सोमवार, 29 जून 2020

अभी अपने देश की सीमाओं पर सैनिक गतिविधियों को तेज करने में 
कितना बड़ा खर्च आ रहा है ?
  आगे यदि कुछ और हुआ तो उस पर और कितना बड़ा खर्च आएगा ?
कुछ अनुमान है ? !!!
उसका खर्च कौन उठाएगा ?
जाहिर है कि सरकार उठाएगी।
सरकार को पैसे कहां से आते हैं ?
इसका जवाब हर पढ़ा-लिख व्यक्ति जानता है।
यानी, चाहे वे पैसे टैक्स बढ़ाने से आए या तेल की कीमत !
या फिर रक्षा कोष में स्वैच्छिक दान लेने  से।
अपने देश में नेशनल डिफेंस फंड की स्थापना 1962 में हुई थी।
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     ----  सुरेंद्र किशोर-29 जून 20

शुक्रवार, 26 जून 2020

चीन के पैसों से आपातकाल में हिंसक आंदोलन चलाने का
जार्ज फर्नांडिस पर आरोप मढ़ना चाहती थी सी.बी.आई.
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        --सुरेंद्र किशोर-- 
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‘‘यदि सुरेंद्र अकेला पकड़ा जाता तो उससे हमें जार्ज 
का चीन से संबंधों का पता चल सकता था।’’
  बड़ौदा डायनामाइट षड्यंत्र मुकदमे की जांच में लगे एक अफसर ने मेरे एक मित्र को यह बात बताई थी।
उस अफसर की ‘जानकारी’ के अनुसार अकेला यानी मैं हर महीने नेपाल स्थित चीनी दूतावास से पैसे लाता था।
    उसकी तथाकथित ‘जानकारी’ दरअसल उच्चत्तम स्तर पर की गई साजिश की उपज मात्र थी।
उसमें कोई सच्चाई नहीं थी।
हां,मैं जार्ज से बिहार में जुड़े भूमिगत कार्यकत्र्ताओं के खर्चे के लिए हर महीने कानपुर से जरूर थोड़े पैसे लाया करता था।
जहां तक नेपाल का सवाल है,
न तो कभी सुरेंद्र सिंह नेपाल गया, न ही सुरेंद्र अकेला और न ही सरेंद्र किशोर।
याद रहे कि तीनों एक ही व्यक्ति का नाम रहा है।
  फिर भी यदि मैं पकड़ा जाता तो मेरे नाम पर आपातकाल में अखबारों के जरिए देश को यह बताया जाता था कि किस तरह जार्ज चीन का एजेंट है।
  जहां तक मेरी जानकारी है,बड़ौदा डायनामाइट मुकदमे में सी.बी.आई.द्वारा तैयार केस में झूठ और सच का मिश्रण ही था।
एक झूठ की चर्चा यहां कर दूं।
वह यह कि 
‘‘जुलाई, 1975 में पटना मेें चार लोगों ने मिलकर 
यह षड्यंत्र किया कि इंदिरा गांधी सरकार को उखाड़ फेंकना है।
वे चार लोग थे-जार्ज फर्नांडिस,रेवतीकांत सिन्हा,महेंद्र नारायण वाजपेयी और सुरेंद्र अकेला।’’
 सच यह है कि इस तरह के किसी षड्यंत्र की खबर मुझे नहीं थी।
हालांकि आपातकाल में जितने समय तक जार्ज पटना में रहे ,मैं उनसे लगातार मिलता रहा।
  याद रहे कि डरा-धमका कर सी.बी.आई.ने रेवती बाबू जैसे
ईमानदार व समर्पित व्यक्ति को मुखबिर जरूर बना दिया था।
रेवती बाबू को सी.बी.आई. ने धमकाया था कि यदि मुखबिर नहीं बनिएगा तो आपका पूरा परिवार जेल में होगा।
कोई  मजबूत व्यक्ति भी परिवार को बचाने के लिए कई बार टूट जाता है।
मैं भी टूट सकता था यदि पकड़ा जाता।मैं तो रेवती बाबू जितना मजबूत भी नहीं था।
1966-67 में के.बी.सहाय की सरकार के खिलाफ सरकारी कर्मचारियों का जो ऐतिहासिक आंदोलन  हुआ,उसके सबसे बड़े अराजपत्रित कर्मचारी नेता रेवती बाबू ही थे। 
  वे जिस साप्ताहिक ‘जनता’ के वे संपादक थे,मैं उसका सहायक संपादक था।
इसलिए उन्हें करीब से जानने का मौका मिला था।
रेवती बाबू जैसा ईमानदार,जानकार,बहादुर और समर्पित नेता मैंने समाजवादी आंदोलन में भी कम ही देखा था।
पर,आपातकाल में  आतंक इतना था कि मत पूछिए।
   आपातकाल में शासकों से जुड़े खास लोगों व समर्थकों को छोड़ दें तो बाकी लोगों में सरकार का इतना आतंक था जितना लोग आज कोरोना से भी नहीं है।
  कोई खुलकर बात नहीं करता था।
प्रतिपक्षी नेताओं -कार्यकत्र्ताओं से, जो गिरफ्तारी से बचे थे, भूमिगत थे, बात करने से पहले कोई भी आगे-पीछे देख लेता था कि कोई तीसरा  देख तो नहीं रहा है।
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‘न्यूजवीक’ पत्रिका की काॅपी मैंने एक समाजवादी नेता को उनके आवास पर जाकर पढ़ने के लिए दिया।
  उसमें जेपी व जार्ज की तस्वीरों के साथ आपातकाल विरोधी भूमिगत आंदोलन पर रपट छपी थी।
खुद मैंने उसे पढ़़ने के बाद यह पाया था कि ऐसी रपट शायद उन्हें पढ़ने को नहीं मिली होगी।
पर वे तो इतना डरे हुए थे कि पढ़े बिना ही उसे लाइटर से तुरंत जला दिया।
मैं रोकता रह गया।
जिस तरह आज बिना मास्क के बाहर निकलना मना है,उसी तरह तब सरकार विरोधी ‘लिटरेचर’ अपने पास रखना मना था।   
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मुझे इसलिए भी मेघालय भागना पड़ा क्योंकि सी.बी.आई.मुझे खोज रही थी।
मैं भागा-फिर रहा था।
न कोई पैसे देने का तैयार और न शरण।
इक्के -दुक्के लोग ही छिपकर 
आंदोलनकारियों की थोड़ी मदद कर देते थे।थोड़ी मदद से जीवन कैसे चलता ?
जो जेलों में थे,उनकी अपेक्षा भूमिगत लोग काफी अधिक कष्ट में थे।
मेघालय में कांग्रेस की सरकार नहीं थी।मेरे बहनोई वहां कपड़े का व्यापार करते थे।
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 26 जून 20




