सोमवार, 30 नवंबर 2020

    जानिए देश-प्रदेश की दुर्दशा के मूल कारण 

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संभवतः बात सन 1949-50 की है।

बिहार साठी लैंड (रिस्टोरेशन) बिल पर

बिहार विधान सभा में चर्चा चल रही थी।

कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के निदेश पर राज्य सरकार ने यह बिल लाया था।

इसके बावजूद एक स्वतंत्रता सेनानी ने सदन में कहा कि 

कुछ नेताओं को बेतिया राज की जो जमीन राज्य सरकार ने दे दी  है,वह गलत नहीं हुआ था।

1857 के विद्रोह के समय जिन भारतीयों ने अंग्रेजांे का

साथ दिया था,उन्हें अंगे्रज सरकार ने तरह -तरह के धन -भूमि लाभ व उपाधियों से नवाजा। 

हमने व हमारे परिवार ने गांधी जी के नेतृत्व में चली आजादी की लड़ाई में अपार कष्ट सहे हैं।

हमें भी सरकार ने कुछ दिया तो उस पर एतराज क्यों ?

  वह नेता, हालांकि उन्होंने खुद साठी की जमीन नहीं ली थी,बाद में बिहार के मुख्य मंत्री भी बने थे।

ऐसे ही शासकों से भरे इस प्रदेश में बिहार बीमारू राज्य बन गया,तो उसमें अश्चर्य की क्या बात है ?

ऐसा तो होना ही था।

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स्वतंत्रता के बाद बिहार की दुर्दशा का हाल जानना हो तो अय्यर कमीशन की रपट पढ़िए।

कमीशन ने 1967 से 1970 के बीच बिहार के छह सबसे बड़े कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की थी।

यदि आजादी के बाद देश की दुर्दशा जाननी हो तो एम.ओ.मथाई की दो संस्मरणात्मक पुस्तकें पढ़िए।

मथाई 13 साल तक जवाहरलाल नेहरू का निजी सचिव था।

मथाई की पुस्तकें इस देश में प्रतिबंधित हैं।

उतनी अधिक सच्ची बातें जो लिखेगा,उसकी पुस्तक पर प्रतिबंध लगेगा ही।

हालांकि इच्छुक लोग उसे  विदेश से आॅनलाइन मंगाते ही रहते हैं।

अय्यर कमीशन की रपट गुलजाबाग स्थित सरकारी प्रेस में बिक्री के लिए उपलब्ध है।

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  1985 में तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने स्वीकार किया  था कि 

हम दिल्ली से सौ पैसे भेजते हैं किंतु जनता को उसमें से  सिर्फ 15 पैसे ही मिल पाते हैं।

बाकी बिचैलिए खा जाते हैं।

 यानी 1985 आते -आते देश की ऐसी स्थिति बन गई थी।

  1970 में ही बिहार, ओड़िशा को छोड़कर देश का सर्वाधिक पिछड़ा राज्य बन चुका था।

बाद के दशकों की देश-प्रदेश की कहानियां तो मालूम ही होंगी।

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--सुरेंद्र किशोर--30 नवंबर 20

 


गुरुवार, 26 नवंबर 2020

     51 साल बाद की नई परंपरा का 

     आशंकित राजनीतिक असर

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      --सुरेंद्र किशोर--

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मैं 1977 से 2001 तक संवाददाता के तौर पर बिहार विधान सभा की कार्यवाहियों की लगातार रिपोर्टिंग करता रहा।

 उस बीच कभी स्पीकर पद के लिए चुनाव होते नहीं देखा।

बाद के वर्षों में भी ऐसा नहीं हुआ।

1977 तक उपाध्यक्ष के पद पर भी सत्तारूढ़ दल के नेता ही बैठते थे।

पर 1977 में मोरारजी देसाई सरकार की पहल से फर्क आया।

फर्क लोक सभा से लेकर देश की विधान सभाओं तक पड़ा।

सदन में प्रतिपक्ष के नेता को कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिलने लगा।

  उससे पहले बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता को राज्य सरकार की तरफ से एक स्टेनो टाइपिंग और कुछ अखबार खरीदने के पैसे मात्र मिलते थे।

पर 1977 में उपाध्यक्ष का पद प्रतिपक्ष को मिलने लगा।

पहली बार प्रतिपक्ष की ओर से राधानंदन झा उपाध्यक्ष बने थे।

51 साल बाद इस बार बिहार में प्रतिपक्ष ने स्पीकर के पद का चुनाव लड़ा।क्योंकि सदन की कार्यवाही में भी शालीनता नहीं थी।

इससे राजनीतिक कटुता बढ़ी।

साथ ही ,

राजद ने एक भाजपा विधायक को प्रलोभन देकर तोड़ने की कोशिश की।

उससे और भी कटुता बढ़ी।

बात तो एक ही विधायक की सामने आई।

संभव है कि कुछ अन्य को भी प्रलोभन मिला हो।

क्योंकि मात्र एक विधायक के सदन से अनुपस्थित हो जाने  से प्रतिपक्ष का स्पीकर तो नहीं बन जाता ! 

अब आगे देखना है कि इस कटुता का राज्य की राजनीति और सदन की कार्यवाही पर कैसा असर पड़ता है।

यह भी कि उपाध्यक्ष प्रतिपक्ष का बनता है या नहीं !

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--सुरेंद्र किशोर-26 नवंबर 20 


      फोन शिष्टाचार

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एक व्यक्ति ने बहुत दिनों के बाद आज मुझे फोन किया।

कहा कि फलां का मोबाइल नंबर आपसे ही लिया था।

वह भूल गया है।

एक बार फिर दे दीजिए।

  मैंने कहा कि मैं सिर्फ एक ही बार

नंबर देता हूं।

वैसे भी अपने से अधिक उम्र के व्यक्ति से आपको ऐसा काम बार बार नहीं लेना चाहिए।

 इस बार किसी और से ले लीजिए।

 वैसे एक बार भी नंबर क्यों देना चाहिए ?

पर, कुछ लोग समझते हैं कि मेरे पास इस काम के लिए काफी समय है।

हालांकि ऐसा है नहीं।

जीवन छोटा है और अभी काम बहुत बाकी है।

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कुछ लोग जब फोन करते हें तो आधे घंटे से कम समय नहीं लेते।

अब मैं वैसे लोगों के फोन सामान्यतः नहीं उठाता।

एक संपादक ने कभी कहा था कि कोई भी महत्वपूर्ण बात सात सौ शब्दों में लिख दी जा सकती है।

  पर कई लोग 1500-2000 शब्दों में लिखते हैं।

जब संपादित किया जाता है तो शिकायत करने आते हैं कि मेरी तो सबसे महत्वपूर्ण बात ही आपने काट दी।

मैं कहता हूं कि कोई भी महत्वपूर्ण बात फोन पर मात्र 3 मिनट में कर ली जा सकती है।

जिन्हें संक्षेप में बात करने की आदत है,उनके फोन मैं जरूर उठाता हूं।

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--सुरेंद्र किशोर --25 नवंबर 20


     मारने वालों से बचाने वाला बड़ा होता है !!!

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 पूर्व रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र हत्याकांड (1975)में 

 असली हत्यारों को जब सजा नहीं हो सकी तो 

यह कहा गया कि जरूर हत्यारों के सिर पर किसी ताकतवर व अदृश्य शक्ति का हाथ था।

   बिहार के चर्चित बाॅबी हत्याकंाड (1983) के आरोपी को जब सजा नहीं हो सकी तो

फिर वही बात कही गई।

   जब पटना के शिल्पी -गौतम हत्याकांड (1999) का संदिग्ध साफ बच निकला तो आम चर्चा थी कि आरोपी कानून से अधिक ताकतवर निकला।

  अब जब नवरूणा कांड में सी.बी.आई. संदिग्धों  के विरूद्ध कोई सबूत नहीं ढूंढ़ सकी तो फिर इस केस के बारे में 

क्या माना जाए ?

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याद रहे कि इन सभी मामलों की जांच सी.बी.आई.ने ही की थी।

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--सुरेंद्र किशोर-24 नवंबर 20

    


 क्या शुरू हो गया 

‘‘सभ्यताओं का संघर्ष’’ ?!!

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नब्बे के दशक में अमरीकी राजनीतिक वैज्ञानिक सेम्युएल 

पी. हंटिग्टन ने लिखा था कि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद अब देशों के बीच नहीं बल्कि सभ्यताओं के बीच संघर्ष होगा।

  उस संघर्ष में चीन इस्लामिक देशों के साथ रहेगा।

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तब भारत के बहुत सारे सेक्युलर नेताओं व बुद्धिजीवियों ने हंटिग्टन की सख्त आलोचना की थी।

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पर, आज दुनिया में क्या हो रहा है ?

1.-आर्मेनिया बनाम अजरबैजान के बीच जारी युद्ध में कैसी लामबंदी हो रही है ?

आगे और क्या-क्या होने वाला है ?

2.-‘फ्रांस बनाम मुस्लिम देश’ क्यों हो रहा है ?

