बुधवार, 31 जनवरी 2018

मानवेद्र जी ने इच्छा जाहिर की है कि मैं ‘दिनमान’ पर कुछ लिखूं।
दिनमान पर लिखना या बात करना मुझे बहुत अच्छा
 लगता है।दरअसल राजनीतिक रूप से जागरूक बनाने और पत्रकारिता की ओर प्रेरित करने में दिनमान का मेरे जीवन में बड़ा योगदान है।
1965 में साप्ताहिक के रूप में दिनमान का प्रकाशन शुरू हुआ था।
सच्चिदानंद वात्स्यायन उसके संस्थापक संपादक थे।
उनके बाद रघुवीर सहाय संपादक बने।
फणीश्वर नाथ रेणु दिनमान के प्रथम बिहार संवाददाता थे।
दिनमान जैसी पत्रिका हिन्दी में न उससे  पहले कभी  आयी और न ही बाद में।आएगी भी नहीं।
टाइम्स आॅफ इंडिया ने उसे प्रकाशित किया था। दुर्भाग्य है कि दिनमान की पुरानी प्रतियां टाइम्स आॅफ इंडिया के स्टाॅक में भी नहीं है। 
मुझे जनसत्ता के पूर्व प्रधान संपादक ओम थानवी ने बताया था कि जापान में दिनमान के सारे पुराने अंक उपलब्ध हैं।
थानवी जी को इस देश में शायद कहीं नहीं मिला था।
  आज के इंडिया टूडे की साइज में 48 पेज का दिनमान निकलता था।
 दिनमान के प्रति मेरी दीवानगी का नमूना पढि़ए।
1967 या 68 की बात है।दिनमान खरीदने के लिए मैं गांव से एक सुबह में दिघवारा पहुंचा।ट्रेन पकड़ कर छपरा कचहरी स्टेशन।वहां के व्हीलर स्टाॅल पर  नहीं आया था।
मैं छपरा जंक्शन गया।वहां भी नहीं आया था।
सिवान चला गया।वहां भी नहीं।लौटकर घर जाने के बदले सोन पुर चला गया।वहां मिल गया।
घर लौटते -लौटते रात के 12 बज चुके थे।
दिनमान मिल जाने के बाद पहले पेज से आखिरी पेज तक पढ़े बिना मैं अपने कमरे से बाहर नहीं निकलता था।
है कोई वैसी पत्रिका अब ?
@ 30 जनवरी 2018@
  




मंगलवार, 30 जनवरी 2018

  कई लोग पूछते हैं कि गांधी जी क्या खाना पसंद करते थे ?
 कहीं लिखा हुआ मैंने पढ़ा कि वे निम्नलिखित चीजें पसंद करते थे--
--भात, दाल, रोटी, दही, बैगन, चुकंदर, कद्दू, पेड़ा और फल का रस।
यदि किन्हीं के पास कोई दूसरी सूची हो तो मुझे जरूर बताएं।
महात्मा गांधी कहा करते थे कि ‘स्वाद के लिए नहीं बल्कि शरीर की जरूरत के लिए खाएं और कम से कम खाएं।’
  गांधी जी की हत्या नहीं कर दी गयी होती तो वे अपने संयमित जीवन के कारण लंबा जीते।
वे भोजन को दवा भी कहते थे।
 खाने -पीने के मामले में उनके  संयम को अनेक स्वतंत्रता सेनानियों ने भी अपने जीवन में अपनाया था।
हमें इस बात का ध्यान है कि आज के नेताओं की बनिस्पत स्वतंत्रता सेनानियों ने लंबी आयु पायी।
   संयोग से 30 जनवरी मेरा जन्म दिन है।मैं अपना जन्म दिन नहीं मनाता। गांधी की पुण्य तिथि के दिन जन्म दिन क्या मनाना ! वैसे इस तारीख का संयोग नहीं भी होता तो भी अपने लिए ऐसा कुछ होते देखना मेरे स्वभाव में नहीं है।
 हर दिन मेरे लिए समान है।
 हां, इस अवसर पर अपने स्वास्थ्य को लेकर मैं गांधी को जरूर याद करता हूं।
  आहार -विहार को लेकर गांधी की जो कसौटी है, उस पर मैं पूरा तो खरा नहीं उतरता,पर आधा जरूर।
  पर आधा पालन करके ही मैंने अपने जर्जर स्वास्थ्य को भंवर से निकाल लिया है।मैं इस मामले में कट्टर गांधीवादी मोरारजी देसाई से प्रभावित रहा हूं।वे मेरे भी पत्रों का  जवाब देते थे।वे सबके पत्रों का जवाब देते थे।यह बात उन्हें गांधी ने ही सिखाई थी।
उन्होंने अस्सी के दशक में मुझे लिख कर भेजा था कि वे सुबह से शाम तक क्या -क्या करते हैं।
उतना तो कोई पालन नहीं कर सकता।
कुसंयम के कारण कुछ साल पहले मेरा वजन घट कर 45 किलोग्राम रह गया था।लगातार पेट में दर्द रहता था।
लगता था कि अब अंत आ रहा है।तो मैंने दवा के साथ- साथ कुछ संयम भी अपनाये।कुछ ही उपायों से उसे मैंने टाल दिया ।या फिर मानिए तो ईश्वर की ऐसी ही इच्छा थी।
   मरीज आधा डाक्टर भी बन जाता है।मुझे जिन उपायों से लाभ मिला,उसे शेयर करने से शायद कुछ अन्य लोगों को भी लाभ मिले।
आज मेरा वजन करीब 60 किलो ग्राम है जो सामान्य के करीब है।
आज 73 साल की उम्र में मैं जितना ऊर्जावान हूं, उतना आज से दस साल पहले नहीं था।
अब मैं लंबे घंटे  काम करता हूंं।थकता नहीं हूं।कभी- कभी तो लगता है कि दिन और लंबा होता तो आज मैं कुछ अधिक काम कर लेता।
 खैर , सिर्फ दो -तीन बातों पर ध्यान देने में मेरा कायाकल्प हुआ है।
  कम खाने की आदत बना ली।खाने -नाश्ते का समय व प्रकार तय कर लिया।दो बार के मुख्य भोजन में एक या दो रोटी ही मैं खाता हूंं।सुबह में चने के सत्तू का घोल या छेना।कभी -कभी फल।कभी ड्राई तो कभी  मौसमी।
कच्चे पपीते और कद्दू की सब्जी बहुत ही लाभदायक है।
सब्जी में तेल-मसाला नाम मात्र का।मैं शाकाहारी हूं।सिगरेट-शराब या इस तरह की चीजों को कभी हाथ तक नहीं लगाया।
अपरान्ह में आधा ग्लास गर्म दूध में बादाम पाक-बार्नबिटा और हाॅर्लिक्स के घोल ने मुझे काफी फायदा पहुंचाया।
‘बादाम पाक’ कारगर फूड सप्लीमेंट है।
टहलना, धूप में बैठना और अनुलोम -विलोम जैसे कुछ हल्के उपाय ।  दोपहर में करीब आधे घंटे का विश्राम ।
अपवादों को छोड़कर मैं रात में करीब नौ बजे सो जाता हूं।
     करीब साढ़े तीन से चार बजे के बीच नींद टूट जाती है।तब से कुछ पढ़ना और लिखना शुरू हो जाता है।
 मैं समझता हूं कि इतने उपाय तो आसान हैं।यदि कोई व्यक्ति 
थोड़ा और संयम बरत ले तो रोग करीब नहीं फटकेगा।
हां, साल-छह महीने पर पैथोलाॅजिकल टेस्ट कराता रहता हूं।
इस देश के लोग इस तरह के संयम बरत कर गांधी को सही  श्रद्धांजलि दे सकते हैं। उनके राजनीतिक विचारों पर मतभेद  हो सकता है।पर उन्होंने संयम से अपने शरीर को ठीक रखा और पूरी पीढ़ी को भरसक संयमी बनाया,इसको लेकर  किसी मतभेद की भला कहां  गुजाइश है ?

सोमवार, 29 जनवरी 2018

  जब कुछ निजी स्कूलों के प्राचार्य  बच्चों के दाखिले से पहले उनके अभिभावकों से बातचीत करते हैं तो कुछ लोग उसकी  हंसी उड़ाते हैं।वे कहते हैं कि बच्चों की तरह हमें भी इंटरव्यू देना पड़ता है।
  पर, इन दिनों देश में हो रही  कुछ गंभीर घटनाएं उसकी जरूरत बता और बढ़ा रही हैं।
कुछ  अल्पवय किंतु हिंसक प्रवृति के उदंड छात्र स्कूल में ही अपने सहपाठी की हत्या कर देते हैं । वैसे कुछ अन्य छात्र अपने  शिक्षक को ही गोली मार देते हैं।दरअसल स्कूल स्तर के  लड़कों की ऐसी उदंडता के पीछे आम तौर गार्जियन की लापारवाही को  जिम्मेदार बताया  जाता है।वे अपने बच्चों को अपने घरों में अच्छे संस्कार नहीं देते।या फिर वे ऐसे पेशे में हैं कि उनके पास  इसके लिए समय ही नहीं है।या उनकी मनोदशा भी वैसी ही है।वे समझते हैं कि 
किसी तरह की कानूनी परेशानी होने पर वे अपने बच्चों को पैसे व पैरवी के बल पर बचा लेंगे।
  ऐसी स्थिति में स्कूल प्रबंधकों को कुछ और ही सावधान हो जाने की जरूरत है।
हालांकि यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि बच्चों की हिंसक प्रवृति के लिए  सिर्फ अभिभावकगण ही जिममेदार होते हैें।कुछ अन्य तत्व भी जिम्मेदार हो सकते हैं।जैसे टी.वी.,सिनेमा,स्मार्ट फोन या बुरी संगति ।उनका उपाय भी किसी अन्य ढंग से करना चाहिए।करना पड़ेगा।
  किसी भी अच्छे स्कूल के होशियार प्राचार्य व प्रबंधन के सदस्य  अधिकतर  अभिभावकों  से कुछ ही मिनटों की बातचीत के बाद ंयह बता सकते हैं कि वे अपने बच्चों को कितना समय देते  होंगे  या अनुशासित रखते होंगे।या फिर दे सकते हैं।या उनका खुद का स्वभाव कैसा है।उस स्वभाव का उनके पारिवारिक जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ता होगा।
उनके पास यदि बेशुमार  धन है तो उस का कैसा असर उनके बच्चों  के चाल-चलन व स्वभाव पर पड़ रहा होगा।
देश के स्कूलों में हो रही कुछ शर्मनाक घटनाओं को देखते हुए स्कूल प्रबंधन को चाहिए कि वे अभिभावकों की भी कड़ाई से जांच- परख करें।भारी डोनेशन की जगह अपने स्टाफ की प्राण रक्षा व स्कूल के भविष्य का अधिक ध्यान रखें।शंका हो और जरूरत पड़े तो दाखिला के लिए आए बच्चों के आवासों के आसपास खुफिया भेजकर भी जांच करा लेना महंगा नहीं पड़ेगा।कम से कम हिंसा के कारण स्कूलों को होने वाले भावी नुकसान से तो स्कूल बच जाएंगे।  

       

सरकारी खजाने के लुटेरे और घर पहुंचे डाकू में कितना अंतर ?


 प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि अभी इस देश के तीन पूर्व मुख्य  मंत्री जेलों में हैंं। भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारा अभियान जारी रहेगा।
उन्होंने एन.सी.सी.की रैली में रविवार को यह बात कही।उन्होंने युवाओं से कहा कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ें।
उन्होंने सही जगह पर सही बात कही।यह सच है कि अब उम्मीद तो नयी पीढ़ी से  ही है।
हालांकि मोदी की बात से भ्रष्टाचार को लेकर देश की अधूरी तस्वीर ही सामने आती है। भ्रष्टाचार के मामले में इस देश का हाल यह है कि यदि कानून को काम करने दिया गया होता  तो आज  कम से कम एक दर्जन पूर्व मुख्य मंत्री विभिन्न जेलों में बंद होते।
एक पूर्व प्रधान मंत्री की उम्र तो जेल में ही कट गयी होती।
 वैसे एक उप मुख्य मंत्री छगन भुजबल और पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री मतंग सिंह भी इन दिनों जेलों में ही हैं।नरसिंह राव  मंत्रिमंडल में मतंग सिंह भले राज्य मंत्री थे, पर उनका रुतबा किसी कैबिनेट मंत्री की तरह था।
 यदि जयललिता जीवित होतीं तो वह भी अभी जेल की  ही शोभा बढ़ा रही होतीं।इस देश में क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का हाल यह है कि पिछले दिनों  पूर्व मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि यदि अमर सिंह ने मुझे नहीं बचा लिया होता तो मैं जेल में होता।
यानी अमर सिंह जैसे कुछ लोगों को भी यह सुविधा मिली हुई है कि वे किसी को जेल जाने से बचा लें।यानी जांच एजेंसियों और अदालतों को हमारे देश के हुक्मरान कई बार काम ही करने नहीं देते, अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए।
भ्रष्टाचार के कई गंम्भीर  मामले तो अपनी तार्किक परिणति तक पहंुच  ही नहीं पाते।
 क्या खुद मौजूदा प्रधान मंत्री यह भी सुनिश्चित करेंगे कि वे अपना काम बिना भेदभाव के करें ?
  कई साल पहले असम के एक मुख्य मंत्रंी के खिलाफ वहां के राज्यपाल ने मुकदमा चलाने की अनुमति ही अज्ञात कारणों से नहीं दी।जबकि आरोप बहुत ही गंम्भीर थे।अनुमति देते तो  वे भी जेल में होते।उस राज्यपाल ने बाद में अजीब सफाई दी। सफाई में तीन अलग -अलग के अपने भाषणों मंे उन्होंने तीन अलग -अलग कारण बताए।तीनांे बोगस।
उनमें एक कारण यह भी था कि यदि मुख्य मंत्री जेल चले जाते तो इस सीमावर्ती राज्य में राजनीतिक अस्थिरता आ जाती।
  कानून को काम करने दिया जाता तो उत्तर प्रदेश के दो पूर्व मुख्य मंत्री भी जेल मंे होते।कई लोगों को आश्चर्य हो रहा है कि हिमाचल प्रदेश के एक पूर्व मुख्य मंत्री अब तक जेल से बाहर क्यों हैं ?
महाराष्ट्र के कई बड़े नेता जेल जाने की अपार योग्यता रखते हैं।उनमें कुछ पूर्व  मुख्य मंत्री भी शामिल हैं।
 इन दिनों देश के दो मौजूदा मुख्य मंत्री जेल जाने की पात्रता हासिल करने की भरपूर कोशिश में लगे हुए हैं।
 कुछ पूर्व मुख्य मंत्रियों की संतानें  भी क्यू में हैं।दक्षिण भारत के एक पूर्व मुख्य मंत्री के पुत्र के पास तो 365 करोड़ रुपए की संपत्ति का पता चला है।वे जेल से बाहर हैं।सी.बी.आई.का आरोप हैं कि वे सबूतों को नष्ट करने में लगे हुए हैं।  
कितने उदाहरण बताए जाएं ,लंबा हो जाएगा।
कल्पना कीजिए कि आपकी जाति के ही दस डाकू घातक हरवे- हथियार के साथ रात में आपके घर में घुस जाए।हथियार दिखा कर आपकी सारी कमाई लूट ले जाए।
 इस बीच आपके परिवार के एक सदस्य की हत्या भी कर दे।
क्या उसके बाद आप कहेंगे कि चलिए कोई बात नहीं ,डाकू मेरी ही जाति का ही तो था।दूसरी जाति के लोग भी तो लूटते ही हैं।
 ऐसा आप नहीं कहेंगे।क्योंकि आप पर सीधे मार पड़ी है।
पर जब सरकारी खजानों से आपके ही दिए हुए टैक्स के पैसों 
को सत्ताधारी नेता,व्यापारी  व अफसर लूट लेते हैं तो आपको कोई एतराज नहीं होता।क्योंकि वह आपकी जाति का होता है।सरकारी खजाने के लुट जाने का नतीजा यह भी होता है कि कई बार सरकार के पास सरकारी अस्पतालों में डिटाॅल,रुई आदि के लिए भी पैसे नहीं होते।वेतन व जरूरी सुविधा के अभाव में डाक्टर वहां नहीं मिलते।आपके परिवार का किसी  गंभीर मरीज का वहां इलाज नहीं हो पाता।वह इलाज के अभाव में गुजर जाता है।क्या वह उसी तरह की हत्या नहीं जैसी हत्या डकैती के क्रम में कोई डाकू किसी गृहस्वामी की कर देता है।
अब तो यह सब नयी पीढ़ी को ही सोचना है।
 ---सुरेंद्र किशोर -ब्लाॅग पर।
@29 जनवरी 2018@
  