ताजा संदर्भ-राजीव गांधी फाउंडेशन 
को चीन से मिली  भारी धनराशि का !
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   --सुरेंद्र किशोर--
शीत युद्ध के जमाने में कम्युनिस्ट देश जहां भारत में साम्यवाद के फैलाव के लिए पैसे खर्च कर रहे थे तो वहीं पूंजीवादी देश साम्यवाद को रोकने के लिए ।   
 जिस देश के अनेक नेता और बुद्धिजीवी बिकने को तैयार रहे हों,वहां उन दोनों शक्तियों 
के लिए काम बड़ा आसान था।
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 भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों के अनेक नेताओं का यह विचार रहा है कि खतरनाक विदेशी जासूस सिर्फ वही
है जो हमारे राजनीतिक विरोधियों को धन दे।
जो हमें दे रहा है,उसमें कोई बुराई नहीं !!
इतिहास बताता है कि एक दल को छोड़कर इस देश के 
सारे प्रमख राजनीतिक दलों ने 1967
के आम चुनाव के लिए विदेशियों से धन लिए थे।
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भाजपा ने कल आरोप लगाया है कि राजीव गांधी फाउंडेशन को चीनी दूतावास से 90 लाख रुपए मिले थे।
 उस पर कांग्रेस  कोई तार्किक जवाब नहीं .दे पा रही।
वैसे अभी जानिए कि आपात काल में इंदिरा गांधी की सोवियत जासूसी संगठन के.जी.बी.के  बारे में क्या राय थी--
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बिशन टंडन की डायरी से
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25 जून, 1975 की रात में देश में आपातकाल लागू हुआ।
 अगले दिन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने भारत सरकार के सचिवों 
की बैठक की।
प्रधान मंत्री के तब के संयुक्त सचिव रहे बिशन टंडन के अनुसार,
उस बैठक में श्रीमती गांधी ने कहा कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए 
यह कदम उठाया गया है।
मंत्रालय के सचिवों के समक्ष श्रीमती गांधी के तर्क थे कि 
‘‘प्रतिपक्ष नाजीवाद फैला रहा है।
नाजीवाद केवल सेना व पुलिस के उपयोग से ही नहीं आता है।
कोई छोटा समूह जब गलत प्रचार करके जनता को गुमराह करे तो 
वह भी नाजीवाद का लक्षण है।
भारत में दूसरे दलों की सरकारें भले बन जाएं ,पर मैं माक्र्सवादी 
कम्युनिस्टों और जनसंघ की सरकार नहीं बनने दूंगी।
जय प्रकाश के आंदोलन के लिए रुपया बाहर से आ रहा है।
अमरीकी खुफिया संगठन सी.आई.ए. यहां बहुत सक्रिय है।
के.जी.बी.का कुछ पता नहीं।
लेकिन उनके यानी के. जी. बी. के कार्य का कोई प्रमाण सामने 
नहीं आया  है।
प्रतिपक्ष का सारा अभियान मेरे विरूद्ध है।
मेरे अतिरिक्त मुझे कोई ऐसा व्यक्ति नजर नहीं आता जो इस 
समय देश के सामने आई चुनौतियों का सामना कर सके।’’
 बिशन टंडन के अनुसार प्रधान मंत्री जब के.जी.बी.की चर्चा कर रही थीं तो वह प्रकारांतर से यह भी कह रही थीं कि सोवियत संघ का यह खुफिया संगठन भारत में कोई गलत काम नहीं कर रहा था।
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के.जी.बी.के मित्रोखिन की पुस्तक 
से भारत में मचा था हंगामा
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 इंदिरा जी जो कहें, पर 2005 में के.जी.बी.के भारत में कारनामों का खुलासा हो ही गया।
क्रिस्टोफर एंड्रूज के साथ मिलकर के.जी.बी.के पूर्व वरिष्ठ योजनाकार वासिली मित्रोखिन ने करीब 15 साल पहले दो किताबें लिखीं।
उसके जरिए उसने भारत में के.जी.बी.के एजेंटों का भंडाफोड़ कर दिया।
  मित्रोखिन के अनुसार,के.जी.बी.ने कई भारतीय समाचार पत्रों ,बुद्धिजीवियों व नेताओं पर अरबो -खरबों रुपए खर्च किए।
  मित्रोखिन के रहस्योद्घाटन का तब कांग्रेस व कम्युनिस्टों ने  खंडन किया था।
  ज्योति बसु ने तब कहा था कि 
‘‘मुझे यह तो नहीं मालूम कि के.जी.बी.ने इंदिरा गांधी को धन दिया या नहीं ,परंतु एक बात मैं अच्छी तरह जानता हूं कि वामपंथियों की गतिविधियों को रोकने के लिए अमेरिका ने इंदिरा गांधी को व्यक्तिगत रूप से भी धन दिया और कांग्रेस को भी।’’
क्या लोग इतना भोले हैं कि बसु की इस बात पर विश्वास कर लें कि कम्युनिस्ट देशों ने भारत में अघोषित ढंग से कोई खर्च नहीं किया ?!!
भारत में अमेरिका के राजदूत रहे डेनियल मोयनिहान ने अपनी
पुस्तक ‘‘अ डेंजरस प्लेस’’ में लिखा कि किस तरह कम्युनिस्ट फैलाव को रोकने के लिए अमेरिका ने भारतीय नेताओं को पैसे दिए।
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1967 के उस विस्फोटक रहस्योद्घाटन
के बाद भी भारतीय राजनीति की 
धलोलुपता
कम नहीं हुई  
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1967 में लीपापोती की कोशिश में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री यशवंत राव चव्हाण ने संसद में 
कह दिया था कि जिन दलों और नेताओं को विदेशों से धन मिले हैं,उनके नाम जाहिर नहीं किए जा सकते ।
क्योंकि उससे उनके हितों को नुकसान पहुंचेगा।
फिर क्या था !
 नाजायज धन के इस्तेमाल को लेकर नेताओं और दलों की झिझक समाप्त होती चली गयी।
 1967 के आम चुनाव में सात राज्यों में कांग्रेस हार गयी थी।
लोक सभा में उसका बहुमत पहले की अपेक्षा कम हो गया।
चुनाव के छह माह के भीतर ही  उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ  कांग्रेसी विधायकों ने दल बदल करके वहां गैर कांग्रेसी सरकारें बनवा दीं।
   इन घटनाओं से इंदिरा गांधी  चिंतित र्हुइं।
उन्हें लगा कि प्रतिपक्षी दलों ने नाजायज धन खर्च कर कांग्रेस को हरवा दिया।
चुनाव में धन के इस्तेमाल की केंद्रीय खुफिया एजेंसी से जांच करायी गयी।
जांच से यह पता चला कि सिर्फ एक मझोले  राजनीतिक दल को छोड़कर कांग्रेस सहित सभी प्रमुख दलों को 1967 का चुनाव लड़ने के लिए विदेशों से पैसे मिले थे।सरकार ने उस रपट को दबा दिया।
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  खुफिया जांच रपट छपी अमेरिकी पेपर में 
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पर, वह रपट एक अमेरिकी अखबार में छप गया।
उसके बाद लोक सभा में हंगामा हो गया।
प्रतिपक्षी दलों के कुछ नेताओं ने रपट को प्रकाशित करने की मांग की।
उसी के जवाब में गृह मंत्री चव्हाण का उपर्यक्त बयान आया था।
 यदि उसी समय रपट जारी करके पैसे लेने वालों के खिलाफ जांच करायी गयी होती तो  राजनीति और चुनाव में स्वच्छता लाने में सुविधा होती।
पर जांच कैसे होती ?
उस रपट के अनुसार कांग्रेस के ही कुछ दक्षिणपंथी नेताओं ने अमेरिका से तो कुछ वामपंथियों ने कम्युनिस्ट देश से पैसे लिए थे।
    अब स्थिति कंट्रोल के बाहर
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पर अब तक स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि इस समस्या से निपटना इस देश के लिए मुश्किल हो चुका है।
 चिंताजनक बात यह है कि कोई भी राजनीतिक दल खुद को सूचना के अधिकार के तहत लाने तक को तैयार नहीं है।
  1967 में नेता व दल आम तौर पर चुनाव लड़ने के लिए देसी-विदेशी शक्तियों से पैसे लेते थे।
अब तो आरोप है कि अधिकतर नेतागण अपनी निजी संपत्ति बढ़ाने के लिए भी पैसे ले रहे हैं।
 अब तो चुनावी टिकट बेचकर भी भारी धनराशि कमाने का धंधा भी दिन प्रति दिन बढ़ता ही जा रहा है।
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--26 जून 20  



गुरुवार, 25 जून 2020

     1
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आम तौर से दो तरह के लोग होते हैं।,
एक तरह के लोग गलती कर सकते हैं्र,किंतु 
बेईमानी नहीं।
हां,अनजाने में उनसे कोई गलत काम हो ही सकता है।
एक कहावत भी है, 
‘‘ गलती करना मानव का स्वभाव है।’’
        2
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दूसरी श्रेणी में ऐसे लोग आते  हैं जिनका मुख्य उद्देश्य बेईमानी करना ही रहता है।
हां, उनसे भी जाने-अनजाने कभी -कभी कुछ अच्छे काम भी हो जाया करते हैं।
          3
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तीसरी श्रेणी में ऐसे लोग होते हैं जो कोई भी बड़ा काम इस डर से नहीं करते कि कहीं उनसे गलती न हो जाए।
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राजनीति सहित समाज और शासन के हर क्षेत्र में वैसे लोग
 पाए जाते हैं जिनकी चर्चा मैंने तीन श्रेणियों में बांट 
 कर की है।
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--  सुरेंद्र किशोर -- 24 जून 20

बुधवार, 24 जून 2020


जमीन की उपलब्धता के बाद बिहार में उद्योग 
के विकास की उम्मीद-सुरेंद्र किशोर
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बिहार सरकार उद्योग के लिए राज्य में एक हजार एकड़ जमीन उपलब्ध कराने को तैयार है।
  मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने बुधवार को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी से आग्रह किया कि यदि केंद्र सरकार उद्योग स्थापित करने में मदद करे तो जमीन की संमस्या नहीं रहेगी।
मुख्य मंत्री की इस पहले से बिहार के लिए एक ठोस संभावना बनती है।
इस बीच यह खबर आई है कि करीब एक हजार उद्योग चीन से निकल भारत में आ सकते हैं।
 यदि वैसा नहीं भी हो तो भी कंेद्र सरकार की मदद से बिहार में उद्योग बढ़ सकते हैं।
  कृषि पर आधारित उद्योग की यहां बड़ी संभावना है।
 इस पिछड़े राज्य में हाल के वर्षों में बिजली और सड़क की सुविधाएं काफी बढ़ी है।
कानून-व्यवस्था की स्थिति पहले से काफी बेहतर है।
पर उस दिशा में कुछ और काम करने की जरूरत होगी।
 उद्योगपतियों की राह सुगम बनाने के लिए नौकरशाही स्तर पर कुछ 
अधिक काम करने की जरूरत पड़ेगी।
 एक जानकार व्यक्ति के अनुसार बिहार में 2011 में बनी उद्योग नीति के कारण  करीब सौ उद्योग लगे थे।
किंतु 2016 की उद्योग नीति के कारण बाधाएं आ रही हैं।
  इस संबंध में असल समस्या कहां है ?
यह तो सरकार और उद्यमियों के बीच की बात है।
जो हो,मुख्य मंत्री की ताजा पहल से एक आशा बंधी है।
         --कब दूर होगी सड़कों पर
         ओवरटेक की समस्या--
   पटना  के पास गंगा नदी पर गांधी सेतु के समानांतर एक 
पुल प्रस्तावित है।
इसके निर्माण का काम जल्द ही शुरू होने वाला है।
मौजूदा गांधी सेतु के एक लेन के पुनर्निर्माण का काम लगभग पूरा हो रहा है।
  दूसरे लेन के पुनर्निर्माण का काम उसके बाद शुरू होने वाला है।
पर, कई लोगों की मांग है कि गांधी सेतु के पास प्रस्तावित समानांतर पुल का निर्माण हो जाने के बाद ही गांधी सेतु के दूसरे लेन के पुनर्निर्माण का काम शुरू किया जाना चाहिए।
अन्यथा  पुल जाम की समस्या निंरतर बनी रहेगी।
  सरसरी नजर से यह मांग  उचित लग रही है।
 इस मांग को पूरा करने में यदि कोई तकनीकी कठिनाई नहीं हो तो उस पर विचार किया जाना चाहिए।
पर दिक्कत यह है कि जिस निर्माण एजेंसी ने एक बार काम शुरू कर दिया है,
उसे फिर तीन-चार  साल के बाद बुलाना अव्यावहारिक लगता है।
इस बीच खर्च भी काफी बढ़ जाएगा।
हां,यदि दूसरे लेन पर काम शुरू कराना जरूरी हो तो पहले लेन में भारी व कारगर पुलिस तैनाती की जरूरत पड़ेगी।
ट्राफिक पुलिसकर्मी वाहनों को ओवरटेक करने से कड़ाई से रोकें।
साथ ही अधिक पुरानी व जर्जर  गाड़ियों को गंगा पुल से नहीं गुजरने दिया जाना चाहिए।तभी जाम की समस्या कम होगी।

