अपनी ‘प्रतिभा’ का प्रदर्शन करतेे ही रहते हैं।
 ऐसे में भाजपा का जन समर्थन बढ़ेगा या घटेगा  ? यानी भाजपा के  असली दोस्त व मददगार कौन साबित हो रहे हैं ?


रविवार, 13 मई 2018

   बिहार के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने ‘हिन्दुस्तान’ के आशीष कुमार मिश्र से बातचीत में कहा है कि ‘मैंने बीएड की पढ़ाई को दुरुस्त करने का रिस्क भरा निर्णय किया है।’
 मेरा मानना है कि महामहिम ने सही जगह से शुरूआत की है।
इस काम में किसी भले आदमी के लिए कोई रिस्क नहीं है।गेन ही गेन है।
यदि नियम-कानून तोड़कों के खिलाफ बिना किसी भेदभाव के कार्रवाई होती है तो उस काम में आम जनता से  मदद मिलती है।उनकी दुआएं मिलती हैं।बिना भेदभाव के कार्रवाई करने की अपनी मंशा राज्यपाल प्रकट कर भी चुके हैं।
जिसके साथ आम लोग होंगे,उसे किसी बात की चिंता नहीं करनी चाहिए।यह एक ऐतिहासिक काम है जो लगता है कि मौजूदा राज्यपाल के लिए ही रुका पड़ा था।
दरअसल आज  बिहार की सबसे बड़ी समस्या यह है कि योग्य शिक्षकों की भारी कमी हो गयी है।बीएड में दाखिला ईमानदारी से हो और उसमें पढ़ाई भी ठीक-ठाक  हो जाए तो योग्य शिक्षक मिलने लग जाएंगे।
 यदि योग्य शिक्षक मिल जाएंगे और साथ ही सरकार शालाओं को  बुनियादी सुविधाएं भी मुहैया करा दे तो शैक्षणिक स्थिति में भारी सुधार होने लगेगा।कालेजों -विश्व विद्यालयों में पढ़ने में रूचि रखने वाले छात्र अधिक पहुंचने लगेंगे।
  अभी तो हर स्तर पर शिक्षा का भगवान ही मालिक है।
वैसे तो यह हाल पूरे देश का है,पर बिहार की हालत अधिक खराब है।
नतीजतन ऐसे डिग्रीधारियों की संख्या अत्यंत कम होती जा रही है जिन्हें कोई किसी काम में लगा सके।
यह अकारण नहीं है कि इंफोसिस के सह संस्थापक  और मानद अध्यक्ष एन.आर. नाराण मूत्र्ति ने  कहा  कि ‘हमारे 85 प्रतिशत युवा नौकरी के लायक नहीं।उन्होंने यह भी कहा कि देश में बेरोजगारी भी तभी कम होगी जब लोग बिजनेस को प्राथमिकता देंगे।’
  इस विषम स्थिति के लिए वे लोग अधिक जिम्मेदार हैं जिनकी चर्चा राज्यपाल ने पिछले दिनों एएन काॅलेज के मंच से की थी।क्या कारण है कि बिहार के ही नालंदा ओपेन यूनिवर्सिटी की परीक्षाओं में चोरी नहीं होती है कि अन्य जगहों में कोई भी परीक्षा बिना चोरी के संभव ही नहीं हो पाती ?अपवादों की बात और है।
  जिस राज्य में टाॅपर छात्र अवैध आग्नेयास्त्र लेकर चलते हैं,उस राज्य की शिक्षा-परीक्षा की दयनीय स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है।


    

पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री नवाज शरीफ ने अब यह स्वीकार किया  है कि 2008 मेें हुए मुम्बई हमले में पाक आतंकियों के हाथ थे।उस हमले में करीब डेढ़ सौ लोग मारे गए थे।
पर उस हमले के तत्काल बाद कांग्रेस महा सचिव दिग्विजय सिंह व पूर्व मुख्य मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले ने क्या -क्या बयान दिए थे ? कुछ याद है ? 

शनिवार, 12 मई 2018

 ताजा चुनाव को लेकर कर्नाटका  के कई स्थानों
की चर्चा मीडिया में हो रही है।
उसमें एक नाम राम गढ़  का भी है।वहीं राम गढ़  जहां ‘शोले फिल्म की शूटिंग हुई थी।बंगलुरू-मैसूर मार्ग पर बंगलुरू से 50 किलोमीटर दूर है रामनगरम उर्फ राम गढ़।
मैं इमरजंेंसी में बंगलोर @उस समय यही नाम था@गया था - लाड़ली मोहन निगम के साथ।करीब एक सप्ताह तक एक होटल में टिका था।एक ही कमरे में तीन जन-
जे.एच.पटेल, लाड़ली मोहन निगम और मैं।पटेल बाद में वहां के मुख्य मंत्री बने और निगम राज्य सभा सदस्य।
  खैर,उन दिनों बंगलोर की आबोहवा  इतनी अच्छी थी कि वातानुकूलित सिनेमा हाॅल से निकलने के बाद बाहर ही अच्छा लगता था।
   गहरे भूमिगत जार्ज फर्नांडिस के साथ हर रात राम गढ़ की पहाड़ी के पास जाते थे।
क्या करने जाते थे,यह नहीं बताऊंगा।
पर तब वहां जाने व एक  खास काम करने में बड़ा रोमांच और संतोष था।
 वहीं सुना था कि शोले की शूटिंग के समय धमेंद्र ,अमिताभ तथा  अन्य कलाकार बंगलोर में रहते थे और रोज राम गढ़  जाते थे।वहां सिप्पी साहब ने शूटिंग के लिए ही एक गांव बसा दिया था जो फिल्म में दिखाई पड़ता है। वह राम गढ़  अब जिला बन गया है।


