बुधवार, 26 मार्च 2014

खुशवंत के जीवन में एक अफसोस और एक कुख्याति

खुशवंत सिंह को इस बात का अफसोस रहा कि ‘मैंने जीवन का बहुत सा हिस्सा वकालत और राजनयिक सेवा जैसी व्यर्थ की नौकरी में गंवा डाला। काश ! मेरा वह समय भी लिखने में लगा होता।’

  याद रहे कि 1939 से 1947 तक उन्होंने लाहौर हाईकोर्ट में वकालत की। वकालत चल नहीं रही थी। बैठे -बैठे मक्खियां मारने की नौबत थी।

1947 में विदेश मंत्रालय की नौकरी कर ली। लंदन में भारतीय उच्चायोग में सूचना अधिकारी बन गये। पर तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त वी.के. कृष्ण मेनन से तालमेल नहीं बना पाने के कारण खुशवंत का ओटावा तबादला कर दिया गया। 

   एक साक्षात्कार में उन्होंने लेखिका उषा महाजन को 1997 में एक और बात बताई थी, ‘लोग मुझे नाहक शराबी, कबाबी और व्यभिचारी समझते हैं जबकि मैं ऐसा नहीं हूं। इस नाहक कुख्याति का भी उन्हें अफसोस रहा। पर उन्होंने यह स्वीकारा कि मानता हूं कि अपनी इस कुख्याति के लिए मैं खुद ही जिम्मेदार हूं।

उन्होंने कहा ः दरअसल मेरी यह छवि बंबई में इलेस्ट्रेटेड वीकली के संपादन के दौरान बीते नौ वर्षों की देन है। वहांं मैंने सेक्स जैसे प्रतिबंधित विषयों पर लिखने की शुरुआत की और लड़कियों की अर्धनग्न तस्वीरें छापीं। इससे पत्रिका की प्रसार संख्या 80 हजार से बढ़कर चार लाख से भी अधिक हो गई।ल ेकिन दुर्भाग्यवश इसके साथ ही एक ऐसी छवि भी अर्जित कर ली जो मेरी सही तस्वीर न होते हुए भी आज तक मुझसे चिपकी हुई है। मेरे परिवारवाले और मुझे करीब से जानने वाले जानते हैं कि मैं वैसा नहीं हूं।

मैं न तो शराबी हूं और न ही औरतों आशिक हूं। दिन भर पढ़ने -लिखने और लोगों से मिलने का इतना काम रहता है कि इन सब चीजों की फुर्सत ही नहीं मिल सकती।

सिर्फ शाम में मैं अपनी ड्रिंक के साथ रिलैक्स करता हूं। ज्यादा कभी नहीं पीता वरना दूसरे दिन काम कैसे करूंगा ? अपनी पूरी जिंदगी में मैंने एक बार भी शराब पीकर अपने होश नहीं खोये।

  खुशवंत सिंह ने जब भी किसी को कोई इंटरव्यू दिया, उन्होंने सच्ची बातें बता दीं। ऐसी बातें भी जिन्हें आम तौर पर लोग छिपा जाते हैं।

 हाल ही में दिल्ली की एक हिंदी पाक्षिक पत्रिका से बातचीत में उन्होंने कहा था कि संजय गांधी के कहने पर मुझे एक अंग्रेजी दैनिक का संपादक बनाया गया था।

 उन्होंने यह भी स्वीकारा था कि उनकी नेहरु-इंदिरा परिवार से नहीं बल्कि सिर्फ संजय गांधी से घनिष्ठता थी। इंदिरा गांधी के कहने पर मुझे उस अखबार के संपादक पद से हटा दिया गया था।

इस साल के प्रारंभ में उनसे पूछा गया था कि इस उम्र में भी सक्रिय रहने का राज क्या है ? उन्होंने बताया कि मैं अपने जीवन में बहुत सख्त हूं। कम खाता हूं। मैं बहुत कम पीता हूं। ज्यादातर तरल लेता हूं। क्योंकि वह पचाने में आसान होता है।