 --नगर पंचायतों में भी बसते हैं किसान--
जानकार लोगों के अनुसार बिहार में ‘मुख्य मंत्री फसल सहायता योजना’ का लाभ नगर पंचायतों के निवासियों को नहीं मिल रहा है।
हालांकि नगर पंचायतों के किसानों को प्रधान मंत्री किसान सम्मान योजना की राशि मिल रही है।
नगर पंचायतों में रहने वाले लोगों के पास भी कृषि योग्य जमीन है।
वे खेती भी करते हैं।
वे उस जमीन को कृषि भूमि मानकर ही मालगुजारी भी देते हैं।
फिर उन्हें फसल
सहायता योजना का लाभ क्यों नहीं ?
याद रहे कि राज्य में 86 से नगर पंचायतें हैं। 
--भूली-बिसरी याद-- 
बिहार के प्रमुख सी.पी.आई.नेता दिवंगत राज कुमार पूर्वे ने अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक ‘स्मृति शेष’ में 1962 के चीनी हमले का जिक्र किया है।
स्वतंत्रता सेनानी व सी.पी.आई.विधायक दल के नेता रहे राज कुमार पूर्वे के अनुसार, ‘‘चीन ने भारत पर 1962 में आक्रमण कर दिया।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने आक्रमण का विरोध किया।
पार्टी में बहस होने लगी।
कुछ नेताओं का कहना था कि चीनी हमला हमें पूंजीवादी सरकार से मुक्त कराने के लिए है।
दूसरों का कहना था कि माक्र्सवाद हमें यही सिखाता है कि क्रांति का आयात नहीं होता।
देश की जनता खुद अपने संघर्ष से पूंजीवादी व्यवस्था और सरकार से अपने देश को मुक्त करा सकती है।
पार्टी  के अंदर एक वर्ष से कुछ ज्यादा दिनों तक इस पर बहस चलती रही।
यानी लिबरेशन या एग्रेशन का ?
इसी कारण कम्युनिस्ट पार्टी, जो राष्ट्रीय धारा के साथ आगे बढ़ रही थी और विकास कर रही थी, पिछड़ गयी।
 देश पर चीनी आक्रमण से लोगों में रोष था।
यह स्वाभाविक था ,देशभक्त ,राष्ट्रभक्त की सच्ची भावना थी।
यह हमारे खिलाफ पड़ गया।
कई जगह पर हमारे राजनीतिक विरोधियों ने लोगों को 
संगठित कर हमारे आॅफिसों और नेताओं पर हमला भी किया।
हमें चीनी दलाल कहा गया।
आखिर में उस समय 101 सदस्यों की केंद्रीय कमेटी में से 
31 सदस्य पार्टी से 1964 में निकल गए।
उन्होंने अपनी पार्टी का नाम भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी/माक्र्सवादी /रखा।
सिर्फ भारत में ही नहीं,कम्युनिस्ट पार्टी के इस अंतर्राष्ट्रीय फूट ने पूरे विश्व में पार्टी के बढ़ाव को रोका और अनेक देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों में फूट पड़ गयी।
    --और अंत में-- 
 आंतरिक, बाह्य या दोनों तरह के खतरों से निपटने के लिए स्वस्थ व ठोस आर्थिक व्यवस्था जरूरी है।
यह बात किसी व्यक्ति पर भी लागू होती है और किसी देश पर भी।
  फिजूलखर्ची और भ्रष्टाचार को कम करके काफी हद तक बेहतरी हासिल 
की जा सकती है।
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कानोंकान,प्रभात खबर,पटना-19 जून 20

कक्षा में द्वितीय स्थान पाने 
पर बाबू जी से मिला था साइकिल उपहार
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बात 1961 की है।
तब मैं बिहार के सारण जिले के दिघवारा स्थित जयगोविंद उच्च विद्यालय में पढ़ता था।
10 वीं कक्षा में मैं सेकेंड आया था।
वैसे तो मुझे फस्र्ट आना चाहिए था।
किंतु फस्र्ट आने वाले मुहम्मद ईसा 
को उर्दू और फारसी में करीब 90-90 अंक मिला करते थे।
इधर संस्कृत में मुझे 35 और हिन्दी में साठ के आसपास आए थे।
फिर मैं ईसा का मुकाबला कैसे करता ?
  वैसे बोर्ड परीक्षा में मुझे संस्कृत में सौ में 84 अंक आए थे।
वैसे ईसा की लिखावट बहुत अच्छी थी।
सेकेंड होने के कारण मैं उसके बगल में ही बैठता था।
उसी की देखा -देखी मैंने अपनी लिखावट सुधारी थी।
मेरी अच्छी लिखावट बाद के जीवन में मुझे बहुत काम आई। 
मेरे बाबू जी यानी शिवनंदन सिंह--सन् 1898--सन् 1986--भी यह बात जानते थे कि मुझे फस्र्ट आना चाहिए था।
इसलिए वे तो मुझे फस्र्ट ही मानते थे।
खुश होकर उन्होंने कहा कि 
‘चल छपरा, तोहरा के एगो साइकिल खरीद देब।’ 
हमलोग ट्रेन से दिघवारा से छपरा गए।
याद है, एवन साइकिल 98 रुपए में आई।
उससे अधिक महंगी साइकिलें भी तब बिकती थीं।
पर, बाबू जी अधिक खर्च नहीं कर सकते थे।
बाबू जी तो उस दिन ट्रेन से वापस आ गए।
किंतु मैं छपरा से 34 किलोमीटर साइकिल चलाते हुए गांव पहुंचा।
  उन दिनों सड़कों पर वाहन भी बहुत कम होते थेे।
 वैसे भी साइकिल पर चढ़ना भी उन दिनों सपने की तरह था।
वैसा सुखद अनुभव तो बाद में हवाई जहाज पर चढ़ने पर भी नहीं हुआ।
मेरे गांव से स्कूल करीब साढ़े तीन किलोमीटर पर अवस्थित था।
तब कच्ची सड़क थी।
साइकिल एक सहारा बन गई।
   हाल में मेरे पुत्र अमित ने भी संयोग से एवन साइकिल ही खरीदी है।
अब उसकी कीमत 4 हजार रुपए है।
उसने अपनी कमाई से खरीदी है।
उसकी साइकिल उसकी सेहत ठीक रखने में काम आएगी।
मेरी तरह उसके लिए साइकिल आवश्यक आवश्यकता नहीं है।
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    --सुरेंद्र किशोर--21 जून 20 


मंगलवार, 23 जून 2020

मेरे कई मित्र और परिचित हैं जो मुझसे विभिन्न विषयों या हस्तियों पर बिलकुल अलग राय रखते हैं।
या यूं कहें कि मैं उनसे अलग राय रखता है।
दोनों को यह हक हासिल है।
मैं कभी परिचित -मित्र के वाॅल पर जाकर न तो उनकी बातों-विचारों  को खंडन करता हूं या न उन्हें कोई उपदेश,संदेश या निदेश  देता हूं।
पर, यही संयम कई लोग नहीं अपनाते ।
ऐसे लोगों को मैं अमित्र या अनफं्रेंड कर देता हूं ताकि संबंध तो बना रहे।
कोई कटुता न आए।
हमलोग यदि एक दूसरे को बहस में हरा दें तो उसी से देश में कोई क्रांति या बदलाव नहीं आ जाने वाला है।
फिर नाहक बतकूचन क्यों ?
एक दूसरे से जानकारियां लीजिए।
तथ्य गलत हो तो बता दीजिए।
सही हो और दिमाग खुला हो तो उसे ग्रहण कर लीजिए।
बस अपनी -अपनी ‘राह’ पर चलते रहिए।
आप भी मगन, हम भी मगन !
    --सुरेंद्र किशोर--20 जून 20

सोमवार, 22 जून 2020


चीन से भारतीय सीमा पर खतरे का मुकाबला 
करने के लिए मन मोहन सरकार के  वित्त 
मंत्रालय ने रक्षा 
मंत्रालय को नहीं दिए थे पैसे 
        -- सुरेंद्र किशोर --    
यह बात तब की है जब मन मोहन सिंह की सरकार केंद्र में थी।
ए.के.एंटोनी के नेतृत्व वाले  रक्षा मंत्रालय ने चीन से भारतीय सीमा पर खतरे को देखते हुए सेना विस्तार के लिए 65 हजार करोड़ रुपये की एक योजना बना कर वित्त मंत्रालय को भेजा था।
  इस पर प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व वाले वित्त मंत्रालय ने रक्षा मंत्रालय से एक अनोखा सवाल पूछा।
  उसने लिख कर यह पूछा कि क्या चीन से खतरा दो साल बाद भी बना रहेगा ?
    यह पूछ कर वित्त मंत्रालय ने रक्षा मंत्रालय को लाल झंडी दिखा दी।
  दरअसल वित्त मंत्रालय रक्षा मंत्रालय को यह संदेश देना  चाह रहा था कि यदि दो साल बाद भी खतरा बना नहीं रहेगा तो इतना अधिक पैसा रक्षा तैयारियों पर खर्च करने की जरूरत ही कहां है ?
    अब भला रक्षा मंत्रालय या कोई अन्य व्यक्ति भी इस सवाल का कोई ऐसा जवाब कैसे दे सकता था जिससे वित्त मंत्रालय संतुष्ट हो जाता ?
   वैसे भी उसे संतुष्ट होना होता तो ऐसा सवाल ही क्यों करता ?
  क्या कोई बता सकता था कि चीन का अगला कदम क्या होगा ?
इस आशय की खबर इंडियन एक्सप्रेस के 11 जनवरी, 2012 के अंक में प्रमुखता से छपी थी।

ं 

शनिवार, 20 जून 2020

    एक तो गिलोई,दूजे नीम चढ़ी !!
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पांच साल पहले जब मैंने अपने घर में शिफ्ट किया तो अहाते के भीतर और बाहर कई पौधे लगाए।
उनमें  नीम के दो पौधे भी थे जो सड़क और मेरी चारदीवारी के बीच में लगे थे।
समय के साथ दोनों पौधे वृक्ष बन गए।
पर जो नीम, गुल मोहर के बगल में था,वह अकारण सूख गया।
किसी ने बताया कि गुलमोहर जमीन से पानी बहुत खींच लेता है।
इसीलिए सूख गया।
पता नहीं !
खैर, दूसरा नीम मौजूद है।
उस नीम के पास गिलोई रोप दी गई है।
उसकी लता नीम पर चढ़ रही है।
एक तो गिलाई और दूजे नीम चढ़ी !!
सुनते हैं कि नीम-चढ़ी गिलोई और अधिक गुणकारी हो जाती है।
पता नहीं, इसकी खबर अमरीकावासियों को अभी है या नहीं !
जहां, अब नीम का प्रत्येक दातुन एक सौ दस रुपए में बिक रहा है ?
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     --सुरेंद्र किशोर - 20 जून 20