  कल एक दुःखद खबर मुम्बई से आई ।महाराष्ट्र के योग्य व बहादुर आई.पी.एस.अफसर हिमांशु राय ने आत्म हत्या कर ली। वे कैंसर की असह्य पीड़ा को सह नहीं सके।
 इस घटना पर मुझे आरा के प्रो.केशव प्रसाद सिंह की कहानी याद आ गयी।उनकी कहानी 11 अप्रैल, 1994 के टाइम्स आॅफ इंडिया @पटना@में छपी थी।बाद में मैं एक मरीज के साथ आरा जाकर उनसे मिला भी था।लाभ हुआ था।
केशव बाबू आरा जैन काॅलेज में राजनीतिक शास्त्र विभाग के अध्यक्ष थे।
 वे मुंह के कैंसर से ग्रस्त हो गए।
मुम्बई के टाटा स्मारक अस्पताल में इलाज कराया।ठीक नहीं हुए।
मर्ज थर्ड स्टेज में था।
प्रो.सिंह ने हार कर मूत्र चिकित्सा शुरू की।
1978 में ठीक हो गए।
चेक अप कराने मुम्बई गए।
उनकी केस फाइल पर टाटा अस्पताल के डा.जस्सावाला ने लिखा कि ‘यह चमत्कार से कम नहीं है।’
बाद में प्रो. सिंह खुद प्राकृतिक चिकित्सक यानी मूत्र चिकित्सक बन गए।
उन्होंने कई लोगों के कैंसर ठीक किए।
वे कहते थे कि यदि कैंसर लीवर में न हो तो किसी अन्य अंग के कैंसर को मैं ठीक कर सकता हूं।
प्रो.सिंह पूरी आयु जिए।
दरअसल मूत्र चिकित्सा के बारे मंे अपने देश में बड़ी झिझक है।
मूत्र चिकित्सा अपनाने वाले मोरार देसाई का कुछ लोग इसी आधार मजाक भी उड़ाते थे।जब देसाई प्रधान मंत्री थे  तो उनके कुछ राजनीतिक विरोधियों व मीडिया के एक हिस्से के पास उनकी आलोचना का यह सबसे बड़ा हथियार होता था।पर वे उसकी परवाह नहीं करते थे।  
जापान के चिकित्सक हाशीबारा ने देसाई को  1991 में लिखा था कि जापान में 20 लाख लोग इस मूत्र चिकित्सा को अपना रहे हैं।
उन्हीं दिनों ताइवान की ऐसी ही  खबर अखबार में छपी थी।

शुक्रवार, 11 मई 2018

इस भीषण गर्मी में जब वृक्ष शीतल छांव देने लगें तो उनके प्रति कृतज्ञता से भर उठना स्वाभाविक ही है। इसीलिए मैं वृक्षों के प्रति एक सुखद एहसान के साथ इस पोस्ट में उनकी अनुभूति -याद को सहेज रहा हूं।
करीब तीन साल पहले मैंने पटना एम्स के पास के गांव के अपने नवनिर्मित मकान में रहना शुरू किया था। पैसे के अभाव में नगर में घर नहीं बसा सका। उसका सबसे बड़ा अफसोस यह रहा कि दोस्तों से मिलना -जुलना कम हो गया।कुछ अन्य तरह की कमियां भी महसूस हुईं।
पर, उसके साथ ही ‘विपत्ति में वरदान’ वाली कहावत भी चरितार्थ हुई्र। मैं अपने परिवार, अपनी लाइब्रेरी तथा प्रकृति के अधिक करीब हो गया।
मकान बनाने के लिए मैंने कोई वृक्ष नहीं कटवाया था। दरअसल उसकी नौबत ही नहीं आई। पर अपने मकान के अहाते व पास की सड़क व चहारदीवारी के बीच की जगह में मैंने कई पौधे रोपे जो अब वृक्ष बन रहे हैं।
आम, नीम, चंदन, अमरूद, आंवला, तेजपत्ता, नीबू, गुल मोहर, केला, दालचीनी सहित अन्य कई औषधीय पौधे लगाए गए हैं। कुछ पौधे जेपी आंदोलन के नेता मिथिलेश कुमार सिंह के दिए हुए हैं। उनके संगठन ने इसका अभियान ही चला रखा था।
अफसोस है कि पीपल के लिए कोई जगह नहीं बना सका हूं। फूल और तुलसी तो हमारे यहां है ही। अभी गुंजाइश और पेड़-पौधों की है। फिलहाल पेड़ - पौधों को बढ़ते हुए देखने में जो आनंद है, वह अवर्णनीय है।
एक किसान पुत्र होने के कारण बचपन में प्रकृति के निकट रहा। बीच के जीवन के अनेक दशक सीमेंट के जंगलों में बीते। पर अब एक बार फिर प्रकृति के करीब आ गया हूं।
इसे कहते हैं विपत्ति में वरदान ! पेड़-पौधों-परिवार -पुस्तकों के साथ जीना वरदान ही तो है !़   

