शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

बिहार ऐसे पा रहा है नक्सली समस्या पर काबू

देश की नक्सली समस्या और उसके समाधान के उपायों को समझने के लिए यहां प्रस्तुत एक आंकड़ा महत्वपूर्ण है। सन 2004 से 2008 तक पूरे देश मंे नक्सली हिंसा में हर साल औसतन करीब 500 नागरिक मारे गये। सन 2009 में यह संख्या बढ़ कर 591 हो गई। इस साल के जून तक 325 नागरिक मारे जा चुके हैं। दूसरी ओर, बिहार में नक्सली हिंसा में 2001 से 2004 तक कुल 668 लोग मारे गये थे। पर सन 2006 से 2009 तक नक्सली हिंसा में मृतकों की संख्या घटकर 160 रह गई। ऐसा आखिर कैसे और क्यों हुआ ? आखिर क्यों बिहार में नक्सलियों की मारक क्षमता घट रही है जबकि देश के कई अन्य हिस्सों में बढ़ रही है ? जबकि पांच -छह साल पहले बिहार में नक्सली बनाम निजी सेनाओं द्वारा जारी हिंसा-प्रतिहिंसा में आए दिन बड़े- बड़े नरसंहार होते रहते थे। बिहार के कुछ जघन्य व चर्चित नरसंहारों के स्थलों के नाम तो पूरे देश के अखबार पढ़ने वालों को संभवतः याद भी हो गये होंगे। दलेल चक बघौरा, बारा, सेनारी, मियांपुर, अरवल, लक्ष्मणपुर बाथे जैसे स्थानों के नाम अब बीते दिनों के दुःस्वप्न ही रह गये हैं जहां गत दो -तीन दशकों में बड़े -बड़े नरसंहार हुए थे। उन प्रत्येक नरसंहार में मृतकों की संख्या दर्जनों में थी। यह संयोग या दैव योग नहीं है कि बिहार मंे नक्सलियों की मारक क्षमता गत चार पांच साल में काफी घटी है। इसके लिए राज्य सरकार ने संगठित उपाय किए हैं। यदि ऐेसे ही उपाय अन्य नक्सल पीड़ित प्रदेश करें तो वहां भी बिहार जैसी सफलता मिल सकती है। बिहार में भी अभी पूरी सफलता नहीं मिली है। पूरी सफलता के लिए केंद्र सरकार को राजनीति से उपर उठकर बिहार को भरपूर आर्थिक मदद करनी होगी। साथ ही, बिहार शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार के स्तर को कड़ाई से घटाना होगा ताकि विकास व कल्याण योजनाओं के लाभ गरीबों को मिल सकें। दरअसल बिहार में नीतीश सरकार ने 2005 में सत्ता संभालने के साथ ही नक्सली समस्या पर काबू पाने के लिए समेकित उपाय शुरू कर दिए थे। राज्य सरकार ने अपने ही प्रदेश के पुराने अनुभवों का भी लाभ उठाया। राज्य सरकार ने यह बात अच्छी तरह समझ ली है कि सिर्फ पुलिसिया कार्रवाइयों से इस पर काबू नहीं पाया जा सकता है। जानकार सूत्रों के अनुसार राज्य सरकार ने नक्सली आंदोलन से जुड़े विभिन्न प्रकार के तत्वों की पहचान करके उनके अनुकूल उपाय किए तभी जाकर नक्सलियों की मारक क्षमता घटी। दरअसल नक्सली समस्या के पांच प्रमुख तत्व व कारक हैं। पहला तत्व है मार्क्सवादी -लेनिनवादी-माओवादी विचारों से लैस वे थोड़े से लोग जिन्हें काबू में लाना काफी मुश्किल काम है। हां, उन्हें आम लोगों से अलग -थलग जरूर किया जा सकता है। ऐसे लोगों की मूल ताकत वे गरीब व उपेक्षित लोग ही हैं जिन्हें सरकारों ने भगवान भरोसे उनके हाल पर छोड़ रखा है। आजादी का कोई लाभ उन्हें अब तक नहीं मिला है। जहां लाभ मिलने लगा है, वहां स्थिति बदल रही है। यह दूसरा तत्व है। किसी भी सरकार के लिए यह एक बड़ी समस्या है कि किस तरह समावेशी विकास करके इन गरीबों को माओवादी विचारकों व कार्यकर्ताओं की गिरफ्त से अलग किया जाए। इस आंदोलन में एक तीसरे प्रकार के लोग भी हैं जो यह समझते हैं कि किसी भी तरह की जघन्य हिंसा कर देने के बावजूद कानून के हाथ उन तक नहीं पहुंचेंगे। जमीन को लेकर जारी विवादों के कारण भी नक्सली मजबूत हुए हैं। यह चौथा तत्व व कारक है। पांचवां तत्व है भीषण सरकारी भ्रष्टाचार। इन पांच तरह के तत्वों को ध्यान में रखते हुए नीतीश सरकार ने विभिन्न कानूनी व प्रशासनिक उपाय किए हैं। नक्सलियों की बिहार में मारक क्षमता घटने का यही कारण है। राज्य का आर्थिक विकास हो तो रहा है। पर अधूरा। सरकारी व राजनीतिक