सोमवार, 31 अगस्त 2020

     थोड़ा लिखना, अधिक समझना !

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अस्सी के दशक की बात है।

मैं समाचार एजेंसी यू.एन.आई.के पटना आॅफिस में

बैठा हुआ था।

ब्यूरो प्रमुख डी.एन.झा से कुछ सीखने के लिए उनके 

पास अक्सर बैठा करता था।

उनके समक्ष मैंने चर्चित साप्ताहिक पत्रिका ‘रविवार’ की तारीफ शुरू कर दी।

इस पर झा जी ने मुझे टोकते हुए कहा कि 

‘‘रविवार और संडे नहीं चलेगा।

इंडिया टूडे चलेगा।’’

मुझे उनकी यह बात अच्छी नहीं लगी।

क्योंकि एक तो उस पत्रिका की हमलावर रिपोर्टिंग मुझे तब अच्छी लगती थी।

दूसरी बात यह कि ‘रविवार’ मुझसे भी यदाकदा लिखवाता रहता था।

इसलिए मैंने झा जी से पूछा,

‘‘ऐसा आप क्यों कह रहे हैं ?’’

उन्होंने कहा कि

 ‘‘देखिए,रविवार और संडे जिस पर आरोप लगाता है,उसका पक्ष नहीं देता है।

किंतु यह काम इंडिया टूडे करता है।’’

उस समय तो मैं झा जी की बात से सहमत नहीं हुआ।

पर, जब अस्सी के दशक के अंत में हिन्दी साप्ताहिक रविवार और नब्बे के दशक के मध्य मंे अंग्रेजी साप्ताहिक संडे बंद हो गया तो मुझे झा जी की बात याद आई।

  अंग्रेजी ‘इंडिया टूडे’ का प्रकाशन 1976 में शुरू हुआ था।

बाद में वह हिन्दी में भी छपने लगा।

कुछ अन्य भाषाओं में भी।

हिन्दी -अंग्रेजी संस्करण तो मैं अब भी देखता हूं।

अन्य भाषाई संस्करणों का क्या हुआ,यह मैं नहीं कह सकता।

टाइम्स-हिन्दुस्तान टाइम्स समूह के अच्छे- अच्छे हिन्दी प्रकाशन एक- एक कर बंद हो गए।

ऐसे में इंडिया टूडे का हिन्दी सस्करण जारी रहना सुखद आश्चर्य है।

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मैंने यह सब क्यों लिखा ?

यह प्रकरण मैं कुछ साल पहले भी लिख चुका हंू।

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थोड़ा लिखना ,अधिक समझना !

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सुरेंद्र किशोर--31 अगस्त 20


रविवार, 30 अगस्त 2020

22 अगस्त, 1997 : लालू के साथ चली गईं रोचक खबरें भी !


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22 अगस्त, 1997 के दैनिक ‘जनसत्ता’ में लालू प्रसाद पर मेरी एक रपट छपी थी।

उसका शीर्षक था--

‘लालू के साथ चली गईं रोचक खबरें भी !’

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लालू प्रसाद अरसे से एक बार फिर जेल में हैं। 1997 की उस खबर को एक बार फिर पढ़ना रुचिकर होगा। यहां हू ब बहू प्रस्तुत है--

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 ‘‘पटना, 21 अगस्त। लालू प्रसाद के राजनीतिक परिदृश्य से गायब होने के कारण पिछले तीन हफ्तों से बिहार में रोचक खबरों की कमी पड़ गई है। इससे संवाददाता परेशान हैं।

जेल जाने से पहले खुद लालू ने पत्रकारों से कहा था, ‘‘तू लोगिन चाहत बाड़ कि हम जेल चल जाईं।तब चटपटी खबर ना मिली।’’ उन्होंने कहा कि यदि मैं जेल चला गया तो आप लोगों की नौकरी चली जाएगी। क्योंकि तब आपको चटपटी खबर नहीं मिलेगी।


लालू प्रसाद ने ठीक ही कहा था। पटना के पत्रकार भी अब यही महसूस करने लगे हैं। अब मुख्यमंत्री आवास यानी, एक अणे मार्ग का दृश्य पूरा बदला-बदला सा है। वहीं से लालू प्रसाद की पत्नी राबड़ी देवी राज चला रही हैं। पर पत्रकारों के प्रति राबड़ी देवी का रवैया बिलकुल उल्टा है। उनकी मजबूरी भी है।

उन्हें पत्रकारों के उल्टे-सीधे सवालों के जवाब देने की अभी प्रैक्टिस नहीं हुई है। वे दे भी नहीं सकतीं।

कल तक सिर्फ एक घरेलू महिला थीं। उन्हें अभी प्रचार का चस्का भी नहीं लगा है। पति के जेल जाने से वे दुखी और उदास सी हैं।

लालू प्रसाद की हाजिर जवाबी मशहूर रही है। कई बार उनकी हाजिर जवाबी शालीनता की सीमा पार कर जाती थी। पर, पत्रकार उसमें से भी रोचक बातें निकाल ही लेते थे। पिछले माह तक पटना के कई पत्रकार तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद के आवास पर करीब -करीब रोज ही जाते थे। जिस दिन संवाददाताओं को कहीं दूसरी जगह खबर नहीं मिलती थी, उस दिन भी वे लालू प्रसाद के घर से खाली हाथ नहीं लौटते थे। संवाददाता आपस में अक्सर यह कहते सुने जाते थे,‘‘आज कहीं कुछ नहीं है। चलो लालू के घर।’’


दैनिक टेलिग्राफ के संवाददाता फैजान अहमद ने स्वीकार किया कि ‘‘लालू प्रसाद अपने आप में एक खबर थे। अच्छी या बुरी खबरें उनसे निकलती रहती थीं। पर अब पहले जैसा नहीं है। रोचक और चटपटी खबरों की कमी से पटना के दूसरे संवाददाता भी परेशान हैं। अब अस्पताल जेल से बाहर छनकर आने वाली अपुष्ट खबरों से संतोष करना पड़ रहा है।

दरअसल लालू प्रसाद से संबंधित उटपटांग खबरें पढ़ने की पाठकों की आदत सी पड़ गई है। लालू प्रसाद भी जानते थे कि उनकी उटपटांग बातों और अजीब ओ गरीब हरकतों से अखबारों के लिए अच्छी खबरें बनती हैं।

करीब डेढ़ साल पहले लालू प्रसाद जब जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनकर पटना पहुंचे थे तो उन्होंने प्रेस से कहा था कि ‘‘अब मैं सावधानी से बोलूंगा। क्योंकि अब मैं जो कुछ बोलूंगा, वह देश के अखबारों के पहले पेज पर मोटे -मोटे अक्षरों में छपेगा। कुछ दिनों तक उनका यह संयम कायम भी रहा। पर वे तो अपनी आदत से लाचार थे। वे कहीं भी, कभी भी, कुछ भी बोल देते थे।

उन्हें छपास की बीमारी भी थी।


वे जानते थे कि किसी मुख्यमंत्री की उटपटांग चीजें खूब छपती हैं। बाद के दिनों में जब इलेक्ट्रानिक मीडिया का प्रसार बढ़ा तो एक दिन लालू ने प्रिंट मीडिया के संवाददाता से कहा था,‘अब तोहरा लोगिन के ग्लेमर कम हो गईल। अब तो तुरंत फोटो खींचत बा, आ ओही दिन सांझ में टी.वी. पर देखा देत बा। वीकली का वैल्यू त खतम ही हो गया।’’

लालू प्रसाद जब सत्ता में थे तो उनका प्रेस से खट्टा-मीठा संबंध रहा। कभी वे अपनी आलोचनाओं से चिढ़कर गालियां भी दे देते थे। वे कभी मिलने से इनकार भी कर देते थे। पर वे मानते थे कि प्रेस उनके लिए एक जरूरी बुराई है।

चारा घोटाले को लेकर प्रेस ने लालू प्रसाद के खिलाफ क्या- क्या नहीं लिखा ? उन्होंने कुछ किया ही ऐसा है। वे प्रेस से बीच- बीच में सख्त नाराज भी होते रहे। फिर भी प्रेस से लालू प्रसाद का काम चलाऊ रिश्ता उनके जेल जाने तक बना रहा। एक पत्रकार के अनुसार वह प्रेम और घृणा का मिलाजुला रिश्ता था। अब तो प्रेस के लिए रोचक खबरों का सवाल है। रोचक खबरें अब कौन देगा ?

गुरुवार, 27 अगस्त 2020

जब तक पूरी पूंजी डूब न जाए

यदि  किसी कारखाना मालिक की नालायक औलाद के कारण उसके कारखाने में लगातार घाटा होने लगे, फिर भी वह अपने उस कारखाने को किसी पड़ोसी को तो नहीं सौंप देगा !

तो क्या वह मुनाफे का इंतजार तब तक करता रहेगा, जब तक उसकी पूरी पूंजी डूब न जाए ?

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सुरेंद्र किशोर-26 अगस्त 2020


बुधवार, 26 अगस्त 2020

नीरव मोदी से रिकवरी बनाम बोफर्स दलाल को पैसे लेकर भाग जाने की छूट !!

नीरव मोदी से पंजाब नेशनल बैंक को रिकवरी के रूप में 24 करोड़ 33 लाख रुपए फिलहाल मिल गए हैं। खबर है कि नीरव के खिलाफ मोदी सरकार की सख्त कार्रवाई के कारण ऐसा हुआ है। हीरा व्यवसायी नीरव मोदी इन दिनों लंदन जेल में है। इस देश के इडी के अनुरोध पर नीरव की पत्नी के खिलाफ इंटरपोल ने रेड काॅर्नर नोटिस जारी कर दिया है। 

दूसरी ओर, मनमोहन सरकार ने बोफर्स दलाल के जब्त बैंक खाते को चालू करवाकर दलाली के सारे पैसे निकाल लेने की उसे सुविधा प्रदान कर दी थी।

वी.वी. सिंह की सरकार ने 1990 में स्विस बैंक के लंदन स्थित शाखा के उस खाते को जब्त करवा दिया था। भारत के आयकर न्यायाधिकरण ने कहा था कि बोफर्स की दलाली के पैसों पर आयकर बनता है। एक अफसर को लंदन भेजकर मनमोहन सरकार ने यदि जब्त खाते को चालू नहीं करवाया होता तो इनकम टैक्स के पैसे भारत सरकार के खजाने में आ जाते।

दूसरे बोफर्स दलाल हिन्दुजा के मुम्बई स्थित फ्लैट को आयकर ने जब्त कर पैसे वसूले। यह जब्ती भी मोदी राज में ही संभव हो सकी।

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अब आप ही बताइए कि आम लोग रिकवरी कराने वाली सरकार का समर्थन करें या वैसी पार्टी का जिसकी सरकार ने एक दलाल को लाभ पहुंचाने के लिए सार्वजनिक धन लुटवा दिया ? यह तो एक नमूना मात्र है।

ऐसे ही कारनामों के कारण कांग्रेस व उसके कुछ अन्य सहयोगी दल जनसमर्थन के लिए आज तरस रहे हैं।

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--26 अगस्त 2020


       को बड़ -छोट कहत अपराधू !