 क्या मल्लिकार्जुन खगड़े को लोक सभा में प्रतिपक्ष के नेता 
का दर्जा इसलिए नहीं दिया गया क्योंकि वे अनुसूचित 
जाति के हैं ?
  यह आरोप सच नहीं है।सच यह है कि दर्जा पाने की कानूनी शर्त वे पूरी नहीं करते।
फिर भी कांग्रेस प्रवक्ता आनंद शर्मा ने यही आरोप लगाया है।
 शर्मा को लगता है कि जातीय आधार वाले आरोप से कर्नाटका के चुनाव में कांग्रेस को लाभ मिलेगा।
  क्या झूठे आरोप से भी लाभ मिलता है ?
जो व्यक्ति कम से कम 55 सांसदों वाले दल  का नेता होगा,उसे ही वह पद मिलेगा।यानी सदन के सदस्यों की कुल संख्या के दसवंें हिस्से का नेता।
पर कांग्रेस यह शत्र्त पूरी नहीं करती।उसके पास उससे कम सदस्य हैं।फिर भी उसे वह पद चाहिए।
क्योंकि उस पद को कई तरह की सुविधाएं हासिल हैं।
  तत्संबंधी कानून 1977 में बना था।उसके बाद कई बार कांग्रेस सत्ता मंे आई।उसे उस कानून को बदलवा देना चाहिए था।
ताकि, कम सदस्यों वालों को भी दर्जा मिल सके।पर उसे तो लगता था कि वह कभी कम सीटें जीतेगी ही नहीं।इसलिए प्रतिपक्ष को लाभ पहुंचाने के लिए क्यों कानून बदला जाए।
पर जब गत चुनाव में कांग्रेस 44 सीटों पर ही सिमट गयी तो उसने दलित कार्ड खेलना शुरू कर दिया।
  सोनिया गांधी ने हाल में यह आरोप लगाया कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी गलत ऐतिहासिक तथ्य पेश कर रहे हैं।
सोनिया गांधी के आरोप में दम है।
पर स्वस्थ राजनीति के हक में  खुद कांग्रेस भी तो गलत आरोप न लगाए।  