भ्रष्टाचार विकास में बाधक हैं। यदि समावेशी विकास कार्यों को जनता तक संपक्तता यानी सेचुरेशन की हद नहीं पहुंचाया गया तो नक्सली समस्या से मिली राहत क्षणिक साबित हो सकती है। अब जिम्मेदारी केंद्र सरकार पर है कि वह राजनीति छोड़कर बिहार जैसे राज्यों की भरपूर आर्थिक मदद करे जो राज्य नक्सली समस्या से वास्तव में जूझ रहे हैं व एक हद तक सफलता भी पा रहे हैं। नीतीश सरकार ने विचारों से लैस उन थोड़े से लोगों के लिए बल प्रयोग का रास्ता अपनाया है जो बंदूक के बल पर राजसत्ता पर कब्जा करना चाहते हैं। पर गरीबों को नक्सलियों से काटने के लिए गत पौने पांच साल में बिहार में आम विकास के व्यापक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। ताजा आंकड़े के अनुसार बिहार की विकास दर इन दिनों देश में लगभग सर्वाधिक है। पर, यह भी नाकाफी हैं। केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने गत अप्रैल में संसद में कहा कि यदि राज्य सरकारें, केंद्र सरकार के साथ मिल कर काम करें तो तीन साल के अंदर नक्सलियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। बिहार के मुत्तलिक समस्या यह है कि केंद्र सरकार बिहार सरकार की भरपूर कौन कहे, वाजिब मदद भी नहीं कर रही है, ऐसी शिकायत मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने की है। नीतीश कुमार को ऐसा कहने का हक भी है क्योंकि नक्सली समस्या पर काबू पाने में भी बिहार ने हाल में देश को राह दिखाई है। अधिक दिन नहीं हुए जब केंद्र सरकार ने अन्य राज्यों से कहा था कि वे भी ‘आपकी सरकार आपके द्वार’ कार्यक्रम चलाकर नक्सली समस्या पर काबू पाए क्योंकि इस कार्यक्रम को बिहार में सफलता मिल रही है। बिहार में जारी इस कार्यक्रम का उद्देश्य चुने हुए खास इलाके में विकास को संपक्तता की हद तक पहुंचाना है। पर सभी गांवों में ऐसे विकास के लिए पर्याप्त साधन चाहिए जो केंद्र ही मुहैया करा सकता है। प्रधानमंत्री मन मोहन सिंह ने गत 21 अप्रैल 2010 को कहा था कि माओवादी हिंसा आंतरिेक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुकी है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि ‘हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन इलाकों में इस आतंकवाद ने पैर पसारा है, उनमें से ज्यादातर विकास के लिहाज से पिछड़े हैं।’ प्रधान मंत्री सिविल सेवा दिवस पर आयोजित समारोह में बोल रहे थे।’ छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमण सिंह ने गत साल अगस्त मंे कहा कि नक्सलवाद की समस्या को राष्ट्रीय आपदा घोषित किया जाना चाहिए। इस पष्ठभूमि में केंद्र की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। पर केंद्रीय राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने इसी 14 जुलाई, 2010 को पटना में कहा कि यदि बिहार में हमारी सरकार बनी तो बिहार को विशेष ‘सम्मान’ का दर्जा मिलेगा। इस सम्मान शब्द का अर्थ केंद्रीय आर्थिक मदद के रूप में लगाया गया। यानी कांग्रेस की सरकार नहीं बनेगी तो क्या बिहार पहले की तरह ही केंद्र द्वारा उपेक्षित रहेगा? यहां यह सवाल भी पूछा जा रहा है।ऐसे में कैसे होगा इस नक्सली समस्या का पूर्ण उन्मूलन जो प्रधानमंत्री के अनुसार आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है? यह बात भी याद रखने की है कि बिहार नेपाल सीमा के पास ही है। नीतीश सरकार के कार्यकाल में त्वरित अदालतों के जरिए करीब 48 हजार अपराधी लोगों यानी आरोपितों को निचली अदालतों से सजाएं दिलवाई जा चुकी है। इनमें नक्सल हिंसा-प्रतिहिंसा से जुड़े आरोपी भी हैं। इन सजाओं के भय से वैसे नक्सली या फिर नक्सल विरोधी सेनाओं के लोग डर गये हैं जो किसी तरह की सजाओं से डरते हैं। इसलिए उनलोगों ने मारकाट कम कर दी है। जमीन को लेकर जारी झगड़ों को स्थानीय स्तर पर तुरंत सुलझाने के लिए भी संस्थागत प्रशासनिक उपाय मौजूदा राज्य सरकार ने किए हैं। इसके लिए कानून भी बनाया गया है। पर उसका लाभ अभी बाद में मिलेगा।