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बात तब की है जब चीन, जापानी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ रहा था।

कम्युनिस्ट सुप्रीमो माओ त्से तुंग ने चीन के राष्ट्रवादी शासक चांग काई शेक को संदेश भेजा,

‘‘अभी हमलोग मिलकर जापानियों से लड़ लें।

आजादी के बाद फिर हमलोग आपस में तय कर लेंगे कि चीन की सत्ता किसके हाथ में आएगी।’’

  इसके जवाब में चांग काई शेक ने कहा कि 

‘‘जापानी साम्राज्यवाद चर्म रोग है और कम्युनिस्ट हृदय रोग।

हम हृदय रोग को कैसे स्वीकार कर सकते हैं ?’’

  उसी तरह मेरी समझ से आज भारत के लिए चीन चर्म रोग है।

 किंतु पाकिस्तान व उसके भारतीय समर्थक हृदय रोग।

क्योंकि चीन हमारी सीमा की जमीन हड़पना चाहता है।

दूसरी ओर,पाकिस्तान देसी -विदेशी जेहादियों व उनके समर्थकों के बल पर भारत में इस्लामिक शासन कायम करने की कोशिश में लगा हुआ है।

   जो लोग कहते हैं कि चीन पाक की अपेक्षा हमारे लिए अधिक खतरनाक है,उनसे मैं असहमत हूं।

मेरी समझ से दोनों खतरनाक हैं।

किंतु पाक कुछ अधिक ही खतरनाक है।

क्योंकि इस देश के भीतर चीन की अपेक्षा पाक के एजेंट काफी अधिक हैं।

बहुसंख्यक समुदाय में भी।

वोट के लिए।

वे अधिक सक्रिय भी हैं।टी.वी.चैनलों पर भी आकर वे अपनी मंशा जाहिर करते रहते हैं।

दोनों से लड़ने के लिए हमें सरकारी भ्रष्टाचार पर निर्ममतापूर्वक रोक लगा कर अधिक से अधिक साधन जुटाने पड़ंेगे।

हथियार ,सैनिक, पुलिस और खुफिया तंत्र

को काफी मजबूत करना होगा।

आतंकवादियों के खिलाफ सामान्य कानून के तहत निपटना मुश्किल है।

देश के भीतर के भ्रष्ट लोगों के खिलाफ भी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई करनी होगी न कि भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत।

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--सुरेंद्र किशोर-26 अगस्त 20  


सोमवार, 24 अगस्त 2020

 चाहे जितना और जैसा भी संगठनात्मक परिवत्र्तन कर लो,

जब तक महा घोटालांे,भीषण भ्रटाचार, और अतिवादी मुसलमानों के प्रति सहनशीलता जारी रखोगे , तब तक

 तुम्हारी पार्टी का पुनर्जीवन संभव ही नहीं।

वंशवाद-परिवारवाद के तहत आगे आए बकलोल उत्तराधिकारी

कभी किसी पार्टी का पुनरूद्धार नहीं कर सकते। 

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याद रहे कि मैंने किसी दल का नाम नहीं लिखा है।

क्योंकि, यह बात एकाधिक दल पर लागू होती है।

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--सुरेंद्र किशोर

24 अगस्त 20


  बिहार में बिजली बढ़ी,स्मार्ट फोन बढ़े और 

 उसके साथ जानकारी और जागरूकता भी।

   --सुरेंद्र किशोर-

बिहार में सन 2005 में मात्र 700 मेगावाट बिजली की 

आपूत्र्ति हो रही थी।

  आज राज्य में 5932 मेगावाट बिजली की आपूत्र्ति 

हो रही है।

सरकारी सूत्रों के अनुसार अब बिहार के हर घर में बिजली

उपलब्ध है।

  सारण जिला स्थित मेरे पुश्तैनी गांव में 2009 में ही बिजली 

पहुंचाई जा सकी।

बिजली रहने और नहीं रहने के बीच कितना फर्क होता है,इस पर अधिक कुछ कहने की जरूरत नहीं है।

लोगबाग महसूस करते हैं।उसका लाभ उठाते हैं।

  पर,एक खास फर्क आया है जिसका लाभ और हानि दोनों है।

  अब गांवों में भी अपना मोबाइल-स्मार्ट फोन चार्ज करने के लिए किसी को पास के बाजार में नहीं जाना पड़ता।

बिहार जैसे विकासशील राज्य में आप आज जहां भी जाइए,लोगों के हाथों में स्मार्ट फोन देखिएगा।

  अधिकतर युवजन उसमें मग्न रहते हैं।

गांवों के खेतों की डरेर पर बैठकर निम्न मध्यम वर्ग के युवक भी स्मार्ट फोन में व्यस्त रहते हंै। 

  इसके लाभ कम, हानि अधिक है।

घर के कम उम्र बच्चे भी मां-बाप से छिप कर लंबे घंटे तक स्मार्ट फोन देख रहे हैं।

उन  बच्चों की कोमल आंखें  खतरे में हंै।

हां, वे बुजुर्गों के लिए , जिनसे बातचीत करने वालों की कमी रहती है, स्मार्ट फोन अच्छे साथी की भूमिका निभा रहे हैं।

 लोगबाग अपनी -अपनी आदत-पसंद  के अनुसार इस यंत्र का उपयोग कर रहे हैं।

अनेक लोगों का अकेलापन कट रहा हैं।

जिनकी जीवन साथी ,साथ छोड़ गई हैं,उनके लिए खास यह वरदान है।

  गर्दन टेढ़ी करके अनिश्चित काल तक बिना पलक झपकाए स्मार्ट फोन देखने वाले लोग दो तरह के चिकित्सकों की व्यस्तता व आय बढ़ा रहे है--आंख  और हड्डी के डाक्टरों  की ।

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पुनश्चः

स्मार्ट फोन के जरिए बिहार के गांव-गांव में भी राजनीतिक -गैर राजनतिक सूचनाओं का विस्फोट हुआ है।

अधिकतर लोग अपने स्मार्ट फोन पर सारे नेताओं के भाषण सुन रहे हैं,उन्हें देख रहे हैं और अपने -अपने तरीके से दलों व नेताओं के बारे में अपनी राय बना रहे हैं। 

बिहार तो पहले से ही राजनीतिक रूप से जागरूक प्रदेश रहा है।पर हाल में जानकारी -जागरूकता और भी बढ़ी है। 

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--सुरेंद्र किशोर--23 अगस्त 20

  

  


शनिवार, 22 अगस्त 2020

पटना नगर निगम को कुछ समय के लिए किसी नवरत्न कंपनी को सौंप देने की जरूरत


पटना नगर निगम हर साल पटना की सफाई पर 100 करोड़ रुपए खर्च करता है। फिर भी पटना नरक बना रहता है। इसका मुख्य कारण भीषण भ्रष्टाचार और काहिली है। गंदगी के कारण कितने लोग हर साल बीमार होते हैं और मरते हैं, इसका सर्वेक्षण होना चाहिए। नगर की गंदगी से यदि कोई मरे तो हत्या का मुकदमा किस पर चलना चाहिए ? !


बिहार के अधिकतर नगरों की हालत भी दयनीय ही बनी हुई है। इस संबंध में आज के ‘प्रभात खबर’, पटना में प्रकाशित रपट सराहनीय है।


एक विनम्र सलाह

क्यों नहीं पटना नगर निगम का दायित्व सार्वजनिक उपक्रम में से किसी ‘नवरत्न कंपनी’ के जिम्मे सौंप दिया जाए? इसके लिए यदि संविधान में संशोधन करने की जरूरत हो तो वह भी करें। भीषण गंदगी के कारण लोगों को बीमार करके मारने से बेहतर है कि कुछ समय के लिए नगर निगम अवक्रमित ही रहे।


साथ ही, अतिक्रमण हटाने और टैक्स वसूलने के काम में सहयोग के लिए नवरत्न कंपनी केंद्रीय अर्धसैनिक बल की सेवाएं ले।


---सुरेंद्र किशोर--22 अगस्त 2020


‘गजवा ए हिन्द’ का सपना देखने वाले

चीन उइगर मुसलमानों का उत्पीड़न कर रहा है।

आखिर कितने मुस्लिम देशों ने इस मसले पर चीन का विरोध किया? चीन ने मुस्लिम देशों में भारी -भरकम निवेश किया हुआ है। वे जानते हैं कि पैसे धर्म से कहीं अधिक मूल्यवान है।


--तसलीमा नसरीन,दैनिक जागरण,


   22 अगस्त 2020

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दरअसल बात इतनी ही नहीं है। इस देश यानी भारत के जेहादी मुसलमान इस अत्याचार को लेकर चीन के खिलाफ क्यों नहीं बोल रहे हैं ? उन्हें तो किसी चीनी निवेश से कोई मतलब नहीं है।


किसी ने मुझे बताया कि दरअसल इस देश के जेहादी गण चीन को नाराज नहीं करना चाहते हैं।

नाराज करेंगे तो हिन्दुस्तान में इस्लामी शासन कायम करने में चीन उनकी मदद कैसे करेगा ?