 कई विधाओं में कलम चलाने वाले खुशवंत सिंह ने सिख इतिहास भी लिखा था जिसकी शुरू के दिनों में व्यापक चर्चा भी हुई।वे कथाकार थे। ट्रेन टू पाकिस्तान उनका चर्चित उपन्यास है जिस पर फिल्म भी बनी। अपनी पुस्तकों में से ‘दिल्ली’ को वे सर्वाधिक पसंद करते थे।

साहित्यिक पुरस्कारों के बारे में उन्होंने अपनी राय करीब डेढ़ दशक पहले ही बता दी थी। उन्होंने कहा था कि ‘जिनको अवार्ड मिलते हैं, वे अपने आप को वोट देकर अवार्ड ले लेते हैं। खुद को कैनवैस करके, लोगों के आगे -पीछे लग कर न जाने कितनी सेकेंड ग्रेड की किताबों को मिल जाते हैं पुरस्कार ! मैंने उनमें से एक भी किताब बाजार में नहीं देखी।

    ‘राज्यसभा की सदस्यता के बारे में उन्होंने कहा था कि राज्यसभा की सदस्यता ऐसे नहीं मिलती है। मांगनी पड़ती है। कैनवेसिंग करनी पड़ती है। इसके लिए बहुत तरफ से दबाव पड़ रहे होते हंै उन पर।’ उनसे पूछा गया था कि आपके मित्र इंदर कुमार गुजराल अब प्रधानमंत्री हैं। क्या आपको पुनः राज्यसभा की सदस्यता कर उम्मीद है ? खुशवंत सिंह 1980 से 1986 तक राज्यसभा के सदस्य थे।

 खुशवंत सिंह की याद आते ही एक और सवाल बरबस जेहन में कौंध जाता है। खुशवंत सिंह ने अधिक पुस्तकें लिखीं या उनके पिता सर सोभा सिंह और दादा सरदार सुजान सिंह ने अधिक बिल्डिंगें बनवार्इं ?

वे दिल्ली के सबसे बड़े ठेकेदार थे। सचिवालय का साउथ ब्लाॅक, इंडिया गेट, आकाशवाणी भवन, राष्ट्रीय संग्रहालय, बड़ौदा हाउस और सैकड़़ों सरकारी बंगले उन्होंने बनवाये।

  (जनसत्ता के 21 मार्च 2014 के अंक में प्रकाशित)  
     
      


बुधवार, 19 मार्च 2014

आसान नहीं है मणिकांत वाजपेयी को भूल जाना

 जिन थोड़े से पत्रकारों को मैं श्रद्धापूर्वक याद करता हूं, उनमें मणिकांत वाजपेयी शामिल हैं। उनका इसी 18 मार्च, 2014 को निधन हो गया।

उन्हें भूल पाना मेरे लिए आसान नहीं होगा। पटना में उनके साथ बैठकर मैं देर तक उनसे बातें किया करता था। उनसे भी मैंने कुछ सीखा है। उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी, उनकी विनम्रता और अपने काम के प्रति उनकी अटूट निष्ठा अनुकरणीय थी।

मेरे पत्रकार जीवन का वह निर्माण काल था जब मैं पहली बार वाजपेयी जी से पटना में मिला था। अच्छा हुआ कि तब वाजपेयी जी के साथ बैठने व बतियाने का मुझे सौभाग्य मिला।,तब मैं उनके सामने हर तरह से जूनियर था। पर उन्होंने ऐसा कभी मुझे आभास नहीं होने दिया।

,  पटना रेडियो स्टेशन के महत्वपूर्ण पद पर रहकर काम करना हमेशा ही एक चुनौती भरा दायित्व रहा है। उन दिनों तो रेडियो का और भी अधिक महत्व था। क्योंकि तब तक मीडिया का आज की तरह विस्तार नहीं हुआ था। प्रभावशाली नेता कौन कहे, छुटभैया नेताओं की भी यही इच्छा रहती थी कि उनका नाम शाम के बुलेटिन में जरुर आ जाये।