पर सरकारी भ्रष्टाचार पर काबू पाने की जिम्मेदारी नीतीश सरकार की जरूर है। आखिर इस नक्सली समस्या ने समय बीतने के साथ इतना विकराल रूप धारण ही कैसे कर लिया ? इसकी वस्तुपरक पड़ताल किए बिना इस पर काबू पाने में भी कठिनाइयां आएंगी। पहले के नक्सलियों और अब के माओवादियों के इस देश में फलने-फूलने के कई कारण रहे हैं। कई कारणों के मिले जुले असर के कारण ही माओवादी आज ताकतवर हो चुके हैं। गरीबी, विस्थापन, अर्ध सामंती समाज -व्यवस्था और कानून -व्यवस्था की लचर स्थिति के मिले जुले कुप्रभाव को कम करने से ही इस समस्या पर काबू पाया जा सकेगा, ऐसा अनेक प्रेक्षक मानते हैं। कम करने का यह प्रयोग बिहार में एक सीमा तक हो रहा है और वह एक हद तक सफल भी रहा है। हालांकि ऐसे प्रयोग को देश भर में और भी सघन, व्यापक, ठोस व प्रामाणिक बनाने की जरूरत है। ऐसे उपायों को और सघन व प्रामाणिक बनाने की क्षमता बिहार सरकार में भी फिलहाल नजर नहीं आती क्योंकि बिहार के प्रशासन व राजनीति में भी भ्रष्टाचार व निहित स्वार्थ बहुत अधिक हैं जो प्रयासों के बावजूद कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है। बिहार में सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ हाल में बने एक कारगर कानून को अभी अपना रंग दिखाना अभी बाकी है। हालांकि अभियोजन पक्ष ने भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में धराए राज्य के दस बड़े अफसरों की करोड़ों की संपत्ति जब्त करने की गुजारिश कोर्ट से कर दी है। यदि जब्त हो गई तो उसका असर अन्य भ्रष्ट अफसरों पर पड़ेगा। याद रहे कि नक्सली आंदोलन भले सन 1967 में बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ, पर बाद के वर्षों में एक समय बिहार में इसका सर्वाधिक असर था। आंध्र प्रदेश तथा अन्य राज्यों में तो वह बिहार के बाद ही फैला। हालांकि करीब बीस -पच्चीस साल पहले भी बिहार में जब तत्कालीन सरकार ने कम से कम दो स्थानों पर नक्सली नर संहारों के मूल कारणों को समाप्त कर दिया तो वहां भी बाद के वर्षों में नक्सलियों का असर कम हो गया था। वे स्थान हैं औरंगाबाद जिले के दलेल चक - बघौरा और आसपास के इलाके तथा अरवल मुख्य बाजार। याद रहे कि अरवल में 1986 में पुलिस ने नक्सलियों की सभा पर अंधाधुंध गोलियां चलाकर 21 लोगों को मार दिया था। उधर 1987 में औरंगाबाद जिले के दलेल चक बघौरा में माओवादियों ने 54 किसानों की सामूहिक हत्याएं कर दी थीं।
सरकार के भ्रष्ट कारिंदों व हदबंदी से अधिक गैर कानूनी तरीके से जमीन रखने वाले अन्यायी लोगों ने अनेक मामलों में गरीबों को नक्सलियों की शरण में जाने के लिए बाध्य कर दिया। बिहार के कई उदाहरण मौजूद हैं जहां -जहां देर से ही सही प्रशासन व सरकार ने गरीबों की सुधि ली, वहां -वहां से नक्सलियों के तम्बू उखड़़ गये।
यदि बिहार में सख्त व सभी पक्षों को मान्य बटाईदारी कानून बन जाता तो नक्सली समस्या से निजात पाने में राज्य सरकार को कुछ और भी सुविधा हो जाती। पर चुनाव लड़ने वाली किसी पार्टी के लिए यह काम अब असंभव नहीं तो कठिन जरूर हो गया है। योजना आयोग के पूर्व सचिव एन.सी. सक्सेना ने गत 18 अप्रैल को कहा कि ‘बिहार के मगध क्षेत्र में 30 प्रतिशत बटाईदार हैं। जाहिर है कि सरकार की सब्सिडी योजना का उन्हें कोई फायदा नहीं मिलता।’ हालांकि नक्सली समस्या के पीछे बटाईदारी समस्या का कम ही हाथ है। समस्याएं और भी हैं और गहरी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी गत 16 फरवरी 2010 को कहा कि ‘केवल हथियारों का सहारा लेने के बजाए सरकार को विकास कार्य तेज करना चाहिए।’