‘गजवा ए हिन्द’ का सपना देखने वाले एक मुल्ला ने हाल में टी.वी. पर कहा भी कि जब हम ताकतवर होंगे तो राम मंदिर को तोड़कर फिर वहां बाबरी मस्जिद बना देंगे।


हौसला तो देखिए !!!


ऐसे ही उन्मादी जेहादियों के कारण नरेंद्र मोदी के सत्ता से हटने का दूर -दूर तक कोई संकेत नहीं मिल रहा है। 


सुरेंद्र किशोर-22 अगस्त 2020

गुरुवार, 20 अगस्त 2020

राजीव गांधी -: संभावनाओं का असमय अंत

जन्मदिन पर


सन 1984 में प्रधानमंत्री बनने से पहले ही राजीव गांधी की छवि ‘मिस्टर क्लिन’ की बननी शुरू हो गई थी। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने सार्वजनिक रूप से दो महत्वपूर्ण बातें कह दीं। उन बातों से लगा कि वे इंदिरा गांधी की कमी को भी पूरा कर देंगे।


इंदिरा गांधी भ्रष्टाचार के प्रति सहिष्णु थीं। इस देश के लिए उस सबसे बड़े मर्ज के बारे में श्रीमती गांधी कहती थीं कि ‘‘भ्रष्टाचार तो वर्ल्ड फेनोमेना है।’’ यानी, यह जब पूरे विश्व में है तो यहां भी है, फिर इसमें कौन सी बड़ी बात है ?


इसके उलट राजीव गांधी ने ‘‘सत्ता के दलालों’’ के खिलाफ जोरदार आवाज उठा दी। उन्होंने एक अन्य अवसर पर यह भी कह दिया कि केंद्र सरकार दिल्ली से 100 पैसे भेजती है, किंतु गांव तक उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही पहुंचते हैं। उससे पहले देश के तीन राज्यों के विवादास्पद कांग्रेसी मुख्यमंत्री जब एक साथ हटा दिए गए थे तो यह कहा गया कि इसके पीछे पार्टी महासचिव राजीव गांधी का ही हाथ है। उन्हें भ्रष्टाचार पसंद नहीं है।


इन बातों से अनेक लोगों में यह धारणा बनी कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक कदम उठाएंगे।

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पर, अंततः ऐसा नहीं हो सका। कई कारणों से प्रधानमंत्री के रूप में उनके कदम डगमगाने लगे।

राजनीतिक रूप से दूरदर्शी लोगों को लगने लगा कि मिस्टर क्लीन से जो उम्मीद की गई थी, वह पूरी नहीं होती लगती है। यानी एक विराट संभावना का असमय अंत होने लगा।

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राजीव की पहली गलती

बोफर्स तोप सौदा घोटाला और एक-एक कर अन्य घोटाले सामने आने लगे। सर्वाधिक चर्चा बोफर्स की हुई क्योंकि उसके दलालों में एक क्वात्रोचि इटली का था। उसकी प्रधानमंत्री के आवास में किसी सुरक्षा जांच के बिना सीधी पहुंच थी। 

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दूसरी गलती

1989 के भागलपुर सांप्रदायिक दंगे के समय वहां के विवादास्पद एस.पी. का तबादला प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने रुकवा दिया। मुख्यमंत्री से पूछे बिना। दंगे के दौरान ही मुख्यमंत्री ने तबादला कर दिया था। तबादला रुकने के बाद और अधिक हत्याएं हुईं। नतीजतन कांग्रेस का वोट बैंक पूरे देश में उससे अलग हो गया।

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तीसरी गलती

1990 में जब मंडल आरक्षण आया तो कांग्रेस हाईकमान को उस पर कोई स्टैंड लेना था। ‘‘राजीव गांधी के कहने पर मणिशंकर अय्यर ने आरक्षण पर एक प्रस्ताव तैयार किया। उसमें कहा गया था कि आरक्षण को पूरी तरह ठुकरा दिया जाना चाहिए।


मणि द्वारा तैयार प्रस्ताव पर कांग्रेस कार्यसमिति व राजनीतिक मामलों की समिति की साझी बैठक में विचार होना था। प्रस्ताव पेश होते ही समिति में शामिल पिछड़ी जाति के नेताओं ने मणि द्वारा तैयार प्रस्ताव का कड़ा विरोध कर दिया।’’

--इंडिया टूडे-30 सितंबर 1990


इस पर राजीव दुविधा में पड़ गए। फिर भी उनपर मणिशंकर अय्यर का असर कायम रहा। मंडल आरक्षण पर राजीव गांधी ने संसद में तीन घंटे तक भाषण किया। उस भाषण से इस देश के अधिकतर पिछड़ों को ऐसा लगा कि कांग्रेस आरक्षण का दिल खोलकर समर्थन नहीं कर रही है।


1989 के बाद एक बार फिर 1991 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला। उसके बाद तो किसी चुनाव में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला।

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राजीव गांधी अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती दौर में सच्चे, सहृदय और शालीन नेता के रूप में उभरे थे। वे कोरे कागज थे। लोगबाग उनसे प्रभावित भी थे। किंतु अपनी अनुभवहीनता या गलत सलाहकारों के कारण संभावनाओं का असमय अंत हो गया।

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कहानी का मोरल --

यदि भविष्य में किसी ऐसे ही कोरे कागज नुमा नेता को जिसके खिलाफ कोई शिकायत न हो, मौका मिले तो वह राजीव की खूबियों के साथ-साथ गलतियों को भी याद रखें, उनसे सबक लें, अच्छा करेंगे।

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--सुरेंद्र किशोर 20 अगस्त 2020

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

सुप्रीम कोर्ट की साख-प्रतिष्ठा की रक्षा लोकतंत्र के लिए अत्यंत जरूरी

यदि अवमानना के कसूरवार को उसके कसूर के अनुपात में तौलकर भरपूर सजा नहीं दी गई 

तो सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करने वालों की इस देश में बाढ़ आ जाएगी। ऐसे कई अन्य लोग भी इस देश में सक्रिय हैं जो संस्थाओं की साख को नष्ट करने की कोशिश में सदा लगे रहते हैं।


कुछ देसी-विदेशी शक्तियों की तो यही कार्यनीति रही है कि यदि इस ‘‘धर्मशालानुमा’’ देश को बाहर से नष्ट नहीं कर सको तो इसे भीतर से नष्ट करो।  


यदि ताजा मामले में भरपूर न्याय नहीं हुआ तो उससे सबसे बड़ी अदालत के बारे में आम लोगों में गलत संदेश जाएगा। जैसा भी हो, आज सुप्रीम कोर्ट की भूमिका लोकतंत्र के अन्य स्तम्भों से बेहतर है। इसीलिए आज लोगों की आस्था का आखिरी स्थल भी वही है।


हाल में सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह राम मंदिर के मामले को सुलझाया है, उससे अनेक लोगों की, कहिए अधिकतर लोगों की आस्था और भी बढ़ी है। कल्पना कीजिए कि सदियों से चले आ रहे अयोध्या राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद अगली कुछ और सदियों तक चलता रहता तो उस कारण कितने लोगों की जानें जातीं ?


मीर बाकी द्वारा राम मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाए जाने के बाद हजारों लोगों की जानें तो पहले ही जा चुकी हैं। क्या आप नहीं मानेंगे कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद अब आगे वैसी हिंसा की आशंका नहीं है ? कुछ जेहादी मानसिकता वालों को छोड़कर इस देश के आम मुसलमानों ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को मन से या बेमन से स्वीकार कर ही लिया है। इसकी सराहना होनी चाहिए।

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--सुरेंद्र किशोर--18 अगस्त 2020

सोमवार, 17 अगस्त 2020

भारत इतिहास के नाजुक मोड़ पर

1.- ब्रिटिश पत्रिका ‘द इकोनाॅमिस्ट’ के अनुसार चीन ने 104.71 लाख करोड़ रुपए की अपनी अर्थव्यवस्था बना ली है। उसने तानाशाही के सहारे ऐसा किया है।

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2.- एक अन्य जानकारी के अनुसार अमेरिका के संपन्न होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि वहां कानून का शासन है।

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3.- तीसरा उदाहरण सिंगापुर के संस्थापक शासक ली कुआन यू 1923-2015/ का है। उन्होंने अर्ध तानाशाही के जरिए सिंगापुर का कायापलट कर दिया।

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हमारे यहां क्या है ? !!

यहां तानाशाही नहीं है।

अर्धतानाशाही भी नहीं है।

साथ ही, कानून का शासन भी अत्यंत ढीला-ढाला है।

भारत में औसतन 45 प्रतिशत आरोपितों को ही कोर्ट से सजा हो पाती है।

अमेरिका में सजा की दर 93 प्रतिशत है।

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भारत की सीमाओं की रक्षा करने और राष्ट्र की प्रतिष्ठा को कायम रखने के लिए हमें भी तो कुछ करना पड़ेगा! क्योंकि देश के भीतर और बाहर की शक्तियां हमारे खिलाफ आज एक साथ मिलकर जिस पैमाने पर सक्रिय हैं, इससे पहले वैसी गिरोहबंदी कभी नहीं थी। 


ऐसे में इस देश को बचाने के लिए हमें क्या करना चाहिए ?