बुधवार, 17 जून 2020

‘‘खुदी को कर बुलंद इतना 
के हर तहरीर से पहले 
खुदा बन्दे से पूछे 
के बता तेरी रजा क्या है।’’
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अल्लामा इकबाल का  यह शेर 
व्यक्ति पर भी लागू हो सकता है और 
देश पर भी।
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देश को बुलन्द करने के लिए सरकारी 
भ्रष्टाचार को कम करके न्यूनत्तम स्तर पर लाना 
अत्यंत जरूरी है।
ताकि, सार्वजनिक धन  लूट में न चला जाए।
ताकि ,उन पैसों को बचाकर उसे लोगों के कल्याण व 
देश की आंतरिक -बाह्य सुरक्षा पर खर्च 
किया जाए।
.................
व्यक्ति के बुलंद होने के लिए उसे विनम्र, मेहनती और विद्या 
व्यसनी बनने की सख्त जरूरत है।
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--सुरेंद्र किशोर -- 17 जून 20  

किसी हिन्दी राज्य में एक ऐसी जगह नई शानदार 
फिल्म सिटी बसाई जानी चाहिए जहां तक उन माफिया
तत्वों की पहुंच न बन सके जो तत्व अभी फिल्मी
दुनिया पर राज कर रहे हैं।
  साथ ही सेंसर नियमों का कड़ाई से पालन होना चाहिए।
  --सुरेंद्र किशोर - 16 जून 20 

मंगलवार, 16 जून 2020

कभी पूरे देश में 70 विरोध सभाएं तो 
कभी विरोध की एक भी आवाज तक नहीं ???
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पिछले साल इसी महीने झारखंड में 
तबरेज अंसारी को उन्मादी भीड़ ने मार डाला।
बहुत गलत हुआ,भले तबरेज के खिलाफ चोरी का आरोप था।
किसी भीड़ को किसी अपराधी की भी जान लेने की छूट नहीं दी जा सकती।
पर,ऐसी भीड़ हत्याएं दूसरे समुदायों के लोगों की भी होती रही हैं।
उन हत्याओं के खिलाफ कब कितनी आवाज उठी ?
  तबरेज की माॅब लिंचिंग के खिलाफ देश भर में एक साथ गत साल 70 नगरों में विरोध प्रदर्शन हुए थे।
विरोध प्रदर्शन भी सही था।
    पर, इसी महीने अनंतनाग जिले में सरपंच अजय पंडिता की जेहादियों ने निर्मम हत्या कर दी ।
इसके बावजूद  70 नगरों में विरोध प्रदर्शन करने वालों में से किसी के मुंह से एक आवाज तक नहीं निकली।
 उनकी धर्म निरपेक्षता का यही ब्रांड है।
लगता है कि उनके लिए जेहाद और धर्म निरपेक्षता एक ही चीज है।
   टुकड़े-टुकड़े गिरोह, अवार्ड वापसी जमात  ,अर्बन नक्सल आदि तथा उनके समर्थक कुछ बड़े राजनीतिक दलों व नेताओं के ऐसे ही दोहरे रवैए के कारण भाजपा आज सत्ता में है ।
और, आगे भी उसके बने रहने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
क्योंकि कई लोगों व संगठनों की  एकांगी धर्म निरपेक्षता के रवैए में 
अब भी कोई परिवत्र्तन नहीं।
हालांकि सन 2014 के लोस चुनाव के बाद ए.के.एंटोनी कमेटी ने कांग्रेस की हार के कारण गिनाते हुए अपनी रपट में कहा था कि  
‘‘मतदाताओं को, हमारी पार्टी अल्पसंख्यक की तरफ झुकी हुई लगी जिसका हमें नुकसान हुआ।’’
  तबरेज अंसारी बनाम अजय पंडिता जैसे उदाहरण 
इस देश में आए दिन  सामने आते रहते हैं।
  अब आप ही बताइए कि भाजपा को मजबूत बनाने के लिए जिम्मेदार कौन हैं ?
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---सुरेंद्र किशोर--10 जून 20    

सोमवार, 15 जून 2020

पुनरावलोकन
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जेपी की तस्वीर की बात कौन कहे,
विनोबा भावे के अनशन तक की खबर  
नहीं छपने दी गई थी असली इमर्जेंसी मंे 
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जबकि, विनोबा जी ने दमनकारी आपातकाल को
 ‘अनुशासन पर्व’ कह कर उसका समर्थन किया था।
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  मीडिया की आवाज बंद कर देने के कुछ नमूने यहां प्रस्तुत हैं।
याद रहे ,ये कुछ ही नमूने हैं।
कुलदीप नैयर से लेकर गौर किशोर घोष तक देश के करीब 
200 पत्रकार आपातकाल में गिरफ्तार कर लिए गए थे।
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इमरजेंसी --1975-77 --में इंदिरा गांधी गांधी सरकार के प्रेस 
इंफाॅर्मेशन ब्यूरो से समय -समय पर मीडिया को कड़े आदेशात्मक 
निदेश दिए जाते 
रहते थे।
उन निदेशों के कुछ ही नमूने यहां दिए जा रहे हैं।
समाचार जगत उसी के अनुरूप काम करने को बाध्य था।
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25 और 26 जून 1975 के बीच की रात में देश में इमरजेंसी लगी।
जेपी सहित हजारांे नेताओं ,कार्यकत्र्ताओं को पकड़कर जेलों में बंद कर दिया गया।
पर, जेपी तक का चित्र अखबारों में नहीं छपने दिया गया।
तुर्कमान गेट की घटना की खबर नहीं छपी।
मई, 1976 में एक मशहूर भारतीय अभिनेत्री की लंदन में 
गिरफ्तारी हुई।
वह डिपार्टमेंटल स्टोर से सामान चुराते पकड़ी गई थी।
उस खबर को यहां छपने से रोक दिया गया।
अभिनेत्री सत्ता की करीबी थी।
गो हत्या पर प्रतिबंध की मांग पर जोर डालने के लिए 
विनोबा भावे 11 सितंबर, 1976 से आमरण अनशन करने वाले थे।
शासन के आदेश से इस संबंध में कोई खबर नहीं छपी।
पटना गोली कांड पर खबर नहीं छपने दी गई। 
16 जुलाई, 1976 को पी.आई.बी.से अखबारों को यह निदेश मिला कि जयप्रकाश नारायण के कहीं आने -जाने का समाचार न छापा जाए।
बड़ौदा डायनामाइट केस में कोर्ट में जार्ज फर्नांडिस ने बयान दिया था।
उसे भी छपने से रोक दिया गया।
लेकिन उसी केस के मुखबिर का अदालती बयान अखबारों के 
पहले पेज पर छपा।
इस तरह घोटा गया था मीडिया का गला।
जो  कुछ लोग जब यह कहते हैं कि आज देश में इमर्जेंसी वाली स्थिति है तो उन्हें यह पढ़कर फिर अपनी टिप्पणी देनी चाहिए।
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  26 जून 1975
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समाचार एजेंसियों के टेलीप्रिंटरों से सभी नेताओं की गिरफ्तारी के समाचार हटा दिए गए।
जेपी भी गिरफ्तार हुए थे,पर उनका फोटो तक किसी अखबार मंे नहीं छपने दिया गया।
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19 अगस्त 1975
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पी.आई.बी.का निदेश था कि गुजरात में राष्ट्रपति शासन हटाने और कांग्रेस सरकार के गठन से संबधित समाचार-टिप्पणी न छापें।
27 अगस्त 1975
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संसद के बारे में प्रधान मंत्री का वक्तव्य प्रकाशित नहीं किया जाए।
15 सितंबर 1975
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कुलदीप नैयर की याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट
का निर्णय नहीं छापें।
22 नवंबर 
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जेल से रिहा जेपी की बंबई यात्रा संबंधी रिपोर्ट सेंसर अधिकारी की स्वीकृति के बाद ही छापें।
जेपी के किसी फोटोग्राफ का इस्तेमाल नहीं करें।
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नोट--इस पोस्ट की अधिकतर सूचनाएं मैंने वरिष्ठ पत्रकार बलबीर दत्त की चर्चित पुस्तक
‘‘इमरजेंसी का कहर और सेंसर का जहर’’
से ली है।
करीब पौने पांच सौ पेज की यह किताब प्रभात प्रकाशन ने छापी है।
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-- सुरेंद्र किशोर-15 जून 20   