जून, 2006 में बिहार में भूमि सुधार आयोग बना। रिटायर आई.ए.एस., डी. बंदोपाध्याय उसके अध्यक्ष थे। आयोग ने अपनी रपट राज्य सरकार को दी। उस रपट में अन्य बातों के अलावा बटाईदारों को कारगर हक देने की सिफारिश है। गत साल जुलाई में नीतीश सरकार के एक मंत्री ने यह बयान दे दिया कि इसे लागू करने पर बिहार सरकार विचार कर रही है। फिर क्या था ! जमीन वालों की जमात नाराज हो गई और सितंबर में हुए उप चुनावों में राजग उम्मीदवारों को बुरी तरह हरा दिया। 18 विधान सभा क्षेत्रों में से 13 सीटों पर राजग हार गया। अब यह बात तय है कि नीतीश सरकार इसे लागू नहीं करेगी। यदि नीतीश सरकार अगले विधानसभा चुनाव के बाद फिर से सत्ता में आ भी जाए तोभी उसे वह लागू नहीं करेगी, ऐसा संकेत मिल रहा है। क्योंकि इस मुददे पर नीतीश सरकार काफी डर गई है। पर प्रतिपक्षी दल जमीन वालों को इस भावी बटाईदारी कानून का भय दिखा कर राजग के खिलाफ हवा बनाने की कोशिश जरूर कर रहे हैं। पता नहंीं अगले बिहार विधानसभा चुनाव में इसका क्या नतीजा होगा। इससे इस मामले की संवेदनशीलता और फिर इसकी गंभीरता का पता चलता है। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि इससे यह भी पता चलता है कि इस समस्या को हल करना कितना जरूरी है। पर कई अन्य लोग इस स्थापना से सहमत नहीं हैं। पश्चिम बंगाल में इस भूमि आयोग को जो सफलता मिली, उससे श्री बंदोपाध्याय को एक खास तरह की विश्वसनीयता मिली हुई है। तब बंगाल में नक्सली आंदोलन ठंडा पड़ा था। पर जब गरीबों के विकास व कल्याण के दूसरे काम वाम सरकार ने नहीं किए तो नक्सली फिर पनप गये। बंदोपाध्याय ने भी कहा था कि बिहार की भूमि समस्या पश्चिम बंगाल की समस्या से बिल्कुल अलग हैं। बिहार की भूमि समस्या अधिक जटिल है। इसीलिए उन्होंने भूमि हदबंदी, चकबंदी, भूमि अभिलेख , बटाईदारी, अतिक्रमण, भूदान में प्राप्त जमीन के वितरण की समस्याओं पर अपनी रपट दी। बंगाल का कथित क्रांतिकारी बटाईदारी कानून जब नक्सलियों को पनपने से अंततः नहीं रोक सका तो बिहार में बंदोपाध्याय रपट कैसी क्रांति कर देगी,यह देखना दिलचस्प होगा।याद रहे कि बंगाल में बंटाईदारी कानून कुछ ही दिनों तक नक्सलियों को उभरने से रोक सका था।असल काम तो हर जगह आम विकास का अधिक होना चाहिए था जो देश में काफी कम हो रहा है। बिहार में करीब सत्तर प्रतिशत लोग खेती और उससे जुड़े धंधे पर निर्भर करते हैं।खेती को लेकर अनेक समस्याएं हैं।खेती के विकास से राज्य का विकास भी जुड़ा हुआ है।खेती से जुड़े लोगों की आमदनी बढ़ाए बिना राज्य में उद्योगों के विकास की कल्पना भी फिजूल है। सत्तर प्रतिशत लोगों की आय नहीं बढ़ेगी तो छोटे बड़े कारखानों से उत्पादित माल खरीदेंगे कितने लोग ? जनवरी, 2007 में नीतीश कुमार की सरकार ने पटना में एक शानदार ग्लोबल मीट कराया। इस मीट में बाहर से आए लोगों से राज्य में उद्योग लगाने की अपील की गईं।उद्योग लगाने के लिए लोगों को आमंत्रित करना भी जरूरी है।पर, क्या घोड़े के आगे तांगे को लगाया जाएगा ? खेती में आय बढ़ेगी तभी उनकी क्रय शक्ति बढ़ेगी और तभी किसान अपने परिवार के सदस्यों की जरूरतों के अनुसार सामान खरीदेगा जो कारखानों में पैदा होते हैं। अभी गांवों की बहुत बड़ी आबादी अपने बच्चों के लिए जरूरत के मुताबिक जूते,कपड़े,स्लेट,कागज, कलम, पेंसिल आदि भी नहीं खरीद पाती। खेती के विकास में सबसे बड़ी बाधा यह है कि खेती लायक जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा उनके पास है जो खुद खेती नहीं करते।ऐसी स्थिति में खेती के साथ भारी लापारवाही होती है।कुछ खेत ऐसे ही बंजर छोड़ दिए जाते हैं।खेती में सिंचाई का उचित प्रबंध नहीं रहने के कारण भी खेती से आय कम है। खेती की पैदावार को बाजारों तक आसानी से पहुंचाने के लिए बिहार में अच्छी सड़कों की पिछले वर्षों में भारी कमी रही है।