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---सुरेंद्र किशोर--16 अगस्त 2020






  


संदर्भ - एम.एस.धोनी--आम लोगों में भी ‘मिस्टर कूल’ की संख्या बढ़ाने की जरुरत

खेल कौशल के बाद जिस दूसरे सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुण ने एम.एस. धोनी को शिखर पर पहुंचाया, वह है उनके स्वभाव की शीतलता। यानी ‘मिस्टर कूल।’ उससे प्रबंधनकला में बेहतरी आती है।


तीसरी महत्वपूर्ण बात है, अपने सहकर्मियों के साथ न्यायपूर्ण व शालीन व्यवहार। एन.आर. नारायण मूर्ति ने आज के ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में लिखा है कि काॅरपोरेट इंडिया धोनी के मैच देखकर उनके नेतृत्व कौशल के बारे में बहुत कुछ सीख सकता है।


मैं एक राजनीतिक कार्यकर्ता की हैसियत से कर्पूरी ठाकुर का कभी निजी सचिव था। वैसे तो मैं उन्हें सन 1967 से ही जानता था, किंतु 1972-73 में करीब डेढ़ साल तक करीब रहने का मौका मिला। तब वे बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता थे। मेरा मानना है कि कर्पूरी जी की सफलता में उनकी विनम्रता का करीब 25 प्रतिशत योगदान था।


धोनी भी कर्पूरी जी जैसी मामूली पृष्ठभूमि से ही ऊपर उठे थे। व्यक्तिगत व्यवहार में कर्पूरी जी अपने पुत्र और नौकर को छोड़कर कभी किसी को ‘तुम’ नहीं कहते थे। सबको ‘आप’। कभी नाहक ऐसी बात नहीं करते थे जिससे सामने वाले को बुरा लगे।


यदि सामने के किसी व्यक्ति को आप बात -बात में अपने से छोटा साबित करने की कोशिश करेंगे तो फिर वह आपसे कभी मिलना भी नहीं चाहेगा। इससे उलट करके जरा देखिए! लोग आपसे बातचीत के लिए लालायित रहेंगे। 


बाकी बातें तो बाद में फाॅलो करती हैं।

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नारायण मूर्ति ने तो कारपोरेट भारत के बारे में कहा है। मैं तो सामान्य जनजीवन के बारे में कह रहा हूं। हम यदि व्यक्तिगत व्यवहार-बातचीत में शालीनता बरतें तो उसका लाभ ही लाभ है। बढ़ते रोड रेज वाले इस देश में ‘मिस्टर कूल’ की संख्या बढ़ाने की सख्त जरूरत है।


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--सुरेंद्र किशोर--17 अगस्त 2020

रविवार, 16 अगस्त 2020

 क्रांतिकारी योगेंद्र शुक्ल के शिष्य मुनीश्वर बाबू में 

सत्ता में आने के बाद भी कोई भटकाव नहीं आया

     --सुरेंद्र किशोर-- 

मुनीश्वर प्रसाद सिंह पर एक लेख अभी -अभी मैंने अपने फेसबुक वाॅल

पर शेयर किया है।

लेख बहुत अच्छा है।

सिर्फ एक तथ्यात्मक भूल है।

मुनीश्वर बाबू 1962 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से विधायक बने थे न कि संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से।

खैर, पिछले पांच दशकों में मैंने अनेक नए-पुराने हथियारबंद

क्रांतिकारियों के बारे में जाना-सुना-पढ़ा  है।

उनमें से अनेक लोग मंत्री, विधायक या सांसद बन जाने के बाद बदल गए।

ईमान डोल गया।

  पर दिवंगत मुनीश्वर बाबू अलग ढंग के थे।उन थोड़े लोगों में थे जो कभी नहीं बदले।

उनके सिंचाई मंत्री के कार्यकाल के दो उदाहरण यहां प्रस्तुत हैं।

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1.-दैनिक ‘आज’ का प्रकाशन पटना से शुरू हो रहा था।

दैनिक ‘आज’ ने सिंचाई व बिजली मंत्री मुनीश्वर बाबू से संपर्क किया।

मशीन के लिए बिजली का कनेक्शन लेना है।

ऐसे कनेक्शन के लिए लटकाना -शुकराना-नजराना आदि की परपंरा रही है।

  किंतु ‘आज’ का यह काम मुनीश्वर बाबू के कारण रिकाॅर्ड समय में बिना किसी नजराना के हो गया।

मैं उन दिनों ‘आज’ में ही था।

उस पर ‘आज’ के प्रबंधक निदेशक ने कहा था कि किसी अन्य संस्करण में यह काम इतनी जल्दी और इतनी आसानी से कहीं और नहीं हुआ था।

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2.-‘जनता परिवार’ की बहुत बड़ी हस्ती ने एक विवादास्पद ठेकेदार के पक्ष में मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर को लिखा था।

 उस ठेकेदार पर बिहार सरकार के करोड़ों रुपए बाकी थे।

साठ के दशक की बिहार सरकार से भारी एडवांस लेकर उसने काम पूरा नहीं किया था।

बिहार सरकार कह रही थी कि सरकार का ही उस पर छह करोड़ रुपए बाकी है।

मामला कोर्ट में था।

ठेकेदार टिब्यूनल का गठन चाहता था।

ट्रिब्यूनल में उसका काम ‘आसान’ हो जाता।

  उस बहुत बड़ी हस्ती की बात मान कर कर्पूरी ठाकुर ने उस मामले को ट्रिब्यूनल में दे देने का आदेश दे दिया।

क्योंकि कर्पूरी जी उस हस्ती की बात टाल ही नहीं सकते थे।

  खैर, तत्कालीन सिंचाई मंत्री सच्चिदानंद सिंह भी कर्पूरी जी का आदेश टाल नहीं सकते थे।

ट्रिब्यूनल में दे देने का आदेश हो गया।

इस बीच सरकार बदल गई ।

राम सुंदर दास मुख्य मंत्री बने और मुनीश्वर बाबू सिंचाई मंत्री।

मुनीश्वर बाबू ने जब वह फाइल देखी तो वे ठेकेदार का स्वार्थ समझ गए।

उन्होंने आदेश दिया कि यह मामला किसी भी हालत में ट्रिब्यूनल में नहीं जाएगा।

जबकि, मुनीश्वर बाबू भी जनता परिवार की उस हस्ती का कम आदर नहीं करते थे।

पर उन्होंने उस हस्ती के बदले राज्यहित को देखा।

उसके बाद जगन्नाथ मिश्र मुख्य मंत्री बन गए।

उन्होंने क्या किया ,आप जरा अंदाज लगाइए !

वही किया जिससे उस ठेकेदार को नाजायज तरीके से छह करोड़ रुपए मिल जाए।

मिल भी गए जिसका वह हकदार नहीं था।

उस मामले की पूरी फाइल की फोटोकाॅपी अब भी मेरे संदर्भालय में है।

मैंने उस पर जनसत्ता में विस्तार से लिखा था।

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अंत में

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मुनीश्वर बाबू बाद के दिनों में विधायक नहीं रहे तो इस कारण कि वे बाहुबलियों के खिलाफ अपनी जातीय बाहुबली जमात तैयार करने के पक्ष में कत्तई नहीं थे।

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शनिवार, 15 अगस्त 2020

   राह बदले बिना कांग्रेस का कायापलट कठिन

             सुरेंद्र किशोर 

 सन 1998 और सन 1999 के लोक सभा चुनावों में कांग्रेस, राजग से हार गई थी।

किंतु सन 2004 में कांग्रेस दुबारा केंद्र की  सत्ता में वापस आ गई।

इन दिनों भी कांग्रेस के कुछ नेता यह उम्मीद पाले हुए हैं कि 

2014 और 2019 की लगातार दो पराजयों के बाद हम एक बार फिर 2024 में सत्ता में आएंगे।

   पर,सवाल है कि क्या सन 2004 और सन 2020 की स्थितियां समान हैं ?

बिलकुल नहीं।

सन 2004 में कांग्रेस इसलिए सत्ता में आ गई थी क्योंकि राजग ने अपने कुछ पुराने सहयोगी दलों को खुद से दूर कर दिया था।वह फीलगुड में मगन जो था।

यानी, सन 2004 की जीत में  खुद कांग्रेस की कोई खास सकारात्मक भूमिका नहीं थी।

हां, 2009 के चुनाव में कांग्रेस 

सरकार की कुछ सकारात्मकताएं जरूर उसे काम आ र्गइं।

  पर उसके बाद व पहले की यू.पी.ए.सरकारों ने जो -जो नकारात्मक काम किए थे ,उसके लिए मतदाताओं ने उसे 2014 में माफ नहीं किया।

  इधर 2014 के चुनाव की पूर्व संध्या पर नरेंद्र मोदी के रूप में एक प्रामाणिक नेतृत्व विकल्प के रूप में लोगों के सामने मौजूद  था।

कांग्रेस पर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के बीच सन 2014 का लोस चुनाव हुआ था।

2014 और 2019 के बीच कांग्रेस ने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे लोगों को लगे कि कांग्रेस ने इस बीच इन दो प्रमुख बुराइयों से खुद को अलग कर लिया है।

नतीजतन एक बार फिर 2019 में लोगों ने राजग को केंद्र की सत्ता दे दी।

     अब जब कि कांग्रेस का तिनका -तिनका बिखरता जा रहा है तो इस पुराने दल के कुछ नेता एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप कर रहे हैं।

कांग्रेस का एक हिस्सा लगातार दो लोस चुनावों में कांग्रेस की हार के लिए यू.पी.ए.सरकार के कुछ मंत्रियांें को जिम्मेदार ठहरा रहा है तो दूसरी ओर कुछ पूर्व मंत्री यह कह रहे हैं कि संगठन की कमेजारी के कारण हम मोदी सरकार की विफलताओं को जनता तक नहीं पहुंचा सके।

   कांग्रेस का यह परंपरागत बहाना रहा है कि कांग्रेस कार्यकत्र्तागण  प्रतिपक्ष के आरोपों और अफवाहों को कारगर ढंग से खंडन और प्रतिवाद नहीं कर सके।जिसे शीर्ष नेतृत्व की कमियों को देखने तक की आजादी न हो,वह कारण तो कहीं और ही तो खोजेगा !!