   

रविवार, 28 जनवरी 2018

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि अब आम लोगों को 
पद्म पुरस्कार मिल रहे हैं।पद्म पुरस्कार के लिए पहचान नहीं बल्कि अब काम जरूरी है।
  प्रधान मंत्री की यह पहल सही है।पर इसके साथ ही उन्हंे एक और काम करना चाहिए।
पद्म पुरस्कार से संबंधित नियम यह कहता है कि इसे पाने वाले 
अपने नाम के आगे या पीछे इसे लगा नहीं सकते।
पर इस नियम का पालन नहीं हो रहा है।
  इस नियम के उलंघन के कारण दक्षिण भारत की  दो फिल्मी हस्तियों से कुछ साल पहले ये पुरस्कार वापस ले लिए गए थे।फिर भी कई  लोग अपने लेटर हेड में यह लिख रहे हैं।कुछ लोगांे के तो घर के गेट पर टंगे  उनके नेम प्लेट मंे भी उनके नाम के पहले  पद्मश्री लिखा दिखाई पड़ता है।
  भारत सरकार या  तो नियम बदले दे या फिर इस नियम को कड़ाई से लागू करे।



  बाकी लोग तो पद्मावत को  भी फिल्म की तरह ही ले रहे हैं।अपने देश में यही होता रहा है।
फूलन पर मैंने इस संदर्भ लिखा कि पद्मावती@पद्मावत विवाद पर बार -बार जहां -तहां फूलन देवी का नाम आ रहा है।कहा जा रहा है कि उस पर फिल्म बनी तब तो किसी ने विरोध नहीं किया।
दरअसल कड़ा विरोध  खुद फूलन को ही करना पड़ा था। क्योंकि बाकी लोगों के लिए तो वह एक फिल्म ही थी।यानी दिल्ली हाई कोर्ट में फूलन की ओर से शेखर कपूर और चैनल .-4 पर केस हुआ था।बाद में फूलन ने समझौता कर लिया।
 यानी फूलन की सहमति से फिल्म चली।
 पद्मावती एक ऐतिहासिक पात्र है।उसके वंशज मौजूद हैं।
उसके साथ एक जातीय समूह की भावना विशेष रूप से जुड़ी हुई है।
उस पर कोई फिल्म बनी तो उसके लिए उसके वंशज से अनुमति ली जानी चाहिए थी जिस तरह अंततः फूलन से ली गयी।वंशज व समर्थक फिल्म में कुछ परिवत्र्तन भर चाहते थे।
पर वंशजों से अनुमति नहीं ली गयी ।कुछ परिवत्र्तन हुआ भी तो वह अधूरा। हालांकि खबर यह भी है कि देश के बाहर  जो
‘पद्मावत’ दिखाया जा रहा है,उसमें ड्रीम सीन भी है जिस पर वंशजों को सर्वाधिक एतराज रहा है।
खैर, नतीजतन यहां कुछ लोगों को आंदोलन का अवसर दे दिया गया।
 ऐसे भावनात्मक आंदोलनों के गर्भ से कई बार गलत तत्व भी शीर्ष पर आ जाते हैं।उससे कुल मिलाकर देश-राज्य-समाज का नुकसान ही होता है।दूरदर्शी लोग ऐसे आंदोलन  का अवसर नहीं देना चाहते।
  बिहार में हमने देखा है कि 1990 में मंडल आरक्षण के अतार्किक विरोध के कारण लालू प्रसाद जैसे नेता महा बली बन गए।आरक्षण पक्षी  आंदोलन ने भी तब एक भावनात्मक आंदोलन का रूप ले लिया था।सवाल पिछड़ों के मान -सम्मान का बन गया  था।क्या लालू के महा बली बनने से समाज का भला हुआ ?

  

शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

बिहारी राजनीति की यात्रा कर्पूरी से लालू-जगन्नाथ तक


यह संयोग ही था कि कल बुधवार को पटना में एक तरफ  नेता दिवंगत कर्पूरी ठाकुर को ‘भारत रत्न’ देने की मांग कर रहे थे तो दूसरी ओर रांची की सी.बी.आई. अदालत कुछ बड़े नेताओं को सजा सुना रही थी।
पर, यह संयोग नहीं था कि भ्रष्टाचार के आरोप में जिन नेताओं को सजा हुई,उन में से एक नेता ने कर्पूरी ठाकुर को उनके जीवन काल में यह सलाह दी थी कि ‘आप  पटना के प्रस्तावित विधायक काॅलोनी में अपने लिए एक भूखंड ले लें ताकि आपके नहीं रहने पर भी आपके बाल -बच्चे राजधानी में रह सकें।’ं
 एक अन्य अवसर पर उसी नेता ने दिवंगत ठाकुर के बारे में तत्कालीन बिहार विधान सभा उपाध्यक्ष शिवनंदन पासवान को यह नोट लिखा था कि ‘कर्पूरी जी दो बार मुख्य मंत्री रहे।कार क्यों नहीं खरीद लेते ?’ याद रहे कि कर्पूरी जी ने पासवान जी के जरिए उस नेता से थोड़ी देर के लिए उनका वाहन मांगा था।
याद रहे कि कर्पूरी जी ने उस नेता की बिना मांगी सलाह ठुकरा दी थी।
कर्पूरी जी चाहते थे कि उनके बाल-बच्चे उनके गांव में ही रहें।
  यह प्रकरण नयी पीढ़ी के नेताओं के लिए एक बड़ी सीख है यदि वे ग्रहण करना  चाहें तो ।
  वे तय कर लें कि उन्हें कर्पूरी ठाकुर की जीवन शैली अपनानी है या फिर उन नेताओं की जिन्हें रांची अदालत ने सजा दी है।
  डा. जगन्नाथ मिश्र पर आरोप--
क्या किसी सरकारी सेवक  की सेवा वृद्धि के लिए सिफारिशी चिट्ठी लिखने मात्र से ही कोई अदालत किसी नेता को पांच साल की सजा दे सकती है ?
यदि ऐसा हुआ तो उस जज की ही सेवा समाप्त हो जाएगी।
  पर,डा.जगन्नाथ मिश्र वर्षों से लगातार यह कहते रहे हैं कि पशु पालन विभाग के क्षेत्रीय संयुक्त निदेशक डा.श्याम बिहारी सिंहा के सेवा-विस्तार के लिए सिफारिशी चिट्ठी मुख्य मंत्री लालू प्रसाद को लिखने के कारण ही मुझे चारा घोटाला केस में फंसा दिया गया।
  पर किसी पूछने वालेे ने कभी डा.मिश्र से  यह सवाल नहीं पूछा कि क्या अदालत में मुखबिर दीपेश चांडक ने यह नहीं कहा था कि आप डा.सिंहा के पे -रोल पर थे ? क्या आपको डा.सिंहा के कहने पर बारी- बारी से सप्लायर एम.एस.बेदी ने  50 लाख और गणेश दुबे ने  25 लाख रुपए नहीं दिए थे ?
क्या चारा घोटालों के सबसे बड़े सरदार श्याम बिहारी सिंहा की पुत्र बधू को आपने  अपने विवेकाधिकार कोटे से टेलीफोन नहीं दिलवाया था ?आपके खिलाफ साठगांठ के कुछ अन्य  सबूत भी सी.बी.आई.को नहीं मिल गए थे ?
   पत्रकारों की मिलीजुली भूमिका---
चारा घोटाले के रहस्योद्घाटन और उसकी सी.बी.आई.जांच  के दौरान पत्रकारों की भूमिका भी मिलीजुली ही रही।
तब  यह बात सामने आई थी कि चारा माफियाओं ने 55 पत्रकारों को भी पैसे दिए थे।
पर जो पत्रकार चारा घोटालेबाजों के प्रभाव में नहीं आए ,उनको उन दिनों और बाद में भी तरह- तरह से प्रताडि़त किया गया।
दो वरिष्ठ पत्रकारों की तो नौकरी ही छुड़वा दी गयी।
कई को जान से मारने की धमकियां दी गयीं।
उनका कसूर यही था कि वे खबरें छाप रहे थे।लिख रहे थे कि यह सब न तो संबंधित नेताओं के लिए ठीक है और न ही बिहार के लिए।
पर,तब माहौल इतना डरावना बना दिया  गया था कि अनेक पत्रकारों और प्रतिपक्षी नेताओं के लिए अपना काम करना कठिन  था।तलवार जुलूस निकल रहे थे ।लोगों को डराया जा रहा था।
सी.बी.आई.के बड़े अधिकारी डा.यू.एन. विश्वास ने एक बार कहा था कि मैं जब भी कोलकाता से पटना के लिए निकलता हूं तो अपनी पत्नी से कह कर आता हंू कि शायद मैं न भी लौटूं।
आज गुरूवार को भी चाईबासा कोषागार के लेखापाल बी.एन.लालदास का ऐसा एक बयान छपा है।उन्होंने कहा है कि यदि मैं सरकारी गवाह बन जाता तो मुझे मरवा दिया जाता।याद रहे कि सी.बी.आई. उन्हें सरकारी गवाह बनने के लिए कह रही थी। 
  क्या आज जेल में बंद लोग  अपने  अपकर्मों के लिए अब भी प्रायश्चित करेंगे ?
क्या वे अब भी यह महसूस करेंगे कि उन पत्रकारों की चेतावनियों पर उन्होंने ध्यान दिया  होता तो इस हालत में वे नहीं पहुंचते  ?   
      संवैधानिक कत्र्तव्य---
अनेक लोग समय -समय पर शासन से यह मांग करते रहते हैं कि उन्हें उनके संवैधानिक अधिकार मिलने ही चाहिए।
ऐसी  मांग सही भी है।
पर, कितने लोगों को यह पता है कि भारत के संविधान में अधिकारों के साथ- साथ नागरिकों के लिए कुछ कत्र्तव्यों का भी प्रावधान  मौजूद  है ? उनका कितना पालन हो रहा है ?
गणतंत्र दिवस के अवसर पर  उन मूल कत्र्तव्यों का विवरण यहां दिया जा रहा है।
वैसे भी इन्हें पढ़कर हम इस नतीजे पर आसानी से पहुंच सकते हैं कि इन प्रावधानों का कितना पालन हो रहा है !
यदि नहीं हो रहा है कि इसके लिए क्या करना चाहिए।
संविधान के अनुच्छेद - 51 में दस मूल कत्र्तव्यों का विवरण  इस प्रकार है-  
1-भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कत्र्तव्य होगा कि वह संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं राष्ट्र ध्वज और राष्ट्र गान का आदर करंे। 
2-स्वतंत्रता के लिए हमारे 
राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों  को हृदय में संजोय रखे और उसका पालन करें।
3-भारत की प्रभुता , एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखें।
4-देश की रक्षा करंे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करंे।
5-भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भातृत्व की भावना का निर्माण करंे जो धर्म ,भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हांे, ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के खिलाफ  हैं।
6-हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझें और उसका संरक्षण करंे।
7-प्राकृतिक पर्यावरण को जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करंे और उसका संवर्धन करंे तथा प्राणि मात्र के प्रति दया भाव रखें।
8-वैज्ञानिक दृष्टिकोण ,मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करंे।
9-सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखंे और हिंसा से दूर रहें।
10-व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करंे जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले।
    अभिभावक का इंटरव्यू जरूरी ---
जब कुछ निजी स्कूलों के प्रबंधन बच्चों के दाखिले से पहले उनके अभिभावकों से बातचीत करते हैं तो कुछ लोग उसकी  हंसी उड़ाते हैं।
  पर देश में हो रही हाल की कुछ घटनाएं उसकी जरूरत बता रही हैं।
कुछ  अल्पवय किंतु उदंड छात्र अपने सहपाठी की हत्या कर देते हैं तो कुछ अन्य छात्र अपने  शिक्षक को ही गोली मार देते हैं।दरअसल स्कूल स्तर के  लड़कों की ऐसी उदंडता के पीछे आम तौर गार्जियन की लापारवाही जिम्मेदार बताई जाती है।
किसी भी अच्छे स्कूल के होशियार प्राचार्य व प्रबंधन के सदस्य  अधिकतर  अभिभावकों  से कुछ ही मिनटों की बातचीत के बाद ं ही यह बता सकते हैं कि वे अपने बच्चों को कितना समय देते  होंगे  या अनुशासित रखते होंगे।या फिर उनका खुद का स्वभाव कैसा है।उनके बेशुमार  धन का कैसा असर उनके बच्चों  पर पड़ रहा होगा।
       और अंत में---
बात उन दिनों की है जब बिन्देश्वरी दुबे बिहार की कांग्रेसी सरकार के मुख्य मंत्री थे।
एक नेता ने कर्पूरी ठाकुर पर तरह- तरह के आरोप लगाते हुए उन दिनों कहा था कि ‘कर्पूरी  दुबे का  दलाल और राजनीतिक तस्कर है।’
 उसी नेता का आज  गुरूवार के अखबार में  एक बयान आया है।उन्होंने कहा है कि ‘कर्पूरी जी समाजवादी विचार धारा के लेनिन थे।’
इसे कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक शैली की नैतिक जीत ही तो कही जाएगी।
@ 26 जनवरी, 2018 को प्रभात खबर -बिहार- में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से @