मुस्लिम देशों ने फ्रांसीसी सामानों को खरीदना बंद कर देने का निर्णय किया है।

आगे और क्या -क्या होने वाला है ?

3.-तमाम तथाकथित सेक्युलर तत्वों की लीपापोती के बावजूद भारत में भी आज क्या-क्या  हो रहा है ?

बिहार के चुनाव में भी कुछ अतिवादी तत्व इतने अधिक सक्रिय क्यों हो गये हैं ?

आगे क्या -क्या होने वाला है ?

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इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने के बदले हम कब तक शुतुरमुर्ग बने रहेंगे ?

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---सुरेंद्र किशोर--27 अक्तूबर 20 





   100 प्रतिशत मतदान सुनिश्चित करो

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जो मतदान से भागे,उनकी कुछ सरकारी सुविधाएं बंद हों

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  --सुरेंद्र किशोर--

सन 1967 के आम चुनाव के बाद देश के नौ राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारें बनी थीं।

सात राज्य कांग्रेस आम चुनाव में हार गई।

दो अन्य राज्य उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश दलबदल के कारण कांग्रेस ने बाद में खो दिए।

बिहार सहित उनमें से कुछ राज्यों में संयुक्त

सोशलिस्ट पार्टी के नेता भी मंत्री बने थे।

संसोपा के सर्वोच्च नेता डा.राम मनोहर लोहिया ने उन सरकारों से तब दो मुख्य बातें कही थीं।

‘‘छह महीने के अंदर ऐसे -ऐसे काम करके दिखा दो कि जनता समझ जाए कि तुम्हारी सरकार , कांग्रेसी सरकार से काफी बेहतर है।’’

उनकी दूसरी बात थी--

‘‘बिजली की तरह कौंध जाओ और सूरज की तरह स्थायी हो जाओ ।’’

यह और बात है कि यह सब तब पूर्णतः नहीं हो सका था।

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--साप्ताहिक काॅलम ‘कानोंकान’

प्रभात खबर, पटना

20 नवंबर 20

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पुनश्चः

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‘लव जेहाद’ के खिलाफ कई राज्य कानून बनाने 

जा रहे हैं।

यह बहुत अच्छी पहल है।

पर, साथ ही वोट के प्रति ‘लव’ पैदा करने के लिए भी एक सख्त कानून इस देश में जरूरी है।

सौ प्रतिशत मतदान सुनिश्चित करने का आदर्श रखना चाहिए।

जो लगातार दो बार वोट देने न जाए ,उनकी कुछ सरकारी सुविधाएं बंद कर दी जानी चाहिए।

  बीमारी वगैरह के नाम पर अधिकत्तम 10 प्रतिशत मतदाताओं को ही छूट दी जाए।

 दरअसल इस देश में जातीय व सांप्रदायिक वोट बैंक बनाकर कुछ नेता व दल राजनीति व प्रशासन को लगातार दूषित करते रहे हैं।स्वस्थ राजनीति नहीं होने दे रहे हैं। 

  यदि 90 प्रतिशत लोग भी मतदान केंद्रों में पहुंच जाएं तो 30 प्रतिशत तक का भी ‘वोट बैंक’ निष्प्रभावी हो जाएगा।

यानी निर्णायक नहीं होगा।

फिर देशहित व जनहित के मुद्दे ही निर्णायक होने 

लगेंगे।

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100 प्रतिशत मतदान के संबंध में कानून किसी सरकार के लिए बिजली तरह कौंधना ही तो माना जा सकता है। 


शनिवार, 21 नवंबर 2020

     कम खर्च में अधिक जन सेवा

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     --सुरेंद्र किशोर--

   यह दृश्य सड़क और सड़क निर्माण सामग्री का है।

पटना जिले के फुलवारी शरीफ अंचल के चकमुसा-जमालुद््दीन चक 

मार्ग का पुननिर्माण हो रहा है-मजबूतीकरण और चैड़ीकरण।

इस सड़क की लंबाई मात्र 4 किलोमीटर है।

किंतु इसका विशेष महत्व है।

क्योंकि यह सड़क दो एन.एच.को आपस में जोड़ती है।

पटना एम्स के पास की यह सड़क है।

 यह सड़क पहले आर.ई.ओ.के जिम्मे थी।

कमजोर निर्माण था।

अब इसका निर्माण सिंचाई विभाग कर रहा है।

अपेक्षाकृत अधिक फंड लग रहा है।

 ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इस सड़क का महत्व राज्य सरकार को बताया गया।

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  इस संबंध में एक खास खबर भी छन कर आ रही है।

वैसे खबर की पुष्टि होनी बाकी है।

पता चला है कि इस सड़क के महत्व को देखते हुए बिहार सरकार इस सड़क को लेकर एक बड़ी योजना पर काम कर रही है।

  इस छोटी सड़क को नेशनल हाईवे को दे देने का प्रस्ताव है।

तब यह 120 फीट चैड़ी हो जाएगी।

एन.एच.के निर्माण के लिए जमीन के अधिग्रहण की जरूरत नहीं पड़ेगी।

   एन.एच.वाली खबर के मद्देनजर कुछ लोगों की नजर इस सड़क से सटी जमीन पर भी है।

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वैसे बिहार में जो भी छोटी सड़क दो एन.एच.या दो एस.एच.को आपस में जोड़ती हो,उसे एन.एच.या एस.एच. के हवाले कर ही देना चाहिए।

छोटी सड़क यानी 10 किलोमीटर से कम की सड़क।

 वैसा करने पर कम ही खर्च में जनता के लिए अधिक लाभप्रद काम हो जाएगा।

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--सुरेंद्र किशोर-18 नवंबर 20  


गुरुवार, 19 नवंबर 2020

 देवी लक्ष्मी आज सुबह ही मेरे घर आई थीं।

आपके घर का पता पूछ रही थीं।

मैंने उन्हें कहा कि मेरे फेसबुक वाॅल के जरिए 

ही आपको बहुत सारे पते मिल जाएंगे।

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पुनश्चः -

देवी लक्ष्मी मेरी आवश्यक आवश्यकताओं की पूत्र्ति निरंतर करती रहती हैं।

पर, उससे अधिक नहीं।

कहती हैं कि तुम्हें तो अधिक देने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

तुम्हारी तो आदत ही रही है , कम -से -कम में काम चला लेने की ! 

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सुरेंद्र किशोर-14 नवंबर 20 


 इतिहास के नाजुक मोड़ पर 

कटु सत्य एक बार फिर !

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--सुरेंद्र किशोर--

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सन 1990 में मंडल आरक्षण आया।

अधिकतर सवर्णों ने उसका तगड़ा विरोध किया।

तब बिहार विधान सभा के प्रेस रूम में बैठकर अक्सर मैं 

यह कहा करता था कि आरक्षण का विरोध मत कीजिए।

यदि गज नहीं फाड़िएगा तो थान हारना पड़ेगा।

कांग्रेस के पूर्व विधायक हरखू झा भी प्रेस रूम में बैठते थे।

मेरी बातों के वह आज भी गवाह हैं।

  आरक्षण विरोध के कारण 15 साल तक ‘थान’ हारे रहे थे।

 ‘‘भूरा बाल साफ करो,’’

यह बात किसी ने कही थी या नहीं यह मैं नहीं जानता।

पर ‘भूरा बाल’ ने खुद को ही कुछ साल के लिए साफ कर लिया।

कम से कम दो पीढ़ियां बर्बाद हो गईं।

   आज भी बिहार इतिहास के नाजुक मोड़ पर खड़ा है।

कुछ लोग एक बार फिर वैसी ही गलती कुछ दूसरे ढंग से करने पर उतारू हैं।

वे ऐसी शक्तियों को मजबूत करना चाहते हैं जिनका विकास का कोई इतिहास ही नहीं है। 

यानी, बताशा के लिए मंदिर तोड़ने पर कोई अमादा हो तो आप उनका क्या कर लेंगे ? !!

यह लोकतंत्र है।सबको अपने मन की सरकार चुनने का पूरा हक है।

 1990 में भी मुझ पर उस टिप्पणी के कारण बहुत से लोग नाराज हुए थे।

कुछ लोग मुझे लालू का दलाल भी बता रहे थे।

मेरा परिवार भी इस मुद्दे पर मेरे खिलाफ था।

दरअसल दूरदर्शी होने के लिए सिर्फ पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं है।

  मेरे इस ताजा पोस्ट पर भी कई लोग नाराज हो सकते हैं।

कुछ उसी तरह की बातें बोल सकते हैं।यह उनका हक है।

पर, वे एक बात जान लें।

अन्यथा कल होकर कहेंगे कि कोई चेताने के लिए था ही नहीं।

जो नेता लोग 1990 में आरक्षण विरोधी आंदोलन के नेता थे,उनमें से एकाधिक लोगों ने मुझसे कुछ साल बाद कहा था कि हमारा स्टैंड तब गलत था।हमें आरक्षण का विरोध नहीं करना चाहिए था।हमारे विरोध का लाभ लालू प्रसाद ने उठा लिया।

  आज जो लोग बताशे के लिए मंदिर तोड़ने को एक बार फिर अमादा हैं,वे भी कुछ समय बाद पछताएंगे,यदि वे अपनी योजना में अंततः सफल हो गए। 

  पर तब तक देर हो चुकी होगी।

हालांकि उनकी सफलता पर मुझे संदेह है।

होशियार लोग चुनाव में हमेशा बदतर को छोड़कर बेहतर को अपनाते हैं।

पर आज क्या हो रहा है ?