    उन तीन-चार बातों की कोई कांग्रेसी चर्चा नहीं कर रहा है जो कांग्रेस के कमजोर होते जाने के मुख्य कारण हैं।

लोक लुभावन नारा गढ़ने वाले शीर्ष नेताओं का कांग्रेस में अब घोर अभाव हो गया है।

  इंदिरा गांधी के जमाने में ऐसी कमी नहीं थी।

इंदिरा गांधी के जमाने में लोक लुभावन नारों ने कार्यकत्र्ताओं की कमी पूरी कर दी थी।

याद रहे कि 1969 में जब कांग्रेस का विभाजन हुआ तो अधिकतर पुराने नेता और कार्यकत्र्ता ‘कांग्रेस संगठन’ यानी मूल कांग्रेस में ही रह गए थे।

  इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस में तो अधिकतर नए लोग थे।

फिर भी इंदिरा कांग्रेस 1971 का लोक सभा चुनाव बड़े बहुमत से जीत गई।

इंदिरा का नारा था,‘‘गरीबी हटाओ।’’

भले वह झांसा देने वाला नारा था,किंतु तब आम लोगों को काफी हद तक प्रभावित कर गया। 

सोनिया-राहुल के नेतृत्व वाली आज की कांग्रेस के बारे में  दूसरी बात यह है कि कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व  

न तो तुरंत निर्णय करता है और न ही समावेशी संगठन बनाने पर जोर देता है।

उसने राज्यों को विभिन्न क्षत्रपों व उनकी संतानों के हवाले कर दिया है।

नतीजतन नई पीढ़ी के नेता निराश होकर एक -एक कांग्रेस छोड़ते जा रहे हैं।

कमलनाथ-नकुल नाथ के समक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपना भविष्य नहीं देखा तो बाहर चले गए।

असम और कुछ अन्य राज्यों में भी यही हो रहा है।

राजस्थान में वही कहानी दुहराई जा रही है।

  वैभव गहलोत के समक्ष पायलट का भला क्या राजनीतिक भविष्य है ?

इस क्रम में राज्यों में कांग्रेस छिजती जा रही है। 

 जिन मुख्य कारणों से लगातार दो लोक सभा चुनावों में कांग्रेस की हार हुई,उन कारणों को दूर किए बिना देश की इस सबसे पुरानी पार्टी का मजबूतीकरण भला कैसे संभव है ?

   सन 2014 की हार के कारणों की तहकीकात के लिए सोनिया गांधी ने ए.के.एंटोनी के नेतृत्व में पार्टी का एक पैनल बनाया  था।

उसकी रपट भी तभी आ गई थी।

किंतु उस रपट पर कांग्रेस के अंदर न तो कोई विमर्श हुआ और न ही पैनल द्वारा इंगित कमियों को दुरूस्त  करने की कोई कोशिश ही हुई।

नतीजतन कांग्रेस सन 2019 के चुनाव में  भी केंद्र की सत्ता नहीं पा सकी।

  एंटोनी पैनल की मुख्य बात यह थी कि 2014 के लोस चुनाव में कांग्रेस ने धर्म निरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता का जो नारा दिया ,उससे लोगों में कांग्रेस के प्रति गलत धारणा बनी।

एंटोनी के अनुसार वह धारणा यह थी कि कांग्रेस  अल्पसंख्यकों की ओर  झुकी हुई है।एंटोनी के अनुसार इसका चुनावी नुकसान कांग्रेस को हुआ। 

  एंटोनी रपट के सारे बिंदुओं का पता नहीं चल सका,किन्तु यह अनुमान लगाया गया कि एंटोनी ने यह भी कहा कि यू.पी.ए.सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का कांग्रेसजन कारगर ढंग से प्रतिवाद नहीं कर सके।

  अब सवाल है कि कांग्रेस जन उसका जवाब कैसे दे पाते जबकि उन आरोपों के खंडन के लिए उनके पास तथ्य ही नहीं थे ?

 राष्ट्रीय स्तर  पर दो चुनावी पराजयों के बाद साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर कांग्रेस के अपने पिछले रुख में अब भी कोई परिवत्र्तन यानी सुधार नहीं किया है।

पाकिस्तान व चीन को लेकर कांग्रेस नेताओं के आए दिन ऐसे -ऐसे बयान आते  रहते  हैं जिनसे उन देशों को ही खुशी हो रही होती है।कांग्रेस ऐसा देश नहीं बल्कि अपने वोट बैंकको ध्यान में रख कर करती है। 

 राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार मर्ज कांग्रेस पार्टी के सिर में है,पर वह यदाकदा इलाज वह पैर का करने की कोशिश कर रहती है।

आत्मा की जगह काया पर जोर दे रही है।

सिर्फ संगठनात्मक फेरबदल के जरिए कांग्रेस को लगातार पराजयों के भंवर से  

निकालना चाहती है।

यह संभव नहीं लगता।

कोरोना संकट से निकलने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार के समक्ष ऐतिहासिक महत्व के कई काम करने होंगे।

सी.ए.ए. के तहत  शुरू हुए कामों को पूरा करना है।

केंद्र सरकार के वकील ने इस साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट से कह दिया कि किसी भी सार्वभौम देश के लिए राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एन.आर.सी. तैयार करना जरूरी है।

 सी.ए.ए. और एन..आर.सी.पर कांग्रेस के पिछले रुख को देश ने देखा है।

उसको लेकर  केंद्र सरकार यदि एक बार फिर कोई कदम उठाएगी तो कांग्रेस क्या करेगी ?

वही करेगी जो काम कांग्र्रेसियों ने शाहीनबाग धरना व दिल्ली दंगे के मौके पर  किया।

ऐसे मुद्दों पर जब तक कांग्रेस अपना रुख नहीं बदलेगी,तब तक वह आम लोगों का फिर से विश्वास हासिल करने की शुरूआत भी कैसे कर पाएगी ?

 मनमोहन सरकार के मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के कारण भी कांग्रेस को चुनावी नुकसान उठाना पड़ा था,यह जगजाहिर है।

किसी जिम्मेदार दल से यह उम्मीद की जाती है कि वह ऐसे मामले में अपनी पिछली गलतियों को सुधारे।

  पर क्या कांग्रेस में भ्रष्टाचार को लेकर सुधार के कोई लक्षण दिखाई 

पड़ रहे हैं ?

दूसरी नरेंद्र मोदी सरकार के किसी मंत्री पर पिछले छह साल में किसी बड़े घोटाले का आरोप नहीं लगा।

 ऐसे फर्कों को देखकर लोगों को किसी दल या नेता के बारे में कोई

निर्णय करने में बहुत सुविधा हो जाती है।

प्रथम परिवार सहित कांग्रेस के कई महत्वपूर्ण नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के कई मुकदमे चल रहे हैं।

उन खास मामलों में उन आरोपितों  का कैसा रवैया होगा,वे खुद कानूनी स्थिति को देखते हुए तय कर सकते हैं।

उन मामलों में उनकी मजबूरी हो सकती है।

पर क्या आम भष्टाचारांे को लेकर कांग्रेस अपना रुख-रवैया नहीं बदल सकती ?

 चाहे तो बदल सकती है।

पर उम्मीद कम है।क्योंकि राहुल गांधी के अघोषित आर्थिक सलाहकार अभिजीत बनर्जी ने गत साल यह कह दिया  कि 

‘‘चाहे यह भ्रष्टाचार का विरोध हो या भ्रष्ट के रूप में देखे जाने का भय,शायद भ्रष्टाचार अर्थ व्यवस्था के पहियों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण था,इसे काट दिया गया है।

मेरे कई व्यापारिक मित्र मुझे बताते हैं निर्णय लेेने की गति धीमी हो गई है।.............’’

ऐसे सलाहकार बनाने का कारण समझ लीजिए जो यह शिकायत कर रहा है कि मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार पर हमला क्यों किया ?

ऐसे में कांग्रेस के लिए बेहतर भविष्य की कोई उम्मीद 

बनती है क्या ? 

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13 अगस्त 2020 के दैनिक जागरण में प्रकाशित

    


शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

    दुर्दांत अपराधियों व निर्मम हत्यारों को

    भी जातीय समर्थन क्यों ?

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दुर्दांत अपराधी और निर्मम हत्यारे भी अक्सर अपनी- अपनी जातियों के अनेक लोगों के ‘हीरो’ क्यों बन जाते हैं ?

  यह समस्या सिर्फ  किसी एक जाति के अपराधियों व उस जाति के अनेक लोगों तक ही  सीमित नहीं है। 

मेरी समझ से इसके दो प्रमुख कारण हैं।

एक तो वे अपने प्रभाव क्षेत्र में ‘समानांतर सरकार व अदालत’ का काम करने लगते  हैं।

उनसे कम से कम एक पक्ष को तो यदाकदा न्याय मिल ही जाता है।

कई बार वे अफसरों -कर्मचारियों को धमकाकर रिश्वत भी माफ करवा देते हैं।

हाल में एक हिन्दी प्रदेश के डी.आई.जी.स्तर के रिटायर अफसर ने अपने साथ हुए अन्याय की शिकायत  एक माफिया

से की और उन्हें न्याय भी मिल गया।   

चूंकि सरकारी कार्यालयों और अदालतों से न्याय पाना अधिकतर लोगों के लिए इन दिनों बहुत मुश्किल काम है,इसलिए उसका लाभ राजनीतिक संरक्षणप्राप्त अपराधियों को मिल जाता है।

  यानी, अपने देश की आपराधिक न्याय व्यवस्था यानी क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के जाल से 

55 प्रतिशत आरोपित  साफ बच निकलते हैं।

इस देश की अदालतों से औसतन 45 प्रतिशत आरोपितों को ही सजा मिल पाती है।इस मामले में हिन्दी राज्यों की स्थिति तो और भी खराब है। 

  चूंकि ऐसे दुर्दान्त अपराधी समाज के एक हिस्से के लिए यदाकदा रोबिनहुड की भूमिका में होते हैं, इसलिए वे अपनी जाति का वोट भी कंट्रोल करते हैं।

ऐसे अपराधियों में केंद्र व राज्यों में राजनीतिक कार्यपालिका के बड़े -बड़े पदों पर भी बैठने की संभावना रहती है,इसलिए उसकी जाति के कई लोग उसके आसपास  मड़राने लगते हैं।

  अधिकतर राजनीतिक दलों के लिए यह सुविधाजनक बात होती है कि वे ऐसे निर्मम हत्यारों को भी टिकट दे दें ताकि सीटें आसानी से निकल जाए।

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यदि ‘आपराधिक न्याय व्यवस्था’ को ठीक ठाक किया जाए तो 

ऐसे अपराधियों पर नकेल कसने में भी सुविधा हो जाएगी।

पर, क्या इस देश में ऐसा कभी हो पाएगा ?

पता नहीं !

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--सुरेंद्र किशोर--4 अगस्त 20

  





मंगलवार, 11 अगस्त 2020

  

मणिशंकर अय्यर कांग्रेस के लिए मणि या....??!!