  इसको लेकर वाजपेयी जी को अक्सर धमकियां मिलती थीं। पर वे धमकियों में नहीं आते थे। वे खबरों के साथ कोई पक्षपात नहीं करते थे। ऐसा उनके सहकर्मी भी बताते रहे हैं।

  वाजपेयी जी सूचना सेवा के बड़े -बड़े पदों पर रहे। सेवाकाल के अंतिम दिनों में वे डिपुटी प्रिंसिपल इंफोर्मेशन अफसर थे। इसके बावजूद जब वे रिटायर हुए तो उनका बनवाया हुआ अपना कोई मकान या फ्लैट नहीं था।
 हां, उनकी तपस्या का फल उन्हें इस रूप में जरूर मिला कि उनकी संतानें संस्कारी हैं।

उनके यशस्वी पुत्र पुण्य प्रसून वाजपेयी की ईमानदारी की चर्चा दिल्ली से पटना तक वे सब लोग करते हैं जो उन्हें किसी न किसी रूप में जानते हैं।

आज के समय में टी.वी. पत्रकारिता का इतना बड़ा नाम और इतनी कठोर ईमानदारी !

सुखद आश्चर्य होता है। पिता के संस्कार और परवरिश का इसमें बड़ा योगदान माना जाएगा। पिछले कुछ साल से वाजपेयी जी बीमार थे। वे एक लाइज बीमारी से ग्रस्त थे। उनके परिवार ने उनकी बड़ी सेवा की।

  मणिकांत जी के साथ रेडियो में काम कर चुके महेश कुमार सिन्हा और पत्रकार मोहन सहाय ने बारी -बारी से दिल्ली से फोन पर मंगलवार को मुझे यह दुःखद समाचार दिया। वे मेरे प्रति वाजपेयी जी के स्नेहल व्यवहार को जानते थे। हालांकि तब तक दूरदर्शन का पटना केंद्र यह समाचार दे चुका था।

  महेश कुमार सिन्हा के अनुसार वाजपेयी जी अपने काम के प्रति ईमानदार पत्रकार थे। खबर देने के मामले में वे हमेशा तत्पर रहते थे।

 स्टेट्समैन के पटना संवाददाता रह चुके मोहन सहाय बताते हैं कि वे स्वच्छ दिल के मिलनसार व्यक्ति थे। उनके बारे में अनेक समकालीन लोगों की भी ऐसी ही राय रही है।

  अच्छा लगता ,यदि पटना के अखबारों में भी उनके निधन की खबर आज आ गई होती।

  दरअसल अपवादों को छोड़ दें तो पुरानी पीढ़ी के पत्रकारों की खोज -खबर आज का मीडिया ऐसे भी कम ही लिया करता है। जबकि उन पत्रकारों के पास राजनीति, प्रशासन तथा समाज के अन्य वर्गों के बारे में एक तुलनात्मक दृष्टि होती है। उनसे सीखा जा सकता है।

 उनके अनुभव बांटे जाने चाहिए। वैसे भी उन में से कई पत्रकार अपने जमाने में राजनीति व प्रशासन को प्रभावित कर चुके होते हैं। पर आज उनमें से अधिकतर पत्रकार उपेक्षित जीवन बिता रहे होते हैं। वैसे भी कुछ दशक पहले तक पत्रकारिता में पैसे भी तो कम ही मिलते थे।

  विडंबना यह है कि उनमें से कुछ पत्रकारों के निधन की खबर उनको जानने वाले थोड़े से लोगों के जरिए ही मिल पाती है। जबकि उन पत्रकारों ने खुद अपने कार्यकाल में न जाने कितने लोगों की खबरें आम लोगों तक पहुंचाईं होगी।

रविवार, 16 मार्च 2014

बलिदान की भूमि पर आदर्शों की हत्या

  बिहार में इस बार जितने बड़े पैमाने पर टिकट के लिए दल -बदल हो रहे हैं, उतने इससे पहले कभी नहीं हुए। बिहार कभी सेवा, त्याग और बलिदान वाली राजनीति की भूमि रहा है। अब तो उसे पहचानना ही मुश्किल है।
सवाल यह नहीं है कि कितने लोग दल -बदल कर रहे हैं। सवाल यह है कि आज की राजनीति में कौन ऐसा नेता बचा है जिसका टिकट कट जाने के बावजूद वह अपने दल में बना रह जाएगा ?