पुनरावलोकन
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‘गोदी मीडिया’ का कमाल था या आपातकाल 
जैसे हालात थे जब 1988 में बोफोर्स दलाल 
क्वोत्राचि के स्विस बैंक के गुप्त खाते 
का नंबर तक नहीं छप सका ? !!!
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मैं ‘जनसत्ता’ में छपी अपनी पुरानी रपटों को उलट रहा था।
मुझे वी.पी.सिंह के 4 नवंबर, 1988 के पटना भाषण की अपनी 
रिपार्टिंग मिली।
याद आया कि तब क्या-क्या  हुआ था।
वी.पी.सिंह ने उस भाषण में स्विस बैंक के एक खुफिया खाते का 
एक नंबर बताया था।
आरोप लगाया कि उस खाते में बोफोर्स  की दलाली के पैसे जमा हैं।
पूर्व रक्षा मंत्री ने यह भी चुनौती दी कि यदि खाता नंबर गलत हुआ तो मैं 
राजनीति छोड़ दूंगा।
  यह खबर ‘जनसत्ता’ में तो पहले पेज पर छपी।
पर अन्य अखबारों में ?
मुझे बताया गया कि कहीं और नहीं छपी।
यदि कहीं छपी हो तो कोई फेसबुक फें्रड अब भी मुझे संदर्भ देकर बता दें।
मैं अपनी अधूरी जानकारी को पूरा कर लूंगा।
क्या तब वह खबर रोक दी गई ?
किसने रोकी ?
किसने रुकवाई ?
या उन दिनों की मीडिया ‘‘गोदी मीडिया’’की 
भूमिका में थी ?
  हां,एक बात का पता मुझे बाद में चला।
एक न्यूज एजेंसी ने 4 नवंबर को 
ही उस खाता नंबर के साथ वी.पी.सिंह का भाषण जारी किया था।
पर उस खबर को बाद में ‘किल’ कर दिया गया।
ऐसा उपरी दबाव में हुआ ?
या खुद एजेंसी के मुख्यालय ने अपने विवेक
से काम किया ?
यह पता नहीं चल सका।
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खाता नंबर की सच्चाई
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बोफोर्स ने जिन प्रतिनिधि कंपनियों को भुगतान किया,उससे संबंधित 
कागजात की फेसीमाइल काॅपी मैं इस पोस्ट के साथ प्रस्तुत 
कर रहा हूं।
उसमें भी वही खाता नंबर लिखा हुआ है जिसकी चर्चा वी.पी.सिंह 
ने पटना में की थी।
  जब सी.बी.आई.ने बोफोर्स दलाली सौदे की जांच शुरू की तो उसे 
भी वही खाता नंबर मिला था।
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नरेंद्र मोदी के शासन काल में कोई कह रहा है कि चैकीदार चोर है,तो
वह भी छप रहा है।
कोई--इमरान मसूद --जन सभा में खुलेआम कह रहा है कि मोदी को 
बोटी -बोटी काट देंगे।
फिर भी कुछ लोगों के लिए आज इस देश मंे आपातकाल जैसी स्थिति है।
मीडिया पर अघोषित सेंसरशिप है।
‘गोदी मीडिया’ के जुमले का आए दिन इस्तेमाल हो रहा है।
  पर सवाल है कि जब एक अवैध आम्र्स दलाल के बैंक खाते का नंबर तक नहीं छपने दिया गया, आज के जुमलेबाजों के लिए तब आपातकाल जैसा हालात कैसे नहीं था ?
तब की मीडिया स्वतंत्र थी या किसी की गोदी में थी ?
अरे भई, ऐसे ही दोहरा मापदंडों के कारण देश के अधिकतर जुमलेबाजों 
की बातों को अधिकतर लोग नजरअंदाज ही करते जा रहे हैं।
ऐसा नहीं कि नरेंद्र मोदी सरकार कोई गलती नहीं करती।
पर जो गलती वह करती है,सबूतों के साथ उसको मीडिया में पूरा स्थान दो।
पर, उसने जो गलतियां नहीं कीं,उसके लिए भी दोषी ठहराओगे तो वह काम सिर्फ
अपनी साख की कीमत पर ही करोगे।
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----सुरेंद्र किशोर--13 जून 20  

  सुशांत सिंह राजपूत की आत्म हत्या
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 सुशांत की आत्म हत्या के बाद मेरी अपनी एक 
व्यथा याद आ गई।
कई साल पहले की बात है।
मुझे कुछ समय के लिए यह लगा था कि आत्म 
हत्या के अलावा मेरे 
पास कोई अन्य उपाय नहीं बचा है।
किंतु, फिर मैंने पुनर्विचार किया।
सोचा कि मैं तो इस तरह अपनी पीड़ा से मुक्त हो जाउंगा,
पर उनका क्या होगा जो मुझ पर निर्भर हैं।
या फिर मेरी ओर उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं।
मेरी पत्नी,मेरे बच्चे और कुछ अन्य !
  पर संयोग देखिए ! 
कुछ ही समय के बाद मेरी पीड़ा
 को दूर करने वाला मनुष्य के रूप में एक देवदूत मुझे 
मिल गया।
उसने मेरी समस्या दूर कर दी।
यदि मैं अपना संस्मरण लिख सका तो उस 
देवदूत का नाम भी लिख दूंगा।
उस व्यक्ति को भी अब तक नहीं मालूम कि उसने मेरी कितनी 
बड़ी मदद कर दी थी।
  खैर, सुशांत ने अपने निर्णय पर मेरी ही तरह पुनर्विचार किया 
होता तो शायद उसे भी कोई देवदूत मिल जाता जो उसकी समस्या हल  देता।
मुझे  फिल्में देखने का अब समय नहीं मिलता।
इसलिए सुशांत के महत्व को मैं पहले से नहीं जानता था।
पर, आज के अखबारों
 मंे सुशांत सिंह राजपूत पर भारी कवरेज को देखकर 
उसके महत्व का पता चला।
  मुझ पर आंसू बहाने वाले तो मुख्यतः मेरे परिवार के लोग होते,
पर सुशांत के परिवार के अलावा उसके इतने सारे फैन भी हैं।
   काश ! आखिरी कदम उठाने से पहले उसने पुनर्विचार 
कर लिया होता।
उन लोगों का उसे ध्यान रखना था जिन्होंने उसमें 
अपार भावनात्मक निवेश कर रखा है !
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-- सुरेंद्र किशोर --15 जून 20

शनिवार, 13 जून 2020

अभी से उभरने लगी हैं बिहार विधान सभा के आगामी चुनाव की तस्वीरें -सुरेंद्र किशोर


   
बिहार विधान सभा का चुनाव तो इस साल अक्तूबर-नवंबर में होगा,
पर, उसकी तस्वीरें अभी से उभरनी शुरू हो चुकी हैं।
कुछ मुख्य बातें तय हैं।
हाशिए की कुछ बातें तय होनी अभी बाकी हैं।
राजग की ओर से मुख्य मंत्री पद के उम्मीदवार इस बार भी नीतीश कुमार ही होंगे।अमित शाह एकाधिक बार इस बात की सार्वजनिक घोषणा कर चुके हैं।
  मुख्य विपक्षी दल राजद के तेजस्वी यादव को उम्मीदवार बनाएंगे,ऐसी उम्मीद की जा रही है।
 अभी वे बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता हैं।
हालांकि राजद के सभी सहयोगी दलों को तेजस्वी के नाम पर सहमत होना अभी बाकी है।
  दरअसल जन समर्थन के मामले में राजद के सामने उसका कोई अन्य सहयोगी दल कहीं टिकता नहीं।
राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार इसीलिए तेजस्वी के नाम पर उन्हें राजी होना ही होगा।
हां,सीटों के बंटवारे के सवाल पर राजग विरोधी दलों के  बीच कुछ खींचतान चल सकती है।वैसे भी हर चुनाव से पहले विभिन्न दल अपनी हैसियत बढ़ा-चढ़ाकर बताने लगते हैं।
यदि राजद के सहयोगी दल अपनी वास्तविक राजनीतिक ताकत के ही अनुपात में 
सीटों की मांग करेंगे तो गठबंधन के दलों के बीच तालमेल आसानी से हो जाएगा।
  अन्यथा,क्या होगा,कुछ कहा नहीं जा सकता।
  उधर भाजपा, जदयू और लोजपा के बीच सीटों के बंटवारे के काम में ऐसी कोई खास बाधा उत्पन्न होने वाली नहीं है जिसे दूर न किया जा सके।
   बिहार राजग ने लालू प्रसाद-राबड़ी देवी के शासन काल बनाम राजग के शासन काल की विफलताओं और उपलब्धियों को मुद्दा बनाया है।
उधर राजद मुख्यतः नीतीश शासन की विफलताओं को मुद्दा बना रहा है।
 पिछले कुछ आम चुनावों के रिजल्ट के आंकड़ों देखें तो भाजपा-जदयू-लोजपा यानी राजग का पलड़ा अभी भारी लगता है।
  वैसे समय बीतने के साथ इस मामले में स्थिति और साफ होगी।
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     औवेसी के दल की उपस्थिति 
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ताजा खबर के अनुसार आॅल इंडिया मजलिस ए इत्तेहाद -उल-मुस्लीमीन की बिहार शाखा ने राज्य की कुल 243 में से 32  सीटों पर चुनाव लड़ने का निर्णय किया है।राज्य शाखा के प्रधान अख्तरूल इमाम ने यह जानकारी दी है।
22 जिलों में फैली  उन 32 सीटों की सूची भी पार्टी ने जारी कर दी है।
किशनगंज विधान सभा सीट से  उप चुनाव के जरिए ओवैसी के दल के उम्मीदवार विजयी हो चुके हैं।
 इस तरह उनका खाता बिहार में खुल चुका है।उनका मनोबल बढ़ा हुआ है।  
  एआईएमआईएम ने समान विचार वाले दलों से तालमेल करने की इच्छा जाहिर की है।
   इस दल का अन्य दलों से कितना तालमेल हो पाएगा,यह देखना दिलचस्प होगा।
वैसे भाजपा विरोधी ‘सेक्युलर दलों’ को भी यह तय करना होगा कि 
ओवैसी के दल को बिहार में पैर पसारने देने से खुद उनको राजनीतिक नुकसान होगा या फायदा। 
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         वर्चुअल सभाओं के जरिए खर्च घटाएं
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बिहार भाजपा के अध्यक्ष डा.संजय जायसवाल के दावे पर विश्वास करें तो 
हाल में आयोजित बिहार जन संवाद में अमित शाह को करीब एक करोड़ लोगों ने सुना।
 डिजिटल माध्यमों के जरिए इतने अधिक लोगों तक अपनी बातें पहुंचाने
में यदि कोई दल समर्थ है तो फिर मैदानों में वास्तविक रैली पर करोड़ों रुपए खर्च करने की कोई मजबूरी नहीं रह जानी चाहिए।
विशेष परिस्थितियों  में ही पुराने व खर्चीले तरीके को अपनाया जा सकता है। 
एक जानकार व्यक्ति के अनुसार बिहार जनसंवाद में उतना ही खर्च आया जितना राज्य के एक बड़े नेता का प्रतिदिन का जेब खर्च होता है।
यदि कोरोना महामारी की विदाई के बाद भी ऐसी आभासी रैलियां जारी रहीं तो इस गरीब देश के अरबों रुपए बचेंगे।
शनिवार को दिल्ली में भाजपा की वर्चुअल यानी आभासी रैली होगी जिसमें  25 लाख लोग शामिल होंगे।
 जदयू अध्यक्ष व मुख्य मंत्री नीतीश कुमार  भी वर्चुअल सभाओं के जरिए ही जिलों के जदयू कार्यकत्र्ताओं से लगातार संपर्क बना रहे हैं।
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भूली बिसरी याद
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    12 जून, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को एक साथ 
तीन बड़े झटके लगे थे।
उस दिन सुबह में यह खबर आई कि उनके करीबी सलाहकार डी.पी.धर का निधन हो गया।तब धर साहब
की उम्र सिर्फ 57 साल थी।
वे इंदिरा जी के प्रमुख रणनीतिकारों में  थे। 
उन दिनों वे सोवियत संघ में भारत के राजदूत थे।
बंगला देश युद्ध के समय भी धर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
दिन के करीब दस बजे इलाहाबाद से यह  सूचना आई कि राजनारायण की चुनाव याचिका पर कोर्ट का निर्णय प्रधान मंत्री 
के खिलाफ हुआ।
अब एक और खबर गुजरात से आने वाली थी।वह भी शाम होते-होते
आ गई।
गुजरात विधान सभा चुनाव का नतीजा आने वाला था।
वहां से भी प्रधान मंत्री को निराश करने वाली खबर ही आई।
गुजरात कांग्रेस के हाथ से सत्ता निकल गई।
जनता मोर्चा ने चुनावी बाजी मार ली।
   इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय के बाद ही देश में इमरजेंसी लागू करने की पृष्ठभूमि तैयार हो गई थी।
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और अंत में
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प्रधान मंत्री किसान सम्मान निधि से किसानों को हर साल तीन किस्तों में
छह हजार रुपए केंद्र सरकार देती है।
उसी तर्ज पर एक नई योजना शुरू होनी है।
अनुसूचित जाति -जन जाति परिवारों को सीधे हर साल एक खास रकम भत्ते के रूप में देने की योजना शुरू करने के प्रस्ताव पर केंद्र सरकार विचार कर रही है।
इन समुदायों के कल्याण के लिए आवंटित धनराशि का बेहतर व पूर्ण उपयोग सुनिश्चित करने के लिए ऐसा प्रस्ताव सामने आया है।  
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कानोंकान,
प्रभात खबर,पटना
12 जून 2020