मामलों के अनुसंधान में तेजी से ही जुर्म पर अंकुश संभव



आपराधिक मामलों के अनुसंधान में तेजी आ जाए और अदालतों में देरी न हो तो जुर्म पर काबू पाना संभव है।
यह अच्छी बात है कि बिहार के पुलिस प्रमुख के.एस.द्विवेदी ने 
इसकी पहल की है।
यह सूचना चिंताजनक है कि पटना और नालंदा के डी.एस.पी.के पास सुपरविजन के लिए करीब दो हजार मामले लंबित हैं।
डी.जी.पी.ने अधीनस्थ अफसरों को निदेश दिया है कि वे जिम्मेदारी तय करें कि केस के सुपरविजन में अनावश्यक देरी क्यों होती है।
 उन्होंने अनुसंधान में तेजी लाने व उसकी गुणवत्ता बढ़ाने की भी जरूरत बताई है।
हाल में यह भी पता चला है कि बिहार के अनेक पुलिस अधिकारियों में अनुसंधान - क्षमता का भी अभाव है।कानून की जानकारी भी नहीं है।जबकि, दारोगा-डी.एस.पी.की टं्रेनिग में कानून की किताबें भी पढ़ाई जाती हैं।अब तो सरकार जरा इस बात की भी समीक्षा कर ले कि ट्रेनिंग संस्थान में पढ़ाने वालों की क्षमता तो ठीकठाक है न ! 
  -- कार्य शैली बदलने की जरूरत--
दरअसल रिजल्ट पाने के लिए बिहार पुलिस की कार्य  शैली, कार्य संस्कृति और कार्य क्षमता पर भी ध्यान देना होगा।
 पहली नजर में किसी भी सरकार की छवि उसकी पुलिस और उसकी सड़कों से ही बनती-बिगड़ती है।यदि अतिक्रमण को छोड़ दें तो सड़कों की स्थिति पहले से बेहतर है।पर पुलिस ?
बाहर से पहली बार पटना आने वालों को यह समझने में देर नहीं लगेगी कि प्रादेशिक राजधानी में पुलिस मुख्य सड़कों पर भी अतिक्रमण करवा कर रिश्वत वसूलने के काम में लगी रहती  है।
 यदि यह समझ ले तो कोई गलत बात नहीं होगी।क्योंकि सूचनाएं भी इसी तरह की हैं।
अन्यथा क्या कारण है कि पटना हाई कोर्ट के बार -बार सख्त निदेश देने के बावजूद पटना में अतिक्रमण हटाने के कुछ ही  घंटे के भीतर ही दुबारा वहां अतिक्रमण हो जाता है ?
  इसी बुधवार को मुख्य पटना के बोरिंग रोड से दोपहर में अतिक्रमण हटाया गया और शाम होते -होते दुबारा वहां अतिक्रमण हो गया।
वैसे यह समस्या तो पूरे राज्य की है।अन्य राज्यों का भी कमोवेश यही हाल है।पर इससे जूझना तो पड़ेगा ही।
 डी.जी.पी.को चाहिए कि अनुसंधान व सुपरविजन के काम 
में तो अपने समर्थ अफसरों को लगाएं ही,पर यदि प्रादेशिक राजधानी को अतिक्रमण से मुक्त करवा देंगे तो उनकी भी धाक जमेगी और राज्य सरकार की छवि भी निखरेगी।
पुलिस की धाक जमेगी तो उसका लाभ आम अपराध को कम करने में भी हो सकता है।
अन्यथा उस पुलिस से अपराधी कैसे व क्यों डरेंगे जो सड़कों पर अतिक्रमण करवा कर पैसे वसूलती है ? 
  -- आखिर कैसे हो जाते हैं घोटाले !--
 सन 96 की बात है। चारा घोटाला सामने आ चुका था। बिहार सरकार में वित्त विभाग के अपर सचिव रह चुके एस.के.चांद ने लिखा था कि ‘सरकारी कोष से व्यय पर नियंत्रण रखने के लिए विस्तृत नियम और प्रक्रिया हैं।उसके  अनुपालन के लिए कई स्तरों के पदाधिकारी जिम्मेदार हैं।फिर भी एक लंबे समय तक कैसे इतने सारे पदाधिकारी अपने दायित्वों के निर्वहन के प्रति शिथिल हो गये ?
इस घोर अनियमितता और घोटाले के लिए सभी संबद्ध पदाधिकारी समान रूप से जिम्मेदार नहीं हो सकते हैं।इन में से कुछ की जिम्मेदारी प्राथमिक और प्रमुख होगी और कुछ की सापेक्ष और परोक्ष।’
वित्तीय नियंत्रण की ऐसी व्यवस्था रहते हुए भी हाल में सृजन घोटाला हो गया।क्या इन दो घोटालों को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार ने किसी बेहतर व फूलप्रूफ वित्तीय नियंत्रण व्यवस्था स्थापित करने की जरूरत महसूस की है ताकि आगे कोई तीसरा घोटाला न हो जाए ?         
  ----एक परिवत्र्तन यह भी--- 
कहते हैं कि राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं है।
माकपा को भी हिंदी राज्यों में अपनी कमजोरी का कारण समझ में आने लगा है।
पार्टी के महा सचिव सीताराम येचुरी ने हाल में यह माना है कि पहले हम सिर्फ आर्थिक शोषण के खिलाफ संघर्ष चलाते थे, अब हम सामाजिक शोषण के खिलाफ भी संघर्ष कर रहे हैं।
माकपा का नया  है ‘जय भीम, लाल सलाम।’
यानी माकपा का ध्यान अभी सिर्फ अनुसूचित जातियों के शोषण की ओर गया है।
जानकार लोग बताते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियां जब तक कमजोर पिछड़ों के लिए अपना एजेंडा तय नहीं करेगी तब तक हिंदी राज्यों में उनका विकास मुश्किल ही रहेगा।
2009 के लोक सभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में जब सी.पी.एम.सिर्फ 10 सीटों पर सिमट गयी तो उसे अल्पसंख्यक मतदाताओं की समस्याओं की याद आयी।उस दल के एक नेता 
ने बिहार में अपने सूत्रों से यह पता लगाया कि वहां मुसलमानों के बीच के पिछड़ों को किस तरह आरक्षण मिलता है।पता तो चल गया।वाम सरकार 2011 तक वहां रही।पता नहीं चल सका कि उस सरकार ने पिछड़े मुसलमानों के कल्याण के लिए क्या-क्या  किया।
   ---- जोकीहाट उप चुनाव का महत्व---
जोकी हाट विधान सभा चुनाव क्षेत्र का चुनाव नतीजा यह बताएगा कि अल्पसंख्यक मतों का कितना प्रतिशत राजग यानी जदयू के साथ है।
वैसे यह माना जाता रहा है कि अधिकतर अल्पसंख्यक मतदाता  राजद के साथ है।
 जोकी हाट विधान सभा चुनाव  क्षेत्र में 28 मई को उप चुनाव होगा।
जदयू के विधायक सरफराज आलम के इस्तीफे से वह सीट खाली हुई है।
 आलम 2015 के  चुनाव में जोकी हाट से जदयू के उम्मीदवार थे।तब जदयू ने राजद-कांग्रेस के साथ महा गठबंधन बना कर चुनाव लड़ा था। 
अब सरफराज आलम अररिया से राजद सांसद हैं।
अररिया लोक  सभा चुनाव क्षेत्र के तहत ही जोकीहाट
विधान सभा क्षेत्र पड़ता है।
अररिया लोक सभा चुनाव में जोकीहाट विधान सभा खंड में राजद को करीब एक लाख 21 हजार मत मिले थे।राजग उम्मीदवार को करीब 40 हजार वोट मिले।
इस बार जोकी हाट में जदयू ने मुर्शिद आलम को खड़ा कराया है।राजद के उम्मीदवार स्थानीय सांसद के भाई शाहनवाज हैं।
    ---- एक भूली बिसरी याद--
‘जय प्रकाश नारायण नाम के इस आदमी ने मुझे कभी इतना आकर्षित  नहीं किया कि मैं उसके पीछे पड़ूं।’
यह बात किसी और ने नहीं बल्कि
खुद जय प्रकाश नारायण ने कही थी।
यह विवरण  न्यायमूत्र्ति चंद्र शेखर धर्माधिकारी ने 1993 में लिखा था।धर्माधिकारी जी के अनुसार यह बात तब की है कि जब जय प्रकाश नारायण से बार-बार कहा जा रहा था कि वे आत्म कथा लिखें।
एक अंग्रेज पत्रकार ने जब यही सुझाव दिया तो जेपी ने उल्टे सवाल कर दिया कि ‘ क्यों, मेरे पास इससे अधिक महत्वपूर्ण कोई काम नहीं बचा है ?’
ऐसी ही  सलाह जब नोबल पुरस्कार विजेता नोएल बेकर ने दी  तो जेपी ने कहा कि ‘ मैं तो क्या लिखूंगा ? अब ये प्रशांत कुछ लिखंे।....खास कर मेरे विचारों के बारे में।’
उसके बाद कुमार प्रशांत की पुस्तक  ‘शोध की मंजिलें’ नाम से जय प्रकाश की वैचारिक जीवन आई।
कुमार प्रशांत अंतिम ऐतिहासिक वर्षों में जेपी के साथ रहे।
चंद्र शेखर धर्माधिकारी के अनुसार कुमार प्रशांत लिखित यह वैचारिक जीवनी अद्वितीय है।   
  कुमार प्रशांत के अनुसार ‘जय प्रकाश ने सबसे बड़ी ऐतिहासिक भूमिका यह निभायी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जन्मी पूरी पीढ़ी के लिए गांधी को एक बार फिर सामयिक बना दिया।’
          ---और अंत मंे--ं
  किसी राजनीतिक विचारक ने कभी कहा था कि यदि 25 साल की उम्र में आप लिबरल नहीं हैं तो इसका मतलब यह है कि आपके पास दिल नहीं है। यदि आप 35 साल की उम्र में 
अनुदार नहीं हैं तो फिर यह माना जाएगा कि आपके पास दिमाग नहीं है।
लगता है कि यह बात किसी पाश्चात्य विचारक ने कही थी।
इस देश में तो ऊपर दर्ज की गयी  उम्र में आप को फेरबदल करना पड़ेगा।
@ 11 मई 2018 के प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@ 