बुधवार, 24 जनवरी 2018

चारा घोटाला ः गाय भैंस मर रही थीं ,लोग सरकारी खजाने से पैसे लूट रहे थे 
                  
गत पांच साल में लालू प्रसाद को चारा घोटाले के आरोप में आज तीसरी बार यह सजा मिली है।पहली बार सी.बी.आई. के जज ने 2013 में 5 साल की सजा  दी।
दूसरी सजा इसी जनवरी में साढ़े तीन साल की हुई।
आज पाचं साल की सजा सुनाई गयी।
तीनों मामलों  में अलग -अलग तीन जज थे।क्या इस केस को समझने में तीन -तीन जजों ने लगातार असावधानी  बरती ?No . फिर साजिश का आरोप क्यों ?
 बल्कि उल्टे इससे यह बात साफ हुई कि सी.बी.आई. ने इन मामलों में पोख्ता सबूत अदालतों में पेश किए थे ।उन सबूतों की काट लालू प्रसाद के वकील  पेश नहीं कर सके। 
अभी लालू प्रसाद के खिलाफ अन्य मामलों में भी  अदालत के निर्णय आने बाकी हैं।
  एक बार फिर राजद नेता गण साजिश के तहत लालू प्रसाद को फंसाने का आरोप लगा रहे हैं।उन लोगों का आरोप है कि मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा से मिलकर लालू प्रसाद को फंसा दिया।
  पर  इन आरोपों को कम ही लोग गम्भीरता  से ले रहे हैं।
 दरअसल सत्ता में रहते समय लालू प्रसाद ने कायदे कानून की परवाह किए बिना काम किए।वे  कहा करते थे कि  ‘मैं खुद ही कानून बनाता हूं और तोड़ता हूंं।’
सी.बी.आई.का यही आरोप था कि मुख्य मंत्री और वित्त मंत्री के रूप में  लालू प्रसाद ंने बिहार सरकार के पशुपालन विभाग के पैसों को लेकर भी वही रुख अपनाया था।पशुपालन विभाग के माफियाओं को संरक्षण दिया और उसके बदले लाभ हासिल किया।
अदालत में यह आरोप साबित हो गया।
वर्षों पहले चारा घोटाले में आरोपित हो जाने के बावजूद लालू प्रसाद ने कानून की कभी परवाह नहीं की।
 कुछ साल पहले एक आपराधिक मामले में जब मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने यह कहा कि कानून अपना काम करेगा तो उस पर नीतीश का मजाक उड़ाते हुए लालू ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि  ‘जब कानून ही अपना काम करेगा तो आप किस काम के लिए मुख्य मंत्री बने हुए हंै ?’
  1990 में मुख्य मंत्री बनने के साथ ही लालू प्रसाद ने चारा घोटालेबाजों के साथ असामान्य रूप से नरमी दिखाई।
उनके पशुपालन मंत्री राम जीवन सिंह ने जब पशुपालन घोटाले की सी.बी.आई.जांच की सलाह दी तो मुख्य मंत्री लालू प्रसाद ने श्री सिंह से वह विभाग छीन  लिया।
  यह संयोग नहीं था कि  राम जीवन सिंह के  बाद के सभी पशुपालन मंत्री इस घोटाले में जेल गए।
  ’सी.ए.जी.ने  सितंबर, 1989 में टेस्ट अंकेक्षण के आधार पर यह  आपत्ति उठाई  कि पशुओं के परिवहन में जो ट्रक उपयोग में लाए गए ,वे दरअसल  ट्रक नहीं थे।बल्कि उनके नंबर कार,स्कूटर, स्टेशन वैगन और टैक्टर के थे।
  27 मई 1992 को रांची स्थित निगरानी निरीक्षक विद्या भूषण द्विवेदी ने निगरानी विभाग के तब के महा निदेशक गजेंद्र नारायण को एक रपट भेजी।
रपट के अनुसार रांची के पशुपालन विभाग से जुड़े अफसरों और ठेकेदारों ने भ्रष्टाचार के जरिए करोड़ों की संपत्ति बनाई है।पर उस रपट को महा निदेशक ने ठंडे बस्ते में डाल दिया।कहा गया कि ऐसा उन्होंने ऊपरी दबाव में किया।
 1991 के अप्रैल में मुख्य मंत्री लालू प्रसाद ने राज्य के सभी जिलाधिकारियों और कोषागार पदाधिकारियों की पटना में बैठक बुलाई।
तब बिहार अविभाजित था।बैठक में मुख्य मंत्री को यह सूचना दी गयी कि चाईबासा जिला पशुपालन पदाधिकारी ने 50 लाख रुपए की अवैध निकासी की है।
मुख्य मंत्री ने जिला पशुपालन पदाधिकारी को तत्काल मुअत्तल कर देने का आदेश  दे दिया।
सरकारी आदेश जारी भी हो गया।
पर 15 दिनों में ही मुअत्तली का आदेश वापस हो गया।इतना ही नहीं उस पदाधिकारी को बेहतर पोस्टिंग मिल गयी।
इतना ही नहीं,इस विभाग के अफसरों की पहुंच और ताकत का पता इसी से चलता है कि पशुपालन विभाग के क्षेत्रीय संयुक्त  निदेशक डा.श्याम बिहारी सिंहा लगातार तीस साल तक रांची में ही पदास्थापित  रहा।
  लालू प्रसाद के मुख्य मंत्री बनने के बाद किस तरह  पूरी राज्य सरकार पशुपालन माफियाओं के चंगुल में थी,उसके कुछ Saboot  सी.बी.आई. के हाथ लग गए थे।  
  एक तरफ उचित भोजन के अभाव में पशुपालन विभाग के सरकारी वीर्य तंतु उत्पादन केंद्रों के 44 में से 22 सांड चारा के बिना मर गए,दूसरी ओर बिहार के  पशुपालन माफिया नाजायज तरीके से जाली बिल के आधार पर अरबों रुपए सरकारी खजानों से निकाल ले गए।
  पटना हाईकोर्ट ने 1996 में चारा घोटाले की जांच का भार सी.बी.आई.को सौंपते समय कहा भी था कि ‘उच्चस्तरीय साजिश के बगैर यह घोटाला संभव नहीं था।’सी.बी.आई.जांच के आदेश को लालू  सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।पर पहली नजर में सबूत देखने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी लालू को कोई राहत नहीं दी।
याद रहे कि जांच के लिए लोकहित याचिका दायर की गयी थी।उन दिनों लालू प्रसाद के दल के ही देश में प्रधान मंत्री थे।पर अदालती आदेश के सामने वे भी लाचार थे।
 उससे पहले बिहार सरकार ने चारा घोटाले को लेकर  अपनी ओर से लीपापोती के लिए जो तीन सदस्यीय जांच कमेटी बनाई थी, उनमें से दो अफसर बाद में उसी चारा घोटाले के ही आरोप में सी.बी.आई.द्वारा गिरफ्तार किए गए । 
    सन 1991-92 में इस  विभाग का कुल बजट 59 करोड़ 10 लाख रुपए का था।पर उस अवधि में घोटाले बाजों ने 129 करोड़ 82 लाख रुपए सरकारी खजानों से निकाल लिए। ऐसा उन लोगों ने जाली बिलों के आधार पर किया।
उच्चस्तरीय संरक्षण के कारण यह संभव हो सका।
सन 1995-96 वित्तीय वर्ष में 228 करोड़ 61 लाख रुपए निकाल लिए गए।जबकि, उस साल का पशुपालन विभाग का बजट मात्र 82 करोड़ 12 लाख रुपए का था।
 डोरंडा @रांची@के कोषागार पदाधिकारी ने भारी निकासी देख कर ऐसे बिलों के भुगतान पर रोक लगा दी तो पटना सचिवालय से  वित्त विभाग के संयुक्त सचिव ने  1993 में  लिखी थी।संयुक्त सचिव ने भुगतान जारी रखने का कोषागार पदाधिकारी को निदेश दिया।साथ ही 17 दिसंबर 1993 को राज्य कोषागार पदाधिकारी ने भी डोरंडा कोषागार अधिकारी को ऐसी ही चिट्ठी लिखी।
जाहिर है कि ऐसी चिट्ठियां वित्त मंत्री यानी लालू प्रसाद के निदेश पर लिखी गयी थीं।
ऐसी चिट्ठियों के बाद कोषागार पदाधिकारी  अपनी रोक हटा लेने को मजबूर हो गए।
नतीजतन  फर्जी निकासी और भी तेज हो गयी।
 बिहार  सरकार ने अपने विभागों को यह  आदेश दे रखा था कि हर महीने वे पूरे साल के बजट का सिर्फ आठ प्रतिशत राशि की ही निकासी करें।पर पशुपालन विभाग को इस बंधन से छूट मिली हुई थी।बहाना था  कि पशुओं की जान बचाने के लिए 
जिस अवधि में पशुपालन विभाग के अरबों रुपए निकाले जा रहे थे,उस अवधि  में प्शुपालन विभाग ने कोई नयी विकास योजना नहीं शुरू की।
इतना ही नहीं,पहले से जारी योजनाएं भी एक -एक करके अनुत्पादक होती चली गयीं।
सन 1990 से 1995 के बीच अनावश्यक मात्रा में दवाएं खरीदी गयीं।पर साथ -साथ पशुओं की बर्बादी भी होती गयीं।
राज्य के मवेशी प्रजनन केंद्रों में मवेशियों की संख्या कम होती चली गयी।उस अवधि में उनकी संख्या 354 से घटकर 229 रह गयी। 
आलोच्य अवधि में दूध नहीं देने वाली गाय -भैंस की संख्या 30 प्रतिशत से बढ़कर 56 प्रतिशत हो गयी।सरकारी मवेशी प्रजनन केंद्रों में बछड़ों की मृत्यृ दर 30 प्रतिशत से बढ़कर 100 प्रतिशत हो गयी।ऐसे में अदालतों से ऐसे ही निर्णय की उम्मीद थी। 
@मेरा यह लेख  24 जनवरी 2018 को फस्र्टपोस्ट हिंदी पर प्रकाशित@


  

मंगलवार, 23 जनवरी 2018

  26 जनवरी, 1950 को जब इस देश में संविधान लागू हुआ तो कई लोगों ने उसे पढ़ना शुरू किया।संविधान में  राज्य की नीति के निदेशक तत्व वाले चैप्टर में उन्हें कई अच्छी बातें पढ़ने को मिलीं।
एक नूमना-- ‘राज्य अपनी नीति इस प्रकार संचालित करेगा कि सुनिश्चित रूप से आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन 
और उत्पादन के साधनों का सर्व साधारण के लिए अहितकारी केंद्रीकरण न हो।’
पर हुआ क्या ?
  जो कुछ हुआ, वह जल्द ही एक बड़े नेता की जुबान से सामने आ गया।
सन 1963 में ही तत्कालीन कांग्रेस  अध्यक्ष डी.संजीवैया को  इन्दौर के अपने भाषण में यह कहना पड़ा  कि ‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे।@ 1963 के एक करोड़ की कीमत आज कितनी होगी ?@
गुस्से में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने  यह भी कहा था कि ‘झोपडि़यों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’ 1971 के बाद तो लूट की गति तेज हो गयी।अपवादों को छोड़कर सरकारों में भ्रष्टाचार ने संस्थागत रूप ले लिया।
समय बीतने के साथ सरकारें बदलती गयीं और सार्वजनिक धन की लूट पर किसी एक दल एकाधिकार नहीं रहा।
अपवादों को छोड़कर लूट में गांधीवाद  और नेहरूवाद के साथ -साथ समाजवाद ,लोहियावाद ,  ‘राष्ट्रवाद’ और ‘सामाजिक न्याय’, आम्बेडकरवाद से जुड़े लोग तथा अन्य तत्व  भी शामिल होते चले गए।
 सरकार के सौ में से 85 पैसे जनता के यहां जाने के रास्ते में बीच में ही लुप्त होने लगे।
1991 में शुरू आर्थिक उदारीकरण के दौर के बाद तो राजनीति में धन के अश्लील प्रदर्शन को भी बुरा नहीं माना जाने लगा। 
  अब तो इस देश के कई दलों के अनेक बड़े नेताओं के पास    अरबों-अरब  की संपत्ति इकट्ठी हो चुकी है और वे बढ़ती ही जा रही है।लगता है कि उसके बिना वह बड़ा नेता कहलाएगा ही नहीं।
 परिणाम--
23 जनवरी 2018 के एक अखबार का शीर्षक है - ‘देश में 2017 में जितनी संपत्ति बढ़ी उसका 73 प्रतिशत हिस्सा, यानी 5 लाख करोड़ रुपए सिर्फ 1 प्रतिशत अमीरों के पास पहुंचा।’
जिस देश के राजनीतिक नेता अरबों-अरब कमाएंगे तो उनकी प्रत्यक्ष-परोक्ष मदद से उस देश के व्यापारी खरबों -खरब कमाएगा ही !
भाड़ में जाए करोड़ों - करोड़ वह जनता जिसे आज भी  पेट को अपनी पीठ से अलग रखने के लिए एक जून का भोजन किसी तरह मिल पाता है !
संक्षेप में  यही है अपने आजाद भारत की साढ़े सत्तर साल की कहानी !ं  
इसी के साथ हम अगले शुक्रवार को एक और गणतंत्र दिवस मनाएंगे ।  
@ 23 जनवरी 2018@
   