किसी नेता को अपनी पत्नी के लिए टिकट चाहिए तो किसी को अपने पति के लिए। किसी की संतान टिकट के लिए मचल रही है तो कोई खुद टिकट के बिना जिंदा नहीं रह सकतां।

  टिकट के लिए इस चूहा -दौड़ को देख कर लगता है कि आज टिकट धर्मा, टिकट कर्मा, धर्मा-कर्मा टिकट-टिकट ही हो चुका है।

    बिहार की इसी धरती पर डा. राजेंद्र प्रसाद हुए थे जिन्होंने 1949 में जवाहर लाल नेहरू को यह लिख कर दे दिया था कि मैं किसी पद का उम्मीदवार नहीं हूं। उनसे पंडित नेहरू ने पूछा था कि क्या आप राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हैं?

यह और बात है कि बाद में सरदार पटेल और दूसरे नेताओं के हस्तक्षेप के बाद राजेंद्र बाबू राष्ट्रपति बने थे।
  जय प्रकाश नारायण कभी सक्रिय राजनीति में भी थे, पर खुद कभी चुनाव नहीं लड़े। बाद में जेपी ने उपप्रधानमंत्री बनाने के नेहरू के आॅफर को ठुकरा दिया था।

आजादी के समय के बिहार कांग्रेस के दो सर्वाधिक प्रमुख नेता डा. श्रीकृष्ण सिन्हा और डा.अनुग्रह नारायण सिन्हा कभी टिकट के लिए आवदेन पत्र तक ंनहीं देते थे।

उन्हें पार्टी टिकट आॅफर करती थी। तब श्रीबाबू मुख्यमंत्री व अनुग्रह बाबू वित्त मंत्री थे।

 समाजवादी नेता व पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर से जब 1980 में उनकी पार्टी ने कहा कि आपके पुत्र को भी हम लोग विधानसभा का चुनाव लड़वाना चाहते हैं तो कर्पूरी ठाकुर ने कहा कि उसे दे दीजिए, पर तब मैं खुद नहीं लडूंगा। क्योंकि परिवार के किसी एक ही व्यक्ति को चुनाव लड़ना चाहिए। बिहार के ताजा राजनीतिक इतिहास में ऐसे अन्य अनेक उदाहरण मिलेंगे।

2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजद नेता जगदानंद सिंह ने रामगढ़ विधानसभा क्षेत्र में अपने पुत्र को हरवा दिया। उनका पुत्र भाजपा से उम्मीदवार था। जगदानंद ने एक यादव कार्यकर्ता को उम्मीदवार बनवा कर बेटे को हराया।

इससे पहले कोई यादव उम्मीदवार उस क्षेत्र से चुनाव जीत नहीं पाया था। क्योंकि वह राजपूतबहुल क्षेत्र है। जगदानंद सिंह खुद राजपूत परिवार से आते हैं। उन पर लालू प्रसाद का दबाव था कि वे अपने बेटे को ही राजद का उम्मीदवार बनायें। पर उन्होंने नहीं बनाया। 

जगदानंद बक्सर से निवर्तमान सांसद हैं। पर इसके विपरीत आज अपने ही घोषित नीति -सिद्धांत, दलीय आस्था और नेतृत्व के प्रति निष्ठा को तिलांजलि दे -दे कर बड़ी संख्या में नेतागण दल बदल कर रहे हैं और परिवारवाद को बढ़ावा दे रहे हैं।

  लगता है कि संसद की सीट नहीं हो बल्कि स्वर्ग की सीढ़ी हो।

बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष चैधरी महबूब कैसर का एल.जे.पी. में जाना और राजद नेता रामकृपाल यादव का भाजपा ज्वाइन करना लोगों को चैंकाता है।