बुधवार, 9 मई 2018

  एक अच्छी खबर मैंने जरा देर से पढ़ी।
यह खबर बिहार इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के शिष्टमंडल की  इजरायल यात्रा को लेकर है।
एसोसिएशन के अध्यक्ष के.पी.एस.केसरी के अनुसार शिष्टमंडल इजरायल जाएगा। 8 से 10 मई तक वहां विश्व स्तरीय सम्मेलन में शामिल होगा।सम्मेलन कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण को लेकर है। एसोसिएशन इजरायल से एग्रो इंड्रस्ट्रीज तकनीक लाएगा।
इन पंक्तियों के लिखते समय वहां सम्मेलन हो रहा होगा।
 मेरा मानना रहा है कि इस देश खास कर बिहार जैसे कृषि प्रधान राज्य के लिए कृषि आधारित उद्योग अधिक जरूरी है।इससे खेती पर निर्भर लोगों की क्रय शक्ति बढ़ेगी।
वह बढ़ेगी तभी तो कोई सामान्य उद्योग भी फलेगा,फूलेगा।
जब अधिकतर लोगों के पास कुछ खरीदने के लिए पैसे ही नहीं होंगे तो कारखानों के माल खरीदेगा कौन ?
आजादी के बाद से ही सरकार की ओर से यदि कृषि व उस पर आधारित उद्योगों की ओर समुचित ध्यान दिया गया होता तो आज देश की आार्थिक स्थिति बेहतर रहती।बेरोजगारी भी कम हुई होती। 