रविवार, 21 जनवरी 2018

   आयकर महकमे ने यंग इंडियन प्रायवेट लिमिटेड कंपनी पर 
414 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया है।
  इस कंपनी के निदेशक हैं सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री मोतीलाल वोरा, इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व संपादक सुमन दुबे,पूर्व केंद्रीय मंत्री आॅस्कर फर्नांडिस और सैम पित्रोदा।
  इस संबंध में  आज के टाइम्स आॅफ इंडिया में छपी खबर के अनुसार भाजपा सासंद डा.सुब्रह्मण्यन स्वामी ने आयकर महकमे के संबंधित दस्तावेज के साथ दिल्ली की अदालत को उपर्युक्त जानकारी दी है।
  याद रहे कि डा.स्वामी ने नेशनल हेराल्ड मामले को लेकर केस कर रखा है।

  



वो रेल मंत्री जो किसी साधारण रेल यात्री की तरह रहता था  
            
1977 में जब केंंद्रीय मंत्री पद की शपथ लेने के लिए फोन पर बुलावा आया,तो उस समय मधु दंडवते अपने बाथ रूम में अपने कपड़े खुद धो रहे थे।
  रेल मंत्री बन कर भी वे सर्व साधारण की तरह ही जिए।
मुम्बई विश्व विद्यालय में फिजिक्स के प्रोफेसर रहे दंडवते इतने सरल व्यक्तित्व के धनी थे कि उन्हें देख कर 
कोई भी व्यक्ति उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था।
  1971 में जब पहली बार  महाराष्ट्र के राजा पुर लोक सभा क्षेत्र से मशहूर सांसद  नाथ पै की जगह प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने  उन्हें खड़ा कराया तो महाराष्ट्र के बाहर के लोगों को लगा कि पता नहीं वे कैसे होंगे।क्योंकि यशस्वी और तेजस्वी सांसद नाथ पै ने अपनी प्रतिभा से देश व संसद  को बहुत प्रभावित किया था।उनके असामयिक निधन के बाद दंडवते को वहां से खड़ा कराया गया था।
मधु दंडवते वहां से लगातार पांच बार सांसद रहे।
  रेल मंत्री बनने के बाद प्रो.मधु दंडवते ने एक बार कहा था कि ‘मैं नहीं चाहता कि मैं जहां जाऊं ,वहां विशिष्ट दिखाई पड़ूं या समझा जाऊं।मैं झूठे आडंबर में विश्वास नहीं करता।जब इंगलैड का प्रधान मंत्री बाजार में घूमता है तो किसी का ध्यान नहीं जाता कि देश का प्रधान मंत्री जा रहा है।ऐसा ही यहां भी होना चाहिए।मैं नहीं चाहता कि मंत्री, राजा -महाराजा की तरह चलें।यह सामंती प्रथा खत्म होनी चाहिए।’
    सन 1977 में रेल मंत्री बनने के बाद मधु दंडवते ने रेलवे में पहले से जारी विशेष कोटा को समाप्त कर दिया।साथ ही, उन्होंने जनरल मैनेजरों को एक परिपत्र भेजा।उसमें मंत्री ने  लिखा  था कि अगर कोई अपने को मेरा मित्र या रिश्तेदार बता कर विशेष सुविधा चाहे तो उसे ठुकरा दिया जाए।मधु दंडवते कहते थे कि कई बार जो गलत काम होते हैं, भ्रष्टाचार हो या अपने रिश्तेदारों के प्रति पक्षपात हो,वे ऊपर से शुरू होते हैं और नीचे तक जाते हैं।इसलिए जरूरी है कि ऊपर भ्रष्टाचार नहीं हो।रिश्तेदारों के साथ पक्षपात नहीं हो,इसीलिए मैंने जनरल मैनेजरों को सर्कुलर जारी कर दिया।
    मधुरभाषी मधु दंडवते स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता थे जिनकी लोगबाग सम्मान करते थे।
21 जनवरी 1924 को  महाराष्ट्र के अहमद नगर में जन्मे मधु दंडवते  का 2005 में निधन हो गया।
   वी.पी.सिंह मंत्रिमंडल मंे वित्त मंत्री रहे मधु दंडवते 1951 से 1971 तक  
मुम्बई विश्व विदयालय में नाभकीय भौतिकी के अध्यापक थे।आप वैज्ञानिक होकर राजनीति में कैसे आ गये,इस सवाल के जवाब में मधु दंडवते ने एक बार कहा था कि ‘ताकि राजनीति अधिक वैज्ञानिक बन सके।’
   आज जब राजनीति में व्याप्त भारी गंदगी की जब -तब कहीं चर्चा होती है तो कुछ लोग यह कह देते हैं कि साफ सुथरे लोग राजनीति में आते कहां हैं ?दरअसल यह बात अर्ध सत्य है।मधु दंडवते का पूरा जीवन बेदाग रहा।उन्हें मोरारजी देसाई मंत्रिमंडल में रेल मंत्री जैसा बड़ा और महत्वपूर्ण मंत्रालय दिया गया।वी.पी.सिंह मंत्रिमंडल में तो मधु जी वित्त मंत्री बनाये गये थे।उन पर कोई दाग नहीं लगा।
  सत्ता से बाहर रहकर निर्विवाद और ईमानदार बने रहना आसान काम है।पर सत्ता के शीर्ष पर पहंुच कर भी जस की तस चदरिया को रख देना 
काफी संयम का काम है।बेईमान खास तौर पर  सत्ताधारियों की रोज ब रोज परीक्षा लेते रहते हैं।उसके धैर्य की ,उसकी ईमानदारी की ,उनके संयम की और  उसके चरित्र की।जो इस काजल की कोठरी से बेदाग बाहर निकल आता है,उसे आने वाली पीढि़यां याद रखती है।मधु दंडवते वैसे ही थोड़े से लोगों में थे जिन्होंने अपनी चदरिया जस की तस धर दी।
        आपातकाल में इस देश में ट्रेनें समय पर चलती थीं।जब मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो इस चुस्ती में थोड़ी कमी आई।कुछ पत्रकारों ने इसकी शिकायत रेल मंत्री से की।इस पर मधु दंडवते ने रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष से कहा कि वह अफसरों और यूनियन के नेताओं से मिलें और उनसे कहें कि अगर इस तरह तबदीली होगी तो लोगों को यह लगेगा कि रेल को ठीक से चलाने के लिए इमरजंसी जरूरी है।यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होगा।
    मधु दंडवते ने न सिर्फ 1942 के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था,बल्कि वे 1955 के गोवा मुक्ति आंदोलन में भी सक्रिय थे।वे 1948 में समाजवादी आंदोलन से जुड़ गये थे।संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन ने जिन राजनीतिक कर्मियों को जनता से करीब से जुड़ने का मौका दिया ,उनमें मधु दंडवते भी थे।उन्हें 1969 में भूमि मुक्ति आंदोलन में भी शामिल होकर उसका नेतत्व करने का अवसर मिला था।सन 1971 के बाद तोे वे लोक सभा में रेल कर्मचारियों के प्रवक्ता ही थे।बाद में जब वे रेल मंत्री बने तो उन कर्मचारियों को दुबारा नौकरी दिलाया जिन्हें 1974 की रेल हड़ताल के दौरान सेवा से हटा दिया गया था।उस रेल हड़ताल के समय रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र और अखिल भारतीय रेलवेमेंस फेडरेशन के अध्यक्ष जार्ज फर्नाडिस थे।
     रेल मजदूर आंदोलन,समाजवादी आंदोलन,स्वतंत्रता आंदोलन ,भूमि मुक्ति आंदोलन और इस तरह के कई आंदोलनों में सक्रिय भमिका निभाने के कारण मधु दंडवते के पास अनुभवों का खजाना था।उन्होंने कई पुस्तकें  भी लिखी थीं।उन्हें प्रमिला दंडवते के रूप में एक आदर्श जीवन संगनी भी मिली थीं जो खुद भी राजनीति में सक्रिय थीं और सांसद भी।प्रमिला जी का सन 2002 में निधन हो चुका था।
@मेरा यह लेख 21 जनवरी 2018 को फस्र्टपोस्ट हिन्दी पर प्रकाशित@

अस्सी के दशक की बात है।पटना अरबन काॅपरेटिव बैंक घोटाले से संबंधित मुकदमे पर पटना हाईकोर्ट में बहस चल रही थी।
याचिकाकत्र्ता के वकील ने मामले के संबंध में सरकारी फाइल से हासिल कर एक सनसनीखेज कागज कोर्ट में पेश किया था।
 बचाव पक्ष के वकील ने सवाल उठाया कि वह कागज उन्हें  मिला कैसे ?
याचिकाकत्र्ता के वकील ने कहा कि एक पक्षी आसमान में उड़ रहा था।उसकी चोंच मंे एक फाइल थी।
संयोग से वह मेरे घर के ऊपर से उड़ा।फाइल मेरे घर की छत पर गिर गयी।
  अरे भई,बहस इस बात पर कीजिए कि फाइल में जो कागज है,उसमें दर्ज बातें सच हंै या झूठ ?
इन दिनों नेशनल हेराल्ड मामले से संबंधित इनकम टैक्स का एक महत्वपूर्ण कागज डा.सुब्रह्मण्यम स्वामी को मिल गया है।
उसका विषय वस्तु मीडिया में लीक हो गया।हंगामा उस विषय वस्तु पर नहीं बल्कि इस पर हो रहा है कि इनकम टैक्स महकमे से एक भाजपा सांसद तक कागज कैसे पहुंच गया।
   इस लीक पर डा.स्वामी ने कहा कि सुबह जब मैंने अखबार लेने के लिए अपना दरवाजा खोला तो एक लिफाफा मिला।उसी में वह कागज था।
  यानी पटना की नकल दिल्ली में ! ?

शनिवार, 20 जनवरी 2018

  गंगा नदी की दुर्दशा पर ऐसी सजीव रपट मैंने पहली बार पढ़ी है।
जब शशि भूषण जैसे कल्पनाशील पत्रकार और संदीप नाग जैसे समर्थ फोटो जर्नलिस्ट 17 दिनों तक गंगा में बोट पर रह जाएं तो वैसी ही सचित्र रपट बनेगी, जैसी भास्कर के पन्नों पर आज बनी है।
इस रपट के वर्णन के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।
  इस देश के हुक्मरानों ने आजादी के बाद किस तरह दुनिया की इस अनोखी नदी को बर्बाद कर दिया,उसका आखों देखा हाल आज दैनिक भास्कर ने प्रस्तुत किया है।जो सुनते थे,वह देखा।
  पत्रकारिता के क्षेत्र में यह रपट मील का पत्थर है।अखबार के आर्थिक व मानव संसाधन का यह सर्वोत्तम उपयोग है।इस देश पर गर्व करने वाले जिस किसी व्यक्ति ने इसे पढ़ा होगा,यह रपट उसके दिल को छू गयी होगी।
गंगा से विशेष लगाव के कारण मैं तो थोड़ा अधिक ही भावुक हो रहा हूं भास्कर पढ़कर और चित्र देख कर।
पर क्या करूं ,एक समय था जब दिघवारा के पास बचपन में गंगा में पैठ कर ठेहुने भर पानी में जब मैं खडा होता था तो अपने पैरों की अंगुलियां मैं देख सकता था ,इतना निर्मल पानी तब हुआ करता था गंगा का।तब दतवन का चीरा भी कोई गंगा में नहीं फेंकता था।
 आज हम सबने मिलकर एक पवित्र नदी को गंदे नाले में परिणत कर दिया है और देश देखता रह गया।
भास्कर ने ठीक ही लिखा है कि सहायक नदियों से ही गंगा की अविरलता बनी हुई है। 
़  दिव्य औषधीय गुणों वाली ऐसी नदी दुनिया में और कहीं नहीं है।
अपनी धरोहर पर गर्व करने वाले किसी भी अन्य देश के पास ऐसी नदी होती तो वह उसे अगली पीढि़यों के लिए पूरी तरह  संभाल कर रखता।
  पर लानत है आजादी के बाद के हमारे हुक्मरानों पर !
विदेशी हमलावरों ने इस देश को बहुत लूटा ,पर गंगा को छोड़कर।
@ 19 जनवरी 2018@


शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

कर्पूरी ठाकुर का जीवन निराश कार्यकत्र्ताओं के लिए एक संदेश


इस महीने की 24 तारीख को  कर्पूरी ठाकुर की जयंती मनाई जाएगी। 
कई जगह  जयंती समारोहों की औपचारिकता पूरी की जाएगी।
  पर ऐसे अवसरों पर आज की स्थिति से निराश राजनीतिक कार्यकत्र्तागण कर्पूरी ठाकुर के नाम पर मन ही मन कुछ संकल्प लेना चाहें तो उससे उनकी निराशा देर -सवेर दूर हो सकती है।
दरअसल  इन दिनों अनेक  राजनीतिक कार्यकत्र्ता इस बात का रोना रोते पाए जाते हैं कि पैसा, खास वंश  और जाति बल के बिना राजनीति में आगे बढ़ना आज असंभव हो गया है।
  ऐसे में उनके लिए यह जानना जरूरी है कि कर्पूरी ठाकुर के पास इन तीनों में से कुछ भी नहीं था,फिर भी वे बिहार की राजनीति व सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे।
 हालांकि  कम था, लेकिन कर्पूरी ठाकुर के जमाने में भी उपर्युक्त तीनों तत्व अन्यत्र मौजूद थे।उनसे कर्पूरी जी  लड़े और जीते भी। 
 यह और बात है कि आज पैसा,जाति और वंशवाद का वीभत्स रूप सामने आया हुआ है।
 पर कर्पूरी ठाकुर ने खुद में जो कुछ खास गुण विकसित किए थे,उसके लिए आज भी कोई पैसे नहीं लगते।
 कर्पूरी ठाकुर ईमानदार, विनम्र, धैर्यवान  और मेहनती थे।
कर्पूरी ठाकुर सरजमीन से अपना संपर्क लगातार कायम रखते थे।
कोई राजनीतिक कार्यकत्र्ता ये  गुण खुद में विकसित कर ले  तो बाकी कमियां की क्षतिपूत्र्ति  हो सकती हैं।
अधिक दिन नहीं हुए जब सी.पी.एम.के बासुदेव सिंह और माले के महेंद्र प्रसाद सिंह ऐसे ही गुणों से लैस थे।दोनों अंत तक बिहार में विधायक रहे।ऐसे कुछ नाम और भी हो सकते हैं।
आज वंशवाद का बहुत रोना रोया जाता है।
यदि कहीं किसी कारणवश जातीय वोट बैंक तैयार हो जाएगा तो उस वोट बैंक का मालिक परिवारवाद चलाएगा ही।
 कर्पूरी ठाकुर,बासुदेव सिंह और महेंद्र प्रसाद सिंह जैसे जमीनी कार्यकत्र्ता पैदा होने लगंेगेे तो वे कम से कम अपने क्षेत्रों में तो जातीय वोट बैंक का ताला तोड़ देने की उम्मीद कर ही सकते हंै।
  अररिया लोक सभा उप चुनाव---
 निकट भविष्य में देश के आठ संसदीय क्षेत्रों में उप चुनाव होने वाले हैं।उन क्षेत्रों में बिहार का अररिया भी शामिल है।
राजद के मो.तसलीमुददीन के निधन से यह सीट खाली हुई है।
वैसे तो राजद की यह एक मजबूत सीट मानी जाती है, पर इसके चुनाव नतीजे बिहार की चुनावी राजनीति की अगली दिशा के कुछ-कुछ संकेतक हो सकते हैं।
  पिछले लोक सभा चुनाव में तसलीमुददीन को भाजपा और जदयू के मिलेजुले मतों से भी लगभग 80 हजार अधिक वोट मिले थे।
तब राजद, भाजपा और जदयू के उम्मीदवार आमने -सामने थे।
अब बिहार का राजनीतिक समीकरण बदल चुका  है।
अगला चुनाव भाजपा और जदयू मिलकर लड़ेंगे।
उधर लालू प्रसाद के जेल जाने के बाद राजद दावा कर रहा है कि  उनके वोट बैंक में इजाफा हुआ है।इस उप चुनाव में इस दावे की भी जांच हो जाएगी।
उधर भाजपा का दावा है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल में ऐसे -ऐसे काम किए हैं जो पहले कभी नहीं हुए।
अररिया के मतदाता उस दावे पर भी अपना निर्णय  सुनाएंगे ।जब भी आठ लोक सभा क्षेत्रों में उप चुनाव हांेगे, उनके नतीजे 2019 के आम चुनाव के लिए संकेतक साबित हो सकते हैं।
 शिशु कन्या भ्रूण हत्या में कमी-- 
हरियाणा में शिशु कन्या भू्रण हत्या में इधर काफी कमी आयी है।
2011 में जहां हरियाणा में 1000 पुरूष के मुकाबले मात्र 834 स्त्रियां थीं,वही अब यह संख्या 914 पहुंच गयी है।
राष्ट्रीय औसत 919 है।
 आखिर यह चमत्कार कैसे हुआ ?
सरकारी प्रयास से हुआ या अन्य कारणों से ? जो भी हो, इससे वे राज्य सीख सकते हैं जहां इस अनुपात में काफी असंतुलन है। 
कुछ साल पहले यह खबर आई थी कि हरियाणा के युवकों की शादी केरल तथा कुछ अन्य राज्यों की लड़कियों से हो रही है।इसका अच्छा असर हो रहा है।
हरियाणा में ब्याही केरल की लड़कियां जब मां बनती हैं तो वे कन्या शिशु की भी उसी तरह रक्षा व देखभाल करती हैं जिस तरह वे लड़के की करती हैं।
  हाल के वर्षों में हरियाणा सरकार ने लिंग अनुपात के असंतुलन को गंभीरता से लिया और अनेक अल्ट्रा साउंड मशीनों को जब्त किया जो गर्भ शिशुओं की लिंग जांच के लिए लगाई गयी थीं।इसका भी सकारात्मक असर जरूर पड़ा होगा। 
पुलिस के समक्ष कबूलनामे का महत्व बढ़ेगा ?---
अभी इस देश की अदालतें  पुलिस के समक्ष किए गए कबूलनामे को सबूत का दर्जा नहीं देती।
न्यायिक दंडाधिकारी के सामने दर्ज बयान को वह दर्जा हासिल है।
मौजूदा केंद्र सरकार अब इस स्थिति को बदलना चाहती है।
उसके सामने मलिमथ कमेटी की सिफारिश का आधार मौजूद है।
क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में सुधार के लिए सुझाव देने के लिए अटल  सरकार ने जस्टिस मलिमथ के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई थी।उसने 2003 में ही अन्य बातों के अलावा यह भी  सिफारिश
की थी कि पुलिस अफसर के समक्ष किए गए कबूलनामे को अदालतें सबूत के रूप में स्वीकार करंे।इसके लिए संबंधित कानून में संशोधन हो।
पर बाद की मन मोहन सरकार ने इसे नहीं माना।जानकार सूत्रों के अनुसार मौजूदा केंद्र सरकार उस सिफारिश को लागू करने के लिए उच्चस्तरीय विचार-विमर्श कर रही है।
दरअसल केंद्र सरकार देश में आपराधिक मामलों में सजाओं की घटती दर से चिंतित है।
साथ ही खबर है कि  उस मलिमथ कमेटी की इस सिफारिश पर भी केंद्र सरकार विचार कर रही है कि न्यायाधीशों पर महाभियोग लाने की प्रक्रिया को भी सरल बनाया जाए।
महाभियोग की मौजूदा प्रक्रिया जटिल है।  
 यदि सरकार ये दोनों काम कर सकी तो उससे भारी सकारात्मक फर्क आ सकता है।
     एक भूली बिसरी याद
 जीवन भर पत्रकार दूसरों के बारे में लिखते  रहते हंै।पर 
खुद उनके दिवंगत हो जाने के बाद उन पर कम ही लोग लिखते हैं या याद करते हैं।
  कई बार किसी पुराने पत्रकार के निधन की जब छोटी सी खबर छपती है तो मुझे लगता है कि काश ! मैं उनसे हाल में भी मिल  लिया होता ।
  खैर ऐसे ही एक नामी पत्रकार सुधांशु कुमार घोष उर्फ मंटू दा  के बारे में हमारे बीच के सबसे वरीय पत्रकार रवि रंजन सिंहा ने 1999 में इसी अखबार में लिखा था।
  रवि रंजन बाबू के शब्दों में एक बार फिर पढ़ना रूचिकर होगा।
 ‘ वे पी.टी.आई.के पटना कार्यालय के प्रमुख थे।मगर जिस ढंग से लोग उनके प्रति सम्मान प्रकट करते थे ,उसे देख कर उत्सुकता होती थी कि आखिर इस व्यक्ति में ऐसा क्या है जो लोगों को अपनी ओर खींचता है !
उनकी वेश भूषा में कोई विशेषता नहीं होती थी।मैंने उन्हें बराबर सफेद धोती -कुत्र्ता पहने देखा।जिस पर जाड़े में एक बंडी और एक दुशाला होता।
मगर जब वे फ्रेजर रोड पर, जो उस समय पटना का फ्लीट स्ट्रीट हुआ करता था,चलते तो दोनों ओर से नमस्ते , प्रणाम की वर्षा होती।@याद रहे कि उन दिनों वह रोड आज जैसी चैड़ी नहीं थी।@
मंटू दा अभिवादन करने वालों को उसकी आवाज से ऊंची और अपनी टनकदार आवाज में जवाब देते और मुस्कराते हुए आगे बढ़ जाते।’
रवि रंजन बाबू ने ठीक ही लिखा है कि वे  समवयस्कों के साथ ही नहीं बल्कि अपने से उम्र में छोटे के साथ भी मित्रवत व्यवहार करते थे।मैंने भी ऐसा करते हुए उन्हें देखा था।खुद भी अनुभव किया था।
पत्रकार के रूप में उन्होंने अपनी बड़ी गहरी छाप छोड़ी थी।‘इंडियन नेशन’ में उनका साप्ताहिक काॅलम बहुत ही रोचक और सूचनाप्रद होता था।
  और अंत में
  महाराष्ट्र कैबिनेट ने महत्वपूर्ण निर्णय किया है।
वह सरकारी प्रयोजन के लिए किसानों से जो जमीन अधिगृहीत करेगी,उसका बाजार दर से चार गुणा
मुआवजा देगी।
ध्यान रहे कि सरकारी रजिस्ट्री दर नहीं, बल्कि बाजार दर।  
इसके लिए संबंधित कानून में महाराष्ट्र सरकार संशोधन करने जा रही है।
 उस राज्य सरकार को लगता है कि इतने अधिक मुआवजे के बाद जमीन के अधिग्रहण में दिक्कत नहीं होगी और विकास कार्यों के लिए जमीन आसानी से उपलब्ध होगी।



    @19 जनवरी 2018 को  प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान-प्रभात खबर -बिहार से@    




गुरुवार, 18 जनवरी 2018

  यदि कोई पत्रकार किसी नेता की  जीवनी या आत्म कथा 
में दिए गए तथ्यों या तारीखों  को उधृत करते हुए जल्दीबाजी में  कोई लेख लिखेगा तो वह कभी -कभी  धोखा भी खा सकता है।
मैं भी खा चुका हूंंं।हां, ऐसी पुस्तकों में कई बातें ऐसी होती हैं जो अन्यत्र नहीं मिलेंगी।
  कुछ भी लिखने से पहले  लेखक को  क्राॅस चेक कर लेना चाहिए।
 हाल में मैंने एक बड़े कांग्रेसी नेता को उधृत करते हुए  सर गणेश दत्त से उनकी एक मुलाकात की चर्चा लिख दी।बताया गया था कि मुलाकात 1944 में हुई।हालांकि सर गणेश दत्त का निधन 1943 में ही हो चुका था।मुझे झेलना पड़ा।
 किसी बड़े बुजुर्ग नेता से उम्मीद तो नहीं की जा सकती कि उन्हें ईस्वी -तारीख वगैरह याद रहे।
कई बार मैं भी साल -तारीख भूल जाता हूं।आंशिक स्मृति दोष किसी में भी हो सकता है।
मैं तो भूलने पर आम तौर पर किसी से पूछ लेता हूं या संंबंधित कागजात देख लेता हूं यदि उपलब्ध है तो।
यह काम नेता के सहयोगियों को करना चाहिए।
एक अन्य बड़े कांग्रेसी नेता ने कुछ साल पहले अपने संस्मरण लिखे।अच्छे हैं।
उन्होंने बहुत हिम्मत से ऐसी -ऐसी बातें लिखी हैं जो कुछ लिखने का साहस कम ही लोगों में है।
पर उन्होंने  सामान्य राजनीतिक जानकारियों के मामले में भी भूल कर दी।किसी जानकार से पूछ लेते तो वह आसानी से बता देता।
  उन्होंने लिखा कि 1967 में ‘महामाया बाबू अपने दल के एकमात्र विधायक होने के बावजूद संयुक्त विधायक दल के नेता बन कर बिहार के मुख्य मंत्री बन गए।’
जबकि सच्चाई यह है कि 1967 में विधान सभा चुनाव में महामाया बाबू सहित 29 विधायक  जनक्रांति दल के टिकट पर चुने गए  थे ।इतना ही नहीं उस बड़े नेता ने, जो  केंद्र मंे मंत्री भी रह चुके हैं,  लिखा कि जार्ज फर्नाडिस जो एक दिन पहले मोरारजी देसाई सरकार की तारीफ कर रहे थे,दूसरे दिन चरण सिंह की सरकार में शमिल हो गए।पर, सच यह है कि जार्ज चरण सिंह सरकार में थे ही नहीं।
  बिहार के ही दो बड़े दिवंगत नेताओं ने अपने संस्मरण में 1955 के बी.एन.काॅलेज गोली कांड का साल अलग- अलग लिखा है।एक ने 1956 लिखा तो दूसरे ने 1955 दर्ज किया।
सही 1955 ही है जिसमें दीनानाथ पांडेय पुलिस गोली के शिकार हो गए थे।
पर जो नया व्यक्ति दोनों नेताओं की किताबें पढ़ेगा ,वह तो नरभसा ही जाएगा।
  बिहार के एक मशहूर कम्युनिस्ट नेता द्वारा लिखवाई गयी अपनी जीवन कथा की कुछ पंक्तियां पढिए--‘सन 1971 में जो लोक सभा का मध्यावधि चुनाव हुआ था,उस समय बिहार में सरदार हरिहर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस @ओ @्रवाली सरकार बन गयी थी।’
अब सही बात जानिए।
1971 में चुनाव के समय कर्पूरी ठाकुर मुख्य मंत्री थे।हरिहर सिंह 1969 के प्रारंभ में  जब मुख्य मंत्री बने थे तब तक कांग्रेस में विभाजन ही नहीं हुआ था।
कांग्रेस @ओ @तो विभाजन के बाद बना।
कम्युनिस्ट नेता ने यह भी लिख दिया कि 1967 में बी.पी.मंडल ने एस.एस.पी.तथा कुछ अन्य दलों से विधायकों को  तोड़ा और मंडल मुख्य मंत्री बन गए।पर कम्युनिस्ट पार्टी से कोई नहीं टूटा।जबकि सी.पी.आई. के तब के हरसिद्धि के विधायक एस.एन.अब्दुल्ला  भी दल बदल करके बी.पी.मंडल सरकार में मंत्री बन गए थे।अब्दुल्ला ने मुझे बाद में बताया था कि उन्होंने सी.पी.आई.क्यों छोड़ा था।
उत्तर प्रदेश के एक समाजवादी नेता ने एक बार मुझे कई किताबें दी थीं।उनमें समाजवादी आंदोलन व कुछ नेताओं का इतिहास है।उनमें मुझे इतनी त्रुटियां मिलीं कि मैंने उसे पढ़ना बीच में ही छोड़ दिया।समाजवादी आंदोलन का  इतिहास मैंने जितना भी पढ़ा है, थोड़ा ही पढ़ा है ,उनमें  प्रो.विनोदानंद सिंह और डा.सुनीलम् लिखित पुस्तक मुझे प्रामाणिक लगी। 
खैर मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कोई बड़े नेता आत्म कथा लिखते हैं या  जीवनी लिखवाते हैं तो तथ्यों और तारीखों पर ध्यान दें क्योंकि बड़े नेताओं की जीवनी या आत्म कथा को लोगबाग पढ़ना चाहते हैं।कुछ त्रुटियों को छोड़ दें तो मुझे तो उनसे बहुत सी जानकारियां मिलती हैं।
मैंने जान बूझ कर नेताओं के नाम नहीं लिखे हैं।कृपया पूछिएगा मत।
   