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--सुरेंद्र किशोर--

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‘‘प्रधान मंत्री राजीव गांधी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बाबरी मस्जिद स्थित राम जन्मभूमि का ताला 1985 में खोलवा दिया था।

इसलिए राम मंदिर निर्माण का श्रेय किसी और को नहीं लेना चाहिए।’’

--  कमलनाथ, पूर्व मुख्य मंत्री, मध्य प्रदेश,

--टाइम्स नाऊ डिजिटल,

   6 अगस्त, 20

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‘‘ताला खोलवाने में राजीव गांधी का कोई हाथ नहीं था।

राजीव गांधी को  तो ताला खोले जाने की जानकारी भी नहीं थी।

दरअसल ताला खोल देने के एक स्थानीय अदालत के निर्णय

के आधे घंटे के भीतर ही छल कपट के तहत हाथ की सफाई दिखाते हुए कुछ लोगों ने ताला खोल दिया।’’

    ----- मणि शंकर अययर,

          मशहूर कांग्रेस नेता,

       द हिन्दू-6 अगस्त 20

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  अब आप कमलनाथ की बात पर भरोसा करेंगे या अय्यर साहब की बात पर ?

आपकी जो इच्छा !

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पर, एक बात पक्की है।

नेहरू से भी अधिक नेहरूवादी मणिशंकर अय्यर पिछले कुछ दशकों से जाने-अनजाने वही काम कर दे रहे हैं जिससे कांग्रेस की अवनति की राह सुगम हो।

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1990 में जब मंडल आरक्षण आया तो कांग्रेस हाईकमान को  उस पर कोई स्टैंड लेना था।

राजीव गांधी के कहने पर मणिशंकर अय्यर ने आरक्षण पर एक प्रस्ताव तैयार किया।

उसमंे कहा गया था कि आरक्षण को पूरी तरह ठुकरा दिया जाना चाहिए।

संभवतः मणि ने  जवाहरलाल नेहरू के 27 जून 1961 के उस पत्र को पढ़ लिया होगा जिसमें उन्होंने मुख्य मंत्रियों को लिखा था कि जाति के आधार पर कोई आरक्षण नहीं होना चाहिए।

अब नेहरू से भी अधिक नेहरूवादी उनकी चिट्ठी से अलग कैसे हो सकते थे ?

मणि द्वारा तैयार प्रस्ताव पर कांग्रेस कार्यसमिति व राजनीतिक मामलों की समिति की साझी बैठक में विचार होना था।

प्रस्ताव पेश होते ही समिति में शामिल पिछड़ी जाति के नेताओं ने  मणि द्वारा तैयार प्रस्ताव का कड़ा विरोध कर दिया।

--इंडिया टूडे-30 सितंबर 1990

  इस पर राजीव दुविधा में पड़ गए।

पर उन पर मणि का  असर कायम रहा ।

मंडल आरक्षण पर राजीव गांधी ने संसद में तीन घंटे तक भाषण किया।

उस भाषण से इस देश के अधिकतर पिछड़ों को ऐसा लगा कि कांग्रेस आरक्षण का दिल खोल कर समर्थन नहीं कर रही है।

1989 के बाद एक बार फिर 1991 के लोक सभा चुनाव में भी कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला।

 उसके बाद किसी चुनाव में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला।

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यानी कांग्रेस की अवनति में मणि शंकर के थोड़ा-बहुत योगदान को भी आप मानेंगे या नहीं ?

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कांग्रेस को थोड़ा और डूबोने का एक और मौका आया 2014 के लोक सभा चुनाव की पूर्व संध्या।

ए.आई.सी.सी.सम्मेलन स्थल पर किसी पत्रकार ने मणि जी ने मोदी की बात छेड़ दी।

मणि शंकर अययर ने कहा कि नरेंद्र मोदी 21 वीं सदी में किसी भी कीमत पर प्रधान मंत्री नहीं बन सकते।

हां,वे चाय का वितरण करना चाहें तो ए.आईसी.सी.परिसर में मैं उसका इंतजाम करा दूंगा।

  अब बताइए,इसका मतदाताओं खास कर निम्न तबके के पर कैसा असर पड़ा होगा ?

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गुजरात विधान सभा चुनाव से ठीक पहले मणि जी ने नरेंद्र मोदी को ‘‘नीच आदमी’’ कह दिया।

इन दो शब्दों को भंजा कर भाजपा ने गुजरात में अपनी बिगड़ी चुनावी स्थिति सुधार ली।

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क्या आप पाकिस्तान में जाकर वहां के मुसलमानों से कह सकते हैं कि आप लोग मोदी को हराइए ?

शायद नहीं।

पर मणि जी ने यह काम भी कर दिया।

उसका कांग्रेस को कितना नुकसान उठाना पड़ा होगा,उसका अनुमान लगाइए।

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और, आखिर में मणि जी आज कमलनाथ के किए -दिए पर भी पानी फेर दिया।

शुक्र है कि मणि का लेख द हिन्दू में छपा जो अंग्रेजी अखबार है।

कल्पना कीजिए यदि किसी बड़े हिन्दी अखबार में छपा होता तो कांग्रेस खास कर कमलनाथ को कितना धक्का लगता ?

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अभी मणि शंकर की आयु लंबी है।

देखते जाइए,आने वाले दिनों में वे और हमारे दिग्विजय सिंह कांगे्रस की और किस -किस तरह से ‘सेवा’ करते हैं !!!

प्रथम परिवार द्वारा जारी ‘सेवा’ में जो कमी रहती है,उसे ये दो नेता पूरा कर देते हैं।

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6 अगस्त 20


 


 रवीन्द्रनाथ टैगोर के दामाद ने भी दहेज मांगा था।

न देने पर शादी न करने की धमकी भी दे दी थी।

मुजफ्फरपुर में हुई थी उनकी पुत्री की शादी

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इस संबंध में मेरी एक रपट 15 नवंबर, 1982 के 

नवभारत टाइम्स (नई दिल्ली ) में छपी थी।

राजेंद्र माथुर तब नभाटा के संपादक थे।

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  नई पीढ़ी के पाठकों के लिए उसे यहां प्रस्तुत है।

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रविबाबू के दामाद ने भी दहेज मांगा था

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विश्वकवि स्वर्गीय रवींद्रनाथ ठाकुर को दहेज प्रथा के कारण किस तरह मानसिक क्लेश झेलना पड़ा था,उसका प्रमाण

हाल ही में प्रकाश में आया है।

   लेखक और शोधकत्र्ता श्री सुबल गांगुली ने अपने शोध कार्य के दौरान रवींद्रनाथ टैगोर के बारे में जो कुछ तथ्य एकत्र किये हैं, उनमें 1 जून, 1901 को भावी दामाद के नाम विश्व कवि का वह टेलीग्राम भी है,जिससे उनकी चिन्ता और व्यग्रता का पता चलता है।

  रवि बाबू की सबसे बड़ी लड़की माधुरी लता की शादी 1901 में मुजफ्फरपुर ( बिहार ) में हुई थी।

किन्तु उससे पूर्व भावी दामाद ने यह कह कर शादी करने से इनकार कर दिया था कि वे बीस हजार रुपए से कम दहेज न लेंगे।

श्री गांगुली के अनुसार दस हजार रुपए में शादी तय हुई थी।

  16 जून 1901 को वह शादी हुई थी।

(अंततः दस हजार रुपए ही देने पड़े थे।)

स्व. टैगोर अपनी लड़की को ससुराल पहुंचाने के क्रम में जुलाइर्, 1901 के प्रथम सप्ताह में मुजफ्फरपुर पहुंचे।

  श्री गांगुली ने अपने शोध कार्य के दौरान यह भी पता लगाया है कि मुजफ्फरपुर में विश्व कवि का सार्वजनिक अभिनंदन किया गया था।

उनके जीवन का यह पहला सार्वजनिक अभिनंदन था।

 मुजफ्फरपुर के आठ गणमान्य व्यक्तियों की ओर से उन्हें 

मुखर्जी सेमिनरी के एक कक्ष में सम्मान पत्र समर्पित किया गया था।

 उस सम्मान पत्र से यह भी परिलक्षित होता है कि महान मैथिली कवि विद्यापति उस समय तक अल्पज्ञात कवि थे।

 सम्मान पत्र में लिखा गया है कि ‘यद्यपि विद्यापति इसी मिट्टी के बंगला साहित्य के कवि थे तथापि इस राज्य के लोग उन्हें या उनकी कविताओं को नहीं जानते थे।’

कवि टैगोर 18 जुलाई, 1901 को कलकत्ता वापस चले गये थे।

 शोधकत्र्ता के अनुसार कवि टैगोर पुनः मई, 1904 में मुजफ्फर पुर आये थे।

उन्होंने यहां काफी समय व्यतीत किया।

उन्होंने ‘नौका डूबी’ नामक उपन्यास की रचना मुजफ्फरपुर में ही की थी।

मुजफ्फरपुर के जिस मकान में रहते थे,उसे एक व्यापारी ने खरीद लिया है।

स्वर्गीय टैगोर की स्मृति में बिहार के प्रमण्डलीय मुख्यालय मुजफ्फरपुर में सड़क का नामकरण भी किया गया है।

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10 अगस्त 20







 पश्चिम बंगाल के किसानों को ममता

बनर्जी ने पीएम सम्मान निधि के 8400 करोड़

रुपए क्या इसलिए नहीं लेने दिए ? !!

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सुरेंद्र किशोर 

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पी.एम. किसान सम्मान निधि के 8400 करोड़ रुपए से 

अब तक पश्चिम बंगाल के किसान वंचित रहे हैं।

  जबकि, इस योजना के तहत देश भर के किसानों को अब तक 92 हजार करोड़ रुपए मिल चुके हैं।

हर किसान को केंद्र सरकार हर साल तीन किश्तों में 6 हजार रुपए देती है।

आने वाले वर्षों में यह राशि बढ़ भी सकती है।

  अब सवाल है कि पश्चिम बंगाल सरकार इस योजना की राशि केंद्र से क्यों नहीं स्वीकार कर रही है ?