यानी चुनावी टिकट के समक्ष सांप्रदायिकता व सामाजिक न्याय के मुद्दे कुछ भी नहीं हंै। वंे मुददे भी सिर्फ मतदाताओं को मूर्ख बनाने के लिए हैं। 

  रामविलास पासवान यह काम पहले ही कर चुके हैं। पर उनके ताजा ‘दिल-बदल’ को देखकर कम से कम उन लोगों को कोई आश्चर्य नहीं हुआ जो 2002 में उनके राजग छोड़ने की असलियत को जानते हैं।

   ऊपर दिये गये कुछ नाम तो नमूने मात्र हैं। दल बदल की महामारी व टिकट के लिए मारामारी से कोई दल वंचित नहीं है। बड़े नेताओं की ओर से ऐसे कामों के लिए पूरा उकसावा है।

  आखिर ऐसे दल बदलु लोग किसी न किसी कीमत पर संसद में क्यों जाना चाहते हैं? क्या वे राष्ट्रहित में सार्थक चर्चा करने के लिए उतावले हैं ? क्या ऐसा कुछ इन दिनों संसद में हो भी रहा है ?

 क्या इन दिनों संसद में देशहित के गंभीर मुद्दे पर कभी कोई आम सहमति बन भी पा रही है ?

  क्या भ्रष्टाचार, महंगाई, संसद के भीतर की रोज ब रोज की अराजकता तथा दूसरे जरुरी मुद्दों पर कोई सार्थक व कारगर बहस हो पा रही है ?

राजनीति में धन बल, बाहुबल व कारपोरेट बल के बढ़ते प्रभाव को रोकन के लिए संसद कोई काम कर भी रही है ?

 इसके विपरीत जनहित में जो कुछ भी कदम उठाए जा रहे हैं, वे आम तौर पर  अदालतों व मीडिया के दबाव के कारण ही।

 ऐसे में दल बदलु लोगों, नव कुबेरों, स्वार्थी तत्वों और आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को संसद में भेज कर मतदातागण देश का कौन सा भला करेंगे ?

यदि थोड़े से  अपवादों को छोड़ दें तो दल बदल करने वालों में से अधिकतर नेताओं के जीवन में शुचिता नाम की कोई चीज नहीं है।

  देश व लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि अधिकतर राजनीतिक दलों ने ऐसे ही लोगों को भेजने की तैयारी कर ली है। इस स्थिति में राजनीतिक प्रेक्षकों व देश का भला सोचने वालों की राय है कि अब यह जिम्मेदारी मतदाताओं पर है जो ऐसे लोगों को कत्तई तरजीह नहीं दें।राजनीतिक दलों की गलतियां सुधारने की जिम्मेदारी अब मतदाताओं पर आ पड़ी है। 


(इस लेख का संशोधित अंश जनसत्ता के 15 मार्च 2014 के अंक में प्रकाशित)

रविवार, 9 मार्च 2014

लेकिन मंडल परिवार से कोई आईएएस क्यों नहीं बना !

मंडल- आरक्षण पर 1994 में जनसत्ता में छपे नेताओं के बयान 


पटना , 18 अगस्त। सामंती पृष्ठभूमि के दो नेता बिहार के मुख्यमंत्री बने। ये थे बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल और सत्येंद्र नारायण सिंह। सवर्ण सत्येंद्र नारायण सिंह के परिवार और उनके रिश्तेदारों के घरों में अनेक आई.ए.एस. और आई.पी.एस. बने। लेकिन पिछड़ा वर्ग के बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल का परिवार अब तक एक भी आई.ए. एस. या आई.पी.एस. पैदा नहीं कर सका।

  क्रीमी लेयर यानी मलाईदार परत की अवधारणा के विरोधी यह कह रहे हैं कि पहले तो सवर्ण लोगों ने जातीय आधार पर बेईमानी की। अब वे लोग क्रीमी लेयर का बंधन लगाकर बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल और पूर्व मुख्यमंत्री दारोगा प्रसाद राय जैसे संपन्न पिछड़ों के परिजनों को आरक्षण के लाभ से वंचित करना चाहते हैं।
वे कहते हैं कि आरक्षण की लड़ाई सिर्फ नौकरियों के लिए नहीं, बल्कि सम्मान व राजपाट में हिस्सेदारी की लड़ाई का भी हिस्सा है।