सोमवार, 7 मई 2018

केंद्रीय लोकसेवा की सन् 2017 की परीक्षा के टॉपर को सिर्फ 55.6 प्रतिशत अंक मिले। यानी द्वितीय श्रेणी के अंक। इस तरह दूसरे दर्जे का दिमाग देश का प्रशासन चलाएगा।

यदि पूरे सवालों की संख्या 100 मान ली जाए तो इस टॉपर ने उनमें से लगभग 44 सवालोंं के गलत जवाब दिए। देश में शिक्षा के गिरते स्तर का इससे बेहतर उदाहरण कोई और हो सकता है क्या?

आचार्य विनोबा भावे कहा करते थे कि यदि आपका रसोइया सौ में से 65 रोटियां जला दे तो क्या आप फिर भी अगले दिन उसे काम पर बुलाइएगा? याद रहे कि वे 35 प्रतिशत में ही परीक्षाथियों के पास हो जाने की सुविधा का विरोध कर रहे थे।

जो लोग लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं को बहुत कठिन मानते हैं यानी हौआ बनाए रखते हैं, उनके लिए एक व्यक्तिगत अनुभव बता रहा हूं।

सन् 1983 में दैनिक ‘जनसत्ता’ में नौकरी के लिए मैंने भी टेस्ट परीक्षा दी थी।

उत्तर लिखने में कुछ घंटे लगे थे।

जनसत्ता में नौकरी के लिए आवेदन पत्र जरूर भेजा था,पर 

उम्मीद नहीं थी कि लिखित परीक्षा भी देनी पड़ेगी।इसलिए कोई तैयारी नहीं की थी।

बहुत बाद में ‘जनसत्ता’ के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी ने अपने कॉलम में उस परीक्षा की चर्चा की थी।उन्होंने लिखा कि हमने जनसत्ता की टेस्ट परीक्षा के लिए जो प्रश्न पत्र तैयार किया था, वह  यू.पी.एस.सी. परीक्षा के प्रश्न पत्र की अपेक्षा अधिक कठिन था।

 याद रहे कि जनसत्ता की मौखिक परीक्षा एल.सी.जैन, एम.वी.देसाई, बी.जी.वर्गीज और प्रभाष जोशी के बोर्ड ने ली थी।

इन परीक्षाओं के बाद मुझे वहां नौकरी मिल गयी थी।यानी मैं 

उस परीक्षा में पास कर गया था।

कितना प्रतिशत अंक मुझे मिले थे यह तो नहीं मालूम ,पर कम से कम पास मार्क्स तो मिला ही होगा।

  अब मेरी प्रतिभा व जानकारियों का हाल सुनिए।

मैं 1963 में मैट्रिक प्रथम श्रेणी में जरूर पास कर गया था,पर अच्छे अंक नहीं थे।यानी मेरिट स्कॉलरशिप लायक अंक नहीं थे।

इसलिए लोन स्कॉलरशिप लिया था।

कालेज में जाने के बाद कभी गंभीरता से पढ़ाई नहीं की।

किसी तरह स्नातक हुआ।

ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं पहले अध्यात्म और बाद में सक्रिय राजनीति से जुड़ गया।

उन क्षेत्रों में पढ़ाई -लिखाई की कोई मजबूरी थी नहीं ।नौकरी करने का इरादा ही नहीं था,इसलिए प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी ही नहीं की कभी।

पत्रकारिता छोड़ कर किसी अन्य नौकरी के लिए जीवन में कभी आवेदन  ही नहीं दिया।

  यानी ज्ञान-विज्ञान-प्रतिभा  के मामले में हमेशा औसत  रहा।

इसके बावजूद बिना किसी तैयारी के जनसत्ता की टेस्ट परीक्षा में पास कर गया।

यदि किसी प्रतियोगिता परीक्षा के लिए तैयारी की होती तो अंदाज लगाइए कि उसके बाद मेरे जैसे मेडियोकर को भी   कितने अंक आते ?

@हां, नियमित सेवा से रिटायर होने के बाद हाल के वर्षों में अपनी जानकारियां बढ़ाने का मुझे जरूर अवसर मिल रहा है।@ 


आज के उम्मीदवार तो रात दिन पढ़ने ,कोचिंग करने के बावजूद यू.पी.एस.सी.की परीक्षा में प्रथम श्रेणी के मार्क्स भी नहीं ला पा रहे हैं।ऐसा क्यों हो रहा है ?

कमी कहां है ? देश के लिए गंभीर चिंता और चिंतन का विषय है।पर सवाल है कि कौन चिंतन करेगा ?

