‘उदय भान जी, मैं जिस सरकार में मुख्यमंत्री था, उस सरकार का हर एक मंत्री कम-से-कम मुझसे अपने को ताकतवर मान कर चल रहा था। मैं जिस मंत्रिमंडल की बैठक में भू-हदबंदी का प्रस्ताव लाता, उस मंत्रिमंडल की बैठक के बाद मैं जीवित बाहर नहीं आता, मेरी लाश आती। और जानते हैं ? उस बैठक में जो पिछड़ी जाति के सामंत थे, वही पहले मेरी हत्या करते। अगर मुझे जिंदा रह कर गरीब और कमजोर जातियों के लिए कुछ करना था, तो उस प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में ही पड़े रहने देने में मेरी और दलितों पिछड़ों की भलाई थी।
उदयभान जी, मुझे खून का घूंट पीकर रह जाना पड़ता है, जब गरीबों पर अत्याचार होता है और वह अत्याचार अगड़ी जातियों के सामंतांे से पहले पिछड़ी जाति के सामंतों द्वारा होता है। मैं उस दिन के इंतजार में हूं जब ये कमजोर जातियां संगठित होकर सामंतों से जुल्म के एक -एक पल का हिसाब मांगेंगीं। तब बड़े भू-धारी लोग, जो गरीबों का हक मार कर पटना, रांची और दिल्ली में महल खड़ा किये हैं-खुद भाग जायेंगे। पता नहीं, वह दिन कब आयेगा। मैं दिन- रात इसी सोच में डूबा रहता हूं।’
कर्पूरी ठाकुर ने गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर उदयभान त्रिपाठी से यह बात कही थी। कर्पूरी ठाकुर की इस पीड़ा का विवरण उन पर लिखी नरेंद्र पाठक की ‘कर्पूरी ठाकुर और समाजवाद’ नामक पुस्तक में दर्ज है।
उदयभान जी कहते हैं, ‘कर्पूरी जी आपातकाल में नेपाल आते -जाते कई बार मेरे घर रुके थे। मुझसे उनका लगाव बड़ा ही स्नेहपूर्ण था, पर वे जब मुख्यमंत्री रहे, मैं पटना नहीं जा सका। 1980 में जब एक चुनावी सभा में शामिल होने के लिए गोरखपुर आये, तो मेरे घर भी आये थे। भोजन के बाद जब वे आराम कर रहे थे, तब मैंने उनसे अन्य बातों के अलावा भूमि सुधार के संबंध में अपनी जिज्ञासा प्रकट की। मैंने उनसे पूछा कि आप बिहार में भूमि सुधार क्यों नहीं ला सके, जबकि गरीब जातियों का आप पर बहुत विश्वास था ? मेरी इस बात को सुनते ही कर्पूरी जी तमतमा गये और उठ कर बैठ गये। थोड़ी देर चुप रहने के बाद बहुत गंभीर मुद्रा में उन्होंने जो कहा वह जेपी की संपूर्ण क्रांति से उपजी गैर कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार के चरित्र को स्पष्ट कर देता है।’
राज्य भर में व्यापक भूमि सुधार की बात कौन कहे, कोसी क्षेत्र में सीमित दायरे में भूमि विकास के जरिये ‘कोसी क्रांति’ लाने की जेपी और बीजी वर्गिस की कोशिश वहां के सवर्ण भूमिपतीपक्षी जनता पार्टी विधायकों ने विफल कर दी। यह भी कर्पूरी ठाकुर की सरकार के कार्यकाल की बात ही है। भूमि सुधार कानूनों को लागू करना और समयानुसार उनमें संशोधन करना गरीब बिहार के लिए कितना जरूरी है, यह बात समय -समय पर विशेषज्ञ बताते रहे हैं। पर राजनीतिक कार्यपालिका यह काम यदि आज तक नहीं कर सकी है, तो उसके कारण हंै। उसकी स्पष्ट झलक कर्पूरी जी की बातों से मिलती है।
बाद के शासकों ने भी इस नाजुक विषय को छेड़ना ‘राजनीतिक दृष्टि से’ ठीक नहीं समझा। नीतीश सरकार राज्य का व्यापक आम विकास करके भूमि सुधार की कमी को शायद पूरा करना चाहती है। मौजूदा सरकार ने भूमि सुधार के लिए बंदोपाध्याय कमेटी बनायी। रपट भी आ गयी, पर लगता है कि वह काम इस सरकार की प्राथमिकता में नीचे स्थान रखता है। हां, नीतीश सरकार एक अन्य महत्वपूर्ण काम जरूर करना चाह रही है, जो भूमि सुधार से अधिक महत्वपूर्ण है। वह है राज्य सरकार में व्याप्त भीषण भ्रष्टाचार का खात्मा।
मामूली भ्रष्टाचार तो अंगरेजों के राज में भी था, पर भीषण भ्रष्टाचार तो विकास और कल्याण की कोशिश को ही विफल कर देता है। राज्य सरकार का इस साल का विकास बजट करीब 13 हजार करोड़ रुपये का है। यदि भ्रष्टाचार पर काबू नहीं पाया गया, तो टिकाउ निर्माण ही नहीं हो पायेगा। यदि टिकाउ निर्माण नहीं होगा, तो न तो पूंजी का निर्माण होगा और न ही नये रोजगार का सृजन।