  मलाईदार परत के विरोधी यह भी कहते हैं कि धन संपत्ति, लाठी और दूसरे मामलों में बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल और सत्येंद्र नारायण सिंह और उनके रिश्तेदारों के परिवारों में कोई खास फर्क नहीं है। फर्क यही है कि श्री मंडल के परिवार में कोई आईएएस या आईपीएस नहीं है। इसलिए मंडल परिवार एक खास प्रकार की हीन भावना से भी ग्रस्त है। आरक्षण से संबंधित मंडल आयोग की रपट से इस भावना से मुक्ति मिलने वाली थी। पर, सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर का बंधन लगा कर धनी पिछड़ों के साथ अन्याय किया है।

 जनता दल ने क्रीमी लेयर की अवधारणा का प्रारंभ से ही विरोध किया है। इसीलिए जब बिहार सरकार को पिछड़ों की मलाईदार परत की पहचान करनी पड़ी तो उसने ऐसा मापदंड तय किया जिसके तहत आरक्षण के लाभ से राज्य का शायद ही कोई पिछड़ा वंचित हो।

लालू कहते हैं कि वे क्रीमी लेयर लगाकर पिछड़ों की एकता तोड़ना नहीं चाहते।

लालू सरकार ने रिटायर आई.ए.एस. यूएन सिन्हा की अध्यक्षता में क्रीमी लेयर की पहचान के लिए समिति बनाई थी। समिति ने जो रपट सरकार को दी, उसमें संशोधन के साथ राज्य सरकार ने उसे स्वीकार किया है।
 राज्य सरकार ने क्रीमी लेयर की छंटाई के लिए जो मापदंड तैयार किया है वह जाहिर है कि बिहार सरकार की नौकरियों पर लागू होगा। लेकिन लालू प्रसाद की जनता दल सरकार ने इस बात को ध्यान में रखकर यह मापदंड तय किया है कि ताकि उसे मौका मिलने पर केंद्र की नौकरियों के लिए भी लागू किया जा सके।

हालांकि जनता दल निकट भविष्य में केंद्र में सत्ता पा सकेगा, ऐसी उम्मीद बहुत थोड़े से लोग ही कर सकते हैं। केंद्र की नौकरियांे के लिए क्रीमी लेयर की छंटाई का काम आर.एन. प्रसाद की समिति ने किया है। आर.एन. प्रसाद की समिति की रपट के अनुसार केंद्र की नौकरियांे में आरक्षण का लाभ उन परिवारों को नहीं मिलेगा जिसकी साल में एक लाख रुपये से अधिक आमदनी है।

पर मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने कहा है कि बिहार में पिछड़ों में कोई क्रीमी लेयर यानी संपन्न तबका नहीं है। क्रीमी लेयर केंद्र सरकार का ब्रहमपाश है जिसके जरिए वह पिछड़ों को मारना चाहती है। क्रीमी लेयर को मैं बधिया आरक्षण मानता हूं। जनता दल के लोहियावादी विधायक राधाकांत यादव ने जनसत्ता को बताया कि पिछड़ों के जिस सपन्न तबकों में नौकरियों के लिए योग्य उम्मीदवार उपलब्ध है, उन्हें तो केंद्र सरकार क्रीमी लेयर के नाम पर छांटना चाहती है। लेकिन जिस कमजोर तबके मेें अभी योग्य उम्मीदवार नहीं हैं, उसे आरक्षण का लाभ देने का ढांेग कर रही है।

डा.राम मनोहर लोहिया ने भी कहा था कि पिछड़ों को जब कुछ मिलने लगेगा तो उसका लाभ पहले वहीं उठाएंगे जो अपेक्षाकृत खुशहाल और दबंग हैं। श्री यादव ने कहा कि हालांकि लोहिया की आरक्षण नीति और आज की आरक्षण नीति में फर्क आ चुका है। आज अरक्षण की लड़ाई में सुविधा और सत्ता में हिस्सेदारी की लड़ाई भी है।