बुधवार, 17 जनवरी 2018

  सी.पी.एम.के  पोलित ब्यूरो के सदस्य के. बाला कृष्णन ने कहा है कि अमेरिका के नेतृत्व वाली साम्राज्यवादी ताकतों की धुरी का भारत एक पार्टनर  है।यह धुरी चारों तरफ से चीन को घेर रही है ।हमलावर है।
  गत 15 जनवरी को अंग्रेजी दैनिक पाॅयोनियर में प्रकाशित इस खबर के अनुसार बालाकृष्णन ने, जो केरल सी.पी.एम. के सचिव भी हैं ,  उत्तर कोरिया के किम का भी समर्थन किया है।
मैं प्रतीक्षा कर रहा था कि बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में शायद सी.पी.एम.अपने इस नेता के इस बयान का खंडन करेगी।
पर जब दो दिन बीत गए और खंडन नहीं हुआ तो मैंने सोचा कि इस पर एक पोस्ट लिख दिया जाए ।
  ऐसे समय में जब पाकिस्तान और चीन मिलकर भारत को घेरने में लगे हंै, सी.पी.एम. के इस प्रमुख नेता का बयान अधिकतर भारतीयों को दुःखी करने वाला है।इस बयान से भाजपा को बंगाल में फैलने में सुविधा हो सकती है।
 लगता है कि सी.पी.एम. अब भी 1962 के ही मिजाज में है।
1962 में जब चीन ने भारत पर हमला किया था तो अविभाजित सी.पी.आई.के चीन पक्षी नेताओं ने  उल्टे  भारत को ही हमलावर बताया था।तब अनेक चीनपक्षी कम्युनिस्ट नेता इसको लेकर गिरफ्तार भी हुए थे।पार्टी भी टूट गयी।सी.पी.एम.का गठन हुआ।
हालांकि तब अविभाजित  सी.पी.आई.के सोवियतपक्षी नेताओं ने भारत सरकार का साथ दिया था।
वैसे  तब सोवियत संघ ने भारत की मदद नहीं की।बल्कि अमेरिका ने मदद की थी।
  खुद चीन और सोवियत संघ की सरकारें  1969 में आपसी विवाद में उलझी हुई  थीं।पर  इन देशों के कोई  नेता अपने ही देश के खिलाफ बयान दे, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।वैसे भी वहां वाणी की स्वतंत्रता थी नहीं।
जबकि दोनों देशों के कम्युनिस्ट ‘दुनिया के मजदूरो एक हो’ का नारा लगाते थे।
  भारत एक अजीब देश है जहां के कुछ लोग व संगठन दूसरे देश के हितों के बारे में अधिक सोचते व करते है।फिर
भी उनका चल जाता है। 
कहीं पढ़ा था कि चीन ने जब 1964 में परमाणु विस्फोट किया तो सी.पी.एम.ने उसकी सराहना की।पर जब सत्तर के दशक में इंदिरा सरकार ने किया तो उसकी आलोचना की।
  सी.पी.एम.एक ऐसी पार्टी है जिसमें किसी भी दल से अधिक त्यागी,तपस्वी कार्यकत्र्ता और नेता हैं।भारत जैसे गरीब देश के लिए वे बहुत बड़ी पूंजी बन सकते थे।
पर राष्ट्रहित और सामाजिक न्याय को लेकर सी.पी.एम.की गलत समझदारी के कारण एक अच्छी पार्टी पूरे देश की पार्टी नहीं बन सकी।

  





 सारी बुराइयों के लिए आरक्षण को जिम्मेदार ठहराना मैं सही नहीं मानता।
आरक्षण कोटि से भी बेहतर उम्मीदवारों का शिक्षक के रूप में 
चयन हो सकता था।पर,अधिकतर दफा ऐसा नहीं हुआ।सामान्य श्रेणी से चयन में भी ईमानदारी  नहीं बरती गयी।
हालांकि लालू प्रसाद के शासन काल में स्कूल शिक्षकांे
 की बहाली बी.पी.एस.सी.द्वारा आयोजित परीक्षा के जरिए हुई थी।
परीक्षा में तब आम तौर पर चोरी नहीं हुई थी,इसलिए अच्छे शिक्षक बहाल हुए थे।हालांकि वह अपवाद था।लालू प्रसाद-राबड़ी जी के कार्यकाल में कुल मिलाकर शिक्षा का क्या हाल हुआ,यह सब लोग जानते हैं।
 नीतीश कुमार के कार्यकाल में माक्र्स के आधार पर बहाली हुई तो उसमें योग्य शिक्षक कम ही आ पाए।
मैं अपर प्राइमरी स्कूल खान पुर @दरिया पुर,सारण @में पढ़ता थां
वहां के प्रधानाध्यापक धनुष धारी राय थे।
उनकी योग्यता पर कभी किसी ने सवाल नहीं उठाया।
हाई स्कूल स्तर पर मैं अपने ही गांव के ही शिक्षक चंद्र देव राय से ट्यूशन पढ़ता था।
उतने अधिक योग्य साइंस टीचर  मैंने कम देखे।
वे मुझे मुफ्त में ट्यूशन पढ़ाते थे।मैंने 1963 में मैट्रिक प्रथम श्रेणी में पास किया तो उसमें उनका भी योगदान था।
धनुष धारी राय और चंद्र देव राय  दोनों शिक्षक यादव परिवार से रहे।
  चंद्र देव राय तो अब भी हमारे बीच हैं।वे इसलिए बहाल हुए थे क्योंकि तब मूलतः योग्यता के आधार पर बहाली होती थी।
@ फेसबुक पर एक टिप्पणी के जवाब में --16 जनवरी 2018@

मंगलवार, 16 जनवरी 2018

  शिक्षा के मौजूदा स्तर को लेकर पटना के दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में आज एक बड़ी खबर छपी है।मैं तो अन्य किसी खबर से भी इसे बड़ी खबर मानता हूंं।क्योंकि शिक्षा की  बुनियाद पर ही प्रश्न चिन्ह लग गया है।
यह खबर  बिहार के सरकारी माध्यमिक विद्यालयों के 
प्राचार्यों के बारे में है।
वेतन वृद्धि के लिए हाल में आयोजित विभागीय परीक्षा में
148 में से सिर्फ 4 प्राचार्य ही पास कर सके।
 हालांकि  प्रश्न पत्र उनके विषय से संबंधित ही थे।
फेल होने वाले प्राचार्यों में सबसे अधिक पटना स्थित विद्यालयों के  प्राचार्य हैं।
  अब इस खबर पर रोया जाए या हंसा जाए ?
हालांकि शिक्षा की ऐसी दुर्गति सिर्फ बिहार में ही नहीं है।
अन्य कई राज्यों में भी है । 148 में से सिर्फ 4 प्राचार्यों का पास होना एक गंभीर रोग का लक्षण मात्र है।
 ऐसी बातें सोशल मीडिया में आने के बाद कुछ शिक्षकों की ओर से बचाव के अनेक तर्क दिए जाते हैं।इस पर भी दिए जाएंगे।मेरी तीव्र और अशालीन आलोचना भी हो सकती है।
 पर मैं अगली पीढि़यों के भले के लिए वह अपमान भी सह लूंगा।
  पर, ऐसी समस्या को सिर्फ शिक्षकों ,शिक्षा विभाग और बिहार सरकार पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए।ऐसी गिरावट न तो एक दिन में आई  है और न ही इसके लिए कोई शिक्षक , एक व्यक्ति या संस्थान जिम्मेदार है।शिक्षा को इस स्तर पर ला देने के लिए  कई क्षेत्रों के अनेक निहितस्वार्थी  लोग जिम्मेदार रहे हैं।इसी देश में साठ के दशक में जब मैं हाई स्कूल का छात्र था, तब तो प्राचार्यों की हालत ऐसी   नहीं थी ? क्यों ? तब से अब में क्या अंतर आ गया ? किसने वह अंतर लाया ? उसे कैसे ठीक किया जा सकता है ?
 क्या पूरे देश के राजनीतिक हुक्मरान इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर विशेषज्ञों का एक बड़ा सम्मेलन बुलाकर इसका उपाय खोजेंगे ? या, अगली पीढि़यों को भी ऐसे ही शिक्षकों के हवाले सौंपे रहेंगे ?
ध्यान रहे कि जब प्राचार्यों का यह हाल है तो अन्य  शिक्षकों का क्या हाल होगा ?
  
  


सोमवार, 15 जनवरी 2018


  राजीव गांधी हत्याकांड जैसे अत्यंत संवेदनशील मामले की भी सुप्रीम कोर्ट में अपेक्षाकृत जूनियर जजों की बंेच ने सुनवाई की थी।
  टाइम्स आॅफ इंडिया के अनुसार पिछले 20  वर्षों में  15 ऐसे संवेदनशील मामलों की सुनवाई के लिए बेंच गठित करने में सुप्रीम कोर्ट ने जजों की वरीयता का ध्यान नहीं रखा था।
यानी इन अति  संवेदनशील मामलों को सुनवाई के लिए वरिष्ठत्तम जजों को नहीं सौंपा गया था।
पर तब कांग्रेस या किसी जज ने  सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीशों के निर्णय पर कोई सवाल नहीं उठाया था।
 पर जब गत शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठत्तम जजों ने प्रेस कांफ्रेंस करके मौजूदा मुख्य न्यायाधीश पर यह आरोप लगाया कि केस के बंटवारे में वरीयता का ध्यान नहीं रखा जा रहा है तो लपक कर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कह दिया कि ‘जजों ने जो मामला उठाया हैै,वह अत्यंत गंभीर है और उसकी जांच होनी चाहिए।’
 राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार  ऐसे दोहरा मापदंड से ही कांग्रेस की चुनावी दुर्दशा होती जा रही है।दोहरा मापदंड के उदाहरण और भी हैें।
  राहुल गांधी ने जस्टिस बृज गोपाल लोया की मौत का मामला उठाते हुए भी शुक्रवार को कहा था कि उसकी जांच सुप्रीम कोर्ट में उच्च स्तर पर होनी चाहिए।
  याद रहे कि राहुल गांधी ने यह मामला इसलिए उठाया क्योंकि जस्टिस लोया एक कथित माफिया शोहराबुद्दीन शेख की मुंठभेड़ में मौत के मामले की जांच कर रहे थे।हालांकि लोया के पुत्र अनुज लोया ने कहा है कि उसके पिता की मौत के पीछे कोई रहस्य नहीं है। हार्ट अटैक से 2014 में उनका निधन हुआ था।
  याद रहे कि नरेंद्र मोदी के मुख्य मंत्रित्वकाल में पुलिस के साथ विवादास्पद मुंठभेड़ में शोहराबुददीन मारा गया था।
आरोप लगाया गया कि मुंठभेड़ नकली थी। उस संबंध में केस चल रहा है।
 शोहराबुददीन जैसे मामले में भी कांग्रेस का दोहरा रवैया रहा है।शोहराबुददीन जिस माफिया लतीफ का पहले डाइवर था,उस लतीफ की भी 1997 में पुलिस मुंठभेड़ में ही हत्या हुई थी।आरोप है कि लतीफ गुजरात में वही धंधा करता था जो धंधा मुम्बई में दाउद इब्राहिम करता था।
  पर गुजरात में 1997 में कांग्रेस समर्थित सरकार थी जिसके मुख्य मंत्री शंकर सिंह बघेला की पार्टी राजपा के एक नेता थे।
उस सरकार ने लतीफ को मारने वाले पुलिस अफसरों को तब सार्वजनिक रूप से सम्मानित भी किया था।
  पर शोहराबुददीन हत्याकांड में कई आई.पी.एस.अफसर भी जेल गए।
गुजरात के तत्कालीन गृह राज्य मंत्री अमित शाह भी कुछ समय के लिए जेल में थे। पर अदालत ने बाद में अमित शाह के खिलाफ लगे आरोपों को रद कर दिया था।याद रहे कि लतीफ की मौत के बाद शोहराबुददीन उसका उत्तराधिकारी बन गया था।
संभव है कि लतीफ की तरह शोहराबुददीन की मौत भी नकली मुंठभेड़ में ही हुई हो।
पर इस देश में ऐसे सैकड़ों मुंठभेड़ें हर साल होती रहती हैं।
इन दिनों भी उत्तर प्रदेश में पुलिस के साथ धुंआधार  मुंठभेड़ें हो रही हैं।पर ,उनकी जांच -पड़ताल करने या उन पर शंका उठाने से किसी को कोई वोट नहीं मिलने वाला है।
पर  लोया-शोहराबुददीन प्रकरण में कांग्रेस को अल्पसंख्यक वोट बैंक की फसल नजर आ रही  है।पर अंततः ऐसे मुददे कांग्रेस के लिए महंगे ही साबित होते रहे हैं। 
 पहले भी वर्षों तक कांग्रेस शोहराबुददीन मामले का इसी उद्देश्य से इस्तेमाल करने की कोशिश करती रही।पर हर बार उसका लाभ उल्टे भाजपा को मिला। कांग्रेसी दांव उल्टा पड़ा।
पर कांग्रेस ने उससे शिक्षा  नहीं ली।गुजरात विधान सभा के गत चुनाव में भाजपा ने खुद को कमजोर स्थिति में पाकर मतदाताओं से अपील की थी कि आपको ‘भाजपा राज चाहिए या लतीफ राज ?’
भाजपा ने मतदाताओं को ‘लतीफ राज’ की याद दिलायी जो कांग्रेस शासन काल का दुःस्वप्न माना जाता रहा है।
  कहा जाता है कि इस नारे ने कांग्रेस के चुनावी बढ़ाव को रोक दिया था।क्योंकि गुजरात और उसके आसपास के कुछ राज्यों के अनेक लोग लतीफ और शोहराबुददीन के नाम सुन कर आज भी कांप उठते हैें।
क्या कांग्रेस के पास अपनी चुनावी ताकत बढ़ाने के लिए लोया-शोहराबुददीन प्रकरण की जगह 
 कुछ अच्छे मुददे और बेहतर नारे नहीं हैं ?      