मंगलवार, 9 जून 2020


‘‘फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग को एक खुले पत्र में मैंने लिखा है कि दिल्ली दंगों पर टिप्पणी से पहले कृपया वह उन तथ्यों को पुष्ट करें कि अर्बन नक्सल और जिहादी तत्वों की जुगलबंदी ने कैसे ट्रंप की भारत यात्रा के दौरान माहौल बिगाड़ने की पटकथा बुनी थी।’’
                   --मोनिका अरोड़ा , वकील, सुप्रीम कोर्ट 
                       जून, 20


पुनरावलोकन-1
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इसी महीने 1975 में लागू हुई थी इमरजेंसी 
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8 जून, 1975
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‘‘तीन साल पहले तक जजों की नियुक्ति में इंटेलिजेंस ब्यूरो से कोई 
मतलब नहीं था।
पर, अब प्रधान मंत्री- इंदिरा गांधी -ने यह प्रथा चलाई है कि प्रस्तावित व्यक्तियों के राजनीतिक विचार व सहानुभूति जानने के लिए आई.बी.से पूछताछ जरूरी है।
दो साल पहले तक केवल सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और राज्य सरकार की संस्तुति पर्याप्त थी।
पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट में कई जजों की नियुक्तियां होनी हैं।
एक नाम पिछले साल भी विचाराधीन था।
पर अंत में भारत के मुख्य न्यायाधीश ने उनका अनुमोदन इस आधार
 पर नहीं किया कि उनकी निष्ठा पर संदेह था।
आई.बी.की रपट में भी यही बात कही गई थी।
कानून मंत्री एच.आर.गोखले ने कहा कि जब तक प्रधान मंत्री की निर्वाचन याचिका पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाती, तब तक वे मुख्य न्यायाधीश की बात नहीं टालना चाहते।
जो कुछ मुख्य न्यायाधीश कहें ,वही करना उचित होगा।
जो भी पक्ष इलाहाबाद हाईकोर्ट में हारेगा,सुप्रीम कोर्ट आएगा।’’
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--प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के संयुक्त 
सचिव बिशन टंडन की डायरी से ।

किसी प्रतिस्पर्धा के बिना
 ही गोल्ड मेडल पक्का  !!
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मैंने अपने गुरु से पूछा 
कि किस क्षेत्र में सबसे बढ़िया 
कैरियर बनने की संभावनाएं हैं
 तो उन्होंने कहा कि एक अच्छा 
इंसान बनने की कोशिश करो,
क्योंकि उसमें संभावनाएं अपार हैं 
और प्रतिस्पर्धा भी बहुत कम है।
           ---हर्ष गोयनका,
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     सामान्य शिक्षा को नहीं तो कम से कम 
     तकनीकी शिक्षा को तो कदाचार से बचा लो !
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 सन 1992 में कल्याण सिंह सरकार ने नकल विरोधी कानून बनाया।
मुलायम सिंह की सरकार ने 1994 में उस कानून को रद कर दिया।
दरअसल यू.पी.बोर्ड की परीक्षा में कदाचार पूरी तरह रोक देने के कारण कल्याण सिंह की सरकार 1993 के चुनाव में सत्ता से बाहर हो गई।
1992 में बाबरी ढांचा गिराने के कारण उत्पन्न भावना को भंजाने का चुनावी लाभ तक भाजपा को नहीं मिल सका था।
मुलायम सिंह यादव कदाचारी विद्यार्थियों व उनके अभिभावकों के ‘हीरो’ बन गए थे।
   यानी,मुझे यह लगने लगा है कि  चुनाव लड़ने वाली कोई भी सरकार आम परीक्षाओं में नकल नहीं रोक सकती।
उसके लिए शायद किसी तानाशाह शसक की जरूरत पड़ेगी।
या फिर कोई सरकार चुनाव जीतने के प्रथम साल से ही शिक्षा-परीक्षा माफियाओं पर नकल कसना शुरू कर दे तो शायद कुछ  बात बने।
  अपने ताजा पोस्ट में मैंने मेडिकल शिक्षा-परीक्षा को बेहतर बनाने की जरूरत बताई है।
कम से कम तकनीकी संस्थानों की हालत तो सुधरे !
  आज उद्योग जगत कहता है कि सिर्फ 27 प्रतिशत इंजीनियर ही ऐसे हैं जिन्हें नौकरी पर रखा जा सकता है।
 हमारे स्वास्थ्य की देखरेख करने वाले तो ठीकठाक पढ़ लिखकर निकलें।
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जब-जब शिक्षा -परीक्षा के ध्वस्त होने की बात होती है,तब -तब कई लोग अपनी -अपनी ‘सुविधा’ के अनुसार अपना ‘टारगेट’ तय करके आरोप का गोला दागने लगते हैं।
पर 1963 से इस संबंध में मैंने जो कुछ अपनी  आंखों से देखा है,उसे संक्षेप में शेयर करता हूं।
1.-राजनीति और प्रशासन में गिरावट के अनुपात में शिक्षा में भी गिरावट होनी ही थी।
हुई भी।
2.-पहले परीक्षाओं में ‘सामंतवाद’ था। 1967 से उसमें ‘समाजवाद’ आ गया।
3.-सरकारी नौकरियां देने के लिए कत्र्तव्यनिष्ठ उच्चपदस्थ अफसरों व सेना की देखरेख में उम्मीदवारों की कदाचारमुक्त प्रतियोगी परीक्षाएं हों।
छोटी -छोटी टुकड़ियों में सालों भर बड़े हाॅल में ऐसी परीक्षाएं होती रहें।
तभी सिर्फ योग्य लोग ही सेवाओं में आ सकेंगे।
अब भी योग्य लोग सेवा में हैं,पर कम संख्या में।
..........................
1963 में मैं मैट्रिक की परीक्षा दे रहा था।
जिला स्कूल में केंद्र था।
उस जिले के सबसे अधिक प्रभावशाली सत्ताधारी नेता के परिवार के एक सदस्य के लिए चोरी की छूट थी।
केंद्र में किसी अन्य के लिए वह ‘सुविधा’ उपलब्ध नहीं थी।
   बाद में काॅलेज का अनुभव जानिए।
मैं बी.एससी.पार्ट वन की परीक्षा दे रहा था।
संयोग से उस काॅलेज के एक उच्च पदाधिकारी के पुत्र की सीट मेरे ही हाॅल में पड़ी थी।
नतीजतन पूरे हाॅल को चोरी की छूट थी।
उसी केंद्र में किसी अन्य हाॅल में कोई छूट नहीं थी।
  ..........................
उन दिनों मेडिकल - इंजीनियरिंग काॅलेजों में माक्र्स के आधार पर दाखिला हो जाता था।
प्रैक्टिकल विषयों में कुल 20 में उन्नीस अंक मिल जाने पर कम तेज उम्मीदवार भी डाक्टर या इंजीनियर आसानी से बन जाते थे।
  संयोग से मेरा रूम मेट ही इन 250 रुपयों को इधर से उधर करता था।
न जाने कितनों को उसने डाक्टर-इंजीनियर बनवा दिया।
एक दिन मुझसे उसने पूछा, 
‘का हो सुरिंदर,तुमको भी नंबर चाहिए।
तुमको कुछ कम ही पैसे लगेंगे।’’
मैंने कहा कि मुझे कोई नौकरी नहीं करनी है।
मेरा वह रूम मेट खुद हाई स्कूल का शिक्षक बना।
एक दिन पटना शिक्षा बोर्ड आॅफिस के पास  संयोग से मिल गया था।
वैसे भी 200-250 रुपए मेरे लिए जुटाना तब मुश्किल था।
ऐसे गोरखधंघे के कारण ही माक्र्स के आधार पर दाखिला बाद में बंद हो गया।
..........................
  1967 के चुनाव के बाद परीक्षाओं में धुंआधार चोरी शुरू हो गई।
कहा भी जाने लगा कि ‘चोरी में समाजवाद’ आ गया।
महामाया सरकार ने उसे रोकने की कोशिश भी नहीं की।
छात्रगण महामाया बाबू के ‘जिगर के टुकड़े’ जो थे ! 
के.बी.सहाय की सरकार को चुनाव में हराने में छात्रों की बड़ी भूमिका थी।
1967 के आम चुनाव से पहले बड़ा छात्र और जन आंदोलन हुआ था।
छात्रों पर भी जमकर पुलिस दमन हुआ था।
मैं भी तब एक छात्र कार्यकत्र्ता था।
मैंने खुद परीक्षा छोड़ दी थी क्योंकि आंदोलन के कारण मेरी तैयारी नहीं हो पाई थी।
............................
1972 में केदार पांडेय की सरकार ने नागमणि और आभाष चटर्जी जैसे कत्र्तव्यनिष्ठ अफसरों की मदद से परीक्षा में चोरी को बिलकुल समाप्त करवा दिया।
  पर सवाल है कि अगले ही साल से ही फिर चोरी किसने होने दी ?
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1996 में पटना हाईकोर्ट के सख्त आदेश और जिला जजों की निगरानी में मैट्रिक व इंटर परीक्षाआंे  में कदाचार पूरी तरह बंद कर दिया गया।
..........................
पर, अगले ही साल से कदाचार फिर क्यों शुरू करवा दिया गया ?
किसने शुरू करवाया ?
क्या कदाचार की इस महामारी के लिए आप किसी एक दल एक सरकार या एक नेता या फिर किसी एक समूह को जिम्मेवार मान कर खुश हो जाना चाहते हैं ?
................................
--सुरेंद्र किशोर-7 जून 20   