मैं इस संबंध में जानकार लोगों से समझना चाहूंगा।  


रविवार, 6 मई 2018

जेल -जीवन पर मेरी टेलर की चर्चित पुस्तक

अविभाजित बिहार के अपने जेल -जीवन पर मेरी टेलर ने एक चर्चित पुस्तक लिखी थी।मैंने वह पुस्तक  सत्तर के दशक में पढ़ी थी। एक भारतीय नक्सली अमलेंदु की  ब्रिटिश पत्नी मेरी ने दक्षिण बिहार के कुछ जेलों में एक सामान्य विचाराधीन कैदी के रूप में कई  साल बिताए थे। उसमें जेल जीवन का नारकीय किंतु सजीव चित्र पेश किया गया । पुस्तक पठनीय है। जेल प्रबंध की पोल खोलने वाली। 

 जाहिर है कि उस पुस्तक के आने के बाद भी जेलों में कोई सुधार नहीं हुआ। लगता है कि सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने हाल में छपी अपनी पुस्तक में  जेल की आंतरिक व्यवस्था को  लेकर कुछ वैसा ही  दृश्य पेश किया है। पप्पू यादव की पुस्तक का 9 मई को लोकार्पण होगा।


सिटीलाइव वेबसाइट पर उस पुस्तक के बारे में अभी -अभी मैंने जो कुछ देखा-सुना, उससे यह लगा कि पप्पू यादव ने बड़ी हिम्मत के साथ बिहार के उन बाहुबलियों व दबंगों की करतूतों का विवरण पेश किया है जो  जेल के नियम -कानून को अपनी जेबों में रखते हैं और जेल में जंगल राज चलाते हैं।


याद रहे कि विधायक अजित सरकार हत्याकांड के सिलसिले में पप्पू यादव लंबे समय तक पटना के बेउर तथा अन्य जेलों में रहे।

5 मई 2018

शनिवार, 5 मई 2018

समाज को शिक्षित करने का प्रस्ताव

 पूर्व सांसद प्रो.रंजन प्रसाद यादव के संरक्षकत्व वाले गैर राजनीतिक संगठन ‘यादव जागरण मंच’ के सम्मेलन ने  समाज को शिक्षित करने का कल एक प्रस्ताव पारित किया। यह एक जरूरी पहल है। किसी भी जाति के जिन परिवारों में पहली बार शिक्षा आयी, उन परिवारों को विकसित होते मैंने देखा है।

यादवों के साथ -साथ कुछ अन्य जातियों में भी शिक्षा का उतना फैलाव नहीं हुआ है जितना आजादी के बाद हो जाना चाहिए था।

मेरी राय है कि जो लोग अपनी जाति के कल्याण की बातें विभिन्न मंचों से करते रहते हैं, उन्हें पहले अपनी -अपनी जातियों में शिक्षा के फैलाव और व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
जिन जातियों में कई कारणों से अब भी शिक्षा के प्रति अपेक्षाकृत अधिक  अरूचि है,उनके बीच काम करने की अधिक जरूरत है।

इस संबंध में ‘ डा.आम्बेडकर संपूर्ण ’ में एक प्रकरण आता है। वह प्रकरण सन 1858 का है। बंबई प्रेसिडेंसी के शिक्षा विभाग की एक रपट के अनुसार सरकार ने चार जातियों के बीच शिक्षा के प्रसार की कोशिश की थी।
तीन जातियों में तो शिक्षा के प्रति उत्साह देखा गया। पर एक खास जाति के बारे में पता चला कि उनकी रूचि नहीं है।वे अपने पूर्वजों की वीर गाथा में डूबे हुए थे।
बाद के वर्षों में भी शिथिलता रही थी। हालांकि  अब वैसी स्थिति नहीं है।काफी बदलाव आया है।फिर भी कुछ अन्य जातियों के साथ-साथ उस जाति में भी इस दिशा में काम करने की अभी जरूरत है।    

आज भी याद आते हैं ‘फिरंगिया’ के लेखक प्रिंसिपल मनोरंजन बाबू

मैंने जब छपरा के राजेंद्र काॅलेज में अपना नाम लिखवाया, उससे करीब तीन या चार साल पहले ही मनोरंजन बाबू उस काॅलेज के प्राचार्य पद से रिटायर हो चुके थे। पर बाद में भी  कालेज में अक्सर उनका नाम बहुत आदर से लिया जाता था। कोई उनके एक गुण की चर्चा करता तो कोई उनकी  दूसरी  उपलब्धियों की।उनकी मशहूर रचना ‘फिरंगिया’ तो अनेक लोगों की जुबान पर थीं।