आतंक से निपटने का इजरायी तरीका भारत को सीखना ही चाहिए




         
यदि इजरायल ने 234 अरब छापामारों को रिहा कर दिया  होता तो सन् 1972 में 11 इजराइली ओलम्पिक खिलाडि़यों की जान बच जाती।
पर, व्यापक देशहित में इजरायल ने उन आतंकवादियों के सामने झुकना मंजूर नहीं किया जिन्होंने   म्यूनिख ओलम्पिक के दौरान 11 इजराइली खिलाडि़यों को बंधक बना रखा था।
 छापामारों को रिहा करने से इनकार कर देने पर 11 खिलाडि़यों को अरब आतंकवादियों ने मार डाला।उस दौरान  जर्मन पुलिस की कर्रवाई में चार छापामार 
भी मारे गये।तीन पकड़े गये।पर एक भागने में सफल हो गया।
  हां, बाद के वर्षों में इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद ने उन सारे षड्यंत्रकारी हमलावरों को खोज -खोज कर एक- एक कर मार डाला जो 11 इजराइली खिलाडि़यों की हत्या में शामिल  थे और तत्काल पकड़े जाने के बाद भी बाद में छोड़ दिए गए थे।
वे इजरायल के डर से कई देशों में जा छिपे थे।
मोसाद ने करीब 20 वर्षों में यह टास्क पूरा किया था।हत्यारों को मोसाद ने बारी-बारी से इटली, फ्रांस, ब्रिटेन ,लेबनान,एथेंस और साइप्रस में अपने नाटकीय आपरेशन के जरिए मारा।
बदले का इजरायल का वह बहादुराना कदम भारत जैसे आतंकपीडि़त देश  के लिए एक खास सबक बन सकता है। 
इस घटना के बाद अरब-इजरायल  तनाव और भी बढ़ गया था ।पर इजरायल की जनता ने भी उसकी परवाह नहीं की। आतंकवादियों से निपटने को  लेकर वहां की जनता में  दो तरह की राय नहीं हुआ करती।
  
 5 सितंबर, 1972 की बात है।म्यूनिख में 20 वां ओलम्पिक खेल मेला लगा हुआ था।ब्रिटेन के प्रधान मंत्री एडवर्ड हीथ सहित दुनिया के कई दे’ाों की महत्वपूर्ण हस्तियां वहां उपस्थित थीं।किसी ने सोचा भी नहीं था कि वहां कोई खूनी खेल भी हो जाएगा।
पर , ऐसा ही हुआ।अरब छापामारों ने अपने साथियों की रिहाई के लिए वहीं ताकत का इस्तेमाल ’ाुरू कर दिया। अरब छापामार दस्ता दीवाल फांद कर ओलम्पिक गांव में प्रवे’ा कर गया।उन्होंने मोरचाबंदी करके इजरायली क्वार्टर पर कब्जा कर लिया।यह पुरूष खिलाडि़यों का ठिकाना था।
  दो इजरायली खिलाडि़यों को तो उन लोगों ने मौके पर मार दिया।
कु’ती प्र’िाक्षक मुनिया ग्रिनबर्ग की मृत्यु घटनास्थल पर ही हो गई थी।मुक्केबाज प्र’िाक्षक मो’ाा बिनबर्ग की मृत्यु दो घंटे बाद हुई।
गोलियां चलने के बाद एक इजरायली  खिलाड़ी खिड़की से भागने में सफल हो गया था।
  भारोत्तोलक प्र’िाक्षक तुबिया सोकोल्वस्की ने बाद में बताया कि जब अरब छापामार उनके क्वार्टर में दाखिल हुए तो उनका दरवाजा थोड़ा सा खुला हुआ था।उस खुले दरवाजे से उन्होंने गोलियां चलाईं।मैं इधर अपने कुछ कपड़े लेकर खिड़की से भाग खड़ा हुआ।पड़ोस में तब तक छिपा रहा जब तक प’िचम जर्मनी की पुलिस ने स्थिति को संभाल नहीं लिया। मैंने लोगों की चीख पुकार सुनी थी।
सोेकाल्वस्की के अनुसार नकाबपो’ा छापामारों की संख्या नौ या दस थी।छापामारों ने नौ इजरायली  खिलाडि़यों को बंधक बना लिया।वे 234 अरब छापामारों की इजरायल  से रिहाई की मांग करने लगे।वे चाहते थे कि इन 234 लोगों को सुरक्षित मिस्र पहुंचा दिया जाए।  
 स्वाभाविक ही था कि हमले की खबर से पूरा ओलम्पिक गांव  सनसनी और तनाव से भर उठा।इजरायल ने अपने वि’ेाष दस्ते म्यूनिख भेजने का आॅफर किया।पर जर्मन सरकार ने उसे अस्वीकार कर दिया। 
इस घटना की खबर सुनकर  प’िचम जर्मनी के प्रधान मंत्री बिली ब्रांट खुद बाॅन से म्यूनिख पहुंच गये।
  उन्होंने छापामारों के सामने प्रस्ताव रखे कि   जितना चाहें आप पैसे ले लें ,पर इजरायली  खिलाडि़यों को छोड़ दें।या फिर इजरायलियों की जगह जर्मनों को बंधक रख लें।
लेकिन छापामारों ने शत्र्तें नामंजूर कर दीं।उन्होंने कहा कि जब तक 234 छापामारों को रिहा नहीं किया जाएगा,तब तक इन्हें छोड़ने का प्र’न ही नहीं उठता। जर्मन अधिकारी उनसे आग्रह करते रहे ,पर वे अपनी जिद पर अड़े रहे।इस बीच उन लोगों ने एक और धमकी दे दी।उन्होंने कहा कि यदि एक खास समय सीमा के अंदर  उनकी मांग नहीं मानी जाएगी तो वे हर दो घंटे पर एक  इजरायली  बंधक को मारते जाएंगे।इस बीच अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति के अध्यक्ष एवेरी ब्रूंडेज ने ओलम्पिक खेलों को 24 घंटे के लिए स्थगित कर दिया।दूसरी ओर मिस्र के अधिकारियों ने इस घटना पर क्षोभ प्रकट किया और अपने खिलाडि़यों को वापस बुला लिया।इजरायली  प्रधान मंत्री गोल्डा मीर ने कहा कि यह घटना अमानवीय है और इस तरह के माहौल में खेलों को जारी रखना उचित नहीं होगा।अमेरिका के यहूदी खिलाड़ी स्पिट्ज को भी वापस भेज दिया गया।स्पिट्ज ने म्यूनिख मेंें पहले के खेलों में एक साथ सात स्वर्ण पदक जीत लिये थे।
  अरब छापामारों ने यह मांग करनी शुरू कर दी कि उन्हें बंधकों समेत किसी अरब दे’ा में सुरक्षित भेज दिया जाए अन्यथा वे किसी भी  इजरायली  खिलाड़ी को जिंदा नहीं छोड़ेंगे।।याद रहे कि इजरायल  234 अरब छापामारों को छोड़ने को किसी कीमत पर कत्तई तैयार नहीं था।अंततः वे सब ओलम्पिक खेल गांव की हवाई पटटी तक बस से लाये गये।तब तक जर्मन पुलिस उस हवाई पट्टी पर हेलिकाॅप्टर द्वारा पहुंचाई जा चुकी थी।पुलिस घात लगा कर बैठी हुई थी।जर्मन पुलिस ने कार्रवाई शुरू की ।अरब छापामारों ने खुद को घिरा हुआ देख कर सभी इजरायली  बंधकों को  मार डाला।बंधक इजरायली खिलाडि़यों की संख्या नौ थी।चार छापामार भी मारे गये।एक जर्मन पुलिस अफसर  की भी जान चली गई।पर,तीन छापामार पकड़ लिये गये।एक छापामार नजर बचा कर कहीं छिप गया।इजरायल  ने अपने बहुमूल्य खिलाडि़़यों की जान की परवाह नहीं की।वह अरब छापामारों के दबाव में नहीं आया।इजरायल को यह अफसोस जरूर रहा कि प’िचम जर्मन सरकार ने उसके वि’ोष पुलिस दस्ते को म्यूनिख नहीं पहुंचने दिया।उधर अरब छापामारों के प्रवक्ता ने काहिरा में यह कहा कि इजरायल  को मानवता का पाठ पढ़ाने के लिए यह कार्रवाई की गई।
@ 15 जनवरी 2018 को  ‘फस्र्टपोस्ट हिन्दी’ पर 
मेरा यह लेख प्रकाशित@
    


रविवार, 14 जनवरी 2018

  मैंने आज वीर कुंवर सिंह की चर्चा इसलिए की क्योंकि 
कल मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने जगदीश पुर में ऐसी ही बात कही थी।उन्होंने कहा कि वीर कुंवर सिंह के  योगदान को उतना महत्व नहीं मिला जितना मिलना चाहिए था।
मेरा कहना है कि जिसने अंग्रेजों को एक दो नहीं बल्कि छह-छह  युद्धों में हराया,उसे तो राष्ट्रीय स्तर पर महत्व मिलना चाहिए था।मैं इस देश के किसी अन्य योद्धा को नहीं जानता जिसने छह युद्धों में अंग्रेजों को हराया हो।
इसके पीछे यह बात भी छिपी है कि हमारे पास काबिल योद्धा तो थे, पर उनमें एकता नहीं थी,इसलिए भी  हम गुलाम बने।
वीर कुंवर सिंह के अनोखे युद्ध कौशल पर जनरल एस.के. सिंहा ने भी किताब लिखी है।
  अस्सी के दशक में चैधरी चरण चरण सिंह ने एक ब्रिटिश इतिहासकार की पुस्तक का हिंदी में अनुवाद करवा कर बंटवाया था।
उसमें उस इतिहासकार ने लिखा था कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने 
भारत में भारतीयों के बीच के फूट और अलगाव का लाभ उठा कर ही सत्ता स्थापित की न कि अपनी वीरता के कारण।पंडित सुंदर लाल की किताब में भी इसकी चर्चा है।

 ं 
  

 बिहार के पूर्व मुख्य मंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह ने सर गणेश दत्त 
सिंह के बारे में जो कुछ लिखा है, उसे मैं यहां हू ब हू प्रस्तुत कर रहा हूं --
 ‘ सन 1944 की बात है।सर गणेश दत्त सिंह की प्रशंसा में मैंने बहुत कुछ सुन रखा था, किंतु उनसे मिलने का अवसर नहीं मिला था।
एक दिन राम दयालु बाबू उनसे मिलाने के लिए मुझे पटना विश्वविद्यालय परिसर में कृष्ण कुंज में ले गए।
उसे उन्होंने अपने लिए बनवाया था।
बाद में उनकी इच्छानुसार वह मकान पटना विश्व विद्यालय को दे दिया गया।
उस समय सर गणेश दत्त सिंह व्हील चेयर पर चलते थे।
उनको देखते ही तत्काल मैं स्वाभाविक रूप से प्रभावित हो गया।
 उन्होंने मेरा परिचय पाकर मुझे भरपूर आशीर्वाद दिया।
उनके चेहरे पर विचित्र चमक थी।
शालीनता थी।
और साथ ही स्पष्टतः निर्भयता झलकती थी।
उनका निजी जीवन निस्पृह था।उनमें सिद्धांत के प्रति विशेष प्रतिबद्धता थी।मंत्री की हैसियत से जो तनख्वाह उन्हें मिलती थी,उनमें से अपने खर्च के लिए एक अल्पांश रख कर सब कुछ शिक्षा के प्रसार के लिए वे दान कर दिया करते थे।
  सर गणेश दत्त लोन स्काॅलरशिप से वित्तीय सहायता पाकर बड़ी संख्या में विद्यार्थी डाक्टर बन कर लाभान्वित हुए।मैं भी कुछ वर्षों तक संबंधित कमेटी का सदस्य था।
इसके माध्यम से विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के लिए लोन स्काॅलरशिप दी जाती थी।
शत्र्त यह थी कि स्वदेश आने पर अपनी कमाई से किस्तों में लौटा देना होगा।
  सर गणेश दत्त सिंह निजी जीवन में त्यागी और तपस्वी थे।
आज अफसोस होता है कि उनके नाम से पटना विश्व विद्यालय में 
कोई चेयर की स्थापना अभी तक नहीं की गयी है।
इसके लिए हम सब दोषी हैं। आज ज्यादा आश्चर्य तो इससे होता है कि शिक्षा के क्षेत्र में जिनका योगदान नहीं था,उनके नाम पर कई विश्व विद्यालयांे का नामकरण कर दिया गया।’  
@ करीब एक दशक पूर्व प्रकाशित सत्येंद्र बाबू की आत्म कथा  ‘मेरी यादें मेरी भूलें’ से साभार @ 
@ 13 जनवरी 2018@