अब जरूर बन रही हैं।पर उन सड़कों की गुणवत्ता पर सवाल उठ रहे हैं।खेती योग्य जमीन का असमान बंटवारा भी अविकास का एक बड़ा कारण है।एक मोटे अनुमान के अनुसार बिहार में अब भी करीब सवा लाख ऐसे भूमिपति हैं जिनके पास औसतन 45 एकड़ या उससे अधिक जमीन है। अस्सी भूमिपतियों के पास 500 से 2000 एकड़ जमीन अब भी है।याद रहे कि बिहार में भूमि हदबंदी की अधिकतम सीमा 15 एकड़ से 45 एकड़ तक ही है।यानी सिंचाईयुक्त जमीन 15 एकड़ और अन्य 45 एकड़।पर इस कानून का राज्य भर में भारी उलंघन हो रहा है।जो गलती जमींदारी उन्मूलन के समय हुई,उसका खामियाजा राज्य अब तक भुगत रहा है।भूमि सुधार कानून तो बने ,पर उनका उलंघन भी बड़े पैमाने पर हुआ।उलंघन में राजनीतिक और प्रशासनिक कार्यपालिका का एक हिस्सा भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहयोगी रहा है।ऐसा स्वार्थवश हुआ।राजनीतिक और प्रशासनिक कार्यपालिका के सदस्यों का आमतौर पर बड़ा हिस्सा आजादी के बाद भूमिपति परिवारों से ही आया।बिहार में नक्सलियों को अपनी जड़ें जमाने का जो मौका मिला,उसका यह सब कारण रहा है।यानी नक्सली समस्या भूमि समस्या से सीधे तौर पर जुड़ी हुई है। नक्सलियों ने साठ के दशक में जिन तीन प्रमुख मांगों को लेकर बिहार के गरीबों को संगठित किया,उनमें भूमिपतियों से हदबंदी से फाजिल जमीन को छीनने का एजेंडा मुख्य रहा।दूसरी लड़ाई गैर मजरूआ जमीन को दबंगों के हाथों से निकाल कर उन्हें जरूरतमंद गरीब लोगों में वितरित करने के लिए थी।वे ही उनके असली कानूनी हकदार भी हैं।तीसरी मांग यह होती रही कि सरकार ने खेतिहर मजदूरों के लिए जो न्यूनत्तम मजदूरी तय की है,उसे लागू किया जाए।ये तीनों काम खुद सरकारी मशीनरी को करने चाहिए थे।इन्हें करने के लिए राज्य सरकार ने प्रखंड से लेकर राज्य मुख्यालय तक कर्मचारियों और अफसरों की भारी फौज भी खड़ी कर रखी है।उस पर तनख्वाह के रूप में सरकार भारी खर्च भी करती है।पर उसका इच्छित लाभ नहीं होता। परिणामस्वरूप जहां तहां नर संहार होते रहे हैं।इन नर संहारों में अधिक गरीब लोग ही मारे जाते हैं।औरंगाबाद जिले के दलेलचक बघौरा में माओवादी कम्युनिस्ट केंद्र के हथियारबंद गिरोह ने 1987 में 41 लोगों की हत्या कर दी। गैर सरकारी सूत्रों के अनुसार 54 लोग मारे गए।कई लोग घायल हुए थे।घायलों में से कुछ लोगों की बाद में मौत हो गई।इससे पहले दलेल चक के आसपास के परसडीह,दरमिया,आंजन और छोटकी छेछानी में हत्याएं हुई थीं।यानी नरसंहारों की श्रृंखला बनी थी।दलेल चक बघौरा हत्याकांड तो अंतिम कड़ी था।दलेल चक बघौरा कांड को अंजाम देने वालों ने घटनास्थल पर नारा लगाया था कि ‘छोटकी छेछानी का बदला ले लिया।’ इन हत्याकांडों की जड़ में जमीन विवाद ही था।जमीन विवाद को समय पर हल करने में सरकारी विफलता के कारण ही इतने लोगों की जानें गईं।ऐसे उदाहरण राज्य में और भी हैं।पर भूमि सुधार कानून को लागू करने में सरकारी विफलता का सबसे बड़ा उदाहरण यही है। औरंगा बाद जिले के मदन पुर प्रखंड के सलुपरा मठ की जमीन को लेकर खून खराबा हुआ। बगल के गया जिले के जानी बिगहा मठ के महंत ही इस सलुपरा मठ की संपत्ति के मालिक थे। सलुपरा मठ के पास कुल 117 एकड़ जमीन थी। मठ की वह जमीन हदबंदी से फाजिल थी। कानून से बचने के लिए ही जानी पुर मठ के महंत ने अपने एक चेले के नाम सलुपरा मठ की जमीन लिख दी।यह काम उसने गैर कानूनी तरीके से किया।सलुपरा मठ की जमीन वहां के गरीब और पिछड़ी जातियों के लोग बटाई पर जोतते थे।इन गरीबों को उम्मीद थी कि एक न एक दिन जानी बिगहा का महंत इन गरीबों के नाम वह जमीन लिख देगा।महंत तो कभी सलुपरा मठ की जमीन पर जाता भी नहीं था। इस बीच महंत के चेले ने सलुपरा मठ की जमीन में से सत्रह एकड़ जमीन एक दबंग नेता के नाम बेच दी।अब जानी पुर का महंत यह कहने लगा कि उस जमीन को उस नेता के नाम बेचने का अधिकार उसके चेले को था ही नहीं।