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29 अक्तूबर 20


 मेरे इस लेख का सुसंपादित अंश आज के दैनिक 

जागरण में प्रकाशित

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  विपरीत परिस्थितियों में बेहतर जीत

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--सुरेंद्र किशोर--

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  राजनीति के मोर्चे पर तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद राजग बिहार में अपनी सरकार बचाने में सफल रहा।

  किसी मुख्य मंत्री के नेतृत्व में लगातार चैथी बार चुनाव चुनाव जीतने का रिकाॅर्ड बिहार ने भी कायम कर ही लिया ।

इससे पहले ज्योति बसु ने लगातार पांच बार और नवीन पटनायक ने चार बार चुनाव जीता है।

  मुख्य मंत्री नीतीश कुमार की सफलता के पीछे सबसे बड़ा कारण यह रहा कि मतदाताओं ने नीतीश कुमार और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की मंशा व सेवा पर अपेक्षाकृृत अधिक भरोसा किया।

   कोविड महामारी और आर्थिक मंदी की पृष्ठभूमि में यह चुनाव हुआ।

 इस चुनाव में यदि बाहरी राजनीतिक झांसे और भीतरी असहयोग के तत्व सक्रिय नहीं होते तो राजग को बड़ी सफलता मिलती।

  यहां यह कहना एक हद तक सही है कि 

‘‘घर को आग लग गई घर के चिराग से।’’

  यहां आशय सिर्फ चिराग पासवान से ही नहीं है।

बल्कि कुछ अन्य ‘‘मोमबत्तियों’’ ने भी राजग को जहां -तहां  झुलसाया।

   राजग के कुछ परंपरागत मतदाताओं के एक हिस्से ने भी इस बार राजग का साथ नहीं दिया।

उनका गुस्सा जदयू यानी मुख्य मंत्री पर अधिक था।

क्योंकि कई बार नीतीश कुमार उनके अनुचित दबाव में नहीं आए। 

  इसके बावजूद यदि सफलता मिली तो उसका कारण यह रहा कि अति पिछड़ों व महिलाओं का राजग को भरपूर सहारा मिला।

  राजग के लिए इस चुनाव का एक दुखदायी प्रकरण यह रहा कि सवर्णों के बीच के कुछ परंपरागत राजग समर्थकों ने भी अघोषित कारणों से नीतीश कुमार को सबक सिखाने का भरसक प्रयास किया।

किंतु प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की राजग व नीतीश के पक्ष में मतदाताओं से भावनात्मक अपील ने बड़ी भूमिका निभाई।

  नीतीश कुमार के ‘अहंकारी’ होने का खूब प्रचार हुआ था।

पर चुनाव नतीजे ने बताया कि नीतीश कुमार आम लोगों के लिए अहंकारी कत्तई नहीं रहे।

जदयू का दावा रहा कि वे तो लगातार सेवक की ही भूमिका में रहे।

  कुछ प्रेक्षकों के अनुसार इस रिजल्ट ने यह भी बताया कि निरर्थक गप्प-गोष्ठी से दूर रहने वाले मुख्य मंत्री के लिए अहंकार शब्द का इजाद उन लोगों ने किया जिनके निहितस्वार्थों की पूत्र्ति नहीं हुईं।  

    यह सच है कि कुछ सार्वजनिक कामों को करने में नीतीश सरकार इस बीच विफल रही।

सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार व अपराध के मामलों में लोगबाग बेहतर की उम्मीद कर रहे थे।

वह नहीं हुआ।

फिर भी  अधिकतर लोगों ने मुख्य मंत्री की मंशा पर शक ंनहीं किया ।

   अधिकतर लोगों ने विकल्प को अधिक खराब माना।

  दो मामलों में राजनीतिक विरोधियों के पास भी नीतीश के खिलाफ कहने को कुछ नहीं था।

नीतीश कुमार पर आर्थिक गड़बड़ियों यानी जायज आय से अधिक धन संग्रह का कोई आरोप अब तक नहीं लगा है।

नीतीश ने कभी अपने रिश्तेदार,परिजन या वंशज को राजनीति में आगे नहीं किया।

  इन बुराइयों से भरी- पड़ी बिहार की राजनीति  नीतीश कुमार को एक विशेष स्थान देती है।

  चुनाव में इसका भी लाभ मिला अन्यथा जदयू को कुछ और अधिक चुनावी नुकसान हुआ होता।  

  जदयू को उम्मीद से कम सीटें मिलने का बड़ा कारण यह भी रहा कि निहितस्वाथियों ने संगठित होकर जदयू को खास तौर पर निशाना बनाया।

चुनाव प्रचार के बीच नीतीश कुमार ने एक बार कहा भी था कि शराब माफिया हमारे खिलाफ अभियान चला रहे हैं।

   अधिकतर लोगों को यह लगा है कि कमियां दूर करने और बेहतर काम करने की उम्मीद यदि किसी से की जा सकती है तो वह राजग सरकार से ही की जा सकती है । राजद सरकार से नहीं।

  मुख्य प्रतिपक्षी दल राजद को अभी यह साबित करना बाकी है कि वह भी शांतिप्रिय व विकासपसंद लोगों की उम्मीदों पर खरा उतर सकता है।

उसके पिछले खराब रिकाॅर्ड उसका अब भी पीछा कर रहे हैं।

हांलाकि राजद नेता तेजस्वी यादव ने खुद को पहले से बेहतर साबित करने की कोशिश जरूर की है।

इसमें एक हद वे सफल भी हुए हैं।

यानी राजद को एक बेहतर नेतृत्व मिल गया है।

इस चुनाव प्रचार के बीच में ही राजद ने अपने पोस्टरों से लालू प्रसाद और राबड़ी देवी की तस्वीरें हटवा दी थीं।

  बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने चुनाव के ठीक पहले अपनी व अपनी पार्टी व सरकार की पिछली गलतियों के लिए सार्वजनिक रूप से आम लोगों से माफी मांगी।

  साथ ही, राजद ने चुनाव नतीजों के बाद अनुचित नारेबाजी,हर्ष फायरिंग प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ अशिष्ट व्यवहार आदि नहीं करने का अपने कार्यकत्र्ताओं को सख्त निदेश दिया।

ऐसा इसलिए भी किया गया क्योंकि हाल में सोशल मीडिया पर अनेक राजद समर्थकों ने अशिष्टता की सारी हदें पार कर दी थी।

 चुनाव नतीजे बताते हैं कि बिहार के अधिकतर लोगों को अब भी 1990-2005 का ‘जंगल राज’ याद है।

  वैसे यह मानना पड़ेगा कि इस चुनाव में तेजस्वी यादव उम्मीद से बेहतर नेता के रूप में उभरे।

उन्होंने अधिकतर दफा जिम्मेदारी से बातें कीं।

यदि राजद के उदंड कार्यकत्र्ताओं को नियंत्रित करने का तेजस्वी का प्रयास जारी रहा तो राजद आने वाले दिनों में एक जिम्मेवार दल के रूप में उभर सकता है। 

किंतु चुनावी आश्वासन देने में वे एक जिम्मेदार नेता का सबूत नहीं दे सके।

  दस लाख सरकारी नौकरियां देने का निर्णय अपनी पहली ही कैबिनेट में कर देने के उनके वादे का वांछित असर मतदाताओं पर नहीं पड़ा।

  हां कुछ युवाओं पर जरूर पड़ा।

वैसे युवा विभिन्न सामाजिक समूहों से थे।

  यदि राजद अपने एम.वाई.यानी मुस्लिम-यादव वोट बैंक के बाहर से भी कुछ मत प्राप्त कर सका तो उसका एक कारण 10 लाख सरकारी नौकरियों का वादा भी था।

   पिछले साल राजद ने संसद में सवर्ण आरक्षण का विरोध कर दिया था।

नतीजतन गत लोक सभा चुनाव में राजद के कम से कम दो ऐसे सवर्ण उम्मीदवार हार गए जिनकी जीत की उम्मीद की जा रही थी।

  उस विरोध का असर एक हद तक इस विधान सभा चुनाव पर भी पड़ा।

असद्ददीन आवैसी के दल ने परोक्ष रूप से राजद को नुकसान पहुंचाया ।

 लोजपा के अलग होने का जो नुकसान हुआ,उसकी क्षतिपूत्र्ति एक हद तक  ओवैसी ने कर दी।

पूर्व मुख्य मंत्री जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी के दलों से  राजग को मदद मिली है।

पर दूसरी तरफ कांग्रेस से राजद को कम ही मदद मिली।

राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार राजद ने तालमेल में कांग्रेस को 70 सीटें देकर अदूरदर्शिता का परिचय दिया था।

कांग्रेस की अपनी ताकत के अनुपात में वह काफी ज्यादा था।

 आने वाले दिनों में बिहार राजग के साथ खासकर नीतीश कुमार के साथ चिराग पासवान कैसा संबंध रहेगा ?