कर्पूरी ठाकुर ने तो 1978 में पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियों मंे आरक्षण देने में तो सफलता पा ली थी। उन्होंने मुख्यमंत्री की कुरसी को भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद से परे रखा। इस तरह उस कुरसी की गरिमा को एक बार फिर कायम किया। उनकी कुछ और भी उपलब्धियों रहीं, पर सरकार से भ्रष्टाचार कम करने में वे भी विफल रहे और यह काम इसलिए नहीं हो पाया, क्योंकि उनके ही दल के अनेक मंत्री, विधायक और सांसद भ्रष्टाचार पर हमले के खिलाफ थे। कम-से-कम वे तब तिलमिला उठते थे, जब उनकी जाति के किसी अफसर पर भ्रष्टाचार को लेकर कोई कार्रवाई होती थी।
हालांकि सारे नेता तब ऐसे नहीं थे, पर वे इतनी संख्या में जरूर थे, ताकि वे निर्णायक साबित हो जायें, जबकि आज की अपेक्षा बिहार के सत्ता और प्रतिपक्ष की राजनीति में अपेक्षाकृत अधिक ईमानदार नेता तब मौजूद थे। इस पृष्ठभूमि में भ्रष्टाचार के खिलाफ नीतीश कुमार के ताजा अभियान के सामने आ रही कठिनाइयों को समझा जा सकता है।
इस संबंध में एक उदाहरण काफी होगा। सत्तर के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के शासनकाल में बिहार के एक वरिष्ठ पुलिस अफसर के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे। उन आरोपों की जांच की सीबीआइ से कराने की जरूरत तत्कालीन मुख्य सचिव ने महसूस की। मामला कर्पूरी ठाकुर के सामने गया। मुख्यमंत्री ने सहमति दे दी। यह खबर जब उस अफसर को मिली, तो उसने स्वजातीय सांसद-विधायकों की बैठक करा दी। वह अफसर पिछड़ी जाति का ही था। स्वजातीय विधायकों ने कर्पूरी ठाकुर को धमकी दी कि यदि सीबीआइ जांच हुई, तो आपकी सरकार गिर जायेगी। जांच नहीं हुई। नतीजतन शासन में भ्रष्टाचार बढ़ा। बढ़ता ही गया। आज स्थिति यह है कि शासन के भ्रष्टाचारियों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करने में नीतीश कुमार को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। देखना यह है कि जिन मामलों में कर्पूरी ठाकुर को निहितस्वार्थी तत्वों ने सफल होने नहीं दिया उन मामलों में नीतीश कुमार सफल होते हैं या नहीं !
उदयभान जी, मुझे खून का घूंट पीकर रह जाना पड़ता है, जब गरीबों पर अत्याचार होता है और वह अत्याचार अगड़ी जातियों के सामंतांे से पहले पिछड़ी जाति के सामंतों द्वारा होता है। मैं उस दिन के इंतजार में हूं जब ये कमजोर जातियां संगठित होकर सामंतों से जुल्म के एक -एक पल का हिसाब मांगेंगीं। तब बड़े भू-धारी लोग, जो गरीबों का हक मार कर पटना, रांची और दिल्ली में महल खड़ा किये हैं-खुद भाग जायेंगे। पता नहीं, वह दिन कब आयेगा। मैं दिन- रात इसी सोच में डूबा रहता हूं।’
कर्पूरी ठाकुर ने गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर उदयभान त्रिपाठी से यह बात कही थी। कर्पूरी ठाकुर की इस पीड़ा का विवरण उन पर लिखी नरेंद्र पाठक की ‘कर्पूरी ठाकुर और समाजवाद’ नामक पुस्तक में दर्ज है।
उदयभान जी कहते हैं, ‘कर्पूरी जी आपातकाल में नेपाल आते -जाते कई बार मेरे घर रुके थे। मुझसे उनका लगाव बड़ा ही स्नेहपूर्ण था, पर वे जब मुख्यमंत्री रहे, मैं पटना नहीं जा सका। 1980 में जब एक चुनावी सभा में शामिल होने के लिए गोरखपुर आये, तो मेरे घर भी आये थे। भोजन के बाद जब वे आराम कर रहे थे, तब मैंने उनसे अन्य बातों के अलावा भूमि सुधार के संबंध में अपनी जिज्ञासा प्रकट की। मैंने उनसे पूछा कि आप बिहार में भूमि सुधार क्यों नहीं ला सके, जबकि गरीब जातियों का आप पर बहुत विश्वास था ? मेरी इस बात को सुनते ही कर्पूरी जी तमतमा गये और उठ कर बैठ गये। थोड़ी देर चुप रहने के बाद बहुत गंभीर मुद्रा में उन्होंने जो कहा वह जेपी की संपूर्ण क्रांति से उपजी गैर कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार के चरित्र को स्पष्ट कर देता है।’