जानी पुर का महंत बाद में यह चाहने लगा कि सलुपरा मठ की जमीन उससे सरकार ले ले और उसे गरीबों में बांट दे।उधर नेता जी यह कहने लगे कि उन्होंने वह जमीन कानूनी तरीके से ही खरीदी है। यानी यह जमीन विवाद में पड़ गई।मामला राजस्व बोर्ड के विचारार्थ चला गया।राजस्व बोर्ड को भी चाहिए था कि वह मामले का शीघ्र निपटारा कर दे।पर उसने नहीं किया।उधर नेता जी ने उस जमीन पर अपना कब्जा करना चाहा जिसे उन्होंने खरीद लिया था।सलुपरा मठ की जमीन से बटाईदार बेदखल होने लगे।बटाईदारों ने पहले प्रशासन के यहां गुहार लगाई।पर प्रशासन ने अपनी आदत का यहां भी परिचय दिया।फिर बटाईदारों ने माओवादियों की शरण ली।एम.सी.सी.ने उन बटाईदारों की मदद की।नेता जी ने उस जमीन पर अपने एक आदमी को तैनात कर रखा था।माओवादियों ने उसकी हत्या कर दी। नेता जी के एक और मददगार की हत्या कर दी गई। इसके जवाब में नेता जी के लोगों ने बगल के गांव परस डीह में छह लोगों की हत्या कर दी।मृतकों में एम.सी.सी.के दो कार्यकर्ता भी थे। उन पर आरोप था कि इन लोगों ने नेता जी के उस आदमी की हत्या की थी।ये सब होता रहा और प्रशासन सोया रहा।परस डीह का बदला लेने के लिए माओवादियों के नेतृत्व में गरीबों ने दरमिया के ग्यारह राजपूतों की हत्या कर दी।इस पर तत्कालीन मुख्य मंत्री बिंदेश्वरी दुबे दरमिया पहुंच गए।उन्होंने घोषणा की कि अब ‘दरमिया’ नहीं होने दिया जाएगा।औरंगा बाद जिले में एम.सी.सी.के सफाए के लिए टास्क फोर्स लगाया गया।जिले के तेरह प्रमुख नक्सलियों की गिरफ्तारी के लिए इनाम की घोषणा की गई।जिले में सशस़्त्र पुलिस बल की सात कंपनियां तैनात की गईं। उधर नक्सलियों ने अपने समर्थकों को समझाया कि मुख्य मंत्री दरमिया तो गए,पर वे परसडीह नहीं गए।नक्सलियों ने पर्चा छपवाया और बंटवाया,‘परस डीह होता रहे और दरमिया नहीं हो,यह कत्तई नहीं होगा।’औरंगा बाद की खुफिया पुलिस ने यह रपट दी कि सलुपरा मठ की जमीन को लेकर ये सब हत्याएं हो रही हैं। जिले के एस.पी.ने पर्यवेक्षण रपट में लिखा कि उस खास नेता जी की जीप का इस्तेमाल परस डीह हत्याकांड में हुआ।पर नेता जी ने अपनी अग्रिम जमानत के लिए जब जिला अदालत में अर्जी लगाई तो उन्होंने आरोप लगाया कि राजनीतिक कारणों से उन्हें इस केस में फंसाया गया।दरमिया नर संहार के बदला लेते हुए छोटकी छेछानी में एक और नर संहार कर दिया गया।छोटकी छेछानी कांड के प्रतिशोध में माओवादियों ने 29 मई 1987 की रात में दलेल चक बघौरा के 4 1 राजपूतों की हत्या कर दी। इस कांड की गूंज पूरे देश में सुनी गई।इसके बाद ही राज्य सरकार ने सलुपरा मठ की जमीन को भूमिहीनों में बंटवाया।तब जाकर वहां नर संहार रुका।पर उसके पहले नहीं।जमीन के बंटवारे के बाद उस इलाके में इस तरह की हिंसा-प्रतिहिंसा की घटना नहीं ंहुई।जिन भूमिहीनों को सलुपरा मठ की जमीन मिल गई,उन्हें अब माओवादियों के कॉडर बने रहने की जरूरत ही कहां थी ? जमीन विवाद के मामले में औरंगा बाद जिले का शुरू से बुरा हाल रहा है।सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस जिले में 30 सितंबर,1986 तक 4445 एकड़ जमीन हदबंदी से फाजिल घोषित की गई थी।किंतु इनमें से सिर्फ 1438 एकड़ जमीन का ही भूमिहीनों में वितरण हो पाया था।नक्सली समस्या के गहराते जाने के बावजूद राज्य सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया।जब नर संहार तेज हुआ तभी सलुपरा मठ की जमीन बांटी गई।औरंगा बाद जिले का यह मामला तो नमूना मात्र है।पूरे राज्य में राज्य सरकार ने भूमि समस्याओं को इसी तरह लटकाया।तब नक्सलियों के बारे में अस्सी के दशक की तत्कालीन राज्य सरकार की राय थी कि वे चोर डकैत से अलग नहीं हैं। ऐसा ही वाकया सन् 1986 में अरवल में हुआ था।अरवल भी औरंगाबाद से बहुत दूर नहीं है।