यह तो बाद में पता चलेगा।

पर, यह बात भी जरूर साफ हुई कि चुनावी सफलता के लिए चिराग पासवान की लोजपा पर राजग की निर्भरता की कोई  मजबूरी अब नहीं रही।  

भाजपा नेतृत्व अपना यह वादा निभाएगा ही कि नीतीश कुमार ही मुख्य मंत्री बनेंगे भले जदयू को कम सीटें मिलें।

   कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सामाजिक समीकरण के साथ -साथ बिहार में विकास व जन कल्याण के कामों का चुनाव पर सकारात्मक असर पड़ना अब भी जारी है।

  हाल के महीनों में राज्य भर में बिजली पहुंचा दी गई है।

राज्य के अधिकतर इलाकों के लिए बिजली एक सपने की तरह थी।

 किसानों, महिलाओं, छात्र-छात्राओं आदि के लिए जारी केंद्र व राज्य सरकार की अनेक योजनाएं भी चुनाव में काम कर र्गइं।

नल जल योजना में अनियमितताओं की खबरें जरूर आई हैं।

पर उस योजना में लूट मचाने वालों के खिलाफ हाल में बड़े पैमाने पर 

सरकार ने कार्रवाइयां की  हैं।

  पर,नई राज्य सरकार को

दो मोरचों पर अब पहले से अधिक सक्रियता दिखानी होगी।

 अपराध के मामले में लोगों को कुछ और निश्चिंतता चाहिए।

खासकर उद्योगपतियों को।

इसके लिए पुलिस प्रशासन को चुस्त व भ्रष्टाचारमुक्त करना होगा।

 कहने की जरूरत नहीं कि यह राज्य नेपाल की सीमा पर स्थित है।

इस दृष्टि से भी कानून-व्यवस्था में बेहतरी और भी जरूरी है।

 राष्ट्रद्रोही तत्वों का भारत-नेपाल की सीमा से अबाध आवाजाही को रोकने की चुनौती सामने है।

  साथ ही सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार को लेकर लोगों में नाराजगी देखी जाती है।

 उस दिशा में कुछ ठोस व कड़ा कदम उठाना होगा।

 नीतीश कुमार इस दिशा में कोशिश करते भी रहे हैं।

पर उसमें अन्य संबंधित पक्षों का सक्रिय व ठोस सहयोग भी जरूरी  है।

  हाल के वर्षों में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों की कमजोरियां सामने आई हैं।

इसके लिए कुछ हलकों में मौजूदा शासन को भी जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है।

 गरीबों तक यदि शिक्षा व स्वास्थ्य का लाभ पहुंचाना है,तो उस दिशा में

सरकार ही मदद कर सकती है न कि निजी क्षेत्र।

 उम्मीद है कि नई सरकार इस दिशा में पहले से बेहतर काम करेगी।

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12 नवंबर 20 

    


बुधवार, 18 नवंबर 2020

     आज मैंने सी.एन.बी.सी.आवाज चैनल 

पर राजनीतिक चर्चा सुनी।

  कांग्रेस की दशा-दिशा पर बहस थी।

उसके तथ्य या कथ्य पर तो मुझे कुछ नहीं कहना।

पर, डिबेट को संचालित करने की एंकर वाजपेयी जी की शैली मुझे अच्छी लगी।

अतिथियों की बातें मैं सुन सका।

समझ सका कि देश के शीर्ष चिंतक-विश्लेषक कांग्रेस के बारे में क्या राय रखते हैं।

   संभव है कि कुछ अन्य चैनल भी सी.एन.बी.सी.की तरह ही दर्शकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी सही ढंग से निभा रहे हों।

 पर, इसके विपरीत अधिकतर चैनलों की हालत दयनीय व शर्मनाक है।

  वे बड़ी संख्या में बकबादी व बदतमीज अतिथियों को बुलाते हैं ।

 ऐसा ‘कुत्ता भुकाओ कार्यक्रम’ करते हैं कि किसी की बात न कोई सुन सकता है और न समझ सकता है।

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--सुरेंद्र किशोर--18 नवंबर 20


   भारतीय संविधान की मूल काॅपी में राम,कृष्ण,

शिव और बुद्ध आदि के चित्र अंकित हैं।

   पर हमारे शासकों ने बाद के संस्करणों से उन चित्रकांनों को संविधान की प्रतियों से निकाल बाहर कर दिया।

   इंडोनेशिया में 87 प्रतिशत मुस्लिम हैं।

उसके बावजूद उस देश की करेंसी नोट्स पर आज भी गणेश के चित्र होते हैं।

याद रहे कि इंडोनशियावासियों ने अपने हिन्दू पूर्वजों की संस्कृति को अपने यहां से समाप्त नहीं किया है।

किंतु हमारे देश के शासकगण........।

थोड़ा कहना अधिक समझना।

संविधान की मूल प्रति के एक पेज की स्कैन काॅपी यहां प्रस्तुत है।

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सुरेंद्र किशोर--13 नवंबर 20


 सवाल--सबसे कठिन काम कौन सा है ?

जवाब--अपने समकक्ष या जूनियर के अच्छे 

कामों की तारीफ करना।

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प्रश्न--सबसे आसान व सुखदायक काम कौन सा है ?

उत्तर--पीठ पीछे किसी की आलोचना या निन्दा करना।

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सवाल-सबसे मजेदार काम कौन सा है ?

जवाब--आपको यह बात जल्द से जल्द बता देना कि 

आपके बारे में कौन, कहां कैसी -कैसी शिकायतें कर रहा था।

हां,ध्यान रहे,सिर्फ शिकायतें बताना,तारीफ नहीं बताना।

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--सुरेंद्र किशोर-15 नवंबर 20 


शनिवार, 14 नवंबर 2020

 ओवैसी का बिहार में उभार

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    कांग्रेस नेता तारिक अनवर ने कहा है कि बिहार में असद्दुदीन ओवैसी की पार्टी ए.आई.एम.आई.एम. का उभार शुभ संकेत नहीं है।

याद रहे कि उसे विधान सभा की पांच सीटें मिल गई हैं।

 अनवर साहब की बात सही है।

पर, सवाल है कि यह बात कहने का उन्हें कोई नैतिक अधिकार है क्या ?

जो दल  गत कर्नाटका विधान सभा चुनाव में एस.डी.पी.आई.से तालमेल कर चुका है ,उसे ओवैसी के खिलाफ बोलने का कोई   

नैतिक अधिकार नहीं है।

ओवैसी की पार्टी जितना अतिवादी है,उसकी अपेक्षा पी.एफ.आई.की राजनीतिक शाखा एस.डी.पी.आई.काफी अधिक अतिवादी है। 

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सुरेंद्र किशोर

कानोंकान

प्रभात खबर, पटना

13 नवंबर 20



गुरुवार, 12 नवंबर 2020

    संकट की घड़ी में फ्रांस का प्रतिपक्ष 

   वहां की मैक्रों सरकार के पूरी तरह साथ

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काश ! हमारे देश का प्रतिपक्ष भी वैसा ही होता !

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सुरेंद्र किशोर

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   अपने देश के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों के स्वर में अपना स्वर मिलाते हुए फ्रांस में प्रतिपक्ष की नेता मेरीन ली पेन 

ने पाकिस्तान और बंगला देश के आप्रवासियों के फ्रांस मंे  प्रवेश पर प्रतिबंध लगा देने की अपनी सरकार से मांग की है।

   याद रहे कि हाल में पाक और बंगलादेश में हुए फ्रांस विरोधी प्रदर्शनों में मैक्रों को सजा देने की मांग की गई।

उस देश के उत्पादों के बहिष्कार का निर्णय किया गया।

साथ ही, यह भी मांग की गई कि फ्रांस से राजनयिक संबंध तोड़ लिया जाए।

  सिर्फ फ्रंास ही नहीं, दुनिया के जिस किसी देश में भी ऐसा संकट आता है तो पक्ष-विपक्ष एक स्वर में बोलने लगते हैं।

भारत में भी जब विपक्ष में जिम्मेदार-समझदार-देशभक्त  नेता हुआ करते थे तो ऐसा ही होता था।

   पर आज  ?!!!

ऐसे संकट के समय में तो हमारे यहां के अधिकतर प्रतिपक्षी नेता हमारे दुश्मन देश के स्वर में स्वर मिलाने लगते हैं।

  ऐसे ही गुणों के कारण तो फ्रांस राफेल बनाता है और हम उसे खरीदने के लिए लालायित रहते हैं !