शनिवार, 13 जनवरी 2018

प्रख्यात हिंदी साहित्यकार दूध नाथ सिंह का 
हाल में निधन हो गया।
वह प्रोस्टेट कैंसर से जूझ रहे थे।
 इस पर मुझे अस्सी के दशक का एक प्रकरण याद आया।
 उन दिनों पटना के एक बड़े पत्रकार प्रोस्टेट कैंसर से जूझ रहे  थे।मुम्बई में इलाज करा रहे थे। पर, निराश हो गए थे।
इस बीच उन्हें पटना के ही एक उतने ही बड़े पत्रकार ने  सलाह दी, ‘ आप स्वमूत्र  चिकित्सा अपनाइए।ठीक हो जाइएगा।’
उन्होंने यह भी कहा था कि लीवर कैंसर को छोड़कर किसी भी अंग के कैंसर के लिए स्वमूत्र चिकित्सा रामवाण है।
  सलाह देने वाले बुजुर्ग पत्रकार ने उन्हीं दिनों बिहार विधान सभा के प्रेस रूम में एक दिन मुझे बताया था कि ‘मेरी सलाह पर उन्होंने स्वमूत्र चिकित्सा को अपनाया और वे अब स्वस्थ हैं।’
 याद रहे कि स्वमूत्र चिकित्सा के सबसे बड़े प्रशंसक व लाभुक मोरारजी देसाई थे।वह खुद स्वमूत्र पान करते थे।वे इसे छिपाते भी नहीं थे।उनकी लंबी उम्र का यही राज बताया गया था।
पर आम भारतीयों में इसके प्रति अभी आम स्वीकृति नहीं है। हालांकि जापान  में बड़ी सख्या में लोगों ने  इसे अपनाया है।
यह बात खुद मोरारजी भाई ने एक अखबार को बताई थी।
पर कुछ लोग इसे अवैज्ञानिक चिकित्सा बताते हैं।
वैसे  इस विषय पर उपलब्ध सबसे अच्छी किताब ‘वाटर आॅफ लाइफ’ के लेखक आर्मस्ट्रांग ने इस चिकित्सा विधि के पक्ष में तर्क दिए हैं। 
   

इस देश के अधिकतर न्यूज चैनलों के एंकर अपने श्रोताओं -दर्शकों के साथ भारी अन्याय करते हैं।
 जरूरत पड़ने पर भी वे बकबादी और ‘मुंहजोड’़ अतिथियों की माइक डाउन नहीं करते।नतीजा यह होता है कि कई अतिथि अपनी बारी से पहले अविराम बोलते रहते हैं।एक साथ कई अतिथि बोलते हैं।कई बार इन्हें अतिथि कहना भी इस शब्द कव अपमान लगता है।हालांकि सब अतिथि एक जैसे नहीं होते।
कुछ तो एंकर के बुलावे के बिना एक शब्द नहीं बोलते।
कई बार तो भारी शोरगुल के बीच किसी दर्शक को कुछ समझ में नहीं आता कि कौन क्या बोल रहा है।श्रोताओं का समय खराब होता है।वह चैनल बदल देता है।जब वह किसी दूसरे चैनल पर जाता है, तो देखता है कि वहां भी उसी तरह का ‘बतकुचन’ हो रहा है।
 आखिर वह क्या करे ?
किसी और काम में लग जाता है।
 गुस्सा एंकर पर आता है।
वे ऐसे बकबादी अतिथियों को क्यों झेलते हैं ?
देश के सामने शालीनता से अपनी बातें रखने वाले और बारी से पहले नहीं बोलने वाले समझदार लोगों की इस देश में इतनी कमी हो गयी है क्या ?
  
   

शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

आरक्षण पर हलचल मचाने वाली रपट की केंद्र को है प्रतीक्षा----



केंद्र सरकार ने मंडल आरक्षण कोटे के भीतर  कोटे के लिए एक आयोग का गठन गत साल  किया। संविधान के अनुच्छेद -340 के तहत इस आयोग का गठन हुआ है।
कोटे में कोटा यानी 27 प्रतिशत मंडल आरक्षण का दो या तीन हिस्सो में  विभाजन।
आयोग की अध्यक्ष दिल्ली हाई कोर्ट की रिटायर जज जी.रोहिणी हैं। इस आयोग को  तीन महीने में अपनी रपट देनी है।
वह अवधि पूरी होने ही वाली  है।रपट किसी भी समय आ सकती है।
  राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने इस संबंध में पहले ही सिफारिश कर रखी है।आयोग के अनुसार 27 प्रतिशत आरक्षण को तीन भागों में बांट दिया जाना चाहिए।
 उससे पिछड़े वर्ग की सभी जातियों को आरक्षण का लाभ समरूप ढंग से मिल सकेगा।
 अभी पिछड़ा वर्ग की कुछ खास मजबूत जातियां ही आरक्षण का अधिक लाभ उठा लेती हैं।अत्यंत पिछड़ों को इसका समुचित लाभ नहीं मिलता।
  याद रहे कि  अति पिछड़ों के लिए बिहार तथा कुछ अन्य राज्यों में अलग से आरक्षण का कोटा निर्धारित है।
 उससे आरक्षण का लाभ नीचे तक मिल पाता है।
राज्यों का आरक्षण राज्य सरकारों की सेवाएं के लिए है।मंडल आरक्षण की सुविधा केंद्र सरकार की नौकरियों में मिलती है।
  मन मोहन सरकार के कार्यकाल में ही राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की संबंधित सिफारिश सरकार को मिल चुकी थी।पर उस सरकार ने 
उस सिफारिश को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
  नरेंद्र मोदी सरकार ने उस रपट की समीक्षा के लिए आयोग गठित कर दिया।जस्टिस रोहिणी आयोग कोटे में कोटा संबंधित सिफारिश की समीक्षा करेगा। 
  जानकार सूत्रों के अनुसार रोहिणी आयोग इस बात की जांच करेगा कि विभिन्न जातियों व समुदायों के बीच आरक्षण के लाभ का समान वितरण हो पा रहा है या नहीं।
आयोग ओ.बी.सी.में उप वर्गीकरण के लिए वैज्ञानिक तरीके से मानक, शत्र्त व तंत्र के बारे में विचार करेगा।
साथ ही जातियों व समुदायों को विभिन्न उप वर्गों में शामिल करने का भी काम करेगा।
  ऐसे कदम  राजनीति पर असर डालेंगे।
 पिछले चुनावों में यह देखा गया है कि मजबूत पिछड़ा समुदाय जहां आम तौर पर कांग्रेस गठबंधन या उसके सहयोगी दलों के साथ रहा है,वहीं अति पिछड़ों का झुकाव राजग की तरफ रहा।
 यदि सचमुच 27 प्रतिशत आरक्षण को दो या तीन हिस्सों में बांट देने का काम हो गया तो उससे राजनीतिक हलचल भी शुरू हो सकती है।मजबूत पिछड़ों के नेता इसका विरोध कर सकते हैं।
आरक्षण को लेकर कोई भी  विवाद राजनीतिक गर्मी पैदा करता है।
      बासी दही की खपत --
पिछले साल संक्रांति के दस दिन बाद मैंने एक रिटेलर से 
डिब्बा बंद दही खरीदा।
घर जाकर उस डिब्बे पर तारीख देखी।
तारीख 12 दिन पहले की थी।
अब बताइए, 12 दिन पहले का दही कैसा रहा होगा ?
फेंक देना पड़ा।
पर रिटेलर ने मेरी असावधानी का फायदा उठा लिया।
मुझे खरीदते समय ही तारीख देख लेनी चाहिए थी।
पर कई  उपभोक्ता तो और भी लापारवाह होते हैं।
दरअसल उपभोक्ताओं का ऐसा शोषण संक्रांति के समय अधिक होता है।
  कई रिटेलर थोक बिक्रेता के यहां से जरूरत से अधिक  बड़ी मात्रा में दही उठा लेते हंै।सब तो संक्रांति के अवसर पर बिक नहीं पाता।
बचा माल वे अगले कई दिनों तक खपाते रहते हंै।
थोक बिक्रेताओं को चाहिए कि वे जन स्वास्थ्य का ध्यान रखें और बचे हुए माल को रिटेलर के यहां से वापस मंगवा लंे।
      कैसे काबू में आए अपराध---
 उत्तर प्रदेश में पिछले 10 महीनों में पुलिस की  अपराधियों के साथ 921 मुठभेड़ें हो चुकी हैं।उनमें 33 अपराधी मारे गए हैं।
तीन पुलिकर्मी भी मरे और 210 घायल हुए।
इतने कम समय में इतनी संख्या में मुठभेड़ों पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सक्रिय हो गया है।
दरअसल ऐसे मामलों में लगभग पूरे देश में पुलिस के सामने 
मजबूरी रहती है।
  एक तरह के शासक कहते हैं कि पुलिस नरमी बरते।जब दूसरे शासक आतेे हैं तो वे कड़ाई बरतते हैंं।इस बीच अपराधी निडर हो जाते हैं।सिर्फ गिरफ्तारी से जब अपराध नहीं रुकता तो मुंठभेड़ों की नौबत आती है।मुंठभेड़ों के बाद कई बार मानवाधिकार आयोग  पुलिसकर्मियों की परेशानी बढ़ा देते हैं।
 इस देश के हुक्मरानों और नीतियां बनाने वालों को इस समस्या पर खास तौर पर विचार करना चाहिए।इस बात पर कि किस तरह अपराध भी कम हांे और ऐसा करते समय पुलिसकर्मियों को भी कोई परेशानी न हो। 
   एक भूली बिसरी याद---
सन् 1983 की बात है।यह कहानी पशु पालन घोटाले की ही है।
तब वाई.बी.प्रसाद बिहार सरकार के सहाय्य और पुनर्वास विभाग में संयुक्त सचिव थे।
पशुपालन विभाग का एक मामला परीक्षण के लिए उनके सामने आया था।
उस मामले में पशु पालन  विभाग के क्षेत्रीय अपर निदेशक डा.पी.लकड़ा निलम्बित हुए थे।
अपने एक संस्मरणात्मक लेख में वाई.बी.प्रसाद ने बाद में लिखा था कि ‘ पी. लकड़ा ने कहा कि पटना सचिवालय में तैनात कुछ कर्मचारी पशु पालन विभाग के 15 लाख रुपए के आबंटन आदेश लेकर खुद रांची आए।
उनके साथ पशु दवाओं के तीन सप्लायर भी थे।
ऊपरी आदेश के कारण विषय -वस्तु की छानबीन नहीं की जा सकी।
 उसी दिन बिल कोषागार को भेजा गया।
और संभवतः दूसरे ही दिन पूरी निकासी कर ली गयी।’
 अब पशु पालन घोटाले से संबंधित एक दूसरी कहानी पढि़ए जो नब्बे के दशक की है।  
17 दिसंबर, 1993 को बिहार सरकार के कोषागार निदेशक एस.एस.शर्मा ने अपने पत्र में लिखा कि पशु पालन विभाग के पैसों की निकासी पर रोक हटा ली जा रही है।
 याद रहे कि डोरंडा कोषागार के अधिकारी ने पशुपालन विभाग के बकाया बिलों का भुगतान रोक दिया था।
 उसे लगा था कि बजट प्रावधानोंं से काफी अधिक पैसों की निकासी हो रही है।
बिल भी पहली नजर में जाली लगे।
निकासी रुक जाने के बाद बिहार सरकार के  वित्त विभाग के संयुक्त सचिव एस.एन.माथुर ने  कोषागार पदाधिकारी को पत्र लिखा। पत्र में आदेश दिया गया कि निकासी पर से रोक हटा ली जाए।यह पत्र घोटालेबाजों के फायदे मेें रहा। 
 बेशुमार निकासी का एक नमूना यहां  पेश है।
वित्तीय वर्ष 1994-95 में पशुपालन विभाग का बजट मात्र 65 करोड़ 47 लाख रुपए का था।
पर उस कालावधि में मुख्यतः जाली बिलों के आधार पर राज्य के सरकारी कोषागारों से  237 करोड़ 85 लाख रुपए निकाल  लिए गए।
  इसी तरह के अन्य अनेक सनसनी खेज प्रकरणों से सी.बी.आई.और अदालतों का सामना हुआ था।
अब ऐसे में कोई अदालत कैसा निर्णय करती ? 
 लोकहित याचिका पर सी.बी.आई.की जांच का आदेश देते समय 1996 के मार्च में पटना हाई कोर्ट ने कहा था कि ‘उच्चस्तरीय साजिश के बिना ऐसा घोटाला हो ही नहीं सकता था।’
        और अंत में ---
 जब लालू प्रसाद सत्ता में नहीं आए थे, तब भी 
 पशुपालन माफिया बिहार में  सक्रिय थे।हालांकि वे तब उतने अधिक ताकतवर नहीं थे जितने 1990 के बाद हुए।
  हालांकि 1990 से बहुत पहले की एक  पुरानी घटना भी कम चैकाने वाली नहीं थी।
एक बार के.बी.सक्सेना  पशुपालन विभाग के सचिव बना दिए गए थे।
कत्र्तव्यनिष्ठ आई.ए.एस. अफसर सक्सेना ने पशुपालन माफियाओं के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी।नतीजतन तीन महीने के भीतर ही सक्सेना साहब उस पद से हटा दिए गए।
बाद में सक्सेना ने एक अन्य आई.ए.एस अफसर आभाष चटर्जी से कहा कि मैं जानता था कि वे लोग @यानी पशुपालन माफिया@ बहुत ताकतवर हैं।पर यह पता नहीं था कि पूरी सरकार उनकी जेब में है।
  अवकाश ग्रहण करने के बाद आभाष चटर्जी ने एक अखबार में लेख लिख कर यह रहस्योद्घाटन किया था।
@12 जनवरी, 2018 को प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरे ‘कानोंकान’ काॅलम से @