मेरी समझ में सिर्फ एक बात आती है।

आपकी समझ या जानकारी में कोई और बात हो तो मेरी जानकारी बढ़ाइए।

यह राशि उसी को मिलेगी जिसके पास अपने नाम से जमीन का कोई टुकड़ा हो--छोटा या बड़ा।

करोड़ों बंगला देशी घुसपैठियों  के पास अपनी जमीन तो है नहीं।

हालांकि मतदाता सूचियों मंे उनके नाम दर्ज हैं ।

 पहले वे वाम मोर्चा के और अब ममता बनर्जी के स्थायी व ठोस वोटर हैं।

वाम मोर्चा के शासनकाल में सन 2005 में ऐसी ही मतदाता सूची को लोक सभा में ममता ने फाड़ा था और विरोधस्वरूप संसद की सदस्यता से इस्तीफा भी दे दिया था।

हालांकि अब इस पर उनकी राय बिलकुल उल्टी है।

अब वह कहती हंै कि यदि बंगलादेशियों को निकालने की कोशिश हुई तो खून-खराबा होगा।

  लगता है कि आज ममता बनर्जी की यह समझ है कि जब उन घुसपैठियों को निधि नहीं मिल सकेगी तो किसी और को मिले ना मिले कोई  फर्क नहीं पड़ता।

  एक बात और ।

जब प.बंगाल में किसानों को सूची बनेगी तो बड़ी संख्या में लोग छूट जाएंगे।

इस तरह बंगलादेशियों की पहचान और भी स्पष्ट हो जाएगी।

यह समस्या राष्ट्रीय स्तर पर एक बार फिर सतह पर आ जाएगी।एन.आर.सी.की जरूरत महसूस होने लगेगी।

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इस निधि को प.बंगाल में न बंटने देने के कारण बंगलादेशी घुसपैठियों की भीषण समस्या का पता चलता है।

साथ ही एन.आर.सी.की जरूरत का भी।

 यानी एन.आर.सी.-सी.ए.ए. यदि देर- सवेर कड़ाई से लागू नहीं होगा तो यह देश नहीं बचेगा।

बचेगा तो मौजूदा स्वरूप में तो बिलकुल नहीं।

उससे हमारी अगली पीढ़ियों को अपार कष्ट होगा।

इस बीच तो ‘वोट बैंक के सौदागर’ नेतागण तो इस दुनिया से उठ चुके होंगे।

उन्हें अगली पीढ़ियों की नहीं बल्कि मौजूदा वोट व सत्ता के बारे में चिंता है।

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किसी ने ठीक ही कहा था कि 

‘नेता’ आज के बारे में सोचता है।

किंतु ‘स्टेट्समैन’ अगली पीढ़ियों के बारे में सोचता है।

अब आप अनुमान लगा लीजिए कि अपने देश में आज नेता कितने हैं और स्टेट्समैन कितने ?

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सुरेंद्र किशोर

11 अगस्त 20   


   चर्चित शेयर घोटालेबाज हर्षद मेहता ने भी राजीव 

गांधी फाउंडेशन को दिए थे 25 लाख रुपए

     ----सुरेंद्र किशोर--

हर्षद मेहता ग्रूप ने राजीव गांधी फाउंडेशन को 25 लाख रुपए दान के रूप में दिए थे।

हर्षद मेहता हजारों करोड़ रुपए के शेयर घोटाले का आरोपी था।

 सजायाफ्ता हर्षद 2001 में जेल में ही मर गया।

  ‘द हिन्दू’ समूह की पाक्षिक पत्रिका ‘फं्रटलाइन’ ने जार्ज फर्नांडिस के हवाले से 25 लख रुपए वाली  खबर छापी थी।

  जार्ज ने इस फाउंडेशन को चंदा देने वाले कुल 89 लोगों व कंपनियों के नाम भी पत्रिका को उपलब्ध कराए थे।

यह विवरण पत्रिका के 28 अगस्त, 1992 के अंक में छपा था।

   पर उन दानकत्र्ताओं में हर्षद मेहता को 

तो कहना ही क्या !

 24 मुकदमांे के आरोपी हर्षद को इनमें से चार मुकदमों में सजा हुई थी।

हर्षद मेहता के खिलाफ राम जेठमलानी प्रेस कांफ्रेंस करके

यह आरोप लगाया कि  उसने एक करोड़ रुपए प्रधान मंत्री पी.वी.नरसिंह राव को दिए थे।

एक सूटकेस में रखकर रुपए राव के आवास पर पहुंचाए गए थे।

कांग्रेस ने सवाल उठाया कि एक सूटकेस मंें एक करोड़ रुपए कैसे  समा  सकते हैं ?

जेठमलानी अपने साथ प्रेस को दिखाने के लिए एक सूटकेस और एक करोड़ रुपए लाए थे।

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--सुरेंद्र किशोर--10 अगस्त 20

  

  

   


सोमवार, 10 अगस्त 2020

    स्वच्छ भारत अभियान की राह की बाधाएं !

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‘‘.......असल में (इस देश के ) शहरों में सीवरों और नालों की सफाई में भ्रष्टाचार का मुद्दा है,

जिस पर कोई ध्यान नहीं देता।

बरसात से पूर्व नालों और नालियों की सफाई का नाटक देश भर में होता है,

बावजूद इसके पहली ही बरसात में सारे इंतजामों की पोल खुल जाती है।

लगभग हर राज्य में एक जैसी नकारा व्यवस्था देखने को मिलती है।

नाला-नालियों की कायदे से सफाई न होने से उनमें कूड़ा पड़ा रहता है।

जब बारिश का पानी उसमें जाता है तो नाला उफना जाता है।

उससे उसका पानी शहर की गलियों में बहने लगता है।.....’’

........................................................

  ---राजेश माहेश्वरी, दैनिक आज, 24 जुलाई 20  

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   प्रधान मंत्री की सराहनीय पहल

  ..............................................

 प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘स्वच्छ भारत अभियान’ शुरू किया है।

निःसंदेह यह एक बहुत ही अच्छी पहल है।

देश के नगरों -महा नगरों की स्वच्छता की राह में जो सबसे बड़ी बाधा है,उसकी ओर मैं ध्यान खींचना चाहता हूं।

देश में जहां-जहां भाजपा के हाथों में नगरपालिकाओं और महानगर परिषदों की कमान हंै,उन्हें प्रधान मंत्री एक सख्त निदेश दें।

(यह मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मुम्बई महापालिका का भ्रष्टाचार रोकना मोदी जी के भी वश में नहीं होगा।

 क्योंकि वह शिवसेना के कब्जे में हैं।

वहां के लोग हर साल भीषण जल-जमाव की पीड़ा झेलते हैं फिर भी वे शिवसेना को ही जिताते हैं।

उसके कारण अलग हैं।) 

 वहां सिर्फ सफाई मजदूरों की नियमित उपस्थिति सुनिश्चित करा दें तो बहुत फर्क पड़ेगा।

इस तरह भाजपा शासित स्थानीय निकाय अन्य दलों व लोगों द्वारा शासित निकायों के लिए आदर्श उपस्थित कर सकेंगे।

साथ ही, देश भर के सफाई मजदूरों के मेहनताने का भुगतान सिर्फ चेक से करवाएं ।

इससे जाली मजदूरों के नाम पर वैसे लूटने की पुरानी परंपरा समाप्त हो जाएगी।

भाजपा एक अनुशासित पार्टी है।

निकायों से जुड़े जो भाजपा नेतागण प्रधान मंत्री के निदेश को लागू कराने में यदि आनाकानी करें, तो उन्हें अगली बार निकाय चुनाव न लड़ने दें।दिल्ली महापालिका को नमूना के रूप में पेश करें।उससे देश भर में नया संदेश जाएगा। 

जहां सफाई मजदूरों की संख्या कम है,उसे शीघ्र पूरा कराएं।

टैक्स वसूली में भ्रष्टाचार रोक कर निकायों के लिए पर्याप्त साधन जुटाए ही जा सकते हैं।

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---सुरेंद्र किशोर

-10 अगस्त 20



    स्वच्छ भारत अभियान की राह की बाधाएं !

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‘‘.......असल में (इस देश के ) शहरों में सीवरों और नालों की सफाई में भ्रष्टाचार का मुद्दा है,

जिस पर कोई ध्यान नहीं देता।

बरसात से पूर्व नालों और नालियों की सफाई का नाटक देश भर में होता है,

बावजूद इसके पहली ही बरसात में सारे इंतजामों की पोल खुल जाती है।

लगभग हर राज्य में एक जैसी नकारा व्यवस्था देखने को मिलती है।

नाला-नालियों की कायदे से सफाई न होने से उनमें कूड़ा पड़ा रहता है।

जब बारिश का पानी उसमें जाता है तो नाला उफना जाता है।

उससे उसका पानी शहर की गलियों में बहने लगता है।.....’’