  यू एन सिन्हा समिति के सदस्य डा. राम उदगार महतो ने बताया कि यहां दस लाख रुपये सालाना से अधिक आय और बीस लाख रुपये से अधिक की अचल संपत्ति वाले लोग मलाईदार परत में आएंगे। उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।

डा.महतो ने कहा कि यदि आर.एन. प्रसाद समिति का मापदंड यहां लागू किया जाए तो कोई पिछड़ा यहां किसी काॅलेज का प्रिंसिपल तक नहीं बन सकता।

उन्होंने यह भी कहा कि यदि आर.एन. प्रसाद समिति का मापदंड यहां लागू कर दिया जाए तो पिछड़ों के लिए आरक्षित सीटें खाली रह जाएंगी। जिस तरह अनुसूचित जाति  के लिए आरक्षित सीटें खाली रहती हैं। अभी पूरे बिहार में सिर्फ सात या आठ हरिजन ही विश्वविद्यालयों में टीचर हैं। प्रोफेसर तो शायद एक भी नहीं।

  दूसरी ओर, खुद यू.एन. सिन्हा समिति के एक बागी सदस्य प्रो.कमलेश्वरी साह ने यह सुझाव दिया था कि विधायक , सांसद या मंत्री जो दो बार चुनाव जीत चुके हैं, उनके परिवार के सदस्यों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए।

  लालू सरकार ने इसे नहीं माना। क्रीमी लेयर से संबंधित लालू सरकार के मापदंड के खिलाफ डा.जगन्नाथ मिश्र ने राज्यसभा मे आवाज उठाई तो केंद्रीय कल्याण मंत्री सीताराम केसरी ने उसकी जांच कराने का आश्वासन दिया। जनसत्ता से बातचीत में डा.मिश्र ने कहा कि इस बारे में लालू सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के खिलाफ काम किया है। इससे साफ हो गया है कि लालू प्रसाद पिछड़ों के सुखी संपन्न व उच्च पदस्थ लोगों के पक्षधर हैं। अन्य पिछड़ों और गरीब पिछड़ों के प्रति उनकी निष्ठा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की मंशा है कि पिछड़ों का वास्तविक गरीब और कमजोंर तबका आरक्षण का लाभ उठाए। जो पिछड़े सामान्य लोगों के बराबर आ चुके हैं, उन्हें क्रीमी लेयर मान कर छांट दिया जाए।

समाजवादी पार्टी के लक्ष्मी साहु ने क्रीमी लेयर के संबंध में बिहार सरकार के रवैये के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखा है और हस्तक्षेप की मांग की है।

भारतीय जनता पार्टी की बिहार शाखा के अध्यक्ष कैलाशपति मिश्र ने कहा कि हमारी पार्टी हमेशा 27 प्रतिशत आरक्षण के पक्ष में रही है। लेकिन हम यह भी चाहते हैं कि उसका लाभ पहले उन लोगों को मिले जो गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं।

जनता दल (जार्ज) के सांसद सैयद शहाबुददीन ने कहा है कि क्रीमी लेयर के बारे में बिहार सरकार के फैसले से सुप्रीम कोर्ट की अवमानना होती है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने एक खास मकसद के तहत सरकार से कहा था कि वह क्रीमी लेयर की पहचान करे। लालू सरकार ने उस मकसद के खिलाफ काम किया हे।

सी.पी.आइ. (एम एल-लिबरेशन) की बिहार शाखा के प्रवक्ता राजाराम सिंह ने कहा है कि लालू सरकार ने पिछड़ों को धोखा दिया है।अब पिछड़ी जातियों का गरीब हिस्सा आरक्षण से वंचित होगा।लालू प्रसाद यह कहना चाहते हैं कि पिछड़ों में कोई कुलक या नव धनिक तबका नहीं है।यह गलत बात है।  
    
(यह लेख जनसत्ता के 19 अगस्त, 1994 के अंक में प्रकाशित)