सोमवार, 8 जून 2020

कोरोना मरीजों की संख्या की तुलना करने 
के लिए आबादी को आधार बनाइए
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आम तौर पर अखबार लिख रहे हैं कि कोरोना 
वायरस से सर्वाधिक 
पीड़ित देशों में भारत का कौन सा स्थान है।
उदाहरणार्थ, कल के एक अखबार का शीर्षक था--
‘‘भारत ने इटली को पीछे छोड़ा।’’
ऐसे शीर्षक सही स्थिति का बोध नहीं कराते।
क्योंकि इटली की आबादी करीब 6 करोड़ है तो 
भारत की करीब 131 करोड़।
  इस मामले में आज के दैनिक भास्कर ने
स्थिति स्पष्ट की है।
उसने देशों की आबादी को ध्यान में रखते हुए तुलनात्मक 
अध्ययन किया है।
भास्कर की एक खबर का उप शीर्षक है
‘‘भारत में दस लाख में सिर्फ 5 लोगों की मौत हुई है,
दुनिया का औसत 52 है।’’ 
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--सुरेंद्र किशोर - 8 जून 20

रविवार, 7 जून 2020

   दूरदर्शी कौन ? स्वप्नदर्शी कौन ??
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1.-1991 में पी.वी.नरसिंह राव -मन मोहन सिंह की जोड़ी ने
देश में आर्थिक सुधारीकरण की बड़े पैमाने पर शुरूआत की
थी।
राव-सिंह की सरकार कांग्रेस की ही सरकार थी।
पर, किसी ने तब भी यह सवाल नहीं पूछा कि जब राव-सिंह की 
जोड़ी ने सुधारीकरण किया तो उससे पहले बिगाड़ीकरण किसने 
किया था ?
वह कौन था ?
अनुमान लगाइए।
किसी का नाम लेने की जरुरत नहीं।
बस, इतना ही बता दीजिएगा कि ‘बिगाड़ीकरण’ करने वाला दूरदर्शी था या ‘सुधारीकरण’ करने वाला ?
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साठ के दशक में इस देश में ‘हरित क्रांति’ हुई।
 मैं किसान परिवार से ही आता हूं।
हम सबने बेहतर व पहले से अधिक फसल देखकर खुशियां मनाई थीं।
पर, धीरे- धीरे बात समझ में आने लगी थी।
 पहले के देसी गेहूं की रोटी में जो मिठास थी,वह बाद के 
विकसित गेहूं में नहीं रही।
एक बात और हुई।
 हरित क्रांति के लिए हमारी जमीन को भारी कीमत चुकानी पड़ी।
अधिकाधिक रासायनिक खाद - कीटनाशक दवाओं के कारण मिट्टी 
का स्वास्थ्य खराब होने लगा।उसका असर भूजल पर भी पड़ने लगा।
अनेक लोग कैंसर से जूझ रहे हैं। 
फिर भी दिल्ली के हमारे हुक्मरान ताना मारते थे।
कहते थे कि बिहार जैसे
पिछड़े राज्य में रासायनिक खाद की खपत अपेक्षाकृत कम है।
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कटु अनुभवों के बाद क्या स्थिति है !
   अब जैविक खेती पर जोर दिया जा रहा है।
हमारे पूर्व पत्रकार व पूर्व राज्य सभा सदस्य मित्र आर.के.सिन्हा ने हाल में कहा कि जिंदा रहने के लिए जैविक उत्पादों का सेवन कीजिए।
वे खुद करीब 50 एकड़ जमीन में जैविक खेती कर रहे हैं।
ऐसे अन्य हजारों लोगों ने रासायनिक खेती छोड़ दी है।
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अब बताइए कि खेतों में रासायनिक खाद-कीटनाशक यानी जहर पटा देने वाला दूरदर्शी था या आज जैविक खेती अपनाने वाला ?
याद रहे कि कटु अनुभवों के कारण जब अमेरिका में किसान जैविक खेती की ओर बढ़ रहे थे उन्हीं दिनों भारत में रासायनिक खेती का श्रीगणेश हो रहा था।
  हालांकि हमारे इलाके के कांग्रेसी विधायक व कट्टर गांधीवादी जगलाल चैधरी उन्हीं दिनों यानी साठ के दशक में ही गांवों में घूम -घूम कर यह कह रहे थे कि रासायनिक खाद का प्रयोग मत कीजिए।
यह मिट्टी के लिए खतरनाक है।
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सुरेंद्र किशोर--6 जून 20

   आज की पीढ़ी खोजती है नेहरू 
  युग पर लिखी मथाई की किताबें
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 ‘‘नेहरू युग -जानी अनजानी बातें’’ 
और ‘‘नेहरू के साथ तेरह वर्ष।’’
इन नामों से एम.ओ.मथाई ने दो किताबें लिखीं।
मूल किताबें अंग्रेजी में हैं।
मथाई 13 साल तक जवाहरलाल नेहरू के निजी सचिव थे।
नेहरू के बुलावे पर उनके निजी सचिव बने थे।
सत्तर के दशक में ये चर्चित व विस्फोटक किताबें आई थीं।
पर थोड़े ही दिनों के भीतर भारत सरकार ने उन पर प्रतिबंध लगा दिया।
वह इस देश में बिक्री के लिए उपलब्ध नहीं है।
कुछ लोग आॅनलाइन मंगा कर पढ़ते हैं।
कुछ महीने पहले तक एक किताब की कीमत करीब 5 हजार रुपए पड़ती थी।
अब शायद सस्ती हुई है।
 इस तरह देश के अधिकतर लोग नेहरू युग की शासन शैली व जानी-अनजानी बातें जानने से वंचित रह गए हैं।
वह समय देश के पुनर्निर्माण का था।
मथाई ने साफ साफ लिखा है कि हमारे तब के शासकगण उस काम में गंभीर थे या कुछ दूसरे ही काम कर रहे थे।
उन्होंने लिखा है कि आजादी के तत्काल बाद से ही किस तरह भ्रष्टाचारियों को खुली छूट दे दी गई थी।
यह छूट सरकार के भीतर के कुछ लोगों को थी और बाहर के कुछ लोगों को भी।
   इन किताबों में सिर्फ नेहरू के बारे में ही बातें नहीं हैं,बल्कि तब के अधिकतर  बड़े नेताओं के बारे में ऐसी -ऐसी बातें हैं जो आपको अन्यत्र कहीं पढ़ने को नहीं मिलेंगी।
 यानी मध्यकालीन भारत के इतिहास की बहुत सारी बातें राजनीतिक कारणों से इतिहास में दर्ज नहीं होने नहीं दी गईं।
उसी तरह नेहरू युग की बहुत सारी बातें जब लिख दी गईं तो उन किताबों को ही प्रतिबंधित कर दिया गया।
यानी मध्यकालीन भारत और नेहरू युग के पूरे इतिहास से इस देश के लोग वंचित हो गए।
हम अधूरे इतिहास पर संतोष कर रहे हैं।
  जो समाज अपना सही व पूरा इतिहास नहीं जान पाता ,वह  इतिहास की गलतियों को दुहराने के लिए अभिशप्त होता  है।
क्या मथाई की पुस्तकों पर से प्रतिबंध हटाने के निर्णय पर केंद्र सरकार
पुनर्विचार नहीं कर सकती ?
कई लोग यह सवाल करते हैं।
क्या सिर्फ मध्ययुगीन इतिहास के गलत तथ्यों को ही सुधारा जाएगा ?
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कुछ लोग कहते हैं कि उन किताबों में बहुत सी आपत्तिजनक बातें लिखी गई हैं।
यहां तक कि उन किताबों के छपने के बाद खुशवंत सिंह ने गुस्से में कह दिया था कि मथाई को चैराहे पर कोड़े लगाए जाने चाहिए।
    दूसरी ओर, मेरी समझ से मथाई ने नेहरू युग की अच्छी-बुरी दोनों तरह की बातें लिख दी हैं।
अच्छी बातें तो इतिहास के सारे पात्र स्वीकार कर लेते हैं।
पर अपने खिलाफ की शिकायत भरी बातों पर वे सख्त नाराज हो जाते हैं।
भले वे बातें सच्ची हों। 
नेहरू के प्रति मथाई के मन में जितना  सम्मान था,वह उनकी  एक टिप्पणी से प्रकट होती है,
‘‘जार्ज फर्नांडिस नेहरू के जूते के फीते बांधने लायक योग्यता भी नहीं रखता।’’
याद रहे कि जार्ज ने तब नेहरू के खिलाफ एक बयान दिया था जिस पर मथाई नाराज थे।
---सुरेंद्र किशोर--6 जून 20
  