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  ---राजेश माहेश्वरी, दैनिक आज, 24 जुलाई 20  

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   प्रधान मंत्री की सराहनीय पहल

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 प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘स्वच्छ भारत अभियान’ शुरू किया है।

निःसंदेह यह एक बहुत ही अच्छी पहल है।

देश के नगरों -महा नगरों की स्वच्छता की राह में जो सबसे बड़ी बाधा है,उसकी ओर मैं ध्यान खींचना चाहता हूं।

देश में जहां-जहां भाजपा के हाथों में नगरपालिकाओं और महानगर परिषदों की कमान हंै,उन्हें प्रधान मंत्री एक सख्त निदेश दें।

(यह मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मुम्बई महापालिका का भ्रष्टाचार रोकना मोदी जी के भी वश में नहीं होगा।

 क्योंकि वह शिवसेना के कब्जे में हैं।

वहां के लोग हर साल भीषण जल-जमाव की पीड़ा झेलते हैं फिर भी वे शिवसेना को ही जिताते हैं।

उसके कारण अलग हैं।) 

 वहां सिर्फ सफाई मजदूरों की नियमित उपस्थिति सुनिश्चित करा दें तो बहुत फर्क पड़ेगा।

इस तरह भाजपा शासित स्थानीय निकाय अन्य दलों व लोगों द्वारा शासित निकायों के लिए आदर्श उपस्थित कर सकेंगे।

साथ ही, देश भर के सफाई मजदूरों के मेहनताने का भुगतान सिर्फ चेक से करवाएं ।

इससे जाली मजदूरों के नाम पर वैसे लूटने की पुरानी परंपरा समाप्त हो जाएगी।

भाजपा एक अनुशासित पार्टी है।

निकायों से जुड़े जो भाजपा नेतागण प्रधान मंत्री के निदेश को लागू कराने में यदि आनाकानी करें, तो उन्हें अगली बार निकाय चुनाव न लड़ने दें।दिल्ली महापालिका को नमूना के रूप में पेश करें।उससे देश भर में नया संदेश जाएगा। 

जहां सफाई मजदूरों की संख्या कम है,उसे शीघ्र पूरा कराएं।

टैक्स वसूली में भ्रष्टाचार रोक कर निकायों के लिए पर्याप्त साधन जुटाए ही जा सकते हैं।

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---सुरेंद्र किशोर

-10 अगस्त 20



रविवार, 9 अगस्त 2020

      कश्मीर समस्या और हमारे पहले के शीर्ष शासक 

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  आजाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति के पद पर प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू एक ऐसे नेता को बैठाने की जिद पर अड़ गए थे जिनकी राय रही थी कि 

‘‘कश्मीर समस्या के हल के लिए कश्मीर को 10 वर्षों के लिए अमेरिका, सोवियत रूस  और ब्रिटेन की संयुक्त परिषद को सौंप देना चाहिए।’’

   यदि आज कोई बड़ा नेता इस तरह का विचार व्यक्त करे तो उसके बारे में इस देश के लोगों की कैसी राय बनेगी ?

अनुमान लगाना कठिन नहीं है।

पर यही बात पूर्व गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी उर्फ राजा जी ने सार्वजनिक रूप से कभी कह दी थी।

आज ‘दिनमान’ की फाइल उलट रहा था तो संबंधित रपट मिली।

  संयोग से यह महीना भी अगस्त का ही है।

राजाजी ने अगस्त, 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का भी विरोध किया था।

वे खुली अर्थ व्यवस्था के पक्ष में थे जबकि जवाहरलाल मिश्रित अर्थ व्यवस्था के पक्षधर थे।

सवाल है कि राजाजी और नेहरू में कौन सी बात समान यानी कामन थी ?

अनुमान लगाइए।

  जब कांग्रेस पार्टी राजाजी पर राजी नहीं हो रही थी तो इस सवाल पर नेहरू ने प्रधान मंत्री पद से इस्तीफे तक की धमकी दे डाली थी।

किसी ने जब कहा कि 

‘‘दे दो इस्तीफा,’’तो वे पीछे हट गए।

सरदार पटेल ,महावीर त्यागी और रामनाथ गोयनका आदि राजेंद्र बाबू के पक्ष में थे।

आखिरकार राजेन बाबू राष्ट्रपति बन गए।

  आजादी के तत्काल बाद जवाहरलाल नेहरू प्रधान मंत्री बने।

डा.एस.राधाकृष्णन उप राष्ट्रपति बने ।

यदि राजाजी राष्ट्रपति बन गए होते तो क्या इस बात की आंशका नहीं रहती थी कि ऐसी सोच वाले शीर्ष नेता कश्मीर को तीन देशों को सौंप देते ताकि ‘‘इससे स्थिति की परीक्षा हो सकेगी और यह संभव है कि भारत और पाकिस्तान के बहुत से जटिल प्रश्न इससे हल हो जाएं।’’

  क्या कश्मीर पर इस्लामिक शासन लागू करने के अलावा पाक का कभी और कोई लक्ष्य रहा है ?

इतनी सी बात उन दिनों के बड़े नेताओं की भी समझ नहीं आ रही थी।

   मौजूदा मोदी सरकार कश्मीर समस्या को वास्तविक  परिप्रेक्ष्य में समझ कर उसकी ‘दवाई’ करने की कोशिश कर रही है।

इस्लामिक शासन कायम करने की कोशिश को विफल करने की समस्या को चीन भी अपने एक प्रदेश में हल करने की कोशिश कर रहा है।अपने ढंग से।

चीन तो कहता है कि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के पास जेहादियों को सही राह पर लाने का कोई कारगर उपाय है ही नहीं ।

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सुरेंद्र किशोर-8 अगस्त 20


गुरुवार, 6 अगस्त 2020

मैं गंगा -जमुनी तहजीब वाले इलाहाबाद शहर में
पला-बढ़़ा हूं।
मुझे रामलीला बहुत रास आई जो करुणा ,
सह -अस्तित्व ,सम्मान और गरिमा की गाथा है।
भगवान राम ने प्रत्येक व्यक्ति में अच्छाई देखी ।
 हमारे व्यवहार में उनकी विरासत झलकनी चाहिए।
हमें प्रेम और एकता की राह में नफरत के सौदागरों को नहीं घुसने देना चाहिए।
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  --मोहम्मद कैफ
मशहूर भारतीय क्रिकेट खिलाडी़
दैनिक जागरण, 6 अगस्त 20

बुधवार, 5 अगस्त 2020

‘कोरोना’ की चेतावनी--मुम्बई जैसे महानगरों 
पर से आबादी का बोझ घटाना अत्यंत जरूरी
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हिन्दी फिल्म-धारावाहिक निर्माण स्थल 
हिन्दी प्रदेश में स्थानांतरित हो
इससे बोझ घटाने की शुरूआत भी हो जाएगी 
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हिन्दी फिल्मों व धारावाहिकों का निर्माण स्थल अब मुम्बई
से हटाकर किसी हिन्दी प्रदेश में जल्द से जल्द स्थापित कर दिया जाना चाहिए।
  इसके लिए हिन्दी फिल्मों के नामी -गिरामी रहे बुजुर्ग अभिनेतागण ऐतिहासिक भूमिका निभा सकते हैं।वे मार्ग दर्शक काम कर सकते हैं।
महाराष्ट्र में मराठी और गुजराती फिल्में जरूर बनें।
   वैसे भी घनी आबादी वाले महानगरों पर से आबादी का बोझ घटाने का संदेश ‘कोरोना’ ने दे ही दिया है,यदि आप उस संदेश को ग्रहण करना चाहें तो ।
नहीं ग्रहण करेंगे तो 
पछताने सिवा कोई चारा भी नहीं रहेगा।
क्योंकि यह तय  नहीं कि निकट भविष्य में कोरोना
जैसी कोई अन्य महा विपत्ति नहीं ही आएगी।  
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बिहार के अगिया वैताल नेता व पूर्व सांसद पप्पू यादव ने तो सुशांत सिंह राजपूत के हत्यारों के नाम भी जाहिर कर दिए हैं।
मैं उतनी जल्दीबाजी में नहीं हूं।
पर, मेरा भी यह कहना है कि सुशांत के इंतकाल को लेकर अनेक सवाल अनुत्तरित हंै ।
उनके  जवाब सी.बी.आई. जांच से ही मिल सकते हैं।
वह भी तब जब जांच सबसे बड़ी अदालत की निगरानी में हो।
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वैसे तो इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट अपने विवेक से  निर्णय करेगा,पर यदि वह सी.बी.आई.जांच के पक्ष में निर्णय करता है तो उसे साथ- साथ एक काम और भी करना चाहिए।
अदालत संदिग्धों की नार्को, पाॅलीग्राफ व ब्रेन मैपिंग जांच की भी अनुमति दे दे।
क्योंकि अधिकतर सबूत मिट चुके हैं या मिटाए जा चुके हैं।
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यदि सुप्रीम कोर्ट अदालती निगरानी सहित सी.बी.आई.जांच
की अनुमति नहीं देता है तो फिर हिन्दी फिल्मों का काम मुम्बई से समेट कर किसी हिन्दी राज्य में ले जाने की शुरूआत जल्द से जल्द ही कर देनी चाहिए।
अन्यथा, ...........!!!!!
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सुरेंद्र किशोर -  4 अगस्त 20


सोमवार, 3 अगस्त 2020

    कमल नाथ और गहलोत सरकारों के बाद अब
महाराष्ट्र सरकार ने भी बंद कर दी जेपी सेनानी पेंशन 
अब केंद्र सरकार करे सेनानियों के लिए वैकल्पिक व्यवस्था 
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--सुरेंद्र किशोर--
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कांग्रेस के दबाव में महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार
ने जेपी सेनानी पेंशन योजना बंद कर दी।
वहां 3 हजार लोगों को 10 हजार रुपए प्रतिमाह मिल रहे थे।
  पिछली राजग सरकार ने इसे चालू किया था जिस सरकार में शिवसेना भी शामिल थी।
इससे पहले मध्य प्रदेश की पूर्ववर्ती कमलनाथ सरकार और राजस्थान की मौजूदा अशोक गहलोत सरकार ने ऐसी पेंशन योजनाओं  को बंद कर दिया ।
जेपी आंदोलन के दौरान आपातकाल में जेल गए राजनीतिक नेताओं व कार्यकत्र्ताओं के लिए पेंशन की व्यवस्था विभिन्न राज्य सरकारों ने की ।
बिहार में भी यह अब लागू है।
कुछ राज्य सरकारों द्वारा बारी -बारी से इसे बंद कर दिए जाने के बाद अब इस बात की जरूरत महसूस की जा रही है कि खुद केंद्र सरकार ऐसी पेंशन योजना शुरू करे।
याद रहे कि कई मामलों में इंदिरा गांधी सरकार ने जेपी आंदोलनकारियों को आपातकाल में इतना अधिक प्रताड़ित
किया था जितना अंग्रेजों ने भी स्वतंत्रता सेनानियों को नहीं किया था।आपातकाल में कई परिवार बर्बाद हो गए ।
इंदिरा सरकार ने गिरफ्तारी के खिलाफ अदालती सुनवाई का
प्रावधान समाप्त करके एक लाख से अधिक राजनीतिक नेताओं, कार्यकत्र्ताओं व पत्रकारों  को अनिश्चितकाल के लिए जेलों में ठूंस दिया था।
जो लोग फरार थे,उनमें से भी अनेक लोगों को अपार कष्ट झेलने पड़े थे।
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---सुरेंद्र किशोर-1 अगस्त 20