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फ्रांस में वाणी की स्वतंत्रता के नाम पर मुहम्मद साहब के कार्टून या चित्र प्रदर्शित करने का मैं खिलाफ हूं।

किसी की भावना से खिलवाड़ शांति के हक में नहीं है। 

हां,यदि फ्रांस में रह रहे जो आप्रवासी या शरणार्थी फं्रास के कानून का पालन करने को तैयार नहीं हैं तो उन्हें तत्काल उनके उस देश में पहुंचा देना चाहिए जहां से वे आए हैं। 

  भारत सहित दुनिया के अन्य देशों को भी कानून तोड़क शरणाथियों-घुसपैठियों के साथ ऐसा ही रुख अपनाने का पूरा अधिकर है।

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--सुरेंद्र किशोर-2 नवंबर 20 


मंगलवार, 10 नवंबर 2020

   ‘‘लगता है कि नरेंद्र मोदी अब भी गुजरात दंगे वाले सी.एम. हैं।’’

          --राजद नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी

अब्दुल बारी को इंगित करते हुए

‘‘पता नहीं आप भी जिन्ना के सपूत तो नहीं बनना 

चाह रहे हैं ?’’

             --केंद्रीय मंत्री  गिरिराज सिंह 

--दैनिक भास्कर,पटना, 7 नवंबर 2020

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   मेरी समझ से इन दोनों नेताओं के बयान अतिशयोक्तिपूर्ण हैं।

राजनीति से प्रेरित हैं।

अपने -अपने वोट बैंक को खुश करने वाले बयान हैं।

तथ्य से इनका कोई संबंध नहीं है।

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यह सच है कि शाहीन बाग धरना के समय कुछ मुस्लिम नेताओं ने जरूर यह नारा लगाया था कि 

‘‘हमें जिन्ना वाली आजादी चाहिए।’’

कांग्रेस व कम्युनिस्ट दलांे के बड़े -बड़े नेताओं ने शाहीन बाग जाकर उन देशद्रोहियों को बढ़ावा भी दिया।

पर इसका मतलब यह नहीं कि जिसका भी मुस्लिम नाम है,वे सब जिन्ना के सपूत बनना चाहते हैं।

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दूसरी ओर, अब्दुल बारी सिद्दीकी के बयान से लगता है कि 

उन्होंने नरेंद्र मोदी को ‘‘दंगे का प्रतीक पुरुष’’ मान  लिया है।

 जबकि ऐसा नहीं है।

प्रतीक पुरुष बनने का हक तो उसी को है जिसके कारण दंगे में सर्वाधिक लोगों की जानें गईं हों।

इस देश के दंगों के पिछले आंकड़े मोदी को यह दर्जा नहीं देते।यह मोदी के साथ अन्याय है।

इस देश की बड़ी आबादी इस अन्याय का बदला लेते हुए मोदी को लगातार समर्थन देती जा रही है।

  यह दर्जा किसी और को मिलता है जिसके खिलाफ बोलना सिद्दिकी के लिए राजनीतिक रूप से नुकसानदेह है।

अभी तो उससे इनका चुनावी तालमेल भी है।

संभव होगा तो साथ सत्ता भी चलाएंगे।

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आंकड़े गवाह हैं।

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ऐसे संवेदनशील मामलों में आंकड़ों के साथ ही बातें करनी चाहिए।

साथ ही, जो लोग गोधरा में ट्रेन में 58 कार सेवकों के दहन कांड की निंदा नहीं करते,उन्हें बाद में  प्रतिक्रियास्वप हुए गुजरात दंगे के खिलाफ बोलने का भी कोई नैतिक अधिकार नहीं है।  

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 सन 2002 के गुजरात दंगे में अल्पसंख्यक समुदाय के 790 और बहुसंख्यक समुदाय के 254 लोग मरे थे।

गुजरात दंगे में दंगाई भीड़ को कंट्रोल करने की कोशिश में 

200 पुलिसकर्मी भी शहीद हुए थे।

गुजरात पुलिस ने दंगाइयों पर जो गोलियां चर्लाइं,उस कारण भी दर्जनों लोग मारे गए थे।

 गुजरात में दंगा शुरू होने से कितनी देर बाद पुलिस-सेना सड़कों पर थी ?

सिर्फ नौ जानें जाने के बाद ही वहां सेना सड़कों पर थी।

इसके विपरीत दिल्ली में 1984 में पुलिस व कांग्रेसियों के नेतृत्व में दो दिनों तक हत्यारों के गिरोह  सिखों का एकतरफा संहार करते रहे।

फिर भी जानबूझकर सेना नहीं बुलाई गई।

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जरा 1989 का भागल पुर दंगा याद कर लें

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  1989 के दंगे में भागलपुर में अल्पसंख्यक समुदाय के करीब 900 और बहुसंख्यक समुदाय के करीब 100 लोग मरे।

पुलिस की गोलियों से वहां कितने दंगाई मारे गए ?

मुझे तो नहीं मालूम।

किसी को मालूम हो तो जरुर बताएं।

 उल्टे पुलिस तो वहां भक्षक बनी रही।

एस.पी.की बदली रुकने के बाद ही अधिक जानें गईं।

दंगे में अकर्मण्यता के कारण पहले उनकी बदली हुई थी।

पर प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने बाद में बदली रोकने का आदेश दे दिया था।

जिस मुख्य मंत्री एस.एन.सिंह ने बदली का आदेश दिया था,वे मुंह ताकते रह गए।

हां, उनकी गलती यह जरूर थी कि उन्होंने तत्काल मुख्य मंत्री पद से इस्तीफा नहीं दिया।

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2002 के गुजरात व 1984 के दिल्ली सिख संहार की यादें

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 यह सही है कि गुजरात में पूर्व सांसद एहसान जाफरी के यहां से फोन शासन को जाता रहा ,पर उन्हें कोई मदद  नहीं मिली।

और , वे दंगाइयों के शिकार हो गए।

पर, दिल्ली में तो राष्ट्रपति जैल सिंह और यहां तक कि इंदिरा -संजय भक्त लेखक सरदार खुशवंत सिंह के त्राहिमाम संदेशों को भी प्रधान मंत्री राजीव गांधी व गृह मंत्री नर सिंह राव ने नजरअंदाज कर दिया था।

जैल सिंह व खुशवंत सिंह अपने -अपने रिश्तेदारों-मित्रों  को हत्यारी जमातों से बचाना चाहते थे।

वे भी नहीं बचा सके।

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मेरा सिर्फ यही कहना है कि जिसकी जितनी बड़ी गलती हो,उसी अनुपात मंे लोगों का उनके खिलाफ गुस्सा होना चाहिए।

पर, लगता है कि कुछ लोगों ने तो अपना सारा गुस्सा सिर्फ नरेंद्र मोदी के लिए ही बचा रखा है।

इसका राजनीतिक लाभ मोदी को मिलता रहा है।

लगता है कि आगे भी मिलता रहेगा।

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---सुरेंद्र किशोर-7 नवंबर 20

  


 राजद के दो सकारात्मक कदम

पर, अभी और भी कुछ करना पड़ेगा !!

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1.-चुनाव अभियान के दौरान राजद ने अपने पोस्टरों से लालू यादव -राबड़ी देवी की तस्वीरें हटा ली थी।

2.-राजद ने चुनाव नतीजों के बाद अनुचित नारेबाजी, हर्ष फायरिंग, प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ अशिष्ट व्यवहार आदि नहीं करने का अपने कार्यकत्र्ताओं को सख्त निदेश दिया है।

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यदि चुनाव परिणामों के बाद राजद हुड़दंग को रोकने में सचमुच सफल रहा तो कल रात उन करोड़ों लोगों को अच्छी नींद आएगी जिन्होंने महा गठबंधन को वोट नहीं दिए हैं।

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  इस काम में सफल होने पर राजद की गिनती एक जिम्मेदार दल के रूप में होने लगेगी।

  हालांकि राजद को यदि सत्ता मिलती है तो उसे इन दो कदमों के अलावा भी अन्य कई कदम भी उठाने पड़ेंगे।

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कल की मतगणना के बाद जिस किसी

की भी सरकार बने, उसे कम से कम छह महीने तक निर्बाध ढंग से काम करने का मौका मिलना चाहिए।

यदि नीतीश कुमार की सरकार बनती है तो उन्हें अपनी पिछली कमियों-गलतियों को सुधारने का मौका मिले।

यदि तेजस्वी यादव की सरकार बनती है तो राजद को 15 साल के ‘जंगल राज’ के कलंक को धोने का अवसर मिले।

दोनों को प्रतिपक्ष व मीडिया ऐसा अवसर प्रदान करे।

वही राज्य हित में होगा।

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--सुरेंद्र किशोर-9 नवंबर 20


सोमवार, 9 नवंबर 2020

 जब मैं भी आ गया था इंदिरा के झांसे में !

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     --सुरेंद्र किशोर--

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   ‘‘क्या सुरेन ! तुम भी इंदिरा के झांसे में आ गए ?!!

तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।

 तुम कैसी-कैसी चिट्ठियां लोहिया जी को लिखा करते थे।

समझ लो।

बैंक राष्ट्रीयकरण करके इंदिरा गांधी लोगों को धोखा दे रही है।’’

   1969 में नई दिल्ली के ‘जन’ व मैनकाइंड के कार्यालय में ओम प्रकाश दीपक ने मुझे स्नेह भरी झिड़की के साथ यही बातें कही थीं।

डा.राम मनोहर लोहिया के इस साथी ने,जो लोहिया के विचारों को ठीक ढंग से समझते थे,ठीक कहा था।

  यह बात मुझे बाद समझ में आई।

मैं ही गलत था।

 तब मेरा युवा -मन बैंक राष्ट्रीयकरण के फैसले से अत्यंत प्रभावित हो गया था।

   इंदिरा गांधी ने तो ‘गरीबी हटाओ’ का भी नारा दे दिया।

उसी नारे पर उन्होंने 1971 का लोक सभा चुनाव बड़े बहुमत से जीत लिया।

  पर आम लोगों की गरीबी हटाने के बदले बाद में वह अपने पुत्र संजय के लिए मारूति कार  कारखाने की स्थापना के काम में मदद करने में लग गईं।

   जब 1974 में जेपी के नेतृत्व में बड़ा जन आंदोलन शुरू हुआ तो इमरजेंसी लगाने के बाद 14 अगस्त 1975 को प्रधान मंत्री ने कहा कि 

  ‘‘गरीबी तो जनता की कड़ी मेहनत से ही हटाई जा 

सकती है।मेरे पास कोई जादू की छड़ी तो है नहीं ।’’

   था न इंदिरा का झांसा !!!

  ऐसे झांसेबाज नेताओं की न तो पहले कमी थी और न आज कोई कमी है।

तब इंदिरा जी के झांसे को मेरे जैसे युवा तो क्या, मधु लिमये जैसे प्रौढ़ नेता भी नहीं समझ सके थे।

   लिमये जी ने राष्ट्रपति के चुनाव में इंदिरा गांधी के उम्मीदवार वी.वी.गिरि को 

समाजवादियों से वोट दे-दिलवा कर जितवा दिया था।

इस तरह इंदिरा जी ने अपने ही दल के आधिकारिक उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को हरवा दिया था। 

बाद में लिमये जी को  अपनी गलती समझ में आई या नहीं,यह पता नहीं चल सका।

हां, इमरजेंसी में अन्य लोगों के साथ मधु जी को भी 19 महीने तक इंदिरा गांधी की जेल में रहना पड़ा था।

    डा. लोहिया का तो 1967 में ही निधन हो चुका था।

किंतु लोहिया के अत्यंत करीबी रहे बुद्धिजीवियों व राजनीतिक कर्मियों को मधु जी या संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का वह फैसला पसंद नहीं आया था।

  लोहिया के उन करीबियों को आप ‘‘कुजात लोहियावादी’’ कह सकते हैं।

    वी.वी.गिरि के पक्ष में मधु लिमये के फैसले के खिलाफ लोहिया जी की सहयोगी व मिरांडा हाउस की प्रोफेसर रमा मित्र ने लिखकर अपना कड़ा विरोध प्रकट किया था। 

     याद रहे कि इंदिरा सरकार ने 19 जुलाई, 1969 को 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया।

उसके बाद मैं भी इंदिरा गांधी के झांसे में आ गया था।

उसके बाद सुरेंद्र अकेला के नाम से उनके समर्थन में 27 जुलाई, 1969 के हिंदी साप्ताहिक ‘दिनमान’ में मेरी चिट्ठी छपी।

 तब दिनमान की चिट्ठयां भी पढ़ी जाती थीं।

दीपक जी ने मेरी वह चिट्ठी पढ़ ली थी।

  मेरी उस चिट्ठी में निम्नलिखित बातें थीं।

‘‘राष्ट्रपति --1972 की  संभावित

राजनैतिक अस्थिरता के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रपति -पद के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार की प्रतीक्षा बड़ी उत्सुकता से की जा रही थी।

  पर इस दंगल में सिंडिकेट के हाथों प्रधान मंत्री की हार अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है।

 अब देश की सत्ता घनघोर प्रतिक्रियावादियों के हाथ में जाने की संभावना गहरी हुई है।

  अतः श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ कांग्रेस के अन्य प्रगतिशील तत्वों को चाहिए कि वे दल के संकुचित अनुशासन के दायरे से बाहर हो देश के व्यापक हित में दूसरे वामपंथी दलों को किसी अन्य नाम सहमत कराएं।

 यह प्रश्न कांग्रेस के प्रगतिशील धु्रवीकरण से अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है।

---सुरेंद्र अकेला,दिघवारा,सारण।’’

  विद्रोही उम्मीदवार के रूप में वी.वी.गिरि के राष्ट्रपति चुन लिए जाने के बाद 

प्रो. रमा मित्र ने लिखा था कि 

  ‘‘ ऐतिहासिक राष्ट्रपति चुनाव के वोट पड़ चुकने के बाद मैं अपना कहना कह रही हूं।

अब तक मैं इस भय से नहीं बोली थी कि मुझे किसी उम्मीदवार का विरोधी या समर्थक कहा जाएगा।

  सब ढोलकिए, इंदिरा गांधी,कम्युनिस्ट,सोशलिस्ट,युवा तुर्क, कृष्णमेनन पंथी,अरुणा आसफ अली पंथी तथा अन्य वामपंथियों के बैंड बाजे में शामिल हो गए हैं।

  औरों को तो हम समझ लें,लेकिन (लोहियावादी)समाजवादियों को  कैसे समझें ?

क्योंकि उनको इंदिरा गांधी के बैंक राष्ट्रीयकरण के बावजूद तथाकथित प्रगतिवाद में और कांग्रेसी प्रतिक्रियावादी तत्वों में 

कोई अंतर नहीं करना चाहिए था।

  दोनों ही तत्कालीन जनमत के कठौते में उठी हुई लहरों पर तैरते हुए अवसरवादी हैं।

  कांग्रेस की सतही क्रांतिवादिता और गहरी प्रतिक्रियावादिता में से कोई एक चुनने लायक चीज नहीं हो सकती।

 एक बायें बोलता और दायें चलता है।

दूसरा दायें बोलता और दायें चलता है।

   समाजवादी दल के सदस्य के नहीं बल्कि राजनीति के विद्यार्थी के रूप में मेरा विश्लेषण यह है कि संजीव रेड्डी की विजय कांग्रेस में अनिवार्य फांट का कारण होती।

  कांग्रेस के विसर्जन  और शीघ्र संभव करती।

  हो सकता है कि मेरा विश्लेषण गलत निकले,किंतु मैं अपने उन नेताओं से क्षमा चाहती हूं जो समझते हैं कि गिरि की विजय कांग्रेस को बंाटेगी।

 मेरे विचार से गिरि की विजय कांग्रेसी प्रधान मंत्री के हाथ को और कांग्रेस संगठन पर उनकी गिरफ्त को और भी मजबूत करेगी।

  उस संगठन को एक नई जिंदगी ,चाहे कुछ ही दिन की हो, मिल जाएगी।

--रमा मित्र,’’

दिनमान,

31 अगस्त 1969

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--सुरेंद्र किशोर-6 अगस्त 2020

   

  




  


बुधवार, 4 नवंबर 2020

    दिनमान और इंडिया टूडे

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  साठ-सत्तर के दशकांे की सर्वश्रेष्ठ हिन्दी साप्ताहिक पत्रिका का नाम है-‘दिनमान।’

  टाइम्स आॅफ इंडिया प्रकाशन समूह उसका प्रकाशक था।

आज के समय की श्रेष्ठ हिन्दी साप्ताहिक पत्रिका ‘इंडिया टूडे’ है।

  किंतु जो बात दिनमान में थी,

वह इंडिया टूडे में नहीं।

तब आप महीने भर के दिनमान को पढ़कर जान सकते थे कि 

देश-प्रदेश-विदेश में क्या-क्या प्रमुख घटित हुआ।

  दिनमान मुख्यतः राजनीतिक पत्रिका थी।

पर,उसमें साहित्य,विज्ञान,चिकित्सा,धर्म दर्शन, फिल्म,रंगमच व खेल आदि से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारियां रहती थीं।

भाषा-शैली भी अनोखी और शालीन।

उसे पढ़ने से व्यक्तित्व का विकास होता था।

मेरी जानकारी के अनुसार दिनमान पर अब तक दो शोध कत्र्ताओं को पीएच.डी.की उपाधि मिल चुकी है।

 इंडिया टूडे के पास पर्याप्त साधन है।

खर्च करने के लिए दिनमान से अधिक।

  यदि ‘इंडिया टूडे’ का प्रबंधन चाहे तो अपनी इस स्तरीय पत्रिका को ऐसा बना सकता है जिसे महीने भर पढ़कर किसी को भी लगे कि दुनिया के किसी क्षेत्र की किसी प्रमुख जानकारी से वह वंचित नहीं रह गया।