राज्य भर में व्यापक भूमि सुधार की बात कौन कहे, कोसी क्षेत्र में सीमित दायरे में भूमि विकास के जरिये ‘कोसी क्रांति’ लाने की जेपी और बीजी वर्गिस की कोशिश वहां के सवर्ण भूमिपतीपक्षी जनता पार्टी विधायकों ने विफल कर दी। यह भी कर्पूरी ठाकुर की सरकार के कार्यकाल की बात ही है। भूमि सुधार कानूनों को लागू करना और समयानुसार उनमें संशोधन करना गरीब बिहार के लिए कितना जरूरी है, यह बात समय -समय पर विशेषज्ञ बताते रहे हैं। पर राजनीतिक कार्यपालिका यह काम यदि आज तक नहीं कर सकी है, तो उसके कारण हंै। उसकी स्पष्ट झलक कर्पूरी जी की बातों से मिलती है।
बाद के शासकों ने भी इस नाजुक विषय को छेड़ना ‘राजनीतिक दृष्टि से’ ठीक नहीं समझा। नीतीश सरकार राज्य का व्यापक आम विकास करके भूमि सुधार की कमी को शायद पूरा करना चाहती है। मौजूदा सरकार ने भूमि सुधार के लिए बंदोपाध्याय कमेटी बनायी। रपट भी आ गयी, पर लगता है कि वह काम इस सरकार की प्राथमिकता में नीचे स्थान रखता है। हां, नीतीश सरकार एक अन्य महत्वपूर्ण काम जरूर करना चाह रही है, जो भूमि सुधार से अधिक महत्वपूर्ण है। वह है राज्य सरकार में व्याप्त भीषण भ्रष्टाचार का खात्मा।
मामूली भ्रष्टाचार तो अंगरेजों के राज में भी था, पर भीषण भ्रष्टाचार तो विकास और कल्याण की कोशिश को ही विफल कर देता है। राज्य सरकार का इस साल का विकास बजट करीब 13 हजार करोड़ रुपये का है। यदि भ्रष्टाचार पर काबू नहीं पाया गया, तो टिकाउ निर्माण ही नहीं हो पायेगा। यदि टिकाउ निर्माण नहीं होगा, तो न तो पूंजी का निर्माण होगा और न ही नये रोजगार का सृजन।
कर्पूरी ठाकुर ने तो 1978 में पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियों मंे आरक्षण देने में तो सफलता पा ली थी। उन्होंने मुख्यमंत्री की कुरसी को भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद से परे रखा। इस तरह उस कुरसी की गरिमा को एक बार फिर कायम किया। उनकी कुछ और भी उपलब्धियों रहीं, पर सरकार से भ्रष्टाचार कम करने में वे भी विफल रहे और यह काम इसलिए नहीं हो पाया, क्योंकि उनके ही दल के अनेक मंत्री, विधायक और सांसद भ्रष्टाचार पर हमले के खिलाफ थे। कम-से-कम वे तब तिलमिला उठते थे, जब उनकी जाति के किसी अफसर पर भ्रष्टाचार को लेकर कोई कार्रवाई होती थी।
हालांकि सारे नेता तब ऐसे नहीं थे, पर वे इतनी संख्या में जरूर थे, ताकि वे निर्णायक साबित हो जायें, जबकि आज की अपेक्षा बिहार के सत्ता और प्रतिपक्ष की राजनीति में अपेक्षाकृत अधिक ईमानदार नेता तब मौजूद थे। इस पृष्ठभूमि में भ्रष्टाचार के खिलाफ नीतीश कुमार के ताजा अभियान के सामने आ रही कठिनाइयों को समझा जा सकता है।
इस संबंध में एक उदाहरण काफी होगा। सत्तर के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के शासनकाल में बिहार के एक वरिष्ठ पुलिस अफसर के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे। उन आरोपों की जांच की सीबीआइ से कराने की जरूरत तत्कालीन मुख्य सचिव ने महसूस की। मामला कर्पूरी ठाकुर के सामने गया। मुख्यमंत्री ने सहमति दे दी। यह खबर जब उस अफसर को मिली, तो उसने स्वजातीय सांसद-विधायकों की बैठक करा दी। वह अफसर पिछड़ी जाति का ही था। स्वजातीय विधायकों ने कर्पूरी ठाकुर को धमकी दी कि यदि सीबीआइ जांच हुई, तो आपकी सरकार गिर जायेगी। जांच नहीं हुई। नतीजतन शासन में भ्रष्टाचार बढ़ा। बढ़ता ही गया। आज स्थिति यह है कि शासन के भ्रष्टाचारियों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करने में नीतीश कुमार को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। देखना यह है कि जिन मामलों में कर्पूरी ठाकुर को निहितस्वार्थी तत्वों ने सफल होने नहीं दिया उन मामलों में नीतीश कुमार सफल होते हैं या नहीं !
प्रभात खबर (24 जनवरी, 2009)
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