वे मूलतः अंग्रेजी के शिक्षक थे, पर वे भोजपुरी बहुत सहजता से बोलते-लिखते थे। फिरंगिया भोजपुरी में ही है। एक बार कालेज परिसर में  कुछ छात्र किसी बात पर शोर कर रहे थे। मनोरंजन बाबू उनके पास गए। उन्होंने छात्रों से भी कविता में बात कर  ली।
‘ हड़बड़ कइले, गड़गड़ होई, बढ़-चढ़ बात करे ना कोई !’
इस पर वे हंसते हुए अपने -अपने क्लास में चले गए।
दरअसल उनकी नैतिक धाक का कमाल था।

मनोरंजन बाबू ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में  एम.ए. अंग्रेजी में टाॅप किया था। मदन मोहन मालवीय  उन्हें बी.एच.यू. में ले गए। वहां कुछ दिनों तक उन्होंने अंग्रेजी पढ़ाई। बाद में राजेंद्र कालेज में प्राचार्य होकर आ गए।
असहयोग आंदोलन के समय मनोरंजन बाबू ने ‘फिरंगिया’ नाम से  देशभक्ति का गीत लिखा।बाद में वह गीत स्वतंत्रता सेनानियों की जुबान पर था।

एक शिक्षक,एक प्रशासक व एक साहित्यकार के रूप में उन्होंने अपना एक विशेष स्थान बनाया था। हालांकि उनके प्रशंसकों को यह अफसोस रहा कि उन्होंने अपनी प्रशासनिक जिम्मेदारियों में व्यस्त रहने के कारण अधिक लेखन नहीं किया। जबकि उनमें लेखन प्रतिभा अद्भुत थी। हालांकि  उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखी थीं।
1942 में वे बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के मोतिहारी अधिवेशन के अध्यक्ष हुए थे। 

 वैसे राजेंद्र काॅलेज को एक बेहतर काॅलेज बनाने में उनका योगदान अतुलनीय रहा। उन दिनों भी बिहार में ऐसे कम ही काॅलेज थे जहां आर्ट, साइंस और काॅमर्स तीनों की पढ़ाई होती थी। राजेंद्र कालेज में भी ऐसा था।
राजेंद्र काॅलेज के विस्तृत परिसर और बड़े -बड़े क्लास रूम और समृद्ध प्रयोगशालाओं को तो मैंने एक छात्र के रूप में खुद भी देखा और उपयोग किया था। 

 मुझे भी इस बात का अफसोस रहा कि मैं उन्हें वहां काम करते नहीं देख सका था। पर उनके नाम की सुगंध तब भी मौजूद थी। फिलहाल देश प्रेम जगाने वाली उनकी ऐतिहासिक रचना ‘फिरंगिया’ यहां प्रस्तुत है।
संभव है कि मुझसे उसकी एक- दो पंक्तियां छूट गयी हों।--

      --फिरंगिया--
 सुन्दर सुघर भूमि भारत के रहे रामा,
आज उहे भइल मलीन रे फिरंगिया।
अन्न-धन-जन -बल बुद्धि सब नास भइल,
कवनो  के ना रहल निसान रे फिरंगिया।
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जहवां थोड़े ही दिन पहिले होत रहे,
लाखों मन गल्ला और धान रे फिरंगिया।
उंहवे पर आज रामा मथवा पर हाथ धके,
बिलखी के रोवे ला, किसान रे फिरंगिया।
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घिउवा आ दूधवा के नदिया बहत जहां,
उहवां बहेला रक्तधार रे फिरंगिया।
जहवां के लोग सब खात ना अघात रहे,
रुपया से रहे मालामाल रे फिरंगिया।

उहें आज जेने जेने अखियां घुमा के देखीं,

तेने तेने देखबे कंगाल रे फिरंगिया।
हमनी के पसु से रे हालत खराब कइले,
पेटवा के बल रेंगवउले रे फिरंगिया।
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एको जो रोऊवा निरदोसिया के कलपी ते,
तोर नास होई जाई सुन रे फिरंगिया।
दुखिया के आह तोर देहिया के भसम कै देई,
जरि भुनि होई जइबे रे फिरंगिया।
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स्वाधीनता हमनी के नामो के रहल नाहीं,
अइसन कानून के बा जाल रे फिरंगिया।
प्रेस एैक्ट, आर्म्स ऐक्ट, इंडिया डिफेंस एैक्ट,
सब मिली कइलस ई हाल रे फिरंगिया।
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भारत के छाती पर भारत के बचपन के,
बहल रक्तवा के धार रे फिरंगिया।
घरे लोग भूख मरे गेहुंआ विदेस जाए,
कइसन बा विधि के विधान रे फिरंगिया।
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मरदानापन अब तनिको रहल नाहीं,
ठकुरसुहाती बोले रे फिरंगिया।
रात दिन करेले खुसामद सहेबवा के,
सहेले विदेसिया के लात रे फिरंगिया।
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चेति जाउ,चेति जाउ भैया रे फिरंगिया तें,
छोड़ दे अधरम के पंथ रे फिरंगिया।
छोड़ के कुनीतियां सुनीतिया के बांह गहु,
भला तोर करी भगवान रे फिरंगिया।
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