तब नक्सलियों के फं्रट संगठन एम.के.एस.एस.के नेत्त्व में जुटी भीड़ पर पुलिस ने अरवल में धुंआधार फायरिंग की थी।पुलिस दल का नेत्त्व खुद एस.पी. सी.आर.कासवान कर रहे थे।पुलिस की गोलियों से गरीब लोग मारे गए।गरीब लोग अरवल में स्थित गैर मजरूआ जमीन के एक टुकड़े पर अपना कानूनी हक चाहते थे।जमीन गरीब भूमिहीनों की झोपड़ियों के पास ही थी।बल्कि उनके घर के नाले का पानी भी उसी जमीन पर गिरता था।नहर और झोपड़ी के बीच वह जमीन थी। वे गरीब पकौड़ी बनाकर अरवल बाजार में बेचते थे और अपना जीविकोपार्जन करते थे।वह जमीन उनके लिए बहुत जरूरी थी।जहानाबाद के तब के कर्तव्यनिष्ठ एस.डी.ओ. व्यासजी मिश्र ने उन भूमिहीनों के नाम वह जमीन आवंटित कर दी थी।पर बाद के अफसरों ने उसी जमीन को रिश्वत लेकर एक धनी व्यक्ति के नाम कर दिया। एक ऐसे परिवार के नाम भ्रष्ट अफसरों ने जमीन बंदोबस्त कर दी जिस परिवार में इंजीनियर तथा दूसरे अफसर थे।उस परिवार का बड़ा पक्का मकान इन पंक्तियों के लेखक ने अरवल में देखा था।उसके पास अपनी काफी जमीन भी थी।उस धनी व्यक्ति ने उस जमीन पर जबरन चहारदिवारी खड़ी कर दी तो भूमिहीनों से उसका झगड़ा बढ़ गया।प्रशासन से निराश गरीबों ने मजदूर किसान संग्राम समिति से मदद मांगी।यह संगठन नक्सली संगठन सी.पी.आई./एम.एल.-पार्टी यूनिटी/से जुड़ा हुआ था।बाद में पार्टी यूनिटी और एम.सी.सी.का पीपुल्स वार में विलयन हो गया और संगठन का नया नाम पड़ा,भाकपा/माओवादी/। समिति ने इस प्रशासनिक अन्याय के खिलाफ अरवल में एक जन सभा की।समिति की सभा पर एस.पी.सी.आर.कासवान के निदेश पर पुलिस ने नाहक गोलियां चलाईं और करीब दो दर्जन लोगों को मार डाला।।वहां के कलक्टर अशोक कुमार सिंह ने घटनास्थल के निरीक्षण के बाद गोलीकांड को गैर जरूरी बताया था।फिर भी सरकार ने कासवान के खिलाफ कार्रवाई नहीं की।भूमि समस्या के प्रति सरकार के रूख का इससे साफ पता चलता है।हां,अरवल में जिस भूमि विवाद के चलते नर संहार हुआ था,उस भूमि को राज्य सरकार ने उन्हीं गरीबों में वितरित कर दिया जिन्हें व्यास जी ने पहले एलाट किया था।नतीजतन अब वहां नरसंहार की कोई और घटना नहीं हुई।यानी दलेल चक बघौरा की जमीन विवाद को जिस तरह राज्य सरकार ने बाद में मजबूर होकर सुलझाया,ऐसा ही काम देश की विभिन्न सरकारें अन्य स्थानों में अभियान चला कर पहले ही कर दिया करे तो माओवादियों को कमजोर करने में ठोस मदद सरकारों को मिल जाएगी। श् अरवल और दलेल चक बघौरा जैसी घटनाएं बताती हैं कि पहले से ही मौजूद भूमि सुधार कानूनों को लागू करने के लिए कितनी प्रशासनिक तत्परता की जरूरत है।इन्हें लागू करने से तनावों को दूर किया जा सकता है और नर संहारों को रोका जा सकता है।इन्हें लागू करने के लिए किसी भूमि सुधार आयोग की रपट के इंतजार की जरूरत ही नहीं है।बस राजनीतिक कार्यपालिका में राजनीतिक इच्छा शक्ति चाहिए।क्या वह इच्छा शक्ति है ? छत्तीस गढ़ तथा कुछ अन्य प्रदेशों के आदिवासियों की समस्याएं कुछ दूसरी होंगी।जिन बिंदुओं पर वे प्रशासन से निराश होकर माअेावादियों के पास जा रहे हैं ,उन समस्याओं को हल करके माओवादियों का कमजोर किया जा सकता है।हालांकि ये प्रशासनिक उपाय बल प्रयोग के अलावा और साथ साथ ही होने चाहिए। ऐसा न हो कि राजस्व तथा अन्य विभागों की गलतियों का खामियाजा पुलिस व केंद्रीय बल को ही लगातार भुगतना पडे।नक्सली हिंसा में पुलिसकर्मी ही अधिक मारे जाते हैं।क्योंकि घटनास्थल पर तो उसे ही जाना पड़ता है।चाहे अपराध रोकने के लिए या फिर अपराधहो जाने के बाद।गलती करने वाला संबंधित राजस्व,वन तथा अन्य विभागों के अधिकारी व कर्मचारी तो अनेक मामलों में रिश्वत के पैसों से ऐश कर रहे होते हैं। बिहार सरकार ने 1982 के अपने एक नोट में कहा था कि ‘नक्सली समस्या सामाजिक आर्थिक समस्या है।इसे सिर्फ पुलिस बल से समाप्त नहीं किया जा सकता।’ भूमि हदबंदी से फाजिल जमीन को भूमिपतियों से छीनकर गरीबों में बांटने के काम में थोड़ी बहुत जोर जबर्दस्ती करनी पड़ सकती है।पर पुलिस के लिए वह काम हथियारबंद नक्सलियों से लड़ने की अपेक्षा सस्ता ही पड़ेगा।गैर मजरूआ जमीन को गलत कब्जे से निकालने के लिए भी पुलिस को बल लगाना चाहिए।साथ ही यदि हदबंदी की सीमा कम कर दी जाए तो लाखों एकड़ जमीन निकाल कर गरीबों में बांटी जा सकती है।इससे गरीब लोगों को हिंसा, अपराध और देशद्रोह की राह पर जाने से काफी हद तक रोका जा सकता है।हालांकि ऐसा नहीं है कि सिर्फ गरीब लोग ही इन रास्तों पर जाते हैं।एक बात और।एक विशेषज्ञ ने काफी पहले यह कहा था कि यदि बिहार में जमीन का सही रिकार्ड तैयार हो जाए तो मिनी क्रांति हो जाएगी।इस काम को करने के लिए भी किसी आयोग की रपट के इंतजार की जरूरत नहीं है।आयोग की रपट आ जाने पर भी उसे लागू करने के लिए भी सही रिकार्ड तैयार करना ही होगा।क्या पहले से ही बने भूमि सुधार कानूनों को लागू करने के लिए किसी आयोग की सिफारिशों की प्रतीक्षा करने की जरूरत है ? आदिवासी इलाकों में गरीबी व शोषण की समस्या पर एक सामाजिक कार्यकर्त्ता लक्ष्मी प्रसाद शुक्ल के लंबे नोट के कुछ हिस्से को यहां उधत करना मौजूं होगा।इससे नक्सली समस्या को हल करने की दिशा मंे सरजमीन से एक रोशनी मिल सकती है।वे लिखते हैं,‘उग्रवाद के विकास के कुछ प्रमुख कारण निम्न लिखित हैं1, सामंती महाजनी और वन विभाग के शोषण उत्पीड़न की क्रूर और अमानवीय परंपरा।2.पुलिस प्रशासन की संवेदन शून्यता,शोषकों-उत्पीड़कों की तरफदारी और विरोध और प्रतिरोध की आवाज का दमन।3.लोकतांत्रिक आंदेालनों की निरर्थकता।4.प्रतिनिधि सभाओं में क्षेत्र की आम जनता की समस्याओं के एहसास का अभाव।5.जीविका के साधनों का अभाव तथा आम लोगों की बेरोजगारी और फटेहाली।6.शिक्षा का अभाव और अत्यंत पिछड़ी मानसिकता।7.यातायात सुविधाओं और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव।8.अधिकारियों, ब्लाक अंचल द्वारा संचालित रोजगार योजनाओं की राशि,आत्म समर्पित सामंतों-महाजनों तथा केंद्रु पत्ता ठेकेदारों और वन विभाग से नक्सलियों को मिलने वाली भारी धन राशि।9.हथियारबंद दस्तों का विकास और पुलिस प्रशासन का भ्रष्टाचार तथा निकम्मापन। नक्सली समस्या के समाधान के सिलसिले में अनेक विशेषज्ञ समय समय पर उसका हल सुझाते रहते हैं।पर इस देश के जो मौजूदा हालात हैं,उनमें उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आती।अधिकतर नेता और दल अपनी -अपनी राजनीतिक सुविधा के अनुसार हल सुझाते हैं और सत्ता में आने पर उपाय करते हैं।पर मोटा -मोटी यही उपाय नजर आता है कि देश में वास्तव में यथासंभव कानून का शासन लागू हो।वह सबके लिए समान हो।सरकारी धन को भरसक गरीबों तक पहुंचने देने में जो भी तत्व बाधक हों, उनके खिलाफ जारी मुकदमों को राजनीतिक कारणों से कमजोर नहीं किया जाए।नक्सलियों से अपने चुनाव जीतने के लिए बातचीत की जाए और बाद में उन्हें खत्म करने की घोषणा की जाए ,कई नेताओं और दलों द्वारा समय समय पर अपनाया गया यह दोहरा मापदंड नहीं चलेगा।भ्रष्टाचार और हिंसा के अपराधी कत्तई नहीं बख्शे जाएं।अरवल व दलेल चक बघौरा के नरसंहारों की घटनाओं से नसीहत लेकर राजस्व महकमा और पुलिस थानोें को नियम कानून के पालन के लिए बाध्य किया जाए।नीतीश कुमार सरकार के हाल के उपायों पर ध्यान दिया जाए।विस्थापितों और भीषण गरीबी व भुखमरी की समस्या से जूझ रहे लोगों को कटटर माओवादियों की गिरफत में जाने व उनकी फौज के सिपाही बनने से येन केण प्रकारेण रोका जाए।क्या यह सब करने के लिए इस देश की पक्ष-विपक्ष की राजनीति में पर्याप्त राजनीतिक इच्छा शक्ति मौजूद है ? पता नहीं।

/इस लेख के संपादित अंश जनसत्ता के ं 17 ,18 और 19 जुलाई 2010 के अंकों में प्रकाशित/