       

शनिवार, 6 जून 2020

जनता से कटे कुछ नेतागण ! 
अब भी वक्त है !! 
शैली बदलिए  !!!
लोकतंत्र में प्रतिपक्ष भी सत्ताधारी 
की तरह ही महत्वपूर्ण हैं। 
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1.-नोटबंदी सन 2016 के नवंबर में लागू की गई।
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2.-पूर्व वित्त मंत्री पी.चिदंबरम ने कहा कि नोटबंदी 
ने देश के 45 करोड़ लोगों की कमर तोड़ दी।
--प्रभात खबर-14 दिसंबर 2016
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दूसरी ओर, सत्ताधारी दल ने कहा कि कमर किन्हीं और की 
टूटी है, गरीबों की नहीं।
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3.-कुछ ही महीनों के बाद उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव हुए।
भाजपा को 403 में से 310 सीटें मिल गईं।
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4.-चिदंबरम के अनुसार यदि गरीबों की कमर टूटी थी तो यू.पी.के 
सिर्फ अमीरों ने भाजपा को 310 सीटें दिला दी  ?
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5.-दरअसल चिदंबरम व उनके दल के अनेक नेताओं ने जनता से कट 
जाने के कारण 
 नोटबंदी को लेकर गलत धारणा फैलाने की कोशिश की।
यह भी संभव है कि जानबूझ कर उन लोगों ने ऐसा किया।
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6.-यह कोई इकलौता उदाहरण नहीं रहा।
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7.-भारत सरकार ने जुलाई 2017 में जी.एस.टी.लागू की।
उस पर राहुल गांधी ने कहा कि यह ‘गब्बर सिंह टैक्स’ है।
यानी, यदि उनकी बातें सच होतीं तो व्यापारी वर्ग भाजपा से 
सख्त नाराज हो जाते--जिस तरह शोले फिल्म के खूंखार डाकू 
गब्बर को देखकर रामपुर
वासी कांप जाते थे।भगदड़ मच जाती थी।
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8.-पर, न तो ऐसा होना था और न हुआ।
व्यवसाय प्रधान राज्य गुजरात में कुछ ही माह बाद 
विधान सभा के चुनाव हुए।
उस चुनाव के बाद भी  भाजपा राज्य की सत्ता में बनी रही।
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9.-लगता है कि तीसरी बार भी प्रतिपक्ष का वैसा ही आकलन आ रहा है ।
यह सच है कि लाॅकडाउन के बाद देश के प्रवासी मजदूरों को अपार कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है।
अब राजग विरोधी दलों के कुछ नेतागण मजदूरों की इस विपत्ति में अपने लिए चुनावी भविष्य देख रहे हैं।
लगता है कि पिछली दो बार गलत हो जाने के बावजूद उसी तरह का गलत अनुमान इस बार भी लगाया जा रहा है।यानी उनके अनुसार  मजदूर राजग को अगले चुनाव में सबक सिखाएंगे।
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इस पर अभी क्या कहा जाए !
प्रतीक्षा कर लेने में क्या नुकसान है !!
 चुनावों के नतीजे बता देंगे कि किसका अनुमान सही है।
  ताजा सर्वेक्षण के नतीजे तो बता रहे हैं कि केंद्र सरकार ने कोरोना महामारी से उत्पन्न समस्याओं से जिस तरह निपटने का प्रयास किया,उससे देश के अधिकतर लोग संतुष्ट हैं।
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10-बिहार के उप मुख्य मंत्री सुशील कुमार मोदी ने भी कल कहा  कि समय से लाॅकडाउन के कारण देश के लाखों लोगों की जिंदगी बचाई जा सकी।
अमेरिका जैसे देश में एक लाख 7 हजार लोगों की कोरोना से जान गई ,वहीं भारत में अब तक 5829 मौतें हुईं।
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11.-और अंत में
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 विभिन्न देशों में कोरोना महामारी से ग्रस्त लोगों की कुल संख्या बताने 
और अन्य देशों के बीच श्रेणीकरण करने का तरीका सही नहीं है।
  इस संख्या को इस तरह बताया जाना चाहिए कि प्रति एक लाख की जनसंख्या पर किस देश में कितने लोग कोरोना ग्रस्त हुए।
 याद रहे कि अमेरिका की आबादी करीब 33 करोड़ है,तो वहीं भारत की एक अरब 31 करोड़।
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सुरेंद्र किशोर-4 जून 20 


संपूर्ण क्रांति दिवस
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‘‘आग तो तुम्हारी कुर्सियों के नीचे सुलग रही है।’’
     --जयप्रकाश नारायण, 5 जून, 1974
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बिहार आंदोलन के दौरान 5 जून, 1974 को पटना के गांधी 
मैदान से जयप्रकाश नारायण ने ‘संपूर्ण क्रांति’ 
का आह्वान करते हुए कहा था कि 
‘‘ यह संघर्ष केवल सीमित उद्देश्यों के लिए नहीं हो रहा है।
उद्देश्य दूरगामी हैं।
भारतीय लोकतंत्र को रीयल यानी  वास्तविक तथा सुदृढ़ बनाना है।
जनता का सच्चा राज कायम करना है।
समाज से अन्याय,शोषण आदि का अंत करना ,एक नैतिक ,सांस्कृतिक 
तथा शैक्षणिक क्रांति करना,नया बिहार बनाना और अंततोगत्वा नया 
भारत बनाना है।यह संपूर्ण क्रांति है।’’
  तब के शासकों की ओर इंगित करते हुए जेपी ने यह भी कहा कि 
‘‘किसी को कोई अधिकार नहीं है कि जयप्रकाश नारायण को लोकतंत्र की शिक्षा दे।
यह पुलिसवालों का देश है ?
यह जनता का देश है।
मेरा किसी व्यक्ति से झगड़ा नहीं है।
हमें तो नीतियों से झगड़ा है।
सिद्धांतों से झगड़ा है।
कार्यों से झगड़ा है।
चाहे वह कोई भी करे मैं विरोध  
करूंगा।
यह आंदोलन किसी के रोकने से ,जयप्रकाश नारायण के भी रोकने से,
 नहीं रुकने वाला है।
कुर्सियों पर बैठते हो !
आग तो तुम्हारी कुर्सियों के नीचे सुलग रही है।
यूनिवर्सिटी -काॅलेज एक वर्ष तक बंद रहेंगे।
सात जून से एसेम्बली के चारों गेटों पर सत्याग्रह होंगे।
अब नारा यह नहीं रहेगा कि ‘विधान सभा भंग करो।’
नारा रहेगा ‘विधान सभा भंग करेंगे।’
इस निकम्मी सरकार को हम चलने न दें।
जिस सरकार को हम मानते नहीं ,
जिसको हम हटाना चाहते हैं,
उसको हम टैक्स क्यों दें ?
हमें कर बंदी आंदोलन करना होगा।’’
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आज भी कुछ लोग तंज कसते हुए यह पूछते हैं कि जेपी आंदोलन ने 
देश को क्या दिया ?
उसका संक्षिप्त जवाब यह है कि जेपी ने इमरजेंसी से देश को मुक्ति दिलाई।
साथ ही, केंद्र में 1977 में मोरारजी देसाई को प्रधान मंत्री बनवाया।
बिहार में कर्पूरी ठाकुर मुख्य मंत्री बने।
कोई भी खुले दिल-ओ -दिमाग वाला व्यक्ति आसानी से इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई के बीच का अंतर समझ सकता है।
उसी तरह डा.जगन्नाथ मिश्र और कर्पूरी ठाकुर के बीच का अंतर समझना भी
कठिन नहीं है।
यानी, जेपी के अंादोलन के बाद दोनों जगहों में साफ -सुथरे नेतृत्व ने गद्दी संभाली।
देसाई और कर्पूरी पर भ्रष्टाचार व वंशवाद का कभी कोई आरोप नहीं लगा
जो भारतीय राजनीति की आजादी के बाद से ही सबसे बड़ी बुराइयां रहीं।
   1990 में सत्ता में आए कुछ नेताओं को जेपी से जोड़ कर जो लोग जेपी आंदोलन को बदनाम करना चाहते हैं, वे मूल बात भूल जाते हैं ।
  सन 1990 के सत्ताधारी लोग बोफर्स अभियान और मंडल आंदोलन के कारण सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे थे और वर्षों तक बने भी रहे ,न कि जेपी आंदोलन के कारण।
  हां, एक बात जरूर हुई।
जेपी आंदोलन 1974 में शुरू हुआ
और 1975 में ही इमरजेंसी लगा दी गई।
19 महीनों के लिए देश को जेल में बदल दिया गया।
इमरजेंसी में जेल में ही जेपी की किडनी खराब हो गई या कर दी गई।
यानी, जेपी को अपने अनुयायियों को संस्कारित करने का अवसर बहुत 
कम मिला।
हां,संघर्ष वाहिनी के कुछ सदस्य जेपी के अधिक  करीबी
थे।उनका संस्कार बेहतर था।
मूल आंदोलनकारी संगठन छात्र-युवा संघर्ष समिति के कुछ सदस्य भी संस्कारित थे,पर सभी नहीं।कई अनगढ़ थे।
 जेपी जेल में अस्वस्थ नहीं हुए होते तो 1977 के बाद भी अन्य युवकों को भी उसी तरह संस्कारित करते जैसा वे खुद थे।
संस्कारित मतलब--‘‘राजनीति सत्ता के लिए नहीं, सेवा के लिए होती है।’’
एक बात तो तय है कि खुद जेपी को सत्ता का कभी मोह नहीं रहा।
केंद्र में सत्ता में भागीदार बनाने  का आॅफर जवाहरलाल नेहरू ने जेपी को दिया था।
पर जेपी की कुछ कड़ी शत्र्तें थीं जिन्हें मान लेना नेहरू के लिए तब संभव नहीं था।
इसलिए बात नहीं बनी।
याद रहे कि नेहरू और जेपी के बीच स्नेहपूर्ण संबंध था।
उसी तरह का संबंध कमला नेहरू और प्रभावती जी के बीच था।
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--सुरेंद्र किशोर -- 5 जून 20