  यदि वह ऐसा नहीं करता तो वह हिन्दी भारत के साथ न्याय नहीं कर रहा।

साठ-सत्तर के दशकों में दिनमान ने उस पीढ़ी के साथ न्याय किया।

पर, जब टाइम्स आॅफ इंडिया  प्रबंधन के लिए मुनाफा ही सब कुछ हो गया,तो एक- एक कर के उसकी अच्छी- अच्छी हिन्दी पत्रिकाएं बंद कर दी गईं। 

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सुरेंद्र किशोर

-1 नवंबर 20 

 

  


   मनमोहन सिंह सरकार के रेल मंत्री लालू प्रसाद ने 2006 में कहा था कि मैं फारवर्ड कास्ट के बीच के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए शैक्षणिक संस्थानों में 5 से 10 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने के पक्ष में हूं।

   पर, 2019 में जब केंद्र सरकार ने सरकारी नौकरियों में सामान्य वर्ग के लिए 10 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने के लिए संसद में विधेयक लाया तो राजद ने उसका विरोध कर दिया।

  उसके तत्काल बाद हुए लोक सभा चुनाव में इसका विपरीत असर राजद के कुछ उम्मीदवारों पर पड़ा।

 यहां तक कि राजद के रघुवंश प्रसाद सिंह भी 2019 में लोस चुनाव हार गए।

   अब देखना है कि बिहार विधान सभा के मौजूदा चुनाव में इस विरोध का कितना असर पड़ता है।

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--सुरेंद्र किशोर-2 नवंबर 20

 


सोमवार, 2 नवंबर 2020

     बिहार के पिछड़ापन का जिम्मेदार कौन ?

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बिहार के पिछड़ेपन के लिए जो जिम्मेदार रहे,

उनके ही राजनीतिक उत्ताधिकारी

आज सवाल उठा रहे हैं।

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          --सुरेंद्र किशोर--

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बिहार में चुनाव का अवसर हो और इस राज्य के पिछड़ापन का मुद्दा नहीं उछले, ऐसा भला कैसे हो सकता है ?

हर चुनाव में यह होता है।

इस बार भी यह मुद्दा उछल रहा है।

किंतु विडंबना यह है कि जो राजनीतिक शक्तियां इस राज्य के पिछड़ेपन के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार रही हंै,वही इस मामले में आज अधिक मुखर हैं।

अविभाजित बिहार में देश का करीब 40 प्रतिशत खनिज पदार्थ पाया जाता है।

बिहार की भूमि भी काफी उर्वर  है।

राज्य में कई सदानीरा नदियां बहती हैं।

फिर भी आजादी के बाद इस राज्य में न तो कृषि का अपेक्षित विकास हुआ और न उद्योग का।

 आजादी से पहले टाटा नगर यानी जमशेद पुर बसा।

सोन नहर का भी निर्माण अंग्रेजों ने ही कराया था।

उससे वहां खुशहाली आई।

पर आजादी के बाद कोई नया ‘टाटा नगर’ नहीं बसा।

सरकारी क्षेत्र में लोक उपक्रम लगे,पर उनमें से अधिकतर सफेद हाथी ही सबित हुए।

  सार्वजनिक क्षेत्र के लिए जिस तरह की ईमानदारी व कार्यकुशलता की जरूरत थी,उसे सुनिश्चित नहीं किया जा सका। 

    रेल भाड़ा समानीकरण ने अविभाजित बिहार में बड़े उद्योग का विकास रोक दिया।

उधर बिहार में कृषि-सिंचाई पर अपेक्षाकृत कम सरकारी खर्च के कारण खेती का भी अपेक्षित विकास नहीं हो सका।

  दरअसल कृषि प्रधान राज्य में खेती के विकास से ही किसानों की क्रय शक्ति बढ़ती । 

उससे उद्योगों का भी विकास होता।

पर ऐसा नहीं हो सका।

जब अधिकांश आबादी की क्रय शक्ति बढ़ी ही नहीं तो कारखानों के माल को कौन खरीदता ?

यदि कोई नहीं खरीदेगा तो कारखाने विकसित कैसे होंगे ? 

नतीजतन बिहार को पिछड़ा रहना ही था।

पिछड़ेपन के मामले में सन 1970 में बिहार का देश के राज्यों में नीचे से दूसरा स्थान था।

तब सर्वाधिक पिछड़ा राज्य ओड़िशा था।

1993 तक बिहार आर्थिक मामलों में उसी स्थिति में था जिस स्थिति में शेष भारत उससे 15-20 साल पहले था।

  यानी, अन्य राज्यों की तरक्की होती गई,पर बिहार अन्य राज्यों से पिछड़ता गया। 

इसके लिए कौन जिम्मेदार थे ?

जो जिम्मेदार रहे,उनके राजनीतिक उतराधिकारी आज बिहार के चुनाव में कैसी -कैसी बातें कर रहे हैं ?

  सन 1951 से 1990 तक का हाल जानिए।

कृषि व इससे संबंधित क्षेत्र में केंद्र सरकार ने बिहार में प्रति व्यक्ति  172 रुपए खर्च किए।

उसी अवधि में पंजाब में 594 रुपए खर्च किए ।

 आंतरिक संसाधन जुटाने में भी बिहार सरकार लगभग विफल रही।

सन  1999-2000 वित्तीय वर्ष में बिहार सरकार ने आंतरिक स्त्रोत से कुल 1982 करोड़ रुपए जुटाए।

उन्हीं दिनों आंध्र प्रदेश सरकार की सालाना आय करीब 6 हजार करोड़ रुपए होती थी।

 केंद्रीय आर्थिक सहायता, राज्य के आंतरिक राजस्व के अनुपात में ही मिलनी थी।

     अब आप ही बताइए कि बिहार के ‘बीमारू’ राज्यों (बिहार,मध्य प्रदेश,राजस्थान और उत्तर प्रदेश)की श्रेणी में ला देने के लिए कौन -कौन से दल प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जिम्मेदार रहे।

   2005 के बाद स्थिति में सुधार होना शुरू हुआ।

पर धीमी गति से ही।लेकिन तब तक तो देर हो चुकी थी।

 इस बीच आबादी बढ़ी।

खर्च बढ़ा।लोगों की जरूरतें बढ़ी।

फिर बिहार के लिए  विशेष दर्जे की मांग शुरू हुई।

अंततः केंद्र सरकार ने कह दिया कि यह संभव नहीं है।

फिर तो बिहार सरकार को खुद ही राज्य का विकास करना है।

हांलाकि 2014 के बाद बिहार को मिल रही केंद्रीय सहायता में काफी वृद्धि हुई है।

 पर,वह जरूरतों को देखते हुए वह भी नाकाफी है।

 बेहतर प्रशासन व  वित्तीय प्रबंधन के कारण अनुमान है कि वित्तीय वर्ष 2019-20 में बिहार सरकार की

अपनी आय 38 हजार 606 करोड़ रुपए होगी।

  2004-05 में बिहार सरकार का सालाना बजट करीब 25 हजार करोड़ रुपए का था।

अब वह बढ़कर करीब दो लाख करोड़ रुपए का हो गया है।

  सरकारी खर्चे में ‘लीकेज’ पहले बहुत अधिक था,अब कम हुआ है।

पर बंद नहीं हुआ है।

चुनाव के बाद बनने वाली सरकार को लीकेज रोकने पर ध्यान देना होगा।

तभी बिहार का विकास और भी तेज गति से संभव है।

 आजादी के पहले रेल भाड़ा समानीकरण नीति नहीं  थी।

पर बाद में समानीकरण लागू कर दिया गया ।

फिर तो  रेलगाड़ी के जरिए धनबाद से खनिज पदार्थ पटना पहुंचाने में जितना भाड़ा लगता था,उतना ही भाड़ा मुम्बई पहुंचाने में लगता था।

इसका परिणाम यह हुआ कि बाहर के उद्योगपतियों के सामने बिहार आकर उद्योग लगाने की मजबूरी नहीं रह गइ्र्र।

आजादी से पहले ऐसी मजबूरी थी।इसीलिए जमशेदजी टाटा ने बिहार आकर टाटानगर में औद्योगिक नगरी बसाई।

  रेल भाड़ा समानीकरण की नीति बनाते समय तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, 

‘‘राष्ट्र को सबल बनाना है तो क्षेत्रीय विषमता मिटानी होगी।इसके लिए रेलभाड़ा समानीकरण जरूरी  है।’’

 इस काम में नेहरू जी के मुख्य सलाहकार थे-सी.डी.देशमुख,टी.टी.कृष्णमाचारी और प्रताप सिंह कैरो।

 पर कैरो साहब ने कृषि पर होने वाले केंद्रीय खर्च में से सर्वाधिक हिस्सा अपने राज्य पंजाब के लिए ले लिया।

उस पैसों से भांखड़ा नांगल बना।

उससे पंजाब की खेती चमकी।

   बिहार के किसी नेता ने जब जवाहरलाल नेहरू  से कोसी नदी पर बांध बनाने के लिए आर्थिक मदद मांगी तो उन्होंने कहा कि उसके लिए लोगों से श्रमदान की अपील कीजिए। 

 यदि गंडक सिंचाई योजना और कोसी नदी योजना पर आजादी के बाद से ही ठोस काम हुआ होता तो खेती के मामले में बिहार तभी विकसित राज्य हो गया होता।

   जब रेल भाड़ा समानीकरण की नीति से क्षेत्रीय विषमता घटने के बदले बढ़ी तो पिछली सदी के अंतिम दशक में उसे समाप्त कर दिया गया।

पर एक अनुमान के अनुसार तब तक अविभाजित बिहार को करीब 10 लाख करोड़ रुपए से वंचित हो जाना पड़ गया था।

   यानी टाटा नगर की तरह अन्य उद्योग बिहार में लगते  तो 10 लाख करोड़ रुपए का लाभ बिहार को मिल जाता और वह  पिछड़ा नहीं रहता।

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दैनिक जागरण,30 अक्तूबर 20


 पब्लिक सेक्टर के बारे में एक जरूरी विमर्श

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लोक उपक्रम के संचालकों को ईमानदार व 

कत्र्तव्यनिष्ठ बनाए बिना आप विनिवेश नहीं रोक सकते।

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    --सुरेंद्र किशोर--

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सन 1977-78 की बात है।

तब मैं पटना के लोहिया नगर में, जिसे लोग अब भी कंकड़बाग ही कहते हैं, रहता था।

  राज्य परिवहन निगम की बस यानी सरकारी बस से पटना जंक्शन तक जाया-आया  करता था।

उन दिनों मैं दैनिक आज में काम करता था।

50 पैसे लगते थे।

अधिकतर यात्री 25 पैसे देकर बस में बैठ जाते थे।

उनके लिए टिकट नहीं कटते थे।

मैं उन अत्यंत थोडे़ लोगों में था जो पूरे 50 पैसे देकर टिकट लेने की जिद करता था।

मुझे देखते ही कंडक्टर की भृकुटि तन जाती थी।उसे 25 पैसे का नुकसान जो हो जाता था !

पर, वह जान गया था कि मैं अखबार में काम करता हूं,इसलिए मन मसोस कर टिकट फाड़ कर मुझे  दे देता था।

  अब आप ही बताइए कि सरकारी बसें लंबे समय तक कैसे चलेंगी ?

राज्य सरकार कितने दिनों तक कितना घाटा उठाएगी ?

बाद में बस बंद हो र्गइं।

आॅटो रिक्शे का चलन शुरू हो गया।

तब तक मैंने साइकिल खरीद ली थी।

  जब में ‘जनसत्ता’ ज्वाइन किया तो बिहार राज्य पथ परिवहन निगम के एक अफसर मुझसे मिले।

 उन्होंने मुझे देर तक समझाया कि एक खास कंपनी का बस  खरीदना क्यों जरूरी है।

 दरअसल उनका वरीय अधिकारी ईमानदार था और टाटा कंपनी से  ही बस खरीदने की जिद पर अड़ा था।

टाटा कंपनी बस-ट्रक बेचने के लिए खरीददार को दलाली नहीं देती थी।

किंतु एक दूसरी कंपनी खूब देती थी।

  जिस तरह बोफोर्स कंपनी दलाली देती थी,पर सोफ्मा तोप कंपनी नहीं देती थी।

जबकि सोफ्मा तोप, बोफोर्स से बेहतर थी।वैसे बोफोर्स भी खराब नहीं है।

  खैर, यह तो परिवहन निगम के राज्य मुख्यालय स्तर के भ्रष्टाचार की कहानी रही।

  ऐसे में बिहार के सरकारी पथ परिवहन निगम का जो हाल होना था,वह हुआ।

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अब जरा एयर इंडिया पर नजर दौड़ाएं।

पिछले वित्तीय वर्ष में एयर इंडिया को 8556 करोड़ रुपए का घाटा हुआ।

पिछले दस साल में कुल घाटा 69,575 करोड़ रुपए हुआ है।

घाटे का मुख्य कारण हैं भ्रष्टाचार और कार्य कुशलता में कमी।

साथ ही, कमीशन के लिए जहाजों की गैर जरूरी व महंगी खरीद।

 क्या जनता के टैक्स के पैसों में से अरबों रुपए इसका घाटा पाटने में लगाया जाना चाहिए या एयर इंडिया का विनिवेश करना चाहिए ?

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विनिवेश का विरोध कम्युनिस्ट लोग अधिक करते हैं।दूसरे वे लोग हैं जो ऐसे उपक्रमों को जारी रखना चाहते हैं ताकि उसकी खरीद में कमीशन मिले।

हाल तक अनेक लोक उपक्रमों की दर्जनों गाड़ियां  केंद्रीय मंत्रियों व बड़े अफसरों की निजी सेवा में लगी रहती थीं।

सुना है कि मोदी सरकार ने उसे रोका है।

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दरअसल सार्वजनिक उद्यम को ठीक से चलाने के लिए अफसरों -कर्मचारियों में कठोर ईमानदारी की जरूरत रहती है।

वह भारत में आजादी के बाद से ही नहीं थी।

वैसे प्रभावशाली लोग अपने लोगों को इसमें आसानी से काम जरूर दिलवा देते थे।

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चीन में भी लोक उपक्रमों में जब भ्रष्टाचार नहीं रोका जा सका तो वहां की सरकार  निजीकरण की ओर मुड़ी।

चीन सरकार ने तर्क दिया कि ‘‘हम समाजवाद को मजबूत करने के लिए पूंजीवाद अपना रहे हैं।’’

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कलकत्ता के सार्वजनिक क्षेत्र के मशहूर होटल, ग्रेट ईस्टर्न होटल में जब घाटा बढ़ने लगा तो ज्योति बसु सरकार ने उसे एक विदेशी कंपनी के हाथों बेच देने का सौदा किया।

  पर सी.पी.एम.से जुड़े मजदूर संगठन सीटू के सख्त विरोध के कारण उन्हें अपना फैसला वापस लेना पड़ा।

पर जब राज्य की आर्थिक स्थिति और बिगड़ी तो बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार ने उस होटल को बेच दिया।

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पर मोदी सरकार विनिवेश करती है तो कम्युनिस्ट और वे नेता जो महंगी व अनावश्यक खरीद के जरिए पैसे बनाते रहे हैं,विरोध करने लगते हैं।   

   ऐसा कब तक चलेगा ?

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हां,एक बात और।

जब तक कोई लोक उपक्रम लाभ में हैं।यदि उसका लाभ बढ़ता जा रहा है,तब तक विनिवेश न करंे।

लेकिन यदि लाभ निरंतर घटता जा रहा है तो कर दीजिए।

अन्यथा घाटा होने लगेगा तो उसे फिर खरीदेगा कौन ?

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--सुरेंद्र किशोर-21 सितंबर 20


    जनसरोकार के पत्रकार हरिवंश

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राज्य सभा के उप सभापति हरिवंश जी ने 2009 में ही यह कह दिया था कि 

‘‘ मैं असंतुष्ट,निराश बेचैन रहनेवाला आदमी हूं।

रिटायर होकर चैन से नहीं रह सकता।

मैं बहुत साफ-साफ,दो टूक बात करता हूं।

पत्रकारिता मेरे लिए नैतिक कर्म है।

और मुझे संतोष है कि नैतिक पत्रकारिता करने की मैंने कोशिश की।

अनेक भूलें हुईं हैं।

गलतियां हुईं हैं।

पर एक भी ऐसा काम नहीं किया,जिसके लिए पश्चात्ताप हुआ हो या कोई उंगली उठा सके।’’

    सिताब दियारा की गंवई पृष्ठभूमि से निकल कर पत्रकारिता के शीर्ष से गुजरते हुए हरिवंश जी आज एक अत्यंत सम्मानजनक जगह पर हैं।

  यह सब इस बात के बावजूद हुआ है कि वे किसी राजनीतिक पारिवारिक पृष्ठभूमि से नहीं आते।

   सुपठित और प्रभावशाली वक्ता हरिवंश जी की जब डा.आर.के.नीरद लिखित जीवनी आई तो मुझे लगा कि इसकी हम थोड़ी चर्चा कर लें।

  कोई व्यक्ति दियारे के एक गांव से निकल कर दिल्ली

में राज्य सभा के उप सभापति पद तक पहुंचता है तो कई निरपेक्ष लोग उसके बारे में यह जानना चाहेंगे कि यह सब कैसे संभव हुआ ?

 यानी, इस अर्थ युग में ऐसा भी संभव है।

  देश के मशहूर प्रकाशक प्रभात प्रकाशन ने ‘‘जन सरोकार के पत्रकार हरिवंश’’ नाम से उनकी जीवनी छापी हैं।

जाहिर है कि उसमें उनके योगदान व उपलब्धियों का विस्तृत विवरण है। 

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--सुरेंद्र किशोर-1 नवंबर 20